बुधवार, 19 मई 2010

एशियाई समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों(bisexual) में एचआईव्ही इंफैक्शन के चौका देने वाले आंकड़े

एशियाई समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों में बैंकाक में एचआईव्ही का प्रिवेलैंस 30.8 प्रतिशत है जब कि थाईलैंड में यह दर 1.4 प्रतिशत है। यैंगॉन के यह दर 29.3 फीसदी है जब कि सारे मयंमार में यह दर 0.7 प्रतिशत है। मुंबई के समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों में यह इस संक्रमण की दर 17 प्रतिशत है जब कि पूरे भर में एचआईव्ही के संक्रमण की दर 0.36 प्रतिशत है।

संयुक्त रा्ष्ट्र के सहयोग से हुये एक अध्ययन से इन सब बातों का पता चला है--और तो और इन समलैंगिकों एवं बाइसैक्सुयल लोगों की परेशानियां एचआईव्ही की इतनी ज़्यादा दर से तो बड़ी हैं ही, इस क्षेत्र के कुछ देशों के कड़े कानून इन प्रभावित लोगों के ज़ख्मों पर नमक घिसने का काम करते हैं।

न्यूज़-रिपोर्ट से पता चला है कि एशिया पैसिफिक क्षेत्र के 47 देशों में से 19 देशों के कानून ऐसे हैं जिन के अंतर्गत पुरूष से पुरूष के साथ यौन संबधों को एवं द्विलिंगी ( Bisexual- जो लोग पुरूष एवं स्त्री दोनों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं) गतिविधियों के लिये सजा का प्रावधान है।

इन कड़े कानूनों की वजह से छिप कर रहते हैं-- और इन लोगों में से 90प्रतिशत को न तो कोई ढंग की सलाह ही मिल पाती है और न ही समय पर दवाईयां आदि ये प्राप्त कर पाते हैं। कानून हैं तो फिर इन का गलत इस्तेमाल भी तो यहां-वहां होता ही है। इस के परिणामस्वरूप इन के मानवअधिकारों का खंडन भी होता रहता है।

इन तक पहुचने वाली रोकथाम की गतिविधियों को झटका उस समय भी लगता है जब इन प्रभावित लोगों की सहायता करने वाले वर्कर (out-reach services) - जो काम अकसर इस तरह का रूझान ( MSM -- men who have sex with men) रखने वाले वर्कर भी करते हैं--उन वर्करों को पुलिस द्वारा पकड़ कर परेशान किया जाता है क्योंकि उन के पास से कांडोम एवं लुब्रीकैंट्स आदि मिलने से ( जो अकसर ये आगे बांटने के लिये निकलते हैं) यह समझ लिया जाता है कि वे भी इस काम में लिप्त हैं और इस तरह के सारे सामान को जब्त कर लिया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि अगर इस वर्ग के लिये भी एचआईव्ही के संक्रमण से बचाव एवं उपचार के लिये कुछ प्रभावशाली करने की चाह इन एशियाई देशों में है तो इन्हें ऐसे कड़े कानूनों को खत्म करना होगा, जिन कानूनों के तहत इन लोगों के साथ भेदभाव की आग को हवा मिलती हो उन्हें भी तोड़ देना होगा, यह भी इस रिपोर्ट में कहा गया है।

विषय बहुत बड़ा है, इस के कईं वैज्ञानिक पहलू हैं, विस्तार से बात होनी चाहिये ---फिलहाल आप इस लिंक पर जा कर मैड्न्यूज़ की साइट पर इस रिपोर्ट को देख सकते हैं --- HIV among gay, bisexual men at alarming highs in Asia.

रविवार, 16 मई 2010

हार्ट चैक-अप के लिये पीटा जा रहा है ढिंढोरा

आज जब मैं सुबह कहीं जा रहा था तो मैंने सुना कि एक रिक्शे पर एक सज्जन यह घोषणा कर रहा था कि फलां फलां दिन उस बड़े हस्पताल (कारपोरेट हस्पताल) से एक बहुत बड़ा हार्ट का स्पैशलिस्ट आ रहा है जो मरीज़ों के हार्ट की फ्री जांच करेगा।
इस तरह के इश्तिहार/ पैम्फलेट कईं बार अखबारों के अंदर से तो गिरते देखे हैं लेकिन शायद आज मैं इस काम के लिये इस तरह का ढिंढोरा पिटता पहली बार देख रहा था। ढिंढोरा ही हुआ --- क्या हुआ अगर ढोलकची गायब था।
कुछ समय बाद ध्यान आया कि कुछ वर्ष पहले जिन छात्रों का दाखिला मैडीकल कॉलेजों में नहीं होता था उन के शुभचिंतक उन्हें यह कह कर अकसर दिलासा देने आया करते थे ----हो न हो, ज़रूर इस में कोई भलाई ही है -- डाक्टरों की तो हालत ऐसी हो रही है कि तुम देखना आने वाले समय में डाक्टर गली-मोहल्लों में स्वयं मरीज ढूंढा करेंगे--------मैं आज यह अनाउंसमैंट सुन कर यही सोचने लग गया कि आने वाला समय पता नहीं कैसा होगा?
मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है कि हार्ट के रोगियों से हार्ट के विशेषज्ञों का सीधा संपर्क --केबल में विज्ञापन के माध्यम से, अखबार में पैम्फलेट डलवा कर और अब एक किस्म से ढिंढोरा पिटवा कर। आप को क्या लगता है कि इस तरह का मुफ्त चैक-अप क्या मरीज़ों के हित में है ? सतही तौर पर देखने से यही लगता है कि इस में क्या है, कोई दिल का मुफ्त चैक-अप कर रहा है तो इस में हर्ज़ क्या है?
चलिये, कुछ समय के लिये इस बात को यही विराम देते हैं। एक दूसरी बात शुरू करते हैं --- बात ऐसी है कि अगर किसी को ब्लड-प्रैशर है या इस तरह का कोई और क्रॉनिक रोग है तो सब से पहले तो उसे चाहिये कि वह इन बातों का ध्यान करे ---
सभी तरह के व्यसनों को एक ही बार में छोड़ दे या चिकित्सीय सहायता से छोड़ दे। तंबाकू का किसी भी रूप में इस्तेमाल आत्महत्या करने के बराबर है---अगर ये शब्द थोड़े कठोर लग रहे हों, तो ये कह लेते हैं कि स्लो-प्वाईज़निंग तो है ही।
शारिरिक व्यायाम एवं परिश्रम करना शुरू करे।
खाने-पीने में वे सभी सावधानियां बरतें जिन का आज लगभग सब को पता तो है लेकिन मानने के लिये प्रेरणा की बेहद कमी है।
किसी भी तरह से नमक का कम से कम इस्तेमाल करे।
तनाव से मुक्त रहे --- तनाव को दूर रखने के लिये हमारी प्राचीन पद्धतियों का सहारा ले जैसे कि योग, प्राणायाम्, ध्यान (meditation).
कल एक स्टडी देख रहा था कि जो लोग रोज़ाना 10-12 घंटे काम करते हैं उन में दिल के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
इन सब के साथ साथ खुश रहने की आदत डालें (क्या यह मेरे कहने मात्र से हो जायेगा..!.)
अब आप यह कल्पना कीजिये कि अगर कोई बंदा इन ऊपर लिखी बातों की तरफ़ ध्यान दे नहीं रहा बल्कि ब्लड-प्रैशर के लिये सीधा हृदय रोग विशेषज्ञ से संपर्क करता है तो उस से हो क्या जायेगा ? --- कहने का भाव है कि थोड़ी बहुत भी तकलीफ़ होने पर सब से पहले ऊपर लिखी बातों पर ध्यान केंद्रित किया जाए --- और अपने फैमिली डाक्टर से ज़रूर संपर्क बनाये रखा जाए----- he knows your body inside out hopefully. और अगर उसे लगेगा कि किसी एम डी फ़िज़िशियन से परामर्श लेने की ज़रूरत है, वह कह देगा। यह तो हुआ एक आदर्श सा सिस्टम जिस में सारा काम कायदे से चले।
और फिर फ़िज़िशियन को भी लगेगा कि किसी दिल के विशेषज्ञ से चैकअप करवाना ज़रूरी है तो वह मरीज़ को रैफर कर देगा। लेकिन समस्या यह है कि आज कल इधर उधर से मिलनी वाली अध-कचरी नॉलेज ने मरीज़ों को और भी परेशान कर दिया है कि उन्हें लगता है अगर थोड़ी बहुत टेंशन की वजह से थोड़ा बहुत ब्लड-प्रैशर भी बढ़ गया है तो भी किसी हार्ट के विशेषज्ञ को ही दिखाना ठीक रहेगा।
लेकिन मुझे लगता है इस तरह से अपनी मरजी से ही डाक्टरों के पास पहुंच जाना ज़्यादा लोगों के लिये हितकर नहीं है। कारण ? --- जो लोग अफोर्ड कर सकते हैं उन्हें शायद मेरी बात में इतना तर्क नज़र न भी आता है। शायद उन्हें लगा कि मैं तो उन्हें समय से पीछे ले कर जा रहा हूं ---जब स्पैशलिस्ट उपलब्ध हैं तो फिर उन्हें दिखाया क्यों न जाए  ?
लेकिन अधिकतर लोगों के बस में नहीं होता कि वे इन सुपर स्पैशलिस्ट के पास जा कर इन की फीसें भरे और महंगे महंगे टैस्ट करवायें। वे चाहते हुये भी इन टैस्टों को कराने में असमर्थ होने के कारण अपनी परेशानियों को बढ़ा लेते हैं।
अब वापिस अपनी बात पर आते हैं ----इन हार्ट चैक्अप के लिये लगने वाले फ्री कैंपों की तरफ़। एक आधा टैस्ट जैसे कि ईसीजी वहां फ्री ज़रूर कर दी जाती है ---- और शायद एक आध और टैस्ट। और इस के बाद कुछ मरीज़ों को उन की ज़रूरत के अनुसार ऐंजियोग्राफी करवाने के लिये कहा जाता है और फिर उस में गड़बड़ होने की हालत में बाई-पास सर्जरी।
अब देखने की बात है कि अधिकतर लोग इस देश में आम ही है ----अब सिचुएशन देखिये कि वह अपनी इस तरह की तकलीप़ के लिये सीधा पहुंच गया हार्ट-चैक करवाने --- और उसे कह दिया गया कि तेरे तो दिल में गड़बड़ है। अब न तो यह हज़ारों रूपयों से होने वाले टैस्ट ही करवा पाये और न ही लाखों रूपये में होने वाले आप्रेशन ही करवा पाए -----वह कुछ करेगा नहीं, सोच सोच कर मरेगा -- इतने पैसों का जुगाड़ कर पाता नही, और पता नहीं अगले कईं साल तक वैसे तो निकाल लेता लेकिन एक बार डाक्टर ने कह दिया कि तेरा तो भाई फलां फलां टैस्ट या आप्रेशन होना है तो समझो कि यह तो गया काम से।
मुझे इस तरह से ढिंढोरा पीटने वालों से यही आपत्ति है कि क्यों हम किसी भूखे को बढ़िया बढ़िया बेकरी के बिस्कुट दिखा कर परेशान करें ----अगर वह हमें पैसे देगा तो हम उसे वे बिस्कुट देंगे, ऐसे में क्यों हम उसे सताने का काम करें।
तो बात खत्म यहीं होती है कि कोई भी तकलीफ़ होने पर अपने खान-पान को, अपनी जीनव शैली को पटड़ी पर वापिस लाया जाए और ज़रूरत होने पर अपने फैमिली फ़िज़िशियन से मिलें ----सीधा ही सुपर स्पैशलिस्ट को दिखाना मेरे विचार में आम आदमी के हित में होता नहीं है। साधारण तकलीफ़ों के उपचार भी साधारण होते हैं।
एक बात और भी है कि मान लीजिये लाखों रूपये के बोझ तले दब कर आप्रेशन भी करवा लिया लेकिन बीड़ी-तंबाकू का साथ छूटा नहीं, सारा दिन एक जगह पर पड़े रहना और खाना-पीना भी खूब गरिष्ट, नमक एवं मसालों से लैस -----क्या आप को लगता है कि ऐसे केस में आप्रेशन से होने वाले फायदे लंबे अरसे तक चल पाएंगे ?
हां, एक बात हो सकती है कि बाबा रामदेव की खाने-पीने एवं व्यायाम करने की सारी बातें मानने से क्या पता आप को उतनी ही फायदा हो जाए ------लेकिन यह विश्वास की बात है ---आस्था की बात है ---- यह प्रभु कृपा की बात है ---इस में कब दो गुणा दो दस हो जाएं और कब शून्य हो जाए--- यह सब हम सब जीवों की समझ से परे की बात है।
आप को भी लग रहा है ना कि यार, यह तो प्रवचन शूरू हो गये ----मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है इसलिये बस एक आखिरी बात आपसे शेयर करके विराम लूंगा।
कुछ दिन पहले मैं सहारनपुर में एक सत्संग में गया हुआ था --मेरे सामने दो-तीन दोस्त बैठे हुये थे। दोस्तो, वे लोग बीच बीच में आपस में हंसी मज़ाक कर रहे थे और जिस तरह से वे खुल कर ठहाके मार रहे थे, उन्हें देख कर मै भी बहुत खुश हुआ। मैं उस समय यही समझने की कोशिश कर रहा था कि दिल से निकलनी वाली हंसी इतनी संक्रामक क्यों होती है।
कमबख्त हम लोगों की बात यह है कि हम लोग हंसना भूलते जा रहे है ---किसी से साथ दिल कर बात इसलिये नही करते कि कहीं कोई इस का अन-ड्यू फायदा न ले ले ---बस इसी फायदे नुकसान की कैलकुलेशन में ही पता ही कब बीमारियों मोल ले लेते हैं। टीवी पर एक बार एक हार्ट-स्पैशलिस्ट कह रहा था ----
दिल खोल लै यारा नाल,
नहीं तां डाक्टर खोलनगे औज़ारा नाल।
( बेपरवाही से अपने दोस्तों से दिल खोल कर बाते किया कर, वरना डाक्टरों को आप्रेशन करके दिल को खोलना पड़ सकता है) .....

