शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

बहुत लंबे अरसे से मैं इस प्रश्न से परेशान हूं ----मदद कीजिये।


आज की अखबार की एक खबर थी ---लिवर ट्रांसप्लांट के एक विशेष आप्रेशन करने के लिये दिल्ली के सर गंगा राम हास्पीटल के 35 विशेषज्ञ 16 घंटे के लिये आप्रेशन करने में लगे रहे।

इसी तरह से गुर्दे के मरीज़ों में भी ट्रांसप्लांट करने के लिये किसी मरीज को , उस के रिश्तेदारों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तरह तरह के टैस्ट करवाने के लिये किस तरह से पैसों का जुगाड़ करना होता है, सारी चिकित्सा व्यवस्था कितने सुचारू रूप से अपना काम करती है -- तो, लो जी हो गया सफल आप्रेशन।

मैं भी एक ऐसे ही 25-30 साल के युवक को जानता था –दो तीन साल पहले उस के गुर्दे का आप्रेशन हुआ, उस की सास ने उस को अपना गुर्दा दान में दिया था। खर्चा काफ़ी आया था लेकिन वह सारा खर्च रेलवे के चिकित्सा विभाग ने उठाया। बढ़िया से बढ़िया दवाईयां बाद में भी दी गईं ---जो आम तौर पर ऐसे मरीज़ों को दी जाती हैं ताकि जो गुर्दा मरीज़ के शरीर में ट्रांसप्लांट किया गया है वह मरीज़ के शरीर द्वारा रिजैक्ट न किया जा सके।

लेकिन कुछ महीने पहले वह बेचारा चल बसा ---दो अढ़ाई साल बस वह बीमार ही रहा। तीन-चार साल की उस की प्यारी से बच्ची है जो शायद आज पहले दिन स्कूल जा रही थी --- किलकारियां मार रही थी , अपने कलरफुल फ्राक पर लगा आईडैंटिटी कार्ड सब को बड़े शौक से दिखा रही थी ---- मुझे भी उस ने दिखाया। उस बच्ची को देख कर मन बहुत दुःखी होता है।

यह बच्ची उस घर में रहती है जहां से मैं सुबह दूध लेने जाता हूं ----ये लोग किरायेदार हैं। जितने लोग भी सुबह दूध लेने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं वे अकसर इस बच्ची की सुबह सुबह इस तरह की ज़ोर ज़ोर चीखें सुनते हैं ------- मुझे पापा पास जाना है !! पापा, आ जाओ ना !!

यह उस मरीज़ की बात है जो कि सरकारी सर्विस में था ---रेलवे ने लाखों रूपया इलाज पर लगा दिया लेकिन क्या कोई आम आदमी अपने बल-बूते पर यह सब करवाने की सोच सकता है।

यह लंबी चौड़ी बात कहने का मकसद ? --- मकसद केवल इसी बात को रेखांकित करना है कि यह जो आधुनिक इलाज हैं यकीनन बहुत ही बढ़िया हैं --- इतनी तरक्की हो गई है कि कुछ भी संभव है। लेकिन ये आम आदमी की पहुंच से तो बहतु दूर हैं ही, और कईं बार इस तरह के इलाज का परिणाम क्या निकला वह तो कुछ महीनों बाद ही पता चलता है।

तो फिर चलिये इन से बचाव की बात कर ही लें ---- ठीक है, कुछ केसों में शरीर की भयानक व्याधियों के बारे में cause and effect relationship को परोक्ष रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन फिर भी कोई भी आम आदमी इन से बचने के लिये क्या करता है ? वह अपनी जीवन-चर्या ठीक कर लेगा, दारू से , तंबाकू से बच कर रहेगा, दिन में थोड़ा बहुत टहल लेगा और मेहनत कर लेगा, बाज़ार में मिलने वाली तरह तरह की चीज़ों से बच कर रह लेगा........यह सब तो बहुत हो गया लेकिन समझ लो कि बंदे ने जैसे तैसे यह सब कर ही लिया लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या ऐसा करने से वह सेहतमंद रह पायेगा। आप का क्या ख्याल है ?

मेरा ख्याल है कि कोई गारंटी नहीं ---- कारण ? कारण तो बहुत से हो सकते हैं जिन में हम नाम गिना लें कि उस को फलां फलां तकलीफ़ें तो उस की हैरेडिटी से ही मिली हैं, आजकल कीटनाशक बहुत हैं सब्जियों में, यह सब खादों की कृपा हो रही है ---कह देते हैं ना हम ये सब बातें ----और ये सब बातें करते करते हम थकते नहीं हैं, रोज़ाना ये बातें घरों में होती हैं, साथ साथ चाय की चुस्कियां भरी जाती हैं।

लेकिन यह शायद कोई नहीं सोचता कि इस कमबख्त चाय में जो दूध है वह कैसा है। नहीं, नहीं, मैं उस की उत्तमता की बात नहीं कर रहा हू ----आप के दूध में साफ सुथरा पानी मिल के आ रहा है, आप का दूध वाला भैंस के दूध में गाय का दूध डाल कर दे जाता है, इसे आप मिलावट न समझें, और जो बात कईं बार मीडिया में कही जाने लगी है कि पशुओं के चारे में ही इस तरह के कैमीकल हैं कि दूध में तो फिर वे आ ही जायेंगे। यह भी मान कर ही चलें कि पशुओं को दुहने से पहले टीका भी लगना ही लगना है ---- देश का कोई कानून इसी रोक नहीं पायेगा ---- यह सब बातें तो अब लोगों ने स्वीकार ही कर ली हैं ---चाहे इस टीके और कैमीकल्स की वजह से अब कुछ लड़के लड़कियों जैसे दिखने लगे हैं और लड़कियां लड़कों जैसी --- लेकिन जो है सो है। जो भी हो, ये मुद्दे तो अब रहे ही नहीं ।

अब तो भाई इस देश का मेरे विचार में सब से बड़ा मुद्दा है मिलावाटी दूध । मेरा अपना विचार ---अपने ब्लाग में लिख रहा हूं ---कि until unless proven otherwise, for me every milk is adultered. मुझे इस तरह की स्टेटेमैंट के लिये माफ़ कीजिये लेकिन हमारे कुछ अपने व्यक्तिगत विचार तैयार हो जाते हैं, दूध के बारे में मेरे ऐसे ही विचार बन गये हैं।

कल मैं रोहतक में था --- थैली वाले दूध से बनी चाय पी ---यकीन जानिये ऐसे लगा कि दवाई पी रहा हूं --- एक घूंट के बाद उसे फैंक ही दिया। वैसे चलिये मैं आप से शेयर करता हूं कि पिछले कुछ सालों से जब से यह दूध में तरह तरह के हानिकारक पदार्थ मिलाने का धंधा सामने आया है --- मैं कभी भी चाय बाहर नहीं पीना चाहता --- बाहर का पनीर बिल्कुल नहीं, बाहर का दही बिल्कुल नहीं --- और यहां तक कि मुझे बर्फी आदि भी बहुत पसंद रही है लेकिन अब मैं उस से भी कोसों दूर रहता हूं और कभी यहां-वहां एक दो टुकड़ी खा भी लेता हूं तो अच्छी तरह से यही सोच कर खाता हूं कि मैं जैसे धीमा ज़हर ही खा रहा हूं। वैसे इतना मन मारते हुये जीना भी कितना मुश्किल है ना !! लेकिन जो है सो है, अब हमारे सब के सामूहिक लालच ने हमें आज की इस स्थिति में ला खड़ा कर दिया है तो क्या करें ? --- बस, चुपचाप भुगतें और क्या !!

डाक्टर हूं, लेकिन किसी को भी पिछले कईं सालों से यह सलाह नहीं दी कि आप दूध पिया करें। और अगर देता भी हूं तो साथ में इसी तरह के लैक्चर का गिलास भी ज़रूर पिला कर भेजता हूं। अधिकतर इस तरह की सलाह मैं इसलिये नहीं देता हूं कि अगर मैं ही किसी वस्तु की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं हूं तो दूसरों को क्यों चक्कर मे डालूं ?

मिलावटी दूध की खबरें ऐसी ऐसी पिछले कुछ सालों से टीवी पर देख ली हैं कि अब तो ऐसी खबरें देखते ही उल्टी सी आने को होती है। और यह जो हम नाम लेते हैं ना मिलावटी दूध या कैमीकल दूध -----मुझे इस पर बहुत आपत्ति है, यह काहे की मिलावट जो लोगों को धीमे धीमे मार रही है , रोज़ उन का थोड़ा थोड़ा कत्ल कर रही है ---जो लोग इस ज़हरीले दूध का धंधा कर रहे हैं क्या वे सब के सब आतंकवादी नहीं है, इस तरह के आतंकवादियों का क्या होगा ?


आप सब जानते हैं कि इस तरह के कैमीकल्स से लैस दूध में वे सब चीज़े डाली जा रही हैं जो कि आप की और मेरे सेहत से रोज़ खिलवाड़ कर रही है लेकिन यह एके47 से निकली गोली जैसी नहीं जिस का प्रभाव तुरंत नज़र आ जाये ---- तरह तरह की भयंकर पुरानी ( Chronic illnesses) बीमारियां, छोटी छोटी उम्र में गुर्दे फेल हो रहे हैं, लिवर खराब हो रहे हैं, तरह तरह के कैंसर धर दबोचते हैं, लेकिन इस तरह का आतंक फैलाने वालों की कौन खबर ले रहा है ? ----- शायद मेरा वह जर्नलिस्ट बंधु जो ऐसी किसी खबर को सुबह से शाम तक बार बार टीवी पर चीख चीख कर लोगों को आगाह करता रहता है लेकिन कोई सुने भी तो !!

हर कोई यह समझता है कि यह तो खबर है , दूध के बारे में जितने पंगे हो रहे हैं वे तो लोगों के साथ हो रहे हैं, हमें क्या ? अपना तो सब कुछ ठीक चल रहा है । बस, यही हम लोग भूल कर बैठते हैं।

पिछले कुछ हफ्तों से मैंने इस टॉपिक पर काफी रिसर्च की है ---- लेकिन मुझे मेरे इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला कि किसी भी आम आदमी के घर में जो दूध आ रहा है क्या वह विश्वास से यह कह सकता है कि उस में कोई इस तरह की ज़हर ---यूरिया, शैंपू या कोई और कैमीकल नहीं मिला हुआ। आज कल मेरी खोज कुछ ऐसा ढूंढने में लगी है कि कोई ऐसा मामूली सा टैस्ट हो जिसे कोई भी आम आदमी एक-दो मिनट में अपने घर में ही कर के यह फैसला कर ले कि आज सुबह जो दूधवाला दूध दे कर गया है उस में यूरिया, शैंपू , बाहर से मिलाई गई तरह तरह की अजीबोगरीब चिकनाई तो नहीं है जो कि उसे पीने वालों के लिये बहुत सी बीमारियां ले कर आ जायेगी। अगर, किसी ऐसे टैस्ट का जुगाड़ हो जाये तो ग्राहक भी तुरंत फैसला कर ले दूध उस के बच्चे के पीने लायक है या फिर बाहर नाली में फैंकने लायक।

पिछले हफ्तों में मैंने बहुत ही डेयरी संस्थानों की वेबसाइटें छान डालीं ----लेकिन मेरा बस एक प्रश्न वैसा का वैसा ही बना हुआ है ---कि कोई तो ऐसा घरेलू टैस्ट हो जिसे कोई भी दो-चार रूपये में एक दो मिनट में कर ले और यह पता लगा ले कि क्या दूध में कोई ज़हरीले कैमीकल्स तो नहीं मिले हुये ------पानी वानी की चिंता तो छोड़िये, उस की तो सारे देश को ही आदत सी पड़ चुकी है।

अभी मेरी खोज जारी है---- कुछ न कुछ तो ढूंढ ही लूंगा, क्योंकि मैं इस विषय के बारे में बहुत ही ज़्यादा सोचता हूं। पिछले दिनों तो हद ही हो गई ----आपने भी खबर तो देखी होगी कि सातारा में कोई मैट्रिक फेल आदमी एक ऐसा कैमीकल तैयार करने लग गया जो कि वह 70 रूपये किलो बेचता था ---- और इस एक किलो कैमीकल से 30 किलो दूध तैयार किया जा सकता है ----खबर थी इस तरह के कैमीकल से तैयार लाखों टन लिटर दूध बाज़ार में सप्लाई हो चुका था। लेकिन इस पावडर की यह विशेषता बताई जा रही थी कि यह दूध की गुणवता जांचने वाले सभी तरह के टैस्ट पास कर रहा था यानि कि कोई टैस्ट यह ही नहीं बता पाता था कि इस तरह से तैयार दूध में किसी तरह की कोई मिलावट भी है !! कितनी खतरनाक स्थिति है !!

लेकिन क्या है , हम सब इस तरह की इतनी खबरें देख-सुन चुके हैं कि अब यह सब कुछ भी नहीं लगता ----- हम ज़िदा ही हैं ना, let’s pinch ourselves and assure ourselves that we are very much alive !!

Prevention of Food Adulteration नामक कानून से संबंधित आंकड़े कहां से मिलेंगे ? ---यह जानकारी तो अपने मित्र दिनेशराय जी द्विवेदी जी ही दे पायेंगे --- पता नहीं मुझे इन दिनों इस के आंकड़े जानने का इतना ज़्यादा भूत क्यों सवार है कि कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत कितने कितने लंबे समय की सज़ा हुई ? ---- इस के बारे में कोई वेब-लिंक हो तो मुझे बताईयेगा।

पोस्ट को बंद करते वक्त बस यही अनुरोध है कि दूध एवं दूध के उत्पादनों से बहुत ज़्यादा सचेत रहा कीजिये ----- आप को भी अब तो लग ही रहा होगा कि काश कोई तो ऐसा टैस्ट हो जो हमें बता सके कि घर में जो दूध आया है वह यूरिया एवं अन्य कैमीकल रहित है। इस के लिये किसी लंबे-चौड़े टैस्ट की कोई गुंजाईश नहीं है ---टैस्ट बिल्कुल सुगम और सादा हो, सस्ता हो, स्वदेशी हो और इस देश की आम जनता की पहुंच में हो।

P.S……1. हम लोग मुंबई में लगभद दस साल सर्विस में रहे ---अब लगता है कि जो दूध वहां पर भी इस्तेमाल किया वह सब मिलावटी ही था ---- उस दूधवाले से चौबीस घंटे जितना चाहे दूध आप लेकर आ सकते थे -----हम तब सोचा करते थे कि यह दूध दही की नदियां पंजाब की बजाए अब बंबई में बहने लगी हैं क्या !!

