शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कितना समय तो तंबाकू ही ले लेता है...


मैं अकसर इस बात पर ध्यान करता हूं कि प्रतिदिन अस्पताल में काम करते हुए हमारा कितना समय तो यह तंबाकू ही खा लेता है।
सरकारी अस्पताल में काम करता हूं और प्रतिदिन कुछ मरीज़ –कुछ तो बहुत ही छोटी उम्र के– ऐसे आ ही जाते हैं जिन के मुंह में तंबाकू, गुटखा, पानमसाला, बीड़ी, सिगरेट आदि से होने वाले कैंसर की पूर्वावस्था दिख जाती है। ऐसे में कैसे मैं अपने आप को इन लोगों के साथ १०-१५ मिनट बिताने से रोक पाऊं। और बिना इतना समय बिताए बात बनती दिखती नहीं।
पहले तो मैं इन लोगों के मुंह के उस हिस्से का फोटो लेता हूं ..फिर उसे उन्हें दिखा कर यह समझाने की कोशिश करता हूं कि तंबाकू ने किस तरह से मुंह के अंदर की चमड़ी को खराब कर दिया है और किस तरह से आगे इसे बदतर होने से बचाया जा सकता है।
उस समय वे लोग बड़े रिसैप्टिव जान पड़ते हैं –हर बात ध्यान से सुनते हैं और लगता है कि आज के बाद ये लोग इन सब पदार्थों का सेवन बंद कर देंगे। हमें बातचीत करते अहसास तो हो ही जाता है कि कौन हमारी बात पर अमल करेगा और कौन यूं ही बस सुन रहा है क्योंकि कोई कह रहा है!
मुझे बहुत बार लगता है कि किसी बंदे की लाइफ़ से तंबाकू को दूर करना अपने आप में एक बड़ा काम है। और सरकारी अस्पतालों के डाक्टर तो इस में विशेष भूमिका निभा सकते हैं।
सरकारी और प्राईव्हेट डाक्टरों में मैंने यहां इसलिए डिफरैंशिएट किया क्योंकि भारत में कम से कम प्रिवेंटिव सलाह का कोई खरीददार तो है नहीं….अर्थात् किसी को इस तरह की बातें बेचना कि आप लोग तंबाकू को छोड़ कर किस तरह से अनेकों बीमारियों से बच सकते हैं, यह सब किसी की कहना… सुनने वाला सोचता होगा कि इस में नया क्या है, घर में सभी तो मेरे को यही बातें कह रहे हैं तंबाकू छोड़ने के लिए और मैं भी कोशिश तो कर ही रहा हूं इतने वर्षों से छोड़ने के लिए!
प्राईव्हेट प्रैक्टिस करने वाले डाक्टर से यह उम्मीद करना कि वह किसी मरीज़ को समझाने-बुझाने में १५-२० मिनट लगाए और उसे इस के लिए कम से कम ४००-५०० रूपये की फीस मिले …मुझे तो यह नहीं लगता। कौन देगा इस तरह की सलाह की फीस, बेशक इस तरह का परामर्श बेशकीमती तो है ही, लेकिन फिर भी कोई फोकट में यह सब बांट रहा हो तो मज़बूरी है लेकिन अगर इस सलाह के लिए पैसे-वैसे देने पड़ें तो ना..बाबा ना…हमें नहीं चाहिए यह नसीहत की घुट्टी। अपने आप छोड़ लेंगे, यह लत छोड़ने की कोशिश तो कर ही रहे हैं, कोई बात नहीं…कम ही पीते हैं।
इसलिए यह आशा नहीं करनी चाहिए कि प्राईव्हेट में कोई डाक्टर मुफ़्त में इतना इतना समय हर तंबाकू इस्तेमाल करने वाले के साथ बिताएगा… और वह इस के लिए अपने अन्य मरीज़ों का समय इस्तेमाल करेगा, ऐसा कैसे हो सकता है। अब एक डैंटिस्ट की ही बात कीजिए, अगर वह इस काम में लगा रहेगा, तो उस के अन्य मरीज़ –फिलिंग, आरसीटी, औक क्रॉउन लगवाने वाले मरीज़ों का क्या होगा, भाई उस ने भी अपने परिवार का भरन-पोषण करना है।
सारा दिन तंबाकू एवं अन्य ऐसे उत्पादों के बुरे प्रभावों के प्रति सचेत करते इतना समय निकल जाता है कि कईं बार तो झल्लाहट होने लगती है…..यार सारा कुछ तो इन वस्तुओं की पैकिंग पर लिखा रहता है कि इस के खाने से जान जा सकती है, कैंसर हो सकता है और अब तो इतनी भयानक तस्वीरें भी इन के ऊपर छपने लगी हैं, और सब से ज़्यादा दुःख तब होता है कि जब किसी मरीज़ से पूछो कि तुम्हें पता है कि इसे खाने से क्या होता है…तो वह तुरंत कह देता है ..हां, हां, वह सब तो पैकेट के ऊपर लिखा तो रहता ही है।
पता नहीं कितने लोग हमारी बात सुन कर उसे मानते भी होंगे …. अपने घर में तो हम लोग बदलाव ला नहीं पाए, मैं पिछले २५-३० वर्षों से अपने बड़े भाई को धूम्रपान के लिए मना कर रहा हूं लेकिन उन्होंने भी नहीं छोड़ो…हां, हां, मैंने बहुत कम कर दिए हैं, अब सिर्फ़ चार-पांच सिगरेट ही लेता हूं…..लेकिन ज़हर तो ज़हर है ही!
एक श्रेणी और भी दिखती है जिन्हें तंबाकू आिद के सेवन से कोई भयंकर रोग हो जाता है…बहुत भयंकर, आप समझ सकते हैं मैं क्या कहना चाह रहा हूं …और बड़े गर्व से कहते हैं कि पंद्रह दिन से तंबाकू भी बिल्कुल छोड़ दिया है। लेकिन जब चिड़िया खेत पहले ही चुग कर जा चुकी है तो बाद में पछताने से तो लकीर को पीटने वाली बात ही लगती है। इसलिए शाबाशी तो दूर, उन की इस बात पर कोई मूक प्रतिक्रिया तक देने की इच्छा नहीं होती।
सब से बढ़िया है कि हर प्रकार के तंबाकू प्रोडक्ट से कोसों दूर रहा जाए, यह आग का खतरनाक खेल है, छोटी छोटी उम्र में लोगों को इस से तिल तिल मरते देखा है।
कितनी जगहों पर तो प्रतिबंध लगा है इन सब वस्तुओं की बिक्री पर लेकिन हर जगह धड़ल्ले से बिक रहा है, खुले आम लोग खरीद खरीद कर बीमार–बहुत बीमार हुए जा रहे हैं।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों का दुरूपयोग

कल के पेपर में यह खबर देख कर चिंता हुई कि हरियाणा में पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों का किस तरह से दुरूपयोग हो रहा है और किस तरह से दोषियों की धर-पकड़ जारी है... Haryana drive against female foeticide. 

इन मशीनों के बारे में जानने के लिए चार वर्ष पुराने मेरे इस लेख के लिंक पर क्लिक करिए... आ गया है..पाकेट साइजड अल्ट्रासाउंड। और फिर उस के बाद जब महाराष्ट्र ने इन मशीनों पर प्रतिबंध लगा दिया तो भी यही ध्यान में आ रहा था कि इस तरह की मशीनों के दुरूपयोग का अंदेशा तो बना ही रहेगा।

 अब हरियाणा में जन्म से पूर्व शिशु के सैक्स का पता करने हेतु इस तरह की मशीनों के अंधाधुंध प्रयोग से प्रदेश में सैक्स अनुपात पर कितना बुरा असर पड़ेगा, यह चिंता का विषय तो है ही।

खबर में आप देख सकते हैं कि इस तरह की मशीनें चीन से लाई जा रही हैं और फिर इन का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। बात यह भी है कि क्या इस तरह के गोरखधंधे हरियाणा में ही हो रहे हैं या फिर वहां इस का गंभीरता से संज्ञान लिया गया है और कार्यवाही की जा रही है। ऐसा कैसे हो सकता है कि देश के अन्य क्षेत्र इस के दुरूपयोग से बच पाए हों?

वैसे यह कोई नई बात नहीं है, जब इस तरह की मशीनें चार वर्ष पहले बाज़ार में आईं तो ही लग रहा था कि इन का दुरूपयोग भी ज़रूर होगा।

बड़ी दुःखद बात है कि कुछ तत्व बढ़िया से बढ़िया आविष्कार को भी अपने निजी स्वार्थ के लिए बदनाम कर देते हैं.....जो उपकरण बनते हैं मानवता के कल्याण के लिए उन्हें की मानवता के ह्ास के लिए इस्तेमाल किया जाने लगता है।

सोचने वाली बात यह भी है कि अब हर बात का दोष सरकार के माथे थोप देने से भी नहीं चलने वाला.......सरकारी कर तो रही है अल्ट्रासाउंड सैंटरों पर सख्ती, मीडिया में खबरें दिखती ही रहती हैं कि किस तरह से विभिन्न सैंटरों पर छापेमारी की जाती है, इन सैंटरों को सील किया जाता है, और दोषी डाक्टरों तक के ऊपर केस चलाए जाते हैं।

लेिकन अब सब से चिंता का विषय यह है कि सैंटरों की भी ज़रूरत नहीं, इस तरह की पोर्टेबल मशीनें जेब में डाल कर इन का कितनी आसानी से दुरूपयोग किया जा रहा है। अब सरकारें किस किस की जेब में घुसें....सच में बड़ी सिरदर्दी है। यही दुआ की जाए कि लोगों को ही ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करे ताकि वे इस तरह के कुकृत्यों से बच सकें। आमीन !!



मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

डाक्टरों की भर्ती में भी बोली..

Credit:  www.kajal.tk

विषय कोई इतना लीक से हट कर भी नहीं लगता ... बोली तो आज कल बहुत सी जगहों पर लगने लगी है, क्रिकेट में भी लग रही है। क्रिकेट की बोली तो व्ही-आई-पी बोली हो गई.....१४ करोड़ में भी कोई कोई खिलाड़ी खरीद लिया जाता है (या बिक जाता है)।

बोली इस तरह की भी देखी सुनी ... कुछ राज्यों में कुछ चिकित्सा ईकाईयों को ठेके पर चलाने के लिए दिया गया, और यह भी बोली के आधार पर ही होता है।

कभी कभी अखबार में यह भी दिख जाता है कि किसी ट्रेन में जो डाक्टरी टीम जायेगी उस का भी ठेका सा ही दे दिया जाता है।

ठीक है, विचार आते हैं... जाते हैं.... विचारों का क्या है, लेकिन कुछ दिन पहले  टाइम्स ऑफ इंडिया में एक विज्ञापन देख कर तो मैं दंग रह गया। मैंने ऐसा विज्ञापन पहले कभी नहीं देखा था। श्रीमति जी ने भी यही कहा कि उन्होंने भी डाक्टरों की भर्ती से संबंधित ऐसा विज्ञापन पहले नहीं देखा।

केन्द्र सरकार के अंतर्गत एक अस्पताल में शिशु रोग विशेषज्ञ, फ़िज़िशियन, दंत चिकित्सक, महिला चिकित्सा अधिकारी, लैब टैक्नीशियन, क्लीनिकल साईकॉलोजिस्ट एक वर्ष के लिए भर्ती किये जाने हैं।

अस्पताल का नाम मैं यहां नहीं लिख सकता........

