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रविवार, 21 सितंबर 2014

नेट पर बिकने वाली सेहत

इतने वर्ष हो गये नेट पर मेडीकल विषयों पर लिखते हुए ... अब यह पक्का लगने लगा है कि नेट पर जो हम लोग सेहत संबंधी विषयों के बारे में पढ़ते हैं, उसे हैंडल करना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है।

आए दिन मैडीकल रिसर्च से नईं नईं बातें सामने आ रही हैं...लेिकन बहुत सी बातें अभी भी रिसर्च की स्टेज तक ही होती हैं कि विभिन्न कारणों की वजह से --(इस में मार्कीट शक्तियों की भी बहुत भूमिका है).. उन्हें आगे कर दिया जाता है।

कोई भी नेट पर मैडीकल सामग्री पढ़ने वाला आसानी से भ्रमित हो जाता है.....जिस टेस्ट की नहीं भी ज़रूरत वह जा कर करवा के आ जाएगा, जिस जांच की ज़रूरत है वह करवाएगा नहीं, नईं नईं दवाईयों के चक्कर में या नेट पर ऑनलाइन दवाईयों के चक्कर में पड़ सकता है.....और तो और, कुछ विषयों के ऊपर पढ़ कर कईं तरह की काल्पनिक बीमारियों के चक्कर में अपने मन का चैन खो बैठता है। इस तरह के पचड़ों में पड़ने की लिस्ट खासी लंबी है, कहां तक गिनवाएं।

मैं जनसंचार (मॉस कम्यूनिकेशन)  पांच वर्ष पढ़ने के बाद से पिछले सात वर्षों से निरंतर नेट पर सेहत संबंधी विषयों पर लिख रहा हूं...इसलिए जेन्यून और फालतू जानकारी के बीच अंतर जानने में दिक्कत नहीं होती..लेिकन फिर भी बहुत बार तो मैं भी कंटाल जाता हूं.......अभी अभी खबर पढ़ी कि ये आर्टिफिशियल स्वीटनर्ज़ हैं, इस से भी मधुमेह के रोगियों में रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। इस का स्क्रीन शाट यहां लगा रहा हूं।

लो, कर लो बात......
यही कारण है कि मैं किसी को भी सलाह नहीं देता कि नेट पर कुछ भी पढ़ कर आप अपनी सेहत के बारे में महत्वपूर्ण फैसले करें....यह आप के हित में है ही नहीं। आप के फैमली डाक्टर का न तो कोई विक्लप बना है, शायद न ही बन सकता है। उस से बात कर के ही आप की कईं चिंताएं हवा हो सकती हैं।

हां, नेट में अगर जानना हो तो ह्लकी फुल्की जानकारी सेहत के बारे में....किसी टेस्ट के बारे में कोई जानकारी चाहिए हो तो वह पढ़ लें, समझ लें, किसी भी आप्रेशन के बारे में कुछ भी ऐसे ऊपरी ऊपरी जानकारी पा सकते हैं, लेकिन कोई भी निर्णय इस आधार पर लेने की कोशिश न करें.......क्या है ना, डाक्टर लोग बीसियों वर्षों तक हज़ारों मरीज़ देखने के बाद इस मुकाम तक पहुंचते हैं कि आप से चंद मिनट बात कर के, आप के कुछ टेस्ट करवा के, आप की सेहत के.. बारे में जान लेते हैं.........आप कैसे ये सब निर्णय ले सकते हैं।

एक और मशविरा .... डाक्टर से आप जितने प्रश्न करें, आप का अधिकार है...लेकिन अगर अपना नेट से पढ़ा मैडीकल ज्ञान दिखाने के लिए अगर आप कुछ कह रहे हैं तो वह भी चिढ़ जाता है, आखिर है तो वह भी इंसान, उसे कुछ भी समझते देर नहीं लगती। बेहतर हो कि डाक्टर के सामने बिल्कुल अनाड़ी (और दरअसल हम हैं भी... डाक्टर की तुलना में) की तरह ही बिहेव करें......कुछ ज़्यादा लिख दिया.......चलिए, इतना तो कर ही सकते हैं कि जो डाक्टर साहब कह रहे हैं, उसे अच्छे से समझने की कोशिश करें।

नेट पर पढ़ा करें कि खुश कैसे रहें, जीवनशैली को कैसे पटड़ी पर लाएं, खाना पीना कैसे ठीक करें, व्यायाम कैसे नियमित करने की आदत डालें, विचार कैसे शुद्ध हों (जी हां, यह भी जाना जा सकता है).....कैसे शांत रहना सीखें.....बस इतना ही काफ़ी है ......लेकिन आप कहेंगे कि इन के बारे में क्या पढ़ें, डाक्टर, यह सब तो क्या हम पहले ही से नहीं जानते क्या?.......तो फिर उन्हें व्यवहार में लाने से आप को कौन रोक रहा है। 

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

नीम हकीम खतराए जान...

मैंने कुछ अरसा पहले अपने एक बुज़ुर्ग मरीज़ का ज़िक्र किया था कि वे किस तरह कभी कभी मेरे पास दस-बीस तरह की स्ट्रिप लेकर आते हैं, और मुझ से पूछ कर कि वे तरह तरह की दवाईयां किस किस मर्ज़ के लिये हैं उन के ऊपर छोटी छोटी पर्चियां स्टैपल कर देते हैं।

आज भी वह शख्स आये .. खूब सारी दवाईयां लिफ़ाफे में डाली हुईं ---कहने लगा कि जब मैं मरीज़ों से फ्री हो जाऊं तो उन्हें मेरे पांच मिनट चाहिए।

इस बार वे दवाईयों के साथ साथ पर्चीयां एवं स्टैपर के साथ साथ फैवीस्टिक भी लाए थे। मेरे से एक एक स्ट्रिप के बारे में पूछ कर उस के ऊपर लिखते जा रहे थे – ब्लड-प्रैशर के लिये, गैस के लिये, सूजन एवं दर्द के लिए आदि आदि।


 घर में रखी दो-तीन तरह की आम सी दवाईयों के बारे में जानकारी हासिल करने वाली बात समझ में आती है लेकिन इस तरह से अलग अलग बीमारियों के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयों के ऊपर एक स्टिकर लगा देने से कोई विशेष लाभ तो ज़्यादा होता दिखता नहीं, लेकिन नुकसान अवश्य हो सकता है।


अब अगर घर में रखी किसी दवाई के ऊपर स्टिकर लगा दिया गया है कि यह ब्लड-प्रैशर के लिये है...यह काफ़ी नहीं है। चिकित्सक किसी को भी कोई दवाई देते समय उस के लिये उपर्युक्त दवाई  का चुनाव करते समय दर्जनों तरह की बातें ध्यान में रखते हैं --- जैसे ब्लड-प्रैशर की ही दवाई लिखते समय किसी के सामान्य स्वास्थ्य, उस की लिपिड-प्रोफाइल, गुर्दै कि कार्यक्षमता, उस की उम्र, वज़न आदि बहुत सी बातें हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाता है। इसलिये इन दवाईयों पर लेबल लगा देने से और विशेषकर उन पर जिन्हें वह व्यक्ति ले नहीं रहा है, यह कोई बढ़िया बात नहीं है। अब सब तरह की दवाईयां अगर इस तरह से घर में दिखती रहेंगी तो उन के गल्त इस्तेमाल का अंदेशा भी बना ही रहेगा।

 एक दवा मेरे सामने कर के पूछने लगे कि यह किस काम आती है, मेरे यह बताने पर कि दर्द-सूजन के लिये है – फिर आगे से प्रश्न कि घुटने, दांत, सिर, पेट, बाजू, कमर-दर्द, पैर दर्द .....किस अंग की दर्द एवं सूजन के लिये ....अब इस तरह की बात का जवाब देने के लिये उन की पूरी क्लास लेने की ज़रूरत पड़ सकती थी ..... संक्षेप में मैंने इतना ही कहा कि इस तरह की दवाईयां अकसर कॉमन ही हुआ करती है।

फिर उन्होंने तथाकथित ताकत की दवाईयां – so called tonics—आगे कर दीं ... यह कब और वह कब, इस से क्या होगा, उस से क्या होगा.... बहुत मुश्किल होता है कुछ बातों का जवाब देना ... काहे की ताकत की दवाईयां ... पब्लिक को उलझाये रखने की शोशेबाजी...। एक -दो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में पूछने लगा कि यह किस किस इंफैक्शन के लिये इस्तेमाल की जा सकती हैं, मैंने अपने ढंग से जवाब दे तो दिया ...लेकिन उन्होंने यह कह कर बात खत्म की कि गले खराब के लिये तो इसे लिया ही जा सकता है... मैं इस बात के साथ भी सहमत नहीं था।

घर में दो तीन तरह की बिल्कुल आम सी दवाईयां ऱखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर इधर उधर से इक्ट्ठी की गई दवाईयों पर स्टिकर लगा लेने से कोई समझे कि बात बन जाएगी, तो बिल्कुल गलत है, इस से बात बनने की बजाए बिगड़ने का जुगाड़ ज़रूर हो सकता है। बिना समझ के किसी को भी कोई दवा की एक टैबलेट भी दी हुई उत्पात मचा के रख सकती है।

इतनी सारी ब्लड-प्रैशर की दवाईयां तो हैं लेकिन उन्होंने इन्हें इस्तेमाल करना बंद किया हुआ है क्योंकि कुछ दिनों से उन्होंने एक होम्योपैथिक दवाई शुरू की है जिस की एक शीशी एक हज़ार रूपये की आती है, मेरे यह कहने पर कि आप नियमित ब्लड-प्रैशर चैक तो करवा ही रहे होंगे, वह कहने लगे कि नहीं, नहीं, मैं इस की ज़रूरत नही समझता क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें कोई तकलीफ़ है ही नहीं..... अब किसी को समझाने की भी एक सीमा होती है , उस सीमा के आगे कोई क्या करे!!

इन की अधिकांश दवाईयां यूं ही बिना इस्तेमाल किए बेकार ही एक्सपॉयरी तारीख के बाद कचरे दान में फैंक दी जाएंगी ....जब कि किसी को इन की बहुत ज़्यादा ज़रूरत हो सकती है। तो फिर क्यों न अस्पतालों में रखी दवा की दान पेटियों अथवा अनयुय्ड़ दवाईयों (unused medicines) के बक्से में इन को डाल दिया जाए.....ताकि किसी के काम तो आ सकें.... और स्वयं भी घर पर रखे-रखे इन के इस्तेलाम संबंधी गलत इस्तेमाल से बचा जा सके........ जाते जाते मैंने अपने अटैंडैंट से कहा कि इन बुज़ुर्ग की दवाईयों पर चिट लगाते हुये एक तस्वीर खींच लें, मैंने सोचा इस से मुझे अपनी बात कहने में आसानी होगी।

उन के जाने के बाद मैं फिर से दूसरे मरीज़ों में व्यस्त हो गया .....लेकिन मैं भी सुबह सुबह कैसी गंभीर बातें लेकर बैठ गया ... जो भी आपने मेरे लेख में पढ़ा उसे भुलाने के लिये इस गीत की मस्ती में खो जाइए ---



Updating at 6:55 AM (11.3.2011)
पोस्ट में नीरज भाई की एक टिप्पणी आई ...कमैंट बाक्स में जाकर कमैंट लिखना चाहा, तो लिख नहीं पाया ..(क्या कारण है, टैकसेवी बंधु इस का उपचार बताएं, बहुत दिनों से यह समस्या पेश आ रही है) .... इसलिये इसी लेख को ही अपडेट किये दे रहा हूं ....
@ नीरज जी, लगता है मुझे बात पूरी खोलनी ही पड़ेगी... हां तो, नीरज जी इन का एक बेटा किसी बहुत बड़ी कंपनी में सर्विस करता है जहां से इन्हें सभी तरह की चिकित्सा मुफ्त मिलती है। और जो मैं एक हजा़र रूपये वाली ब्लड-प्रैशर की होम्योपैथिक दवा की बात कर रहा था वह भी इन्हें वहीं से मिली हैं। बता रहे थे कि बेटा अच्छी पोस्ट पर है, इसलिये कंपनी के डाक्टरों की उन पर विशेष कृपा-दृष्टि बनी रहती है और वे उन्हें दो-तीन महीने बाद नाना प्रकार की दवाईयों से लैस कर के ही भेजते हैं।
अकसर दो तीन महीने में उन से सुन ही लेता हूं कि डाक्टर साहब, इस बार बेटे के पास गया था तो वहां पर मैंने 36 या 37 टैस्ट करवाए ... लेकिन सोचने की बात यह है जैसा कि मैंने लेख में भी लिखा कि वह अपने ब्लड-प्रैशर की जांच करवाने के लिये राजी नहीं है....
नीरज, धन्यवाद, यह इतना महत्वपूर्ण सवाल पूछने के लिये ...







