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मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

डॉयबीटीज़ की दवा अब हफ्ते में एक बार....बस?


आज बाद दोपहर उत्तर रेलवे डिवीजिनल अस्पताल, लखनऊ में एक क्लीनिक मीटिंग के दौरान डॉयबीटीज़ रोग के लिए उपलब्ध नईं दवाईयों के बारे में चर्चा हुई...चीफ़  फ़िज़िशियन डा अमरेन्द्र कुमार द्वारा इस विषय पर एक वार्त्ता  प्रस्तुत की गई...यह प्रोग्राम सभी मैडीकल ऑफीसर्ज़ के लिए रखा गया था..इस तरह की क्लीनिकल मीटिंग यहां नियमित होती रहती हैं।

डा अमरेन्द्र ने इस बीमारी के चौकाने वाले आंकड़े रखते हुए इस के लिए उपलब्ध विभिन्न दवाईयों के बारे में चिकित्सकों की जानकारी को रिफ्रेश किया..

कुछ नईं दवाईयों के इतिहास के बारे में बताते हुए यह बताया गया कि २००५ में किस तरह से अफ्रीकी छिपकली की लार से कुछ एन्ज़ाईम्स अलग कर, बहुत सी जटिल रासायनिक प्रकियाओं के बाद एक तरह की दवाई ब्लड-शूगर के लिए तैयार की जाने लगी... उस के बाद इसी तरह की दवाई को मानव से प्राप्त किया जाने लगा..

लेकिन अब यह ड्यूलाग्यूटाईड (Dulagutide) के रूप में उपलब्ध है ..यूरोपियन मार्कीट में २०१५ से यह उपलब्ध है..अमेरिका में यह दवाई २०१४ से उपलब्ध है और अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से एप्रूवड है।

इस तरह की दवाईयां -इन से थोड़ा मिलती जुलती पहले ही से उपलब्ध तो हैं...लेिकन इन्हें इंजेक्शन के रूप में हर रोज़ लेना पड़ता है...जब कि ड्यूलाग्यूटाईड का एक इंजेक्शन हफ्ते में एक बार ही लेना पड़ता है। 



ड्यूलाग्यूटाईड साल्ट ने किस तरह से शूगर रोगियों के लिए दवा लेना आसान कर दिया है ...इंसुलिन दो बार, तीन या चार बार तक भी लेनी पड़ती है ..लेकिन Dulagutide का एक इंजेक्शन एक सप्ताह तक अपना काम करता रहता है। यह इंजेक्शन ०.७५ मिलीग्राम और १.५ मिलीग्राम के सिंगल-यूज़ इस्तेमाल होने वाले पेन के रूप में आता है...इस इंजेक्शन को लेने का खाने के समय से कोई संबंध नहीं है...यानि के इसी कोई खाने से पहले लगाए या बाद में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

यह जो नईं दवाई है यह शूगर के रोगी का वज़न कम करने के लिए भी बहुत उपयोगी है ...अपने आप में यह वज़न कम करने की कोई दवाई नहीं है ...इस से अभिप्रायः यह है कि अगर कोई चाहे कि इसे वज़न कम करने के लिए लिया जाने लगे, ऐसा नहीं है...इस का वज़न कम करने वाला एक्शन इसलिए है कि यह मस्तिष्क के Satiety Centre पर काम करती है ...अब इसे कैसे समझाया जाए...अच्छा, आप यह जान लें कि जब हम खाते हैं तो कुछ समय बाद मस्तिष्क में एक भूख को कंट्रोल करने वाला केन्द्र एक संकेत भेजता है कि और नहीं चाहिए, बस....इस से Calorie intake कम होती है और यह दवाई लेने वालों का वज़न कम होने लगता है।

 Dulagutide से पहले Liragutide इंजेक्शन का इस्तेमाल हुआ करता था ..लेकिन इसे रोज़ाना लेना पड़ता था.. और इस के साथ साथ नये साल्ट की निम्नलिखित विशेषताएं बताई जा रही हैं..
  • इस से HbA1C के स्तर में बेहतर कमी आती है ...इस टेस्ट को ग्लाईकोसेटेड हीमोग्लोबिन कहते हैं..
  • जैसा कि ऊपर चर्चा की गई कि इस से वज़न भी घटता है..
  • मधुमेह की इस दवाई से ब्लड-प्रेशर भी घटता है..
  • इस दवाई का हृदय की मांसपेशियों पर एक सुरक्षात्मक प्रभाव बताया जा रहा है..
  • हाईपोग्लाईसिमिया नामक तकलीफ़ ड्यूलाग्यूटाईड ले रहे मरीज़ों में ओरल ड्रग्स (OHD--oral hypoglycemic drugs) एवं इंसुलिन ले रहे मरीज़ों के मुकाबले बहुत ही कम होती है ..और मधुमेह के जिन मरीज़ों को जिन दवाईयों के साथ हाईपोग्लाईसिमिया हुआ है ये वे ही जानते हैं कि यह कितनी परेशान करने वाली अवस्था है ...जिसमें अचानक रक्त में शर्करा का स्तर बहुत कम होने से मरीज़ की हातल बहुत पतली हो जाती है। 
इस दवाई को एक इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है ...कहने को ही इंजेक्शन है ..यह एक तरह से पेन ही है..और इस में Painless technology का इस्तेमाल होता है और मरीज़ को बिल्कुल भी तकलीफ़ नहीं होती.. और एक बार इस्तेमाल करने के बाद इसे डिस्पोज़ ऑफ कर दिया जाता है .. इस की वीडियो आप इस लिंक पर देख सकते हैं..

साईड इफेक्ट्स ...

साईड इफेक्ट्स हो सकते हैं किसी किसी को .. लेिकन वे कुछ भयंकर किस्म के नहीं है..बस, यही मितली, उल्टी, पेट में दर्द, अपचन आदि हो सकते हैं इस को लेने के बाद शुरूआती हफ्तों में.. मरीज़ को इस के बारे में आगाह कर दिया जाना ज़रूरी है .. दो तीन हफ्तों के इस्तेमाल के बाद इस तरह के इफेक्ट्स कम होने लगते हैं।

एक बात इस के बारे में ध्यान देने योग्य यह भी है कि कोशिश करें कि भर पेट खाना खाने के तुरंत बाद इसे न ले लें, थोड़ा कम खाना खाएं...३० मिनट तक इंतज़ार कर लें, सेटाईटी सेंटर को थोड़ा काम कर लेने दें, फिर थोड़ा खा लें... वही बात कि एक दम ठूंस कर पेट भरने के तुरंत बाद इसे न लें...ताकि मतली, उल्टी जैसी तकलीफ़ से बचा जा सके।

 शूगर के रोगियों में माईक्रोएल्ब्यूमनयूरिया होने के चांस भी यह दवाई कम करती है...माईक्रोएल्ब्यूमनयूरिया को गुर्दे की तकलीफ़ का शुरूआती संकेत माना जाता है।

जब इस दवा को लेना शुरू किया जाता है ...सप्ताह में एक बार इंजेक्शन के रूप में...तो दो हफ्ते में इस का असर होना शुरू हो जाता है .. रेगुलर ब्लड-शूगर मानीटरिंग तो इस केस में भी ज़रूरी है।

शूगर के कौन से रोगी इसे ले सकते हैं...

हर शूगर के मरीज़ के लिए इस तरह की दवाईयां नहीं है..मधुमेह दो तरह का होता है ..एक तो जो बचपन या युवावस्था में ही हो जाता है और दूसरा है जो बड़ी उम्र में तीस-चालीस साल की उम्र में या इस के बाद होता है ..पहले वाली को टाईप वन और दूसरे वाली को टाइप टू कहते हैं... इस दवाई को टाइप टू के मरीज़ ही ले सकते हैं ..वे भी निम्नलिखित क्राईटीरिया पूरा होने पर ...
  • ऐसे मरीज़ जो दो, तीन या चार ओरल ड्रग्स एवं इंसुलिन भी शूगर के कंट्रोल के लिए इस्तेमाल करते हैं लेिकन फिर भी इन का ब्लड-शूगर स्तर कंट्रोल नहीं हो रहा, इन में इस तरह की दवाई फिजिशियन शुरू कर सकते हैं...या तो अकेले या फिर किसी अन्य दवाई के साथ मिला कर ..जैसा भी वे मरीज़ की भलाई के लिए उचित समझते हैं। 
  • जो मरीज़ स्थूल काया वाले हैं और विभिन्न दवाईयों के बावजूद जिन का ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन 8-9 से ऊपर ही रहता है ..

एक बार विशेष यह भी है कि इस दवाई को ज़रूरत पड़ने पर अन्य दवाईयों के साथ भी दिया जा सकता है।

इस की कीमत क्या है..

हफ्ते में इस्तेमाल होने वाले एक पेन की कीमत लगभग दो से अढ़ाई हज़ार है ...इस का मतलब इस को इस्तेमाल करने का खर्च महीने भर के लिए दस हज़ार के पास बैठता है ... यह पेन-टेक्नोलाजी वाला इंजेक्शन बहुत ही कम पीड़ादायक है, वह तो है ही, इस के साथ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि चूंकि यह दवा नई नई लांच हुई है इसलिए थोड़ा महंगी तो है लेकिन जिस तरह से मधुमेह की वजह से उत्पन्न होने वाले अन्य रोगों से यह दवा बचा कर रखती है, दिल की सुरक्षा, ब्लड-प्रेशर का बेहतर कंट्रोल, गुर्दे का बचाव करती है ...उस हिसाब से उन तकलीफ़ों पर होने वाले खर्च से भी एक तरह से बचा लेती है..

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है इसे टाइप १ डायबीटीज़ में नहीं दिया जा सकता .. और न ही इसे डायबीटिक किटोएसीडोसिस में ही दिया जा सकता है।

इस के बारे में एक बार और याद आ गई कि अगर आप इसे आप एक हफ्ते के बाद दो तीन दिन तक लेना भूल भी जाते हैं तो भी कोई बात नहीं....कोई बात नहीं का मतलब यह नहीं कि ऐसा करने के लिए हमेशा के लिए क्लीन चिट मिल गई है ..ऐसा नहीं है, बहुत बार इस की वजह से इसे फिर से रि-शेड्यूल भी करना पड़ सकता है ..

Disclaimer.. . It is just a medical communication, please consult your physician for taking any health-related decision.

1970 के दशक में पहली बार सुना था कि डॉयबीटीज़ नाम का भी कोई रोग होता है..यह फिल्म यही है ज़िंदगी देखने के बाद...इस फिल्म में संजीव कुमार को डॉयबीटीज़ हो जाती है..

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

इस गुस्से का क्या करें!

बहुत अरसे बाद मुझे कल रविवार के दिन पांच छः हिंदी इंगलिश के अखबार पढ़ने को मिले..हर रविवार के दिन इतने मिलते तो हैं लेकिन अकसर पढ़ने का समय नहीं होता...

इन सभी अखबारों में एक खबर ने बहुत उद्वेलित किया..एक 92 साल के बुज़ुर्ग ने केरल में अपनी ७५ साल की पत्नी और ५५ साल के बेटे को गुस्से में आकर मार दिया...ब्लॉग में सब कुछ सच लिख देना चाहिए...पहला रिएक्शन तो मेरा शीर्षक पढ़ने के बाद यही था कि न चाहते हुए भी हंसी आ गई...यह कोई हंसने वाली बात नहीं थी जानता हूं..लेकिन यह बेवकूफी हुई...यह भी ब्लॉग पर दर्ज हो ही जाए तो ठीक है।

उस खबर को आगे पढ़ते हुए मन दुःखी हुआ..यह बुज़ुर्ग पेन्शन से अपने घर का गुज़ारा किया करता था..२० हज़ार पेन्शन थी..लेकिन इन की बिजली का बिल चार हज़ार के करीब आने लगा था...बुज़ुर्ग परेशान थे इसी चक्कर में और अखबार में िलखा है कि यह अपनी पत्नी और बेटे को कहा करते थे कि वे जिस रूम में सोते हैं वहां का ए.सी कम चलाया करें...उस दिन सुबह भी जब यह उन के कमरे में गये तो वे सो रहे थे..ए सी चल रहा था, इन्होंने एक लोहे की रॉड उठाई और एक ही झटके में अपनी बीवी और बेटे का काम तमाम कर दिया..फिर इन्होंने शोर मचाया और अपने पड़ोसियों को बुलाया .. लेिकन तब तक देर हो चुकी थी..

