शनिवार, 23 जुलाई 2011

अब तंबाकू की साधारण पैकिंग करेंगी जादू






आस्ट्रेलिया को इस बात की बधाई देनी होगी कि वह पहला ऐसा देश बन गया है जिस ने ऐसा कानून बना दिया है कि सभी तंबाकू प्रोडक्ट्स को बिल्कुल प्लेन पैकिंग (plain packaging) कर के ही बेचा जाए.... कोई ट्रेडमार्क नहीं, मार्केटिंग की और कोई चालाकी भी नहीं होगी अब इन पैकेटों पर।

इस में कोई दो राय हो ही नही सकती कि अगर तंबाकू प्रोड्क्ट्स की पैकेजिंग बिल्कुल प्लेन –साधारण, बिना तड़क-भड़क वाली कर दी जायेगी तो बेशक यह जनता के हित में ही होगा। और अगर पैकिंग ही बिल्कुल सीधी सादी होगी तो उस पैकिंग पर दी जाने वाली सेहत संबंधी चेतावनियों का असर भी ज़्यादा पड़ेगा ...और पैकेट पर ट्रेड-वेड मार्क न होने से यह जो Surrogate Advertising का गंदा खेल चल निकला है उस पर भी काबू पाया जा सकेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात को जोर से कहना शुरू कर दिया है कि तंबाकू के विरूद्ध छिड़ी जंग में इस की पैकिंग का बहुत महत्व है। और जैसे विभिन्न देश तंबाकू के ऊपर तरह तरह का शिकंजा कस रहे हैं, परचून में बिकने वाले तंबाकू की पैकिंग (retail package) प्रोडक्ट्स और प्रोफिट के बीच एक अहम् लिंक बन चुकी है। इसलिये अन्य देशों से यही गुज़ारिश की जा रही है कि वे भी अपने लोगों की सेहत के लिये प्लेन-पैकेजिंग को ही शुरू करें।

अनुमान है कि भारत में 35 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में तंबाकू का सेवन करते हैं। तंबाकू के उत्पादों पर ऩईं ग्राफिकल चेतावनियों का मामला दिसंबर 2011 तक तो ठंडे बस्ते में ही पड़ा हुआ है। काश, इस के साथ कुछ ऐसा पैकिंग को बिल्कुल फीका, नीरस करने का भी कुछ आदेश आ जाए.... कोई बात नहीं, दुआ करने में क्या बुराई है!

बहुत बार ऐसा भी होता है कि पैकिंग जिस रंग में होगी, उस से ही लोग अनुमान लगा लेते हैं कि यह उन की सेहत के लिये कैसा है, जैसे कि सिगरेट पैकेट के ऊपर हल्के रंग होने से उपभोक्ता समझने लग जाते हैं कि यह प्रोडक्ट भी हल्का-फुल्का ही होगा, इसलिए सेहत के लिये भी कुछ खास खराब नहीं होगा।

लेकिन आस्ट्रेलिया ने ऐसा शिकंजा कसा है इन शातिर मार्केटिंग शक्तियों पर कि वहां पर उन्होंने यह भी तय कर दिया है कि कौन से कलर पैकेट की सभी साइड़ों के लिये इस्तेमाल किये जाएंगे और उन की फिनिश कैसी रहेगी। ...... Great job, Australia! … an example that world should follow!! …

भारत में भी इस तरह के पैकिंग नियम बनाये जाने की सख्त ज़रूरत है लेकिन यह ध्यान रहे कि कहीं चबाने वाला तंबाकू इन नियमों की गिरफ्त से न बच पाए क्योंकि वह भी इस देश में एक खतरनाक हत्यारा है।

पैकिंग से दो बातों का ध्यान आ रहा है ... अमृतसर में डीएवी स्कूल हाथी गेट के पास ही एक तंबाकू वाली दुकान थी .. हम लोग पांचवी छठी कक्षा में उस के सामने से गुज़रते थे तो हमारी हालत खराब हो जाय़ा करती थी ... हमें यह भी नहीं पता होता था कि यहां बिकता क्या है, बस बड़े बड़े गोल गोल काले धेले (यह पंजाबी शब्द है, मुझे पता नहीं हिंदी में इसे क्या कहते हैं) दिखा करते थे ..और हमें वहां से गुज़रते वक्त अपने नाक पर रूमाल रखना पड़ता था। बाद में चार पांच साल बाद पता चला कि यहां तो तंबाकू बिकता है ..हम लोग उस दुकान के आगे से ऐसे बच के निकलते थे जैसे वह अफीम बेच रहा हो ....बस, ऐसे ही तंबाकू की जात से ही नफ़रत हो गई। आज सोचता हूं तो समझ में आता है वह तंबाकू हुक्का पीने वाले खरीद कर ले जाते होंगे।

और दूसरी बात, लगभग दस साल पहले जोरहाट आसाम में एक नवलेखक शिविर में शिरकत करने गया .. वहां पर गुटखे के पैकेट सड़कों पर ऐसे बिछे देखे जैसे किसे ने चमकीली चटाई बिछा दी हो ...और पैकिंग बहुत आकर्षक ...मैंने वहां बिकने वाले लगभग 40-50 ब्रांड के गुटखे खरीदे ...उन की पैकिंग पर एक स्टडी की ... प्रकाशित भी हुई थी .... पैकिंग इतनी शातिर, इतनी चमकीली की गुटखे पर लिखी चेतावनी की तरफ़ पहले तो किसी का ध्यान जाए ही नहीं और अगर चला भी जाए तो कोई उसे पढ़ ही न पाए.... किसी किनारे में छुपा कर लिखा हुआ.... और अधिकांश पैकेटों पर इंगलिश में। काश, कोई इनको भी पैकिंग की सही राह दिखाए ......चलिये, आज आस्ट्रेलिया ने पहल तो की है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या !!
कभी इधर भी नज़र मारिए ...
तंबाकू का कोहराम

बिना डाक्टर की पर्ची के दवाईयां न बेचने पर इतना बवाल!

कुछ दिन पहले मैं एक खबर की चर्चा कर रहा था जिस से पता चला था कि इंदौर में डाक्टर दो पर्चीयां बनाया करेंगे –एक मरीज़ के पास रहेगी और दूसरी कैमिस्ट अपने पास रख लिया करेगा। लेकिन आज सुबह पता चला कि दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है जिस की वजह से वहां कैमिस्टों ने खासा बवाल मचा रखा है।

कैमिस्टों का कहना है कि दिल्ली में यह जो ओटीसी दवाईयों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है, यह उन के लिए बहुत कठिन काम है। ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में उन का कहना है कि उन की जितनी कुल दवाईयां बिकती हैं उन का 60 प्रतिशत तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही तो होती हैं...ऐसे में कैमिस्ट का एक वर्ष तक उन सभी डाक्टरी नुस्खों को संभाल के रखना संभव नहीं है।

न्यूज़ में यह भी लिखा है कि कुछ 16 ऐसी दवाईयां जिन्हें बेहद आपातकालीन परिस्थितियों (life-threatening conditions) में ही इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कैंसर एवं दिल के रोग से संबंधित किसी एमरजैंसी के लिये – इन को भी केवल अस्पताल में स्थित दवाई की दुकानों में ही बेचे जाने का प्रस्ताव है। पढ़ तो मैंने यह लिया लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि अगर ऐसा कुछ सरकार कर रही है तो इस में आखिर बुराई क्या है!

हां, कैमिस्ट एसोशिएशन का यह भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था हो जाएगी तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी।

चलिए खबर में लिखी बातों की बात तो हो गई...अब ज़रा मैं भी आपसे दो बातें कर लूं।

ऐसा है कि जितना स्वास्थ्य दुनिया में लोगों को इन ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों ने खराब किया है, शायद ही किसी अन्य दवाई ने किया है। बस नाम पता होना चाहिए...जिस की जो मर्जी होती है कोई भी सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक कैमिस्ट से खरीद कर लेना शुरू कर देता है ....बीमारी का पता नहीं, आम मौसमी खांसी जुकाम के लिये भी ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेना आम सी बात है। ऐसी दवाईयों का पूरा डाक्टर की सलाह से न करना भी आज विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती है। घटिया, नकली दवाईयां, तरह तरह की हर जगह होने वाली सैटिंग ... खुले ऐंटीबॉयोटिक के नाम पर अजीबो गरीब साल्ट बेचे जाना एक आम सी बात हो गई है... ऊपर से यह जैनरिक और एथिकल दवाईयों का पंगा ... जैनरिक दवाईयां ---जिन के उदाहरणतयः प्रिंट तो रहेगा 60 रूपये की दस कैप्सूल की स्ट्रिप –लेकिन आप के कैमिस्ट से संबंधों के अनुसार वह 30 की मिले, 18 की मिले या आठ रूपये की ही मिल जाए.....................यह एक ऐसा एरिया है जिसे मैंने पिछले 10 वर्षों से जानना चाहिए लेकिन हार कर जब कुछ भी कोई ढंग से बता ही नहीं पाता (या बताना चाहता ही नहीं?) तो मैंने भी घुटने टेक देने में ही समझदारी समझी।

आलम यह है कि मुझे 25 साल इस व्यव्साय में बिताने के बाद आज तक यह पता नहीं है कि जैनरिक दवाई को एथिकल दवाई से कैसे पहचान सकते हैं। एथिकल दवाईयों जैसे ही नाम में आती हैं जैनरिक दवाईयां --- अब पता नहीं इस राज़ को कौन खोलेगा!

अच्छा, यह जो इन कैमिस्ट ऐसोसिएशनों का कहना है कि इस से ऐंटीबॉय़ोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शूरू हो जाएगी ... मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता .. जिन्हें सही में इस तरह की दवाईयां चाहिए होंगी उन को तो कभी भी इन को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आयेगी नहीं और जिन्हें केवल काल्पनिक, रोगों के लिये, अपनी मरजी से ही इस तरह की दवाईयां चाहिए उन के लिये ऐसी कालाबाज़ारी कल की बजाए आज शुरू हो जाए तो बेहतर होगा..... कम से कम इस तरह की दवाईयां कम ही तो खरीद पाएंगे ...इसलिये इन्हें खाया भी कम ही जाएगा जिस से वे सारी दुनिया का भला ही करेंगे।

यह जो मैं बार बार लिख रहा हूं कि बिना कारण इस तरह की ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां न खा कर भला कैसे कोई सारे विश्व का भला कर सकता है? ¬¬¬ ---दरअसल समस्या यह है कि ऐसी महत्वपूर्ण दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से बहुत सी महत्वपूर्ण दवाईयां जीवाणु मारने की क्षमता खोने लगी हैं --- जीवाणुओं पर अब इन का असर ही नहीं होता --- (Drug Resistance) … जिस की वजह से बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु ढीठ होते जा रहे हैं .. यह एक भयंकर समस्या है .... सोचिए जब पैनसिलिन नहीं था तो किस तरह से मौतें हुया करती थीं . किस तरह से टीबी की दवाईयां आने से पहले टीबी होने का मतलब मौत ही समझा जाता था।

जो भी सरकार इस तरह के नियम बना रही है बहुत अच्छी कर रही है.... इस तरह के फैसले बड़ी सोच विचार करने के बाद, विशेषज्ञों की सहमति से लिये जाते हैं... इसलिये इन पर कोई भी प्रश्नचिंह लगा ही नहीं सकता। सरकार का दायित्व है कि उस ने सारी जनता के हितों की रक्षा करनी है ---अब अगर कुछ लोग अनाप शनाप दवाईयां खाकर कुछ इस तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न करने में मदद कर रहे हैं जिन के ऊपर दवाईयां असर ही नहीं करेंगी तो फिर कैसे चलेगा, सरकारों ने तो यह सब कुछ देखना है।

जितना लिख दिया था लिख दिया मैंने ---लेकिन इतना तो तय है कि जितने मरजी नियम आ जाएं ... यह जो लोग अपनी मरजी से दवाई खरीद कर खाने के आदि हो चुके हैं, ये बाज नहीं आने वाले, ये कैसे भी जुगाड़बाजी कर के मनचाही दवाईयां खरीद ही लेते हैं ....इस के अनेकों कारण हैं।

इससे दुःखद बात क्या हो सकती है कि अधिकांश अस्पतालों में कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी ही नहीं है ....और अगर कहीं कहीं है भी तो डाक्टरों को ही उस का नहीं पता .....क्या कहा, पता होगा! --- मुझे तो कभी नहीं लगा ...जिस तरह से सादे खांसी जुकाम के लिये धड़ाधड़ महंगे से महंगे, सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लिखी जा रही हैं, उस के बाद भी कैसे मान लूं कि कहीं पर भी कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी है।

Source : Chemists plan to protest OTC ban

एम्स ने खरीदा 28 करोड़ का चाकू

इस चाकू का नाम का ...गामा चाकू (Gamma Knife)… कहने को तो चाकू है लेकिन न ही तो इस में कोई ब्लेड है और न ही इस से कुछ कट लगाया जाता है। एम्स में यह चाकू 14 वर्षों के बाद आया है और इस की कीमत 28 करोड़ रूपये है ..वहां पर पहले एक गामा नाईफ़ 1997 में खरीदा गया था। आखिर इस चाकू से होता क्या है....इस चाकू का इस्तेमाल मस्तिष्क के आपरेशन करने के लिये किया जाता है लेकिन कोई कट नहीं, कोई चीरा नहीं ...फिर कैसे हो पाता है फिर यह आप्रेशन।

दरअसल इस गामा नाईफ से एक ही बार में, हाई-डोज़ विकिरणें (high-dose radiation) मस्तिष्क के बीमार भाग पर डाली जाती हैं ताकि उस का सफाया किया जा सके---यह बिल्कुल एक आटोमैटिक प्रक्रिया होती है और बस एक बटन दबाने से ही सारा काम हो जाता है। समय की बचत तो होती ही है और इस से बहुत से मरीज़ों का इलाज किया जा सकता है।

