गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

अपने ब्लॉग का गूगल-प्लस पेज अवश्य बनाएं

दोस्तो, आप को पता ही होगा कि आज कल गूगल हिंदी भाषा के कंटेंट को बहुत बढ़ावा दे रहा है।

इस के लिए नेट पर मौलिक हिंदी कंटेंट की बहुत आवश्यकता है। मैं समझता हूं कि हम सब लोगों को हिंदी भाषा में कुछ न कुछ कंटेंट अवश्य बनाना चाहिए।

हिंदी में लिखने की एक शुरूआती झिझक ही है, एक बार आप लिखने लगेंगे तो बहुत ही सहज अनुभव करेंगे। अब तो इतने टूल्स हैं जिन से आप को हिंदी लिखने में किसी विशेष तकनीक के ही भरोसे रहने की भी ज़रूरत नहीं है।

क्यों न आप हिंदी में एक ब्लॉग ही बना लें.....और गूगल प्लस पर अपने ब्लॉग का एक पेज अवश्य बनाएं.


मैंने भी अपने इस ब्लॉग का गूगल पेज बनाया था कुछ महीने पहले ...यह रहा इस का लिंक ... मीडिया डाक्टर गूगल प्लस...

गूगल पेज बनाने से आप के ब्लॉग की दृश्यता तो निश्चय बढ़ती ही है ....इस के साथ आप अपने पाठकों के साथ सीधे जुड़े रह सकते हैं। एक तरफ जहां इस से यूज़र एक्सपिरिएंस तो बेहतर होता ही है, आप के कंटेंट की पहुंच भी बहुत बढ़ जाती है।

मैंने भी जब से अपने ब्लॉग का गूगल पेज बनाया है और इसे अपने ब्लॉग से लिंक किया है, उस में पाठकों की निरंतर वृद्धि हो रही है... इस से आप बेहतर हिंदी कंटेंट क्रिएट करने के लिए प्रेरित होते हैं। 

एक बात जो मैंने नोटिस की है वह यह है कि मेरे इस ब्लाग पर पहले लगभग सारा ट्रैफिक गूगल सर्च ईंजन से ही आता था ..लेकिन अब इस का गूगल प्लस पेज बनाने से लगभग उतने ही पाठक गूगल-प्लस से भी आते हैं ..जिन में से अधिकतर एंड्रायड के माध्यम से ब्लॉग को देखते हैं।

पाठकों की इतनी बड़ी संख्या का श्रेय गूगल प्लस पेज को जाता है.. 
मैं आज मीडिया डाक्टर के गूगल प्लस पन्ने पर insights चैक कर रहा था.. इस का स्क्रीन-शॉट मैं यहां लगा रहा हूं...आप नोटिस करिए कि किस तरह से ब्लॉग का गूगल पेज बनाने से नियमित पाठकों की निरंतर वृद्दि हो रही है। दूसरे स्क्रीन-शॉट में आप देखिए कि विभिन्न पोस्टों के पाठकों की संख्या दैनिक बीस हज़ार के करीब है......यह सब ब्लॉग के गूगल-प्लस पेज का ही कमाल है। 


दोस्तो, हम में से हरेक के पास शेयर करने को बहुत कुछ है, हम कहने में कईं बार झिझक जाते हैं, और लिखने में तो और भी...लेकिन इस शुरूआती झिझक को दूर रखने का भी एक ही उपाय है कि आप निरंतर लिखते रहिए...बस, अपनी धुन में लगे हुए लिखते जाइए.....आप को लिखना अच्छा लग रहा है ना, महज़ इतना ही काफी है।

अपने इर्द-गिर्द नज़र दौडाइए.... इतनी एक्टिवी है.. गूगल पेज पर फोटो, वीडियो, अपना स्टेट्स शेयर करते रहिए और एक संवाद स्थापित करिए.....अपने पाठकों को एंगेज करिए। एक बात ध्यान रखने योग्य है ...निरंतरता (regular posts) बहुत ज़रूरी है, और यह हमारे भी हित में है।

गूगल सर्च इंजन अगर इतने ज़ोरों से हिंदी के कंटेंट को आगे ला रहा है तो हम सब का भी तो कर्तव्य है कि हम लोग अपने अपने क्षेत्र से जुड़ी नई नई जानकारियां अपने ब्लॉग, गूगल प्लस आदि माध्यमों पर शेयर कर के उत्कृष्ट हिंदी कंटेंट तैयार करने में मदद करें।

और नेट पर लिखने के दांव पेच जानने की तमन्ना हो तो ये लिंक्स भी देखिएगा....चार पांच साल पहले ये भी नेट लेखन के बारे में मेरे दिल से निकले हुए भाव हैं ..

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच 
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच- २
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच-३
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच-४
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच-५ 

बढ़ती उम्र में सेहतमंद बने रहने का फंडा

Photo Credit...Google images
चलिए दोस्तो आज आप को एक ८० साल के जवान की बातें सुनाता हूं।

आज मेरी ओपीडी में एक अधेड़ उम्र के शख्स आए...५५-६० की उम्र के ही लग रहे थे... साथ में एक २० वर्ष के करीब की एक बेटी थी... उसके इलाज के लिए आये थे।

ऐसे ही बात चली तो पता चला कि वह बच्ची उन की भतीजी है..और वे तो २० साल पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं। मुझे यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ.. क्योंकि मुझे उन की उम्र ६० के ऊपर लग ही नहीं रही थी, एकदम दुबला-पतला स्वस्थ शरीर और चेहरे पर चमक-दमक। मूल रूप से इटावा के रहने वाले हैं। इंटरमीडिएट तक शिक्षा है और कार्यालय अधीक्षक (ऑफिस सुपरिन्टेंडेंट) के पद से रिटायर हुए थे।

दो तीन लोग उस समय मेरे पास खड़े थे....उन की भतीजी की जांच करने के बाद मैंने उस शख्स से पूछ ही लिया कि यार, ज़रा आप दो मिनट हम सब के फायदे के लिए इस उम्र में भी ऐसी सेहत का राज़ बतलाइए।

मैं चाहता हूं कि उन्होंने दो तीन मिनट में जो कहा ...आप भी उसे पढ़े, समझें....विशेषकर आज की युवा पीढ़ी जिन की बॉडी-क्लॉक अस्त-व्यस्त है.. न खानेपीने का कोई ठिकाना, न सोने-जागने का, और खाने पीने में भी ज़्यादातर जंक फूड की भरमार है।

उन्होंने बताया...
"सुबह छः बजे उठ जाता हूं..टहलने जाता हूं रोजाना एक घंटा....सुबह केवल मुट्ठी भर चने, दो तीन बादाम, और किशमिश जो रात में भिगो देता हूं ...सुबह उस पानी को पीता हूं और चने-बादाम-किशमिश का खाता हूं, बस। फिर घर के काम काज में बिजी हो जाता हूं... थोड़ा अखवार-वार देख लेता हूं... टीवी देखता हूं लेकिन बहुत कम... केवल आस्था चैनल और खबरें। 
दोपहर में दाल रोटी साग सब्जी खाता हूं .लेकिन दो रोटी से ज़्यादा कभी नहीं। फिर आराम करता हूं। देसी-घी बाबा रामदेव के यहां से ४५० रूपये किलो लाकर रोज़ाना खाने के साथ --दाल-रोटी पर लगा कर लेता हूं। दूध पीते समय उस में छुवारे उबाल कर पीता हूं। 
चावल खाता तो हूं बहुत कम ..सप्ताह में एक बार। मीठे का शौकीन इतना हूं कि बस खाने के बाद थोड़ा गुड़ लेता हूं।  
दोपहर का खाना खाने के बाद आराम करता हूं... फिर शाम को टहलता हूं ..दो चपाती दाल सब्जी खाता हूं रात को ..नींद पूरी लेता हूं......बस यही है डाक्टर साहब अपने सेहतमंद रहने का राज़।"

मुझे उन की इतनी बढ़िया जीवनशैली के बारे में जान कर बहुत खुशी हुई।   मैंने ठहाके लगाते हुए कहा कि यार, आपने तो पूरी दोगुनी पेन्शन लेने का जुगाड़ कर रखा है(सेवानिवृत्त कर्मचारियों को १०० वर्ष की आयु होने पर उन्हें मिलने वाली पेन्शन डबल हो जाती है) ...मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगे ...कहने लगे आप सब का आशीर्वाद मिल गया है, यह भी हो जाएगा।

इन्होंने कभी भी बीड़ी-सिगरेट-दारू किसी तरह का नशा नहीं किया। ये कभी हस्पताल गये ही नहीं है कोई दवाई लेने.....कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। चाय केवल सर्दी के दौरान पीते हैं, गर्मी में बिल्कुल बंद।

एक दम खुशमिजाज हंसता खिलखिलाता ८० वर्षीय बुज़ुर्ग।

दोस्तो, क्या जो बातें वह बुज़ुर्ग मुझे और मेरे मार्फत आप सब को याद दिला गया...क्या वे बातें हम सब पहले ही से नहीं जानते हैं?...आप को भी लगता होगा कि इन में है क्या, लेकिन फिर भी दोस्तो, हम पता नहीं क्यों इन बातों पर चल नहीं पाते।

अगर आप उस अधेड़ रूपी बुज़ुर्ग की बातें ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उस की हर बात में लंबी सेहतमंद ज़िंदगी का राज़ छिपा है। है कि नहीं?

काश, अगर हम इन बड़े-बुज़ुर्गों के जीवन से कुछ सीख ले सकें तो ज़िंदगी के मायने ही बदल जाएं।

एक बात का मलाल है कि मैंने उन की तस्वीर नहीं ली...आप को उन के चेहरे की तरो-ताज़गी और ज़िंदगी के प्रति उत्साह की एक झलक दिखाने के लिए। फिर कभी उन का चक्कर लगेगा तो उन के दर्शन करवा दूंगा।

वैसे तो मैं नज़र वज़र लगने में विश्वास नहीं रखता......और वैसे भी डाक्टर लोगों की नज़र भी कभी बुरी होती है क्या! यही प्रार्थना है कि ये बुज़ुर्ग शतायु हों।

वैसे मैंने कुछ अरसा पहले आप को एक दूसरे बुज़ुर्ग से भी मिलवाया था जो ७० की उम्र में ७० किलोमीटर की साईक्लिंग करते हैं......७० की उम्र में रोज़ाना ७० किलोमीटर की साईक्लिंग। 

वैसे ८० साल के एक और बुज़ुर्ग की बातें यहां भी हैं... बिना किसी तकलीफ़ के भी रक्तचाप की जांच। वैसे मैंने जब आज वाले ८० साल के बुज़ुर्ग का ब्लड-प्रेशर नापा तो बिल्कुल ठीक आया।

इन सेहतमंद बुज़ुर्गों को देख कर यही लगता है कि जो लोग ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं, वे ऐसे ही बढ़िया जी लेते हैं। आप का क्या ख्याल है?


मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

हेल्दी स्नेक्स (स्वास्थ्यवर्धक अल्पाहार) के भी विक्लप तो हैं...

एक बात तो आप ने भी नोटिस की होगी कि आजकल स्नेक्स (अल्पाहार) के नाम पर हम लोग सेहत खराब करने वाले अल्पाहार ही इस्तेमाल कर रहे हैं। जहां पर भी आप नज़र दौडाएंगे बस जंक-फूड ही बिकता पाएंगे।

अल्पाहार ही क्यों, आज कल प्रोसेसेड फूड के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी सेहत खराब की जा रही है.. आज कल लखनऊ में अवधी महोत्सव चल रहा है। कल उधर जाने का अवसर मिला। वहां देखा कि पहले जो कंपनियां रसगुल्ला, डोसा, वड़ा आदि के रेडीमेड मिक्सचर (पावडर) बेचा करती थीं, अब वे रेडी-टू-इट सब्जियां, दालें आदि भी पाउच में बेचती हैं। ये ६०से लेकर ८० रूपये में पाउच बिकते हैं..इन्हें बस गर्म पानी में कुछ समय के लिए डुबोना होता है और फिर पाउच खोल कर उसे इस्तेमाल कर लिया जाता है।

मैंने भी एक बार ट्राई किया था...बिल्कुल बेकार सा ... नमक से लैस.....होता ही यही है कि इस तरह के प्रोसैसेड फूड्स को तरह तरह के प्रिज़र्वेटिव डाल कर, बहुत ज़्यादा मात्रा में नमक डाल कर इतने लंबे समय के लिए--महीनों तक-- खाने के योग्य बनाए रखा जाता है। लेकिन ये स्वास्थ्य की दृष्टि से खाने के बहुत घटिया विकल्प हैं। अगर आप कभी शौक के तौर पर साल-छः महीने में एक बार यूज़ कर रहे हैं तो ठीक है, लेकिन इन का नियमित प्रयोग सेहत पर बहुत बुरा असर डालता है। बाकी, कंपनियों की बातें हैं...उन्होंने अपना सामान बेचना है।

अभी कुछ आगे ही चले थे कि एक स्टाल पर जयपुर का कोई व्यवसायी तरह तरह के भुजिया आदि बेच रहा था। तरह तरह भुजिया...जो आप इन तस्वीरों में देख रहे हैं....