2. उस के बाद जब हमारी नौकरी फिरोज़पुर पंजाब में लगी तो वहां पर एक मशहूर डेयरी वाला इस लिये बहुत मशहूर था कि वह तो गांव से दूध लाने वालों को उस दूध में फैट की मात्रा देख कर भुगतान करता है ---वह सब दूध वालों के दूध का सैंपल भर कर रोज़ाना उन में एक इंस्ट्रयूमैंट लगा छोड़ता है ----इस से उसे फैट के प्रतिशत का पता चल जाता था ----लेकिन अब सोचता हूं कि क्या कुछ कैमीकल वगैरह से इस फैट को बढ़ाना कोई मुश्किल काम है ?

शिक्षा ---- तो, साथियो, आज के पाठ से हम ने क्या सीखा ------गोलमाल है भई सब गोलमाल है।

रोटी, कपड़ा और मकान का यह गीत भी तो कुछ यही कह रहा है -----पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई !!

शनिवार, 15 अगस्त 2009

स्वाईन-फ्लू ---- फेस मास्क किन लोगों के लिये है ?


आज कल अखबार में या टीवी चैनलों पर फेस-मास्क के बारे में इतना कुछ दिख रहा है कि दर्शक तो यह सब देख कर चकरा गया है । इतनी बातें सुनने देखने के बाद भी लोग शायद निर्णय नहीं ले पा रहे हैं कि वे मास्क पहनें कि नहीं !! ऐसे अवसर पर अमेरिकी सैंटर ऑफ डिसीज़ कंट्रोल की सिफारिशों का ध्यान अवश्य कर लेना चाहिये क्योंकि यह एक अत्यंत विश्वसनीय साइट है और जो यह कह रहे हैं उस पर आप बिना किसी ज़्यादा सोच-विचार के विश्वास कर सकते हैं।


इन की वेबसाइट पर इन्होंने इस बात का जवाब देने के लिये जनता को दो हिस्सों में बांटा है ---वो लोग जिन्हें बीमारी नहीं है और वे लोग जो बीमारी से जूझ रहे हैं। और एक विशेष बात यह है कि जब यह संस्था फेस-मॉस्क के बारे में कुछ सिफारिश कर रही है तो यह नहीं कह रही कि वे लोग जिन्हें स्वाईन-फ्लू है या नहीं है, बल्कि यह कहा जा रहा है कि जिन लोगों को फ्लृ-जैसी बीमारी है या नहीं है, यह कहना यहां ज़रूरी था क्योंकि नोट करने वाली बात यह है कि फ्लू-जैसी बीमारी तो किसी को मौसमी फ्लू की वजह से भी हो सकती है क्योंकि स्वाईन-फ्लू का तो तब चलेगा जब ज़रूरत पड़ने पर टैस्ट वैस्ट किये जायेंगे। इसलिये ऐसे लोगों के लिये भी फिलहाल फेस-मास्क से संबंधित वही सब सिफारिशें माननी होंगी जो कि बीमारी( फ्लू जैसी बीमारी --- influenza like illness) से जूझ रहे लोगों के लिये मान्य होंगी।


आज कि चर्चा करने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि स्वाईन-फ्लू के लिये कुछ लोगों को हाई-रिस्क माना गया है जिन में इस बीमारी के होने का खतरा दूसरे सामान्य लोगों की बजाये ज़्यादा होता है । ये हाई-रिस्क वाले लोग हैं ------पांच साल से कम उम्र के बच्चे, 65 वर्ष से ज़्यादा उम्र के लोग, 18 वर्ष से कम उम्र के वे लोग जिन्हें लंबे समय के लिये एसप्रिन दी जा रही है, गर्भवती महिलायें, ऐसे लोग जो किसी भी पुरानी बीमारी ( जैसे कि श्वास-प्रणाली से संबंधित---इस में दमा रोग भी शामिल है, मधुमेह, दिल के किसी रोग, लिवर के रोग, गुर्दे के रोग आदि से पहले से जूझ रहे हैं, जिन लोगों की इम्यूनिटि ( रोग प्रतिरोधक क्षमता) पहले ही से किसी कारण वश बैठी हुई है ---चाहे यह कुछ दवाईयों के असर से हो या फिर कुछ रोगों की वजह से जिनमें एच-आई-व्ही संक्रमण शामिल है।


सी.डी.सी की सिफारिशों के अनुसार अगर नॉन-रिस्क श्रेणी के लोगों में कोई फ्लू जैसे लक्षण नहीं हैं तो उन्हें फेस-मास्क लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर कोई हाई-रिस्क श्रेणी वाला बंदा किसी भीड़-भाड़ वाले एरिया में जा रहा है तो उसे मास्क ज़रूर लगा लेना चाहिये और जहां तक हो सके उसे इस तरह के एरिया में जाने से बचे ही रहना चाहिये।


और दूसरी विशेष बात यह है कि जो लोग हाई-रिस्क में आते हैं उन्हें फ्लू-जैसी बीमारी ( नोट करें कि यहां भी स्वाईन-फ्लू नहीं बल्कि फ्लू जैसी बीमारी ही कहा गया है ---क्योंकि टैस्ट नहीं हुआ है) से ग्रस्त परिवार जनों की देखभाल से थोड़ा बच कर रहना चाहिये ---- अकसर यह संभव नहीं होता, ऐसे में वे हाई-रिस्क व्यक्ति जो केयर दे रहे हैं उन्हें फेस-मास्क लगा लेना चाहिये।


और जहां तक चिकित्सा कर्मीयों का संबंध है जो कि फ्लू जैसी बीमारी या स्वाईन-फ्लू जैसी बीमारी से ग्रस्त पब्लिक के इलाज में लगे हुये हैं उन्हें तो N95 जैसा फेस-मास्क पहन कर ही रखना चाहिये और यह सिफारिश उन हैल्थ-कर्मियों के लिये है जिन्हें कोई दूसरी शारीरिक व्याधि नहीं है अर्थात् वे हाई-रिस्क श्रेणी में नहीं आते । जो हैल्थ-कर्मी स्वयं हाई-रिस्क श्रेणी में आते हैं उन के लिये तो बताया गया है कि अगर हो सके तो उन की सेवायें उन्हें उस कार्य-क्षेत्र से थोड़ा हटा कर लेनी चाहिये ---- और वे चिकित्सा के जिस भी कार्य-क्षेत्र में काम करें उन्हें N95 जैसे फेस-मास्क पहने रखना चाहिये।


और जिन लोगों में स्वाईन-फ्लू जैसी बीमारी होने का शक हो या जिन में यह बीमारी कंफर्म है उन्हें तो जहां तक हो सके फेस-मास्क पहन कर ही रखना चाहिये । इस बीमारी से ग्रस्त महिलायें भी स्तन-पान करवाते समय फेस-मास्क अवश्य पहनें।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

स्वाईन-फ्लू ---वैसे आंकड़े तो बस आंकड़े ही हैं !!


मुझे किसी भी बीमारी के आंकड़े बहुत अजीब से लगते हैं ---कितना आसान है किसी अखबार में या टीवी में यह दिखा देना कि इस बीमारी से रोज़ाना दो मौतें हो रही हैं जब कि टीबी से हर मिनट में दो मौतें, दिल की बीमारी से दिन में 6301 मौतें, मधुमेह से 5479 मौतें, धूम्रपान/तंबाकू की वजह से 2740 मौतें, कैंसर से 1507 मौतें हो जाती है-----यह सब कह कर शायद लोगों को समझाने बुझाने की कोशिश की जाती है।


लेकिन मैं कभी भी इन आंकड़ों से प्रभावित कम ही होता हूं ---मुझे लगता है कि जिन दूसरी बीमारियों की वजह से होने वाली हम हज़ारों मौतें गिनाते हैं, उन की बात अलग है, वे बहुत हद तक लोगों की जीवन-शैली से संबंधित हैं, दारू पीने वाला जानता है कि वह अपना लिवर खराब कर रहा है, तंबाकू इस्तेमाल करने वाला भी बहुत कुछ पहले से जानता है ----और दूसरी बात यह कि ये लोग अकसर अचानक ही तो लुप्त नहीं हो जाते---अकसर तिल तिल मरते हैं, है कि नहीं ? इसलिये परिवार वालों को भी अपने मन को समझाने का अच्छा खासा टाइम मिल ही जाता है।


लेकिन आप देखिये कि यह जो नया फ्लू आया है ----बैठे बैठे अचानक किसी के घर का कोई सदस्य –छोटा हो या बड़ा अगर इस की चपेट में आ जाये और कुछ ही दिनों में उस का नंबर आ जाये तो सारे परिवार के लिये कितने सदमे की बात है। शायद इस का अनुभव किसी दूसरे के लिये लगाना मुमकिन नहीं होगा। आंकड़े कुछ भी चीख-चिल्ला रहे हों, लेकिन उस परिवार के लिये तो आंकड़े 100 प्रतिशत हो गये कि नहीं ?


आंकड़ों की बात छिड़ी है तो मैं आज के दा हिंदु में स्वाईन-फ्लू से संबंधित एक ग्राफिक देख कर बड़ा हैरान परेशान हूं--- उस का सोर्स वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाईज़ेशन बताया गया है ---- आप के साथ मैं वहां दी गई सूचना साझी कर रहा हूं --


बीते समय में हो चुके फ्लू पैनडैमिक ( past flu pandemics) ---
सन 1918 – स्पैनिश फ्लू --- 200-400लाख मौतें
सन 1957- ऐशियन फ्लू ---- 10- 40 लाख मौतें
सन 1968- हांग-कांग फ्लू ---- 10—40 लाख मौतें


वैसे यह फ्लू की विभिन्न महांमारियों के दौरान हुई मौतों की गिनती की रेंज मेरी समझ में नहीं आई , 200से 400 लाख मौतें ----इतना जबरदस्त अंदाज़ा। बहरहाल, आप देखिये कि 1918 के 40-50 साल के बाद जो फ्लू की महांमारियां फैलीं उन में हुई मौतों की संख्या पहली महांमारी के मुकाबले लगभग पांच फीसदी ही रहीं।


इस से हमें और भी आशा बंधती है --- क्योंकि 1957 और 1968 का दौर भी वह दौर था जब डॉयग्नोसिस एवं उपचार के क्षेत्र में इतनी उन्नति नहीं हुई थी ---आज तो हम लोग टैस्टिंग की बात कर रहे हैं, वायरस को खत्म कर देने वाली दवाईयां हमारे पास हैं, वायरस से होने वाली बीमारियों के बेसिक फंडे हम समझ चुके हैं, जन-संचार के माध्यमों ने जबरदस्त तरक्की की है, लेकिन इस के साथ ही साथ हम ने अपने पर्यावरण को भी तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जो कि इस तरह के नये नये जीवाणुओं को पैदा करने के लिये एवं पनपने हेतु एक सुनहरा मौका देती है ------अब इन सब का क्या परिणाम होगा, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।


घबराने वाली तो कोई बात है ही नहीं, बस कुछ ज़रूरत बातें समझ लेने के बाद मानने की बात है। जो भी है, महांमारी तो अब बिना फैल ही रही है---- फ्लू की जितनी पुरानी महांमारियां हुई हैं उन में फ्लू फैलने वाली वायरसों को जितना फैलने में छः महीने लगे थे उतना तो यह एच1एन1 वॉयरस छः हफ्तों में ही फैल चुकी है।

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

स्वाइन-फ्लू --- बचने के लिये ज़्यादा लंबे-चौड़े लफड़े में क्या पड़ना !

