शुक्रवार, 4 मार्च 2011

स्वस्थ लोगों को बीमार करने की सनक या कुछ और !

msnbc.com पर दो दिन पहले एक रिपोर्ट दिखी थी .. America’s past of US human experiments uncovered. इसे आप अवश्य पढ़िये क्योंकि तभी आप शायद समझ पाएंगे कि जब विदेशी कंपनियां अपनी दवाईयों, अपने इंजैक्शनों की टैस्टिंग के लिये भारत के लोगों को गिनि-पिग (guinea pigs) की तरह इस्तेमाल करते हैं तो क्यों मीडिया में इतना हो-हल्ला खड़ा हो जाता है। इसे जानने के लिये आप आगे पढ़िये।

अमेरिका में 1940 से 1960 के बीच कुछ ऐसे प्रयोग किये गये जिन में स्वस्थ लोगों को बीमार बना कर मैडीकल रिसर्च की गई। ये प्रयोग अपंग लोगों, कैदीयों, मानसिक रोगियों एवं गरीब अश्वेत लोगों पर किये गये।

मेरी तरह आप की यह सुन कर मत चौंकिये कि मानसिक रोगियों को हैपेटाइटिस बीमारी से बीमार किया गया। कैदियों को पैनडैमिक फ्लू नामक बीमारी के कीटाणु सूंघने के लिये दिये गये।

जैसे कि यह सब काफ़ी न था ---लंबे अरसे से बीमार लोगों को कैंसर कोशिकाओं का टीका लगा दिया गया।

आज से 65 साल पहले गिटेमाला में मानसिक रोगियों को सिफ़लिस (आतशक, एक यौन रोग) का रोगी बना दिया गया ... कुछ लोगों को सूज़ाक (gonorrhea, यौन रोग) की बीमारी से ग्रस्त करने के लिये उन के गुप्तांग पर सूज़ाक के जीवाणुओं के टीके लगाये गये।

और रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसे दर्जनों प्रयोग किये गये जिन्हें उस समय के मीडिया द्वारा कभी कवर भी नहीं किया जाता था। एक और रिसर्च के बारे में सुनिए – 600 अश्वेत मरीज़ों को जो सिफिलिस (आतशक) से ग्रस्त थे, उन्हें दवाई ही नहीं दी गई।

जिस msnbc.com की रिपोर्ट का मैंने ऊपर लिंक दिया है, उस में एक डाक्टर को दिखाया गया है कि किस तरह से 1945 में वार्ड में एक मरीज़ में मलेरिया रोग उत्पन्न करने के लिये प्रयत्नशील है।  यह सब मैंने आज पहली बार देखा है...

अब मेरे से और नहीं लिखा जा रहा, बाकी रिपोर्ट आप स्वयं ही पढ़ लीजिएगा ..... और इस तरह के कामों को सही ठहराने के लिये कुछ तर्क भी इस रिपोर्ट में दिये गये हैं जिन के साथ मैं तो व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं हूं.... आप का क्या ख्याल है ?

जब मैं डैंटिस्ट्री पढ़ रहा था तो हमारे प्रोफैसर साहब हमें एक Vipeholm Study (1945-55) के बारे में सुनाया करते थे किस तरह एक मानसिक रोग केंद्र में मानसिक रोगों में दंत-क्षय पैदा करने के लिये जम कर मिठाईयां आदि खिलाई जाती थीं और ये सुन कर ही हमारे चेहरे लाल हो जाया करते थे लेकिन अब वक्त के साथ लगता है सच में खून ठंड़ा पड़ चुका है, क्योंकि इतना सब कुछ पढ़ लेने के बाद भी कुछ भी नहीं हुआ। कहीं आप का सिर तो चकराने नहीं लग गया ?





पैरों की सेहत—मछली ने संवार दी, कुत्ते ने बिगाड़ दी ?

कुछ साल पहले से यह तो सुनने में आने लगा था कि पैरों की देखरेख भी अब ब्यूटी पार्लर में होती है जहां पर इस के लिये दो-तीन सौ रूपये लगते हैं ...लेकिन इस तरह के क्रेज़ के बारे में शायद ही आप ने सुना हो कि पैरों की साफ़-सफ़ाई के लिये छोटी छोटी मछलियों की मदद लेने की नौबत आ गई है।

इस तरह की साज सज्जा के दौरान एक पानी के टब में जिस में एक विशेष तरह की मछलियां पड़ी रहती हैं उन में पैरों को डुबो दिया जाता है और ये नन्ही मुन्नी मछलियां पैरों पर धीरे धीरे काट कर मृत चमड़ी (dead skin) को उतार देती हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि इस तरह का शौक पालने से तरह तरह की इंफैक्शन का जो खतरा मंडराने की बात होने लगी है, उसे समझने की ज़रूरत है। वैसे भी अपना देसी बलुआ पत्थर (sandstone, पंजाबी में इसे झांवा कहते हैं) इस काम के लिये क्या किसे से कम है ....एकदम सस्ता, सुंदर और टिकाऊ उपाय है, लेकिन अगर किसी को अथाह इक्ट्ठी की हुई दौलत से बेइंतहा खुजली हो तो कोई क्या करे? …. फिर तो शुक्र है कि इस काम के लिये मछली से ही काम चलाया जा रहा है !!

यह खबर देख कर बहुत दुःख हुआ .... रात को एक आदमी सोया, सुबह उठा तो देखता है कि उस के पांव की तीन उंगलियां और पैर का एक हिस्सा उस का पालतू कुत्ता खा गया है.. दरअसल इस आदमी को डायबीटीज़ रोग था जिस की वजह से उस के पैर सुन्न पड़ चुके थे, उन में किसी तरह का कोई अहसास नहीं होता था, इसलिये जब कुत्ता अपना काम कर रहा था तो उसे पता ही नहीं चला...एक दुःखद घटना। मधुमेह के रोगियों को यह खबर चेता रही है कि अपनी ब्लड-शुगर के स्तर को नियंत्रण में रखें, अपनी पैरों की भी विशेष देख भाल करें, छोटी मोटी तकलीफ़ होने पर विशेषज्ञ से परामर्श लें और रात में अपने कुत्ते को अपने कमरे में न रखें ......यह कुत्ते को अपने साथ रखने वाली बात मैंने कहीं पढ़ी नहीं है, लेकिन इस खबर से तो इस का यही मतलब निकलता है !!
Further reading --
For diabetics --keep your feet and skin healthy.

बुज़ुर्गों के आर्थिक शोषण को नासमझने की नासमझी

कुछ अरसा पहले मेरी ओपीडी में एक बुज़ुर्ग दंपति आये थे ...पता नहीं बात कैसे शुरू हुई कि उन्होंने अपनी असली बीमारी मेरे सामने रख दी कि उन का इकलौता बेटा जो तरह तरह के नशे लेने का आदि हो चुका है, उन की पेंशन छीन लेता है। विरोध करने पर अपने पिता पर हाथ भी उठाने लगता है, जब उन का छः-सात साल का पौता उस बुज़ुर्ग को बचाने की कोशिश करता है तो उस का पिता उसे भी पीट देता है...............और उन दंपति के सहमे हुये चेहरे और भी बहुत कुछ ब्यां कर रहे थे !

मैं सोच रहा था कि यह बुज़ुर्ग जो उच्च रक्तचाप की दवाईयां ले रहा है, इस से क्या हो जाएगा? तकलीफ़ कहीं और है जिसे देखने के लिये हमारी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था के पास आंखें है ही नहीं.... चाहे ऐसे मरीज़ की हर माह दवाई बदल दी जाए, पुरानी दवाईयों में नईं और जोड़ दी जाएं ... तो क्या हम सोच सकते हैं कि यह ठीक रह सकता है ? ……..मुझे तो कभी भी ऐसा नहीं लगा!!

