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शुक्रवार, 11 मार्च 2011

अच्छा तो सेब जैसा मोटापा भी इतना बुरा नहीं है ...

उस दिन मैं एक न्यूज़-रिपोर्ट की बात कर रहा था जिस में बताया गया था कि केवल बीएमआई (बाडी मॉस इंडैक्स) ही पता कर लेना ही काफ़ी नहीं है, शरीर के किस भाग में यह फैट(चर्बी) जमा है, यह जानना ज़रूरी है। इसलिये समझा जाता रहा है कि सेब जैसा मोटापा जिस में मोटापा अधिकर पेट (abdomen) पर ही केंद्रित रहता है, यह सेहत के लिये ज़्यादा हानिकारक है।

लेकिन लगता है यह खबर अब पुरानी हो गई है...क्योंकि आज बीबीसी की एक रिपोर्ट ... Doubts emerge over heart risk to 'apple shape'.....यह खुलासा कर रही है कि ऐसा कुछ नहीं है कि सेब जैसे मोटापे के शिकार लोगों में हृदय रोग की तकलीफ़ों का ज़्यादा खतरा रहता है। और यह स्टडी लगभग दो लाख बीस हज़ार लोगों के ऊपर 10 वर्षों तक चली।

वैसे इस खबर ने सेबों (जिन में से मैं भी एक हूं)..को इतना बिंदास होने की भी कोई वजह नहीं दी है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि मोटापा अपने साथ बीमारियां ही लाता है चाहे वह किसी भी रूप में ही हो। इसलिये सेब और नाशपाती के हिसाब किताब में पड़ने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है!

और एक बात जिस पर बल दिया गया है कि ठीक है, सेब जैसे मोटे लोगों में हृदय-रोग का रिस्क दूसरे तरह के मोटापे (नाशपाती जैसा !!) के शिकार लोगों की अपेक्षा न भी बढ़े लेकिन दूसरी सब तकलीफ़ों की सुनामी जो मोटापा साथ लाता है, उन से तो कोई बचाव है नहीं।

ऐलोपैथी भी कमाल की चीज़ है –आज कुछ कल कुछ ....कभी यह बुरा, कभी वो बुरा, कभी यह अच्छा, कभी वो और अगले दिन सब कुछ बदल जाता है .... ठीक है, होता यह सारा कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों से ही है लेकिन जिंदगी में कुछ बातों के लिये यू-टर्न की सुविधा कहां रहती है !! दवाईयों के मामले में भी तो यही कुछ हो रहा है।

लोग मोटापा कम करने वाली दवाईयां, कोलेस्ट्रोल कम करने वाली कुछ नईं नईं दवाईयां, ब्लड-प्रैशर, मधुमेह (शक्कर, शूगर) कईं कईं वर्षों तक लेते रहते हैं और अचानक एक दिन अखबार में खबर दिखती है फलां फलां दवाई के फलां फलां प्रभाव अत्यंत हानिकारक होने की वजह से इस की दो गई एप्रूवल खारिज की जाती है ...चिंता मत करें ऐसी खबरें अधिकतर अमेरिकी एफडीआई( Food and Drug Administration) से ही प्राप्त होती हैं....हमारा क्या है, हमें तो सब चलता है, है कि नहीं !! अमेरिका इंग्लैंड जैसे देशों में प्रतिबंधित होने के बाद भी ये दवाई अकसर यहां धड़ल्ले से बिकती रहती हैं।

हां,तो बात हो रही थी कि मैडीकल साईंस में बदलाव तेज़ी से होते रहते हैं ...यह वास्तविकता है। साईंस को जिस बात का कल पता नहीं था आज पता चल रहा है।

ऐसे में मेरा ध्यान यकायक अपनी देसी आयुर्वैदिक पद्धति की तरफ़ जा रहा है ...सदियों सदियों से जांचा परखा ... किसी तरह के बदलाव की रती भर भी गुंजाइश ही नहीं ... ज़रूरत है तो केवल इस में पूर्ण आस्था की ... इस के सिद्धांतों के अनुसार जीवनशैली बनाए रखने की, सामान्य सी तकलीफ़ों के लिये घरेलू उपायों – घरेलू जड़ी बूटियों को काम में लाने की, सक्रिय बने रहने की, खान पान में पथ्य और अपथ्य (Do’s and Don’ts) को बिना सोच विचार किए मान लेने की (यह पद्धति ऋषियों मुनियों ने जांच परख कर ही तैयार की है) , और खुश रहने की ......ताकि सब लोग स्वस्थ जीवन जी सकें।

और फिर इस बात की फ़िक्र करने की भी बेवजह ज़रूरत नहीं कि मैं सेब जैसा हूं या नाशपाती जैसा ...क्योंकि अगर इतना सब कुछ मान लिया जायेगा तो मोटापा छू-मंतर हो जायेगा –बिना किसी दवाई के, बगैर लॉइपोसक्शन के और पेट के साइज को कम करवाने की सर्जरी के बिना ही सब कुछ फिट रहेगा।

सोच रहा हूं यह बढ़ा वजन अधिकतर पढ़े-लिखे, खाते पीते लोगों की ही समस्या है, आपने भी मेहनतकश लोग कम ही देखे होंगे जो स्थूल काया से परेशान हों, लेकिन समस्यायें तो उन्हें भी हैं, कुछ अलग तरह की ........


गुरुवार, 3 मार्च 2011

डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट में हो रही विश्व-व्यापी गड़बड़

मैं अकसर यही सोचता रहा हूं कि डायबीटीज़ की मिस-मैनेजमैंट भारत ही में हो रही है, लेकिन कुछ रिपोर्टें ऐसी देखीं कि लगा कि इस से तो अमीर देश भी खासे परेशान हैं।

भारत में बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं कि उन्हें मधुमेह है –कभी कोई चैकअप करवाया ही नहीं। पूछने पर बताते हैं कि जब हमें कोई तकलीफ़ ही नहीं तो फिर चैक-अप की क्या ज़रूरत है!

जब मैं किसी ऐसी व्यक्ति को मिलता हूं जो लंबे अरसे से डायबीटीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे रहा तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है। लेकिन अधिकतर लोग मुझे ऐसे ही मिलते हैं जिन में मधुमेह की मैनेजमेंट संतोषजनक तो क्या, चिंताजनक है।

दवाईयों का कुछ पता नहीं, कभी खरीदीं, जब लगा “ठीक हैं” तब दवाईयां छोड़ दीं, कईं कईं सालों पर शूगर का टैस्ट करवाया ही नहीं, किसी शुभचिंतक ने कभी कोई देसी पुड़िया सी दे दीं कि यह तो शूगर को जड़ से उखाड़ देगी, कभी किसी तरह की शारीरिक सामान्य जांच नहीं, वार्षिक आंखों का चैक-अप नहीं, ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन टैस्ट नियमित तो क्या कभी भी नहीं करवाया, रोग के बारे में तरह तरह की भ्रांतियां, नकली एवं घटिया किस्म की दवाईयों की समस्या, कभी ऐलोपैथी, अगले महीने होम्योपैथी, फिर आयुर्वैदिक और कुछ दिनों बाद यूनानी या फिर कुछ दिनों तक इन सब की खिचड़ी पका ली, शारीरिक श्रम न के बराबर, खाने पीने पर कोई काबू नहीं.............ऐसे में हम लोग किस तरह की डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट की बात कर सकते हैं !

डाक्टर अपनी जगह ठीक हैं, व्यवस्था ऐसी है कि किसी भी अस्पताल में मैडीकल ओपीडी देख लें...वे एक-दो मिनट से ज़्यादा किसी मरीज़ को दे नहीं पाते .... और जिन बड़े अस्पतालों में वे 15-20 मिनट एक मरीज़ को दवाईयां समझाने में, जीवनशैली में परिवर्तन की बात समझाते हैं, वे देश की 99.9प्रतिशत जनता की पहुंच से बाहर हैं।

लेकिन यह हमारी समस्या ही नहीं लगती ...एक रिपोर्ट देखिए जिस में बताया गया है कि संसार में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन को अभी पता ही नहीं है कि उन्हे शूगर रोग है और जिन का इलाज उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है, जिस की वजह से वे मधुमेह से होने वाली जटिलताओं (complications)का जल्दी ही शिकार हो जाते हैं और एक बात—कल यह भी दिखा कि किस तरह से डायबीटीज़ रोग का ओव्हर-डॉयग्नोज़िज हो रहा है।

डायबीटीज़ एक महांमारी का रूप अख्तियार कर चुकी है और एक अनुमान के अनुसार आज विश्व भर में 28 करोड़ अर्थात विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत भाग इस रोग की गिरफ्त में है।

अमेरिका में लगभग 90 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन का मधुमेह ठीक तरह से कंट्रोल नहीं हो रहा है, मैक्सिको में यह आंकड़े 99 प्रतिशत हैं ... थाईलैंड में लगभग 7 लाख लोगों पर एक सर्वे किया गया जिस का रिज़ल्ट यह था कि उन में से 62 प्रतिशत लोगों में या तो डायबीटीज़ डायग्नोज़ ही नहीं हुई और या उन में इस अवस्था का इलाज ही नहीं हुआ................यह आंकड़े केवल इसलिये कि हम थोड़ा सा यह सोच लें कि हमारे देश में इस के बारे में स्थिति कितनी दहशतनाक हो सकती है, इस का आप भलीभांति अनुमान लगा ही सकते हैं। दो दिन पहले ही कि रिपोर्ट है (लिंक नीचे दिया है) कि इंग्लैंड में लगभग एक लाख लोगों का डायबीटीज़ का डायग्नोसिस ही गलत था।

सदियों पुरानी बात है ... जिसे बाबा रामदेव हर दिन सुबह सवेरे दोहरा रहे हैं ... परहेज इलाज से बेहतर है ... लोग पता नहीं क्यों इस संयासी के पीछे हाथ धो कर पड़े हुये हैं, राजनीति के बारे में मैं कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हूं , मैं तो केवल यह जानता हूं कि विश्व में लोग इस महान संत की वजह से सुबह उठना शुरू हो गये हैं, कम से कम किसी की अच्छी बातें सुनने लगे हैं, थोड़ा बहुत अपनी खान-पान जीवनशैली को बदलने की दिशा में अग्रसर हुये हैं, थोड़ा बहुत योग करने लगे हैं, जड़ी-बूटियों की चर्चा होने लगी है......केवल यही कारण हैं कि मैं मानता हूं कि बाबा जिस तरह से विश्व की सेहत को सुधारने में जुटा हुआ है , उसे देख कर मैं यही सोचता हूं .........एक नोबेल पुरस्कार तो बनता है!!

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Diabetes out of control in many countries : study. (medline)
Review Reveals thousands wrongly diagnosed diabetics.


लगातार चलते रहने के लिये प्रेरित करता हुआ एक पुराना गीत ..


सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

आम तौर पर किसे के मोटापे के बारे में जानने के लिये बी.एम.आई इंडैक्स (BMI Index) जान लिया जाता है और उसे के मुताबिक उसे मोटापा या पतला लेबल कर दिया जाता है।

अपना बीएमआई इंडैक्स जानने के लिये यहां पर क्लिक करिये .. देखिये इस साइट पर बताया गया है कि भारतीयों का बीएमआई इंडैक्स 23 से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। सोच रहा हूं कि जो लोग यहां से बाहर जा कर बस गये हैं, वे भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि उन के लिये कोई छूट नहीं है, यह वैल्यू उन पर भी उतनी ही लागू होती है।

आखिर यह बीएमआई इंडैक्स है क्या बला ? –अगर हम लोग अपने वज़न (किलोग्राम में) को अपनी लंबाई (हाइट—मीटरों में) के स्क्वेयर से डिवाईड  कर दें तो जो वैल्यू आती है, उसे बीएमआई इंडैक्स कहते हैं।

एक उदाहरण मेरी ही –मेरी लंबाई 5फुट 10इंच अर्थात् 175 सैंटीमीटर और वज़न 91 किलो तो मैंने जब ये वैल्यू साइट पर भरे तो मेरा बीएमआई इंडैक्स 30 आया है.....औरों को नसीहत .... वही वाली बात लगती है। और यह तब है जब मैं जंक लगभग नहीं के बराबर लेता हूं, देसी-घी मक्खन आदि को कोई चक्कर ही नहीं, धूम्रपान नहीं, ड्रिंक्स नहीं.....सब से बड़ी कमी है नियमित शारीरिक सक्रिय न रखने की।

कोशिश तो रहती है कि रोज़ाना 40-50मिनट साईक्लिंग कर आऊं लेकिन कईं बार मौसम का बहाना बना कर कईं कईं दिन छुट्टी मना लिया करता हूं लेकिन अब लगता है कि इस मामले में सुधरना पड़ेगा।

चलो फिर आप भी तब तक अपना बीएमआई इंडैक्स की वेल्यु देख लें... लेकिन एक बात जो मैंने पहले भी लिखी थी वह यह कि जो मोटापा हमारे पेट के आस पास है जिसे हम लोग सेब जैसा मोटापा (मुझे यही है !) कहते हैं वह ज़्यादा खतरनाक होता है ...इस की तुलना में जो मोटापा जांघों पर एवं नितंबों पर वसा के जमा होने से होता है यह उतना नुकसानदायक नहीं होता।

यही कारण है कि किसी को केवल बीएमआई इंडैक्स के आधार पर ही किसी की मोटा या पतला होने की लेबलिंग करने में पेच है – कारण बता दिया गया है। इसलिये लाखों लोगों की कमर का माप लिया गया और यह पाया गया कि बीएमआई इंडैक्स सामान्य होते हुये भी अगर कमर का घेरा बढ़ा है तो भी गड़बड़ ही है.. वैसे माशाल्लाह अपना तो इस “कमरे”  का घेरा भी 40-41 इंच है ही। इस के बारे में अच्छी तरह से समझने के लिये आप मेरा यह लेख अवश्य देखें --- साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद।

और अब तो और भी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि किस तरह से यह मोटापा हमारी सेहत पर कहर बरपा रहा है... बीबीसी की यह हैल्थ-स्टोरी देखें ...BMI misses obesity risks. कितना साधारण या पैमाना निकाल लिया गया है कि हमारी कमर का साइज हमारी लंबाई के आधे से ज्यादा नहीं होना चाहिये – अभी भी मुझे अपनी उदाहरण ही देनी पड़ेगी क्या ? – लंबाई 175 सैंटीमीटर –इस के हिसाब से मेरी कमर का साइज 88-90 सैंटीमीटर से ज़्यादा नहीं होना चाहिये लेकिन वास्तव में यह है 40 इंच के आसपास अर्थात् 100सैंटीमीटर ---इसलिये अब मुझे चिंता होने लगी है कि ये 10सैंटीमीटर कैसे कम होंगे?  सब से ज़्यादा ज़रूरी है एक्टिविटी बढ़ाई जाए।

वैसे क्या आप को भी लगता है हम लोग वही पुराना रिकार्ड क्यों लगा देते हैं –मोटापा, मोटापे का माप-तोल, मोटापे की श्रेणीयां----- ये सब कुछ बार बार पढ़ना उबाऊ सा ही लगता होगा न.... लेकिन मैं सोचता हूं कि इस तरह के रिमांईडर बार बार दिखते रहने चाहिये ---इस से पाठकों के साथ साथ लिखने वाले को भी बहुत फ़ायदा होता है, उसे कम से कम अपने बारे में भी सोचने का अवसर तो मिलता है।

सत्संग में हम सब लोग कहीं न कहीं जाते हैं, वहां पर भी अकसर वही बातें बार बार दोहराई जाती हैं ...एक बार किसी ने ऐसी बात आगे रखी तो महांपुरूषों ने उस की शंका का समाधान यह कहते हुये किया कि ठीक है, वही बातें हैं, साधारण बातें हैं लेकिन क्या इन्हें आपने अपने जीवन में उतारना शुरू कर दिया है.... इस का जवाब हम स्वयं दे सकते हैं कि हम कितना इन सतवचनों पर पूरा उतरते हैं, इसलिये इन की नियमित पुनरावृत्ति होती ही रहनी चाहिए।

उसी प्रकार ही ये मोटापे-वापे की बातें हैं... हम जब तक ये सब बातें मानते नहीं, खान-पान में बदलाव नहीं लाते, जीवनशैली बदलते नहीं, रोज़ाना शारीरिक व्यायाम करते नहीं तब तक तो इस तरह के लेखों के रूप में बार बार रिमांइडर भेजने का सिलसिला तो मेरे ख्याल में चलता ही रहना चाहिए ....पता नहीं कब कौन सी बात निशाने पर लग जाए।

बातें तो ये छोटी छोटी हैं, लगभग हम सब को पहले ही से पता हैं, लेकिन थोड़ा बहुत असर तो होता ही है, परसों मैंने जब यह बीबीसी स्टोरी पढ़ी तो तुरंत लैपटॉप बंद कर के आईक्लिंग करने निकल गया ---हमारे यहां आसपास हरे भरे खेत हैं, अगर फिर भी मेरे जैसे लोग घर पर ही पढ़े रहें तो कोई क्या करे! लगभग तीन साल पहले मैंने जब एक ऐसा ही लेख लिखा है – धूल चाटते वाकिंग शूज़ के बारे  तो भी मैं लंबे अरसे तक नियमित टहलने निकल जाया करता था। लगता है अभी बस इसे पोस्ट करूं और इस ‘कमरे’ की सलामती के लिये बाहर निकल ही जाऊं ---- कितना सही कहा भी तो गया है ... पहला सुख निरोगी काया !!


इतनी सीरियस से बातें सुनने के बाद चलिये मन को थोड़ा हल्का करते हैं ... तेरे गिरने में भी तेरी हार नहीं कि तूं आदमी है अवतार नहीं ..... मुझे यह गीत बहुत ही पसंद है।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

एनर्जी ड्रिंक्स से बचे रहने में ही है बचाव

इस तरह की चीज़ों के बारे में हम लोगों को पता भी बच्चों से ही चलता है ..इन लोगों की स्कूल आदि में बातें चलती होंगी। एनर्जी ड्रिंक्स के बुरे प्रभाव तो समाचार पत्रों में आते ही रहते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज के युवा वर्ग को इन कोल्ड-ड्रिंक्स की लत लगा देने के बाद अब अगली बारी है इन एनर्जी ड्रिंक्स को पापुलर करने की।

कुछ दिन पहले मैं भी एक डिपार्टमैंटल स्टोर गया हुआ था ... मैंने उस से पूछा कि क्या यहां पर भी एनर्जी ड्रिंक्स मिलती हैं, तो मुझे उस शेल्फ की तरफ़ ले गया जहां पर इस तरह की ड्रिंक्स सजी हुई थीं। एक कैन की कीमत थी अस्सी रूपये और चार कैनों का एक पैक था...डिस्काउंट रेट पर।

उस के ऊपर लिखी इंफरमेशन पढ़ी .. वही सब जो मैडीकल न्यूज़ में दिख रहा था पिछले कुछ दिनों से कि ये सब ड्रिंक्स कैफ़ीन (caffeine) जैसे तत्वों से लैस होते हैं जिन से बहुत से नुकसान होते हैं ....और इन पर लिखा तो रहता है कि इन में कॉफी के एक कप चाय के बराबर कैफीन है लेकिन इस में इस से कहीं ज़्यादा मात्रा में कैफ़ीन होती है। कारण ? – इस में कंपनियों ने कईं तरह के हर्बल इनग्रिडीऐंट भी डाले होते हैं जिन की वजह से कैफ़ीन की मात्रा खूब बढ़ जाती है।

आज कल जिस तरह से ये ड्रिंक्स पापुलर हो रही हैं, इस से तो यही लगता है कि जब कोई भी वस्तु विकसित देशों से निकाले जाने के कगार पर होती है तो उसे हमारे यहां पापुलर करना शुरू कर दिया जाता है। आप इस लिंक पर जा कर इस के बारे में देखिये .... Energy drinks dangers.