सोमवार, 19 मई 2008

ये लोग क्यों नहीं आते आतंकवादियों की श्रेणी में ?

क्या आप ने किसी कैमिस्ट शॉप पर खड़े किसी आम आदमी के चेहरे पर उस समय हवाईयां उड़ती देखी हैं जिस समय कैमिस्ट बड़ी रकम का बिल्कुल छोटा सा बिल उस की ओर सरका देता है ?.....मैं यह सब बहुत बार देखता हूं और फिर यह भी देखता हूं कि उस परिवार के जितने लोग वे दवायें खरीदने आये होते हैं वे आपस में सलाह-मशविरा करने लग पड़ते हैं कि ऐसा करो, अभी एक हफ्ते की बजाय आप तीन-चार दिन की ही दवायें दे दें। ऐसे मौकों पर मैं चुपचाप खड़ा केवल उन के बीमार मरीज़ के लिये खूब सारी दुआये ज़रूर मांग लेता हूं कि यार, इन बंदों को हमेशा फिट रखा कर।

यह तो तय ही है कि दवायें बहुत महंगी है और दावे चाहे जितने जो भी हों, आंकड़े कुछ भी कहें( आंकड़ों की ऐसी की तैसी !)…लेकिन दवाईयां आम आदमी की पहुंच से दूर हो गई हैं। लेकिन अब आप सोचिये कि महंगी दवाईयां खरीद कर जब कोई आम बंदा अपने किसी परिजन को उन्हें देने के लिये भागा हुया जाता है तो अगर उसे पता हो कि वे तो नकली दवाईयां हैं, मिलावटी दवाईयां हैं, तो उस पर क्या बीतेगी ?......

अकसर लोग एक दूसरे ट्रैप में भी फंस जाते हैं.......कईं नीम-हकीम टाइप के डाक्टर अपनी टेबल पर ही बिल्कुल सस्ती सी, लोकल टाईप की दवाईयां सजा लेते हैं और उन्हें मरीजों को डायरैक्ट्ली बेचने लगते हैं। मुझे याद है मेरा एक सहपाठी कालेज के दिनों में अपने एक पड़ोसी नीम-हकीम के बारे में बताया करता था कि उस के बच्चे सारा दिन कैप्सूल भरते रहते थे.....जब हम लोग जिज्ञासा जताते थे तो उस ने एक दिन बताया कि खाली कैप्सूल बाजारा में 10-15 रूपये के एक हज़ार मिल जाते हैं और वे लोग उस में चीनी और मीठा –सोडा भरते रहते थे.....हमारा सहपाठी बताया करता था कि जब भी कभी उन के घर में खेलने-वेलने जाते थे तो हमें भी कुछ समय के लिये तो इस काम में लगा ही दिया जाता था। तो, चलिये इस बात को इधर ही छोड़ता हूं ॥वरना मेरी पोस्ट इतनी लंबी हो जाती है कि आप लोग चाहे कुछ मुझे कहें या ना कहें ...लेकिन मुझे इस का अहसास हो जाता है।

अच्छी तो आज यह लिखने के पीछे क्या कारण ?......केवल इतना ही कारण है कि मैंने परसों ( 17मई 2008) की टाइम्स ऑफ इंडिया में नकली दवाईयों के ऊपर एक बहुत ही बढ़िया संपादकीय लेख पढ़ा है। उस संपादकीय में यह भी दिया गया था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सारे विश्व में जितनी भी नकली दवाईयां पैदा होती हैं उन का 35 प्रतिशत भारत ही में बनता है। और यू।पी, पंजाब एवं हरियाणा में तो इस के गढ़ हैं। एक अन्य संस्था के अनुसार तो सारे विश्व की में जितनी भी नकली दवाईयां सरकुलेट होती हैं उन में से 75 फीसदी तो भारत से ही चलती हैं। आप भी कांप गये होंगे ये आंकड़े देख कर !!

संपादकीय में कुछ यह भी लिखा था कि अब भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा विभिन्न तरह की दवाईयों की क्वालिटी की जांच हेतु लगभग 31000सैंपलों का परीक्षण किया जाना है।

आप यह सुन कर कुछ ज़्यादा मत चौंकियेगा कि ऐसी रिपोर्ट हैं जिन से पता चला है कि नकली इंसुलिन के टीके लगने से शूगर के रोगियों की मौत हो गई और टीबी के मरीज नकली दवाईयां खाने की वजह से पहले से भी ज़्यादा बीमार हो गये।

उस संपादकीय में एक प्रश्न यह भी उठाया गया कि दवाईयों के दामों को तो बहुत अच्छे ढंग से नियमित किया जाता है लेकिन जहां तक दवाईयों की गुणवत्ता का संबंध है वहां यह वाली टाइटनैस नहीं दिखती । क्या इस का कारण यह है कि भारत में इतनी ज़्यादा दवाईयों की टैस्टिंग के लिये मूलभूत ढांचे की ही कमी है ?...इसलिये संपादक ने इस तरफ इशारा दिया है कि भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा जो स्टडी की जानी है उसे ड्रग-टैस्टिंग, ड्रग-क्वालिटी मॉनीट्रिंग के बारे में भी पूरी जांच-पड़ताल करनी होगी और इस एरिया में सुधार लाने के प्रयास करने होंगे।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ---- मैं तो बस यही सोच सोच कर परेशान हो जाता हूं कि जो निर्दोष लोगों को बिना वजह मारते हैं उन्हें हम आतंकवादी कहते हैं ना, तो फिर ये नकली दवाईयां बनाने वाले , उन्हें पास करने वाले, उन्हें बेचने वाले क्या आतंकवादी नहीं हैं......मैं तो इन सब को भी आतंकवादियों का ही दर्जा देता हूं। कागज़ के टुकड़ों के लिये बिल्कुल निर्दोष जनता की ज़िंदगीयों से खिलवाड़। दो-तीन साल पहले एक बार खबरों में आया तो था कि नकली दवाईयों बनाने वालों और बेचने वालों के लिये मौत की सजा मुकर्रर हुई है ,लेकिन इस पर सही प्रकाश तो अपने चिट्ठाजगत के बड़े वकील साहब दिनेशराय द्विवेदी जी या अदालत ब्लाग वाले काकेश ही डाल सकते हैं कि ऐसा क्या कोई कानून बना हुया है और अगर है तो हमें यह भी तो ज़रा बता दें कि आज तक कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत सज़ा हो चुकी है।

अब आते हैं एक –दो पते की बातों पर......दोस्तो, क्या आप को लगता है कि आंकड़ों से किसी का पेट भरा है, क्या बड़े बड़े दावों से सब कुछ ठीक हुया है ....लेकिन जिस परिवार के एक आदमी की भी जान ये नकली दवाईयां ले लेती हैं ना , केवल वह परिवार ही जानता है कि इन नकली , मिलावटी दवायों की त्रासदी क्या है !

एक बात और भी तो है ना कि ज्यादातर लोगों के पास बाजार से खरीदी दवायों का कोई बिल ही नहीं होता.......मैं बस में चड़े किसी काले बैग वाले चुस्त चालाक सेल्स-मैन से खरीदी दर्द-निवारक दवाईयां की या आंख में डालने वाली बूंदों की बातें नहीं कर रहा हूं.....इन में क्या होता है अब तक तो हमारी समझ में आ ही जाना चाहिये.....वैसे मैं बात कर रहा हूं कैमिस्ट के यहां से खरीदी दवाईयों से जिन का बिल अकसर लोग लेते नहीं हैं।

तो एक पते की बात यह है कि आप कभी भी कैमिस्ट से दवाई लें तो उस से बिल लेने में किस तरह से झिझक महसूस न करें......आखिर यह आप की सेहत का मामला है। हर आदमी यही सोच रहा है कि उसे थोड़ा नकली दवाईयां थमाई जायेंगी....लेकिन क्या पता आप ही नकली दवा खाये जा रहे हों !!

अगर आप कैमिस्ट से खरीदी दवाईयों का बिल ले रहे हैं तो आप दवाईयों की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं क्योंकि उस बिल में उसे दवाई के बाबत सारा ब्योरा देना होता है....बैच नंबर, ब्रैंड-नेम, एक्पायरी डेट आदि.......और अगर कोई दवा का अनयुज़ूअल प्रभाव होता है तो आप अपना दुःखड़ा किसी तो बता सकते हैं ....वरना कौन करेगा यकीन आप की बात का ?

एक पते की बात मैंने अभी और भी करनी है ...वह यह कि आप लोग शायद महंगी बड़ी रकम की दवाईयां खरीदते समय तो बिल विल ले लेते होंगे लेकिन आमतौर पर मैंने लोगों में छोटी मोटी दवाईयों के लिये बिल मांगने में इतनी झिझक देखी है कि क्या बताऊं। लेकिन यह तो हमें याद रखना ही होगा कि जैसे एक चींटी हाथी को नाच नचा सकती है उसी तरह से केवल एक नकली या मिलावटी टेबलेट ही काफी है हमारी जिंदगी में ज़हर घोलने के लिये।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि हम लोग अकसर अपने पड़ोस वाले कैमिस्ट से तो बिल मांगने में कुछ ज़्यादा ही झिझकते हैं क्योंकि वो कुछ ज़्यादा ही फ्रैंडली सा दिखने लगता है.....लेकिन यह बात हमारे लिये ठीक नहीं है। जगह जगह कैमिस्ट की दुकानें खुली पड़ी हैं.....तो किसी और जगह से यह दवाईयां खरीदने में क्या हर्ज हैं ....जहां आप बेझिझक हो कर बिल मांग सकें। यकीन मानिये यह आप ही के हित में है.....भले ही बुखार के लिये टेबलेट्स का एक पत्ता ही खरीद रहे हों, बिल जरूर लें, जरूर लें......जरूर लें...............अगर अभी तक ऐसी आदत नहीं है, तो प्लीज़ डाल लीजिये.....अगर किसी फैमिलियर से कैमिस्ट से यह बिल मांगना दुश्वार लगता है तो अपनी और अपनों की सेहत की खातिर किसी दूसरे कैमिस्ट के यहां से दवाईयां आदि खरीदना शुरू कर दीजिये.......................यह निहायत ज़रूरी है........बेहद महत्त्वपूर्ण है..........क्योंकि केवल एक यही काम है जो आप लोग इन नकली दवाईयों से बचने के लिये कर सकते हैं........वरना अगर आप अगर सोचें कि आप असली-नकली में फर्क को ढूंढ सकते हैं, खेद है कि यह आप न कर पायेंगे............हम लोग तो इतने सालों में यह काम नहीं कर पाये।

वैसे मेरा प्रश्न तो वहीं का वहीं रह गया............क्या नकली दवाईयों से किसी तरह से संबंधित लोग...बनाने वाले, पास करने वाले, बेचने वाले हैं खूंखार आतंकवादी नहीं हैं..................अगर हैं तो चीख कर, खुल कर कहिये अपनी टिप्पणी में।

शुक्रवार, 4 जून 2010

तो क्या अब मधुमेह से बचने के लिये भी दवाईयां लेनी होंगी?

