शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

टैटू गुदवाने से हो सकती हैं भय़ंकर बीमारियां

सुनते हैं कि पुराने ज़माने में टैटू गुदवाने का बड़ा शौक हुआ करता था.. और ये अपना नाम, अपने धर्म चिन्ह अथवा देवी-देवताओं की आकृतियां टैटू के रूप में गुदवाने का काम मेलों आदि में खूब ज़ोरों शोरों से हुआ करता था।

लगभग छः साल पहले हम लोग भी मुक्तसर में माघी का मेला देखने गये .. मुक्तसर शहर फिरोज़पुर से लगभग 50किलोमीटर दूर है और वहां का माघी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। अन्य नज़ारों के इलावा वहां ज़मीन पर बैठे एक टैटू बनाने वाले को भी देखा.. वह 20-20, 30-30 रूपये में टैटू बनाये जा रहा था... जिसे जो भी आकृति चाहिये होती वह पांच मिनट में बनती जा रही थी।

कोई मशीन की साफ़ सफ़ाई का ध्यान नहीं, और यह संभव भी नहीं था। लेकिन लोग जो इस तरह का खतरनाक गुदवाने का काम करवाते हैं वे इस के संभावित दुष्परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं ... यह उन्हें एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी एवं सी जैसी बीमारियां दे सकता है। मैं अकसर ऐसे मौकों पर सोचता हूं कि इस तरह के धंधे कब तक चलते रहेंगे .. या तो लोग ही इतने जागरूक हो जाएं कि इस सब के चक्कर में न पड़ें, वरना सरकारी तंत्र को मेलों आदि से इस तरह की “कलाओं” को दूर रखना चाहिये।

मुझे आज इस का ध्यान इसलिये आया क्योंकि सुबह मैं msnbc की साइट पर एक न्यूज़-स्टोरी देख रहा था जिस में बताया गया था कि जर्मनी में टैटू बनाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली स्याही में विषैले तत्व पाये गये जिस से चमड़ी का कैंसर तक होने का खतरा मंडराने लगता है। मैंने भी आज तक टैटू के अन्य नुकसान दायक पहलूओं के बारे में ही सोचा था ...और आज उस में एक बात और जमा हो गई है ...इस में इस्तेमाल की जाने वाली स्याही।

और एक बात ...अगर जर्मनी जैसे देश में ऐसी बात सामने आई तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि हमारे देश में फुटपाथ पर बैठ कर इस तरह का धंधा करने वाले कैसी स्याही इस्तेमाल करते होंगे।

एक तो हिंदी प्रिंट मीडिया भी लोगों को बहुत उकसाता है... कुछ दिन पहले मैंने एक दूध की डेयरी पर पड़ी एक हिंदी की अखबार देखी.. उस में होठों के अंदर की तरफ़ विभिन्न आकर्षक आकृतियां गुदवाने के बारे में बताया गया था। और साथ में एक रंगीन तस्वीर भी छपी थी ... मैंने उस लेख को इसलिये पढ़ा क्योंकि मैं यह जानना चाहता था कि क्या इस से भयंकर बीमारियां होने के खतरे के बारे में कुछ लिखा गया है ...नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया था।

बात वही है, अब लोगों को स्वयं जागरूक होना होगा.. ये सब मुद्दे बेहद अहम् हैं .. लेकिन अखबारों के अपने मुद्दे हैं, उन की अपनी प्राथमिकताएं हैं.... क्योंकि उस लिप-टैटू के नुकसान बताए जाने से कहीं ज़्यादा उस अखबार ने एक लंबी-चौड़ी खबर के द्वारा पाठकों को यह बताना ज्यादा ज़रूरी समझा कि किस तरह से दस साल से बिना शादी के रहने वाले दो फिल्मी कलाकार अब अलग हो गये हैं.... अब हो गये हैं तो हो गये हैं, इस से आमजन को क्या लेना देना, यार, आम आदमी के सरोकारों की बात कौन करेगा ?

वैसे एक बात है कि ये जो बच्चे धुल जाने वाले टैटू को कभी कभी लगा कर अपना शौक पूरा कर लेते हैं, वही ठीक है। पता नहीं ना कि अब इस में कंपनियां किस तरह का कैमिकल इस्तेमाल करती होंगी, लगता है कि इस तरह के सभी शौंकों से दूर ही रहने में समझदारी है।



शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

तंबाकू उत्पादों के प्लास्टिक पाउचों में बिकने पर प्रतिबंध

आज मुझे दा हिंदु में यह खबर पढ़ कर बहुत खुशी हुई .. Plea for postponing ban on tobacco products in plastic pouches rejected. वैसे तो आज छुट्टी का दिन था, बिल्कुल आलसी सी सुबह ...लेकिन यह खबर पढ़ कर इतनी ताज़गी महसूस हुई कि सोच में पढ़ कर अगर खबर से ही इतनी खुशी मिली है तो 1 मार्च से जब यह प्रतिबंध लागू हो जायेगा तब मैं अपनी खुशी को कैसे संभालूंगा !

नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने एक विस्त्तृत रिपोर्ट में कहा है कि भारत में मुंह के कैंसर के लगभग 90 प्रतिशत केस तंबाकू के विभिन्न उत्पादों की वजह से होते हैं और खौफ़नाक बात यह भी है कि अब स्कूली बच्चे भी इस लत की चपेट में आ चुके हैं।

अच्छा एक बात है कि आप शायद सोच रहे होंगे कि अब ये सब उत्पाद प्लास्टिक पाउच में नहीं बिकेंगे, इस से भला मैं क्या इतना खुश हूं ... तो जानिए ......

  • -- सब से पहले तो यह है कि जब इतना प्लास्टिक इस तरह के उत्पादों की पैकिंग के लिेये इस्तेमाल नहीं होगा तो अपने आप में यह एक पर्यावरण के संरक्षण के लिये अनुकूल कदम है। इस तरह का नियम बनाने वालों को हार्दिक बधाई। 
  • -- ऐसा मैंने कहीं पढ़ा था कि प्लास्टिक पाउच की वजह से कुछ ऐसे तत्व भी इन उत्पादों में जुड़ जाते हैं जो कि इन के हानिकारक प्रभाव और भी बढ़ा देते हैं। ( अगर पैकेट पर पहले ही से लिखा है कि इस के इस्तेमाल से कैंसर होता है तो फिर किसी तरह के अन्य विष के जोड़ने की  कोई गुंजाइश रहती है क्या? ) 
  • -- इस खबर से खुशी मुझे इसलिये भी हुई है कि मुझे ऐसा लगता है कि अब इस तरह के "ज़हर" ( जो किसी की जान लेने की क्षमता रखते हैं, वे ज़हर नहीं तो और क्या हैं !) ..बड़े पैकेटों में नहीं बिकेंगे... और अगर बिकेंगे तो रोज़ाना क्लेश होंगे क्योंकि कागज के पाउच की वजह से रोज़ाना नईं नईं कमीज़ें खराब हुआ करेंगी और रोज़ाना बहन, मां, बीवी की फटकार कौन सहेगा? शायद इस की वजह से ही यह आदत कुछ कम हो जाए...
  • -- मेरे बहुत से मरीज़ अपनी ओपीडी स्लिप जब तंबाकू के किसी खाली पाउच में से निकाल कर मुझे थमाते हैं तो मुझे लगता था कि वे मुझे चिढ़ा रहे हों कि देखो भाई, हम तो इस तंबाकू ब्रांड के ब्रांड अम्बैसेडर हैं.... अब कहां से वे अपने कागज़, नोट आदि इस तरह के प्लास्टिक के पाउचों में रख पाएंगे.... एक तरह से यह भी एक विज्ञापनबाजी थी जो पब्लिक स्थानों पर बंद हो जायेगी, इसलिये भी मैं बहुत खुश हूं। 
वैसे मैं उन्हें अकसर कह ही दिया करता हूं कि यार, अपने एक फटे पुराने कागज़ की इतनी फिक्र करते हो और जो शरीर रोज़ाना धीरे धीरे तंबाकू की बलि चढ़ता जा रहा है, इस के बारे में कभी सोचा है?

एक समस्या है अभी अभी... रोज़ाना देखता हूं कि कुछ कालजिएट मोटरसाईकिल सवार युवक जो किसी पनवाड़ी की दुकान पर रूकते हैं और बिंदास अंदाज़ में एक नहीं, गुटखे के दो दो पाउच बड़े टशन के अंदाज़ में मुंह में उंडेलते ही बाइक पर किक मारते ही उड़ने लगते हैं, इन को शायद पैकिंग से कोई फर्क नहीं पड़ेगा... प्लास्टिक में हो या कागज़ में, इन्हें तो बस "किक" से मतलब है।

मैं तंबाकू के कोहराम पर कुछ लेख लिख चुका हूं , कभी फुर्सत हो तो एक नज़र मार लीजिए।

वैसे इस खबर से खुशी इस बात की भी है कि इस तंबाकू रूपी कोहराम के तालाब में किसी ने पत्थर मार के रिपल्ज़ (ripples...तरंगे) तो पैदा कीं .... अब देखते हैं इस उथल-पुथल से, इस झनझनाहट से कितना फ़र्क पड़ता है ... कुछ भी हो, एक अच्छी शुरूआत है , एक सराहनीय पहल है... After all, a journey of three thousand miles starts with the first step ! काश, किसी दिन ऐसी ही सुस्ताई सुबह को यह खबर भी मिले कि तंबाकू के सभी उत्पादों पर प्रतिबंध लग गया है... न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी .... क्यों नहीं हो सकता? सारी दुनिया आस पर ही तो टिकी हुई है !!