मैडीकल न्यूज़ - आप के लिये

कुछ मीठा हो जाए ---टीका लगवाने से पहले

टीका लगवाने से पहले मीठा खा लेने से दर्द कम होता है और एक महीने से एक वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिये डाक्टरों एवं नर्सों को सिफारिश की गई है कि इन्हें टीका लगाने से पहले ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ के पानी के घोल की कुछ बूंदे ---ज़्यादा से ज़्यादा आधा चम्मच ----दे देनी चाहिये। इस से इन शिशुओं को टीका लगवाने में कम दर्द होता है।

एक और रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि इस तरह से अगर छोटे बच्चों को कम पीड़ा होगी तो उस से टीकाकरण के कार्यक्रम को भी एक प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि ऐसा देखा गया है कि अगर बच्चा ज़्यादा ही रोने लगता है या उस की परेशानी देख कर कुछ मां-बाप अगली बार टीका लगवाने से पीछे हट जाते हैं।

इस खबर में बताई बात को मानने के लिये एक तरह से देखा जाए तो किसी कानून की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन कुछ फिजूल के प्रश्न ये हो सकते हैं ---कितना ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ खरीदा जाए, कहां से खरीदा जाए कि सस्ता मिले, इस का घोल कौन बनायेगा, .........और भी तरह तरह के सवाल।

कहने का भाव है कि बात बढ़िया लगी हो तो मां-बाप स्वयं इस तरह की पहल कर लें कि बच्चों को टीका लगवाने के लिये ले जाते वक्त इस तरह का थोडा़ घोल स्वयं तैयार कर के ले जाएं ताकि उस टीकाकरण कक्ष में घुसते वक्त शिशु को उसे पिला दें। आप का क्या ख्याल है ? और ध्यान आया कि हमारी मातायें चोट लगने पर हमें एक चम्मच चीनी क्यों खिला दिया करती थीं और हम लोग झट से दर्द भूल जाया करते थे।

पांच साल के कम उ्म्र के शिशुओं की आधी से ज़्यादा मौतें पांच देशों में

विश्व भर में पांच साल से कम आयु के शिशुओं की जितनी मौतें होती हैं उन की लगभग आधी संख्या चीन, नाईज़ीरिया, भारत, कॉंगो और पाकिस्तान में होती हैं।

और जो 88 लाख के करीब मौतें एक साल में पांच वर्ष से कम बच्चों की होती हैं उन में से दो-तिहाई तो निमोनिया, दस्त रोग, मलेरिया, संक्रमण की वजह से रक्त में विष बन जाने से (blood poisoning) हो जाती हैं।

कुछ अन्य कारण हैं बच्चे के जन्म के दौरान होने वाले जटिल परिस्थितियां, जन्म के दौरान बच्चे को ऑक्सीजन की कमी और जन्म से ही होने वाले शरीर की कुछ खामियां --- complications during child birth, lack of oxygen to the newly born during birth and congenital defects.

और एक बात जो आंखे खोलने वाली है वह यह है कि इन मौतों में से 40फीसदी के लगभग मौतें शिशु के जन्म के 27 दिनों के अंदर ही हो जाती हैं।

यह तो हुई खबर, और इसी बहाने में अपने तंत्र को टटोलना चाहिये। बच्चे के जन्म के दौरान उत्पन्न होने वाली जटिलताओं का सब से प्रमुख कारण है बिना-प्रशिक्षण ग्रहण की हुई किसी दाई का डिलीवरी करवाना। और जो यह छोटे छोटे बच्चों में सैप्टीसीमिया (septicemia)---- "blood poisoning" हो जाता है इस का भी एक प्रमुख कारण है कि इस तरह की जो डिलीवरी घर में ही किसी भी "सयानी औरत" द्वारा की जाती हैं उन में नाडू (cord) को गंदे ब्लेड आदि से काटे जाने के कारण इंफैक्शन हो जाती है जो बहुत बार जानलेवा सिद्ध होती है।

और यह जो निमोनिया की बात हुई ---यह भी छोटे बच्चों के लिये जानलेवा सिद्ध हो जाता है। और इस की रोकथाम के लिये यह बहुत ज़रूरी है कि बच्चों को मातायें स्तन-पान करवायें जो कि रोग-प्रतिरोधक एंटीबाडीज़ से लैस होता है। और नियमित टीकाकरण भी इस से बचाव के लिये बहुत महत्वपूर्ण है -----ठीक उसी तरह से जिस तरह से यह सिफारिश की जाती है कि शिशुओं को पहले तीन माह में स्तन-पान के अलावा बाहर से पानी भी न दिया जाए ताकि उसे दस्त-रोग से बचाये रखा जा सके। और ध्यान तो यह भी आ रहा है कि नवजात शिशुओं को पहले 40 दिन तक जो घर के अंदर ही रखने की प्रथा थी -- हो न हो उस का भी कोई वैज्ञानिक औचित्य अवश्य होगा-------और अब अगले ही दिन से बच्चे के गाल थपथपाने, उस की पप्पियां लेनी और देनी शुरु हो जाती हैं -----इन सब से नवजात शिशुओं को संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है।

अमेरिका में सलाद के पत्तों को भी मार्कीट से वापिस उठा लिया गया ....
अमेरिका में सलाद के पत्तों (lettuce leaves) को मार्कीट से इस लिये वापिस उठा लिया गया क्योंकि उन में ई-कोलाई (E.coli) नामक जावीणु के होने की पुष्टि हो गई थी। इस जीवाणुओं की वजह से इस तरह के पदार्थ खाने वाले को इंफैक्शन हो सकती है --- जिस में मामूली दस्त रोग से मल के साथ रक्त का बहना शामिल है और कईं बार तो इस की वजह से गुर्दे का स्वास्थ्य भी इतनी बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है कि यह जान तक ले सकता है।

अब सोचने के बात है कि क्या हमारे यहां सब कुछ एकदम फिट मिल रहा है--- इस प्रश्न का जवाब हम सब लोग जानते हैं लेकिन शायद हम इस तरह की तकलीफ़ें-बीमारियां सहने के इतने अभयस्त से हो चुके हैं कि हमें हर वक्त यही लगता है कि यह सब्जियों में मौजूद किसी जीवाणुओं की वजह से नहीं है, बल्कि हमारे खाने-पीने में कोई बदपरहेज़ी हो गई होगी----- कितनी बार सब्जियों को अच्छी तरह से धोने की बात होती रहती है, ऐसे ही बिना धोये कच्ची न खाने के लिये मना किया जाता है।

जाते जाते ध्यान आ रहा है कि वैसे हम लोग इतने भी बुरे नहीं हैं ---- कल सुबह बेटे ने कहा कि स्कूल के लिये पर्यावरण पर कोई नारा बताइये ---मैं नेट पर कुछ काम कर रहा था ---मैंने environment quotes लिख कर सर्च की ---जो परिणआम आये उन में से एक यह भी था ----

" कम विकसित देशों में कभी पानी मत पियो और बहुत ज़्यादा विकसित देशों की हवा में कभी सांस न लो "...................
और हम यूं ही ईर्ष्या करते रहते हैं कि वो हम से बेहतर हैं ------लेकिन कैसे, यह सोचने की बात है -----Today's Food for Thought !!

शुक्रवार, 14 मई 2010

तंबाकू प्रोडक्ट्स पर कैसी हो चेतावनी ? ---ज़रा देखिये

बिल्कुल सीधी सी बात है कि वह चेतावनी कैसी जिसे देख कर, पढ़ कर भी आदमी पनवाड़ी से सिगरेट-बीड़ी-गुटखे का पैकेट मांगे--- चेतावनी तो वही सही चेतावनी है कि बंदे को हिला के रख दे--- एक बार तो किसी को भी ऐसा हिला दे कि यार, कहीं तंबाकू के सेवन से मेरे साथ भी ऐसा न हो जाए-- हाथ में बुझी हुई बीड़ी को बिना दोबारा सुलगाए ही नाली में फैंक दे, पाउच को डस्ट-बिन में दे मारे, गुटखे-तंबाकू-खैनी जैसे ज़हर को तुरंत थूक कर कुल्ला करने के साथ ही हमेशा से इस ज़हर को खाने से तौबा कर ले ---ऐसी चेतावनी हो कि जनमानस नफरत करने लग जाए।

वरना छोटी मोटी चेतावनी को क्या कहे ? --- बस एक वैधानिक जिम्मेदारी पूरी करने के इलावा कुछ भी तो नहीं!! और अगर तंबाकू उत्पादों पर छपी चेतावनियों से भी छेड़-छाड़, चुस्त चालाकी कि कैसे भी इस का सेवन करने वाले की आंखों में यह न पड़े और अगर गलती से पड़ भी जाए तो वह ढंग से इसे पढ़ ही न पाए और पढ़-देख भी ले तो इस का उस पर असर नहीं पड़े।


मैं कल विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट देख रहा था --वहां मैंने देखा कि तंबाकू मुक्त पहल (tobacco-free initiative) के अंतर्गत एक ऐसा पन्ना तैयार किया है जिस में उन्होंने कुछ देशों में तंबाकू के बुरे प्रभावों को दर्शाती तस्वीरें जो उन देशों में इन उत्पादों पर छपती हैं, का विवरण दिया है।


यह पन्ना देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा --- कारण यही था कि मुझे लगा कि इस से इस मुद्दे पर भी पारदर्शिता आयेगी ---हम अपने यहां पर छपने वाली तीन तस्वीरों को देख कर ही न खुश होते रहें कि देखो, दुनिया वालो, हम कितने महान हैं। इसलिये ऐसी कोई भी राय बनाने से पहले ज़रा एक नज़र कुछ देशों में इस काम में इस्तेमाल की जाने वाली तस्वीरों की तरफ़ आप एक नज़र मारना चाहेंगे ?


वैनेज्यूला में इस के व्यसन के बारे में इस तरह की चेतावनी छपती है ---



ब्राज़ील में तंबाकू से चमड़ी पर होने वाले बुरे प्रभाव जैसे झुर्रियां आदि से आगाह करने के लिये इस तसवीर का सहारा लिया जाता है


तंबाकू का इस्तेमाल करने वाले के मुंह से जो गंदी बास आती है उस के लिये यह तस्वीर आप को कैसी लगी




और तंबाकू मौत का सौदागर है इस के लिेये यह फोटोग्राफ कैसा है



और तंबाकू के शरीर पर अन्य क्या क्या बुरे प्रभाव पड़ते हैं क्यों लोग इस तरह से तस्वीर से भांप न लेते होंगे



खून की नाडि़यों को यह कैसे प्रभावित करता है आप भी देखिये

आंख के लिये इतना खतरनाक है तंबाकू


दिल तो समझ लो गया तंबाकू से

फेफड़े की सिंकाई से क्या हो जायेगा, आइये इधर देखें

और मुंह में यह क्या कोहराम मचायेगा, बाप रे बाप



और दिमाग की नस फट गई तो क्या केवल वही फटती है ?

और हाथों-पैरों में तंबाकू की वजह से जब खून का दौरा कम हो जाता है तो बड़े बड़ों की बस हो जाती है






और तंबाकू से आवाज़ को क्या हो जाता है ?



ओ हो, यह क्या पंगा --- अगर तंबाकू बंदे के पौरूष पर ही वार करने लगे तो ....

और अगर मां-बापू भी तंबाकू का इस्तेमाल किये जा रहे हैं तो ..