एक बार तो यह रिपोर्ट देख कर मेरा भी दिमाग घूम गया कि अब नौबत यहां तक आ पहुंची है कि मधुमेह जैसे रोग से बचने के लिये भी दवाईयों का सहारा लेना होगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्री-डॉयबीटिज़ को मधुमेह तक न पहुंचने में दवाईयां सहायता कर सकती हैं।
प्री-ड़ॉयबीटिज़ से तो आप सब भली भांति परिचित ही हैं ---यानि कि डॉयबीटिज की पूर्व-अवस्था। इस के बारे में जाने के लिये इस पोस्ट को देख सकते हैं...क्या आप प्री-डॉयबीटिज़ के बारे में जानते हैं ?
हम सब लोग समझते हैं कि हैल्थ-जर्नलिज़्म भी एक मिशन जैसा काम है। ऐसा नहीं हो सकता कि किसी को भी कुछ भी परोस कर हम किनारा कर लें----क्योंकि हैल्थ से जुड़ी न्यूज़-रिपोर्ट को लोग कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लेते हैं ---इसलिये इन में हमेशा वस्तुनिष्ठता (objectivity) का होना बहुत लाज़मी सा है।
पता नहीं जब मैंने भी इस रिपोर्ट....Drug Combo staves off Type2 Diabetes-- को पढ़ना शुरु किया तो बात मुझे बिल्कुल हज़्म नहीं हो रही थी लेकिन जैसे तैसे पढ़ना जारी रखा तो बहुत सी बातें अपने आप ही स्पष्ट होने लगीं ---अर्थात् इस तरह की सिफारिश कर कौन रहा है, इस तरह का अध्ययन कितने लोगों पर किया गया है, यह स्टड़ी करने के लिये फंड कहां से आए और सब से अहम् बात यह कि इस के बारे में मंजे हुये विशेषज्ञों का क्या कहना है?
एक बात का ध्यान आ रहा है कि जिन दवाईयों की बात हो रही है उन में से एक के तो कभी कभी बुरे प्रभाव भी देखने को मिलते हैं और इस तरह की कुछ रिपोर्टें पीछे देखने को भी मिलीं। लेकिन जब विशेषज्ञ डाक्टर किसी मधुमेह के रोगी को ये दवाईयां देते हैं तो सब देख भाल कर देते हैं और उन के प्रभावों को नियमित मानीटर करते रहते हैं ----और रिस्क और लाभ को तोल कर---भारी पलड़ा देख कर ही इस तरह के निर्णय लेते हैं। लेकिन जब इस तरह की दवाईयों की बात मधुमेह से बचने के लिये की जाए तो किसी के भी कान खड़े हो जाना स्वाभाविक सा ही है।
हां, तो जब सारी रिपोर्ट पढ़ी तो यह पता चला कि यह अध्ययन केवल 207 लोगों पर किया गया ---जैसा कि इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चाहे किया तो इसे गया लगभग चार साल के लिये लेकिन इस स्टडी को करने के लिये ये दवाईयां बनाने वाली कंपनी ने फंड उपलब्ध करवाये। और साथ ही साथ आप पारदर्शिता की हद देखिये कि रिपोर्ट में एक तटस्थ विशेषज्ञ (independent expert) की राय भी छापी गई है।
विशेषज्ञ की राय की तरफ़ भी ध्यान करिये कि वह कह रहे हैं कि प्री-डायबीटिज़ एक ऐसी अवस्था तो है जिस के बारे में जागरूक रहने की ज़रूरत है और इस को डायबीटिज तक पहुंचने से रोकने के लिये अपना वज़न नियंत्रित करने के साथ साथ नियमित शारीरिक व्यायाम करना भी बेहद लाजमी है। रिपोर्ट के आखिरी लाइन में तो उस ने यह भी कह दिया कि इस छोटे से अध्ययन के परिणामों से यह नहीं कहा जा सकता कि इन दवाईयों के प्रभाव से प्री-डायबीटिज को डायबीटिज़ में तबदील होने से रोका जा सकता है।
अब आप देखिये कि हैल्थ रिपोर्टिंग कितने ध्यान से की जानी चाहिये----अखबारों में छपी इन खबरों को हज़ारों-लाखों लोग पढ़ते हैं और फिर बहुत बार रिपोर्ट में लिखी सारी बातों को पत्थर पर लकीर की तरह मान लेते हैं। और तो और, अगर किसी हिंदी अखबार में यही खबर छपे तो पता है कैसे छपेगी-----डायबीटिज़ से बचने के लिये वैज्ञानिकों ने रोज़ाना दवाई लेने की सलाह दी है -------और शीर्षक भी कुछ ऐसा ही होता -----"डायबीटिज़ की रोकथाम के लिये लें दवाईयां" ।
अच्छा तो हो गई खबर----अब आपने क्या फैसला किया है --- शायद मेरी ही तरह रोज़ाना टहलने का मन बनाया हो, मीठा कम करने की ठानी हो और मैंने तो फिर से साइकिल चलाने की प्लॉनिंग कर ली है।
मुझे यह सब लिखने का बड़ा फायदा है---- मेरे गुरू जी कहते हैं कि तुम लोग किसी बात को अपनी लाइफ में उतारना चाहते हो तो उस से संबंधित ज्ञान को दूसरों के साथ बांटना शूरू कर दो ----इस से जितनी बार तुम दूसरों को इस के बारे में कहोगे, उतनी ही बार अपने आप से भी तो कहोगे और वह पक्की होती जायेगी। मेरे खाने-पीने के साथ भी ऐसा ही हुआ ----मैं पिछले कुछ वर्षों से जब से सेहत विषयों पर लिख रहा हूं तो मैंने भी बाहर खाना बंद कर दिया है, जंक बिल्कुल बंद है -------क्या हुआ छः महीने साल में एक बार कुछ खा लिया तो क्या है !!
अब मैं चाहता हूं कि नियमित शारीरिक व्यायाम और मीठे के कंट्रोल के बारे में भी मैं इतनी बातें लिखूं कि मुझे भी थोड़ी शर्म तो महसूस होने लगे ------परउपदेश कुशल बहुतेरे!!!!

रविवार, 1 मई 2011

पतला करने वाले हर्बल जुगाड़..सावधान !

काफी समय से यह खबरें तो सुनने में आ ही रही हैं कि कुछ हर्बल दवाईयों में, या कुछ देसी दवाईयों में एलोपैथिक दवाईयों को डाल दिया जाता है जिस के बारे में पब्लिक को कुछ बताया नहीं जाता। इस का परिणाम यह होता है कि उस दवाई से कुछ अप्रत्याशित परिणाम निकलने से लोगों को नुकसान हो जाता है। इस पर मैंने पहले भी बहुत से लेख लिखे हैं।

अभी मैं बीबीसी की साइट पर यह न्यूज़-स्टोरी देख रहा था कि किस तरह से यूरोपीयन देशों में हर्बल दवाईयों पर शिकंजा कसा जा रहा है। अनेकों दवाईयां ऐसी बिक रही हैं जिन की प्रामाणिकता, जिन की सेफ्टी प्रोफाइल के बारे में कुछ पता ही नहीं ...इसलिये वहां पर कानून बहुत कड़े हो गये हैं।
New EU regulations on herbal medicines come into force....(BBC Health)

लेकिन भारत में क्या है, देसी दवाईयों की तो वैसे ही भरमार है, लेकिन जगह जगह पर मोटापा कम करने वाले कैप्सूल, हर्बल दवाईयों के इश्तिहार चटका कर भोली भाली जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है।

आज सुबह मैं टीवी पर देख रहा था कि एक हर्बल चाय का विज्ञापन दिखाया जा रहा था ... दो महीने के लिये 2000 रूपये  का कोर्स –मोटापा घटाने के लिये इसे रोज़ाना कईं बार पीने की सलाह दी जा रही थी। और विज्ञापन इतना लुभावना की मोटापे से परेशान कोई भी शख्स कर्ज़ लेकर भी इस खरीदने के लिये तैयार हो जाये।

मैं उस विज्ञापन को देखता रहा –बाद में जब उस में मौजूद पदार्थों की बात आई तो बहुत बढ़िया बढ़िया नाम गिना दिये गये ..जिन्हें सुन कर कोई भी प्रभावित हो जाए... और साथ में इस चाय में चीनी हर्बल औषधियों के डाले जाने की भी बात कही गई।

इस तरह के हर्बल प्रोडक्ट्स से अगर विकसित देशों के पढ़े लिखे लोग बच नही पाये तो इस देश में किसी को कुछ भी बेचना क्या मुश्किल काम है?
वजन कम करने वाली दवाईयों के बारे में चेतावनी 

बात केवल इतनी सोचने वाली है कि ऐसा क्या फार्मूला कंपनियों के हाथ लग गया कि इन्होंने एक चाय ही ऐसा बना डाली जिस से इतना वज़न कम हो जाता हो......मेरी खोजी पत्रकार जैसी सोच तो यही कहती है कि कुछ न कुछ तो लफड़ा तो होता ही होगा.....अगर सब कुछ हर्बल-वर्बल ही है तो इस देश में इतने महान् आयुर्वैदिक विशेषज्ञ हैं, वे क्यों इन के बारे में नहीं बोलते ....क्यों यह फार्मूला अभी तक रहस्य ही बना हुआ है?

पीछे भी कुछ रिपोर्टें आईं थीं कि मोटापे कम करने वाले कुछ उत्पादों में कुछ ऐसी एलोपैथिक दवाईयों की मिलावट पाई गई जिस से भयंकर शारीरिक परेशानियां इन्हें खाने वालों में हो गईं........तो फिर इस से सीख यही लें कि ऐसे ही हर्बल वर्बल का लेबल देख कर किसी तरह के झांसे में आने से पहले कम से कम किसी की सलाह ले लें, और अगर हो सके तो ऐसी हर्बल दवाई की लैब में जांच करवा लें, लेकिन क्या ऐसी जांच वांच करवाना सब के वश की बात है!!

शनिवार, 10 जनवरी 2009

सावधान -- वज़न कम करने वाले प्रोडक्ट्स खतरनाक !!

रिश्तेदारी में एक महिला थीं – आज से लगभग पच्चीस-तीस साल पहले की बात है – 35-40 साल की उम्र थी -- स्वास्थ्य की प्रतिमूर्ति दिखती थीं – लेकिन उन्हें किसी भी हालत में अपना वज़न कम करना था--- इसलिये वे कुछ पावडर टाइप की दवाईयां ले रही थीं --- मैं सत्तर-अस्सी के दशक की बात कर रहा हूं ---- एक-दो वर्षों के बाद ही पता चला कि उन्हें लिवर कैंसर हो गया है--- डाक्टरों ने ढूंढ निकाला कारण को –वही मोटापा कम करने वाले पावडरों का सेवन – कमज़ोर होते होते वह कुछ ही समय में चल बसीं।

कुछ दिन पहले जब अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने लोगों के नाम यह चेतावनी जारी की है कि अमेरिका में वज़न कम करने के ऐसे लगभग 12 उत्पाद हैं जिन से बच कर रहने की विशेष ज़रूरत है क्योंकि इनमें कुछ घटक ( ingredients) ऐसे भी होते हैं जिन के बारे में इन्हें बनाने वाली कंपनियां बताती ही नहीं हैं और जो स्वास्थ्य के लिये बेहद खतरनाक हो सकते हैं।

अमेरिका में ऐसे प्रोडक्ट्स कुछ रिटेल स्टोरों पर एवं इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध हैं जिन के बारे में यह बताया जाता है कि इन में प्राकृतिक अथवा हर्बल पदार्थ ही मौजूद हैं । लेकिन इन की पैकिंग के लेबलों पर जिन इनग्रिडिऐंट्स के बारे में कुछ भी बताया नहीं होता उन में मिर्गी के इलाज के लिये इस्तेमाल होने वाली दवाई से लेकर एक कैंसर पैदा कर सकने की क्षमता रखने वाला पदार्थ ( suspected carcinogen) भी हो सकता है, ऐसा अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने कहा है।

अकसर मैं देखता हूं कि कैमिस्ट की दुकानों पर , हिंदी की अखबारों में अथवा स्कूटर के कवरों पर इस तरह के मोटापा कम करने वाले उत्पादों के विज्ञापन अकसर दिख जाते हैं—और मैं व्यक्तिगत रूप से तो अपने मरीज़ों को इन के बारे में आगाह करता ही रहता हूं लेकिन ऐसा सोचता हूं कि इन से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में लोगों को व्यापक स्तर पर सचेत करने की बहुत ही ज़्यादा ज़रूरत है। ध्यान यह भी आ रहा है कि अगर आज की तारीख में अमेरिका जैसे देश में इस तरह की उत्पादों के बारे में चेतावनियां जारी की जा रही हैं तो फिर हमारे देश में ऐसे ही उत्पादों-पावडरों एवं कैप्सूलों- के नाम पर क्या क्या बिक रहा होगा और ध्यान उस महिला की तरफ़ भी जा रहा है कि अगर आज ही हालात ऐसे हैं तो उस ने पच्चीस-तीस साल पहले जो खाया होगा वह भी किसी ज़हर से कम थोड़े ही होगा --- अब अगर मुझे कोई भी कहे कि नहीं, नहीं, यहां तो भई सब कुछ ठीक ठाक है तो वह कोई भी हो, उसे मैं केवल इतना ही कहूंगा --- Better you SHUT UP !!

