शुक्रवार, 14 मार्च 2008

मुंह के ये घाव/छाले.....II……..कुछ केस रिपोर्ट्स

कल मैंने इन मुंह के छालों पर पहली पोस्ट लिखी थी और आज मैं हाजिर हूं कुछ केस रिपोर्ट्स के साथ।

- एक महिला ने जब होली मिलन के दौरान मिठाईयां खाईं तो उन के मुंह में छाले से हो गये जिस पर वे हल्दी लगा कर काम चला रही हैं।

अब यह एक बहुत ही आम सी समस्या है...इतने ज़्यादा मुंह के मरीज़ जो आते हैं उन से जब बिल्कुल ही कैज़ुयली पूछा जाता है कि कैसे हो गया यह, तो बहुत से लोगों का यही कहना होता है कि बस, एक-दो दिन पहले एक पार्टी में खाना खाया था। तो,इस से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं................हमें यही सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इन विवाह-शादियों के खाने में तरह तरह के मसालों वगैरह की भरमार तो होती है जो कि हमारे मुंह के अंदर की कोमल चमड़ी सहन नहीं कर पाती.......अब पेट ने तो गैस बना कर, बदहज़मी कर के अपना रोष प्रकट कर लिया, लेकिन मुंह की चमड़ी को अपना दुःखड़ा कैसे बताये ! सो, एक तरह से मुंह में इस तरह के घाव अथवा छाले वह दुःखड़ा ही है। और अकसर ये छाले वगैरह बिना कुछ खास किये हुये भी दो-तीन दिन में ठीक हो ही जाते हैं। आम घर में इस्तेमाल की जाने वाली कोई प्राकृतिक वस्तु (हल्दी आदि) से अगर किसी को आराम मिलता है तो ठीक है , आप उसे लगा सकते हैं। लेकिन कभी भी इतनी सी चीज़ के लिये न तो ऐंटीबायोटिक दवाईयों के ही चक्कर में पड़े और न ही मल्टीविटामिनों की टेबलेट्स ही लेनी शुरू कर दें। इन को कोई खास रोल नहीं है......यह लाइन भी बहुत बेमनी से लिख रहा हूं कि कोई खास रोल नहीं है। मेरे विचार में तो कोई रोल है ही नहीं.....जैसे जैसे इस सीरीज़ में आगे बढ़ेंगे, इन छालों के लिये बिना वजह ही इस्तेमाल की जाने वाली काफी दवाईयों को पोल खोलूंगा।

लेकिन किसी का मिठाई खा लेने से ही मुंह कैसे पक सकता है ?........जी हां, यह संभव है। क्योंकि पता नहीं इन मिठाईयों में भी आज कल कौन कौन से कैमीकल्स इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन क्या करें, हम लोगों की भी मजबूरी है...अब कहीं भी गये हैं तो थोड़ा थोड़ा चखते चखते यह सब कुछ शिष्टाचार वश अच्छा खासा खाया ही जाता है। लेकिन हमारे किसी तरह के अनाप-शनाप खाने को पकड़ने के लिये यह हमारे मुंह के अंदर की नरम चमड़ी एक बैरोमीटर का ही काम करती है....झट से इन छालों के रूप में अपने हाथ खड़े कर के हमें चेता देती है। अभी मैं कैमिकल्स की बात कर रहा हूं तो एक और केस रिपोर्ट की तरफ ध्यान जा रहा है।

एक व्यक्ति जब भी सिगरेट पीता था तो उस के मुंह में छाले हो जाते थे.......

सिगरेट पीने पर भी मुंह में इस तरह के छाले होने वाला चक्कर भी बेसिकली कैमिकल्स वाला ही चक्कर है। यह तो हम जानते ही हैं कि सिगरेट के धुयें में निकोटीन के अतिरिक्त बीसियों तरह के कैमीकल्स होते हैं जिन्हें हमारे मुंह की कोमल त्वचा सहन नहीं कर पाती है और इन छालों के रूप में अपना आक्रोश प्रगट करती है। अगर हम इस नरम चमड़ी के इस तरह के विरोध को समय रहते समझ जायें तो ठीक है ....नहीं तो, यूं ही तो नहीं कहा जाता कि तंबाकू का उपयोग किसी भी रूप में विनाशकारी है।

एक अन्य केस रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति ने ध्यान दिया है कि जब भी वे बिना धुली कच्ची सब्जी, फल इत्यादि खाते हैं तो उन्हें मुंह में एक फुंशी सी हो जाती है।

कौन लगायेगा इस का अनुमान !...जी हां, यह भी कैमीकल्स का ही चक्कर है। आज कल सब्जियों - फलों पर इतने कैमीकल्स-फर्टीलाइज़र इस्तेमाल हो रहे हैं कि बिना धोये इन को खाने से तो तौबा ही कर लेनी ठीक है। फलों को भी तरह तरह के कैमीकल्स लगा कर तैयार किया जाता है.....आपने देखा है ना जो अंगूर हमें मिलते हैं उन के बाहर किस तरह का सफेद सा पावडर सा लगा होता है....ये सब कैमीकल्स नहीं तो और क्या हैं !....आम के सीज़न में आमों का भी यही हाल है......कईं बार जब हम आम को चूसते हैं तो क्यों हमारे मुंह पक सा जाता है....सब कुछ कैमीकल्स का ही चक्कर है। ऐसे में यही सलाह है कि सभी फ्रूट्स को अच्छी तरह धो कर ही खाया जाये। और आम को काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है...नहीं तो पता नहीं इसे चूसते समय हम इस के छिलके के ऊपर लगे कितने कैमीकल्स अपने अँदर निगल जाते होंगे। वैसे बातें तो ये बहुत छोटी-छोटी लगती हैं लेकिन हमारी सेहत के लिये तो शायद यही बातें ही बड़ी बड़ी हैं।

एक 20-22 वर्ष का नौजवान है...उस को हर दूसरे माह मुंह में छाले हो जाते हैं । वह घर से बाहर रहता है। अकसर इन छालों के लिये सारा दोष कब्ज के ऊपर मढ़ दिया जाता है। उस युवक ने दांतों की सफाई भी करवा ली है, लेकिन अभी वह इन छालों से निजात पाने के लिये कोई स्थायी इलाज चाहता है।

इस युवक की उम्र देखिये....20-22 साल.....ठीक है , उस के मुंह में टारटर होगा, या कोई और दंत-रोग होगा जिस के लिये उस ने दांतों एवं मसूड़ों की सफाई करवा ली है। ठीक किया । लेकिन अगर इस से यह समझा जाये कि अब मुंह में छाले नहीं होंगे, तो मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। इस का कारण मैं विस्तार में बताना चाहूंगा।

