गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मुलैठी खाने से पैदा होते हैं बुद्धु बच्चे ?


एक रिसर्च ने निष्कर्ष निकाला है कि जो महिलायें मुलैठी खाने की दीवानी हैं उन के बच्चे बुद्धु पैदा होते हैं। ऐसा बताया गया है कि गर्भावस्था के दौरान मुलैठी में मौजूद ग्लाईराईज़िन प्लेसैंटा को क्षति पहुंचाता है जिस से मां के स्ट्रैस-हारमोनज़ बच्चे के दिमाग तक पहुंच जाते हैं----रिजल्ट ? बच्चे जल्दी पैदा हो जाते हैं और आगे चल कर कुशाग्र बुद्धि के मालिक नहीं हो पाते।

मुझे तो आज ही पता चला कि पश्चिमी देशों मे भी लोग मुलैठी ( जेठीमधु, मधुयष्टिका) के इतने दीवाने हैं ---चेतावनी यह है कि गर्भवस्था के दौरान अगर एक सप्ताह में 100ग्राम शुद्ध मुलैठी खा लेती हैं तो बच्चों की बुद्धि पर एवं उन के व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

मेरा मुलैठी ज्ञान आज तक बहुत सीमित था --- अधिकतर व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित था। बचपन से अब तक गला खराब होने पर ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेने में मुझे कभी भी विश्वास ही नहीं रहा। बस, दो-चार मुलैठी चूस लेने से गला एकदम फिट लगने लगता है, इसलिये मेरी इस पर अटूट श्रद्धा कायम है और मै अपने मरीज़ों को भी कहता हूं कि गले तकी छोटी मोटी मौसमी तकलीफ़ों के लिये ये सब देसी जुगाड़ ही असली इलाज हैं (शायद कोई तो मान लेता होगा !!!)

और कईं बार घर में मुलैठी का पावडर डाल कर चाय भी बनती है----वही खराब गले को लाइन पर लाने के लिये। मुझे इतना पता था कि आयुर्वैदिक दवाईयों में भी मुलैठी इस्तेमाल होती है।

मुलैठी कैंडी

लेकिन मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि पश्चिमी देशों में इस के बनी कैंडी आदि भी इतनी पापुलर हैं -- और यह मुलैठी खाने से बुद्धु बच्चे पैदा होने की बात सुन कर ही यह सब जानने की इच्छा हुई।

मुझे लगता है कि यह समस्या दूर-देशों की अपनी ही अनूठी समस्या है जहां पर कैंडी इत्यादि के मुलैठी का इ्स्तेमाल किया जाता है और इन कैंडियों का इतनी ज़्यादा मात्रा में इस्तेमाल होता है । सोच रहा हूं कि इतनी ज़्यादा कैंड़ी खाने से मुलैठी की मात्रा का तो टोटल हो गया, लेकिन जितनी शक्कर आदि शरीर में गई उस का क्या ?

जिस एरिये की महिलायों पर यह स्टडी हुई है मेरे विचार में वहां पर तो गर्भावस्था में इस तरह की इतनी ज़्यादा मुलैठी कैंडी से बच के ही रहा जाए।

लेकिन आप बिल्कुल पहले जैसे मुलैठी चबाते रहिये ----आप बिल्कुल लाइन पर चल रहे हैं-------हमारी समस्या है कि नईं पीढ़ी का इन सब बातों पर विश्वास नहीं है---चलिये, यह स्वयं भुगतेगी।

मुझे पता है कि इस न्यूज़-स्टोरी में आप के साथ कुछ साझा करने जैसा नहीं था, लेकिन इस के बहाने अगर हम लोगों ने मुलैठी जैसे प्रकृति के तोहफ़े को थोड़ा याद कर लिया है, उस के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है ----क्या यह कम है ? वैसे बाज़ार में बिकने वाले खुले मुलैठी पावडर के बारे में आप का क्या विचार है ------ जहां लोग धनिया पावडर में अनाप-शनाप मिलावट करने से गुरेज नहीं करते वहां पर कैसे मिले शुद्ध मुलैठी पावडर !!

