डायरी मैं भी लिखता हूं—मैंने एक चिट्ठा ही बना रखा है –डाक्टर की डायरी से --- लेकिन मुझे पता है कि मैं उसे लिखने में इमानदारी नहीं कर रहा हूं। मैं यह इसलिये नहीं कह रहा हूं क्योंकि मैंने उस में कुछ गलत लिखा है, तोड़-मरोड़ के लिखा है, बात यह नहीं है---तो फिर बात है क्या ? – बात वास्तव में यह है कि मैं बहुत सी ऐसी बातें लिखने के लिये हिम्मत नहीं जुटा पाता हूं जो मुझे वास्तव में मुझे सब से ज़्यादा कचोटती रहती हैं। और डायरी लिखते वक्त किसी बात को गल्त तरीके से पेश करना या कुछ बातों को बड़ी शातिरता से छुपा लेना --- देखा जाये तो जुर्म तो एक सा ही हुआ ---हुआ कि नहीं ?
इसी डायरी से बात याद आ रही है मुझे मेरे एक बुज़ुर्ग मरीज़ की- लगभग 70 वर्ष के होंगे। पहले वह नियमित तौर पर अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आते थे और उनकी बातचीत में बहुत गर्म-जोशी देखने को मिलती थी। मुझे वह बहुत ज़िंदादिल इंसान दिखते थे।
एक महीना पहले जब वह मेरे पास आये तो मुझे बुझे बुझे से लगे --- परेशान से ---क्या है ना कि इस उम्र के किसी इंसान के चेहरे को पढ़ना और भी आसान हो जाता है ---सारी किताब ही हमारे सामने खुली पड़ी होती है। मैंने उन्हें दवाई देने के बाद पूछ ही लिया कि क्या बात है आज आप पहले जैसे चुस्त-दुरूस्त नहीं दिख रहे । कहने लगे कि बस ऐसे ही कुछ परेशानियों ने घेर रखा है ।
जब मैं उन के मैडीकल के केस-पेपर्ज़ देख रहा था तो उस में से कागज़ का टुकड़ा भी पड़ा था जिस में उन्होंने सैनेटरी के सामान का पूरा हिसाब किताब रखा हुआ था ---मिस्त्री को दिये गये पैसे के बारे में भी लिखा हुआ था। मुझे उन से बात कर के ऐसा लगा कि वह शरीर से ज़्यादा दुःखी नहीं हैं, मन से कहीं ज़्यादा दुःखी हैं।
मैंने उन से पूछा कि क्या आप डायरी लिखते हैं- जवाब मिला नहीं। मैंने उन्हें कहा कि आज अभी आप हास्पीटल से निकल कर पहला काम यह करेंगे कि एक डायरी खरीदेंगे, ज़रूरी नहीं कि यह कोई बहुत महंगी किस्म की हो। अगर आप चाहें तो एक स्कूल वाली नोट बुक खरीद लें और घर जा कर आज से ही डायरी लिखना शुरू कर दें।
वह महानुभाव मेरी बात बड़ी तन्मयता से श्रवण कर रहा था ---मैं लोहा गर्म देखते हुये आगे कहना शुरू किया --- आप उस में वह सब कुछ लिख डालिये जिसे किसे से कहते हुये या तो आप डरते हैं, झिझकते हैं और या जिसे कोई सुनना ही नहीं चाहता। वह मेरी बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे।
मैंने उन के केस-पेपरों में सैनिटरी वर्क्स का कागज़ देखा था – बता रहे थे कि वे घर में कुछ सैनिटरी का नया काम करवा रहे हैं। तो मैंने उदाहरण इसी बात की ली—मैंने पूछा कि क्या उस का काम सब ठीक चल रहा है--- तो उन्होंने दिल खोलना शुरू किया कि मैं इन मिस्त्रीयों से भी बड़ा परेशान हूं – एक दिन काम कर जाते हैं, चार दिन कोई और काम पकड़ लेते हैं। मैंने उन्हें आगे कहा कि क्या आप जानते हैं कि इस तरह की बातों का इलाज क्या है ----मैंने उन्हें कहा कि आप डायरी लिखा कीजिये।
मैंने उन्हें कहा कि आज डायरी की शुरूआत इस सैनिटरी वाले काम से ही करें ---- सैनिटरी का काम घर की सफाई करना है और यह डायरी मन की सफ़ाई करनी शुरू कर देगी। तो फिर आज आप यूं लिखिये कि किस सैनिटरी मिस्त्री से आप परेशान हैं --- वह क्यों आप के लिये सिरदर्द बना हुआ है --- उस से आप को क्या गिले-शिकवे हैं ---- सब कुछ उस में इमानदारी से लिख डालिये --- लेकिन शर्त केवल यही है कि जब आप उसे लिखें तो शत-प्रतिशत इमानदारी बरतें—उस में कुछ भी लिखना चाहें, बिना किसी रोक-टोक के लिखिये ---वह आप की डायरी है, कोई परवाह नहीं। आप किसी को बुरा भला कहना चाह रहे हैं तो लिख डालिये न, आप को भला इस कायनात में कौन ऐसा करने से रोक रहा है। किसी को गालियां देने की इच्छा हो रही है, तो यह शुभ कर्म भी कर डालो। वह बुज़ुर्ग मेरी बातें बड़ी लगन से सुन रहे थे।
