शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कहीं आप के पेस्ट मंजन में भी तंबाकू तो नहीं...


देश के कुछ हिस्सों में लोग तंबाकू को जला कर दांतों एवं मसूड़ों पर घिसते हैं ...जिसे मिशरी कहते हैं.
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पता नहीं यह दुल्हन कहां से आ गई इस पाउच पर...
चलिए, इन लोगों को पता तो है कि ये तंबाकू घिस रहे हैं । कुछ दंत मंजन भी तंबाकू से ही तैयार होते हैं यह भी लोग जानते हैं जैसे कि गुल मंजन आदि। लेकिन लोग फिर भी करते हैं। कुछ मंजन इस तरह के हैं जो लोगों में काफ़ी पापुलर हैं और उन में भी तंबाकू की मात्रा मौजूद रहती है। अब ऐसे मंजनों का कोई क्या करे, चिंता का विषय यह भी है कि छोटे छोटे पांच-छः वर्ष के बच्चे भी इन्हें इस्तेमाल करते हैं और जल्द ही इस के आदि -- एडिक्शन हो जाती है।
दो दिन पहले मैं ऐसे ही इधर एक बाज़ार में खड़ा था, सामने एक पनवाड़ी की दुकान थी, वहां पर बहुत ही रंग बिरंगे गुटखे के पैकेट टंगे दिखे। मैंने सुना था कुछ दिन पहले कि अब लखनऊ में नेपाल में तैयार गुटखा बिकने लगा है। मैंने उस पनवाड़ी से पूछा तो उस ने बताया कि नहीं, ऐसा कुछ भी तो नहीं। अचानक देखा कि गुल का पाउच टंगा है, मैंने एक खरीद लिया।
यह पैकेट एक रूपये में बिक रहा है। दुकानदार इस की दांत चमकाने की क्षमता और दांत एक दम फिट रखने की क्षमता पर प्रवचन करने लगा कि आप भी इसे एक बार अजमा कर के तो देखिए।
यह गुल मंजन लोगों में बड़ा पापुलर है। लेकिन मुझे इतना पता था कि यह बड़े से डिब्बे में ही आता है, मेरे कहने पर मेरे मरीज़ अकसर इसे मुझे कईं बार दिखाने के लिए घर से लाये थे। वह तो चिंता की बात है ही--शायद उस से और भी चिंता की बात यह है कि यह पाउच में भी दिखने लगा है।
gul3जब तक मैं अपनी बात रखनी शुरू नहीं करता मेरे मरीज़ तंबाकू वाले मंजनों के तारीफ़ों के कसीदे पढ़ते नहीं थकते...पहले दांतों में दर्द था, पहले मसूड़ों को पायरिया था, पहले दुर्गध आती थी ...लेकिन जब से यह तंबाकू वाले मंजन का इ्स्तेमाल शुरू किया है सब ठीक लगने लगा है। लेकिन नहीं, उन को सोचना गलत है, तंबाकू वाले मंजन केवल तबाही ला सकते हैं और वे यह काम में सफल हो भी रहे हैं।
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इस तस्वीर को अच्छे से देखने के लिए इस पर आप को क्लिक करना होगा.
और इस आर्टीकल को पूरा देखने के लिए यहां पर क्लिक करिए...
मेरे एक मित्र जो डैंटल कालेज में प्रोफैसर हैं --कल वह भी इस तरह के मंजनों के बारे में बहुत चिंतित नज़र आए। एक सब से खौफ़नाक बात जो देखने में आ रही है कि छोटे छोटे बच्चे जब इन का इस्तेमाल करने लगे हैं तो वे सहज ही तंबाकू के व्यसनी बन जाते हैं।
जब मैंने इस तंबाकू वाले गुल को खोला तो इतनी गंदी बास आई कि मुझे उन लोगों के चेहरे याद आ गये जो मुझे यह कह कर चले गये कि इस से मुंह की दुर्गंध आनी बंद हो गई। काश कभी वे फिर से दिखें .....
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इस टैक्सट को अच्छे से पढने के लिए आप को इस पर क्लिक करना होगा....
कहीं आप के पेस्ट मंजन में भी तो तंबाकू नहीं....(इसी लेख का एक अंश)
अगर आप इन तंबाकू वाले मंजनों आदि के बारे में कुछ विस्तार से पढ़ना चाहें कि वे किस तरह से हमें खोखला किए जा रहे हैं तो ऊपर या नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक कर के देखिएगा।
मुझे सब से खौफनाक बात यह लगती है कि कुछ मंजन ऐसे हैं जिन्हें लोग इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है उन में तंबाकू मिला हुआ है. मैं इसी स्टडी की चंद पंक्तियों का एक स्क्रीन-शॉट चिपका रहा हूं, इसे ज़रूर देखें.........ताकि अगर आप भी इस तरह का कोई ब्रेंडेड मंजन वंजन घिस रहे हैं तो आप का भी मोहभंग हो जाए।
वैसे लिंक यहां भी लगा दिया है ....

यादाश्त ऐसी बढ़ने लगी तो हो गया...


आज सुबह जब नवभारत टाइम्स पेपर देखा तो उस में किंग जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी के डाक्टरों द्वारा किया गया एक शोध पढ़ने को मिला. पढ़ कर अच्छा लगा कि किस तरह से ये चिकित्सा संस्थान जनमानस में व्याप्त विभिन्न भ्रांतियों का भंडा-फोड़ करने में लगे हैं......
ऐसा है ना जब बिना रिसर्च किए कोई इस तरह की दवाईयों के बारे में लिखेगा, तो उस पर ही उंगलियां उठनी शुरू हो जाती हैं लेकिन केजीएमयू जैसी संस्था में अगर इस तरह की रिसर्च हुई और उस का नतीजा यही निकाल की इस तरह की दवाईयां सब बकवास हैं, कुछ होता वोता नहीं इन से.......अगर इस तरह की स्टडीज़ को हम लोग जनमानस तक पहुंचा दें तो बात बनती दिखती है।
आशीष तिवारी की यह रिपोर्ट देख कर अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि बड़ी सरल सटीक भाषा में इन्होंने रिपोर्ट को लिखा है।
वैसे मुझे इस खबर को देखते ही ध्यान आया कि मैंने भी इस विषय पर एक लेख लगभग एक-डेढ़ वर्ष पहले लिखा तो था....सेहतनामा को खंगाला तो दिख ही गया, इसका लिंक यहां चसपा कर रहा हूं। देखिएगा, इस लिंक पर क्लिक करिए................. अच्छे ग्रेड पाने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाईयां
और अगर इतना सब कुछ पढ़ने पर भी बात बनती न दिखे तो हाथ कंगन को आरसी क्या, गूगल कर लें...  लिखिए .. memory plus
मैं यह सोच रहा हूं कि इस तरह की खबरें, इस तरह के लेख हम लोगों को अपनी ओपीडी में डिस्पले कर देने चाहिए...अगर कुछ लोग भी इन्हें पढ़ कर इन बेकार के टोटकों से बच पाएं तो हो गई अपनी मेहनत सफल।
ध्यान तो यह भी आया कि यार अगर याददाश्त इस तरह से बढ़ती तो फिर ये भी देश के चुनिंदा लोगों की ही बढ़ पाती ---वही लोग इन चीज़ों का स्टॉक भी कर लेते और पानी की जगह शायद इन्हें ही पी लेते. लेकिन दोस्त, ऐसे नहीं होता......................थैंक गॉड सभी अत्यावश्यक वस्तुएं प्रकृति ने अपने सीधे कंट्रोल में ही रखी हुई हैं.............
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हिस्ट्रैक्टमी पर चर्चा गर्म है...