यह जो कब्ज वाली बात भी अकसर लोग कहने लग गये हैं ना इस में कोई दम नहीं है......कि कब्ज रहती है,इसलिये मुंह में छाले तो होंगे ही। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब 1982 में हमारे प्रोफैसर साहब इन मुंह के छालों के बारे में पढ़ा रहे थे तो उन्होंने भी इस कब्ज से मुंह के छालों के लिंकेज को एक थ्यूरी मात्र ही बताया था। और सब से ऊपर हाथ कंगन को आरसी क्या .....अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में मैंने तो यही देखा है कि जब हम लोगों को कहीं कुछ समझ में नहीं आता तो हम झट से कोई स्केप-गोट ढूंढते हैं ...विशेषकर ऐसी कोई जो कि लोगों की साइकी में अच्छी तरह से घर कर चुकी होती है। और यह कब्ज और मुंह के छालों का लिंकेज भी कुछ ऐसा ही है।

वैसे चलिये ज़रा इस के ऊपर विस्तार से चर्चा करें......सीधी सी बात है कि वैसे तो किसी भी उम्र में जब किसी को कब्ज हो तो कुछ न कुछ गड़बड़ तो कहीं न कहीं है ही......लेकिन 20-22 के युवक में आखिर क्यूं होगी कब्ज। और यकीन मानिये ये जो हम कब्ज के विभिन्न प्रकार के डरावने से कारणों के बारे में अकसर यहां वहां पढ़ते रहते हैं ना, शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों कब्ज से परेशान मरीज़ों में से किसी एक को ही ऐसी कोई अंदरूनी तकलीफ़ होती होगी। ऐसा मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि अधिकांश कब्ज के केस हमारी जीवन शैली से ही संबंधित हैं.....हमारी बोवेल हैबिट्स रैगुलर नहीं है। 20-22 के युवक में कब्ज होना इस बात को इंगित कर रही है कि या तो उस युवक का खान-पीन ठीक नहीं है या उस में शारीरिक परिश्रम की कमी है। खान-पान से मेरा मतलब है कि उस युवक का खाना-पीना संतुलित नहीं होगा, उस के भोजन में सलाद, रेशेदार फ्रूट्स की कमी होगी....क्योंकि अगर कोई इन वस्तुओं का अच्छी मात्रा में सेवन करता है तो कब्ज का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। और अगर फिर भी है तो अपने चिकित्सक को ज़रूर मिलें...........लेकिन पहले अपना खान-पान तो टटोलिये......सारी कमी यहीं पर नज़र आयेगी। और हां, कब्ज के लिये विभिन्न प्रकार के अंकुरित दालें एवं अनाज बेहद लाभदायक हैं। और मुझे जब कुछ साल पहले ऐसी समस्या हुई थी तो मैं एक-दो आँवले रोटी के साथ अचार के रूप में खा लिया करता था और जब बाज़ार में आंवले मिलने बंद हो जाया करते थे तो आंवले के पावडर का आधा चम्मच ले लिया करता था, जिस से कब्ज से निजात मिल जाया करती थी। मैं अपने आप ही किसी भी तरह की कब्ज से निजात पाने वाली दवाईयां लेना का घोर-विरोधी हूं.....इस तरह से अपनी मरजी से ली गई दवाईयां तो बस कब्ज को बद से बदतर ही करती हैं ... और कुछ नहीं, इस के पीछे जो वैज्ञानिक औचित्य है उस को किसी दूसरी पोस्ट में कवर करूंगा।

और हां, बात हो रही थी, किसी 20-22 साल के युवक की जिसे कब्ज भी रहती है और यह समझा जाता है कि मुंह के छाले इसी कब्ज की ही देन हैं। तो यहां पर एक बात बहुत ही ध्यान से समझिये कि किसी बंदे को कब्ज है ....इस का अधिकांश केसों में जैसा कि मैंने बताया कि निष्कर्ष यही तो निकलता है कि उस के खाने-पीने में गड़बड़ है....वह रेशेदार फल-फ्रूट-सब्जियां एवं दालें ठीक मात्रा में ले नहीं रहा और/अथवा जंक फूड़ पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा किया जा रहा है। क्योंकि कब्ज का रोग मोल लेने का एक आसान सा तरीका तो है ही कि इस मैदे से बने तरह तरह के आधुनिक व्यंजनों( बर्गर, नूडल्स, पिज़ा, हाट-डाग आदि आदि आदि) को हम अपने खाने में शामिल करना शुरू कर दें।
......मुझे तो ज़्यादा नाम भी नहीं आते क्योंकि मैं तो बस एक ही तरह के जंक फूड का बिगड़ा हुया शौकीन हूं....आलू वाले अमृतसरी नान व छोले......जंक इस लिये कह रहा हूं कि ये अकसर मैदे से ही बनते हैं ...लेकिन फिर मैं दो-तीन महीनों में एक बार इन्हें खाकर पंगा मोल ले ही लेता हूं और फिर सारा दिन खाट पकड़ कर पड़ा रहता हूं जैसा कि इस पिछले रविवार को हुया था...।

बस जाते जाते बात इतनी ही करनी है कि इस 20-22 साल के युवक के खान-पान में कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है ही, अब अगर वह इन बातों की तरफ़ ध्यान देगा तो क्यों होगा वह बार बार इन मुंह के छालों से परेशान....क्योंकि जब शरीर को संतुलित आहार मिलता है तो शरीर में सब कुछ संतुलित ही रहता है और मुंह की कोमल त्वचा भी स्वच्छ ही रहती है क्योंकि जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि यह मुंह के अंदर की कोमल त्वचा तो वैसे भी हमारे सारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है।

बाकी, बातें अगली पोस्ट में ...इसी विषय पर करेंगे। अगर इस का कोई अजैंडा सैट करना चाहें तो प्लीज़ बतलाईयेगा....टिप्पणी में या ई-मेल में।

आज की हैल्थ-टिप.....मेरी आपबीती !