चावली (सफेद रोंगी, सफेद लोबिया) भुनी हुई (हमें लग रहा है ये फ्राइड है) 

रोस्टेड जवार और सिका हुआ बाजरा (खाने में बढ़िया स्वाद था) 
मोठ जोर और मूंग जोर  
सोयाबीन भुना हुआ (रोस्टेड) 
मजे की बात है कि वह कह तो रहा था कि इन में से अधिकतर रोस्टेड हैं...यानि केवल सिके हुए हैं... ऐसा वह दुकानदार कह रहा था लेकिन हमें लग रहा था कि ये थोड़े बहुत फ्राईड हैं, और थोड़ा घी-तेल तो इस्तेमाल होता ही होगा इन के बनाने में, ऐसा हमें लगा।

इन सब का स्वाद बहुत बढिया था, चार-पांच तरह के खरीद भी लिए। लेकिन यही लगा कि हेल्दी कहने को तो हैं लेकिन अगर घी ही इस्तेमाल किया जाता है तो फिर काहे के हेल्दी।

यह है एयर-फ्रॉयर ...

लेकिन चंद मिनटों बाद ही हमें लगा कि हमारी परेशानी का समाधान मिल गया। एक स्टाल पर हैदराबाद की किसी कंपनी का कोई सेल्समेन एक एयर-फ्रॉयर बेच रहा था... कीमत १७-१८०० के आसपास... डेमो दे रहा था और जो कुछ भी वो तैयार कर रहा था, बड़ा इम्प्रेसिव सा लग रहा था..... जब उससे हमने पूछा कि दूसरी कंपनियों के एयर-फ्रॉयर तो दस-ग्यारह हज़ार के बिक रहे हैं तो यह कैसे इतने में?..कह रहा था कि इस में बस समोसे नहीं बन सकते।


हमें यह एयरफ्रायर अच्छा लगा ..लेकिन उस के पास नहीं था रेडी-स्टॉक में......एक दो दिन में जा कर ले आएंगे..
मुझे बहुत अच्छा कंसेप्ट लगा कि हम कुछ भी हेल्दी स्नेक्स केवल सेंक कर ही बना सकते हैं.....क्या पड़ा है तेल-घी में, वैसे ही अकसर हम लोग ओव्हरईटिंग करते रहते हैं।


कैसा लगा यह हेल्दी स्नेक्स का आइडिया......
वैसे अभी तो आप इस चना-जोर गर्म से ही काम चला लीजिए...

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

कीमोथेरिपी के साथ प्यार की खुराक भी...

बहुत साल हो गये एड़्स के बारे में विभिन्न भ्रांतियों को दूर भगाने के लिए एक लघु फिल्म में शबाना आज़मी आया करती थी...याद होगा आप को भी....एचआईवी से ग्रसित बच्चे के साथ शायद खाना खा रही होती हैं....और कहती हैं ....इस से प्यार फैलता है, एड्स नहीं।

आज सोच कर लगता है कि उस दौर में जब एड्स के बारे में इतनी भ्रांतियां थी, एचआईव्ही-एड्स के रोगियों के साथ इतना भेदभाव होता था, ऐसे में उस तरह की फिल्मों ने लोगों को जागरूक करने के लिए बहुत काम किया।


ऐसे ही कैंसर को लेकर भी कुछ बेबुनियाद से डर एवं भ्रांतियां हैं, मुझे ध्यान आ रहा था कि जब हम कॉलेज में थे मुंह और गले के कैंसर के रोगी के दांतों का इलाज करते हुए कईं बार हल्की सी झिझक होती ....एक अनजाना, बेबुनियाद डर...लेकिन उन्हीं दिनों फिर यह भी पता चल गया  कि यह बीमारी इस तरह से एक दूसरे में नहीं फैलती। झिझक का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि उस दौर में हम लोग हर मरीज के मुंह में सर्जरी करने से पहले ग्लवज़ (दस्ताने) नहीं पहना करते थे लेकिन मुंह और गले के कैंसर के रोगियों के मुंह में सर्जरी करने से पहले दस्ताने ज़रूर चढ़ा लिया करते थे।

मुझे मेरी एक बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आज आया......यह मुंह के कैंसर से ग्रस्त हैं...कुछ महीने पहले की बात है...एक दिन वह नहीं आई थीं...उस का बेटा और बहू अपने पांच-सात साल के बेटे के साथ मां की कुछ दवाईयां लेने आए थे।
बहुत सी बीमारियों और उस के कारणों की बात करें तो हम चिकित्सक अक्सर यह सोचने की हिमाकत कर जाते हैं कि ये सब बुनियादें बातें तो लोगों को, मरीज़ के तीमारदारों को पता ही होंगी।

लेकिन नहीं, हमें बार बार अहम् संदेश देते रहना चाहिए।

उस दिन भी वह जब युवक, उस की पत्नी और बेटा आए तो पता नहीं अचानक कैसे मैंने उस से पूछ लिया कि क्या आप को पता है कि यह बीमारी कैसे फैलती है?...उसे मेरी बात शायद पूरी समझ में नहीं आई थी, मैंने आगे कहा कि क्या उन्हें पता है कि यह बीमारी ऐसे ही एक आदमी से दूसरे में नहीं फैलती। उसने मुझे कहा कि हां, हमें पता है ...बिल्कुल पता है।

मैंने उन लोगों को कहा कि मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि आप लोगों के छोटे बच्चे हैं, ज़ाहिर सी बात है अपनी दादी के साथ सोते होंगे ..उस के साथ मिलते जुलते होंगे.......तो ऐसे में किसी तरह का भ्रम न रखा जाए।

वह युवक कहने लगा कि हमें तो कोई भ्रम नहीं, मां ही इन बच्चों से अब दूरी बना कर रखती हैं..उसे डर लगता है कि कहीं बच्चे............मैंने कहा कि इस की कोई ज़रूरत नहीं है।

मैं उस बुज़ुर्ग महिला को जानता हूं ..वे बड़ी बुद्धिमान महिला हैं।

तभी उस की बीवी बोल पड़ीं कि डाक्टर साहब, कहते हैं कि जब कीमोथेरिपी लगती है तो मरीज के शरीर में से ज़हर निकलता है जो बच्चों को नुकसान करता है। मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सुना था, इसलिए मैंने उसे कहा कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है...बस कुछ बेसिक सी सावधानियां होती हैं वह भी कीमोथेरिपी लगने के अगले दो दिन तक केवल......क्योंकि जो दवाई मरीज़ को दी जाती है वह अगले ४८ घंटे के दौरान शरीर से बाहर निकलती है...और यह मरीज़ के पेशाब, मल, अश्रु एवं उल्टी में पाई जाती है...इसलिए अगर मरीज़ को उल्टी हो तो उस की देखभाल करने वाले को ग्लवज़ डाल कर अच्छे से वॉश-बेसिन या टायलेट की अच्छे से दो बार फ्लश करने की सलाह दी जाती है....विस्तृत जानकारी के लिए आप यह लिंक देखिए...अगर मरीज का इस तरह का कोई शारीरिक द्रव्य किसी अन्य की चमड़ी के संपर्क में आता है तो चमड़ी की थोड़ी irritation हो सकती है....और यह भी बस कीमोथेरिपी लगने के केवल दो दिन बाद तक।

Chemo Safety 

Safety Precautions

उस बुज़ुर्ग महिला की बहू ने यह बताया कि यह बात इस बच्चे की स्कूल की टीचर ने कही थी .. कि बच्चों को इसलिए दूर रखा जाना चाहिए। मुझे अभी भी हैरानगी है कि टीचर ऐसी बात कैसे कह सकती है। वैसे तो वह बुज़ुर्ग महिला को एक दो बार ही कीमो दी गई थी क्योंकि वह हृदयरोग से भी ग्रस्त होने की वजह से उसे सहन नहीं कर पा रही थी और विशेषज्ञों ने पहले उन में  रेडियोथेरिपी से मुंह के कैंसर के आकार को कम करने की युक्ति लगाई गई थी।

बहरहाल, आज सुबह जब उस बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आया तो ये विचार आप सब तक पहुंचाने ज़रूरी लगे। एक तो जब किसी मरीज़ को पता चलता है कि उसे कैंसर है, वह अपनी सुध-बुध खो बैठता है, ऊपर से अस्पतालों के चक्कर बार बार काटने वाला इलाज ...सुबह से शाम तक लंबी लंबी लाइनें, कीमोथेरिपी और रेडियोथेरिपी (जिसे आम भाषा में सिंकाई कहते हैं) सहना .....पहले से ही इतना परेशान होने पर अगर उसे किसी तरह के भेदभाव की भनक भी लग जाए तो वह भीतर ही भीतर बुरी तरह से टूट जाता है.....इस तरह के मरीज़ों के तीमारदारों को बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील बने रहने की ज़रूरत है। इलाज के दौरान तो उसे और भी ज़्यादा प्यार-अपनेपन की ज़रूरत है........करते हैं घर वाले इन सब बातों का पूरा ध्यान रखा करते हैं, फिर भी इस तरह के पाठ दोहराते रहना हम लोगों की आदतों में शुमार है, बस।

हां, एक बात ...जब किसी मरीज़ की कीमोथेरिपी चल रही हो तो उस दौरान उस की स्वयं रोग-प्रतिरोधकता क्षमता कम हुई होती है इसलिए अगर घर का कोई सदस्य या परिचित जिसे कोई इंफैक्शन आदि है ...जैसे खांसी-जुकाम, फ्लू आदि तो विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस तरह के लोग दूरूस्त होने तक मरीज के निकट संपर्क में न आएं क्योंकि इस से उसे भी ये परेशानियां हो सकती हैं।

बातें छोटी छोटी होती हैं, भेदभाव केवल कहने से ही नहीं होते ....या वे ही नहीं होते जो कुछ लोग हम से शेयर कर जाते हैं, बहुत से भेदभाव कुछ करने से या कुछ न करने से, कुछ कहने या न कहने से ही नहीं होते, बल्कि नॉन-वर्बल किस्म के भी (या ही?) होते हैं.......ऐसे किसी रोगी को अंदर तक तोड़ देने के लिए बस एक हिकारत भरी नज़र ही काफ़ी है. और इस तरह की यातनाएं भी बड़े subtle ढंग से दी जाती हैं....िबना किसी को कानों कान खबर हुए और बिना किसी को भनक लगे। प्रोफैशन में रहते हुए इतने वर्षों से बहुत कुछ देख-सुन रहे हैं। 

निष्कर्ष यही है.... दोस्तो, प्यार बांटते रहिए.....बहुत बड़ी औषधि है यह भी।




बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

बंदूक का लाइसेंस रिन्यू न करवाने की सलाह

अभी तीन दिन पहले की बात है एक शख्स से मुलाकात हो गई..वह मेरे को ओपीडी की पर्ची थमाने लगा तो साथ में एक काग़ज़ का टुकड़ा भी उसने मुझे गलती से थमा दिया।

मैंने उसे अभी सरसरी निगाह से देखा ही था कि लाल पेन से उस में एक काम यह भी लिखा हुआ था ...कि बंदूक का लाइसेंस रिन्यू करवाना है। दरअसल यह उस की उस िदन करने वाले कामों की लिस्ट थी।

वह पढ़ा लिखा और बड़ा समझदार सा इंसान है..ठीक है थोड़ा बातूनी और परफैक्शनिस्ट सा है....है तो है, क्या फर्क पड़ता है। वह पहले भी मेरे पास बहुत बार आ चुका है। पहले ही वह कईं तरह की शारीरिक परेशानियों से जूझ रहा है

इसलिए मुझे बड़ी हैरानी हुई ..और मैंने पूछ लिया कि क्या आपने बंदूक रखी हुई है...उस की उम्र ६५ के करीब होगी और बीवी भी इस के आस पास की है.......बीवी भी पास बैठी हुई थी....हिंदोस्तान की अधिकांश पतिव्रता गृहिणियों की तरह वह भी पूजा पाठ वाली नेक आत्मा है...जिन्हें अपनी राय देने का अकसर हक होता ही नहीं।

बह शख्स बताने लगा .. क्या करें डाक्टर साहब आज के जमाने में अपनी रक्षा के लिए यह सब रखना पड़ता है। उस का तर्क था कि  जब भगवान अपने पास अस्त्र-शस्त्र ऱखते थे तो हम तो मामूली इंसान ठहरे। मेरे पास इस बात का जवाब नहीं था, क्योंकि मेरा इस तरह का ज्ञान और तर्क-वितर्क क्षमता नगन्य है....इसलिए मैं चुप हो गया।

मुझे लगता है कि अभी तक उस बंदूक ने उस का एक ही काम किया ..जिसे वह बड़े गर्व से मुझे सुना गया.....उस के घर का छ्ज्जा बनना था, पड़ोसी अड़चन डाल रहे थे, बताने लगा कि डाक्टर साहब, मैं उस दिन बंदूक लेकर बाहर गली में खड़ा हो गया कि आओ, हिम्मत है तो आगे आओ... और छज्जा बन गया। और फिर अपनी बीवी की तरफ़ देख कर उस से अपनी बात पर मोहर लगवा ली........बताओ, ऐसा ही हुआ था ना?......वह बेचारी हिंदोस्तानी नारी ......उस ने झट से हल्की मुंडी हिला दी।