एक बात और लिखी थी पेपर में कि इन्होंने भी फंदा लगा कर अपनी जान लेने की कोशिश की लेकिन यह ऐसा इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि इतनी बड़ी उम्र की वजह से यह स्टूल पर चढ़ ही नहीं पाए।

मैं दंत चिकित्सक हूं ..फिर भी कुछ महीनों के बाद मेरे पास कोई ना कोई मरीज़ आ जाता है जो पूछता है कि गुस्से को कम करने की कोई दवाई है।

उस दिन भी एक २० साल के करीब कोई लड़की अपने दांत का इलाज करवाने के बाद जाते समय कहने लगी कि डाक्टर साहब, मेरी मां को नींद की गोलियां चाहिएं...आपने पिछली बार भी नहीं दी थीं...मुझे अजीब सा लगा, मैं उस की मां को नहीं जानता था, न ही ऐसा कुछ याद आ रहा था...मैंने कहा कि मैं नींद की गोलियां नहीं लिखता और ये गोलियां अपने आप लेनी भी नहीं चाहिए..

फिर यह लड़की कहने लगी कि मुझे अपने लिए भी ये गोलियां चाहिएं क्योंकि मुझे नींद ही नहीं आती ...मुझे हैरानगी हुई ...वैसे भी यह बच्ची डिप्रेस सी लग रही थी...कहने लगी कि चलिए कोई ऐसी दवाई ही लिख दीजिए जिस से गुस्सा कम हो जाए...मुझे गुस्सा बहुत आता है ...मैंने उसे कहा .. इसमें दवा कुछ नहीं करेगी, शांत रहने की सलाह देकर मैंने उसे साथ के कमरे में सामान्य चिकित्सक के पास भेज दिया..हां, एक बात उसने यह भी कही कि गुस्सा इतना भी तो नहीं आए कि मैं घर की चीज़ें ही तोड़ने लगूं...

यह इस बच्ची की बात नहीं है ..हम अकसर देखते हैं कि लोगों में गुस्सा बहुत ज़्यादा बढ़ गया है ..रोज़ाना अखबार गुस्से के कारनामों से भरा पड़ा होता है ...हमें गुस्सा किसी और से होता है निकलता किसी और पर है...एक तरह से फ्रस्ट्रेशन निकालने वाली बात...बात बात पर तुनकमजाजी बहुत बुरी बात है ...सामने वाले के लिए तो है ही अपनी जान के लिए भी खऱाब ही है ..एक मिनट में हम हांफने लगते हैं...सोचा जाए तो ऐसी कौन सी आग लगी जा रही है...

जितना मैं मैडीकल विज्ञान को जान पाया हूं ..वह यही है कि गुस्से-वुस्से का इलाज करना किसी भी चिकित्सा पद्धति के वश की बात है ही नहीं और कभी होगी भी नहीं...यह बात मैं पक्के यकीन से कह सकता हूं और इस पर चर्चा करने के लिए तैयार हूं...वैसे तो बहस करता नहीं, चुप हो जाता हूं बहुत ही जगहों पर, हंस कर बात टालने की कोशिश करता हूं ....क्योंकि मैं यही सोचता हूं कि बहस जीत कर भी मैं क्या हासिल कर लूंगा!

५०और ३ त्रेपन साल की उम्र भी कम नहीं होती...यहां पहुंचने तक कोई भी बंदा दुनिया देख लेता है ..न चाहते हुए भी कुछ कुछ सीख ले ही लेता है ..मैंने जो सीखा इस गुस्से को काबू करने के लिए ..इतने सालों में यह है आज शेयर करना चाहता हूं...

युवा लोगों की बात कर लें पहले...

युवा लोगों में तरह तरह के स्ट्रेस हैं...Relationships, सर्विस से जुड़ा तनाव, खाने-पीने का तनाव, ड्रग्स, देर रात चलने वाली पार्टियां, हर वक्त कनेक्टेड रहने की फिराक, अपने आप को बेहतर दिखाने की होड़, और बैंकों के बड़े बड़े कर्ज...इतने सब के बावजूद भी अगर कोई गुस्सा को दूर रख पाए तो वह सच में बहादुर इंसान है। इन सब के बारे में क्या लिखें, सब कुछ लोग जानते हैं...बस, युवाओं की दुनिया अलग ही है आज कल...पिछले दिनों प्रत्यूषा बैनर्जी ने अपनी जान ले ली, इतना प्रतिभाशाली जीवन एक ही झटके में यह गया, वो गया...हर रोज़ इस तरह की हस्तियों के नाम आते रहते हैं और पता नहीं कितने तो गुमनाम ही चल बसते हैं...कोई नाम भी नहीं लेता!

जीवन में अध्यात्म का स्थान....

मैं नहीं कहता कि हम लोग सत्संगों में जा कर संत बन जाते हैं....मैं अपने अनुभव से कहता हूं...लेिकन फिर भी अच्छी बातें बार बार सुनते हैं तो कुछ तो असर होने ही लगता है ..जिस भी सत्संग में जाना आप को अच्छा लगे, वहां जाइए, नियमित जाइए, छोटे छोटे बच्चों को भी लेकर जाइए..क्योंकि सत्संग वाला सिलेबस किसी स्कूल में कवर नहीं होता...न ही कभी होगा...

हर सत्संग प्यार, मोहब्बत, आपसी मिलवर्तन की बातें करता है...जहां भी मन लगे प्लीज़ जाइए...घर से बाहर निकलिए तो सही ....

अच्छा साहित्य पढ़िए...प्रेरणात्मक साहित्य ...एक बात और भी है कि अगर बच्चे और युवा नियमित सत्संग में जाएंगे तो वे स्वतः ही अश्लील साहित्य, अश्लील साईट्स से दूर रहेंगे...यह भी बिल्कुल पक्की बात है ...वरना आज कल छोटे छोटे बच्चों के पास नेट और मोबाइल की सुविधा इतनी बेरोकटोक है कि वे आग का खेल खेलने से बाज़ नहीं आते...
अध्यात्म हमारी बहुत बड़ी उम्मीद है ...और हमेशा से है और युगों युगों तक रहेगी....सत्संग में जाकर बच्चों में आत्मविश्वास पैदा होता है, किसी से बात करने का सलीके जान लेते हैं, सेवाभाव, समर्पण जैसे गुण स्वतः प्रवेश करने लगते हैं..
मैं जिस भी मरीज़ को देखता हूं कि उस को बहुत सी तकलीफ़ें हैं और कुछ कुछ काल्पनिक भी हैं ..या जो मुझे जीवन से निराश हताश हुआ दिखता है तो मैं उसे किसी सत्संग से साथ जुड़ने की सलाह ज़रूर दे देता हूं ...मुझे इस नुस्खे पर अपने आप से भी ज़्यादा भरोसा है ...अटूट विश्वास है...प्रार्थना में, अरदास में...

एक सुंदर बात याद आ गई...
PRAYER NECESSARILY DOESN'T CHANGES life situations FOR YOU, IT DEFINITELY CHANGES YOU FOR those situations!
कितना लिखूं सत्संग की महिमा पर ...जितना लिखूं कम है...बस, बच्चों को, युवाओं को आध्यात्म से साथ जोड दीजिए...

गुस्से के लिए खान-पान भी दोषी...
अकसर हम लोग पढ़ते ही रहते हैं कि बच्चे जिस तरह से जंक-फूड-फास्ट फूड और प्रोसेसेड फूड के आदि हो चुके हैं ..इन में तरह तरह के कैमीकल्स होने की वजह से भी और वैसे भी पौष्टिकता न के बराबर होने की वजह से ये लोगों में गुस्सा भर देते हैं...ऐसा बहुत से रिसर्चज़ ने भी देखा है...लौट आइए अपने पुराने खान पान पर...

मांस-मछली छोड़ने पर विचार करिए... 
बहुत सी चीज़ें हैं जिन के बारे में इस देश में कहना लिखना ठीक नहीं लगता..फिर भी ...अपनी बात तो कर ही सकते हैं...मांस मछली हम ने १९९४  में आखिरी बार खाई थी, २२ साल हो गये हैं...इसे न खाने से बहुत अच्छा लगता है...लेिकन यह कोई हिदायत नहीं दी जा सकती...यह हमारी पर्सनल च्वाईस है ...हरेक की है .. लेकिन इसे छोड़ कर कभी ऐसा नहीं लगा कि शरीर का पोषण कम हो गया है ...बिल्कुल भी नहीं..वैसे भी मांस मछली हम किस क्वालिटी की खाते हैं ....हम सब जानते हैं....फैसला आप का अपना है।

मांस मछली और जंक फूड के बारे में कहते हैं कि यह सुपाच्य नहीं है ..विभिन्न कारणों की वजह से इन की वजह से भी हम बात बात पर उत्तेजित हो जाते हैं....हमारे पुरातन ग्रंथ भी तामसिक सात्विक खाने की बातें तो करते ही हैं...हम उन की भी कहां सुनते हैं!

 शारीरिक श्रम..
िकसी भी तरह का शारीरिक श्रम--कोई खेल कूद, साईकिल चलाना, टहलना...कुछ भी जो अच्छा लगे किया करिए रोज़ाना.... और एक बात, कोई न कोई हॉबी ज़रूर रखिए...कुछ भी बागबानी, पेंटिंग, लिखना-पढ़ना, समाज सेवा, नेचर-वॉक,.....कुछ भी जिसे कर के आप को अच्छा लगने लगे...उसे ज़रूर करिए...

ध्यान (मेडीटेशन) ज़रूर करिए...
मैंने शारीरिक श्रम की बात की, मेडीटेशन (ध्यान) की भी ट्रेनिंग लीजिए और इसे नियमित करिए...मैं बहुत सालों तक करता था...पिछले कईं सालों से सब कुछ छोड़ दिया...यह पोस्ट के माध्यम से मुझे अपने आप से भी यह कहने का मौका मिला कि मैं भी अपनी लाइफ को पटड़ी पर ले कर आऊं....सोच रहा हूं आज या कल से ..आज से ही फिर से मेडीटेशन शुरू करता हूं...I really used to feel elated after every Meditation session!...Just 15-20 minutes twice or thrice a day!

बातें शेयर करने की आदत डालिए...

जितनी बातें मन में कम से कम रखेंगे उतना ही बोझ हल्का होता जाएगा..मैं भी ब्लॉगिंग के माध्यम से यही तो करता हूं लेकिन बड़ी धूर्तता से बहुत कुछ छिपाए रखता हूं ...लेकिन इतना इत्मीनान है कि पाठकों के लिए जो काम की बात है, उसे पूरे खुलेपन से दर्ज कर देता हूं...

हां, बातें शेयर करने की बात से मैंने ब्लॉगिंग की बात तो कर दी , लेकिन जिन के ब्लॉग नहीं हैं वे क्या करें, वे अपने घर परिवार में, भाई बहन से अपने मन की बातें शेयर ज़रूर किया करें...कुछ बातें अपने टीचर्ज़ से भी शेयर की जा सकती हैं...यह बड़ा जरूरी है ... हमें कदम कदम पर मार्गदर्शन चाहिए, हम सब के सब अपने आप में अधूरे हैं....कड़ी से कड़ी मिल के ही कुछ बात बन सकती है ....

एक दिल का डाक्टर किसी को हिदायत दे रहा था...
दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलन गे औज़ारा नाल...

ओह माई गॉड...आज तो पोस्ट कुछ ज्यादा ही प्रवचन स्टाईल में और हट के हो गई...लेकिन असल बात कहूं तो मेरा यही सिलेबस है ...मैंने चिकित्सा विज्ञान से कहीं ज्यादा अध्यात्म को पास से अनुभव किया है ...