हिस्ट्रैक्टमी के बारे में तो आप सब जानते ही हैं ..महिलाओं में किया जाने वाला आप्रेशन जिस में उन का युटर्स (uterus) –आम बोलचाल की भाषा में जिसे बच्चेदानी कहते हैं—पूरी तरह या कुछ भाग निकाल दिया जाता है और कईं बार इस के साथ महिला के अन्य प्रजनन अंग जैसे कि ओवरी, सर्विक्स, एवं फैलोपियन ट्यूब्स भी निकाल दी जाती हैं।
मैंने बहुत बार इस तरह की चर्चाएं होती सुनी हैं जिस में इस बात का उल्लेख आता है कि फलां फलां महिला चिकित्सक तो किसी अस्पताल में सर्जरी में हाथ साफ़ करने आती है—कहने का मतलब यही होता है कि सिज़ेरियन आप्रेशन (डिलीवरी हेतु किया जाने वाला बड़ा आप्रेशन) और हिस्ट्रैक्टमी आदि के लिए। कोई माने या ना माने सरकारी अस्पतालों में यह सब करने की एक तरह से खुली छूट सी होती है। कोई पूछ के देखे तो इस मरीज़ में फलां फलां आप्रेशन करने की इंडिकेशन क्या थीं? …..तेरी यह मजाल कि अब तूने डाक्टरों के निर्णय को चुनौती देनी शुरू कर दी।
जो भी हो, पब्लिक भी बेवकूफ़ नहीं है, वह भी अखबार पढ़ती है, इलैक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़ी रहती है, सब समझती है लेकिन फिर भी जब कोई बीमारी आ घेरती है तो कमबख्त उस की कहां चलती है। ना कुछ समझ, ना कुछ निर्णय लेने की ताकत, ना ही ऐसा सामाजिक वातावरण, विशेषकर महिलाओं के मामले में तो स्थिति और भी चिंताजनक है।
महिलाओं में कुछ आप्रेशन होने हैं तो इस का निर्णय ‘दूसरे’ करेंगे, अगर कुछ नहीं करवाने हैं तो भी वह स्वयं नहीं लेती यह निर्णय, यहां तक किसी महिला तकलीफ़ के लिए डाक्टर के परामर्श लेना है कि नहीं, यह फैसला भी उस के हाथ में नहीं।
इन सब बातों का ध्यान मुझे दो चार दिन पहले तब भी आया जब मैंने एक खबर देखी कि नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे में हिस्ट्रैक्टमी से संबंधित डैटा इक्ट्ठा करने की मांग की जा रही है। पाठक स्वयं इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी विकट होगी कि सेहत से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ताओं को इस तरह की मांग उठानी पड़ी।
हैल्थ एक्टिविस्टों की मांग इसलिए है कि एक बार आंकड़े पता तो लगें ताकि इस सूचना को इस आप्रेशन के लिए तैयार किए जाने वाले दिशा-निर्देशों (guidelines) के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
“The demand comes following concern over rising cases of hysterectomies reported from across the country, particularly among younger women, and by some unscrupulous doctors for monetary gains”
अधिकतर फैमली प्लानिंग आप्रेशन तो होते हैं सरकारी संस्थाओं में लेकिन 89प्रतिशत के लगभग हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन प्राईव्हेट अस्पतालों में होते हैं… इस का मतलब तो यही हुआ कि सरकारी सेहत तंत्र केवल राष्ट्रीय सेहत कार्यक्रमों तक ही सीमित है और अन्य सेहत से संबंधित मुद्दे में इस की रूचि नहीं है……………यह मैं नहीं कह रहा हूं, पेपर में ऐसा साफ़ लिखा है..
Majority of tubectomies are performed in public health system, where as 89 per cent of hysterectomies were conducted in private.  This indicates that public health system is meant only for national programme and less interested in other health programme. This also raises questions whether hysterectomies are justified and whether the higher percentage of hysterectomies in the private sector reflect economic and commercial interest of some groups.”
आंध्रप्रदेश में एक स्टडी की गई थी जिस के अनुसार जिन महिलाओं का हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन किया गया उन में से 31.2 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं जिन की उम्र 30 साल से कम थी, 52 प्रतिशत महिलाएं 30-39 वर्ष की ब्रेकेट में थीं, जब कि 83प्रतिशत महिलाओं में यह आप्रेशन रजोनिवृति से पहले (pre-menopausal) ..उन की चालीस वर्ष की अवस्था से पहले किया जा चुका था।
यह खबर जिस दिन देखी, उस के अगले ही दिन –20 अगस्त 2013 की अखबार में यह खबर दिख गई कि अब हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन से संबंधित जानकारी को नेशनल फैमली हैल्थ सर्वे में शामलि कर लिया गया है. अच्छा है, इस से संबंधित आंकड़े मिलेंगे तो इस से संबंधित गाईड-लाइन तैयार करने में मदद मिलेगी। इस रिपोर्ट में यह भी लिखा है..
“ It was pointed out that unscrupulous doctors were performing hysterectomies on pre-menopausal and even women younger than 30 years for monetary gains”.
महिलाओं के प्रजनन अंगों से जुड़ी समस्याओं का केवल बच्चेदानी निकाल देना ही समाधान नहीं है, इस के लिए विभिन्न मैडीकल उपचार भी उपलब्ध हैं, और हैल्थ ग्रुप्स द्वारा यह मांग भी अब आने लगी है कि इस तरह के आप्रेशन का मशविरा महिलाओं को तभी दिया जाए जब इलाज के बाकी सभी विकल्प कामयाब नहीं हो सके।
औरतें की सेहत के बारे में सोचे तो भी यह एक छोटा मोटा फैसला नहीं है, कम उम्र की महिलाओं में बिना ज़रूरत के केवल कमर्शियल इंटरेस्ट के लिए हिस्ट्रैक्टमी आप्रेशन करने से उन महिलाओं में अन्य शारीरिक बीमारियां जैसे की दिल से संबंधित रोग आदि होने का रिस्क बढ़ जाता है।
लिखते लिखते दो किताबों का ध्यान आ गया …
Whose health is it anyway?
Taking health in your hands
एक्टिविस्ट कर रहे हैं अपना काम लेकिन क्या ही अच्छा हो कि देश में महिलाओं की साक्षरता दर भी खूब बढ़े – साक्षरता रियल वाली …जो नरेगा के लिए अपना नाम लिखने तक ही सीमित न हो, ताकि महिलाओं अपने फैसले स्वयं लेने में सक्षम हो पाएं और प्रश्न पूछने की ज़ुर्रत तो कर सकें…. आमीन!!
Source ..