मैं इस बात का शुक्र मना रहा हूं कि मैं उस की इस बात पर ठहाके लगाता लगाता रह गया। 


बताने लगा कि लाईसेंस आज का नहीं है, कालेज के दिनों का है। मैंने फिर भी कहा कि छोड़ो, लाईसेंस रद्द करवा दो और बंदूक-कारतूस जमा कर दो। कहने लगा पूरा २०-२५ हज़ार का नुकसान हो जाएगा।

जब मैंने उसे बंदूक का लाइसैंस न रिन्यू करवाने की सलाह दी और कारतूस लौटाने की बात कही तो झट से उस की बीवी भी बोली कि मैं भी तो इन्हें यही कहती हूं।

एक बात जो मैंने उसे कही नहीं उस के सामने वह यह थी ..... उस के दो बेटे हैं, अच्छे काम धंधे वाले हैं, उन की बीवियां आपस में कलह कलेश करती रहती हैं जैसा कि आज लगभग हिंदोस्तान के हर घर में हो रहा है, इसी चक्कर में लड़कों ने भी बोलना बंद कर दिया है, रहते सब लोग एक ही घर में हैं......मैं उसे यह कहना चाह रहा था कि यार, आपने तो कारतूस संभाल लिए इतने वर्षों तक .. लेकिन आप के बाद क्या पता किस के हाथ यह बंदूक आ जाए और कभी गुस्से में कुछ कर बैठे। यह मैंने उसे कहा नहीं।

लेकिन जब मैंने उसे बार बार कहा कि इसे वापिस करो तो मान गया ....कहने लगा ठीक है, मैंने उसे कहा था कि जब मुझे अगली बार मिलना तो मुझे यह खुशखबरी देना।

वह यह तो कह ही रहा था कि दोनों बेटे भी यही कहते हैं कि इसे वापिस कर दो, हमें नहीं चाहिए.......और वह भी कह रहा था कि लाइसेंस रिन्यू करवाना भी एक झंझट है, कितने कितने चक्कर लगवाते हैं, पांच छः दिन कईं चक्कर काटने के बाद कहीं जा कर लाइसेंस रिन्यू होता है।

मैंने उसे इतना कहा कि ये सब हथियार वार घर में रखने शरीफ़ों के वश की बात कहां है, जो लुक्खे लोग होते होंगे उन के लाइसेंस घर बैठे ही िरन्यू हो जाते होंगे और इस भलेमानस को अपने शौक के लिए कितना कष्ट सहना पड़ता है।

वैसे उसे इस बात का तो बड़ा फख्र है कि उस के पास बंदूक है और वह यह मानता है कि आज के जमाने में यह ज़रूरी है.....वैसे उस के पास बंदूक वही है जो तीन चार फुट की होती है.....अब पता नहीं इस उम्र में वह इसे कैसे संभालेगा, खुदानाखास्ता अगर कभी ज़रूरत पड़ भी जाए।

लेकिन वह इतना तो कहता है कि शरीफ आदमी को तो पता नहीं पुलिस वाले या कोई और कब फंसा दें कि तेरे पास लाईसेंस है, बता तूं उधर क्या करने गया है.....जाते जाते ऐसी ऐसी बातें करने लगा था।

बहरहाल, मान गया लगता है कि अब लाइसेंस को रिन्यू नहीं करवाएगा और कारतूस (गोलियां) आदि जमा करवा देगा। देखते हैं।

वैसे मुझे नहीं लगता लखऩऊ जैसे शहर में इस तरह की बंदूक से कुछ ज़्यादा सुरक्षा हो जाती होगी......यहां तो ऐसी ऐसी घटनाएं रोज़ पढ़ने-सुनने को मिलती हैं कि लगता है यहां पर किसी को पुलिस या शासन का डर ही नहीं है......कुछ दिन पहले एक महिला सर्राफ को रात को नौ बजे रिक्शा पर ही गोली मार दी, जेवर लेकर भाग गए.......तीन दिन पहले एक महिला को उस के घर आ कर मार गये, बच्चे स्कूल गये हुए थे, बच्चे स्कूल से आए तो उन्हें पता चला....और इस महिला का घर शहर के एक व्यस्त एरिया में है......परसों यहां लखनऊ के सेंट्रल स्कूल का एक कैमिस्ट्री का अध्यापक पकड़ा गया, ग्यारहवीं कक्षा की अपनी ही एक छात्रा के साथ कईं महीने तक मुंह काला करता रहा, उसे गर्भ ठहर गया, उस का गर्भवात करवा दिया....घर में पता चला तो उन्होंने पुलिस में तहरीर दी......परसों एक २० वर्ष की वकालत पढ़ रही छात्रा घर से अपने पापा की जैकेट ड्राई-क्लीनर को देने गई...रात तक घर नहीं पहुंची तो अगले दिन सुबह शहर के शहीद पथ पर उस के शरीर के कईं टुकड़े मिले..........और पुलिस का कहना है कि शरीर को काटने के लिए जिस आरी का इस्तेमाल किया गया था, वह मोटर से चलने वाली थी.....

अब आप ही सोचिए कि मैंने उस बुज़ुर्ग को सही सलाह दी कि नहीं....बंदूक का लाइसैंस रिन्यू न करवाने की.....जब शहर में हर तरफ़ इतनी गुंडागर्दी, दादागिरी, रंगदारी.....और जान इतनी सस्ती हो चुकी हो तो एक चालीस साल पुरानी बंदूक किसी का क्या उखाड़ लेगी.....कुछ भी तो नहीं! लेकिन घर में रखी वह घर के ही किसी बाशिंदे का बहुत कुछ उखाड़ सकती है।

 P.S....मेरा एक मित्र फौजी अधिकारी है. उसने इस पोस्ट को पढ़ने के बाद यह टिप्पणी दी है ..छज्जे वाली बात पर कि चलो कोई काम तो हुआ...वरना अधिकांश केसों में तो तो लोग अपनी पिस्टल आत्महत्या के लिए ही इस्तेमाल करते हैं।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

आईए दोस्तो, कुछ Quotes हम सब भी बनाएं....

दो दिन पहले मैं पिन्ट्रस्ट की साइट देख रहा था... दो घंटे हो गए...मुझे कुछ अच्छे से Quotes पढ़ने की तलब हो रही थी।

लगभग दो घंटे हो गये...मुझे एक दो ही ऐसे लगे जिसे मैं आप सब से शेयर कर सकूं... वैसे मैंने कागज पर लिख कर आप से मीडिया डाक्टर के गूगल प्लास पेज पर शेयर भी किया।


जब मैंने इसे शेयर किया तो मुझे यही लगा कि ऐसा भी क्या कि हम लोग दूसरे के Quotes ढूंढने में समय बिता देते हैं...जिसने वे बातें कही हैं वह भी तो हम सब जैसा ही मानस है..और मैंने अपने आप से पूछा कि क्या मेरे को इस बात का पता नहीं था....बिल्कुल पता था, तो फिर हम किसी की Quotes ढूंढने की बजाए स्वयं अपने लिए ही कुछ दस बीस शब्द लिख लिया करें.....it is big fun!


एक बात और भी है कि जो भी आदमी कोई quote लिख रहा है, वह अपने निजी अनुभव के आधार पर ही तो लिख रहा है, तो फिर हम सब के पास जो अनगिनत अनुभव हैं, उन का क्या होगा.


Quote कैसी है, कैसी नहीं है, यह सोचना हमारा काम है ही नहीं, हमें तो इत्मीनान इसी बात से हो जाना चाहिए कि जो मेरे दिल को कचोटता रहा था मैंने उसे शब्दों में पिरो कर राहत पा ली। बिल्कुल ऐसा ही होता है, ब्लॉगिंग में भी कईं बार कोई पोस्ट लिखने का इतना उतावलापन होता है कि सिर भारी होता है लेकिन लिखते ही बिल्कुल हल्कापन छा जाता है।

अपने लिखे Quotes हमें गुदगुदायें तो है ही, हमें इंस्पॉयर भी करेंगे और एक अच्छा रिमांईडर का भी काम करेंगे कि हम ने लोगों के साथ तो यह बात शेयर की है, मैंने एक जगह तो यह लिखा है कि मेरा resolution यह है, लेकिन मैं फिर भी क्यों भटक रहा हूं।


दोस्तो, मैंने भी यही सीखा है कि अपने अनुभव शेयर करने में बिल्कुल भी एम्बेरेस फील नहीं करना चाहिए....लेकिन यह होगा तब जब आप नियमित कुछ न कुछ लिखते रहें, शेयर करते रहें....आप को चाहे लगे कि आप ने बहुत ही बेकार लिखा है, लगे तो लगे, लेकिन शेयर करना, लिखना नियमित जारी रखिए........आप स्वयं देखिए कुछ ही दिनों में क्या बदलाव आता है।

यह बात मैंने भी आज से १२-१३ वर्ष पहले एक नवलेखक शिविर में सीखी थी, वहां पर एक विश्वविख्यात लेखक ने यही कहा था कि आप रोज़ाना एक पन्ना भी लिखें तो साल में ३६५ हो जाएंगे और इन में से ५०-१०० ऐसे होंगे जिन्हें आप कहीं छपवा भी सकते हैं.......और वैसे भी, अब ब्लॉगिंग की वजह से आप स्वयं अपने पब्लिशर बन चुके हैं।

आप में से हरेक के पास अनुभवों का खजाना भरा पड़ा है, तो फिर शुरू करिए उन्हें शब्दों का रूप देना.......और शेयर करना, अगर आप चाहें तो....


मैं नहीं कहूंगा कि मैंने दो दिन में ये Quotes बनाए, बस जो अनुभव मैं लिखना चाह रहा था, उसे कहने का साहस जुटा पा रहा हूं.....आप कब शुरू कर रहे हैं ?....सोशल मीडिया पर वही ज्ञान की बातें, तस्वीरें, वीडियो....सब कुछ बार बार इधर उधर से पहुंच जाता हैं, चलिए कुछ हम भी इस में कुछ नया कंट्रीब्यूट करें। अच्छा लगता है।

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

कैंसर का खराब किस्मत से कोई नाता है क्या ?

कुछ दिन पहले की ही बात है जब लगभग सभी अखबारों में यह खबर सुर्खियों में रही ..कुछेक पर पहले पन्ने पर जिस में वैज्ञानिकों ने एक तरह से यह घोषणा कर दी कि कैंसर की बीमारी खराब किस्मत की वजह से होती है और लगभग दो तिहाई केसों में कैंसर का कारण बुरा मुक्द्दर ही है।

'Two-thirds of cancers due to bad-luck'

पढ़ी तो थी यह खबर....लेकिन यह पढ़ कर कुछ अजीब सा लग रहा था... बात हलक से नीचे नहीं उतर रही थी...और यह भी लग रहा था कि इस तरह की बात से तो लोग अपनी जीवनशैली बदलने के लिए कतई राजी नहीं होंगे, जब सब कुछ मुकद्दर का ही खेल है तो फिर जैसे चलता है चलने दें, यही सोचेंगे मरीज।

मरीज तो पहले से ही इतने तार्किक हैं कि एक कैंसर के मरीज़ को जब मैंने यह पूछा कि तुमने बंबई के टाटा अस्पताल में देखा होगा कि किस तरह से ये तंबाकू से होने वाले कैंसर कहर बरपा रहे हैं....उसने मुझे तुरंत कहा ...जो लोग इन सब का सेवन नहीं करते, वे भी बहुत से वहां इलाज करवा रहे थे। 

आज की टाइम्स ऑफ इंडिया देखी तो पहले ही पन्ने पर इस शीर्षक वाली एक न्यूज़-स्टोरी दिख गई....

मुझे ऐसा लगता है कि यह खबर सब को पढ़नी चाहिए ताकि अगर किसी के मन में कोई संदेह है तो वह भी निकल जाए कि बुरी किस्मत से नहीं, तरह तरह के प्रदूषण और हमारी जीवनशैली ही इस बीमारी का कारण बनती है। 

इस में भी टाटा अस्पताल के विशेषज्ञों के कथन ही छपे हैं। वे बताते हैं कि हिंदोस्तान में जो कैंसर होते हैं अगर हम लोग अपनी जीवनशैली ठीक रखते हैं और वातावरण की तरफ जागरूक रहते हैं तो उन से बचा जा सकता है..
टाटा अस्पताल के विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में तंबाकू ४० से ५० प्रतिशत कैंसर के केसों का कारण है। 

दूसरी बात यह है कि पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कैंसर रोग की दर काफी कम है .. भारत में हर लाख की जनसंख्या के पीछे ९० व्यक्तियों को कैंसर अपनी चपेट में ले लेता है जब कि गांवों में यह दर ४५ ही है....एक लाख के पीछे ४५ लोग....जब कि पश्चिमी देशों में यह दर है .. ३५० व्यक्ति हर एक लाख की जनसंख्या के पीछे। 

केवल हम लोग किसी व्यक्ति के जीन्स का हवाला देकर ही इस तथ्य को नहीं दबा सकते कि अधिकतर कैंसर उद्योग की वजह से होते हैं......तंबाकू बहुत बड़ा उद्योग है, फास्ट फूड भी एक बड़ा धंधा है जो हमारा मोटापा बढ़ा कर कैंसर का जोखिम बढ़ाता है। 

Theories about the exact reasons for cancer and why it affects certain people and not others has eluded scientists. Genetic reasons hold true only for around 5% of all cancers. The most heart-wrenching cancers- amount for only 3% of the total incidence. Moreover, what about cases in which a woman teacher, who has never smoked or chewed tobacco, gets oral cancer or a young father gets brain cancer? There seems to be no common thread linking all cancers. 

