शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

ज़र्रे ज़र्रे में हैं किस्से-कहानीयां ...बात तो समेटने भर की है ...



दरियादिली …..


“उस लेडी को मैंने जानबूझ कर मना किया”….मैं जिस आटोरिक्शा में बैठा, उस का ड्राईवर मेरे बैठते ही अपने आप बोलने लगा…


मैंने दूर से देखा तो था कि एक महिला उस से कुछ पूछ रही थी, फिर अचानक पिछले रिक्शा की तरफ़ चली गई…


“ऐसा भी क्या हो गया कि मना कर दिया….?”


“यह मैडम जब भी रिक्शा में बैठती है, हैरान कर देती है, तेज़ चलाओ, और तेज़ चलाओ…जब तक अपने ठिकाने तक आटो पहुंच नहीं जाता, इन का बार बार चिल्लाना - देखो, वह गाड़ी भी आगे निकल गई, और तुम कुछ कर ही नहीं रहे हो..”


“अच्छा…यह बात है …”


“हां, जब तक वह रिक्शा में बैठी होती हैं, उन की इस बार बार की चिक-चिक से मेरा सर दुखने लगता है…मैंने कुछ दिन पहले यह ठान लिया कि आगे से इस मैडम की सवारी नहीं लेनी….

बार बार एक ही बात कि मैं लेट हो जाऊंगी…

लेट हो जाएंगी तो भई वक्त पर निकलिए घर से ….मेरे पास तो एक रिक्शा ही है, मैं इसे कैसे उड़ा कर पहुंच दूं….

चाहे भाड़ा तो 200 रुपए का हो जाता है, लेकिन जहां पर मैडम का ऑफिस है वहां से वापसी पर भाड़ा नहीं मिलता….” बस, इतनी बात कर के वह चुप हो गया…


मुझे लगा उसे अपने मन की बात बाहर निकाल के सुकून सा मिल गया …

लेकिन मुझे क्या पता था…कि यह तो ट्रेलर था, पिक्चर तो अभी बाकी थी….


जाते जाते अचानक एक निर्माणाधीन बिल्डींग की तरफ़ इशारा कर के बताने लगा

“मेरे पास सिर्फ़ रिक्शा चलाने के लिेए आधा घंटा ही है, उस के बाद मैं इस बिल्डिंग वालों के लिए काम करता हूं….”


“क्या वहां पर सिक्योरिटी का काम करते हो…?”


“नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं….यह बिल्डिंग उस हीरोईन की बन रही है…वह तो बाहर गांव रहती हैं, उन की बेटी ही यह बिल्डिंग का काम करवा रही हैं….बिल्डिंग बन रही है, इसलिए वह पास ही किराये पर रहती हैंं…”


उस हीरोईन की बेटी को संबोधन करते वक्त वह उस के नाम के साथ दीदी हर बार लगा रहा था….


“वैसे वहां पर काम क्या करना होता है …?”


“कईं काम हैं, गाय के लिए चारा लेने जाना, कुत्तों को टहलने ले कर जाना, तरह तरह के घरेलू इस्तेमाल की चीज़ें लाना ….इत्यादि …

दीदी, मुझे ठीक सुबह साढ़े चार बजे फोन कर देती हैं….एक तरह से अलार्म होता है …वह तो तीन बजे उठ जाती हैं….

मैं उठ कर फ्रेश हो कर नहा धो कर दीदी के यहां पहुंच जाता हूं…

वहां से दीदी मेरे रिक्शा में बैठ कर वहां जाती हैं जहां पर गाय के लिए चारा बिकता है ….गोरेगांव से घास आता है वहां पर …पांच हज़ार रुपए का घास लिया जाता है …”


“पांच हज़ार रुपए का घास महीने का …?”


“नहीं, नहीं, रोज़ पांच हज़ार रुपए का घास ….और मेरा वहां काम होता है, घास के जो बड़े बड़े पैकेट होते हैं उन की गिनती करना और उन को गाय के मालिकों में बांट देना….”



(बहुत से लोगों को नहीं पता होगा कि मुंबई में जगह जगह पर, चौराहों के पास, या बाज़ारों में गाय बंधी हुई दिखती हैं….जिन के पास उन के मालिक या मालकिन बैठी होती है, बहुत से लोग गाय के चारा खिलाने के लिए वहां आते हैं, दस, बीस, पचास रुपए का चारा अपने हाथों से खिलाकर पुण्य के भागी बनते हैं और आगे निकल जाते हैं….उस गाय के स्वामी ने अपने पास इस घास के चारे के साथ साथ गाय के लिए अलग तरह की खाद्य सामग्री भी रखी होती है …जैसे भूसे से बने लड्डू टाइप के मिष्ठान, और भी कुछ कुछ चीज़ें …स्वामी ने पैसे लेने हैं और पुण्याभिलाषी ने यह सब कुछ गाय को खिला देना है ….शाम तक अच्छी कमाई हो जाती है गाय के स्वामी की, और गाय को दोहने से जो दूध मिलने वाला है, वह तो हुआ बोनस….


यह इतनी लंबी बात मैंने इसलिए लिखी कि यह जो गाय के स्वामी घास बेचते हैं यह भी उन को इसी तरह से किसी दानवीर ने दान ही में दिया होता है, मुझे आज उस ड्राईवर की बात सुन कर यही लगा….)


“और घास वाला काम निपटाने के बाद फिर और क्या काम करते हो…?”


“कईं काम होते हैं घर में …बाज़ार से कुछ खरीदारी कर के लाना, मैडम के पास जो कुत्ते हैं उन में से कुछ को मैं टहलाने ले जाता हूं….”


“कितने कुत्ते हैं..?”


“35 कुत्ते हैं…”


“बेचने का काम भी करते हैं…?”


“नहीं, नहीं, उन का शौक है, जानवरों से बहुत प्रेम करते हैं….35 कुत्ते हैं और 29-30 बिल्लीयां हैं….अब कभी किसी कुत्ते की तबीयत ठीक नहीं, कभी किसी बिल्ली की ….उन को डाक्टर के पास भी मैं ही लेकर जाता हूं….”


“अच्छा, यह सब तुम करते हो …!”


“और यही नहीं, इस इलाके के आसपास जितने भी स्ट्रीट डॉग्स हैं उन सब के लिए दीदी दिन में दो बार मटन बनवा कर उन के खाने का इंतजाम करती हैं….”


“वैसे तुम्हें क्या मिलता है उन के यहां से …?”


“मेरा यही है कि मैं जैसे ही वहां जाता हूं, जहां तक वहां रहता हूं और उन के काम करता रहता हूं, मेरे रिक्शे का मीटर डाउन ही रहता है, कभी रोज़ के एक हज़ार मिल जाते हैं, कभी डेढ़ हज़ार…”


“बहुत अच्छे…”


मेरी मंज़िल आ चुकी थी, मैं उसे भाड़ा दे भी चुका था…लेकिन उस की बात लगता है अभी पूरी नहीं हुई थी, मुझे भी इतनी जल्दी नहीं थी कि मैं उस की बात बीच ही में काटने की गुस्ताखी कर देता …


“दीदी बहुत अच्छी हैं, गरीबों के साथ बहुत हमदर्दी रखती हैं, मेरे भी कपडे़, जूते …सभी वही दिलाती हैं, कुछ अरसा पहले मेरे गांव के एक रिश्तेदार की टांग टूट गई, मैं दीदी के पास ले कर गया तो दीदी ने उस के इलाज का पूरा खर्च उठाया …दो ढ़ाई लाख रुपए लग गए थे ….दीदी का दिल उन की मम्मी से भी बड़ा है ”


“इस पूरी बिल्डिंग में वे लोग खुद ही रहेंगे या भाड़े पर उठा देंगे…?”