कईं विकसित देशों में तो 12 से 17 साल के वर्ग के एक तिहाई युवा इस तरह की ड्रिंक्स नियमित रूप से लेने लगे हैं... और इन ड्रिंक्स के युवाओं के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों का भी उन देशों में पिछले कईं वर्षों से अध्ययन किया जा रहा है और विशेषज्ञों के अनुसार इन ड्रिंक्स की वजह से बच्चों एवं युवाओं को दौरे (seizures) पड़ सकते हैं, उन के हृदय की धड़कन में अनियमितताएं(irregular heart rhythm) आ सकती हैं, उच्च रक्तचाप(high blood pressure) हो सकता है, और यहां तक की इस रिपोर्ट में (जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है) तो यह भी कहा गया है कि इस से मौत तक हो सकती है।

सोचने की बात तो यही है कि अगर कोई खाध्य वस्तु इतने पंगे कर सकती है तो उसे ट्राई ही क्यों किया जाए। और कोई इतनी सस्ती भी नहीं है ये ड्रिंक्स। अपनी देसी पेय पदार्थों में ऐसा क्या है कि वे एनर्जी न दे सकेंगे। सभी खिलाड़ी उन देसी चीज़ों को ही इस्तेमाल कर के पले-बड़े हैं।

ध्यान आ रहा है बाबा रामदेव की दो चार दिन पहले सुनी बात का --- एक सभा को संबोधित करते हुये वे कोल्ड-ड्रिक्स की पोल खोल रहे थे कि किस तरह से ये हमें केवल नुकसान ही पहुंचाती हैं। एक खिलाड़ी का नाम लेकर बच्चों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि यह जो आप लोग विज्ञापन में उस खिलाड़ी को कोल्ड-ड्रिंक के समर्थन में बोलते सुनते हो ना, यह ड्रिंक्स ये खिलाड़ी लोग स्वयं नहीं पीते, ग्रामीण पृष्टभूमि से आने वाले ये स्टार देसी पेयों को पी-पीकर ही इतने बड़े हो गये कि इन कंपनियों की इन की नज़र पड़ सके।

सोचता हूं कि हर तरफ़ इतना गोरखधंधा चल रहा है कि मैडीकल विषयों के बारे में कंटैंट डिवेल्पमैंट का यही मतलब दिखने लगा है कि आमजन को किस तरह से नईं नईं हानिकारक वस्तुओं के बारे में लगातार जागृत रखा जाए...................मेरे विचार में तो एक बात तो है कि इस तरह की वस्तुएं बनाने वालों के पास इतना अथाह पैसा है कि वे इन की मार्केटिंग के लिये किसी भी हद तक जा सकते है।

लेकिन अगर आम आदमी ने कांटों से अपने आप को बचाना है तो सारी दुनिया पर कारपेट बिछाने की बजाए अगर अपने पैरों में ही चप्पल डाल ली जाए तो बात बन जाती है... है कि नहीं ? केवल जागरूक रहना ही एक हथियार है – यह देखना कि हम क्या खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, और इस के हमारे शरीर में क्या प्रभाव हो सकते हैं।




शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

परमानैंट मेक-अप तकलीफ़ों का पिटारा लेकर आता है

कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाना एक बात है, और अपनी जीवनशैली अथवा तंबाकू, शराब, ड्रग्स को लेकर रोगों को बुलावा देना भी समझ में आता है लेकिन इस से भी आगे की स्थिति है कि रोगों को बुलावा ही नहीं, उन्हें खींच कर, घसीट कर  तरह तरह के परमानैंट मेक-अप के द्वारा अपने अच्छे-भले स्वस्थ शरीर में प्रवेश करवा के आफ़त मोल ली जाए।

कुछ दिन पहले ही मैं बात कर रहा था –टैटू के बारे में ..किस तरह से ये तरह तरह की बीमारियां फैलाने का काम कर रहे हैं और हाल ही में जर्मनी में इस के उपयोग में लाई जाने वाली स्याही के बारे में प्रकाश में आया कि यह कैंसर तक का कारण बन सकती है।

एक आफ़त का आज और पता चला – आज से पहले मुझे इस परमानैंट मेक-अप नाम की बीमारी का नहीं पता था, अचानक आज मुझे यह समाचार दिख गया ...Tattoos as makeup? Read the fine print.  यह एक बहुत ही विश्वसनीय एवं लोकप्रिय न्यूज़-पेपर –न्यू-यार्क टाईम्स – में छपी है। मुझे कुछ कुछ आभास सा तो था कि कुछ कुछ गड़बड़ सी हो तो रही है परमानैंट मेक को लेकर लेकिन उम्मीद है कि यह न्यूज़ पढ़ने के बाद किसी की भी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी.

मुझे डर जिस बात का लगता है वह यह है कि जब किसी विकसित एवं सम्पन्न दूर देश में ये सब खतरनाक किस्म के मेकअप पनप रहे हैं तो इसे भारत में आते देर नहीं लगेगी... मैंने पहले ही कहा है कि भारत में इन के चलन के बारे में मेरा ज्ञान ऐसा ही है, इसलिए यह बड़ी बात न होगी अगर बड़े महानगरीय शहरों में इस तरह के धंधे पहले ही से न चल रहे हों।

मैं यह पढ़ कर हैरान परेशान हूं कि किस तरह से लोग आंखों के परमानैंट मेकअप के लिये आई-लाईनर की जगह टैटू ही गुदवा लेते हैं, अपनी भौहों (eye brows) को बार बार शेप देने से झंझट से छुटकारा दिलाने के लिये भी टैटू की मदद ली जा रही है, होठों तक पर यह परमानैंट मेक-अप करवा लिया जाता है।

इस तरह के प्रसाधनों (cosmetic procedures) के कितने कितने भयंकर प्रभाव हैं यह जानने के लिये आप को न्यू-यार्क टाइम्स की स्टोरी पढ़नी होगी जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है। एचआईव्ही, हैपेटाइटिस, टीबी, कैंसर, भय़ंकर एलर्जिक रिएक्शन ..... अनेकों भयंकर रोग इस तरह का काम करवाने से हो सकते हैं।

और जब इस तरह के परमानैंट मेकअप को उतरवाने की बात आती है तो और भी बड़ा पंगा ... रिपोर्ट में एक ऐसे ही विशेषज्ञ के बारे में बताया गया है जो लेज़र-ट्रीटमैंट से इन्हें उतार तो देता है लेकिन एक मरीज़ में इस तरह के मेकअप को उतारने में एक वर्ष लग गया –छः बार उसे वहां जाना पड़ा और दस हज़ार यू-एस डालर उसे फीस देनी पड़ी।

यह पोस्ट केवल इस लिये है कि अगर कभी इस तरह के मेकअप भारत में प्रवेश कर भी जाएं ---यकीन मानिए ये अवश्य आएंगे – तो हम पहले ही से स्वयं भी सचेत रहें और दूसरों को भी सचेत करते रहें ताकि गलती से भी यह गलती न हो जाए।

वैसे भी जो रियल ब्यूटी है वह कहां इन सब धकोंसलों की मोहताज है ....अगर मन अच्छा है, विचार अच्छे हैं तो वह चेहरे पर झलक ही जाती है, इसलिये बाहरी रंग रूप बिल्कुल ही बेमानी है, रियल ब्यूटी अंदरूनी है, जो बाहर परिलक्षित होती है ....एक ईमानदार मुस्कान के रूप में, सब के साथ एक जैसे मृदु-स्वभाव के रूप में, प्यार-आदर-सत्कार से सभी के साथ पेश आने से, हर किसी के मर्म को समझने से.......लेकिन यह क्या मैं तो सुबह सुबह फलसफ़ा झाड़ने लगा, इसलिये समय है कलम को यहीं विराम दे दूं।

यहां उस गीत का लिंक देना चाहता था ...कागज़ के फूल... खुशबू कहां से आयेगी... लेकिन आधा घंटा यू-ट्यूब पर ढूंढने पर भी जब वह नहीं दिखा तो बचपन में सैंकड़ों बार सुना वह गीत दिख गया ... बात वह भी यही कह रहा है ... सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से .... बात कितनी सही है...वैसे यह पुरानी फिल्म दुश्मन का गीत है .. यह फिल्म मुझे बहुत पसंद है... वह सुपर डुपर गीत भी इसी का ही है ....एक दुश्मन जो दोस्तों से भी प्यारा है... अगर अभी तो नहीं देखी, तो ज़रूर देखियेगा... मानवीय संवेदनाओं को झकझोड़ने वाली फिल्म है !



गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये ..

अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़-स्टोरी दिख गई ...Alcohol in moderation can help prevent heart disease. अब इस तरह की रिपोर्टें नियमित दिखनी शुरू हो गई हैं .. इन्हें देख-पढ़ कर मुझे बहुत चिढ़ सी होती है क्योंकि इस तरह की खबरें देख-सुन कर फिर हमें मरीज़ों की कुछ ऐसी बातों का जवाब देने के लिये खासी माथापच्ची करनी पड़ती है।

इसी तरह की ख़बरें देखने के बाद ही लोग अकसर चिकित्सकों को कहना शुरू कर देते हैं ... डाक्टर साहब, आप लोग ही तो कहते हो कि थोड़ी बहुत ड्रिंक्स दिल की सेहत के लिये अच्छी होती है, फिर पीने में बुराई कहां है?


मुझे तो ऐसा लगने लगता है कि ये जो इस तरह की ख़बरें हमें दिखती हैं न ये सब के हाथ में (महिलाओं समेत) जाम थमाने की स़ाजिश है। आज जिस तरह से मीडिया ऐसी ख़बरों को उछालता है, ऐसे में ये बातें आम आदमी से छुपी नहीं रहतीं और वह समझता है कि उसे जैसे रोज़ाना जॉम छलकाने का  एक लाइसैंस ही मिल गया हो।

आप इस तरह की रिपोर्ट ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि कितनी कम मात्रा की की बात की जा रही है...और शायद दूर-देशों में शुद्धता आदि का इतना इश्यू होता नहीं होगा।

भारत में विषम समस्याएं हैं—देसी दारू, नकली शराब, ठर्रा ...आए दिन इन से होने वाली मौतों के बारे में देखते सुनते रहते हैं, इसलिये इस तरह की खबर किसे के हाथ पड़ने का क्या अंजाम हो सकता है, वह हम समझ ही सकते हैं।

रोज़ाना हम शराब से तबाह हुई ज़िदगींयां एवं परिवार देखते रहते हैं ... घटिया किस्म की दारू और साथ में नमक या प्याज़ या फिर आम के आचार के मसाले के साथ तो दारू पी जाती है, वहां पर तो दारू के शरीर पर होने वाले प्रभाव उजागर होते कहां देर लगती है, छोटी छोटी उम्र में लोगों को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता है।

लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि अंग्रेज़ी दारू सुरक्षित है--उस के भी नुकसान तो हैं ही, और माफ़ कीजियेगा लिखने के लिये सभी तरह की दारू--देसी हो या अंग्रेज़ी --  ज़िंदगींयां तो खा ही रही  है--गरीब आदमी की देसी ठेकों के बाहर नाली के किनारे गिरे हुये और रईस लोगों की बड़े बड़े अस्पतालों के बिस्तरों पर...लिवर खराब होने पर कईं कईं वर्ष लंबा, महंगा इलाज चलता है ....लेकिन अफ़सोस... !!  और एक लिवर ही तो नहीं जो दारू से खराब होता है !!

लेकिन एक बात जो इस तरह की रिसर्च के साथ विशेष तौर पर लिखी रहती है वह प्रशंसनीय है .... इस में लिखा है कि इस रिपोर्ट का यह मतलब नहीं कि जो दारू नहीं पीते, वे इसे थोड़ा थोड़ा लेना शुरू कर दें...नहीं नहीं ऐसा नहीं है, क्योंकि रोज़ाना दारू से होने वाले दिल के रोग से जिस बचाव की बात हो रही है, वह तो रोज़ाना शारीरिक श्रम करने से और संतुलित आहार लेने से भी संभव है.

तो फिर इस तरह की रिपोर्ट की हमारे देश के लिये क्या उपयोगिता है ... इस की केवल यही उपयोगिता है कि जो लोग सभी तरह की जुगाड़बाज़ी के बावजूद भी रोज़ाना बहुत मात्रा में अल्कोहल गटक जाते हैं वे शायद इस तरह की खबर से लाभ उठा पाएं। लेकिन मुझे ऐसा कुछ खास लगता नहीं ...क्योंकि पुरानी पी हुई दारू भी तो शरीर के अंदर अपना रंग दिखा ही चुकी होगी!