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

पान से भी होता है पायरिया

इस 26वर्षीय युवक के मुंह की तस्वीर से यह दिख रहा है कि इसे पायरिया रोग है— डाक्टरी भाषा में इसे Chronic gingivitis कहते हैं.. इस की परेशानी यह है कि वह जब भी ब्रुश करता है तो उस के मसूड़ों से रक्त निकलने लगता है। पायरिया रोग का यह एक अहम् लक्षण है, अन्य लक्षण जो इस फोटो में देखे जा सकते हैं ..

सूजे हुये मसूड़े जिन का रंग लाल हो चुका है
दांतों पर टॉरटर जमा हुआ है
नार्मल मसूड़ों में एक फीचर – stippling – इस के मसूड़ों से गायब है, इस का मतलब यह है कि सामान्य मसूड़े को देखने पर उनका टैक्श्चर बिल्कुल संतरे के छिलके जैसा लगता है, जो कि पायरिया में गायब हो जाता है..


यह युवक पहले तो कह रहा था कि वह रोज़ाना एक तंबाकू वाला पान पिछले छःमहीने से खा रहा है ..लेकिन मेरे बार बार पूछने पर फिर कहने लगा कि शायद एक साल ही हो गया होगा। लेकिन मुझे लगता नहीं कि पान केवल एक साल में ही इतनी गड़बड़ कर सकता है, मैं जजमैंटल नहीं हो रहा हूं लेकिन मेरा अनुभव बता रहा है कि यह लंबे समय से यह तंबाकू वाला पान खा रहा होगा।

वैसे उस ने पिछले एक सप्ताह से पान खाना छोड़ दिया है ... मुझे कईं बार लगता है कि जैसे रेल का टी टी दिन में कईं बार सुनता है कि ओह...ओह ...मेरी टिकट कहां गई?  किसी ने पर्स उड़ा लिया है ... टिकट तो मेरे पास ही थी.....उसी तरह हम लोग भी यह तंबाकू, गुटखा, पान, ज़र्दा के बारे में यह सुन सुन कर पक चुके हैं ..पहले खाता था, अब तो छोड़ चुके हैं! 

लेकिन हमारी यही कोशिश होती है कि कोई बात नहीं, आज के बाद तुम्हारे  मन में इन ज़हरीले पदार्थों के प्रति इतनी नफ़रत पैदा हो जाएगी कि तुम इन्हें देखोगे भी नहीं ... और अकसर मैं तो इस मिशन में कामयाब हो ही जाता हूं ..क्योंकि मुझे लगता है कि अगर मेरी हार होगी तो तंबाकू लॉबी की जीत हो जायेगी .....एक इंसान या यूं कह लें कि एक परिवार बरबाद हो जायेगा क्योंकि देर-सवेर कब यह आदत मुंह के कैंसर की खाई में धकेल देगी पता भी नहीं चलेगा और जब पता चलेगा भी तो बहुत देर हो चुकी होगी !!

दूसरी तस्वीर में आप देख सकते हैं कि उस के नीचे के अंदर वाले दांतों के अंदर भी कितना टॉरटर जमा हुआ है। इस का इलाज तो आसान है ही.. लेकिन उस के साथ साथ यह भी बेहद ज़रूरी है कि उस लत को हमेशा के लिये लात मार दी जाए जिस की वजह से यह सब हुआ। कह तो वह युवक भी रहा था कि अब तो पान को हाथ नहीं लगाऊंगा.और कह रहा था कि पिछले चार पांच वर्ष से वह रोज़ाना एक सिगरेट पीता है आज से वह भी छोड़ देगा।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि जितनी भयानक यह तकलीफ़ दिखती है उतनी है नहीं, इस उम्र में इस अवस्था का इलाज बिल्कुल आसान है लेकिन आगे से उसे सुधर जाना होगा।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 3.(concluded)

अगर बीते ज़माने के चिकित्सकों के पास ऐसा हुनर था कि वे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी की शारीरिक एवं मानसिक हालत का पता लगा लिया करते थे तो क्या आज के चिकित्सक के पास यह क्षमता ही नहीं है ?

चिकित्सा क्षेत्र भी बाज़ारवाद से अनछुआ नहीं रह पाया और यह संभव भी नहीं था। जब महिलाओं के लिये बोन-स्कैन (हड्डी स्कैन) आदि के लिये कैंप आदि लगते हैं तो मुझे यह सब देख कर बड़ा अजीब सा लगता है कि जहां पर अधिकांश महिलायें ढंग का खाना तो खा नहीं पातीं, ऐसे में इन की हड्डीयों का स्कैन करने से क्या हो जाएगा?  महिलाओं में रक्त की कमी तो सालों-साल दूर होती नहीं और ये बोन-स्कैन .....।

बात क्लोरोक्विन से भी कड़वी है लेकिन अब है तो है ... इस से कैसे मुंह फेर लें .. चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी बड़ी मशीनें आ गई हैं तो उन पर जंग तो कोई लगने नहीं देगा, खूब पैसा लगा है उन पर, इसलिये टैस्ट तो होंगे ही ... अब कौन सा टैस्ट ज़रूरी है और कौन सा नहीं, इस प्रश्न का उत्तर अगर पश्चिमी देशों में निरंतर ढूंढा जा रहा है तो हमारी तो बात ही छोड़ दें....यह एक विकराल समस्या तो है ही जैसा कि इस से पहली दोनों पोस्टों में यह डिस्कस किया जा चुका है।

आज आम आदमी भी ऐसा ही सोचने लगा है कि पांच-सितारा होटलों जैसी सुविधाओं से लैस टनाटन हास्पीटल खुल तो गये हैं ... खैरात बांटने के लिये तो खुले नहीं, इन के बिस्तरों पर सड़कछाप आम  आदमी तो सुस्ताने से रहा ... अब इन अस्पतालों में महंगे महंगे आप्रेशन होंगे, भारी भरकम पर्स वाले इन के बैडों पर कुछ दिन स्वास्थ्य लाभ पाएंगे, भारी भरकम बिल आएंगे तो बात बनेगी ......वरना, ये तो बंद पड़ जाएंगे।

हां, तो बात हो रही थी चिकित्सक के हुनर की ... अब चर्चा होने लगी है कि लगातार प्रगति करती तकनीकों की वजह से चिकित्सक एवं मरीज़ के संबंध पहले जैसे नहीं रहे, काफ़ी कमज़ोर पड़ गये हैं। ताली एक हाथ से नहीं बजती ...उसी तरह न तो मरीज़ के पास टाइम है, उस के अपने फंडे हैं, वह सोचता है कि धन के बलबूते पर वह सब कुछ खरीद लेगा ..महंगे से महंगा इलाज करवा लेगा ...लेकिन ज़रूरी नहीं कि महंगा इलाज ही उस के लिये उपर्युक्त हो और उस से सब कुछ ठीक भी हो जाए..।

सारा सिस्टम इस तरह का हो गया है कि कईं बार लगता है कि चिकित्सकों के पास भी पहले ज़माने के चिकित्सकों की तरह समय नहीं है, और इस में केवल उन का दोष नहीं है ... एक एक दो दो मिनट में मरीज़ “निपटाएं जाएंगें” तो फिर न तो मरीज़ की ही संतुष्टि होती है और न ही डाक्टर की प्रोफैशनल संतुष्टि... अकसर देखने में आता ही है कि अब मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट बिताने की फुर्सत कहां? …..क्या कहा, फुर्सत ही फुर्सत है, डाक्टर लोग इतना समय आराम से दे देते हैं, तब तो बहुत बढ़िया बात है।

कहने को तो हम कह देते हैं कि पहले चिकित्सक बहुत लायक हुआ करते थे .. हों भी क्यों न? उन्हें अपने मरीज़ों की शारीरिक अवस्था के साथ साथ पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक, पारस्परिक संबंधों, और भी जितनी अवस्थायें हो सकती हैं, उन सब का ज्ञान होता था। ऐसे में वे मरीज़ का होलिस्टिक इलाज (holistic health care)  कर पाते थे क्योंकि वे अंदर की भी सभी बातें जानते थे, अब सब कुछ हो गया.... छिन्न छिन्न, ऐसे में किसी भी चिकित्सक से कहां वैसे हुनर की अपेक्षा की जा सकती है। ज़रूर होंगे ऐसे भी चिकित्सक कहीं तो लेकिन सुना है उन की संख्या नित-प्रतिदिन घटती जा रही है।

यह पोस्ट लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि आखिर दोष किस का है? मरीज़ का, डाक्टर का, समाज का, सामाजिक व्यवस्था का, बाज़ारवाद का, आधुनिकता की बेतहाशा अंधी दौड़ का, हमारे लगातार बिगड़ते सामाजिक संबंधों का, धार्मिक असहिष्णुता का ........ यकीनन दोष इन सब का ही है, केवल यह कहना कि डाक्टर अपनी जगह पर ठीक हैं, मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं......इतना कह देना ही काफ़ी नहीं है...क्योंकि किसी भी समाज का स्वास्थ्य ऐसी अनेकों बातों पर भी निर्भर करता है जिन का मैडीकल क्षेत्र से कुछ लेना देना होता ही नहीं है। यह एक जटिल एवं विषम मुद्दा है ...जो भी है, एक अभिलाषा है कि कम से कम यह क्षेत्र बाज़ारवाद की मार से बच पाए....।

पोस्ट समाप्त करते करते ध्यान आ रहा है हमारे एक महान् प्रोफैसर का जो अकसर हमें कहा करते थे ... Listen to the patient, he is giving you the diagnosis ! (मरीज़ को ध्यान से सुना करो, वह अपना डॉयग्नोसिस स्वयं तुम्हें बता रहा होता है) ……और आज भी चिकित्सक पूर्णतयः सक्षम है ....क्या आप को पता है कि चिकित्सक किसी भी मरीज़ की बीमारी का पता यह देख कर लगाना शुरू कर देता है कि मरीज़ किस ढंग से चल कर उस के कमरे में आया है, मरीज़ का चेहरा, उस की सांसों की महक, उस की चमड़ी की हालत, उस के हाथों का तापमान.......अनेकों अनेकों तरीके हैं मंजे हुये चिकित्सक के पास उस की तकलीफ़ ढूंढने निकालने के लिये .....लेकिन इस सब के लिये उस के हाथों को छूना भी पड़ेगा, उस के कंधे पर हाथ भी रखना होगा, ज़रूरत पड़ने पर उस का पेट को हाथ भी तो लगाना होगा......इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं कि क्या यह सब उतने अच्छे ढंग से हो पाता है जहां बीसियों मरीज़ों लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं और साथ में उन की टिप्पणी बार बार चिकित्सक के कान में पड़ती रहती है ... यह डाक्टर नया है क्या ? इतना समय लगता है क्या दवाई लिखने में ?