“खुद ही रहेंगे, तीन चार माले तो उन लोगों को अपने लिए चाहिए. एक कुत्तों के लिए रखेंगे और एक नौकरों के रहने के लिए…..”


“बढ़िया है ….लगे रहो इस काम पर …बढ़िया लोग नसीब से मिलते हैं…वैसे यह आटोरिक्शा अलग से इस तरह कब चलाने का वक्त निकाल पाते हो ?”


“जी हां, जैसे ही वहां दीदी के यहां कोई काम नहीं होता, मैं एक दो घंटे के लिए बीच में रिक्शा चला लेता हूं…”


उस को मिलने के बाद मैं सोच रहा था कि महानगरों में इन रिक्शा वालों की भी कितनी बड़ी भूमिका है, घर-बाहर छोड़ कर कैसे परदेस में रोज़ी-रोटी के लिए पहुंच जाते हैं और अपने अच्छे व्यवहार से, ईमानदारी से लोगों के दिलों में जगह बना लेते हैं….यह ड्राईवर से बात करने के बाद मुझे उस रिक्शा वाले का ख्याल आ गया जो घायल हालात में सैफ अली खां को रात के दो बजे अस्पताल लेकर गया था…..


अच्छा, पूरी स्टोरी खत्म हुई …अभी के लिए …लेकिन बात यह है कि हर इंसान के पास बहुत सी स्टोरीयां हैं, जिन्हें वह कहने को बेताब है …लेकिन सुनने वालों के पास वक्त नहीं है…..कहानीयां, किस्से सिर्फ़ इंस्टाग्राम पर, फेसबुक पर ही नहीं बुनी जाती, असल ज़िंदगी में भी एक से एक प्रेरणादायी कहानी-किस्से हैं, जिन्हें अभी कहा नहीं गया, सुना नहीं गया….शायद इस का कारण यह भी है कि लोग अब बेमतलब के किसी के साथ बोलना-बतियाना नहीं चाहते….अगर बात ही नहीं करेंगे तो भी बात आगे कैसे चलेगी, बात से बात कैसे निकलेगी…..मुझे पंजाबी की एक बहुत बड़ी प्रोफैसर मिसिज़ बराड़ की बात याद आ रही है जिस में वह कहती हैं कि आज कल की पीढ़ी के पास बातें हैं ही नहीं, बस हूं, हांं, यस, नो, हॉय, बॉय हैलो…..और कुछ नहीं, इसलिए इस पीढ़ी की बातें एक दम सिमट गई हैं…..सुकड़ गई हैं।


यह जो ऊपर मैंने उस रिक्शेवाले से हुआ वार्तालाप आप तक पहुंचाया, मैंने इसमें न कुछ जो़ड़ा है न ही घटाया है ….क्योंकि उस से मुझे क्या हासिल …और जितने विश्वास से वह यह बातें बता रहा था, उस दौरान भी मुझे नहीं लगा कि कुछ बना रहा है…..उसे भी यह सब गढ़ने से क्या मिलने वाला था….रिक्शा के भाड़े के सिवाए…..।


अभी मैंने यह लिखते लिखते गूगल से भी पूछ लिया ….जितनी बातें गूगल ने बताईं उन से रिक्शा वाले की कही बातों की पुष्टि ही हुई….अब यह तो गूगल बताने से रहा कि किस के घर में कितने कुत्ते हैं और कितनी बिल्लीयां. …..


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

क्यों निकल आईयां हड़बां....

 हड़बां 


पंजाबी भाषा दा इक पुट्ठा लफ़्ज़ हड़ब, 

पुट्ठा ही तो हुआ अगर यह किसी को परेशान कर दे, 

जबड़े की कहें या गाल की हड़्डी उसे कहते हैं हड़ब…

दोनों तरफ़ की जब हो बात तो हड़ब से बन गया हड़बां…

किसी के गाल जब जाएं पिचक 

ज़ाहिर है चेहरे पर जैसे नज़र पड़ती है सिर्फ़ दिखती हैं…

जबड़े की हड्डीयां …

और इसे पंजाबी अपने शटल्ली अंदाज़ में फरमाते हैं..

हड़बां निकल आईयां ने उस दीयां…..


युवावस्था की दहलीज़ पर अकसर लड़कों की निकली ही दिखती थीं हड़बें

फिर सुनना पड़ता जने-खने से, सवालों से भरी उन की आंखों से, 

मां-बापू, दादी, नानी, बुआ से …

क्यों निकल गई हैं हड़बें तुम्हारी…..कुछ करो…। 


शारीरिक बदलाव, मानसिक उथल-पुथल, 

अपने ही में सिमटे, सकुचाते, सुनहरी सपने उधड़ने-बुनने की कच्ची उम्र  

हारमोन लोचे से, काल्पनिक बीमारियों से जूझता…

क्या ही कर लेता इस का लेकिन 

बार बार ये हड़बां-हड़बां सुन 

काका और भी रहने लगता परेशान ….

कुदरत का प्यारा निज़ाम देखिए….

अगले दो चार बरसों में गालें भी भर जातीं और शरीर भी ….


खैर, हर पिचके हुए गालों की दास्तां जुदा है …

स्कूल-कॉलेज वाले लड़कों की बात हो गई ….

फिर हम लगे देखने …बड़े बड़े खिलाड़ीयों को भी, 

टॉप माडल, हॉलीवुड स्टार भी …

हड़बें उन की भी निकली दिखतीं…


ज़िंदगी के सफ़र में फिर आगे देखा 

डाईटिंग, फैशन, स्टाईल के दीवाने 

जब चाहते हड़बां निकाल लेते 

जब चाहते भर लेते उन पिचके गालों को …

ज़रूरत पड़ने पर भरवा भी लेते फिल्लर से ….

पैसे वालों के लिए दिखा यह एक खेल….


दांत निकल जाने से गाल जाते ही हैं पिचक 

हड़बां आती हैं निकल …

नकली दांतों तक हर किसी की नहीं होती पहुंच 

पूरी उम्र गुज़ार देते है पिचके गालों के साथ अमूमन 

पोपले बने हुए, हड़बां निकली हुईं …

दांत नहीं हैं तो क्या जीना छोड़ दें….

गजब की बात यह कि सब कुछ खा-चबा लेते हैं…

मौज करते है,  खुल कर बेपरवाह हंसते भी दिखते हैं…

किसी से कोई शिकायत नहीं….

जिंदगी से राज़ी दिखते हैं, समझौता कर लेते हैं…

इन की बेपरवाह रुह से निकली हंसी सब को लेती है मोह ….