लेकिन फिर भी एक शुरूआत करने में क्या बुराई है ... अगर कोई एक बोतल से एक पैग पर आ जाए तो यह एक खुशख़वार बात तो है ही ....लेकिन सोचता हूं कि क्या यह कर पाना इतना आसान है ?  नहीं न, आप को लगता है कि यह इतना आसान नहीं है तो फिर क्यों न हमेशा के लिये इस ज़हर से दूर ही रहा जाए........ हां, अगर कोई इस रिपोर्ट को पढ़ कर डेली-ड्रिंकिंग को जस्टीफाई करे तो करे, कोई फिर क्या करे  ?
इसे भी देखियेगा ...
थोड़ी थोड़ी पिया करो ? 
Alcohol in moderation 'can help prevent heart disease' (BBC Story)




रविवार, 17 अक्तूबर 2010

सुबह-सवेरे टहलने का प्रेरणादायी जज़्बा

मैं अभी अभी साइकिल पर टहल कर आ रहा हूं—जहां हम रहते हैं वहां आसपास हरे-भरे खेतों से घिरे गांव हैं। मैंने एक-डेढ़ महीने से यह रूटीन बनाई है कि दिन में लगभग एक घंटा साईकिल चला लेता हूं। अच्छा लगता है। तीन-चार किलो वजन भी कम हुआ है। लेकिन जिस बात ने आज सुबह मुझे हिला दिया और जिस ने मुझे आज तीन महीने बाद वापिस चिट्ठा लिखने के लिये विवश किया वह यह है।

मैंने आज सुबह एक बुज़ुर्ग को गांव में टहलते देखा ---इस में क्या खास बात है? लेकिन इस में खास बात यह है कि वह बंदा कोई सामान्य बंदा नहीं था --- उस की एक टांग में कुछ समस्या थी जिस की वजह से वह मुश्किल से चल पा रहा था, और दूसरे हाथ में उस ने लाठी पकड़ रखी थी लेकिन मैं जिस वजह से उसे देखता रह गया वह यह थी कि उस के यूरिन-बैग लगा हुआ था जिसे उस ने अपनी बाजू पर टांग रखा था। मैं वापिस लौटता उस बहादुर इंसान के ज़ज़्बे की मन ही मन प्रशंसा कर रहा था।

मैं उस की शारीरिक मानसिक परिस्थिति के बारे में नहीं जानता लेकिन इतना तो मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि उस की जैसी भी हालत है उसे इस टहलने का लाभ तो मिलेगा ही। और मैंने उस अनजान आदमी के स्वास्थ्य लाभ की भरपूर कामना की।

मैं लगभग तीन महीने चिट्ठाकारी से दूर रहा –कईं कारण थे, जॉब में व्यस्त था। और मुझे कुछ कुछ यह लगने लग गया था कि इंटरनेट की वजह से मुझे सिरदर्द और गरदन में दर्द होने लगा है और मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा हूं –सुबह उठते ही मैं लैपटाप के आगे सज जाता था। लेकिन अब वह आदत छूट चुकी है--- अपने आप को भी समय देना इंटरनेट से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। वैसे इस दौरान मैंने अपनी एक वेबसाइट भी लांच की है --- हैल्थ बाबा.... कभी हो सके तो देखना।

हां, तो मैं उस बुज़ुर्ग बंदे की बात जब सोच रहा था तो यही ध्यान आ रहा था कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो हृष्ट-पुष्ट होते हुये भी किसी तरह की शारीरिक कसरत से दूर भागते हैं, टहलने से कतराते हैं और अकसर इस सब के चलते हम लोग बीसियों तरह की शारीरिक एवं मानसिक विपदाओं को बुलावा दे बैठते हैं। काश, हम सब लोग समय रहते समझ जाएं और सुबह सवेरे लैपटाप की बजाए प्रकृति के साथ अपना समय बिताना शुरू कर दें ---सिर का दर्द, गरदन का दर्द अपने आप भाग जायेगा---जैसे मेरा भाग गया।

बुधवार, 16 जून 2010

आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते ?

यह तो शत-प्रतिशत सच ही है कि नमक का ज़्यादा इस्तेमाल करने से ब्लड-प्रेशर होता ही है---वही चोली दामन वाला साथ, कितनी बार हम लोग इस के बारे में बतिया चुके हैं। लेकिन फिर भी जब मैं अपने आस पास देखता हूं तो पाता हूं कि लोग इस के बारे में बिल्कुल भी सीरियस नहीं है। हां, अगर खुदा-ना-खास्ता एक बार झटका लग जाता है तो थोड़ा बहुत बात समझने में आने लगती है।
लेकिन मेरी समस्या यह है कि मैं जब भी नेट पर नमक के बारे में कोई भी गर्मागर्म खबर पढ़ता हूं तो मुझे अपने देशवासियों का ख्याल आ जाता है --- इसलिये बार बार वही घिसा पिटा रिकार्ड चलाने लग जाता हूं।
शायद ही मुझे किसी मरीज़ से यह सुनने को मिला हो कि वह नमक का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। किसी को भी पूछने पर यही जवाब मिलता है कि नहीं, नहीं, हम तो बस नार्मल ही खाते हैं। इस के बारे में हम एक बार बहुत गहराई से चर्चा कर चुके हैं कि आखिर कितना नमक हम लोगों के लिये काफ़ी है? और दूसरी बात यह कि एक बार मैंने यह भी बताने का प्रयास तो किया था कि केवल नमक ही नमकीन नहीं है।
अच्छा तो देश में यह भी बड़ा वहम है कि पाकिस्तानी नमक कम नमकीन है। नमक तो बंधुओ नमक ही है।
अच्छा तो अभी अभी मैं पढ़ रहा था कि इस नमक की वजह से अमेरिका में भी बहुत हो-हल्ला हो रहा है क्योंकि वहां लोग ज़्यादा प्रोसैसड खाध्य पदार्थ ही खाते हैं और यह तो नमक से लैस होता ही है लेकिन हमें इतना खश होने की ज़रूरत नहीं --हम लोग भी जहां हो सके नमक फैंक ही देते हैं ---लस्सी, रायता, आचार, लस्सी, गन्ने का रस, फलों के दूसरे रस (अगली बार जब जूस पीने लगें तो दुकानदार के चम्मच का साइज देखियेगा, आप को उस का हाथ रोकना चाहेंगे) .....बिस्कुट, तरह तरह के भुजिया, नमकीन, ......लिस्ट इतनी लंबी है कि एक पोस्ट भी कम पड़ेगी इसे लिखने में।
हां, तो अमेरिका में भी लोगों को नमक कम खाने की सलाह देते हुये यह कहा गया है कि वे रोज़ाना डेढ़ ग्राम से ज़्यादा नमक न लिया करें -- और जो आजकल सिफारिशें हैं उस के अनुसार सभी लोगों को चाय के एक चम्मच से ज़्यादा (जिस में लगभग दो-अढ़ाई ग्राम नमक आता है) नमक नहीं लेना चाहिये और जिन लोगों को उच्च रक्तचाप है या कोई और रिस्क है उन्हें तो डेढ़ ग्राम से ज्यादा नहीं लेना चाहिये। लेकिन अभी नई पैनल ने सिफारिश की है कि कोई भी हो, डेढ़ ग्राम से ज़्यादा बिलकुल नहीं।
आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो यही सोच रहा हूं कि अगर हम लोग बस इसी बात को ही पकड़ लें तो कितने करोड़ों लोग रोगों से बच जायेंगे, कितनों का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होने लगेगा, दवाईयां कम होने लगेंगी और शायद आप का डाक्टर आप का सामान्य रक्तचाप देखते हुये उन्हें बिल्कुल ही बंद कर दे।
लेकिन एक बात है कि इस डेंढ़ ग्राम नमक का मतलब वह नमक नहीं है जो केवल दाल-सब्जी में ही डलता है, इस में सभी अन्य तरह के नमक के इस्तेमाल सम्मिलित हैं। मेरी सलाह है हमें भी शुरूआत तो करनी ही चाहिये --कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं है, मैं भी कभी भी जूस में नमक नहीं डलवाता, दही में नमक नहीं, लेकिन रायते में बिना नमक के नहीं चलता, मैं सालाद के ऊपर नमक नहीं छिड़कता....लेकिन जब बीकानेरी भुजिया खाने लगता हूं तो यह सारा पाठ भूल जाता हूं ---इसलिये अब ध्यान ऱखूंगा।
किस्मत में क्या लिखा है, क्या जाने ---लेकिन जहां तक हो सके तो विशेषज्ञों की राय मानने में ही समझदारी है, केवल मुंह के स्वाद के लिये हम लोग किसी चक्कर में पड़ जाएं ....यह तो बात ना हुई। अमेरिका में तो होटल वालों ने भी अपने खाद्य़ पदार्थों में नमक कर दिया है।
इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि एक नमक इंस्टीच्यूट का कहना है कि नहीं, नहीं यह डेढ़ ग्राम नमक वाला फंडा ठीक नहीं है, वे कहते हैं कि सारी दुनिया में लोग तीन से पांच ग्राम नमक रोज़ाना खाते हैं क्योंकि यह उन की ज़रूरत है।
लेकिन मैं तो उस डेढ़ ग्राम नमक वाली बात की ही हिमायत करता हूं क्योंकि मैं नमक ज़्यादा खाने से होने वाले रोगों के भयंकर परिणाम देखता भी हूं, रोज़ाना सुनता भी हूं। वैसे आपने क्या फैसला किया है। लेकिन यह क्या, आप कह रहे हैं कि यार, अब शिकंजी, लस्सी भी फीकी ही पिलाओगे क्या ? ----बंधओ, इतने अच्छे बच्चे बनने की भी क्या पड़ी है, कभी कभी तो यह सब चलता ही है। वैसे शिंकजी में कभी कम नमक डाल कर देखिये।
जाते जाते यह बात लिखना चाह रहा हूं कि हम लोग गर्म देश में रहते हैं, गर्मियों में पसीना खूब आता है ---जिस से नमक भी निकलता है, इसलिये हमें गर्मी के दिनों में थोड़ी रिलैक्सेशन मिल सकती है ---लेकिन वह भी ब्लड-प्रैशर से पहले से ही जूझ रहे लोगों को तो बि्लकुल नहीं। मुद्दा केवल इतना है कि दवाईयों से भी कहीं ज़्यादा नमक की मात्रा के बारे में जागरूक रहें...............आप के स्वास्थ्य की कामना के साथ यहीं विराम लेता हूं। .