सच्चा कौन है –डाक्टर या मरीज़? --इस पोस्ट का उद्देश्य केवल एक बात को रेखांकित करना है कि ताली दोनों हाथों से बजती है, ज़रूरत है समाज के सभी अंगों को अपने आप को टटोलने की....... बस, मुझे अभी इतना ही कहना है, अगर आप के मन में भी कुछ बातें हैं तो टिप्पणी में लिखियेगा।

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 2.

हां तो बात चल रही थी बिना वजह होने वाले सी.टी स्कैन एवं एम आर आई की .. यह सब जो हो रहा है हम पब्लिक को जागरूक कर के इसे केवल कुछ हद तक ही कम कर सकते हैं। मार्कीट शक्तियां कितनी प्रबल हैं यह आप मेरे से ज़्यादा अच्छी तरह से जानते हैं।

नितप्रतिदिन नये नये टैस्ट आ रहे हैं, महंगे से महंगे, फेशुनेबल से फेशुनेबल ... अभी दो दिन पहले ही अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने एक थ्री-डी मैमोग्राफी को हरी झंडी दिखाई है। वैसे तो अब मैमोग्राफी की सिफारिशें भी संशोधित की जा रही हैं ... वैसे भारत में तो यह समस्या (बार बार मैमोग्राफी करवाने वाली ) भारत में देखने को बहुत कम मिलती है ... क्योंकि विभिन्न कारणों की वजह से यहां महिलायें ये टैस्ट करवा ही नहीं पातीं... और विशेषकर वह महिलायें जिन्हें इन की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है..... इन दिनों विदेशों में इस टैस्ट के बारे में भी गर्म चर्चा हो रही है ...और जिस उम्र में यह टैस्ट किया जाना शुरू किया जाना चाहिए अब उसे आगे बढ़ा दिया गया है ...

भारत में तो महिलायें अगर वक्ष-स्थल के नियमित स्वतः निरीक्षण (regular self-examination of breasts) के लिये भी जागरूक हो जाएं तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ...ताकि समय रहते वे किसी भी गांठ को अपनी डाक्टर को दिखा कर शंका का निवारण कर सकें।

अब थोड़ी बात करते हैं ..पौरूष-ग्रंथी (prostate gland) के लिये किये जाने वाले टैस्टों के बारे में ...एक उम्र के बाद पुरूषों के नियमित चैक-अप में प्रोस्टेट ग्लैंड की सेहत पता करने के लिये भी एक टैस्ट होता है .. Prostate specific antigen. यह एक तरह की रक्त की जांच है और इस की वेल्यू नार्मल से बढ़ी होने पर कईं बार अन्य टैस्टों को साथ रख कर देखते हुये प्रोस्टेट ग्रंथी के कैंसर से ग्रस्त होने की आशंका हो जाती है और पिछले कुछ महीनों में यह इसलिये चर्चा में है क्योंकि इस टैस्ट के अबनार्मल होने की वजह से प्रोस्टेट के इतने ज़्यादा आप्रेशन कर दिये गये और बहुत से लोगों को तो कैंसर का इलाज भी दे दिया गया  ...लेकिन चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बाद में यह निष्कर्ष निकाला कि केवल इस टैस्ट की वेल्यू बढ़ी होने से ही इस ग्रंथी के इलाज के बारे में कुछ भी निर्णय लेना उचित नहीं है। इसलिये अब प्रोस्टेट ग्लैंड की बीमारी जानने के लिेये दूसरे पैरामीटर्ज़ पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।

अमेरिका में हर साल 10 लाख बच्चों के टोंसिल का आप्रेशन कर के उन के टौंसिल निकाल दिये जाते हैं...और इन की उम्र 15 वर्ष से कम की होती है...लेकिन अब ताज़ा-तरीन सिफारिश कह रही है कि नहीं, नहीं, मॉडरेट केसों के लिये यह टौंसिल निकालने का आप्रेशन बंद किया जाए ....

तो, ये तो थी केवल कुछ उदाहरणें ... बातें केवल यही रेखांकित करती हैं कि हम लोग कभी भी शैल्फ-डॉयग्नोसिस के चक्कर में न ही पड़ें तो ठीक है, वरना तो रिस्क ही रिस्क है। और आप देखिये कि मैडीकल साईंस में रोज़ाना बदलाव हो रहे हैं.... विभिन्न तरह के टैस्टों की, दवाईयों की, आप्रेशनों की सिफारिशें नये शोध के मद्देनज़र अकसर बदलती रहती हैं, ऐसे में अगर कोई समझ ले कि नेट पर सेहत के बारे में दो बातें पढ़ कर वह स्वयं कोई टैस्ट करवा लेगा और स्वयं भी अपनी तकलीफ़ का निदान और शायद चिकित्सीय उपचार भी ढूंढ ही लेगा, तो ऐसा सोचना एकदम फ़िजूल की बात है.... इस जटिल शरीर-प्रणाली को समझते जब डाक्टरों की उम्र बीत जाती है तो फिर आम जन कहां ....!! लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि सामान्य बीमारियों, जीवनशैली से संबंधित रोगों के बारे में अपना ज्ञान ही न बढ़ाया जाए .....यह बहुत ज़रूरी है, इस से हमें होलिस्टिक जीवनशैली (holistic lifestyle) अपनाने के बारे में सोचने का कम से कम अवसर तो मिलता ही है।
शेष ...अगली पोस्ट में..



ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 1.

अभी पिछले कुछ दिनों में ओव्हर-डॉयग्नोसिस और उस के बाद बिना वजह इलाज के बारे में बहुत कुछ देखने को मिला। कुछ ही दिन पहले की बात है कि एक स्टडी का यह परिणाम सामने आया कि अमेरिका में हज़ारों लोगों के हृदय के ऐसे आप्रेशन ( heart devices) कर दिये गये जिन की उन्हें ज़रूरत ही नहीं थी।

एक अंग्रेज़ी की कहावत है...little knowledge is a dangerous thing! लोगबाग भी बस टीवी पर एक कार्यक्रम देख कर या अखबार में एक "एड्वर्टोरियल"(जिस विज्ञापन को एक खबर का रूप दे कर आप के सामने पेश किया जाता है) पढ़ कर तय कर लेते हैं कि हो न हो, यह जो सिरदर्द कईं दिनों से हो रहा है, यह किसी ब्रेन-ट्यूमर की वजह से हो सकता है।

डाक्टर के पास जाकर सीधा यह कहने वालों की गिनती में कोई कमी नहीं है कि वे सी.टी स्कैन अथवा एम.आर.आई करवाना चाहते हैं...डाक्टर लोग अपनी जगह अलग परेशान हो जाते हैं कि यह क्या माजरा है। और अगर कोई ऐसा न करवाने का मशविरा देता है तो क्या फर्क पड़ता है, कोई दूसरा तो लिख देगा। और शायद जिस मरीज़ ने पैसे स्वयं भरने हैं उन का वैसे ही स्वागत है ...किसी भी सेंटर में जाकर कुछ भी करवा के आ जाएं। और जिन संस्थाओं में यह खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है, वहां पर भी विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह के टैस्ट खूब हो ही रहे हैं। कईं बार सोचता हूं कि इस तरह की एक स्टड़ी होनी चाहिये जिस से यह पता चल सके कि जितने भी ये सीटी स्कैन, एम आर आई टैस्ट हुये इन में से कितनों की रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ी आई .... और कितने केसों का आगे इलाज इन की रिपोर्ट के आधार पर हो पाया।

अब खूब लिटरेचर आ चुका है कि बिना वजह किये गये सी टी स्कैन आदि से किरणें हमारे शरीर में कितना नुकसान पहुंचा सकती हैं.... वैसे मैं यह भी सोचता हूं कि मरीज़ के स्वयं डाक्टर को सीटी स्कैन के लिये न कहने ही से क्या सब कुछ ठीक हो जायेगा......इस का जवाब तो आप जानते ही हैं। लेकिन मरीज़ों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कभी भी डाक्टर को स्वयं इस तरह के टैस्टों के बारे में न कहें.... they are the best judge ...they know inside out of our systems!

चौंकने वाली बात तो यह है कि एमआरआई जैसे महंगे टैस्ट हो तो गये और बहुत बार इन में कोई unrelated changes (अनरिलेटेड बदलाव) दिख जाते हैं जिन का न तो वैसे पता ही चलता, और न ही इन की वजह से कभी तकलीफ़ ही होती और इसलिये इन का न ही कोई इलाज ही किया जाता ....लेकिन देख कर तो मक्खी कैसे निगली जाए...अब जब रिपोर्ट में आ जाए कि यह यह बदलाव अनयुयुल हैं तो फिर उन के इलाज के चक्कर में अकसर लोग पड़ जाते हैं या यूं भी कह लें कि इस तरह के चक्कर में डाल दिये जाते हैं। कल ही एक स्टडी देख रहा था कि यह जो लो-बैक के दर्द (low back pain) के लिये भी इतने एमआरआई हो रहे हैं इन की ज़रूरत ही नहीं होती।
बाकी अगली पोस्ट में ....




सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

दवा की पुड़िया लेना खतरनाक तो है ही !

हर रोज़ मेरी मुलाकात ऐसे मरीज़ों से होती है जो पुरानी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं और देसी दवाईयां ले रहे होते हैं.. और देसी दवाईयां कौन सी ? जो कोई भी नीम हकीम पुड़िया बना कर इन लोगों को थमा देता है और यह लेना भी शुरू कर देते हैं।

मैं किसी भी मरीज़ द्वारा इन पुडि़यों के इस्तेमाल किये जाने के विरूद्ध हूं। उस के कारण हैं ...मैं सोचता हूं कि नामी गिरामी कंपनियों की दवाईयां तो कईं बार क्वालिटी कंट्रोल टैस्ट पास कर नहीं पाती, ऐसे में इन देसी दवाईयों का क्या भरोसा? आज कल तो अमेरिका जैसे देशों में भी कुछ तरह की ये देसी दवाईयां खूब चर्चा में हैं .... यहां जैसा तो है नहीं वहां पर, टैस्टिंग होती है और फिर पोल खुल जाती है।

दूसरा कारण यह भी है कि अकसर सुनने में आता है कि नीम-हकीमों को यह पता लग चुका है कि ये जो स्टीरॉयड नाम की दवाईयां हैं, ये राम बाण का काम कर सकती हैं ....बस इन लालची किस्म के लोगों ने इन दवाईयों को पीस कर इन पुड़ियों में मिला कर आमजन की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू किया हुआ है। यह आज की बात नहीं है, यह सब कईं दशकों से चल रहा है।

दो दिन पहले एक महिला आईं ... उस का पति बताने लगा कि यह गठिया से ग्रस्त है ..मैंने कहा कि कोई दवाई आदि ? ...उस ने बताया कि इसे तो केवल एक देसी दवाई से ही आराम आता है ...उस से यह झट खड़ी हो जाती है .. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि यह दवाई पुड़िया में मिलती है। मैंने उसे समझाया तो बहुत कि इस तरह की दवाई खाने के नुकसान ही नुकसान है , इस तो कईं गुणा बेहतर यही है कि आप इस के लिये कोई इलाज न ही करवाएं ...कम से कम बाकी के अंग तो बचे रहेंगे (कृपया इसे अन्यथा न लें)..

उस महिला का पति बता रहा था कि इसे न ही तो ऐलीपैथिक और न ही होमोपैथिक, आयुर्वैदिक दवा ही काम करती है .. और यह पुड़िया पिछले कईं सालों से खा रही है। अब जिस पुड़िया में स्टीरॉयड मिले हों, उस के आगे दूसरी दवाईयां क्या काम करेंगी .... लेकिन ये देसी दवाईयां स्टीरॉयड युक्त सारे शरीर को तहस-नहस कर देती हैं ... जोड़ों का दर्द तो दूर इन से कुछ भी ठीक नहीं होता, ये तो केवल क्वालीफाइड डाक्टरों के द्वारा इस्तेमाल करने वाली दवाईयां हैं।

और प्रशिक्षित डाक्टर भी इन दवाईयों को मरीज़ों को देते समय बहुत सावधानी बरतते हैं। इन दवाईयों को लेने की एक विशेष विधि होती है ...जो केवल प्रशिक्षित एवं अनुभवी डाक्टर ही जानते हैं।

मैं अकसर मरीज़ों को कहता हूं कि अगर आप को देसी इलाज ही करवाना है तो करवाएं लेकिन उस के लिये प्रशिक्षित डाक्टर हैं --होम्योपैथी में , आयुर्वेद प्रणाली के चिकित्सक हैं , वे आप को ब्रांडेड दवाईयां लिखते हैं ...अच्छी कंपनियों की दवाई लें और अपनी सेहत को दुरूस्त करें।

नीम हकीमों द्वारा पुड़िया में स्टीरायड नामक दवाईयां मिलाने की बात के इलावा मैंने बहुत बार ऐसा देखा है कि कुछ कैमिस्ट मरीज़ को तीन-चार तरह की जो खुली दवाईयां थमाते हैं उन में भी एक छोटी सी टेबलेट स्टीरायड की ही होती है ...मरीज़ का बुखार जाते ही टूट गया और कैमिस्ट हो गया सुपरहिट ....चाहे वह उसे स्टीरायड खिला खिला कर बिल्कुल खोखला ही क्यों न कर दे।

कुछ चिकित्सक अपने मरीज़ों को खुली टेबलेट्स, खुले कैप्सूल देते हैं, मुझे इस में भी आपत्ति है, जब स्ट्रिप में, बोतल में बिकने वाली दवाईयां नकली आ रही हैं, रोज़ाना मीडिया में देखते पढ़ते हैं न, तो फिर इस तरह से खुले में बिकने वाली दवाईयों की गुणवत्ता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगता ?

बस ध्यान केवल इतना रहे कि पुड़िया थमाने वालों से और इस तरह की पुड़िया से दूर ही रहने में समझदारी है ... वरना तो बस गोलमाल ही है। लेकिन क्या मेरे लिखने से आज से पुड़िया खानी बंद कर देंगे .. देश की अपनी समस्याएं हैं ..गरीबी, अनपढ़ता, जनसंख्या का सुनामी.....अनगिनत समस्याएं हैं, मैंने भी यह लिखते समय  एक ऐसे कमरे में जहां घुप अंधेरा है, वहां पर एक सीली हुई दियासिलाई सुलगाने का जुगाड़ कर रहा हूं.... कभी तो इस गीली तीली में भी आग लगेगी.. जागरूकता का अलख जग के रहेगा , कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करूंगा।


मंगलवार, 18 जनवरी 2011

प्राइव्हेसी की जबरदस्त डिमांड तो है, आखिर क्यों ?

अकसर आज कल दिख ही रहा है कि घर के सदस्यों की संख्या से ज़्यादा मोबाईल फोन और लगभग उस से भी ज़्यादा सिमकार्ड होते हैं। लेकिन एक तो पंगा अभी भी है – अब बेवजह किस बात का पंगा? – प्राइवेसी का। एक स्कूल जाने वाले बच्चे को भी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी चाहिए। प्राइवेसी से एक बात का ध्यान आ रहा है ...एक बार मैंने मीडिया एकेडेमिक्स की एक शख्सियत से यह बात सुनी थी कि जब से यह टीवी ड्राईंग-रूम से निकल कर बच्चों के बेडरूम में पहुंच गया है, अनर्थ हो गया है। क्या है न जब टीवी को सब लोग एक साथ बैठ कर देख रहे होते हैं तो अपने आप में ही एक अंकुश सा सब के ऊपर बना रहता है –किसी ऐसे वैसे सीन से पहले कोई न कोई रिमोट का कान खींच कर किसी प्रवचन की तरफ़ सब का ध्यान सरका देगा, कोई बहाना बना के दो मिनट पहले उठ जाएगा..., कोई बड़ा-बुज़र्ग यूं ही बच्चों को हल्का सा टोक देगा तुम भी यह सब क्या देखते रहते हो......कहने का मतलब कि किसी न किसी रूप में अंकुश तो रहता ही है जब सब लोग टीवी एक साथ देख रहे होते हैं। वरना आज प्रोग्राम तो ऐसे ऐसे चल निकले हैं कि क्या इन के बारे में जितना कम कहें उतना ही ठीक लगता है !

तो बात हो रही थी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी की। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह बहुत अजीब सा लगता है। अब स्कूल जाने वाले बच्चे को ऐसी कौन सी प्राइवेसी चाहिए.....कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आता। लेकिन एक बात और भी है कि बच्चे अपने घर ही से ये सारी बातें सीखते हैं और इसलिये शायद हम सब बड़ों को भी अपने आप को टटोलने की ज़रूरत है।

मुझे याद है कि कुछ समय पहले यह मोबाइल पर बात करते वक्त कोई कोना सा ढूंढ लेना थोड़ा अजीब सा लगता था। मेरा एक सीनियर था ...कुछ साल पहले की बात है ... जब भी मैं उस के पास बैठा होता और उस का मोबाइल फोन बज उठता तो वह झट से उसे लेकर टायलेट में घुस जाता। दो-तीन बार ऐसा हुआ..मुझे यह सब इतना अजीब लगा ...अजीब क्या लगा, इंसलटिंग लगा कि मैंने उस के पास जाना ही बंद कर दिया। बस अपने भी मन की मौज है। लेकिन अब देखता हूं कि लोग कुछ ज़्यादा ही सचेत हो गये हैं...किसी का मोबाईल फोन बजने पर उस के मुंह के भाव पढ़ कर यह अंदाज़ा लगा लेते हैं कि किसी बहाने उठ कर बाहर जान ठीक है या यहीं पड़े रहो।

अच्छा मोबाइल फोन आने पर यह प्राइवेसी ढूंढने का सिलसिला है बड़ा संक्रामक--- बस एक दूसरे को देखते देखते कैसे आदत पक जाती है पता ही नहीं चलता। लेकिन जो भी हो, अब मैंने निश्चय कर लिया है कि अब सब बातें सब के सामने ही किया करूंगा --- चलिये कभी कोई अकसैप्शन हो सकती है, लेकिन वह भी कभी कभी। हर बार फोन उठा कर अलग किसी कोने में घिसक जाना कुछ शिष्टाचार के नियमों के विरूद्द सा लगता है, है कि नहीं?  भला हम ने कौन सी ऐसी बातें करनी हैं किसी से जो कि हमारे परिवार के सदस्यों के सुनने लायक तो हैं नहीं, लेकिन लॉन में बात करते वक्त चाहे पड़ोसी का बंगला चपरासी सारी बातें सुन ले। बड़ी अजीब सी बात लगती है।

वैसे तो हम लोग जब कुछ लोग बैठे हों तो बच्चे हमारे कान में आकर कुछ कहना चाहे तो हम इसे भी अकसर डिस्कर्ज करते देखे जाते हैं ... कहते हैं कि बेटा, सब के सामने जो बात करनी है करो, लेकिन फिर यह मोबाइल फोन के नियम क्यों इतने अलग से हैं?