चिढ़ाती हो जैसे उन लोगों को 

जिन्होंने लाखों लगा दिए दांतों के इंप्लांट पर, 

चेहरे पर बोटॉक्स लगवाने में, 

गालों का ज़रा भी अंदर धँसना रोकने के लिए, 

हरेक मसल को पूरा एकदम टनाटन टाईट रखने के वास्ते, 

किसी मसल की क्या मजाल की चेहरे पर ज़रा ढिलका दिख जाए…

इन सब जुगाड़ के बावजूद….

कुछ लोगों की हंसी इतनी कैलकुलेटेड, डरावनी, बनावटी और मज़ाक उड़ाती ही दिखीं….

दूसरों की खिल्ली उड़ाती....😂


दास्तां जुदा हैे हर पिचके गालों की….

नशा-पत्ता करने वालों की भी उभर आती हैं हड़बें…

कल शाम एक एक अधेड़ उम्र की बहन दिखी ट्रेन में चढ़ती…

एक दम पिचके गाल, हड़बां ही हड़बां दिखतीं, 

इस तरह की हड़बें निकली हुईं देखने वाले को कर देती हैं फ़िक्रमंद…

इन हड़बों के साथ बीमार शरीर भी दिखता है इक मुट्ठी हड्डियों जैसा, 

अंदर धंसी आंखे, उम्मीद की मंद किरणों से रोशन, 

इस तरह की हड़बों को चाहिए …

दवा के साथ दुआ….बढ़िया खाना, मुकद्दर भी चाहिए अच्छा….

यह सब हरेक को कहां हो पाता है मयस्सर,

इसीलिए टावां टावां ही ….🙏



प्रवीण चोपड़ा 

28.10.25 


पुट्ठा (पंजाबी लफ्ज़)- उल्टा, 

टावां-टावां (पंजाबी) ….कोई कोई 


अभी मैं जब इस पोस्ट को बंद कर रहा हूं, विविध भारती पर यह गीत बज रहा है …. सुपर-डुपर हिट गीत …हमारे कॉलेज के दिनों की यादों का एक अहम् हिस्सा …


गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

वाट्सएपिया बधाईयां (व्यंग्य)


वाट्सएपिया बधाईयां


आती थीं खुशियां कभी

ख़तों पे सवार हो कर दीवाली की बधाईयां….

पहुंचा तो दिया करती थीं ख़ुशियां 

साढ़े तीन रुपए की फिक्स रेट बधाई की तार भी लेकिन 

तार वाले की पुकार सुन कर थोड़ा डर जाते थे उन दिनों…

बधाई वाली तार का फूल-पत्ती वाला रंग बिरंगा लिफाफा देख लेकिन 

चल पड़ती थी अटकी सॉंस फ़ौरन….


फिर पड़ गया ग्रीटिंग्स कार्ड का रुल

रुपए एक में रेहड़ीयां पर लगे थोक में बिकने

लोग खरीद लेते थोक में, भेजते परचून में लेकिन 

रख लेते संभाल अगले साल के वास्ते….


कार्ड जब जाते अपने ठिकाने पहुंच, फिर शुरू होता मुआयना उनका, 

किस कंपनी का है, कितने का है, टिकट कितने की लगी है …

कार्ड अगर होते बैंक, इंश्योरेंस, या बिजनेस की मशहूरी वाले, 

पता लगते ही उन की रेटिंग हो जाती एकदम डाउन ….

फुटपाथ से खरीदे, चालू किस्म के कार्ड भी 

भिजवाने वाले की हैसियत की खोल देते पोल …

वक्त ही था ऐसा ….आर्ची़ज़ है तो बात है, वरना बेकार है …

(आशिक लोग इस बाबत रहते थे एकदम सचेत…नो कंप्रोमाईज़ विद स्टाईल…

इन्हीं पट्ठों की वजह से आर्चीज़ स्टोर चल क्या निकले, लगे भागने…)


जवाब में कार्ड भिजवाना या थैंक-यू कार्ड भिजवाना…

यह देखा बहुत ही कम…

ठानते बहुत बार लोग दिखे लेकिन 

कि अगली बार हम भिजवाएँगे कार्ड उधर से आने से पहले…

लेकिन अगली बार न आई कभी…

क्योंकि अगली बार तक तो ..

ज़िंदगी में लैंड कर गया लैंड-लाइन…

आईएसडी, एसटीडी, लोकल दरों पर 

बूथ पर लगे मीटर पर नज़रें गढ़ाए गढ़ाए

आने जाने लगीं दनादन बधाईयां…


फेसबुक, मोबाइल ने यह काम कर दिया बेहद आसां 

बात करने की इच्छा है तो ठीक, बधाई चिपका कर वरना, 

फेसबुक वॉल पर निपट गया यह काम….

इंस्टा भी तो है, फेंको स्टोरी बधाई वाली

इक पंथ कईं काज हुए सम्पन्न…

वकेशन लोकेशन दिखा दी, बधाई भी हो गई सेंड, 

और जो खून बढ़ गया फील गुड फील से….

वह बोनस अलग…..यह तो होना ही था….


वाट्सएप पर अब बधाईयों के लगे हैं अंबार मगर 

न रस है, न स्वाद…

शादी-ब्याह में मिलने वाले कपड़ों की तरह, 

यहां वहां से आए बेतहाशा, बहुत बार पढ़े बिना….

फारवर्ड किए हुए बधाई संदेश….


सच कहूं तो इस पल पल के अपडेट्स..

हर पल ऑनलाईन टंगे रहने की फ़िराक ने 

हाल ऐसा कर रखा है बेहाल,

अब उंगली के एक पोर को थोड़ी ज़ेहमत दे कर 

मैसेज भिजवाने की इच्छा भी हुई खत्म….

चलिए, खुद नहीं भेजते एक बात ….

दूसरों से पहुंचे बधाई संदेश भी 

नहीं लगते हैं अब किसी भारी बोझ से कम, 

यह सोच कर कि निजात पाने के लिए इस भार से…

वही घिसे-पिटे मकैनिकल से भेजने होंगे जवाब ..

बिना किसी फील और इमोशन वाले…


सुबह उठ कर इसलिए हर दिन 

सच्चे दिल से यह अरदास ही कर दें एक बार .. …

“सरबत दा भला….”

सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुख भाग्भवेत्।


प्रवीण चोपड़ा 

23.10.25




शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

ख़तों की दुनिया में सब कुछ इतना यक़ीनी हो जाना ....

 पहले परसों मेरे फोन पर एक टैक्स्ट मैसेज आया कि फलां फलां नंबर की एक चिट्ठी आप के लिए बुक की गई है …आप चाहें तो इसे इस लिंक पर जा कर ट्रैक कर सकते हैं….


फिर कल सुबह एक मैसेज आया कि एक डाकिया (नाम के साथ) आप तक आप की चिट्ठी पहुंचाने की ट्राई मारेगा ….जी हां, यही टैक्सट था….


उस के बाद शाम को फिर टैक्सट आता है कि आप के नाम जो चिट्ठी थी, आप को डिलिवर हो गई है ….