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

एनडीटीवी इंडिया ने खोल दी मीठे ज़हर की पोल

आजकल मैं एनडीटीवी इंडिया खूब देखता हूं ---मेरे लड़के ने मुझे हिदायत दी हुई है कि हिंदी में खबरें सुननी हैं तो एनडीटीवी इंडिया देखा करो। कल रात एनडीटीवी पर एक बहुत बढ़िया कार्यक्रम देखने का अवसर मिला जिस में उन्होंने आज कल मिठाईयों के रूप में बिक रहे मीठे ज़हर की अच्छी तरह पोल खोली। कार्यक्रम की प्रस्तुति भी बहुत प्रभावपूर्ण थी।
Mithai ke dukaanअकसर ऐसे कार्यक्रम देख कर लगने लगता है कि ये जो हिंदी के न्यूज़-मीडिया चैनल हैं ये भी आम आदमी की आंखे और कान ही हैं। इन के संवाददाता इतनी मेहनत कर के, अपने आप को जोखिम में डाल के ऐसी ऐसी बातें जनता के सामने लाते हैं जिन के बारे में वैसे तो उसे कभी पता चल ही नहीं सकता।
लेकिन सोचने की बात यह भी है कि जागरूकता से भरपूर इतने बढ़िया बढ़िया कार्यक्रम देखने के बाद क्या पब्लिक सब तरह का कचरा खाने से गुरेज़ करनी लगती है--जिस तरह से बाज़ार में मिठाईयों आदि की दुकानों पर भीड़ टूट रही होती है उसे से मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन लोगों के मन में आज के आधुनिक मीडिया द्वारा इस तरह की बातें डालना भी एक बहुत अच्छा प्रयास है ----ठीक है जब किसी को ज़रूरत महसूस होगी वह उस ज्ञान को इस्तेमाल कर ही लेगा (इतनी जल्दी भी क्या है यारो, जब जीना है बरसों !!!)..
असर होता है---डाक्टर हूं, सब देखता, पढ़ता-सुनता रहता हूं ----अभी कुछ दिन पहले की ही बात है जब टीवी पर पाव रोटी या पांव रोटी का कार्यक्रम आ रहा था ---- उस दिन के बाद डबलरोटी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। और अब घर में जब कभी ब्रैड आती है तो केवल एक ही बढ़िया ब्रांड की ही आती है ---- लोकल ब्रांड तो बच्चे अपने डॉगी को भी नहीं डालते ----कहते हैं कि जो हम नहीं खाते इस छोटू को भी नहीं देंगे।
जिस तरह से कल एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से सिंथैटिक दूध बनता है ---जिस में दूध तो होती ही नहीं, केवल कैमीकलों की ही मिश्रण होता है जो कि बीसियों भयंकर बीमारियों की खान होते हैं। मिलावटी मावे में क्या क्या होता है इसे देख कर तो लगता नहीं कि कोई मावे के पास भी फटक जाए।
देसी घी की पोल भी अच्छी तरह से खोली गई कि उस में कितनी तरह के ज़हरीले पदार्थ डाले जाते हैं। कल का कार्यक्रम देख कर छोटे बच्चे भी कहने लगे कि लगता है अब तो केवल दाल-रोटी पर ही टिक के रहना चाहिये।
dabba mithai kaमिठाईयां किसे अच्छी नहीं लगतीं----मुझे भी बेसन के लड्डू, पतीसा और बर्फी बहुत अच्छी लगती है लेकिन महंगी से महंगी दुकान की भी खरीदी इन मिठाईयों पर मेरा तो भई बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा। इसलिये मैं कभी गलती से एक आधा टुकड़ा खा लूं तो भी मैं अपराधबोध का शिकार ही हुआ रहता हूं कि सब कुछ पता होते हुये भी .....।