सर्जरी से संबंधित सभी कंप्लीकेशन से तो मरीज़ बच ही जाता है, साथ ही जल्द ही अस्पताल से उसे छुट्टी भी मिल जाती है और शीघ्र ही अपने काम पर भी लौट जाता है। एक मरीज़ के लिये एम्स में इस का खर्च 75000 हज़ार रूपये आता है .. यह उस खर्च का एक तिहाई है जो किसी मरीज़ को इस इलाज के लिये प्राइव्हेट अस्पताल में खर्च करना पड़ता है।
Source : Quick surgeries at AIIMS

बिना टीके, बिना चीरे, बिना टांके के भी हो रही है सुन्नत

दो-अढ़ाई वर्ष पहले सुन्नत/ख़तना (Male circumcision) करवाने के बारे में एक लेख लिखा था जिस में इस के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई थी ...सुन्नत/ख़तना के बारे में क्या आप यह सब जानते हैं? सुन्नत करवाने से संबंधित विभिन्न पहलू अच्छे से उस लेख में कवर किये गये थे।

मुझे ध्यान आ रहा है ..एक बार एक बिल्लू बारबर से मैं कटिंग करवा रहा था ..वहां बात चल रही थी उस की किसी के साथ कि वह पिछले 25-30 वर्षों में सैंकड़ों बच्चों का ख़तना कर चुका है। यही तो सारी समस्या है ...विभिन्न कारणों की वजह लोग अपने बच्चे का खतना नाईयों आदि से करवा तो लेते हैं लेकिन यह बेहद रिस्की काम है .... न ही तो औज़ारों को स्टेरेलाइज़ (जीवाणुमुक्त) करने का कोई विधान इन के यहां होता है, और न ही ये इस तरह का काम करने के लिए क्वालीफाई ही होते हैं.....बस वही बात है नीम हकीम खतराए जान....चलिये जान तो खतरे में शायद ही पड़े लेकिन इन से इस तरह के सर्जीकल काम करवाने से भयंकर रोग ज़रूर मिल सकते हैं।

तो चलिए, लगता है आने वाले समय में यह लफड़ा ही दूर हो जाए... बिना आप्रेशन, बिना चीरा, बिना टीका, बिना टांके के सुन्नत करवाने की खबर आज सुबह देखी ... सोच रहा था कि यह कैसी खबर हुई, यह कैसे संभव है लेकिन खबर बीबीसी की साइट पर थी तो विस्तार से इसे जानने की इच्छा हुई...New Device Makes Circumcision safer and cheaper.

तो, आप भी यहां इस ऊपर दिये गये लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं कि किस तरह से बिना किसी चीरे के कितनी निपुणता से युवाओं की सुन्नत की जा रही है। कंसैप्ट यही है कि एक रिंग की मदद से शिश्न (penis) के अगली लूज़ चमड़ी (prepuce) की ब्लड-सप्लाई में अवरोध पैदा कर के उस के स्वयं ही झड़ने का इंतजाम किया जाता है इस नई टैक्नीक में...... लेकिन यह काम क्वालीफाई चिकित्सक द्वारा ही किया जाता है।

अगर यह टैक्नीक विकासशील देशों में भी आ जाए तो इस तरह का आप्रेशन करवाने वाले लोगों को बहुत सुविधा हो जाएगी। लेकिन इस समाचार से ऐसा लगता है कि यह टैक्नीक किशोरावस्था या युवावस्था के लिये तो उपर्युक्त है लेकिन शिशुओं के लिये यह उपयोगी नहीं है।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

टीबी के ब्लड-टैस्टों में हो रहा इतना गड़बड़-झाला

पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में ऐसे बहुत से केस देखने-सुनने को मिले जिस में कहा जाता रहा कि टीबी का रोग तो था ही नहीं, बस बेवजह टीबी की दवाईयां शुरू कर दी गईं...और दूसरे किस्से ऐसे जिन में यह आरोप लगते देखे कि टीबी की बीमारी तो डाक्टरों से पकड़ी नहीं गई, ये मरीज़ को और ही दवाईयां खिलाते रहे और जब टीबी का पता चला तो यह इतनी एडवांस स्टेज तक पहुंच चुकी थी कि कुछ किया न जा सका।

अभी दो-चार वर्षों से मैं जब सुना करता था कि टीबी के निदान (डायग्नोसिस) के लिये अब महंगे ब्लड-टैस्ट होने लगे हैं जिन्हें इलाईज़ा टैस्ट भी कहते हैं ...Elisa Tests – Blood tests for Tuberculosis. मुझे इन के बारे में सुन कर यही लगता था कि चलो, जैसे भी अब थोड़ा पैसा खर्च करने से टीबी का सटीक निदान तो हो ही जाया करेगा। ये टैस्ट वैसे तो प्राइव्हेट अस्पतालों एवं लैबोरेट्रीज़ में ही होते हैं ...लेकिन कुछ सरकारी विभाग अपने कर्मचारियों को इस तरह के टैस्ट बाज़ार से करवाने पर उस पर होने वाले खर्च की प्रतिपूर्ति कर दिया करती हैं --- reimbursement of medical expenses.

मैं इस टैस्ट के बारे में यही सोचा करता था कि एक गरीब आदमी को अगर ये टैस्ट चाहिये होते होंगे तो वे इस का जुगाड़ कैसे कर पाते होंगे, लगभग पिछले एक वर्ष से यही सोचता रहा कि डॉयग्नोसिस तो हरेक ठीक होना ही चाहिये ---यह तो नहीं अगर किसी के पास पैसे नहीं हैं इस टैस्ट को करवाने के लिये तो वह बिना वजह टीबी की दवाईयां खाता रहे या फिर बीमारी होने पर भी दवाईयां न खा पाए क्योंकि कुछ भी पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता।

ये हिंदोस्तानी लोग पूजा पाठ बहुत करते हैं ना ....और कोई इन की सुने ना सुने, लेकिन ईश्वर इन की बात हमेशा सुन लेते हैं। इस केस में भी यही हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह चेतावनी दी है कि ये जो टीबी की डॉयग्नोसिस के लिये जो ब्लड-टैस्ट भारत जैसे देशों में हो रहे हैं, इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

भरोसा नहीं किया जा सकता – यह क्या? डब्ल्यू.एच-ओ को यह चेतावनी जारी करने के लिये इसलिये विवश होना पड़ा क्योंकि इन एलाईज़ा किटों के द्वारा जितने भी टीबी के लिये ब्लड-टैस्ट किये जा रहे हैं...उन में से लगभग 50 प्रतिशत –जी हां, पचास प्रतिशत केसों में रिज़ल्ट गलत आते हैं ...इस का मतलब यह है कि इन टैस्टों को करवाने वाले कुछ लोग तो ऐसे हैं जिन्हें यह बीमारी न होते हुये भी उन की टैस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव (false positives) आएगी और उन की टीबी की दवाईयां शुरू कर दी जाएंगी। और कुछ बदकिस्मत लोग ऐसे होंगे (होंगे, होंगे क्या, होते हैं, WHO जब खुले रूप में यह कह रही है तो कोई शक की गुंजाइश ही कहां रह जाती है!) जिन को यह रोग होते हुये भी उन का रिज़ल्ट नैगेटिव (false negatives) आता है ....परोक्ष रूप से उन्हें दवाईयां दी नहीं जातीं और उन का रोग दिन प्रति दिन बढ़ता जाता है ...संभवतः जिस का परिणाम उन के लिये जानलेवा सिद्ध हो ही नही सकता, होता ही है।

टीबी के लिये होने वाले इन ब्लड-टैस्टों की पोल तो आज विश्व स्वास्थ्य संगठन में खोली जिस के लिये सारा विश्व इन का सदैव कृतज्ञ रहेगा... पूरी छानबीन, संपूर्ण प्रमाणों के आधार पर ही इस तरह की चेतावनी जारी की जाती है और यहां तक कहा गया है कि इन पर प्रतिबंध लगाये जाने की ज़रूरत है।

मुझे सब से ज़्यादा दुःख जो बात जान कर हुआ वह यह कि इस तरह की टैस्ट की किटें तो उत्तरी अमेरिका एवं यूरोप में तैयार किया जाता है लेकिन उन का इस्तेमाल भारत जैसे विकासशील देशों में किया जाता है ... ऐसा क्यों भाई? …यह इसलिये कि वहां पर इस तरह के टैस्टों के ऊपर नियंत्रण एकदम कड़े हैं, कोई समझौता नहीं ...यहां तक कि अमेरिकी एफ डी ए (फूज एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) ने इस तरह के टैस्टों को अप्रूव ही नही किया ....इसलिये जिन देशों में जहां इस तरह की व्यवस्था बिल्कुल ढीली ढाली है, वहां ये टैस्ट बेधड़क किये जाते रहे हैं ....और भारत भला फिर कैसे पीछे रह जाता लेकिन लगता है आज डबल्यू एच ओ के कहने पर अब हमारा नियंत्रण दस्ता भी हरकत में आयेगा और शायद इन टैस्टों पर प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया शुरू हो जाए...काश, ऐसा जल्द ही हो जाए।

मैं सोच रहा था ...ये जो तरह तरह के घोटाले होते हैं इन पर तो हम चर्चा करते थकते नहीं लेकिन इन मुद्दों का क्या....कितने वर्षों तक इस तरह के टैस्ट होते रहे जिन के नतीज़े भरोसेमंद थे ही नहीं, जिन की वजह से तंदरूस्त लोग टीबी की दवाईयां खाते रहे होंगे और कुछ लोग टीबी से ग्रस्त होते हुये भी रिपोर्ट ठीक ठीक होने पर जिन्होंने इस की दवाई न लेकर अपना रोग साध्य से असाध्य कर लिया होगा और एक तरह से टैस्ट करवाना ही तो जानलेवा सिद्ध हो गया।

अच्छा मुझे यह बतलाईये, यह जो यू.के है यह यूरोप ही में ही हैं ना ..... देखिये मैं पहले ही बता चुका हूं कि मुझे जिस ने भी मुझे मैट्रिक में ज्योग्राफी में पास किया, मैं उस का सारी उम्र उस महात्मा का ऋणी रहूंगा.... हां, तो खबर दो-तीन महीने पहले थी कि जो लोग यूके में बाहर से आते हैं उन का टीबी चैकअप ब्लड-टैस्ट के द्वारा किया जाना चाहिये क्योंकि उन की स्क्रीनिंग जो एक्स-रे से होती है, उस की वजह से कईं केस मिस हो जाते हैं क्योंकि उस रिपोर्ट में लिखा था कि ये एक्स-रे केवल सक्रिय टी बी (active TB) को ही पकड़ पाते हैं।

और एक बात ...कुछ पंक्तियां विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी किये गये एक दस्तावेज से लेकर आप के समक्ष रख रहा हूं ...हु-ब-हू ... यह इस दस्तावेज़ के पेज़ नं.6 पर लिखी गई हैं......

“ India is the country with the greatest burden of TB, nearly 2 million incident cases per year. Conservatively, over 10 million TB suspects need diagnostic testing for TB each year. Findings from a country survey done for the Bill & Melinda Gates Foundation showed that the market for TB serology in India exceeds that for the sputum smears and TB Culture; six major private lab. Networks (out of hundred) perform more than 500,000 TB Elisa Tests each year, at a cost of approx. 10 US Dollars per test or 30 Dollars per patient (for 3 simultaneous tests). Overall an estimated 1.5 million TB Elisa Tests are performed every year in the country, mostly in private sector.
(Commericial Serodiagnostic Tests for diagnosis of Tuberculosis--- WHO Policy Statement 2011…Page 6)

सोच रहा हूं मैंने यहां यह लिख कर कौन सा तीर मार लिया ---सौ दो सौ पाठक पढ़ लेंगे ...और फिर भूल जाएंगे ... लेकिन जिन लोगों तक इस आवाज़ को पहुंचने की ज्यादा ज़रूरत है, उन तक भला यह सब कैसे पहुंचे, अब विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट को तो आम आदमी खंगालने से रहा ...ज्यादा से ज्यादा वह किसी न्यूज़ चैनल पर खबरें देख-सुन लेगा ...और एक बात, एक न्यूज़-चैनल को इस का पता चल गया लगता है क्योंकि आज दोपहर खाना खाते समय मेरे कानों में कुछ आवाज़ पड़ तो रही थी कि विदेशों में लोग टीबी के निदान (diagnosis) के लिये डीएनए टैस्ट करवाते हैं...........यह एक बहुत महंगा टैस्ट होता है शायद दो हज़ार रूपये में होता है ...अब इस से पहले कि लोगों तक इलाईज़ा टैस्टों पर प्रतिबंध लगाने की ख़बरें पहुंचे क्यों ना पहले ही से जाल बिछा कर रखा जाए, है कि नहीं?

अरे यार, डीएनए टैस्ट की बात कैसे यहां छेड़ दी ... इस पर तो वैसे ही इतना बवाल खड़ा हुआ है ... यह तो एक राष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है लेकिन वह टैस्ट टीबी की जांच के लिये नहीं मांगा जा रहा , वहां माजरा कुछ और ही है ... एक युवक कह रहा है कि एक राजनीतिज्ञ उस का पिता है, इसलिये उस का डीएऩए टैस्ट करने की गुहार लगा रहा है लेकिन नेता जी कह रहे हैं कि उन्हें टैस्ट करवाने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।

चलिये, चर्चा यहीं खत्म करें ...............Thanks, WHO for calling for ban on such blood tests. Tons of thanks, indeed.