शुक्रिया….डाक विभाग …इस चिट्ठी के लिए और हर उस ख़त के लिए जो आप ने हमारी पीढ़ी तक वक्त पर पहुंचाया…


लेकिन ऐसे ही ख्याल आ रहा था कि जब चिट्ठीयों के बारे में इतना सब कुछ यकीनी बन गया है तो मेरी पीढ़ी को, 50-60 बरस के पार हो चुके मेरे हम-उम्र लोगों को शायद थोड़ा बहुत रोमांचक कम लगता होगा….हो सकता है किसी और को ऐसा न लगता हो लेकिन भई मुझे तो यकीनन लगता है कि इस सब ट्रैकिंग-वैकिंग से ख़तों का रोमांच कम हुआ है ….यह भी सच है कि इस तरह की वेल्यू-एडेड सुविधाएं देना अब सरकारी डाक व्यवस्था की मजबूरी भी है …क्योंकि यह पुरानी पीढ़ी तो अब रफ्ता-रफ्ता लुप्त होने की कग़ार पर है ….


पुरानी पीढ़ी की, अपनी पीढ़ी की बात करता हूं तो वह व्हाटस्एप पर वॉयरल हो चुके कई मैसेज याद आते हैं कि हमारी पीढ़ी ने बहुत कुछ देखा है …रेडियो-ट्रांज़िस्टर, टेप-रिकार्डर, वे बार बार रुक जाने वाली टेपें, वी-सी-पी, वी-सी-आर, रेलवे रिज़र्वेशन के लिए आधा दिन बरबाद करने का दौर और वह भी मेन्यूएल….आरक्षण बाबू की मर्ज़ी, ख़तो-किताबत वाले दिन, टैलीग्राम के नाम से दिलों की बढ़ती धड़कन, ब्लैक-एंड-व्हाइट टीवी जिस पर खेती-बाड़ी के प्रोग्राम शुरु होते ही हम उस के सामने बैठ जाते और सुगम-संगीत तक यह सिलसिला चलता रहता, पुरानी टाकीज़ में बेहतरीन हिंदी फिल्मों का आनंद लेना….अंदर घुसने तक पता नहीं होता था कि पंखे के नीचे वाली सीट मिलेगी या नहीं क्योंकि लोगों का एक हुजूम एक साथ छोड़ दिया जाता था…(तब कोई स्टैंमपीड न होती थी, न भगदड़).....खैर, यादों के झरोखों में ऐसे ही ताक-झांक करते रहेंगे तो बहुत कुछ नज़र आता रहेगा….लेकिन बात तो आज चिट्ठी की करनी है, ख़तों की प्यारी दुनिया को थोड़ा याद करना है ….


घर के पैसेज की एक दीवार ....

हम से जो पिछली पीढ़ी थी, उन्होंने तो और भी बहुत कुछ ऐसा देखा जिसे देखना हमारे हिस्से में न था….उन को ख़तों के आने जाने के बारे में उंगलियों पर गिनती करते देखा….जैसे पिता जी का यह हिसाब लगाना कि भाई को चिट्ठी डाली दी शनिवार के दिन ….तीन दिन लगते हैं …मंगलवार तक तो मिल ही गई होगी….अगर डाक शनिवार न भी निकली होगी तो सोमवार निकल कर बुधवार तक तो मिल ही गई होगी….एक दो दिन के बाद ही वह जवाब देता है…चलिए अगर बुधवार तक तो जवाब आ ही जाना चाहिए था…..लेकिन अब तो 15 दिन होने को हैं, जवाब नहीं आया…..चलिए, आज फिर से एक ख़त लिखता हूं….

पैसे-धेले की किसी भी केल्कुलेशन की बजाए हम लोगों ने इस तरह का हिसाब-किताब अकसर लगते देखा है ….


ख़तों की दुनिया में कुछ भी यक़ीनी न होने से बराबर एक रोमांच बना रहता था …पता नहीं चिट्ठी कब आएगी, देर से आएगी या नहीं भी आएगी…एक उम्मीद, एक आस बनी रहती थी….


यह जो मैं लिख रहा हूं इन सब बातों से वही लोग रिलेट कर पाएंगे जिन्होंने वह वक्त जीया है ….शिखर दोपहरी के पौने तीन बजे तक डाकिया बाबू की आवाज़ या उस के साईकिल की चेन की आवाज़ का इंतज़ार किया है ….और सिर पर तौलिया रख कर बाहर दरवाजे तक जा कर देखना भी उन की आदत में शुमार था…कोई चिट्ठी अगर दरवाज़े के अंदर गिरी मिलती तो ऐसे लगता जैसे छोटी मोटी लाटरी लग गई हो ….


नानी की चिट्ठी, दादी की, मामा, मामी, मौसी, फूफा, फूफी, चाचा, चाची, ताऊ-ताई, बहन की भाई की ….मां की मौसी की, पिता जी के चचेरे भाई की, सब की चिट्ठीयां आती थीं और उन के बाकायदा जवाब लिखे जाते थे ….मुझे कईं बार बड़ा अजीब लगता है जब देखता हूं कि महानगरों के बड़े बडे नामचीन स्कूलों में लेटर-राईटिंग का एक सैशन हुआ या छोटे बच्चों को एक डाकखाने की विज़िट करवाई गई……लेकिन हम लोगों की, हमारी पीढ़ी की प्रैक्टीकल ट्रेनिंग हुआ करती थी …स्कूल में पढ़ते हुए भी किसी भी रिश्तेदार को चिट्ठी जब लिखी जाती तो थोड़ी जगह हम लोगों के लिए रख दी जाती….मुझे यह लिखते वक्त याद आ रहा है कि 50 साल पहले मैंं आठवीं कक्षा में था और मैंने अपने जीजा जी को एक ख़त लिखा था और उस की तारीफ़ में जो उन्होंने ख़त लिखा था, वह मुझे आज तक याद है ….चिट्ठीयां हम लोग संभालते नहीं थे, ऐसे ही फाड़ दिया करते थे ….बस, नानी के घर में ही देखते थे कि एक साईकिल की तार में पिरो कर वह कईं महीनों तक चिट्ठीयां संभाले रखती थीं और हमारे लिए वही कॉमिक्स का करती थीं….नाना-नानी के पास जब गए होते तो उस तार में से चिट्ठीयां निकाल निकाल पर पढ़ते रहते …..कितनी वेलापंथी है न यह सब भी ….अब याद करते हैं तो हंसी भी आती है ….