ध्यान देने योग्य बात है कि अधिकांश तौर पर कैंसर के रोग से बचा जा सकता है। कैंसर का रोग हर साल भारत में १० लाख लोगों को अपनी चपेट में लेता है और ७ लाख लोग इस बीमारी से हर साल अपनी जान गंवा बैठते हैं।


गुरुवार, 29 जनवरी 2015

कॉस्मेटिक सर्जरी का कम होता क्रेज़

जी हां, सुंदर और आकर्षक बनने के लिए करवाई जाने वाली प्लास्टिक सर्जरी का देश में ..विशेषकर बड़े शहरों में कितना क्रेज़ है..इस का अनुमान लगाने के लिए हमें किसी अखबार के पन्नों को उलटना-पलटना होगा।

इतने इतने बड़े विज्ञापन अखबारों में छपते हैं......मरीज हैं तो ही तो छपते हैं, वरना कौन इतना खर्च करेगा।

लेकिन एक बात जो मुझे अकसर लगता है कि जो प्रैक्टिस अमीर देशों में रिजेक्ट होने लगती है वह हमारे यहां पर तूल पकड़ने लगती है।

आज भी सुबह देखा टाइम्स ऑफ इंडिया में कि किस तरह से प्लास्टिक सर्जरी की वजह से एक टीवी स्टार की ज़िंदगी बरबाद हो गई...मैंने उस का आनलाइन लिंक पेपर की साइट पर ढूंढना चाहा.. लेकिन नहीं मिला....गूगल से उस खबर का एक अन्य लिंक मिला जिसे यहां लगा रहा हूं... Botched plastic surgery sends TV star into septic shock. 

यह इस एक स्टार की बात नहीं है, हम क्या रोज़ाना टीवी पर नहीं देखते कि अच्छी भली दिखने वाली सिने-तारिकाएं कैसे प्लास्टिक सर्जरी करवाने के बाद अपने अच्छे भले थोबड़े को खराब करवा बैठती हैं...नाम लेने ठीक नहीं लगते, लेिकन आप ने ज़रूर नोटिस किया होगा.....अच्छे भले नाक थे कुछेक के, वे अजीब से हो गए, होंठ ठीक ठाक थे, वे अंदर की तरफ़ धंस गए...आदि आदि।

मैं जिस न्यूज़-रिपोर्ट की बात कर रहा हूं जब मैं उसे पढ़ रहा था तो मुझे यही लग रहा था कि शायद ही शरीर का कोई हिस्सा हो जिस पर प्लास्टिक सर्जरी का जादू चलना रह गया हो।

इस लिंक को भी ज़रूर देखिए...

प्लास्टिक सर्जरी की घटती लोकप्रियता की चर्चा एक ही जगह नहीं, कईं कईं जगह इस की खुल कर चर्चा हो रही है..कल ही बीबीसी न्यूज़ की साइट पर भी पढ़ने को मिला कि किस तरह से यू.के में प्लास्टिक सर्जरी का क्रेज़ कम होता जा रहा है....आप इस खबर को इस लिंक पर देख सकते हैं...Cosmetic Surgery 'Popularity Declines' 

यह पोस्ट केवल आप तक यह पहुंचानी के लिए थी कि अमीर देशों में कॉस्मेटिक सर्जरी की लोकप्रियता कितनी तेज़ी से कम हो रही है क्योंकि इस से कईं तरह की जटिलताएं उत्पन्न हो रही हैं। 

लेकिन प्लास्टिक सर्जरी केवल कॉस्मेटिक सर्जरी ही नहीं है या यूं कहें कि फिजूल की कॉस्मेटिक सर्जरी (on demand) जिसे एक उपभोक्ता डिमांड करता है और वह कर दी जाती है, अब प्लास्टिक सर्जन क्या सोचता है कि उसे उस सर्जरी की ज़रूरत है या नहीं या उसे वह प्रोसिज़र करवाने पर कुछ स्थायी या अस्थायी प्रभाव पड़ेगा, इन बातों में उलझने से कुछ हासिल नहीं होगा। 

लेकिन प्लास्टिक सर्जरी एक बहुत महत्वपूर्ण स्पेशलिटी है जिस में किसी मरीज़ के शरीर के फंक्शन को भी रिस्टोर किया जाता है... आग से झुलसे मरीजों मे चमड़ी सिकुड़ जाती है.. उन से निजात दिलाने वाले कौन ..प्लास्टिक सर्जन, नन्हे मुन्नों के तालू में सुराख, जन्म से कटे-फटे होंठ को ठीक करने वाला भी प्लास्टिक सर्जन.. कैंसर सर्जरी के बाद चेहरे की भयानक कांट-छांट को दुरूस्त कर के चेहरे को ठीक ठाक करने वाला भी प्लास्टिक सर्जन ही होता है...ऐसे अनेकों महान् काम भी प्लास्टिक सर्जन ही करता है.

जाते जाते पते की बात यह है कि जो भी काम आकर्षक बनने के नाम पर उम्र को कम दिखाने के चक्कर में करवाए जाते हैं... इन की भी गिनती बहुत है..वे सेहत से कैसे खिलवाड़ कर सकते हैं, हम ने देख लिया,  इसलिए सोच समझ कर इन चक्करों में पड़िए....

वैसे सुंदर और जवान दिखने वालों के लिए एक खुशखबरी है ...बिल्कुल ताज़ा-ताज़ा--- कल की ही खबर है कि डबल-चिन को खत्म करने के लिए भी एक इंजेक्शन आ गया है ... बस हम तक पहुंचने ही वाला है..




बुधवार, 28 जनवरी 2015

तंबाकू के बारे में गलतफहमियां...

कल मैं लखनऊ के अलीगंज के एक शो रूम में जाने लगा तो देखा कि उस से सटे एक एटीएम के बाहर उस का सिक्योरिटी गार्ड ऊपर के होठों के बीच कुछ रख रहा था...लेकिन उसे रखने में थोड़ी दिक्कत हो रही थी..मेरे से ऐसे में रहा नहीं जाता, मैं अपनी डाक्टरी झाड़े बिना रह नहीं सकता....जब उसने मुंह के अंदर उसे टिका लिया तो मैं उस के पास गया.....और उसे बड़े आराम से कहा कि यार, क्यों यह सब करते हो, बहुत नुकसान करती हैं ये चीज़ें। उसे बिल्कुल ब्रीफ सी अपनी पहचान भी बताई.....ताकि उसे पता रहे कि मेरे पास इस तरह की बक-बक करने का लाईसेंस है।
उस ने बताया कि क्या करें, यह सब छूटने का नाम नहीं लेता। मैंने फिर कहा कि छोटी छोटी उम्र में अब हम लोग बहुत से मुंह के कैंसर के रोगी देखने लगे हैं।

फिर उसने बताया कि दरअसल पहले वह मसाला (पानमसाला) चबाया करता था ...उस से उस का मुंह जकड़ा गया....अब उस का मुंह पूरा नहीं खुलता, उस ने झट से अपने मुंह में दो अंगुली डाल कर मेरे को दिखाना चाहा...लेकिन वे भी अंदर नहीं जा रही थीं। वह कहता है कि इसी चक्कर में मैंने पानमसाला तो छोड़ दिया है, अब मैं इसे रख लेता हूं।

मैंने पूछा कि यह क्या है, गुटखा?.....उसने बताया कि यह तंबाकू है।

मैंने फिर उसे समझाया ...हमेशा की तरह उम्मीद लगी कि मान जायेगा। मैंने यह भी कहा कि यह जो मुंह नहीं खुल रहा, इस का भी इलाज करवाओ... बताने लगा ... करवा रहा है। उस की बातचीत से पता चला कि दंत-रोग विशेषज्ञ या किसी डैंटल कालेज से यह इलाज करवाने की बजाए किसी ऐसे ही नीम हकीम के चक्कर में पड़ा हुआ है या कभी कभी कैमिस्ट के पास जा खड़ा होता है, जो उस से चालीस-पचास रूपये ऐंठ लेता है।

मैंने बताया कि अच्छे से इस का इलाज करवाओ......लेकिन बाद में मैंने सोचा कि क्या मेरे कहने से ही वह इलाज करवा पाएगा। गैर-संगठित काम करने वाले लोगों को मिलता ही क्या है?... चार पांच हज़ार रूपये महीना...इतने में अपने परिवार की रोटी चलाए या अपनी दवा। बहुत दुःख होता है जब कभी यह सब देखने को मिलता है।

हमारे अस्पताल में सब सरकारी मरीज़ आते हैं...सरकारी कर्मचारी और उन के आश्रित... इस तरह की तकलीफ़ के लिए हज़ार-डेढ़ हज़ार रूपये महीने का खर्च आता है ...और खाने पीने का विशेष ध्यान... और ये दवाईयां हम लोग इन्हें बाज़ार से खरीद कर देते हैं... और वे भी तीन चार महीने बाद दवाईयां खाने से और लगाने से परेशान हो जाते हैं...मुंह में टीके भी लगाए जाते हैं। लेिकन शर्त पहली यही होती है कि पानमसाला-गुटखा को हमेशा के लिए लात मारनी होगी।

एक बार इस तरह की तकलीफ लग जाती है तो सब के लिए इस का इलाज करवाना भी संभव नहीं होता, मुझे ई-मेल से भी इतने युवा इस के बारे में पूछते हैं ...लेकिन कोई क्विक-फिक्स तरीका भी तो नहीं है इसे दुरूस्त करने का।

कभी कभी बीड़ी...

मैं जब किसी मरीज़ के मुंह में झांक कर यह पूछता हूं कि क्या आप गुटखा-पानमसाला खाते हैं तो वे तुरंत उत्तर देते हैं ...ना जी, ना......बस बीड़ी की लत है। वे बीड़ी को बुरा नहीं समझते ...और पानमसाला, गुटखा वाले उसे बुरा नहीं समझते।

एक भ्रांति बहुत बड़ी यह भी है कि चबाने वाला तंबाकू-गुटखा इतना खराब नहीं है.....लेिकन ध्यान रहे कि यह मुंह के कैंसर का सब से अहम् कारण तो है ही ...और इस से जो निकोटीन और अन्य हानिकारक तत्व रिलीज़ होते हैं वे भी हमारे शरीर के अंदर जा कर बिल्कुल वैसे ही कहर बरपाते हैं जिस तरह से बीडी-सिगरेट-हुक्का-चिलम।

तंबाकू की लत से जुड़े कुछ मिथक  (इस लेख को पढ़ने के िलए इस पर क्लिक करिए)

रोज रोज तंबाकू के बारे में लिख लिख कर ऊबने लगा हूं लेकिन क्या करें, लोग कहां हमारी सुनते हैं.....सुनें तो हम भी विषय बदल लें। अभी तो मेरे विचार में यही सब से बड़ा मुद्दा है ...कि कैसे कोई तंबाकू के सभी रूपों से बचा रह सके। मुंह के कैंसर से ही नहीं, शरीर के लगभग हर अंग को तबाह कर के यह रोज़ाना हज़ारों-लाखों ज़िंदगीयां लील रहा है।
जिस दिन किसी परिवार को पता चले कि उस का कोई सदस्य तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन कर रहा है ...या तो उस परिवार को उसी दिन उस बंदे को उस से छुटकारा दिलाने का उपाय कर लेना चाहिए, नहीं तो सारे परिवारजनों को उस दिन अपनी सिर पीट लेना चाहिए.......मातम मना लेना चाहिए।

एक दो महीने पहले एक प्राईव्हेट सफाई कर्मी मिला.....मुंह में एडवांस कैंसर बना हुआ...वही गुटखा-पानमसाला की आदत थी....अब छोड़ दिया है..एक तो मुझे हर ऐसे मरीज़ से यह सुन कर बहुत ही ज़्यादा बुरा लगता है कि अब कुछ िदनों से छोड़ दिया है, भई अब छोड़ने का क्या फायदा....बात बात पे कह रहा था कि बहुत डर लगता है, अभी उस की छोटी सी उम्र थी...अभी कुंवारी बेटियां हैं...मैंने इलाज का कहा तो कहने लगा कि सरकारी अस्पताल में पता किया था ..दस हज़ार का खर्च आता है...और वैसे भी मैं जिस दिन इलाज के लिए जाऊंगा ... उस दिन छुट्टी हो जायेगी..प्राईव्हेट नौकरी है ...दूसरा उसे यह भी डर था कि एक बार अगर इस को छेड़ दिया तो यह बहुत तेज़ी से फैल जायेगा...ऐसा मैंने सुना है... और एक बात और भी वह जाते जाते कह गया कि अब अगर मैंने इस का इलाज करवा लिया ...उन्होंने मुंह के साथ कांट-छांट कर दी तो मुझे लोग कहां नौकरी पर रखेंगे.......मेरे से घृणा करने लगेंगे.....दरअसल यह एक साल पहले भी इलाज के लिए गया था, लेकिन जब उन्होंने आप्रेशन करने की कही तो फिर वापिस गया नहीं।

आप भी देख रहे हैं कि इस तरह की तकलीफ़ों का इलाज कितना मुश्किल है, महंगा है और ......और भी बहुत कुछ ...क्या क्या लिखें........बस, इतना तो करना ही होगा कि जहां भी किसी बीड़ी-सिगरेट-गटुखा-तंबाकू का सेवन होता देखें उसे थोड़ा समझाने की कोशिश तो करिए.......देखिए अगर हो सके...