और अगर गर्भवती महिला तंबाकू के सेवन से गुरेज न करे ंतो



तंबाकू छोड़ने के बारे में यह तसवीर कैसी है

और यह जो दूसरे दर्जा का तंबाकू है इसे इस तरह की तस्वीर से दिखाना कैसा है ?



महिलायों में कैसे यह तंबाकू उत्पात मचाता है, यह तस्वीर बहुत कुछ कह ही रही है


अच्छा तो आपने दूसरे देशों में तो प्रचलित ये सब तसवीरें देख ही लीं जिन से तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करने वाले के मन में दशहत सी बैठने लगती है।

आपने क्या अपने यहां प्रचलित तसवीरें देखी हैं और इन को जारी करने से पहला कितना बवाल मचा था उस के बारे में तो सब जानते ही हैं। आप क्या कह रहे हैं कि आपने इन तस्वीरों को कभी नोटिस नहीं किया ---- नहीं,यार ऐसा मत कहो, इन्हें तो मैंने भी कईं बार गुटखे के पैकेटों पर छपा देखा है। आप को क्या लगता है कि ये जो नीचे तीन तस्वीरें (अगर इन्हें आप तस्वीरें कह सकें तो)हैं जो अपने यहां छपती हैं, तंबाकू के बारे में दशहत पैदा करने में किसी तरह से ऊपर दिखाई गई तस्वीरों के मुकाबले में यह कितनी कारगर होंगी।

वैसे मैंने सुना है कि भारत में भी तंबाकू के प्रोडक्ट्स पर छपने वाली डरावनी किस्म की तसवीरों पर विचार किया जा रहा है...देखते हैं कब यह विचार विमर्श संपन्न होता है। डरावनी क्या, तस्वीरें इतनी खौफ़नाक हों कि लोग इन से दूर भागने लगें। ये जो ऊपर आप ने तस्वीरें देखी हैं ये विभिन्न देशों में इस्तेमाल की जा रही हैं।

आप मेरे इन तीन तस्वीरों के बारे में विचार जान कर क्या करेंगे ---मैं जानता हूं कि बिच्छू कैंसर का सिंबल है, लेकिन कितने लोग यह जानते हैं इसलिेये मुझे तो इस पहली तस्वीर देख कर तो यही लग रहा है कि इस पैकेट के साथ बच्चों का एक प्लास्टिक का बिच्छू खिलौना भी मिलेगा( जैसा मेरी मां बचपन में पेस्ट के साथ लाया करती थीं), अगली में लग रहा है कि कोई हीरो-छाप लड़का जैकेट डलवा कर फोटो खिंचवा रहा है, और तीसरी तस्वीर में मुझे क्यों लगता है कि पान तैयार किया जा रहा है।

पो्सट लिखने में जितनी भी मेहनत लगी, उसे मैं तभी सार्थक मानूंगा अगर इसे देखने के बाद कुछ दोस्त इस व्यसन को छोड़ देंगे ---अब प्लीज़ कोई इसे Moral policing न कहे, बुरा लगता है।




गुरुवार, 13 मई 2010

बैनाड्रिल क्रीम खा लेने से हो गई आफ़त

समझ में नहीं आता कि बैनाड्रिल क्रीम को कैसे कोई खा सकता है --- लेकिन कुछ लोगों ने इस तरह की हरकत की होगी या गलती से उन से हो गई होगी जैसा कि इस रिपोर्ट में कहा गया है तभी तो अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने जनता को आगाह किया है कि खारिश-खुजली के लिये बाज़ार में उपलब्ध बैनाड्रिल क्रीम को अगर निगलने की कोशिश की जाएगी तो परिणाम भयंकर निकल सकते हैं। क्योकि बैनाड्रिल नामक दवाई का इस तरह से इ्स्तेमाल करने से बहुत मात्रा में डाइफैनहाइड्रामिन नामक साल्ट शरीर में पहुंच जाता है जिस से बेहोशी, और दिमाग में अजीबो-गरीब विचार आने शूरू हो जाते हैं ---- it can lead to confusion, hallucinations and unconsciousness.

एफ डी आई ने ऐसे केसों को संज्ञान में लेते हुये यह चेतावनी जारी की है ---दरअसल बैनाड्रिल नामक दवाई की टेबलैट्स आदि तो निगलने /खाने (to be taken orally) के लिये होती हैं लेकिन अगर गलती से भी चमड़ी पर लगाई जाने वाली बैनाड्रिल क्रीम को निगल लिया जाये (यह कैसे हो सकता है, मेरी समझ में नहीं आया, क्योंकि अकसर लोग क्रीम कहां "खाते" हैं ---और मुंह के अंदर भी कोई क्रीम आदि लगाने से पहले अच्छी तरह से आश्वस्त हो लेते हैं कि यह मुंह में लगाने के लिये ही है ना----ऐसे में पढ़े-लिखे लोगों द्वारा इस तरह की गलती होना----- बात हजम तो नहीं हो रही, लेकिन हां अगर कोई इस तरह की हरकत जान-बूझ कर करने के लिये तुला हो तो उस के कोई क्या करे।

चलो, दूर देश की बात हो गई --अपने यहां तो और भी विषम समस्यायें हैं---अधिकांश लोग अंग्रेज़ी पढ़ना जानते नहीं हैं लेकिन दवाईयों की सभी स्ट्रिपों, टयूबों की डिब्बीयों एवं बोतलों आदि पर सब कुछ अंग्रेज़ी में ही लिखा रहता है, क्या हुआ अगर कभी कभी हिंदी में लिखे कुछ नाम दिख जाएं।

यह तो बात हम सब लोग मानते ही हैं कि ये नाम केवल अंग्रेज़ी में ही लिखे होने के कारण कईं हादसे तो होते ही हैं----और जितने हादसे हमारे यहां होते होंगे उन में से एक फीसदी भी प्रकाश में नहीं आते होंगे क्योंकि हमारे यहां ऐसा कुछ सिस्टम है ही नहीं कि इस तरह के आंकड़े नेशनल स्तर पर या राज्य स्तर पर इक्ट्ठे किये जाएं। लोगों को भी मजबूरी में सब कुछ चुपचाप भुगतने की हम सब ने लत सी डाल दी है।

कुछ इसी तरह की गलतियां जो अकसर लोग करते हैं इन का उल्लेख भी करना उचित जान पड़ता है।

----डिस्प्रिन की गोली है ---उसे केवल हमें पानी में घोल कर ही लेना हितकर होता है ---लेकिन बहुत बार लोग उसे भी थोड़े से पानी के साथ निगल कर ले लेते हैं --इस से पेट की अंदरूनी झिल्ली (mucous membrane of the stomach) को नुकसान पहुचने का डर रहता है।

और तो और, मैंने देखा है कि कुछ लोग दर्द के लिये ली जाने वाली टैबलेट को पीस कर दांत के दर्द से निजात पाने के लिये मुंह में रख लेते हैं। इस से दांत दर्द तो ठीक होना दूर, बल्कि मुंह में कईं घाव हो जाते हैं जिन्हें ठीक होने में कई कई दिन लग जाते हैं।

---- मैडीकल फील्ड में हैं तो सभी लोगों से मिलना होता है, सब की बातें सुनते हैं तो ही पता चलता है कि कहां क्या चल रहा है। कुछ लोगों में अभी भी यह भ्रांति है कि उन्हें शरीर में जो कमज़ोरी किसी भी तरह से महसूस सी हो रही है, उस के लिये उन्हें या तो दो-तीन ग्लूकोज़ की बोतलें चढ़ा दी जाएं तो वे फिट हो जाएंगे --क्योंकि वे हर साल यह काम करवा लेते हैं। और तो और, कईं तो यह भी कहते हैं कि चढ़ाई चाहे न भी जाएं, अगर वे एक-दो ग्लुकोज़ की बोतलें पी भी लेंगे तो एक दम चकाचक हो जाएंगे। उन्हें यह समझने की ज़रूरत है कि अगर ऐसी ही बात है तो वे बाज़ार से गुलकोज़ पावडर लेकर पानी में घोल कर क्यों नहीं पी लेते ? सच यही है कि ये केवल भ्रांतियां मात्र हैं, सच से कोसों दूर-------ये बोतले केवल क्वालीफाई डाक्टर की सलाह अनुसार ही मरीज़ों को चढाई जाएं तो ठीक है, वरना कोई यूं ही हठ करने लग जाये h उसे कोई क्या कहे ? और फिर लोग कहते हैं कि फलां फलां नीमहकीम ग्लुकोज़ की बोतलें चढ़ा चढ़ा कर चांदी कूटने में लगा हुआ है।

---- कईं बार यह भी देखा है कि कईं लोग कैप्सूल को खोल कर उस में मौजूद पावडर को पानी के साथ ले लेते हैं ------शायद ये लोग समझते होंगे कि कैप्सूल का बाहर का जो खोल है वह केवल खूबसूरती बढ़ाने के लिये है लेकिन वास्तविकता यह है कि इस कैप्सूल में जो दवाई मौजूद होती है उसे अगर हम चाहते हैं कि यह पेट में घुलने की बजाए सीधा आगे जाकर आंत के किसी हिस्से में घुले,तो इस तरह की दवाई को कैप्सूल के रूप में दिया जाता है। यह क्यों किया जाता है ---यह एक लंबा विषय है --दवाई की नेचर (एसिडिक या बेसिक------ अम्लीय अथवा क्षारीय प्रवृत्ति) यह सब तय करती है कि उसे पेट(stomach) में ही अपने काम आरंभ करने देना है या आगे आंतड़ियों में पहुंचा कर उसे डिसइंटिग्रेट (disintegration of the drug which facilitates its absorption) होने देना है।

--- दवाईयों का हर तरह से जो दुरूपयोग हो रहा है, वह हम सब से छिपा नहीं है। खूब धड़ल्ले से ये दर्द की टैबलेट, टीके, खांसी के सिरप, एलर्जी की दवाईयां, नींद की दवाईयां नशे के लिये तो इस्तेमाल हो ही रही हैं. लेकिन खतरनाक बातें इस तरह की भी हैं कि आयोडैक्स जैसी दवाई को नशा करने वाले ब्रैड पर लगा कर खाने लगे हैं।

आठ दस साल पहले जब मैने नवलेखक कार्यशालाओं में जाया करता था तो वहां पर बहुत महान, धुरंधर, लिक्खाड़ हमेशा यही कहा करते थे कि बस कागज-कलम लेकर बैठने की देर होती है----कलम का क्या है,अपने आप दौड़ने लगती है..........यही संदेश मैं अब आगे लोगों को कलम का इस्तेमाल करने की प्रेरणा देते समय इस्तेमाल करता हूं। हां, इस बात का ध्यान आज इस तरह आ गया क्योंकि मैं सुबह से ही यह पचा ही नहीं पा रहा था कि बैनाड्रिल क्रीम को आखिर कोई क्यों खायेगा --------लेकिन अभी लिखते लिखते ध्यान आया कि हो न हो, गलती से किसे न इस तरह की क्रीम को खा लिया हो, यह तो चलिये मान लेते हैं, लेकिन यह सारा नशे का चक्कर भी तो हो सकता है, क्योंकि उन "विकसित" देशों में तो ये सब टैबलेट्स तो डाक्टरी नुख्से पर ही मिलती हैं लेकिन अगर किसी के हाथ इस तरह की क्रीमें लग जाती होंगी तो फिर इन्हें खाकर या मुंह में रगड़ कर काम चला लिया जाता होगा, ऐसा मुझे लगता है कि इस चेतावनी के पीछे यही कारण होगा------- i wish i were wrong !!

तो क्या सच में भूसी इतने काम की चीज़ है ?