इतनी भारी भरकम पोस्ट.....अब इसे बेलेंस कैसे करूं...  अभी करता हूं कोई हल्का-फुल्का जुगाड़ ...


घर से ज़्यादा सेफ़ है सड़क...

कईं बार लिखना बड़ा बोरिंग सा लगता है ...लगता है कि आखिर इतनी मगजमारी किस लिए...बिल्कुल कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती...उस समय मुझे मूड बनाने के लिए अपने दौर के किसी मनपसंद गीत को सुनना पड़ता है ...एक बार नहीं, दो तीन बार...

यह जो ऊपर मैंने लिखा है ..सड़क घर से ज़्यादा सेफ़...ये शब्द हैं लखनऊ के एक बड़े बुज़ुर्ग के ...परसों एक बाज़ार में यह कोई अखबार पढ़ रहे थे.. अचानक एक खून-खराबे की खबर पर मेरी नज़र गई..मैं उसे देखने के लिए रूक गया..सुबह का समय था...इन्होंने पेपर मेरी तरफ़ सरका दिया....मैंने कहा कि लखनऊ जैसी नगरी में भी यह सब कुछ...!...गुब्बार निकालने लगे कि अब तो घर आ के मार जाते हैं...आए दिन खबरें आती हैं...अब तो सड़क घर से ज़्यादा सेफ़ हैं, कहने लगे। मैं भी सोच में पड़ गया। उस ने यह भी कहां कि फलां फलां के राज में इतनी गुंडागर्दी नहीं थी..सभी लोगों को कानून को डर था...

सच में मैं लखनऊ के लोगों की नफ़ाज़त और नज़ाकत से बहुत प्रभावित हूं..यहां के लोग जब बात करते हैं ऐसा लगता है जैसे कानों में मिशरी घोल रहे हों...बेशक यह तो खूबी है यहां लोगों में...और यह इन की जीवनशैली ही है...इस के लिए इन्हें १०० में से ९९ नहीं, १०० नंबर ही मिलने चाहिए...

 मैं भी यहां पिछले तीन सालों में कुछ कुछ सीख गया...और इस के लिए मेरा असिस्टेंट का बड़ा रोल है...उस का सभी से बातचीत करने का ढंग इतना आदरपूर्ण एवं शालीन है ...मुझे तीन सालों में एक बार किसी मरीज़ ने कहा कि आप के असिस्टेंट को बात करने की तहजीब नहीं है...मैंने उसे कहा कि कोई और बात होती तो मैं मान भी लेता, उस के पास रहने से मैं कुछ कुछ सीखने लगा हूं...


बात चीत की बात हो गई ...कर्मकांड की बात भी ज़रूरी है, कर्मकांड में भी एकदम फिट हैं लखनऊ के लोग, पूजा-अर्चना, दान दक्षिणा...सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं...घरों के बाहर पशु-पक्षियों के लिए और जगह जगह प्याऊ दिख जाते हैं...इस पोस्ट में सभी तस्वीरें आज की ही हैं...





यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के खूब चर्चे हैं ही ..लेकिन एक बात उस के बारे में यह है कि एक बार मैंने एक साहित्यिक गोष्ठी में शहर की एक नामचीन वयोवृद्ध महिला को यह कहते सुना कि आपसी मिलवर्तन का बस यही मतलब नहीं कि आपने किसी के यहां जा के उन के त्योहारों पर सेवईयां खा लीं और उन्होंने आप के होली पे गुझिया खाईं...उन्होंने कहा कि ये भी ज़रूरी हैं, बेशक, लेकिन इन प्रतीकों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है ..मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. 


अब आता हूं अपने मन के एक प्रश्न पर...जो अकसर मुझे परेशान करता है कि इतने बढ़िया संस्कृति के शहर में इतना खून-खराबा...हर दिन अखबार में यहां पर मारधाड़ की खबरें आती रहती हैं...घर में बैठे निहत्थे, बड़े-बुज़ुर्गों तक को मौत के घाट उतार दिया जाता है....शायद आप के मन में आ रहा हो कि यह किस शहर में नहीं हो सकता...बिल्कुल आप सही कह रहे हैं...लेकिन लखनऊ की नफ़ाज़त, नज़ाकत के टगमें के साथ यह मेल नहीं खाता, इसलिए हैरानगी होती है....


अभी मैं साईकिल भ्रमण से लौटा हूं ....लखनऊ के साईकिल ट्रैकों के बारे में बहुत बार लिख चुका हूं...बहुत अच्छी बात है ..ये अधिकतर खाली पड़े रहते हैं....आज बड़े लंबे अरसे के बाद मैंने एक स्कूली बच्चे को इस पर साईकिल चलाते देखा..खुशी हुई.. मजे की बात यह कि उस समय मैं भी सड़क पर ही साईकिल चला रहा था...





लखनऊ के एलडीए एरिया में भी बहुत बढ़िया ट्रैक हैं... मैंने भी इन ट्रैकों पर साईकिल चला रहा हूं... एक बुज़र्ग मिल गये योग टीचर ..डाक्टर साहब हैं....कहने लगे कि अच्छा करते हैं साईकिल चलाते हैं..वैसे भी अगर ये ट्रैक इस्तेमाल होेंगे तो ही कायम रह पाएंगे...उन्होंने बिल्कुल सही बात कही थी... आगे चल के देखा तो एक ट्रक कुछ इस तरह से खड़ा दिखा... अब सरकार ने ये रास्ते बनाए हैं तो इन का इस्तेमाल भी होना चाहिए....इन को अतिक्रमण से बचाने का मात्र यही उपाय है...


एक बात और ...चाहे इन ट्रैक्स पर साईकिल सवार तो एक ही दिखा ..वह स्कूली बच्चा, लेकिन इन पर पैदल चलने वाले, सुबह भ्रमण पर निकले बहुत से लोग दिख गये.. यही ध्यान आया कि इसी बहाने चलिए देश में पैदल चलने वालों की भी सुनी गईं...वरना इन के तो कोई अधिकार हैं ही नहीं ..

बस करता हूं सुबह सुबह...मैं भी क्या टर्र-टर्र सुबह सुबह...सोमवार की वैसे ही अल्साई सी सुबह है...चलिए एक बढ़िया सा भजन सुनते हैं और इस हफ्ते की शुभ शुरूआत करते हैं......बहुत सुना बचपन में यह भजन...अभी भी सुनता हूं लेकिन मन नहीं भरता... 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

मोटापे से बढ़ जाता है दस तरह के कैंसर होने का रिस्क

यह तो अब लोग जान ही गये हैं कि मोटापे से अन्य तकलीफ़ों --जैसे कि मधुमेह (शक्कर रोग, शूगर), हाई-बल्ड प्रैशर (उचित रक्त चाप), जोड़ों की तकलीफ़ और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

एक वैज्ञानिक स्टडी जो कि ५० लाख लोगों पर की गईं, अब उस से भी यही निष्कर्ष निकला है कि मोटापे का मतलब कि कैंसर होने का ज़्यादा रिस्क.......इस की विस्तृत जानकारी आप इस लिंक से पा सकते हैं...... Being overweight or obese linked to 10 common cancers.

चलिए, थोड़ी सी बात करते हैं मोटापे को कंट्रोल करने की। वैसे तो मैं इस के लिए बात करने के लिए कोई ज़्यादा बढ़िया रोल-माडल नहीं हूं ..क्योंकि मेरा अपना वज़न भी मेरे आदर्श वजन से १०-१५ किलो ज्यादा ही है......कल ही करवाया है यह ९२ किलो आया है।

लेकिन फिर भी जब मैं अपने खाने पीने पर कंट्रोल करता हूं तो एक-दो महीने में ही दो एक किलो वजन कम हो जाता है, लेकिन बहुत बार मैं उस रूटीन पर टिक नहीं पाता......

चलिए जिन बातों को मैंने वजन को कंट्रोल करने के लिए बहुत लाभदायक पाया है, उन की चर्चा ही कर लेते हैं....

  • चाय, दूध, लस्सी को बिना चीनी के फीका पीना........ इस से चीनी की मात्रा काफ़ी कम हो जाती है। कोल्ड ड्रिक्स बिल्कुल नहीं और बाज़ार से मिलने वाले बोतलबंद ज्यूस भी बहुत कम.....सारे साल में एक-दो बार।
  • नाश्ते में तले परांठे बिल्कुल बंद.......नहीं तो कभी १५ दिन या एक महीने में एक बार ले लिए तो ले लिये। 
  • जंक फूड पर टोटल नियंत्रण -- मैं यह काम आराम से कर लेता हूं। 
  • बिस्कुट -- भी ब्रिटानिया के मैरी जैसे ---हल्के मीठे वाले ज़्यादा ठीक रहते हैं। 
  • और रोज़ाना शारीरिक परिश्रम...... पैदल टहलना, साईकिल चलाना या जो भी आप अपनी पसंद का करना चाहें। 
ये छोटी छोटी बातें दिखती हैं, लेकिन वजन कम करने में बहुत सहायक हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।

मोटापे पर मेरी कुछ पोस्टें ये भी हैं.....
 सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

शनिवार, 9 अगस्त 2014

केवल गुटखा-पानमसाला ही तो नहीं है विलेन...

हिंदी की एक अखबार के पहले पन्ने पर एक विज्ञापन देखा --एक पानसाले का..
उस मे लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिए..
अच्छा खाईये निश्चिंत रहिये
वो स्वाद जिसमें छुपी हैं अनमोल खुशियां
भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय पान मसाला
साफ---सुरक्षित-- स्वादिष्ट
0%Tobacco   0%Nicotine

ठीक है, ठाक है .. एक कोने में छुपा कर यह भी लिखा है .... पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

अब आप बताएं कि इस तरह का विज्ञापन हो और आप के शहर में हर तरफ़- आप के दोस्त, परिवारजन, अध्यापक, डाक्टर हर तरफ पान मसाला गुटखा चबाने में लगे हों तो फिर कैसे एक स्कूल-कालेज जाने वाला लोंडा इस से बच सकता है।

कितनी खतरनाक बात लिखी है कि पानमसाले में तंबाकू नहीं, निकोटीन नहीं... बहुत से पानमसालों पर यह लिखने लगे हैं.. लेकिन फिर भी क्यों इसे खा कर युवक अपनी ज़िंदगी बरबाद कर लेते हैं। उस का कारण है सुपारी ---और नाना प्रकार के अन्य कैमीकल जो इस में मौजूद रहते हैं और जिन्हें खाने से रोटी खाने के लिए मुंह तक न खुलने की नौबत आ जाती है...इस अवस्था को ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस कहते हैं और यह मुंह के कैंसर की पूर्व अवस्था भी है।
अब आप ही बताईए की गुटखा तो विलेन है ही जिस में तंबाकू-वाकू मिला रहता है लेकिन यह पान मसाला भी कितना निर्दोष है?