कल का दिन मेरे लिये बहुत बेकार था....कल सुबह जब मैं पांच बजे के करीब उठा तो सिर में बहुत ज़्यादा दर्द था,सोचा कि बस यूं ही मौसम में ठंडी की वजह से हो रहा होगा....कुछ समय में ठीक हो जायेगा। लेकिन यह तो अलग किस्म का ही सिर दर्द था। खैर, सिर को बांध कर लेटना चाहा लेकिन इस से भी चैन कहां पड़ना था। सोचा, ऐसे ही ठंड-वंड लग गई होगी....परसों रात को यमुनानगर से 15-20 किलोमीटर दूर गांव कागोवाली में एक सत्संग में सम्मिलित होने गया था...आते समय कार की खिड़की खुली थी , सो ऐसा लगा कि ठंडी हवा लग गई होगी। लेकिन ऐसी ठंडी हवा भी इतनी तकलीफ़ नहीं देती जितनी मुझे कल हो रही थी।
खैर, तब तक घर के सब मैंबरर्ज उठ चुके थे। मिसिज़ ने कहा कि कुछ चाय-बिस्कुट ले लो....मैंने हां तो कह दी लेकिन जब चाय तैयार हो गई तो उस की तरफ़ देखने की इच्छा नहीं ! खैर,सुबह सुबह ही मुझे बार बार मतली सी आने लगी...बार-बार सिंक पर जाता और थोड़ा सा हल्का हो के आ जाता। लेकिन फिर वही समस्या....बस, चैन नहीं आ रहा था, और सिर तो जैसे फटा जा रहा था। ( हां, यहां एक बात शेयर करना चाहता हूं कि मुझे कभी भी उल्टी करने वाले मरीज़ से घिन्न नहीं आई.....पता नहीं, जब कोई मरीज़ में रूम में भी उल्टी कर देता है तो मुझे बिलकुल भी फील नहीं होता, मुझे उस से बहुत सहानुभूति होती है और मैं उसे कहता हूं ....कोई बात नहीं, आराम से कर लो...........पता नहीं, मुझे कुछ अपना पुराना टाइम याद आ जाता है ).........खैर, हास्पीटल तो जाना ही था.....क्योंकि कल मैं हास्पीटल के चिकित्सा अधीक्षक का कार्य भी देख रहा था।
हस्पताल में बैठ कर भी हालत में कुछ सुधार हुया नहीं। एक एसिडिटी कम करने के लिये कैप्सूल लिया तो, लेकिन वह भी चंद मिनटों के बाद सिंक में बह गया। खैर, श्रीमति जी ने भी कह दिया कि अकसर सिर-दर्द होने लगा है, कहीं न कहीं लाइफ-स्टाईल में गडबड़ तो है ही ना। मुझे पता है कि वे यही कर रही थीं कि नियमित सैर-वैर के लिये जाते नहीं हो, योग करते नहीं हो। खैर, उस समय तो कुछ सूझ नहीं रहा था।
जैसे जैसे दोपहर बाद एक बजे घर आ कर लेट गया....लेकिन कुछ खाने की इच्छा नहीं हो रही थी। जूस मंगवाया ...लेकिन जूस की दुकान बंद होने की वजह से अपना रामू गन्ने का रस ले आया । लेकिन उसे भी पीने की इच्छा नही हुई। । बस ,सिर दुखता ही रहा और बीच बीच में मतली सी होती रही।
यह सब स्टोरी बताना ज़रूरी सा लग रहा है इसीलिये लिख रहा हूं। खैर, कुछ समय बाद समय में आया कि घर में पिछले दो-तीन दिन से बाज़ार का आटा इस्तेमाल हो रहा था......बस सब कुछ समझ में आते देर न लगी। झट से समझ में आ गया कि क्योंकि पिछले दो-तीन दिनों से ही पेट नहीं साफ हो रहा था, रबड़ जैसी सफेद रोटी देख कर उसे खाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी और दो -तीन दिन से ही एसिडिटी की तकलीफ भी रहने लगी थी। हमारे यहां किसी को भी बाज़ार के लाये आटे की रोटी कभी नहीं सुहाती ........सब सदस्य इस के घोर विऱोधी हैं। हम जब बम्बई में पोस्टेड थे तो हमारी सब से बड़ी समस्या ही यही थी कि बाजार में हमें कभी ढंग का आटा मिला ही नहीं थी। बंबई सैंट्रल एरिया में एक स्टोर में पंजाबी आटा मिल तो जाता था.........लेकिन उस में भी वो बात न थी। खैर, जब हम वापिस पंजाब में आये तो हमे (खासकर मुझे) इस बात की तो विशेष खुशी थी कि अब आटा तो ढंग का खायेंगे।
पिछले दो तीन से घऱ मे बाजार का आटा इसलिये इस्तेमाल हो रहा था कि दो -तीन बार जब भी रामू चक्की पर गया थो तो बिजली बंद ही मिली। ऐसा है न कि हम सब को मोटे आटे की आदत पड़ चुकी है। इसलिये हमें बाज़ार में यहां तक की आटा चक्की में मिलने वाला भी पतला आटा कभी भी नहीं चलता .....कहने को तो वे इसे पतला आटा कह देते हैं...ऐसे लगता है कि इस का दोष केवल इतना ही है कि इस को ज़्यादा ही बारीक पीसा हुया है ...लेकिन नहीं , इस का तो पहले इन्होंने रूला किया होता है जिस के दौरान आनाज के दाने की बाहर की चमड़ी उतार ली जाती है......और इसे रूला करना कहने हैं....और जो झाड़ इसे रूला करने की प्रक्रिया में प्राप्त होता है ये चक्की वाले इसे अलग से बेचते हैं......मजे की बात यह है कि लोग इसे जानवरों के लिये खरीद कर ले जाते हैं...यह गेहूं का एक पौष्टिक हिस्सा होता है। मुझे इस का भरा हुया पीपा एक चक्की वाले ने दिखाया भी था।
मैंने स्वयं कईं बार लोगों को चक्की वाले को यह कहते सुना है कि रूला ज़रूर कर लेना..पीसने से पहले। क्योंकि उन्हें भूरा आटा पसंद नहीं है.....और हां, बाज़ार में जो आटा बिकता है उस में से चोकर भी निकला होता है .....सो , हमारे सामने एक तरह से मैदा ही तो रह जाता है जिस को सफेद रोटियां देख कर आज कल लोग ज्यादा खुश होने लगे हैं। लेकिन यह ही है हमारी सब की ज़्यादातर तकलीफों की जड़.......विशेषकर ऐसा आटा खाने वाले के पेट ठीक से साफ होते नहीं है, जिस की वजह से सारा दिन सिर भारी-भारी सा रहता है और मन में बेचैनी सी रहती है।
कुछ साल पहले पंजाब के भोले-भाले किसानों के बारे में एक चुटकुला खूब चलता था......जब शुरू शुरू में भाखड़ा नंगल डैम के द्वारा बिजली का उत्पादन शुरू हुया था तो भोले भाले किसान यह कहते थे.....लै हुन , पानी चों बिजली ही कढ़ लई तां बचिया की ( ले अब अगर पानी से बिजली ही निकाल ली गई तो बचा क्या !)........लेकिन अफसोस आज हम लोग बाज़ार से ले लेकर जिस तरह का आटा खा रहे हैं उसके बारे में हम ज़रा भी नहीं सोचते कि यार, जिस गेहूं का रूला हो गया, जिस में से चोकर निकाल लिया गया......उस से हमें तकलीफें ही तो मिलने वाली हैं। क्या है ना कि गेहूं में मौजूद फाईबर तो उस की इस बाहर वाली कवरिंग (जिसे रूला के द्वारा हटा दिया जाता है) ...और चोकर में पड़ा होता है जो कि हमारे शरीर के लिये निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि इस तरह के अपाच्य तत्व हमारी आंतड़ियों में जाकर पानी सोख कर फूल जाते हैं और मल के निष्कासन में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।
इसलिये जिन का भी पेट साफ नहीं होता उन को हमेशा मोटा आटा .....जिस में से कुछ भी निकाला न गया हो.....खाने की ही सलाह दी जाती है। इसके साथ ही साथ अगर दालों सब्जियों का प्रचुर मात्रामें सेवन किया जायेगा तो क्यों नहीं होगा यह पेट साफ। ऐसे ही टीवी पर अखबारों मे पेट साफ करने वाले चूरनों की हिमायत करने वालों की बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दिया करें।
......हां, तो मैं इसी बारीक आटे की वजह से बिगड़ी अपनी तबीयत की बात सुना रहा था....तो शाम के समय पर तबीयत थोड़ी सुधरी थी कि थोड़े से अंगूर और कीनू का जूस पी लिया.....लेकिन हास्पीटल जाते ही उल्टी हो गई । बस , इंजैक्शन लगवाने की सोच ही रहा था कि मन में सैर करने का विचार आ गया......आधे घंटे की सैर के बाद कुछ अच्छा लगने लगा और घर आकर थोडा टीवी पर टिक गया ......खाना खाने की इच्छा हुई, तो मोटे वाले आटे की ही रोटियां खाईं ......तो जान में जान आई। आप भी हंस रहे होंगे कि यह तो डाक्टर ने नावल के कुछ पन्ने ही लिख दिये हैं।
इस सारी बात का सारांश यही है कि हमें केवल....केवल....केवल......मोटे आटे का और सिर्फ मोटे आटे का ही सेवन करना चाहिये। जिन पार्टियों में सफेद सफेद दिखने वाली तंदूर की रोटियां, नान आदि दिखें.....इन्हें खा कर अपनी सेहत मत बिगाड़ा करिये...............वैसे मेरे पास बैठा मेरा बेटा भी इस बात पर अपनी मुंडी हिला कर अपना समर्थन प्रकट कर रहा है। लेकिन आप ने क्या सोचा है ?
चलते चलते सायरा बानो और अपने धर्म भा जी भी सावन-भादों फिल्म में कुछ फरमा रहे हैं .....अगर टाईम बचा हो तो मार दो एस पर भी एक क्लिक..........