बुज़ुर्गों के शारीरिक उत्पीड़न (physical torture) के साथ साथ उन का आर्थिक शोषण भी किया जा रहा है, लेकिन ज्यादातर ऐसे किस्से ये बुज़ुर्ग ही दबाए रखते हैं ....वही पुरानी दलीलें ..घर की बदनामी होगी, बेइज्जती होगी, बेटा या बहू इस से और ढीठ हो जाएंगे वगैरह वगैरह ......इसलिये यह सिलसिला बुजुर्गों के दम निकलने तक चलता ही रहता है।

और इस तरह की यातना झेलने के बाद जब ये बुज़ुर्ग बदहवास से होते हैं तो यह कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि उम्र की तकाज़े की वजह से अब ये पगला गये हैं, अब इन का जाने का समय आ गया है।
आप को भी शायद यह लगता होगा कि यह सब तो हम जैसे देशों में ही होता होगा ...लेकिन न्यू-यार्क टाइम्स की यह रिपोर्ट .... When abuse of older adults is financial...वहां की परिस्थितियों के बारे में भी बहुत कुछ बताती है।

रिपोर्ट में कितनी साफ़गोई से लिखा गया है कि डाक्टर लोग बुज़ुर्गों के आर्थिक शोषण के मुद्दे को अकसर नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। अगर कोई ऐसा मरीज़ कहता है कि उस ने अपने पैसे किसी जगह रखे थे लेकिन वह उसे मिल नहीं रहे, उस की पचास-साठ पुरानी शादी की अंगूठी पता नहीं कहां चली गई, अगर कोई बुज़ुर्ग कहता है कि उस ने एक खाली फार्म पर हस्ताक्षर तो कर दिये हैं लेकिन उसे उस की कोई समझ नहीं ....और भी ऐसी बहुत सी बातें ... तो ऐसे में डाक्टर क्या करते हैं ... उन की बातों की गहराई में जाकर कुछ ढूंढने की बजाए यही सोच लेते हैं कि ये सब भूल-भुलैया तो अब इन के साथ चलेंगी ही ...इसलिये उन्हें दी जाने वाली टेबलेट्स की लिस्ट में कुछ और दवाईयां जोड़ दी जाती हैं, या फिर कोई और टैस्ट करवाने की हिदायत दे दी जाती है। 

यह सब कुछ इस देश में भी हो रहा है ..और बड़े स्तर पर .. ... सोचने की बात है कि  किसी की अति-वरिष्ट नागरिक की लेबलिंग करने से क्या सब कुछ ठीक हो जाएगा?

यह तो बात पक्की है कि बुज़ुर्गों का हर तरह का शोषण हो रहा है ... और इस के एक प्रतिशत केस भी जगजाहिर नहीं होते ... और यह सब होता इतने नर्म तरीके और सलीके (subtle way) से है कि उन्हें घुट घुट कर मारने वाली बात दिखती है। भारत में अभी भी नैतिक मूल्य काफ़ी हद तक कायम तो हैं लेकिन पश्चिम की देखा देखी अब इन का भी ह्रास तेज़ी से हो ही रहा है। कानून तो बन गये कि मां बाप की देखभाल करना बच्चों की जिम्मेवारी है लेकिन ऐसा कानून कितने लोग इस्तेमाल करते हैं या कर पाते हैं ....यह बताने की कोई ज़रूरत नहीं !!

इस का कारण व इलाज यही है कि अब नईं पीढ़ी को सही संस्कार नहीं मिल पा रहे—आर्कुट, फेसबुक, ट्विटर पर सारा दिन जमे रहने से तो ये मिलने से रहे, ये केवल किसी सत्संग में बैठ कर किसी महांपुरूष की बातें सुन कर ही ग्रहण किये जा सकते हैं और साथ ही साथ बच्चे हर काम में अपने मां-बाप का ही अनुसरण करते हैं, इसलिये उन के सामने मां-बाप को भी आदर्श उदाहरण रखनी होगी .....वरना तो वही बात ... बीस-तीस सालों बाद वही व्यवहार यही बच्चे उन के साथ करने वाले हैं!!

यह दकियानूसी बात नहीं है कि बच्चों को किसी भी सत्संग के साथ जोड़ने में और जोड़े रखने में ही सारे समाज की भलाई है ताकि वे अपने नैतिक मूल्यों एवं जिम्मेदारियों के प्रति सचेत रह सकें ......इस के अलावा कोई भी रास्ता मेरी समझ में तो आता नहीं..... दुनिया तो ऐसी ही है कि एक 80 साल की महिला के बस द्वारा कुचले जाने पर मुआवजा देने से बचने के लिये एक सरकारी इंश्योरैंस कंपनी कहती है कि इस के लिये काहे का मुआवजा, यह तो बोझ है!! ……. लेकिन जज ने फिर उस कंपनी को कैसे आड़े हाथों लिया, यह जानने के लिये इस लिकं पर क्लिक करिये ...Insurance firm's view on old people insulting ..





गुरुवार, 3 मार्च 2011

डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट में हो रही विश्व-व्यापी गड़बड़

मैं अकसर यही सोचता रहा हूं कि डायबीटीज़ की मिस-मैनेजमैंट भारत ही में हो रही है, लेकिन कुछ रिपोर्टें ऐसी देखीं कि लगा कि इस से तो अमीर देश भी खासे परेशान हैं।

भारत में बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं कि उन्हें मधुमेह है –कभी कोई चैकअप करवाया ही नहीं। पूछने पर बताते हैं कि जब हमें कोई तकलीफ़ ही नहीं तो फिर चैक-अप की क्या ज़रूरत है!

जब मैं किसी ऐसी व्यक्ति को मिलता हूं जो लंबे अरसे से डायबीटीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे रहा तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है। लेकिन अधिकतर लोग मुझे ऐसे ही मिलते हैं जिन में मधुमेह की मैनेजमेंट संतोषजनक तो क्या, चिंताजनक है।

दवाईयों का कुछ पता नहीं, कभी खरीदीं, जब लगा “ठीक हैं” तब दवाईयां छोड़ दीं, कईं कईं सालों पर शूगर का टैस्ट करवाया ही नहीं, किसी शुभचिंतक ने कभी कोई देसी पुड़िया सी दे दीं कि यह तो शूगर को जड़ से उखाड़ देगी, कभी किसी तरह की शारीरिक सामान्य जांच नहीं, वार्षिक आंखों का चैक-अप नहीं, ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन टैस्ट नियमित तो क्या कभी भी नहीं करवाया, रोग के बारे में तरह तरह की भ्रांतियां, नकली एवं घटिया किस्म की दवाईयों की समस्या, कभी ऐलोपैथी, अगले महीने होम्योपैथी, फिर आयुर्वैदिक और कुछ दिनों बाद यूनानी या फिर कुछ दिनों तक इन सब की खिचड़ी पका ली, शारीरिक श्रम न के बराबर, खाने पीने पर कोई काबू नहीं.............ऐसे में हम लोग किस तरह की डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट की बात कर सकते हैं !

डाक्टर अपनी जगह ठीक हैं, व्यवस्था ऐसी है कि किसी भी अस्पताल में मैडीकल ओपीडी देख लें...वे एक-दो मिनट से ज़्यादा किसी मरीज़ को दे नहीं पाते .... और जिन बड़े अस्पतालों में वे 15-20 मिनट एक मरीज़ को दवाईयां समझाने में, जीवनशैली में परिवर्तन की बात समझाते हैं, वे देश की 99.9प्रतिशत जनता की पहुंच से बाहर हैं।

लेकिन यह हमारी समस्या ही नहीं लगती ...एक रिपोर्ट देखिए जिस में बताया गया है कि संसार में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन को अभी पता ही नहीं है कि उन्हे शूगर रोग है और जिन का इलाज उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है, जिस की वजह से वे मधुमेह से होने वाली जटिलताओं (complications)का जल्दी ही शिकार हो जाते हैं और एक बात—कल यह भी दिखा कि किस तरह से डायबीटीज़ रोग का ओव्हर-डॉयग्नोज़िज हो रहा है।

डायबीटीज़ एक महांमारी का रूप अख्तियार कर चुकी है और एक अनुमान के अनुसार आज विश्व भर में 28 करोड़ अर्थात विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत भाग इस रोग की गिरफ्त में है।

अमेरिका में लगभग 90 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन का मधुमेह ठीक तरह से कंट्रोल नहीं हो रहा है, मैक्सिको में यह आंकड़े 99 प्रतिशत हैं ... थाईलैंड में लगभग 7 लाख लोगों पर एक सर्वे किया गया जिस का रिज़ल्ट यह था कि उन में से 62 प्रतिशत लोगों में या तो डायबीटीज़ डायग्नोज़ ही नहीं हुई और या उन में इस अवस्था का इलाज ही नहीं हुआ................यह आंकड़े केवल इसलिये कि हम थोड़ा सा यह सोच लें कि हमारे देश में इस के बारे में स्थिति कितनी दहशतनाक हो सकती है, इस का आप भलीभांति अनुमान लगा ही सकते हैं। दो दिन पहले ही कि रिपोर्ट है (लिंक नीचे दिया है) कि इंग्लैंड में लगभग एक लाख लोगों का डायबीटीज़ का डायग्नोसिस ही गलत था।

सदियों पुरानी बात है ... जिसे बाबा रामदेव हर दिन सुबह सवेरे दोहरा रहे हैं ... परहेज इलाज से बेहतर है ... लोग पता नहीं क्यों इस संयासी के पीछे हाथ धो कर पड़े हुये हैं, राजनीति के बारे में मैं कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हूं , मैं तो केवल यह जानता हूं कि विश्व में लोग इस महान संत की वजह से सुबह उठना शुरू हो गये हैं, कम से कम किसी की अच्छी बातें सुनने लगे हैं, थोड़ा बहुत अपनी खान-पान जीवनशैली को बदलने की दिशा में अग्रसर हुये हैं, थोड़ा बहुत योग करने लगे हैं, जड़ी-बूटियों की चर्चा होने लगी है......केवल यही कारण हैं कि मैं मानता हूं कि बाबा जिस तरह से विश्व की सेहत को सुधारने में जुटा हुआ है , उसे देख कर मैं यही सोचता हूं .........एक नोबेल पुरस्कार तो बनता है!!