डाक्टरों का वेतन काटे जाने का फरमान...



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आज सुबह नवभारत टाइम्स खोला तो दूसरे ही पन्ने पर इस फरमान के दर्शन हो गए।
सोच में पड़ गया मैं कि जितनी मैं हास्पीटल एडमीनिस्ट्रेशन समझ पाया, उस में मुझे तो कभी डाक्टरों की गुणवत्ता के आंकलन का इस तरह का कोई मापदंड दिखा नहीं, और पिछले तीन दशकों में इस तरह के मापदंड के बारे में सुना भी नहीं।
यहां तक कि मैडीकल ऑडिट में भी कभी यह नहीं देखा कि पढ़ाया जाता हो कि डाक्टरों द्वारा कितने मरीज़ देखे गये, यह भी कोई क्वालिटी मैनेजमेंट का इंडीकेटर हो सकते हैं…….सीधी सी बात है, कितने मरीज़ देखे हैं, कितने का इलाज हुआ है, कितना को डिस्पोज़ ऑफ किया गया है, यानि कि कुछ भी……….अगर कोई इस तरह की बात की खबर ले सकता है तो केवल मैडीकल ऑडिट…
ओह हो, मैं भी किन चक्करों में पड़ गया, आज कल तो वैसे ही कुछ डाक्टर ८०- १०० -११० मरीज़ एक दिन में देखते हैं (यह भी एक रहस्य से कम नहीं  है) , ऐसे में अगर इन लोगों ने आने वाले समय में तीन गुणा सेलरी की मांग शुरु कर दी तो … या इतना ही कहना शुरू कर दिया कि जिस की सेलरी काट रहे हो, उस के मरीज़ जिस ने देखे, उस डाक्टर की सेलरी में वो रकम भी जोड़ी जाए…
और क्या लिखूं … सरकारी आदेश है तो इस का पालन भी होगा ही। मुझे कुछ विशेष टिप्पणी सूझ नहीं रही है या मैं वैसे ही चुपचाप बैठ कर यह गीत सुनना चाह रहा हूं, आप भी सुनेंगे?

बलात्कार केस में पोटैंसी टेस्ट बोलें तो...


अभी न्यूज़ देख रहा था …खबर आ रही है कि बलात्कार के कथित दोषी का पोटैंसी टेस्ट किया जायेगा। इस तरह के टेस्ट के बारे में जनता के बारे में कईं प्रश्न होंगे। डीएनए टैस्ट आदि के बारे में तो आपने एक वयोवृद्ध राजनीतिज्ञ के केस में खूब सुना.. एक युवक ने जब यह क्लेम किया कि वह राजनीतिज्ञ उस का पिता है… खूब ड्रामेबाजी हुई … बहुत बार .. शायद कितने वर्ष तो उस नेता का ब्लड-सैंपल लेने में ही लग गये थे, कितनी बार कोर्ट ने आदेश दिया तब कहीं जा कर उस का सैंपल लिया जा सका। आगे की कहानी आप जानते ही हैं…….
आज जब टीवी पर देखा कि एक अन्य वयोवृद्ध जिस के ऊपर बलात्कार का आरोप लग रहा है, इस का पुलिस के द्वारा पोटैंसी टेस्ट करवाया जायेगा।
इस संक्षेप सी पोस्ट के माध्यम से मैं इस पोटैंसी टेस्ट के बारे में बताना चाहूंगा क्योंकि इस केस में शायद गूगल अंकल भी कम ही मदद कर पाएगा। आप स्वयं सर्च कर के देखिए ..अगर आप इंगलिश में मेल पोटैंसी टेस्ट लिखेंगे तो आप भी उस में दिये गए लिंक्स पर जा कर शायद यही समझने लगेंगे कि पोटैंसी का मतलब है कि उस व्यक्ति में कितने शुक्राणु हैं या फिर उन की गुणवत्ता कैसी है, लेकिन यह पोटैंसी टेस्ट नहीं है, इसे फरटिलिटी टैस्ट कहते हैं जिस के द्वारा यह पता चल पाता है कि टैस्ट करवाने वाले व्यक्ति के स्पर्मस् की संख्या और गुणवत्ता आदि कैसी है ..क्या इस के वीर्य से किसी शिशु का जन्म हो सकता है?
लेकिन पोटैंसी टेस्ट यह नहीं है, वह अलग है.. इम्पोटैंट शब्द तो आपने बहुत बार सुना ही होगा अर्थात् कोई बंदा जो संभोग न कर सके …देसी शब्दों में कहें तो जिस व्यक्ति को इरैक्शन होने में या इरैक्शन को सस्टेन करने में दिक्कत हो एवं इस से संबंधित अन्य कुछ बातें…. इसलिए पोटैंसी टेस्ट के माध्यम से इस बात का पता लगाया जाता है कि क्या यह व्यक्ति किसी के साथ संभोग करने के योग्य भी है या नहीं?
मैं विकिपीडिया का एक लिंक यहां दे रहा हूं (इस पर क्लिक करें) जिस में आप को पत चल जायेगा कि यह पोटैंसी टेस्ट किस तरह से होता है ….. विभिन्न प्रकार के टैस्ट हैं और जब केस किसी हाई-प्रोफाइल का हो तो पुलिस भी कोई चांस लेना नहीं चाहती।
Screen Shot 2013-09-01 at 8.08.03 PMहां, ध्यान आया अभी कुछ हफ्ते पहले ही की तो बात है जब मध्य प्रदेश के एक मंत्री द्वारा उस के नौकर के यौन उत्पीड़न के मामले में भी इस पोटैंसी टेस्ट करवाने की बात मीडिया में खूब चर्चा में रही थी।
ठीक है, with profound regards and sympathies to the person who have some problem with their erection, with all humility … मैं यही कहना चाहता हूं कि कईं बार ऐसे केस मीडिया में दिखते ही हैं जिन के बारे में एक प्रश्न सा मन में उठ ही जाता है कि क्या यह बंदा संभोग करने के काबिल होगा………लेकिन एक बात तो है कि अगर कोई  भी व्यक्ति संभोग के काबिल नहीं भी है, आरोप लगाने वाली किसी महिला से इंटरकोर्स न भी कर पाया तो फिर अगर कोई युवती इस तरह का आरोप लगाती है ….मैं यही सोच कर स्तब्ध हूं कि अगर कल को किसी आरोपी का पोटैंसी टैस्ट निगेटिव आ जाए (मान लीजिए) लेकिन अगर वह बंदा किसी नाबालिग बच्ची के साथ एक डेढ़-घंटा अपने ही ढंग से हवस ठंडी करता रहा हो तो क्या यह रेप नहीं है, यह एक बड़ा प्रश्न तो है ही………..जब उस निर्भया कांड के बारे एक सख्त कानून की ज़रूरत की बात चली थी तो इस तरह की चर्चा भी चली तो थी …क्या मेल पैनीट्रेशन को ही बलात्कार माना जाना चाहिए.  पता नहीं फिर फाईनली क्या निर्णय लिया गया होगा, लेकिन यह सब कुछ कितना अजीब लगता है ना … कुछ तो नॉन-पैनीट्रेशन की आड़ में बच जाएं और कुछ इस चक्कर में कि अभी वे तो बच्चे हैं, वे तो १८साल के कम हैं, इसलिए उन के साथ नर्मा बरती जाए…………..धत तेरे की, बच्चे काहे के बच्चे, कमबख्त शैतान की औलाद किसी युवती का शील भंग कर दें लेकिन फिर भी बच्चे … तो इन सालों को घर में ही जंज़ीर से बांध कर रखो……….
कानूनी मामले बहुत ही पेचीदा हैं ना.. हम शायद ही कल्पना भी कर पाते होंगे कि जो युवतियां एवं महिलाएं किसी की भी दरिंदगी का शिकार होती हैं, उन पर सारी उम्र क्या बीतती होगी।.