समस्या यह भी है कि इस तरह के वज़न कम करने वाले उत्पादों में जो भी नुकसान देने वाली पावर-फुल ड्रग्स होती हैं जो कि आम लोगों के जीवन के लिये खतरा हैं --- उन के बारे में जानने का लोगों के पास तो बिल्कुल भी कोई साधन है ही नहीं। और इसीलिये अमेरिका में वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने यह चेतावनी जारी की है।

एफ डी ए ने खोज करने पर पाया है कि इन मोटापा कम करने वाले जिन घटकों के बारे में लोगों को बिल्कुल बताया नहीं जाता ( undeclared ingredients) उन में सिबूट्रामीन( sibutramine- a controlled substance), रिमोनाबैंट( rimonabant- a drug not approved for marketing in the United states), फैनीटॉयन ( Phenytoin – मिर्गी के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाई), और फिनोलथ्लीन( Phenolphthalein – एक ऐसा पदार्थ जिसे हम लोग कैमिस्ट्री के एक्सपैरीमैंट्स में इस्तेमाल करते हैं और जो कैंसर रोग पैदा कर सकता है !!) शामिल हैं।

जैसा कि ऊपर भी बताया जा चुका है सिबूट्रामीन ( sibutramine - a controlled substance) जो कि ऐसे अधिकांश उत्पादों में पाई गई – इस से उच्च-रक्तचाप, दौरे ( fits), दिल की धड़कन बढ़ना ( palpitations), हार्ट-अटैक अथवा दिमाग में रक्त-स्राव ( stroke) भी हो सकता है। और अगर कोई व्यक्ति पहले से कोई दवाईयां ले रहा है तो इस सिबूट्रामीन के उन के साथ मिल कर खतरनाक दुष्परिणाम पैदा होने का खतरा और भी बढ़ जाता है। गर्भवती महिलाओं में, ऐसी महिलाओं में जो शिशुओं को स्तन-पान करवाती हैं अथवा 16 साल से कम बच्चों में तो सिबूट्रामीन के सुरक्षात्मक पहलू का आकलन ही नहीं किया गया है।

रिमोनाबैंट एक ऐसी दवा है जिस का गहन परीक्षण तो अमेरिका में हुआ लेकिन इसे एफडीए द्वारा अमेरिका में मार्केटिंग की अनुमति नहीं मिली। यह ड्रग जो यूरोप में बिक रही है जो वहां पर अप्रूवड है... इस को अवसाद एवं आत्महत्या जैसे विचारों के साथ जोड़ा जा रहा है । और यूरोप में पिछले दो सालों में इसे लेने वाले 5 व्यक्तियों की मौत एवं 720 दुष्परिणाम( adverse reactions) के केस हो चुके हैं, यह फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने कहा है।

जाते जाते मुझे ध्यान आ रहा है कि हम लोग अकसर बड़े हल्के-फुलके अंदाज़ मे कह ही देते हैं कि अमेरिका हम से 100 साल आगे है ---लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर अमेरिका में आज की तारीख में इस तरह की दवाईयों की बिक्री हो रही है तो हमारे यहां क्या क्या नहीं बिक रहा होगा --- इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं, लेकिन कृपया इस बात का जितना भी प्रचार-प्रसार हो करियेगा।

और दूसरा एक तर्कसंगत विचार यह भी आ रहा है कि बहुत हो गया कि किसी दवा को एक जगह पर तो मंजूरी है लेकिन दूसरी जगह पर उसी दवा पर प्रतिबंध है --- कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लोगों की चमड़ी कुछ ज्यादा ही मोटी है ( जो कि वास्तव में नहीं है !!) या वही बात सही है कि अगर किसी ने भगवान देखना है तो वह यहीं मौजूद है ----- लेकिन ये सब हमारे कमज़ोर मन की दलीले हैं, सच्चाई से मुंह छिपाने के बहाने हैं, हमारे ढोंग हैं---- इस मुल्क में भी एक जान की कीमत भी उतनी ही है जितनी किसी बहुत ही अमीर मुल्क में ---लेकिन अफ़सोस है तो केवल इसी बात का कि यहां तो मौत का कारण तक ढूंढ़ने की कोशिश ही कहां की जाती है ---- जो गया सो गया, उस की लिखी ही इतनी थी , यही कह कर उसे राइट-ऑफ कर दिया जाता है ---- बस, हो गई छुट्टी !!

गुरुवार, 5 मार्च 2009

क्यों हूं मैं खुली बिकने वाली दवाईयों का घोर विरोधी ?

आज सुबह ही बैंक में मेरी मुलाकात एक परिचित से हुई ---अच्छा खासा पढ़ा लिखा , अप-टू-डेट है और बीस-पच्चीस हज़ार का मासिक वेतन लेता है। बताने लगा कि डाक्टर साहब कल शाम को जब मेरे गला खराब हुआ तो मैं फलां फलां डाक्टर से कुछ दवाईयां लेकर आया , तो सुबह तक अच्छा लगने लगा। इस के साथ ही उस ने एक अखबार के कागज़ के छोटे से टुकड़े में लपेटी तीन चार दवाईंयां ---दो कैप्सूल, एक बड़ी गोली, एक छोटी गोली –दिखाईं। पूछने लगा कि क्या यह दवाई ठीक है ?

सब से पहले तो मैंने उसे यही समझाना चाहा कि यार, ठीक गलत का पता तो तभी चलेगा ना जब यह पता लगे कि आप जो दवाईयां ले रहो हो उन में आखिर है क्या !! वह मेरी बात समझ रहा था, आगे कहने लगा कि डाक्टर साहब, लेकिन मेरे को तो इस से आराम लग रहा है। मैंने यह भी कहा कि यार, देखो बात आराम आने की शायद इतनी नहीं है, बात सब से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि आप जैसे पढ़े-लिखे इंसान को यह तो पता होना ही चाहिये कि आप दवाईयां खा कौन सी रहे हैं। फिर वह मेरे से पूछने लगा कि अब आप बताओ कि यह बाकी पड़ी खुराकें खाऊं कि नहीं --- तब मुझे उसे कहना ही पड़ा कि मत खाओ आगे से यह दवाईयां।

आज कल यह बड़ी विकट समस्या है कि नीम हकीम, झोला-छाप डाक्टर और कईं बार तरह तरह के गैर-प्रशिक्षित डाक्टर लोग इस तरह की खुली दवाईयां मरीज़ों को बहुत बांटने लगे हैं। मैं इन से इतना चिढ़ा हुआ हूं कि जब मुझे कोई दिखाता है कि इन खुली दवाईयों की खुराकें ले रहे हैं तो मुझे उन मरीज़ों को इतना सचेत करना पड़ता है कि वे खुद ही मेरी ओपीडी में पडें डस्ट-बिन में उन बची खुराकों को फैंक देते हैं।

इन खुली दवाईयों से आखिर क्यों है मुझे इतनी नाराज़गी ? –इस का सब से बड़ा कारण यह है कि इन दवाईयों के इस्तेमाल करने वाले मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा शून्य के बराबर होती है। उन्हें पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है --- न दवाई का पता, न कंपनी का पता ---- यह तो भई बस में बिक रही दर्द-निवारक गोलियों की स्ट्रिप जैसी बात ही लगती है। उन्हें अगर किसी दवाई से रिएक्शन हो भी जाता है तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि आखिर उन्हें किस दवा के कारण यह सब सहना पड़ा। इसलिये संभावना रहती है कि भविष्य में भी वे दोबारा उसी तरह की दवाईयों के चंगुल में फंसे।

दूसरा कारण है कि आज कल वैसे ही नकली दवाईयों का बाज़ार इतना गर्म है कि हम लोग इतने इतने साल प्रोफैशन में बिताने के वाबजूद कईं बार चकमा खा जाते हैं। अकसर ये नीम हकीमों द्वारा बांटी जाने वाली दवाईयां बहुत ही सस्ते किस्म की, घटिया सी होती हैं ------इनका जितना विरोध किया जाये उतना ही कम है। तीसरा कारण है कि मुझे पूरा विश्वास है कि इन तीन-चार गोलियों-कैप्सूलों में से जो सब से छोटी सी गोली होती है वह किसी खतरनाक स्टिरायड की होती है ----steroid ----खतरनाक शब्द केवल इस लिये लिख रहा हूं कि ये लोग इन बहुत ही महत्वपूर्ण दवाईयों का इतना ज़्यादा गलत- उपयोग करते हैं कि बिना वजह भोले-भाले मरीज़ों को भयानक शारीरिक बीमारियों की खाई में धकेल देते हैं, इस लिये मैं इन का घोर विरोधी हूं और हमेशा यह विरोध करता ही रहूंगा।

नकली, घटिया किस्स की दवाईयों से ध्यान आ रहा है ---पंद्रह-बीस साल पहले की बात है कि हमारा एक दोस्त बता रहा था कि रोहतक शहर में उस के पड़ोस में एक नीम-हकीम अपने बेटे के साथ मिल कर रात के समय खाली कैप्सूल में मीठा सोडा और बूरा चीनी भरते रहते थे और सुबह मरीज़ों का इस से कल्याण किया करते थे। लालच की भी हद है !!--- यहां यह बताना ज़रूरी लग रहा है कि यह खाली कैप्सूलों के कवर बाज़ार में पैकेटों में बिकते हैं –और बस केवल चालीस-पचास रूपये में एक हज़ार रंग-बिरंगे कवर उपलब्ध हो जाते हैं। अब आप ही सोचें कि खुली दवाईयों को खाना कितना खतरनाक काम है ------अब कौन इन खाली कवर में क्या डाले, यह तो या तो डालने वाला जाने या ईश्वर ही जाने !!