संबंधित लेख
Diabetes out of control in many countries : study. (medline)
Review Reveals thousands wrongly diagnosed diabetics.


लगातार चलते रहने के लिये प्रेरित करता हुआ एक पुराना गीत ..


बुधवार, 2 मार्च 2011

अस्पताल में होने वाली इंफैक्शन की व्यापकता

अस्पताल में भर्ती लोगों को जो संक्रमण (इंफैक्शन) उन को वहां दाखिल होने के दौरान लग जाते हैं उन्हें हास्पीटल-एक्वॉयर्ड संक्रमण कहते हैं। सामान्यतयः इस विषय पर बात करना एक पाप समझा जाता है क्योंकि इस से अस्पतालों की साख पर प्रश्न उठ सकता है। मीडिया में दो एक साल में एक सनसनीखेज़ सी रिपोर्ट दिख जाती है कि भारतीय अस्पतालों में हास्पीटल इंफैक्शन रेट इतना ज़्यादा है, इस से ज़्यादा कुछ विशेष मुझे कभी दिखा नहीं।

मैं भी अकसर भारत से संबंधित इस तरह के आंकड़े इंटरनेट पर ढूंढता रहता हूं.. लेकिन मुझे बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि ये आंकड़े कभी दिखते नहीं है, इस का कारण जो मुझे लगा वह मैं पहली ही बता चुका हूं।

मैडीकल ऑडिट (medical audit) नाम की बात तो शायद कहीं दिखती नहीं ...बड़े बडे टीचिंग अस्पतालों में इस तरह की मीटिंग नियमित होती होंगी लेकिन भारत में तो मैं इन के बारे में कम ही सुनता हूं।और इस के कारण लिखने की ज़रूरत मैं नहीं समझता।

मैडीकल ऑडिट तो आप जानते ही होंगे ... यह एक ऐसी व्यवस्था है जिस को अगर पूर्ण इमानदारी से निभाया जाए तो चिकित्सा सुविधाओं को यह पता चलता रहता है कि किस किस जगह पर चूक हुई और ये गल्तियां फिर से न दोहरायी जाएं, इस के उपायों पर चर्चा भी होती है। एक महीने में जितने मरीज़ों की अस्पताल में मौत हो जाती है, उन के बारे में भी चर्चा होती है, क्या उन्हें समुचित इलाज दिया गया, क्या उन के सभी ज़रूरी टैस्ट करवा लिये गये अथवा उन की बीमारी का डॉयग्नोसिस क्या सही है, ये सारी बातें एक मैडीकल ऑडिट कमेटी जांचती है।

उसी तरह से अच्छे अस्पतालों में एक हास्पीटल इंफैक्शन कंट्रोल कमेटी भी होती है जो इस बात को लगातार सुनिश्चित करती है कि किस तरह से इस तरह के इंफैक्शन की व्यापकता में लगातार कमी लाई जाए। जो मैंने सुना है कि अधिकतर तौर पर बढ़िया बढ़िया कमेटियां तो बन जाती हैं, लेकिन यह कितना सुचारू रूप से काम कर पाती हैं, यह तो वही जानते हैं।

अब बात आती है, पारदर्शिता की .. ठीक है, आम आदमी ने सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल कर के अपना राशन-कार्ड तो बनवा लिया, पंचायत का लेखा जोखा तो मांग लिया लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन के बारे में शायद किसी आमजन ने सोचा ही नहीं है, और अस्पताल के भर्ती होने के दौरान जो इंफैक्शन किसी मरीज़ को लग सकती है (नोज़ोकोमियल इंफैक्शन – nosocomial infection), यह भी एक ऐसा ही मुद्दा है जिस के बारे में आम आदमी ज़्यादा अवेयर ही नहीं और न ही इस के बारे में कोई बात करने को राजी ही है।

लेकिन पारदर्शिता की दाद मैं उस समय देते न रह सका जब आज मैं न्यू-यार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट देख रहा था कि अमेरिका में इंटैंसिव केयर यूनिट में सैंट्रल लाइन इंफैक्शन के केसों की संख्या में 2001 की तुलना में वर्ष 2009 में 58प्रतिशत की कमी आई है – 2001 में इस तरह के 43000 केस थे और 2009 में यह आंकडा 18000 तक आ गया है।

सैंट्रल लाइन इंफैक्शन से अभिप्रायः उन ट्यूबों से उपजे संक्रमण से है जिन्हें मरीज़ के अस्पताल में दाखिल होने के दौरान मरीज़ की गले अथवा छाती की बड़ी शिराओं (veins, रक्त की नाड़ी) में डाला जाता है जिन के द्वारा दवाईयां एवं न्यूट्रिशन मरीज़ों तक पहुंचाई जाती है।

यह नोट करें कि इस अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि सैंट्रल-लाइन इंफैक्शन आम समस्या है लेकिन इस तरह के ज़्यादातर केसों से मरीज को बचाया जा सकता है। इस तरह के इंफैक्शन सीरियस हो सकते हैं और 12 से 25 प्रतिशत केसों में मौत भी हो सकती है।

एक समस्या और भी है.... अमेरिकी आंकड़े हैं कि वहां पर रोज़ाना लगभग तीन लाख पचास हज़ार मरीज़  लोग गुर्दे के रोगों के इलाज हेतु अपनी डॉयलायसिस करवाते हैं ..और 2008 में 37000 हज़ार मरीज़ों को सैंट्रल लाइन इंफैक्शन हो गई – और इस तरह की इंफैक्शन डायलिसिस के दौरान मरीज़ों को अधिक समय तक भर्ती रखे जाने और उन की मृत्यु का मुख कारण है। लेकिन हमारे अपने यहां के आंकड़े कहां हैं ?

यह पोस्ट केवल यह बात रेखांकित करती है कि अगर अमेरिका जैसा देश इतने सीरियस मुद्दे पर इतनी पारदर्शिता रख सकता है तो अपने यहां ऐसा करने में आखिर क्या परेशानी है? हमें क्यों इस तरह के आंकड़े कहीं नहीं दिखते --- मैं आम नागरिक की बात नहीं कर रहा हूं – इस तरह के विश्वसनीय जानकारी हमें भी कहां दिखती है। सब कुछ चटाई के नीचे सरका देने ही से क्या सब कुछ ठीक ठाक हो जाएगा?  ….सोचने की बात यह है कि अमेरिका जैसे देश में अगर इस तरह की इंफैक्शन इतनी व्यापक है तो हम लोग कल्पना कर सकते हैं कि हमारे यहां पर ज़मीनी वास्तविकता क्या होगी।

नीम-हकीमों द्वारा खोले गये अस्पताल, अन-ट्रेंड स्टाफ, अन-ट्रेंड नर्सें, शिक्षा का अभाव, तरह तरह के मैडीकल उपकरणों की रि-साईक्लिंग..... क्या फ़ायदा ये सब कारण गिनाने का .. चिकित्सा सुविधायों को स्वयं अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है ... और एक बात .... कहीं से पता चले कि अपने देश के लिये इस तरह के आंकड़े कहां से मिलेंगे, तो बतलाईयेगा ......ठीक या गलत, जैनूईन या फ़र्ज़ी वो तो बाद की बात है, पहले किसी विश्वसनीय पोर्टल पर ये आंकड़े दिखें तो सहीं, फिर इस का इलाज भी हो जाएगा, लेकिन अगर मर्ज़ की व्यापकता का ही पता नहीं है, तो फिर इस निष्क्रियता रूपी कोढ़ का आप्रेशन कैसे होगा !!