शायद अगर आप भी मेरे साथ इस वक्त अपने बचपन के दिन याद करेंगे तो याद आ ही जायेगा कि सुबह सुबह गायें गली-मौहल्लों में घूमते आ जाया करती थी और घरों की महिलायें रोज़ाना उन के आगे एक बर्तन कर दिया करती थीं जिन में दो-एक बासी रोटी और बहुत सी भूसी(चोकर, Bran) पड़ी रहती थी। और गायें इन्हें बड़े चाव से खाती थीं। हम छोटे छोटे थे, हमें देख कर यही लगता था कि हो न हो यह भूसी भी बहुत बेकार की ही चीज होगी।
लेकिन फिर जैसे जैसे पढ़ने लगे तो पता चलने लगा कि यह भूसी तो काम की चीज है। हां, तो बचपन में क्या देखते थे--कि आटा को गूंथने से पहले उसे छाननी से जब छाना जाता तो जितना भी चोकर(भूसी) निकलती उसे गाय आदि के लिये अलग रख दिया जाता। और फिर समय आ गया कि लोग गेहूं को पिसवाने से पहले उस का रूला करवाने लगे ---मुझे इस के बारे में कोई विशेष जानकारी तो नहीं है, लेकिन ज़रूर पता है कि रूला करने के प्रक्रिया के दौरान भी उस गेहूं के दाने की बाहर की चमड़ी (Outer thin covering) उतार दी जाती है। ज़ाहिर है इस से पौष्टिक तत्वों का ह्रास ही होता है।

और मैंने कईं बार आटे की चक्कीयों में देखा है कि लोग उन से बिल्कुल सफ़ेद,बारीक आटे की डिमांड करते हैं ---इसलिये इन चक्की वालों ने इस तरह का सफेद आटा तैयार करते वक्त निकली भूसी को अलग से जमा किया होता है ---जो पहले तो केवल पशुओं को खिलाने के लिये ही लोग खरीद कर ले जाया करते थे लेकिन अब मैंने सुना है कि मीडिया में सुन कर लोग भी इसे खरीदने लगे हैं ताकि इसे बाद में बाज़ारी आटे में मिला सकें।

जी हां, भूसी(चोकर) गेहूं की जान है ---मैं तो बहुत पहले से जान चुका हूं लेकिन अधिकांश लोग तभी मानते हैं जब इस बात को गोरे लोग अपने मुखारबिंद से कहते हैं ---तो फिर सुन लीजिये, अमेरिका की हार्डवर्ड इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भूसी के बहुत फायदे हैं ----आप को तो पता ही है कि जो बात यह लोग रिसर्च करने के बाद कहते हैं वे एक तरह से पत्थर पर लकीर होती है....क्योंकि इन के रिसर्च करने के तौर-तरीके एकदम जबरदस्त हैं --न कोई कंपनी इन को इंफ्ल्यूऐंस कर सके और न किसी भी तरह की सिफारिश ही इन के पास फटक पाए।

हां, तो इन वैज्ञानिकों ने लगभग 8000 महिलायों पर यह रिसर्च की है --और आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि इन्होंने इस रिसर्च को 26 वर्षों तक जारी रखा और उस के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि भूसी का लाभ डायबीटिज़( मधुमेह) के रोगियों को तो बहुत ही ज़्यादा होता है, और आप स्वयं मैडी-न्यूज़ पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को विस्तार से पढ़ लें ---Bran Intake helps those with Diabetes.

वैसे तो इस रिपोर्ट में इतने बढ़िया ढंग से सब कुछ ब्यां किया गया है लेकिन अगर मैडीकल भाषा थोड़ी मुश्किल लगे तो परवाह नहीं। हम ने आम गिन कर क्या करने हैं, आम छक के बात को दफ़ा करने की बात करते हैं। कितने अच्छे से लिखा है कि जिन डायबीटीज़ से ग्रस्त लोगों ने भूसी का इस्तेमाल किया और ऱेशेदार खाने वाली चीज़ों( जैसे कि साबुत अनाज आदि) उन में हृदय-रोग की वजह से मृत्यु होने के चांस 35फीसदी कम हो गये---------क्या यह कम उपलब्धि है ?

बातें सुनने सुनाने में तो और भी बहुत बढ़िया बढ़िया हैं ----क्या हमें भूसी के फायदों का पहले से पता नहीं है, लेकिन हमारी वेदों-शास्त्रों पर दर्ज़ इन बातों पर जब विदेशी समझदार लोगों की मोहर लग जाती है, हम लोग तभी सुनने के लिये तैयार होते हैं वरना हमें लगता है---ठीक है, देख लेंगे, कभी ट्राई कर लेंगे।

अब, भूसी को कैसे अपने खाने पीने में लाएं --सब से पहले मोटा आटा इस्तेमाल करें जिस में से न तो चोकर ही निकला हो और न ही उस का रूला किया गया हो। यह बेइंतहा ज़रूरी है ---- हर अच्छे चिकित्सक द्वारा इस का ढिंढोरा पीटा जा रहा है लेकिन मरीज़ इस तरफ़ शायद कोई विशेष ध्यान नहीं देते।

और मैं कईं मरीजों से सुनता हूं कि वे भूसी बाज़ार से खरीद लाते हैं -----मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जहां हर तरह मिलावट का बा़ज़ार गर्म है, वहां बाज़ार में बिकने वाली इस भूसी में भी मिलावट का कीड़ा लगते कहां देर लगेगी ?

इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग मोटे आटे से शूरूआत करें ---और मैंने कुछ लोगों से बात की है कि इस आटे को छानना तो पड़ता ही है, वह ठीक है, छानिये, लेकिन कचरा अलग कर के भूसी को वापिस आटे में मिला ही देना चाहिये।

यह स्टडी तो है मधुमेह के रोगियों को लेकर -----लेकिन इस तरह का मोटा आटे खाने से स्वस्थ लोगों को भी अपनी सेहत बरकरार रखने में मदद मिलती है। इस तरह का आटा रक्त-की नाड़ियों के अंदरूनी परत के लिये तो लाभदायक है, यह हमें पेट की नाना प्रकार की बीमारियों से बचा लेता है।

बाजार मे मिलने वाले आटे के बारे में आप का क्या ख्याल है ? -- क्या करें, बड़े शहरों में रहने वालों की अपनी मजबूरियां होंगी, लेकिन फिर भी इतना तो ध्यान रखें ही आटा मोटा है, और उस में चोकर है, इस के बारे में अवश्य ध्यान देना होगा------सफेद, मैदे, रबड़ जैसी रोटियों के पीछे भागने से परेशानी ही हाथ लगेगी।

आटे का दिल देखिये, उस का चेहरा नहीं। और साबुत अनाज लेने के भी बहुत लाभ बताये गये हैं क्योंकि इन में रेशे (fibre) की मात्रा बहुत अधिक होती है। बहुत बार सुनता हूं कि यह डबलरोटी रिफाइन्ड फ्लोर से नहीं होल-व्हीट से तैयार की गई है ----अब कौन जाने इस में कितना सच है, मुझे बहुत बार लगता है कि क्या शुद्ध गेहूं का इस्तेमाल करने से ही डबलरोटी इतनी ब्राउन हो जाती है ----हो न हो, कोई कलर वलर का लफड़ा तो होगा ही। लेकिन अब किस किस बात की पोल खोलें -----यहां तो जिस भी तरफ़ नज़र घुमाओ लफड़े ही लफड़े हैं, ऐसे में क्या करें..........फिलहाल, मोटे आटे (जिस में भूसी मौजूद हो) की बनी बढ़िया बढ़िया रोटियां सिकवायें।

और हां, उुस घर की चक्की को याद करती हुई एक संत की बात का ध्यान आ गया --
दादू दुनिया बावरी पत्थर पूजन जाए,
घर की चक्की कोई न पूजे जिस का पीसा खाए।

सोमवार, 10 मई 2010

सच में यह इंसान बहुत बड़े गुर्दे वाला है ..

पिछले कुछ दिनों में ऐसे तीन केस मेरी नज़र में आये जिन में बस पहली बार ही पेट में दर्द हुआ --दर्द ज़्यादा था, अल्ट्रासाउंड करवाया गया तो पता चला कि दो केसों में गुर्दे में पत्थरी है और एक केस में किसी दूसरी तरह की रूकावट (stricture) है।

एक केस तो लगभग बीस साल के लड़के का--- पहले कोई समस्या नहीं, बस एक बार पेट में दर्द उठा, पेशाब में जलन ---और अल्ट्रासाउंड करवाने पर पता चला कि पत्थरी तो है ही लेकिन इस की वजह से दायें गुर्दे में पानी भी भर गया है ---अब यह देसी जुगाड़ वाली भाषा ही बड़ी खतरनाक है--- मुझे कईं बार लगता है कि डाक्टरों एवं पैरामैडीकल लोगों का एक विषय यह भी होना चाहिये कि प्रादेशिक भाषाओं में मरीज़ को कैसे बताना है कि उसे क्या तकलीफ़ है, अब जो तकलीफ़ है, वह तो है लेकिन कईं बार इतने लंबे लंबे से डरावने नाम सुन के मरीज के साथ साथ उस के संबंधी भी लड़ाई से पहले ही हिम्मत हार जाते हैं।



हां, तो हम लोग उस बीस साल के लड़के की बात कर थे जिसे स्टोन तो है और इस के साथ उस के एक गुर्दे में पानी भर गया है --इसे मैडीकल भाषा में हाइड्रोनैफरोसिस (hydronephrosis) कहते हैं। इस तरह की हालत के बारे में सुन कर किसी का भी थोड़ा हिल सा जाना स्वाभाविक सा है।

और एक दूसरे केस में जिस की उम्र लगभग पचास साल की थी उस में भी पेट दर्द ही हुआ था और जांच करने पर पता चला कि एक गुर्दे में पानी भरा हुआ है और इस की वजह कोई रूकावट लग रही थी ---जब उस ने रंगीन एक्स-रे ( IVP --intravenous pyelogram) करवाया तो पता चला कि किसी स्ट्रिक्चर (stricture) की वजह से यह तकलीफ हो रही है।

आप भी सोच रहे होंगे कि यह क्या हुआ ---पहले से कोई तकलीफ़ नहीं, बस एक बार पेट में दर्द हुआ और पता लगा कि यहां तो कोई बड़ा लफड़ा है।

एक बात तो तय है कि 35-40 की आयु के आसपास तो हम सब को अपनी नियमित जांच करवानी ही चाहिये और कईं बार उस में पेट का अल्ट्रासाउंड (ultrasonography of abdomen) भी शामिल होता है।

अकसर देखने में आया है कि अल्ट्रासाउंड की इस तरह की रिपोर्ट आने के बाद भी कईं बार उसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। यही सोच कर कि कोई बात नहीं, अपने आप देसी दवाई से सब ठीक हो जायेगा।

लेकिन एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि दवा देसी हो या ऐलोपैथिक --एक तो अपने आप नहीं और दूसरा किसी क्वालीफाई डाक्टर के नुख्से द्वारा ही प्राप्त की जानी चाहिये। वरना बीमारी लंबी खिंच जाती है।

अब उस 20 साल के लड़के की ही बात करें ---अल्ट्रासाउंड करवाने के बाद उसे चाहिये कि किसी सर्जन से मिले जो ज़रूरी समझेगा तो रंगीन एक्स-रे करवायेगा ताकि पत्थरी से ग्रस्त गुर्दे के बारे में और भी कुछ जाना जा सके। और फिर प्लॉन किया जा सके को पत्थरी किस तरह से निकालनी है।

अब यह सोचना स्वाभाविक है कि पहेल अल्ट्रासाउंड, फिर रंगीन एक्स-रे और फिर ब्लड-यूरिया, सीरम किरैटीनिन ( Blood urea, Serum creatinine etc) --- इतने सारे टैस्ट ही परेशान कर देंगे। लेकिन यह गुर्दे की सेहत को समझने के लिये नितांत आवश्यक हैं।

अल्ट्रासाउंड से तो पता चल गया कि गुर्दे की बनावट कैसी है, वह अपने सामान्य आकार से बड़ा है या कम है, बड़ा है तो उस के बड़े होने का कारण क्या है, क्या उस में पानी भरा हुया है, अगर हां, तो गुर्दे के किन किन हिस्सों में पानी भरा हुया है, और अल्ट्रासाउंड से यह भी पता चलता है कि पत्थरी है तो कहां पड़ी है, उस का साईज़ कितना है, क्या आयुर्वैदिक दवाईयों से उस का अपने आप बाहर निकलने का कोई चांस है या नहीं, क्या यह केस लिथोट्रिप्सी (lithotripsy -- किरणों से पत्थरी की चूरचूर कर देना) के लिये सही है या फिर इस में सर्जरी करनी चाहिये।

इतने सारे निर्णय कोई भी चिकित्सक एक अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट देख कर ही नहीं कर पाता --- उस के लिये उसे कईं तरह के और टैस्ट भी करने होते हैं। पेट का रंगीन एक्स-रे (IVP -- intravenous pyelography) करने से उस के गुर्दे के बारे में एवं उस के आस पास के एरिया के बारे में डाक्टर और भी बहुत सी जानकारी इक्ट्ठी करता है ताकि बीमारी का डॉयग्नोसिस एकदम सटीक हो।

और अब अगर चिकित्सक को यह देखना हो कि इस के गुर्दों की कार्य-क्षमता क्या है, ये काम कैसे कर रहे हैं, इसके लिये उसे मरीज के रक्त की जांच करवानी पड़ती है जिस के द्वारा उस के शरीर में ब्लड यूरिया एवं सीरम क्रिटेनिन आदि के स्तर का पता चलता है जिस के द्वारा यह पता चलता है कि इस के गुर्दे कितनी कार्यकुशलता से अपना काम कर रहे हैं।