मुझे अकसर लगता है कि मेरी जो यह खुली दवाईयों के बारे में राय है शायद इस के विरोध में किसी के मन में यह विचार भी आता हो कि यह तो हाई-फाई बातें कर रहा है , अब अगर किसी मरीज़ को बीस रूपये में दो-तीन दिन की दवाई मिल रही है तो इस में बुराई ही क्या है !! देश में निर्धनता इतनी है कि मेरे को भी इस बात का सही समाधान सूझ नहीं रहा ---- अगर जनसंचार के विभिन्न माध्यम इस तरह की बातों के प्रचार के लिये बढ़-चढ़ कर आगे आयें तो शायद कुछ हो सकता है।

ऐसा मैंने सुना है कि कुछ क्वालीफाईड डाक्टर भी कुछ तरह की दवाईयां ज़्यादा मात्रा में खरीद कर मरीज़ों को अपने पास से ही देते हैं, अब ऐसे केसों में यह निर्णय आप लें कि आप क्या उन्हें यह कहने के लिये तत्पर हैं कि डाक्टर साहब, कृपया आप नुस्खा लिख दें, हम लोग बाज़ार से खरीद लेंगे। यह बहुत नाज़ुक मामला है, आप देखिये कि इसे आप कैस हैंडल कर सकते हैं। मेरे विचार में अगर आप किसी क्वालीफाइड डाक्टर से इस तरह की खुली दवाईयां लेते हैं तो भी आप के पास ली जाने वाली दवाईयों का नुस्खा तो होना ही चाहिये।

कईं बार हास्पीटल में दाखिल मरीज़ों को नर्स के द्वारा खुली दवाईयां दी जाती हैं --- वो बात और है, दोस्तो, क्योंकि उस वक्त हम लोगों ने पूरी तरह से अपने आप को उस अस्पताल के हाथों में सौंपा होता है। बहुत बार तो नर्स आप की सुविधा के लिये गोलियों एवं कैप्सूलों का कवर उतार कर ही देती हैं , मेरे विचार में इस के बारे में कोई खास सोचने की ज़रूरत नहीं होती, यह एक अलग परिस्थिति है।

सोमवार, 9 मई 2011

गुप्त रोगों के लिये नेट पर बिकने वाली दवाईयां

बचपन में स्कूल आते जाते देखा करते थे कि दीवारों पर अजीबो-गरीब विज्ञापन लिखे रहते थे....गुप्त-रोगों का शर्तिया इलाज, गुप्त रोग जड़ से खत्म, बचपन की गल्तियों की वजह से खोई ताकत हासिल करने के लिये आज ही मिलें, और फिर कुछ अरसे बाद समाचार-पत्रों में विज्ञापन दिखने शुरू हो गये इन ताकत के बादशाहों के जो ताकत बेचने का व्यापार करते हैं।

इस में तो कोई शक नहीं कि ये सब नीम हकीम भोली भाली कम पढ़-लिखी जनता को कईं दशकों से बेवकूफ बनाए जा रहे हैं....बात केवल बेवकूफ बनाए जाने तक ही सीमित रहती तो बात थी लेकिन ये लालची इंसान जिन का मैडीकल साईंस से कुछ भी लेना देना नहीं है, ये आज के युवाओं को गुमराह किये जा रहे हैं, अपनी सेहत के बारे में बिना वजह तरह तरह के भ्रमों में उलझे युवाओं को भ्रमजाल की दलदल में धकेल रहे हैं...... और इन का धंधा दिनप्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ...अब इन नीमहकीमों ने बड़े बड़े शहरों में होटलों के कमरे किराये पर ले रखे हैं जहां पर जाकर ये किसी निश्चित दिन मरीज़ों को देखते हैं।

यह जो कुछ भी ऊपर लिखा है, इस से आप सब पाठक भली भांति परिचित हैं, है कि नहीं ? ठीक है, आप यह सब पहले ही से जानते हैं और अकसर जब हम यह सब देखते, पढ़ते, सुनते हैं तो यही सोचते हैं कि अनपढ़ किस्म के लोग ही इन तरह के नीमहकीमों के शिकार होते होंगें.....लेकिन ऐसा नहीं है।

हर जगह की, हर दौर की अपनी अलग तरह की समस्याएं हैं..... अमेरिकी साइट है –फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (Food and Drug Administration) ..कल जब मैं उस साइट को देख रहा था तो अचानक मेरी नज़र एक आर्टिकल पर रूक गई। एफडीआई द्वारा इस लेख के द्वारा लोगों को कुछ पंद्रह तरह के ऐसे उत्पादों के बारे में चेतावनी दी गई है जो गल्त क्लेम करती हैं कि वे यौन-संक्रमित रोगों (sexually-transmitted diseases –STDs--- हिंदोस्तानी भाषा में कहें तो गुप्त रोग) से बचाव करती हैं एवं इन का इलाज करने में सक्षम हैं। इस के साथ ही एक विशेषज्ञ का साक्षात्कार भी था।

आम जनता को चेतावनी दी गई है कि ऐसी कोई भी दवाई नहीं बनी जिसे कोई व्यक्ति अपने आप ही किसी दवाई से दुकान से खरीद ले (over-the-counter pills) अथवा इंटरनेट से खरीद ले और यौन-संक्रमित से बचा रह सके और इन रोगों का इलाज भी अपने आप कर सके। ये जिन दवाईयों अथवा फूड-सप्लीमैंट्स के बारे में यह चेतावनी जारी की गई है, उन के बारे में भी यही कहा गया है कि इन दवाईयों के किसी भी दावे को एफडीआई द्वारा जांचा नहीं गया है।

यौन-संक्रमित रोग होने की हालत में किसी सुशिक्षित विशेषज्ञ से परामर्श लेना ही होगा और अकसर उस की सलाह अनुसार दवा लेने से सब कुछ ठीक ठाक हो जाता है लेकिन ये देसी ठग या इंटरनेट पर बैठे ठग बीमारी को ठीक होना तो दूर उस को और बढ़ाने से नहीं चूकते, साथ ही साथ चूंकि दवाई खाने वाले को लगता है कि वह तो अब दवाई खा ही रहा है (चाहे इलाज से इस तरह की दवाईयों को कोई लेना देना नहीं होता) इसलिये इस तरह की यौन-संक्रमित रोग उसके सैक्सुयल पार्टनर में भी फैल जाते हैं।

आज की युवा पीढ़ी पढ़ी लिखी है, सब कुछ जानती है, अपने शरीर के बारे में सचेत हैं लेकिन इंटरनेट पर बैठे ठग भी बड़े शातिर किस्म के हैं, इन्हें हर आयुवर्ग की कमज़ोरियों को अच्छे से जानते हैं ....अकसर नेट पर कुछ प्रॉप-अप विज्ञापन आते रहते हैं –दो दिन पहले ही कुछ ऐसा विज्ञापन दिखा कि आप अपने घर की प्राइवेसी से ही पर्सनल वस्तुएं जैसे की कंडोम आदि आर्डर कर सकते हैं ताकि आप को मार्कीट में जाकर कोई झिझक महसूस न हो। चलिए, यह तो एक अलग बात थी लेकिन अगर तरह तरह की बीमारियों के लिये (शायद इन में से बहुत सी काल्पनिक ही हों) स्वयं ही नेट पर दवाई खरीदने का ट्रेंड चल पड़ेगा तो इंटरनेट ठगों की तो बांछें खिल जाएंगी ........ध्यान रहे कि इन के जाल में कभी न फंसा जाए क्योंकि आज हरेक को प्राईव्हेसी चाहिए और यह बात ये इंटरनेट ठग अच्छी तरह से जानते हैं।

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सोमवार, 14 मार्च 2016

फ़क़त एक लाल मिर्ची ने कैसे ले ली एक बच्ची की जान !






पहले तो इस बात का यकीं ही नहीं हुआ..ऐसे लगा जैसे मुझे पढ़ने में कुछ गलती लगी हो..लेिकन फिर से पढ़ा आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर छपी इस पहली खबर को ..दो साल की बच्ची ने एक लाल मिर्ची को खा लिया और इसी चक्कर में उस की जान चली गई....बहुत दुःखद, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण।


छोटे बच्चों के लिए हम लोग अपने स्विच बोर्ड चाइल्ड-प्रूफ कर लेते हैं.. मैंने कुछ रिपोर्टज़ देखीं कि छोटे बच्चों ने गेम्स में डलने वाले छोटे गोलाकार सेलों को निगल लिया...पेरेन्ट्स को आगाह तो करते ही हैं कि जिन रिमोट्स में भी छोटे गोलाकार सेल पड़ते हैं, उन्हें बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाए, दवाईयों के बारे में तो कहते ही हैं...हां, दवाईयों से एक बात याद आई, कल से नईं बात पता चली पेपर से कि जिन दवाईयों की स्ट्रिप्स पर लाल लाइन लगी हो, उन्हें आप को बिना डाक्टर की सलाह के लेना ही नहीं है... उत्सुकता हुई, घर मे कुछ दवाईयां थीं, देखा उन पर लाल लाइन लगी हुई थी, इस बात का हमें आगे प्रचार करना चाहिए।


आगे से लाल लकीर का आप भी ध्यान रखिएगा.. इस संदेश को आगे भी पहुंचाइएगा
हां, मैं कह रहा था कि छोटी छोटी बातों के लिए छोटे बच्चों के पेरेन्ट्स को सावधान तो करते ही हैं लेिकन अब तो पेरेन्ट्स अपने आप बच्चों को इस लाल मिर्ची से भी दूर रखना होगा..

हां, तो दिल्ली में रहने वाली इस दो वर्ष की बच्ची के साथ यह हुआ कि इसने गलती से एक लाल मिर्ची को काट लिया....ज्यादा से ज्यादा होता, मुंह जलता या आंखों से पानी आता. थोड़ी शक्कर खाने से ठीक हो जाता, लेकिन नहीं, इस बच्ची की तो सांस लेने की प्रक्रिया ही फेल हो गई ...चिकित्सीय मदद के बावजूद वह चल बसी।

आल इंडिया मैडीकल इंस्टीच्यूट दिल्ली में इस बच्ची के शव की जांच (आटोप्सी) से पाया गया कि उस की सांस की नली में पेट के द्रव्य ( gastric juices) चले गये... जिस की वजह से उस की सांस लेने की प्रक्रिया बंद हो गई। दरअसल इस बच्ची को मिर्ची खाने के बाद उल्टीयां आने लगीं और बस, उसी दौरान उल्टी का कुछ हिस्सा सांस की नली में पहुंच गया...डाक्टरों की कोशिश के बावजूद बच्ची २४ घंटों में ही चल बसी।

यह वाकया तो कुछ महीने पहले का है, लेकिन यह मैडीको-लीगल जर्नल में अभी छपा है ..

ध्यान रखिए भई आप जिन के छोटे बच्चे हैं, मेरे जैसे बड़ों को भी यह समझना बहुत ज़रूरी है कि खाने के वक्त बातें नहीं करनी होतीं, चुपचाप खाना खाइए...वरना यह खतरा उस दौरान भी बना ही रहता है...कितनी बार तो हमारे साथ ही होता रहता है...कुछ बात बार बार दोहराने लायक होती हैं, शायद हमारे मन में बस जाएं....जैसे जहां शोच, वहां शोचालय के बारे में  विद्या बालन की डांट-डपट हम सुन सुन कर कुछ सुधरने लगे हैं..काकी, क्या करूं अब लोग तो सुनते नहीं, मक्खियां को ही कहना पड़ेगा कि इन के खाने पे मत बैठो।



 दूसरी खबर जो पहले ही पन्ने पर छपी है और परसों से टीवी पर बीसियों बार देख-सुन-समझ चुके हैं कि संघ वाले अब खाकी निक्कर की जगह भूरे रंग की पतलून पहना करेंगे....बहुत अच्छा ...मुझे समझ यह नहीं आया कि इस में ऐसी क्या बात है कि जो कि पेपर के पहले पन्ने पर इसे छापा गया और वह भी तस्वीर के साथ... तस्वीरों के बारे में भी पेपर वालों की दाद देनी पड़ेगी, पता नहीं क्या क्या इन्होंने अपने आर्काइव्ज़ ने सहेज रखा है, बच के रहना चाहिए..

पहले पन्ने पर एक खबर यह भी िदखी कि रेलवे अब कंबल को प्रत्येक इस्तेमाल के बाद साफ़ किया करेगी....लिखा है उस में किस तरह से नये डिजाईन के कंबल आएंगे...अभी कुछ गाड़ियों में ही इसे शुरू किया जायेगा... इसी चक्कर में मुझे आज सुबह आठ-दस साल पहली लिखी एक ब्लॉग-पोस्ट का ध्यान आ गया.. उसे आप के लिए ढूंढ ही लिया..

अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या! (इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं, अगर चाहें तो)..