वैसे आप को भी पता तो होगा ही ….(अगर आप डाक विभाग की थोड़ी खबर रखते हैं) कि पिछली 30 सितंबर से डाक विभाग ने रजिस्टर्ड-डाक सेवा बंद कर दी है …जिसे आम भाषा में रजिस्टरी कहते रहे हैं हम ….अब स्पी़ड-पोस्ट ही होती है …30 सितंबर 2025 को मैंने एक सुनहरी याद को संजोने के लिए आखिरी बार एक रजिस्टरी की थी …जैसे 2014 या 2013 में जब टैलीग्राम का चलन बंद किया गया तो मैंने आखिरी दिन एक टैलीग्राम भी भिजवाई थी….क्योंकि हम लोगों के लिए ये अल्फ़ाज़ ही नहीं है, रजिस्टरी, यूपीसी, टैलीग्राम (तार)...हम लोगों ने इन चीज़ों के साथ ज़िदगी जी है…..और ये सब विषय ऐसे हैं जिन पर मेरी उम्र के लोग अगर एक बार लिखना शुरु करें तो लिखते ही जाएं….यादों की चर्खी ऐसे खुलती चली जाती है कि पता ही नहीं चलता कि कितने कागज़ काले कर दिए….लिखते लिखते …


हां, आज तो ख़तों की दुनिया में इतना सब कुछ यकीनी हो गया है, उस से चाहे रोमांच में कमी आई हो या मुझे ही लग रहा है, वह मेरी समस्या है लेकिन असलियत यह है कि आज कल चिट्ठीयों को स्पीड-पोस्ट से भेजना एक मजबूरी भी हो गई है ….पहले राखीयां, भैया-दूज के टिक्के, ये सब पांच रूपए के लिफाफे में भिजवा दिए जाते थे ….ग्रीटिंग कार्ड भी ऐसे ही भेजे जाते थे ….अब यह सब भेजने के लिए लगभग 60 रुपए खर्च करने पड़ते हैं…..सैंतालीस रुपए शुल्क और ऊपर आठ रुपए जीएसटी….। 


मैं ऐसा महसूस करता हूं कि यकीनी अगर कुछ बनाना ही है तो पहले जैसी डाक-व्यवस्था को यकीनी बनाए जाने की ज़रूरत है …चिट्ठीयां मैं लिखता रहता हूं ….दोस्तों को लिखता हूं तो फोटो खींच कर वाटसएप पर भेज देता हूं ..लेकिन कुछ ऐसी चिट्ठीयां होती हैं, ऐसे रिश्ते होते हैं जहां पर चिट्ठी को कागज़ पर लिख कर लिफाफे में डाल कर ही भिजवाता हूं ….बहुत बार ये लिफाफे या अंतर्देशीय अपने ठिकाने तक पहुंचे ही नहीं …..लेकिन एक बैक-अप रखा हुआ काम आ जाता है ….शायद अब हमें यकीन ही नहीं होता कि यह पांच रुपए का लिफाफे में इतनी ताकत नहीं कि वह इतना लंबा जा पाएगा ….और शायद इसीलिए वह पहुंच ही नहीं पाता या उस का कुछ और हश्र हो जाता है ….क्या होता है, क्या नहीं, ईश्वर जानता है ….लेकिन उस बालपन में, युवावस्था में एक प्रबल विश्वास था कि पांच पैसे का पोस्टकार्ड दादी के हाथों तक पहुंच ही जाएगा दो दिन के बाद ….और वह पहुंच भी जाता था ….जिस की खबर दादी के कांपते हाथों से लिखे जवाबी पोस्टकार्ड से मिलती थी …जिसे बार बार पढ़़ा जाना और पिता जी का उस ख़त को अगले एक दिन तक अपने तकिये के नीचे रखे रखना…..


यह विषय ही अपने दिल के इतना करीब है कि लिखने बैठे हैं तो लिखते ही रहेंगे लेकिन इसी चक्कर में आप पढ़ने वाले के सब्र का इम्तिहान ही न ले बैठें…..


अब अगर इस तरह की चीज़ों को एंटीक शॉप से उठाना पड़े तो हम समझ सकते हैं ख़तो-किताबत के हालात क्या हैं, हमारी स्टडी के बाहर यह खत का इंतज़ार कर रहा है....जब मैने इसे खरीदने में दिलचस्पी दिखाई तो उस ने इस का मोल काफी बताया कि यह लकड़ी ऐसी है, वैसी है ....लेकिन मुझे तो इसे खरीदना ही था... फिर पता नहीं कभी यह दिखे न दिखे....😁.. लुप्त हो रही यादें...



जाते जाते यह भी लिखना चाहता हूं कि हम लोग बचपन से देख रहे हैं कि हम लोग जहां जहां भी रहे, डाकिया बाबू से ऐसे खुशग़वार संबंध रहे कि उस ने कभी कोई चिट्ठी इधर उधर होने नहीं दी, यहां तक कि रजिस्टरी हो या स्पीड-पोस्ट, बिना हमारे हस्ताक्षर के हमारे बॉक्स में डाल जाते थे …बाद में पूछ भी लेते थे, मिल गई थी वह चिट्ठी, हम बॉक्स में डाल आए थे, न हमने उनसे कभी पूछा कि हस्ताक्षर किस से करवाए, न ही उन्होंने हमें कभी जताया कि यह काम रिस्क वाला था …जब कि हम जानते हैं कि यह रिस्क वाला काम तो है ही उस की नौकरी के लिए, लेकिन विश्वास, भरोसा, यकीन बहुत बड़ी बात होती है और यह कमाना पड़ता है, बाबू…. 


हां, डाक की ट्रैकिंग की बात हुई तो उस से पता चलता है कि कितने बजे किसने देश के किस डाकखाने से चिट्ठी बुक की है, और किस किस रास्ते से होती हुई यह चिट्ठी आप के द्वार तक पहुंच रही है ….कोई रोमांच नहीं होता यह सब जानने में जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है जब तक कि कोई बेहद ज़रूरी चिट्ठी न हो ….ट्रेकिंग से याद आई एक बात और कि हमारी तो सारी ट्रेकिंग डाकिये के चेहरे से हो जाया करती थी, जब वह तूफान, बारिश, शिखर दुपहरी,ठिठुरती ठंडी में चिट्ठी ले कर हाजिर हो जाता था ….


डाकिये के बारे में  निदा फ़ाज़ली जो कहा है मुझे बहुत अच्छा लगता है …

सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान्. 

एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान….


और जब डाकिये या डाक के ऊपर फिल्मी गीत याद करता हूं तो बहुत से बेहतरीन गीत याद आ जाते हैं …कईं गीत हैं, एक से बढ़ कर एक…लेकिन यह गीत तो शायद हज़ारों बार सुन चुका हूं ….यह गीत नहीं है, इस में पूरा एक संसार समाया हुआ है ….यह गीत गुदगुदा जाता है, आंखें थोड़ी नम भी कर जाता है ….बहुत पसंद है मुझे यह गीत…..डाकिया डाक लाया….शायद आम हिंदोस्तानी की ज़िंदगी में कोई ऐसा ईमोशन हो जिसे यह गीत ब्यां नहीं करता ....सब कुछ ....एक दम सटीक, परफेक्ट....



और हां, एक मज़ेदार बात और ….आज से पच्चीस साल पहले मैं यह क्रिएटिव राईटिंग के बारे में कुछ नहीं जानता था, क ख ग से भी वाकिफ न था, केवल मेडीकल विषयों के बारे में बोरिंग-बोझिल लेख लिखता था ….इतनी भारी भरकम भाषा ….फिर 2002 के आसपास एक नवलेखक शिविर में पंद्रह दिन के लिए जाने का मौका मिला और बात समझ में थोड़ी आ गई ….और उस शिविर के लिए मेरा जिस लेख के आधार पर चयन हुआ …उस का शीर्षक भी यही था ….डाकिया डाक लाया…..यह मेरा पहला लेख था जिसे मैंने एक कागज़ पर लिख कर केंद्रीय हिंदी निदेशालय को भेजा था ….