मंगलवार, 27 जनवरी 2015

टेबलेट के साइज का उस के प्रभाव से क्या संबंध है?

आज मुझे सुबह अचानक ध्यान आ गया...एक आम भ्रांति जो लोगों में मौजूद है ..टेबलेट के साइज से उस के प्रभाव का और उस की "गर्मी" का अनुमान लगाया जाता है।

अकसर अनुभव किया है जब लोग कहते हैं कि बड़े बड़े कैप्सूल आप ने तो पूरे दिन में तीन बार खाने को कहे थे...लेकिन वे तो बड़े ही इतने थे कि हम ने तो दो ही लिये।

कईं बार ऐसा भी सुनने को आया कि टेबलेट इतना बड़ी थी कि हम ने आधी ही खाई...

यह अलग अलग तरह की भ्रांतियां हैं....जो दवाई जिस ढंग से इस्तेमाल करने के लिए बनी है, जिस समय खाने के लिए कहा गया है, खाली पेट, या खाने के बाद, इन सब के पीछे एक साईंस है, शुद्ध साईंस है..


आज मुझे इस विषय का ध्यान सुबह आया जब मेरे सामने तीन शीशियां आईं....एक दवा की..... आप देखिए कि इन तीनों शीशियों में एक ही दवाई की अलग अलग पावर की गोलियां हैं....मैंने जब २५ माईक्रोग्राम और पचास माईक्रोग्राम की गोलियां देखीं तो मुझे भी एक बार लगा कि २५ माईक्रोग्राम वाली टेबलेट ५० माईक्रोग्राम वाली टेबलेट से बडी कैसे......तुरंत ही ध्यान आ गया कि क्या मैं भी अपने मरीज़ों की तरह ही सोचने लगा हूं?

यह कोई इश्यू होता ही नहीं कि जिस टेबलेट में दवाई ज़्यादा होगी वह बड़ी होगी और जिस में दवाई की मात्रा कम रहेगा वह छोटे आकार की होगी।

सब से पहले तो आप टेबलेट में उपलब्ध दवाई की मात्रा की तरफ़ ध्यान करिए... २५ माइक्रोग्राम...मेरा तो हिसाब किताब ऐसा ही है, मैंने बेटे से पूछा कि यह कितना हुआ तो उसने केलकुलेट कर के बताया कि २५ माईक्रोग्राम का मतलब एक ग्राम का ४००००वां हिस्सा, ५० माइक्रोग्राम होता है एक ग्राम का २००००वां हिस्सा, और १०० माइक्रोग्राम होता है एक ग्राम का १०००० वां हिस्सा.......जब वह मेरे को यह आंकड़े बता रहा था तो हैरान भी हो रहा था कि कंपनियां क्या यह सब काम इतनी प्रिसिज़न से कर पाती होंगी!

आप को ध्यान होगा कि एक विज्ञापन आता है ...आयोडीन युक्त नमक का...जिस में बताया जाता है कि सारे जीवन भर में किसी व्यक्ति को एक चुटकी भर आयोडीन की मात्रा चाहिए होती है और इस की दैनिक ज़रूरत सूईं की नोक के समान होती है। आशा है आप को यह पोस्ट पढ़ने के बाद यह चुटकी और सूईं की नोक जैसी बातें सहज लगेंगी।

आप स्वयं नोटिस करिए कि कितनी कम मात्रा में यह दवाई इन टेबलेट्स में होती है......अब अच्छी बड़ी कंपनियां जिन के यहां परफैक्ट गुणवत्ता नियंत्रण होता है ... वे तो यह सब करती ही हैं...लेिकन लोकल कंपनियां जिन का कुछ अता पता नहीं होता, जिन की दवाईयां झोलाछाप डाक्टर और बस स्टैंड पर दवाईयां बेचने वाले लड़के ही बेचते हैं... वे किस हद तक आम जनता की सेहत से खिलवाड़ करते होंगे।

एक बात का अभी ध्यान आया कि जितना हो सके जितनी पावर की दवाई चाहिए वही टेबलेट लेना चाहिए.. आप देखिए कि एक दवाई में अगर है ही एक ग्राम का २००००वां हिस्सा, तो ऐसे में इस के दो टुकड़े करने में कैसे कोई आश्वस्त हो सकता है कि दोनों टुकड़ों में एक जैसी मात्रा में ही दवाई का सक्रिय घटक भी होगा।

एक प्रश्न आना स्वभाविक है आप के मन में कि अगर घटकों की मात्रा इतनी कम है तो फिर ये टेबलेट्स इतनी बड़ी कैसे बन गईं?....इस का जवाब यही है कि इन गोलियों में दवाई की मात्रा उतनी ही हैं जितनी इनके ऊपर लिखी है...बाकी तो टेबलेट तैयार करने के लिए इस्तेमाल करने वाले कोई अन्य हानिरहित पावडर होते हैं जिन्हें शायद adjuvants (एड्जुवेन्ट्स) कह दिया जाता है.....इन का अपना न तो कोई प्रभाव होता है, न ही कोई नुकसान होता है लेकिन इतनी कम मात्रा में दवाई को टेबलेट या कैप्सूल का रूप देने के लिए इन्हें टेबलेट्स बनाते समय इस्तेमाल करना होता है।

आशा है आप इस बात को अच्छे से समझ गये होंगे। टेबलेट्स का आकार कंपनियों पर भी निर्भर करता है....ये सब ट्रेड-सीक्रेट्स होते हैं।

आप देखिए कि क्यों कहा जाता है कि अच्छी कंपनियों की ही दवाईयां खरीदनी चाहिए.....लेकिन इस में भी आज कल इतनी सांठ-गांठ चलने लगी है विभिन्न लेवल पर कि दवाई खरीदने वाले का सब से ज़्यादा शोषण हो रहा है......कोई विदेश का टूर लगा आता है, कोई महंगे होटले में ठहर कर कांफ्रेंस कर आता है, किसी को नईं कार मिलती है तो किसी को कुछ...........बस बेचारा मरीज लुट (या XX) जाता है.....और कईं कईं बार तो थर्ड क्लास, गंदे वातावरण में तैयार, निम्न स्तर के गुणवत्ता मापदंडों वाली कंपनियों की दवाईयां जान ले लेती हैं......क्या हुआ छत्तीसगढ़ में.......अब कोई नाम भी लेता है उस कांड का?.....कितना हो-हल्ला हुआ कुछ िदन कि दवाई में चूहे मारने वाली दवाई मिली हुई थी......जिस तरह से अनपढ़ युवक तक इस काम के लिए लगा लिये जाते हैं, कोई हैरानगी नहीं कि यह सब हादसे नियमित होते रहते हैं.......और अनेकों जानलेवा हादसे तो अखबारों की सुर्खियों बन ही नहीं पाते!


मुझे ध्यान आया कुछ दिन पहले मैं जब मैं हरियाणा में गया था तो वहां पर दीवार पर यह विज्ञापन दिख गया था कि दवाईयों की पैकिंग के लिए अनपढ़ से लेकर बी ए तक पढ़े लड़के चाहिए....यह मेरे मोबाइल में है..पहली बार देखा कि अनपढ़ लड़के भी इस काम पर लगाये जा सकते हैं..... हम हिंदोस्तानियों की ज़िंदगी सच में बड़ी सस्ती है...

आज सुबह भी मुझे हम लोगों की जान सस्ती होने की याद एक मित्र --अनूप शुक्ल की फेसबुक पोस्ट ने दिलाई थी ...जिसे मैं कॉपी कर के यहां पेस्ट कर रहा हूं....
अमेरिका में न्यूक्लियर पावर प्लांट की स्थिति:
1. अमेरिका में 100 न्यूक्लियर रिएक्टर हैं जो कि वहां की 19.40 % ऊर्जा की कमी पूरा करते हैं।
2. वहां 1974 से कोई नया प्लांट नहीं लगा।
3. न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाना और उसका रखरखाव मंहगा है।
4. बचे हुये ईंधन का सुरक्षित रखरखाव कठिन काम है।
5. जापान में हुई नाभिकीय दुर्घटना के कारण।
6. 2013 में चार पुराने रिएक्टर लाइसेंस अवधि के पहले ही स्थायी रूप से बंद कर दिये गये। ऐसा करने के पीछे ऊंची रिपेयर और रखरखाव की कीमत और गैस के दाम कम होने के कारण किया गया।
7. बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों के चलते न्यूक्लियर पावर प्लॉंट सुरक्षा की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं।
जो देश मंहगे होने और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक होने के चलते खुद अपने यहां नाभिकीय पावर प्लॉंट नहीं लगा रहा उसके साथ न्यूक्लियर पावर समझौता उल्लास का विषय है तो क्या सिर्फ़ इसलिये कि हमारे यहां लोगों की जान सस्ती है?

विविध भारती पर मोटापा कम करने की तरकीब सुनिए

पहले जो झोलाछाप डाक्टर होते थे वे लोग ही ज़्यादातर लच्छेदार भाषा वाले विज्ञापन अखबारों में या तो छपवा लिया करते थे, नहीं तो अखबार खोलते ही उन के दो तीन पेम्फलेट सब से पहले हाथ लगा करते थे।

लेकिन आज कल आप ने देखा होगा कि जैसे सारी अखबार में विशेषकर हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की अखबारों में जैसे सारे विशेषज्ञों की एक प्रदर्शनी लगी होती है। हर विज्ञापन में बीमारी की बात ही की जाती है, सेहत की बात कोई नहीं करता।

कुछ प्लास्टिक सर्जनों के विज्ञापन इस तरह के होते हैं कि उन्हें देख पढ़ कर लगता है कि क्या प्लास्टिक सर्जरी केवल इसलिए ही है कि किसी के वक्ष सुढौल बना दें, किसी के ऊपर उठा दें, किसी की योनि मार्ग टाइट कर दें, पुरूषों की छाती का फैट कम कर दें, उन के लिंग का आकार बड़ा कर दें........दो दिन पहले तो एक विज्ञापन में बड़ी सी फोटो के साथ यह भी बताया गया था कि महिलाएं प्लास्टिक सर्जरी के द्वारा अपनी ब्रेस्ट में कैसे परफैक्ट क्लिवेज प्राप्त कर सकती हैं!