यह सब को देख लेने के बाद चिकित्सक निर्णय लेते हैं कि आगे क्या करना है। वैसे आप को यह लगता होगा कि अगर किसी को इस तरह की तकलीफ़ हो तो उसे जाना कहां चाहिये ----जो डाक्टर गुर्दे के आप्रेशन इत्यादि करते हैं उन्हें यूरोलॉजिस्ट कहते हैं ---Urologist --- अगर अल्ट्रासाउंड में पत्थरी होने की पुष्टि हो गई है तो यूरोलॉजिस्ट के पास जाना ही मुनासिब है। यह जो यूरोलॉजी सुपर-स्पैशलिटी है इसे सामान्य सर्जरी (MS general surgery) की डिग्री लेने के बाद तीन साल की एक और डिग्री (MCh) करने के बाद किया जाता है।
वैसे देखा गया है कि कुछ सामान्य सर्जन भी गुर्दे संबंधी सर्जरी में अच्छे पारंगत होते हैं ---सारा अनुभव का चक्कर है, अपनी अपनी रूचि की बात है---इसलिये बहुत बार अच्छे अनुभवी सामान्य सर्जन भी इस तरह की सर्जरी से मरीज़ को ठीक ठाक कर देते हैं।

मुझे ऐसा लगता है और जो मरीज़ मेरे पास किसी तरह के मशवरे के लिये आते हैं उन्हें मैं यह सलाह देता हूं कि तीन चार भिन्न भिन्न जगह दिखा कर ही कोई निर्णय लें ---जैसे कि पहले तो किसी सर्जन से बात कर लें, फिर यूरोलॉजिस्ट को दिखा लें, और अगर लगे कि किसी आयुर्वैदिक विशेषज्ञ से भी बात की जाए तो ज़रूर करें क्योंकि ऐसा सुना है कि छोटी मोटी पत्थरी के लिये आयुर्वैदिक दवाई भी बहुत काम करती हैं। और ज़रूरत महसूस हो तो लित्थोट्रिप्सी सैंटर में जाकर दिखा आने में भी कोई खराबी नहीं -----सब विशेषज्ञों की सलाह के बाद अपना मन बनाया जा सकता है। लेकिन वही मिलियन डॉलर प्रश्न ----आखिर आम बंदा यह च्वाईस हो तो कैसे करे? कईं बार बस रब पर ही सब कुछ छोड़ना पड़ता है ---- मेरी एक बार कोई सर्जरी होनी थी, यूरोलॉजिस्ट करने ही वाले थे कि एक बहुत अनुभवी जर्नल सर्जन ओटी में किसी काम से घुसे और उन्होंने मेरे केस को देख कर चाकू अपने हाथ में ले लिया ----क्योंकि उन्हें देखते ही लगा कि  यह यूरोलॉजी का केस नहीं है, यह गैस्ट्रोइंटैसटाइनल ट्रैक्ट का केस था जिस में उन्हें विशेष महारत हासिल थी। होता है , कभी कभी ऐसा भी होता है। आज भी हम लोग जब उस दिन को याद करते है तो यही सोचते हैं कि अपनी होश्यारी कम ही चल पाती है, पता नहीं कब कौन सा फरिश्ता किस मुश्किल से निकालने कहां से आ जाता है !! है कि नहीं ?

हां, तो उस लड़के के गुर्दे में पानी भरे जाने की बात हो रही थी ---ऐसा इसलिये होता है कि चूंकि पेशाब के बाहर निकलने के रास्ते में अवरोध होता है इसलिये वह वापिस बैक मारता है और गुर्द मे यह सब जमा होने से गुर्दे फूल जाते हैं।

लेकिन अगर एक ही तरफ़ के गुर्दे में यह हाइड्रोनैफरोसिस की शिकायत है तो पत्थरी इत्यादि से निजात मिल जाने के बाद गुर्दा वापिस सामान्य होने लगता है।

इस में सब से अहम् बात यह है कि किसी तरह की देरी नहीं होनी चाहिये --क्योंकि गुर्दे के रोग इस तरह के हैं कि कईं कई साल तक ये बिना किसी लक्षण के पनपते रहते हैं और अचानक गुर्दे फेल होने के साथ धावा बोल देते हैं।

इस लिये गुर्दे के रोगों से बचाव बहुत ज़रूरी है --- और अगर कोई तकलीफ़ है तो उस का तुरंत उपचार ज़रूरी है। हा, हम ने यूरोलॉजिस्ट के बारे में तो बात कर ली, गुर्दे का एक विशेषज्ञ होता है ---नैफरोलॉजिस्ट (Nephrologist) जो दवाईयों आदि से मरीज़ के गुर्दे का उपचार करता है--- नैफरोलॉजिस्ट ने सामान्य MD (general Medicine) करने के बाद तीन साल की DM( Nephrology) का कोर्स किया होता है।

अब इस में कोई कंफ्यूजन नहीं होना चाहिये कि कोई तकलीफ़ होने पर यूरोलॉजिस्ट के पास जाया जाए अथाव नैफरोलॉजिस्ट के पास। जिस तरह की तकलीफॉ है उस तरह के स्पैशलिस्ट के पास ही जाना होगा ---- अब उदाहरण देखिये कि अगर सर्जन कहता है कि किसी व्यक्ति के गुर्दे में ऐसी कोई तकलीफ़ नहीं है जिस का आप्रेशन करने की ज़रूरत है लेकिन उस बंदे के गुर्दों की सेहत अल्ट्रासाउंड से और ब्लड-टैस्ट द्वारा पता चलता है कि ठीक नहीं है, ऐसे में उसे नैफरोलॉजिस्ट के पास भेजा जाता है। यही कारण है कि नैफरोलॉजिस्ट विशेषज्ञों के पास ब्लड-प्रैशर एवं डायबीटीज़ आदि रोगों से ग्रस्त ऐसे लोग बहुत संख्या में पहुंचते हैं जिन के गुर्दे में इन रोगों की वजह से थोड़ी गड़बड़ होने लगती है।

बड़े बड़े कारपोरेट हस्पतालों में तो सभी तरह के विशेषज्ञ यूरोलॉजिस्ट, लैपरोस्कोपिक सर्जन ( जो दूरबीन द्वारा गुर्दे आदि के आप्रेशन करते हैं), नैफरोलॉजिस्ट, लित्थोट्रिप्सी सैंटर आदि सभी कुछ रहता है ---- बस, मरीज़ की हालत, ज़रूरत एवं उस की जेब पर काफी कुछ निर्भर करता है।

लेकिन सोचने की बात है कि ये तकलीफ़े आजकल इतनी बढ़ क्यों गई हैं ----हम सब कुछ लफड़े वाला ही खा -पी रहे हैं,  कोई कितने भी ढोल पीट ले, लेकिन हर तरफ़ मिलावट का बाज़ार गर्म है-----ऐसे में बड़े बड़ो की छुट्टी हो जाती है, अब गुर्दे भी कितना सहेंगे ---------- लेकिन जितना हो सके जितना अपनी तरफ़ से कोशिश हो बच सकें, बाकी तो प्रभु पर छोड़ने के अलावा क्या कोई चारा है?

बातें तो बहुत सी हो गईं लेकिन इस पोस्ट के शीर्षक का जवाब मेरे पास नहीं है ---पंजाब में अकसर लोग किसी की तारीफ़ के लिये भी यह कह देते हैं ----ओए यार, एस बंदे का बड़ा वड्डा गुर्दा ए -- (इस आदमी का गुर्दा बहुत बड़ा है) ---पता नहीं, यह कहावत कहां से चली ?

रविवार, 9 मई 2010

इतने ज़्यादा लोग दस्त रोग से परेशान क्यों हैं?


ज़्यादातर चिकित्सालयों के वार्ड आज कल उल्टी-दस्तरोग-मलेरिया आदि से परेशान रोगियों से भरे पड़े हैं। दस्त रोग की गलत इलाज से जितनी चांदी ये झोलाछाप डाक्टर कूट रहे हैं शायद ही किसी ने इतनी लूट मचाई हो, इन का धंधा ही लोगों की गरीबी, अज्ञानता एवं मजबूरी पर फल-फूल रहा है।

पता नहीं मुझे बड़ी चिढ़ सी होती है कि वैसे तो हम लोग बड़ी बड़ी हांकते हैं लेकिन ज़मीनी असलियत यह है कि उल्टी दस्त रोग, मलेरिया, डेंगू , वायरल बुखार को तो हम कंट्रोल कर नहीं पा रहे हैं। इसलिये मैं चिकित्सा विज्ञान में हो रहे नये नये आविष्कारों के बारे में पढ़ता हूं तो मुझे उन के बारे में ज़्यादा कभी इच्छा ही नहीं हुई। अपने लोग इतने आम रोगों से जूझ रहे हैं, मर रहे हैं और हम इस पर लेख लिखते रहे हैं कि अब महिलायों के लिये भी वियाग्रा आने वाली है और पुरूषों के लिये वियाग्रा से भी बढ़ कर एक टैबलेट का परीक्षण चल रहा है जो उन में शीघ्र-पतन की समस्या का निवारण करेगी।

हालात जो भी हैं, हम या हमारे आस पास के लोग कितने ज़्यादा या कम पढ़े लिखे हैं, हमारी क्या आर्थिक स्थिति है, हम कौन सा पानी पीते हैं, हम क्या झोलाछाप डाक्टरों के हत्थे चढ़ते हैं कि नहीं, हमें घटिया दवाईयां थमा दी जाती हैं -----ये तो कभी न खत्म होने वाले मुद्दे हैं लेकिन कुछ बातें हैं जिन्हें अगर हम लोग हर वक्त कुछ भी खाते पीते वक्त ध्यान में रखें तो इस रोग के रोगों से काफी हद तक अपना बचाव कर सकते हैं।

---हाथ साफ़ करने की आदत --- साफ़ सुथरे पानी से कुछ भी खाने से पहले अच्छी तरह से हाथ धोना हमें बहुत से रोगों से बचा लेता है। यह बात तो छोटी सी लगती है लेकिन यकीन मानिये, यह आदत इतनी आम नहीं है जितनी लगती है। बहुत नज़दीक से लोगों को देखने से पता चलता है कि इस तरह की आदतें बचपन से ही पड़ जाएं तो बेहतर है वरना तो बस.....।

--- आप जिस पानी को पी रहे हैं वह कैसा है ?

मुझे यह देख कर बहुत हैरानगी होती है कि हम लोग घर के बाहर कहीं भी पानी पीने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं करते। किसी भी दुकान में जाएं और उन का आदमी ट्रे में पानी लेकर आ गया और हम ने पी लिया ---- ऐसा क्यों भाई? वह पानी कहां से आ रहा है, उस की हैंडलिंग कैसी हो रही है, यह तो नहीं कि ठंड़ा है और हमें प्यास लगी है तो भगवान का नाम लेकर पी लिया। मेरे विचार में यह ठीक नहीं है।

किसी भी दुकान में ही क्यों, किसी भी रेस्टरां में भी हम लोग पानी पीते वक्त कुछ भी नहीं सोचते--- और किसी भी सार्वजनिक स्थान पर, किसी भी दफ्तर में बस पानी पीते वक्त इतना ध्यान रखना चाहिये कि इस की क्वालिटी क्या है।
आप को मेरी बातों से लग रहा है कि डाक्टर तो लगता है चाहता है कि हम लोग हर वक्त 12-14 रूपये वाली पानी की बोतलें ही खरीदते रहें। मेरे व्यक्तिगत विचार में ये 10-15 रूपये की पानी की बोतलें खरीदना हम लोगों की बदकिस्मती है कि हम लोगों ने बहुत से क्षेत्रों में तो बहुत तरक्की कर ली , लेकिन वह किस काम की अगर हम लोग अपने लोगों को साफ, स्वच्छ, सुरक्षित, बीमारीमुक्त जल ही मुहैया नहीं करवा पाये।

मैं भी यह बोतलें खरीदता हूं क्योंकि मैं बाहर कहीं भी पानी पी लेता हूं तो फिर कईं कईं दिन बीमार पड़ा रहता हूं, इसलिये मैं बाहर कहीं भी पानी नहीं पीता और केवल बोतल का पानी ही इस्तेमाल करता हूं। मुझे ये बोतलें खरीदते वक्त अपने आप में बहुत घटियापन महसूस होता है क्योंकि अकसर इन दुकानों पर महिलायें व बच्चे एक एक रूपये की भीख मांग रहे होते हैं, पास ही की एक सार्वजनिक टूटी से बीसियों लोग गर्मागर्म पानी पी रहे होते हैं और सामने ही कहीं कोई कचरे के ढेर से कोई खाने के लिये कुछ ढूंढ रहा होता है, ऐसे में क्या बताएं कि ये बोतलें खरीदते वक्त क्या बीतती है ------ बस, उस समय वही लगता है कि साला मैं तो साहब बन गया!!