वैसे चिट्ठी पत्री वाला गीत तो मुझे यह भी बहुत पसंद है , यह रहा उस गीत का लिंक ….चिट्ठीए नी दर्द फ़िराक वालिए...….(हिना फिल्म)....कितने गीत है जिन को बीसियों सालों से सुनते आ रहे हैं लेकिन मन नहीं भरा ….खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू…चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है ….बेहतरीन फिल्मी गीत है ख़तों पर लिखे हमारे अज़ीम गीतकारों की कलम का कमाल ….फूलों के रंग से, दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ पाती

कैसे बताऊँ किस-किस तरह से पल-पल मुझे तू सताती…..


अब वक्त है इस पो्स्ट को बंद करने का …..यहां से उठ जाने का …बस, एक बात याद आ गई....मेरे सामने पड़ी मेरी डायरी देख कर ....गुलज़ार साहब की एक गज़ल में भी ख़त को ज़िक्र आता है ...मुझे यह बहुत पसंद है...कुछ अरसा पहले मैंने रेडियो पर सुनी तो अपनी डॉयरी में ली कर रख ली थी...आप भी अगर उसे पढ़ना चाहें ...





शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

मुंबई मेट्रो...फर्स्ट डे...फर्स्ट शो का सपना हुआ साकार

जवानी के दिनों में कभी भी किसी बालीवुड फिल्म को फर्स्ट डे, फर्स्ट शो ...(जैसे की डॉन, अमर-अकबर, एंथोनी, लावारिस, एक दूजे के लिए)....देखने का सपना कभी साकार न हुआ...क्योंकि फ्राई-डे और अगले दिन शनिवार-रविवार को टिकटों की इतनी काला बाजारी होती थी कि हम सोच भी नहीं सकते थे पांच रुपए कि टिकट को ब्लैक में 50 रुपये में खरीदने के बारे में....लेकिन यह मेट्रो वाला सपना कल साकार हो गया.....😁


कल सुबह मुझे भी कुछ तस्वीरों के साथ ऐसा ही शीर्षक दिखा …दरअसल हमारे एक डाक्टर साथी ने अपनी कुछ बढ़िया 2 तस्वीरें शेयर की हम लोगों के एक वाट्सएप ग्रुप में ….जिस तरह का उतावला पन हम रखते हैं…मुझे जैसे ही उन तस्वीरों की एक झलक दिखी, बिना उन को खोले ही दो ख्याल ऐन उसी वक्त दिमाग में कौंध गए कि यह तस्वीरें तो डाक्टर बाबू ने लगता है गलती से यहां शेयर की दी हैं…और दूसरा ख्याल भी फौरन पहुंच गया कि डाक्टर साहब बता रहे होंगे कि देखिए AI से फोटो को किस लेवल तक पहुंचाया जा सकता है ….

अभी इन ख़्यालों का ख्याल भी न कर पाया था कि फोटो खुल गईं, वे देखीं….उन के साथ कोई कट्लाईन नहीं थी, वह एक अगली पोस्ट में लिखा था कि मुंबई मेट्रो में पहले दिन-पहले शो का आनंद लिया …बहुत खुशी हुई हम सब को यह देख-पढ़ कर ….


मराठा मंदिर सिनेमा के एकदम बाहर भी एक एंट्री-एग्ज़िट है और इस के सामने नायर डेंटल कालेज के बाहर भी ...

पहला सब से ज़रूरी काम लेखक ने जो किया...मुंबईसेंट्रल मेट्रो स्टेशन पर पहुंचते ही सेल्फी ली....

मैंने भी सोचा हुआ था कि जिस दिन यह पूरी लाईन खुलेगी उस दिन इस में सफ़र ज़रूर करना है …लेकिन कहां से कहां तक मैं यह ही नहीं तय कर पा रहा था …फिर जब कल यह भी अपने आप ही तय हो गया….क्योंकि कल विश्व डाक दिवस था ….और मुझे जीपीओ कुछ काम था …इसलिए मुंबई सैंट्रल से सीएसटी मैट्रो स्टेशन तक जाना भी तय हो गया….




जिस इंक्ल्यूसिविटी की मैंने ब्लॉग में बात की है...



मुंबई मेट्रो एक्वा लाईन जिसे लाईन तीन भी कहते हैं….उस का उद्घाटन परसों 8 अक्टूबर को हुआ है और कल 9 अक्टूबर को यह पब्लिक के लिए खोल दी गई है ….यह आरे, जेवीएल आर से लेकर कफ परेड तक जाती है …सारी अंडरग्रांउड है, कुल 28 स्टेशनों में से 27 स्टेशन अंडर-ग्रांउड ही हैं….इस का एक स्ट्रैच आरे (आरे मिल्क प्लाटं के नाम से) से महात्मा अत्रे चौक (वरली) तक को कुछ महीने पहले ही खुल गया था …अब परसों वरली से कफ-परेड तक का भी स्ट्रैच खुलने से मुंबई वासियों में खुशी की लहर दौड़ गई है….



अब ऐसे ऐतिहासिक लम्हे को ट्रेने के अंदर भी कैद न किया तो क्या किया...



मुंबई सीएसटी मेट्रो स्टेशन पर फूलों के हार ऐसे स्वागत करते मिले ...



वैसे इस एक्वा लाईन पर यह मेरी दूसरी यात्रा थी…क्योंकि जितना स्ट्रैच पहले खुल चुका था. उस पर भी मैंने कुछ दिन पहले सफर किया था ..एयरपोर्ट टर्मिनल मेट्रो स्टेशन से बीकेसी (बांद्रा कुर्ला कंपलेक्स) मेट्रो स्टेशन तक …चालीस रूपए टिकट है उन दोनों स्टेशनों के बीच सफर करने के लिए ….कुछ ज़्यादा वक्त नहीं लगा था …यही दस मिनट शायद …


सब कुछ बढ़िया लिखा हुआ कि किस गेट से निकलेंगे तो किधर पहुंचेंगे ...बहुत अच्छे 

चमकते दमकते स्टेशन....मुंबई सीएसटी मेट्रो 


दिव्यांग जनों के लिए वॉश रूम की व्यवस्था और पानी पीने की सुविधा भी ऐसी कि कोई भी आराम से पी ले ....इस तरह की सुविधाएं दिल्ली मेट्रो पर भी होनी चाहिए....वॉश की सामान्य व्यवस्था भी है , यह देख कर बहुत अच्छा लगा...

पढ़ लीजिए ज़ूम कर के अगर आप चाहें तो ...






उस दिन भी बहुत अच्छा अनुभव रहा था और कल भी एक्वा-लाईन (पूरी स्ट्रैच खुलने पर)  के पहले दिन भी बहुत अच्छा अनुभव रहा ….कल शाम ही सोच रहा था कि इस को अपनी डॉयरी में लिख दूंगा ….ज़रूरी लगा ….इसलिए यह पोस्ट लिख रहा हूं….