एक भयानक किस्म की दलाली...


आज सुबह मैंने कुछ समय पहले मेल खोली तो एक मेल दिखी किसी पापुलर पोर्टल से कि आप बच्चों की इम्यूनिटी के बारे में लिखो और बहुत से इनाम आप का इंतज़ार कर रहे हैं।
मैंने आज तक कभी इस तरह के आमंत्रण पर कुछ भी नहीं लिखा, क्योंकि ऐसे हरेक केस में एक लोचा तो होता ही है…और सब से बड़ी बात यह कि इस तरह से कोई कहे कि इस पर लिखो …इस पर यह कहो….यह मुझ से बिल्कुल भी नहीं होता और एक तरह से अच्छा ही है। सिरदर्द होता है कि कोई कमर्शियल इंटरेस्ट वाली साइट तरह तरह के इनामों का प्रलोभन देकर कहे कि यह लिखो, वो लिखो………सब बेकार की बातें हैं।
अपने लेखन में पूरी इमानदारी बरती है इसलिए अपने बच्चों को भी उन्हें पढ़ने को कह देता हूं… वे भी ज़रूरत पढ़ने पर मेरे लेखों को खंगालने लगते हैं, ऐसे में कैसे इस तरह के प्रायोजित लेखन के लिए हामी भर दूं।
अच्छा तो जब पढ़ा कि यह लेख बच्चों की इम्यूनिटी के बारे में है कि उन की इम्यूनिटी कैसे बढ़ाई जाए….तो ध्यान आया कि चलो यार इस पर लेख ज़रूर लिखेंगे, इनामों की तो वैसे ही कौन परवाह करता है, मैकबुक प्रो पर काम कर रहा हूं …और वहां तो मैकबुक एयर ही पहला ईनाम है।
मेरी मेल पर एक लिंक था कि लेख लिख कर इस लिंक पर जा कर सब्मिट करें। जिज्ञासा वश मैंने उस लिंक पर क्लिक किया … तो सारा माजरा समझ में आ गया.. जो वेबपेज खुला उस पर इस प्रतियोगिता से संबंधित कुछ नियम लिखे थे …लेकिन एक सब से अहम् नियम यह था कि जो भी लेख भेजा जाये उस में फलां फलां टॉनिक का लिंक होना ज़रूरी है।
बात समझते देर न लगी कि यह भी पब्लिक को गुमराह करने का एक गौरखधंधा ही है, जो भी बच्चों की इम्यूनिटी पर लेख पढ़ेगा और उस के अंदर ही एक विशेष किस्म के टॉनिक का लिंक देखेगा तो वह कैसे उसे खरीदे बिना रह पायेगा।
हो सकता है कि साइट चलाने वालों की अपनी अलग तरह की मजबूरी हो, हो तो हो, मुझे क्या, लेकिन अगर हम लोग किसी भी विषय के जानकार इस तरह की दल्लागिरी में पड़ने लगें तो आम आदमी का क्या होगा, यह सोच कर डर लगता है। इस तरह का प्रायोजित लेखन भी एक भयानक दल्लागिरी से क्या कम है………. जब मैंने अपने बच्चों को ही वह टॉनिक कभी नहीं दिया, उस को अफोर्ड भी कर सकते थे, मैं इस तरह के सप्लीमैंट्स का हिमायती ही नहीं हूं ….तो फिर औरों को क्यों इन चक्करों में डाला जाए। वैसे भी देश के बच्चों को टॉनिक नहीं, रोटी चाहिए…….!
यह तो नेट था, लेकिन आज कल कोई भी मीडिया देख लें, हर तरफ़ बाज़ार से ही सजे दिख रहे हैं, समाचार पत्रों में चिकित्सा से जुड़े रोज़ाना बीसियों विज्ञापन यही दुआ मांग रहे दिखते हैं कि कब कोई खाता-पीता बंदा बीमार पड़े और कब हम उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर धर दबोचें……….सब तरह के कमबख्त गोरखधंधे चल रहे हैं, बच के रहना भाई….
दुआ करता हूं कि आप हमेशा सेहतमंद रहें। इम्यूनिटी की चिंता न करें, अगर पेट ठीक ठाक खाने से भरने लगेगा….जंक फूड को निकाल कर…तो इम्यूनिटी भी अपने आप आ ही जायेगी। मस्त रहो,खुश रहो…

कितना समय तो तंबाकू ही ले लेता है...