मोबाइल फोन से लौट चलते हैं उस ज़माने की तरफ जब केवल लैंडलाइन फोन का ही सहारा हुआ करता था और वह भी कभी कभी चला करता था क्योंकि हम इतने जुगाड़ू प्रवृत्ति के नहीं थे कि वे किसी लाइन-मैन को सैट कर के रखते ताकि वह फोन खराब होते ही भाग के आ जाता और तुरंत लाइन ठीक कर के चला जाता। ज़माना वह भी याद करना होगा जब लैंडलाइन फोन बजते ही घर में मौजूद दो-तीन पीढ़ियां उस फोन वाले मेज के इर्द-गिर्द यूं इक्ट्ठा हो जाया करती थीं जैसे कि कोई सैटेलाइट का परीक्षण किया जाने वाला है।

जो भी हो, दौर अच्छा था, खुलापन था, एक फोन आता था तो सभी के साथ बात होती थी ... दिखावेबाजी नहीं थी, अब तो बस दिखावेबाजी ज़्यादा है और असल बात शायद बहुत कम है। अपने आप से पूछने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा कमबख्त है क्या जिसे हमें अपनों ही से छिपाने की ज़रूरत पड़ रही है। और तो और, उसी पुराने दौर में एक दौर यह भी हम ने देखा है जब किसी का पीपी ( PP number)  दे कर काम चला लिया जाता था और अकसर विज़िटिंग कार्डों पर यह अंकित रहता था कि  यह नंबर पीपी नंबर है। और फोन करते या सुनते वक्त कोई परवाह नहीं कि कितने पड़ोसियों ने हमारी बातें सुन ली होंगी ... इसलिये फोन करते वक्त समय का ध्यान रखना भी बेहद लाज़मी था वरना अगली बार से यह सुविधा खत्म...... चलो, छोड़ते हैं, उस दौर की भी अपनी बहुत सी मुश्किलें थीं और अगर इन्हें गिनाने लग गया तो एक छोटा मोटा उपन्यास ही बन जायेगा जो कि मैं अभी लिखने के बिल्कुल भी मूड में नहीं हूं।

हां, तो थोड़ा इस से भी पीछे चलिये....वह दौर जब ये ट्रंककाल करते लोग या तो हिंदी फिल्मी में देखे जाते थे या फिर शहर के बड़े डाकघर में। वहां पर भी कहां यह सब इतना आसान था, पहले फार्म भरो, फिर 50 रूपये का अडवांस जमा करो, फिर लग जायो लाइन में.....बार बार नंबरों की ट्राई.....ट्राई पर ट्राई.... बाबू के साथ चिक चिक कि बई, बात तो हुई नहीं और तुम कह रहे हो इतने मिनट के पैसे दो....अब बाबू की बला से, बात हुई या नहीं हुई, उस के सामने रखी स्टाप-वॉच की गिनती के आगे किसी की न चलती थी, बड़ी सिरदर्दी थी, मुझे नहीं याद कि मैं कभी उस दौर में इन बड़े डाकघरों में यह सो-कॉल्ड ट्रंककाल के लिया गया होऊं और सफल हो कर लौटा हूं ...हमेशा हारे जुआरी की तरह साइकिल उठा कर घर की तरफ़ चल पड़ता है।

लेकिन ऐसे खुशकिस्मत लोगों को देख कर मन में बड़ी तमन्ना होती थी जिन का झट से ट्रंककाल लग जाता था और वह अंदर केबिन में बंद होते हुये भी इतने ज़ोर से बातें करते थे कि मुझे याद है कि मेरे जैसी दुःखी आत्मायें उस अमृतसर के रियाल्टो टाकी के सामने बड़े डाकखाने पर यह कह कर मन थोड़ा हल्का ज़रूर कर लिया करते थे कि ....यार, इस को ट्रंककाल करने की आखिर ज़रूरत है, इस की तो आवाज़ ही इतनी दबंग और कड़क है कि अगर यह बाहर आकर थोड़ा और बुलंद आवाज़ में  बोल दे तो दिल्ली तक तो आवाज़ वैसे ही पहुंच जाए। यह बात माननी पड़ेगी कि अमृतसर के लोग हैं बड़ी मज़ाकिया – सब से बड़ी खूबी वे किसी पर हंसने की बजाए अपने पर भी हंसने से भी गुरेज़ नहीं करते। और हर स्थिति में खुशी ढूंढ लेने की कला रखते हैं..... जिउंदे वसदे रहो, मित्तरो......

बस, अब इस कॉल को बंद करने का वक्त आ गया है, लेकिन इस से मैंने तो एक सीख अपने आप के लिये ली है कि कोशिश करूंगा कि इस प्राइवेसी को खत्म करने के लिये पहल मैं ही करूं ---मैं फिर कह रहा हूं कि कुछ परिस्थितियां हो सकती हैं जिन में शायद हमें कभी कभार कुछ प्राइवेसी चाहिये हो, लेकिन हर कॉल को ही प्राइवेट कॉल बना लिया जाए तो बहुत बार यह मोबाईल सिरदर्द लगने लगता है।

वैसे एक बात और भी है न, टैक्नोलॉजी इतनी आगे बढ़ गई ....लेकिन क्या इस से इंसानों के रिश्तों में गर्मजोशी आई? ….मुझे तो ऐसा कभी भी नहीं लगा, फेसबुक आ गई, मॉय-स्पेस आ गया लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि विभिन्न कारणों की वजह से हर तरह ठंडक ही बढ़ती दिख रही है। गर्मजोशी को वैसे आज की नई पीढ़ी शायद ही समझ सके जिसे मां-बहन-बीवी का कईं कईं दिनों की दिन रात की तपस्या से तैयार किया स्वैटर चुभता है, मां की तैयार की गई टोपी आक्वर्ड लगती है लेकिन विदेशों में तैयार दो हज़ार की ब्रैंडड स्वैटर-टोपियां ही सारी गर्माहट देती हैं, ऐसे में कोई क्या कहे। फोनों की खूब बातें हो गईं वैसे असली गर्मी तो पुराने खतों में हुआ करती थीं ---इतनी गर्माइश की अगला खत आने तक मेरे पिता जी मेरी दादी की हिंदी में लिखी चिट्ठी लगभग रोज़ाना सुना करते थे ....एक दिन कोई सुना देता, दूसरे दिन कोई दूसरा काबू आ जाता .... और अगली चिट्ठी आने तक यह सिलसिला चलता रहता था।

चलिये, अब बंद भी करूं ....लेकिन एक निर्णय लेता हूं कि आज से पूरी कोशिश रहेगी कि मोबाइल फोन पर बात सब के सामने ही हो, ऐसी भी क्या बात है, ऐसी भी क्या प्राइवेसी है, ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर थोड़ा गहराई में सोचेंगे तो पाएंगे कि ऐसा अलग सी जगह में दुबक कर बात करने जैसी कोई बात भी तो नहीं होती --- एक आम आदमी ने कौन सा अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के मर्जर की बातें करनी हैं, कौन से ट्रेड-सीक्रेट आपस में बांटने हैं...........ऐसा कुछ नहीं है तो चलिये लाते हैं आज से अपनी बातचीत में एक नये खुलापन ........ताकि हमारा आने वाला कल आज से बेहतर हो सके, और ये जो हम ने अपने ब्लड-प्रैशर को पक्के तौर पर बढाये रखने के पुख्ता इंतज़ाम कर रखे हैं, इन से छुटकारा पाएं.....

शनिवार, 8 जनवरी 2011

छुप छुप कर सिगरेट पीने वाले बच्चे को पकड़ना चाहेंगे ?

आज सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर पर मेरी नज़रें अटकी रह गईं... उस का शीर्षक ही कुछ ऐसा था .... Catch your children smoking with this kit... मुझे बहुत उत्सुकता हुई कि आगे पढ़ूं तो सही. हां, तो उस में बताया गया है कि जल्द ही इस देश में कुछ ऐसी किट्स आ जाएंगी जिस से आप अपने लाडले की चोरी चोरी चुपके चुपके सिगरेट का कश लगाने की चोरी पकड़ पाएंगे। इस के लिये   स्ट्रिप आती है और बच्चे के यूरिन से अथवा गाल के अंदरूनी हिस्से से एक स्वॉब (swab) सारे राज़ खोल देगा। और भी एक बात उस में लिखी है कि अगर कही किसी ने किसी अजनबी के साथ असुरक्षित संभोग कर लिया है और उसे एचआईव्ही संक्रमण का डर सताने लगा है तो भी ऐसे मिलन के दो दिन के बाद उस व्यक्ति का एचआईव्ही स्टेट्स बताने का भी जुगाड़ कर लिया गया है। 

कैसी लगी आप को खबर? मुझे तो बस यूं ही लगा यह सब कुछ। मुझे लग रहा है कि यह हमारे देश की ज़रूरत नहीं है। अपने बच्चों की चौकीदारी करते करते लोग थक चुके हैं – आज से 20 साल पहले लोग अपनी स्मार्टनैस दिखाते थे –चैनल लॉक की बातें कर के –और एक तरह से यह एक स्टेट्स सिंबल सा ही हो गया था कि हम ने तो अपने टीवी पर चैनल लॉक का जुगाड़ किया है। लेकिन क्या हुआ? – केवल कबूतर के आंखे बंद कर लेने से क्या हुआ? उस के बाद तकनीक ने इतनी तरक्की कर ली है कि टैक्नोलॉजी से जुड़े युवक आज की तारीख में सब कुछ कर पाने में सक्षम हैं। ऐसे में हम उन की नैतिक चौकीदारी (moral policing) कर के आखिर कर क्या लेंगे? मुझे तो यह बच्चों की सिगरेट पीने की आदत पकड़ कर तीसमार खां बनने की बात मे रती भर भी दम नहीं लगता. 