रविवार, 18 अप्रैल 2010

फिटनैस वॉकिंग ----किताब के कुछ अंश

कुछ वर्ष पहले मैंने एक किताब खरीदी थी --फिटनैस वॉकिंग। मुझे यह बहुत पसंद आई। इस में कुछ पंक्तियों को मैंने ऐसे ही सहज भाव में रेखांकित कर दिया था। आज इसे देख रहा था तो ऐसा ध्यान आया कि इस की कुछ महत्वपूर्ण बातों को ही शेयर किया जाए।

Fitness Walking -- By Les Snowdon & Maggie Humphreys.
There are some quotes written on the first page --
"The difference between a good walker and a bad one is that one walks with his heart , and the other with his feet" .........W.H.Davies.
"If one just keeps on walking everything will be all right".......Soren Kierkegaard

आदमी पिछले 30 लाख वर्षों से टहल रहा है, पैदल चल रहा है ---लेकिन उस ने दौड़ना, भागना ( जॉगिंग) तो पिछले तीस-चालीस वर्षों से ही शुरू किया है। इस से यही शिक्षा मिलती है कि टहलिये, सैर कीजिये ----यह मत सोचिये कि भागने से ही ज़्यादा फायदा होगा।

From this book ---"Man has been walking at least three million years. He has been jogging for 30. The moral is simple: you dont have to break yourself with 'no pain, no gain' jogging -walk, dont run, Fitness walking is the 'best' exercise recommended by exercise physiologists, biomedical experts, cardiologists, chest experts, obesity experts and stress experts, among others.

Walking has always been a major form of transportation for Man, but only recently have the health and mental benefits of fitness walking become apparent.

फिटनैस वॉकिंग से सारी टेंशन, तनाव दूर भाग जाता है और इस के बाद हम बहुत रिलैक्स महसूस करते हैं।
"Fitness walking is a universal stress reliever. It energises you; helps you relax; makes you feel good about yourself; helps you cope with anything that life throws at you, especially in the work place. Walk to work, or part of the way; take a fitness walking break during the day; walk at least part of the way home; or take a walk in the evening. It will help you beat depression, and it will help you sleep better. Fitness walking is the best -- and cheapest--stress manangement system around.

अकसर मेरा भी सिर भारी होता है ---तो फिर मैं भी अगर उस समय टहलने के काबिल होता हूं तो 30-40 मिनट बाहर जा कर टहल आता हूं --- बस, सिर हल्का होते ही सब अच्छा लगने लगता है।

वैसे मैं नियमित टहलता नहीं हूं ---- इस के अनगिनत फायदे जानते हुये भी बिना वजह ऐसी हिमाकत करता हूं। पिछले कुछ दिनों से मेरे बाएं घुटने में थोड़ा दर्द सा होने लगा था ---मैंने थोड़ा टहलना शूरू किया है, बहुत अच्छा लगता है।

मैं अकसर सोचता हूं कि किसी भी डाक्टर के पास जाने से पहले हमें अपनी जीवन-शैली को पटड़ी पर लाना ही होगा ---हम क्या खाते हैं, हमारी क्या आदते हैं, अल्कोहल-सिगरेट बीड़ी आदि क्या ले रहे हैं, क्या रोज़ाना तीस-चालीस मिनट टहलते भी हैं या बस एक जगह स्थूल पड़े ही रहते हैं ---- ये सब बातें ठीक ठाक करने के बाद ही उस " डाक्टर रूपी भगवान " ( ?) के पास जाना ठीक है, वरना उस का नुस्खा कितना फायदा कर पाएगा  ? हां,  एमरजैंसी के लिये तो ठीक है, जो हमें सचेत करने के लिये है कि भई, अब भी संभल जाएं वरना बाद में मत कहना कि किसी ने पहले नहीं चेताया।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

सेहत का फंडा ---भाग 2.......इन बच्चों का क्या होगा ?

निर्धन से निर्धन और रईस से रईस के बच्चों को मिल चुका हूं ---इन्हें बिस्कुट के पैकेट, चिप्स, और तरह तरह के जंक फूड के प्यार ने एकता की माला में पिरो कर रखा हुआ है।
यह भी मैंने देखा है कि कारण कोई भी हो मां बाप इस के लिये ज़्यादा टैंशन लेते नहीं हैं और मूर्खता की हद तब दिखती है जब बड़ी शेखी बघेरते हुये हम से ही यही कहते हैं कि इसे तो बस बिस्कुट ही पसंद हैं, जब भी खाता है पूरा पैकेट तुरंत खत्म कर देता है। यह क्या है ? ---- शर्तिया तौर पर मोटापा, ब्लड-प्रैशर, मधुमेह जैसी बीमारियों को आमंत्रण है और क्या है ?
एक बात और बहुत नोटिस की है कि अकसर लोग बिस्कुटों को जंक-फूड में शामिल नहीं करते, लेकिन ऐसी बात नहीं है --- दिन में एक दो बिस्कुट खाने की बात और है और पूरा पूरा पैकेट लपेट लेना कहां की अकलमंदी है ? अब अगर बच्चे पूरा पूरा पैकेट खाने लगेंगे तो खाने के लिये कहां से जगह बचेगी और हो भी यही सब कुछ ही रहा है ।
मुझे बड़ी खीझ होती है कि जब इन्हीं बच्चों के अभिभावक यही कहते हैं कि हमें तो यही लगता है कि बच्चा है ,इस के खाने के यही दिन हैं ---क्या फर्क पड़ता है। लेकिन बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि खाने पीने की सारी अच्छी बुरी आदतों की शुरूआत ही इसी उम्र में ही होती हैं।
एक समस्या और भी है कि हमारे यहां दुकानदारों ने एक अच्छा ब्रॉंड तो शायद ही रखा हो लेकिन चालू किस्म के लोकल ब्रांड के बिस्कुटों के दर्जनों ब्रांड इन के यहां मिल जायेंगे।
बिस्कुटों की इतनी खिंचाई होते देख आप को लगता होगा कि क्या डाक्टर बिस्कुट नहीं खाता होगा ? --- ऐसा नहीं है कि मैं नहीं खाता, खूब खाये हैं, पहले इतना कहां लोग सोचा करते थे --खास कर बेकरी वाले बिस्कुट मुझे बहुत ही पसंद हैं। लेकिन वैसे 40 की उम्र पार करने पर बहुत कुछ सोचना ही पड़ता है ----मैं बेकरी वाले बिस्कुट नहीं खाता ---क्योंकि तरह तरह की मिलावटों के बारे में पढ़ कर मन इतना भर चुका है कि जब इन्हें खाने की तलब लगती है तो बेकरियों द्वारा इन के बनाने में इस्तेमाल किये जाने वाले घी के बारे में सोच लेता हूं तो अपने आप तलब शांत हो जाती है ।
कुछ लोग यह भी कह देते हैं कि उस में क्या है, हम लोग अपने सामने अपने मैटीरियल से बेकरी से बिस्कुट तैयार करवा लेते हैं ----शायद यह अच्छा विकल्प है लेकिन फिर भी 35-40 से ऊपर वाली उम्र के लोग इस तरह के पदार्थ जो घी, चीनी भरे होते हैं उऩ से थोड़ा सा बच कर रहा जाये तो ठीक ही लगता है, आप क्या सोच रहे हैं ?
अब तो मैं केवल ब्रिटॉनिया मैरी जैसे एक-दो बिस्कुट ही लेता हूं और मेरे बहुत से डाक्टर मित्र भी यही लेते हैं --- यह कोई पब्लिसिटी शटंट नहीं है --- यह बिस्कुट वैसे ही बहुत हल्का फुल्का है और ब्रिटॉनिया की क्वालिटी के बारे में तो आप जानते ही हैं !!
मुझे इस बात की भी बहुत फिक्र होती है कि जब लोग यह बताते हैं कि उन के बच्चे दालों, सब्जियों से दूर भागते हैं ---- यह अपने आप में एक बहुत ही ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात है --- यह एक ऐसी बात है कि जिस के लिये इन बच्चों के मां-बाप को शोक मनाना चाहिये क्योंकि ऐसे अधिकांश केसों में ऐसा होता है कि इस तरह के बच्चे बड़े होकर भी फिर पिज़्जा, बर्गर, हॉट-डॉग, हाका-नूडल्स पर ही पलते हैं और तरह तरह की शारीरिक व्याधियों के शिकार हुये रहते हैं।
हमारे सारे स्वाद बचपन में ही डिवेल्प होते हैं ----इसलिये यह बहुत ही ज़रूरी है कि हम बच्चों में सब दालों सब्जियों को स्वाद डिवेल्प करवायें। मुझे याद है कि मैं बचपन में केवल करेला खाने में थोड़ा नाटक किया करता था ----इतना बड़ा होने के बाद भी मुझे करेला कभी भी अच्छा नहीं लगा -----कभी कभी एक-दो खा तो लेता हूं लेकिन बस मजबूरी में।
बच्चे स्कूल की कैंटीन से जंक-फूड लेकर खाते रहते हैं ----कुछ अच्छे स्कूलों में तो अब कैंटीनें होती ही नहीं हैं लेकिन बच्चों को घर से भी दिया जाने वाला खाना सेहतमंद होना चाहिये ----लंच-बाक्स में बिस्कुट, चिप्स, भुजिये का क्या काम !!
सोच रहा हूं कि सेहत के फंडे में जितनी बातें पाठकों से शेयर करूंगा वे सभी मैं अपने आप से भी करूंगा, दोहराऊंगा और इंटरोस्पैक्शन करने का अवसर भी मिलता रहेगा कि कहीं दीपक के तले ही अंधेरा तो नहीं है।

रविवार, 7 जून 2009

जय हो ! ---बाबा रामदेव जी, तुसीं बहुत ग्रेट हो !