मैंने एक बार कहीं पढ़ा था कि ज़िंदगी में जो चीज़ें बेहद आवश्यक एवं महत्वपूर्ण होती हैं वे अत्यधिक साधारण होती हैं, और जो चीज़ें इतनी ज़्यादा अहम् होती हैं कि जिन के बिना रहा ही नहीं जा सके, वे तो हमें मुफ्त में ही मिलती हैं---जैसे कि हवा, सूर्य की रोशनी, पानी आदि। तो भी ये सब चीज़ें तो प्रकृत्ति के वरदान ही हैं। लेकिन हमारे लालच ने इन का भी इतना शोषण किया है कि अब ये भी बगावत पर उतारू हो गये हैं।

नतीजा यह है कि स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी एक महमारी के रूप में हमारे सामने है। एक नैचुरल सी बात है कि इस महामारी के बारे में इतनी सारी खबरें आ रही हैं कि किसी भी आदमी का सिर चकरा जाए। कुछ को तो यही लग रहा है कि जो लोग महंगे महंगे टैस्ट करवा लेंगे और हर समय मास्क पहने रखेंगे, वे इस के प्रकोप से बच जायेंगे। लेकिन ऐसी बात नहीं है, यह बीमारी भी अमीर-गरीब में कोई फर्क नहीं रखती । कुछ बातें केवल मन को तसल्ली देने का काम ज़रूर कर लेती हैं।

महांमारी तो अब आ ही गई है, आगे चल कर यह क्या रूप अख्तियार करेगी, इस रहस्य का जवाब तो समय की कोख में छुपा हुआ है। लेकिन इतना मुझे ज़रूर लग रहा है कि इस महांमारी का जो खौफ़ पैदा हो गया है आने वाले समय में वह मार्कीट में कुछ वस्तुओं का बाज़ार ज़रूर गर्म कर देगा।

मैं पढ़ रहा था कि अगर फलां-फलां तरह के साबुन से हाथ धोयें जायें या ऐसे हैंड-रब का इस्तेमाल किया जाये तो इस से बचा जा सकता है। सोच रहा हूं कि क्या लोगों को इस तरह की सलाह दी जाये और अगर सलाह दी भी जाये तो क्या वे इस को मान लेंगे। कहां से मान लेंगे ? ---- उन की दूसरी प्राथमिकतायें भी तो हैं ( मेरी मां का दो दिन पहले रोहतक से फोन आया कि मेरा भाई चार-छः दुकानों पर पता कर आया है, चीनी नहीं मिल रही , इसलिये गुड़ की चाय पी रहे हैं !!)---- जिस देश के करोड़ों लोगों को नहाने के लिये अंग्रेज़ी क्या कपड़े धोने वाला साबुन भी उपलब्ध नहीं है और करोड़ों ऐसे लोग जो हाथ धोने के लिये मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें कैसे आप कह सकते हैं कि अब अगर आपने स्वाईन-फ्लू से बचना है तो फलां फलां साबुन खरीद लो।----करोड़ों लोगों के लिये बस यह एक शायद खोखली सी सलाह ही होगी क्योंकि चाह कर भी वे यह सब खर्च नहीं कर पाते।

जहां तक मेरी समझ है कि साबुन कोई भी हो लेकिन अगर इसी महांमारी के बहाने ही सही हमारा देश खांसना और छींकना सीख जाये तो भी बचाव ही बचाव है। हज़ार में से एक ने अगर मास्क खरीद भी लिया तो भी क्या यह महांमारी रूक जायेगी।

इस महांमारी का हम सब को मिल जुल कर सामना करना होगा ---- यह नहीं कि डा चोपड़ा तो घर में बहुत ही महंगे साबुन इस्तेमाल कर लेगा, अल्होकल युक्त हैंड-रब भी खरीद कर लेकर आयेगा, ज़रूरत पड़ने पर फेस-मास्क भी मिल ही जायेंगे, इसलिये उसे दूसरों के साथ क्या। शायद उसे दूसरों के साथ कोई सरोकार न होता अगर वह अपने किसी प्राइवेट प्लेनेट पर रह रहा होता और उसे हर समय अपने ही घर में रहना होता, लेकिन वास्तविकता यह है कि उसे भी दिन में 10-12 घंटे पब्लिक के बीच ही रहना है, उन के बीच ही रहना है, सांस भी वहीं लेना है, बैंक एवं डाकखाने की लाइन में खड़े भी होना है, ठसाठस भरी बस में भी यात्रा करनी है, उस के बच्चों ने भी स्कूल जाना है, सब के साथ मिक्स होना है------------तो, फिर बात वहां पर आकर खत्म होती है कि यह महांमारी किसी एक बंदे के द्वारा सारी सावधानियां बरत लेने से थमने वाली नहीं।

हमें पब्लिक को सचेत करना होगा कि मास्क नहीं है तो कोई गम नहीं है, ज़रूरत पड़ने पर आप अपने रूमाल को ही मास्क की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं और फिर उसे अच्छी तरह धो सकते हैं। बहुत से स्कूलों के बच्चों की जेब में रूमाल ही नहीं होता, उन्हें यह बताने का यह एक उचित अवसर है कि रूमाल रखने से कैसे आप की अपनी सेहत की ही रक्षा होती है। और खास बात और कि ज़रूरी नहीं सारे बच्चे बाज़ार से ही रूमाल खरीदें, आखिर घर में बने किसी रूमाल में या अगर रूमाल नहीं भी है तो किसी साफ़,सुथरे सूती कपड़ा का स्कूली बच्चों द्वारा रूमाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है तो इस में क्या बुराई है !!

अब तो प्राइवेट अस्पतालों को भी स्वाईन फ्लू टैस्टिंग की एवं इलाज की अनुमति मिल गई है, इसलिये मुझे लगता है कि बहुत से अस्पताल तो इस से संबंधित विज्ञापन भी समाचार-पत्रों में जारी करने की तैयारी में जुटे होंगे। देखते हैं आने वाले समय में स्वाईन-फ्लू की टैस्टिंग के लिये कैसी होड़ लगती है।

और एक बेहद ज़रूरी बात यह भी है कि जहां तक हो सके अपनी इम्यूनिटी को बढ़ाने की चेष्टा करनी चाहिये ---अगर वॉयरस शरीर में चली भी जाये तो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही उसे धर-दबोचे। और इस के लिये सात्विक आहार लेना होगा जो संतुलित भी हो, उपर्युक्त मात्रा में पानी पीना चाहिये और इन सब से बहुत ज़रूरी है कि कम से कम अब तो प्राणायाम् करना शुरू कर लिया जाये।

बस, इतना कुछ ही कर लें। और कर भी क्या सकते हैं। मैं भी घर में मौजूद साधारण साबुन ही इस्तेमाल कर रहा हूं , लेकिन बार बार हाथ धो लेने में कभी भी आलस नहीं करता हूं -------लेकिन इस महांमारी की वजह से अब अपने एवं दूसरों के खांसने-छींकने के बारे में ज़्यादा सचेत रहना होगा ----- इस के अलावा कोई चारा भी तो नहीं होगा। बस, जो कुछ सहज-स्वभाव से बचाव के लिये कर पायें, बिल्कुल ठीक है, बाकी इस प्रभु पर छोड़ दें, जो भी होगा अच्छा ही होगा !!a

स्वाईन फ्लू --- जितना हो सके बच लें।

स्वाईन फ्लू की खबरों से अखबारें भरी पड़ी हैं। आज ही के दा हिंदु के फ्रंट-पेज पर एक तस्वीर दिखी ---मुंबई के एक म्यूनीसिपल स्कूल की एक टीचर आठ-दस साल के बच्चों की क्लास ले रही है---सब बच्चों के साथ ही साथ टीचर जी ने र्भी स्वाईन-फ्लू से बचने के लिये मास्क पहना हुआ है।

यह तस्वीर बहुत अजीब सी लगी। वैसे भी टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें दिखाई जा रही हैं उन में लोग बदहवास से मास्क लगाये हुये दिख रहे हैं। एकदम लगता है कि जैसे कि पैनिक सा फैल गया है।

लेकिन सोचने की बात है कि अंधाधुंध केवल मास्क पहन लेने से या थोड़ी बहुत गला खराब-खांसी, जुकाम, बुखार हो जाने पर और बिना टैस्ट करवाये ही टैमीफ्लू खा लेने से क्या सब ठीक हो जायेगा, यह महामारी रुक जायेगी क्या ?
वैसे तो स्वाईन-फ्लू का टैस्ट जितना महंगा है ( लगभग दस हज़ार रूपये ) उसे अभी तक तो कुछ चिंहित सरकारी संस्थानों में ही किया जाता रहा है लेकिन आज सरकार ने प्राइवेट संस्थानों को इस की टैस्टिंग की व इस के इलाज की अनुमति दे दी है।

इस में कोई शक नहीं कि इस स्वाईन-फ्लू ने एक महांमारी का रूप तो ले ही लिया है। लेकिन बार बार यह भी कहा जा रहा है कि घबराने की कोई बात नहीं ----केवल हमें बेसिक साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना है। छींकने, खांसने का सलीका लोग अभी भी सीख लें तो इस बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है।

मैं कल कहीं पढ़ रहा था कि नाक साफ़ करने के लिये टिश्यू का इस्तेमाल करें और फिर इसे फैंक दें। कितने लोग हैं जो कि देश में नाक साफ़ करने के लिये टिश्यू का प्रयोग करते हैं ---- केवल अच्छी तरह से नाक साफ करन के बाद हाथों को अच्छी तरह से धोने की बात बेहद ज़रूरी है।

जब से यह महांमारी के फैलने की खबरें आने लगी हैं, लगता है कि फेस-मास्क, तरह तरह के ऐंटीसैप्टिक साबुनों आदि की भी लाइनें लग जायेंगी।

वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइज़ेशन ने स्वाईन-फ्लू से बचने के लिये जो दिशा-निर्देश जारी किये हैं उन में से कुछ इस प्रकार हैं --
---भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जितना हो सके कम समय व्यतीत करें।
----घर दफ्तर की खिड़की वगैरा खोल कर रखें।
----अपने नाक और मुंह को छूने के बाद अपने हाथों को साबुन से अच्छी तरह धोएं।
----अगर आप स्वाईन-फ्लू से ग्रस्त किसी मरीज़ की देखभाल कर रहे हैं तो मास्क पहनें।
और कुछ बातें ना करने के लिये भी कहा गया है जैसे कि ---
---जिस व्यक्ति में इंफ्लूऐंजा जैसे लक्षण दिखें उस से कम से कम एक मीटर की दूरी अवश्य बनायें।
---बिना डाक्टरी सलाह के कोई भी वायरस-नाशक दवा जैसे कि टैमीफ्लू आदि लेनी शुरू न कर दें।
---अगर आप बीमार नहीं हैं तो मास्क मत पहनें।
---मास्क के गलत प्रयोग से बीमारी के फैलने में किसी तरह की सहायता मिलने की बजाये इस के और भी फैलने की आशंका बढ़ जाती है।

हां, अगर आप किसी ऐसी जगह पर हैं जहां पर इस बीमारी से ग्रस्त बहुत से लोग एक साथ इलाज आदि करवा रहे हैं तो मास्क पहन लेना चाहिये। अगर मास्क नहीं भी है तो इस काम के लिये एक बड़ा-सा रूमाल इस्तेमाल करने में क्या बुराई है।

सोच रहा हूं जो तस्वीर मैंने आज देखी उस में जो मास्क बच्चों ने लगा रखे थे वे उन्हें स्कूल द्वारा सप्लाई किये गये होंगे या उन्होंने उस के पैसे अपनी जेब से भरे होंगे, लेकिन एक बार मास्क लगा लेने में किसी चीज़ का हल भी तो नहीं है।

शनिवार, 25 जुलाई 2009

यहां पढ़े हैं आरटीआई के अनगिनत सवाल ...

मैं अकसर सोचा करता हूं कि ये आर टी आई में पूछने लायक सवाल मिलते कहां हैं ----मुझे लगता है ये इन जगहों पर मिलते हैं।

मैं पिछले वर्षों में बहुत सारी अखबारें पढ़ने के बाद कुछ अरसे से केवल तीन अखबारें पढ़ता हूं। मेरे दिन की शुरूआत सुबह सुबह तीन अखबारें पढ़ने से होती है -- अमर उजाला, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदु। मुझे बहुत सारी अखबारें छानने के बाद यह लगने लगा है कि अगर हम इन को ध्यान से देखें तो इन के हर पन्ने पर कोई न कोई सूचना के अधिकार का सवाल बिखरा पड़ा होता है।

वह बात भी कितनी सही है कि एक पत्रकार किसी बेबस, गूंगे इंसान की जुबान है। कितनी ही बातें हैं जिन से हम केवल अखबार के द्वारा ही रू-ब-रू होते हैं। अब एक पत्रकार ने तो इतनी मेहनत कर के किसी मुद्दे को पब्लिक के सामने रख दिया। लेकिन अगर गहराई में जायें तो बस इन्हीं न्यूज़-रिपोर्टज़ से ही कईं आरटीआई के सवाल तैयार हो सकते हैं।
आरटीआई के बहुत से सवालों का खजाना वह इंसान भी होता है जिन ने कभी सूचना के अधिकार में कुछ पूछने की ज़ुर्रत तो कर ली लेकिन जाने अनजाने उस ने किसी की दुखती रग पर हाथ रख दिया जिस की वजह से उसे किसी बहाने से ....।

ज़िंदगी के करीब के बहुत से सवाल किसी भी आम आदमी के पसीने के साथ रोज़ बहते रहते हैं। यह आम आदमी की ज़िंदगी तो आरटीआई में पूछने लायक सवालों का खजाना है। जिस किसी भी जगह पर कोई भी लाचार, बेबस, कमज़ोर, शोषित, सताया हुआ, पीड़ित, किसी षड़यंत्र का शिकार इंसान खड़ा है उस के पास आप को बीसियों आरटीआई के सवाल बिखरे पड़े मिलेंगे। लेकिन उस का बेबसी है कि अभी तक उसे अपनी कलम की ताकत पर विश्वास नहीं है या यूं कह लें कि अभी उस ने अपनी कलम उठाई नहीं है। या फिर यह भी हो सकता है कि उसे लगता हो कि वह आरटीआई में दिये जानी वाली दस रूपये की फीस से वह कुछ और भी अहम् काम कर सकता है।

जो भी हो, जब कभी मैं कभी कभी यहां-वहां किसी के मुंह से यह सुनता हूं कि यह आरटीआई सिरदर्दी बन चुका है तो मैं यह समझ जाता हूं कि इस का मतलब है कि सूचना के अधिकार अधिनियम का काम बिलकुल ठीक ठाक चल रहा है। जहां तक लोगों के द्वारा ढंग से सवाल पूछने जाने पर कुछ लोगों को कभी कभी आपत्ति रहती है तो इस में मुझे तो कुछ खराब लगता नहीं -----सीख जायेंगे, सीख जायेंगे, दोस्त, उन्हें हम लोग अपना दिल खोल तो लेने दें। ढंग वंग का क्या है, किसी भी सवाल की आत्मा का ही तो महत्व है।

आरटीआई में अवार्ड्स की घोषणा कुछ दिनों से दिख रही है ---- मेरे लिये उस का पात्र आने वाले समय में कौन होगा पता है ? --- वह मज़दूर जो सुबह मज़दूरी करता है और रात में प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रम के तहत पढ़ना सीख रहा है। और जैसे ही सीख लेता है वह रात में कैरोसीन के दीये की धुंधली लौ में अपने बच्चे की कलम से एक काग़ज पर आरटीआई का एक सवाल लिख रहा है जो कि उस की बाजू पर आये पसीने की वजह से गीला है और ऊपर से उस के माथे से पसूने की बूंदे उस गीले कागज़ पर टपक रही हैं --- जिसे उस का बेटा किसी चाक के टुकड़े से लगातार पौंछे जा रहा है ताकि उस के बापू का यह सवाल कहीं गीलेपन की वजह से खराब ही न हो जाये ------उस के गांव में स्कूल में मास्टर पिछले चार महीनों से नहीं है, इस का क्या कारण है और उस के गांव के दवाखाने में कोई डाक्टर पिछले छः महीनों से तैनात क्यों नहीं है। जब इस तरह के लोगों द्वारा सवाल पूछे जाने लगेंगे तो मैं समझूंगा कि हां, भई, अब हलचल शुरू हुई है।
पता नहीं मुझे तो हर तरफ़ आरटीआई के सवाल ही पड़े दिखते हैं ----- आप जिस सड़क पर जा रहे हैं उस की खस्ता हालत जिन खड्डों की वजह से है, उन में बहुत से आरटीआई के सवाल छुपे पड़े हैं, लोगों ने अपने घरों के बाहर कईं कईं फुट की जो एनक्रोचमैंट कर रखी होती है, वह भी एक सवाल है ................हर तरफ सवाल ही सवाल हैं, केवल इन्हें देखने वाली आंख चाहिये।

और कितना समय ये मुट्ठियां-वुठ्ठियां बंद रहेंगी, ये तो भई खुलनी ही चाहियें ....