4 comments:

Padma Srivastava said...

डॉ.साहब आपने बहुत ही अच्छी जानकारी दी है।

डॉ. अजीत कुमार said...

सही कहा सर जी, हमारे यहां भी तो मोटे आटे की रोटियां ही बनती हैं. हां ये बात अब अलग है कि जब से पटना में अकेला रह रहा हूं तो बाहर के आटे की भी आदत लग गयी है.

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी कहो तो यहां से भिजवा दु आप को आप कि मनंपसद का आटा,हम यहां वेसा ही आता लाते हे जेसा आप ने बताया,ओर आटा गलत आ जाये तो कोई रोटी ही नही खाता.

Dr.Parveen Chopra said...

@राज जी, बहुत बहुत शुक्रिया.....बस एह तकलीफ़ थोडे़ दिनां दी ही सी.....हुन आ गिया ऐ ओही वाला मोटा आटा !!

मुंह के ये घाव/छाले.....II……..कुछ केस रिपोर्ट्स

कल मैंने इन मुंह के छालों पर पहली पोस्ट लिखी थी और आज मैं हाजिर हूं कुछ केस रिपोर्ट्स के साथ।

- एक महिला ने जब होली मिलन के दौरान मिठाईयां खाईं तो उन के मुंह में छाले से हो गये जिस पर वे हल्दी लगा कर काम चला रही हैं।

अब यह एक बहुत ही आम सी समस्या है...इतने ज़्यादा मुंह के मरीज़ जो आते हैं उन से जब बिल्कुल ही कैज़ुयली पूछा जाता है कि कैसे हो गया यह, तो बहुत से लोगों का यही कहना होता है कि बस, एक-दो दिन पहले एक पार्टी में खाना खाया था। तो,इस से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं................हमें यही सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इन विवाह-शादियों के खाने में तरह तरह के मसालों वगैरह की भरमार तो होती है जो कि हमारे मुंह के अंदर की कोमल चमड़ी सहन नहीं कर पाती.......अब पेट ने तो गैस बना कर, बदहज़मी कर के अपना रोष प्रकट कर लिया, लेकिन मुंह की चमड़ी को अपना दुःखड़ा कैसे बताये ! सो, एक तरह से मुंह में इस तरह के घाव अथवा छाले वह दुःखड़ा ही है। और अकसर ये छाले वगैरह बिना कुछ खास किये हुये भी दो-तीन दिन में ठीक हो ही जाते हैं। आम घर में इस्तेमाल की जाने वाली कोई प्राकृतिक वस्तु (हल्दी आदि) से अगर किसी को आराम मिलता है तो ठीक है , आप उसे लगा सकते हैं। लेकिन कभी भी इतनी सी चीज़ के लिये न तो ऐंटीबायोटिक दवाईयों के ही चक्कर में पड़े और न ही मल्टीविटामिनों की टेबलेट्स ही लेनी शुरू कर दें। इन को कोई खास रोल नहीं है......यह लाइन भी बहुत बेमनी से लिख रहा हूं कि कोई खास रोल नहीं है। मेरे विचार में तो कोई रोल है ही नहीं.....जैसे जैसे इस सीरीज़ में आगे बढ़ेंगे, इन छालों के लिये बिना वजह ही इस्तेमाल की जाने वाली काफी दवाईयों को पोल खोलूंगा।

लेकिन किसी का मिठाई खा लेने से ही मुंह कैसे पक सकता है ?........जी हां, यह संभव है। क्योंकि पता नहीं इन मिठाईयों में भी आज कल कौन कौन से कैमीकल्स इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन क्या करें, हम लोगों की भी मजबूरी है...अब कहीं भी गये हैं तो थोड़ा थोड़ा चखते चखते यह सब कुछ शिष्टाचार वश अच्छा खासा खाया ही जाता है। लेकिन हमारे किसी तरह के अनाप-शनाप खाने को पकड़ने के लिये यह हमारे मुंह के अंदर की नरम चमड़ी एक बैरोमीटर का ही काम करती है....झट से इन छालों के रूप में अपने हाथ खड़े कर के हमें चेता देती है। अभी मैं कैमिकल्स की बात कर रहा हूं तो एक और केस रिपोर्ट की तरफ ध्यान जा रहा है।

एक व्यक्ति जब भी सिगरेट पीता था तो उस के मुंह में छाले हो जाते थे.......

सिगरेट पीने पर भी मुंह में इस तरह के छाले होने वाला चक्कर भी बेसिकली कैमिकल्स वाला ही चक्कर है। यह तो हम जानते ही हैं कि सिगरेट के धुयें में निकोटीन के अतिरिक्त बीसियों तरह के कैमीकल्स होते हैं जिन्हें हमारे मुंह की कोमल त्वचा सहन नहीं कर पाती है और इन छालों के रूप में अपना आक्रोश प्रगट करती है। अगर हम इस नरम चमड़ी के इस तरह के विरोध को समय रहते समझ जायें तो ठीक है ....नहीं तो, यूं ही तो नहीं कहा जाता कि तंबाकू का उपयोग किसी भी रूप में विनाशकारी है।

एक अन्य केस रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति ने ध्यान दिया है कि जब भी वे बिना धुली कच्ची सब्जी, फल इत्यादि खाते हैं तो उन्हें मुंह में एक फुंशी सी हो जाती है।