क्या व्यवस्था है दोस्तो कि जिस के पास पैसे हैं वह तो सुरक्षित जल पी ले, वरना जो भी पिये, हम क्या करें?
बहुत बार कहता रहता हूं कि आजकल घरों में जल शुद्धिकरण के लिये इलैक्ट्रोनिक संयंत्र लगाना हम सब के लिये एक ज़रूरत है----अच्छा अगली बार कभी आप जब बाहर किसी ऐसी जगह से पानी पीने लगें तो उस के आस पास लगे संयंत्र में ये भी देखिये कि क्या वह चालू हालत में है कि नहीं, बहुत सी जगहों पर बाहर कहां किसे इतनी चुस्ती, फुर्ती या प्रेरणा है कि वह यह देखे कि इस की नियमित सर्विसिंग हो रही है कि नहीं, ऐसे में यह पानी किस तरह का होगा, आप समझ ही सकते हैं।

कोशिश रहनी चाहिये कि घर से निकलते वक्त पानी साथ ही लेकर चलें, अब वही बात है ना कि एक-दो बोतल तो आदमी उठा ले, इतनी गर्मी का मौसम है, कोई 10-15 लिटर वाला कैंटर तो उठा कर लेकर जाने से रहा ---ऐसे में कोई क्या करे? मेरे पास भी इस का कोई समाधान नहीं है, आप के पास हो तो टिप्पणी में लिखियेगा।

कईं साल पहले जब मैं सुनता था कि जो लोग घर के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र से शुद्ध किया हुआ पानी पीने की आदत डाल लेते हैं, बस उन का तो हो गया काम --- वे बाहर कहीं भी एक बार भी पानी पी लेंगे तो उन का पेट खराब होना और तबीयत बिगड़ना लाजमी है। इस का कारण बताया जाता था कि इन लोगों में इम्यूनिटी ही नहीं विकसित हो पाती।

लेकिन मैं इस से बिल्कुल सहमत नहीं हूं ---मैं यह कह कर कोई सनसनी नहीं फैलाना चाहता लेकिन यह सच्चाई है कि अब पानी की वह हालत नहीं है कि केवल इम्यूनिटि डिवैल्प करने के लिये हम बिना शुद्ध किया हुआ पानी पी लें और यह सोचें कि कुछ नहीं होगा -----इसलिये अब कहीं भी पानी पीते वक्त ध्यान से सोचें तो बात बने।

शादी, ब्य़ाह और पार्टीयां ---- दस्त रोग की बात हो रही है और आज कर होने वाले ये शादी ब्याह उत्सव इस तरह की बीमारी फैलाने वाले अड्डे से लगने लगे हैं। पानी की तो दुर्दशा है ही। लेकिन जो पनीर, दही, रायता, विभिन्न तरह के पेय, आइसक्रीम, बर्फ के गोले, शरबत, वहां इस्तेमाल होने वाली बर्फ़---जितना इन सब से बच कर रह सकते हैं, उतना ही बेहतर होगा। बात सोचने वाली यह है कि डाक्टर, अगर इस तरह के उत्सवों से इतनी सारी बढ़िया बढ़िया चीज़ों से दूर ही रहना है तो फिर हम लोग और खास कर ये बच्चे लोग वहां करने क्या जा रहे हैं ?
इस के बारे में मैं भी सोचूंगा।

गर्मी के मौसम में बाहर खाना भी एक आफ़त है ----घर में पांच सदस्य हों, नौकर चाकर भी हों लेकिन फिर भी आप देखते ही हैं कि घर की महिलाओं की सारा दिन आफ़त सी हुई रहती है। ऐसे में होटलों, ढाबों और रेस्टरां में थोड़े थोड़े पैसों की दिहाड़ी पर काम करने वाले कितनी स्वच्छता रख पाएंगे, यह भी सोचने की बात है ?

इतना कुछ लिखने के बाद मैं यह सोच रहा हूं कि आप भी सोचने लगेंगे कि डाक्टर, तेरी बात अगर मानें तो घर से बाहर यूं ही कहीं भी पानी नहीं पीना, चालू खुली बिक रही आइसक्रीम नहीं खानी, शादी-ब्याह में भी मुंह नहीं खोलना, बाहर खाना भी नहीं खाना......................यह जीना भी कोई जीना है

सच की आवाज़ देना मेरी ज़िम्मेदारी है --- जो देखता हूं, जो अनुभव करता हूं उसे पाठकों के सामने रखना मेरा नैतिक दायित्व है, लेकिन उसे पढ़ कर अपना निर्णय लेना आप का अधिकार है।

जब भी इतने सारे दस्त-उल्टी रोग से परेशान मजबूर लोगों को देखता हूं तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं कर पाता ----एक बात और भी तो है ना कि अगर किसी नीम-हकीम के हत्थे न भी चढ़ें और किसी क्वालीफाई चिकित्सक के दवा-दारू से ठीक भी हो जायें लेकिन अगर खाने पीने की आदतें न बदलीं, तो वापिस किसी झोलाछाप के हत्थ चढ़ने में कहां देर लगती है?

रविवार, 2 मई 2010

हां, तो कैसी रही लोकसभा टीवी द्वारा परोसी गई एक कप चाय ?

देखो, भाई, मैंने तो आज सुबह ही आप सब तक यह सूचना पहुंचा दी थी कि आज बाद दोपहर लोकसभा टीवी की तरफ़ से एक कप चाय का निमंत्रण है। जैसा कि मैं बता ही चुका हूं कि मैंने तो इस दावत में कल ही शिरकत कर ली थी, लेकिन आज भी रहा नहीं गया--इसलिये दोपहर 2 से 4 बजे तक यह फिल्म देखने में मशगूल रहा। क्या फिल्म है!! ----आप को कैसी लगी? ---क्या कहा, देख नहीं पाये, भूल गये ? ----चलिये, परवाह नहीं।

तो फिर इस फिल्म की कहानी तो थोड़ी सुनानी ही पडे़गी। इतनी जबरदस्त फिल्म---ऐसी फिल्म जिसे दो दिन में दो बार देख लिया। क्योंकि यह फिल्म है ही ऐसी---- इस फिल्म में जो कुछ भी घट रहा है लगता है कि आप के आसपास ही , आप ही के गांव में ही यह सब हो रहा है। वैसे तो यह मराठी फिल्म है लेकिन इस के सब-टाइटल्स अंग्रेज़ी भाषा में हैं। चूंकि मैं मुंबई में दस साल तक रहा हूं इसलिये मुझे भाषा समझने में कुछ दिक्तत नहीं हुई। वैसे किसी ने कहा भी है कि मानवता की बस एक ही भाषा होती है। लेकिन क्या ही अच्छा  होता अगर इस के सब-टाइटल्स हिंदी में होते ---पता नहीं गैर-मराठी इलाकों में ऐसे लोग इसे कैसे समझेंगे जिन्हें अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं है।

मजे की बात देखिये इस फिल्म में एक डॉयलाग तो है ----" क्या अंग्रेज़ी न आना कोई अपराध है ? संतों-पीरों ने क्या अपनी बात अंग्रेज़ी में कही"..................तो, यार, तुम लोगों को सब-टाइट्लस तैयार करते समय फिल्म के इस डॉयलाग का ध्यान नहीं आया। लेकिन शायद किसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भेजने हेतु कोई मजबूरी रही होगी। होता है , होता है -----बस इतना ध्यान तो रहना चाहिये कि इस तरफ की प्रशंसनीय फिल्म अगर देश के गांव गांव में पहुंचती है तो यह भी किसी ऑस्कर से कम नहीं।

इधर उधऱ की बहुत हो गई --सीधा कहानी पर आते हैं। काशी नाथ एस.टी में एक कंडक्टर है। बड़ा गॉड-फेयरिंग सा किरदार है ---- किसी के दुःख में दुःखी हो जाता है और किसी की सहायता के लिये बिना स्टॉप के बस को रूकवाने में भी रती भर संकोच नहीं करता। और इस के लिये जब उसी कोई सवारी टोक देती हैं तो कह देता है ----नियम किसी आदमी की ज़रूरत से बड़े नहीं हैं।

उस की बस के ड्राइवर से उस की बहुत बनती है---बिल्कुल भाई की तरह रहते हैं। काशी नाथ के घर में मां, पत्नी, दो बेटे ---एक मैट्रिक में और दूसरा किसी ड्रामे की तैयारी में लगा हआ है, दो बेटियां --एक पास ही एक अस्पताल में नर्स का काम देखती है और दूसरी घर पर घर का काम देखती है। बहुत साधारण सा परिवार है।
आराम से उन की ज़िंदगी कट रही थी --- तभी एक बिजली का बिल आता है जो उन की नींद उड़ा देता है। इन का बिजली का बिल वैसे तो 125 से 150 रूपये मासिक आता था लेकिन इस बार 73000 रूपये का बिल इन की नींद उड़ा देता है। बिजली के दफ्तर के चक्कर तो काटता है काशीनाथ लेकिन बस यूं ही सब उसे इधर से उधर भगाते रहते हैं ---कोई उस की सुनता नहीं। बस, जगह जगह उसे यह सलाह दी जाती है कि छोड़, कहां इस झंझट में पड़ रहा है, चुपचाप एक कप चाय पिला कर सारा मामला सैट कर ले। खैर, काशी को यह सब मंज़ूर नहीं -------इसी बार बार चक्कर काटने के चक्कर में बिजली की बिल भरने की तारीख निकल जाती है और विभाग की तरफ़ से उस के घर का बिजली का कनैक्शन काट दिया जाता है।

बड़ी आफत हो जाती है घर में सब के लिये ----बुज़ुर्ग मां घर में ही अंधेरे की वजह से ठोकर खा कर गिरने से टांग टुड़वा बैठती है। बड़ा लड़का बिजली न होने की वजह से किसी दोस्त के घर सोने चला जाता है, और यह काशी को पसंद नहीं है। छोटा बेटा पढ़ाई में बहुत तेज़ है ---उस के बारे में उस के स्कूल की राय है कि वह तो स्टेट मेरिट में ज़रूर आ जायेगा। लेकिन, अब वह पढ़े तो पढ़े कैसे ? ---खैर, किसी तरह से कैरोसीन यहां वहां से लेकर रात में उस की पढ़ाई का जुगाड़ किया जाता है।

काशीनाथ अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करता है ---एक आवेदन भी करता है संबंधित अधिकारी को कि उस का कनैक्शन तुरंत जोड़ने की कृपा करें और बिल ठीक कर दें। लेकिन उस का आवेदन डस्ट-बिन में ही जा मिलता है। इस दौरान जब भी वह बिजली के दफ्तर में जाता है तो उसे कारीडोर में बस चाय पिलाने वाले ज़रूर दिखाई देते  हैं जो कि एक चाय के कप के एवज़ में सब कुछ सैट कर देने का आश्वासन देते हैं ----लेकिन काशीनाथ बेहद इमानदार, असूलों का पक्का बंदा, उसे उन से चाय पीना गवारा नहीं----चाय तो बस बहाना है, ग्राहक फांसने का एक "साफ़-सुथरा" [छीः   ......थू...थू़] तरीका है जिस के लिये परेशान लोगों से सैंकड़ों रूपये ऐंठ लिये जाते हैं।

उन्हीं दिनों काशीनाथ जब एक ट्रिप पर निकलता है तो देखता है कि एक गांव में बहुत से लोग जमा हैं। वह ड्राइवर को कह के बस रूकवाता है--- जब भीड़ बस की तरफ़ लपकती है तो काशीनाथ कहता है ---जैसे किसान को गाय प्यारी होती है, वैसे ही मुझे यह बस प्यारी है , इस के साथ वह किसी तरह की छेड़छाड़ सहन नहीं करेगा। खैर, इतने में उस भीड़ में उपस्थित एक समाज सेविका (डाक्टर साहिबा) आगे आ कर स्प्ष्ट करती है कि किसी तरह की उपद्रव करना उन की मंशा नहीं है, उस एरिया का एक मुद्दा है जिस के लिये पब्लिक सहमति जुटा रही है ---वह एक आरटीआई कार्यकर्ता थी ---और वह चाहती थी कि बस में यात्रा कर रहे जितने लोग भी उस की बातों से सहमत हों, वे एक याचिका पर हस्ताक्षर कर दें। और ऐसा ही हुआ। काशीनाथ को इस नये कानून का पता चला।

अगले दिन अखबार में भी उस समाज सेविका के इस अभियान को कवर किया गया था ----बताया भी गया था कि उसे मिलने के लिये आप फलां फलां मंदिर में उन से मिल सकते हैं।

अब, काशीनाथ को उस के ड्राइवर साथी ने भी समझाया कि यह नया कानून तो उस के लिये ही है, यह उस की ज़रूर मदद करेगी। इसलिये उस ने ही यह भी पेशकश की वह पूणे जाकर पता करेगा कि इस तरह की सूचना लेने के लिये कौन सा फार्म होता है। वह वापिस आकर बताता है कि आर टी आई में कोई सूचना पाने के लिये किसी फार्म की ज़रूरत नहीं, प्लेन पेपर पर ही लिख कर आवेदन किया जा सकता है।