मेरे विचार में अभी के लिए इतना ही काफ़ी है, मैं भी उठूं ...कुछ काम धंधे की फिक्र करूं....ये बातें तो चलती ही रहेंगी,..बिना सिर-पैर की, आगे से आगे... फिर मिलते हैं ...शाम में कुछ गप्पबाजी करेंगे...   till then, take care... may you stay away from Monday Blues!



बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

आखिर कितनी ज़रूरी है यह ऐंजियोप्लास्टी ?

अमेरिका में जिन लोगों की बिना किसी एमरजैंसी के ( अर्थात् इलैक्टिव आप्रेशन की तरह से ) ऐंजियोप्लास्टी- Angioplasty - की गई , उन में से आधे से भी ज़्यादा मरीज ऐसे हैं जिन में रूकावट से ग्रस्त हार्ट की रक्त-नाड़ी ( artery) को खोलने के लिये जो आप्रेशन किया गया उस से पहले आप्रेशन का निर्णय लेने के लिये रिक्मैंडेड स्ट्रैस टैस्ट (Cardiac stress test) किया ही नहीं गया।

इस का खुलासा मेडिकेयर के रिकार्ड से पता चला है और इस बारे में एक रिपोर्ट जर्नल ऑफ अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन के अक्टूबर अंक में छपी है। जिस स्ट्रैस टैस्ट की यहां बात की जा रही है उस टैस्ट से पता चलता है कि किन मरीज़ों की हालत में ऐंजियोप्लास्टी अथवा स्टैंटिंग ( stenting) से सुधार होगा और किन में इस से लाभ नहीं होगा।

कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की मैडीसन विभाग की प्रोफैसर एवं उन की टीम ने 24000 ऐसे मरीज़ों के रिकार्ड की जांच की जिन में जिन में इलैक्टिव परकूटेनियस कॉरोनरी इंटरवैंशन ( Elective Percutaneous Coronary Intervention ---PCI) की गई। इलैक्टिव शब्द का अर्थ यहां पर यह है कि इन मरीज़ों में PCI किसी तरह की एमरजैंसी से निपटने के लिये नहीं किया गया था। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इसी PCI को ही आम भाषा में ऐंजियोप्लास्टी कह दिया जाता है।

सामान्यतः निर्दश कहते हैं कि ऐंजियोप्लास्टी का निर्णय लेने से पहले इन नान-एमरजैंसी केसों में ट्रैडमिल के ऊपर चलवा कर एक Stress-test किया जाए लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 44.5 फीसदी लोगों का ही यह टैस्टऐंजियोप्लास्टीसे पहले किया गया।

मैडीकल स्टडी करने वाले चिकित्सकों ने माना है कि ऐंजियोप्लास्टी से पहले Cardiac Stress test करने के लिये उपलब्ध दिशा-निर्देश उतने स्पष्ट हैं नहीं जितने कि ये होने चाहिये। अमेरिकन कालेज ऑफ कार्डियोलॉजी के द्वारा शीघ्र ही क्राईटीरिया जारी किया जायेगा कि किन केसों में ऐंजियोप्लास्टी करना मुनासिब है।

रिपोर्ट में 1994 में हुई एक स्टडी का भी उल्लेख है जिस ने यह निष्कर्ष निकाला था कि कार्डियक स्ट्रैस टैस्ट को पूरी तरह से यूटिलाइज़ नहीं किया जा रहा है।

इस तरह की काफी रिपोर्ट हैं जिन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि जिन मरीज़ो में कारोनरी आर्टरी डिसीज़ ( coronary artery disease) – हार्ट ट्रबल- स्टेबल है, उन में इलाज के कुछ अहम् नतीजों ( मृत्यु एवं भविष्य में होने वाले हार्ट अटैक का खतरा) की तुलना करने पर यह पाया गया है कि जिन मरीज़ों का इलाज ऐंजियोग्राफी के साथ साथ उचित दवाईयों से किया गया और जिन मरीज़ों का इलाज केवल दवाईयों से किया गया ----दोनों ही श्रेणियों में उपरलिखित अहम् नतीजों में कोई अंतर नहीं पाया गया।

बहुत से प्रौफैशनल संगठनों ने एक जुट हो कर कहा है कि अगर stable coronary artery disease के केसों में ऐंजियोग्राफी करने से पहेल हार्ट में खून की सप्लाई की कमी ( ischemia) का डाक्यूमैंटरी प्रमाण मिल जाता है तो परिणाम बेहतर निकलते हैं। और इस का प्रमाण स्ट्रैस-टैस्ट से ही मिलता है।

ऐंजियोप्लास्टी के लिये गाइड-लाईन्ज़ पूरी तरह से स्पष्ट होनी चाहिये ----लेकिन जैसे कि मार्क ट्वेन ने कहा है --- To a man with a hammer, everything looks like a nail ---जिस आदमी के हाथ में हथौड़ी होती है उसे हर जगह कील ही दिखाई देते हैं, कार्डियोलॉजिस्ट को भी आत्म-नियंत्रण रखने की ज़रूरत है। With due respect to all colleagues, ये शब्द मैंने इस विषय़ से ही संबंधित किसी दूसरी रिपोर्ट में पड़े देखे हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि स्ट्रैस-टैस्ट को नियमित रूप से किया जाना चाहिये कि केवल तब जब कि ऐंजियोप्लास्टी करने या करने के बारे में निर्णय लेने की घड़ी ही जाए। ऐसा करने से मरीज़ का लंबे समय तक उचित मूल्यांकन किया जा सकेगा। यहां तक कि इस स्ट्रैस-टैस्ट को एक साल में एक बार किया जा सकता है...ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सब कुछ ठीक ठाक है। लेकिन अफसोस यही है कि इसी बात को अकसर इगनोर किया जाता है।

The report says that there is no financial incentive to reduce the number of unnecessary angioplasties. To reward doctors and hospitals who stick to guidelines would improve safety and delivery of health care while decreasing medicare expenditure.

रिपोर्ट तो मैंने पहले भी कुछ देखी थीं जो बता रही थीं कि ऐंजियोप्लास्टी ज़रूरत से ज़्यादा हो रही हैं। मैं तो यही सोच रहा हूं कि अगर अमेरिका जैसे विकसित देश में यह सब कुछ हो रहा है तो हमारे लोगों का ……..!!! यहां तो लोग डाक्टर से प्रश्न पूछते हुये भी डरते हैं, एवीडैंस-बेसड मैडीकल प्रैक्टिस ( evidence-based medicine) के मायने तक वो जानते नहीं, और ऊपर से इस तरह के बड़े आप्रेशन के लिये भारी ब्याज दर पर उधार लेते हैं, इधर-उधर से पैसा पकड़ते हैं ....और उस के बावजूद भी अगर बाद में किसी से पता चले कि आप्रेशन की तो अभी ज़रूरत ही नहीं थी....अभी तो दवाईयों से ही काम चल सकता था-----ऊपर रिपोर्ट में आपने सब कुछ पढ़ ही लिया है।

अच्छा, अगली एक-दो पोस्टों में इस स्ट्रैस-टैस्ट के बारे में और ऐँजियोग्राफी के बारे में कुछ बातें करेंगे।

डिस्क्लेमर ---- मैडीकल राइटर होने के नाते मीडिया डाक्टर का प्रयास है कि पाठकों को चिकित्सा क्षेत्र की ताज़ा-तरीन सरगर्मियों से वाकिफ़ करवाया जा सके ----केवल मैडीकल फील्ड की सही तसवीर जो मुझे दिख रही है , उसी को आप तक पहुंचाना ही मेरा काम है और ये सभी लेख आप की जागरूकता बढ़ाने के लिये ही हैं। लेकिन अपनी सेहत के बारे में कोई भी निर्णय केवल इन लेखों के आधार पर न लें, बल्कि अपने फिजिशियन से परामर्श कर के ही कोई भी निर्णय लें। हां, यह हो सकता है कि अगर आप की जानकारी अपटुडेट है तो आप अगली बार अपने फिजिशियन से दो-तीन बहुत ही रैलेवेंट से प्रश्न पूछ सकते हैं जिन से आपकी ट्रीटमैंट-प्रणाली प्रभावित होती हो।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

कौन सी दवा ले रहे हैं...इस का ध्यान तो रखना ही होगा !!

हमारे देश में कितने लोग हैं जो आम-सी दिखने वाली ( नोट करें दिखने वाली) तकलीफ़ों के लिये डाक्टर के लिये जाते हैं.....इस के पीछे छिपे कारणों में हम इस समय नहीं जाते कि ऐसा क्यों होता है.....लेकिन आम तौर पर बुखार, जुकाम, दस्त आदि के लिये अकसर लोग क्या करते हैं ?....अपनी जानकारी के अनुसार जिस भी किसी उपयुक्त दवा का नाम पहले से पता है, उसे ही पास वाले कैमिस्ट से मंगवा लेते हैं।

दवा कैमिस्ट ने कौन सी दी है ......किस कंपनी की दी है.....इस के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ पता वता होता नहीं है। तो, दवा शुरू कर दी जाती है.....भगवान भरोसे ठीक हो गये तो ठीक है, वरना देखा जायेगा।

मैं पिछले सप्ताह दस्त रोग/ पेचिश से परेशान था.....मुझे पता था कि पानी की ही गड़बड़ी है, खैर दो-तीन दिन यूं ही देखा ....यही सोचा कि बाहर आकर अकसर ऐसा हो ही जाता है। लेकिन जब दो-तीन दिन बाद भी ठीक ना हुआ तो मैंने दस्त के लिये एक दवा जो मेरे पास मौजूद थी वह लेनी शुरू कर दी लेकिन उस दवाई को लेते मुझे दो दिन हो गये तो भी मुझे जब कोई फर्क नहीं पड़ा तो मुझे यकीन हो गया कि हो ना हो, यह दवा ही चालू है, घटिया किस्म की है।

मैं कैमिस्ट के पास जा कर एक बढ़िया किस्म की दवाई ले आया .....वैसे मैं नाम-वाम तो अपनी पोस्टों में लिखता नहीं हूं....लेकिन इस का लिख ही रहा हूं......बस इच्छा हो रही है सो लिख रहा हूं.....कंपनी से मुझे कुछ लेना-देना है नहीं। इस दवाई का नाम था....Tiniba 500mg …..यह लगभग पैंतालीस रूपये का दस टेबलेट का पत्ता आता था ...इस में Tinidazole 500mg ( टिनीडाज़ोल 500मिग्रा.) होता है। यह मुझे दिन में दो-बार 12-12 घंटे के अंतराल के बाद खानी है । हां, तो मैं यह बताना चाहता था कि इस की एक –दो खुराक लेने के बाद ही मुझे बिल्कुल फर्क पड़ गया। हां, लेकिन इसे पांच दिन खा कर पूरा कोर्स तो करना ही होगा और इस के साथ साथ पानी के बारे में विशेष ध्यान तो रखना ही होगा।

मेरा यह सारी स्टोरी लिखने का मतलब केवल इतना है कि कितने लोग इस तरह से दवा अपनी मर्जी से चेंज कर सकते हैं। कहने का मतलब है कि हम लोग तो चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े हैं, अगर एक आम सी समस्या के लिये एक प्रचलित दवाई काम नहीं कर रही है तो सब से पहले तो इस का अर्थ यही निकलता है कि हो ना हो , दवाई में ही कोई गड़बड़ है। और यह सच भी है....आज कल दवाईयों के फील्ड में इतनी गड़बड़ है कि क्या कहें.....एक ही साल्ट की एक टेबलेट पांच रूपये में तो दूसरी किसी कंपनी की वही टेबलेट पचास रूपये में बिक रही होती है। यह बिल्कुल सच्चाई है।