Further Reading …
Fewer Patients in ICU getting Blood Infections
Fewer Bloodstream Infections in Intensive care, CDC says




एचआईव्ही दवाईयों की लूटमार से परेशान अफ्रीकी मरीज़

आप को भी विश्वास नहीं हो रहा होगा कि दवाईयों की लूटमार — मुझे भी नहीं हो रहा था लेकिन पूरी खबर पढ़ने के बाद यकीन हो जाएगा।

भारत में रहते हैं तो महिलायों की सोने की चेन की छीना-झपटी की वारदातें रोज़ सुनते हैं, बैंको से बाहर निकलते लोगों के पैसे छीने जाने की घटनाएं आम हो गई हैं, गाड़ियों में लूट-खसोट की घटनाओं को भी सुना है लेकिन यह दवाईयों की लूटमार के बारे में पहली बार ही सुन रहे होंगे।

मैंने कहीं पर पढ़ा था कि कईं देशों में लोगों की आर्थिक हालत इस तरह की हो चुकी है कि वे कुछ पैसे के लिये अपनी महंगी एचआईव्ही दवाईयां तक बेच देते हैं और अपनी ज़िंदगी को दवा न खाने की वजह से खतरे में डाल देते हैं।

लेकिन यह अफ्रीकी लोगों में वूंगा नामक नशे ने तो कहर ही बरपा रखा है। वहां पर एचआईव्ही संक्रमित लोगों की महंगी दवाईयां उन से लूट कर इस नशे के रैकेट में लिप्ट माफिया उन दवाईयों को डिटर्जैंट पावडर एवं चूहे मारने वाली दवाई से मिला कर एक बेहद घातक नशा तैयार करते हैं जिसे फिर वे महंगे दामों पर बेचते हैं।

यह तो आप जानते ही है कि अफ्रीका में एचआईव्ही-एड्स एक तरह की महामारी है, इस से संबंधित आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं ..
  • अफ्रीका में लगभग 57 लाख लोगों में एचआईव्ही संक्रमण है
  • इन संक्रमित लोगों में से 18 फीसदी 15 से 49 आयुवर्ग से हैं
  • लगभग चार लाख साठ हज़ार लोग एंटी-रिट्रो-वॉयरल दवाईयां ले रहे हैं (2008 का अनुमान)
  • एड्स से अब तक तीन लाख पचास हज़ार मौतें हो चुकी हैं (2007 का अनुमान)
  • 14 लाख बच्चे अफ्रीका में एड्स की वजह से अनाथ हैं
    थोड़ा सा यह जान लेते हैं कि ये जो एंटी-रिट्रो-वॉयरल दवाईयां एचआईव्ही संक्रमित लोगों को दी जाती हैं, वे क्या हैं? ये महंगी दवाईयां इन मरीज़ों को इस लिये दी जाती हैं ताकि उन की गिरती रोगप्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटि) को थाम के रखा जा सके जिस से उन के जीवनकाल को बढ़ाया जा सके। भारत में आपने पेपरों में देखा ही होगा कि कभी कभी रेडियो एंव अखबारों में इस तरह के विज्ञापन आते हैं कि एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति फलां फलां चिकित्सालयों से ये दवाईयां मुफ्त प्राप्त कर सकते हैं ।

और यह निर्णय विशेषज्ञों का रहता है कि किन मरीज़ों में ये दवाईयां शुरु करने की स्थिति आ गई है ...यह सब एचआईव्ही संक्रमित बंदे की रक्त जांच के द्वारा पता चलता है कि उस में इम्यूनिटि का क्या स्तर है !

हां, तो बात अफ्रीका की हो रही थी – बीबीसी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि वहां पर लोग इस तरह के आतंक से कितने भयभीत हैं... वे लोग स्वास्थ्य केंद्रों पर जाकर दवाई लेने से ही इतने आतंकित हैं ---कोई पता नहीं बाहर आते ही ये लुटेरे उन से कब दवाईयां छीन कर नौ-दो ग्यारह हो जाएं।

दोहरी मार को देखिये ---एक तरफ़ तो जिन से ये एचआईव्ही संक्रमण के लिये दी जाने दवाईयां छीन लीं –उन की जान को तो खतरा है ही, और दूसरी तरफ़ जिन्हें वूंगा नाम नशा तैयार कर के बेचा जा रहा है, उन की ज़िंदगी भी खतरे में डाली जा रही है।

लोग इन दवाईयों को स्वास्थ्य इकाईयों से लेते वक्त इतने भयभीत होते हैं कि वे अब उन्होंने ग्रुप बना कर जाना शुरू कर दिया है।

इंसान अपने स्वार्थ के लिये किस स्तर तक गिर सकता है, यह देख कर सिर दुःखने लगता है, मेरा भी सिर भारी हो रहा है, इसलिये अपनी बात को यहीं विराम देता हूं।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

नेपाल में साधु न बेच पाएंगे भांग

नेपाल में साधू कल शिवरात्रि के अवसर पर भांग न बेच पाएंगे... कल शिवरात्रि के अवसर पर हज़ारों साधू नेपाल के सुप्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर पर इक्ट्ठा होंगे। भारत से भी बहुत से साधू वहां पहुंच रहे हैं।

साधुओं के द्वारा भांग पर लगी बिक्री के सिलसिले में कुछ साधुओं को तो अंदर कर दिया गया है और कुछ पर नज़र रखी जा रही है।

भांग के पकौड़े शिवरात्रि एवं होली के अवसर पर खूब चलते हैं ---हर बार इन के खाने से कईं हादसे होते हैं जिस कारण बहुत से लोगों को अस्पताल में भरती भी करवाना पड़ता है। तबीयत बिगाड़ने के लिये मैंने सुना है कि एक पकौड़ा ही काफ़ी है।

होली के अवसर पर तो लोग मस्ती में इस तरह की चीज़ें खाते हैं ... कईं बार कुछ यार दोस्त मज़ाक में इस तरह की चीज़ें खिला देते हैं जिस की वजह से अचानक तबीयत बिगड़ जाती है।

आज एक व्यक्ति बता रहा था कि खाते वक्त पता नहीं चलता, आम पकौड़ों की तरह ही होते हैं ये भांग के पकौड़े भी ...लेकिन कुछ समय बाद ही नानी याद आने लगती है, खाने वाले को तो शायद उतनी नहीं, जितनी उस के मित्रों एवं परिवारजनों को।

मैंने तो आज तक कभी भांग के ना ही तो पकौड़े खाये हैं और न ही भांग ही पी है ... बस अपना काम इस गीत को सुन कर ही चलाया है .......आप ने क्या सोचा है ?
Source : Nepal sadhus banned from selling cannabis at temple 







सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

आम तौर पर किसे के मोटापे के बारे में जानने के लिये बी.एम.आई इंडैक्स (BMI Index) जान लिया जाता है और उसे के मुताबिक उसे मोटापा या पतला लेबल कर दिया जाता है।

अपना बीएमआई इंडैक्स जानने के लिये यहां पर क्लिक करिये .. देखिये इस साइट पर बताया गया है कि भारतीयों का बीएमआई इंडैक्स 23 से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। सोच रहा हूं कि जो लोग यहां से बाहर जा कर बस गये हैं, वे भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि उन के लिये कोई छूट नहीं है, यह वैल्यू उन पर भी उतनी ही लागू होती है।

आखिर यह बीएमआई इंडैक्स है क्या बला ? –अगर हम लोग अपने वज़न (किलोग्राम में) को अपनी लंबाई (हाइट—मीटरों में) के स्क्वेयर से डिवाईड  कर दें तो जो वैल्यू आती है, उसे बीएमआई इंडैक्स कहते हैं।

एक उदाहरण मेरी ही –मेरी लंबाई 5फुट 10इंच अर्थात् 175 सैंटीमीटर और वज़न 91 किलो तो मैंने जब ये वैल्यू साइट पर भरे तो मेरा बीएमआई इंडैक्स 30 आया है.....औरों को नसीहत .... वही वाली बात लगती है। और यह तब है जब मैं जंक लगभग नहीं के बराबर लेता हूं, देसी-घी मक्खन आदि को कोई चक्कर ही नहीं, धूम्रपान नहीं, ड्रिंक्स नहीं.....सब से बड़ी कमी है नियमित शारीरिक सक्रिय न रखने की।

कोशिश तो रहती है कि रोज़ाना 40-50मिनट साईक्लिंग कर आऊं लेकिन कईं बार मौसम का बहाना बना कर कईं कईं दिन छुट्टी मना लिया करता हूं लेकिन अब लगता है कि इस मामले में सुधरना पड़ेगा।

चलो फिर आप भी तब तक अपना बीएमआई इंडैक्स की वेल्यु देख लें... लेकिन एक बात जो मैंने पहले भी लिखी थी वह यह कि जो मोटापा हमारे पेट के आस पास है जिसे हम लोग सेब जैसा मोटापा (मुझे यही है !) कहते हैं वह ज़्यादा खतरनाक होता है ...इस की तुलना में जो मोटापा जांघों पर एवं नितंबों पर वसा के जमा होने से होता है यह उतना नुकसानदायक नहीं होता।

यही कारण है कि किसी को केवल बीएमआई इंडैक्स के आधार पर ही किसी की मोटा या पतला होने की लेबलिंग करने में पेच है – कारण बता दिया गया है। इसलिये लाखों लोगों की कमर का माप लिया गया और यह पाया गया कि बीएमआई इंडैक्स सामान्य होते हुये भी अगर कमर का घेरा बढ़ा है तो भी गड़बड़ ही है.. वैसे माशाल्लाह अपना तो इस “कमरे”  का घेरा भी 40-41 इंच है ही। इस के बारे में अच्छी तरह से समझने के लिये आप मेरा यह लेख अवश्य देखें --- साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद।