शनिवार, 18 जुलाई 2009

शॉपिंग माल में चोरी करते ये बच्चे

अभी अभी बाज़ार से लौट कर आया हूं --मूड बहुत खराब है। एक शॉपिंग माल के अंदर दाखिल होते ही देखा कि छः-सात साल के दो बच्चों ने एक दूसरे के कान पकड़े हुये थे और उस शॉपिंग माल के तीन-चार कर्मचारी उन को घेरे खड़े थे। शुरू शुरु में तो लगा कि शायद कोई हंसी मज़ाक चल रहा है, लेकिन जब बच्चों की रोने की आवाज़ सुनी तो मैंने अपनी पत्नी को कहा कि मैं देखता हूं।
मैंने जाते ही कहा --- बस करो भई, बहुत हो गया। तब उस माल का एक कर्मचारी कहने लगा कि इस तरह के बच्चे रोज़ चोरी करते हैं। इन दोनों ने अपनी जेबों में चाकलेटें ठूंस रखी थीं और हम ने कैमरे की मदद से इन का यह काम पकड़ लिया, इसलिये इन्हें यह सज़ा दे रहे हैं। वह कर्मचारी कहने लगा कि इसी तरह की चोरियों की वजह से हमारे सारे कर्मचारियों को हर महीने अपनी तनख्वाह से एक हज़ार रूपये कटवाने पड़ते हैं।
मैंने उन्हें कहा कि चलो, छोड़ो अब इन को --- छोटे हैं। मैंने सुरक्षा वाले को कहा कि इन के लिये कुछ पैसे वैसे भरने हैं तो मैं तैयार हूं। उसने कहा कि नहीं, सामान तो हम ने वापिस करवा लिया है, इन्हें अब छोड़ भी देंगे। फिर मेरी पत्नी ने भी उन से बात करी ---- उन में से एक लड़के ने बताया की बाहर एक लड़का खड़ा था जिस के कहने पर हम यह काम कर रहे थे।
मेरा मूड इतना खराब हुया कि मैं बता नहीं सकता --- मैं एक डिओडोरैंट की शीशी शापिंग-बास्कट में डालते हुये यही सोच रहा था कि मेरी डिओडोरैंट से कहीं ज़्यादा ज़रूरत बच्चों को चाकलेट की होती है। वैसे हो भी क्यों नहीं, जब मैं इस उम्र में चाकलेट के लिये मचल जाता हूं तो फिर बच्चों की तो बिसात ही क्या है !
मैं पिछले एक घंटे से यही सोच रहा हूं कि आखिर कसूरवार कौन ? --शॉपिंग माल में जो दो छोटे छोटे बच्चे ये काम कर रहे थे इस के लिये असली कसूरवार कौन है ? मैं तो इस का जवाब ढूंढ पाने में असमर्थ हूं --- मुझे लगता है कि मेरा दिल मेरे दिमाग से हमेशा ज़्यादा काम करता है।
जिस रोड़ से वापिस हम लोग घर लौट रहे थे उस की हालत देख कर यही सोच रहा था कि इस के जितने खड्ढे हैं ये भी चीख चीख कर किसी न किसी की इमानदारी के किस्से ब्यां कर रहे हैं, जो लोग एटीएम में नकली नोट डालते हैं उन्हें आप क्या कहेंगे, स्मार्ट या कुछ और----------- मैं देख रहा था कि उन दो मासूम बच्चों को पकड़ कर उस माल का सारा स्टाफ आपस में और दूसरे ग्राहकों को यह किस्सा इस तरह से सुना रहे थे जैसे कि उन्होंने 26नवंबर के बंबई के उग्रवादी हमले के दोषियों को पकड़ लिया हो।
पता नहीं मुझे यह सब देख कर बहुत ही ज़्यादा दुःख हुया। लेकिन फिर भी मैंने बाहर आते आते घर में सो रहे अपने बच्चों के लिये दो चाकलेट उस शापिंग बास्केट में डाल दीं।
चलो, मेरी पसंद का यह गाना सुनते हैं -----

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

जब एटीएम ही नकली नोट उगलने लगे तो ....

अकसर मीडिया के माध्यम से देखता सुनता रहता हूं कि फलां फलां एटीएम मशीन से नकली नोट निकले। मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही ज़्यादा गंभीर मुद्दा है जिस के बारे में कोई न कोई पालिसी ज़रूर होनी ही चाहिये।
वैसे तो शायद इस के बारे में पहले ही से कोई पालिसी मौजूद हो ---शायद मुझे इस का ज्ञान न हो, वैसे पब्लिक को भी लगता है कि इस का कुछ पता-वता है नहीं।

समस्या यही है कि जिस भी आम बंदे के साथ ऐसा हादसा होता है उस की हालत तो देखते बनती है। यह चपत तो उसे लगी सो लगी, साथ में उसे यह डर सताता है कि पता नहीं अब बैंक वाले कितने तरह के सवाल पूछेंगे। मैंने एक बार रोहतक में एक ऐसे ही किसी गुमनाम आम आदमी को एक बैंक आफीसर को अपनी व्यथा सुनाते हुये सुना था।

मैंने नोटिस किया कि वह बंदा उस आफीसर से इस अंदाज़ में बात कर रहा था जैसे कि वह उस की चापलूसी कर रहा है, बिना वजह इतने दास-भाव से बात कर रहा था जैसे कि एटीएम से अगर उस के रूपयों में एक नकली पांच सौ रूपये का नोट आ गया है तो उस से कोई जुर्म हो गया है। शायद अगर मेरे साथ भी अगर इस तरह की वारदात हो तो मैं भी शायद उतनी ही विनम्रता से या उस से भी शायद ज़्यादा नर्मी से बात करूंगा।

दरअसल ऐसे मौकों पर एक आम ग्राहक की यह मानसिकता होती है कि बस कैसे भी हो मेरे यह नकली नोट जो एटीएम से निकला है --बस किसी तरह से यह एक्सचेंज हो जाये। और दूसरी बात यह होती है कि उसे कहीं न कहीं यह डर भी सताता होगा कि पता नहीं कितने सवाल उस से पूछे जायें। यह तो हम सब जानते ही हैं कि कईं बार ऐसे मौकों पर लेने के देने भी पड़ सकते हैं ----अब ग्राहक कैसे यकीन दिलाये कि यह वाला नकली नोट बैंक की एटीएम मशीन से ही निकला है।

वैसे यह बहुत कंपलैक्स ईश्यू है ना ---- वैसे देखा जाये तो एक सीधे-सादे ग्राहक का इस में क्या कसूर। मेरा विचार है कि अगर कभी ऐसा हो भी जाता है तो भी यह बैंक के उस कर्मचारी या अधिकारी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होनी चाहिये जो उस मशीन में नोट डालने के लिये जिम्मेदार होता है। जब तक इस तरह का कोई नियम नहीं होता, तब तक यह सब कुछ यूं ही ढीला-ढाला चलता रहेगा। लेकिन वही बात है ना कि अब ग्राहक कैसे यह विश्वास दिलाये कि यह नोट उस मशीन से ही निकला है। और दूसरी बात यह भी है ना बैंक के इंटरैस्ट का भी पूरा ध्यान रखा जाना चाहिये ताकि कोई भी बंदा इस तरह के नियम का गलत इस्तेमाल करते हुये अपने किसी नकली नोट को बैंक में जा कर एटीएम का बहाना बना कर एक्सचेंज न करवा पाये। शायद इस संबंध में पहले ही से कोई कानून हो, अगर इस तरह का कोई नियम है तो उसे एटीएम कक्ष में हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषा में लोगों की सूचना के लिये लिखा होना चाहिेये --- एटीएम कक्ष में ही क्यों, उस एटीएम की पर्ची पर भी यह लिखा होना चाहिये।

क्या आप को लगता है कि एटीएम में जो नोट भरे जाते हैं उन के नंबर किसी कर्मचारी द्वारा नोट किये जाते होंगे। भई जो भी आम बंदे के साथ किसी किस्म का धक्का नहीं होना चाहिये ---पांच सौ रूपये कम तो नहीं होते।
वैसे मैं इस संबंध में सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत एक आवेदन भेज कर इस संबंध में सटीक जानकारी पाने का विचार कर रहा हूं।

शनिवार, 27 जून 2009

स्लम-ड़ॉग मिलिनेयर के सवाल

स्लम-डॉग मिलिनेयर ने अब तक शायद सब लोगों ने देख ही ली होगी --फिल्म में वे प्रश्न चर्चा में रहे जिन का जवाब स्लम-डॉग मिलिनेयर का एक अभिनेता अपने जीवन की वास्तविक परिस्थितियों ( real-life situations) से ढूंढ लेता है।

मेरे को ध्यान आ रहा है कि हम सब के साथ भी ज़िंदगी की कुछ ऐसी पुरानी यादें जुड़ी होती हैं जो किसी भी स्थिति में हमारी निर्णय लेने की, हमारी प्रतिक्रिया को बहुत ज़्यादा प्रभावित करती हैं। हम कितना भी बैलेंस्ड होने का ढोंग कर लें, लेकिन अकसर कुछ पुरानी यादें, कुछ पुरानी घटनायें, किसी का यूं ही कुछ कह दिया जाना, किसी से बातचीत करते हुये उस के हाव-भाव ------दरअसल बात यह है कि ये सब यादें हम लोग किसी से भी साझी भी नहीं करते हैं लेकिन सारी उम्र वे हमारे निर्णयों को बहुत प्रभावित करती रहती हैं। शायद इसीलिये कहते होंगे कि अच्छे लोगों की संगति में उठना बैठना चाहिये --क्योंकि सत्संगी लोग केवल प्रेरणात्मक बातें ही करेंगे ( कम से कम सत्संग के दौरान !!)

अब इन यादों का जो प्रभाव है वह अच्छे के लिये होता है या बुरे के लिये , इस के ऊपर सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी कर पाना बहुत कठिन है। जब भी कोई सिचुऐशन को फेस करते हैं तो उसी समय गूगल-ईमेजज़ की तरह हमारे दिलो-दिमाग में स्टोरड कुछ पुरानी यादों की तस्वीरों हमारे सामने आ जाती हैं और हम उस तसवीर के प्रभाव में ही कभी कभी कोई निर्णय ले लेते हैं।

और हमारे जीवन को कंट्रोल करने वाली इन चंद यादों का स्पैक्ट्रम इतना लंबा-चौड़ा है कि क्या कहें ----यह किसी दशकों पुरानी फिल्म का कोई सीन या डॉयलाग भी हो सकता है जो हम ने दूसरी कक्षा में देखी थी या यह आप के किसी अपने को किसी दूसरे ने जो शब्द कहे वह भी हो सकते हैं। और मज़े की बात यह है कि इस सारी कायनात में किसी दूसरे इंसान को रती भर भी यह अंदेशा नहीं होता कि हमारे फैसलों का रिमोट किन यादों के द्वारा कंट्रोल किया जा रहा है।
दिल दरिया समुंदरों डूंघे,
कौन दिलां दीयां जाने , कौना दिलां दीयां जाने !!

यह हम सब के साथ होता है ---- कोई मानता है , कोई नहीं मानता है। इस गाने में पता नहीं यह क्यों गया है ---बातें भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं। क्या सचमुच बातें भूल जाती हैं ?

रविवार, 21 जून 2009

आज की बात - 21 जून 2009

सपने --- सपने वो नहीं जो हम लोग सोते में देखते हैं, सपना तो दरअसल वह है जो हमारी नींद ही चुरा ले।
Dream is not what you see in sleep but it is what which does not let you sleep.

दैनिक निर्णय
हर दिन हम सब लोगों को एक ना एक फैसला करना होता है ---- यह फैसला हमारे खुद के लिये ही होता है कि क्या हम कुछ देना चाह रहे हैं या लेना चाह रहे हैं, क्या किसी से प्रेम करना है या प्रेम को सिरे से नकार देना है, क्या शांति-दूत बनना है या बिना वजह के झगड़ों में पड़ना है, और यही हर दिन लिया गया एक निर्णय होता है जो कि हमारी सारी अगली ज़िंदगी की रूप-रेखा तय करता है।
The Daily Decision
Each day there's a decision
That each of us has to make,
For each us us needs to decide for ourselves,
Whether to give or to take,
Whether to love or reject love,
Whether to bring Peace or strife,
And that is the Daily Decision,
that reflects the whole rest of our life.