इसी तरह के दर्जनों विज्ञापन देख कर जो मन में विचार आते हैं वे मैं यहां लिख नहीं सकता..एक प्लास्टिक सर्जरी की ही बात नहीं कर रहा हूं, एक तरह से बाज़ार सजा होता है कि किसी तरह कोई बीमार तो पड़े...फिर हमारा जलवा देखिए।

सोचने की बात है कि फिर आम आदमी को सेहत से संबंधित सटीक जानकारी मिले तो कैसे मिले... मैं पहले भी बहुत बार लिख चुका हूं कि वह जानकारी केवल और केवल आप को आल इंडिया रेडियो -विविध भारती या विभिन्न सरकारी टीवी चैनलों पर ही मिल सकती है......because there is no conflict of interest....ये विशेषज्ञों का चुनाव बड़ा सोच समझ कर करते हैं। लेिकन अफसोस इस बात का है कि ये सब बहुत कम लोग सुनते हैं ...खबरियां चैनलों की चटपटी चाट जैसी खबरों की लत जो लग चुकी है जनता को!...बहरहाल, अपनी अपनी पसंद है।

बचपन की रेडियों की सभी यादें इस तरह के रेडियो से जुड़ी हैं.
कल सोमवार था...विविध भारती पर मोटापा से संबंधित सेहतनामा कार्यक्रम में शाम चार से पांच बजे तक एक प्रोग्राम आया था....मैंने उसे रिकार्ड किया आप तक पहुंचाने के लिए....इस पोस्ट के नीचे उसे एम्बेड कर रहा हूं, आप सुन सकते हैं।

इस तरह के प्रोग्राम के बारे में मैं बस इतना जानता हूं कि जिस तरह से एक विशेषज्ञ अपने विषय से संबंधित जानकारी आप तक पहुंचा रहा है, वह प्रशंसनीय है।

एक बात और, जो महिला या पुरूष उस विशेषज्ञ का इंटरव्यू ले रहे होते हैं, आप को लगता है कि वे भी आप के मन की ही बातें उस से पूछ रहे हैं......इस प्रोग्राम में आप देखेंगे कि जब डाक्टर से मोटापा कम करने वाली सर्जरी में होने वाले खर्च के बारे में पूछा गया तो उस ने प्रश्न को थोड़ा इधर उधर घुमाने की कोशिश की, लेकिन इंटरव्यू लेने वाली ने भी उस का जवाब ले कर ही छोड़ा।

दो तरह के आप्रेशन होते हैं ...एक आसान सा है, दूसरा थोड़ा जटिल सा है, आसान वाले का आप्रेशन सवा लाख के करीब बताया गया है....आप को ध्यान होगा कुछ राजनीतिक बड़ी हस्तियों ने भी इस तरह के आप्रेशन कुछ अरसा पहले करवाए थे।

आप इस कार्यक्रम के दौरान सुनेंगे कि कुछ विज्ञापन भी आएंगे.....पहले इस कार्यक्रम में विज्ञापन नहीं आते थे, लेिकन उन से आप को कोई गिला-शिकवा भी नहीं होना चाहिए, सरकारी पॉलिसी है, राजस्व सरकार के पास भी तो जाना चाहिए, हमें तो इसी से इत्मीनान कर लेना चाहिए कि इतने बेहतरीन कार्यक्रम हमारे तक पहुंचाए जा रहे हैं।

एक बात वह सर्जन थोड़ी हल्की कर गया...जब उस से पूछा गया कि लोग वजन कम करने के लिए तरह तरह की दवाईयां, हर्बल चाय या अन्य कईं तरह के जुगाड़ प्रयोग करते हैं तो उसने कितनी आसानी से कह दिया कि मैं मरीज़ों को कहता हूं कि पहले आप वे सब इस्तेमाल कर के देख लें, फिर मेरे पास आइए।

यह भाषा किसी सरकारी डाक्टर की नहीं थी, क्योंकि सरकारी डाक्टर तो यह चाहेगा कि चाहे मरीज़ मोटापा कम करने वाला आप्रेशन करवाए या न करवाए, लेकिन वह किसी तरह की हर्बल जुगाड़बाजी से कहीं अपनी सेहत खराब न कर ले.......ये जुगाड़ क्या तबाही मचाते हैं, इसके लिए इस लिकं को देखिए....पतला करने वाले हर्बल जुगाड़..सावधान

आज के लिए बस इतना ही.....उस विशेषज्ञ ने सारी बातें तो बहुत काम की बताई हैं....खाने पीने की, शारीरिक श्रम की... चलिए हम पहले इन्हें ही मान लेने का संकल्प करते हैं।

रविवार, 25 जनवरी 2015

पानमसाला और तंबाकू के मिश्रण वाला एक्सपेरीमेंट

मुझे अकसर युवकों को पनवाड़ी की दुकान पर मोटरसाईकिल पर खड़े खड़े दो पाउच मुंह में उंडेलते देख कर बड़ी हैरानगी हुआ करती थी कि ये ऐसा क्यों करते हैं, बड़ा पैकेट ही क्यों नहीं ले लेते!

यह दो पाउच वाली मिस्ट्री एक बार हल हो गई थी..एक ट्रेन में यात्रा करने के दौरान मैंने देखा कि आदमी ने दो पाउच लिए, खोले, और एक पाउच का सामान दूसरे में उंडला ...पाउच को चंद सैकेंडों के लिए हिलाया..मैंने देखा कि उस मिश्रण का रंग ही बिल्कुल बदल गया था..और उसने तुरंत उसे गाल के सुपुर्द कर दिया।

जिज्ञासा तो मुझे बहुत थी इस का राज़ जानने के लिए, अगले दिन मैंने अपने सहायक से पूछा कि यह दो पाउच एक साथ मिला कर चबाने वाला क्या लफड़ा है। उसने बताया कि एक में पानमसाला या गुटखा होता है और दूसरे में तंबाकू....दोनों को मिला कर लेने का नया फेशन है !

मैंने उत्तर प्रदेश के लखनऊ के अलावा किसी और शहर को ज़्यादा नहीं जानता। लेकिन यहां दो बातें मैंने नोटिस की हैं..एक तो यहां गुटखा-पान मसाला, बीड़ी सिगरेट की दुकानें औरतें भी चलाती हैं और दूसरा यह कि यहां पर कुछ औरतें भी ये सब शौक फरमाती हैं।

आज मैंने ऐसी ही एक दुकान पर एक युवा महिला को देखा कि उसने दो पाउच खरीदे और उन दोनों को मिलाकर मिश्रण तैयार कर के मुंह में दबा कर आगे निकल गई....मैं पास ही खड़ा यह देख रहा था।

यह किसी प्रदेश के लोगों के बारे में टिप्पणी नहीं है, एक आब्ज़र्वेशन सी है ...जहां मैं पहले रहता था वहां पर बैठकों में...मेहमानों के लिए एक प्लेट में बीड़ियां डाल कर मेहमानों में घुमाई जाती थीं......और हरियाणा में महिलाएं बीड़ी की बहुत शौकीन हैं, यह तो आप जानते ही हैं! देश के कईं हिस्सों में महिलाएं तंबाकू वाले मंजनों की किस कद्र आदि हैं, यह भी हम जानते हैं......आंध्र प्रदेश के समुद्री तट वाले इलाकों में औरतें बीड़ी या छुट्टे का सुलगता हिस्सा मुंह में रखती हैं, इस कारण उन में तालू के कैंसर बहुत होते हैं.....अलग अलग जगहों की अपनी रवायतें हैं.

आज मेरे से रहा नहीं गया.....मैंने दुकानदार से वे पाउच खरीद ही लिए....पानमसाले का पाउच दो रूपये में और तंबाकू का पाउच एक रूपये में। दुकानदार ने बताया कि अब हर कंपनी का तंबाकू अलग से आने लगा है।

दोस्तो, घर आकर जो मैंने इन दो पाउचों को मिला कर प्रयोग किया उस की वीडियो आप स्वयं देखिए....आप देखिए कि किस तरह से कुछ ही लम्हों में उस मिश्रण में तंबाकू का रंग ही बदल गया......अब यह कौन सा कैमीकल रिएक्शन होता होगा मुझे इस का तो ज्ञान नहीं है ..लेकिन मुझे इतना पता है कि यह मिश्रण किसी की भी हंसती-खेलती ज़िंदगी में ज़हर घोलने के लिए काफी है।



इस तरह का मिश्रण मुहं के अंदर की मुलायम झिल्ली पर क्या असर करता है, उस का प्रमाण हमें अकसर हमारी ओपीडी में मुंह के कैंसर के रोगियों की बढ़ती संख्या में देखने को मिल जाता है। बेहद दुःखद, दुर्भाग्यपूर्ण। एक बात और है कि मैंने क्या कहना है, उस पाउच पर ही कंपनी को ही कितनी भयानक मुंह के कैंसर की तसवीर टिकानी पड़ी है। कंपनियों को इस तरह की तसवीरें कितने सरकारी दबाव में पाउच पर छपवानी पड़ती हैं, इस का आप अनुमान नहीं लगा सकते।

इस एक्सपेरीमेंट के चक्कर में मेरी तीन रूपये खराब हो गये...कोई बात नहीं, अगर यह वीडियो देख कर चंद लोगों ने भी इस खतरनाक शौक से तौबा कर ली तो मैं समझूंगा मैंने तीन रूपये खर्च कर तीन लाख वसूल लिए.......मैं इस मिश्रण को डस्टबिन में फैंकने लगा तो बेटा हंसते हुए कहने लगा कि नीचे जा कर किसी को दे ही दो...

मुझे ऐसा लग रहा है कि ये जो दो पैकेट वाला नया क्रेज है ..इस के पीछे वही गुटखे वुटखे वाला प्रतिबंध है... सुनते हैं कि मिलता तो अभी भी है ..लेकिन डबल रेट पर.....इसलिए कंपनियों ने बड़ी समझ-बूझ से पानमसाला और तंबाकू के अलग पाउच बेचना शुरू कर के इस प्रतिबंध को भी ठेंगा दिखा दिया है.....

और ऊपर से इन प्रोडक्टस के नये नये स्टाइल के विज्ञापन लोगों को भ्रमित करने में कोई कसर थोड़े ही ना छोड़ते हैं...
लेकिन एक िवज्ञापन का मुझे ध्यान आ गया...बड़ा क्रिएटिव लगा... बेटे ने मुझे सुबह वाट्सएप पर भेजा था......उस प्रोड्कट के बारे में तो मेरी कोई टिप्पणी नहीं है, लेकिन विज्ञापन बढ़िया है ... बिल्कुल अपील करने वाला, जिसे कब्ज हो, उसे तो देखते ही लगे कि उस की तकलीफ़ों को अंत करने वाला जुगाड़ आ गया!!

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शनिवार, 24 जनवरी 2015

दवाईयों पर नाम तो कम से कम हिंदी में लिखा होना ही चाहिए....

इस देश में हिंदी के बिना गुज़ारा नहीं हो सकता...
जब मैंने हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू किया तो मुझे पहले दो तीन साल तो लोगों से ये सब बातें सुननी पड़ीं कि क्या करोगे हिंदी में लिख कर, कौन पढ़ेगा...लेिकन मुझे यही लगता था कि हिंदी में सेहत संबंधी विषयों पर विश्वसनीय सामग्री नेट पर नहीं है ..जिस तरह से कोई भी इंगलिश भाषा का जानने वाला गूगल कर के तुरंत जानकारी हासिल कर लेता है

लेकिन हिंदी भाषा के जानकार के लिए यह सब आसान नहीं है, आज से सात-आठ साल पहले तो हालात और भी खराब थे...समस्या यही है कि बहुत ही कम चिकित्सक नेट पर अपने अनुभव शेयर करते हैं, और हिंदी की तो बात ही क्या करें!...विश्वस्नीय कुछ खास मिलता ही नहीं है नेट पर।

फिर मैं दो तीन साल बीच में हिंदी के साथ साथ इंगलिश में भी एक हेल्थ ब्लॉग लिखता रहा.....शायद चार सौ के करीब लेख भी हो गये.....लेकिन पता नहीं इंगलिश ब्लॉग में मन बिल्कुल भी नहीं लगा।

दरअसल हमें कईं साल यही पता लगाने में लग जाते हैं कि हम करना क्या चाहते हैं, हमारा वह काम करने का मकसद है क्या, तो मुझे पिछले कुछ सालों से अच्छे से समझ आ गया कि मैं बस हिंदी भाषा का सहारा लेकर मैडीकल साईंस से संबंधित कंटेंट नेट पर क्रिएट करना चाहता हूं......बस.......बहुत साल लग गये इस बात का पता लगने में।

कोई महान् कारण नहीं मेरा हिंदी में लिखने का...कोइ फलफसा नहीं है बिल्कुल....बस, जो कारण था और है वह आपसे मैंने ऊपर शेयर किया है।

इस देश की यह बदकिस्मती है कि यहां पर हिंदी लागू करवाने के लिए कानून बनाने पड़ते हैं और हिंदी में काम करने वालों को अभी भी आज़ादी के ६५ साल बाद भी इनाम देकर पुचकारना पड़ता है।

जैसा पहले भी बहुत बार होता है आज भी मुझे गुस्सा आ गया......जब एक ८० साल के ग्रामीण बुज़ुर्ग ने मेरे सामने एक प्लास्टिक की पन्नी से इन दवाईयों का ढेर लगा दिया कि ज़रा यह बताएं तो कौन कौन सी कितनी बार खानी है। मुझे गुस्सा बुज़ुर्ग पर तो क्या आना था, न ही किसी और पर आया.....लेकिन व्यवस्था पर ही खीझ हुई कि क्या यार, इस आदमी के लिए अंग्रेजी में नाम लिखे इन दवाई के पत्तों का क्या मतलब होगा?....काला अक्षर भैंस बराबर।

अब कोई इन्हें क्या बताए कि कौन सी कब खानी है, कितनी बार खानी है ....आप इन दवा के पत्तों को देखें तो सब कुछ एक जैसा ही नहीं लगता क्या!...... इन की पैकिंग देखिए, इन टेबलेट्स का कलर देखिए.....इन में इन की उच्च रक्त चाप की दवाईयां भी थीं, दर्द और इंफेक्शन की दवाईयां हैं.......ये अलग अलग डाक्टरों ने लिखी हैं।

इस बुजुर्ग को ही यह दिक्कत नहीं है, अधिकतर लोगों को इस तरह की दिक्कत होती है और कुछ हद तक इन सब दवाईयों का नाम केवल इंगलिश में लिखा होना इस का कारण है।

मैं नहीं कहता कि इंगलिश में नाम लिखा होने से वे आधे डाक्टर बन जाएंगे.....नहीं, कुछ नहीं, लेकिन तो कम से कम हो जाएगा कि एक हिंदी पढ़ने वाला जोड़-तोड़ कर यह तो पढ़ने की कोशिश कर लेगा कि वह जिस दवाई को खा रहा है उस का नाम क्या है।

वैसे तो मरीज़ों की समस्याएं इस देश में यहीं पर ही खत्म नहीं होती.....मानते हैं कि अनपढ़ता और सेमी-लिटरेसी भी इस के लिए जिम्मेदार हैं......लेिकन फिर भी जो काम जिस स्तर पर हो सकता है, वह तो होना ही चाहिए...पिछले वर्षों में हम ने कितना सुना कि अब दवाईयों की स्ट्रिप पर दवाई का नाम इंगलिश में भी लिखा होगा........लेकिन असल में क्या हो रहा है, क्या हम लोग जानते नहीं हैं?