तो फिर क्या बच्चों को यू ही मनमानी करने दें ?  कोई भी काम ज़ोर-जबरदस्ती से होने से रहा – अगर हम लोग बच्चों का विश्वास ही जीत नहीं पाये तो हम ने क्या किया? वो कैसा घर जिसमें बच्चे बच्चे अपने माता पिता से दिल न खोलें .... सिगरेट की उस की आदत पकड़ कर कौन सा बड़ा पहाड़ उखाड़ लिया जाएगा –ऐसे तो अनेकों तरह की किटें और उपकरण चाहिये होंगे उन की चोरियां पकड़ने के लिये। लेकिन यह सब पश्चिमी तरीका है बच्चों को कंट्रोल करने का। क्योंकि यह देश तो चलता ही है कि उदाहरण के द्वारा –अब अगर मां-बाप तंबाकू का सेवन स्वयं नहीं करते तो बच्चे के सामने उस के मां बाप की उदाहरण है। सीधी सी बात है इस तरह की स्ट्रिप खरीदने की बजाए अगर बच्चे के संस्कारों पर ध्यान दिया जाए तो ही बात बन सकती है।

और दूसरी बात कि असुरक्षित संभोग के दो दिन बाद अगर किसी को अपना एचआईव्ही स्टेट्स जानने की उत्सुकता हो रही है और उसे अगर दो-तीन दिन बाद पता भी चल गया तो कौन सा किला फतह हो गया –अगर उस का टैस्ट नैगेटिव आया तो यकीनन् वह अगले एनकांउटर के लिये कुछ दिनों बाद अपने आप को रोक नहीं पाएगा --- और अगर कहीं पॉज़िटिव निकला तो भी बहुत गड़बड़ी ...क्योंकि वॉयरस को रोकने के लिये जो दवाईयां उसे एक्सपोज़र के 24 घंटे के अंदर शुरू कर लेनी चाहिए थीं, उन का असर 48-72 घंटे के बाद उतना यकीनी नहीं हो पाता--- अब इस केस में देखें तो अगर वह इंसान किसी अनजबी के साथ असुरक्षित संबंध ( एक तो मुझे यह असुरक्षित शब्द से बड़ी चिढ़ हैं, लिखने समय ऐसे लगता है जैसे कि यह कोई मैकेनिकल प्रक्रिया है जो अगर अजनबी के साथ सुरक्षित ढंग से की जाए तो ठीक है जैसे कि चिकित्सा शास्त्रियों ने इस की खुली छूट दे दी हो...... ) लेकिन ऐसा तो बिल्कुल नहीं है, हाई-रिस्क बिहेवियर तो हाई-रिस्क ही है, आग का खेल है, कितना कोई बच लेगा !!

यह खबर पढ़ते हुये मैं यही सोच रहा था कि इस देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें पता नहीं कि उन्हें उच्च रक्तचाप है, उन्हें पता नहीं कि उन्हें मधुमेह है ...ऐसे में उस तरह ध्यान देने की बजाए अब उन की बच्चों की चोरियां पकड़ने की तरफ उन को रूख करके उन की परेशानियां बढ़ाई जाएं। लेकिन होता यही है जब कोई प्रोड्कट यहां लांच हो जाता है तो फिर शातिर मार्केटिंग हथकंड़ों के द्वारा उस की डिमांड तो पैदा कर ही ली जाती है, मुझे इसी बात का डर है।

कोई बात नहीं, निकोटिन च्यूईंग गम भी आई --- मुझे बहुत से लोगों ने कहा कि आप भी लिखा करें – लेकिन मैंने भी कभी नहीं लिखीं ...क्यों? महंगी होने के कारण मेरे मरीज़ों की जेब इस की इज़ाजत नही देती और दूसरा यह कि मुझे कभी अपने किसी मरीज़ के लिये इस की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई --- अच्छे ढंग से समझाने से कौन नहीं समझता? पच्चीस पच्चीस साल हो गये हम यही बातें कहते सुनते ....अगर फिर भी कोई हमारे अपनेपन की बातें सुन कर तंबाकू की चुनौतिया, गुटखा या बीड़ी के बंडल को आपके सामने ही कचरादान में न फैंक के जाए तो समझ लीजिए हमारी काउंसिलिंग में ही कहीं कमी रह गई।

हां, तो मैं अपनी बात को यहीं कह कर विराम देता हूं कि हर क्षेत्र में हमारा प्रबंधन पश्चिम के प्रबंधन के अच्छा खासा अलग है...... हम जुगाडू किस्म की मानसिकता रखते हैं, प्यार से पुचकार के शाबाशी से थोड़ी डांट डपट से  हल्की फटकार से किसी को भी वापिस सही लाइन पर लाने की कुव्वत रखते हैं .....हम कहां अपने सीधे-सादे लोगों को इन महंगे महंगे शौकों की तरफ़ धकेल सकते हैं!!

भाषणबाजी बहुत हो गई, इसलिये जाते जाते इस महान देश की महान जनता को समर्पित एक गीत सुनते जाइये ...


Catch your kid smoking with this kit

सोमवार, 3 जनवरी 2011

मीडिया समाज का आईना ही तो है !

आज सुबह सवेरे अंग्रेज़ी अखबार में पढ़ी मुझे दो खबरें अभी तक याद है –बाकी तो सब खबरें रोज़ाना एक जैसी ही होती हैं ऐसा मैं सोचता हूं।

एक खबर थी जिस में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर एक महिला को पचास हजार का ईनाम देने की बात थी और साथ ही उस को यह अवार्ड दिये जाने की तस्वीर भी थी। महिला 40 से ऊपर की लग रही थी क्योंकि उस के बेटों की उम्र बताई गई थी जो कि 20 वर्ष के ऊपर के थे। हां तो इस महिला ने क्या किया? –इस महिला ने इतने अदम्य साहस का परिचय दिया कि इसे तो राष्ट्रीय स्तर पर भी पुरस्कृत किया जाना चाहिये। यह महिला एक मल्टीनैशनल बैंक में काम करती हैं, कुछ दिन पहले यह अपने घर की तरफ़ आ रही थी कि मोटर साईकल सवार युवकों ने इन के पास रूक कर कुछ पूछने के बहाने इन की चेन झपट ली.... इन्होंने उस वक्त इतना साहस दिखाया कि इन्होंने मोटर साईकिल के पीछे बैठे हुये लुटेरे का कॉलर पकड़ लिया। उस युवक ने कहा कि मुझे छोड़ दो, वरना मैं तुम्हें गोली मार दूंगा लेकिन यह महिला टस से मस न हुई। इस पर उस युवक ने इन के सिर पर अपनी पिस्टल से वार करना शुरू कर दिया ---लेकिन इन्होंने इस दौरान उस कमबख्त का क़ालर न छोड़ा ....इतने समय में आस पास लोग इक्ट्ठा हो गये और उस लुटेरे को धर दबोचा गया। मुझे यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई – आज के वातावरण में जहां जगह जगह छोटी छोटी बच्चियों को जबरन उठा कर उन के सामूहिक उत्पीड़न की खबरें इतनी आम हो गई हैं कि जनआक्रोश का पानी नाक तक आ चुका है। मैं इस महिला को नमन करता हूं जिसने अपनी बहादुरी से एक उदाहरण पेश की है। काश, बलात्कार करने वालों की भी कोई शिकार सामने आए जो इन को कोई ऐसा सबक सिखा दे जिस वजह से ये बेलगाम दरिंदे सारी उम्र किसी लड़की के पास फटकने से डरने लगें। अभी अभी जो नांगलोई में एक लड़की के साथ दरिंदगी हुई , यह कितनी शर्मनाक बात है...... उन रईस दरिंदों का क्या होगा,यह आप सब को अच्छी तरह से पता ही है लेकिन उस बेचारी की तो सारी ज़िंदगी खऱाब हो गई।

हां , तो मैं आज की अखबार की दूसरी खबर की बात कर रहा था... दूसरी खबर थी कि उड़ीसा के मंदिर में दो बंगाली मुसलमान युवक दर्शन पहुंच गये, उन को पुलिस के हवाले कर दिया गया और पूछताछ के बाद छोड़ दिया गया। मुझे ऐसी खबरें पढ़ कर बहुत शर्मिंदगी होती है क्योंकि मैं तो 10 साल बंबई में रहा, बीसियों बार मस्जिदों में गया, मुझे तो किसी ने नहीं रोका........मुझे यह खबर पढ़ कर इतनी घुटन हुई कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। मैं यही सोच रहा था कि अगर हम लोगों ने आज भी यह सब करना है तो फिर क्यों हम अपने बच्चों को पढ़ाते हैं कि भगवान, अल्ला, ईश्वर, वाहेगुरू ....सब एक हैं...God is one……..हमारी तकलीफ़ों का कारण भी हम ही हैं, हम दोगले हैं, कहते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं और करते कुछ हैं। मैं सोच रहा हूं कि आखिर यह पुरान दकियानूसी नियम कौन बदलेगा कि सभी धार्मिक स्थानों पर हर कोई जा सकता है, ये सब के हैं .......ये सब के साझे हैं।

कईं कईं खबरें सच में हमें झकझोड़ देती हैं और बहुत सोचने पर मजबूर करती हैं।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

एड्स से बचाव के लिये रोज़ाना दवाई -- यह क्या बात हुई ?