सुबह जब मैं नेट पर बैठ कर अपना टाइम बिता रहा होता हूं तो मेरी मां अपने कमरे में बाबा रामदेव का सम्पूर्ण कार्यक्रम देख रही होती हैं। और अकसर ऐसा बहुत बार होता है कि जब बाबा की एक-दो बातें मेरे कानों में पहुंच जाती हैं तो मैं नेट पर से उठ कर टीवी के सामने बैठ कर बाबा की बहुत बढ़िया बढ़िया बातें सुननी शुरू कर देता हूं। और मैं उन की सब बातों से सहमत हूं --- सहमत क्या हूं मैं भी अपने आप को उन का भक्त ही मानने लगा हूं। लेकिन कईं बार मेरी अंग्रेज़ी अकल अपनी टांग थोड़ी अड़ानी शुरू तो करती है लेकिन फिर मैं उसे समझा देता हूं कि ये बातें कहने वाला कोई आम इंसान नहीं है ---एक ऐसा देवता है जो कि सारे विश्व को सेहत का तोहफ़ा देने ही आया है।

आज मैं बैठा बैठा यही सोच रहा था कि क्या है इस महात्मा की बातों में कि इतने लोग इन की बातों को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन को पटड़ी पर ला रहे हैं। तो मुझे जो समझ आया वह यही है कि यह संत सेहत की बात करता है जब कि आज का आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान केवल एवं केवल बीमारी की ही बात करता है। यह देवता बात करता है कि कैसे घर में ही उगे बेल-बूटों से कोई अपने जीवन में खुशहाली-हरियाली ला सकता है। लेकिन माडर्न मैडीसन कहती है कि इस बीमारी से बचना है तो यह खा, उस से बचना है तो वह खा, कोलैस्ट्रोल कम करने के लिये यह कर --------यह मेरा बहुत स्ट्रांग ओपिनियन है कि इस अल्ट्रा-मार्डन सिस्टम में पुरानी (क्रानिक) बीमारियों का एक कारोबार सा ही हो रहा दिखता है। महंगे महंगे टैस्ट, और उस से भी कहीं महंगी दवाईयां और तरह तरह के आप्रेशन। इस में कोई संदेह नहीं कि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ने डायग्नोसिस( रोगों के निदान ) के क्षेत्र में अच्छी खासी तरक्की की है, एक्यूट बीमारियों ( अल्प अवधि रोगों ) में कईं बार आधुनिक चिकित्सा प्रणाली एक वरदान सिद्ध होती है और कईं बार किसी बीमारी का इलाज केवल आप्रेशन से ही संभव होता है।

अब इस पोस्ट को पढ़ के कोई यह कहे कि यार, टैस्ट महंगे हैं, इलाज महंगे हैं तो महंगे हैं, इस से तेरा पेट क्यों दर्द हो रहा है। मेरा पेट दर्द इसलिये होता है कि यह इतना महंगा और अकसर कंफ्यूज़ कर देने वाला सिस्टम हमारे देश की ज़्यादातर गरीब जनता के लिये लगता है उपर्युक्त नहीं है। बाबा रामदेव किसी भी बीमारी की जड़ को खोद कर बाहर फैंक निकालता है जब कि आज का आधुनिक सिस्टम अकसर लक्षण दबाने में ही लगा हुआ है। बाबा हॉलिस्टिक हैल्थ की ही बात करते हैं जब कि आज का अत्याधुनिक सिस्टम शरीर को अनगिनत हिस्सों में बांट कर उस को दुरूस्त करने की बातें करता है। सोचता हूं कि ऐसे में शरीर की विभिन्न प्रणालीयों का समन्व्य केवल सांकेतिक ही तो नहीं हो कर रह गया।

अगर यह सच नहीं है तो फिर क्यों लोगों का ब्लड-प्रैशर (उच्च रक्तचाप ) कंट्रोल क्यों नहीं हो रहा, क्यों लोग मधुमेह ( डायबिटीज़) की जटिलताओं से परेशान हैं। कारण वही जो मैं समझ पाया हूं कि लोग अपनी जीवन-शैली बदलने की बजाये एक टेबलेट पर ज़्य़ादा भरोसा करने लग पड़े हैं। लेकिन बाबा उन को जीवनशैली बदलने की प्रेरणा देता है जिस से उन के शरीर के सैल्युलर लेवल पर पाज़िटिव चेंज आ जाते हैं।

मैं तो भई बाबा की बातों का इतना कायल हूं कि अकसर सोचता हूं कि इस जैसे देव-पुरूष को संसार की किसी शीर्ष स्वास्थ्य संस्था जैसे की विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुखिया होना चाहिये --- क्योंकि सारी दुनिया को सेहत का उपहार देना केवल इस तरह के स्वामी के ही बश की बात है।

बाबा की बातों में इतनी कशिश है कि जब से टीवी पर बात कर रहे होते हैं तो बीच में उठने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती। सब कुछ अकसर वे अपनी बातों में कवर कर रहे होते हैं। मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि ये रोज़ाना इतनी बातें खुले दिल से सारे संसार के साथ साझा कर रहे होते हैं कि अगर कोई व्यक्ति उन की रोज़ाना एक बात भी पकड़ ले तो जीवन में बहार आ जाये।

अब हर जगह हम किसी भी बात का प्रूफ़ नहीं मांग सकते --- स्वामी रामदेव जी जैसे लोग प्रकृति के साथ बिल्कुल रल-मिल कर रह रहे हैं ---इसलिये प्रकृति भी ऐसे लोगों से फिर कुछ भी छिपा कर नहीं रखती। अब मेरी मां मुझे अकसर कहा करती हैं कि रात को दही मत खाया करो क्योंकि बाबा रामदेव बार-बार इस के बारे में कहते हैं। अब अगर मैं अपनी अंग्रेज़ी अकल को इस में भी घुसा दूंगा तो फिर मैं यही कहूंगा कि इस से क्या होगा, हमारी किताबों में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा। लेकिन जैसा कि मैंने समझा है कि हर बात में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाईश होती कहां है, कुछ बातें जब संत-महात्माओं के मुख से निकलती हैं तो उन्हें ब्रह्म-वाक्य जान कर मान लेने में ही बेहतरी होती है। जी हां, मैंने रात को दही खाना पिछले कुछ महीनों से छोड़ रखा है।

आज भी बाबा सुबह बता रहे थे कि खाने-पीने की जितनी मिलावट यहां होती है वह शायद ही किसी दूसरी जगह होती हो। मुझे पूरा विश्वास सा होने लगा है कि जैसे हमारे आयुर्वेद डाक्टर कहते हैं कि खाने-पीने की वस्तुओ का सेवन अपने शरीर की प्रवृत्ति के अनुसार ही किया जाये --- ऐसा है ना कि अकसर हमें कईं खाध्य पदार्थ सूट नहीं करते और हम उन्हें खा कर बीमार सा हो जाते हैं ---कोई कोई दाल ऐसी है जो रात में हज़्म नहीं होती हैं लेकिन इस के बारे में मेरे ख्याल में आज का सिस्टम कम ही कुछ कहता है जब कि आयुर्वैदिक प्रणाली में इन सब के बारे में खूब चर्चा होती है।

हां, एक ध्यान आ रहा है कि यह जो हम लोग ई.टी.जी( इलैक्ट्रोत्रिदोषोग्राम) के बारे में इतना सुनते हैं इस के बारे में भी हमें जानकारी हासिल करने की ज़रूरत है। इस के बारे में मेरे मन में भी बहुत से प्रश्न हैं ---लेकिन मैंने शायद अभी तक इस के बारे में कभी गंभीरता से जानने की ही कोशिश ही नहीं की। लेकिन सोचता हूं अब मैं इस के बारे में जान ही लूं।

आज कितने ही लोग प्राणायाम् एवं प्राकृतिक जीवन-शैली की ओर प्रेरित हो रहे हैं-- इस सब का श्रेय परमश्र्देय़ बाबा को ही जाता है ---कितने उत्साह से वह अपना काम कर रहे हैं यह देख कर मैं अकसर दंग रह जाता हूं। निःसंदेह वह आज के मानव को एक संपूर्ण इंसान बना रहे हैं।

बस,आज बाबा रामदेव स्पैशल इस पोस्ट पर इतना ही लिख कर विराम ले रहा हूं।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

स्कूल में मूंगफली खाने पर प्रतिबंध कितना उचित ?

सोचने की बात है कि ब्रिटेन में अगर स्कूल में मूंगफली खाने पर भी बैन लग जायेगा तो देर-सवेर उस का प्रभाव कहीं हमारे स्कूलों में भी तो नहीं देखने को मिलेगा ---क्योंकि हम लोग अकसर उन देशों की नकल करने में कभी भी पीछे रहते नहीं हैं।

हम लोग तो अकसर मूंगफली को गरीब के बादाम के नाम से जानते हैं – और यह प्रोटीन प्राप्त करने का एक बहुत उम्दा स्रोत है और लगभग 25-30 प्रतिशत प्रोटीन होता है मूंगफली में। और हमारे देश में तो धूप में बैठ कर इस का सेवन करने से तो मज़ा ही बहुत आता है। स्कूल क्या , यहां तो सर्दी की रुत में बस जहां देखो मूंगफली खाते लोग मिलते हैं --- पार्क में, गाड़ी में, सिनेमा में .....।

ब्रिटिश मैडीकल जर्नल के 12 दिसंबर के संस्करण में स्कूलों द्वारा अपने स्कूलों को मूंगफली रहित घोषित किये जाने के निर्णय की चर्चा की है। हुआ यह है कि मूंगफली एवं अन्य खाद्य पदार्थों से होने वाले एलर्जी के केस बढ़ रहे हैं , इसलिये स्कलों ने मूंगफली को बैन करने का ही निर्णय कर डाला है।

लेकिन विशेषज्ञों ने इस मुद्दे को उठाया है कि इस तरह से नट्स पर बैन लगाने से तो एक हिस्टीरिया सा ही पैदा हो जायेगा और जो बच्चे नान-एलर्जिक हैं उन का तो नट्स से एक्पोज़र ही नहीं हो पायेगा- हारवर्ड मैडीकल स्कूल के प्रोफैसर क्रिसटैकिस ने कहा है कि जो बच्चे छोटी उम्र में मूंगफली खाना शुरू कर देते हैं उन में पी-नट्स ( मूंगफली) से होने वाली एलर्जी के केस कम होते हैं।

इस तरह का जो हिस्टीरिया पैदा किया जा रहा है उस का एक उदाहरण देते हुये प्रोफैसर ने कहा है कि इस का आलम यह है कि 10 साल के बच्चों से भरी एक बस में जब मूंगफली का एक दाना नज़र आ गया तो सारी बस ही खाली कर दी गई।

अमेरिका में 33 लाख लोगों को नट्स से एलर्जी है – लेकिन फिर भी इन की वजह से किसी सीरियस रिएक्शन होने का अंदेशा बहुत कम है।

आप इन आंकड़ों से ज़्यादा परेशान न होइये, क्योंकि हमारे यहां यह समस्या लगती नहीं है और अगर है भी तो हम इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं देते, हमारे पहले ही से इतने ज़्यादा सेहत से संबंधित मुद्दे हैं कि इस मूंगफली वगैरह के बारे में कौन ज़्यादा सोच कर अपना समय खाली-पीली बर्बाद करे। वैसे भी हम लोगों ने कभी इस तरह की मूंगफली की एलर्जी से होने वाले केसों में बारे में सुना नहीं है ----या यूं कहें कि हमारे यहां पर न तो इस के बारे में अवेयरनैस ही है और न ही इस तरह की डॉयग्नोसिस के कोई साधन ही ज़्यादा प्रचलित हैं।

वैसे भी मुझे नहीं लगता है कि हम लोग किसी को मूंगफली खाने से मना करें और वे इसे खाना बंद कर दें ---- और सोचने की बात है कि आखिर हम लोग ऐसा करने को किसी को कहें ही क्यों, इस देश में बच्चों और बड़ों के लिये प्रोटीन पाने का एक बहुत ही बढ़िया स्रोत है यह मूंगफली ।

