हमारा अपना - हमारी अपनी मां-बोली (मातृ-भाषा) का लिटरेचर तो उम्दा होता ही है...सब से बढ़िया हम लोग जितना अपनी मां-बोली ज़ुबान में अपने जज़्बात को ब्यां कर पाते हैं, दूसरी किसी अन्य ज़ुबान में करने की सोच भी नहीं सकते ...क्योंकि यह ज़ुबान हमें अपनी मां से गुड़ती से मिली होती है ....हम उस ज़ुबान ही में अपनी मिट्टी-पानी में रमे हुए होते हैं ...जिगरी दोस्तों से, अपने कुनबे में हम ने वही ज़ुबान का इस्तेमाल कर के ही अपने दिल की बात दूसरों तक कही होती है ...और अपने आसपास के समाज में भी हम उस ज़ुबान का आसरा लेकर ही उस में अच्छी तरह से मिल-जुल कर रहते हैं...
क्या ऐसा हो सकता है कि साउथ मुंबई के किसी पॉश एरिया के कान्वेंट स्कूल में बंदा पढ़ा हो, अपनी मां-बोली तो छोडि़ए, हिंदी भाषा से भी उस का रिश्ता किसी दूर के रिश्ते जैसा ही रहा हो....फिर वह बाहर कहीं चला जाए...यही फिल्में लिखने का काम सीखने ...सीख भी लेगा ....और वापिस देश में आकर हिंगलिश में कुछ कुछ लिखने भी लगेगा...लेकिन मुझे हमेशा शक है कि क्या इस तरह के लेखन में कुछ रूह भी होगी...
यह जो बात मैंने ऊपर लिखी है ..यह मैं किसी भी फिल्म विशेष के लिए नहीं कही ....मैं तो शेरशाह हिंदी मूवी की बात करने बैठा था ऐसे ही ...मुझे तो पता भी नहीं कि उस फिल्म का राइटर कौन है ....क्योंकि मूवी तो अच्छी है, बेशक....उस वीर जवान विक्रम बतरा की लाइफ पर बनी है ....देश की आन बान शान के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले उस जांबाज़ को मैं कोटि-कोटिन नमन करता हूं...
लेकिन जिस तरह से उस फिल्म में हीरो और हीरोइन के बीच और हीरोइन के पिता जो सिख धर्म से तालुल्क रखते हैं ...उन के हिंदी पंजाबी के संवाद मुझे हमेशा की तरह बहुत ही ज़्यादा अजीबो-गरीब लगे .... वैसे भी मैंने यह देखा है कि जिस तरह के पंजाबी ज़ुबान के संवाद फिल्मों वाले नायक-नायिकाओं से बुलवाते हैं ....वे हम ने तो कभी सुने नहीं होते ...वे बिल्कुल ड्रामाई और मज़ाहिया लगते हैं ...
मैं अकसर सोचता हूं कि इस तरह से पंजाबी के डायलाग फिल्मों में जबरदस्ती फिल्मों में ठूंसने से क्या हासिल ...इस से फिल्म का मज़ा ही किरकिरा ही होता है ...पांच दस मिनट तो झेल लेते हैं..फिर सर भारी होने लगता है ...
अपनी मां-बोली ज़ुबान में कुछ कहना फ़ख्र की बात है ....राष्ट्र भाषा तो हमारी पहचान है ही बेशक, हमारी शान है ....लेकिन जितना आसां लोग समझते हैं न कि मां-बोली में डायलाग लिख लेंगे ....एक्टर लोगों से बुलवा भी लेंगे - लेकिन जिन लोगों का उस भाषा से कोई नाता नहीं रहा, वे उस के साथ न्याय नहीं कर पाते ... न तो ऐसे संवाद लिखने वाले और न ही उन को डिलीवर करने वाले ...ऐसे ही कामेडी की खिचड़ी सी बन जाती है ...
जिस देश की ज़ुबानों के लिए, वहां के पानी के लिए कहावत है ...कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी ....अपनी मिट्टी से जुड़े हम लोग किसी की ज़ुबान से उस के ज़िले तक का अंदाज़ा लगा लेते हैं ....ऐसे में ये फिल्मी संवाद लिखने वालों को भी इन चीज़ों का ख़्याल रखना चाहिए....लेकिन इन्हें कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि इन का माल बिक रहा है...
इस तरह से टूटी-फूटी मां-बोली को हिंदी में मिक्स कर देने से दोनों ज़ुबानें खराब हो रही हैं....हम कहां अपने आसपास इस तरह की बातचीत होती देखते हैं....
लेकिन मैं अब इस वक्त क्यों यह सब लिखने बैठ गया...क्योंकि मुझे किसी भी ज़ुबान का गलत इस्तेमाल होते देख कर दुःख होता है ....वैसे ही बहुत से लोग (ख़ास कर पंजाबी) अपनी मां-बोली से दूर हुए जा रहे हैं....कारण बहुत से हैं इसके....उस के बारे में बात कभी फिर करेंगे ...जो लोग अपनी मां-बोली का (हिंदोस्तान के किसी भी इलाके की कोई भी भाषा हो) बिल्कुल शुद्ध रूप में इस्तेमाल करते हैं, मुझे उन को बोलते-बतियाते देख कर बहुत अच्छा लगता है ....
हम अपनी मां-बोली से बढ़िया किसी भी अन्य भाषा में अपने आप को व्यक्त नहीं कर पाते हैं.....लेकिन शर्त यही है कि वह बनावटी न दिखे....ऐसा न लगे कि मजबूरी वश बोल रहे हैं....किसी ने हम पर लाद दी हो जैसे.....वह तो अपने आप बिल्कुल नदी के धाराप्रवाह पानी की तरह बहती है ....जैसे हम मां के साथ बतियाते वक्त कुछ सोचते हैं....किसी को इंप्रेस करने की कोशिश करते हैं क्या, जो कुछ हमारे दिल के अंदर है कैसे बाहर आ जाता है ........अगर कुछ हम ने अंदर कुछ दबा के रख छोड़ा है, वह भी स्वतः बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ ही लेगा ... बिंदास। यही किसी भी ज़ुबान का मक़सद है .....