अभी मैं न्यू-यार्क टाइम्स की साइट पर यह रिपोर्ट पढ़ रहा था -- Daily Pill Greatly Lowers AIDS Risk, Study Finds. शायद आप को भी ध्यान होगा कि आज से 20-25साल पहले एक फैशन सा चला था कि मलेरिया रोग से बचने के लिये हर सप्ताह एक टैबलेट ले लें तो मलेरिया से बचे रहा जा सकता है – इस फैशन का भी जम कर विरोध हुआ था, उन दिनों मीडिया भी इतना चुस्त-दुरूस्त था नहीं, इसलिये अपने आप को समझदार समझने वाले जीव कुछ अरसा तक यह गोली खाते रहे...लेकिन बाद में धीरे धीरे यह मामला ठंडा पड़ गया। आजकल किसी को कहते नहीं सुना कि वह मलेरिया से बचने के लिये कोई गोली आदि खाता है।

एक बात और भी समझ में आती है कि जब किसी एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति पर काम करते हुये किसी चिकित्सा कर्मी को कोई सूई इत्यादि चुभ जाती है तो उसे भी एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये दो महीने पर कुछ स्ट्रांग सी दवाईयां लेनी होती हैं ताकि वॉयरस उस के शरीर में पनप न सके –इसे पोस्ट post-exposure prophylaxis – वायरस से संपर्क होने के बाद जो एहतियात के तौर पर दवाईयां ली जाएं।

लेकिन आज इस न्यू-यार्क टाइम रिपोर्ट में यह पढ़ा कि किस तरह इस बात पर भी ज़ोरों शोरों से रिसर्च चल रही है कि जिस लोगों का हाई-रिस्क बिहेवियर है जैसे कि समलैंगी पुरूष –अगर ये रोज़ाना एंटी-वायरल दवाई की एक खुराक ले लेते हैं तो इन को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा लगभग 44 फीसदी कम हो जाता है। और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर समलैंगिक पुरूषों में रोज़ाना दवाई लेने से खतरा कम हो सकता है तो फिर अन्य हाई-रिस्क लोगों जैसे की सैक्स वर्करों, ड्रग-यूज़रों (जो लोग ड्रग्स—नशा -- लेने के लिये एक दूसरे की सूई इस्तेमाल करते हैं) में भी रोज़ाना यह दवाई लेने से यह खतरा तो कम हो ही जायेगा। अभी इस पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।

मैं जब यह रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि इस तरह का धंधा भी देर-सवेर चल ही निकलेगा कि एचआईव्ही से बचने के लिये स्वस्थ लोग भी रोज़ाना दवाई लेनी शुरू कर देंगे। लेकिन सोचने की बात है कि यह दवाईयां फिलहाल इतनी महंगी हैं कि इन्हें खरीदना किस के बस की बात है? एक बात और भी तो है कि भारत जैसे बहुत से अन्य विकासशील देशों में जो लोग एचआईव्ही से पहले से संक्रमित है उन तक तो ये दवाईयां पहुंच नहीं पा रही हैं, ऐसे में समलैंगिकों, सैक्स वर्करों और सूई से नशा करने वालों की फिक्र ही कौन करेगा ?

रिपोर्ट पढ़ कर मुझे तो ऐसा भी लगा जैसे कि लोगों के हाई-रिस्क को दूर करने की बजाए हम लोग उन्हें एक आसान सा विकल्प उपलब्ध करवा रहे हैं कि तुम अपना काम चालू रखो, लेकिन एचआईव्ही से अपना बचाव करने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करो। इस रिपोर्ट में तो यह कहा गया है कि यह दवाईयां सुरक्षित हैं, लेकिन दवाई तो दवाई है ---अगर किसी को मजबूरन लेनी पड़ती हैं तो दूसरी बात है, लेकिन अगर हाई-रिस्क बिहेवियर को ज़िंदा रखने के लिये अगर ये दवाईयां ली जाने की बात हो रही है तो बात हजम सी नहीं हो रही। आप का क्या ख्याल है?

रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते यही ध्यान आ रहा था कि आज विश्व की समस्त विषम समस्याओं का हल क्यों भारत के पास ही है? इन सब बातों का सही इलाज अध्यात्म ही है, और कोई दूसरा पक्का उपाय इस तरह की विकृतियों को दूर करने का किसी के पास तो है नहीं। यह क्या बात है , समलैंगिक पुरूष हाई-रिस्क में चाहे लगे रहें, नशा करने वाले नशे में लिप्त रहें लेकिन एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करें---यह भी कोई बात हुई। एक तो इतनी महंगी दवाईयां, ऊपर से इतने सारे दूसरे मुद्दे और बस यहां फिक्र हो रही है कि किस तरह से उसे संक्रमण से बचा लिया जाए। बचा लो, भाई, अगर बचा सकते हो तो बचा लो, लेकिन अगर उस की लाइन ही बदल दी जाए, उस की सोच, उस की प्रवृत्ति ही बदल दी जाए तो कैसा रहे ----- यह चाबी केवल और केवल भारत ही के पास है।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

शुगर डॉयन खाये जात है ...

कल शाम को मुझे एक बंदा मिला – 50-52 की उम्र—चिकित्सा क्षेत्र से ही संबंधित—बातचीत के दौरान उस ने अपने यूरिन-टैस्ट की रिपोर्ट मेरे आगे की – ज़रा देखो कि क्या सब कुछ ठीक है ? मैं बड़ा हैरान हुआ –यूरिन में शूगर डबल प्लस, साथ में यूरिन में पस सैल(pus cells), रक्त सैल और क्रिसटल्स का भी ज़िक्र था। मैंने पूछा कि यार, तुमने यह टैस्ट करवाया क्यों था ? बताने लगा कि यह टैस्ट उस ने इसलिये करवाया क्योंकि उस के अंडरवियर पर पीले दाग पड़ने लगे हैं जो धुलने से भी नहीं छूटते।

आगे उस ने बताया कि दरअसल उसे लगभग 15 वर्ष पहले पेट में दर्द हुआ था –उस के विवरण से पता लग रहा था कि गुर्दे का दर्द था। खैर, उस ने बताया कि उसे इतने सालों में कोई तकलीफ़ नहीं थी। लेकिन अब यह अंडरवियर वाली बात से वह परेशान था, वैसे उस ने मुझे बताया कि पंद्रह सोलह साल पहले भी जो यूरिन टैस्ट करवाया था उस में भी क्रिस्टल्स की बात तो आई थी, लेकिन उसे कोई तकलीफ़ नहीं थी और इसलिये उस ने किसी तरह का मशवरा लेना ज़रूरी नहीं समझा।

मुझे उस की रिपोर्ट देख कर बहुत अफसोस सा हुआ – इतना मस्त रहने वाला बंदा, न किसी की बुराई में न किसी की अच्छाई में... लेकिन इत्मीनान इतना था कि चलो अगर कोई तकलीफ़ है तो पकड़ी तो जायेगी।

सो, मैंने आज सुबह उसे खाली पेट ब्लड-शूगर टैस्ट करवाने के लिये कहा ---रिपोर्ट आई 297mg%. यह तो तय ही हो गया कि शूगर (मधुमेह) तो है ही। अब उसे पेट का अल्ट्रासाउंड (Ultrasound Abdomen) करवाने के लिये कहा है और साथ में किडनी फंक्शन टैस्ट, और अन्य सामान्य टैस्ट आदि ---बाद में और भी टैस्ट तो करवाने ही होंगे।

आज मेरा मूड उस के बारे में सोच कर खराब ही रहा। बस वही बातें जो अकसर ऐसे मौकों पर होती हैं –मेरे पूछने पर उस ने बताया कि मीठे का तो वह शौकीन है ही --- वैसा चलता तो वह पैदल ही है। मैंने उसे कहा कि यार, चिंता न करो, बस फिजिशियन के बताए अनुसार दवाई तो लेनी ही होगी, और अपने खाने पीने का ध्यान रखना होगा.........