सब से पहले तो मैं बहुत से मरीज़ों से पूछता हूं कि क्या आप गुटखा-पान मसाला खाते हैं तो जवाब मिलता है कि नहीं, नहीं वह तो हम बिल्कुल नहीं लेते, कभी लिया ही नहीं, या बहुत पहले छोड़ दिया। लेकिन थोड़ी बात और आगे चलने पर कह देते हैं कि बस थोड़ी बहुत बीड़ी से चला लेता हूं। ऐसे किस्से मेरे को बहुत बार सुनने को मिलने लगे हैं.....बहुत बार......और कितने युवक यह कह देते हैं कि और किसी चीज़ का नशा नहीं, बीड़ी सिगरेट नहीं,  बस कभी कभी यह सुपारी वारी ले लेते हैं.......फिर उन की भी क्लास लेने पड़ती है कि ये सब के सब आग के खेल हैं।

आज मेरे पास एक महिला आई..सारे दांत बुरी तरह से घिसे हुए.....ये जो देसी मंजन बिकते हैं न बाज़ार में ये बेइंतहा किस्म के खुरदरे होते हैं....और इन को दांतों पर लगाने से दांत घिस जाते हैं। उसने कहा कि उसने इन्हें कभी इस्तेमाल नहीं किया.... मैं भी हैरान था कि ऐसे कैसे इस के दांत इतने ज़्यादा घिस गये। कहने लगी नीम की दातुन पहले करती थी गांव में. मैंने कहा कि उस से दांत इस तरह खराब नहीं होते। बहरहाल, अभी मैं सोच ही रहा था कि उसने कहा कि एक बात आप से छुपाना नहीं चाहती.......कहने लगी कि मैं गुल मंजन इस्तेमाल करती हूं. बस, फिर मैंने उसे समझा दिया कि क्यों गुल मंजन को छोड़ना ज़रूरी है......और बाकी तो उस का इलाज कर ही दूंगा, घिसे हुए दांत बिल्कुल नये जैसे हो जाते हैं आज कल हमारे पास बहुत से साधन मौजूद हैं।

उस के बाद अगला मरीज़ था, एक दो दांतों में दर्द था, मेरा प्रश्न वही कि गुटखा-पानमसाला लेते हैं, तो कहने लगा कि कभी नहीं यह सब किया. लेकिन कुछ अरसे से दांत में जब दर्द होता है तो तंबाकू-चूना तेज़ सा मिक्स कर के दांत के सामने गाल में दबा लेता हूं. .आराम मिल जाता है।

यहां यह बताना चाहूंगा कि तंबाकू की लत लगने का एक कारण यह भी है कि लोग दांत के दर्द के लिए मुंह में तंबाकू या नसवार (पिसा हुआ तंबाकू) रगड़नी शुरू कर देते हैं......मेरी नानी को भी तो यही हुआ था, दांत में दर्द होता रहता था, पहले डाक्टर वाक्टर ढंग के कहां दिखते थे, नीम हकीम ही दांत उखाड़ देते थे (अभी भी बहुत जगहों पर यही चल रहा है).. सो, मेरी नानी को नसवार मसलने की लत लग गई..... और फिर वह आदत नहीं छूटी......इस तरह की आदत का शिकार लोगों को मसाने में भयंकर रोग होने का रिस्क तो रहता ही है, बस इसी रोग ने हमारी चुस्त-दुरूस्त नानी हम से छीन ली। अफसोस, मुझे उन दिनों पता ही नहीं था कि यह नसवार इतनी खराब चीज है, वह बहुत झिझकते हुए हमें हमारे स्कूल-कालेज के दिनों में बाज़ार से नसवार की डिब्बी लाने को कहती और हम भाग कर हरिये पंसारी से खरीद लाते।

बच के रहो बई इन सब तंबाकू के रूपों से और हां, पानमसाले से भी....... कुछ दिन पहले मेरे पास एक मरीज आया ५० के करीब का रहा होगा, यही पानमसाले से होने वाला रोग था, मुंह नहीं खुल रहा था, घाव तो मुंह के पिछले हिस्से में थे ही, मुंह के अंदर की चमड़ी बिल्कुल सख्त चमड़े जैसी हो चुकी थी.....और साथ ही एक घाव मुझे ठीक नहीं लग रहा था जिस की टेस्टिंग होनी चाहिए और पूरा इलाज होना चाहिए......मैंने उसे समझाया तो बहुत था लेकिन वह वापिस लौट कर ही नहीं आया। यह युवक की बात केवल इसलिए की है कि पानमसाला छोड़ने के वर्षों बाद तक इस ज़हर का दंश झेलना पड़ सकता है, तो क्यों न आज ही, अभी ही से मुंह में रखे पानमसाले को दस गालियां निकाल कर हमेशा के लिए थूक दें।

तंबाकू-गुटखे की बातें लिख लिख कर थक गया हूं. लेकिन फिर भी बातों को दोहराना पड़ता है। हां, एक काम करिएगा, अगर मेरे इन विषयों से संबंधित लेख देखना चाहें तो इस ब्लॉग के दाईं तरफ़ जो सर्च का ऑप्शन है, उस में तंबाकू, गुटखा या पानमसाला लिख कर सर्च करिएगा। ये सब ज़हर आप हमेशा के लिए थूकने के लिए विवश न हो जाएं तो लिखिएगा।

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

कैमिस्ट की दुकानों पर होने वाली २० रूपये की ब्लड-शूगर जांच

अकसर अब हम लगभग सभी शहरों में कैमिस्टों की दुकानों पर इस तरह की जांच होने के बोर्ड देखने लगे हैं कि रक्त में शूगर की जांच २० रूपये में और ब्लड-प्रैशर की जांच १० रूपये में। यह जो १०-२० रूपये में जांचें वांचें होने लगी हैं, ठीक है, एक-दो रूपये में सड़क पर चलते हुए अपना वज़न देख लिया, और ज़रूरत पड़ने पर अपनी ब्लड-प्रेशर भी मपवा लिया.....कोई विशेष बात नहीं लगती, लेकिन है। और जहां तक यह २० रूपये में कैमिस्ट की दुकान से अपना ब्लड-प्रैशर मपवाने की बात है, यह मुझे ठीक नहीं लगती, क्योंकि इस के लिए मुझे नहीं पता कि ये लोग ज़रूरी सावधानियां बरतते भी होंगे कि नहीं!

 मैंने यह भी देखा है कि जिन घरों में भी यह घर में ही ब्लड-शूगर की जांच करने वाली मशीनें होती हैं, उस घर में दूसरे सदस्यों, रिश्तेदारों, मेहमानों और पड़ोसियों को भी अपनी शूगर की जांच के लिए एक उत्सुकता सी बनी रहती है। लेकिन मेरे विचार में यह सब करना बीमारी को बुलावा देने जैसा है।

मैं कईं बार लोगों से पूछा है कि आप जिस मशीन से इतने सारे लोग यह जांच करते हो, क्या उस लेंसेट (जिस से अंगुली से ब्लड निकाला जाता है) को बदलते हो, तो मुझे कभी संतोषजनक जवाब मिला नहीं। हर बार यही बात सुनने को मिलता है कि स्पिरिट से पोंछ लेते हैं। नहीं, ऐसा करना बिल्कुल गलत है।

इस तरह की मशीनों के पेम्फलेट पर भी लिखा रहता है कि यह जो इस में लेंसेट है, यह केवल एक ही व्यक्ति के ऊपर इस्तेमाल करने के लिए है।

जो बात मैं कहना चाहता हूं वह केवल इतनी सी है कि जिस भी चीज़ से --लेंसेट आदि से-- अंगुली से रक्त निकाला जाता है, उसे आज के दौर में एक दूसरे के ऊपर ऐसे ही स्पिरिट से पोंछ कर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। किया पहले भी नहीं जाना चाहिए था, आज से ३०-४० वर्ष पहले भी ..लेकिन तब कुछ बीमारियों के बारे में हैपेटाइटिस बी, सी और एचआईव्ही संक्रमण जैसे रोग के बारे में जागरूकता ही कहां थी, इसलिए सब कुछ भगवान भरोसे ही चलता रहा।

मुझे याद है बचपन में एक टैस्ट तो हम लोगों को बार बार लगभग हर साल करवाना ही पड़ता था , मलेरिया की जांच के लिए पैरीफ्रल ब्लड फिल्म...इस के लिए लैब वाला अंकल हमारी अंगुली से रक्त निकालने के लिए कुछ चुभो देता और सभी मरीज़ों पर उसी को स्पिरिट से पोंछ पोंछ कर इस्तेमाल किया करता। निःसंदेह एक खतरनाक प्रैक्टिस।

हां तो मैं बाज़ार में होने वाली कैमिस्ट की दुकान पर ब्लड-शूगर की जांच की बात कर रहा था, मुझे नहीं पता कि ये लोग हर केस में नईं लेंसेट इस्तेमाल करते होंगे या नहीं।

आज मुझे पता चला कि ये जो कंपनियां इस तरह की मशीनें बना रही हैं वे अलग से इस तरह के लेंसेट भी बेचती हैं लेकिन ये थोड़े महंगे ही दिख रहे थे जब मैंने नेट पर चैक किया। ऐसे में क्या आप को लगता है कि बाज़ार में २० रूपये में होने वाली जांच के लिे हर मरीज़ के लिए नया डिस्पोज़ेबल लेसेंट इस्तेमाल किया जाता होगा। आप इस के बारे में अवश्य सोचिए और उसी के आधार प ही इस तरह की जांच के लिए निर्णय लें और अपने से कम पढ़े-लिखों तक भी यह बात पहुंचाएं।

बात जितनी छोटी दिखती है उतनी है नहीं .. इस तरह का सस्ता टैस्ट बाज़ार में करवाना और जिस के लिए लेंसेट नया नहीं है, बिल्कुल वैसा ही हो गया जैसे कि कोई किसी दूषित या किसी दूसरे पर इस्तेमाल की गई सिरिंज से टीका लगवा ले। जहां पर एक दूसरे पर इस्तेमाल किए जाने वाले लेंसेंट या सिरिंज से बीमारी फैलने की बात है, इस में ज्यादा अंतर नहीं है, यह जानना बहुत ज़रूरी है।

वो फिल्मों की बात अलग है कि अमर अकबर एंथोनी में अकबर का खून निकल रहा है और सामने ही दूसरे किरदार को चढ़ाया जा रहा है, कोई बीमारी फैलने के लिए बिना टैस्ट किये हुए रक्त की जांच ही नहीं, रक्त की एक बूंद का उतना छोटे से छोटा अंश (देखना तो दूर, जिस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते ) भी भयानक संक्रमण फैला सकता है।

ऐसा नहीं है कि लेंसेट बाज़ार में सस्ते नहीं मिलते ... मिलते हैं, मैंने कईं अस्पतालों मेंंदेखा है कि जिन रक्त की जांच के लिए उन्हें अंगुली को थोड़ी सूईं चुभो कर रक्त निकालना होता है, वे लोग यह काम एक कागज़ में मिलने वाली डिस्पोज़ेबल लेंसेट से करते हैं और फिर उस को नष्ट कर देते हैं। होना भी यही चाहिए, वरना तो खतरा बना ही रहता है।

मैं सोच रहा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिन लोगों को बाज़ार से बार बार रक्त की इस तरह की जांच करवानी पड़ती है, वे लोग कुछ डिस्पोज़ेबल लेंसेट खरीद लें ...और अगर टैस्ट के समय देखें कि वहां पर इस तरह के उपलब्ध नहीं हैं तो अपना लेंसेट ही इस्तेमाल किए जाने का अनुरोध करें।

मामला इतना आसान है नहीं , यह काम हम डाक्टर लोग किसी लैब में जाकर नहीं कर पाते, ऐसे में आप कैसे कर पाएंगे यह आपने देखना है, क्योंकि यह आप की सेहत का मुद्दा है, किसी भी दूषित उपकरण के चुभने से आप की सेहत खतरे में पड़ सकती है।

इतना पैनिकि होने की बात भी नहीं है, बस बात तो है केवल सचेत करने के लिए।

ध्यान आ रहा है कि पिछले सरकार के कुछ दावे अखबारों में खूब छपा करते थे ..कि अब शूगर की जांच के लिए स्ट्रिप्ज़ २-२ रूपये में बिकने लगेंगी.......कहां गई ऐसी स्ट्रिप्ज़ जो आने वाली थीं।

अपनी सेहत के बारे में स्वयं भी सगज रहिए. और औरों को भी करते रहिए।

जाते जाते ध्यान यह भी आ रहा है कि क्या ये कैमिस्ट की दुकानों वाले इस तरह की रक्त की जांचें करने के लिए अधिकृत भी हैं या बस धक्कमपेल किए जा रहे हैं। विचारों का क्या है, कुछ भी मन में आ सकता है......पिछले दिनों आपने देखा कि एम्स जैसी संस्था के डाक्टरों ने अखबारों में लिखा था कि चिकित्सा व्यवसाय में कैसे कैसे गोरखधंधे चल रहे हैं...... जब मैडीकल प्रैक्टीशनर किसी के साथ सांठ-गांठ कर लेते हैं, इसलिए मुझे तो यह भी लगता है कि हो न हो, कहीं कुछ कैमिस्ट की दुकानों पर होने वाले टैस्ट भी ये दवाईयां बनाने वाले कंपनियों के सांठ-गांठ का ही तो नतीज़ा नहीं है... चलते फिरते राहगीर का खड़े खड़े ब्लड-प्रैशर मापो, ब्लड-शूगर की जांच करो और जब रिपोर्ट देख कर वह डरा हुआ इलाज के बारे में पूछे तो उसे उन्हीं कंपनियों की दवाईयां थमा दो...बस, इस चक्कर में चिकित्सक बाहर हो गया, कितने लोग तो वैसे ही इसी तरह से दवाई लेकर खाना शुरू कर देते हैं।

इन मसलों पर जागरूक किये जाने की बहुत ज़रूरत है........लेकिन अकसर मीडिया को आइटम नंबर की राजनीति और किस हीरो को किस हीरोइन के साथ किस देश के किस होटल में एक साथ देखा गया, मीडिया को ये सब चटखारे लेने से फुर्सत मिले तो ऐसी जनोपयोगी बातों को उठाने की बारी आए।

बीच साइड हैल्थ चैक अप स्टाल 
शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती 
एक आवश्यक सूचना..
रक्त की जांच के समय ध्यान रखिए..