हर पोस्ट के आगे लिखा था कि कौन से डाक्टर को हफ्ते में कितने दिन कितने घंटे के लिए एंगेज किया जायेगा।
यहां तक तो ठीक था, लेकिन अगली बात बहुत ही अजीब सी लगी.......

"The candidates are required to intimate their remuneration (payment) they expect per visit for the fixed duration. The candidate will be selected based on lowest payment per visit asked by them/negotiated and personal interview at the time of selection."
"आवेदनकर्ता यह सूचित करें कि वे प्रत्येक विज़िट के लिए कितनी रकम की अपेक्षा करते हैं। आवेदनकर्ताओं का चयन सब से कम मांगी गई रकम एवं साक्षात्कार के आधार पर किया जायेगा।" 
बहुत महसूस हुआ यह विज्ञापन देख कर........कोई न्यूनतम् रेट नहीं, कोई फिक्स रेट नहीं कि हम इतना मानदेय देंगे ... और फिर इंटरव्यू में आने वालों में से जो प्रशासन के मापदंडों पर सही उतरें, उन की नियुक्ति कर ली जाए।
मैं सोच रहा हूं कि क्या मैडीकल वर्करों की भर्ती के लिए इस तरह की बोली लगवाना सही है?

विज्ञापन में लिखा तो है ना कि चयन सब से कम मांगी गई फीस एवं साक्षात्कार के आधार पर किया जायेगा लेकिन सब के कम मांगी गई फीस को कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जायेगा, मुझे ऐसा लगता है। विजिलेंस के डर से, नहीं तो ऑडिट के झंझट से बचने के लिए न्यूनतम् फीस मांगने वालों को ही अकसर रख लिया जाता है क्योंकि सरकारी तंत्र में इस से सेफ़ कोई रास्ता किसी को दिखता नहीं।

अब बात यह उठती है कि क्या यह सब से सस्ता डाक्टर जो भर्ती किया जाता है, क्या यह मरीज़ों के हितों के लिए ठीक होता है?...आप स्वयं इस का निर्णय कर सकते हैं। पहली बात तो यह है कि मैं अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि इस तरह की भर्ती के लिए अकसर वे लोग ही अप्लाई करते हैं जिन की प्राईव्हेट प्रैक्टिस ठीक नहीं चल रही हो। वरना कौन सा काम धंधे वाला चिकित्सक अपने कीमती ३ घंटे (आने जाने का समय जोड़ें तो आधा दिन ही हो गया)...इस तरह की पोस्ट के लिए देना चाहता है?

 एक बात तो यह है कि सब से कम कीमत में जो इस तरह के काम के लिए आयेगा उस की अपनी निजी प्रैक्टिस कम चल रही होगी...कारण कुछ भी हो सकते हैं, पर्याप्त अनुभव का अभाव या फिर कुछ अन्य कारण जिस के बारे में यध्यपि यहां उपर्युक्त न होगा, लेकिन फिर भी लोग समझते हैं। और एक कारण हो सकता है कि जो न्यूनतम् रेट पर इस तरह की व्यवस्था के अधीन काम करने आयेगा, उस का उद्देश्य यह भी हो सकता है कि चलो जब सरकारी अस्पताल के मरीज़ उस के प्राईव्हेट क्लीनिक में आना शुरू हो जाएंगे तो भरपाई अपने आप हो ही जाएगी।

ऐसे में मरीज़ के हित में क्या है? मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि इस तरह के बोली के आधार पर डाक्टरों की भर्ती का जो नया फैशन चल निकला है, उस पर रोक लगनी चाहिए....... इतनी प्रोफैशनली क्वालीफाईड कम्यूनिटी के साथ ऐसा कैसे चल सकता है।

आप हर पोस्ट का एक मानदेय नियत करें और उसे विज्ञापन में दर्शा दें........जिसे ठीक लगेगा वह अप्लाई करेगा, और जो आएंगे उन में से आप सर्वश्रेष्ठ को ले लें।

इस तरह की व्यवस्था जिस में डाक्टरों को एक तरह से बोली लगाने को कहा जा रहा है.. अजीब सी बात लगती है क्योंकि मैं अकसर विभिन्न जगहों पर इंटरव्यू लेने जाता रहता हूं और पार्ट-टाइम दंत चिकित्सक की एक पोस्ट के लिए ४०-५० से लेकर ६०-७० उम्मीदवार तो आते ही हैं। अब अगर सोचें कि अगर हम लोग उन्हें हम भी २०हज़ार रूपये के मानदेय के स्थान पर अपना अपना स्वीकार्य मानदेय लिख कर भेजने को कहेंगे तो क्या होगा........कल्पना करिए कि कैसे हो पायेगा फिर सही उम्मीदवार का चयन ...अगर न्यूनतम् बोली को ही प्राथमिकता दी जायेगी।

विभिन्न कारणों से मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि लोग मुफ्त में भी दो-तीन घंटे सरकारी अस्पतालों में काम करने को सहमत हो जाएंगे।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

२१ वीं सदी की मदर टैरेसा... डा कैथरिन हैमलिन

कुछ दिन पहले मैंने दा हिंदु में एक लेख देखा था, हैडलाइन ही बड़ी अच्छी लगी थी.....At 90, this doctor is still calling .... जैसा कि मेरे साथ होता है मैंने एक दो लाइनें पढ़ी लेकिन बाद में पढ़ने के लिए इसे छोड़ दिया। फिर बाद में किसे याद रहता है, मेरी डाक्टर श्रीमति जी इस तरह की ख़बरों का विशेष ध्यान रखती हैं। वह एक बहुत उमदा सामान्य चिकित्सक हैं...पूरी ईमानदारी से अपना काम करती हैं।

इसलिए अभी अभी जब उन्होंने यह अखबार मुझे थमाई और इस लेख को देखने को कहा तो मैंने कहा कि मैंने देखा तो था लेकिन पूरा पढ़ा नहीं था।

अभी भी पूरा नहीं पढ़ा....अभी एक दो पैराग्रॉफ ही पढ़े हैं और सोचा कि साथ साथ इस का अनुवाद करता हूं......ताकि हिंदी जानने वालों तक भी इस तरह की शख्सियतों के बारे में पता चले।

तो चलिए उस लेख का अनुवाद शुरू करते हैं..........

निकोलस क्रिस्टॉफ लिखते हैं.............. हम पत्रकार लोग बड़े बड़े हादसों के बारे में, हवाई दुर्घटनाओं के बारे में, भ्रष्ट नौकरशाहों के बारे में और पेशेवार मुजलिमों के बारे में तो लिखते ही रहते हैं, लेकिन आज इच्छा हो रही है कि इस काम से एक ब्रेक लिया जाए और एक हीरो के काम की प्रशंसा की जाए।
कैथरीन हैमलिन एक आस्ट्रेलियाई महिला रोग विशेषज्ञ है जिसे आप २१वीं सदी की मदर टैरेसा कह सकते हैं जिस ने अपने जीवन का अधिकतर हिस्सा इथोपिया में बिताया है।

बच्चे के जन्म के समय होने वाली एक चोट (child birth injury) जिसे ओब्सटैट्रिक फिस्चुला कहते हैं.....यह महिला डाक्टर ने इस चोट के इलाज में क्रांति ले आई।

ओब्सटैट्रिक फिस्चुला का मतलब है ऐसा फिस्चुला (अर्था्त् आप इसे एक सुराख भी कह सकते हैं) .. जो तब होता है जब शिशु के जन्म के समय शिशु बर्थ-क्नॉल (जन्म की नली) में अटक जाता है और बड़े आप्रेशन के द्वारा बच्चे का जन्म कर पाने के लिए वहां कोई डाक्टर उपलब्ध नहीं होता।

लगभग बीस लाख महिलाएं और इन में बहुत सी टीनएज युवतियां इस तरह के फिस्चुला से त्रस्त हैं। शिशु तो ज़िंदा रहा नहीं पाता लेकिन इस फिस्चुला से प्रभावित महिलाओं का पेशाब एवं मल त्याग पर कोई कंट्रोल नहीं रहता......इस का मतलब उन का पेशाब अपने आप ही निकलने लगता है, और कईं बार तो मल भी अपने आप ही योनि  (vagina) से बहने लगता है।

सामाजिक स्तर पर इस तरह की महिलाओं अपमानित, बहिष्कृत सा महसूस करती हैं ..उन से बदबू आती है और वे शर्मिंदा महसूस करती हैं।

Dr Hamlin and her late husband, Reg, set up a fistula hospital in Addis Ababa, Ethiopia,and their work proves that it is possible to repair the injuries cheaply. This hospital trained generations of doctors to repair fistulas adn provided a model that has been replicated in other countries.

जनवरी में जब इस देवी का जन्मदिन मनाया गया तो उस के बेटे रिचर्ड ने उस के पुराने मरीज़ों की भीड़ के सामने कहा ...कैथरीन का एक बेटा और ३५००० बेटियां हैं।
Dr Hamlin gave the crowd a pep talk about the need for a big push to improve the world's maternal care. "We have to eradicate Ehtiopia of this awful thing that's happening to women: suffering, untold suffering, in the countryside," she said. "I leave this with you to do in the future, to carry on."
इथोपिया ने इस महीने डा हेमलिन को नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया है।

डा हेमलिन के काम की दाद इसलिए भी देनी होगी क्योंकि वे अपने ठीक होने वाले मरीज़ों को अन्य मरीज़ों की सहायता हेतु भी सक्षम करती हैं।

Mahabouba Muhammad was sold at age 13 to be second wife of a 60-year-old man. She became pregant, delivered by herself in the bush and suffered a severe fistula. Villagers, believing Mahabouba to be cursed, left her for the hyenas (एक तरह के जंगली जानवर). But she fought off the hyenas & because nerve damage from labour had left her unable to walk- crawled for miles to get help. At Dr Hamlin's hospital, she underwent surgery and now is a nurse's aide at the hospital.

Another former fistula patient is Mamitu Gashe, who helped doctors during her recovery and was soon recognised as a first-rate talent. Mamitu was illiterate but learned to perform complex fistula repairs and, because the hospital does so many, has become one of the world's experts in fistula surgery.

When distinguished professors and obstetrics from around the world come to this hospital for training in fistula repair, their teacher has often been Mamitu.

Dr Hamlin trains professional midwives and posts them in underserved areas -- because 85 percent of births in Ethiopia take place without a doctor or nurse present.

लेखक बताता है कि वह एक फिस्चुला भुगत चुकी एक महिला को मिला- उस ने बताया कि उस के पति ने उसे छोड़ दिया था.. और उस के मां बाप ने उस के रहने के लिए गांव से बाहर एक झोंपडा बना दिया ताकि उस के शरीर से निकलने वाली बदबू से किसी को कोई परेशानी न हो। उसे खाने पीने से डर सा लगने लगा ....because everything she consumed would soon be trickling down her legs. इस सब की वजह से वह डिप्रेशन में चली गई। वह दो वर्ष तक ऐसी ही तड़पती रही ...अंत में उस के मां-बाप ने डा हेमलिन के अस्पताल के बारे में सुना और उस के फिस्चुला की रिपेयर करवा दी गई।

फिस्चुला की सर्जरी पर खर्च कितना आता है? -- ५00 से १००० डालर.......Dr Hamlin's hospital is supported in the United States by Hamlin Fistula USA, while the Fistula Foundation supports fistula repairs worldwide.