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

इंडोनेशिया में दाईयां भी करती हैं दादागिरी

आज एक खबर देख कर पता चला किस तरह से इंडोनेशिया में दाईयां दादागिरी पर उतर आती हैं... इन का स्टाईल तो भाई बंबई के हफ्ता-वसूली करने वाले भाई लोगों जैसा ही लगा ...एक औरत की उदाहरण से यह सारी बात बीबीसी की इस स्टोरी में बताई गई है।

हां तो कैसी दादागिरी इन दाईयों की? – अगर कोई महिला बच्चे को जन्म देने के पश्चात् इन दाईयों की फीस नहीं चुका पातीं तो ये उस के बच्चे को मां को देती ही नहीं ---उसे अपने पास ही रख लेती हैं। और कुछ केसों में तो ये उन बच्चों को आगे बेच भी देती हैं....और जो कर्ज़ इन्होंने महिला की डिलिवरी करने के एवज़ में लेना होता है, वह इसलिये बढ़ता रहता है क्योंकि उस में बच्चे के पालन-पोषण का खर्च भी जुड़ने लगता है। हुई कि न घोर दादागिरी ? --- Indonesian babies held hostage by unpaid midwives.

एक महिला अपनी दास्तां ब्यां कर रही है ... इस रिपोर्ट में वह बता रही है कि गर्भावस्था के दौरान उस का अल्ट्रासाउंड हुआ नहीं, इसलिये प्रसव के दौरान ही पता चला कि उस ने तो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है ... लेकिन अस्पताल वाले दो बच्चों को डिलिवर कराने के लिए डबल फीस मांगने लगे ...उस दंपति के पास पांच सौ डालर जितनी रकम थी नहीं .... तो क्या था, वही हुआ जिस का डर था!!

बच्चे को क्लीनिक वालों ने अपने कब्जे में रख लिया ...और वह दंपति अस्पताल की दोगुनी फीस जमा करने का जुगाड़ करने लगे... और जब पैसे इक्ट्ठे हो गये तो दाई के पास गये तो पता चला कि बच्चा तो आगे बिक चुका है। खैर, किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता की सहायता से बच्चा तो वापिस मिल गया।

खबर देख कर यही लग रहा था कि दुनिया में क्या क्या हो रहा है, यार, इस हिसाब से अपना देश तो बहुत बेहतर हुआ ....मतलब दाईयों की दादागिरी तो नहीं है कम से कम.... लेकिन नवजात शिशुओं की यहां वैसे ही कितनी समस्याएं हैं इस पर एक लेख लिखने की कितने दिनों से सोच रहा हूं .... लेकिन इस विषय पर लिखते समय मन टिकता नहीं ....टिके भी कैसे, जिस दिन से कोलकाता में एक साथ 18 नवजात् शिशुओं के मरने की खबर सुनी है, बहुत बुरा महसूस हो रहा है।

बुरा महसूस इसलिये भी होता है कि किसी नामी-गिरामी महंगे अस्पताल में तो किसी की डिलीवरी के समय महिला डाक्टर के अलावा बच्चों का विशेषज्ञ(Paediatrician) तो क्या, नवजात् बच्चों का विशेषज्ञ (Neo-natologist) भी मौजूद रहता है और जनता जनार्दन को किस तरह से दाईयों के हत्थे चढ़ने पर मजबूर होना पड़ता है ....और कईं बार तो अस्पतालों की चौखट पर ही माताएं बच्चे जन देती हैं.... आप इस से कैसे इंकार कर सकते हैं क्योंकि ऐसी खबरें अकसर मीडिया में कभी कभी दिख ही जाती हैं..... जो भी है, गनीमत है कि मेरे भारत महान् में दाईयों की ...गर्दी (नहीं, यार, दादागिरी ही ठीक है) नहीं चलती ....लेकिन क्या पता कुछ कुछ चलती भी हो, लोग तो वैसे ही कहां कुछ बोलते हैं!!

पानी रे पानी ....तेरा रंग कैसा !

आज दुनिया में पानी के लिये बड़े लफड़े हो रहे हैं और कहते हैं कि आने वाले समय में देशों की लड़ाईयां पानी के लिये हुआ करेंगी। पीने वाले पानी की तो बहुत सी समस्या है।

मुझे ध्यान आ रहा है कि जो मैं लगभग सात-आठ साल पहले कोंकण रेलवे रूट पर यात्रा कर रहा था तो एक स्टेशन पर नीचे उतरा और देखा कि नल के पास एक नोटिस लगा हुआ था—आप को यहां से पानी की बोतल खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं है, इस नल में जो पानी है उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के तयशुद्दा मानकों की कसौटी पर भली भांति टैस्ट किया गया है और इसे आप बेझिझक पीने के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं!!

और ऐसा नोटिस कोंकण रेलवे के उस स्टेशन पर ही नहीं दिखा ...पता चला कि ऐसे नोटिस उस रेलवे के सभी स्टेशनों पर लगे हुये हैं। काश, सभी सार्वजनिक जगहों पर इस तरह के बोर्ड दिखें ताकि पब्लिक का भरोसा बना रहे।

बचपन में ध्यान है जब ये पानी की रेहड़ी वालों ने पांच पैसे में पानी का एक गिलास बेचना शुरू किया तो अजीब सा लगता था ...फिर दस पैसे, फिर पच्चीस, और देखते ही देखते अब यह एक रूपये में बिकता है ..हां, शायद अब नींबू भी डाल दिया जाता है उसमें। लेकिन ये ठेले वाले इस पानी को किन जगहों से लाते हैं उस पर भी एक प्रश्नचिंह समय के साथ लग गया है।

अब आलम यह है कि बाहर किसी रेस्टरां, किसी फूड-स्टाल पर कहीं भी पानी पीने की इच्छा ही नहीं होती। साल भर लोग पानी से पैदा होने वाली बीमारियों का शिकार होते रहते हैं, कुछ मर भी जाते हैं ..विशेषकर छोटे बच्चों एवं बड़े-बुज़ुर्गों के लिये जल से पैदा होने वाले रोग जानलेवा भी सिद्ध हो सकते हैं।

कुछ दिन पहले टीवी पर आपने भी देखा होगा किस तरह से कानपुर में गंगा को बेहद प्रदूषित किया जा रहा है.. लेकिन वहां ही क्यों, हर जगह हम लोग इन नदियों का भयंकर शोषण किये जा रहे हैं, उन्हीं नदियों की पूजा करते हैं और उन्हें में ही .......क्या कहें, हर जगह जल-प्रदूषण के प्रभाव दिखने लगे हैं। पंजाब में इतने कीट-नाशक इस्तेमाल हो रहे हैं जो फिर जा कर जमीन में मिल जाते हैं ..... कि कुछ शहरी इलाके ऐसे हैं जहां पर कैंसर और कईं असाध्य रोगों के रोगियों की लाइनें लगी हुई हैं। सब चीख-चिल्ला रहे हैं... लेकिन इस का समाधान हो क्या रहा है?
समाधान क्या है, वह 10-12 रूपये वाली बोतल हरेक के हाथ में थमा दें......क्या यह संभव है इस देश में..... पता नहीं कभी किसी सार्वजनिक स्थान पर इस बोतल से पानी पीते हुये बहुत अजीब सा लगता है ... सामने ही कोई बीमार सा दिखने वाला वृद्द, कोई गर्भवती मां अपनी गोद में उठाए बच्चे को तो वही पंचायती टूटी से पानी पिला रही होती है और हमें अपनी जान इतनी प्यारी कि हम उस 12 रूपये वाली बोतल के अलावा बाहर से कहीं भी पानी पी ही नहीं पाते ...........क्या करें, मजबूरी है, जब जब भी बाहर से पानी पिया है ...दो चार दिन बाद खाट ही पकड़ी है।

मुझे यह भी ठीक नहीं लगता जो लोग कह देते हैं कि नहीं, नहीं, कभी बाहर पानी पी लेना चाहिये .....या घर के बाहर तो पानी बाहर का ही पीना होता है ... उस से इम्यूनिटि कायम रहती है.... इस बारे में तो बस यही है कि मजबूरी के नाम पर हरेक बंदा किसी भी जगह से पानी पीने के लिये तैयार हो जाता है। मैं कहता हूं कि घर के बाहर मुझे मिनरल वॉटर के अलावा कोई पानी नहीं चलता.. लेकिन चंद ही घंटों में अगर कुछ ऐसे हालात हो जाएं कि बोतल मिले नहीं और प्यास बर्दाश्त नहीं हो तो मैं भी उस टब से भी पानी मिलने से गनीमत समझूंगा जिस में सब लोग डिब्बा डुबो डुबो कर पिये जा रहे हैं।

पीने वाले पानी की समस्या विषम है... पता नहीं मैंने कुछ साल पहले कहीं पढ़ा था कि ऐसी टैक्नोलॉजी आ गई है या आने वाली है कि आप किसी रेस्टरां में बैठे हैं, पानी का गिलास सामने आते ही आप उस में एक पेन-नुमा यंत्र कुछ लम्हों के लिये डालें ...और पानी हो गया पीने लायक।

पानी के बारे में बहुत सजग रहने की ज़रूरत है ... दो तीन पहले मैं बीबीसी पर देखा कि वैज्ञानिक आजकल crowd-sourcing के द्वारा पानी की गुणवत्ता लेने की फिराक में हैं। क्राउड-सोरिंग से मतलब यह है कि जब किसी टैस्टिगं के लिये किसी कर्मचारी की बजाए पब्लिक ही इस में सक्रिय भाग लेने लगे ... इसे ही क्राउड-सोरसिंग कहते हैं।

पानी के बारे में होता यही है कि हम लोग किसी स्रोत से पानी की टैस्टिंग के लिये वहां से पानी को लैब में भेजते हैं ...फिर कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आती है ....और अगर रिपोर्ट आती है कि यह तो पानी पीने लायक था ही नहीं तो इस का क्या फायदा हुआ ... हज़ारों लाखों ने तो तब तक उस पानी से अपनी बुझा कर बीमारी को मोल ले लिया होगा। इसलिये हमारी टैस्टिंग में बहुत सी खामियां हैं।

हां, तो मैं जिस बीबीसी रिपोर्ट की बात कर रहा था उस में बताया गया है कि water-canary नाम से एक ओपन-सोर्स है जिस के द्वारा हम किसी भी जगह से पानी लेते हैं...तुरंत उस यंत्र में एक लाइट जग जाती है हरी या लाल.... यह बताने के लिये की यह पीने योग्य है कि नहीं। उसे यह GPS से जुड़ा हुआ यंत्र तुरंत उस जानकारी को ट्रांसमिट कर देता है। लेकिन, प्रश्न वही कि फिर आगे क्या ? ---आगे यही कि जिस एरिया से पीने के पानी की प्रदूषित होने के समाचार बार बार आएंगे वहां पर मानीटरिंग को और भी पुख्ता किया जाएगा, क्लोरीनेशन को और प्रभावशील ढंग से किया जाएगा, और भी इस तरह की व्यवस्था की खबर ली जा सकेगी।

क्लोरीनेशन से ध्यान आया – 15 साल पहले मेरे गांव में बाढ़ आई – कुछ दिनों बाद जब हम लोग घर वापिस आए तो पानी बिल्कुल मटमैला आ रहा था ... यह बोतलें वोतलें कहां से मिलतीं ...फिर ध्यान आया कि क्लोरीन की गोलियां डाल कर इसे ही पिया जाए ....यकीन मानिए मैंने बीसियों दुकानों से पूछा ...मुझे क्लोरीन की गोलियां कहीं से नहीं मिलीं......हार कर हम लोग उस मटमैले पानी को ही उबाल कर पीते रहे।

कईं बार लगता है इस देश की बेहद विषम समस्याएं हैं .... कोई सुझाव देते हुए भी डर लगता है ...किसी को घर में कोई इलैक्ट्रोनिक यंत्र लगवा कर पानी शुद्ध कर लेने की सलाह देते हुये भी झिझक महसूस होती है....बहुत से लोगों को तो ऐसा कहने की हिम्मत ही नहीं होती ......क्या पता कोई पलट के कह दे ....डाक्टर, रोटी ज़रूरी है या वह यंत्र। फिर भी, जैसा भी पानी हम पी रहे हैं उस की सही तरह से हैंडलिंग के द्वारा भी हम लोग पानी से होने वाले रोगों से काफी हद तक बच सकते हैं।

लेख लिख लिया ...फिर भी लगा समय बेकार कर दिया .... खाली खाली सा लग रहा है ...न ही तो मैं समस्या को पूरी तरह से ब्यां कर पाया और न ही किसी समाधान का हिस्सा ही बन पाया..... इसलिये केवल थ्यूरी ही लिख कर आप से छुट्टी ले रहा हूं।

सोमवार, 18 जुलाई 2011

ड्रग्स खिलाने-पिलाने-सुंघाने के बाद होने वाले बलात्कार

अकसर हम लोग इलैक्ट्रोनिक मीडिया में देखते ही रहते हैं कि विभिन्न शहरों में सारी सारी रात चलने वाली रेव-पार्टीयों के दौरान पुलिस ने छापा मारा और वहां से ड्रग्स भी मिले। और अकसर ऐसा होता है कि जब ड्रग्स की बात चलती है तो हम यही सोच लेते हैं कि होंगी ये वही ड्रग्स जो इंजैक्शन की मदद से नशा करने वाले लेते हैं ...हम ऐसा सोचते हैं कि नहीं?