केवल बिस्तर से उठना ही तो मुश्किल होता है..

हम में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने सुबह सवेरे की खूबसूरती का कभी न कभी आनंद न लूटा हो.. है कि नहीं, कभी बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम लोग सुबह उठ कर जब भ्रमण के लिए निकल जाया करते थे। फिर जब बड़े हुए तो हमारी कुछ अलग यादें बन गईं......मैं बंबई में जब रहा तो कुछ बार सुबह समुद्र के किनारे मैरीन ड्राइव पर टहलने चले जाना, बहुत बार महालक्ष्मी रेस-कोर्स की तरफ़ सुबह चल पड़ना...शाहर से बाहर गये हैं तो मद्रास का मैरीना समुद्री तट........कहने का मतलब केवल यही कि ये सब यादें ही हमें कितना सुख दे देती हैं।

और एक बात यह भी है कि अब भी हम सब लोग सुबह सवेरे उठ कर टहलना, बाग की हरियाली को निहारते हुए वक्त बिताना, योगाभ्यास, प्राणायाम, प्रार्थना ...सब कुछ करना चाहते हैं, उस में नैसर्गिक आनंद है, लेकिन पता नहीं मेरे जैसे लोग सब कुछ जानते हुए क्यों इतना आलस करते रहते हैं......वैसे भी सुबह सवेरे नेट पर दोस्तों के दस स्टेट्स पढ़ने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि हम अपने आप को समय देना शुरू करें। 

मैंने कुछ दिन पहले निहाल सिंह के बारे में बात की थी कि वे किस तरह से मिलने वाले लोगों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते रहते हैं। आज सुबह मैं अपने एक मित्र को लेकर उसी पार्क में पहुंच गया जहां उन का ग्रुप योगाभ्यास करता है। 

योगाभ्यास तो कितना हुआ या नहीं हुआ, किस से नीचे बैठा गया और किस से नहंीं, कौन प्राणायाम की बारीकी समझ पाया, कौन नहीं........यह तो बिल्कुल भी मुद्दा है ही नहीं.......अहम् बात तो यह है कि सुबह सवेरे घर से बाहर निकल कर खुली फ़िज़ाओं में रहना एक अजीब सी तरोताज़गी देता है। मैं अपने मित्र से कह रहा था कि योगाभ्यास तो हम ने पांच-छः मिनट ही किया होगा, लेकिन उस से भी हम कितना हल्का महसूस कर रहे हैं। उन का भी यही मानना था कि केवल से बिस्तर से उठना ही मुश्किल होता है, बाकी तो फिर बस एक आदत बनने की बात होती है। 

हम लोग अकसर यही सोचते हैं ना कि हम से न  हो पायेगा यह योग वोग..हम नहीं कर पाएंगे प्राणायाम् ....कोई बात नहीं, सुबह सवेरे बिस्तर से उठ कर बैठ गये, इस से ही लाभ मिलने शुरू हो गये.......और घर से टहलते हुए पास के किसी पार्क में पहुंच गये, लाभ बढ़ गया.........वहां जाकर थोड़ा बहुत भ्रमण किया, हरियाली देख, फूल-पत्ते देख कर मन हर्षित हुआ......(एक आदमी को सुबह सुबह फूल तोड़ते देख कर मन थोड़ा दुःखी हुआ).... और उस के बाद जितना भई हो सका, योगाभ्यास किया, प्राणायाम् किया......ध्यान किया............ये सब लाभ जुड़ते जुड़ते आप अनुमान लगाईए कि लाभ की गठड़ी कितनी भारी भरकम हो जाएगी। 

आज उस योगाभ्यास की पाठशाला में भी यही बात कह रहे थे कि बस, योग का आनंद लो, सहजता लाओ, अपने आप पर दबाव डाल कर कुछ करने की कोशिश न करो...... सब कुछ अपने आप होने लगा, कुछ लोग पालथी मार नहीं बैठ पाते थे वे अब पद्मासन करने लगे हैं, जिन के घुटनों में तकलीफ़ थी और घुटने बदलवाने की कगार पर थे, वे अब पांच किलोमीटर तक सैर करते दिखते हैं........लोग कुछ न कुछ अनुभव बांट रहे थे। 

आदमी जैसी संगति में रहता है, उन की कुछ न कुछ बातें ग्रहण भी करने लगता है.......आज उन्होंने ने हमें आंखों की सफ़ाई करने वाले कप दिए------और कहा कि रात को सोते वक्त उन में पानी भर कर आंखों पर लगाकर आईलिड्स को हिलाएं कुछ समय ...फिर पानी को फैंक दें। अच्छा लगा जब अभी अभी घर आकर यह किया। 

संगति की बात हो रही थी तो कल की ही बात याद आ गई......कुछ दिन पहले मेरे पास एक लगभग १८-२० वर्ष का लड़का आया अपनी मां के साथ....गुटखे पान मसाले का व्यसन लग चुका था, मुंह में छोटे मोटे घाव........ऐसे युवाओं को इस गुटखे रूपी कोढ़ से मुक्ति दिलाना मैं अपनी सब से अहम् ड्यूटी समझता हूं.....उस दिन मैंने उस के साथ १०-१५ मिनट बिताए....उसे अच्छे से समझाया....डरा भी दिया कि नहीं छोड़ोगे तो क्या हो जाएगा। 

आज जब आया तो बताने लगा कि उस दिन के बाद मैंने गुटखा पान मसाला छुआ तक नहीं......उस की सच्चाई का उस के मुंह ही से पता चल रहा था। मैंने कहा कि जो यार दोस्त थोड़ा बहुत देने की कोशिश करते हैं, उन का क्या करते हो। तो उसने बताया कि अब उस ने उन दोस्तों को ही इग्नोर करना शुरू कर दिया है। मैंने पूछा कि छोड़ने में दिक्कत तो नहीं हुई, कहने लगा कि दो-तीन दिन थोड़ा सिर भारी रहा, लेकिन आप के बताए अनुसार मैं कोई दर्दनिवारक टिकिया ले लिया करता था --बस दो तीन दिन....... और फिर तो पता ही नहीं चला कि कब तलब ही लगनी बंद हो गई। 

और खुशी की बात तो यह कि ३-४ दोस्तों ने भी उस के कहने पर यह गुटखा-वुटखा खाना-चबाना छोड़ दिया है। मैंने जब खुश हो कर उस की पीठ थपथपाई तो मुझे यही लगा कि जैसे मैंने अपने बेटे को इस ज़हर से बचा लिया हो। 
अच्छा लगता है जब आप की वजह से कोई सीधे रास्ते पर आ जाए........ यह प्रयास बार बार करने योग्य है। 

बचपन से ही अपनी मां के मुंह को यह गीत गुनगुनाते पाया है, इसलिए इस समय याद आ गया....

शनिवार, 12 जुलाई 2014

आप की पर्सनल एमरजैंसी किट..

अकसर हम लोग यात्रा पर जाने से पहले अपनी दवाईयों की एमरजैंसी किट को इतना महत्व नहीं देते। लेकिन फिर जब अचानक इन में से कुछ की ज़रूरत पड़ती है तो अपनी गलती का अहसास होता है।
हर व्यक्ति को पता होता है कि उसे एमरजैंसी में किन किन दवाईयों आदि की ज़रूरत पड़ सकती है।
चलिए अपनी उदाहरण लेता हूं. मैं कुछ दिनों के लिए बंबई आया हुआ था, आज लौट रहा हूं। परसों रात को अचानक रात एक-दो बजे मेरे पेट में बहुत ज़ोर का दर्द होने लगा और साथ में शरीर दुःखने लगा और बुखार जैसा लग रहा था। दो बार बिल्कुल वॉटरी स्टूल्स भी हुए।

समझ में नहीं आया कि ऐसा तो कुछ खाया भी नहीं..अकसर खाने में अपनी तरफ़ से थोड़ी एहतियात ही बरतते हैं। बहरहाल, मेरे पास उस समय Norflox 400 mg की एक टेबलेट पड़ी थी, मैंने तुरंत ले ली और साथ में Tab Zupar (Ibuprofen and Paracetamol combination) ली, उस के बाद कोई मोशन नहीं आई ..लेकिन अगले दिन सारा दिन बदन दुखता रहा और बुखार जैसा लगता रहा। इसलिए मैंने Norflox-TZ का तीन दिन का कोर्स करना ही ठीक समझा।वैसे मैं यहां अपने ब्लॉग में दवाईयों के ट्रेड नेम नहीं लिखता लेकिन कुछेक का नाम तो लिखना ही पड़ता है जिन्हें अपने ऊपर अाजमाया हो।

आज अच्छा लग रहा है।

अकसर हम लोग इस तरफ़ कभी ध्यान नहीं देते कि सफ़र में जाते समय या बाहर कहीं जाते वक्त दो चार दवाईयां लेकर चलना चाहिए।

सफर के दौरान सिर दुःखना या फिर एसिडिटी जैसे लक्षण मुझे अकसर हो जाते हैं। मुझे याद है कि एक बार हम लोग दिल्ली से फिरोज़पुर जा रहे थे.. रास्ते में सिर दर्द शुरू हो गया ..भटिंडा पहुंचने पर मुझे इतना सिर दर्द हुआ कि मेरे में चलने की बिल्कुल भी हिम्मत नहीं थी लेकिन फिर भी मैं अपनी मां और तीन-चार साल के बेटे को प्लेटफार्म पर छोड़ कर बाहर एक डिस्परिन की टेबलेट लेने गया।

मैं लगभग पिछले कईं वर्षों से बाहर चाय नहीं पीता.....जब से यह मिलावटी दूध वूध के किस्से सुनने में आने लगे हैं, इसलिए कईं बार थोड़ा विदड्रायल सा होने की वजह से सिर दुःखता है सफर के दौरान या फिर एसिडिटी हो जाती है, इसलिए एसिडिटी के लिए भी ओमीप्राज़ोल कैप्सूल जैसी दवाईयां अपने साथ रखता हूं।

बस यही लिखना चाह रहा था आज इस पोस्ट में कि अपने साथ दो-चार दवाईयां जिन की हमें अकसर ज़रूरत पड़ती है लेकर ही चलना चाहिए। आप का क्या ख्याल है। रात के समय अकसर कैमिस्ट की दुकानें बंद होती हैं, दिक्कत होती है। 

शनिवार, 25 जनवरी 2014

गुटखा छोड़ने का एक जानलेवा उपाय

इस युवक के मुंह की तस्वीर.. 
कल मेरे पास एक २१ वर्ष के लगभग आयु का युवक आया। मुंह में कोई समस्या थी। मुझे लगा कि गुटखा-पान मसाला खूब खाया जा रहा है।

पूछने पर उसने बताया कि मैंने खाया तो खूब बहुत वर्षों तक ..लेकिन पिछले ६-७ वर्षों से सब कुछ छोड़ दिया है। ऐसे लोगों से मिल कर बहुत खुशी होती है जो अपने बल-बूते पर इस ज़हर को ठोकर मार देते हैं। उस के इस प्रयास के लिए मैंने उस की पीठ भी थपथपाई।