हां तो बताया यह भी जा रहा है कि अगर हम इस तरह की मिलावटों से बचना चाहते हैं तो किसी मशहूर दुकान से ही खरीदी मिठाई खाएं अथवा स्वयं मिलावट की जांच कर लें। लेकिन मैं इस से इत्तफाक नहीं रखता ----किसी दुकान में बढ़़िया कांच लगवा लेने से ,एक-दो स्पलिट एसी फिट करवा लेने से क्या क्वालिटी की भी गारंटी हो जाती है। और जहां तक मिलावट को खुद जांचने की बात है अभी तक तो चांद को मांगने जैसी बात लगती है। लेकिन भवि्ष्य में इस के बारे में कुछ हो तो बहुत बढ़िया रहेगा।
मैं कईं बार सोचता हूं लोग ठीक ही कहते हैं ---हमारे यहां शायद जानें बहुत सस्ती हैं। मिलावट के बारे में टीवी चैनल इतनी जागरूकता फैला रहे हैं लेकिन फिर भी यह गोरख-धंधा फल-फूल ही रहा है। दो दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि अमेरिका में एशियाई मुल्कों से आयात किये हुी सूखे आलूबुखारे बिक रहे थे ----जब वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने उन की जांच की तो उन में ---- Lead (शीशा) की मात्रा बहुत अधिक पाई गई । तुरंत वहां पर उस एजेंसी ने लोगों को हिदायत दे दी कि इन सूखे आलुबुखारों से बच के रहो और यहां तक कि वहां की सरकार ने इस तरह के प्रोडक्ट्स की फोटो कंपनियों के नाम के साथ वेबसाईट पर भी डाल दी।
और एक हम हैं कि दीवाली आ रही है और शुद्ध मिठाई के लिये तरसे जा रहे हैं। मैं आज सुबह ही किसी के साथ हंसी मज़ाक कर रहा था कि देखना, खन्ना साहब, वही दिन वापिस आ जायेंगे जब हम लोगों को चीनी के खिलौनों एवं कुरमुरे से ही दीवीली मनानी पड़ा करेगी।
जावेद अख्तर ने लिखा है कि पंछी नदियां पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, सोचा तूमने और मैंने क्या पाया इंसा होके -------उसी तरह हम लोगों ने इतनी ज़्यादा तरक्की कर ली कि हम लोग मिठाई के लिये ही तरस गये ---- बचपन में अमृतसर में खाई बर्फी का स्वाद अभी में मुंह में वैसे का वैसा ही है-------तब हमारे जैसे ही सिरफिरे हलवाई हुआ करते थे जो घंटों एक कड़ाई में पक रही दूध की रबड़ी में घंटों कड़छे मार मार के थकते नहीं थे -------लेकिन अब कहीं भी न तो ऐसे सिरफिरे हलवाई ही दिखते है और न ही वैसी छोटी छोटी हलवाईयों की दुकानें जिन की खुशबू दूर से ही आ जाया करती थी और हम बच्चों का नाटक शूरू हो जाया करता था।
PS....Please let me know some good on-line tutorials for knowing the proper placement of pictures in a blog post. And also for putting some text-boxes, full-quotes etc. Thanks.