स्कूलों द्वारा मूंगफली बैन किये जाने की बात तो हो गई। कईं स्कूलों में तो जंक-फूड को भी बैन किया जा चुका है। अगर हमें किसी तरह की नकल ही करनी है तो यही करनी होगी कि देश के सारे स्कूलों में जंक-फूड पर पूरी तरह से बैन कर दिया जाये।

स्कूलों में उपलब्ध जंक-फूड( बर्गर, हाट-डाग, पेटीज़, समोसे, ब्रैड-पकोड़े, चिप्स, भुजिया, बिस्कुट, चामीन......ये सब जंक-फूड ही तो हैं ) .... बिस्कुट भी अगर एक-दो दूध चाय के साथ खा लिये जायें तो अलग बात है लेकिन अगर खाने की जगह पर पूरे पूरे पैकेट ही खाने का चलन है तो यह बेहद खतरनाक आदत है ---सेहत खराब करने का श्यूर-शॉट फार्मूला।

हर देश की अपनी राष्ट्रीय समस्यायें होती हैं ---मेरे विचार में इस देश की एक बहुत बड़ी विकट समस्या है कि यहां पर स्कूल-कालेज के बच्चे स्कूल में टिफिन ले जाना अपना अपमान समझने लगे हैं और कुछ हद तक जाने-अनजाने में इस को मां-बाप की स्वीकृति भी प्राप्त हो चली है। किसी पेरेन्ट को यह पूछो कि क्या बच्चा स्कूल या कालेज में खाना लेकर जाता है तो यही जवाब मिलता है कि आजकल बच्चे कहां खाना वाना लेकर जाते हैं ,वहां पर कैंटीन में ही कुछ खा लेते हैं , सब कुछ मिलता है।

ठीक है, सब कुछ मिलता तो है, लेकिन सब जंक ही मिलता है, फूड-हाइजीन का कोई ध्यान रखा नहीं जाता और नतीजा यह निकलता है कि इन बच्चों को भविष्य में होने वाली बीमारियों की नींव पड़नी शुरू हो जाती है। सुबह बच्चे जल्द बाजी में नाश्ता करते नहीं है, और स्कूल में लंच ले कर जाने से उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती है, और शाम तक भूखे-प्यासे क्लास में बैठे रहते हैं ----इस हालत में इन की क्या कंसैंट्रेशन बनती होगी !!
और जंक-फूड थोड़ा खा भी लिया तो उस से किसी तरह की एनर्जी मिलने के स्थान पर एनर्जी का ह्रास ही होता है और इस परिस्थिति में ढंग से पढ़ाई में मन लगाना बेहद मुश्किल काम होता है। मैं उस से बड़ा मूर्ख किसी को नहीं समझता जो स्कूल-कालेज में टिफिन नहीं ले कर जाता --- और जो मां-बाप भी इस में बच्चों का साथ देते हैं मुझे उन से भी बेहद शिकायत है ---क्योंकि आप भी अपने बच्चों की सेहत बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं ----वैसे तो मैं भी इस में शामिल हूं ---- क्योंकि मेरा कालिजेएट बेटा भी टिफिन लेकर जाना अपनी सब से बड़ी बेइज्जती समझता है ----और मैं इस के बारे में कुछ कर नहीं पा रहा हूं ---बस, इतना इत्मीनान है कि डाक्टर मां-बाप होने की वजह से जंक-फूड के बारे में उस की इतनी ज़्यादा ब्रेन-वाशिंग हो चुकी है कि कालेज में जंक-फूड खाता नहीं है। लेकिन सोचता हूं कि यह भी कैसा इत्मीनान है --- सुबह नाश्ते करने के बाद शाम के पांच बजे तक भूखा रह कर वह अपनी सेहत ही बिगाड़ रहा है, लेकिन क्या करें ---- सब कुछ अपने हाथ में कहां होता है ? –जो देश के अन्य करोड़ों युवाओं का होगा, वह उस का भी हो जायेगा, और क्या !!

स्कूल ही क्यों, किसी भी कार्यालय में चले जायें -----किसी भी समय पर चाय के साथ जो जो खाद्य़ पदार्थ वहां पर उपलब्ध रहते हैं --- उन की लिस्ट सुनिये ----बर्फी, बेसन की बर्फी, समोसे, ब्रेड-पकोड़े, चामीन, पकौड़े( भजिया), रसगुल्ले, गुलाब-जामुन – ऐसा नहीं लगता कि वे किसी कार्य-स्थल पर नहीं वरना किसी बारात में आये हुये हैं -----वहां पर मिलने वाला सब कुछ शरीर को बीमार करने वाला ही है, लेकिन सुनता कौन है , इस का यह मतलब भी तो नहीं कि मैं चिल्लाना बंद कर दूं ----मुझे अपना काम तो करना ही है !!

और हां, मूंगफली वाली बात को एक कान से अगर अंदर डाल भी लिया है तो दूसरे से तुरंत निकाल बाहर करें -----धूप निकल आई है और मूंगफली लेकर कर बाहर बैठ जायें -----सारी बातें औरों की मान लेनी कहां की अकलमंदी है !! अगर बैन ही करना है तो स्कूलों से जंक फूड का खात्मा करें ----ताकि सब विद्यार्थी घर का खाना लाने के लिये मजबूर हो जायें ---फिर किसी को किसी तरह की बेइज़्जती महसूस भी न होगी।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद ....

यूरोप में साढ़े तीन लाख लोगों पर एक स्टडी की गई है जिस से पता चला है कि अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मॉस इंडैक्स ( body mass index) नार्मल रेंज में भी हो लेकिन उस की कमर का साईज बड़ा है तो भी उस का समय से पहले ही इस दुनिया से विदा लेने का रिस्क दोगुना हो जाता है। यह अध्ययन अमेरिकी मैगज़ीन न्यू इंगलैड जर्नल ऑफ मैडीसन में प्रकाशित हुआ है।

इस अध्ययन में इसी बात को रेखांकित किया गया है कि जिन लोगों का वज़न तो वैसे ज़्यादा है ( not overweight) और ही वे मोटापे (obesity) से ग्रस्त हैं, अगर इन में भी कमर के इर्द-गिर्द ज़्यादा चर्बी डेरा जमाये हुये है तो यह भी इन की सेहत के लिये एक अच्छा खास खतरा है। इस अध्ययन के शोधकर्त्ताओं ने यह सिफारिश की है कि लोगों का सामान्य चैक-अप करते समय डाक्टरों को उन का बॉडी मॉस इंडैक्स पता करने के साथ साथ उन की कमर एवं हिप्स का भी माप लेना चाहिये।

बहुत ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब एक जैसे बॉडी मॉस इंडैक्स वाले लोगों की तुलना की गई तो पाया गया कि जैसे ही उन के कमर का घेरा बढ़ा, उन का समय से पहले इस जहां से उठने का रिस्क भी काफ़ी बढ़ गया। अध्ययन में बताया गया है कि छोटी कमर ( 80सैटीमीटर से कम पुरूषों में और 65 सैंटीमीटर से कम महिलाओं में) वाले लोगों की तुलना में बड़ी कमर ( 120 सैंटीमीटर से ज़्यादा पुरूषों में और 100 सैटीमीटर से ज़्यादा स्त्रीयों में) वालों में प्री-मैच्योर संसार से अलविदे करने का रिस्क दोगुना हो जाता है। बॉडी मॉस इंडैक्स से आम तौर पर हम लोग यह देखते हैं कि क्या आदमी का वज़न नार्मल है।

अध्ययन के अनुसार कमर के घेरे में प्रत्येक 5 सैंटीमीटर का बढ़ोत्तरी मृत्यु के रिस्क को पुरूषों में 17 फीसदी और महिलाओं में 13 फीसदी बढ़ा देती है।

और मृत्यु के इस बढ़े हुये रिस्क की वजह यह बताई जा रही है कि इस कमर के इर्द-गिर्द जमा हुई पड़ी चर्बी कुछ इस तरह के साइटोकाइन्स, हारमोन्स एवं मैटाबॉलिक तौर पर सक्रिय पदार्थ उत्पन्न करती है जिन की क्रॉनिक बीमारियां पैदा करने में बहुत भूमिका है और इन बीमारियों में खास कर हार्ट से संबंधित बीमारियां एवं कैंसर जैसे रोग विशेष रूप से शामिल हैं।

स्टडी का विशेष निष्कर्ष यह भी निकलता है कि किसी बंदे में प्री-मैच्योर मृत्यु के रिस्क को बढ़े हुये वजन के साथ साथ यह बात भी बेहद प्रभावित करती है कि आखिर यह चर्बी जमा शरीर के किस भाग में है।

सुबह सुबह मैं भी कितना फीका सा टॉपिक पकड़ कर बैठ गया ---आप तो बस फिक्र-नॉट की एक टैबलेट ले लें और इस के लिये ठीक इसी वक्त ब्लागिंग को केवल आधे घंटे के लिये विराम देते हुये अपने वाकिंग-शूज़ पहन कर टहलने निकल पड़िये । बाहर मौसम बहुत अच्छा है.....तो अभी भी आप कुछ सोच रहे हैं .......प्लीज़ उठिये और घर के बाहर आइए -----देखिये, मैं भी उठ रहा हूं !!

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

कब्ज़ के इलाज के लिये क्यों न लें जुलाब !!