In much of the world, the most dangerous thing a woman can do is become pregnant, and 800 die daily in childbirth. Many more suffer injuries.

ऐसी देवी के बारे में आप के क्या विचार हैं ?.........ऐसे लोग किसी भी अवार्ड के मोहताज नहीं होते लेकिन फिर भी एक नोबल शांति पुरस्कार तो कम से कम इन्हें देना तो बनता ही है।  God bless her at least with a healthy century!

Source: At 90, this doctor is still calling 
मुझे तो इस डाक्टर के बारे में पढ़ कर यह गीत याद आ गया.....



नकली दवाई के धंधे वालों को फांसी क्यों नहीं?

यह प्रश्न मुझे पिछले कईं वर्षों से परेशान किये हुए है।

हम लोग लगभग एक वर्ष पहले लखनऊ में आए...कुछ दिनों बाद हमें शुभचिन्तकों ने बताना शुरू कर दिया कि कार में पैट्रोल कहां से डलवाना है ..उन्होंने व्ही आई पी एरिया में दो एक पैट्रोल पंपों के बारे में बता दिया कि वहां पर पैट्रोल ठीक तरह से डालते हैं, मतलब आप समझते हैं कि ठीक तरह से डालने का क्या अभिप्राय है। 

कारण यह बताया गया कि ये पैट्रोल पंप जिस एरिया में हैं वहां से सभी मंत्रियों और विधायकों की गाड़ियों में तेल डलवाया जाता है। सुन कर अजीब सा लगा था, लेकिन जो भी हो, अनुभव के आधार पर इतना तो कह ही सकता हूं कि जो हमें बताया गया था बिल्कुल ठीक था। 

यह तो हो गई पैट्रोल की बात, अब आते हैं दवाईयों पर। नकली, घटिया किस्म की दवाईयों का बाज़ार बिल्कुल गर्म है। समस्या यही है कि हरेक बंदा समझता है कि नकली दवाईयां तो बाहर कहीं किसी और गांव कसबे में बिकती होंगी, हमें तो ठीक ही मिल जाती हैं, अपना कैमिस्ट तो ठीक है, पुराना है, इसलिए हम बिल मांगने से भी बहुत बार झिझक जाते हैं, है कि नहीं ?

 आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर दिखी ..  India-made drugs trigger safety concerns in US.
 हमेशा की तरह दुःख हुआ यह सब देख कर...विशेषकर जो उस न्यूज़-स्टोरी के टैक्स्ट बॉक में लिखा पाया वह नोट करें......

कश्मीर के एक बच्चों के अस्पताल में पिछले कुछ वर्षों में सैंकड़ों बच्चों की मौत का कारण नकली दवाईयों को बताया जा रहा है। एक आम प्रचलित ऐंटीबॉयोटिक में दवा नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं............

इस तरह के गोरख-धंधे जहां चल रहे हों...बच्चों की दवाईयां नकली, घटिया और यहां तक कि विभिन्न प्रकार की दवाईयों के घटिया-नकली होने के किस्से हम लोग अकसर पढ़ते, देखते, सुनते ही रहते हैं। 

लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन समझ में आ नहीं रहा कि लिखूं तो क्या िलखूं, सारा जहान जानता है कि ये मौत के सौदागर किस तरह से बच्चों से, टीबी के मरीज़ों तक की सेहत से खिलवाड़ किए जा रहे हैं। ईश्वर इन को सद्बुद्धि दे ...नहीं मानें तो फिर कोई सबक ही सिखा दे। 

आप कैसे इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच सकते हैं ?.........मुझे नहीं लगता कि आप का अपना कोई विशेष रोल है कि आप यह करें और आप नकली, घटिया किस्म की दवाई से बच गये। ऐसा मुझे कभी भी लगा नहीं ..इतनी इतनी नामचीन कंपनियाों की दवाईयां......इसी टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर में यह भी लिखा हुआ है.....
"A Kampala cancer institute stopped buying drugs from India in 2011 after receiving countefeit medicines with forged Cipla labels"

बस आप एक ग्राहक के रूप में इतना ही कर सकते हैं कि जब भी कोई दवा खऱीदें उस का बिल अवश्य लें......इस में बिल्कुल झिझक न करें कि दवा दस बीस रूपये की तो है, बिल लेकर क्या करेंगे ?.....  नहीं, केवल यही एक उपाय है जिस से शायद आप इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच पाएं, कम से कम इस पर तो अमल करें।  शेष सब कुछ राम-भरोसे तो है ही। 

बड़े बडे़ अस्पताल कुछ दवाईयों की टैस्टिंग तो करवाते हैं लेिकन जब तक दवाई के घटिया (Substandard) रिपोर्ट आती है, तब तक यह काफ़ी हद तक मरीज़ों में बांटी जा चुकी होती है, कभी इस की किसी ने जांच की ?.... दवाईयों की जांच मरीज़ों को बांटने से पहले होनी चाहिए या फिर सांप के गुज़र जाने पर लकीर को पीटते रहना चाहिए। 

मैं कईं बार सोचता हूं ये जो लोग इस तरह की दवाईयों का कारोबार करते हैं, अस्पतालों में भी ये दवाईयां तो पहुंचती ही होंगी, जो जो लोग भी इन काले धंधों में लिप्त हैं, वे आखिर इस तरह के पैसे से क्या कर लेंगे....ज़्यादा से ज़्यादा, एक दो तीन चार महंगे फ्लैट, बढ़िया लंबी दो एक गाड़ियां, विदेशी टूर, महंगे दारू, या फिर रंगीन मिज़ाज अपने दूसरे शौक पूरे कर लेते होंगे.....लेकिन इन सभी लोगों का इंसाफ़ इधर ही होते देखा-सुना है। कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है जो इन दलालों और इन चोरों के परिवारों को हिलाने के लिए काफ़ी होता है। क्या ईमानदारों की ज़िंदगी फूलों की सेज ही होती है, यह एक अलग मुद्दा है...यह चर्चा का विषय़ नहीं है। 

लेकिन फिर भी समझता कोई नहीं है, मैंने अकसर देखा-सुना है कि लोग इस तरह के सब धंधे-वंधे करने के बाद, बंगले -वंगले बांध के, दुनिया के सामने देवता का चोला धारण कर लेते हैं। 

अभी तक खबरें आती रहती हैं किस तरह से यूपी में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में लिप्त लोगों ने लूट मचाई और इन का क्या हुआ यह भी बताने की ज़रूरत नहीं। 

दो चार िदन पहले मैं लखनऊ में हिन्दुस्तान अखबार देख रहा था.....शायद पहले ही पन्ने पर यह खबर थी कि एक मिलावटी कारोबारी को ऐसे मटर बेचने पर १० वर्ष की कैद हुई है जो सूखे मटरों को हरे पेन्ट से (जिस से दीवारों को पेन्ट करते हैं) रंग दिया करता था। अगर सूखे मिलावटी मटरों के लिए दस वर्ष तो मिलावटी, घटिया दवाईयों का गोरखधंधे वालों को और इन की मदद करने वालों के लिए फांसी या फिर उम्र कैद कोई ज़्यादा लगती है? नहीं ना....बिल्कुल नहीं. ....आप का क्या ख्याल है? आम आदमी वैसे ही महंगाई से बुरी तरह त्रस्त है, पता नहीं वह कैसे बीमारी का इलाज करवाने का जुगाड़ कर पाता है, ऊपर से नकली दवाई उसे थमा दी जाएगी तो उसे कौन बचाएगा?

इन बेईमानों, मिलावटखोर, बेईमान धंधों में लिप्त सभी लोगों को इन पर फिट होता एक गीत तो डैडीकेट करना बनता है........

शनिवार, 25 जनवरी 2014

गुटखा छोड़ने का एक जानलेवा उपाय

इस युवक के मुंह की तस्वीर.. 
कल मेरे पास एक २१ वर्ष के लगभग आयु का युवक आया। मुंह में कोई समस्या थी। मुझे लगा कि गुटखा-पान मसाला खूब खाया जा रहा है।

पूछने पर उसने बताया कि मैंने खाया तो खूब बहुत वर्षों तक ..लेकिन पिछले ६-७ वर्षों से सब कुछ छोड़ दिया है। ऐसे लोगों से मिल कर बहुत खुशी होती है जो अपने बल-बूते पर इस ज़हर को ठोकर मार देते हैं। उस के इस प्रयास के लिए मैंने उस की पीठ भी थपथपाई।

ऐसे मरीज़ मेरे पास कम ही आते हैं जो कहें कि इतने वर्षों से गुटखा-पानमसाला छोड़ रखा है। मुझे जिज्ञासा हुई कि इस से पूछें तो सही कि कैसे यह संभव हो पाया।

उस ने बताया कि गुटखा-पानमसाला उसने स्कूल के दिनों से ही खाना शुरू कर दिया था और मैट्रिक तक खूब खाया--लगभग दस पैकेट रोज़। लेकिन एक दिन उसने बताया कि उस के पिता जी को पता चल गया ...बस फिर छूट गया यह सब कुछ।

मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि पिता जी ने धुनाई की होगी........कहने लगा ...नहीं, नहीं, उन्होंने मुझे बड़े प्यार से उस दिन समझा दिया कि इस सब से ज़िंदगी खराब हो जायेगी। और बताने लगा कि उस दिन के बाद से पिता जी ने मुझे अपने पास ही सुलाना शुरू कर दिया।

दो-चार मिनट तक ये बातें वह बता रहा था। पता नहीं मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा, उस का मुंह के अंदर की तस्वीर उस की बात से मेल खा नहीं रही थी। मैं भी थोड़े असमंजस की स्थिति में था कि सात वर्ष हो गये हैं गुटखा छोड़े इस को लेकिन मुंह की अंदरूनी सेहत तो अब तक ठीक हो जानी चाहिए।

यह बात बिल्कुल सत्य है कि मुझे कल कोई ऐसा मिला जिसने अपने आत्मबल के कारण गुटखा त्याग दिया था।
लेकिन मैं गलत साबित हुआ। पता नहीं उसे किस बात ने प्रेरित किया कि अचानक कहने लगा कि बस, डाक्टर साहब, मैं कभी कभी बस तंबाकू रख लेता हूं। मेरा माथा ठनका।

पूछने पर उसने बताया कि १४-१५ वर्ष की अवस्था से अर्थात् छः-सात वर्ष से उसने गुटखा तो छोड़ ही रखा है, कभी लिया ही नहीं ...लेकिन अभी कुछ डेढ़ साल के करीब वह इलाहाबाद अपने अंकल के पास गया है जो कि वहां पर एक उच्चाधिकारी हैं....वहां रहकर वह सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहा है। बस, वहां रहते रहते अन्य साथियों की देखा देखी ...बस, फ्रस्ट्रेशन दूर करने के लिए (जी हां, उस ने इसी शब्द का इस्तेमाल किया था) जैसे दूसरे लड़के लोग तंबाकू चबा लेते थे मैंने भी चबाना शुरू कर दिया है।