काशी घर आ कर आवेदन लिखने में जुट जाता है ----बड़ी मेहनत मशक्कत से आवेदन करता है। पहले तो कोशिश करता रहता है इंगिलश में अपनी बात लिखने की ---लेकिन उसे कुछ खास सफलता नहीं मिलती ----लेकिन बीवी जब कहती है कि अंग्रेजी का ज्ञान न होना क्या कोई अपराध है, और मां जब यह चुटकी लगाती है ----संतो,गुरूओं, पीरों नें क्या अपना संदेश अंग्रेज़ी में दिया-----यह सुन कर बात काशी की समझ में आ जाती है और वह आवेदन लिख कर पहुंच जाता है बिजली दफ्तर के जन सूचना अधिकारी के पास।

वह अधिकारी उसे हत्तोत्साहित ही करता है ---- किसी भी तरह से उस का मार्ग-दर्शन करना तो दूर उसे तरह तरह से  डराने लगता है कि देश इतना बड़ा है, तू किन चक्करों में पड़ रहा है, महीनों लग जाएंगे तेरे को यह सब सूचना मिलने में। और काशी की यह सलाह भी दे देता है कि चुपचाप जितना भी बिल आया है, भर दे और अगले बिलों में एडजस्ट कर दिया जायेगा। और आवेदन पड़ने पर उसे यह भी कह देता है ----तुम मेरे से सूचना लेने आये हो या मुझे आदेश देने आये हो ? सीधी सी बात है कि काशी ने अपना आवेदन ढंग से तैयार नहीं किया था ----उस ने लिखा था कि मेरा कनैक्शन चालू किया जाए और बिल ठीक किया जाए।

जब काशी को लगा कि यार, इस आवेदन से तो कुछ होने वाला नहीं, उस समाज सेविका को मिलना ही होगा। वह उस के पास जाता है जो उसे समझाती है कि आरटीआई में सूचना किस तरह से लेनी है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। वह उसे बताती है कि वह ये प्रश्न पूछे ---

उस के घर में बिजली की रीडिंग लेने वाले कर्मचारी का नाम .
रीडिंग वाले रजिस्टर की फोटोकापी।
कंप्यूटर से निकलने वाली मास्टर-शीट की कापी।
पिछले तीन महीने में बिजली का बिल न भरने वाले कितने डिफाल्टर हैं
उन डिफाल्टरों से कितना का कनैक्शन काटा गया है

अब जब इस तरह का आवेदन बिजली विभाग के जन सूचना अधिकारी के पास पहुंचता है तो उसे तो इन बातों का जवाब देने में आफ़त महसूस होती है। विभाग को पता तो है कि उन के कंप्यूटर में किसी लफड़े की वजह ही से यह गल्त-बिलिंग हो गई है। उस जन सूचना अधिकारी का बास उसे कहता है कि संबंधित ग्राहक से ऐवरेज बिल ले कर छुट्टी करो ---- तो, वह उसे जवाब देता  है कि अब यह करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि हम लोग तो पहले ही उस का कनैक्शन काट चुके हैं।

उस  जन सूचना  अधिकारी का एक साथी है ---कहता है, छोड़ जवाब ही न थे, यह बेकार के प्रश्न पूछने वाले हमारा समय खराब करते हैं, अगर एक बार जवाब देगा तो ये और कुछ पूछ लेंगे, अगर जवाब नहीं देगा, तो चुपचाप कर के बैठ जाएंगे।

बहरहाल 30 दिन बीतने के बाद वह उस डाक्टर दीदी की सलाह से अपीलीय अधिकारी को अपील कर देता है जिस की सुनवाई के लिये उसे बंबई भी बुलाया जा सकता है। लेकिन दीदी उसे बताती है कि उस का वहां जाना ज़रूरी नहीं है। कुछ दिनों बाद उस को अपीलीय अधिकारी की चिट्ठी आ जाती है कि फलां फलां दिन केस की हेयरिंग है।

काशीनाथ को बंबई भेजने की पूरी तैयारी की जाती है.....लेकिन उस की एक दिन की छुट्टी का पंगा जब पड़ता है तो काशी अपने बास से अपने दफ्तर के सभी कर्मचारियों की छुट्टियों का विवरण आरटीआई एक्ट के अंतर्गत देने के कहता है, .......फिर क्या था, ट्रिक काम कर जाती है, और उसे मुंबई जाने की छुट्टी मिल जाती है।
लेकिन पता नहीं वहां अपीलीय अधिकारी के दफ्तर में पहुंचते पहुंचते शाम हो जाती है, और केस का निपटारा उस की गैर-मौजूदगी में ही कर दिया जाता है। वह बहुत निराश होता है क्योंकि उस वक्त सभी ऑफिस बंद हो चुके थे।

वापिस आने पर पता चलता है कि उस के घर में बिजली वापिस आ गई है ----और बेटे का रिजल्ट आ गया है ---वह स्टेट में ग्रामीण विद्यार्थियों में से प्रथम एवं ओवरऑल द्वितीय स्थान पर आता है और टीवी वाले उस का एवं काशी का इंटरव्यू लेने पहुंच जाते हैं. काशी को इतना बुरा लगता है कि वह अपनी परेशानियों में ही इतना उलझा रहा कि उसे यह पता करने की भी होश न थी कि उस  का बेटा किस तरह से पढ़ेगा  ?  वह अपने बेटे से पूछता है कि  तेरे को अपने बापू से शिकायत तो ज़रूर होगी ........बेटा कहता है , बि्ल्कुल नहीं--------- काशी पूछता है -----क्यों, ऐसा क्यों?   बेटा कहता है ----------क्योंकि मैं सब समझता हूं। इतना कह कर दोनों गले मिलते हैं ............................और एसटी डिपो के सारे कर्मचारी उस के बेटे को गोदी में उठा लेते हैं।

फिल्म बहुत ज़्यादा संदेश लेकर आई है। आर टी आई इस्तेमाल करने से जुडे़ तरह तरह के भ्रम, भ्रांतियों का निवारण करती है, लोगों को सचेत करती है, जागरूक करती है , और आखिर क्या चाहिये , एक साफ-सुथरी फिल्म से। एक दम पैसा-वसूल। जहां से भी इस की की सीडी-डीवीडी मिले, इसे दो-तीन बार तो देख ही लें--------और इस जनजागरण की मशाल को जलाए रखिये।

                               

लोकसभी टीवी की तरफ़ से एक कप चाय का निमंत्रण

जी हां, लोकसभा टीवी की तरफ़ से आज सभी लोग दोपहर दो बजे एक कप चाय पर आमंत्रित हैं। आप को भी यही लग रहा होगा कि अब एक प्याली चाय के लिये इस चिलचिलाती गर्मी में दिल्ली कौन जाए? इस का इंतजाम भी लोकसभा टीवी ने कर दिया है और गर्मागर्म चाय की प्याली हम सब के यहां पार्सल हो कर आ रही है।

चलिये, इतना सुस्पैंस भी ठीक नहीं ----सीधे सीधे खुल कर बात करते हैं। ऐसा है कि आज दोपहर 2 बजे लोकसभा टीवी पर एक क्लॉसिक फिल्म आ रही है ---एक कप चाय। अगर हो सके तो आज दोपहर सारे काम-धंधे छोड़ कर इसे देखना न भूलें।

इस के बारे में इतना तो बता ही दें कि इस फिल्म में एक बस कंडक्टर की कहानी है जो किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के अपनी एवं समस्त परिवार की परेशानियां खत्म कर देता है। जबरदस्त फिल्म !! मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी इसे पांच सितारे देता हूं।

दरअसल इस फिल्म के बारे में मैंने दो-तीन महीने एक पेपर में पढ़ा था --- इस तरह की फिल्मों की सी.डी तो कहां मिलनी थी, मैंने नेट पर भी खूब ढूंढा। लेकिन तब मिली थी ---फिर मैं थोड़ा भूल सा गया। लेकिन जब कल की अखबार में पढ़ा कि एक कप चाय आज रात (1मई 2010- रात 9 बजे और 2 मई को बाद दोपहर 2 बजे) को दिखाई जायेगी तो मेरी तो जैसे लाटरी लग गई।

कल शाम मैं और बेटे किसी बहुत सुंदर उत्सव में बैठे हुये थे लेकिन मुझे 9 बजे वापिस लौटने की धुन सवार थी। मुझे फिल्म इतनी पसंद आई है कि मैं सोच रहा था कि इस तरह की फिल्में राष्ट्रीय चेनल पर भी दिखाई जानी चाहिये। इतनी बेहतरीन फिल्में इस देश के जन मानस तो पहुंचे तो बात बने -----मेरे जैसों का क्या है, वे तो सूचना का अधिकार ज़रूरत पड़ने पर जैसे भी कर ही लेंगे, बात तो तब है जब काशीनाथ कंडक्टर जैसे लोग इस कानून को अच्छी तरह से जान सकें, इस्तेमाल कर के अपना एवं आसपास के लोगों का जीवन बेहतर कर सकें।

आप सभी पाठकों से भी अनुग्रह है कि इस फिल्म को आज बाद दोपहर लोकसभा टीवी पर ज़रूर देखें ---इस की अवधि है 120 मिनट और सब से बढ़िया बात ----इस दौरान कोई भी विज्ञापन आप को परेशान नहीं करेगा, शाम को बताईयेगा कि कैसी लगी ?

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

ख़त के पत्ते (khat leaves) चबाना भी पड़ सकता है महंगा

1981 का जून का महीना मुझे अच्छी तरह से याद है, उस समय मुझे पीलिया हुआ था----तब हमें कोई पता नहीं था कि यह अकसर हैपेटाइटिस (लिवर की सूजन) की वजह से होता है और इस के कईं कारण हो सकते हैं --जैसे कि हैपेटाइटिस ए, बी, सी, अथवा ई। टैस्ट करवाना तो दूर, किसी डाक्टर से बात करना भी दूर की बात थी ---इन डाक्टरों से डर ही इतना लगता था.... बस, सुने सुनाये अनुभवों के आधार पर इलाज चला रहा था।

बस, पीने के लिये गन्ने एवं मौसंबी का रस ही लिया जा रहा था और शायद ग्लुकोज़ पॉवडर भी--- रोटी बिल्कुल बंद थी। लेकिन आलूबुखारे मुझे खूब खिलाये जा रहे थे। अच्छी तरह से याद है कि मां-बाप की जान निकली हुई थी -- विशेषकर यह सुन कर कि पीलिया में तो लहू पानी बन जाता है। और मुझे अच्छे से याद है कि उन दिनों मेरी कितनी ज़्यादा सेवा की गई।

किसी डाक्टर से सलाह मशविरे का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था--- बस, घर के पास हफ्ते में दो दिन किसी आयुर्वैदिक कॉलेज की वैन आती थी जो पांच रूपये में मरीज़ों का उपचार करती थी। उस में डाक्टर तो नहीं था, लेकिन जो भी था---वह बात बहुत अजीब ढंग से करता था। मुझे याद है मेरी मां ने उन्हीं दिनों के दौराना उस से एक बार यह पूछ था --- क्या इसे रोटी-सब्जी दे सकते हैं? और मुझे उस इ्ंसान का जवाब आज भी याद है ----"अगर तो इस की आपने जान बचानी है तो इसे रोटी सब्जी मत देना।" मरी़ज की तो छोडि़ये, आप यह समझ ही सकते हैं कि इतने कठोर शब्द सुन कर एक मां के दिल पर क्या गुजरेगी ? वैसे, इस की दवाई से कोई "आराम" भी नहीं आ रहा था, इसलिये उस दिन के बाद उस का इलाज भी बंद कर दिया गया।

जब 15 दिन के करीब हो गये, तो मेरी पिता जी एक दोस्त के साथ तरनतारन नाम जगह पर गये --- वे वहां से किसी से कोई जड़ी-बूटी लाये --जिसे एक दो दिन पानी में उबाल कर पिया गया ---और तुरंत ही पीलिया "ठीक" हो गया।

सोच रहा हूं कि आज मैं क्या इतना बड़ा हो गया कि उस जड़ी-बूटी देने वाले, लाने वाले या पिलाने वाले पर कोई टिप्पणी करूं -----थोड़ी बहुत कभी चिकित्सा विज्ञान को पढ़ने की एक कोशिश कर तो लेता हूं लेकिन फिर भी एक बात तो मेरे ज़हन में घर की हुई है कि जिस समय जिस तरह की परिस्थितियां होती हैं, हम वैसा ही करते हैं। किसी को भी इस के लिये दोष नहीं दिया जा सकता।