शनिवार, 26 सितंबर 2009

जब चिकित्सा-कर्मी ही बीमारी परोसने लगे …

अभी उस दिन ही हम लोग चर्चा कर थे चीन में कुछ लोगों की पागलपंथी की जिन्होंने एच.आई.व्ही दूषित सिरिंज से हमला कर के आतंक फैला रखा है।
और आज डेनवर कि यह खबर दिख गई कि वहां के एक अस्पताल के सर्जीकल विभाग में एक 26 वर्षीय चिकित्सा-कर्मी को बीस साल की सजा हो गई है।
इस का दोष ? –इस महिला ने उस अस्पताल में दाखिल दर्जनों लोगों को हैपेटाइटिस-सी इंफैक्शन की “सौगात” दे डाली। इस न्यूज़-रिपोर्ट में यह भी दिखा कि यह अस्पताल में भर्ती मरीज़ों की दर्द-निवारक दवाईयां पार कर जाया करती थी।
और फिर उन के सामान में हैपेटाइटिस-सी संक्रमित सिरिंज सरका दिया करती थी---यह महिला स्वयं भी हैपेटाइटिस-सी से संक्रमित थी।
यह तो ऐसी बात है जिस की कभी कोई मरीज़ शायद कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं सोच रहा हूं कि दुनिया में हर देश की, हर समुदाय की अपनी अलग सी ही समस्यायें हैं---हमारे देश का मीडिया अकसर दिखाता रहता है कि किस तरह से दूषित रक्त का धंधा चल रहा है –—देश में कुछ जगहों पर कमरों में लोगों ने अवैध रक्त-बैंक ( रक्त की दुकानें) की दुकानें खोल रखी हैं।
और अमीर देशों की हालत देखियें कि वहां पर वैसे तो वैसे तो कानूनी नियंत्रण कितने कड़े हैं लेकिन वहां भी अगर बाड़ ही खेत को खाने पर उतारू हो जाये तो ……..!
हैपेटाइटिस-सी 
हैपैटाइटिस-सी की बीमारी एक खतरनाक बीमारी है जिस के फैलने का रूट हैपेटाइटिस बी जैसा ही है ---दूषित रक्त, दूषित सिरिंजों, संक्रमित व्यक्ति के विभिन्न शारीरिक द्व्यों ( body fluids of the infected individuals) जिन में वीर्य, लार आदि सम्मिलित हैं। इस से संक्रमित व्यक्ति से यौन संबंधों के द्वारा भी इस का संचार होता है।
हैपेटाइटिस सी से संबंधित जानकारी इस पेज पर पड़ी हुई है।
और दूषित रक्त में जो हैपैटाइटिस सी का मुद्दा है उसके बारे में यह कहा जाता है कि हमारे यहां तो ब्लड-बैंकों में इस टैस्ट को अनिवार्य किये हुये तो कुछ ही समय हुया है ----इस का मतलब उस से पहले सब कुछ राम भरोसे ही चल रहा था –लेकिन इस बीमारी के कुछ पंगे ये हैं कि इस से बचाव का अभी तक कोई टीका नहीं है और शरीर में इस बीमारी के कईं कईं वर्षों तक कोई लक्षण ही नहीं होते।

एक ग्राम कम नमक से हो सकती है अरबों ड़ॉलर की बचत !

अमेरिकी लोग अगर रोज़ाना लगभग साढ़े तीन ग्राम नमक की बजाये लगभग अढ़ाई ग्राम नमक लेना शुरू कर दें तो वहां पर 18 बिलियन डॉलरों की बचत हो सकती है।
केवल बस इतना सा नमक कम कर देने से ही वहां पर हाई-ब्लड-प्रैशर के मामलों में ही एक सौ दस लाख मामलों की कमी आ जायेगी। यह न्यू-यॉर्क टाइम्स की न्यूज़ रिपोर्ट मैंने आज ही देखी।
ऐसा कुछ नहीं है कि वहां अमेरिका में यह सिफारिश की जा रही है और भारत में कुछ और सिफारिशें हैं। हमारे जैसे देश में जहां वैसे ही विशेषकर आम आदमी के लिये स्वास्थ्य संसाधनों की जबरदस्त कमी है ---ऐसे में हमें भी अपनी खाने-पीने की आदतों को बदलना होगा।
जबरदस्त समस्या यही है कि हम केवल नमक को ही नमकीन मानते हैं। यह पोस्ट लिखते हुये सोच रहा हूं कि नमक पर तो पहले ही से मैंने कईं लेख ठेल रखे हैं ---फिर वापिस बात क्यों दोहरा रहा हूं ?
इस सबक को दोहराने का कारण यह है कि इस तरह की पोस्ट लिखना मेरे खुद के लिये भी एक जबरदस्त रिमांइडर होगा क्योंकि मैं आचार के नमक-कंटैंट को जानते हुये भी रोज़़ इसे खाने लगा हूं और नमक एवं ट्रांस-फैट्स से लैस बाकी जंक फूड तो न के ही बराबर लेता हूं ( शायद साल में एक बार !!) लेकिन यह पैकेट में आने वाला भुजिया फिर से अच्छा लगने लगा है जिस में खूब नमक ठूंसा होता है।
और एक बार और भी तो बार बार सत्संगों में जाकर भी तो हम वही बातें बार बार सुनते हैं लेकिन इस साधारण सी बातों को मानना ही आफ़त मालूम होता है, ज़्यादा नमक खाने की आदत भी कुछ वैसी ही नहीं हैं क्या ?
इसलिये इस पर तो जितना भी जितनी बार भी लिखा जाये कम है ---एक छोटी सी आदत अगर छूट जाये तो हमें इस ब्लड-प्रैशर के हौअे से बचा के रख सकती है।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