और वह एक बात बड़े विश्वास से कह रहा था कि गुटखे छोड़े रखने के लिए ही उसने तंबाकू चबाना शुरू किया है। मुझे लगा कि यह कैसा इलाज है। उसने बताया कि वह जो तंबाकू इस्तेमाल करता है उस में चूना भी मिला रहता है और गुटखे छोड़ने के लिए बहुत बढ़िया है।

गुटखे की आदत से मुक्ति दिलाने का दावा करता यह तंबाकू
मेरे कहने पर उसने वह तंबाकू का पैकेट मुझे जेब से निकाल कर दिखाया। आप इसे देखिए कि किस तरह से ये कंपनियां देश के लोगों को बेवकूफ़ बना कर लूट रही हैं ... धिक्कार है इन सब पर जिस तरह से ये देश की सेहत के साथ खिलवाड़ किये जा रही हैं, आप की जानकारी के लिए इस पैकेट की कुछ तस्वीरें मैं यहां लगा रहा हूं....आप भी देखिए कि किस तरह से पैकिंग पर ही कितना बोल्ड लिखा गया है .. गटुखा छोड़ने का उत्तम उपाय... चूना मिश्रित तंबाकू--- दुर्गंध एवं झंझट से मुक्ति।

उसी तंबाकू के पैकेट पर यह भी लिखा पाया...
इस तरह की बातें किसी पैकेट के ऊपर लिखा पाया जाना कि इस तंबाकू को खाने के बाद मुंह से दुर्गंध नहीं आती है ..इसके सेवन से गुटखे की आदत से अतिशीघ्र मुक्ति मिल सकती है। गंभीर बात यह भी है कि ठीक ठाक पढ़े युवक -यह युवक भी ग्रेजुएट है...अगर इस तरह की बातों में आकर गुटखे को छोड़ कर तंबाकू चबाने लगते हैं तो फिर उस इंसान की कल्पना करिए जो न तो पढ़ना जानता है ...और न ही उस की कोई कोई आवाज़ है, बस हाशिये पर जिये जा रहा है।

गुटखा छोड़ने का जानलेवा उपाय 
हां, उस लड़के को मैंने इतना अच्छा से समझा दिया कि यह बात तो तुम ने पैकेट पर लिखी देख ली कि यह गुटखा छोड़ने का उत्तम उपाय है ...जो कि सरासर कोरा झूठ है... लेकिन तुम ने पैकेट की दूसरी तरफ़ यह कैसे नहीं देखा... तंबाकू जानलेवा है और एक कैंसर से ग्रसित मरीज़ के मुंह की तस्वीर (चाहे वह इतनी क्लियर नहीं है) भी पैकेट पर ही छपी है।  उसे मैंने समझा तो दिया कि ऐसे सब के सब उत्पाद मौत के खेल के सामान हैं ...।

लगता था वह समझ गया है, कहने लगा कि आज के बाद इसे भी नहीं छूयेगा... और बाहर जाते जाते वहीं कूड़दाने में उस पैकेट को फैंक गया। मुझे लगा मेरी पंद्रह मिनट की मेहनत सफ़ल हो गई। अभी आता रहेगा अपने इलाज के लिए मेरे पास...तीन चार बार... देखता हूं कि वह इस ज़हर से हमेशा दूर रह पाए।

इस पोस्ट में स्वास्थ्य से संबंधित ही नहीं ..अन्य सामाजिक संदेश भी है....किस तरह से बाप के प्यार ने, उसे पास सुलाने से उस ने गुटखा तो छोड़ दिया....लेकिन करीबी रिश्तेदार के यहां जाकर फिर वह तंबाकू चबाने लगा......वहां शायद उसे किसी ने रोका नहीं होगा....मतलब आप समझ ही गये हैं।

मैं इस तरह की कंपनियां के ऐसे भ्रामक विज्ञापन देखता हूं , एक तरह से पैकेट में बिकता ज़हर देखता हूं तो मुझे इतना गु्स्सा आता है कि मैं उसे पी कर ही मन ममोस कर रह जाता हूं लेकिन ये मुझे इस तंबाकू-गुटखे-पानमसाले के विरूद्ध जंग को और प्रभावी बनाने के लिए उकसा जाते हैं।

मुझे लगता है कि हम डाक्टरों के संपर्क में आने के बाद भी अगर लोग तंबाकू, गुटखा, पानमसाला नहीं छोड़ पाएं तो फिर कहां जा कर छोड़ पाएंगे, हमें इन के साथ बार बार गहराई से बात करनी ही होगी। ऐसे कैसे हम इन कमबख्त कंपनियां को जीतने देंगे, अपना युवा वर्ग हमारे देश की पूंजी है.......कैसे हम उन्हें इन का शिकार होने देंगे। अगर कोई व्यक्ति मेरे पास कईं बार आ चुका है और वह अभी भी इस तरह की जानलेवा चीज़ों से निजात नहीं पा सका है तो मैं इसे अपनी असफलता मानता हूं.....यह मेरा फेल्योर है....ये दो टके की लालची कंपनियां क्या डाक्टरों से आगे निकल गईं, हमारे पास समझाने बुझाने के बहुत तरीके हैं, और हम लोग पिछले तीस वर्षों से कर ही क्या रहे हैं, बस ज़रूरत है तो उन तरीकों को कारगार ढंग से इस्तेमाल करने की..........इस सोच के साथ कि जैसे इस तरह का हर युवक अपने बेटा जैसे ही है, अगर हम १०-१५ मिनट की तकलीफ़ से बचना चाहेंगे तो इस की सेहत तबाह हो जायेगी। मैं नहीं जानता निकोटीन च्यूईंग गम वम को... मैं ना तो किसी को इसे लेने की सलाह दी है ...इस के कईं कारण हैं, वैसे भी अपने दूसरे हथियार अच्छे से काम कर रहे हैं, मरीज़ अच्छे से बात सुन लेते हैं, मान लेते हैं तो क्यों फिर क्यों इन सब के चक्कर में उन्हें डालें?

बस अपना कर्म किये जा रहे हैं, इन युवाओं की सेहत की रक्षा हो पाने के रूप में फल भी मिल ही रहा है.......मैंने उसे इतना भी कहा कि अगर इस तरह के दांतों के साथ तुम कोई भी कंपीटीशन की परीक्षा देने के बाद इंटरव्यू में जाओगे तो इस का क्या परिणाम क्या हो सकता है, तुम स्वयं सोचना। कुछ बातें साक्षात्कार लेने वाले रिकार्ड नहीं करते लेकिन ये सब बातें उम्मीदवार के मूल्यांकन को प्रभावित अवश्य करती हैं, आप क्या सोचते हैं ...क्या ऐसा होता होगा कि नहीं?

सुबह से लेकर रात सोने तक सारे चैनलों पर आम आदमी पार्टी एवं अन्य पार्टीयों की छोटी छोटी बातें ...कौन कितना खांसता है, कौन खांसने का बहाना करता है, किस ने एक साइज बड़ी कमीज़ डाली है, किस ने मफलर कैसे लपेटा, कौन  दफ्तर से निकल कर महिला आयोग पहुंचा कि नहीं, राखी सावंत कैसे चलाती दिल्ली सरकार..........सारा दिन बार बार वही दिखा दिखा कर...उत्तेजित स्वरों में बड़ी बड़ी बहसें.............इन सब के बीच कुछ कंपनियां किस तरह से ज़हर बेच बेच कर अपना उल्लू सीधा किए जा रही हैं, उन की खबर कौन लेगा?

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

सरकारी मीडिया पर सेहत संबंधी जानकारी ..२

इस श्रृंखला की पहली कड़ी में मैंने कल ऑल इंडिया रेडियो विविध भारती पर प्रसारित होने वाले सेहत संबंधी कार्यक्रमों की समीक्षा की थी। आज ज़रा देखते हैं कि दूरदर्शन जैसे सरकारी चैनल पर सेहत संबंधी जानकारी किस तरह से उपलब्ध करवाई जा रही है।

डी डी न्यूज़ पर टोटल हैल्थ -- 
यह कार्यक्रम डी डी न्यूज़ चैनल पर हर रविवार की सुबह साढ़े आठ बजे से साढ़े नौ बजे तक प्रसारित किया जाता है।
इस कार्यक्रम की जितनी प्रशंसा की जाए कम है .. और मैं यह सिफ़ारिश करता हूं कि इसे हर व्यक्ति को रविवार सुबह देखना चाहिए। आप इस के हर एपीसोड से कुछ न कुछ नया सीखेंगे, इस की गारंटी मैं लेता हूं।

किसी एक मैडीकल अवस्था से संबंधित इस कार्यक्रम में तीन-चार चोटी के विशेषज्ञ आमंत्रित किये जाते हैं। इस प्रोग्राम का सिलसिला पिछले कईं वर्षों से चल रहा है। यह लाइव कार्यक्रम है।

इस कार्यक्रम के फार्मेट की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। सब से पहले इसे प्रस्तुत करने वाले उस मैडीकल अवस्था की संक्षिप्त जानकारी देंगे ..और बहुत बार तो यह ऑडियो-विजुअल भी होती है। विशेषज्ञों का परिचय करवाया जाता है और इस बात के लिए डी डी न्यूज़ चैनल बधाई का पात्र है कि ये विशेषज्ञ बेहद अनुभवी बुलाते हैं...जैसा कि मैं अकसर कहता हूं कि जिन का एक एक शब्द अनुभव की कसौटी पर परखा हुआ होता है। बिल्कुल आम भाषा में बिना किसी तकनीकी मकड़जाल (technical jargon) के अपनी बात देश के सामने रख पाने में भी जैसे इन सब विशेषज्ञों ने  महारत हासिल की हो।

जिस शारीरिक अथवा मानसिक तकलीफ़ के ये विशेषज्ञ होते हैं उस के बारे में प्रोग्राम के प्रिज़ेटर चर्चा शुरू करते हैं.. उन की बातचीत से ही पता चल जाता है कि वे भी विषय के बारे में पूरी रिसर्च कर के आये हैं। बीच बीच में दर्शक फोन के द्वारा अपनी समस्याएं उन विशेषज्ञों को बताते हैं और वे उन का समुचित मार्गदर्शन (जितना वे दूर बैठे कर सकते हैं) करते हैं।

मैं प्रिज़ेंटर्ज़ की रिसर्च के बारे में कह रहा था ...उन दोनों ने उस विषय के बारे में इतनी अच्छी रिसर्च कर रखी होती है जैसे कि आम आदमी की उस विषय से सभी संभावित जिज्ञासाओं को उन्होंने भांप लिया हो। अच्छा लगता है सरकारी चैनल पर इतना उत्कृष्ठ सेहत संबंधी कार्यक्रम देख कर।

एक बात और यह भी है कि आप इस कार्यक्रम में अपनी समस्या के समाधान के लिए इन्हें ई-मेल भी भेज सकते हैं ...यहां तक कि इस लाइव कार्यक्रम के दौरान भी आप इन्हें ई-मेल भेज सकते हैं जिन्हें अकसर ये उस कार्यक्रम के दौरान ही विशेषज्ञों के समक्ष रख कर आप की सहायता करते हैं।