वैसे तो इस तरह की चमत्कारी दवाईयों की चर्चा पहले भी कर चुका हूं। लेकिन आज एक बार फिर से यह दोहराना चाहूता हूं जड़ी-बूटीयां भी हैं तो वरदान लेकिन अगर किसी जानकार, आयुर्वैदिक विशेषज्ञ की देख रेख में ली जाएं तो .....वरना कुछ जड़ी-बूटीयां हमारे शरीर में भयंकर रोग पैदा कर सकती हैं जो कि जानलेवा भी हो सकते हैं।

उदाहरण के लिये बात करते हैं ---- खत के पत्तों की (khat leaves) .....[Catha edulis]...अब पूर्वी अफ्रीका एवं अरेबियन पैनिनसुला के एरिया में इस के पत्तों को चबाने का रिवाज सा है। इसे वहां के लिये बस यूं ही मौज मस्ती के लिये चबाते हैं क्योंकि इसे चबाने से उन्हें बहुत अच्छा लगता है, मज़ा आ जाता है, मस्ती छा जाती है।
लेकिन वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि इन खत के पत्तों में कैथीनॉन (cathinone)नामक कैमीकल होता है जो हमारे शरीर में प्रवेश करने के बाद कैथीन एवं नॉरइफैड्रीन (cathine & norepherine) नामक पदार्थ पैदा करते हैं जिन का प्रभाव मानसिक रोगों में दी जाने वाली दवाईयों जैसा होता है। इतना ही नहीं, इस को निरंतर चबाने से तो लिवर बिल्कुल खराब हो जाता है जिस से जान भी जाने का अंदेशा बन जाता है।

                                               Credit ..http://www.flickr.com/photos/adavey/

वैसे तो अमेरिका में इस बूटी पर प्रतिबंध है लेकिन गुपचुप तरीके से यह उत्तरी अमेरिका में ब्रिटेन के रास्ते पहुंच ही जाती है। यूके में हर सप्ताह खत के सात टन पत्तों का आयात किया जाता है।

मौज मस्ती के लिये इतनी हानिकारक जड़ी-बूटी को चबा जाना, और वह भी इतने पढ़े लिखे , विकसित देशों के बंदों द्वारा ---- मुझे तो ध्यान आ रहा है अपने देश के छोटे छोटे नशेड़ियों का जो ऐसे ही झाड़ियों में बैठ कर हाथों पर कुछ पत्ते रगड़ कर कुछ करते तो रहते हैं ----और जो लोग भांग का इस्तेमाल करते हैं, उन के शरीर पर भी इस के कितने बुरे प्रभाव पड़ते हैं, इन सब से तो आप लोग पहले ही से भली भांति परिचित हो।

कईं बार सोचता हूं कि जो मैं लिखता हूं इसे नेट इस्तेमाल करने वाले खास लोगों से ज़्यादा बिल्कुल आम लोगों तक पहुंचने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है, मेरी तमन्ना भी है कि लेख तो तभी सार्थक होता है जब यह किसी पाठक के मन को उद्वेलित करे, उसे बीड़ी मसलने पर, हमेशा के लिये गुटखा फैंकने पर, ..................ऐसा कुछ भी करने के लिये सोचने पर मजबूर कर दे जिस से उस के एवं उस के आसपास के लोगों के जीवन में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आ सके। देखते हैं, क्या होता है?

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

अब डेटिंग से पहले ब्लड-ग्रुप करवाने का क्या नया लफड़ा है ?

ब्लड-ग्रुप की बात हो तो ध्यान आता है कि लोग इसे तब करवाते हैं जब कभी उन की कोई सर्जरी होनी हो अथवा उन्हें रक्त चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है (blood transfusion) ...और हां, कईं बार बच्चों का स्कूल हैल्थ-कार्ड भरने से पहले भी कुछ लोग ब्लड-ग्रुप की जांच करवा लेते हैं, और ड्राईविंग लाइसैंस में भी ब्लड-ग्रुप तो लगता ही है। लेकिन आज पता चला कि जापान में डेटिंग से पहले भी ब्लड-ग्रुप का पता लगवाना वहां के लोगों की "ज़रूरत" सी बन गई है।

इस से बारे में विस्त़त जानकारी बीबीसी न्यूज़ की इस साइट पर प्रकाशित इस रिपोर्ट से प्राप्त कर सकते हैं। लेख में बताया गया है कि किस तरह से डेटिंग से पहले लड़के-लड़कियां ब्लड-ग्रुप पूछना नहीं भूलते। अगर वे किसी एक ब्लड-ग्रुप के लड़के या लड़की को डेटिंग के लिये चुनना चाहते हैं तो इस के लिये उन की अपनी च्वाइस है, अपने प्रेफरैंस हैं, ......या यूं कहूं कि भ्रांतियां हैं। और हम लोग यही सोच कर अकसर घुलते रहते हैं कि हम लोग ही नाना प्रकार की भ्रांतियों से ग्रस्त हैं। यह रिपोर्ट देख कर लगता है जैसे कि जापान तो हम से भी बाजी मार गया।

ब्लड-ग्रुप का पता होना केवल लव-इश्क-मोहब्बत के मामलों में साथी चुनने में ही नहीं होता, रिपोर्ट देखने पर पता चलता है कि नौकरी के समय भी उम्मीदवारों के ब्लड-ग्रुप का कुछ लोचा तो है। वहां लोग यह विश्वास करते हैं कि किसी शख़्स का ब्लड-ग्रुप उस के व्यक्तित्व को, उस के काम को एवं उस की प्रेम के प्रति आस्था आदि को प्रभावित करता है।

इंटरव्यू के समय अगर उम्मीदवारों से अगर उन का ब्लड-ग्रुप पूछा जायेगा तो उसे आप क्या कहेंगे? जापान का तो मुझे पता नहीं, लेकिन अगर ऐसी कोई व्यवस्था हमारे यहां होती तो जापान वाले भी हमारे जुगाड़ देख कर दांतों तले अंगुली दबा लेते ----उम्मीदवार हर तरह के ब्लड-ग्रुपों की रिपोर्टें अपने साथ ले कर घूमते --- जैसा इंटरव्यू वाले कमरे के बाहर माहौल देखा उसी अनुसार रिपोर्ट पेश कर दी। और डेटिंग के मामले में भी यही फंडा चल निकलता --- यह तो पता चलते देर नहीं लगती कि आजकल डेटिंग-वेटिंग के लिये कौन सा ब्लड-ग्रुप डिमांड में हैं, बस हो गया काम---- उसी तरह की रिपोर्ट मिलने में कहां कोई दिक्कत है?

इस ब्लड-ग्रुप फॉर डेटिंग जैसे मज़ाक को छोड़ कर अगर हम संजीदगी से विवाह-पूर्व शारीरिक जांच एवं टैस्ट इत्यादि करवा कर के ही बात को आगे चलाएं तो बात बने----क्या आप को नहीं लगता कि विवाह-पूर्व युवक-युवतियों की मैडीकल-रिपोर्टों की जांच उन की जन्मकुंडली के मिलान से कहीं ज़्यादा अहम् है, महत्वपूर्ण है, और समय की जबरदस्त मांग है। दोनों पक्षों की तरफ़ से इस मामले में झिझक कब खत्म होगी, इस के बारे में आप के क्या विचार हैं ?

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

बेमौसमी महंगे फल और सब्जियां ----आखिर क्यों?

आज कल बाज़ार में बे-मौसमी महंगी सब्जियों एवं फलों की भरमार है। लेकिन पता नहीं क्यों इन का स्वाद ठीक सा नहीं लगता। अकसर देखता हूं, सुनता भी हूं कि लोगों में यह एक धारणा सी है कि सब्जियां-फल चाहे बेमौसमी हैं, लेकिन अगर मंहगे भाव में मिल भी रही हैं तो वे स्वास्थ्यवर्द्धक ही होंगी।

लेकिन यह सच नहीं है। मैं कहीं पढ़ रहा था कि जिस मौसम में जो सब्जियां एवं फल हमारे शरीर के लिये लाभदायक हैं और जिन की हमारे शूरीर को मौसम के अनुसार ज़रूरत होती है, प्रकृति हमारे लिये उस मौसम में वही सब्जियां एवं फल ही प्राकृतिक तौर पर उपलब्ध करवाती है।

ठीक है, बिना मौसम के भी फुल गोभी, मटर, पालक .....और भी पता नहीं क्या क्या...सब कुछ ....मिल तो रहा है लेकिन इन सब्जियों को तैयार करने में और फसल की पैदावार बढ़ाने के लिये एक तो ज़्यादा उर्वरक (फर्टिलाइज़र्स) इस्तेमाल किये जाते हैं और दूसरा इन को इन के लिये अजनबी कीटों आदि से बचाने के लिये कीटनाशकों का प्रयोग भी ज़्यादा ही करना पड़ता है। सीधी सी बात है कि ये सब हमारी सेहत के लिये ठीक नहीं है।

जब से मैंने यह तथ्य पढ़ा है तब से मैं बेमौसमी फलों एवं सब्जियों से दूर ही भागता हूं। बिना मौसम के फल भी कहां से आ रहे हैं---सब कोल्ड-स्टोरों की कृपा है। ऐसे में बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोरों से महंगे महंगे बेमौसमी फल खरीदने की क्या तुक है? हां, आज वैसे ज़माना कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही हाई-टैक हो गया है---- अकसर इन हाई-फाई जगहों पर हाई-क्लास के फलों पर नज़र पड़ जाती है ---सेब के एक एक नग को बड़े करीने से सजाया हुआ, हरेक पर एक स्टिकर भी लगा हुआ है और दाम ----चौंकिये नहीं ---केवल 190 रूपये किलो। और भी तरह तरह के " विलायती फल" जिन्हें मैं कईं बार पहली बात देखता तो हू लेकिन खरीदता कभी नहीं।

और तरह तरह की अपने यहां बिकने वाली सब्जियों-फलों की बात हो रही थी-- इन के जो भिन्न भिन्न रंग है वे भी हमें नाना प्रकार के तत्व उपलब्ध करवाती हैं--इसलिये हर तरह की सब्जी और फल बदल बदल कर खानी चाहिये क्योंकि जो तत्व एक सब्जी में अथवा फल में मिलते हैं, वे दूसरे में नहीं मिलते।

मैं लगभग सभी तरह की सब्जियां खा लेता हूं --विशेषकर जो यहां उत्तर भारत में मिलती हैं, लेकिन एक बात का मलाल है कि मुझे करेला खाना कभी अच्छा नहीं लगता। इस का कारण यह है कि मैं बचपन में भी करेले को हमेशा नापसंद ही करता था। यह मैंने इसलिये लिखा है कि बचपन में बच्चों को सभी तरह की सब्जियां एवं फल खाने की आदत डालना कितना ज़रूरी है, वरना वे सारी उम्र चाहते हुये भी बड़े होने पर उन सब्जियों को खाने की आदत डाल ही नहीं पाते।

वैसे भी अगर कुछ सब्जियां ही खाईं जाएं तो शरीर में कईं तत्वों की कमी भी हो सकती है क्योंकि संतुलित आहार के लिये तो भिन्न भिन्न दालें, सब्जियां एवं फल खाने होंगे।

आज सुबह मैं बीबीसी न्यूज़ की वेबसाइट पर एक अच्छी रिपोर्ट पढ़ रहा था जिस का निष्कर्ष भी यही निकलता है कि ज़रूरी नहीं कि महंगी या स्टीरियोटाइप्ड् वस्तुओं में ,ही स्वास्थ्यवर्धक तत्व हैं ----इस लेख में बहुत सी उदाहरणें दी गई हैं ---जैसे कि शकरमंदी में गाजर की तुलना में 15 गुणा और कुछ अन्य पपीते में संतरे की तुलना में बहुत ज़्यादा होते हैं।

बीबीसी न्यूज़ की साइट पर छपे इस लेख में भी इसी बात को रेखांकित किया गया है कि संतुलित आहार के लिये सभी तत्व एक तरह का ही खाना खाने से नहीं मिल पाते ----बदल बदल कर खाने की और सोच समझ कर खाने की सलाह हमें हर जगह दी जाती है।

सारे विश्व में इस बात की चर्चा है कि अगर हमें बहुत सी बीमारियों से अपना बचाव करना है तो हमें दिन में पांच बार तो सब्जियों-फलों की "खुराक" लेनी ही होगी। पांच बार कैसे --- उदाहरण के तौर पर नाश्ते के साथ अगर एक केला लिया, दोपहर में दाल-सब्जी के साथ सलाद (विशेषकर खीरा, ककड़ी, टमाटर, पत्ता गोभी, चकुंदर आदि ), कोई फल ले लिया और शाम को भी खाने के साथ कोई सलाद, फल ले लिया तो बस हो गया लेकिन इतना अवश्य अब हमारे ध्यान में रहना चाहिये कि अकाल मृत्यु के चार कारणों में कम सब्जियों-फलों का सेवन करना भी शामिल है ---अन्य तीन कारण हैं --धूम्रपान, मदिरापान एवं शारिरिक श्रम से कतराना।