एक बात जो मुझे The Hindu में एक filler के रूप में नज़र आई थी और जो मेरी स्क्रैप-बुक में चिपकी हुई है, वह यह है ---- काश मैं इस का मतलब समझ पाऊ!
हम तैराकी कैसे सीखते हैं ? हम गल्तियां करनी शुरू करते हैं, हम गल्तियां करने से सीखने की शुरूआत करते हैं, हम यही कुछ करते हैं ना ? और इस का नतीजा क्या निकलता है ? फिर हम लोग दूसरी गल्तियां करने लगते हैं, और यह सिलसिला तब तलक जारी रहता है जब तक हम लोग वे सारी गल्तियां कर डालते हैं जितनी कि बिना पानी में डूबे हुये कर पाना संभव है। और मज़े की बात तो यह कि कुछ गल्तियों को तो हम बार-बार दोहराते हैं। और देखिये इस का क्या नतीजा निकलता है ? अचानक हम तैराकी सीख कर उस का मज़ा लूटने लगते हैं।
ज़िंदगी भी तैराकी सीखने जैसी ही है। गल्तियों करने से हमें ज़रा भी डरने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि जीने की कला सीख पाने के लिये इस के अलावा कोई रास्ती ही नहीं है।
What do you first do when you learn to swim? You make mistakes, do you not? And what happens? You make other mistakes, and when you have made all the mistakes you possible can without drowning- and some of them many times over - what do you find? That you can swim ? Well -- life is just the same as learning to swim ! Do not be afraid of making mistakes, for there is no other way of learning how ot live !
---Alfred Adler.

ओह यार, मैं भी यह किस प्रवचनबाजी में पढ़ गया सुबह सुबह ---यह धंधा तो केबल टीवी पर ताबड़तोड़ पहले ही से चल रहा है। मेरा तो मन हो रहा है इस समय मैं यू-ट्यूब पर जा कर अपना एक बहुत ही ज़्यादा पसंदीदा गाना सुनूं और इस ऐतवार की एक बहुत बढ़िया शुरूआत करूं ....
पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे,
इश्क ते मुश्क छुपाये नहीं छुपदे,
फिर भी यह राज़ जान जाती है दुनिया,
होठों पे लगा ले चाहे ताले कोई चुप दे,
हो ---बूटा पत्थरां ते उगदा प्यार दा !!


वाह भई वाह, क्या गीत है, क्या लिरिक्स हैं, क्या पिक्चराईज़ेशन है, क्या संगीत है, मुझे तो मज़ा आ गया ---इसे मैं अनगिनत बार सुन चुका हूं।

बुधवार, 17 जून 2009

अहसास

इस समय मेरे पास मेरी स्क्रैप-बुक पड़ी है ---बहुत बड़ी है, पिछले पांच साल से इस में मन की बातें लिख कर हल्का हो लेता हूं। इस में बहुत सी बातें हैं जिन्हें मैं जीते-जी तो शेयर करने से रहा, लेकिन कुछ बातें हैं जो मुझे बहुत बढ़िया लगती हैं, और जिन्हें कभी कभी ज़रूर देखता हूं। मुझे खुद पता नहीं इस में मैंने क्या क्या लिख छोड़ा है, किसी अखबार में कुछ बढ़िया लगा वह लिख लिया, किसी भी जगह से कुछ भी ऐसा दिखे जो कुछ सोचने पर मजबूर करे, सब कुछ इस में डाल रखा है।
आज एक काम करता हूं--सब से पहले उस स्क्रैप-बुक के पहले पन्ने पर लिखी एक बात यहां लिखता हूं। दरअसल आप सब लोग साहित्यकार हो, आप साहित्यकारों के नामों से भली-भांति परिचित हैं, लेकिन क्षमा कीजिये मुझे इस का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है।

प्रायोजित लेखन के बारे में कुछ कहता हूं --- लेखक किसी के कहने पर कुछ लिखे इसे मैं द्वितीय श्रेणी का लेखन मानता हूं। वह अपने मन से जो कुछ लिखता है, जिसे लिखे बिना नहीं रह पाता, जिसे लिखकर वह कुछ राहत और छुटकारा अनुभव करता है वही वास्तव में प्रथम कोटि का लेखन, ईमानदार लेखन होता है। अब यह ईमानदार लेखन कैसा, किसी श्रेणी का है,यह लेखक की क्षमता पर निर्भर करता है।
श्यामसुंदर घोष, व्यंग्य विमर्श ....संवेद (वाराणसी) vol1 No.2.


इन बंद कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है,
खिड़कियां खोलता हूं तो ज़हरीली हवा आती है।


लौट कर क्यूं नहीं आते, कहां जाते हैं,
रोक कर वक्त के लम्हों को ये पूछा जाए।

विवाह के लिये एक विज्ञापन जो एक अखबार में दिखा ---
Wanted Engineer Bride for well placed software engineer 32/180 from decent religious vaishvanate family.
यह विज्ञापन देख कर ऐसा लगा था जैसे कि एक डिग्री की दूसरी डिग्री से शादी हो रही है।

क्रेडिट कार्ड को एटीएम में इस्तेमाल कर मैं कैसे बन गया पप्पू !!

चुनाव में जा कर भाग लेने या ना लेने पर लोग बन गये पप्पू, लेकिन यह पढ़ा लिखा नाचीज़ बंदा तो क्रेडिट कार्ड को एटीएम पर इस्तेमाल करने की हिमाकत कर के कैसे बन गया पप्पू---आज अपने चिट्ठाकार बंधुओं से यह साझा करना चाह रहा हूं। इस का उद्देश्य केवल इतना है कि मेरे जैसी दूसरी भी शायद कईं आत्मायें इस हिंदी चिट्ठाकारों के झुंड में न छुपी बैठी हों और उन्हें पप्पू बनने से रोकने के लिये यह सब कुछ बेझिझक होकर लिखने की हिमाकत कर रहा हूं।
इस से पहले की मैं यह आपबीती लिखनी शुरू करूं अंग्रेज़ी की एक मशहूर कहावत का ध्यान आ रहा है ---- Experience is a great teacher ---- it does not give lessons, it gives TUITION !!

हुआ यूं कि कुछ अरसा पहले किसी लेखकों की बैठक में दिल्ली जाना था --- ( एक तो कमबख्त यह शौक बार बार जा कर लेखकों में जा कर घुसने का पता नहीं पिछले दस सालों से क्यों पाल रखा है और इस पर इतना पैसा खराब कर चुका हूं कि कभी इस से संबंधित अपने अनुभव आप को बताने लग गया ना तो इन में छिपा दर्द महसूस कर के आप का तो रूमाल भीग जायेगा ----यह मेरा विश्वास है)।

हां, तो उस लेखकों की वर्कशाप में जाने के लिये उन्होंने फीस ऑन-लाइन मांगी थी -- इसलिये बेटे ( जो कि कंप्यूटर इंजीनियरिंग तो कर रहा है, लेकिन अपने संसार में ज़्यादा खोया रहता है ---- और उस के बारे में वह लाइन याद आ रहा है ---कि वक्त आने पे बता देंगे कि क्या हमारे दिल में है !! ) के साथ बैठ कर एक रात को बहुत माथा-पच्ची करी कि पे-पाल का एकाउंट बन जाये--- लेकिन उस साइट पर खूब धक्के खाने के बाद यही पता चला कि बिना कोई सा भी क्रैडिट कार्ड लिये बिना यह संभव नहीं है।

चूंकि मैं बैंक का एक डैबिट कार्ड कुछ दिन पहले ही गुम कर चुका था , इसलिये नया अप्लाई करना ही था, सोचा कि लगे हाथ क्रैडिट कार्ड के लिये भी आवेदन कर ही दूं। उस बैंक के क्रेडिट कार्ड के लिये इतनी सारी फारमैलिटीज़ थीं कि रह रह कर ध्यान आ रहा था कि छोड़ यार क्या फायदा इस पंगे में पड़ने का। शायद उस पता वैरीफाई करने वाले को मेरी बातचीत इतनी इम्प्रैसिव न लगी कि वह मेरी सैलरी के बारे में मेरे से बार बार पूछ रहा था और पक्का प्रूफ़ भी चाहिये था। इसलिये पहले यह सब कुछ उसी बैंक से कोई फोन से भी पूछ चुका था ---इसलिये मैं इरीटेट तो हुआ ही हुआ था, मैंने उस बंदे से इतना भी कहा कि यार, मुझे नहीं चाहिये, कोई क्रैडिट कार्ड, प्लीज़ मेरे आवेदन को कैंसिल कर दें।

खैर, लोगों के घर घर जा कर बेचने वाले ये लोग कैसे यह बात मान लें ? फ्रैंकली स्पीकिंग उस समय तो मैं इन के प्रश्नों की बौछार से इतना चिढ़ चुका था कि अगर वह मुझे मेरा फार्म वापिस लौटा देता तो मैं इस चक्कर में पड़ता ही ना।

अच्छा, तो पहले उस लेखकों वाली बैठक की भी एक क्लास ले लें ---हां, तो उन दुकानदारों की यह शर्त थी कि आनलाईन अगर वर्कशाप की फीस अदा कर देते हैं तो ठीक है, वरना ऑन-दा-स्पाट पेमेंट डबल ली जायेगी। तो, साहब, मैं भी पहुंच गया उस वर्कशाप में शिरकत करने के लिये --- यही सोच कर कि लिखने का क्या है, यूं ही लिख दिया होगा डराने के लिये --लेकिन मैं वहां पहुंच कर बहुत चौंका कि उन्होंने मेरे से डबल-रेट ही चार्ज किया। इन वर्कशापों में जाकर यही सीखा है कि यह भी दूसरी दुकानों की तरह दुकानदारियां सी ही हो गई हैं। इसलिये इन पर जा जा कर इतना ऊब चुका हूं कि अब इन से तौबा कर ली है।

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि अपने अनुभव लोगों के साथ साझे नहीं करूंगा ----वह तो ज़रूर करता ही रहूंगा और भविष्य में ( मुझे खुद भी पता नहीं कब !!) यह सब अंधाधुंध बेबाकी से करने की इतनी चाह ज़्यादा चाह रखता हूं जितना मेरा छोटा बेटा बीस रूपये के कुरकुरे के पैकेट की चाह रखता है। ( जितने चटकारे ले कर वह उस के एक एक पीस को खाता है और दाल-रोटी-सब्जी खाते हुये उस के माथे के बल ऐसे लगते हैं जैसे कि ये लाइनें स्थायी ही हैं, मुझे खूब पता है कि आने वाले समय में उस के इन चेहरे की सिलवटों की वजह से क्या परेशानी होने वाली है, लेकिन अपने को तो बस छोटा सा सुकून है कि मैंने उसे किसी भी तरह का जंक-फूड बहुत ही कम बार खरीद कर दिया है---- शायद छःमहीने या एक साल में एक-आधा पैकेट लेकर दे भी दिया तो इस की क्या बात है !!

अच्छा, तो बच्चे के तरह तरह के पैकेट खाने के शौक से ध्यान आया कि इस क्रेडिट कार्ड को एटीएम पर इस्तेमाल मैंने कैसे किया । मैं बेटे के साथ जा रहा था ---क्रेडिट कार्ड आ गया, बाद में उस का पासवर्ड भी आ गया ( जिस जद्दोज़हद से वह आया, वह एक अलग स्टोरी है) ---यह सब दो एक महीने पहले की ही बात है। मैंने कभी इस को इस्तेमाल तो पहले किया नहीं था।

हां, तो बच्चों की तरफ़ से तरह तरह के पंप इस्तेमाल करने शुरू किये गये कि पापा, चलो आज उस फलां फलां रेस्टतां में चलते हैं, वे क्रैडिट कार्ड से पेमैंट लेते हैं। लेकिन उन का यह सुझाव घर में सभी को मंजूर न था क्योंकि आज तक मुझे नहीं याद कि कभी भी हम लोग किसी रेस्टरां में गये हों और फिर आग बबूला हो कर बाहर यह कहते ना बाहर निकले हों कि आगे से स्नैक्स ही ठीक हैं, ऐसा इसलिये है कि ऊपर वाले के आशीर्वाद से हमारे घर का खाना( बिल्कुल आप के घर के खाने की ही तरह !!) विश्व में सर्वोत्तम है ( थोड़ा सा झूठ बोलने के लिये क्षमा-प्रार्थी हूं ---मैं अपने जबरदस्त पसंदीदा ---अमृतसर के केसर के ढाबे को कैसे भूल गया !!) ---बाहर के खाने में तो मुझे वह सब से बढ़िया लगता था, लगता है और शायद लगता रहेगा। वरना, दूसरे जितने भी रेस्टरां वगैरा में जा कर खाया है तो आधे परिवार के सदस्यों की तबीयत तो घर आने तक खराब हो जाती है और आधे लोगों के मिजाज सुबह खराब हुये मिलते हैं कि तौबा, इतनी मिर्ची !!!!!!