लाइव कार्यक्रम के दौरान फोन करने के लिए लैंडलाइन फोन के साथ साथ इन्होंने एक टोल-फ्री नंबर भी दिया होता है।
मैं अकसर इस कार्यक्रम को देखता हूं --इस बार रविवार २६जनवरी को गणतंत्र दिवस की वजह से प्रसारित नहीं किया जायेगा। इस प्रोग्राम के हर एपीसोड से आप कुछ न कुछ ऐसा सीख सकते हैं जो आप को पहले से न पता हो......और यह बात थ्यूरी जैसी कोई बात नहीं होगी, आप उन सीखी हुई बातों को अपनी सेहत की रक्षा एवं सुधार करने के लिए सहजता से अपने जीवन में उतार भी सकते हैं।

मैंने तो एक बार इस कार्यक्रम में यह ई-मेल भेजी कि आप का कार्यक्रम जनता जनार्दन के लिए तो सर्वश्रेष्ठ हैल्थ कार्यक्रम है ही, यह ऐसा प्रोग्राम है जहां से डाक्टर लोग भी कुछ न कुछ नया सीख सकते हैं क्योंकि इन के विशेषज्ञ बेहद अनुभवी, सुलझे हुए और देश के प्रिमियर चिकित्सा संस्थानों से आए होते हैं जिन का अनुभव बोल रहा होता है और वे अपना २५-३० वर्ष या इस से भी ज़्यादा अनुभव आप के सामने खोल कर रख देते हैं.......और यह सब कुछ जब बिल्कुल किसी कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट (conflict of interest) की बदबू के बिना होता है तो इस की महक ही अलग होती है। मैंने कभी भी इस प्रोग्राम को देखते यह महसूस नहीं हुआ कि इस में बुलाए गये किसी भी विशेषज्ञ का किसी भी तरह का कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट हो, ऐसा ही नहीं सकता कि इस कार्यक्रम के विशेषज्ञों का चयन ही ऐसा होता है, ये सब इस तरह के मुद्दों के बारे में बेहद सचेत जान पड़ते हैं। अच्छी बात है।

कार्यक्रम के दौरान बीच बीच में ऑडियो-विजुएल से जटिल बातों को बिल्कुल साधारण शैली से समझा भी दिया जाता है। और एक बात, चूंकि अकसर ये बड़े बड़े विशेषज्ञ सरकारी संस्थानों से होते हैं ये कईं बार किसी किसी परेशान मरीज़ को अपनी ओपीडी के दिन भी बता देते हैं कि वे फलां फलां दिन आ कर उन से परामर्श कर सकते हैं।

मैं यह पोस्ट बेहद संजीदगी और पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूं क्योंकि मुझे पता है कि सेहत से संबंधी किसी भी कार्यक्रम की सिफ़ारिश करने का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। मैं इस कार्यक्रम की गुणवत्ता पर शत-प्रतिशत सहमत हूं, इसलिए इसे नियमित देखने की सिफ़ारिश कर रहा हूं।

जिस समय यह कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है ..रविवार सुबह .. उसी समय ये भी सूचना साथ में टीवी स्क्रीन पर कईं बार दिखती है कि यह कार्यक्रम कब पुनः प्रसारित किया जायेगा ...पहले यह उसी दिन --रविवार की शाम को ही डी डी न्यूज़ पर ही प्रसारित किया जाता था ...सुबह वाले लाइव कार्यक्रम की रिकार्डिंग का रिपीट टैलीकास्ट। लेकिन अब शायद इसे अगले दिन अर्थात् सोमवार को दोपहर १२ बजे और शाम ७.३० बजे डी डी इंडिया पर पेश किया जाता है। कृपया आप इस रिपीट प्रसारण के चैनल के बारे में लाइव कार्यक्रम के दौरान जान लें क्योंकि मुझे अच्छे से इस के बारे में याद नहीं है।

और एक बात जो बहुत ठीक लगी इस के बारे में कि ये एक सप्ताह पहले अपने अगले प्रोग्राम के विषय की घोषणा कर देते हैं......चाहे तो आप इन्हें पत्र लिख कर या ई-मेल कर के पहले से ही अपनी बात रख सकते हैं, प्रतिक्रिया दे सकते हैं।  बात रखने तक तो बात ठीक है लेकिन अगर प्रतिक्रिया भेज रहे हैं तो इन से किसी जवाबी मेल या ई-मेल की अपेक्षा न करें क्योंकि यह इन का एक कमज़ोर पक्ष है। शायद इन्हें इस तरफ़ भी सोचने की ज़रूरत है।

एक बहुत उपयोगी बात यह भी है कि वैसे तो नेट पर सेहत संबंधी बातों की भरमार है लेकिन अगर इस तरह का कार्यक्रम आप को इंटरनेट पर किसी भी समय देखने को मिले जिस में आप की ही अपनी भाषा में सीधे-सादे अंदाज़ में विशेषज्ञों ने आपके परिवेश की उदाहरणें लेकर ही अपनी बात रखी हो तो आप को कैसा लगेगा? ...यह भी कोई पूछने की बात है, अच्छा ही लगेगा, बहुत अच्छा लगेगा।

तो फिर एक खुशखबरी यह भी है कि इस कार्यक्रम के कुछ अंश डीडीन्यूज़ के ऑफिशियल यू-ट्यूब चैनल पर भी अपलोड कर दिये जाते हैं...जिन्हें आप उस यू-ट्यूब पर जा कर खंगाल सकते हैं। वैसे एक नमूने के तौर पर मैं इसी प्रोग्राम का एक अंश यहां एम्बैड किये दे रहा हूं......इसे देखियेगा लेकिन अगली २ फरवरी रविवार को सुबह ८.३० बजे डी डी न्यूज़ पर इसे देखना मत भूलियेगा। आप को भी यह कार्यक्रम पसंद आयेगा। वैसे मैं तो डीडीन्यूज़ चैनल को लिखने वाला हूं कि इस कार्यक्रम के सभी एपीसोड (फुल लैंथ) अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर दें क्योंकि हर एपीसोड देश के नेट-यूज़र्ज के लिए बेशकीमती है.........such vital information just a click away......



बुधवार, 22 जनवरी 2014

सरकारी मीडिया पर सेहत संबंधी जानकारी ..१

मुझे याद है...मैं १७ -१८ वर्ष का था, अमृतसर के डैंटल कॉलेज में बीडीएस में मेरा दाखिला हुआ था और तब हमें टीवी खरीदे भी कुछ हफ़्ते ही हुए थे....डैंटल कॉलेज में दाखिल होते ही वे लोग दांतों की सफ़ाई की बातें नहीं करने लगते..सिलेबस के अनुसार बीडीएस कोर्स के तीसरे वर्ष के दौरान हमें टुथब्रुश-टुथपेस्ट के सही इस्तेमाल के बारे में बताया जाता है। लेकिन मैं यहां बात करना चाह रहा हूं एक जालंधर दूरदर्शन के एक टीवी प्रोग्राम की ...मुझे अच्छे से याद है उस सेहत संबंधी कार्यक्रम में एक दंत चिकित्सक टुथब्रुश की सही तकनीक एक माडल पर बता रहे थे।

उन्होंने इतने अच्छे से माडल के ऊपर टुथब्रुश करना बताया कि मैंने उसी दिन से अपना ब्रुश करने का ढंग सही कर लिया...इससे पहले मैं गलत ढंग से ही ब्रुश किया करता था। दंत चिकित्सक के पास हम लोग कभी गये ही नहीं थे, हम क्या हमारी पुश्तें कभी दांत उखड़वाने के अलावा कभी न गई होंगी ...हम यही समझा करते थे कि दंत चिकित्सक के पास दांत में दर्द होने पर ही जाते हैं।

बहरहाल, मैं प्रशंसा कर रहा हूं उस दंत चिकित्सक की जिन्होंने मुझे उस टीवी प्रोग्राम के दौरान सही ब्रुश करना सिखा दिया। समय चलता गया... कुछ वर्षों बाद मुझे भी आल इंडिया रेडियो एवं दूरदर्शन पर आमंत्रित किया जाने लगा। मुझे याद है कि मैं दूरदर्शन पर जब भी गया तो ब्रुश के सही इस्तेमाल को दिखाने के लिए माडल और ब्रुश ज़रूर लेकर जाया करता था।

यह जो मैं बता रहा हूं कि मैं बहुत बार टीवी और रेडियो के कार्यक्रमों में गया....ऐसा नहीं था कि मैं बहुत काबिल रहा होऊंगा उस दौर में, इसलिए मुझे बुलाया गया। मेरे से सीनियर विशेषज्ञ भी होते थे लेकिन कईं बार मुझे ही बुलाया जाता था। इस का केवल यही कारण था कि रेडियो से या टीवी में काम करता कोई कर्मचारी या अधिकारी आप के पास अपने इलाज के लिए आया, उसे लगा कि अगली बार आप को बुलाया जाए तो बुला लिया गया। बस, इतनी सी बात। इस में अपनी कोई विशेष काबलियत न रही होगी, ऐसा मैं सोचता हूं।

बहुत बार तो जब हमारे वरिष्ठ प्रोफैसरों की ही इन कार्यक्रमों में बुलाया जाता था तो मन में एक प्रश्न सा तो आता ही था कि यार, इन लोगों ने अपना जुगाड़ फिट कर रखा है ... इन्हें ही आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर जाने के इतने अवसर मिलते हैं।

लेकिन आज जब मेरे बाल पकने लगे हैं तो मुझे लगने लगा है कि इस सरकारी मीडिया का विशेषज्ञों की चयन बिल्कुल परफैक्ट है......ये जिन भी विशेषज्ञों को बुलाते हैं वे अपने काम से साथ पूरा न्याय कर के जाते हैं।

क्या करें, चंद शब्दों में अपनी बात कहना सीख ही नहीं पाए, अब अगर किसी विषय की भूमिका ही इतनी लंबी-चौड़ी हो जायेगी तो पोस्ट को उबाऊ होने से कौन रोक पाएगा। चलिए, मैं सीधा अपनी बात पर आता हूं और सरकारी मीडिया पर सेहत संबंधी जानकारी के बारे में कुछ बातें करना चाहता हूं।

विविध भारती -- विविध भारती के नाम से तो आप सब परिचित ही हैं। यह हम लोग बचपन से ही सुन रहे हैं। पहले इसे सुनने के लिए अपने ट्रांसिस्टर को कईं बार थपथपाना पड़ता था या फिर छत पर जा कर एरियर की तार को हिलाना-ढुलाना पड़ता था...लेकिन अब यह आसानी से कहीं भी कैच हो जाता है.....एफ.एम तकनीक ने हमारे मनोरंजन के मायने ही बदल दिये हैं जैसे।

विविध भारती में बाद दोपहर के समय शाम ४ से ५ बजे सप्ताह में एक दिन कार्यक्रम आता है सेहतनामा। मैंने इस की प्रशंसा अपने बहुत से लेखों में की है, इस से बढ़िया सेहत से संबंधी कार्यक्रम मैंने रेडियो पर नहीं सुना।

यह एक घंटे का कार्यक्रम होता है जिस में किसी बीमारी के विशेषज्ञ को बुलाया जाता है... यह विशेषज्ञ अपने फील्ड का अच्छा मंजा कलाकार होता है.. परिचय तो वे करवाते ही हैं लेकिन उन की बातों का ढंग ही उन का परिचय दे देता है। जो विशेषज्ञ बुलाये जाते हैं वे या तो किसी मैडीकल कॉलेज के प्रोफैसर होते हैं या फिर कोई ख्याति-प्राप्त विशेषज्ञ जो किसी प्राईव्हेट अस्पताल में काम कर रहे होते हैं।