वैसे तो मैं जिस सत्संग में जाता हूं वहां पर किसी को बुरा भला कहने के लिये बिल्कुल मना किया जाता है – गाली गलौज की बात तो बहुत दूर की बात हो गई। लेकिन जब कोई आदमी बदलेगा तब बदलेगा --- तब तक तो अपनी नोटबुक और कलम ज़िंदाबाद। मैं उन को कह रहा था कि लिखते हुये किसी बात की परवाह न किया करें—जो बात भी, जो इंसान आप को परेशान किये हुये हैं उन के बारे में दिल खोल कर लिखा करें। अगर आपकी आप के पड़ोसी के साथ टुक-टुक रहती है तो यार आप को कम से कम इसे कागज़ पर उतार लेने से कौन रोक रहा है, लिखिये बिंदास हो कर लिखिये। मेरी इस बात पर उन की तो बांछें ही खिल गईं और उन्होंने जो ठहाका लगाया वह मैं कभी नहीं भूलूंगा ----विश्वास कीजिये, मज़ा आ गया, मुझे लगा कि मेहनत सफल गई। और मैं उस ठहाके को हमेशा याद रखूंगा।
मैंने उन्हें आगे बताया कि इस बात की परवाह मत करिये कि इसे कोई पढ़ लेगा—वैसे हो सके तो आप घर में सब को बता कर रखिये कि मेरी डायरी जब तक मैं जीवित हूं तब तक कोई भी न पढ़े। फिर भी अगर गलती से कोई पढ़ भी ले, तो यह तो उस की समस्या है। और मैंने उन्हें आगे सुझाव दिया कि पहले पन्ने पर यह नोटिस भी लिख दें कि अव्वल तो इसे कोई पढ़े नहीं, वरना अगर गलती से, जिज्ञासा वश पढ़ भी ले तो इस में लिखी किसी बात के बारे में मेरे से चर्चा न करे।
मैं उन बुज़ुर्ग के चेहरे के बदलते भाव देख रहा था --- मैंने फिर उन्हें कहा कि यह काम आज से ही शुरू हो जाना चाहिये। उस दिन जाते जाते कहने लगे कि डाक्टर साहब, आप से बातें करने के बाद मुझे तो अभी से ही बहुत अच्छा लगने लगा है, मैं आज ही यह रोज़ाना लिखने का काम करना शुरू करता हूं। जाते जाते मैंने उन्हें इतना ही कहा कि देखिये, शरीर के लिये तो आप ने दो एक दवाईयां खा लीं और आप फिट हो गये, लेकिन अफसोस इस मन के लिये कमबख्त कोई टेबलेट ऐसी बनी नहीं है जो इसे लाइन पर ला सके ---उस काम के लिये नये नये तरीकों की खोज करनी होगी और डायरी लिखना और पूरी इमानदारी से अपनी बात को अपने आप को कहना उसी दिशा में किया गया एक ऐसा ही सार्थक प्रयास है।
पता नहीं हम कितनी बातें अपने मन के अंदर ही दबा कर बैठे रहते हैं, किसी से करने में झिझकते हैं, डरते हैं ( विभिन्न कारणों की वजह से) – और सब प्रकार की बीमारियों को अपने शरीर में घर बनाने के लिये निमंत्रण देते रहते हैं। पंजाबी में हम लोग अकसर कहते हैं ---- दिल खोल लै यारां नाल, नहीं तां डाक्टर खोलणगे औज़ारां नाल ( दिल खोल ले यारों से, वरना डाक्टर खोलेंगे औज़ारों से )--- अब अगर यार की जगह कोई डायरी ले रही है तो क्या फर्क पड़ता है।
यह तो बुज़ुर्ग हैं ना आज की तारीख में बहुत अकेले हैं ---- इस के कारण लिखने की मुझे यहां ज़रूरत महसूस नहीं हो रही --- सब कुछ आप जानते हैं। और यही अकेलापन इन की अधिकांश तकलीफ़ों की जड़ है। ये शारीरिक बीमारियों को कुछ नहीं समझते, उन को तो ये बड़े खेल-पूर्ण भाव से सहन कर लेते हैं, उन से टक्कर भी ले लेते हैं , और बहुत बार जीत भी जाते हैं ---- लेकिन इन्हें इस जीत हार की इतनी परवाह नहीं होती, दरअसल ये लोग हारते हैं तो अपनों से ही हारते हैं ---- अपने बेटों-बहुओं के हाथों जब से हारते हैं, जब अपने पौतों के हाथों हारते हैं ---तो इन से यह सहा नहीं जाता, ये टूट जाते हैं और तरह तरह की मन की तकलीफ़ों के शिकार हो जाते हैं ----विशेषज्ञ कुछ भी कहें, लेकिन अभी तक कोई टेबलेट मेरे विचार में तो बनी नहीं जो किसी के मन को भी स्थायी तौर पर दुरूस्त कर डाले। इसलिये भी यह डायरी लिखनी बहुत आवश्यक है ---गांव में कुछ लोग यह सब कुछ लिखने पढ़ने की जगह गांव की चौपाल पर बैठ कर, बुज़ुर्ग महिलायें घर के बाहर खटिया डाल कर अपने मन को हल्का करने का काम बखूबी कर लिया करती थीं ----अब अगर कोई इसे निंदा-चुगली की संज्ञा दे तो दे, अगर बस चंद मिनटों के लिये मुंह की मैल उतार लेने के बाद, अपने तपते हुये मन की तपिश (गर्म हवा, हवाड़) निकालने के बाद उन्हें अच्छा लग रहा है, तो अपना क्या जाता है !!