ऐसे मरीज़ मेरे पास कम ही आते हैं जो कहें कि इतने वर्षों से गुटखा-पानमसाला छोड़ रखा है। मुझे जिज्ञासा हुई कि इस से पूछें तो सही कि कैसे यह संभव हो पाया।

उस ने बताया कि गुटखा-पानमसाला उसने स्कूल के दिनों से ही खाना शुरू कर दिया था और मैट्रिक तक खूब खाया--लगभग दस पैकेट रोज़। लेकिन एक दिन उसने बताया कि उस के पिता जी को पता चल गया ...बस फिर छूट गया यह सब कुछ।

मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि पिता जी ने धुनाई की होगी........कहने लगा ...नहीं, नहीं, उन्होंने मुझे बड़े प्यार से उस दिन समझा दिया कि इस सब से ज़िंदगी खराब हो जायेगी। और बताने लगा कि उस दिन के बाद से पिता जी ने मुझे अपने पास ही सुलाना शुरू कर दिया।

दो-चार मिनट तक ये बातें वह बता रहा था। पता नहीं मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा, उस का मुंह के अंदर की तस्वीर उस की बात से मेल खा नहीं रही थी। मैं भी थोड़े असमंजस की स्थिति में था कि सात वर्ष हो गये हैं गुटखा छोड़े इस को लेकिन मुंह की अंदरूनी सेहत तो अब तक ठीक हो जानी चाहिए।

यह बात बिल्कुल सत्य है कि मुझे कल कोई ऐसा मिला जिसने अपने आत्मबल के कारण गुटखा त्याग दिया था।
लेकिन मैं गलत साबित हुआ। पता नहीं उसे किस बात ने प्रेरित किया कि अचानक कहने लगा कि बस, डाक्टर साहब, मैं कभी कभी बस तंबाकू रख लेता हूं। मेरा माथा ठनका।

पूछने पर उसने बताया कि १४-१५ वर्ष की अवस्था से अर्थात् छः-सात वर्ष से उसने गुटखा तो छोड़ ही रखा है, कभी लिया ही नहीं ...लेकिन अभी कुछ डेढ़ साल के करीब वह इलाहाबाद अपने अंकल के पास गया है जो कि वहां पर एक उच्चाधिकारी हैं....वहां रहकर वह सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहा है। बस, वहां रहते रहते अन्य साथियों की देखा देखी ...बस, फ्रस्ट्रेशन दूर करने के लिए (जी हां, उस ने इसी शब्द का इस्तेमाल किया था) जैसे दूसरे लड़के लोग तंबाकू चबा लेते थे मैंने भी चबाना शुरू कर दिया है।

और वह एक बात बड़े विश्वास से कह रहा था कि गुटखे छोड़े रखने के लिए ही उसने तंबाकू चबाना शुरू किया है। मुझे लगा कि यह कैसा इलाज है। उसने बताया कि वह जो तंबाकू इस्तेमाल करता है उस में चूना भी मिला रहता है और गुटखे छोड़ने के लिए बहुत बढ़िया है।

गुटखे की आदत से मुक्ति दिलाने का दावा करता यह तंबाकू
मेरे कहने पर उसने वह तंबाकू का पैकेट मुझे जेब से निकाल कर दिखाया। आप इसे देखिए कि किस तरह से ये कंपनियां देश के लोगों को बेवकूफ़ बना कर लूट रही हैं ... धिक्कार है इन सब पर जिस तरह से ये देश की सेहत के साथ खिलवाड़ किये जा रही हैं, आप की जानकारी के लिए इस पैकेट की कुछ तस्वीरें मैं यहां लगा रहा हूं....आप भी देखिए कि किस तरह से पैकिंग पर ही कितना बोल्ड लिखा गया है .. गटुखा छोड़ने का उत्तम उपाय... चूना मिश्रित तंबाकू--- दुर्गंध एवं झंझट से मुक्ति।

उसी तंबाकू के पैकेट पर यह भी लिखा पाया...
इस तरह की बातें किसी पैकेट के ऊपर लिखा पाया जाना कि इस तंबाकू को खाने के बाद मुंह से दुर्गंध नहीं आती है ..इसके सेवन से गुटखे की आदत से अतिशीघ्र मुक्ति मिल सकती है। गंभीर बात यह भी है कि ठीक ठाक पढ़े युवक -यह युवक भी ग्रेजुएट है...अगर इस तरह की बातों में आकर गुटखे को छोड़ कर तंबाकू चबाने लगते हैं तो फिर उस इंसान की कल्पना करिए जो न तो पढ़ना जानता है ...और न ही उस की कोई कोई आवाज़ है, बस हाशिये पर जिये जा रहा है।

गुटखा छोड़ने का जानलेवा उपाय 
हां, उस लड़के को मैंने इतना अच्छा से समझा दिया कि यह बात तो तुम ने पैकेट पर लिखी देख ली कि यह गुटखा छोड़ने का उत्तम उपाय है ...जो कि सरासर कोरा झूठ है... लेकिन तुम ने पैकेट की दूसरी तरफ़ यह कैसे नहीं देखा... तंबाकू जानलेवा है और एक कैंसर से ग्रसित मरीज़ के मुंह की तस्वीर (चाहे वह इतनी क्लियर नहीं है) भी पैकेट पर ही छपी है।  उसे मैंने समझा तो दिया कि ऐसे सब के सब उत्पाद मौत के खेल के सामान हैं ...।

लगता था वह समझ गया है, कहने लगा कि आज के बाद इसे भी नहीं छूयेगा... और बाहर जाते जाते वहीं कूड़दाने में उस पैकेट को फैंक गया। मुझे लगा मेरी पंद्रह मिनट की मेहनत सफ़ल हो गई। अभी आता रहेगा अपने इलाज के लिए मेरे पास...तीन चार बार... देखता हूं कि वह इस ज़हर से हमेशा दूर रह पाए।

इस पोस्ट में स्वास्थ्य से संबंधित ही नहीं ..अन्य सामाजिक संदेश भी है....किस तरह से बाप के प्यार ने, उसे पास सुलाने से उस ने गुटखा तो छोड़ दिया....लेकिन करीबी रिश्तेदार के यहां जाकर फिर वह तंबाकू चबाने लगा......वहां शायद उसे किसी ने रोका नहीं होगा....मतलब आप समझ ही गये हैं।

मैं इस तरह की कंपनियां के ऐसे भ्रामक विज्ञापन देखता हूं , एक तरह से पैकेट में बिकता ज़हर देखता हूं तो मुझे इतना गु्स्सा आता है कि मैं उसे पी कर ही मन ममोस कर रह जाता हूं लेकिन ये मुझे इस तंबाकू-गुटखे-पानमसाले के विरूद्ध जंग को और प्रभावी बनाने के लिए उकसा जाते हैं।

मुझे लगता है कि हम डाक्टरों के संपर्क में आने के बाद भी अगर लोग तंबाकू, गुटखा, पानमसाला नहीं छोड़ पाएं तो फिर कहां जा कर छोड़ पाएंगे, हमें इन के साथ बार बार गहराई से बात करनी ही होगी। ऐसे कैसे हम इन कमबख्त कंपनियां को जीतने देंगे, अपना युवा वर्ग हमारे देश की पूंजी है.......कैसे हम उन्हें इन का शिकार होने देंगे। अगर कोई व्यक्ति मेरे पास कईं बार आ चुका है और वह अभी भी इस तरह की जानलेवा चीज़ों से निजात नहीं पा सका है तो मैं इसे अपनी असफलता मानता हूं.....यह मेरा फेल्योर है....ये दो टके की लालची कंपनियां क्या डाक्टरों से आगे निकल गईं, हमारे पास समझाने बुझाने के बहुत तरीके हैं, और हम लोग पिछले तीस वर्षों से कर ही क्या रहे हैं, बस ज़रूरत है तो उन तरीकों को कारगार ढंग से इस्तेमाल करने की..........इस सोच के साथ कि जैसे इस तरह का हर युवक अपने बेटा जैसे ही है, अगर हम १०-१५ मिनट की तकलीफ़ से बचना चाहेंगे तो इस की सेहत तबाह हो जायेगी। मैं नहीं जानता निकोटीन च्यूईंग गम वम को... मैं ना तो किसी को इसे लेने की सलाह दी है ...इस के कईं कारण हैं, वैसे भी अपने दूसरे हथियार अच्छे से काम कर रहे हैं, मरीज़ अच्छे से बात सुन लेते हैं, मान लेते हैं तो क्यों फिर क्यों इन सब के चक्कर में उन्हें डालें?

बस अपना कर्म किये जा रहे हैं, इन युवाओं की सेहत की रक्षा हो पाने के रूप में फल भी मिल ही रहा है.......मैंने उसे इतना भी कहा कि अगर इस तरह के दांतों के साथ तुम कोई भी कंपीटीशन की परीक्षा देने के बाद इंटरव्यू में जाओगे तो इस का क्या परिणाम क्या हो सकता है, तुम स्वयं सोचना। कुछ बातें साक्षात्कार लेने वाले रिकार्ड नहीं करते लेकिन ये सब बातें उम्मीदवार के मूल्यांकन को प्रभावित अवश्य करती हैं, आप क्या सोचते हैं ...क्या ऐसा होता होगा कि नहीं?

सुबह से लेकर रात सोने तक सारे चैनलों पर आम आदमी पार्टी एवं अन्य पार्टीयों की छोटी छोटी बातें ...कौन कितना खांसता है, कौन खांसने का बहाना करता है, किस ने एक साइज बड़ी कमीज़ डाली है, किस ने मफलर कैसे लपेटा, कौन  दफ्तर से निकल कर महिला आयोग पहुंचा कि नहीं, राखी सावंत कैसे चलाती दिल्ली सरकार..........सारा दिन बार बार वही दिखा दिखा कर...उत्तेजित स्वरों में बड़ी बड़ी बहसें.............इन सब के बीच कुछ कंपनियां किस तरह से ज़हर बेच बेच कर अपना उल्लू सीधा किए जा रही हैं, उन की खबर कौन लेगा?

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

सुपर मार्कीट की दही से याद आया...


किसी भी सुपर मार्कीट में तरह तरह के ब्रांडों की दही, लस्सी, श्रीखंड आदि को देख कर यही लगने लगता है कि आखिर ये देश को परोस क्या रहे हैं, बड़े दिनों से मैं इस के बारे में सोच रहा था…
चलिए आप के साथ बीते दिनों की कुछ यादें ताज़ा कर लेते हैं… १९७० के दशक में यही १९७३-७४ के साल रहे होंगे..डीएवी स्कूल हाथी गेट, अमृतसर, हम लोग यही पांचवीं छठी कक्षा में पढ़ते होंगे…हमारे स्वर्गीय अजीज उस्ताद ..मास्टर हरीश चंद्र जी …आधी छुट्टी से दो चार मिनट पहले हम में से किसी को एक पोली थमाते (२५ पैसे के सिक्के को पंजाबी में पोली ही कहते हैं..अब तो बंद हो चुका है वह सिक्का ही) –मधुर, सतनाम, राकेश, भट्ट या फिर किसी की भी — ड्यूटी लगा देते कि जाओ दही लाओ… हमेशा उन के स्टील के रोटी के डिब्बे में एक डिब्बा खाली रहता था ..जिस में वह ताज़ा दही मंगवाते थे। और मेरे नाना जी भी मास्टर ही तो थे, वे भी अकसर आते वक्त अपने साथ बाज़ार से ताज़ा दही लाते थे… उन का खाना भी एक दम फिक्स..दो गर्मागर्म ताज़ा चपाती, एक कटोरी ताज़ी दाल-सब्जी, एक कटोरी दही ………बस।