यह एक फोन-इन तरह का कार्यक्रम है जिस के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से लोग उस विशेषज्ञ से जुड़ी अपनी शारीरिक-मानसिक समस्याओं को बता कर सलाह पाते हैं।

यह कार्यक्रम जिस ढंग से प्रस्तुत किया जाता है उस के लिए मैं दस में से दस अंक इन्हें देता हूं ...मैं पिछले लगभग सात वर्षों से इसे सुनता ही हूं ..जब भी मुझे याद रहता है.....लेकिन जितनी बार भी सुनता हूं उतनी ही बात कहीं न कहीं किसी फोरम पर इस की प्रशंसा के पुल अवश्य बांध देता हूं।

सब से बड़ी बात इन कार्यक्रमों में यह रहती है कि जो विशेषज्ञ इन कार्यक्रमों में आते हैं उन का कोई कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरैस्ट (conflict of interest) नहीं होना चाहिए.....और इस के बारे में मुझे लगता है कि ये कार्यक्रम वाले बहुत अलर्ट हैं....मुझे कभी भी इस तरह की कोई शिकायत इस कार्यक्रम में महसूस नहीं हुई। न ही तो ये विशेषज्ञ किसी निजी अस्पताल का नाम लेते हैं न ही किसी दवाई के ब्रांड का नाम लेते हैं .. यूं कहें कि ये लोग १००प्रतिशत सच्चाई,  ईमानदारी एवं बेहद अपनेपन से अपना जीवन भर का ज्ञान आपके सामने उस एक घंटे में रख कर चले जाते हैं।

मुझे कहने में कोई गुरेज नहीं है कि जिस स्तर के अनुभवी विशेषज्ञ इन कार्यक्रमों में बुलाये जाते हैं उन का एक एक शब्द ध्यान से सुनने लायक होता है...सुनने लायक ही नहीं, माननीय भी होता है।

कोई भी बात इन विशेषज्ञों से कभी इतनी मुश्किल नहीं सुनी कि जिसे आम आदमी भी सुन कर समझ न पाए। बिल्कुल बोलचाल की भाषा में ये इतनी इतनी बड़ी जटिल बातें बेहद सहजता से समझा कर चले जाते हैं कि आश्चर्य होता है।

विविध भारती के अलावा भी --- विविध भारती के अलावा भी देश के विभिन्न रेडियो स्टेशन..रोहतक, चंडीगढ़, जालंधर .....कोई भी रेडियो स्टेशन...ये भी अपने क्षेत्र से विभिन्न विशेषज्ञ बुला कर सेहत संबंधी कार्यक्रम पेश करते रहते हैं।  इन की प्रस्तुति भी प्रशंसनीय रहती है ... ये भी विभिन्न मैडीकल कालेजों या पीजीआई जैसे संस्थानों से विशेषज्ञ बुलाते हैं।

मुझे लगता है कि पिछले कुछ वर्षों से इन कार्यक्रमों का फारमेट बदल गया है......मुझे याद है मैं केवल एक ही बात रेडियो पर फोन-इन कार्यक्रम में बुलाया गया था........लेकिन अधिकतर बार मुझे किसी बस दस-पंद्रह मिनट के लिए मुंह से संबंधी रोगों के बचाव, निदान एवं उपचार के बारे में बोलना होता था, मैं एक लिखित स्क्रिप्ट के साथ जाता, वहां उसे थोड़ा देखा जाता कि कहीं कोई दवाई-वाई का नाम तो नहीं लिखा गया, किसी पेस्ट-मंजन का नाम तो नहीं है, बस इतना चेक करने के बाद मैं उसे दस-पंद्रह मिनट बोल कर लौट आता...फिर कुछ दिन बाद रेडियो पर उसे प्रसारित कर दिया जाता।

लेकिन आजकल यह फारमेट बहुत इंट्रएक्टिव है... प्रश्न -उत्तर के फार्मेट में और साथ में श्रोतागण अपनी समस्याओं से संबंधित फोन कर रहे हैं उसी समय ...इस से बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता। आप को क्या लगता है?

 पोस्ट बहुत लंबी हो गई दिखती है ...एक ब्रेक लेते हैं और अगली कड़ी के साथ जल्दी हाज़िर होता हूं....
एक बात और...विविध भारती पर प्रसारित होने वाले सेहतनामा कार्यक्रम के दौरान विशेषज्ञ के पसंदीदा गीत भी बजाये जाते हैं.........इतना सब कुछ, इतनी सच्चाई, इतनी सहजता...मनोरंजन की चाशनी में भिगो कर.............और ? ....क्या जान लोगो ?

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

गुर्दे की पथरी या बड़ा पत्थर

जब हम लोग शरीर के किसी अंग में पथरी की बात करते हैं तो हमारा ध्यान में बिल्कुल छोटे छोटे से कंकड़ ही तो आते हैं, है कि नहीं?.... चाहे वह पित्ताशय (गॉल-ब्लैडर) हो या फिर गुर्दा, हम लोग अकसर पथरी के नाम पर इन में कंकड़ों की ही कल्पना करते हैं। कभी कभी अखबार में खबर दिख जाती है जब पथरी थोड़ी बड़ी होती है..। पित्ताशय में तो अकसर चावल जैसी बीसियों पथरियां पाई जाती हैं।

लेकिन अगर पथरी की जगह किसी के गुर्दे में ७०० ग्राम का पत्थर निकाला जाए तो बात हैरान करने वाली लगती है।
लेकिन ऐसा ही हुआ है दिल्ली के एक अस्पताल में। आज ही दा हिंदु में यह खबर पढ़ने को मिली।

 गुर्दे से निकला 700 ग्राम का पत्थर 
४५ वर्षीय इस पुरूष के गुर्दे से पांच पथरीयां निकाली गईं --जिन का कुल वजन ८०० ग्राम थी...इन में से एक तो ७०० ग्राम का पत्थर था जिस का डॉयामीटर ही ९ सैंटीमीटर था।

सुखद बात यह पढ़ी कि इस बड़े से पत्थर और इतनी पथरियों के कारण उस का बायां गुर्दा बहुत बड़ा होने के बावजूद भी सुचारू रूप से काम कर रहा था।

और एक बात... इतना बड़ा पत्थर किडनी से निकाला जाना एक विश्व-रिकार्ड है, इसलिए अस्पताल इसे गिनीज़ बुक ऑफ रिकार्ड में दर्ज़ करवाने जा रहा है। पुराना रिकार्ड गुर्दे से ६२०ग्राम का पत्थर निकालने का है।

आप को भी यह खबर देख कर वह कहावत याद आ जायेगी.....  Heaviest renal stone removed from a patient at Delhi hospital.

शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती

शूगर रोग के बारे में मेरे कुछ विचार ये हैं कि इस शारीरिक अवस्था का जो बुरा प्रबंधन हो रहा है उस के लिए स्वयं मरीज और साथ में चिकित्सा व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है। मरीज़ की गैर-ज़िम्मेदारी की बात करें तो बड़ी सीधी सी बातें हैं कि नियमित दवाई न ले पाना, विभिन्न भ्रांतियों के चलते दवाई बीच ही में छोड़ देना, किसी बाबा-वाबा के चक्कर में पड़ कर देशी किस्म की दवाईयां लेनी शुरू कर देना, परहेज़ न करना, शारीरिक परिश्रम न कर पाना और ब्लड-शूगर की नियमित जांच न करा पाना।

शूगर की अवस्था में -जो दवाईयों से नियंत्रण में हो और चाहे जीवन-शैली में बदलाव से ही काबू में हो -- नियमित शूगर जांच करवानी या करनी बहुत आवश्यक होती है ..और यह कितनी नियमितता से होनी चाहिए, इस के बारे में आप के चिकित्सक आप को सलाह देते हैं।

चलिए इस समय हम लोग एक ही बात पर केंद्रित रहेंगे कि लोग शूगर की जांच नियमित नहीं करवा पाते। सरकारी चिकित्सा संस्थानों की बात करें तो पहले दिन तो मरीज़ शायद ब्लड-शूगर की जांच का पर्चा किसी डाक्टर से बनवा पाता है, फिर वह दूसरे दिन अपने साथ नाश्ता बांध कर लाता है ...सुबह से भूखा रह कर वह अस्पताल पहुंचता है... और उस दिन ११-१२ बजे वह फ़ारिग होता है ..खाली पेट वाली (फास्टिंग) और खाने के बाद वाली (पी पी .. पोस्ट परैंडियल ब्लड-शूगर) ..फिर तीसरे दिन वह पहुंचता से अपनी रिपोर्ट लेने को। अच्छा खासा भारी भरकम सा काम लगता है ना......और ऊपर से अगर किसी की शारीरिक अवस्था ठीक नहीं है तो यह बोझ और भी बोझिल करने वाला लगता है......घर से अस्पताल आना बार बार भी आज के दौर में कहां इतना आसान रह पाया है।

मैं इस के कारणों का उल्लेख यहां करना नहीं चाहूंगा लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि कुछ मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों की रिपोर्टों पर भरोसा नहीं होता.......मरीज़ ही क्यों, बहुत बार निजी क्लीनिक या अस्पताल चलाने वाले डाक्टर भी इन्हें नहीं मानते और बाहर से ये सब जांच करवाने को कह देते हैं......अकसर मरीज़ों को भी कहते देखा है कि सरकारी अस्पताल में करवाई तो शूगर इतनी आई और बाहर से इतनी ... लोगों से बातचीत के दौरान बहुत बार सुनने को मिलता है। जब वह दोनों रिपोर्टें आप के सामने रख दे तो आप क्या जवाब दें, यह एक धर्म-संकट होता है, लेकिन जो है सो है!

कुछ उच्च-मध्यम वर्गीय लोगों ने --जो एफोर्ड कर सकते हैं--घर में ही शूगर की जांच करने का जुगाड़ कर रखा है। ठीक है। एक बार मैंने मद्रास की मैरीना बीच पर देखा कि वहां सुबह सुबह लोग भ्रमण कर रहे थे और वहीं किनारे पर बैठा एक शख्स ब्लड-शूगर की जांच की सुविधा प्रदान कर रहा था। पचास रूपये में यह सुविधा दी जा रही था। इस के बारे में मेरी पोस्ट आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

अभी दो चार दिन पहले ही की बात है कि मैंने यहां लखनऊ के एक कैमिस्ट के यहां बोर्ड लगा हुआ देखा कि यहां शूगर की जांच ३० रूपये में होती है।

घर में जो लोग इस शूगर जांच की व्यवस्था कर लेते हैं या मैरीना बीच पर बैठा जो शख्स यह सुविधा दे रहा था या फिर अब कुछ कैमिस्ट लोगों ने भी यह सब करना शुरू कर दिया है, इसे ग्लूकोमीटर की मदद से स्ट्रिप के द्वारा किया जाता है।

अब आता हूं अपनी बात पर......खुशखबरी यह है कि आज कल ये ग्लूकोमीटर विदेशों से आते हैं और इन की कीमत १०००-२५०० रूपये के बीच होती है लेकिन अब शीघ्र ही भारत ही में तैयार हुए ये ग्लूकोमीटर ५०० से ८०० रूपये में मिलने लगेंगे।

और जो स्ट्रिप इन के साथ इस्तेमाल होती है उस के दाम वर्तमान में १८ से ३५ रूपये प्रति स्ट्रिप हैं, लेकिन अब शीघ्र ही ये स्ट्रिप भी दो और चार रूपये के बीच मिलने लगेगी।

यह एक खुशखबरी है कि शूगर की जांच अब लोगों की जेब पर भारी न पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दो दिन पहले ही इस तरह की किट्स को लंॉच किया है। प्रशंसनीय बात यह है कि इन किट्स को इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी मुंबई ने सूचक (Suchek) के नाम से और बिरला इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी, हैदराबाद ने क्विकचैक (QuickcheQ) के नाम से डिवेल्प किया है।

जेब पर भारी न पड़ने वाली इन किटों के बारे में आप यह समाचार इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं..... Purse-friendly diabetic testing kits launched. 