एक दिन खबर दिखती है ...और फिर हमेशा के लिये गायब....कारण बताने की क्या ज़रूरत है, सब जानते ही हैं।
लगभग दस दिन पहले मैं मैडलाइऩ-प्लस पर मैडीकल समाचार देख रहा था ... वहां पर एक खबर दिखी की कैटामीन ड्रग के इस्तेमाल से इस का नशा करने वाले लोगों में पेशाब से संबंधित कईं पेचीदगीयां हो जाती हैं... यहां तक की urinary incontinence अर्थात् पेशाब अपने आप निकलने जैसे नौबत भी आ जाती है...पेशाब रोक पाने के ऊपर कंट्रोल सा खत्म हो जाता है।

हां तो मैंने इस खबर को इतना तूल दिया नहीं ...कारण यही कि मुझे यह लगा कि यह तो अमीर देशों के बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं, इस का भारत जैसे देश से कोई इतना लेना देना नहीं ....और मैं आगे कुछ और पढ़ने में व्यस्त हो गया। यहां यह बताना ठीक होगा कि कैटामीन नामक दवाई है जो आप्रेशन के पहले अनसथीसिया (anaesthesia – निश्चेतण) करने के काम आती है। मुझे याद है हम ने भी इस दवाई के प्रभाव में कईं आप्रेशन होते देखे हैं। वही तस्वीर मन में थी कि कौन इस तरह की दवाई (जो कि विशेषज्ञ ही इस्तेमाल करते हैं आप्रेशन के लिये) को दुर्प्रयोग करने का जोखिम लेता होगा।

लेकिन कल ही की बात है कि मैंने जब इन्हीं सब ड्रग्स के नाम टाइम्स ऑफ इंडिया के रविवारीय परिशिष्ट देखते हुये एक आर्टीकल में देखे – A Party Evil तो मुझे बेहद हैरानगी हुई कि अपने देश में भी ये सब दवाईयां कुछ नाइट-क्लबों, पबों आदि में किस बिंदास अंदाज़ में इस्तेमाल की जा रही हैं।

चलिये, इन दवाईयों के नामों के चक्कर में क्या पड़ना, बस इतना ही काफ़ी है कि इस तरह की ड्रग्स को डेट-रेप ड्रग्स कहा जाता है। लड़का-लड़की कहीं बाहर घूमने गये ---नाइट-क्लब, डिस्को, पब आदि में या किसी रेव-पार्टी के दौरान किसी तरह से इस तरह की दवाईयां लड़की की ड्रिंक्स (hard drink or soft drink) में मिला दी जाती हैं ....उस ड्रग के प्रभाव से लड़की बिल्कुल बदहवास सी, बेसुध सी, न बेसुध ना होश में वाली स्थिति... बेहाल सी महसूस करने लगती है, यादाश्त कमज़ोर होने लगती है और फिर जब तक उस दवा का असर रहेगा उस के साथ क्या क्या हुआ उसे कुछ भी ध्यान न होगा ....और अगर कुछ पता भी हो तो वह शर्म की वजह से किसी से कुछ कहेगी भी नहीं। और इस दवाई के प्रभाव में लड़कियां अपने आप को इतना कमज़ोर-बेबस सा हो जाती हैं कि वे चाह कर भी किसी तरह का विरोध नहीं कर पातीं--- और बस शैतान का काम आसान!!

युवा पाठकों को इन सब खतरों से सजग करने के लिये टाइम्स ऑफ इंडिया का यह आर्टीकल बिल्कुल ठीक है। लफड़ा इन दवाईयां का सब से बड़ा यह भी है कि न तो इन का कोई रंग होता है, न ही कुछ इन की गंध ही होती है और न ही इन का कोई स्वाद ही होता है, इसीलिये जब कोई शैतान इन को किसी ड्रिंक्स में मिला कर किसी लड़की को पिला देता है तो उसे इस का पता ही नहीं चल पाता।

एक दो बातें उस आर्टीकल में यह भी लिखी हुई थीं कि लड़कियों को चाहिये कि इस तरफ़ ध्यान दें कि अपनी ड्रिंक्स को ऐसी जगहों पर अकेले मत छोड़ें और अगर वाश-रूम में भी जाएं तो अपनी ड्रिंक को खत्म कर ही लें....और तो और किसे के साथ अपनी ड्रिंक्स शेयर न करें.... और भी एक बात कि अगर ऐसी जगहों पर कोई ऐसा मित्र साथ हो जो ड्रिंक्स न लेता हो तो ठीक है। बात कुछ जमी नहीं ...मुझे भी ठीक लगी नहीं ... इतना अविश्वास हो अगर किसी के ऊपर लेकिन फिर उस के साथ नाइट-लाइफ का अनुभव लेना है तो फिर तो कभी भी कुछ भी हो सकता है क्योंकि शातिर किस्म के लोगों की सोच ऐसे लेख लिखने वालों से फॉस्ट चलती है।

हां, तो कैटामीन से बात शुरू की थी .. अभी हाल ही में मुंबई से साढ़े तीन करोड़ की यह दवाई पकड़ी गई है ... आप्रेशन करने से पहले तो इस का टीका लगाने की एक विशेष विधि/मॉनीटरिंग होती है .. लेकिन इस का खुराफाती इस्तेमाल करने के लिये कैसे भी इस को इंजैक्ट कर दिया जाता है ...यहां तक कि इसे snort –सुंघवा दिया जाता है और असर होने लगता है।

यह लेख लिखते समय यही ध्यान आ रहा है कि हम लोग जा कहां रहे हैं......सब कुछ ज़्यादा ही फॉस्ट नहीं हो गया? ...और इसीलिये हादसे ही हादसे दिखते रहते हैं। यह लेख भी देखने योग्य है कि किस तरह से मौज-मस्ती के लिये इस तरह से किया जाने वाला ड्रग्स का दुरूपयोग एड्स जैसे रोगों को भी आमंत्रण दे सकता है।

रविवार, 17 जुलाई 2011

एड्स के इलाज के लिये छिपकली?

अकसर हम यह देख कर परेशान हो जाते हैं कि हमारे देश में तरह तरह की भ्रांतियां हैं, टोने-टोटके, झाड़ा, तांत्रिकों-वांत्रिकों का चक्कर है, लेकिन अन्य देशों की अपनी शायद और भी विषम समस्यायें हैं। खबर है कि फिलिपींस में छिपकलियों से एड्स जैसे रोगों का इलाज करने की कोशिश की जाती है। बस, ऐसा वहां की आम जनता को विश्वास सा है कि इस से एड्स, दमा, टीबी, कैंसर एवं नपुंसकता जैसे रोग ठीक हो जाते हैं।

यह गुमराह करने वाली प्रथा कुछ देशों में इस हद तक है कि फिलिपींस से छिपकलियों को बाहर देशों जैसे कि मलेशिया, चीन एवं दक्षिणी कोरिया में एक्सपोर्ट किया जाता है। लगभग 300ग्राम की एक छिपकली के लगभग 1160 डालर तक मिल सकते हैं और इस तरह के धंधे नेट के ऊपर भी हो रहे हैं।

रिपोर्ट में आप देख सकते हैं कि इन देशों में पुरातन काल से इस तरह की एक धारणा बन चुकी है कि छिपकली का इलाज सैक्स-इच्छा एवं पावर (aphrodisiac) बढ़ाने के लिये एवं नपुंसकता का इलाज करने के लिये किया जाना उचित है ... इस के लिये छिपकलियों को सुखा कर उन का पावडर बना लिया जाता है।

लेकिन इस तरह की बेबुनियाद उपचार पद्धतियों की आज की प्रगतिशील चिकित्सा पद्धति में कोई जगह नहीं है, इस से लाभ तो कोई हो नहीं सकता लेकिन इन चक्करों के चक्कर में उचित इलाज की देरी से बीमारी से होने वाले नुकसान बढ़ जाते हैं। अब, दमे की बात करें तो इस के लिये साधारण सा इलाज आज की प्रामाणिक चिकित्सा पद्धतियों में उपलब्ध है, ऐसे में इन सब के झमेले में पड़ने से अपना कीमती समय नष्ट करने वाली बात है।

ध्यान आ रहा है कि ये सब झमेले अन्य देशों के ही नहीं हैं, अपने देश में इतने घरेलू गोरखधंधे हैं जिन का अभी तक हम लोगों को ढंग से पता ही नहीं है, लेकिन फिर भी बात चल निकली है तो आगे जाएगी.... ज्ञान की ज्योत जलाते चलें.........कभी तो कुछ तो असर होगा।
Source ....
Phillipines warns agaisnt geckos as AIDS treatment

शनिवार, 16 जुलाई 2011

पेट का साइज़ कम कर के हो रहा है मोटापे का उपचार



पेट का साइज कम करवा कर मोटापा कम करने का क्रेज़ ज़ोर पकड़ रहा है –अभी कुछ दस दिन पहले ही टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट थी, आपने भी देखी होगी – Scalpel helps teen fight flab. इस में बताया गया था कि किस तरह से सर्जरी के द्वारा पेट का साइज़ कम करवा कर, लगभग दो-अढ़ाई लाख रूपये खर्च कर के लोग अपने बच्चों को मोटापे से निजात दिलाने का जुगाड़ कर रहे हैं।

सब से पहले तो थोड़ा यह देख लें कि यहां यह जिस पेट को कम करने की बात हो रही है यह है क्या...यह वह पेट नहीं है जिस पर हाथ फेर कर लोग कहते हैं ...पापी पेट! नहीं, यह पेट जिस का साइज सर्जरी से कम करने की बात की जा रही है यह शरीर में एक थैली की तरह का अंग है जिस में हमारा खाना जाता है ... फंडा यही है कि जब सर्जरी के द्वारा इस का साइज़ ही कम दिया जाए ताकि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ... जब इस में खाने की कैपेसिटि ही कम होगी तो इंसान कम ही तो खायेगा, कहीं बांध के थोड़ा रख लेगा।

हां, तो जिस सर्जरी की बात हो रही है पेट के साइज को कम करने की इसे बेरिएटरिक सर्जरी (bariatric surgery) कहते हैं और भारत के मुंबई जैसे महानगरों में ऐसे केसों की संख्या बढ़ने लगी है – 2008 में 1200, 2009 में 2200 और अब 2010 के आंकड़ें 3000 केस बताते हैं ... ये आंकड़े मेरे नहीं है, टाइम्स की स्टोरी में दिये गये हैं जिस का लिंक ऊपर दिया गया है।

एक बात समझ में नहीं आई –इस रिपोर्ट में लिखा है लैंसट नामक मैडीकल जर्नल में छपा है कि लगभग 5 में से एक भारतीय पुरूष और 6 में से एक से ज़्यादा भारतीय महिलायें ओव्हरवेट (मोटे) हैं... और साथ ही लिखा है कि कुछ शहरी इलाकों में तो 40 प्रतिशत जनसंख्या इस मोटापा रोग से पीड़ित हैं।

लेकिन चंद मिनटों बाद जब मेरी नज़र रिटर्ज़ की साइट पर पड़ी तो मुझे बड़ी हैरानगी हुई ...नीचे लिखा तो है विश्व स्वास्थ्य संगठन के सौजन्य से ये आंकड़े हैं लेकिन उस में मुझे भारत का नाम सब से नीचे देख कर पहले तो चिंता सी हुई लेकिन जब ठीक से पढ़ा तो समझ आई कि इस के अनुसार तो भारत में मोटापे की दर सब से कम है....इस इमेज में आप इसे देख सकते हैं। इस में आप यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से अनुमान लगाया गया है कि अगले तीन वर्ष में मोटापा कम करने वाली दवाईयों का बाज़ार कितने अरबों-खरबों का हो जाएगा।



चलो, यार, इन आंकड़ों के चक्कर में ज़्यादा क्या पड़ना.....यह तो हमें दिख ही रहा है ना कि देश तो मोटा हो ही रहा है.... कोई शक ही नहीं है इस में ...बच्चों को भी यह रोग छोटी अवस्था से ही अपनी चपेट में लेना शुरू कर रहा है—thanks to the junk and fast foods , lack of physical activity, over-indulgence in TV and net leading to “couch potatoes”.

मैंने जब ऊपर वाली पेट को कम करने वाली खबर पढ़ी थी तो यही सोच रहा था कि अन्य कईं तरह के क्रेज़ अलग अलग समय पर उत्पन्न हो जाते हैं --- कहीं यह भी एक नया क्रेज़ न उभर आए --- अब अगर मां-बाप ही युवाओं की इस तरह की सर्जरी के लिये जिद्द करने लगेंगे तो आखिर चिकित्सक कहां तक उन्हें ऐसा करवाने से रोक पाएंगे?

ऐसी सर्जरी होती तो है लेकिन morbid obesity के लिये अर्थात् उस तरह के मोटापे के लिये जहां मोटापा इतना बढ़ चुका है कि बंदा अपनी चलने-फिरने के भी योग्य नहीं है, अपनी दैनिक-क्रियाएं करने में सक्षम नहीं रहा ....ऐसे केसों में उन के चिकित्सक ऐंडोक्राईनॉजिस्ट विशेषज्ञ के साथ सलाह-मशविरा कर के सर्जरी का निर्णय लेते हैं।

इस पोस्ट को विराम देते देते ध्यान आ रहा है कि अमेरिका में एक न्यूज़ रिपोर्ट ने बवाल मचा रखा है जिस में यह छपा था कि जो बच्चे बहुत ज़्यादा मोटे हैं, इस की वजह से जिन के बीमारी से ग्रस्त होने की आशंका बुहत ज़्यादा होगी उन्हें सरकार को उनके मांबाप से अलग कर के अपने पास रख कर उन का लालन-पालन करना होगा --- लेकिन ऐसा हो नहीं पायेगा ---लोगों ने खूब हो-हल्ला किया इस बात पर ..... लेकिन इस से एक आइडिया तो कम से कम हम हिंदोस्तानियों को मिल ही गया कि अब गब्बर के ज़माने को बीते बहुत साल हो गये – अब तो बच्चों को दाल-भाजी-रोटी खिलाने के लिये बस इतना ही काफ़ी है --- चुपचाप यह खाना खा ले, अगर चिप्स-बर्गर-नूडल खा खा के मोटा हो गया तो सरकार उठा कर ले जायेगी...।

पता नहीं इस लेख को समाप्त करते समय क्यों उन जबरदस्ती नसबंदी वाले दिनों की याद आ गई ...समझने वाले समझ गये जो न समझे वो अनाड़ी हैं ।

इस ब्लॉग के बहुत से अन्य लेखों में मोटापे कम करने वाली दवाईयों और अन्य तरह तरह के इलाजों के बारे में बहुत से लेख पहले भी लिखे जा चुके हैं... थोड़ी मेहनत करिये...लिंक जान बूझ कर नहीं दे रहा हूं क्योंकि थोड़ी मेहनत करेंगे तो सेहत के लिये भी अच्छा रहेगा।

नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई


आज की दा हिंदु में खबर छपी है कि फरीदाबाद में एक नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई है ... और लाखों रूपये की नकली दवाईयां बरामद की गई हैं। आतंकवादी घटनाओं से जितना सारा देश हिल जाता है उतना इस तरह की खबरों को सुनने से क्यों नहीं हिलता .... मेरे विचार में दोनों ही बातें बेहद शर्मनाक है। आतंकी तो पीठ में छुरा घोंपने जैसी बात करते हैं, लेकिन ये जो अपने ही सफेदपोश जिन्हें समाज अपना ही कहता है, ऐसा धंधा करने वाले लोग आतंकियों की श्रेणी में कब आएंगे?