ताकत से लैस हैं ये खाद्य-पदार्थ – 2. अंकुरित दालें

कच्चे खाने ( raw food) पर लिखी गई एक बहुत ही बढ़िया इंगलिश की किताब मैंने पढ़ी थी – Raw Energy –अभी भी मेरे पास पड़ी होगी कहीं किताबों के ढेर में । मैं इस में लिखी बातों से बहुत प्रभावित भी हुआ और उन से इत्तफाक भी रखता हूं।

इस किताब में कच्चे खाने की सिफारिश करते हुये बार बार यह कहा गया है कि धीरे धीरे हमें अपने खाने में कच्चे खाने को अधिक से अधिक जगह देना चाहिये। उन दिनों मैं बंबई में सिद्ध समाधि योग (turning point in my life !!) के प्रोग्रामों में भी जाया करता था –इसलिये इस किताब में लिखी बातों ने मेरे ऊपर बहुत असर किया।

दरअसल पका हुया खाने के चक्कर में हम लोग पहले तो बेशकीमती विटामिन और खनिज तत्व गंवा बैठते हैं और फिर बाद में विटामिनों की गोलियां निगल कर इन की भरपाई करने का विफल प्रयास करते रहते हैं।

हम अकसर थोड़ा बहुत सलाद खा कर ही इत्मीनान कर लेते हैं -- मुझे याद है हम लोग जिस योग-क्लास में जाया करते थे वहां पर Raw food तैयार करवा कर हमें खिलाया जाता था। हमें बार बार यह भी कहा जाता था कि जब आप कच्चा खाना खा रहें हैं तो आप को इस बात का ज़्यादा ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं होती कि कहीं आप ओव्हर-ईटींग तो नहीं कर रहे, और आप जितना चाहे खा लें, ज़्यादा कैलोरी की चिंता करने की भी आफ़त नहीं।

 

चलिये, आज के विषय पर लौटते हैं – अंकुरित दालें ---इन की जितनी भी प्रशंसा की जाये उतनी ही कम होगी। मैं जिस किताब की बात कर रहा हूं उस में इन अंकुरित दालों एवं अनाजों को पावर-डायनैमो ( sprouts are compared to power dynamos). आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि ये कितनी अथाह शक्ति का स्रोत होंगे।

मैं जितनी बार भी अपने किसी मरीज़ को अंकुरित दालें आदि खाने की सलाह देता हूं तो मुझे यही जवाब मिलता है कि हां, हां, कभी कभी खाते हैं। लेकिन आगे पूछने पर पता चलता है कि वे इन अंकुरित दालों को भी पका कर ही कभी कभी खाते हैं। यह पूछने पर कि क्या इन अंकुरित दालों को बस ऐसे ही बिना पकाये खाया है, तो लगभग हमेशा यही जवाब मिला है कि यह तो हम से नहीं हो पाता।

क्या आपने कभी अंकुरित दालें आदि बिना पकाये खाई हैं ? मैंने पिछले 15 सालों में खूब खाई हैं। कैसे  ? --- लगभग आधी कटोरी अगर आप ले कर उस में थोड़ा सा नींबू डाल लें तो आराम से खाया जाता है। और फिर सेहत के लिये थोड़ा स्वाद का ध्यान तो छोड़ना ही होगा। वैसे, अगर आप को इन्हें खाने में दिक्तत सी आये तो आप इन के दो-चार चम्मच लेने से शूरूआत कर सकते हैं।

स्वाद के लिये जहां तक इन में नमक डालने की बात है, किसी भी उम्र के लिये उस की सिफारिश नहीं की जा सकती क्योंकि इस से यू ही उच्च रक्तचाप होने की संभावना बढ़ती है----इसलिये जितना नमक कम लिया जाये उतना ही बेहतर है। अकसर बच्चों के भी बचपन में ही स्वाद डिवैल्प होते हैं इसलिये उन्हें भी बचपन से ही जितना हो सके किसी तरह कम  नमक-मिर्ची वगैरह की ही आदत डाली जाये तो उम्र भर सेहतमंद रहेंगे।