पुराने दिनों की याद दिलाता यह दही का बर्तन
वैसे भी हम लोग दही अकसर बाज़ार में मिट्टी के बड़े बड़े बर्तनों में ही बिकता देखा करते थे…ज़माना बहुत ही बढ़िया था, अन्य बीमारियों की तरह यह लालच रूपी कोढ़ का भी नामोनिशान न था, लोग इतने शातिर न थे, बेईमानी के तरीके शायद न जानते होंगे… इसलिए उस बाज़ार की दही को भी कभी कभी खाना मन को भाता था।
होस्टल में रहते हुए तो कईं बार नाश्ते में आधा किलो दही में बर्फ़ चीनी डलवा के खाने का आनंद आ जाता था, सब कुछ बढ़िया तरीके से पचा भी लेते थे।
फिर कुछ साल बाद ये बातें सुनने में आने लगीं कि दूध में मिलावट होने लगी है, बाज़ार में बिकने वाली दही में  ब्लाटिंग पेपर मिला रहता है, लेकिन पता नहीं मुझे इस का कभी यकीं न हुआ… फिर भी बाज़ार में बिकने वाले दही से दूरी बढ़ने सी  लगी। और अभी कुछ साल पहले से जब से इस सिंथेटिक दूध और इस से बनने वाले विभिन्न उत्पादों के बारे में सुना तो बाज़ार में बिकने वाले दही-पनीर से नफ़रत हो गई।
ब्लिक की इस ऩफ़रत को भुनाने के लिए सुपर मार्कीट शक्तियां पहले ही से तैयार बैठी थीं…. इतनी तरह के दही के ब्रांड, पनीर आदि देख कर हैरानगी होती है। मान लेते हैं कि शायद सुपर मार्कीट से उठा कर अपने शापिंग कार्ट में इन्हें डालने वालों के लिए इन की कीमत कुछ खास मतलब न रखती होगी, लेकिन मिल तो यह सब कुछ बहुत मंहगे दामों में ही रहा है।
मैं अकसर सोचता हूं कि घर में तो अकसर हम लोग एक दिन का दही अगले दिन नहीं खाते …नहीं खाते ना.. फ्रिज़ में रखने के बावजूद वह खट्टी सी लगने लगती है। लेकिन ये सुपर मार्कीट में बिकने वाली दही में ऐसा क्या सुपर रहता होगा कि यह पंद्रह दिन तक खराब न होती होगी। ज़ाहिर सी बात है कि इन उत्पादों की इस तरह की प्रोसैसिंग होती होगी, इन में कुछ इस तरह के प्रिज़र्वेटिव डले रहते होंगे जो इन्हें १५ दिन तक ठीक ऱख सकते हों। लिखते लिखते ध्यान आ गया कि यह विषय शोध के लिए ठीक है, करते हैं इस पर कुछ। और जितना जितना ज़्यादा प्रोसैसेड फूड हमारे जीवन में आ रहा है, उस के सेहत पर प्रभाव हम देख ही रहे हैं। 
पहले तो सुपर मार्कीट में यह देख कर ही सिर चकराने लगता है कि यार दही की भी क्या एक्सपॉयरी डेट होती है क्या। दही तो बस वही है जो जमे और सभी उस का उसी दिन आनंद ले लें। लिखते लिखते ध्यान आ गया, एक रिश्तेदार का जो दही का इतना शौकीन कि दही जमने की इंतज़ार में कईं बार ऑफिस से लेट हो जाया करता था।  और हां, ये सुपर मार्कीट वाले एक्सपॉयरी डेट वाले दिन से दो तीन दिन पहले उसे आधी कीमत पर बेचने लगते हैं। इस के बारे में मैं क्या कहूं, आप समझ सकते हैं ऐसा दही किस श्रेणी में आता होगा।
अभी उस दिन की ही बात है…मैंने देखा कि मेरे साथ खड़े एक अजनबी ने जब सुपर मार्कीट से दही का डिब्बा उठाया तो मेरे से रहा नहीं गया, मैंने कह ही दिया, आप थोड़ा फ्रेश डेट का लें… मेरी बात सुन कर वह कहने लगा ….अभी तो एक्सपॉयरी को दो दिन हैं, वैसे भी आधा रेट में मिल रहा है।

इस पीढ़ी ने तो कभी जिम ने जाकर कॉर्डियो न किए………
मेरे विचार में अगर आप के पास कोई घरेलू विक्लप नहीं है तो ही आप को इस तरह के प्राड्क्ट्स इन सुपर मार्कीट में जा कर खरीदने चाहिए….जैसा कि मेरे साथ हुआ, घर से बाहर था कुछ दिन, दही वही खा नहीं पाया, पेट  कुछ ठीक सा न था, इसलिए वहां से लेकर दही कुछ दिन खाया तो ….लेकिन कमबख्त दही ऐसा जैसा कि कोई लेसदार दवाई खा रहा हूं… फिर भी पेट तो ठीक हो ही गया…….मेरा कहने का भाव यही है कि कभी कभी एमरजैंसी के लिए इस तरह का दही-पनीर लेना तो ठीक है, लेकिन निरंतर लगातार इस तरह के प्रोडक्ट्स खरीदने में और विशेषकर अगर आप के पास घरेलू विकल्प हैं तो बात मेरे तो समझ में नहीं आती…….सोचते सोचते दिमाग की ही दही होने लगती है। पंद्रह पंद्रह दिन ठीक रहने वाले दही…………यह क्या बात है, इस पर शोध होना चाहिए। मेरी समझ तो मुझे कहती है कि इसे तो बस एक दवाई की ही तरह से ले सकते हैं.
और हां ध्यान आ गया, इन सुपर मार्कीट शेल्फों पर आजकल प्रो-बॉयोटिक की छोटी छोटी शीशियां भी तो बिकने लगी हैं, दस दस रूपये की …जस्ट शार्ट-कट–जो दही खाने की तकलीफ़ न उठाना चाहते हों बस एक अदद शीशी पी लें तो हो गया उन का लैक्टोबैसीलाई का कोटा पूरा…………जिस तरह से बंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ साथ उस का एक शार्टकट संस्करण भी बिकता है ..जिस पर बीस मिनट लिखा रहता है… उन के लिए जो बेवजह के विज्ञापन को पढ़ कर सिर को दुखाना न चाहते हों..
दुनिया बहुत बदल रही है, शायद इतनी तेज़ी की तो ज़रूरत ही नहीं है, सोचने वाली बात है कि इतनी तेज़ तर्रारी में मुनाफ़ा किस का और नुकसान किसका……….मुनाफ़ा केवल सुपरमार्कीट वालों का……और नुकसान हम सब उपभोक्ताओं का —पैसे का भी, सेहत का भी……..आप क्या सोचते हैं इस के बारे में?

बुधवार, 7 अगस्त 2013

सत्तर की उम्र में रोज़ाना सत्तर किलोमीटर साईक्लिंग

हां तो बात करते हैं आज सुबह की एक फेसबुक पोस्ट की ...हमारे एक मित्र ने एक बहुत ही सुंदर बात शेयर की थी कि गरीब तो पैदल चलते हैं रोज़ी रोटी कमाने के लिए लेकिन अमीर पैदल चलते हैं अपनी रोटी पचाने के लिए........बहुत ही सुंदर पोस्ट थी, साथ में एक मेरे जैसे तोंदू की फोटू भी लगी हुई थी, हां, हां, मैं भी नहाने के बाद बिल्कुल ऐसा ही दिखता हूं, कब मीठे पर कंट्रोल करूंगा और कब नियमित टहला करूंगा, देखते हैं।

हां तो यह पोस्ट मैंने देखी थी सुबह ...और सुबह जब मैं अपने हास्पीटल गया तो कुछ समय बाद मेरे पास एक व्यक्ति आया --बाद में उस से बातचीत करने पर पता चला कि वह ७० वर्ष के युवा हैं, जी हां, वे युवा ही थे, जिस तरह से उन का उत्साह, उन का ढील-ढौल था, उस से उम्र कम ही लग रही थी।

वे मेरे पास एक दांत उखड़वाने आए थे, आप भी सोच रहे होंगे कि ठीक है ७० की उम्र में तुम्हारे पास एक बंदा दांत उखड़वाने आ गया तो इस में कौन सी बड़ी बात है, बात बड़ी है दोस्तो, सच में बड़ी बात है।

वे बुज़ुर्ग दुविधा में थे कि आज दांत उखड़वाऊं या आज केवल दवाई लेकर ही चला जाऊं ...मैंने कहा जैसा आप चाहें, लेकिन जब उन्होंने कहा कि मैं दूर से आता हूं तो मैंने पूछ लिया कि कहां से ...उन्होंने रायबरेली राजमार्ग पर किसी गांव का नाम लिया ... कहने लगा यहां से ३४-३५ किलोमीटर है।

मैंने ऐसे ही अनायास ही पूछ लिया कि बस में आए होंगे, लेकिन उन का जवाब सुन कर मैं दंग रह गया ---नहीं, नहीं, बस में कहां, हम तो साईकिल पर ही आते जाते हैं। मुझे जैसे अपने कानों पर यकीन सा नहीं हुआ ... मैंने फिर पूछा कि आप साईकिल पर आए हैं, तो फिर उन्होंने उसी गर्मजोशी से कहा कि हां, साईकिल पर आया हूं .. और जाऊंगा भी साईकिल पर ही।
उस ७० वर्ष के युवा की ज़िदादिली देख कर यही लग रहा था कि इसे कहां होगा हाई ब्लड-प्रैशर-वैशर ---लेकिन फिर भी चेक किया और पाया ११४ सिस्टोलिक और ७०डॉयस्टोलिक। जिस तरह की दिनचर्या उन की सुनी ...ऐसे में कोई हैरानी न हुई।

हां, मैंने तुरंत उन का दांत उखाड़ दिया....वह बहुत ज़रूरी था, पहले तो दो तीन दांत उन्होंने स्वयं ही उखाड़ िदये थे, लेकिन यह बहुत हिल रहा था और अटका हुआ था जिस की वजह से खाने पीने में बहुत दिक्कत हो रही थी। । दांत उखाड़ने से पहले उन्होंने बताया कि उन्हें ३४-३५ किलोमीटर साईकिल पर आने में २ घंटे लगते हैं ...कोई तकलीफ़ नहीं है, जब लखनऊ सर्विस करने आते थे तब भी साईकिल पर ही आते थे, इसलिए एक सहज आदत सी बन चुकी है।
हां, अब बीच में थोड़ा पानी वानी पीने के लिए थोड़ा रूक जाता हूं।

मैंने उन्हें जाते समय इतना ज़रूर कहा कि आपसे मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा, मुझे भी बहुत प्रेरणा मिली है..... सच भी है कि कई बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ हमारे पास कुछ सीखने नहीं बल्कि हमें कुछ याद दिलाने आते हैं। सोच रहा हूं एक दो दिन में मैं भी साईक्लिंग फिर से शुरू करूं ................कैसा लगा आपको इस ७० साल के युवा का ७० किलोमीटर रोज़ाना साईकिल चलाने का जज्बा.............वंडरफुल, है कि नहीं ?


गुरुवार, 28 जुलाई 2011

कहीं आप भी बस कैलोरियां गिनने के चक्कर में तो नहीं पड़े हुए

अमेरिका में एक विशाल अध्ययन हुआ.. एक लाख बीस-हजार पढ़े लिखे लोगों पर और यह स्टडी 12 से 20 वर्ष की लंबी अवधि तक चली। यह अध्ययन यह जानने के लिये था कि आखिर लोगों का उम्र के साथ वज़न कैसे बढ़ने लगता है।

यह रिपोर्ट पढ़ कर यही लग रहा था कि खाने-पीने की भ्रांतियां शायद सारे संसार में लगभग एक जैसी ही हैं। अपने यहां भी ऐसे लोगों से अकसर मुलाकात हो जाती है जो सोचते हैं कि वज़न कम करना है या भविष्य में बढ़ने नहीं देना है तो बस खाना-पीना कम कर दें तो सब ठीक हो जायेगा। यह एक बड़ी गलतफहमी है। और दूसरी गलतफहमी कि जितनी खुराक हमें दिन में खानी है, अर्थात् जितनी कैलोरियां हमें दिन में चाहिएं, वह कैसे हम पूरी करते हैं उस के बारे में ज़्यादा कुछ सोचना ज़रूरी नहीं ....बस, यहां तो यही फंडा है कि सब कुछ थोड़ा थोड़ा खाते-पीते रहना चाहिए ....कुछ नहीं होता, लेकिन हमारी इसी मानसिकता से ही सब कुछ होता है। संतुलित आहार के साथ साथ शारीरिक व्यायाम ही बहुत आवश्यक है।

ध्यान दें कि इतनी वैज्ञानिक स्टडी एक लाख बीस लाख पढ़े लिखे लोगों ने 12 से 20 वर्ष तक इस स्टडी में हिस्सा लिया। जिन दस चीज़ों को इस स्टडी में विलेन माना गया अर्थात् जो लोग इन चीज़ों का सेवन करते रहे उन्हें मोटापे ने घेरे में ले लिया। इन चीज़ों की यहां थोड़ी चर्चा करते हैं......