और मैं जिस बुज़ुर्ग की बात कर रहा था उन्हें मैंने इतना भी कह दिया कि जब आप कुछ महीनों बाद,अपने वर्षों बाद अपनी ही लिखी डायरी पढ़ेगे तो मज़ा आ जायेगा।
लेकिन मैं यह सब कुछ इतनी विश्वसनीयता से कैसे लिख रहा हूं --- क्योंकि मैं यह सब कुछ लिखता रहता हूं ---- जब कभी सिर भारी होता है तो यह काम सिर को हल्का करने के लिये करना ही पड़ता है। नेट पर लिखना ठीक है, लेकिन इस काम के लिये तो आपकी अपनी कापी और पेन से बढ़ कर कोई हथियार है ही नहीं---- नहीं, नहीं, ऑनलाइन डायरी हम लोगों के लिये नहीं है, ऐसा मैं सोचता हूं। कुछ लोग लिखते हैं –लेकिन अनॉनीमस ढंग से लिखते हैं ---जो लोग अपने नाम से, अपनी सही पहचान के साथ लिखते हैं वे बधाई के पात्र हैं। वैसे भी हिंदी में क्या कोई ऑन-लाइन डायरी लिख रहा है--- वैसे तो यह ब्लाग भी ऑन-लाइन डायरी ही है, लेकिन मैं पर्सनल ऑन-लाइन डायरी की बात कर रहा हूं !!
ऑन-लाइन डायरी में अगर अपनी पहचान बता कर के कोई डायरी लिख रहा है तो मेरे विचार में वह पूरी इमानदारी चाहते हुये भी बरत नहीं पाता है। अपने उजले पक्ष के बारे में लिख लिख कर आदमी खुद ही परेशान हो जाता है, चलिये अगर अपने अंधकारमय पक्ष के बारे में किसी से नहीं भी बात करनी तो कम से कम अपने आप से लिख कर बात करने से हम क्यों अपने आप को रोके रखते हैं ? बात है कि नहीं सोचने लायक --- अगर हां, तो उठाइये कलम से और अभी एक नोट बुक पर अपना गुब्बार निकालना शुरू कर दीजिये। और जैसा मैंने अपने उस बुज़ुर्ग मरीज़ को यह भी कहा था कि आप यह लिखना तो शुरू करें, देखिये आप की ज़िंदगी में हरियाली और खुशहाली आ जायेगी------- दोस्तो, अगर आप के आप पास भी कोई बुझी सी आत्मा आप को दिख रही है तो उस तक भी मेरा यह संदेश अवश्य पहुंचा दीजियेगा, कृपा होगी – समझूंगा पोस्ट लिखने का परिश्रम सार्थक होगा।
बड़े दिन की बहुत बहुत मुबारकें --- कल रात ही मैं रोहतक से लौटा हूं और आज यहां यमुनानगर में घना कोहरा छाया हुया है।
नायाब लेख।
जवाब देंहटाएंस्पष्ट आत्म-लेखन को ले कर गाँधीजी की याद आ गयी।
बहुत सुंदर लिखा आप ने, सच मै आज बुजुर्ग लोग बहुत अकेले है, अगर किसी के पास समय नही तो चल जाता है, लेकिन जब अपने ही बेटे बेटिया इन्हे दुतकारते है....... तो दिल टुट जाता है.
जवाब देंहटाएंआप का धन्यवाद बहुत कुच कह दिया आप ने अपने इस लेख मै.