उम्मीद है इन के बाज़ार में आने से यह जांच बहुत से लोगों की पहुंच में हो जायेगी और कम से कम कुछ लोगों की  यह बात कि महंगे टैस्ट की वजह से इस की नियमित जांच न करवा पाना रूल-आउट सा हो जायेगा लेकिन फिर भी नियमित दवाई, परहेज़ और शारीरिक व्यायाम का महत्व तो अपनी जगह पर कायम ही है........इस किट से बहुत से लोगों के हैल्थ-चैक अप करने में भी सुविधा हो जायेगी......होती है पहले भी यह जांच (कैंपों आदि में) इसी किट से ही हैं लेकिन अब यह काम बहुत सस्ता हो जायेगा, अच्छी बात है। 

सोमवार, 13 जनवरी 2014

मेरा पुराना ट्रांसिस्टर..

यह जो ट्रांसिस्टर मैंने यहां दिखा रहा हूं यह मैंने १०-१२ वर्ष पहले एक गाड़ी में खरीदा था। अब तो मुझे पता नहीं कि यह धंधा चलता है कि नहीं, लेकिन लगभग दस वर्ष पहले मैंने इसे गोहाटी से दिल्ली आने वाली एक ट्रेन के सैकेंड एसी के डिब्बे में खरीदा था, शायद २५0-३०० रूपये का था। देखने में इतना बढ़िया लगा कि मैं अपने आप को रोक न पाया। समस्या आज एफएम और विविध भारती प्रोग्राम देखने की है..पहले मैं एक एफएम के डिब्बे से काम चला लिया करता था, लेकिन अब उस में कईं बार थोड़ा झंझट सा या अजीब सा लगता है ..उस के एरियर वाली तार को हिलाते रहो, अजीब सा लगता है ...उन ४०वर्ष पुराने दिनों की बात याद आ जाती है जब अपने मर्फी के रेडियो के साथ ऐंटीना की तार बांध कर घर के ऊपर छत तक पहुंचाई जाती थी। फिर एक एलजी का एक फोन इसी काम के लिए लिया--GM 200- बहुत बढ़िया सेट है यह ...आप सोच रहे होंगे कि एफएम तो आजकल लगभग हर फ़ोन में होता है ऐसे में इस की इतनी क्या विशेषता है, जी हां, यह स्पैशल है ..मेरे बेटे ने नेट पर रिसर्च करने के बाद इसे रिक्मैंड किया था ..खासियत यही है इसकी कि इस में एफएम सुनने के लिए साथ में एयरफोन नहीं लगाने पड़ते। जी हां, यह वॉयरलैस एफएम रेडियो की सुविधा देता है। लेकिन हम ठहरे पक्के रेडियो प्रेमी.....जब तक किसी ट्रांसिस्टर जैसे डिब्बे में रेडियो ना सुना जाए, कुछ कमी सी लगती है। इसलिए आज जब मुझे इस ट्रांसिस्टर की याद आई तो इसे निकाला, सैल डाले और यह बढ़िया चल रहा था। एक बात तो और बता दूं जिस गाड़ी में यह खरीदा था ..शायद उस स्टेशन का नाम सिलिगुड़ी या फिर न्यू-जलपाईगुड़ी है...वहां से नेपाल शायद बिल्कुल पास ही है, इसलिए वहां गाडियों में और इस तरह का तथाकथित इम्पोर्टेड सामान जैसे कि रेडियो, टू-इन-वन,कैमरे आदि खूब बिकते हैं.. मोल-तोल भी खूब होता है उन्हीं पांच-दस मिनटों में..सब डरते डरते लेते हैं कि क्या पता गाड़ी से उतरने पर ये उपकरण चलें भी या नहीं..लेकिन फिर भी मेरे जैसे लोग अपने को रोक नहीं पाते। एक बात और..उसी स्टेशन पर मुझे याद है चाय बेचने वाले अपनी अंगीठी समेत एसी के डिब्बे में भी चढ़ जाते हैं...अच्छे से याद है एक अंगीठी से कुछ कोयले एसी डिब्बे के फर्श पर गिर गये और वह बिल्कुल जल सी गई .....लेकिन न तो कोच अटैंडैंट की और न ही टीटीई की इतनी हिम्मत हुई कि वह उस चाय वाले से उलझने का साहस करें। इस के कारण गाड़ी चलने पर पता चले। लेकिन जो भी है, आज जब गाड़ियों में आग की इतनी वारदातें देखने में आ रही हैं, इस तरह की अराजकता को भी रोकने के लिए कुछ तो करना ही होगा।

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

दो वर्षों में भी अपना काम कर लेता है गुटखा..


कल मेरे पास एक १८ वर्षीय युवक आया..देखने में वह लगभग २५ के करीब लग रहा था, मैंने पूछा कि क्या जिम-विम जाते हो, उसने जब हां कहा तो मैंने पूछ लिया कि कहीं बॉडी-बिल्डिंग वाले पावडर तो नहीं लेते। उसने बताया कि नहीं वह सब तो नहीं लेता, लेकिन घर में गाय-भैंसें हैं, इसलिए अच्छा खाते पीते हैं।
बहरहाल उस का वज़न भी काफ़ी ज़्यादा था, इसलिए मैंने उसे संयम से संतुलित आहार लेने की ही सलाह दी। लेकिन अभी उस समस्या के बारे में तो बात हुई नहीं जिस की वजह से वह मेरे पास आया था।
वह मुंह में छालों से परेशान था और उस का मुंह पूरा नहीं खुलता, इस लिए वह परेशान था। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि वह गुटखा-पान मसाला पिछले दो वर्षों से खा रहा है, और लगभग १० पाउच तो रोज़ ले ही लेता है लेकिन पिछले ७ दिनों से उसने ये सब खाना बंद कर दिया है क्योंकि मुंह में जो घाव हैं उन की वजह से उन्हें खाने में दिक्कत होने लगी है।
इतने में उस की अम्मी ने कमरे के अंदर झांका तो मैंने उन्हें भी अंदर बुला लिया।
मैंने उस का पूर्ण मुख परीक्षण किया और पाया कि इस १८ वर्ष के युवक को ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस की बीमारी है…यह गुटखे-पानमसाले के सेवन से होती है ..धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है और मुंह की चमड़ी बिल्कुल चमड़े जैसी सख्त हो जाती है ..और मुंह में घाव होने की वजह से खाने पीने में बेहद परेशानी होती है।
१८ वर्ष की उम्र में इस तरह के मरीज़ हमारे पास कम ही आते हैं……आते तो हैं लेकिन इतनी कम उम्र में यह कम ही आते हैं……ऐसा नहीं है कि यह बीमारी इस उम्र में हो नहीं सकती, ज़रूर हो सकती है और होती है। मैंने इसे १२ वर्षीय एक लड़की में भी देखा था जो राजस्थान से थी और बहुत ही ज़्यादा लाल-मिर्च खाया करती थीं। जी हां, यह बीमारी  उन लोगों में भी होती है जो लोग बहुत ज़्यादा लाल-मिर्च का सेवन करते हैं।
२०-२१ वर्ष के युवकों में तो यह बीमारी मैं पहले कईं बार देख चुका हूं और वे अकसर कहते हैं कि वे पिछले पांच सात वर्षों से गुटखे का सेवन कर रहे हैं। लेकिन शायद यह मेरे लिए यह पहला ही केस था कि उस युवक ने दो वर्ष ही गुटखे का सेवन किया और इस बीमारी के लफड़े में पड़ गया।
मैंने उस से दो तीन बार पूछा कि क्या वह दो वर्षों से गुटखा-पानमसाला खा रहा है, उस ने बताया कि हां, बिल्कुल, दो वर्षों से ही वह इन सब का सेवन कर रहा है। वह इंटर में पढ़ता है। बताने लगा कि दसवीं तक तो स्कूल में बड़ी सख्ती थी, हमारे स्कूल-बैग कि अचानक तलाशी ली जाती थी, इसलिए कक्षा दस तक तो इन के सेवन से बिल्कुल दूर ही रहा। लेकिन ग्याहरवीं कक्षा में जाते जाते इस की लत लग गई।
मैंने उसे बहुत समझाया कि अब इसे नहीं छूना….लगता है समझ तो गया है, वापिस पंद्रह दिन बाद बुलाया है।
दुःख होता है जब हम लोग इतनी छोटी उम्र में युवाओं को इस मर्ज़ का शिकार हुआ पाते हैं…..जैसा कि मैं पहले कईं बार अपने लेखों में लिख चुका हूं कि यह बीमारी कैंसर की पूर्वावस्था है (oral precancerous lesion)……कहने का अभिप्रायः है कि यह कभी भी कैंसर में परिवर्तित हो सकती है।
और धीरे धीरे कितने वर्षों में यह कैंसर पूर्वावस्था पूर्ण रूप से कैंसर में तबदील हो जाएगी और किन लोगों में होगी, यह कुछ नहीं कहा सकता …जैसे कि कल मैंने १८ वर्ष के युवक में इस अवस्था को देखा और कईं बार ३०-३५ वर्ष के युवाओं में यह तकलीफ़ कईं कईं वर्ष के गुटखे सेवन के बाद यह तकलीफ़ होती है, इन के लिए िकसी भी व्यक्ति की इम्यूनिटि (रोग प्रतिरोधक क्षमता), उस ने कितने गुटखे खाए, उस के खान-पान का सामान्य स्तर कैसा है…. बहुत सी बातें हैं जो यह निश्चित करती हैं कि कब कौन कितने समय में इस अजगर की चपेट में आ जाएगा।
इतना पढ़ने के बाद भी अगर किसी का मन गुटखा-पानमसाला मुंह में रखने के लिए ललचाए तो फिर कोई उस को क्या कहे…………..दीवाना और क्या!! जान के भी जो अनजान बने, कोई उस को क्या कहे, दीवाना, है कि नहीं?

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

मुंह न खोल पाना एक गंभीर समस्या...ऐसे भी और वैसे भी!