मैं अकसर इस बात पर ध्यान करता हूं कि प्रतिदिन अस्पताल में काम करते हुए हमारा कितना समय तो यह तंबाकू ही खा लेता है।
सरकारी अस्पताल में काम करता हूं और प्रतिदिन कुछ मरीज़ –कुछ तो बहुत ही छोटी उम्र के– ऐसे आ ही जाते हैं जिन के मुंह में तंबाकू, गुटखा, पानमसाला, बीड़ी, सिगरेट आदि से होने वाले कैंसर की पूर्वावस्था दिख जाती है। ऐसे में कैसे मैं अपने आप को इन लोगों के साथ १०-१५ मिनट बिताने से रोक पाऊं। और बिना इतना समय बिताए बात बनती दिखती नहीं।
पहले तो मैं इन लोगों के मुंह के उस हिस्से का फोटो लेता हूं ..फिर उसे उन्हें दिखा कर यह समझाने की कोशिश करता हूं कि तंबाकू ने किस तरह से मुंह के अंदर की चमड़ी को खराब कर दिया है और किस तरह से आगे इसे बदतर होने से बचाया जा सकता है।
उस समय वे लोग बड़े रिसैप्टिव जान पड़ते हैं –हर बात ध्यान से सुनते हैं और लगता है कि आज के बाद ये लोग इन सब पदार्थों का सेवन बंद कर देंगे। हमें बातचीत करते अहसास तो हो ही जाता है कि कौन हमारी बात पर अमल करेगा और कौन यूं ही बस सुन रहा है क्योंकि कोई कह रहा है!
मुझे बहुत बार लगता है कि किसी बंदे की लाइफ़ से तंबाकू को दूर करना अपने आप में एक बड़ा काम है। और सरकारी अस्पतालों के डाक्टर तो इस में विशेष भूमिका निभा सकते हैं।
सरकारी और प्राईव्हेट डाक्टरों में मैंने यहां इसलिए डिफरैंशिएट किया क्योंकि भारत में कम से कम प्रिवेंटिव सलाह का कोई खरीददार तो है नहीं….अर्थात् किसी को इस तरह की बातें बेचना कि आप लोग तंबाकू को छोड़ कर किस तरह से अनेकों बीमारियों से बच सकते हैं, यह सब किसी की कहना… सुनने वाला सोचता होगा कि इस में नया क्या है, घर में सभी तो मेरे को यही बातें कह रहे हैं तंबाकू छोड़ने के लिए और मैं भी कोशिश तो कर ही रहा हूं इतने वर्षों से छोड़ने के लिए!
प्राईव्हेट प्रैक्टिस करने वाले डाक्टर से यह उम्मीद करना कि वह किसी मरीज़ को समझाने-बुझाने में १५-२० मिनट लगाए और उसे इस के लिए कम से कम ४००-५०० रूपये की फीस मिले …मुझे तो यह नहीं लगता। कौन देगा इस तरह की सलाह की फीस, बेशक इस तरह का परामर्श बेशकीमती तो है ही, लेकिन फिर भी कोई फोकट में यह सब बांट रहा हो तो मज़बूरी है लेकिन अगर इस सलाह के लिए पैसे-वैसे देने पड़ें तो ना..बाबा ना…हमें नहीं चाहिए यह नसीहत की घुट्टी। अपने आप छोड़ लेंगे, यह लत छोड़ने की कोशिश तो कर ही रहे हैं, कोई बात नहीं…कम ही पीते हैं।
इसलिए यह आशा नहीं करनी चाहिए कि प्राईव्हेट में कोई डाक्टर मुफ़्त में इतना इतना समय हर तंबाकू इस्तेमाल करने वाले के साथ बिताएगा… और वह इस के लिए अपने अन्य मरीज़ों का समय इस्तेमाल करेगा, ऐसा कैसे हो सकता है। अब एक डैंटिस्ट की ही बात कीजिए, अगर वह इस काम में लगा रहेगा, तो उस के अन्य मरीज़ –फिलिंग, आरसीटी, औक क्रॉउन लगवाने वाले मरीज़ों का क्या होगा, भाई उस ने भी अपने परिवार का भरन-पोषण करना है।
सारा दिन तंबाकू एवं अन्य ऐसे उत्पादों के बुरे प्रभावों के प्रति सचेत करते इतना समय निकल जाता है कि कईं बार तो झल्लाहट होने लगती है…..यार सारा कुछ तो इन वस्तुओं की पैकिंग पर लिखा रहता है कि इस के खाने से जान जा सकती है, कैंसर हो सकता है और अब तो इतनी भयानक तस्वीरें भी इन के ऊपर छपने लगी हैं, और सब से ज़्यादा दुःख तब होता है कि जब किसी मरीज़ से पूछो कि तुम्हें पता है कि इसे खाने से क्या होता है…तो वह तुरंत कह देता है ..हां, हां, वह सब तो पैकेट के ऊपर लिखा तो रहता ही है।
पता नहीं कितने लोग हमारी बात सुन कर उसे मानते भी होंगे …. अपने घर में तो हम लोग बदलाव ला नहीं पाए, मैं पिछले २५-३० वर्षों से अपने बड़े भाई को धूम्रपान के लिए मना कर रहा हूं लेकिन उन्होंने भी नहीं छोड़ो…हां, हां, मैंने बहुत कम कर दिए हैं, अब सिर्फ़ चार-पांच सिगरेट ही लेता हूं…..लेकिन ज़हर तो ज़हर है ही!
एक श्रेणी और भी दिखती है जिन्हें तंबाकू आिद के सेवन से कोई भयंकर रोग हो जाता है…बहुत भयंकर, आप समझ सकते हैं मैं क्या कहना चाह रहा हूं …और बड़े गर्व से कहते हैं कि पंद्रह दिन से तंबाकू भी बिल्कुल छोड़ दिया है। लेकिन जब चिड़िया खेत पहले ही चुग कर जा चुकी है तो बाद में पछताने से तो लकीर को पीटने वाली बात ही लगती है। इसलिए शाबाशी तो दूर, उन की इस बात पर कोई मूक प्रतिक्रिया तक देने की इच्छा नहीं होती।
सब से बढ़िया है कि हर प्रकार के तंबाकू प्रोडक्ट से कोसों दूर रहा जाए, यह आग का खतरनाक खेल है, छोटी छोटी उम्र में लोगों को इस से तिल तिल मरते देखा है।
कितनी जगहों पर तो प्रतिबंध लगा है इन सब वस्तुओं की बिक्री पर लेकिन हर जगह धड़ल्ले से बिक रहा है, खुले आम लोग खरीद खरीद कर बीमार–बहुत बीमार हुए जा रहे हैं।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों का दुरूपयोग

कल के पेपर में यह खबर देख कर चिंता हुई कि हरियाणा में पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों का किस तरह से दुरूपयोग हो रहा है और किस तरह से दोषियों की धर-पकड़ जारी है... Haryana drive against female foeticide. 

इन मशीनों के बारे में जानने के लिए चार वर्ष पुराने मेरे इस लेख के लिंक पर क्लिक करिए... आ गया है..पाकेट साइजड अल्ट्रासाउंड। और फिर उस के बाद जब महाराष्ट्र ने इन मशीनों पर प्रतिबंध लगा दिया तो भी यही ध्यान में आ रहा था कि इस तरह की मशीनों के दुरूपयोग का अंदेशा तो बना ही रहेगा।

 अब हरियाणा में जन्म से पूर्व शिशु के सैक्स का पता करने हेतु इस तरह की मशीनों के अंधाधुंध प्रयोग से प्रदेश में सैक्स अनुपात पर कितना बुरा असर पड़ेगा, यह चिंता का विषय तो है ही।

खबर में आप देख सकते हैं कि इस तरह की मशीनें चीन से लाई जा रही हैं और फिर इन का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। बात यह भी है कि क्या इस तरह के गोरखधंधे हरियाणा में ही हो रहे हैं या फिर वहां इस का गंभीरता से संज्ञान लिया गया है और कार्यवाही की जा रही है। ऐसा कैसे हो सकता है कि देश के अन्य क्षेत्र इस के दुरूपयोग से बच पाए हों?

वैसे यह कोई नई बात नहीं है, जब इस तरह की मशीनें चार वर्ष पहले बाज़ार में आईं तो ही लग रहा था कि इन का दुरूपयोग भी ज़रूर होगा।

बड़ी दुःखद बात है कि कुछ तत्व बढ़िया से बढ़िया आविष्कार को भी अपने निजी स्वार्थ के लिए बदनाम कर देते हैं.....जो उपकरण बनते हैं मानवता के कल्याण के लिए उन्हें की मानवता के ह्ास के लिए इस्तेमाल किया जाने लगता है।

सोचने वाली बात यह भी है कि अब हर बात का दोष सरकार के माथे थोप देने से भी नहीं चलने वाला.......सरकारी कर तो रही है अल्ट्रासाउंड सैंटरों पर सख्ती, मीडिया में खबरें दिखती ही रहती हैं कि किस तरह से विभिन्न सैंटरों पर छापेमारी की जाती है, इन सैंटरों को सील किया जाता है, और दोषी डाक्टरों तक के ऊपर केस चलाए जाते हैं।

लेिकन अब सब से चिंता का विषय यह है कि सैंटरों की भी ज़रूरत नहीं, इस तरह की पोर्टेबल मशीनें जेब में डाल कर इन का कितनी आसानी से दुरूपयोग किया जा रहा है। अब सरकारें किस किस की जेब में घुसें....सच में बड़ी सिरदर्दी है। यही दुआ की जाए कि लोगों को ही ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करे ताकि वे इस तरह के कुकृत्यों से बच सकें। आमीन !!



मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

डाक्टरों की भर्ती में भी बोली..

Credit:  www.kajal.tk

विषय कोई इतना लीक से हट कर भी नहीं लगता ... बोली तो आज कल बहुत सी जगहों पर लगने लगी है, क्रिकेट में भी लग रही है। क्रिकेट की बोली तो व्ही-आई-पी बोली हो गई.....१४ करोड़ में भी कोई कोई खिलाड़ी खरीद लिया जाता है (या बिक जाता है)।

बोली इस तरह की भी देखी सुनी ... कुछ राज्यों में कुछ चिकित्सा ईकाईयों को ठेके पर चलाने के लिए दिया गया, और यह भी बोली के आधार पर ही होता है।

कभी कभी अखबार में यह भी दिख जाता है कि किसी ट्रेन में जो डाक्टरी टीम जायेगी उस का भी ठेका सा ही दे दिया जाता है।

ठीक है, विचार आते हैं... जाते हैं.... विचारों का क्या है, लेकिन कुछ दिन पहले  टाइम्स ऑफ इंडिया में एक विज्ञापन देख कर तो मैं दंग रह गया। मैंने ऐसा विज्ञापन पहले कभी नहीं देखा था। श्रीमति जी ने भी यही कहा कि उन्होंने भी डाक्टरों की भर्ती से संबंधित ऐसा विज्ञापन पहले नहीं देखा।

केन्द्र सरकार के अंतर्गत एक अस्पताल में शिशु रोग विशेषज्ञ, फ़िज़िशियन, दंत चिकित्सक, महिला चिकित्सा अधिकारी, लैब टैक्नीशियन, क्लीनिकल साईकॉलोजिस्ट एक वर्ष के लिए भर्ती किये जाने हैं।

अस्पताल का नाम मैं यहां नहीं लिख सकता........

हर पोस्ट के आगे लिखा था कि कौन से डाक्टर को हफ्ते में कितने दिन कितने घंटे के लिए एंगेज किया जायेगा।
यहां तक तो ठीक था, लेकिन अगली बात बहुत ही अजीब सी लगी.......

"The candidates are required to intimate their remuneration (payment) they expect per visit for the fixed duration. The candidate will be selected based on lowest payment per visit asked by them/negotiated and personal interview at the time of selection."
"आवेदनकर्ता यह सूचित करें कि वे प्रत्येक विज़िट के लिए कितनी रकम की अपेक्षा करते हैं। आवेदनकर्ताओं का चयन सब से कम मांगी गई रकम एवं साक्षात्कार के आधार पर किया जायेगा।" 
बहुत महसूस हुआ यह विज्ञापन देख कर........कोई न्यूनतम् रेट नहीं, कोई फिक्स रेट नहीं कि हम इतना मानदेय देंगे ... और फिर इंटरव्यू में आने वालों में से जो प्रशासन के मापदंडों पर सही उतरें, उन की नियुक्ति कर ली जाए।
मैं सोच रहा हूं कि क्या मैडीकल वर्करों की भर्ती के लिए इस तरह की बोली लगवाना सही है?

विज्ञापन में लिखा तो है ना कि चयन सब से कम मांगी गई फीस एवं साक्षात्कार के आधार पर किया जायेगा लेकिन सब के कम मांगी गई फीस को कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जायेगा, मुझे ऐसा लगता है। विजिलेंस के डर से, नहीं तो ऑडिट के झंझट से बचने के लिए न्यूनतम् फीस मांगने वालों को ही अकसर रख लिया जाता है क्योंकि सरकारी तंत्र में इस से सेफ़ कोई रास्ता किसी को दिखता नहीं।

अब बात यह उठती है कि क्या यह सब से सस्ता डाक्टर जो भर्ती किया जाता है, क्या यह मरीज़ों के हितों के लिए ठीक होता है?...आप स्वयं इस का निर्णय कर सकते हैं। पहली बात तो यह है कि मैं अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि इस तरह की भर्ती के लिए अकसर वे लोग ही अप्लाई करते हैं जिन की प्राईव्हेट प्रैक्टिस ठीक नहीं चल रही हो। वरना कौन सा काम धंधे वाला चिकित्सक अपने कीमती ३ घंटे (आने जाने का समय जोड़ें तो आधा दिन ही हो गया)...इस तरह की पोस्ट के लिए देना चाहता है?

 एक बात तो यह है कि सब से कम कीमत में जो इस तरह के काम के लिए आयेगा उस की अपनी निजी प्रैक्टिस कम चल रही होगी...कारण कुछ भी हो सकते हैं, पर्याप्त अनुभव का अभाव या फिर कुछ अन्य कारण जिस के बारे में यध्यपि यहां उपर्युक्त न होगा, लेकिन फिर भी लोग समझते हैं। और एक कारण हो सकता है कि जो न्यूनतम् रेट पर इस तरह की व्यवस्था के अधीन काम करने आयेगा, उस का उद्देश्य यह भी हो सकता है कि चलो जब सरकारी अस्पताल के मरीज़ उस के प्राईव्हेट क्लीनिक में आना शुरू हो जाएंगे तो भरपाई अपने आप हो ही जाएगी।

ऐसे में मरीज़ के हित में क्या है? मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि इस तरह के बोली के आधार पर डाक्टरों की भर्ती का जो नया फैशन चल निकला है, उस पर रोक लगनी चाहिए....... इतनी प्रोफैशनली क्वालीफाईड कम्यूनिटी के साथ ऐसा कैसे चल सकता है।

आप हर पोस्ट का एक मानदेय नियत करें और उसे विज्ञापन में दर्शा दें........जिसे ठीक लगेगा वह अप्लाई करेगा, और जो आएंगे उन में से आप सर्वश्रेष्ठ को ले लें।

इस तरह की व्यवस्था जिस में डाक्टरों को एक तरह से बोली लगाने को कहा जा रहा है.. अजीब सी बात लगती है क्योंकि मैं अकसर विभिन्न जगहों पर इंटरव्यू लेने जाता रहता हूं और पार्ट-टाइम दंत चिकित्सक की एक पोस्ट के लिए ४०-५० से लेकर ६०-७० उम्मीदवार तो आते ही हैं। अब अगर सोचें कि अगर हम लोग उन्हें हम भी २०हज़ार रूपये के मानदेय के स्थान पर अपना अपना स्वीकार्य मानदेय लिख कर भेजने को कहेंगे तो क्या होगा........कल्पना करिए कि कैसे हो पायेगा फिर सही उम्मीदवार का चयन ...अगर न्यूनतम् बोली को ही प्राथमिकता दी जायेगी।

विभिन्न कारणों से मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि लोग मुफ्त में भी दो-तीन घंटे सरकारी अस्पतालों में काम करने को सहमत हो जाएंगे।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