कौन लगायेगा इस का अनुमान !...जी हां, यह भी कैमीकल्स का ही चक्कर है। आज कल सब्जियों - फलों पर इतने कैमीकल्स-फर्टीलाइज़र इस्तेमाल हो रहे हैं कि बिना धोये इन को खाने से तो तौबा ही कर लेनी ठीक है। फलों को भी तरह तरह के कैमीकल्स लगा कर तैयार किया जाता है.....आपने देखा है ना जो अंगूर हमें मिलते हैं उन के बाहर किस तरह का सफेद सा पावडर सा लगा होता है....ये सब कैमीकल्स नहीं तो और क्या हैं !....आम के सीज़न में आमों का भी यही हाल है......कईं बार जब हम आम को चूसते हैं तो क्यों हमारे मुंह पक सा जाता है....सब कुछ कैमीकल्स का ही चक्कर है। ऐसे में यही सलाह है कि सभी फ्रूट्स को अच्छी तरह धो कर ही खाया जाये। और आम को काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है...नहीं तो पता नहीं इसे चूसते समय हम इस के छिलके के ऊपर लगे कितने कैमीकल्स अपने अँदर निगल जाते होंगे। वैसे बातें तो ये बहुत छोटी-छोटी लगती हैं लेकिन हमारी सेहत के लिये तो शायद यही बातें ही बड़ी बड़ी हैं।

एक 20-22 वर्ष का नौजवान है...उस को हर दूसरे माह मुंह में छाले हो जाते हैं । वह घर से बाहर रहता है। अकसर इन छालों के लिये सारा दोष कब्ज के ऊपर मढ़ दिया जाता है। उस युवक ने दांतों की सफाई भी करवा ली है, लेकिन अभी वह इन छालों से निजात पाने के लिये कोई स्थायी इलाज चाहता है।

इस युवक की उम्र देखिये....20-22 साल.....ठीक है , उस के मुंह में टारटर होगा, या कोई और दंत-रोग होगा जिस के लिये उस ने दांतों एवं मसूड़ों की सफाई करवा ली है। ठीक किया । लेकिन अगर इस से यह समझा जाये कि अब मुंह में छाले नहीं होंगे, तो मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। इस का कारण मैं विस्तार में बताना चाहूंगा।

यह जो कब्ज वाली बात भी अकसर लोग कहने लग गये हैं ना इस में कोई दम नहीं है......कि कब्ज रहती है,इसलिये मुंह में छाले तो होंगे ही। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब 1982 में हमारे प्रोफैसर साहब इन मुंह के छालों के बारे में पढ़ा रहे थे तो उन्होंने भी इस कब्ज से मुंह के छालों के लिंकेज को एक थ्यूरी मात्र ही बताया था। और सब से ऊपर हाथ कंगन को आरसी क्या .....अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में मैंने तो यही देखा है कि जब हम लोगों को कहीं कुछ समझ में नहीं आता तो हम झट से कोई स्केप-गोट ढूंढते हैं ...विशेषकर ऐसी कोई जो कि लोगों की साइकी में अच्छी तरह से घर कर चुकी होती है। और यह कब्ज और मुंह के छालों का लिंकेज भी कुछ ऐसा ही है।

वैसे चलिये ज़रा इस के ऊपर विस्तार से चर्चा करें......सीधी सी बात है कि वैसे तो किसी भी उम्र में जब किसी को कब्ज हो तो कुछ न कुछ गड़बड़ तो कहीं न कहीं है ही......लेकिन 20-22 के युवक में आखिर क्यूं होगी कब्ज। और यकीन मानिये ये जो हम कब्ज के विभिन्न प्रकार के डरावने से कारणों के बारे में अकसर यहां वहां पढ़ते रहते हैं ना, शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों कब्ज से परेशान मरीज़ों में से किसी एक को ही ऐसी कोई अंदरूनी तकलीफ़ होती होगी। ऐसा मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि अधिकांश कब्ज के केस हमारी जीवन शैली से ही संबंधित हैं.....हमारी बोवेल हैबिट्स रैगुलर नहीं है। 20-22 के युवक में कब्ज होना इस बात को इंगित कर रही है कि या तो उस युवक का खान-पीन ठीक नहीं है या उस में शारीरिक परिश्रम की कमी है। खान-पान से मेरा मतलब है कि उस युवक का खाना-पीना संतुलित नहीं होगा, उस के भोजन में सलाद, रेशेदार फ्रूट्स की कमी होगी....क्योंकि अगर कोई इन वस्तुओं का अच्छी मात्रा में सेवन करता है तो कब्ज का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। और अगर फिर भी है तो अपने चिकित्सक को ज़रूर मिलें...........लेकिन पहले अपना खान-पान तो टटोलिये......सारी कमी यहीं पर नज़र आयेगी। और हां, कब्ज के लिये विभिन्न प्रकार के अंकुरित दालें एवं अनाज बेहद लाभदायक हैं। और मुझे जब कुछ साल पहले ऐसी समस्या हुई थी तो मैं एक-दो आँवले रोटी के साथ अचार के रूप में खा लिया करता था और जब बाज़ार में आंवले मिलने बंद हो जाया करते थे तो आंवले के पावडर का आधा चम्मच ले लिया करता था, जिस से कब्ज से निजात मिल जाया करती थी। मैं अपने आप ही किसी भी तरह की कब्ज से निजात पाने वाली दवाईयां लेना का घोर-विरोधी हूं.....इस तरह से अपनी मरजी से ली गई दवाईयां तो बस कब्ज को बद से बदतर ही करती हैं ... और कुछ नहीं, इस के पीछे जो वैज्ञानिक औचित्य है उस को किसी दूसरी पोस्ट में कवर करूंगा।

और हां, बात हो रही थी, किसी 20-22 साल के युवक की जिसे कब्ज भी रहती है और यह समझा जाता है कि मुंह के छाले इसी कब्ज की ही देन हैं। तो यहां पर एक बात बहुत ही ध्यान से समझिये कि किसी बंदे को कब्ज है ....इस का अधिकांश केसों में जैसा कि मैंने बताया कि निष्कर्ष यही तो निकलता है कि उस के खाने-पीने में गड़बड़ है....वह रेशेदार फल-फ्रूट-सब्जियां एवं दालें ठीक मात्रा में ले नहीं रहा और/अथवा जंक फूड़ पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा किया जा रहा है। क्योंकि कब्ज का रोग मोल लेने का एक आसान सा तरीका तो है ही कि इस मैदे से बने तरह तरह के आधुनिक व्यंजनों( बर्गर, नूडल्स, पिज़ा, हाट-डाग आदि आदि आदि) को हम अपने खाने में शामिल करना शुरू कर दें।
......मुझे तो ज़्यादा नाम भी नहीं आते क्योंकि मैं तो बस एक ही तरह के जंक फूड का बिगड़ा हुया शौकीन हूं....आलू वाले अमृतसरी नान व छोले......जंक इस लिये कह रहा हूं कि ये अकसर मैदे से ही बनते हैं ...लेकिन फिर मैं दो-तीन महीनों में एक बार इन्हें खाकर पंगा मोल ले ही लेता हूं और फिर सारा दिन खाट पकड़ कर पड़ा रहता हूं जैसा कि इस पिछले रविवार को हुया था...।

बस जाते जाते बात इतनी ही करनी है कि इस 20-22 साल के युवक के खान-पान में कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है ही, अब अगर वह इन बातों की तरफ़ ध्यान देगा तो क्यों होगा वह बार बार इन मुंह के छालों से परेशान....क्योंकि जब शरीर को संतुलित आहार मिलता है तो शरीर में सब कुछ संतुलित ही रहता है और मुंह की कोमल त्वचा भी स्वच्छ ही रहती है क्योंकि जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि यह मुंह के अंदर की कोमल त्वचा तो वैसे भी हमारे सारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है।

बाकी, बातें अगली पोस्ट में ...इसी विषय पर करेंगे। अगर इस का कोई अजैंडा सैट करना चाहें तो प्लीज़ बतलाईयेगा....टिप्पणी में या ई-मेल में।

3 comments:

Ghost Buster said...