किसी भी सरकारी अस्पताल में हाल-बेहाल घंटों इंतज़ार करने वाले मरीज़ों के चेहरों को याद भी नहीं करते ऐसा धंधा करने वाले लोग – वे लोग घंटों डाक्टर की इंतज़ार में भूखे-प्यासे इंतज़ार करते रहते हैं कि डाक्टर उन के मरीज़ को देखेगा, बढ़िया सी दवाई लिखेगा ...कोई बात नहीं अच्छी कंपनी की दवाई खरीद लेंगे कैसे भी ..अपना मरीज़ ठीक होना चाहिए। लेकिन मैं जिस खबर की बात कर रहा हूं उस में मशहूर कंपनियों की दवाईयों के नकली बनाए जाने की बात कही गई है।

यही सोच रहा हूं कि आम आदमी आखिर मरे तो मरे कहां, अगर आतंकी हमलों से बच भी गया तो बेचारा इन नकली दवाईयों की वजह से कोई सफेदपोश, संभ्रांत आतंकी उसे मार गिरायेगा। सोच रहा हूं पहली बार तो इस तरह की दवाईयां पकडी नहीं गई ...हम लोग लगातार नियमित तौर पर ये सब भंडे फूटते देखते सुनते रहते हैं लेकिन आगे के आंकड़े पता करने की बात है ---उन का आगे जा कर बना क्या, कितनो को सज़ा हुई .....कितनो को कोई ऐसा सबक मिला कि उन्होंने ऐसे धंधों से तौबा कर ली।

बात यह नहीं है कि इतने लाखों की दवाईयां पकड़ी गईं----लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ये नकली दवाओं का धंधा करने वाले मौत के सौदागर पता नहीं कितने वर्षों से इन धंधों में लिप्त रहते हुये कितने हज़ारों-लाखों लोगों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते रहे .... यह तो तय है कि इन की नकली दवाईयों से हज़ारों-लाखों ज़िदगीयां खत्म तो हुई ही होंगी ...लेकिन उस बात का हिसाब कौन रखेगा। यह भी तय है कि बिना किसी साक्ष्य के पिछली करतूतों को किस सफ़ाई से ढक दिया जाएगा।

नकली दवाई का धंधा ... माफ़ कीजिए, यह नाम सुनते ही इस तरह का धंधा करने वाले शैतानों की मानसिकता के बारे में सोच कर घिन्न आने लगती है। एक उदाहरण देखिये ---आज कल यह Drug Resistance अर्थात् जब किसी बीमारी के जीवाणुओं पर कोई दवा असर करना बंद कर देती है, उसे हम कह देते हैं कि ये ढीठ हो गये हैं.... इसे ही ड्रग-रिसिस्टैंस कहते हैं ... सब से बड़ा मुद्दा है आज चिकित्सकों के सामने टीबी की बीमारी के इलाज में टीबी की दवाईयों का काम न कर पाना। है ना, यह तो आप भी यहां वहां देखते सुनते ही हैं।

अब देखिए..गरीब मज़दूर, टीबी हुई ...पहले तो सरकार को कितना प्यार से समझाना बुझाना पड़ता है कि खा ले दवाईयां ठीक हो जाएगा, चलो जी उस ने कहीं से मुफ्त में लेकर या कहीं से कैसे भी जुगाड़ कर के मार्कीट से दवाईयां ले भी लीं .. लेकिन अगर दवाईयां किसी शैतान की फैक्टरी से निकली नकली या घटिया किस्म की दवाईयां हैं, तो उस की स्थिति में सुधार नहीं होगा, तो चिकित्सकों के पास और कोई चारा नहीं होगा, और स्ट्रांग दवाईयां दी जाने लगेंगी, लेकिन अगर वे भी नकली-घटिया हैं तो उस गरीब को कोई मौत के मुंह से बचा के तो दिखाए।

यह तो एक उदाहरण थी .. किसी भी बीमारी के लिये यह कल्पना कीजिए कि ऐसी वैसी दवाईयां क्या कोहराम मचाती होंगी....शूगर में, ब्लड-प्रैशर में, किसी इंफैक्शन में ... किसी भी स्थिति में यह दवाईयां मरीज़ों की हालत बद से बदतर ही करती हैं। मैं आप से पूछता हूं कि ऐसा धंधा करने वाले आतंकी क्यों नहीं है।

आज सुबह पेपर में देखा कि अमिताभ ने बंबई बम विस्फोटों के संदर्भ में लोगों से कहा है कि आप सब अब पुलिस की तरह ही अपना रवैया रखो --- अर्थात् फूंक फूंक कर कदम रखो .... सोच रहा हूं कहने सुनने के लिये बातें अच्छी लगती हैं, बुद्धिजीवि सोच है.....काश, इन नकली दवाईयों के लिये भी कुछ समाधान सामन आ जाए ... एक छोटा सा सुझाव यह है कि कोई भी दवाई खरीदते समय उस का बिल ज़रूर लिया करें... ऐसा करना अपने आप में ऐसे धंधों को न पनपने देने की एक रोकथाम ही है। चालू किस्म की दवाईयां, बस अड्डों में जो बसों में जो बिल्कुल सस्ती दवाईयां बेचते होंगे, वे क्या बेचते होंगे, इस में अब कोई शक नहीं होना...............और यह तो है कि यह नकली दवाईयों के धंधे का कोढ़ इतना फैल चुका है कि इस की कल्पना भी करना कठिन है।

कल्पना करिये तो बस इस बात की अगर दमे के अटैक के समय दी जाने वाली दवाई नकली निकले, हार्ट अटैक में दिया जाने वाला टीका मिलावटी हो, बच्चे के निमोनिये के टीके नकली हैं, आप्रेशन के वक्त बेहोश करने वाली दवाई नकली हो, गर्भवती औरत को रक्त बढ़ाने के लिये दी जाने वाली दवाईयां घटिया हों.................................सिर दुःखता है न सोच कर.... दुःखना ही चाहिये, यह पाठकों की मानसिक सेहत की निशानी है, अगर सिर दुःखेगा तो ही आप और हम सजग रहेंगे, जितना हो सकेगा पूरे प्रयास करेंगे कि ऐसी दवाईयों से बचा जा सकें (?????) ..हर दवाई का बिल लें, यहां वहां से खुली दवाईयां, टैबलेट न लें..... इस के अलावा एक आम करे भी तो क्या करे.............ध्यान आ रहा है कि बड़ी बड़ी मशहूर कंपनियों की दवाईयों को अगर इन नकली फैक्टरियों ने मिट्टी पलीत कर दी है तो ये जो झोलाछाप, गांवों-कसबों-शहरों में बैठे नीम हकीम ये जो खुली दवाईयां खिलाये जा रहे हैं, यह क्या खिला रहे होंगे, सोचने की बात है!!

कोई नहीं, इतनी टेंशन लेने की बात नहीं है, थोड़ी दार्शनिक सोच रखेंगे तो ही यहां जी पाएंगे---जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो हुआ अच्छा ही हुआ और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा...........तो फिर चिंता काहे की, यही बातें आप वाले सत्संग में भी बार बार दोहराई जाती हैं ना .......... शुभकामनाएं।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

हैपेटाइटिस सी लाइलाज तो नहीं है लेकिन ...

आज जब मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट देख रहा था तो पता चला कि 28जुलाई 2011 विश्व हैपेटाइटिस दिवस है। साथ में हैपेटाइटिस सी के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध करवाई गई थी।

अकसर ऐसे ही सुनी सुनाई बात को ध्यान में रखते हुये किसी से भी कोई पूछे कि हैपेटाइटिस सी किस रूट से फैलता है तो यकायक किसी भी पढ़े लिखे इंसान का यही जवाब होगा जिस रूट से हैपेटाइटिस बी फैलता है उसी रूट से ही यह भी फैलता है –देखा जाए तो कुछ हद तक ठीक भी है लेकिन जब कोई बात विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर है तो उस की विश्वसनीयता तो एकदम पक्की है ही।

WHO की साइट पर यह लिखा है ... It is less commonly transmitted through sex with an infected person and sharing of personal items contaminated with infectious blood. अर्थात् यह रोग हैपेटाइटिस सी यौन संबंधों के द्वारा इतना ज़्यादा नहीं फैलता।

लेकिन फिर भी हैपेटाइटिस सी अन्य देशों की तरह हमारे लिये भी एक बडा मसला बनता जा रहा है।

जब से यह रक्त चढ़ाने से पहले इस की हैपेटाइटिस सी के लिये भी जांच होती है तब से इस रूट से तो हैपेटाइटिस सी के किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने के चांस कम ही हैं। लेकिन गंदी, संक्रमित सिरिंज सूईंयों के द्वारा यह रोग संचारित होता रहता है।

इस तरह की सूईंयों का इस्तेमाल ये नीम हकीम और गांव-कसबों में बैठे झोलाछाप चिकित्सक लोग करते आ रहे हैं ... ये कुछ भी तो नहीं समझते कि ये पब्लिक को कितनी बड़ी बीमारी दिये जा रहे हैं... अकसर मैं सोचता हूं कि इस तरह की बीमारियां इन लोगों के द्वारा जो किसी को दे दी जाती हैं क्या ये मर्डर नहीं है। लेकिन इन तक कभी कोई पहुंचता ही नहीं पाता क्योंकि सिद्ध कौन करे कि फलां फलां को उस ने यह टीका लगाया था, इसलिये उस की मौत हो गई।

और दूसरे यह जो नशे लेते हैं ये एक दूसरी की इस्तेमाल की गई सिरिंजो, सूईंयों का इस्तेमाल करते हैं और हैपेटाइटिस सी, बी और एचआईव्ही जैसे रोगों को मोल ले लेते हैं।

कईं बार मैंने मेलों में देखा है ये जो टैटू आदि लोग गुदवा लेते हैं इन मशीनों के द्वारा भी यह रोग फैलता है। और आज के युवाओं को तो तरह तरह की पियरसिंग (body piercing) करवाने का खूब क्रेज़ है, इसलिये कौन देखता है कैसी मशीन इस्तेमाल की जा रही है. और तो और एक्यूपैंचर के इलाज के दौरान भी अगर अगर ठीक सूईंयां इस्तेमाल नहीं की जातीं, तो भी यह रोग फैल सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट में लिखा हुआ है कि जिन लोगों में यह इंफैक्शन हो जाती है उन में से 60से 70 प्रतिशत लोगों में यह क्रॉनिक (chronic) रूप ले लेती है अर्थात् उन का लिवर एक लंबी चलने वाली बीमारी का शिकार हो जाता है ... 5 से 20 प्रतिशत मरीज़ों में लिवर-सिरहोसिस (liver cirrhosis) हो जाता है .. अर्थात् लिवर सिकुड़ जाता है, उस में गांठे पड़ जाती हैं, और यूं कह लें वह फेल हो जाता है और अन्ततः 1 से 5 प्रतिशत लोगों की लिवर सिरहोसिस अथवा लिवर के कैंसर से मौत हो जाती है।

लेकिन आज चिकित्सा विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि हैपेटाइटिस सी का इलाज भी संभव है ---नये नयी नयी ऐंटी-वॉयरल दवाईयां आ चुकी हैं लेकिन इस के लिये मरीज़ को टैस्ट तो करवाना होगा, जल्द इलाज भी तो शुरू करवाना ही होगा.......लेकिन ये सारी की सारी बातें मुझे तो किताबी लगती हैं ....न तो अधिकतर लोग टैस्ट करवा ही पाते हैं, और अगर करवा भी लेते हैं तो महंगा इलाज कौन करवाये ---क्या नशे की सूईंयां आपस में शेयर करने वाले ये सब कर पाने में समर्थ होते होंगे, क्या गांव के मेलों में ज़मीन पर बैठ कर टैटू गुदवाने वाले ये सब काम कर पाते होंगे................आंकड़े कुछ भी मुंह फाड़ फाड़ कर बोलें, लेकिन वास्तविकता किसी से भी छुपी नहीं है।

मैं सोचता हूं क्यों इन नीमहकीमों को जो इस तरह के धंधे करते हैं, संक्रमित सूईंयों से भोली भाली जनता को बीमारी ठोकते रहते हैं, जो मेलों में ये टैटू वैटू का धंधा करते हैं इन पर क्यों शिकंजा नहीं कसा जाता....हम गन्ने का गंदा रस बेचने वाले का तो ठेला बंद करवा देते हैं लेकिन ये यमदूत के एजेंट खुले आम अपना गोरखधंधा जमाये रखते हैं।

अब आता हूं इस पोस्ट के शीर्षक की तरफ़ कि हैपेटाइटिस सी का इलाज तो है लेकिन कितने लोग इस सुविधा का लाभ उठा पाते होंगे --- क्या आप किसी ऐसे शख्स को जानते हैं जो यह इलाज करवा पाया ?....कहने का मतलब है कि अधिकतर लोग जो इन रोगों से संक्रमित होते हैं वैसे ही अभाव की ज़िंदगी जी रहे होते हैं, उन की अनेकों दैनिक मुश्किलों की तरह से यह भी एक अन्य मुश्किल है... न कभी टैस्ट न कभी इलाज....जब लिवर बिल्कुल जवाब दे देता है, बेचारे मर जाते हैं ....लेकिन कसूर किसी का कोई नहीं कहता ....सब कहते हैं बस पीलिया हुआ था, मर गया .....बहुत तकलीफ़ में था, बस मुक्ति मिल गई ....।