हां, तो सोचा कि इस क्रैडिट कार्ड को किसी अन्य जगह पर इस्तेमाल करने से पहले इसे किसी बैंक के एटीएम पर इस्तेमाल कर के देख लूं कि यह चलता भी है कि नहीं। छोटे बेटे के साथ जा रहा था कि उस ने इशारा किया कि पापा, इधर चैक कर लो, ऐसी जगहों पर मेरे साथ उस के घुसने की फीस है ---एक सौ रूपया। वाह, मेरा क्रैडिट कार्ड तो चल रहा है, उस दिन यह जानने की खुशी इतनी थी कि बेटे द्वारा एक सो रूपये की चपत का लगना भी ज़रा महसून न हुआ।

लेकिन, अपनी बुद्दि भी तो वही है ना खोजी पत्रकार वाली। इतने हफ्तों से यह सोचे जा रहा था कि यह बात समझ में आ नहीं रही कि क्रैडिट कार्ड से भी एटीएम से पैसे निकलवा लो और डैबिट कार्ड से भी । इतने हफ्ते तक मन में यही सोचे जा रहा था कि जब यह काम क्रैडिट कार्ड के इस्तेमाल से ही संभव है तो क्या लिया मैंने नया डैबिट कार्ड। लेकिन मुझे इस का जवाब मिलने का समय नहीं था और ऊपर वाले का शुक्र है कि मैंने इन पिछले हफ्तों में दोबारा इस का इस्तेमाल एटीएम पर नहीं कर दिया।

इस का जवाब मुझे मिला परसों, लेकिन मैं इसे समझ नहीं पाया ---- चूंकि एसएमएस था कि आप के ई-मेल पर आप की क्रेडिट कार्ड स्टेटमैंट भेज दी गई है, आप भुगतान कर सकते हैं। तो मैंने रात को जब ई-मेल खोली तो लिखा था कि आप ने चार सौ उन्चालीस रूपये और तेरह पैसे भरने हैं -----यह सब समझ में नहीं आ रहा था कि यह कमबख्त तीन सौ रूपये और चालीस रूपये के तरह तरह के टैक्स किस लिये जोड़ दिये हैं। बेटा कहने लगा कि टाटा-स्काई की री-चार्ज किया था ना ---फिर ध्यान आया कि वह तो नैट-बैंकिंग के ज़रिये किया था, फिर यह तीस सौ चालीस रूपये का फटका क्यों ? लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था ।

बहरहाल, ध्यान आया कि बैंक वालों ने क्रेडिट कार्ड के साथ कुछ पैंफलेट भेजे थे --जब उन को पढ़ना शुरू किया तो अच्छी तरह से समझ आ गया कि क्रैडिट कार्ड को इस्तेमाल करते हुये रकम चाहे जितनी भी निकालें,यह तीन सौ रूपये की करारी चपत तो सहनी ही पड़ेगी। इस एटीएम विद्ड्रायल नहीं कहते, इस के लिये और भी पालिश्ड टर्म है ---कैश एडवांस। और जब यह बंदा क्रैडिट कार्ड के साथ भेजी उन शर्तों को पढ़ रहा था तो उन में एक शर्त यह भी थी ---

Cash Advance Feees ---
The cardmember can use the card to access cash in an emergency from ATMS in India or abroad. A transaction fee of 2.5%( Minimun Rs.300)would be levied on the amount withdrawn and would be billed to the cardmember in the next statement.

तो फिर कल रात को सोने से पहले ये 439 रूपये 13 पैसे नेटबैंकिग को इस्तेमाल कर के उन को लौटा कर ----मेरे द्वारा निकलवाये गये 100 रूपये पर चार-सौ गुणा दंड देने के बाद ( जब तक इस को पंजाबी में नहीं लिखूंगा, ठंड नहीं पैनी ----उन्नां दे पैसे उन्नां दे मत्थे मार के मैं मुंडे नूं जफ्फी पा के सोन दी कीती !!) ----थोड़ा डिप्रैस सा हो कर सो गया लेकिन प्यारे से बेटे की प्यार की झप्पी ने इस गम को कहां छू-मंतर कर दिया , पता ही नहीं चला। बिल्कुल थोड़ा सा डिप्रैस इसलिये हुआ कि मैं तो गलत तरीके से कोई भी पैसा अपने पास आने ही नहीं होने नहीं देता लेकिन फिर अपने को क्यों ऐसे इतने महंगे महंगे फटके लगते हैं। फिर ध्यान आया कि शायद कुछ सबक सिखाने के लिये। और सोते सोते बच्चों को भी इस के बारे में भी बता दिया ताकि वे भी भविष्य में कभी पप्पू न बनें।

सोच रहा हूं यह हुआ क्यों ? --इस का कारण है ओव्हर-कान्फीडैंस( थोडा़ थोड़ा ध्यान आया कि क्यों बसअड़्डे पर खड़ी एक बूढ़ी मां (जिसे मेरे जैसा पढ़ा लिखा तबका अनपढ़ कहने की हिमाकत करता है) बार बार मेरे जैसे कईं सो-काल्ड पढ़े-लिखों से यह पूछ कर ही बस में चढ़ती है कि यह बस क्या बराड़े जायेगी) --- क्योंकि पहले ये पैम्फलैट जो बैंक वाले भेजते हैं इन्हें हम लोग कहां ढंग से देखते हैं, हमें तो यह कुछ पता ही है और शायद यह भी एक भावना रहती है कि यार, जो कुछ भी इन्होंने काटना है ना, वह तो काट ही लेंगे चाहे हम ये निर्देश पड़े या नहीं। दरअसल बहुत बार होते भी ये इतने पेचीदा हैं कि इन्हें पढ़ कर सिरदर्दी मोल लेने की इच्छा ही नहीं होती। और दूसरी बात यह है कि हम कुछ ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही पढ़े लिखे लोग किसी से ऐसी कोई भी बात करने में या अपने साथियों के साथ ही यह सब डिस्कस करने में पता नहीं क्यों अपनी कमज़ोरी समझते हैं --और ठोकरे ठोकरें खा कर सीखने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही है।

हां, तो विभिन्न कारणों की वजह से (जिस की चर्चा फिर कभी कर लेंगे), अब मैं इंगलिश ब्लागिंग पर भी ध्यान देने की सोच रहा हूं ---उस के लिये मैंने कुछ स्ट्रेटैजीज़ ( शेखचिल्लीज़) बनाई है, थोड़ा इंगलिश में एसटैबलिश होने के बाद शेयर करूंगा। मेरा इंगलिश ब्लाग भी सेहत से संबंधित मुद्दों पर ही होगा। मुझे पता है कि वह कर पाना मेरे लिये इतना सहज नहीं होगा जितना अपनी ही भाषा में लोगों के साथ तुरंत ही जुड़ जाना, लेकिन जो भी होगा, देखा जायेगा क्योंकि पिछले पूरे डेढ़ साल में हिंदी चिट्ठारी से खूब प्रेम किया है (और आगे भी यह प्रेम तो जारी ही रहेगा) लेकिन इंगलिश ज़्यादा न लिख पाने की वजह से मेरा उस भाषा का एक्सप्रैशन, मेरी इंगलिश की अभिव्यक्ति प्रभावित हो रही है, इसलिये आज तो ऐसा लगता है कि अब नेट पर हिंदी एवं इंगलिश की भागीदारी फिफ्टी-फिफ्टी कर दूंगा।

फिलहाल एक काम करता हूं ---टेबल पर पड़ी चाय ठंडी हो रही है और उस के साथ पडा रस मुझे बुला रहा है, इसलिये यह सोच कर कि मेरे जैसे और भी बहुत हैं इस दुनिया में --और अपना गम गलते करने के लिये यह गाना सुन कर दिल खुश कर लेता हूं। आप भी सुनने से पहले दोबारा से चाय की फरमाईश कर डालिये।
शुभकामनायें , आप भी कहीं पप्पू न बनें।

शनिवार, 13 जून 2009

फ्लू की महामारी अब, वैक्सीन सितंबर तक ----यह भी कोई बात है !

आज कल के अखबार पढ़ कर बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न अवश्य उठता होगा कि यार, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो एच1एन1फ्लू को एक महामारी घोषित कर दिया है लेकिन इस से बचाव के लिये टीका सितंबर तक आने की बातें हो रही है, कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि तब तक इस की विनाश लीला बेरोकटोक चलती रहेगी।

इस बात का उत्तर जानने के लिये कि इस के टीका सितंबर तक आने की बात क्या बार बार कही जा रही है, विभिन्न प्रकार के टीकों के बारे में थोडा़ ज्ञान होना ज़रूरी लगता है।

मोटे तौर पर वैक्सीन दो प्रकार के होते हैं --- लाइव वैक्सीन एवं किल्ड वैक्सीन --- अब देखते हैं कि क्यों इन वैक्सीन को जीवित वैक्सीन या मरा हुआ वैक्सीन कहा जाता है। यह अपने आप में बड़ा रोचक मुद्दा है जिसे हमें दूसरे साल में माइक्रोबॉयोलॉजी के विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है।

तो सुनिये, सब से पहले तो यह कि इन वैक्सीन में रोग पैदा करने वाले विषाणु, कीटाणु अथवा वॉयरस ही होते हैं, यह क्या आप तो चौंक गये कि अब यह क्या नई मुसीबत है!! लेकिन इस में चौंकने की या भयभीत होने की रती भर भी बात नहीं है क्योंकि इन विषाणुओं, वॉयरस के पार्टिकल्ज़ के उस रूप को वैक्सीन में इस्तेमाल किया जाता है जिस के द्वारा वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में रोग-प्रतिरोधक शक्ति तो पैदा कर दें लेकिन किसी भी हालत में रोग न पैदा कर सकें। ( हुन मैंनू ध्यान आ रिहै इस गल दा ---पंजाबी वीर चंगी तरह जानदे हन कि खस्सी कर देना ---बस समझ लओ मितरो कि एस वॉयरस नूं या जर्म नूं खस्सी ही कर दित्ता जांदा )।

Antigenicity- हां and Pathogenicity- ना, को समझ लें ? ---- ये दो परिभाषायें वैक्सीन के संदर्भ में वैज्ञानिक लोग अकसर इस्तेमाल करते हैं। पैथोजैनिसिटी से मतलब है कि कोई जीवाणु अथवा वॉयरस को उस रूप में इस्तेमाल किया जाये कि वैक्सीन के बाद यह मरीज़ में वह बीमारी तो किसी भी स्थिति में पैदा करने में सक्षम हो नहीं लेकिन इस में मौज़ूद एंटीजैन की वजह से इस की एंटीजैनिसिटी बरकरार रहे। एंटीजैनिसिटी बरकरार रहेगी तो ही यह वैक्सीन किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंच कर उस रोग से टक्कर लेने के लिये अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर पाता है, मैडीकल भाषा में कहूं तो ऐंटीबाडीज़ तैयार कर पाता है। तो कोई भी वैक्सीन तैयार करने से पहले इन सब बातों का बेहद बारीकी से ख्याल रखा जाता है।

अब स्वाभाविक है कि आप सब को उत्सुकता होगी कि यह जीवित एवं मृत वैक्सीन का क्या फंडा है ---- इस के बारे में हमें केवल यह जानना ज़रूरी है कि लाइव वैक्सीन में तो जो जीवाणु अथवा वॉयरस पार्टिकल्ज़ इस्तेमाल होते हैं वे लाइव ही होते हैं, जी हां, जीवित होते हैं लेकिन बस उन्हें वैक्सीन में डाला उस रूप ( in medical term, we say it is used in an attenuated form ) में जाता है कि वे उस बीमारी से जंग करने के लिये सैनिक (ऐंटीबाडीज़) तो तैयार कर सकें लेकिन किसी भी हालत में बीमारी न पैदा कर पायें। और जहां तक डैड वैक्सीन ( इन्एक्टिव वैक्सीन)की बात है उस में तो मृत वायरस अथवा जीवाणु ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो कि मरे होने के बावजूद भी अपनी ऐंटिजैनिसिटी थोड़ी बरकरार रखे होते हैं यानि कि किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंचते ही ये उस के विरूद्ध ऐंटीबॉडीज़ तैयार करनी शुरू कर देते हैं। और हां, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हर वैक्सीन के लिये यह अवधि तय है कि वह शरीर में पहुंचने के कितने समय बाद अपना जलवा दिखाना ( ऐंटीबाडीज़ तैयार) शुरू करता है।

यही कारण है कि कईं बार हमें जब तुरंत ऐंटीबाडीज़ की आवश्यकता होती है तो हमें कोई ऐसा उपाय भी इस्तेमाल करना होता है जिस के द्वारा हमें ये ऐंटीबाडीज़ पहले से ही तैयार शरीर में पहुंचानी होती हैं ---ताकि वह समय भी नष्ट न हो जब कि कोई वैक्सीन ऐंटीबाडीज़ बनाने में अपना समय़ ले रहा है।

ऐंटीजन एवं ऐंटीबाडी की बात एक उदाहरण से और भी ढंग से समझ लेते हैं ( चाहे इस उदाहरण का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है ) --जब हमारी आंख में धूल का एक कण भी चला जाये तो यह तुरंत गुस्से में आ कर ( लाल हो जाती है) और आंख से पानी निकलना शुरू हो जाता है। आंख में धूल के कण को आप समझिये की यह एक ऐंटीजन है और आंख से निकल रहा पानी उस धूल-मिट्टी से आप को निजात दिलाने की कोशिश कर रहा होता है।

एक कीचड़ में छलांगे लगाते हुये नन्हें मुन्नों बच्चों का बहुत ही बढ़िया सा विज्ञापन आता है ना ----दाग अच्छे हैं ----तो हम कह सकते हैं कि वैक्सीन भी अच्छे हैं, ये अनगिनत लोगों का रोगों से प्रतिरक्षण करते हैं।

हां, तो महामारी अब घोषित हो गई और वैक्सीन सितंबर तक --- इस का जवाब यह है कि इतना सारा काम करने में समय तो लगता ही है ना ---- अब तो हम सब लोग मिल कर यही दुआ करें कि यह सितंबर तक भी आ जाये तो गनीमत समझिये। इस तरह की वैक्सीन की टैस्टिंग भी बहुत व्यापक होती है। एक बात और कि क्या न वैक्सीन को पहले ही से तैयार कर लिया गया ? ---इस का जवाब यह है कि जिस वॉयरस का पता चले ही कुछ अरसा हुआ है, तो पहले से कैसे इस के वैक्सीन को तैयार कर लिया जाता, आखिल वैक्सीन तैयार करने के लिये वॉयरस नामक का विलेन भी तो चाहिये।

अब मन में यह ध्यान आना कि ये वैक्सीन तैयार करने इतने ही आसान हैं तो एचआईव्ही का ही वैक्सीन क्यों नहीं अब तक बन पाया ----इस क्षेत्र में भी बहुत ही ज़ोरों-शोरों से काम जारी है लेकिन वहां पर समस्या यह आ रही है कि एचआईव्ही की वायरस बहुत ही जल्दी जल्दी अपना स्वरूप बदलती रहती है इसलिये जिस तरह की वायरस से बचाव के लिये कोई वैक्सीन तैयार कर उस का ट्रायल किया जाता है तब तक एचआईव्ही वॉयरस का रंग-रूप ही बदल चुका होता है जिस पर इस वैक्सीन का कोई प्रभाव ही नहीं होता। लेकिन चिकित्सा विज्ञानी भी कहां हार मान लेने वाली नसल हैं, बेचारे दिन रात इस की खोज़ में लगे हुये हैं। इन्हें भी हम सब की ढ़ेरों शुभकामनाओं की आवश्यकता है।

अभी जिस विषय पर लिखना जरूरी समझ रहा हूं ---वह है जैनेटिकली इंजीनियर्ज वैक्सीन ( genetically-engineered vaccines). इस पर बाद में कभी अवश्य चर्चा करेंगे।

आज जब मैं सुबह सुबह यह पोस्ट लिख रहा हूं तो मुझे अपनी गवर्नमैंट मैडीकल कालेज की अपनी एक बहुत ही आदरणीय प्रोफैसर साहिबा --- डा प्रेमलता वडेरा जी की बहुत याद आ रही है, उन्होंने हमें अपने लैक्चर्ज़ में इतने सहज ढंग से समझाया बुझाया कि आज पच्तीस साल भी आप तक अपनी बात उतनी ही सहजता से हिंदी में पहुंचा पाया। वह हमें नोट्स तो देती ही थीं लेकिन हम लोग भी उन्हें रोज़ाना दो-तीन बार पढ़ लेना अच्छा लगता था जिस से बेसिक फंडे बहुत अच्छी तरह से क्लियर होते रहते थे। वे अकसर मेरे पेपर का एक एक पन्ना सारी क्लास को दिखाया करती थीं कि यह होता है पेपर में लिखने का ढंग। थैंक यू, मैडम। मुझे बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत ही सम्मानीय,समर्पित मैडीकल टीचरों की क्रॉप के प्रोड्क्ट्स है जिन्हें हम लोग आज भी अपना आदर्श मानते हैं।

और हां, जहां तक एच1एन1 स्वाईन फ्लू की बात है , इस के लिये हम सब का केवल इतना कर्तव्य है कि बेसिक सावधानियां बरतते रहें जिन के बारे में बार बार मीडिया में बताया जा रहा है, बाकी जैसी प्रभुइच्छा। अब हम लोगों के लालच ने भी ने भी प्रकृति का दोहन करने में, उस का शोषण करने में कहां कोई कसर छोड़ रखी है अब उस का समय है हमें समझाने का। शायद कबीर जी ने कहा है --कभी नांव पानी पर, कभी पानी नांव पर !!