बहुत बहुत शुक्रिया. अच्छी जानकारी रही.

दिनेशराय द्विवेदी said...

धन्यवाद! प्रवीण जी। आप ने कब्ज वाली थ्योरी को झाड़ दिया। मेरी कोई मानता न था। पर आप के विश्लेषण से एक बात यह सामने आई कि कब्ज होने और छाले होने के बहुत से कारण समान हैं। इस कारण यह हो सकता है कि कब्ज और छाले साथ-साथ होते हों और इसी कारण यह धारणा बनी हो। कब्ज की दवा लेने से कब्ज तो ठीक होती ही है पथ्य भी सुधार लेने से छाले भी स्वतः ही एक-दो दिनों में ठीक हो लेते हैं।
आप का यह सुझाव अच्छा है कि रेशेदार खाद्य भोजन में अवश्य होना चाहिए। इस के लिए अंकुरित अनाज और दालों का उपयोग सही और सुगम भी है। अगर एक-दो फल नित्य ही अच्छी तरह धोकर खा लिए जाएं तो मेरे विचार में उत्तम है। मैं यह अवश्य जानना चाहूंगा कि अगर छाले हो जाएं और वह भी काफी बड़े और कष्टदायी तो क्या करना चाहिए?
आप के द्वारा दी गई जानकारी के लिए पुनः आप का बहुत बहुत धन्यवाद।

Udan Tashtari said...

जानकारी अच्छी है मगर डर गये हम मसाला खाने वाले!!

जे आपां दोवें रुस बैठे तां..(अगर हम दोनों रूठ गये तो...)

यह पंजाबी का एक सुपर-डुपर गीत है जिस में एक पंजाबी मुटियार अपने माही से कह रही है कि तुम ने मुझे क्या मनाना था, तुम तो स्वयं ही मेरे से रूठ गये हो......लेकिन साथ में उसे यह भी आगाह कर रही है कि ज़माना तो तमाशा तो तमाशबीन है ही जो कि हमारे इस झगड़े में भी तमाशा देख रहा है। इसलिये मुटियार को यही चिन्ता सताये जा रही है कि अब मसला यह है कि अगर हम दोनों ही एक दूसरे से रूठ जायेंगे तो हमें आखिर मनायेगा। इस गीत को पंजाब के मशहूर गायक हंस राज हंस ने गाया है ....जिस में आप को सूफी गायकी के भी अंश मिलेंगे।
इस पंजाबी गीत में पंजाबन मुटियार तो अपने गबरू से यह भी कह देती है कि तेरे वियोग में अगर मैं हंजुओं(अश्रुओं) के सैलाब में डूब रही हूंगी तो मेरे को कौन उस सैलाब से निकाल कर गले लगायेगा।
वैसे पता नहीं मैं क्यों इतनी लंबी कमैंटरी दिये जा रहा हूं.......पता नहीं क्यों मैं तुहाडे अते इस गीत दे विचकार इक कबाब दी हड्डी जही बन रिहा हां.....सो मितरो, एह चलिया जे मैं ते तुसीं आनंद मानो इस पंजाबी विरसे दा।
वैसे यह गीत हमें कितना कुछ सिखा रहा है........इस के लिरिक्स में कितनी गहराई है.......सुनिये और महसूस कीजिए.........और इक दो लाइनां कदे कमैंटां विच वी सुट दिया करो.....बस , ऐवें ही नहीं, वधिया वधिया गीत सुन के लांबे हो गये.............एह ते मितरो कोई गल ना होई। अच्छा , हुन तुसीं एह फड़कदा होया गीत सुनों। नहीं, नहीं, इह न ध्यान करिया करों कि सवेरे सवेरे सिरफ धार्मिक गीत ही सुनने हन.........!! बस जो कुछ वी सुन के मज़ा आवे उस दे ही मेरे वांगू बुल्ले लुट लिया करो। जिउंदे-वसदे रहो ते खुशियां मानो, जी।

वो चित्रहार वाले दिन भी क्या दिन थे !

आज ऐसे ही ध्यान आ रहा था कि हमारा समय भी क्या था कि अगर हिंदी फिल्मी के गीत देखने भी हैं तो वे सिर्फ़ सिनेमाघरों में जा कर ही देखे जा सकते थे । यह टीवी..वीवी तो बाद में आया....और उस पर भी ये फिल्मी गीत हफ्ते में एक-दो दिन लगभग आधे घंटे के लिये ही दिखाये जाते थे। और दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले इस प्रोग्राम का नाम हुया करता था...चित्रहार,जिस में पांच-छः गीत सुनाये जाते थे। और यकीन मानिये, हफ्ते के बाकी दिन बस इसी कार्यक्रम का ही इंतज़ार हुया करता था। स्कूल का होम-वर्क भी उस दिन इस चाव में दोपहर में भी निबटा लिया जाता था कि आज शाम को तो टीवी पर चित्रहार आना है । और हां, स्कूल में भी अपने दोस्तों के साथ इस तरह की बातें होती थीं कि अच्छा तू बता, आज कौन कौन से गाने दिखायेंगे ...चित्रहार में । और ये डिस्कशन लंबे समय तक चलती थी जब तक वह डरावना सा दिखने वाला हिस्ट्री का मास्टर क्लास में अपनी ऐन्ट्री से इस डिस्कशन का सारा मज़ा किरकिरा ही नहीं कर देता था।

लेकिन वो हमारी प्रोबल्म थी.....आप क्यों बिना वजह सुबह सुबह अपना मूड खराब करते हैं। लीजिये, उन्हीं दिनों की अपनी हसीन यादों में से एक बेहद सुंदर गीत फैंक रहा हूं.......जिसे शायद बीसियों बार देख चुका हूं, सुन चुका हूं........अब आप के साथ फिर से सुन रहा हूं।