कब्ज़ का इलाज जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि कब्ज़ है क्या। यदि मल बहुत सख्त आए तो उसे कब्ज़ समझना चाहिए। यदि मल रोज न आए, परन्तु जब आए तो बहुत सख्त न हो तो उसे कब्ज़ नहीं कहेंगे। सख्त स्टूल यदि रोज आए तो फिर भी कब्ज़ समझकर उसका इलाज करना चाहिए।

सख्त मल को बाहर करने के लिये जोर लगाना पड़ता है, और उससे कई प्रकार की हानि हो सकती है। मल को नर्म करने के लिये आवश्यक है कि उस में पानी अधिक हो। मल में पानी अधिक तभी बचेगा यदि पानी का चूस लेने के लिये कुछ तत्व मल में हों। ऐसे तत्व भोजन के अपाच्य तत्व हैं, जो साबुत अनाज तथा दालों, और फल व सब्जियों में पाए जाते हैं। अपाच्य का अर्थ है कि वे छोटी आंत में पचते नहीं, और बिना हज़म हुए बिना बड़ी आंत में पहुंच जाते हैं। पानी चूस लेने के कारण वे बड़ी आंत में मल का आयतन बढ़ा देते हैं, और उसे नर्म कर देते हैं।

इसलिए यदि कब्ज़ हो तो
- हमें साबुत अनाज का प्रयोग करना चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो कम से कम छिलका हटाना चाहिए। अर्थात् हमारा आटा मोटा होना चाहिए, और उसे जाली में छानकर चोकर को फैंकना नहीं चाहिए। मैदे का प्रयोग कम से कम करना चाहिए।

-साबुत दालों का प्रयोग करना चाहिए। धुली हुई दालों में छिलका निकल जाने के कारण अपाच्य तत्व कम होते हैं।
हरी सब्जियों और फलों का अधिक प्रयोग करना चाहिए।

-जल अधिक पीना चाहिए ताकि अपाच्य तत्व काफी जल चूस सकें।

यदि फिर भी कब्ज ठीक न हो तो दिन में एक बार, एक या दो चम्मच ईसबगोल की भूसी को दूध या पानी में भिगो कर लेना चाहिए। ईसबगोल की भूसी एक बीज का ही छिलका है जिसमें पानी चूसने वाले अपाच्य तत्व बहुत मात्रा में होते हैं। इसलिए यह उतना ही प्राकृतिक तरीका है जितना साबुत दालें या फल व सब्जियां लेना है। इसे जुलाब नहीं समझना चाहिए। आहार में परिवर्तन के साथ साथ यदि थोड़ा व्यायाम भी कर लिया जाए तो कब्ज़ को लाभ होता है।

यह तो हुई करने वाली बातें। एक महत्वपूर्ण बात जो नहीं करनी चाहिए, वह यह है कि कब्ज़ के इलाज के लिए जुलाब नहीं लेने चाहिए।इसका कारण यह है कि जुलाब हमारी बड़ी आंत को इतना खाली कर देते हैं कि उसे भरने के लिए 2-3 दिन की आवश्यकता होती है। यदि कोई इतना समय धैर्य से प्रतीक्षा नहीं कर सकेगा तो वह फिर से जुलाब ले लेगा। जुलाब लेने से आंत फिर से खाली हो जाएगी, और इस प्रकार जुलाब लेने का सिलसिला चलता ही रहेगा।
तो आइए, बाईं तरफ  दी गई चार तस्वीरों को देखते हैं और इस जुलाब न लेने के फंडे को समझने की कोशिश करते हैं। जब हम शौचालय जाते हैं तो बड़ी आंत का केवल थोड़ा सा ही भाग खाली होता है (1) खाली भाग को भरने के लिए प्रायः एक-दो दिन लग जाते हैं।
जुलाब से बड़ी आंत बहुत अधिक खाली हो जाती है (2)
फलस्वरूप अगले दिन (3) या उस से भी अगले दिन (4) बड़ी आंत इतनी भरी नहीं होती कि शौचालय जाने की इच्छा हो। ऐसी अवस्था में आवश्यकता है धैर्य की। यदि एक दिन और ठहर जायेंगे तो अपने आप ही बड़ी आंत इतनी भर जाएगी कि शौचालय जाने की इच्छा होगी।

शनिवार, 5 जनवरी 2008

धूल चाट रहे वाकिंग शूज़ को साफ़ करने के इलावा कोई चारा है ही नहीं....

अमेरिकन जर्नल आफ कारडीयोलाजी में छपे एक लेख के अनुसार धूल चाट रहे वाकिंग शूज़ को साफ़ करने के इलावा कोई चारा है ही नहीं....अगर हम सप्ताह में छः दिन रोज़ाना आधे घंटे तक तेज़-तेज़ सैर करते हैं तो इस से हम कमर से कमरा बन रही अपनी कमर को कम तो कर ही सकते हैं, इस के साथ ही साथ मोटापे एवं स्थूल जीवण-शैली( सिडेंटरी लाइफ-स्टाइल) के कारण होने वाले मैटाबालिक सिंड्रोम के रिस्क को भी कम करने में मदद मिलती है।

डयूक यूनिवर्सिटी मैडीकल सेंटर के इस अध्ययन में तो वैज्ञानिकों ने यहां तक देखा है कि अगर खाने-पीने की आदतों में कोई बदलाव न भी किया जाए तो भी तेज़-2 सैर करने से होने वाले लाभ तो हमें प्राप्त होते ही हैं। लेकिन, प्लीज़, मेरी बात मानिए तो इस खाने पीने की आदतों में कोई बदलाव न करने की आदत को आप इतना सीरियस्ली न ही लें--- जैसा हम लोगों का खान-पान है न, हमें तो वैसे ही बहुत ही ख्याल रखना होगा, दोस्तो।

दोस्तो, अमेरिका की लगभग एक चौथाई जनसंख्या इस मैटाबालिक सिंड्रोम से जूझ रही है। मैटाबालिक सिंड्रोम क्या है ?- दोस्तो, आप इतना जान लीजिए कि यह मैटाबालिक सिंड्रोम कई तरह के रिस्क फैक्टरों (risk factors) का एक समूह है जिस की वजह से हृदय रोग, डायबिटीज़ एवं स्ट्रोक होने की आशंका ज्यादा ही हो जाती है।

तो, चलिए, इन रिस्क फैक्टर्ज़ की ही कुछ बात कर लें ---अगर किसी व्यक्ति में नीचे लिखे पांच रिस्क फैक्टर्ज़ में से कम से कम तीन फैक्टर्ज़ हैं तो समझ लीजिए उसे मैटाबालिक सिंड्रोम है—
· बड़ी हुई कमर (large waistline)
· हाई-ब्लड प्रेशर
· नुकसान दायक ट्राईग्लिसरायड्स का बढ़ा हुया होना (high levels of harmful triglycerides)
· अच्छे ट्राइग्लिसरायड्स का स्तर कम होना (low levels of good cholesterol)
· हाई- ब्लड-शुगर
दोस्तो, अगर आप इन नुकसानदायक और फायदेमंद ट्राइग्लिसरायड्स की बात कुछ कुछ नहीं समझ पा रहे हैं तो कोई बात नहीं---बस इतना ही समझना काफी है कि जब हम अपने रक्त की जांच (लिपिड प्रोफाइल) करवाते हैं न, तो यह सारे स्तर हमें पता लग जाते हैं। दूसरा, यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि तेज़ तेज़ सैर करने से हमारे शरीर में ये नुकसान दायक तत्व कम होने लगते हैं और फायदेमंद ट्राइग्लिसरायड्स का स्तर बढ़ने लगता है जिस से रक्त की नाड़ियों में अवरोध पैदा होने की संभावना घटने लगती है।
अमेरिकी जर्नल आफ कार्डिलाजी के अनुसार बिल्कुल ही शारीरिक व्यायाम न करने से कुछ व्यायाम करना तो बेहतर है ही, और ज्यादा शारीरिक परिश्रम करना कम परिश्रम करने से तो निःसंदेह अच्छा है ही, लेकिन बिल्कुल शारीरिक व्यायाम करना तो भाई बेहद खतरनाक है।–क्या यही बात हम सैंकड़ों वर्षों से नहीं जानते ?
क्या हुया, आप तो डर से गए ?--- नहीं,नहीं, ऐसी डरने वाली कोई बात भी नहीं है, बस आज ही रैक पर पड़े अपने सैर करने वाले शूज़ की धूल साफ कर ही दीजिए। चलिए, मैं भी आज से यही प्रण करता हूं कि प्रवचनों पर खुद भी चल कर दिखाऊंगा...................
बेटा, ज़रा मेरे काले कैनव्स शूज़ देना !
तो, दोस्तो, आप भी उठिए, टहलते हुए किसी पार्क में मिलते हैं।....................
Good morning, India !!!!!
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रविवार, 23 दिसंबर 2007

जीवन चलने का नाम-----चलते रहो सुबह शाम !

दशकों पुराना यह एक अपने समय का बेहद पापुलर गीत तो हमें अच्छा-खासा याद है, पर हम उस की स्पिरिट कहीं भूल तो नहीं--- सब से पहले तो मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि इस हम में मैं भी पूरी तरह शामिल हूं। तो चलिए, उस फिल्म में कईं दिन तक लगातार साइकल चला रहे हीरो की बात को अगर हम ने नज़रअंदाज़ कर भी दिया है तो अब अंग्रेजों की ही सुन लें। वैसे भी कहा गया है न हम हिंदोस्तानियों को वह बात कहीं ज्यादा भाती है जो सात समुंदर पार कर के हमारे पास आती है---चाहे, वे बातें सदियों पहले हमारे ही तपस्वियों ने कह दी हों, लिख दी हों। खैर, कोई बात नहीं, हम सब भुल्लनहार हैं और हमारा दाता बख्शनहार है। तो,एक बार फिर अमेरिकन जर्नल आफ कारडीआलोजी में छपे एक अध्ययन में विशेषज्ञों ने फिर से एक बार आवाज़ लगाई है कि हफ्ते में छः दिन( आप भी मेरी तरह खुश हो गए न कि चलो कल तक तो यह मामला टल गया क्योंकि आज तो वैसे भी छुट्टी का दिन है, और वैसे भी यह छः दिन वाली कुछ बात ही कर रहा है) तक तीस मिनट तक तेज़ चलना ब्लड-प्रेशर को कम करने के लिए काफी है, कमर के साइज को घटा सकता है और मैटाबालिक सिंड्रोम के रिस्क को कम करता ही है। क्या हम यह कईं बार पहले भी नहीं सुन चुके हैं। लेकिन फिर भी अपने सैर के शूज़ पहनने में इतना भारीपन क्यों महसूस करते हैं।
एक बात और यह कि मैने सुना है कि उस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि अगर आप यह सब हासिल कर सकते हैं और वह भी अपने खाने-पीने की आदतों को कंट्रोल किए बिना ही। दोस्तो, एक रिक्वेस्ट है कि बस यह वाली खाने-पीने की लाइन बस मैंने लिखने के लिए लिख दी है क्योंकि यह मेरे नोटिस में आई। पर,मेरा हाथ जोड़ कर आप से विनम्र निवेदन है कि आप यह समझिए कि आप ने यह लाइन पढ़ी ही नहीं है। क्योंकि मुझे पता है न आप ने ब्रिस्क वाक वाली बात तो पता नहीं माननी है या नहीं, ये खान-पीन वाली बात पर आपने इंसटैंस्ट एक्शन ले लेना है--- और फिर रबड़ी, जलेबी, गुलाब-जामुन, चाट-पापड़ी, खस्ता कचौड़ी , समोसे, चने-भटूरे का दौर शुरू हो जाना है( मुझे पता है मुझे इस रविवार की सुस्ताई सी सुबह में बिना वजह आप के मुंह में पानी लाने का घोर पाप तो लगेगा ही)- बहरहाल मेरा यह विश्वास है कि किसी भी अध्ययन के परिणामों को थोड़े नमक के साथ ही लेने की जरूरत है। जो बात ठीक लगे ग्रहण करें, बाकी नकार दें।
.ठीक है, अभी तो आप भी नाश्ता कीजिए। इस बलागरी के मेले ( या मैदान) में फिर लौट कर आते हैं।