वैसे मुझे याद हैं जब मैंने 1994 में अंकुरित दालों आदि को खाना शूरू किया तो मेरे को भी थोड़ी कठिनाई तो होती थी ---- लेकिन हमारे उस बंबई वाले ग्रुप में जब सभी खाते थे तो फिर आराम से यह सब हो जाता था और जब हमें वीकएंड-रिट्रीट के लिये बंबई के पास मुरबाड आश्रम ले कर जाया जाता था तो वहां तो हमें पूरा कच्चा खाना ( raw food) ही दिया जाता था।

और मैंने जिन अंकुरित दालों आदि को खूब खाया है और आज कल भी अकसर खाता ही हूं वे हैं साबुत मूंग की दाल ( हरी, छिलके वाली दाल), मसर की दाल आदि, मेथी दाना भी अकुरित कर के कईं बार खाया है। वैसे कहते तो हमें कईं तरह के अनाज को अंकुरित कर  के खाने को भी थे लेकिन वह पता नहीं कभी हो नहीं पाया।

अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूं कि ये अंकुरित दालें आदि तो पावर-डायनैमो ही हैं। इन का नियमित सेवन बेइंतहा फायदेमंद है ----इन के क्या क्या गुण गिणायें ? अगर आप ने अभी तक ट्राई नहीं किया तो अभी शूरू करिये। अगर शूरू शूरू में दिक्तत लगे तो आप इन्हें दाल-रोटी के साथ उस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं जिस तरह कभी कभी सेव, भुजिया आदि को लेते हैं।

और जो लोग अकेले रहते हैं, होस्टल में रहते हैं या जिन्होंने टिफिन लगा रखा है उन्हें भी ये अंकुरित बहुत रास आयेंगे। इन्हें तैयार करने में कोई विशेष ताम-झाम की भी ज़रूरत नहीं होती। आसानी से सब हो जाता है। बस इन का सेवन करने की इच्छा होनी चाहिये।

मुझे ध्यान आ रहा है कि हमें उस योग क्लास में कभी कभी इन अंकुरित दालों को पानी में भिगाये हुये पोहे में डाल कर भी दिया जाता था जिन में कच्ची गाजर आदि को भी कद्दूकश कर के डाला होता था और थोड़ा गुड़ भी ----सचमुच वे दिन भी क्या दिन क्या थे !!

और हां, इसे पढ़ने के बाद आप अंकुरित अनाज के अपने अनुभव बांटिये जिन के इस्तेमाल का मुंझे कोई खास अनुभव नहीं है।

ताकत से लैस हैं ये खाद्य-पदार्थ –1. आंवला

 

Photo Courtesy : berrydoctor.com

आज का मानव क्यों इतना थका सा है, परेशान सा है, हर समय क्यों उसे ऐसे लगता है कि जैसे शरीर में शक्ति है ही नहीं? अन्य कारणों के साथ इस का एक अहम् कारण है कि हम लोगों ने अपनी सेहत को बहुत से हिस्सों में बांट दिया जाता है या कुछ स्वार्थी हितों ने हमें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है।

जहां तक ताकत के लिये इधर उधर भागने की बात है, ये सब बेकार की बातें हैं, इन में केवल पैसे और सेहत की बरबादी है। हम लोग अपनी परंपरा को देखें तो हमारे चारो और ताकत से लैस पदार्थ बिखरे पड़े हैं, लेकिन हम क्यों इन को सेवन करने से ही कतराते रहते हैं !!

चलिये, आज मैं आप के साथ इन ताकत से लैस खाने-पीने वाली वस्तुओं के बारे में अपने अ्ल्प ज्ञान को सांझा करता हूं---निवेदन है कि इस लेख की टिप्पणी के रूप में दूसरे अन्य ऐसे पदार्थों का भी आप उल्लेख करें जिन के बारे में आप भी कुछ कहना चाहें। 

आंवला --- या अमृत फल ?