और अब तो और भी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि किस तरह से यह मोटापा हमारी सेहत पर कहर बरपा रहा है... बीबीसी की यह हैल्थ-स्टोरी देखें ...BMI misses obesity risks. कितना साधारण या पैमाना निकाल लिया गया है कि हमारी कमर का साइज हमारी लंबाई के आधे से ज्यादा नहीं होना चाहिये – अभी भी मुझे अपनी उदाहरण ही देनी पड़ेगी क्या ? – लंबाई 175 सैंटीमीटर –इस के हिसाब से मेरी कमर का साइज 88-90 सैंटीमीटर से ज़्यादा नहीं होना चाहिये लेकिन वास्तव में यह है 40 इंच के आसपास अर्थात् 100सैंटीमीटर ---इसलिये अब मुझे चिंता होने लगी है कि ये 10सैंटीमीटर कैसे कम होंगे?  सब से ज़्यादा ज़रूरी है एक्टिविटी बढ़ाई जाए।

वैसे क्या आप को भी लगता है हम लोग वही पुराना रिकार्ड क्यों लगा देते हैं –मोटापा, मोटापे का माप-तोल, मोटापे की श्रेणीयां----- ये सब कुछ बार बार पढ़ना उबाऊ सा ही लगता होगा न.... लेकिन मैं सोचता हूं कि इस तरह के रिमांईडर बार बार दिखते रहने चाहिये ---इस से पाठकों के साथ साथ लिखने वाले को भी बहुत फ़ायदा होता है, उसे कम से कम अपने बारे में भी सोचने का अवसर तो मिलता है।

सत्संग में हम सब लोग कहीं न कहीं जाते हैं, वहां पर भी अकसर वही बातें बार बार दोहराई जाती हैं ...एक बार किसी ने ऐसी बात आगे रखी तो महांपुरूषों ने उस की शंका का समाधान यह कहते हुये किया कि ठीक है, वही बातें हैं, साधारण बातें हैं लेकिन क्या इन्हें आपने अपने जीवन में उतारना शुरू कर दिया है.... इस का जवाब हम स्वयं दे सकते हैं कि हम कितना इन सतवचनों पर पूरा उतरते हैं, इसलिये इन की नियमित पुनरावृत्ति होती ही रहनी चाहिए।

उसी प्रकार ही ये मोटापे-वापे की बातें हैं... हम जब तक ये सब बातें मानते नहीं, खान-पान में बदलाव नहीं लाते, जीवनशैली बदलते नहीं, रोज़ाना शारीरिक व्यायाम करते नहीं तब तक तो इस तरह के लेखों के रूप में बार बार रिमांइडर भेजने का सिलसिला तो मेरे ख्याल में चलता ही रहना चाहिए ....पता नहीं कब कौन सी बात निशाने पर लग जाए।

बातें तो ये छोटी छोटी हैं, लगभग हम सब को पहले ही से पता हैं, लेकिन थोड़ा बहुत असर तो होता ही है, परसों मैंने जब यह बीबीसी स्टोरी पढ़ी तो तुरंत लैपटॉप बंद कर के आईक्लिंग करने निकल गया ---हमारे यहां आसपास हरे भरे खेत हैं, अगर फिर भी मेरे जैसे लोग घर पर ही पढ़े रहें तो कोई क्या करे! लगभग तीन साल पहले मैंने जब एक ऐसा ही लेख लिखा है – धूल चाटते वाकिंग शूज़ के बारे  तो भी मैं लंबे अरसे तक नियमित टहलने निकल जाया करता था। लगता है अभी बस इसे पोस्ट करूं और इस ‘कमरे’ की सलामती के लिये बाहर निकल ही जाऊं ---- कितना सही कहा भी तो गया है ... पहला सुख निरोगी काया !!


इतनी सीरियस से बातें सुनने के बाद चलिये मन को थोड़ा हल्का करते हैं ... तेरे गिरने में भी तेरी हार नहीं कि तूं आदमी है अवतार नहीं ..... मुझे यह गीत बहुत ही पसंद है।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

एनर्जी ड्रिंक्स से बचे रहने में ही है बचाव

इस तरह की चीज़ों के बारे में हम लोगों को पता भी बच्चों से ही चलता है ..इन लोगों की स्कूल आदि में बातें चलती होंगी। एनर्जी ड्रिंक्स के बुरे प्रभाव तो समाचार पत्रों में आते ही रहते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज के युवा वर्ग को इन कोल्ड-ड्रिंक्स की लत लगा देने के बाद अब अगली बारी है इन एनर्जी ड्रिंक्स को पापुलर करने की।

कुछ दिन पहले मैं भी एक डिपार्टमैंटल स्टोर गया हुआ था ... मैंने उस से पूछा कि क्या यहां पर भी एनर्जी ड्रिंक्स मिलती हैं, तो मुझे उस शेल्फ की तरफ़ ले गया जहां पर इस तरह की ड्रिंक्स सजी हुई थीं। एक कैन की कीमत थी अस्सी रूपये और चार कैनों का एक पैक था...डिस्काउंट रेट पर।

उस के ऊपर लिखी इंफरमेशन पढ़ी .. वही सब जो मैडीकल न्यूज़ में दिख रहा था पिछले कुछ दिनों से कि ये सब ड्रिंक्स कैफ़ीन (caffeine) जैसे तत्वों से लैस होते हैं जिन से बहुत से नुकसान होते हैं ....और इन पर लिखा तो रहता है कि इन में कॉफी के एक कप चाय के बराबर कैफीन है लेकिन इस में इस से कहीं ज़्यादा मात्रा में कैफ़ीन होती है। कारण ? – इस में कंपनियों ने कईं तरह के हर्बल इनग्रिडीऐंट भी डाले होते हैं जिन की वजह से कैफ़ीन की मात्रा खूब बढ़ जाती है।

आज कल जिस तरह से ये ड्रिंक्स पापुलर हो रही हैं, इस से तो यही लगता है कि जब कोई भी वस्तु विकसित देशों से निकाले जाने के कगार पर होती है तो उसे हमारे यहां पापुलर करना शुरू कर दिया जाता है। आप इस लिंक पर जा कर इस के बारे में देखिये .... Energy drinks dangers.

कईं विकसित देशों में तो 12 से 17 साल के वर्ग के एक तिहाई युवा इस तरह की ड्रिंक्स नियमित रूप से लेने लगे हैं... और इन ड्रिंक्स के युवाओं के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों का भी उन देशों में पिछले कईं वर्षों से अध्ययन किया जा रहा है और विशेषज्ञों के अनुसार इन ड्रिंक्स की वजह से बच्चों एवं युवाओं को दौरे (seizures) पड़ सकते हैं, उन के हृदय की धड़कन में अनियमितताएं(irregular heart rhythm) आ सकती हैं, उच्च रक्तचाप(high blood pressure) हो सकता है, और यहां तक की इस रिपोर्ट में (जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है) तो यह भी कहा गया है कि इस से मौत तक हो सकती है।

सोचने की बात तो यही है कि अगर कोई खाध्य वस्तु इतने पंगे कर सकती है तो उसे ट्राई ही क्यों किया जाए। और कोई इतनी सस्ती भी नहीं है ये ड्रिंक्स। अपनी देसी पेय पदार्थों में ऐसा क्या है कि वे एनर्जी न दे सकेंगे। सभी खिलाड़ी उन देसी चीज़ों को ही इस्तेमाल कर के पले-बड़े हैं।

ध्यान आ रहा है बाबा रामदेव की दो चार दिन पहले सुनी बात का --- एक सभा को संबोधित करते हुये वे कोल्ड-ड्रिक्स की पोल खोल रहे थे कि किस तरह से ये हमें केवल नुकसान ही पहुंचाती हैं। एक खिलाड़ी का नाम लेकर बच्चों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि यह जो आप लोग विज्ञापन में उस खिलाड़ी को कोल्ड-ड्रिंक के समर्थन में बोलते सुनते हो ना, यह ड्रिंक्स ये खिलाड़ी लोग स्वयं नहीं पीते, ग्रामीण पृष्टभूमि से आने वाले ये स्टार देसी पेयों को पी-पीकर ही इतने बड़े हो गये कि इन कंपनियों की इन की नज़र पड़ सके।

सोचता हूं कि हर तरफ़ इतना गोरखधंधा चल रहा है कि मैडीकल विषयों के बारे में कंटैंट डिवेल्पमैंट का यही मतलब दिखने लगा है कि आमजन को किस तरह से नईं नईं हानिकारक वस्तुओं के बारे में लगातार जागृत रखा जाए...................मेरे विचार में तो एक बात तो है कि इस तरह की वस्तुएं बनाने वालों के पास इतना अथाह पैसा है कि वे इन की मार्केटिंग के लिये किसी भी हद तक जा सकते है।