1. फ्रैंच फराई – अगर हम सोचें कि फ्रैंच फराई किसी महंगे माल ही में मिलते हैं तो हम गलत हैं। जो हम लोग आए दिन आलू लंबे काट कर उन्हें तलने के बाद नमक आदि लगा कर खाते रहते हैं ये रिश्ते में फ्रैंच-फ्राई के भी बाप हुआ करते हैं। आपने भी देखा होगा इन में से कैसे तेल रिसता रहता है। कईं बार इन्हें वेसन में तला जाता है.. लेकिन ये आलू ही क्यों यहां तो जगह जगह पकौड़ें(भजिया), ब्रेड पकौडे आदि जगह जगह दिखते हैं,....दफ्तरों में तो ये रोज़ाना ऐसे खाए जाते हैं जैसे कि वर्कर किसी दावत में आए हों.............क्यों न हम इन चीज़ों से बच कर रहें।

2. आलू के चिप्स ---- उस आर्टीकल में पैटेटो चिप्स लिखा हुआ था ...हिंदोस्तान के बच्चे जो इन आलू के चिप्स को खा रहे हैं वे तो अपनी सेहत खराब कर ही रहे हैं, लेकिन यहां पर इन का भी देशी ( या ओरिजिनल स्वरूप) रूप भी मिलता है ... आलू के चिप्स बिना तले मिलते हैं बाज़ार में जिन्हें लोग घर में तलते हैं और सोचते हैं कि केवल पैकेटे में आने वाले आलू चिप्स ही विलेन हैं।

3. शूगर-वाले पेय (sugar-sweetened drinks) – हम जानते हैं कि इस तरह की बोतलों वोतलों का बाहर काफ़ी चलन है...यहां पर भी इस तरह की कोल्ड -ड्रिंक्स नईं जैनरेशन में बहुत पापुलर हो रही हैं। बात ऐसी है कि अगर इन ड्रिंक्स को लेने का एक मिजाज सा बन जाता है तो यह सेहत के साथ खिलवाड़ तो है ही ....और वजन बढ़ने से कैसे रह सकता है। ये कोल्ड-ड्रिंक्स तो हैं ही, लेकिन इन के साथ ही साथ देश में यह बड़ी बुरी आदत है हर पेय में मीठा डालने की बात ...लस्सी मीठी, शिकंजवी मीठी.....सब कुछ मीठे से लैस होना चाहिए.....चलिये, शिकंजवी में थोडा बहुत मीठा हो भी जाए तो फिर भी यह जो सुबह से लेकर रात को चादर तानने तक आठ-दस बास मीठी, शर्बत जैसी चाय के दौर दनादन चलते रहते हैं, क्या इन के बावजूद वज़न नियंत्रण में रह सकता है।

4. रैडमीट एवं प्रोसैस्ड-मीट (Red Meat & Processed Meat) – मीट तो शायद इतनी समस्या है नहीं ...कमबख्त महंगा ही इतना है कि आम आदमी की पहुंच स दूर होता जा रहा है और शुक्र है कि एक आम देशवासी अपने धार्मिक विश्वासों की वजह से भी इन से अकसर दूर ही भागता है। लेकिन यहां समस्या है, खऱाब मीट मिलने की ... जिन की कईं बार ठीक से चैकिंग भी नहीं होती... मुझे नहीं लगता अभी प्रोसैस्ड मीट की यहां इतनी समस्या है, लेकिन कोई बात नहीं जिस तरह से हम दूसरी सारी बातें वेस्ट की अपनाने में लगे हैं, बड़े बडे माल खुल रहे हैं, तो यह सब भी आ ही जाएगा, शायद आ ही गया हो....मैंने ही शायद कभी इन शेल्फ़ों को न देखा हो।

5. आलू के अन्य रूप – (Other forms of potatoes) .. अब इन चीज़ों को हमारे हिसाब से देखें तो ये समोसे, आलू की टिक्की, चाट पापड़ी में आलू, आलू भजिया,..... यह क्या, मुझे आलू के अन्य रूप ही ध्यान में नहीं आ रहे ....यहां तो भाई हर जगह आलू ही आलू है .... यहां तक की बालीवुड के गीतों में ...जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहूंगा तेरा ओ मेरी शालू...............हा हा हा ...........ध्यान आ गया कुछ ही दिन पहले एक हृदय-रोग विशेषज्ञ से एक महिला ने पूछ लिया –डाक्टर साहब,मैं आलू ले लिया करूं ? --- उस ने हल्के फुल्के अंदाज़ में उसे समझा दिया ...ऐसा है कभी कभार सब्जी में डले हुये जैसे आलू मेथी, आलू गोभी आदि में खाने से कोई परहेज़ नहीं लेकिन अगर आप दम आलू का बड़ा कटोरा लेंगी तो गड़बड़ है।
कुछ भी हो, यहां आलू की बहुत भरमार है...और ये जो समोसे, टिक्की वाले यह पिछले दिन (या दिनों) वाले आलू अकसर इस्तेमाल करते हैं ...जिस से खाने वाले को दूसरी बीमारियां तुरत घेर लेती हैं।

6. कुछ मीठा हो जाए .... (sweets & desserts) --- इस के बारे में तो क्या कहें, सभी जानते हैं कि हम लोग कुछ मीठा हो जाए के कितने बडे दीवाने हैं लेकिन यह भी ध्यान रहे कि यह तो एक बडा विलेन है ही हमारी तोंद एवं कमर का हिसाब-किताब बिगाड़ने के लिए।

7. रिफाईंड ग्रेन्स --- ( पतले अनाज) --- यह जो आज कर पतला आटा, मैदा जैसा खाने का एक ट्रेंड है, इस को भी एक विलेन का एक दर्जा दिया गया है .... इस के बारे में भी इस ब्लॉग में पहले ही से कईं लेख पड़े हैं, थोड़ा देख लीजिएगा। और ऊपर से यह जो मैदा, सूजी एवं पालिश राईस ....ये सब रिफाईंड ग्रेन्स में ही आते हैं।

8. दूसरे तले हुये खाध्य पदार्थ – (Other fried foods) -- अब अमेरिका में तो इन फास्ट-फूड ज्वाईंटों के अलावा कैसे कैसे तले माल मिलते हैं .. मैं नहीं जानता लेकिन यहां के ऐसे माल हमें हर गली नुक्कड़ पर दिखते हैं ...खोमचे वालों के पास, दुकानों पर .... जलेबी, अमरती, बालूशाही ...तरह तरहकी मिठाईयां, कचौड़ी, समोसे, गुलाब-जामुन, गंदे तेल में हर नुक्कड़ पर तैयार होते नूडल, बर्गर, चोमीन.............अब क्या क्या गिनाएं ......यहां तो भाई हर दिन दीवाली है ...भूख हो न हो, बस रेहड़ी दिखनी चाहिए। लेकिन अगर वज़न बढ़ाना ही है तो कोई इन चीज़ों से कैसे करे इंकार।

9. 100% फ्रूट-जूस (100-percent fruit juice) ---मुझे यह लगता नहीं कि यह हमारी समस्या है .. मुझे पता चला है कि कुछ लोग अमेरिका जैसे देशों में केवल यह 100%फ्रूट-जूस ही लेते हैं.. शायद यह बात उन के लिये होगी... लेकिन एक बात और भी है कि अमेरिका में अधिकतर इस तरह के जूस कैन में मिलते हैं (canned fruit juices) ..जो कि जूस के साथ साथ एडेड शुगर आदि से भी लैस होते हैं ...यह समस्या ऐसी है जो मुझे लगता है हमारे यहां किसी दूसरे रूप में है ...क्योंकि हमारे यहां तो 100% जूस वैसे ही नहीं मिलता ... जूस वाला वैसे ही इतनी मिठास उस में घोल देता है कि उसे पीना हरेक के बश की बात ही नहीं होती....वैसे इस के बारे में विस्तार से कभी चर्चा करेंगे कि इसे उस अध्ययन में क्यों विलेन बताया गया है। वैसे इतना तो हम जानते ही हैं कि अगर संभव हो तो फलों को खा लेना ज़्यादा लाभदायक होता है।

10. मक्खन – मक्खन नहीं तो कुछ नहीं, सारा देश इस चिंता में घुला जाता है कि दूध से मक्खन कितना निकलता है। और तो और साथ में यह घुटन की पड़ोसी के दूध से मक्खन कैसे हमारे दूध से ज़्यादा आ रहा है .... है कि नहीं, गृहणियों की दक्षता का एक मापदंड सा बन के रह गया है ... मैंने भी देखा सुना है कि अकसर चुगली शैशन में यह मक्खन की मात्रा ज़रूर कहीं न कहीं से आ ही जाती है। हमारे यहां भी एक अजीब सी समस्या हो गई ... भैंस के दूध से इतना मक्खन निकलने लगा कि हम परेशान हो गए ... अब हम सब लोग मक्खन से वैसे ही दूर भागते हैं ...और ऊपर से इतनी मात्रा, हर समय यही लगता रहता था कि यार, यह तो ज़रूर दूध में कई कैमीकल लफड़ा है, इतना मक्खन .... फिर एक साल से हम लोग वापिस गाय के दूध पर लौट आए। यह तो थी हमारी बात, लेकिन सच यह है कि मक्खन आज भी भारतवासियों के दिलों पर राज़ करता है.... दाल मक्खनी, बटर चिकन, नॉन मक्खनी.........जहां मक्खन शब्द का इस्तेमाल हो गया, स्टेट्स बढ गया ..खिलाने वाला का भी और खाने वाले का भी। लेकिन इस से वजन बढ़ता है। लेकिन एक बात तो है कि मक्खन चाहे कितना भी बड़ा विलेन क्यों न हो, जो लोग यहां पर मक्खन लगाने के मंजे खिलाड़ी होते हैं, उन का तो रूतबा भी इस से बढ़ता है ....कोई ज़रूरत नहीं काम-वाम की, बस बिना वजह "बटरिंग "करने वाले देखते ही देखते दूसरों के कंधों पर चड़कर कहां के कहां पहुंच जाते हैं...मक्खनबाजी की करामात !!

मैंने जिस आर्टीकल की बात शुरू में की थी उस में आगे जाकर यह भी लिखा है कि यह जो मूंगफली से मक्खन तैयार होता है इतना बुरा नहीं है, आप भी डिटेल में पढने के लिये इस न्यू-यार्क टाइम्स में छपे इस आर्टीकल को तो एक बार देख ही लें-- Still counting calories? ... Your weight-loss plan may be out-dated!

देखो यार, ये सब बातें मेरी दिमाग से उड़ते पाप-कान (cerebral pop-corn) तो हैं नहीं, अमेरिका में अगर उन्होंने बीस साल तक सवा लाख लोगों के साथ माथापच्ची कर के कुछ अनुभव बांटें हैं तो बिना किसी टकराव के हमें मानने में क्या दिक्कत है। वैसे मैं इस स्टडी से पूर्णतया सहमत हूं और आज से मीठा और फ्राईड खाते समय इस की तरफ़ जरूर ध्यान कर लिया करूंगा। और आप सुनाईए, आप ने इतना लंबा लेख पढ़ कर के क्या फैसला किया है ? मेरा फैसला तो यह गाना ब्यां कर रहा है .....