  अब आंवले की तारीफ़ के कसीदे मैं पढूं और वह भी आप सब गुणी लोगों के सामने तो वह तो सूर्य को दीया दिखाने वाली बात हो जायेगी।

सीधी सी बात है कि हज़ारों साल पहले जब श्रषियों-मुनियों-तपी-तपीश्वरों ने कह दिया कि आंवला तो अमृत-फल है तो मेरे ख्याल में बिना किसी तरह के सोच विचार के उसे मान लेने में ही बेहतरी है।

अब, कोई यह पूछे कि आंवला खाने से कौन कौन से रोग ठीक हो जाते हैं ----मुझे लगता है कि अगर यह प्रश्न इस तरह से पूछा जाये कि इस का सेवने करने से कौन कौन से रोग ठीक नहीं होते हैं, यह पूछना शायद ज़्यादा ठीक रहेगा।

वैसे भी हम लोग बीमारी पर ही क्यों बहुत ज़्यादा केंद्रित हो गये हैं –हम शायद सेहत पर केंद्रित नहीं हो पाते ---हम क्यों बार बार यही पूछते हैं कि फलां फलां वस्तु किस किस शारीरिक व्याधि के लिये ठीक रहेगी, हमें पूछना यह चाहिये कि ऐसी कौन सी चीज है जो हमें एक दम टोटली फिट रखेगी।और यह आंवला उसी श्रेणी में आने वाला कुदरत का एक नायाब तोहफ़ा है।

इसे सभी लोग अपने अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं---ठीक है किसी भी रूप में यह इस्तेमाल तो हो रहा है। मैं अकसर  तीन-चार रूपों में इस का सेवन करता हूं ----जब इस सा सीजन होता है और बाज़ार में ताजे आंवले मिलते हैं तो मैं रोज़ एक दो कच्चे आंवलों को काट कर खाने के साथ खाता हूं ---जैसे स्लाद खाया जाता है, कुछ कुछ वैसे ही।

और कईं बार सीजन के दौरान इस का आचार भी ले लेता हूं --- और अब बाबा रामदेव की कृपा से आंवला कैंड़ी भी ले लेता हूं ----बच्चों के लिये तो ठीक है लेकिन फ्रैश आंवला खाने जैसी बढ़िया बात है ही नहीं।

और कुछ महीनों के लिये जब आंवले बाज़ार से लुप्त हो जाते हैं तो मैं सूखे आंवले के पावडर का एक चम्मच अकसर लेता हूं ---बस आलसवश बहुत बार नहीं ले पाता हूं।

बाज़ार में उपलब्ध तरह तरह के जो आंवले के प्रोडक्टस् मिलते हैं मैं उन्हें लेने में विश्वास नहीं करता हूं ----क्योंकि मुझे उन्हें लेने में यही शंका रहती है कि पता नहीं कंपनी वालों ने उस में क्या क्या ठेल ऱखा हो !! इसलिये मैं  स्वयं भी यह सब नहीं खरीदता हूं और न ही अपने किसी मरीज़ को इन्हें खरीदने की सलाह देता हूं। इस मामले में शायद आंवले का मुरब्बा एक अपवाद है लेकिन जिस तरह से वह अब बाज़ार में खुला बिकने लगा है, उस के बारे में क्या कहें, क्या ना कहें !

हमारे एक बॉस थे --- वे कहते थे कि उन के यहां तो आंवले के पावडर को सब्जी तैयार करते समय उसमें ही मिला दिया जाता है --- लेकिन पता नहीं न तो मैं इस से कंविंस हुआ और न ही घर में इस के बारे में एक राय बन पाई।

अगर किसी को  अभी तक आंवला खाने की आदत नहीं है और झिझक भी है कि इसे कैसे खाया जायेगा तो आंवला कैंडी से शुभ शूरूआत करने के बारे में क्या ख्याल है ?

सोमवार, 21 सितंबर 2009

ग्लूकोज़ की बोतल भी देती है ताकत !!

पिछले पोस्ट में हम लोग कुछ ताकत की दवाईयों की चर्चा कर रहे थे ---कुछ दवाईयां तो छूट ही गईं। ग्लूकोज़ की बोतल, ग्लूकोज़ पावडर,कैल्शीयम की गोलियां, और खाने में मछली, चिकन-सूप, चिकन एवं मांसाहारी आहार.