मैं यही सोच रहा हूं कि उस बंदे को तो चिकित्सा विज्ञान के बारे में थोडी बहुत नालेज थी, इतना भी कहूंगा कि साहसी था कि उस ने अपनी मर्जी से ही यूरिन टैस्ट करवा लिया और अभी बाकी टैस्ट करवाने को राजी हो गया---- वरना, बिना किसी जटिलता (complication) के कहां अकसर लोग शूगर वूगर टैस्ट करवाते हैं जब कि 35-40 वर्ष की उम्र के बाद एक-दो साल के बाद इस तरह की जांच तो जरूरी है ही।

अब इस बंदे में भी पता नहीं कि कब से यह रोग था --- बता रहा था कि पिछले दो-तीन साल से दो-तीन किलो वज़न कम चल रहा है। बिना दवाई के अनियंत्रित शूगर-रोग हमारे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों (vital organs—kidneys, heart, eyes, vascular and nervous system)को तब तक नुकसान पहुंचाता रहता है जब तक कि वे हड़ताल ही न कर दें।

वैसे एक बात आप से साझी करूं --- यह टैस्ट वैस्ट करवाने में डर बड़ा लगता है, मुझे भी अपने सभी सामान्य टैस्ट करवाये तीन साल हो गये है.......पता नहीं यह क्या मसला है, डाक्टर वाक्टर ऊपर से कितने भी साहसी से नज़र आते हैं , मैंने देखा है जब उन की अपनी एवं उन के सगे-संबंधियों की बात होती है तो बिल्कुल बच्चे जैसे डरे से, भयभीत से, आशंकित से ---------बस, बिल्कुल एक आम मरीज़ की तरह ही होते हैं -----शायद उस से भी बढ़ के।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

जमा हुई दवाईयों का भूल-भुलैय्या

अकसर डाक्टरों के आसपास के लोग –परिचित, रिश्तेदार,मित्र-सगा उन से यह बात कहते रहते हैं कि भई हमें तो आम तकलीफ़ों के लिये कुछ दवाईयां लिखवा दो, जिसे हम ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर लिया करें। और अकसर लोग यह भी करते हैं कि घर में जमा हो चुकी दवाईयां किसी डाक्टर (जिस से उन्हें डांट-फटकार का डर न हो) के पास ले जाकर उन के नाम एवं उन के प्रभाव लिखने की कोशिश करते हैं।

जिस तरह से आज जीवनशैली से संबंधित तकलीफ़ें बढ़ गई हैं और जिस तरह से तरह तरह के रोगों के लिये नई नई दवाईयां आ गई हैं, ऐसे में एक आम आदमी की बड़ी आफ़त हो गई है। इतनी सारी दवाईयां –तीन चार इस तकलीफ़ के लिये, तीन चार उस के लिये ---अब कैसे कोई हिसाब रखे कि कौन सी कब खानी है, कितनी खानी है। मैं इस विषय के बारे में बहुत सोच विचार करने के बाद इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि यह सब हिसाब किताब रखना अगर नामुमकिन नहीं तो बेहद दुर्गम तो है ही। और ऊपर से अनपढ़ता, स्ट्रिपों के ऊपर नाम इंगलिश में लिखे रहते हैं, और कईं बार किसी दवाई का एक ब्रांड नहीं मिलता, अगली बार किसी और दवाई का पुराना ब्रांड नहीं मिलता ----बस, इस तरह की अनगिनत समस्यायें –देखने में छोटी दिखती हैं लेकिन जिसे उन्हें खाना होता है उन की हालत दयनीय होती है।

मैं डाक्टरों की उस श्रेणी से संबंधित रखता हूं कि जिन के साथ कोई भी किसी भी समय कितनी भी बेतकल्लुफी से बात करते हुये किसी तरह की डांट फटकार से नहीं डरता—क्योंकि मैं इतने वर्षों के बाद यही सीखा है कि मरीज से ऐसी डांट-डपट करने वाले बंदे से ज़्यादा ओछा कोई भी नहीं हो सकता। मेरे को कोई भी इन दवाईयों के बारे में कितने भी सवाल पूछे मैं कभी भी तंग नहीं आता ---- जिस का जो काम है, वही बात ही तो लोग पूछेंगे। वरना यह ज्ञान-विज्ञान किस काम का।

इस तरह के लोगों से जिन्हें इंगलिश नहीं आती, बेबस हैं, मुझे इन पर बहुत तरस आता है, तरस इसलिये नहीं कि इंगलिश नहीं आती , बल्कि यह सोच कर कि यह सब मेरे से पूछने के बाद भी ठीक दवाईयां ठीक समय पर कैसे लेंगे ? गलती होने का पूरा चांस रहता ही है।

आज भी एक अम्मा जी आईं --- चार-पांच पत्ते दिखा कर कहने लगीं कि बेटा, ज़रा बता दे कि किस तकलीफ़ के लिये कौन सी दवा लेनी है, दवाईयां वह कहीं और से लेकर आ रही थीं। बता तो मैंने अच्छे से दिया --- न ही मैंने जल्दबाजी ही की और न ही मैंने उस के ऊपर किसी तरह की नाराज़गी करने की हिमाकत ही की --- वह बीबी तो संतुष्ट हो गईं लेकिन मुझे बिल्कुल भी संतोष नहीं हुआ क्योंकि मैं इस बात से बिल्कुल भी कनविंस नहीं हूं कि उस ने सब कुछ अच्छे से समझ लिया होगा और सत्तर पार की उम्र में सब कुछ याद भी रखेगी। लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है कि इस के बारे में कितना भी सोच लें ----- अपने लोगों की अनपढ़ता का कसूर और ऊपर से दवाईयां बनाने वाले कंपनियों का इंगलिश-प्रेम। सुना तो भाई मैंने भी है कि इन दवाईयों के पत्तों पर हिंदी में भी नाम लिखे जाने ज़रूरी हो गये हैं, या खुदा जाने कब से ज़रूरी हो जाएंगे---पता नहीं, कुछ तो आ रहा था एक-दो साल पहले मीडिया में।

वैसे एक बात है घर में अगर आठ दस तरह की दवाईयां हों तो अकसर नान-मैडीकल लोगों में यह उत्सुकता सी रहती है कि यार, कहीं से यह पता लग जाए कि यह किस किस तकलीफ़ के लिये है तो बात बन जाए। ऐसे में मेरी मां जी तो पहले या कभी कभी अभी भी यह करती आई हैं कि वह दवाईयों के नाम एक काग़ज पर लिख कर मेरे से उन के इस्तेमाल के बारे में भी पूछ कर लिख लेती हैं।

और एक महाशय हैं जो मेरे पास अकसर कुछ महीनों बाद दस-बारह स्ट्रिप लेकर आते हैं साथ में स्टैप्लर ---मेरे से हर स्ट्रिप के बारे में पूछ कर एक छोटी सी स्लिप पर वह सूचना पंजाबी में लिख लेते हैं और फिर उसे उस पत्ते के साथ स्टेपल कर देते हैं। मुझे उन का यह आईडिया अच्छा लगा --- आज भी वो सुबह मेरे पास इस काम के लिये आये थे –तो मैंने सोचा था कि यह आईडिया मैं नेट पर लिखूंगा, सो मैंने अपना काम कर दिया। वैसे जाते जाते एक बार और भी है कि जब भी आप किसी स्ट्रिप से कोई टैबलेट अथवा कैप्सूल निकालें तो कुछ इस तरह का ध्यान रहे कि आखिरी टैबलेट तक उस पत्ते के पीछे लिखी एक्सपायरी की तारीख दिखती रहे ---ऐसा करना बिल्कुल संभव है – वरना मैं बहुत बार देखा है कि अभी स्ट्रिप में छः गोली होती हैं लेकिन उस के पीछे एक्सपॉयरी की तारीख न होने की वजह से वह कुछ दिनों बाद कचरेदान में ही जाती है।

कहां ये सब दवाईयों-वाईयों की बातें --- परमात्मा से प्रार्थना है कि सब तंदरूस्त रहें --- और हमेशा मस्त रहें। आमीन !!

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

सुबह-सवेरे टहलने का प्रेरणादायी जज़्बा

मैं अभी अभी साइकिल पर टहल कर आ रहा हूं—जहां हम रहते हैं वहां आसपास हरे-भरे खेतों से घिरे गांव हैं। मैंने एक-डेढ़ महीने से यह रूटीन बनाई है कि दिन में लगभग एक घंटा साईकिल चला लेता हूं। अच्छा लगता है। तीन-चार किलो वजन भी कम हुआ है। लेकिन जिस बात ने आज सुबह मुझे हिला दिया और जिस ने मुझे आज तीन महीने बाद वापिस चिट्ठा लिखने के लिये विवश किया वह यह है।

मैंने आज सुबह एक बुज़ुर्ग को गांव में टहलते देखा ---इस में क्या खास बात है? लेकिन इस में खास बात यह है कि वह बंदा कोई सामान्य बंदा नहीं था --- उस की एक टांग में कुछ समस्या थी जिस की वजह से वह मुश्किल से चल पा रहा था, और दूसरे हाथ में उस ने लाठी पकड़ रखी थी लेकिन मैं जिस वजह से उसे देखता रह गया वह यह थी कि उस के यूरिन-बैग लगा हुआ था जिसे उस ने अपनी बाजू पर टांग रखा था। मैं वापिस लौटता उस बहादुर इंसान के ज़ज़्बे की मन ही मन प्रशंसा कर रहा था।

मैं उस की शारीरिक मानसिक परिस्थिति के बारे में नहीं जानता लेकिन इतना तो मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि उस की जैसी भी हालत है उसे इस टहलने का लाभ तो मिलेगा ही। और मैंने उस अनजान आदमी के स्वास्थ्य लाभ की भरपूर कामना की।

मैं लगभग तीन महीने चिट्ठाकारी से दूर रहा –कईं कारण थे, जॉब में व्यस्त था। और मुझे कुछ कुछ यह लगने लग गया था कि इंटरनेट की वजह से मुझे सिरदर्द और गरदन में दर्द होने लगा है और मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा हूं –सुबह उठते ही मैं लैपटाप के आगे सज जाता था। लेकिन अब वह आदत छूट चुकी है--- अपने आप को भी समय देना इंटरनेट से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। वैसे इस दौरान मैंने अपनी एक वेबसाइट भी लांच की है --- हैल्थ बाबा.... कभी हो सके तो देखना।

हां, तो मैं उस बुज़ुर्ग बंदे की बात जब सोच रहा था तो यही ध्यान आ रहा था कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो हृष्ट-पुष्ट होते हुये भी किसी तरह की शारीरिक कसरत से दूर भागते हैं, टहलने से कतराते हैं और अकसर इस सब के चलते हम लोग बीसियों तरह की शारीरिक एवं मानसिक विपदाओं को बुलावा दे बैठते हैं। काश, हम सब लोग समय रहते समझ जाएं और सुबह सवेरे लैपटाप की बजाए प्रकृति के साथ अपना समय बिताना शुरू कर दें ---सिर का दर्द, गरदन का दर्द अपने आप भाग जायेगा---जैसे मेरा भाग गया।