आज एक खबर जो सुबह अंग्रेज़ी के पेपर में दिखी जिस ने तुरंत इस पोस्ट लिखने के लिये उठा दिया ---वह यह थी कि दिल्ली में एक छः साल की बच्ची को फ्लू है जो कि विदेश से आई है-- उसे क्वारैंटाइन में रखा गया है और उस के दादू ने उस के साथ स्वेच्छा से रहना स्वीकार किया है।(उस बच्ची के साथ साथ उस महान दादू के लिये भी हमारी सब की बहुत बहुत शुभकामनायें)। पता नहीं, इस तरह की अनूठी कुरबानियों के बावजूद इन बुजुर्गों की इतना दुर्दशा क्यों है, कभी किसी ने सुना कि जब किसी बूढे़-बूढ़ी को बोझ की एक गठड़ी समझ कर ओल्ड-एज होम में पटक के आया जाता है तो उन के पोते-पोतियां भी उन के साथ रहने चले गये ------ मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना !!

गुरुवार, 11 जून 2009

मेरा पिंड ( मेरा गांव मेरा देश)

कल समीर लाल जी की एक बहुत ही बेहतरीन पोस्ट पढ़ने का हैंग-ओव्हर अभी तक नहीं टूटा है। उन्होंने ने कितने सुंदर एवं भावुक शब्दों में अपने गांव की मिट्टी को याद किया--- कल शाम ऐसे ही उन का ब्लॉग फिर से लगाया तो साठ के करीब टिप्पणीयां देख कर दंग रह गया। समीर जी की पोस्ट का नशा उतरने का मेरे लिये एक कारण एक और था --- आज दोपहर मेरे बेटे ने ज़ी-पंजाबी पर एक बहुत प्रसिद्ध पंजाबी गायक साबर कोटी का एक प्रोग्राम लगाया हुआ था। उस प्रोग्राम के बारे में बताने से पहले साबर कोटी का एक गीत सुनना चाहेंगे ?

कंडे जिन्ने होन तिक्खे, फुल ओन्हा हुंदा सोहना,
साडे अपने नहीं होय, तां परायां कित्थों होना .....
( कांटे जितने नुकीले हों, फूल उतना ही सुंदर होता है,
अगर हमारे अपने ही अपने न हुये तो बेगानों से क्या शिकवा )



हां, तो उस प्रोग्राम का नाम था ---मेरा पिंड। यह ज़ी-टीवी का एक रैगुलर प्रोग्राम है जिस में यह किसी शख्सियत को उस के गांव में ले जाकर इंटरव्यू करते हैं। मैं इस प्रोग्राम का बुहत शौकीन हूं। मुझे नहीं पता कि यह किस दिन कितने बजे आता है लेकिन जब कभी ऐक्सीडैंटली बच्चे रिमोट के साथ पंगे लेते हुये इस लगा लेते हैं तो बस फिर तो मैं इस के दौरान दिखाये जाने वाले कमर्शियल्ज़ के दौरान भी उसी चैनल पर ही डटा रहता हूं।

पंजाबी गायक साबक कोटी बिल्कुल ठेठ पंजाबी में अपनी पिंड ( गांव) की यादें बहुत भावुक हो कर दर्शकों से साझी कर रहा था जिन्हें सुन कर बहुत ही अच्छा लग रहा था। मैं अकसर कहता रहता हूं कि जब कोई दिल से अपनी बात रख रहा होता है तो बस फिर तो बात ही निराली होती है।

मुझे अपनी मां-बोली पंजाबी से बहुत ही प्यार है --- मैं इस के प्रचार-प्रसार के लिये अपने स्तर पर काम करता रहता हूं। घर में भी हम सब लोग पंजाबी में ही बात करते हैं --- मुझे बड़ा गर्व है कि मेरे बेटे भी बहुत अच्छी पंजाबी बोलते हैं। ऐसा हम लोग जान-बूझ कर करते हैं --- इस का कारण है कि दूसरी भाषायें तो आदमी विभिन्न मजबूरियों के कारण सारी उम्र सीखता ही रहता है। लेकिन अपनी मां-बोली मां के दुलार की तरह है --- शुरूआती वर्षों में इस का जितना अभ्यास कर लिया जाये वह भी कम है।

मैं प्रोग्राम देखते हुये बेटे को यही कह रहा था कि कितनी बढ़िया पंजाबी बोल रहा है कोटी --- मैंने फिर कहा कि दरअसल इस तरह के लोग जब बोलते हैं तो इन की बोली से भी इन के गांव की मिट्टी की खुशबू आती है। आज साबर कोटी को ज़ी-पंजाबी पर बोलते देख कर ऐसे लग रहा था कि भाषा कोई भी हो, बस जब तक उस की टांग न घुमाई जाये, बार बार स्लैंग का इस्तेमाल न किया जाये ---- तो फिर सब कुछ बढ़िया ही लगता है।

साबर कोटी ने हमें अपने पिंड की गलियों की सैर कराई, वह हमें उस स्कूल ले गया जहां पर उस ने पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की थी। अपने स्कूल में जा कर वह भावुक हो रहा था ---उसे अपने उस स्कूल मास्टर की याद आ गई थी जिस ने उसे पहली पहली बार स्कूल की स्टेज पर गीत गाने का अवसर दिया था।

उस के बाद साबर हमें गांव के एक पीर की जगह पर हम सब को ले गया ---- साबर बता रहा था कि वह हर वीरवार के दिन वहां पर अपनी हाज़िरी लगवाने ज़रूर आता है -- वह कितना भी व्यस्त क्यों न हो, वहां आने के लिये समय कैसे भी निकाल लेता है।

मैंने साबर कोटी का प्रोग्राम लगभग 10-15 मिनट देखा, मुझे तो बहुत आनंद आया। मुझे इस का मलाल है कि मैं प्रोग्राम शुरू से नहीं देख पाया। आप को पता है मुझे इतना मज़ा क्यों आया --- क्योंकि जब साबर कोटी अपने गांव की गलियां हमें दिखा रहा था तो मैं भी उस के साथ अपने बचपन की गलियों की यादों में बह गया था ---मैं भी याद कर रहा था उस नीम के पेड़ को जिसे मेरी मां ने अपने हाथों से लगाया था ---किस तरह हम लोग उस की छांव में कंचे ( गोटियां) खेलते रहते थे और फिर उस डालडे के प्लास्टिक वाले डिब्बे में जमा करते रहते थे ----फिर जब उस दिन का खेल खत्म हो जाना तो उन कंचों को पानी से धोना और बढ़िया-बढ़िया और थोड़े टूटे हुये कंचों को अलग अलग करना ----इसलिये कि कल सुबह वाले सैशन में पहले खराब कंचे लेकर ही बाहर जाना है।

और उसी पेड़ के नीचे जमीन पर गुल्ली-डंडे के खेल के लिये बनाई गई एक खुत्थी (टोया, डूंग) को भी याद कर रहा था --- जब मैं साबर कोटी के गांव की नालियां देख रहा था तो मैं भी अपने घर के बाहर नाली को याद कर रहा था जिस में से कितनी बार मैंने गेंद उठाया था ---और दो-चार बार शायद एमरजैंसी में उस नाली पर बैठा भी था ----किस लिये ? --( अब वह क्यों लिखूं जिसे लिख कर मुझे शर्म आ जाती है)--- आप समझ गये ना !!

मुझे उस घर के बाहर पड़ा एक पत्थर भी याद आ जाता है जिस पर मैं अपने पापा की इंतज़ार किया करता था कि आज उन की टोकरी में क्या पडा़ मिलेगा ---- बर्फी, पेस्टरी, केले, अंगूर, भुग्गा( पंजाब की एक मशहूर मिठाई) या फिर कईं बार केवल बेइंतहा प्यार ही प्यार।

और फिर मुझे साबर कोटी का गांव घूमते घूमते अपने मोहल्ले का वह मीठे पानी का वह हैंड-पंप भी याद आ जाता है जहां से प्री-फ्रिज के दिनों में डोल में ठंडा पानी भर कर लाया करता था। कमबख्त यादें बहुत परेशान करती हैं --- लेकिन जब इन्हें बांट लो ना तो बहुत अच्छा लगता है। मैं उस छोटी सी चारपाई को भी याद कर रहा था जिस पर बैठ क मोहल्ले की महिलायें कभी खत्म न होने वाली बातों में लगी रहती थीं --- अब ये मुंह की मैल उतारने वाले मंजे नहीं दिखते।

अब लोग बहुत बड़े हो गये हैं ----शायद मैं बहुत बड़ा हो गया हूं -----लेकिन जब गहराई से टटोलता हूं तो पाता हूं कि अब भी हम तो वहीं ही हूं ---- शायद उस निश्छलता पर बहुत से कवर डाल लिये हैं ----कितने कवर किस जगह उतारने हैं बस इतना पढ़ने लिखने के बाद वही सीख पाया हूं,और ज़्यादा कुछ नहीं। क्या यही विद्या है, यही सोच रहा हूं ------पता नहीं साबर कोटी पर लिखते लिखते किधर निकल गया कि उसी ज़माने की एक मशहूर फिल्म मेरा गांव मेरा देश फिल्म की याद आ गई ---- वह गीत याद आ रहा है ---- मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये।
यादें तो बांटने वाली अनगिनत हैं ---बाकी फिर कभी । बाई साबर कोटी, तेरा बहुत बहुत शुक्रिया ---- तूं तां सानूं वी अपने दिन याद करा दित्ते। परमात्मा अग्गे एहो अरदास है कि तूं होर वी बुलंदियां छोहे।

बुधवार, 10 जून 2009

दांतों में ठंडा लगने से कहीं आप भी परेशान तो नहीं ?

दांतों में ठंडा पानी आदि लगने से परेशान जब कोई मरीज़ किसी क्वालीफाईड डैंटिस्ट के पास जाता है तो उसे प्रश्नों की बौछार के लिये तैयार रहना चाहिये। और आप के मुंह के अंदर झांकने से पहले ही ये प्रश्न ताबड़तोड़ उछाल दिये जाते हैं ....
क्या यह ठंडा लगने की शिकायत सभी दांतों में है ?
अगर सभी दांतों में तकलीफ़ नहीं है तो फिर मुंह की किस तरफ़ दर्द है, दर्द ऊपर वाले जबाड़े में होता है या नीचे वाले जबाड़े में ?
ऊपर या नीचे वाले जबाड़े में जब दांतों में ठंडा लगता है तो क्या सभी दांतों में लगता है या केवल एक या दो दांतों में ?
अब प्रश्नों का दूसरा दौर शुरू होता है ---
जब ठंडा पानी मुंह में लिया जाता है तो यह दर्द कितने समय तक रहता है ? क्या पानी पी लेने के बाद भी यह होता रहता है ? इस दर्द की अवधि सैकेंडों में है या मिनटों में ?

ये जो मैंने प्रश्न लिखे हैं ये हमें लगभग हर उस मरीज़ से पूछने होते हैं जो इस ठंडे-गर्म की शिकायत से परेशान होता है। अब आप समझ सकते हैं कि इस परेशानी के लिये बस यूं ही किसी भी दवाई वाली पेस्ट को लगा कर दबाने की कोशिश क्यों निर्रथक साबित होती है। जब कारण का पता ही नहीं, डायग्नोसिस हुआ ही नहीं तो फिर ये दवाई वाली पेस्टें क्या कर लेंगी ?

और जो प्रश्नों की लिस्ट आप ऊपर देख रहे हैं ---इन में एक एक प्रश्न का बहुत महत्व है। एक अच्छा डैंटिस्ट चाहे कितना भी व्यस्त क्यों न हो किसी भी दांतों पर ठंडा लगने से परेशान मरीज़ से ये प्रश्न तो पूछता ही है। हर प्रश्न का उत्तर विभिन्न दांतों की बीमारियों की तरफ़ इशारा करती है। बिना किसी डायग्नोसिस के बस यूं ही महंगी महंगी पेस्टें या मंजन लगाते रहना बिल्कुल उसी प्रकार है जिस तरह कई दिनों से बेहद पेट दर्द से परेशान कोई बंदा केवल दर्द-निवारक टीकिया ले लेकर अपना काम चलाता रहे। इस लिये डैंटिस्ट के पास जाकर ही कारण का पता लग सकता है।

और एक शिकायत मरीज़ बहुत करते हैं कि दांतों में गैप आ गया है, अभी मैं थोड़ा थका हुआ हूं ---आज दोपहर सोने का समय नहीं मिला ---इसलिये इस गैप के बारे में कल अच्छे से लिखूंगा।

तंबाकू चूसना --- पार्टी स्टाईल !!