Further Reading
Hepatitis C -- WHO site

दारू पर भी चेतावनी आने की चर्चा गर्म है


अभी दो दिन पहले ही मैं एक जगह पढ़ रहा था कि मुंबई में एक कैंसर गोष्ठी में विशेषज्ञों द्वारा यह अपील की गई कि शराब पर भी कैंसर से संबंधित चेतावनी होनी चाहिए.... उन की बात बिल्कुल उचित लगी क्योंकि अब यह सिद्ध हो चुका है कि तंबाकू और अल्कोहल एक किल्लर कंबीनेशन है---बेखौफ़ हत्यारा हो जाता है पैदा जब तंबाकू और दारू मिल जाते हैं। चलिए अभी तो उस ग्रुप ने अपना मत रखा है ---अब इस पर कम से कम अगले दस-बीस सालों तक कमेटियां बनेंगी, शायद अधिसूचनाएं भी जारी हों, फिर कोर्ट में केस होंगे ...दारू बेचने वाले करेंगे कि हम तो मर गये, लुट गये .....फिर यह सब कुछ टाला जाएगा--- तो इस टालमटोल में असल में क्या सामने आयेगा, यह तो दस-बीस बाद ही पता चलेगा।
लेकिन जो खबर मैंने आज देखी मुझे पढ़ कर अच्छा लगा ....आस्ट्रेलिया में यह निर्णय लिया गया है कि अब से वहां पर बिकने वाली शराब पर स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी लिखी रहा करेगी। आस्ट्रेलिया में यह दारू-वारू पीने की समस्या बहुत ही जटिल है। बच्चे छोटी आयु से ही इस के चक्कर में पड़ जाते हैं --- औसतन पंद्रह-साढ़े पंद्रह साल की उम्र तक तो ये लोग दारू पीना शुरू कर ही देते हैं। महिलाएं भी इस में कहां पीछे हैं।
इसलिये वहां पर यह निर्णय लिया गया है कि निम्नलिखित चेतावनियां शराब पर लिखी जाने लगेंगी ...
Kids & Alcohol don’t mix
It is safest not to drink while pregnant
Is your drinking harming yourself or others
मैं जो खबर पढ़ रहा था –एसोसिएटेड प्रैस की साइट पर उस में एक जगह यह भी लिखा था कि क्रिकेटर डेविड बून ने 1989 ने सिडनी से लंदन की हवाई यात्रा के दौराना 52 बियर की बोतलें पी थीं। और मुझे आज से पहले यह भी नहीं पता था कि अमेरिका सहित 14 देश ऐसे हैं जहां पर शराब की बोतलों पर चेतावनी लिखी जाती है।
यह बातें हो गईं अमीर देशों के अमीर लोगों की ....लेकिन यहां पर तो ज़्यादातर देशी, ठर्रा, नकली, मिलावटी, नारंगी , सतरंगी, पाउच में, थैली में ......पता नहीं क्या क्या बिक रहा है। सैंकड़ों लोग जो इन ज़हरीली दारू की वजह से बेमौत मर जाते हैं उन का मीडिया में कभी कभी ज़िक्र आ ही जाता है ...रोती, विर्लाप करती महिलाएं व छोटे छोटे बच्चे..... लेकिन हज़ारों लाखों जो दारू की वजह से तिल तिल मरते रहते हैं उन की फिकर कौन कर रहा है। सुबह सवेरे जब कभी किसी ठेके के सामने से गुज़रने का अवसर मिलता और लोगों को प्लास्टिक की छोटी छोटी बोतलों से मदिरापान करते देखता हूं तो इन पीने वाले लोगों के अलावा मुझे हर इंसान पर गुस्सा आता है ...चलिये, वो तो अलग बात है।
काश, हमारे यहां भी यह चेतावनी का प्रावधान हो जाए ---पहले तो उस में बीसियों साल लग जाएंगे, फिर सोचता हूं उस से हो भी क्या जाएगा ....ये जो चेतावनी आस्ट्रेलिया में शुरू की जा रही हैं, इतने से आम हिंदोस्तानी का क्या बनेगा.... यह चेतावनियां हमारे लिये नहीं हैं ...हमारे लिये तो हैं ...तरह तरह की डरावनी तस्वीरें उन लोगों की जिन का लिवर खराब हो गया ... पेट फूल गया .... खून की उल्टीयां हो रही हैं, शौच में रक्त आने लगा है ..... और यह सब इस देश में दारू की वजह से होने वाले रोगों के आम से लक्षण हैं।
मुझे ध्यान आ रहा है इस देश की विभिन्न आध्यात्मिक लहरों का ---अनेकों लोगों के अनुभव सुनता हूं...उन की ज़िंदगी को नज़दीक से देखता हूं जिन्होंने ऐसी ही किसी आध्यात्मिक लहर के प्रभाव में आने के बाद दारू पीनी छोड़ दी, और अब वे दूसरों को भी इस ज़हर से दूर रहने के लिये प्रेरित कर रहे हैं। इन के बच्चे भी इन के प्रभाव में आने की वजह से दारू से दूर ही रहते हैं। मुझे यह चमत्कार बहुत अचंभित करता है...दारू तो दारू, विभिन्न प्रकार के अन्य नशों से भी दूर ही रहते हैं.... great Indians! मैं इन आध्यात्मकि लहरों के दूसरे पहलुओं में घुसना नहीं चाहता क्योंकि यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है......लेकिन कुछ आध्यात्मिक पहलू अगर करोडों लोगों के इसी लोक को खुशग़वार बनाने में जुटे हैं तो आखिर बुराई क्या है। मैं निरंकारी सत्संग में जाता हूं और वहां पर अनेकों लोगों के अनुभव सुनता हूं कि आत्मज्ञान बोध के बाद कैसे उन्होंने नशा को त्याग दिया ..... क्योंकि गुरू की तरफ़ से सभी तरह के नशों को इस्तेमाल करने पर मनाही लगाई है, बस अनुयायी के लिये इस आदेश से बढ़ कर क्या है!..... this is incredible India.
और अब करते हैं डंडे की बात ---जैसा कि हरियाणा में कईं बार अपने पतियों की दारू से परेशान बेचारी महिलाएं कर चुकी हैं ...धरना, विरोध, दारू की दुकान के आगे लफड़ा—ये सब बातें कितनी कारगर होती होंगी इस सामाजिक बुराई को उखाड़ने में, इस के बारे में कुछ कह नहीं सकता। लेकिन बात तो तब ही बनती है जब सोच बदलती है.....दूसरे रास्ते, ये चेतावनियां, ये डरावनी फोटू-वोटू वाले रास्ते बडे कठिन से हैं, दुर्गम हैं...परिणाम क्या निकलेंगे, कौन कहे............
PS…. Without malice towards anybody --- no moral policing here!
जाते जाते इस गीत का ध्यान आ गया ---पता नहीं पिछले पचास वर्षों में इस गीत ने कितने लोगों को पीने के लिये उकसाया होगा ....

यौन-रोग सूज़ाक की बेअसर होती दवाईयां

क्या सूज़ाक का नाम नहीं सुना? – ये जो लोग पहले सिनेमाघरों, बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के बाहर हर किसी को एक इश्तिहार सा थमाते दिखते थे – जिस में किसी खानदानी नीम हकीम द्वारा हर प्रकार के गुप्त-रोग का शर्तिया इलाज का झांसा दिया जाता था, उस लिस्ट में कितनी बार लिखा तो होता था – आतशक-सूज़ाक जैसे रोग भी ठीक कर दिये जाते हैं। खैर वे कैसे ठीक करते हैं, अब सारा जग जानता है, केवल मरीज़ को उलझा के रखना और उन से पैसे ऐंठना ही अगर झोलाछापों का ध्येय हो तो इन से बच के रहने के अलावा कोई क्या करे।

हां, तो इस योन रोग सूज़ाक को इंगलिश में ग्नोरिया रोग (Gonorrhoea) कहते हैं – समाचार जो कल दिखा है वह यह कि इस रोग के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयां बेअसर हो रही हैं और आने वाले समय में इस का इलाज करना मुश्किल हो जायेगा--- जब दवाईयां ही काम नहीं करेंगी तो इलाज क्या होगा!!

थोड़ा सा इस रोग के बारे में – यह रोग किसी संक्रमित व्यक्ति से संभोग से फैलता है और यह केवल vaginal sex से ही नहीं बल्कि ओरल-सैक्स एवं एनल सैक्स (मुथमैथुन एवं गुदा-मैथुन) से भी फैलता है। तो इस के लक्षण क्या हैं? –इस के लक्षणों के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग 50फीसदी महिलाओं में तो इस के कोई लक्षण होते ही नहीं हैं, लेकिन 2 से 5 प्रतिशत पुरूषों में इस के कोई लक्षण नहीं होते।

इस के ऊपर भारतीयों की एक और विषम समस्या --- वे अकसर इन रोगों को छोटे मोटे समझ कर या झिझक की वजह से किसी क्वालीफाइड डाक्टर से मिल कर न तो इस का आसान सा टैस्ट ही करवाते हैं और न ही इस के लिये कुछ दिन दवाईयां लेकर इस से मुक्ति ही हासिल कर पाते हैं। नतीजतन यह रोग बढ़ता ही रहता है ... और महिलाओं में तो बांझपन तक की नौबत आ जाती है ...और भी बहुत सी परेशानियां – जैसे पैल्विक इंफेमेटरी डिसीज़(pelvic inflammatory disease), पेशाब में जलन आदि हो जाती हैं।

पुरूषों में भी इस रोग की वजह से पेशाब में जलन (पेशाब की जलन के बहुत से अन्य कारण है, केवल पेशाब की जांच से ही कारण का पता चल सकता है), अंडकोष में सूजन और गुप्तांग से डिस्चार्ज हो सकता है। लेकिन इन नीम हकीमों के चक्कर में सही इलाज से दूर ही रहा जाता है।

विश्व भर के हैल्थ विशेषज्ञों की यही राय है कि ऐसे यौन-जनित रोग जिन का इलाज नहीं करवाया जाता ये रोग एचआईव्ही संक्रमण को बढ़ावा देने में भी मदद करते हैं—क्योंकि इन की वजह से यौन अंगों पर जो छोटे मोटे घाव, फोड़े, फुंसियां होते हैं वे एचआईव्ही वॉयरस को शरीर में प्रवेश करने का एक अनुकूल वातावरण उपलब्ध करवाते हैं।

तो इस खबर पढ़ कर हरेक का यह कर्तव्य बनता है कि इस के बारे में जितनी भी हो सके जनजागरूकता बढ़ाए ताकि अगर किसी को इस तरह की कोई तकलीफ है भी तो वह उस से जल्द से जल्द निजात पा सके....फिर धीरे धीरे इस के जीवाणु इतने ढीठ (drug resistance) होने वाले हैं कि पछताना पड़ सकता है।

इस तरह के रोग अमीर देशों में बहुत हैं यह हम लोग अकसर देखते पढ़ते हैं ...बेपरवाह उन्मुकता जैसे बहुत से अन्य कारणों (जिन्हें आप जानते ही हैं) में से एक कारण यह भी है कि वहां लोग इस तरह के टैस्ट करवा लेते हैं ...लेकिन भारत में पहले तो ढंग के डाक्टर (मतलब क्वालीफाइड) के पास जाता ही नहीं और अगर वहां चला भी गया तो बहुत बात टैस्ट और दवाईयां करवाने लेने के लिये टालमटोल करता है, चलो थोड़ा दिन और देशी दवाई खा कर देख लेते हैं ...इन हालातों में वह आगे से आगे यह रोग तो संचारित करता ही है, अपना तो ऩुकसान करता ही है।
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Drug resistant STD now a global threat
स्वस्थ लोगों को बीमार करने की सनक या कुछ और

सोमवार, 11 जुलाई 2011

ताकत के कैप्सूल की पाठशाला ...