२१ वीं सदी की मदर टैरेसा... डा कैथरिन हैमलिन

कुछ दिन पहले मैंने दा हिंदु में एक लेख देखा था, हैडलाइन ही बड़ी अच्छी लगी थी.....At 90, this doctor is still calling .... जैसा कि मेरे साथ होता है मैंने एक दो लाइनें पढ़ी लेकिन बाद में पढ़ने के लिए इसे छोड़ दिया। फिर बाद में किसे याद रहता है, मेरी डाक्टर श्रीमति जी इस तरह की ख़बरों का विशेष ध्यान रखती हैं। वह एक बहुत उमदा सामान्य चिकित्सक हैं...पूरी ईमानदारी से अपना काम करती हैं।

इसलिए अभी अभी जब उन्होंने यह अखबार मुझे थमाई और इस लेख को देखने को कहा तो मैंने कहा कि मैंने देखा तो था लेकिन पूरा पढ़ा नहीं था।

अभी भी पूरा नहीं पढ़ा....अभी एक दो पैराग्रॉफ ही पढ़े हैं और सोचा कि साथ साथ इस का अनुवाद करता हूं......ताकि हिंदी जानने वालों तक भी इस तरह की शख्सियतों के बारे में पता चले।

तो चलिए उस लेख का अनुवाद शुरू करते हैं..........

निकोलस क्रिस्टॉफ लिखते हैं.............. हम पत्रकार लोग बड़े बड़े हादसों के बारे में, हवाई दुर्घटनाओं के बारे में, भ्रष्ट नौकरशाहों के बारे में और पेशेवार मुजलिमों के बारे में तो लिखते ही रहते हैं, लेकिन आज इच्छा हो रही है कि इस काम से एक ब्रेक लिया जाए और एक हीरो के काम की प्रशंसा की जाए।
कैथरीन हैमलिन एक आस्ट्रेलियाई महिला रोग विशेषज्ञ है जिसे आप २१वीं सदी की मदर टैरेसा कह सकते हैं जिस ने अपने जीवन का अधिकतर हिस्सा इथोपिया में बिताया है।

बच्चे के जन्म के समय होने वाली एक चोट (child birth injury) जिसे ओब्सटैट्रिक फिस्चुला कहते हैं.....यह महिला डाक्टर ने इस चोट के इलाज में क्रांति ले आई।

ओब्सटैट्रिक फिस्चुला का मतलब है ऐसा फिस्चुला (अर्था्त् आप इसे एक सुराख भी कह सकते हैं) .. जो तब होता है जब शिशु के जन्म के समय शिशु बर्थ-क्नॉल (जन्म की नली) में अटक जाता है और बड़े आप्रेशन के द्वारा बच्चे का जन्म कर पाने के लिए वहां कोई डाक्टर उपलब्ध नहीं होता।

लगभग बीस लाख महिलाएं और इन में बहुत सी टीनएज युवतियां इस तरह के फिस्चुला से त्रस्त हैं। शिशु तो ज़िंदा रहा नहीं पाता लेकिन इस फिस्चुला से प्रभावित महिलाओं का पेशाब एवं मल त्याग पर कोई कंट्रोल नहीं रहता......इस का मतलब उन का पेशाब अपने आप ही निकलने लगता है, और कईं बार तो मल भी अपने आप ही योनि  (vagina) से बहने लगता है।

सामाजिक स्तर पर इस तरह की महिलाओं अपमानित, बहिष्कृत सा महसूस करती हैं ..उन से बदबू आती है और वे शर्मिंदा महसूस करती हैं।

Dr Hamlin and her late husband, Reg, set up a fistula hospital in Addis Ababa, Ethiopia,and their work proves that it is possible to repair the injuries cheaply. This hospital trained generations of doctors to repair fistulas adn provided a model that has been replicated in other countries.

जनवरी में जब इस देवी का जन्मदिन मनाया गया तो उस के बेटे रिचर्ड ने उस के पुराने मरीज़ों की भीड़ के सामने कहा ...कैथरीन का एक बेटा और ३५००० बेटियां हैं।
Dr Hamlin gave the crowd a pep talk about the need for a big push to improve the world's maternal care. "We have to eradicate Ehtiopia of this awful thing that's happening to women: suffering, untold suffering, in the countryside," she said. "I leave this with you to do in the future, to carry on."
इथोपिया ने इस महीने डा हेमलिन को नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया है।

डा हेमलिन के काम की दाद इसलिए भी देनी होगी क्योंकि वे अपने ठीक होने वाले मरीज़ों को अन्य मरीज़ों की सहायता हेतु भी सक्षम करती हैं।

Mahabouba Muhammad was sold at age 13 to be second wife of a 60-year-old man. She became pregant, delivered by herself in the bush and suffered a severe fistula. Villagers, believing Mahabouba to be cursed, left her for the hyenas (एक तरह के जंगली जानवर). But she fought off the hyenas & because nerve damage from labour had left her unable to walk- crawled for miles to get help. At Dr Hamlin's hospital, she underwent surgery and now is a nurse's aide at the hospital.

Another former fistula patient is Mamitu Gashe, who helped doctors during her recovery and was soon recognised as a first-rate talent. Mamitu was illiterate but learned to perform complex fistula repairs and, because the hospital does so many, has become one of the world's experts in fistula surgery.

When distinguished professors and obstetrics from around the world come to this hospital for training in fistula repair, their teacher has often been Mamitu.

Dr Hamlin trains professional midwives and posts them in underserved areas -- because 85 percent of births in Ethiopia take place without a doctor or nurse present.

लेखक बताता है कि वह एक फिस्चुला भुगत चुकी एक महिला को मिला- उस ने बताया कि उस के पति ने उसे छोड़ दिया था.. और उस के मां बाप ने उस के रहने के लिए गांव से बाहर एक झोंपडा बना दिया ताकि उस के शरीर से निकलने वाली बदबू से किसी को कोई परेशानी न हो। उसे खाने पीने से डर सा लगने लगा ....because everything she consumed would soon be trickling down her legs. इस सब की वजह से वह डिप्रेशन में चली गई। वह दो वर्ष तक ऐसी ही तड़पती रही ...अंत में उस के मां-बाप ने डा हेमलिन के अस्पताल के बारे में सुना और उस के फिस्चुला की रिपेयर करवा दी गई।

फिस्चुला की सर्जरी पर खर्च कितना आता है? -- ५00 से १००० डालर.......Dr Hamlin's hospital is supported in the United States by Hamlin Fistula USA, while the Fistula Foundation supports fistula repairs worldwide.

In much of the world, the most dangerous thing a woman can do is become pregnant, and 800 die daily in childbirth. Many more suffer injuries.

ऐसी देवी के बारे में आप के क्या विचार हैं ?.........ऐसे लोग किसी भी अवार्ड के मोहताज नहीं होते लेकिन फिर भी एक नोबल शांति पुरस्कार तो कम से कम इन्हें देना तो बनता ही है।  God bless her at least with a healthy century!

Source: At 90, this doctor is still calling 
मुझे तो इस डाक्टर के बारे में पढ़ कर यह गीत याद आ गया.....