लेकिन अगर आम आदमी ने कांटों से अपने आप को बचाना है तो सारी दुनिया पर कारपेट बिछाने की बजाए अगर अपने पैरों में ही चप्पल डाल ली जाए तो बात बन जाती है... है कि नहीं ? केवल जागरूक रहना ही एक हथियार है – यह देखना कि हम क्या खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, और इस के हमारे शरीर में क्या प्रभाव हो सकते हैं।




तंबाकू कंपनियां पचास वर्षों तक बेचती रहीं सफ़ेद झूठ

मुझे याद है कि सत्तर के दशक में मेरे जो रिश्तेदार उन दिनों 35-40 रूपये का सिगरेट का पैकेट पिया करते थे, सारे परिवार में उन का अच्छा खासा दबदबा हुआ करता था कि इन की इतनी हैसियत है कि ये अपनी सेहत के प्रति जागरूक होते हुये “फोरेन ब्रांड” के सिगरेट पीते हैं... और आज से चालीस साल पहले चालीस रूपये की बहुत कीमत हुआ करती थी।

और मुझे याद है कि कभी कभी इस तरह के पैकेट लाने की अपनी ड्यूटी भी लगा करती थी और अमृतसर में तो ये केवल तब एक-दो महंगे पनवाड़ियों से ही मिला करते थे.. और मैं इन्हें खरीदते वक्त पता नहीं बिना वजह क्यों इतना “व्हीआईपी-सा” महसूस कर लिया करता था।

कल्पना करिये 1970 के दशक की ...रईस लोगों की एक तरह से ब्रेन-वाशिंग हो चुकी थी कि पैसे के बलबूते वे अपनी सेहत की भी रक्षा कर सकते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि आम आदमी—बीड़ीबाज या फिर एक रूपये का लोकल ब्रांड  इस तरह के “बहुत कम नुकसानदायक” सिगरेट पीने वालों को हसरत भरी निगाहों से देखा करता था।

आप ने भी पढ़ा –मैंने लिखा है ...बहुत कम नुकसानदायक सिगरेट... क्योंकि उन दिनों इस तरह के विदेशी ब्रांड़ों के सिगरेटों के बारे में ऐसा ही सोचा जाया करता था। और यह बात लोगों के मन में घर कर चुकी थी कि महंगा है तो बिना नुकसान के ही होगा।

किसी की भी बढ़ती संपन्नता का प्रतीक सा माने जाना लगा था इन सिगरेटों को --- मेरे बड़े भाई ने और कज़िन्स ने भी 1980 तक ये सिगरेट ही इस्तेमाल करना शुरू कर दिये थे। कुछ वर्षों बाद जब चर्चा होती थी कि यही सुनने को मिलता था कि हम तो भई चालू, घटिया किस्म के सिगरेट नहीं पीते, अपना तो यही ब्रांड है। और उस समय मैं भी यही समझने लगा था कि इतना महंगा है (उन दिनों शायद यह 50-60 रूपये का पैकेट मिला करता था) तो ठीक ही होगा।

फिर लगभग बीस वर्ष पहले यह सुनने में आया कि यह जो भ्रम फैलाया जा रहा है कि महंगे विदेशी ब्रांड वाले फिल्टर सिगरेट तरह तरह के विषैले तत्वों को फिल्टर करने के नाकामयाब हैं.... लेकिन तब भी बात लोगों की समझ में कहां आ रही थी?

लेकिन आज मैं यह खबर देख कर दंग रह गया हूं कि पिछले पचास वर्षों के दौरान तंबाकू कंपनियां झूठ ही बोलती रहीं। न्यू-यार्क टाइम्स में आज दिखी इस खबर से यह पता चला कि अमेरिका में एक अदालत ने यह कहा है कि कंपनियों को इस तरह के विज्ञापन समाचार पत्रों में देने होंगे कि वे पचास वर्षों तक यह झूठ बोल कर आमजन की सेहत के साथ खिलवाड ही करती रहीं कि कम टॉर वाला एवं कम निकोटिन वाले सिगरेट(लाइट सिगरेट –light cigarette) कम नुकसानदायक होते हैं और आदमी इन का आदि (addicted) भी नहीं होता।

कोर्ट ने यह भी कहा है कि इन कंपनियों को इस तरह के विज्ञापन भी खरीदने होंगे जिन में यह लिखा गया हो कि यह सब वे इस लिये करते रहे कि धूम्रपान करने वाले लोग इसे छोड़ने के बारे में सोचने की बजाए इस तरह के लाइट-सिगरेटों को अपना लें ताकि कंपनियों की अपनी सेहत, उनका मुनाफ़ा फलता फूलता रहे।

कंपनियों को यह भी कहा गया है कि वे ये भी घोषणा करें कि वे गलत प्रचार करती रहीं कि निकोटिन एडिक्टिव नहीं है ... वास्तविकता यह है कि इस की लत लग जाती है और चौंकने वाली बात यह भी है कि कंपनियां को यह भी घोषणा करनी होगी कि उन्होंने सिगरेटों के साथ कुछ इस तरह से छेड़छाड़ की कि जिससे इन्हें पीने वाले पक्के तौर पर इस व्ययसन का शिकार हो जाएं।

सोच रहा हूं कि आज के बाद स्कूली बच्चों को वह मुहावरा समझाने के लिये इसी उदाहरण को ले लेना चाहिए --- अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत--- लेकिन अगर केवल खेत ही चुग गया होता तो बात और थी, यहां तो कईं कईं सालों तक स्वस्थ शरीर रूपी पकी फसलों को इस झूठ से आग ही लगती रही... लाखों, करोड़ों, शायद अरबों (हिसाब कमज़ोर है मेरा) लोग खा लिये इस ज़हर ने पिछले पचास वर्षों ने ---- तो क्या उन की कब्रों पर भी एक Sorry note रखा जाएगा कि ...We are sorry to hide the truth.

तो आज के बाद किसी भी पाठक को यह नहीं लगना चाहिये कि यह सिगरेट महंगा है, विदेशी है, कम टॉर वाला है , लाइट सिगरेट है... तो यह ठीक ही होगा, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है, प्रूफ आप के सामने है.. अदालत ने कंपनियों को ही स्वीकार करने को ही कह दिया है। और हां, यह तो आप पहले ही से जानते ही हैं कि बीड़ी भी किसी तरह से भी सिगरेट से कम नुकसानदायक नहीं है, ज़्यादा तो हो सकती है ... .....ओ हो, यार, यह मैं भी किस रेटिंग में पड़ गया कि कम नुकसानदायक, ज़्यादा नुकसानदायक ..... ज़हर तो ज़हर ही है, विदेशों में बने, देश के महानगरों में बने या आदिवासी क्षेत्रों में तैयार हो .......इस का स्वभाव ही है कि इस ने जाने लेने ही लेनी हैं।

Anyway, Choice is yours --- Tobacco or Health……………..you can’t have both!

Source : 
U.S Presses Tobacco Firms to Admit to Falsehoods About Light Cigarettes and Nicotine Addiction. 

किसी भी फ़िक्र को कैसे धुएं में उड़ाया जा सकता है, गाने की बात और है .....लेकिन क्या आप को लगता है कि अगर रियल लाइफ में भी देवानंद ने इस धुएं का ही सहारा लिया होता तो क्या वह अभी 90 वर्ष की आयु में भी इतने एक्टिव दिखते .... 


शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

परमानैंट मेक-अप तकलीफ़ों का पिटारा लेकर आता है

कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाना एक बात है, और अपनी जीवनशैली अथवा तंबाकू, शराब, ड्रग्स को लेकर रोगों को बुलावा देना भी समझ में आता है लेकिन इस से भी आगे की स्थिति है कि रोगों को बुलावा ही नहीं, उन्हें खींच कर, घसीट कर  तरह तरह के परमानैंट मेक-अप के द्वारा अपने अच्छे-भले स्वस्थ शरीर में प्रवेश करवा के आफ़त मोल ली जाए।

कुछ दिन पहले ही मैं बात कर रहा था –टैटू के बारे में ..किस तरह से ये तरह तरह की बीमारियां फैलाने का काम कर रहे हैं और हाल ही में जर्मनी में इस के उपयोग में लाई जाने वाली स्याही के बारे में प्रकाश में आया कि यह कैंसर तक का कारण बन सकती है।

एक आफ़त का आज और पता चला – आज से पहले मुझे इस परमानैंट मेक-अप नाम की बीमारी का नहीं पता था, अचानक आज मुझे यह समाचार दिख गया ...Tattoos as makeup? Read the fine print.  यह एक बहुत ही विश्वसनीय एवं लोकप्रिय न्यूज़-पेपर –न्यू-यार्क टाईम्स – में छपी है। मुझे कुछ कुछ आभास सा तो था कि कुछ कुछ गड़बड़ सी हो तो रही है परमानैंट मेक को लेकर लेकिन उम्मीद है कि यह न्यूज़ पढ़ने के बाद किसी की भी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी.