चलिए मान भी लें कि किसी बुज़ुर्ग ने कैसे भी कोई जुगाड़ से दवाईयों की पहचान कर ली, और वह ठीक तरह से दवाई ले रहे हैं, लेकिन अगले महीने जब वह किसी सरकारी दवाखाने में जाते हैं तो दवाईयों के रैपर बदले हुए मिलते हैं..दवाई वही लेकिन कंपनी कोई दूसरी......अब इस में तो सरकारी ढंाचा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन कम पढ़े लिखे बंदे की इतनी सिरदर्दी हो जाती है ...मैं ये सब बातें अकसर अनुभव की हैं।

दवाईयों का हिसाब किताब रखने के लिए कुछ लोग जुगाड़ भी कर लेते हैं......पहले हमारे पास कईं ऐसे मरीज आती थीं जो बताया करती थीं कि वे एक दिन में ली जाने वाली दवाईयों की सभी खुराकों (doses) को अपने दुपट्टे के तीन-चार कोनों में अलग अलग बांध कर गांठ बांध लेती हैं।

जितनी भी बातें लपेटता रहूं .........जितनी भी लछ्छेदार बातें कोई भी कर ले, लेकिन बदकिस्मती है कि इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है.....बहुत काम ध्यान दिया जा रहा है......we are literally taking the things for granted --   कि हम ने इंगलिश में लिख दिया, फार्मासिस्ट ने इंगलिश में नाम लिखे पत्ते थमा दिए..........बाकी तो मरीज़ कर ही लेगा, हमारी छुट्टी और उस की जिम्मेदारी शुरू। नहीं, ऐसा नहीं है बिल्कुल, इस काम में मरीज़ द्वारा खूब गल्तियां होती रही हैं, हो रही हैं और बिल्कुल होती रहेंगी.. लेकिन ये गल्तियां अकसर सामने आती ही नहीं है..

जमा हुई दवाईयों की भूल-भुलैया...(इस लिंक पर क्लिक करिए)

अब आप सोच रहेंगे कि जब ये गल्तियां होती ही रहनी हैं तो मैंने इतना लंबा यह सब क्यों लिख दिया...........सुनिए, मैंने यह सब केवल इसलिए लिखा है ताकि कम से कम पॉलिसी बनाने वालों तक यह बात तो पहुंचे की दवाईयों पर िहंदी में तो नाम लिखा ही होना चाहिए.....इंगलिश में हो और अन्य भारतीय भाषाओं में भी हो, स्वागत है, लेकिन हिंदी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।





अच्छा, जाते जाते आज बसंत पंचमी की आप को बहुत बहुत बधाईयां......आज के दिन भी दवाईयों की इतनी उबाऊ और पकाऊ बातें तो कर लीं, दाल-रोटी के बारे में भी दो बातें सुन लेते हैं....

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

मज़ा तो पहले आता था फिल्म देखने का ..


आज दोपहर मैं लंच के लिए घर आया तो कॉलोनी के नोटिस बोर्ड पर इस फिल्म का पोस्टर लगा देखा...मुझे एक दम से लगा कि आज कल तो पता ही नहीं चलता कि नईं फिल्में कब आईं और कब उतर गईं।

फिल्में देखने का जो मज़ा हम लोगों ने बचपन और युवावस्था में ले लिया... वह सोच कर ही मजा आ जाता है।
पहले फिल्में देखने के लिए कितने कितने दिन पहले मंसूबे बनते थे....फिर कहीं जा कर प्रोग्राम बनता था..अधिकतर यह छुट्टी का दिन ही हुआ करता था।

कौन सी फिल्म देखनी है यह दोस्तो, पड़ोसियों और रिश्तेदारों की फीडबैक पर निर्भर किया करता था अकसर।

मुझे अच्छे से याद है मेरी मौसी जब भी कोई फिल्म देखती थी तो अपने पोस्टकार्ड में उस का छोटा मोटा रिव्यू ज़रूर लिखा करती थी..उन के रिव्यू के आधार पर हमने घरौंदा, गोलमाल और मासूम जैसी फिल्में देखीं......और फिर जब हम लोग मिला करते तो उस पर चर्चा हुआ करती।

याद आ रहा है कि मेरी बड़ी बहन मेरे चाचा के यहां छुट्टियों के दिनों में रहने गई थी..वहां से जो उनका अंतर्देशीय पत्र आया उस में लिखा था कि हम सब लोगों ने अमिताभ बच्चन की ज़मीर फिल्म देखी है, बहुत अच्छी है, आप भी देख लेना।

एक बात और...जब कोई रिश्तेदार किसी के यहां आता था तो उसे फिल्म दिखाने लेकर जाना उस की इटिनरी में शामिल हुआ करता था। इसी चक्कर में मैंने बहुत फिल्में देखीं...मेरी मौसी शादी के बाद जब हमारे यहां आई तो हम उन्हें जुगनू फिल्म दिखाने ले गये थे...आज भी अच्छे से याद है....मैं उन दिनों सात-आठ साल का था...लेकिन यही इतंज़ार रहता था कि कब कोई रिश्तेदार रहने आए और हम लोग फिल्मों के मजे लें।

बड़ी बहन शादी के बाद जब भी आती मैं भी लपक कर रिक्शे में उन के बीच बैठ जाता और इसी सिलसिले में फकीरा, मां, नूरी देख डालीं। बहुत मज़ा आता था दोस्तो। वह रोमांच ही अलग हुआ करता था।

हम देखते थे कि कोई पारिवारिक फिल्म होती थी तो मोहल्ले की पांच सात औरतें एक साथ चल पड़ती थीं...और हम बच्चों के फिर से मजे....नानक नाम जहाज है, दो कलियां आदि फिल्मे इसी क्रम में देखने को मिल गईं।

ये दीवारी पोस्टर मुझे लखनऊ में चार दिन पहले दिखे थे...
यह कैसे मैं भूल सकता हूं कि स्कूल-कालेज आते जाते शहर के मुख्य चौराहों पर फिल्मों के इश्तिहार अच्छे से देखना-पढ़ना...और समझना भी हमारे शगल में शुमार हुआ करता था..अपनी स्कूली पाठ की तरह कितने शो और किस किस समय हैं, यह सब ठीक से पढ़ लिया करते थे...और अकसर सहपाठियों से भी इस के बारे में चर्चा तो हो ही जाती थी...और अगर कोई सहपाठी फिल्म देख कर आता तो आधी छुट्टी के समय सारी स्टोरी वह हम से शेयर किया करता।

एक बात तो पक्की है कि कोई भी फिल्म देख कर उस का नशा कम से कम एक हफ्ता तो रहा ही करता था। बिल्कुल सच कह रहा हूं। और फिर जब कभी रेडियो पर देखी हुई फिल्म का गीत बज जाता तो सारी स्टोरी फ्लैशबैक की तरह मन ही मन घूम जाती।

अब क्या क्या लिखें दोस्तो.....फिल्मों की दुनिया से जुड़ी यादों पर तो किताब लिखी जा सकती है।

वह फिल्म शुरू होने से कम से कम आधा घंटा पहले पहुंच जाने का क्रेज़-- कहीं न्यूज़-रील ही न मिस हो जाए, और इंटरवल के समय भाग कर सब से पहले वाशरूम से फारिग होने की जल्दी ...ताकि बाहर से ब्रेड-पकौड़ा, तली हुई मूंगफली या फिर समोसा और फैंटा- गोल्ड-स्पाट पहले ले लिया जाए.....यार, एक भी सीन मिस नहीं होना चाहिए....और अगली कोई दो मिनट का टाइम बच गया तो हाल के बाहर लगे ट्रेलर देख देख कर ही खुश हो जाना कि अच्छा, यह सीन हो गया, यह अभी आएगा.......सच में बहुत मजे के दिन थे।

जब हम सब कज़िन इक्ट्ठे हुआ करते तो फिल्म ज़रूर देखने जाते ....एक बार तो हमारे पास पैसे सिर्फ इतने ही थे कि हम लोग दो की बजाए एक ही रिक्शा पर लद गये....वह दिन याद आता है तो हम सब बड़े हंसते हैं, उस दिन अगर उस रिक्शा वाले की जान न भी जाती तो उस का रिक्शा तो टूट ही जाता...यह अंबाला छावनी की बात है जिस दिनों अर्पण फिल्म लगी हुई थी। पता नहीं कैसे हम में से कुछ को रहम आ गया और उस टोली के दो तीन सदस्य रिक्शा के साथ हंसी ठिठोली करते पैदल ही हो लिए और साथ में रिक्शा को पीछे से धक्का लगाते रहे....और थियेटर भी झटपट आ गया था।

अब सब कुछ है, क्रेडिट कार्ड है, जेब में भी पैसे रहते हैं, लेिकन पता नहीं इन पीवीआर आदि में फिल्म देखने का मजा नहीं आता... पुराने थियेटर अलग ही माहौल बना दिया करते थे...हर कोई अंदर ही खा पी रहा है... बेचने वाले अंदर ही घूमते रहते थे.......लेकिन अब तो पीवीआर में फिल्म देखना एक आमजन के बस की बात रही भी नहीं, पहले महंगी महंगी टिकटें ...फिर तीन चार सौ रूपये के पापकार्न और कोल्ड-ड्रिंक्स.......ऐसा लगता है कि पैसा फैंक रहे हैं ।

इस के आगे क्या लिखूं...पुराने और नये की याद में हमेशा पुराने दिन ही अच्छे लगते हैं, मैं ऐसा सोचता हूं..कुछ विचार मन में आए थे आज...आप सब से शेयर कर के अच्छा लगा।

अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत दौरा....खुशामदीद...

मुझे अभी अभी याद आया कि १९७७-७८ की बात है... मोरार जी देसाई को प्रधानमंत्री बने अभी चंद ही दिन ही हुए थे...उन्हीं दिनों हमारे सैकेंड टर्म एग्ज़ाम चल रहे थे... मोरारजी देसाई के ऊपर निबंध आ गया। हमारे हिंदी के मास्साब ने हमें यह लिखवाया नहीं था...जिसे हम लोग रट कर एग्जाम में उलट कर चैन की सांस ले लेते। मुझे पांचवी छठी कक्षा से अखबार देखने की लत लग चुकी थी.. इसलिए जो कुछ पिछले दिनों में पढ़ा था, चेप दिया उन कागज़ के पन्नों पर..बहुत खुशी हुई थी उस दिन की अखबार पढ़ने से आज पांच दस नंबर का फायदा हो गया।

आज कल भी परीक्षा के दिन हैं...बोर्ड की परीक्षा की तैयारियों ज़ोरों पर हैं। मेरा बेटा भी बोर्ड की परीक्षा देने वाला है..कुछ दिन से वह अपना काफ़ी समय राष्ट्रपति ओबामा के बारे में हर छोटी बड़ी खबर पढ़ने में बिता देता है।

दो तीन दिन पहले उसने राष्ट्रपति की स्पेशल गाड़ी और मोबाइल फोन के फीचर पढ़ने समझने में इतना समय लगाया जैसे वह किसी फिजिक्स-केमिस्ट्री के अध्याय को तैयार कर रहा था। लेकिन मैंने उसे नहीं कहा कि समय बहुत बदल गया है, अब इस तरह के गैजेट्स के अद्भुत फीचरों पर तो कोई प्रश्न-पत्र फिजिक्स-परीक्षा में आने से रहा।

सभी पेपरों की भी दाद देनी पड़ेगी कि इतनी मिन्यूट डिटेलज़ उन्होंने अखबार में दे डाली। पूरे पूरे पन्ने पर ये सब खबरें।

आज भी हिन्दुस्तान देखी तो इतनी मिन्यूट डिटेल्स......मैंने सोचा चलो यार इस के नोट्स बनाए जाएं। मैं अपने स्कूल-कॉलेज में नोट्स तैयार करने के लिए बहुत मशहूर था....सोचा कि चलो आज इस विषय पर ही नोट्स तैयार कर लिए जाएं... ताकि मुझे भी लंबे अरसे तक आभास तो रहे कि इस विज़िट की तैयारियां किस स्तर तक थी!!