कल हिंदी की एक अखबार में मुझे "ताकत के कैप्सूल" का एक विज्ञापन दिख गया ... उसे ध्यान से पढ़ते-देखते हुये मैं यही सोच रहा था कि जितनी मेहनत ये कंपनियों वाले इस तरह के कैप्सूल आम जन को बिना सोचे-समझे गटकने के लिये विवश करने के लिये करते हैं .....इन के विज्ञापनों की साज सज्जा, शैली, भाषा ...एकदम परफैक्ट। अगर मरीज़ों को अपने स्तर पर कुछ निर्णय लेने के लिये प्रेरित करने की बात है तो हमारी चिकित्सा व्यवस्था को भी इन के तौर-तरीकों से कुछ सीखने की ज़रूरत है। यह रंगीन विज्ञापन था जिसे एक कॉमिकस की तरह पेश किया गया था।

उस विज्ञापन में जो कुछ लिखा था, यहां बताना चाहूंगा .... उस की स्कैन्ड कॉपी अपरिहार्य कारणों से यहां चिपकाने में असमर्थ हूं। एक बंदा बाज़ार में घूम रहा है ..तो अचानक उसे एक केन्द्र का बोर्ड दिख जाता है....यह केन्द्र कोई और केन्द्र-वेन्द्र नहीं है, बस उस कैप्सूल के नाम के आगे केन्द्र लिख दिया गया है..... और आगे सुनिये ...
---अरे, .....केन्द्र। इस के बारे में थोड़ी जानकारी ले लेता हूं।
-- वह बंदा अदंर जाता है और एक सफेद कोट धारण हुये बंदे से उस कैप्सूल का नाम लेकर पूछता है .... यह क्या है?
कंपनी वाला -- यह भारत का नंबर 1 दैनिक स्वास्थ्य पूरक है जिसमें 11 विटामिन, 9 मिनरल और जिनसेंग का संतुलित मिश्रण है।
जिज्ञासु - अरे वाह! इसके क्या फ़ायदे हैं?इसे दैनिक स्वास्थ्य पूरक क्यों कहते हैं?
कंपनी वाला- यह शरीर में ऐसे पौष्टिक तत्वों की भरपाई करता है जिनकी कमी के कारण थकान, कमज़ोरी और शरीर टूटने लगता है। इस तरह से यह आपको सारा दिन चुस्त और तन्दरूस्त रखता है। इस का सेवन रोज़ करना चाहिए, इसलिेए इसे दैनिक स्वास्थ्य पूरक कहते हैं।
जिज्ञासु - अच्छा!
कंपनी वाला - यही नहीं, यह मानसिक चेतना और एकाग्रता भी बढ़ाता है। इस से रोगरोधी क्षमता मज़बूत होती है। यह विटामिन और मिनरल की भरपाई करता है और अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करता है।
जिज्ञासु - मैं घर का बना नियमित आहार लेता हूं, क्या तब भी यह कैप्सूल लेना चाहिए ?
कंपनी वाला - यह कैप्सूल कुछ ऐसे ज़रूरी विटामिन और मिनरल की पूर्ति करता है जो नियमित आहार लेने के बाद भी हमारे शरीर को नहीं मिल पाते।
जिज्ञासु - यह कैप्सूल कौन ले सकता है?
कंपनी वाला -- 12 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष इस का सेवन कर सकते हैं। यही नहीं अब तो महिलाओं के लिए खास कैप्सूल वुमन और 50 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लिए ...सीनियर भी उपलब्ध है। यह कैप्सूल अत्यंत व्यस्त जीवनशैली और शारीरिक अथवा मानसिक तौर पर थका देने वाले हालात में काम करने वालों के लिए अति उत्तम है।
जिज्ञासु - धन्यवाद.. ..कैप्सूल एक्सपर्ट, मैं आज से ही इस कैप्सूल का नियमित सेवन करूंगा।

और इस बढ़िया से विज्ञापन से नीचे लिखा है -- तो आप यह कैप्सूल लेना कब से शुरू कर रहे हैं? और इस कैप्सूल विशेषज्ञ के लिये टॉल फ्री नं ......या एसटीडी नंबर ..... पर कॉल करें या ......इस नंबर ....पर SMSकेरं या e-mailकरें इस पते पर ....और तो और साथ ही net-savvy ग्राहकों के लिए इस कैप्सूल के फेसबुक पेज़ का पता भी दिया गया है। और सब से नीचे लिखा गया है कि इस कैप्सूल से संबंधित ज्ञान को अगले तीन हफ़तों तक रविवारीय संस्करण के माध्यम से बटोरें और फिर 31 जुलाई के अंक में इस कैप्सूल पर आधारित सवालों का जवाब भेजें और जीतें ढेर सारे आकर्षक इनाम।

साइड में एक अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी की फोटू भी लगी है जिस ने इन कैप्सूलों को पकड़ा हुआ है --- मुझे लगता है कि वह तो इन्हें खाता नहीं होगा, और असल में उसे इतनी युवावस्था में इन्हें लेने की ज़रूरत पड़ती है तो किसी चिकित्सक से मिल लेना उस के लिये हितकारी होगा। हां, तो बताइए, इस तरह का विज्ञापन देख कर है कोई जो इन के चक्कर में पड़ने से बच पाए।

और जिज्ञासु की बात सुनी आपने - वह बेचारा इसी गम में दुबला हुआ जा रहा है कि वह घर का खाना खाता है ----और क्या खाएगा, भाई। और किस तरह से कंपनी वाले द्वारा उस का ब्रेन-वॉश किया जा रहा है कि घर में तो तुम कुछ भी खा लो, तुम्हें कुछ न कुछ कमी तो रह ही जाएगी, थकान भी होगी और कमज़ोरी भी लगेगी।

लेकिन इस तरह के कैप्सूलों के बारे में सच्चाई यह है कि बिना किसी शारीरिक बीमारी के और बिना किसी डाक्टरी परामर्श के इस तरह के कैप्सूल स्वयं भी लेने शुरू कर देना बिल्कुल बेकार सी बात है। हां, चिकित्सक कुछ अवधि तक किसी पुरानी बीमारी आदि में विटामन आदि के कैप्सूल लेने की सलाह दे सकते हैं.... वो अलग बात है। एक बात पढ़ कर तो और भी अजीब लगा कि इसे 12 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष ले सकते हैं ...... यह पढ़ते हुये यही लग रहा था कि कंपनी को क्या फ़र्क पड़ेगा --- चाहे तो कोई नवजात् शिशु को दलिेये, खिचड़ी के साथ मिला के ही देने की हिमाकत कर दे।

कंपनी का सीधा सीधा फंडा है कि उस के कैप्सूल बिकने चाहिएं ...और खूब बिकने चाहिएं। काश, चिकित्सा व्यवस्था इन कंपनियों की अपनी दवाईयां बेचने की शिद्धत से कुछ पाठ सीख सकें ....ताकि वे भी अपने सेहत से जुड़े बेशकीमती संदेश करोड़ों लोगों तक और भी प्रभावपूर्ण ढंग से बेच पाएं।

रविवार, 10 जुलाई 2011

डोपिंग के कुछ अनछुए पहलू

कुछ दिनों से खूब सुन रहे हैं किस तरह से कुछ खिलाड़ीयों का डोप टैस्ट पॉजीटिव आया है। अफरातफरी में राष्ट्रीय खेल संस्थान के बाहर कैमिस्टों पर छापे मारे गये, प्रतिबंधित दवाईयां पकड़ी गईं ...रिकार्डों में भी गड़बड़ थी, और प्रिंट मीडिया में इस बात का भी खुलासा किया गया कि वहां से बिना डाक्टरी नुस्खा के ही कोई भी दवाई खरीदी जा सकती है।
चलिये थोड़े दिनों की बात है..धूल नीचे बैठ जायेगी...और हमारी यादाश्त वैसी भी कोई विशेष तेज़ तो है नहीं ---अब इस देश का आमजन किस किस तरह के आंकड़े याद रखे ... थोड़ी ही दिनों में वह किसी और घोटाले के चटखारे लेने लगेगा, ऐसे में कहां यह डोपिंग वोपिंग वाली बात किसी को याद ही रहने वाली है।
लेकिन असल मुद्दा यह है कि क्या इस तरह की दवाईयां केवल पटियाला के इस संस्थान के बाहर कैमिस्टों की दुकानों से ही मिलती हैं.... इस बात पर लगता है कि कोई यकीन करेगा ? --- इस देश में कहीं से भी कुछ भी खरीद लो...बस तमाशा देखने के लिये पैसा फैंकने की ज़रूरत है।
दो एक दिन पहले मुझे सायना नेहवाल की एक बात जो मैंने पेपर में देखी, वह मुझे बिल्कुल ठीक लगी। वह कह रही थी कि कुछ खिलाड़ी इतने पढ़े लिखे हैं नहीं ...इस वजह से वे इस सारी बात को अच्छी तरह से समझ ही नहीं पाते। उन्हें इस बात का आभास तक भी शायद नहीं होता होगा कि वे जिन सप्लीमैंट्स को ले रहे हैं उन में किस तरह के प्रतिबंधित साल्ट मिले हुये हैं।
जो भी हो, खिलाडि़यों को इन सब बातों का पूर्ण ज्ञान तो दिया ही जाना चाहिये.... लेकिन डोपिंग के ये कुछ किस्से तो सारे देश के सामने आ जाते हैं लेकिन जो डोपिंग इस देश के हर शहर में, हर गांव में हो रही है उस का कोई क्या करे।
आज का युवा एवं युवतियां सुडौल शरीर के लिये जो तरह तरह के सप्लीमैंट्स कैमिस्टों से खरीद लाते हैं उन में ये सब लफड़े वाली दवाईयां मिली रहती हैं ---और यह धंधा करने वाले इतने बेखौफ़ हैं (यह हर कोई जानता है कि इस बेखौफ़ी के पीछे क्या राज़ है !!) कि अधिकतर सप्लीमैंट फूड्स पर इन साल्टों के बारे में कुछ भी लिखा ही नहीं होता। इसलिये युवा वर्ग अंधेरे में ही ये सब खाता रहता है।
इस सब प्रतिबंधित पदार्थों के बहुत नुकसान हैं ---- कुछ ही दिनों में मांसपेशियां सुडौल हो जाएं केवल यही न देखा जाए... ये दवाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें किसी प्रशिक्षित चिकित्सक के नुस्खे के बिना खाना खतरा मोल लेने जैसा है।
ये जिम वाले भी जो पावडर- वाउडर एक्सरसाईज़ करने वालों को थमा देते हैं इन में भी इन्हीं ऐनाबॉलिक स्टीरायड्स की मिलावट तो रहती ही है। मैं इतनी बार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर इस तरह की चेतावनियां पढ़ चुका हूं कि मुझे यही लगने लगा है कि अगर अमेरिका जैसे देश में यह सब बार बार सामने आता रहता है तो हम लोग तो इस के बारे में चुप ही रहें तो बेहतर होगा-- यहां तो कुछ भी बिकता है, बस थोड़ी बहुत इधर-उधर सैटिंग करने की बात है !!
इस पोस्ट के माध्यम से जो बात रेखांकित की जा रही है कि डोपिंग के मामले केवल वही नहीं हैं जो मीडिया हमारे सामने ले आता है -- शायद हज़ारों-लाखों किस्से इन सप्लीमैंट्स के कारण देश में हो रहे होंगे --- शायद कोई मैडल वैडल जीतने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि खिलाड़ियों की सेहत ठीक रहे ... क्योंकि बार बार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन भी चेता दिया करती है कि प्रतिबंधित दवाईयों का बेरोकटोक इस्तेमाल ख़तरों से खाली नहीं है। और झोलाछाप डाक्टर भी इस तरह के धंधों में तबीयत से चांदी कूटे जा रहे हैं !!

शनिवार, 2 जुलाई 2011

अमेरिकी लोगों की एचआईव्ही टैस्टिंग के परिणाम

अमेरिका में सितंबर 2007 से सितंबर 2010 तक 27 लाख लोगों की एचआईव्ही जांच की गई – जिन में से एक प्रतिशत से थोड़ा ऊपर लगभग 29503 लोगों को एचआईव्ही से ग्रस्त पाया गया। इन में से 18000 लोग तो ऐसे थे जिन्हें अपने एचआईव्ही पॉज़िटिव होने का पता ही नहीं था। और इन 29000 लोगों में से लगभग 72प्रतिशत पुरूष थे।

अमेरिका में लगभग 12 लाख लोग एचआईव्ही से ग्रस्त हैं जिन में लगभग 20 प्रतिशत लोगों को यह भी नहीं पता कि उन्हें यह रोग है। और अहम् बात यह है कि वहां पर हर वर्ष जो एचआईव्ही के संक्रमण के नये केस, लगभग 56000 प्रतिवर्ष, पाये जाते हैं उन में से ज़्यादातर उन लोगों के कारण ही होते हैं जिन्हें अपने एचआईव्ही स्टेट्स का पता ही नहीं होता।

आंकड़े –आंकड़े –आंकड़े ---- चलिये, उन के पास आंकड़े तो हैं, यहां तो तुक्के ही तुक्के हैं। होता तो यहां पर भी बहुत प्रचार है कि अपनी इच्छा से अपना एचआईव्ही टैस्ट करवाने के लिये सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन कभी इस तरह के आंकड़े मीडिया में दिखे नहीं कि इस वर्ष इतने लोगों ने ऐच्छिक तौर पर यह टैस्ट करवाया और इतने प्रतिशत लोगों को पॉज़िटिव पाया गया।

अपनी इच्छा से यह टैस्ट करवाने के अपने फायदे हैं – एक तो यह कि अगर कोई हाई-रिस्क बिहेवियर से है तो उसे एचआईव्ही निगेटिव होने पर एक तरह की निश्चिंता सी हो जायेगी ताकि उसे आगे से अपना बिहेवियर दुरूस्त करने के लिये एक प्रेरणा सी मिल जाएगी।

और अगर कोई पाज़िटिव निकलता है तो उसे एक रास्ता दिख जाएगा --- ART –Anti-retroviral therapy—जल्दी शुरू करने का एक अवसर मिल जायेगा ताकि उस के शरीर में वॉयरस के फैलने पर नियंत्रण किया जा सके --- इन सब का यह प्रभाव होता है कि उस व्यक्ति की आयु काफ़ी बढ़ जाती है। और अब तो बार बार मैडीकल विशेषज्ञ एवं अनुसंधानकर्त्ता एचआईव्ही ग्रसित व्यक्ति को एचआरटी जल्दी शीघ्र करने के लिये प्रेरित करते रहते हैं।

मैं सोच रहा था कि हमारे देश में इस तरह का अभियान चलना चाहिये जिस के अंतर्गत लाखों-करोड़ों लोगों की जांच की जाए ताकि समस्या का सही आंकलन हो सके। लेकिन इस के साथ यह भी लगता है कि इस देश की एचआईव्ही संक्रमण के साथ साथ अपनी और भी बहुत सी सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं हैं --- आज ही के अखबार में देख रहा था कि अब सरकार लाखों लोगों की शूगर की जांच करेगी ताकि उन को इस महामारी के मुंह से बचाया जा सके। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि क्या सारा काम सरकार ही करेगी, समस्याएं इस देश की इतनी विकराल हैं कि सब के हल सरकार से ही खोजना मुनासिब नहीं लगता।
Source : Awareness- HIV compaign finds 18000 new cases

तुम भी चलो, हम भी चलें.....चलती रहे ज़िंदगी .......

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

डाक्टरी नुस्खे की दो कापियां करेंगी जादू ?