बुधवार, 12 मार्च 2008

जिंदगी हंसने गाने के लिये है...पल दो पल

जब मेरा मन भारी सा होता है..........मैं सोचता हूं कि जब मेरा मन भारी सा होता है तो मैं किस तरह उसे हल्का करता हूं........नहीं, नहीं, डाक्टर होते हुये भी आज तक कभी भी ये टेंशन-वेंशन दूर भगाने वाली गोलियों से दूर ही रहा हूं और ऐसी दुआ करता हूं कि ताउम्र इन से कोसों दूर ही रहूं और अपने मरीज़ों को भी यही मशविरा देता रहूं। फिलहाल तो मैंने अपने ही कुछ तरीके निकाल रखे हैं ...इस टेंशन को दूर भगाने के लिये। उस में से सब से महत्त्वपूर्ण है .....मैडीटेशन............मैं जितना भी लो-फील कर रहा होता हूं, कितना भी थका-मांदा सा.......मैडीटेशन कर लेने के बाद मैं एकदम फ्रेश एवं चुस्त-दुरूस्त फील करने लगता हूं। दूसरा तरीका है ....जब सिर थोड़ा थोड़ा भारी होने लगता है तो लंबी पैदल सैर कर निकल पड़ता हूं.......आधे-पौने घंटे की तेज़ रफ्तार सैर के बाद मैं एकदम बढ़िया फील करने लगता हूं। और, तीसरा तरीका है कि मैं डैक्सटाप पर या लैटलाप पर ....अपनी पसंद के हिंदी या पंजाबी ( नहीं, इंगलिश गाने कभी सुने ही नहीं, इसलिये कभी समझ ही नहीं आते................सिवाये उस के ....ब्राजील.....ब्राजील.....क्योंकि वह लंबे समय तक बजता रहा है) ...। हां, तो मैं अपनी पसंद के हिंदी गीत या पंजाबी गीत अपने स्टडी-रूम में बहुत तेज़ आवाज़ में सुनने का बहुत ज़्यादा शौकीन रहा हूं। मेरी डाक्टर बीवी को इस से नाराज़गी इसलिये होती रही है कि उन्हें डर लगता रहता है कि कहीं इस से मेरे कानों पर इसका बुरा असर न पड़े। लेकिन अब यह आवाज़ वाला फैक्टर काफी कंट्रोल हो चुका है.................लेकिन मेरी यह आदत तो अभी भी यूं की त्यों बनी हुई है ....जो गाना पसंद है तो बस उस को बार-बार कईं बार सुनता है ...इस आदत को मैं कभी कंट्रोल करना भी नहीं चाहता....जैसी है, वैसी रहे ....क्या फर्क पड़ता है.........।
मैं अकसर सोचता हूं कि मैं इस तरह के जश्न वाले गानों में इतना खो इसलिये भी जाता हूं क्योंकि मैं इन गानों को एक दर्शक के तौर पर कभी नहीं देखता... मैं तो अपने आप को भी उसी उत्सव का हिस्सा ही मानने लगता हूं और इसी उत्सव में धूम मचाने की वजह से मेरे सिर का भारीपन पता नहीं कहां छू-मंतर हो जाता है।
तो, क्या आप भी यह मैथेड ट्राई करना चाहेंगे....तो, लीजिये इस गाने पर क्लिक करिये और खो जाइये इस के जश्न में .............ध्यान से देखियेगा कि ये सब लोग कितने खुश दिख रहे हैं , तो हमें कौन रोक सकता है !

और हां, स्टैस मैनेजमैंट के नये नये फंडे- ब्लोगिंग- के बारे में लिखना तो भूल ही गया। जब भी कभी कोई शिकायत होती है ..तो बलोग-पोस्ट की-बोर्ड पर उंगलियां पीटने से तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है ना।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

अब मुश्किल नहीं कुछ भी !

मैंने तो जब से इस गाने को सुना है मुझे तो नहीं लगता कि नामुमकिन नाम का कोई शब्द शब्द-कोष में है। इस गीत का एक एक शब्द, इस के म्यूज़िक नोट्स और श्रेयस तलपड़े की बेहतरीन एक्टिंग में इतना ज़्यादा जादू है कि किसी भी गिरे हुये बंदे को उठने के लिए प्रेरित ही नहीं कर दें, बल्कि उस की बांह पकड़ कर उसे उठा ही दे। मुझे तो यह गाना बेहद पसंद है ...जब भी यह कभी टीवी वगैरा पर देखता हूं तो किसी और लोक में ही पहुंच जाता हूं। इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी भी इतनी है कि इस की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम चाहे। सिम्पली सुपर्ब।
एक बार फिर से इस का आनंद लेता हूं।

आ जाओ पंजाब दा इक गीत सुनिये( आइए पंजाब का एक जबरदस्त गीत सुनें !)

दोस्तो, जब मैं अमृतसर के होस्टल में रहता था ना तो मुझ पर अपने टू-इन-वन पर बिलकुल देसी टाइप के पंजाबी गाने सुनने का नशा सा सवार रहता था। मेरी दोस्त मुझे कईं बार यह कहते थे कि यार , तुम्हारे टूइनवन पर बज रहे गाने सुन कर मज़ा आ जाता है, साथ में एकदो दोस्त यह ज़रूर कह देते थे कि यार, हैं ये सब ट्रक-ड्राईवरों की पसंद के ही। बस, अपनी अपनी पसंद है, अगर कुछ विशेष सुन कर मज़ा आता है तो क्यों न यह आनंद लूटा जाये।

अभी अभी मुझे बैठे बैठे एक बहुत ही मशहूर पंजाबी गीत की याद आ रही है.....आप भी सुनिए और आनंद लूटिये। इस में एक पंजाबी मुटियार अपने ट्रक-ड्राइवर पति की प्रतीक्षा करते करते बेहाल हो रही है, उस की सखियां उस से छेड़खानी कर रही हैं ,उस का प्यारा सा बेटा अपनी दुनिया में खोया रहता है और आग इधर ही नहीं लगी, दूसरी तरफ उस का घरवाला ( पति) भी अपने ट्रक के टूर के दौरान अपनी बीवी और बच्चे की याद में टाइम धकेलता रहता है। फिर वे अपनी अपनी जगह पर एक साथ बिताये हुये पलों को याद कर खुश होते रहते हैं।

रविवार, 9 मार्च 2008

जागो ग्राहक जागो, लेकिन फिर ?