इस विषय पर अगर आप मेरे नोट्स देखना चाहें तो इन तस्वीरों पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं........बेटा भी कह रहा है कि अगले तीन चार दिन तो अखबार में बस ओबामा के भारत के दौरे की ही खबरें होंगी.....इसलिए इस तरह के नोट्स सोच रहा हूं अगले तीन चार दिन भी तैयार करता रहूं... काम आएंगे!!





कल नुक्कड़ पर दिखी फिर एक मशाल...

कल शाम...लखनऊ अम्बेडकर चौराहा..कानपुर रोड़
कल लखनऊ के अंबेडर चौराहे के पास एक मशाल फिर दिखी...अच्छा लगा. मशाल यह थी आम आदमी को सूचना देने वाली... बहुत सी सूचना...इस तरह की मशालें चाहे वे नुक्कड़ नाटक के रूप में हों,  इप्टा के सरोकारों के रूप में या फिर इस तरह के उद्यम से ...इन का स्वागत होना चाहिए।

शायद एक डेढ़ साल पहले की बात है ...मैंने एक दिन लखनऊ के जीपीओ के बाहर एक रिक्शे पर बैठे आदमी को देखा जो कुछ किताबें बीस बीस रूपये में बांट रहा था...साथ में कुछ लिख रहा था....और ऐसे ही लाउड-स्पीकर पर उस किताब के फायदे बता रहा था। यह रिक्शा लखनऊ में मुझे अकसर कुछ दिनों बाद कहीं न कहीं दिख ही जाता है। 

कल जब मैंने उसी तरह की प्रचार-प्रसार देखा तो मैंने जो वीडियो बनाई उसे यहां नीचे शेयर कर रहा हूं....इस में सरकारी की विभिन्न कल्याण योजनाओं, सूचना का अधिकार, प्रताड़ित महिलाओं के लिए सूचना, ड्राईविंग लाईसेंस के लिए जानकारी, राशन कार्ड---क्या क्या लिखूं जितनी सरकारी किस्म की जानकारी एक नागरिक को चाहिए होती है, वह सब उस पतली सी बुकलेट में सरल हिंदी भाषा में उपलब्ध थी। 

बेचते वक्त यह रिक्शा में बैठा शख्स इस पर कोई हेल्पलाइन नंबर भी लिख रहा था...और यह मैंने नोटिस किया...आते जाते राहगीर रूक कर पूरी तन्मयता से सब बातें सुनते हैं...कुछ किताब को खरीद भी लेते हैं। 

मैंने भी पिछले साल खरीदी थी....लेकिन वही ओव्हर-कांफिडेंस का चक्र...मेरे जैसे को लगता है कि हमें तो सब पता ही है, हम तो सब पहले ही से जानते हैं...इसलिए इस तरह की किताब खरीद तो लेते हैं, लेिकन अगले दिन उस का अता पता नहीं होता, बस घर लाकर जिज्ञासा वश किताब के पन्ने एक बार पलट ज़रूर लेते हैं लेकिन फिर कुछ पता नहीं रहता.....मैंने भी जब कल घर आकर इस किताब को ढूंढना चाहा तो कहीं ना मिली..

पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि नेट पर सब कुछ पड़ा है, वहीं से देख लेंगे लेकिन कम पढ़े लिखे और उन लोगों के लिए जिस को इंटरनेट उपलब्ध नहीं है,  इस तरह की सूचना रूपी मशाल उन के जीवन तो प्रकाशमय करती ही है, निःसंदेह...

इसे लिखते लिखते मुझे हिंदी फिल्म वेलडन अब्बा का ध्यान आ गया....किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के गांव वाले अपने गांव में कुआं खुदवा के ही दम लेते हैं......आम जन तक सूचना पहुंचने का ही सारा चक्कर है...अब वे दिन लद गये कि गुप-चुप कुछ भी किया जाए और उसे चटाई के नीचे सरका दिए जाए......अब सब कुछ हम जान सकते हैं ...बस आम जन को सवाल उठाने भर की ज़रूरत है.......

आग मेरे सीने में ना सही, 
तेरी सीने में ही सही, 
हो जहां भी आग 
लेकिन जलनी चाहिए...

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

मुंह के कैंसर के इलाज के बाद...

पिछले कुछ िदनों में मेरा कुछ ऐसे मरीज़ों से मिलना हुआ जिन के मुंह के कैंसर का इलाज हो चुका था...उन की बातें सुन कर बार बार मन में यही प्रार्थना ही करते बनी कि ईश्वर हरेक को इस तंबाकू-गुटखे-सुपारी के व्यसन से बचा कर रखना।

जिस का आप्रेशन कुछ महीने पहले हुआ है अब वह इस चिंता में डूबा हुआ था कि डाक्टर साहब, कहीं फिर से तो नहीं हो जाएगा.. मैंने कहा ...आप का इलाज देश के सब से कैंसर संस्थान से हुआ है..आप हर तीन महीने में एक बार चैक अप के लिए जा रहे हैं, चिंता मत करिए....अगर विशेषज्ञों को कुछ भी, कहीं भी गड़बड़ी लगती है तो वे तुरंत उसे संभाल लेते हैं।

इस मरीज का आप्रेशन हुआ है और साथ में इन के मुंह के कैंसर को नियंत्रण करने के लिए सिकाई (रेडियोथेरिपी) भी की गई थी। रेडियोथेरिपी जहां पर कैंसर की कोशिकाओं का विनाश करती है, वहीं पर आस पास की स्वस्थ कोशिकाओं को भी प्रभावित करती हैं...बहुत से प्रभाव होते हैं...एक की बात करते हैं... चूंकि रेडियोथेरिपी से लार की ग्रंथियां भी प्रभावित हो जाती हैं, इन में लार बनना बंद हो चुका है... जिस की वजह से इन्हें खाना खाने में बड़ी कठिनाई होती है... पहले कुछ महीने तो मीठे-नमकीन का स्वाद तक पता नहीं चलता था, अब वह स्वाद तो थोड़ा पता चलने लगा है, लेकिन लार बननी फिर से कब चालू होगी, विशेषज्ञ कहते हैं कि कुछ कह नहीं सकते ... पांच छः वर्ष भी लग सकते हैं और हो सकता है कि यह कभी फिर से संभव ही न हो पाए।

बहरहाल, हम भोजन कर पाते हैं क्योंकि हमारे मुंह में लार बनती है जिस के साथ मिक्स हो कर भोजन आगे सरकता है... लार में भोजन चबाने के भी कईं तत्व मौजूद होते हैं... इन्हें खाने में दिक्कत यह है कि ये कुछ भी सूखा तो ले ही नहीं सकते, सूखी सब्जी को भी दाल के पानी में भिगो कर..मसल कर ही लेना होता है....दाल रोटी को भी मसल कर अच्छे से दाल के पानी में भिगो कर ही लेते हैं। कोई मिर्च नहीं कोई मसाला नहीं.. बिल्कुल सादा भोजन ही लिया जा सकता है।

मुंह बार बार सूखता रहता है..जिस की वजह से बार बार पानी से मुंह गीला करना पड़ता है। मैंने कहा कि इस बार जब विशेषज्ञों के पास जाएँ तो कृत्तिम लार (Artificial saliva) के बारे में पूछ लेना कि क्या आप उसे यूज़ कर सकते हैं।
एक दूसरा मरीज़ है, उस का आप्रेशन भी हो गया है, अभी वह सिकाई करवाएगा......बोल पाने में अभी असमर्थ है, मुंह से तो वह कुछ भी नहीं ले पाता, नाक में लगी ट्यूब से लिक्विड फूड सिरिंज के द्वारा अंदर पहुंचाया जाता है....
इस मरीज के बेटे के हाथ में डाइट शीट थी ...उस में आप देखिए कि कितनी एहतियात बताई गई है...


उस शीट के नीचे... ब्लेंडराईज्‍ड सूप बनाने का तरीका भी बताया गया था..... २ मुट्ठी चावल, १ मुट्ठी मूंग, या सोयाबिन पावडर, और ५० से ६० ग्राम सब्जीयां ये सब चीजें एक बर्तन या कुक्कर में डालकर ज्यादा पकाएं। ज़रूरत हो तो पानी डालिए, फिर मिक्सर में डाल कर बारीक पीसिए, उसमें थोड़ा नमक, नींबू रस, और २ चम्मच तेल डालिए, उसे अच्छी तरह मिला कर २ या ३ बार छानकर नली से दे सकते हैं। (पाल, गाजर, लौकी मिला कर १०० ग्राम) ...

ईश्वर सब को स्वस्थ रखे और इन तंबाकू जैसे उत्पादों से दूर रखे...मरीज को तो तकलीफ है ही , साथ साथ उस के तिमारदारों की भी बड़ी परीक्षा होती है।

जो भी इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं, कृपया तंबाकू, गुटखा, बीडी सिगेरट, डली, खैनी, पान, पानमसाला ..सब तक की चीज़ों से दूर रहें और अगर इन्हें इस्तेमाल करते हैं तो अभी से थूक दीजिए। 

बुधवार, 21 जनवरी 2015

किशोर एवं किशोरियों को हर सप्ताह मिलेगी आयरन एवं फोलिक एसिड की टेबलेट


आज सुबह अखबार खोली तो यह विज्ञापन देख कर अच्छा लगा...इंगलिश और हिंदी दोनों पेपरों में इसे देखा.
उत्तर प्रदेश सरकार का विज्ञापन था जिस में उन्होंने साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम (   WIFS) के बारे में जनता को जागरूक किया था।

 WIFS का फुल फार्म तो नहीं लिखा था..लेकिन वही होगा Weekly Iron Folic Acid Supplementation Programme ....वीकली आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम।

इस में लिखा है ....

किशोर एवं किशोरियों (१०-१९ वर्ष) में एनीमिया (खून की कमी) से बचाव एवं गंभीरता में कमी लाने हेतु साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम पूरे देश में संचालित।

  • उत्तर प्रदेश में अनुमानित हर दूसरा किशोर/किशोरी एनीमिया यानि खून की कमी से पीड़ित है। 
  • किशोरावस्था में समुचित शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए संतुलित एवं पौष्टिक भोजन अत्यन्त आवश्यक होता है। 
  • एनीमिया होने से एकाग्रता में कमी, काम करने में थकान और सुस्ती रहती है और इसका प्रभाव उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता है। 
  • बचाव के लिए साप्ताहिक एवं आयरन-फोलिक की गोली तथा हर छह महीने में कीड़े की गोली WIFS कार्यक्रम के तहत विद्यालयों तथा आंगनबाड़ी केन्द्रों पर निःशुल्क दी जा रही है। 
  • माता-पिता अपनी जिम्मेदारी समझें और अपने बच्चों को यह गोली अवश्य खिलायें। 

नोट... खट्टे रसदार फल जैसे--आंवला, संतरा, मौसम्बी, नीम्बू आदि का सेवन आयरन के अवशोषण में सहायक होते हैं साथ ही ये ध्यान दें कि आयरन-फोलिक एसिड की टेबलेट का सेवन खाली पेट न करें और टेबलेट लेने के एक घंटे तक कॉफी अथवा चाय का सेवन न करें।

सप्ताह मेें एक बार भोजन के एक घंटे बाद आयरन एवं फोलिक एसिड की नीली टेबलेट का सेवन करना है। 
साल में दो बार कृमिनाशक एल्बेन्डाज़ोल की गोली का सेवन करना है। 

मुझे ध्यान में आ रहा है विभिन्न राज्यों में इस तरह की योजनाएं चल रही हैं...हरियाणा के सेहत विभाग की भी इसी तरह की एक स्कीम के बारे में मैंने एक बार पेपर में देखा था....लेकिन उसमें कुछ कहा गया था कि यह टेबलेट देने से पहले कुछ कर्मचारी बच्चों के रक्त की जांच कर के एनीमिया का पता लगाएंगे। इस के बारे में मेरे मन में कुछ शंका थी कि इतने व्यापक स्तर पर कौन करेगा यह सब टेस्टिंग.... और वैसे भी कईं बार बिना टेस्ट के क्लिनिकल निदान के आधार पर ही इस तरह के बचाव के लिए दवाईयां दे दी जाती हैं। 

अब यूपी में क्या करेंगे इस तरह की जांच के लिए... इस में कुछ वर्णन नहीं है। वैसे मुझे ध्यान आ रहा मैंने एक बार आईसीएमआर की एक रिपोर्ट के आधार पर एक लेख लिखा था...उस में भी यही बताया गया था कि क्लीनिकल जांच के आधार पर ही छोटे बच्चों को ऑयरन-फोलिक एसिड की गोलियां देनी कर देनी चाहिए...इस के बारे विस्तृत विवरण आप इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.... बच्चों में खून की कमी की तरफ ध्यान देना होगा..

कुछ िदन पहले मैंने एक रक्त रोग विशेषज्ञ द्वारा एनीमिया पर लिखी एक पुस्तक का भी वर्णन किया था... उस के कुछ अंश भी अभी आप तक पहुंचाने हैं... बस कभी कभी भूल जाता हूं, आलस्य कर देता हूं. लेकिन इस मुद्दे में सुस्ती करनी ठीक नहीं... एनीमिया की पुस्तक