जी हां, आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यही खबर छपी है .. Now, two prescriptions to buy medicines. दरअसल, मैंने जब यह समाचार देखा कि यह तो इंदौर से संबंधित है तो मुझे लगा कि इस का भी संबंध उस लड़कियों को लड़के बनाने वाले लफड़े से ही होगा, लेकिन नहीं, यहां कुछ दूसरा मसला था।

इंदौर की पुलिस के मुताबिक आज कल के मुजरिम कोई भी बड़ी वारदात अंजाम देने से पहले कैमिस्ट के यहां से आसानी से मिल जाने वाली दवाईयों को इस्तेमाल कर के बेखौफ़ हो जाते हैं। दवाईयों की जिस लिस्ट को अखबार में छपा गया, वह यह थी –Alprazolam, Diazepam, Oxazepam, Nitrazepam, Clobazepam, Flurarepam, Pentozocine, Clobazam, Chlordiazepoxide, Midazolam, Lorazepam.

यह दवाईयां अवसाद (anti-depressant), मूड को दुरूस्त रखने के लिये (mood elevators), मन को शांत रखने के लिये ( sedatives) इस्तेमाल की जाती हैं.. इन में से दौरों के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाई भी है।
इन में से कुछ दवाईयां ऐसी हैं जिन्हें अगर शराब के साथ ले लिया जाए तो नशा कईं गुणा बढ़ जाता है। दरअसल ये दवाईयां उस लिस्ट में आती हैं जिन्हें डाक्टरी नुस्खे के बिना कैमिस्ट के यहां से खरीदा ही नहीं जा सकता।

अब इंदौर में ऐसा प्रबंध सुनने में आया है जो कि पुलिस ने इंडियन मैडीकल एसोशिएशन की सहमति से एक व्यवस्था शुरू की है जिस के अंतर्गत अब इन दवाईयों को लेने के लिये चिकित्सक नुस्खे की दो कापियां बनाया करेंगे, एक कापी मरीज़ के पास रहेगी, दूसरी कैमिस्ट के द्वारा जमा कर ली जाया करेगी।

और 1 अगस्त 2011 से पुलिस इन कैमिस्टों का औचक निरीक्षण किया करेगी ---अगर इन नियमों का पालन नहीं किया जायेगा तो केस रजिस्टर किये जाएंगे।

आप को कैसे लगा यह खबर पढ़ कर –पता नहीं टाइम्स की साइट से यह खबर क्यों गायब है, चलिये इस व्यवस्था पर टिप्पणी करने से पहले इंदौर को अपनी शुभकामनाएं तो भेंट कर दें कि काश, वह शहर कुछ ऐसी उदाहरण पेश कर सके जिसका देश भर में अनुसरण किया जा सके।

लेकिन मुझे हमेशा से यही लगता रहा है कि कैसे डाक्टरी नुस्खे से ही दवाई हासिल की जाती होगी ---वैसे हकीकत क्या है, किस तरह से कोई भी दवाई कोई भी कहीं से कैसे भी हासिल कर सकता है।

मुझे हमेशा से यही लगता है कि अगर किसी के पास एक नुस्खा है भी तो कैमिस्ट के पास क्या प्रूफ़ है कि उस ने डाक्टरी नुस्खे के आधार पर वो दवाईयां दी हैं, लेकिन वह भी इतनी माथापच्ची क्यों करे क्योंकि यहां पर दवाईयों की कैश-मीमो तक लेने का रिवाज ही नहीं है।

एक नुस्खे को बीसियों कैमिस्टों को बीसियों जगह से कोई भी दवा हासिल की जा सकती है, कोई शक ? हम लोग अकसर यह भी देखते सुनते और पढ़ते रहते हैं कि कुछ लोगों की लापरवाही से किस तरह यह नशों का धंधा किस तरह से फल-फूल रहा है।

मुझे यह खबर पढ़ कर यह भी हैरानी हुई कि क्या पुलिस वाले भी कैमिस्ट की दुकानों पर जा कर चैकिंग कर सकते हैं, जैसा कि इस खबर में बताया गया है। जहां तक मुझे जानकारी है यह काम तो ड्रग –इंस्पैक्टर करते हैं, लेकिन पता नहीं अब क्या नये नये नियम बन रहे हैं।

कितना सही हो , अगर सब लोग अपना अपना काम सही ढंग से करें – न ही बिना ज़रूरत के इस तरह के खतरनाक नुस्खे लिखे ही जाएं, न ही ये नशे बेचे जाएं , न ही इन्हें बिना वजह खाया जाए ... वही बात है ..wishful thinking .... लेकिन अगर नशे करने वाला ही यही समझ ले कि सब से ज़्यादा तो वही अपना नुकसान किये जा रहा है, मौत को बुलावा दे रहा है, नियमों का क्या है, बनते रहेंगे, टूटते रहेंगे..............काश, इस व्यवस्था को सुचारू किया जा सके। लेकिन मुझे लगता है कि इस कोढ़ का इलाज इतना आसान नहीं है कि दो नुस्खे बनने से और पुलिस के सरप्राइज़ चैक से ही सब लोग अच्छे बच्चे बन जाएंगे ..... इस समस्या के अनेकों पहलू हैं जो बुरी तरह से गुथे हुये हैं... जिन को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

नसबंदी करवाओ, नैनो पाओ....

आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर देख कर – Get Sterilised in Raj, drive home a Nano- ( पता नहीं यह खबर टाइम्स आफ इंडिया की साइट से कैसे गायब हो गई है, मेरे सामने प्रिंट एडिशन में तो यह बरकरार है....thank God, otherwise my credibility would have been at stake!!) एक बार तो लगा कि यार, यह क्या हो रहा है, जो मामला दो-चार-पांच सौ रूपये के इनाम से सुलट जाया करता था उस के लिये अब नैनो कार देने की नौबत आ गई... यही लगा कि अगर इस तरह से नैनो बांटी जाने लगेंगी तो खजाने खाली हो जाएंगे। लेकिन हमेशा की तरह खबर के शीर्षक की वजह से मैं एक बार फिर से बेवकूफ़ बन गया।

खबर पढ़ी तो माजरा समझ में आया कि यह तो भाई कूपन वूपन वाला मामला है। जैसे आयकर से छूट के लिये हम लोग राष्ट्रीय बचत पत्र खरीदते थे – उस के साथ इस तरह की गाड़ियों आदि के कूपन मिलते थे --- बहुत वर्षों बाद एक ऐसी ही लाटरी में अपनी भी एक चादर निकल गई थी। हां, तो नसबंदी वाली बात पर लौटते हैं ....खबर तफ़सील से पढ़ने पर पता चला कि जो लोग 1जुलाई से 30 सितंबर 2011 तक नसबंदी करवाएंगे, उन्हें एक कूपन दिया जाएगा। और बाद में इनामों के लिये लाटरी निकाली जाएगी ... और इनामों की लिस्ट यह है ...
  • एक नैनो कार
  • पांच मोटरसाइकिल
  • 21इंच के पांच कलर टीवी
  • सात मिक्सर ग्राईंडर
हां, खबर तो सुबह पढ़ी ही थी ...लेकिन आज शाम को जैसे ही बीबीसी की साइट पर आया तो वहां पर भी यही हैड-लाइन देख कर हैरान रह गया India- Rajasthan in 'Cars for sterilisation' drive - यही सोच रहा हूं कि हिंदोस्तान भी किन किन कारणों से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है।
इस के बारे में आप की क्या राय है?
PS... समझ नहीं पा रहा कि टाइम्स की साइट से इसे क्यों हटा दिया गया है जब कि हैडलाइन्स कायम है।


मंगलवार, 28 जून 2011

बेटीयों को बेटों में बदलने का गोरखधंधा

सैक्स चेंज करवाने संबंधी मेरा ज्ञान केवल उन एक-आध न्यूज़-स्टोरीयों तक ही सीमित है जो यदा कदा मीडिया में दिख जाती थीं... और अकसर विदेशों से इस तरह की बड़ी खबर आया करती थीं कि फलां फलां ने अपना सैक्स चेंज करवा --- पुरूष से महिला बन गया अथवा कोई महिला अपना सैक्स चेंज करवा के पुरूष बन गई।

कल की The Hindu  में मैंने एक समाचार का यह कैप्शन देखा—NCPCR seeks report on genitoplasty in Indore . समाचार का शीर्षक पढ़ कर मुझे कुछ कुछ यही लगा कि होगी यह खबर उस कुप्रथा के बारे में जिस के अंतर्गत छोटी बच्चीयों एवं युवतियों के यौन अंगों को विकृत किया जाता है ...Genital mutilation of females. और एक पल के लिये मुझे लगा कि आज कल कुछ देशों में इन अंगों की पलास्टिक सर्जरी की सनक जो लोगों में सवार है, शायद उस के बारे में कुछ लिखा हो। लेकिन इस खबर को मैंने जैसे ही पूरा देखा तो मेरे पैरों के तले से ज़मीन खिसक गई।

तो सुनिये ... इस देश में बेटे की चाहत में हज़ारों-लाखों बच्चियों को गर्भ में ही कत्ल कर दिया जाता है...इस बात के लिये कोई सरकारी आंकड़ें शायद ही दिखेंगे। अभी कुछ अरसा पहले से यह भी सुनने में आने लगा है कि क्योंकि गर्भवती महिला का अल्ट्रासाउंड कर के उस के गर्भ में पल रहे बच्चे के बारे में बताना कि वह लड़की है या लड़का --- चूंकि अब यह काम जोखिम से भर रहा है (Is it really so? ….i doubt!) इसलिये कुछ अन्य तरीकों से –शायद क्रोमोसोमल स्टडीज़ नाम से कोई टैस्ट है जिस के द्वारा भी गर्भ में पल रहे शिशु का सैक्स पता किया जा सकता है। फिर यह आफ़त आई कि अब इस तरह की टैस्ट किट इंटरनेट पर उपलब्ध होने की वजह से भ्रूण-हत्या के लिये इस का गल्त प्रयोग किया जायेगा। लेकिन मैं जिस खबर की बात कर रहा हूं उस से तो हद ही हो गई....।

शायद मैंने कल यह पहली बार पढ़ा था कि बेटे को पाने की चाहत का सिरफिरापन इस कद्र बढ़ गया कि इस देश में इंदोर में सैंकड़ों छोटी छोटी बच्चियों का सैक्स परिवर्तन कर के उन्हें लड़का बना दिया गया ... अगर आप का ट्विटर एकाउंट है तो हैश genitoplasty ( #genitoplasty) कर के ट्विटर सर्च करिये और देखिए इंदोर की इस भयानक खबर के बहुत से लिंक।


उस समाचार में यह खुलासा किया गया है कि पांच साल की छोटी छोटी बच्चियों का भी यह आप्रेशन किया जा रहा है ---इस पर लगभग डेढ़ लाख के करीब खर्च आता है और ज़्यादातर लोग बड़े शहरों से आकर ये आप्रेशन करवाते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि इंदौर के नामचीन सर्जन –प्राइव्हेट एवं सरकारी अस्पतालों से ये आप्रेशन कर रहे हैं, पढ़ कर बेहद दुःख हुआ। बस यही पढ़ना सुनना बाकी रह गया था।

इसलिये नैशनल कमीशन फॉर प्रोटैक्शन ऑफ चाइल् राइट्स (National Commission for protection of Child Rights)  ने इस तरह के केसों के बारे में मध्यप्रदेश सरकार से पूरी छानबीन कर के रिपोर्ट भेजने को कहा है।
दरअसल जैनिटोप्लास्टी आप्रेशन की मैडीकल कारणों से कुछ केसों में ज़रूरत पड़ सकती है जब किसी के अंदरूनी सैक्स अंग (internal sex organs) तो पुरूष के हों और बाहरी (external genitals) उस के साथ मैच न करते हों, उन में कोई कमी हो, कोई विकृति हो ताकि जैनिटोप्लास्टी आप्रेशन की मदद से उसे दुरूस्त किया जा सके। मैडीकल कारणों की वजह से यह आप्रेशन महिला में किया जा रहा है या पुरूष में --- Masculanizing Genitoplasty or Feminising Genitoplasty… कहलाता है।

लेकिन बिना किसी मैडीकल सिफारिश के किसी लड़की को लड़का बनाने का यह धंधा अमानवीय है, घोर निंदनीय है ..... कल जब मैं इस के बारे में नेट पर कुछ रिपोर्ट देख रहा था तो मैं यह देख कर भी अचंभित हुआ कि जो मां-बाप अपनी बच्चियों को इस तरह के आप्रेशन करवाने के लाते हैं उन्हें स्पष्टता से यह बता दिया जाता है कि इस तरह से बेटे आगे संतान सुख प्राप्त नहीं कर पाएंगे .....लेकिन फिर भी वे इस तरह के आप्रेशन के लिये सहमत हो जाते हैं.....छोटी छोटी बच्चियों की तो सहमति का प्रश्न ही कहां उठता है। और तो और, इस तरह के अनऐथिकल (unethical) आप्रेशन करने के बाद उन “ बेटों ’ को तरह तरह की हारमोनल दवाईयां भी दी जाती हैं.........................आप का इस समाचार के बारे में क्या ख्याल है, सिर दुःखता है न यह सब पढ़ कर, कल मेरा सिर भी भारी हो गया यह सब जान कर कि इतने इतने अमानवीय धंधे पनप रहे हैं और इंदौर जैसे व्यवसायिक शहर में।

लेकिन इंदौर की हो क्यों बात करें, रिपोर्ट इंदौर से आई है, पता नहीं और कहां कहां ये सब गोरखधंधे चल रहे होंगे। और नैशनल कमीशन फॉर प्रोटैक्शन ऑफ चाइल् राइट्स ने तो यह भी कहा है कि यह वह मामला नहीं कि किसी आप्रेशन के लिये मां बाप राजी हैं, सर्जन राजी है तो इस तरह के आप्रेशन कर दिये जाएं .....लेकिन इस तरह के आप्रेशनों के लिये डाक्टरों की एक कमेटी यह तय करती है कि क्या उस लड़की अथवा लड़के में मैडीकल कारणों की वजह से वह केस ज़रूरी है या नहीं।

देखते हैं कब इस तरह के धंधों पर रोक लगती है ...... अभी तो ये सब रहस्य अतीत के या आने वाले समय के गर्भ में ही है।