नकली दवाई के धंधे वालों को फांसी क्यों नहीं?

यह प्रश्न मुझे पिछले कईं वर्षों से परेशान किये हुए है।

हम लोग लगभग एक वर्ष पहले लखनऊ में आए...कुछ दिनों बाद हमें शुभचिन्तकों ने बताना शुरू कर दिया कि कार में पैट्रोल कहां से डलवाना है ..उन्होंने व्ही आई पी एरिया में दो एक पैट्रोल पंपों के बारे में बता दिया कि वहां पर पैट्रोल ठीक तरह से डालते हैं, मतलब आप समझते हैं कि ठीक तरह से डालने का क्या अभिप्राय है। 

कारण यह बताया गया कि ये पैट्रोल पंप जिस एरिया में हैं वहां से सभी मंत्रियों और विधायकों की गाड़ियों में तेल डलवाया जाता है। सुन कर अजीब सा लगा था, लेकिन जो भी हो, अनुभव के आधार पर इतना तो कह ही सकता हूं कि जो हमें बताया गया था बिल्कुल ठीक था। 

यह तो हो गई पैट्रोल की बात, अब आते हैं दवाईयों पर। नकली, घटिया किस्म की दवाईयों का बाज़ार बिल्कुल गर्म है। समस्या यही है कि हरेक बंदा समझता है कि नकली दवाईयां तो बाहर कहीं किसी और गांव कसबे में बिकती होंगी, हमें तो ठीक ही मिल जाती हैं, अपना कैमिस्ट तो ठीक है, पुराना है, इसलिए हम बिल मांगने से भी बहुत बार झिझक जाते हैं, है कि नहीं ?

 आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर दिखी ..  India-made drugs trigger safety concerns in US.
 हमेशा की तरह दुःख हुआ यह सब देख कर...विशेषकर जो उस न्यूज़-स्टोरी के टैक्स्ट बॉक में लिखा पाया वह नोट करें......

कश्मीर के एक बच्चों के अस्पताल में पिछले कुछ वर्षों में सैंकड़ों बच्चों की मौत का कारण नकली दवाईयों को बताया जा रहा है। एक आम प्रचलित ऐंटीबॉयोटिक में दवा नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं............

इस तरह के गोरख-धंधे जहां चल रहे हों...बच्चों की दवाईयां नकली, घटिया और यहां तक कि विभिन्न प्रकार की दवाईयों के घटिया-नकली होने के किस्से हम लोग अकसर पढ़ते, देखते, सुनते ही रहते हैं। 

लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन समझ में आ नहीं रहा कि लिखूं तो क्या िलखूं, सारा जहान जानता है कि ये मौत के सौदागर किस तरह से बच्चों से, टीबी के मरीज़ों तक की सेहत से खिलवाड़ किए जा रहे हैं। ईश्वर इन को सद्बुद्धि दे ...नहीं मानें तो फिर कोई सबक ही सिखा दे। 

आप कैसे इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच सकते हैं ?.........मुझे नहीं लगता कि आप का अपना कोई विशेष रोल है कि आप यह करें और आप नकली, घटिया किस्म की दवाई से बच गये। ऐसा मुझे कभी भी लगा नहीं ..इतनी इतनी नामचीन कंपनियाों की दवाईयां......इसी टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर में यह भी लिखा हुआ है.....
"A Kampala cancer institute stopped buying drugs from India in 2011 after receiving countefeit medicines with forged Cipla labels"

बस आप एक ग्राहक के रूप में इतना ही कर सकते हैं कि जब भी कोई दवा खऱीदें उस का बिल अवश्य लें......इस में बिल्कुल झिझक न करें कि दवा दस बीस रूपये की तो है, बिल लेकर क्या करेंगे ?.....  नहीं, केवल यही एक उपाय है जिस से शायद आप इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच पाएं, कम से कम इस पर तो अमल करें।  शेष सब कुछ राम-भरोसे तो है ही। 

बड़े बडे़ अस्पताल कुछ दवाईयों की टैस्टिंग तो करवाते हैं लेिकन जब तक दवाई के घटिया (Substandard) रिपोर्ट आती है, तब तक यह काफ़ी हद तक मरीज़ों में बांटी जा चुकी होती है, कभी इस की किसी ने जांच की ?.... दवाईयों की जांच मरीज़ों को बांटने से पहले होनी चाहिए या फिर सांप के गुज़र जाने पर लकीर को पीटते रहना चाहिए। 

मैं कईं बार सोचता हूं ये जो लोग इस तरह की दवाईयों का कारोबार करते हैं, अस्पतालों में भी ये दवाईयां तो पहुंचती ही होंगी, जो जो लोग भी इन काले धंधों में लिप्त हैं, वे आखिर इस तरह के पैसे से क्या कर लेंगे....ज़्यादा से ज़्यादा, एक दो तीन चार महंगे फ्लैट, बढ़िया लंबी दो एक गाड़ियां, विदेशी टूर, महंगे दारू, या फिर रंगीन मिज़ाज अपने दूसरे शौक पूरे कर लेते होंगे.....लेकिन इन सभी लोगों का इंसाफ़ इधर ही होते देखा-सुना है। कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है जो इन दलालों और इन चोरों के परिवारों को हिलाने के लिए काफ़ी होता है। क्या ईमानदारों की ज़िंदगी फूलों की सेज ही होती है, यह एक अलग मुद्दा है...यह चर्चा का विषय़ नहीं है। 

लेकिन फिर भी समझता कोई नहीं है, मैंने अकसर देखा-सुना है कि लोग इस तरह के सब धंधे-वंधे करने के बाद, बंगले -वंगले बांध के, दुनिया के सामने देवता का चोला धारण कर लेते हैं। 

अभी तक खबरें आती रहती हैं किस तरह से यूपी में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में लिप्त लोगों ने लूट मचाई और इन का क्या हुआ यह भी बताने की ज़रूरत नहीं। 

दो चार िदन पहले मैं लखनऊ में हिन्दुस्तान अखबार देख रहा था.....शायद पहले ही पन्ने पर यह खबर थी कि एक मिलावटी कारोबारी को ऐसे मटर बेचने पर १० वर्ष की कैद हुई है जो सूखे मटरों को हरे पेन्ट से (जिस से दीवारों को पेन्ट करते हैं) रंग दिया करता था। अगर सूखे मिलावटी मटरों के लिए दस वर्ष तो मिलावटी, घटिया दवाईयों का गोरखधंधे वालों को और इन की मदद करने वालों के लिए फांसी या फिर उम्र कैद कोई ज़्यादा लगती है? नहीं ना....बिल्कुल नहीं. ....आप का क्या ख्याल है? आम आदमी वैसे ही महंगाई से बुरी तरह त्रस्त है, पता नहीं वह कैसे बीमारी का इलाज करवाने का जुगाड़ कर पाता है, ऊपर से नकली दवाई उसे थमा दी जाएगी तो उसे कौन बचाएगा?

इन बेईमानों, मिलावटखोर, बेईमान धंधों में लिप्त सभी लोगों को इन पर फिट होता एक गीत तो डैडीकेट करना बनता है........