मुझे डर जिस बात का लगता है वह यह है कि जब किसी विकसित एवं सम्पन्न दूर देश में ये सब खतरनाक किस्म के मेकअप पनप रहे हैं तो इसे भारत में आते देर नहीं लगेगी... मैंने पहले ही कहा है कि भारत में इन के चलन के बारे में मेरा ज्ञान ऐसा ही है, इसलिए यह बड़ी बात न होगी अगर बड़े महानगरीय शहरों में इस तरह के धंधे पहले ही से न चल रहे हों।

मैं यह पढ़ कर हैरान परेशान हूं कि किस तरह से लोग आंखों के परमानैंट मेकअप के लिये आई-लाईनर की जगह टैटू ही गुदवा लेते हैं, अपनी भौहों (eye brows) को बार बार शेप देने से झंझट से छुटकारा दिलाने के लिये भी टैटू की मदद ली जा रही है, होठों तक पर यह परमानैंट मेक-अप करवा लिया जाता है।

इस तरह के प्रसाधनों (cosmetic procedures) के कितने कितने भयंकर प्रभाव हैं यह जानने के लिये आप को न्यू-यार्क टाइम्स की स्टोरी पढ़नी होगी जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है। एचआईव्ही, हैपेटाइटिस, टीबी, कैंसर, भय़ंकर एलर्जिक रिएक्शन ..... अनेकों भयंकर रोग इस तरह का काम करवाने से हो सकते हैं।

और जब इस तरह के परमानैंट मेकअप को उतरवाने की बात आती है तो और भी बड़ा पंगा ... रिपोर्ट में एक ऐसे ही विशेषज्ञ के बारे में बताया गया है जो लेज़र-ट्रीटमैंट से इन्हें उतार तो देता है लेकिन एक मरीज़ में इस तरह के मेकअप को उतारने में एक वर्ष लग गया –छः बार उसे वहां जाना पड़ा और दस हज़ार यू-एस डालर उसे फीस देनी पड़ी।

यह पोस्ट केवल इस लिये है कि अगर कभी इस तरह के मेकअप भारत में प्रवेश कर भी जाएं ---यकीन मानिए ये अवश्य आएंगे – तो हम पहले ही से स्वयं भी सचेत रहें और दूसरों को भी सचेत करते रहें ताकि गलती से भी यह गलती न हो जाए।

वैसे भी जो रियल ब्यूटी है वह कहां इन सब धकोंसलों की मोहताज है ....अगर मन अच्छा है, विचार अच्छे हैं तो वह चेहरे पर झलक ही जाती है, इसलिये बाहरी रंग रूप बिल्कुल ही बेमानी है, रियल ब्यूटी अंदरूनी है, जो बाहर परिलक्षित होती है ....एक ईमानदार मुस्कान के रूप में, सब के साथ एक जैसे मृदु-स्वभाव के रूप में, प्यार-आदर-सत्कार से सभी के साथ पेश आने से, हर किसी के मर्म को समझने से.......लेकिन यह क्या मैं तो सुबह सुबह फलसफ़ा झाड़ने लगा, इसलिये समय है कलम को यहीं विराम दे दूं।

यहां उस गीत का लिंक देना चाहता था ...कागज़ के फूल... खुशबू कहां से आयेगी... लेकिन आधा घंटा यू-ट्यूब पर ढूंढने पर भी जब वह नहीं दिखा तो बचपन में सैंकड़ों बार सुना वह गीत दिख गया ... बात वह भी यही कह रहा है ... सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से .... बात कितनी सही है...वैसे यह पुरानी फिल्म दुश्मन का गीत है .. यह फिल्म मुझे बहुत पसंद है... वह सुपर डुपर गीत भी इसी का ही है ....एक दुश्मन जो दोस्तों से भी प्यारा है... अगर अभी तो नहीं देखी, तो ज़रूर देखियेगा... मानवीय संवेदनाओं को झकझोड़ने वाली फिल्म है !



शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

दूषित ग्लूकोज़ ने ली कईं जानें

आज दोपहर मैं जब लोकसभा टीवी पर प्रश्न-काल के दौरान एक प्रश्न को सुन रहा था तो मुझे उस समय तो समझ नहीं आया कि यह किस संदर्भ में है .. प्रश्न यही था कि अगर ग्लूकोज़ चढ़ाए जाने से ही जान चली जाए तो यह एक गंभीर मामला है ... संसद सदस्य ने यह भी कहा कि अगर किसी की जान किसी दवाई से होने वाले रिएक्शन की वजह से जाती है तो वह बात तो समझ में आती है लेकिन अगर ग्लूकोज़ चढ़ाये जाने से मौतें हो जाती हैं तो यह एक गंभीर मसला है। स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने प्रश्न रखने वाले सदस्य को विस्तृत जानकारी देने को कहा।

मैं तब से यही सोच रहा था कि आखिर यह मामला है क्या ....लेकिन सारा मामला मेरी समझ में तब आया जब मैंने अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़ स्टोरी देखी...Tainted IV Fluid kills 13 pregnant women in India. राजस्थान के जोधपुर में पिछले दस दिनों में तेरह गर्भवती महिलायें दूषित ग्लूकोज़ ड्रिप की बलि चढ़ गईं।

इस तरह का केस तो मैंने भी पहली बार ही सुना है कि दूषित ग्लूकोज़ चढ़ने से इतने लोगों की मौत हो गई। यह एक बेहद दुःखद घटना तो है ही लेकिन इस दुर्घटना से सबक इस तरह के सीखने की ज़रूरत है कि इस तरह की घटना फिर से न घटे।

इतना तो आप सब भी सुनते ही होंगे कि ग्लूकोज़ या कोई भी इंट्रा-विनस फ्लूयड़ (intravenous fluid) लगने से किसी को कोई रिएक्शन-सा हो गया ...कंपकंपी छिड़ गई लेकिन उस तरह के केसों पर डाक्टर तुरंत काबू पा लेते हैं।

मौतें तो हो गईं ... अब कारण का पता भी लगा ही लिया जाएगा कि ऐसा क्या था उस “लोकल” ग्लूकोज़ की बोतलों में जिस से कि बहुत ज़्यादा रक्त बह जाने से इतनी महिलाओं की मौत हो गई ...लेकिन मुझे लगता है कि इस दुर्घटना से उस तबके को भी सीख लेने की ज़रूरत है जो समझते हैं अपनी मरजी से कभी भी किसी तरह की शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिये ग्लूकोज़ चढ़ाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा।

और आम आदमी के इस भ्रम को गांवों, कसबों के झोलाछाप डाक्टर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पहले तो खबरे देखते-सुनते थे कि ग्लूकोज़ आदि आई-व्ही फ्लूयड़ लगाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाले आई-व्ही सैट (कैनुला आदि) की बढ़े स्तर पर री-साईक्लिंग होती है, कोई पता नहीं नीम-हकीम इस तरह की दवाईयां चढ़ाने के नाम पर कौन कौन सी लाइलाज बीमारियां भोली भाली जनता को चढ़ा देते हैं।

आमजन के इस बात पर विचार करना चाहिये कि अगर एक बड़े अस्पताल में इस तरह की दूषित ग्लूकोज़ की बोतलें पहुंच गईं तो इस तरह की क्वालिटी वाली बोतलों अथवा अन्य दवाईयों को अन्य छोटी जगहों पर पहुंचते कहां देर लगती होगी !

इस बात का बेहद दुःख है कि इतनी महिलाएं जो अपने नवजात शिशुओं को लेकर खुशी खुशी घर आतीं वे कहीं और हमेशा के लिये चली गईं.... आखिर किसी का तो दोष है, देखियेगा अगले कितने दिन यही दोषारोपण- प्रत्यारोपण चलता रहेगा, कुछ ही दिनों में मामला ठंडा भी पड़ ही जायेगा लेकिन दिवंगत  महिलाएं जिन परिवारों से जुड़ी हुई थीं उन का यह घाव हमेशा हरा रहेगा।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये ..

अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़-स्टोरी दिख गई ...Alcohol in moderation can help prevent heart disease. अब इस तरह की रिपोर्टें नियमित दिखनी शुरू हो गई हैं .. इन्हें देख-पढ़ कर मुझे बहुत चिढ़ सी होती है क्योंकि इस तरह की खबरें देख-सुन कर फिर हमें मरीज़ों की कुछ ऐसी बातों का जवाब देने के लिये खासी माथापच्ची करनी पड़ती है।

इसी तरह की ख़बरें देखने के बाद ही लोग अकसर चिकित्सकों को कहना शुरू कर देते हैं ... डाक्टर साहब, आप लोग ही तो कहते हो कि थोड़ी बहुत ड्रिंक्स दिल की सेहत के लिये अच्छी होती है, फिर पीने में बुराई कहां है?