हम लोग किसी भी क्षेत्र में काम कर रहे हों, शायद ही अपने उस्ताद को कभी भूल पाते हैं। मुझे भी अकसर अपने ओरल-सर्जरी के प्रोफैसर डा कपिला जी की याद अकसर आती है। ये हम लोगों को अकसर कहा करते थे कि मरीज़ की बात ध्यान से सुना करो, वह तुम्हें स्वयं ही अपनी बीमारी का डायग्नोसिस बतला रहा है। In his words – “ Listen to the patient carefully, he is giving you the diagnosis !”. अब यह अपने आप में आत्म-अविलोकन करने वाली बात है कि यह काम हम लोग कितनी हद तक उस भावना से कर पाते हैं।

DSC03174
कल भी मेरे पास यह मरीज़ आया जिस के मुंह के अदंर दांतों की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं। यह मेरे पास ऊपर आगे के एक दांत की जड़ निकलवाने आये थे जो कि दांत की सड़न की वजह से टूट चुका था। जब मैं इन के मुंह में इंजैक्शन लगा रहा था तो मुझे लगा कि ऊपर वाले होंठ का अंदरूनी हिस्सा ( oral mucosa) थोड़ा खुरदुरा सा है।

मेरा ध्यान इंजैक्शन देने में पूरी तरह लगा हुआ था इसलिये मैंने इस खुरदरेपन तरफ़ कुछ खास ध्यान देना शायद इसलिये उचित नहीं समझा कि मुझे लगा कि ये Fordyce spots हैं और दूसरा मेरा ध्यान उस खुरदरेपन की तरफ़ उस समय था भी नहीं ---सोच रहा था कि इसे बाद में देखूंगा। ( बाद में किसी दिन इन स्पाट्स के बारे में चर्चा करेंगे )---- लेकिन इस समय केवल यही बता रहा हूं कि ये फारडाइस-स्पाट्स पसीने पैदा करने वाले ग्लैंड्स ( sebaceous glands) होते हैं जो कि सामान्यतः तो हमारी चमड़ी पर ही होते हैं लेकिन कईं बार ये मुंह के अंदर ( oral mucosa), पुरूषों के ग्लैंस-पीनस( glans penis) को कवर कर रही चमड़ी के अंदरूनी भाग ( mucous membrane आदि में भी होते हैं ---- ये बिल्कुल छोटे छोटे दाने से होते हैं और अकसर मरीज़ इन के बारे में चिंतित से हो जाते हैं जब कि चिंता करने वाली कोई बात ही नहीं होती।

हां, तो मैं अपने मरीज़ की बात कर रहा था --- मैंने मरीज़ का दांत निकलवाने से पहले ऐसे ही पूछ लिया कि यह ऊपर खरदुरा सा आप को कभी लगा नहीं ? ----तब उस ने बताया कि यह तो तंबाकू की वजह से है।
कहने लगा कि पिछले पांच साल से तंबाकू-चूने की आदत लग गई है। और मैं ऊपर वाले होंठ के अंदर की तरफ़ भी अकसर तंबाकू दबा कर रखता हूं। मुझे तुरंत सारी बात समझ में आ गई।


दरअसल शायद यह पहला केस मेरी नज़र में आया था जो कि तंबाकू-चूने का मिश्रण ऊपर वाले होंठ के अंदर दबा कर रखता था ( अकसर कभी कहीं पर कोई भद्रपुरूष इस तरह के कैंसर के मिश्रण को गाल के अंदर ऊपर वाली दाढ़ों के साथ लगती जगह पर तो रखते नज़र आ ही जाते हैं ) ...... मुझे बहुत हैरानगी हो रही थी ----उस ने आगे बताना शुरू रखा कि कईं बार उसे ऊपर वाले होंठ के अंदर ही इस तंबाकू ( कैंसर-मिश्रण !!!! ---- Cancer mixture !! --- Cancer cocktail !!!) को रखना पड़ता है क्योंकि जब मैं किसी पार्टी वगैरह में गया होता हूं तो बार बार थूकने के झंझट से निजात मिल जाती है। वह यह भी कह रहा था कि वैसे तो वह नीचे के होंठों के अंदरूनी हिस्से का ही इस काम के लिये इस्तेमाल करता है और इस की वजह से उस नीचे वाले दांतों के बाहर की जगह की क्या हालत हो चुकी है वह आप इस तस्वीर में देख सकते हैं। DSC03179

मैं एक दो मिनट उस की बातें सुनीं-----उस का टूटा दांत निकालने के बाद फिर उस की क्लास ली कि यह सब क्या है और भविष्य में यह किस तरह कैंसर में तबदील हो सकता है। वह मेरी बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था और उस ने कल ही से तंबाकू को मुंह में दबाने से तौबा कर ली ।

उस के जाने के बाद मैं यही सोच रहा था कि मरीज़ की बात ध्यान से सुनने की आदत आज एक बार फिर काम आ गई ---वरना आज एक महत्वपूर्ण डायग्नोसिस मिस हो जाता और वह बंदा अपनी आदत को बिना परवाह के जारी रखता जो कि उसे मुंह के कैंसर की तरफ़ धकेल सकती थी।

रविवार, 7 जून 2009

जय हो ! ---बाबा रामदेव जी, तुसीं बहुत ग्रेट हो !

सुबह जब मैं नेट पर बैठ कर अपना टाइम बिता रहा होता हूं तो मेरी मां अपने कमरे में बाबा रामदेव का सम्पूर्ण कार्यक्रम देख रही होती हैं। और अकसर ऐसा बहुत बार होता है कि जब बाबा की एक-दो बातें मेरे कानों में पहुंच जाती हैं तो मैं नेट पर से उठ कर टीवी के सामने बैठ कर बाबा की बहुत बढ़िया बढ़िया बातें सुननी शुरू कर देता हूं। और मैं उन की सब बातों से सहमत हूं --- सहमत क्या हूं मैं भी अपने आप को उन का भक्त ही मानने लगा हूं। लेकिन कईं बार मेरी अंग्रेज़ी अकल अपनी टांग थोड़ी अड़ानी शुरू तो करती है लेकिन फिर मैं उसे समझा देता हूं कि ये बातें कहने वाला कोई आम इंसान नहीं है ---एक ऐसा देवता है जो कि सारे विश्व को सेहत का तोहफ़ा देने ही आया है।

आज मैं बैठा बैठा यही सोच रहा था कि क्या है इस महात्मा की बातों में कि इतने लोग इन की बातों को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन को पटड़ी पर ला रहे हैं। तो मुझे जो समझ आया वह यही है कि यह संत सेहत की बात करता है जब कि आज का आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान केवल एवं केवल बीमारी की ही बात करता है। यह देवता बात करता है कि कैसे घर में ही उगे बेल-बूटों से कोई अपने जीवन में खुशहाली-हरियाली ला सकता है। लेकिन माडर्न मैडीसन कहती है कि इस बीमारी से बचना है तो यह खा, उस से बचना है तो वह खा, कोलैस्ट्रोल कम करने के लिये यह कर --------यह मेरा बहुत स्ट्रांग ओपिनियन है कि इस अल्ट्रा-मार्डन सिस्टम में पुरानी (क्रानिक) बीमारियों का एक कारोबार सा ही हो रहा दिखता है। महंगे महंगे टैस्ट, और उस से भी कहीं महंगी दवाईयां और तरह तरह के आप्रेशन। इस में कोई संदेह नहीं कि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ने डायग्नोसिस( रोगों के निदान ) के क्षेत्र में अच्छी खासी तरक्की की है, एक्यूट बीमारियों ( अल्प अवधि रोगों ) में कईं बार आधुनिक चिकित्सा प्रणाली एक वरदान सिद्ध होती है और कईं बार किसी बीमारी का इलाज केवल आप्रेशन से ही संभव होता है।

अब इस पोस्ट को पढ़ के कोई यह कहे कि यार, टैस्ट महंगे हैं, इलाज महंगे हैं तो महंगे हैं, इस से तेरा पेट क्यों दर्द हो रहा है। मेरा पेट दर्द इसलिये होता है कि यह इतना महंगा और अकसर कंफ्यूज़ कर देने वाला सिस्टम हमारे देश की ज़्यादातर गरीब जनता के लिये लगता है उपर्युक्त नहीं है। बाबा रामदेव किसी भी बीमारी की जड़ को खोद कर बाहर फैंक निकालता है जब कि आज का आधुनिक सिस्टम अकसर लक्षण दबाने में ही लगा हुआ है। बाबा हॉलिस्टिक हैल्थ की ही बात करते हैं जब कि आज का अत्याधुनिक सिस्टम शरीर को अनगिनत हिस्सों में बांट कर उस को दुरूस्त करने की बातें करता है। सोचता हूं कि ऐसे में शरीर की विभिन्न प्रणालीयों का समन्व्य केवल सांकेतिक ही तो नहीं हो कर रह गया।

अगर यह सच नहीं है तो फिर क्यों लोगों का ब्लड-प्रैशर (उच्च रक्तचाप ) कंट्रोल क्यों नहीं हो रहा, क्यों लोग मधुमेह ( डायबिटीज़) की जटिलताओं से परेशान हैं। कारण वही जो मैं समझ पाया हूं कि लोग अपनी जीवन-शैली बदलने की बजाये एक टेबलेट पर ज़्य़ादा भरोसा करने लग पड़े हैं। लेकिन बाबा उन को जीवनशैली बदलने की प्रेरणा देता है जिस से उन के शरीर के सैल्युलर लेवल पर पाज़िटिव चेंज आ जाते हैं।

मैं तो भई बाबा की बातों का इतना कायल हूं कि अकसर सोचता हूं कि इस जैसे देव-पुरूष को संसार की किसी शीर्ष स्वास्थ्य संस्था जैसे की विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुखिया होना चाहिये --- क्योंकि सारी दुनिया को सेहत का उपहार देना केवल इस तरह के स्वामी के ही बश की बात है।

बाबा की बातों में इतनी कशिश है कि जब से टीवी पर बात कर रहे होते हैं तो बीच में उठने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती। सब कुछ अकसर वे अपनी बातों में कवर कर रहे होते हैं। मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि ये रोज़ाना इतनी बातें खुले दिल से सारे संसार के साथ साझा कर रहे होते हैं कि अगर कोई व्यक्ति उन की रोज़ाना एक बात भी पकड़ ले तो जीवन में बहार आ जाये।

अब हर जगह हम किसी भी बात का प्रूफ़ नहीं मांग सकते --- स्वामी रामदेव जी जैसे लोग प्रकृति के साथ बिल्कुल रल-मिल कर रह रहे हैं ---इसलिये प्रकृति भी ऐसे लोगों से फिर कुछ भी छिपा कर नहीं रखती। अब मेरी मां मुझे अकसर कहा करती हैं कि रात को दही मत खाया करो क्योंकि बाबा रामदेव बार-बार इस के बारे में कहते हैं। अब अगर मैं अपनी अंग्रेज़ी अकल को इस में भी घुसा दूंगा तो फिर मैं यही कहूंगा कि इस से क्या होगा, हमारी किताबों में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा। लेकिन जैसा कि मैंने समझा है कि हर बात में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाईश होती कहां है, कुछ बातें जब संत-महात्माओं के मुख से निकलती हैं तो उन्हें ब्रह्म-वाक्य जान कर मान लेने में ही बेहतरी होती है। जी हां, मैंने रात को दही खाना पिछले कुछ महीनों से छोड़ रखा है।

आज भी बाबा सुबह बता रहे थे कि खाने-पीने की जितनी मिलावट यहां होती है वह शायद ही किसी दूसरी जगह होती हो। मुझे पूरा विश्वास सा होने लगा है कि जैसे हमारे आयुर्वेद डाक्टर कहते हैं कि खाने-पीने की वस्तुओ का सेवन अपने शरीर की प्रवृत्ति के अनुसार ही किया जाये --- ऐसा है ना कि अकसर हमें कईं खाध्य पदार्थ सूट नहीं करते और हम उन्हें खा कर बीमार सा हो जाते हैं ---कोई कोई दाल ऐसी है जो रात में हज़्म नहीं होती हैं लेकिन इस के बारे में मेरे ख्याल में आज का सिस्टम कम ही कुछ कहता है जब कि आयुर्वैदिक प्रणाली में इन सब के बारे में खूब चर्चा होती है।

हां, एक ध्यान आ रहा है कि यह जो हम लोग ई.टी.जी( इलैक्ट्रोत्रिदोषोग्राम) के बारे में इतना सुनते हैं इस के बारे में भी हमें जानकारी हासिल करने की ज़रूरत है। इस के बारे में मेरे मन में भी बहुत से प्रश्न हैं ---लेकिन मैंने शायद अभी तक इस के बारे में कभी गंभीरता से जानने की ही कोशिश ही नहीं की। लेकिन सोचता हूं अब मैं इस के बारे में जान ही लूं।

आज कितने ही लोग प्राणायाम् एवं प्राकृतिक जीवन-शैली की ओर प्रेरित हो रहे हैं-- इस सब का श्रेय परमश्र्देय़ बाबा को ही जाता है ---कितने उत्साह से वह अपना काम कर रहे हैं यह देख कर मैं अकसर दंग रह जाता हूं। निःसंदेह वह आज के मानव को एक संपूर्ण इंसान बना रहे हैं।

बस,आज बाबा रामदेव स्पैशल इस पोस्ट पर इतना ही लिख कर विराम ले रहा हूं।