और एक ही साल्ट की इन दोनों दवाओं के दाम में इतने ज़्यादा फर्क का कारण अकसर यही बताया जाता है कि एक जैनेरिक है और एक एथिकल है। इन में असली अंतर क्या है, यकीन मानिये मैं लगभग पिछले आठ-दस सालों से इस का जवाब ढूंढ नहीं पाया हूं। जब भी कोई सीनियर डाक्टर, मैडीकल रिप्रज़ैंटेटिव अथवा कोई पहचान वाला कैमिस्ट मिलता है तो इस का जवाब तो देता है लेकिन मैं आज कल पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ हूं।

अब एक ही साल्ट की दवा एक तो पांच रूपये में और दूसरी पचास रूपये में बिके और यह कह दिया जाए कि एक तो जैनेरिक है और दूसरी एथिकल है.........चूंकि जैनेरिक में कंपनी को टैक्स वगैरा की काफी बचत हो जाती है, विज्ञापनबाजी पर ज़्यादा खर्च नहीं करना पड़ता, ........इसलिये इस जैनेरिक दवाईयों को कंपनी सस्ते में बेच पाती है। लेकिन मुझे कभी भी पता नहीं कभी भी यह बात क्यों हज़्म नहीं होती ( नहीं...नहीं, दस्त की वजह से नहीं, वह तो अब थैंक-गॉड ठीक है) ......मुझे हमेशा यही सवाल कचोटता रहता है कि क्या इस की क्वालिटी बिल्कुल वैसी ही होगी.....पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगता है। जिस से भी पूछा है ,वही कहता है कि हां, हां, बिलुकल वैसी ही होती है जैसे एथिकल ब्रांड की होती है।

चलिये यह चर्चा तो चलती रहेगी। बिलकुल ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमारे देश में सेल्फ-मेडीकेशन चलती रहेगी यानि लोग अपनी ही समझ अनुसार, अपने ही ज्ञान अनुसार दवाईयां खरीद खरीद कर खाते रहेंगे। इसलिये कुछ बातें यहां रेखांकित करने की इच्छा सी हो रही है।

मेरे कहने से कोई भी सेल्फ-मेडीकेशन खत्म करने वाला नहीं है। लेकिन इतना तो हम कर ही सकते हैं कि बिलकुल आम सी समस्याओँ के लिये अपने फैमिली डाक्टर से मिल कर बढ़िया कंपनी की दवाईयों के नाम एक फर्स्ट-एड के तौर पर ही सही किसी डायरी में लिख कर रखें........और जब भी ये दवाईयां बाज़ार से खरीदें तो इस का बिल बिना झिझक ज़रूर लें।

हमारे देश में अपने आप ही दवा खरीद कर ले लेना बहुत ही प्रचलित है। मैं आज ही किसी अखबार में पढ़ रहा था कि अमेरिका के हस्पतालों में हर साल एक लाख चालीस हज़ार ऐंटीबायोटिक दवाईयों के रिएक्शन के केस पहुंचते हैं। अब हम लोग खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर अमेरिका में ये हालात हैं जहां पर हर बात पर इतना कंट्रोल है, लोग अच्छे-खासे पढ़े लिखे हैं, बिना डाक्टरी नुस्खे के दवा मिलती नहीं..........तो फिर हमारे यहां पर क्या हालत होगी। पता नहीं इन घटिया किस्म की चालू दवाईयों के कितने किस्से बेचारे लोगों की कब्र में उन के साथ ही हमेशा के लिये दफन हो जाते होंगे।

अब आप इमेजन करिये.........एक टीबी मरीज बाजार से खरीद कर दवा खा रहा है, लेकिन उस की टीबी ठीक नहीं हो रही तो उस का डाकटर क्या करेगा.....उस की दवाईयों की खुराक बढ़ायेगा ....नहीं तो दवाईयां चेंज करेगा, ......यह सब कुछ करने पर भी अगर बात नहीं बनेगी तो उस के केस को Drug-resistant tuberculosis अर्थात् ऐसी टीबी जिस पर दवाईयां असर नहीं करती, डिक्लेयर कर देगा। और फिर उस का इलाज शुरू कर दिया जायेगा। कहने का भाव केवल इतना ही है कि टीबी जैसे रोगों के लिये कुछ चालू किस्म की घटिया दवाईयां मरीज़ की ज़िंदगी से खिलवाड़ करती हैं, यह अकसर हम लोग अखबारों में पढ़ते रहते हैं।

मैं बहुत बार सोचता हूं कि आदमी करे तो क्या करे................वही बात है कि दवा का जब नाम आये तो कभी भी किसी किस्म का समझौता नहीं करना चाहिये, यह बहुत ही लाजमी है, बेहद लाजमी है, इस के इलावा कोई भी रास्ता नहीं है, दवाई बढ़िया से बढ़िया कंपनी की जब भी ज़रूरत पड़े तो ले कर खानी होगी.......वरना अगर किसी के बच्चे का बुखार दो-तीन दिन से ऐंटीबायोटिक दवाई खिलाने के बाद भी नहीं उतर रहा तो उस की हालत पतली हो जाती है.......एक एक मिनट बिताना परिवार के लिये पहाड़ के बराबर लगता है।

ऐसे में क्या आप को नहीं लगता कि नकली दवाईयां बेचने वाले, स्टाक करने वाले, और इन्हें बनाने वाले भी उजले कपड़े के पीछे छुपे (काला धंधा गोरे लोग) खतरनाक आतंकवादी ही हैं। बस, अभी तो इतनी ही बात करना चाह रहा था......आशा है कि आप मेरी इस पोस्ट के सैंट्रल आइडिये को समझ ही गये होंगे।

सोमवार, 10 मई 2010

सच में यह इंसान बहुत बड़े गुर्दे वाला है ..

पिछले कुछ दिनों में ऐसे तीन केस मेरी नज़र में आये जिन में बस पहली बार ही पेट में दर्द हुआ --दर्द ज़्यादा था, अल्ट्रासाउंड करवाया गया तो पता चला कि दो केसों में गुर्दे में पत्थरी है और एक केस में किसी दूसरी तरह की रूकावट (stricture) है।

एक केस तो लगभग बीस साल के लड़के का--- पहले कोई समस्या नहीं, बस एक बार पेट में दर्द उठा, पेशाब में जलन ---और अल्ट्रासाउंड करवाने पर पता चला कि पत्थरी तो है ही लेकिन इस की वजह से दायें गुर्दे में पानी भी भर गया है ---अब यह देसी जुगाड़ वाली भाषा ही बड़ी खतरनाक है--- मुझे कईं बार लगता है कि डाक्टरों एवं पैरामैडीकल लोगों का एक विषय यह भी होना चाहिये कि प्रादेशिक भाषाओं में मरीज़ को कैसे बताना है कि उसे क्या तकलीफ़ है, अब जो तकलीफ़ है, वह तो है लेकिन कईं बार इतने लंबे लंबे से डरावने नाम सुन के मरीज के साथ साथ उस के संबंधी भी लड़ाई से पहले ही हिम्मत हार जाते हैं।



हां, तो हम लोग उस बीस साल के लड़के की बात कर थे जिसे स्टोन तो है और इस के साथ उस के एक गुर्दे में पानी भर गया है --इसे मैडीकल भाषा में हाइड्रोनैफरोसिस (hydronephrosis) कहते हैं। इस तरह की हालत के बारे में सुन कर किसी का भी थोड़ा हिल सा जाना स्वाभाविक सा है।

और एक दूसरे केस में जिस की उम्र लगभग पचास साल की थी उस में भी पेट दर्द ही हुआ था और जांच करने पर पता चला कि एक गुर्दे में पानी भरा हुआ है और इस की वजह कोई रूकावट लग रही थी ---जब उस ने रंगीन एक्स-रे ( IVP --intravenous pyelogram) करवाया तो पता चला कि किसी स्ट्रिक्चर (stricture) की वजह से यह तकलीफ हो रही है।

आप भी सोच रहे होंगे कि यह क्या हुआ ---पहले से कोई तकलीफ़ नहीं, बस एक बार पेट में दर्द हुआ और पता लगा कि यहां तो कोई बड़ा लफड़ा है।

एक बात तो तय है कि 35-40 की आयु के आसपास तो हम सब को अपनी नियमित जांच करवानी ही चाहिये और कईं बार उस में पेट का अल्ट्रासाउंड (ultrasonography of abdomen) भी शामिल होता है।

अकसर देखने में आया है कि अल्ट्रासाउंड की इस तरह की रिपोर्ट आने के बाद भी कईं बार उसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। यही सोच कर कि कोई बात नहीं, अपने आप देसी दवाई से सब ठीक हो जायेगा।

लेकिन एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि दवा देसी हो या ऐलोपैथिक --एक तो अपने आप नहीं और दूसरा किसी क्वालीफाई डाक्टर के नुख्से द्वारा ही प्राप्त की जानी चाहिये। वरना बीमारी लंबी खिंच जाती है।

अब उस 20 साल के लड़के की ही बात करें ---अल्ट्रासाउंड करवाने के बाद उसे चाहिये कि किसी सर्जन से मिले जो ज़रूरी समझेगा तो रंगीन एक्स-रे करवायेगा ताकि पत्थरी से ग्रस्त गुर्दे के बारे में और भी कुछ जाना जा सके। और फिर प्लॉन किया जा सके को पत्थरी किस तरह से निकालनी है।

अब यह सोचना स्वाभाविक है कि पहेल अल्ट्रासाउंड, फिर रंगीन एक्स-रे और फिर ब्लड-यूरिया, सीरम किरैटीनिन ( Blood urea, Serum creatinine etc) --- इतने सारे टैस्ट ही परेशान कर देंगे। लेकिन यह गुर्दे की सेहत को समझने के लिये नितांत आवश्यक हैं।

अल्ट्रासाउंड से तो पता चल गया कि गुर्दे की बनावट कैसी है, वह अपने सामान्य आकार से बड़ा है या कम है, बड़ा है तो उस के बड़े होने का कारण क्या है, क्या उस में पानी भरा हुया है, अगर हां, तो गुर्दे के किन किन हिस्सों में पानी भरा हुया है, और अल्ट्रासाउंड से यह भी पता चलता है कि पत्थरी है तो कहां पड़ी है, उस का साईज़ कितना है, क्या आयुर्वैदिक दवाईयों से उस का अपने आप बाहर निकलने का कोई चांस है या नहीं, क्या यह केस लिथोट्रिप्सी (lithotripsy -- किरणों से पत्थरी की चूरचूर कर देना) के लिये सही है या फिर इस में सर्जरी करनी चाहिये।

इतने सारे निर्णय कोई भी चिकित्सक एक अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट देख कर ही नहीं कर पाता --- उस के लिये उसे कईं तरह के और टैस्ट भी करने होते हैं। पेट का रंगीन एक्स-रे (IVP -- intravenous pyelography) करने से उस के गुर्दे के बारे में एवं उस के आस पास के एरिया के बारे में डाक्टर और भी बहुत सी जानकारी इक्ट्ठी करता है ताकि बीमारी का डॉयग्नोसिस एकदम सटीक हो।

और अब अगर चिकित्सक को यह देखना हो कि इस के गुर्दों की कार्य-क्षमता क्या है, ये काम कैसे कर रहे हैं, इसके लिये उसे मरीज के रक्त की जांच करवानी पड़ती है जिस के द्वारा उस के शरीर में ब्लड यूरिया एवं सीरम क्रिटेनिन आदि के स्तर का पता चलता है जिस के द्वारा यह पता चलता है कि इस के गुर्दे कितनी कार्यकुशलता से अपना काम कर रहे हैं।

यह सब को देख लेने के बाद चिकित्सक निर्णय लेते हैं कि आगे क्या करना है। वैसे आप को यह लगता होगा कि अगर किसी को इस तरह की तकलीफ़ हो तो उसे जाना कहां चाहिये ----जो डाक्टर गुर्दे के आप्रेशन इत्यादि करते हैं उन्हें यूरोलॉजिस्ट कहते हैं ---Urologist --- अगर अल्ट्रासाउंड में पत्थरी होने की पुष्टि हो गई है तो यूरोलॉजिस्ट के पास जाना ही मुनासिब है। यह जो यूरोलॉजी सुपर-स्पैशलिटी है इसे सामान्य सर्जरी (MS general surgery) की डिग्री लेने के बाद तीन साल की एक और डिग्री (MCh) करने के बाद किया जाता है।
वैसे देखा गया है कि कुछ सामान्य सर्जन भी गुर्दे संबंधी सर्जरी में अच्छे पारंगत होते हैं ---सारा अनुभव का चक्कर है, अपनी अपनी रूचि की बात है---इसलिये बहुत बार अच्छे अनुभवी सामान्य सर्जन भी इस तरह की सर्जरी से मरीज़ को ठीक ठाक कर देते हैं।