तीन चार दिन पहले मैं रेल में यात्रा कर रहा था.. एसी डिब्बे में ..लखनऊ से दिल्ली तक तो सब ठीक लगा ..लेकिन दिल्ली से आगे डेढ़ एक घंटे के सफ़र के दौरान अजीब सी बैचेनी होने लगी.. यह मेरे साथ पहली बार नहीं हुआ.. कभी कभी हो ही जाता है…अगर एसी का तापमान ठीक ढंग से सेट न किया जाए, तो अजीब सा लगता है ..आधे सिर में थोड़े थोड़े सिरदर्द से शुरू होता है … और एसिडिटी फिर इतनी बढ़ जाती है कि जब तक उल्टीयां न हो जाएं, चैन नहीं पड़ता।
बस के सफ़र के दौरान तो मोशन-सिकनैस का मैं बचपन से ही शिकार रहा हूं. लेकिन उस के लिए मैंने कुछ सालों से एक जुगाड़ सा कर लिया है.. एवोमीन (Avomine)  की एक गोली बस में चढ़ने से 30-40 मिनट पहले ले लेता हूं। और बस फिर कोई समस्या ही नहीं होती। लेिकन ट्रेन सफ़र के दौरान यह जो दिक्कत हो जाती है ..उस के लिए एक तो यह कईं बार एसी-वेसी का टैम्परेचर कंट्रोल और कईं बार मेरी बाहर कहीं भी न चाय पीने की आदत है।
घर के अलावा मैं चाय केवल वहीं पीता हूं जहां मेरा मन मानता है, वरना कहीं भी नहीं। इसलिए कईं बार चाय की विदड्रायल से भी ऐसा हो ही जाता है।
लेकिन एक बार जब इस तरह से तबीयत नासाज़ होती है तो फिर कईं कईं घंटे लग जाते हैं.. दुरूस्त होने में……..चलिए अपना दुःखड़ा रोना बंद करूं……बोर हो जाएंगे…
असली बात यह है कि उस दिन जब मैं इन उल्टीयों से परेशान था, बार बार मुंह खोल खोल कर अपनी परेशानी से निजात पाने की कोशिश कर रहा था तो मेरा ध्यान मेरी ही उम्र यानि ५०-५१वर्ष के उस बंदे की तरफ़ गया जिस का मुंह खुलना बिल्कुल बंद हो गया था।
वह मुझे मेरे एक परिचित के पास मिला था.. साथ में उस की २०-२१ वर्ष की बेटी.. हाथ में एक्स-रे एवं अन्य रिपोर्टों का थैला उठाया हुआ, साथ में ही उस की पत्नी भी थी… ग्रामीण पृष्टभूमि से …लेकिन अपने पति की तबीयत के बारे में बेहद चिंतित…हर बात ध्यान से सुनती हुई लेकिन बहुत कम बोलने वाले महिला….उस बेटी को भी अपने बापू की सेहत की बेहद चिंता थी।
इस ५० वर्षीय आदमी को हुआ यह कि यह रोज़ाना बहुत से पान-मसाले गुटखे खाया करता था …लगभग २०-२५ वर्ष से यह सब कुछ खा रहे हैं.. लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों से इन का मुंह पूरा नहीं खुल पाता था…इसलिए खाने पीने में दिक्कत होती तो थी लेकिन जैसे तैसे काम चल ही रहा था लेकिन पिछले एक सप्ताह से तो इन का मुंह लगभग खुलना बिल्कुल बंद हो गया है, बस मामूली सा खुलता है ..लेकिन इतना कि उस खुले मुंह में एक ग्लूकोज़ का पतला बिस्कुट भी नहीं जा पाए….और अगर जैसे तैसे दूध-चाय में नरम कर के अंदर धकेल भी दिया जाए तो वह उसे चबा ही न पाए।
बहुत से डाक्टरों को वे इन दिनों दिखा चुके थे .. ईएऩटी स्पैशलिस्ट, जर्नल सर्जन सभी केी पर्चियां उन के पास थीं, दवाईंयां जैसे तैसे वह मुंह में धकेल लिया करता  था…..
उस दिन जब मेरी तबीयत खराब थी तो उस बंदे की हालत का ध्यान आते ही मेरा मन दहल जाता था… जैसा कि मैंने बताया कि वह बस नाम-मात्र ही मुंह खोल पा रहा था लेकिन वह थोड़ा बहुत बोल तो पा ही रहा था ..मैं उस की बात समझ रहा था..
खाने के नाम पर पिछले सात दिनों से थोड़ा बहुत दूध, ज्यूस आदि ……चेहरा बिल्कुल खौफ़जदा पीला पड़ा हुआ.. उस की बेटी ने यह बताया कि इन्हें डर है कि मैं अगर खाऊंगा या खाने की कोशिश भी करूंगा तो मुझे उल्टी जैसा हो जाएगा और फिर उल्टी करने के लिए मेरे से मुंह खोला नहीं जायेगा तो मैं क्या करूंगा। जब मैंने भी इस बात की कल्पना की तो मैं भी कांप उठा, लेकिन मैंने उन्हें ढ़ाढ़स बंधाए रखा कि चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा। 
मेरे परिचित यह जानना चाहते थे कि क्या इन्हें टैटनस या कैंसर आदि तो नहीं है, मैंने समझाया कि नहीं टैटनस नहीं है, यह गुटखे-पानमसाले से होने वाली एक बीमारी है.. इसे सब-म्यूकस फाईब्रोसिस कहते हैं..इस में मुंह धीरे धीरे खुलना बंद हो जाता है … और मुंह की चमड़ी बिल्कुल चमड़े जैसी हो जाती है। इस व्यक्ति  के मुंह के अंदरूनी भाग बिलकुल सूखे चमड़े जैसे सख्त हो चुके थे…..मुंह के अंदर कोई औज़ार आदि डाल कर उसे देखना तक संभव न था। मुंह की इस अवस्था के बारे में मेरे कईं लेख मेरे विभिन्न ब्लॉगों ने सहेज रखे हैं।
मैंने उन सब को अच्छे से समझा दिया कि जगह जगह डाक्टरों के पास जाने की ज़रूरत नहीं है, यहां पर एक सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल है, वहां पर एक विभाग होता है..ओरल सर्जरी .. उन के अनुभवी डाक्टरों का रोज़ का काम है इस तरह के मरीज़ों को देखना और उन की मदद करना। वे इस तरह के मरीज़ों के इलाज में सक्षम होते हैं…….वे मुंह के अंदर कुछ टीके आदि लगा कर मुंह को खोलने की कोशिश करते हैं……..फिर आप्रेशन के द्वारा मुंह के अंदर की जकड़न को मिटाने का प्रयास करते हैं। कहने का मतलब एक ओरल सर्जन (डैंटल सर्जन जिन्होंने ओरल सर्जरी में एमडीएस की होती है) ही इस का सब से बेहतर इलाज कर सकता है।
गुटखा इस बंदे ने छोड़ तो दिया है…….लेकिन इतनी देर से, यह देख कर बहुत दुःख हुआ। वैसे तो इसे कैंसर की एक पूर्वअवस्था ही कहते हैं…..(प्री-कैंसर अवस्था) …लेकिन अगर समुचित इलाज हो जाए और गुटखे पानमसाले की लत को हमेशा के लिये लत मार दी जाए तो बहुत से मरीज़ों को अच्छा होते देखा है। वरना अगर डाक्टर की बात माननी नहीं  तो इस तरह की ओरल प्री-कैसर अवस्था भी क्या किसी तरह से कैंसर से कम है?
….  न आदमी खा-पी पाए.. न ही मुंह की सफ़ाई, कुल्ला तक कर नहीं पाए, और हर समय यही टेंशन की अगर उल्टी आने को हो तो क्या होगा, यह सब कुछ सुनना क्या किसी के भी मन में इस भयानक गुटखे-पानमसाले के प्रति नफ़रत पैदा करने के लिए काफ़ी नहीं है।
अगर मेरी कही बात की कुछ भी तासीर है तो अगर इसे पढ़ कर आप में से एक ने भी गुटखे-पानमसाले से हमेशा के लिए तौबा कर ली, तो मेरी मेहनत सफ़ल हो गई, वरना मुझे तो अपना काम करना ही है…..कोई सुने या ना सुने, क्या फ़र्क पड़ता है!
यार यह क्या, पब्लिश का बटन दबाते ही ध्यान आ गया इस पोस्ट के शीर्षक का… ऐसे मुंह नहीं खुलना तो एक गंभीर समस्या है ही, तो फिर वैसे मुंह न खुलना क्या हुआ। वैसे मुंह न खुलने का मतलब यह कि अन्याय, शोषण के प्रति मुंह न खोलना…वह भी एक खतरनाक लक्षण है…..इसी की वजह से ही देश में कईं तथाकथित बाबाओं ने बच्चियों तक का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शोषण कर डाला …और जब एक निर्भीक परिवार की बच्ची ने मुंह खोला तो कैसे तहलका मच गया…बाबा भी अंदर, लाडला भी अंदर…….जिस तरह की करतूतों से पर्दाफाश हो रहा है आए दिन उस से तो यही लगता है कि यह खुद को बाबा कहलवाते हैं लेकिन क्या ये मानस भी हैं ?…..इतने ठाठ-बाठ से इतने ऐश्वर्य से ये भोगी बाबा क्या क्या नहीं कर डालते होंगे …ज़ाहिर सी बात है कि जो सामने आता है वह तो आटे में नमक के समान ही होता है……….और यह थी वैसे मुंह खोलने वाली बात………
अब मुझे दे इज़ाज़त….मेरा मुंह भी बार बार खुल रहा है … बड़ी बड़ी जम्हाईयों की वजह से।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

अधिक जीते हैं क्रिएटिव लोग..


काफी दिन पहले एक समाचार पत्र में यह स्पेशल रिपोर्ट पढ़ी थी..
पसंद का काम करने और खुश रहने से मानसिक, शारीरिक सेहत अच्छी रहती है।
अमेरिका के न्यूयॉर्क की एक शानदार इमारत का निर्माण एक अत्यंत बुजुर्ग व्यक्ति ने किया है। प्राकृतिक रोशनी से आलोकित और बर्फ़ जैसे सफ़ेद रंग से जगमगाते भवन के पीछे फ्रेंक लॉयड राइट की कल्पना शक्ति झांकती है। राइट ने १९४३ में भवन का डिजाइन बनाना शुरू किया तब जब वे ७६ वर्ष के थे।
गोया ने अपनी सर्वाधिक खूबसूरत पेटिंग ७०वर्ष की अधिक आयु में बनाई थी।
गोएथ की उत्कृष्ट रचना फाउस्ट ८१ वर्ष की अायु में लिखी गई।
गैलीलियो की एक महत्वपूर्ण खोज ७४ वर्ष की आयु में पूरी हुई थी।
अमेरिकी अभिनेत्री मैगी स्मिथ ७८ वर्ष की हो चुकी हैं, फिर भी फिल्मों और टीवी सीरियल में काम कर रही हैं।
८३ साल के वारेन बफेट कारोबार की दुनिया में झंडे गाड़ रहे हैं।
९१ साल की आयु में दुनिया से विदा लेने वाले पाब्लो पिकासो अंत तक पेन्टिग करते रहे।
९८ वर्ष के हरमन वूक ने अपना नया उपन्यास पिछले साल पूरा किया था।
१०० साल तक जीने वाले कामेडियन जॉज बन्रर्स ने ९५ साल की आयु में दो साल का एक कांट्रेक्ट किया था।
मेरे नाना जी ८० वर्ष की ऊपर अवस्था में भी ट्यूशन पढ़ाते थे…….यह १९८० के दशक के शुरूआती दिनों की बात है।