मुंबई सीएसटी पर बाहर से लोग स्टेशन देखने आए हुए थे ...इस के आगे जाने के लिए टिकट खरीदना पड़ता है ..

बढ़िया व्यवस्था एस्केलेटर भी और सीढि़यां भी ...


सीएसटी मेट्रो स्टेशनसे बाहर आने के लिए सीढ़ी के साथ साथ यह एक बहुत ही सुविधाजनक रैंप भी है ....बेहतरीन डिज़ाईन ...कोई भी आसानी से इस पर चल सकता है ..

कल खबरें आ रही थीं कि यह लाइन पूरी खुल तो गई है लेकिन बहुत से स्टेशनों के कुछ एंट्री-एग्जिट प्वाईंट अभी नहीं खुले हैं…नहीं खुले हैं कुछ प्वाईंट तो नहीं खुले हैं, मेट्रो काम पर लगी हुई है …खुल जाएगा सब कुछ जल्दी लेकिन तब तक भी मेट्रो की सेवाएं हम सब के लिए खुल गई हैं, यही क्या कम है। हर स्टेशन पर आने जाने के लिए कुछ एंट्री-एग्ज़िट प्वाईंट तो खुले ही हैं….


जैसा की मैंने ऊपर लिखा कि मैंने मुंबई सेंट्रल स्टेशन से मुंबई सी एस टी जाना था इस एक्वा लाईन में ….मुंबई स्टेशन मेट्रो स्टेशन का नाम जगन्नाथ शंकर सेठ मेट्रो स्टेशन के नाम से है…इस के एंट्री-एग्ज़िट प्वाईंट एक तो नायर डैंटल कालेज (मराठा मंदिर सिनेमा के ठीक सामने) के गेट के बाहर है …अभी मराठा मंदिर के गेट के बाहर वाला चालू नहीं हुआ है …और एक एंट्री-एग्जि़ट प्वाईंट है मुंबई सेँट्रल स्टेशन मेन स्टेशन के मेन गेट के साथ सटा हुआ ….मैं नायर डेंटल वाली एंट्री से नीचे गया…लिफ्ट भी है, और सीढ़ियां भी हैं, एस्केलेटर भी था, लेकिन कोई कह रहा था वह ऊपर आने के लिए ही है…अभी बहुत सारी सुविधाओं का हम लोगों को पता भी नहीं है, लग जाएगा पता लगते लगते …ऐसा ही होता है जब कोई नईं सेवा शुरु होती है …


सीएसटी मेट्रो स्टेशन के बाहर निकल कर जब यह मुंबई सीएसटी के पुराने सब-वे से मिलता है, यह तस्वीर वहां से, बाहर से ली गई है 

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा .....अब सी एस टी मेट्रो स्टेशन से बाहर आकर उस पुराने सब-वे हम फिर से अपने पुराने रंग में रंग जाते हैं....सामने आप को सीढ़ियां दिखाई दे रही हैं...जिन को चढ़ते ही आप मुबंई सीएसटी लोकल स्टेशन प्लेटफार्म पर पहुंच जाते हैं...

लेकिन नीचे जा कर वहां का भव्य नज़ारा देख कर दिल खुश हो गया….सब कुछ एकदम साफ-सुथरा, व्यवस्थित और एक दम बढ़िया एम्बीऐंस ….हां, एक बात जो वहां पर मैं बार बार सुन रहा था कि नीचे मोबाईल नेटवर्क की समस्या है …मुझे इतनी साईंस नहीं आती, शायद इतना नीचे नहीं चलता होगा नेटवर्क ….यह इसलिए लिख रहा हूं ताकि अगर नीचे जा कर केश-काउंटर से टिकट लेनी है तो साथ में कुछ रोकड़ा भी रखना ज़रूरी है ….यह इसलिए लिखना ज़रूरी है कि आज कल कुछ लोगों को विशेषकर जेन्ज़ी पीढ़ी को केश रखने की बिल्कुल आदत नहीं रही ….हां, एक एप का भी बार बार ज़िक्र आ रहा है ….और शायद स्टेशन के बाहर क्यू-आर कोड भी लगे होंगे …भूमिगत स्टेशन की तरफ प्रस्थान करने से पहले लोग टिकट का जुगाड़ कर ही लेंगे ….


मैंने टिकट काउंटर से टिकट ली ….मुंबई सेंट्रल (जे एस एस मेट्रो) से मुंबई सीएसटी तक 20 रुपए की टिकट थी …कुछ लोग जो इसी रूट का रिटर्न टिकट ले रहे थे, वह 40 रूपए का था। टिकट लेकर मैंं प्लेटफार्म पर बैठ गया….वहां पर अच्छी तरह से सब कुछ आप की सूचना के लिए लिखा गया है ….


पांच मिनट में गाड़ी आ गई ….इतनी भीड़ नहीं थी, पता नहीं आगे चल कर क्या हालात होंगे ..लेकिन आज तो लगता है तफ़रीह के मूड में आए लोग ही थे…फोटो खींच रहे थे, व्हीडियो बना कर इंस्टा पर शेयर करने के लिेए, हाथ में पहले दिन वाली टिकट हाथ में थामे हुए….


मैं भी गाड़ी में उपलब्ध सुविधाओं को देख रहा था ….एमरजेंसी में ट्रेन के ड्राईवर से संपर्क करने की सुविधा है ….और मेरी सीट के सामने ही दिव्यांग जन के लिए, उन की व्हील-चेयर रखने की भी व्यवस्था थी ….मेट्रो ने इंक्ल्यूसिविटी का पूरा ख्याल रखा है …..क्योंकि मैंने मुंबई सीएसटी स्टेशन पर देखा कि वहां पर दिव्यांग जनों के लिए वॉश-रूम भी अलग उपलब्ध थे….


यह जो ट्रेन में दिव्यांग जनों के लिए उन की व्हील चेयर के साथ चढ़ने उतरने की व्यवस्था है, यह मैंने 2019 में यू-एस-ए में बसों में देखी थी, अगर वहां पर बस-स्टैंड पर कोई दिव्यांग जन इंतज़ार कर रहा दिखता, तो बस के पिछले हिस्से का प्लेटफार्म बिल्कुल नीचे ज़मीन के साथ टच कर जाता ताकि वह बंदा अपनी व्हील-चेयर को आगे चला कर खुद ही अंदर आ जाए और अपनी जगह पर उसे ले जाए, उस के बाद वह प्लेटफार्म ऊपर उठा लिया जाता ….और बस आगे की यात्रा के लिए निकल जाती …


कितना वक्त लगा मुबंई सेंट्रल से मुंबई सी एस टी स्टेशन तक ….