मुझे ऐसा लगता है और जो मरीज़ मेरे पास किसी तरह के मशवरे के लिये आते हैं उन्हें मैं यह सलाह देता हूं कि तीन चार भिन्न भिन्न जगह दिखा कर ही कोई निर्णय लें ---जैसे कि पहले तो किसी सर्जन से बात कर लें, फिर यूरोलॉजिस्ट को दिखा लें, और अगर लगे कि किसी आयुर्वैदिक विशेषज्ञ से भी बात की जाए तो ज़रूर करें क्योंकि ऐसा सुना है कि छोटी मोटी पत्थरी के लिये आयुर्वैदिक दवाई भी बहुत काम करती हैं। और ज़रूरत महसूस हो तो लित्थोट्रिप्सी सैंटर में जाकर दिखा आने में भी कोई खराबी नहीं -----सब विशेषज्ञों की सलाह के बाद अपना मन बनाया जा सकता है। लेकिन वही मिलियन डॉलर प्रश्न ----आखिर आम बंदा यह च्वाईस हो तो कैसे करे? कईं बार बस रब पर ही सब कुछ छोड़ना पड़ता है ---- मेरी एक बार कोई सर्जरी होनी थी, यूरोलॉजिस्ट करने ही वाले थे कि एक बहुत अनुभवी जर्नल सर्जन ओटी में किसी काम से घुसे और उन्होंने मेरे केस को देख कर चाकू अपने हाथ में ले लिया ----क्योंकि उन्हें देखते ही लगा कि  यह यूरोलॉजी का केस नहीं है, यह गैस्ट्रोइंटैसटाइनल ट्रैक्ट का केस था जिस में उन्हें विशेष महारत हासिल थी। होता है , कभी कभी ऐसा भी होता है। आज भी हम लोग जब उस दिन को याद करते है तो यही सोचते हैं कि अपनी होश्यारी कम ही चल पाती है, पता नहीं कब कौन सा फरिश्ता किस मुश्किल से निकालने कहां से आ जाता है !! है कि नहीं ?

हां, तो उस लड़के के गुर्दे में पानी भरे जाने की बात हो रही थी ---ऐसा इसलिये होता है कि चूंकि पेशाब के बाहर निकलने के रास्ते में अवरोध होता है इसलिये वह वापिस बैक मारता है और गुर्द मे यह सब जमा होने से गुर्दे फूल जाते हैं।

लेकिन अगर एक ही तरफ़ के गुर्दे में यह हाइड्रोनैफरोसिस की शिकायत है तो पत्थरी इत्यादि से निजात मिल जाने के बाद गुर्दा वापिस सामान्य होने लगता है।

इस में सब से अहम् बात यह है कि किसी तरह की देरी नहीं होनी चाहिये --क्योंकि गुर्दे के रोग इस तरह के हैं कि कईं कई साल तक ये बिना किसी लक्षण के पनपते रहते हैं और अचानक गुर्दे फेल होने के साथ धावा बोल देते हैं।

इस लिये गुर्दे के रोगों से बचाव बहुत ज़रूरी है --- और अगर कोई तकलीफ़ है तो उस का तुरंत उपचार ज़रूरी है। हा, हम ने यूरोलॉजिस्ट के बारे में तो बात कर ली, गुर्दे का एक विशेषज्ञ होता है ---नैफरोलॉजिस्ट (Nephrologist) जो दवाईयों आदि से मरीज़ के गुर्दे का उपचार करता है--- नैफरोलॉजिस्ट ने सामान्य MD (general Medicine) करने के बाद तीन साल की DM( Nephrology) का कोर्स किया होता है।

अब इस में कोई कंफ्यूजन नहीं होना चाहिये कि कोई तकलीफ़ होने पर यूरोलॉजिस्ट के पास जाया जाए अथाव नैफरोलॉजिस्ट के पास। जिस तरह की तकलीफॉ है उस तरह के स्पैशलिस्ट के पास ही जाना होगा ---- अब उदाहरण देखिये कि अगर सर्जन कहता है कि किसी व्यक्ति के गुर्दे में ऐसी कोई तकलीफ़ नहीं है जिस का आप्रेशन करने की ज़रूरत है लेकिन उस बंदे के गुर्दों की सेहत अल्ट्रासाउंड से और ब्लड-टैस्ट द्वारा पता चलता है कि ठीक नहीं है, ऐसे में उसे नैफरोलॉजिस्ट के पास भेजा जाता है। यही कारण है कि नैफरोलॉजिस्ट विशेषज्ञों के पास ब्लड-प्रैशर एवं डायबीटीज़ आदि रोगों से ग्रस्त ऐसे लोग बहुत संख्या में पहुंचते हैं जिन के गुर्दे में इन रोगों की वजह से थोड़ी गड़बड़ होने लगती है।

बड़े बड़े कारपोरेट हस्पतालों में तो सभी तरह के विशेषज्ञ यूरोलॉजिस्ट, लैपरोस्कोपिक सर्जन ( जो दूरबीन द्वारा गुर्दे आदि के आप्रेशन करते हैं), नैफरोलॉजिस्ट, लित्थोट्रिप्सी सैंटर आदि सभी कुछ रहता है ---- बस, मरीज़ की हालत, ज़रूरत एवं उस की जेब पर काफी कुछ निर्भर करता है।

लेकिन सोचने की बात है कि ये तकलीफ़े आजकल इतनी बढ़ क्यों गई हैं ----हम सब कुछ लफड़े वाला ही खा -पी रहे हैं,  कोई कितने भी ढोल पीट ले, लेकिन हर तरफ़ मिलावट का बाज़ार गर्म है-----ऐसे में बड़े बड़ो की छुट्टी हो जाती है, अब गुर्दे भी कितना सहेंगे ---------- लेकिन जितना हो सके जितना अपनी तरफ़ से कोशिश हो बच सकें, बाकी तो प्रभु पर छोड़ने के अलावा क्या कोई चारा है?

बातें तो बहुत सी हो गईं लेकिन इस पोस्ट के शीर्षक का जवाब मेरे पास नहीं है ---पंजाब में अकसर लोग किसी की तारीफ़ के लिये भी यह कह देते हैं ----ओए यार, एस बंदे का बड़ा वड्डा गुर्दा ए -- (इस आदमी का गुर्दा बहुत बड़ा है) ---पता नहीं, यह कहावत कहां से चली ?

सोमवार, 21 मार्च 2011

जटरोफा खाने से बार बार बीमार होते बच्चे

आज सुबह तो मैं डा बशीर की डायरी ही पढने में मसरूफ रहा, सोचा आज के लिये इतनी ही काफी है...बाकी फिर कभी।

आज सुबह ही मैं दो दिन पुरानी अमर उजाला में एक खबर देख रहा था कि कैथल में जटरोफा खाने से 15 बच्चे बीमार हो गये। कुछ ही समय बाद मुझे मेरे चार साल पहले लिखे एक आर्टीकल की कापी दिख गई जो एक नेशनल न्यूज़-पेपर में छपा था, इसलिये आज जटरोफा के बारे में ही बात करते हैं।

जटरोफा कुरकास (जंगली अरंडी) सारे भारतवर्ष में पाया जाने वाला एक आम पौधा है—इस के बीजों में 40 प्रतिशत तक तेल होता है। भारत एवं अन्य विकासशील देशों में जटरोफा से प्राप्त तेल (बॉयोडीज़ल) पैदा करने हेतु सैंकड़ों प्रोजैक्ट चल रहे हैं।

दिल्ली से मुंबई जाने वाली रेल लाइन के दोनों तरफ़ जटरोफा के पेड़ लगाए गये हैं। कुछ गाड़ियां भी इसी जटरोफा से प्राप्त 15-20 प्रतिशत बॉयोडीज़ल पर चलती हैं। जटरोफा की एक हैक्टेयर की खेती से 1892 लिटर डीज़ल मिलता है।

जटरोफा के बीजों से प्राप्त होने वाला तेल मनुष्ट के खाने योग्य नहीं होता। बॉयो-डीज़ल पैदा करने के इलावा इसे मोमबत्तियां, साबुन इत्यादि बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। आयुर्वेद में भी इस पौधे के विभिन्न भागों को तरह तरह की बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल किया जाता है।

जटरोफा के बीजों का उत्पात ...
जटरोफा के विषैले गुण इस में मौजूद कुरसिन एवं सायनिक एसिड नामक टॉक्स-एल्ब्यूमिन के कारण होते हैं। वैसे तो पौधे के सभी भाग विषैले होते हैं लेकिन उस के बीजों में उस की सर्वाधिक मात्रा रहती है। उन बीजों को खाने के बाद शरीर में होने वाले बुरे असर मूल रूप से पेट एवं आंतों की सूजन के कारण उत्पन्न होते हैं। गलती से जटरोफा के बीज खाने की वजह से बच्चों में इस तरह के हादसे आये दिन देखने सुनने को मिलते रहते हैं।

उन आकर्षक बीजों को देख कर बच्चे अनायास ही उन्हें खाने को आतुर हो जाते हैं। उस के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि इस पौधे के कितने बीज खाने पर विषैलेपन के लक्षण पैदा होते हैं। कुछ बच्चों की तो तीन बीज खा लेने से ही हालत पतली हो गई जब कि कुछ अन्य बच्चों में पचास बीज खा लेने पर भी बस छोटे मोटे लक्षण ही पैदा हुये।
आम धारणा यह भी है कि इन बीजों को भून लेने से विष खत्म हो जाता है लेकिन भुने हुये बीज खाने पर भी बड़े हादसे देखने में आये हैं।

उल्टियां आना एवं बिलकुल पानी जैसे पतले दस्त लग जाना इन बीजों से उत्पन्न विष के मुख्य लक्षण हैं.. पेट दर्द, सिर दर्द, बुखार एवं गले में जलन होना इस के अन्य लक्षण हैं। इस विष से प्रभावित होने पर अकसर बहुत ज़्यादा प्यास लगती है, इस के विष से मृत्यु की संभावना बहुत ही कम होती है।

क्या करें ?

बेशक जटरोफा बीज में मौजूद विष को काटने वाली कोई दवा (ऐंटीडोट) नहीं है, फिर भी अगर बच्चों ने इस बीजों को खा ही लिया है तो अभिभावक घबरायें नहीं.....बच्चों को किसी चिकित्सक के पास तुरंत लेकर जाएं ...अगर बच्चा सचेत है, पानी पी सकता है तो चिकित्सक के पास जाने तक भी उसे पेय पदार्थ (दूध या पानी) पिलाते रहें जिससे कि पेट में मौजूद विष हल्का पड़ जाए।

चिकित्सक के पास जाने के पश्चात् अगर वह ज़रूरी समझते हैं तो अन्य दवाईयों के साथ साथ वे नली द्वारा ( आई-व्ही ड्रिप – intra-venous fluids) कुछ दवाईयां शुरू कर देते हैं। छः घंटे के भीतर अकसर बच्चे सामान्य हो जाते हैं।

रोकथाम ....

बच्चों को इस पौधे के बीजों के बारे में पहले से बता कर रखें...उन्हें किसी भी पौधे को अथवा बीजों को ऐसे ही खेल खेल में खा लेने के लिये सचेत करें। स्कूल की किताबों में इन पौधों का विस्तृत्त वर्णन होना चाहिये व अध्यापकों को भी इस से संबंधित जानकारी देते रहना चाहिए।