मुझे तो ऐसा लगने लगता है कि ये जो इस तरह की ख़बरें हमें दिखती हैं न ये सब के हाथ में (महिलाओं समेत) जाम थमाने की स़ाजिश है। आज जिस तरह से मीडिया ऐसी ख़बरों को उछालता है, ऐसे में ये बातें आम आदमी से छुपी नहीं रहतीं और वह समझता है कि उसे जैसे रोज़ाना जॉम छलकाने का  एक लाइसैंस ही मिल गया हो।

आप इस तरह की रिपोर्ट ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि कितनी कम मात्रा की की बात की जा रही है...और शायद दूर-देशों में शुद्धता आदि का इतना इश्यू होता नहीं होगा।

भारत में विषम समस्याएं हैं—देसी दारू, नकली शराब, ठर्रा ...आए दिन इन से होने वाली मौतों के बारे में देखते सुनते रहते हैं, इसलिये इस तरह की खबर किसे के हाथ पड़ने का क्या अंजाम हो सकता है, वह हम समझ ही सकते हैं।

रोज़ाना हम शराब से तबाह हुई ज़िदगींयां एवं परिवार देखते रहते हैं ... घटिया किस्म की दारू और साथ में नमक या प्याज़ या फिर आम के आचार के मसाले के साथ तो दारू पी जाती है, वहां पर तो दारू के शरीर पर होने वाले प्रभाव उजागर होते कहां देर लगती है, छोटी छोटी उम्र में लोगों को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता है।

लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि अंग्रेज़ी दारू सुरक्षित है--उस के भी नुकसान तो हैं ही, और माफ़ कीजियेगा लिखने के लिये सभी तरह की दारू--देसी हो या अंग्रेज़ी --  ज़िंदगींयां तो खा ही रही  है--गरीब आदमी की देसी ठेकों के बाहर नाली के किनारे गिरे हुये और रईस लोगों की बड़े बड़े अस्पतालों के बिस्तरों पर...लिवर खराब होने पर कईं कईं वर्ष लंबा, महंगा इलाज चलता है ....लेकिन अफ़सोस... !!  और एक लिवर ही तो नहीं जो दारू से खराब होता है !!

लेकिन एक बात जो इस तरह की रिसर्च के साथ विशेष तौर पर लिखी रहती है वह प्रशंसनीय है .... इस में लिखा है कि इस रिपोर्ट का यह मतलब नहीं कि जो दारू नहीं पीते, वे इसे थोड़ा थोड़ा लेना शुरू कर दें...नहीं नहीं ऐसा नहीं है, क्योंकि रोज़ाना दारू से होने वाले दिल के रोग से जिस बचाव की बात हो रही है, वह तो रोज़ाना शारीरिक श्रम करने से और संतुलित आहार लेने से भी संभव है.

तो फिर इस तरह की रिपोर्ट की हमारे देश के लिये क्या उपयोगिता है ... इस की केवल यही उपयोगिता है कि जो लोग सभी तरह की जुगाड़बाज़ी के बावजूद भी रोज़ाना बहुत मात्रा में अल्कोहल गटक जाते हैं वे शायद इस तरह की खबर से लाभ उठा पाएं। लेकिन मुझे ऐसा कुछ खास लगता नहीं ...क्योंकि पुरानी पी हुई दारू भी तो शरीर के अंदर अपना रंग दिखा ही चुकी होगी!

लेकिन फिर भी एक शुरूआत करने में क्या बुराई है ... अगर कोई एक बोतल से एक पैग पर आ जाए तो यह एक खुशख़वार बात तो है ही ....लेकिन सोचता हूं कि क्या यह कर पाना इतना आसान है ?  नहीं न, आप को लगता है कि यह इतना आसान नहीं है तो फिर क्यों न हमेशा के लिये इस ज़हर से दूर ही रहा जाए........ हां, अगर कोई इस रिपोर्ट को पढ़ कर डेली-ड्रिंकिंग को जस्टीफाई करे तो करे, कोई फिर क्या करे  ?
इसे भी देखियेगा ...
थोड़ी थोड़ी पिया करो ? 
Alcohol in moderation 'can help prevent heart disease' (BBC Story)




रविवार, 20 फ़रवरी 2011

हैपेटाइटिस-सी के बारे में सब को जानना आखिर क्यों ज़रूरी है?

आज कल अकसर हैपेटाइटिस-सी के बारे में सुनते रहते हैं .. पहले जितना हैरतअंगेज़ हैपेटाइटिस बी के बारे में सुन कर लगता था, अब वही स्थिति हैपेटाइटिस-सी की है।

बड़ी समस्या यही है कि आज से कुछ साल पहले तक रक्त ट्रांसफ्यूज़न से पहले रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस-सी संक्रमण के लिये रक्त की जांच होती नहीं थी। यह जांच तो अमेरिका में ही नवंबर 1990 में शुरू हुई थी.... जहां तक मुझे ध्यान आ रहा है सन् 2000 तक इस के बारे में भारत चर्चा तो गर्म हो चुकी थी कि रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी के लिये भी जांच होनी चाहिये।

मैंने आज सुबह यह जानकारी नेट पर सर्च करनी चाही कि वास्तव में भारत में यह टैस्टिंग कब से शुरू हुई लेकिन मुझे कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं मिली... इस के बारे में ठीक पता कर के लिखूंगा। मेरा एक बिल्कुल अनुमान सा है कि शायद पांच-सात पहले यह टैस्टिंग नहीं हुआ करती थी.... लेकिन फिर भी कंफर्म कर के बताऊंगा।

इतना तो है कि जो रक्त जनता को ब्लड-बैंक से पांच सौ रूपये में मिलता है उस की तरह तरह की टैस्टिंग के ऊपर सरकार का लगभग 1400 रूपये तो टैस्टिंग का ही खर्च आ जाता है ... एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी, सी , मलेरिया, व्ही.डी.आर.एल टैस्ट आदि ये सब टैस्ट किये जाते हैं।

हां, तो भारत में भी आज से कुछ साल पहले तक जो रक्त लोगों को चढ़ता रहा है उस की हैपेटाइटिस सी जांच तो होती नहीं थी... और प्रोफैशनल रक्त दाताओं की भी समस्या तो पहले ही रही है जिन में से कुछ नशों के लिये सूईंयां बांट लिया करते थे। गांवो-शहरों के नीम हकीम बिना वजह संक्रमित सूईंयों से दनादन इंजैक्शन बिना किसी रोक-टोक के लगाये जा रहे हैं, झोलाछाप डाक्टर सीधे सादे आम आदमी की सेहत के साथ खिलवाड़ किये जा रहे हैं... देश में जगह जगह संक्रमित औज़ारों से टैटू गुदवाने का शौक बढ़ता जा रहा है.... ऐसे में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि वे अन्य रोगों के साथ हैपेटाइटिस सी से संक्रमित हो सकते हैं।

हैपेटाइटिस सी ऐसी बीमारी है जिसके 20-30वर्ष तक कोई भी लक्षण नहीं हो सकते ...लेकिन लक्षण नहीं तो इस का यह मतलब नहीं कि यह वॉयरस शरीर में गड़बड़ नहीं कर रही। अब जिन लोगों को बहुत वर्षों पहले रक्त चढ़ा था या ऐसे ही कहीं किसी भी जगह से कोई टीका आदि लगवाया था या टैटू आदि गुदवाया था, मेरे विचार में ऐसे सभी लोगों को चाहे कोई तकलीफ़ है या नहीं, अपना हैपेटाइटिस सी टैस्ट तो करवा ही लेना चाहिये ... लेकिन अपने फ़िज़िशियन से बात करने के बाद.. शायद वह आप को कोई अन्य भी करवाने के लिये कहें, इसलिये सब एक साथ ही हो जाए तो बेहतर होगा।

और अगर टैस्ट पॉज़िटिव है भी तो हौंसला हारने की तो कोई बात है नहीं .... नईं नईं रिसर्च रिपोर्टे आ रही हैं कि इस पर भी कैसे कंट्रोल पाया जा सकता है। लेकिन सब से ज़रूरी बात है कि अगर हैपेटाइटिस सी का टैस्ट पाज़िटिव भी आया है तो उस से संबंधित सभी टैस्ट किसी कुशल फ़िज़िशियन अथवा गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट ( पेट की बीमारियों के विशेषज्ञ) की सलाह अनुसार करवा कर उन की सलाह अनुसार (अगर वे कहें तो) दवाई का पूरा कोर्स भी ज़रूर कर लेना चाहिये। अभी अभी मैं एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि किस तरह इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है।
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