बीच में तीन स्टेशन हैं….ग्रांट रोड स्टेशन, गिरगांव, कालबा देवी …और पता ही लगता कब 10 मिनट लगभग में ही मुंबई सीएसटी स्टेशन आ गया….बहुत अच्छा एक्सपिरिएंस रहा ….एकदम स्मूथ राईड ….सब कुछ एकदम सेट…


लेकिन एक बात जो मुझे लगी …पता नहीं अभी हम लोगों को सही तरह से सभी एंट्री-एग्ज़िट प्वांईंट का पता भी नहीं है और कुछ अभी खुले भी नहीं हैं (जल्दी खुल जाएंगे) …लेकिन मेट्रो-स्टेशनों पर चलना खूब पढ़ता है ….शायद मुझे लगता है कि टोटल 10-15 मिनट का चलना हो ही जाता है….अच्छी बात है, चलना और चल पाना सेहत की निशानी है …लेकिन यह लिखा इसलिए है कि अगर आप अपने बुज़ुर्ग परिवार के सदस्यों को एक ज्वॉय-राईड के लिए लेकर जाना चाहते हैं तो पहले अच्छे से खुद रेकी कर के आ जाईए…स्टेशन पर उपलब्ध सुविधाओं  के बारे में पढ़ लीजिए…रोज़ अखबारों में बड़े अच्छे से बता रहे हैं…


चलिए, मुंबई मेट्रो से सीएसटी मेट्रो तक पहुंच गए और वहां से बाहर निकल कर सीएसटी के सब-वे तक भी पहुंच गए लेकिन व्हील-चेयर वाला बंदा या अशक्त इंसान जो सीढ़ीयां नहीं चढ़ सकता वह क्या करे ….क्योंकि वहां से बाहर निकलने के लिेए सीढ़ीयां ही इस्तेमाल करनी होंगी….लेकिन जैसा की मैंने लिखा है हो सकता है कि मैं जिस रास्ते से बाहर निकला हूं उधर ही ऐसा हो, दूसरे किसी निकास पर लिफ्ट हो या एस्केलेटर भी हो, यह आप को देखना चाहिए…. 


मेरे मेट्रो सफर ….

मेरा पहला मेट्रो सफर नवंबर 2009 में था ..मेरे साथ मेरी मां थी और तब स्कूल में पढ़ने वाला बडा़ बेटा था ….हम लोग दिल्ली से विश्वविद्यालय स्टेशन तक गए थे ..सत्संग में जा रहे थे ….डरते डरते चढ़ रहे थे ….मां भी थोड़ी डर रही थीं….होता ही है पहली बार …..लेकिन उस दिन भी बहुत अच्छा लगा था ….फिर तो इतने बरसों से दिल्ली मेट्रो एक आदत सी बन गई है …और जब से बुज़ुर्ग होने का टैग लगा है और टैग लगने से भी ज़्यादा चेहरे-मोहरे ,सफेद बालों की वजह से और बरबाद हो चुके घुटनों के कारण चाल टेढ़ी मेढ़ी होने से अपनी उम्र से भी बड़ा दिखने लगा हूं, बुज़ुर्ग लोगों की सीट तक पहुंचते ही वहां पर बैठा कोई नवयुवक डिफॉल्टर (डिफॉल्टर ही कहेंगे ऐसे लोगों को जो इन सीटों को हथिया कर मुंडी नीचे कर मोबाईल की दुनिया में डूब जाते हैं) खुद ही खड़ा हो कर सीट खाली कर देता है ….वही वक्त है जब  बुज़ुर्ग होने पर फ़ख्र भी होता है …और अपने सफेद बालों को काला करने के लिए कूची से कभी न पोतने का फैसला अच्छा लगता है …बालों की रंगाई-पुताई सच में बडी़ सिरदर्दी लगती है.. क्यों लगता है कि इतनी सी पुताई से हमारी उम्र छुप जाएगी…..कुछ नहीं छुपता-वुपता, दोस्तो….


फिर लखनऊ में दिसंबर 2017 में मेट्रो में पहली बार सफर किया था …. वहां पर भी मेट्रो का ठीक ठाक नेटवर्क है …एयरपोर्ट से लेकर शहर के दूसरे छोर तक ….लखनऊ में रहते हुए ज़्यादा मेट्रो में सफर नहीं किया…ज़रूरत ही नहीं पड़ी। 


फिर मुंबई में घाटकोपर से वर्सोवा वाली मेट्रो लाइन पर भी पिछले कुछ सालों में दो चार बार सफर किया….इसे रिलायंस चला रही है …..लेकिन यह जो ऊपर मैंने मुंबई मेट्रो की एक्वा लाईन के बारे में लिख रहा हूं, यह मुंबई मेट्रो रेल कार्पोरेशन चला रहा है ….दूसरी सभी मेट्रो जो चलने वाली हैं, शायद ये भी एमएमआरसी द्वारा ही संचालित होंगी….जैसे दिल्ली में दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन है ….यह भी मुझे कल ही पता चला जब मैंने स्टेशन पर इस तरह के बोर्ड देखे ….


मेट्रो की व्यवस्था मुझे बहुत भाती है….कोई थूकता नहीं, कोई बीड़ी-सिगरेट नहीं फूंकता….शायद 2010 के आस पास की बात है, मैंने दिल्ली मेट्रो में पढ़ा था कि थूकने वाले पर 500 रुपए जुर्माना किया जाएगा….और मैं इतने बरसों से दिल्ली की मेट्रो में सफर कर रहा हूं और लखनऊ मेट्रो में भी जितना सफर किया कभी पान की, गुटखे की एक छींट तक नहीं देखी …एक दम साफ सुथरे स्टेशन …मेट्रो वाले जानते हैं नियमों को कैसे लागू करना-करवाना है …मुझे याद है जब आज से दस बरस पहले लखनऊ मेट्रो का निर्माण कार्य चल रहा था तो सड़कों पर जो मेट्रो के निर्माणाधीन लोहे के बोर्ड लगे होते थे उन को भी रोज़ाना लोग पान-गुटका थूक थूक कर रंग दिया करते थे ….लेकिन मेट्रो की यह बात भी देखी कि उन के सफाईकर्मी उन लोहे के बने बैरियर को रोज़ाना पानी से धोते …यह हम रोज़ देखा करते थे …..अब अगर वहां पर मेट्रो साफ सुथरी रही तो मुंबई में तो ऐसी कोई दिक्कत आने का अंदेशा ही नहीं है, और अगर कुछ होगा तो मेट्रो के नियम जो मैंने यहां पो्सट किए हैं, वह आप भी पढ़ लीजिए….अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो किसी भी तस्वीर पर क्लिक कर के, ज़ूम कर के देख लीजिए….



ऐसे ही घूमते-टहलते अकसर यह गाना याद आ ही जाता है ...आदमी मुसाफिर है आता है जाता है ....


यह तो मैं बताना भूल ही गया कि जीपीओ में मुझे ऐसा कौन सा काम आन पडा ऐसे वक्त में जो मोबाईल नहीं कर पाता....काम ही कुछ ऐसा था ....वहां जाना ज़रुरी था ...

नहीं देख पाए फर्स्ट डे, फर्स्ट शो शोले का 50 बरस पहले तो भी कोई ग़म नहीं, पचास साल बाद पचास पचास रुपए में यह पोस्ट कार्ड तो खरीद पाए ....😀...दिल का क्या है, कैसे भी समझ जाता है ....