ग्लूकोज़ की बोतल वाली ताकत

---बहुत से लोगों से अकसर नीम-हकीम इस ग्लूकोज़ की बोतल के द्वारा ताकत दिलाने का झूठा विश्वास दिला कर तीन-चार सौ रूपये ऐंठ लेते हैं, लेकिन ताकत कहां से आयेगी !

दरअसल अभी भी देश में यही सोच है कि अगर किसी भी कारण से कमज़ोरी सी लग रही है तो एक-दो शीशी ग्लूकोज़ की चड़वाने से यह छू-मंतर हो जायेगी।

लेकिन ग्लूकोज़ चढ़ाने के लिये क्वालीफाईड चिकित्सकों के अपने कारण होते हैं--- administration of intravenous fluids has got its own indications. लेकिन मरीज़ की फरमाईश पूरी करने के चक्कर में कईं बार बहुत पंगा हो जाता है।

ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने के लिये बहुत से कारण है---कईं बार उल्टी-द्स्त किसी को इतने लग जायें कि शरीर में पानी की कमी सी होने लगे (डि-हाईड्रेशन) तो भी इस के द्वारा शरीर में शक्ति पहुंचाई जाती है।

ग्लूकोज़ का पैकेट

--- अकसर ग्लूकोज़ के पैकेट का भी कुछ लोगों में बहुत क्रेज़ है । बिना किसी विशेष कारण के ही यह पैकेट खरीद कर पिलाना शूरू कर दिया जाता है।

बात यह है कि यह भी डाक्टर की सलाह के अनुसार ही खरीदा जाना चाहिये। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि कभी भी डाक्टर से अपनी तरफ़ से अलग अलग चीज़ों के नाम जैसे कि ग्लूकोज़ का पावडर आदि मरीज़ को पिलाने की बात स्वयं न करें। अगर ज़रूरत होगी तो वह स्वयं ही बता देगा।

अगर अपनी मरजी से पिला रहे हैं तो फिर चीनी पीस कर ही पानी में निंबू-नमक के मिश्रण के साथ पिला दें।

कैल्शीयम की गोलियां

--- एक तो इन कैल्शीयम की गोलियों का बहुत बड़ा क्रेज़ है लेकिन इस में भी यह देखा गया है कि जिस वर्ग  को ये मिलनी ज़रूरी होती हैं वे ही नहीं खा पाते। और जिन को ज़रूरत नहीं होती वे फिज़ूल में छकते रहते हैं और अपने आप को शरीर में ज़्यादा कैल्शीयम जमा होने के दुष्परिणामों से कईं बार बचा नहीं पाते।

सब से पहली तो यह बात है कि आहार संतुलित होना बहुत ही ज़रूरी है----लेकिन पता नहीं क्यों मुझे मंहंगाई की वजह से और समाज में व्याप्त खाने से संबंधित भ्रांतियों की वजह से यह सलाह देनी कईं बार बहुत घिसी-पिटी सी लगती है, लेकिन फिर भी देनी तो पड़ती ही है।

दरअसल यहां लैपटाप पर कोई सेहत के विषय पर पोस्ट लिखनी बहुत आसान सी बात है लेकिन वास्तविकता उतनी ही भयानक है। आज जिस तरह का मिलावटी, कैमीकल दूध जगह जगह पकड़ा जा रहा है , ऐसे में कैसे मान लें कि दूध में कैल्शीयम होगा ही -------इस का क्या कहें, लेकिन बस यूरिया, डिटरजैंट, और तरह तरह के कैमीकल न हों तो गनीमत समझिये।

दूसरा मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि ये अगर किसी को ये कैल्शीयम आदि लेने के लिये कहा भी जाये तो बढ़िया कंपनी का खरीदना चाहिये ---चालू किस्म की कंपनियां क्या करती होंगी, इस का अनुमान भली-भांति लगाया जा सकता है।

अगली पोस्ट में देखेंगे कि कौन कौन से खाद्य पदार्थ ताकत के वास्तविक भंडार हैं।

इन्हें भी देखें ---

ताकत की दवाईयां –कितनी ताकतवर ?

ताकत की दवाईयों की लिस्ट