हां, लेकिन ग्राहक जाग कर भी आखिर कर क्या लेगा ! अभी अभी बाज़ार से हो कर आ रहा हूं। कुछ दिन पहले एक दुकानदार को कोर्डलैस फोन के लिए पैनासॉनिक की ओरिजिनल बैटरी के लिये बोल कर आया था। कह रहा था कि दिल्ली से मंगवानी पड़ेगी.....सो, आज लेने गया तो उस ने एक बैटरी उस कोर्डलैस के हैंड-सैट में डाल दी और मैं उसे 125 रूपये थमा दिये।
लेकिन जब मैंने उस बैटरी की तरफ़ देखा तो मुझे लगा कि यह तो ऐसे ही कोई चालू सा ब्रांड है, ऐसे ही लोकल मेक....बस उस की पेकिंग पर केवल ग्रीन-पावर लिखा हुया था....ना कोई आईएसआई मार्क, न ही कोई अन्य डिटेल्स..........सीधी सी बात कि मैं एक बार फिर उस दुकानदार के हाथों उल्लू बन गया था।
मैंने उस से पूछा कि तुम्हें तो ओरिजिनल बैटरी के लिये कहा था , लेकिन वह कहने लगा कि ओरिजिनल अब कहां मिलती हैं....यह जो आप ने पहले से इस में डलवाई हुई है,वह तो बिल्कल ही डुप्लीकेट है जो कि 75रूपये में ही मिल जाती है और यह केवल आठ महीने चलेगी। लेकिन यह जो बैटरी अभी मैंने डाली है ...इस की कोई कंप्लेंट हमारे पास आई नहीं है और कम से कम एक साल तक चलेगी। मैं समझ गया कि अब एक बार फिर से बेवकूफ़ बन तो गया हूं ....अब ज़्यादा इस से बात करने से कुछ हासिल होने वाला तो है नहीं। इसलिए मैंने उस को यह भी बताना ठीक नहीं समझा कि यह जो बैटरी जिसे वह डुप्लीकेट कह रहा है वह तो इस कोर्डलेस के साथ खरीदते वक्त ही मिली थी और पिछले चार सालों से ठीक ठाक बिना किसी कंप्लेंट के चल रही थी....अब खत्म हुई है।
सही सोच रहा हूं कि हमारे यहां पर ग्राहक का तो बस हर तरफ़ शोषण ही शोषण है....पढ़ा-लिखा बंदा कहीं यह सोचने की हिमाकत भी न कर बैठे कि अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोग ही उल्लू बना करते हैं। देखिए, इस की एक जीती-जागती उदाहरण आप के सामने मौज़ूद है। क्या है ना , इन सब बातों से फ्रस्ट्रेशन होती है कि जब कोई ओरिजिनल चीज़ के लिये कहता है और मोल-भाव भी नहीं करता तो भी उसे ओरिजिनल चीज़ नहीं मिलती। अब यहां पर रोना तो इसी बात का है।
यह तो एक उदाहरण है..............ऐसे सैंकड़ों किस्से हम और आप अपने मन में दबाये हुये हैं और दबाये ही रहेंगे क्योंकि दैनिक दिनचर्या में हम लोग इतने पिसे हुये हैं कि हमारा यही एटिट्यूड हो जाता है......यार, भाड़ में जायें ये सौ-दो-सौ रूपये..................दफा करो..............कौन इतनी माथा-पच्ची करे ! बस, इतना सुकून है कि एक लेखक होने के नाते अपनी सारी फ्रस्ट्रेश्नज़ ( सारी बिल्कुल नहीं, बहुत कुछ दबा कर रखा हुया है, लेकिन आप लोगों से प्रोमिस कर चुका हूं कि एक न एक दिन सारा पिटारा आप के सामने खोल दूंगा.....फिर चाहे उस का कुछ भी हो अंजाम....परवाह नहीं करूंगा.................लेकिन वह समय कब आयेगा, मुझे भी पता नहीं) ...अपनी उंगलियों को की-बोर्ड पर पीट पीट कर निकाल लेता हूं...............what a great stress-buster, indeed!.....Isn’t it?.
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
मैंने भी आज संडे के दिन आप का मूड भी आफ कर दिया है.....सो, चलिये अब थोडा मूड फ्रैश करते हैं , चलिये आप मेरी पसंद का एक गाना सुनिये..................यह गाना भी वह गाना है जिसे मैं सुनते कभी थक नहीं सकता !!...

पंजाबी अखबार पढ़ के वी हुन मज़ा नहीं आंदा..

हुने हुने इक पंजाबी दी अखबार पढ़ के हटिया हां.... पर ज़रा वी मज़ा नहीं आया। ऐन्ने कु ज्यादा इश्तिहार इस विच भरे होये हुंदे ने कि बंदे दा दिल करदै कि वगा के परे सुट्टे ऐन्नां अखबारां नूं। दो-चार पंज मिनट च अखबार पूरी खतम हो जांदी ऐ। वैसे मैं पिछले कुछ सालां दौरान लगभग सारीयां पंजाबी दीयां अखबारां नूं पढ़ मारीया है.....पर कुछ कम जचिया जिहा नहीं । कुछ ने जिहडीयां सिऱफ सियासी पारटीयां दी ही गल करदीयां ने, कुछ ने जिहड़ीयां बहुत ही अजीब तरह दीयां गल्लां ते फोटोयां छापदीयां रहंदीयां ने ते कुज जिह़डीयां कुछ ज्यादा ही चल्लन लग पैंदीयां ने उह तां ऐन्नां इश्तिहारां नाल ऐंज तूसीयां हुदीयां ने जिवें पढ़न वाले ने तिन रूपये इन्नां हज़ारां ऐडां नूं ही पढ़न लई खर्चे ने........बस, कुज दिनां बाद ही उन्नां तो मन भर जांदै। बस, हुन तां बस ऐतवार वाले दिन इक पंजाबी दा अखबार आंदा ऐ ताकि छोटे मुंडे दी पंजाबी वधिया हो जावे।
मैं समझदा हां कि अपनी मां -बोली दा गियान होना वी बहुत ज़रूरी है.....सानू्ं अपनी गल अपनी मां-बोली विच कहन च फखर वी महसूस होना चाहीदै। साडे सिर ते अपनी इस मां बोली दा इक बड़ा वड्डा करजा ऐ जिहडा सानूं थोडा़ जिहा तां लाउन दी कोशिश करनी ही चाहीदे ऐ......पूरा भार तां असीं लाउन दी सोच ही नहीं सकदे। पता नहीं अज कल मियारी अखबार क्यों नहीं लभदे.............इक आम बंदा ऐ ..उस नूं नेट नाल कोई सरोकार नहीं, उस दा महंगे महंगे रसालियां नाल वी कोई ऐडा कोई रिश्ता नहीं.....बस, उस दा तां रिश्ता है उस दी अपनी लोकल भाषा दे अखबार नाल....पर , हुन ऐह वी मसला बनिया होया ऐ कि आम बंदे तक असीं किवें अपनी गल बिना तोडे -मरोडे पहुंचा सकिये।
हां, जे कर तुसीं किसे पंजाबी ब्लोग ऐगरीगेटर बारे जानदे हो तां मैंनूं दसियो......होर तुसीं की की चाहंदे हो कि इस ब्लोग विच कवर होवे ,मैनूं लिखयो.....मैं पूरी कोशिश करांगा। अपनी मां-बोली विच वी लिखना किन्ना आसान ऐ ...बंदा नूं लगदै जिवे अपने यारा मितरां नाल गप्पां ही मार रिहा होवे। बस अजे एत्थे ही ब्रेक लानां वां.............मितरो, बोर ते नहीं हो रहे ना, जेकर कुछ अजेही गल वी होवे तां दस ज़रूर देयो................आपां उस्से वेले बंद कर दियांगे।
अच्छा , बेलीयो....................अगली पोस्ट तक रब राखा

आ जाओ मितरो थोडी गप-शप वी तां कर लईये !

इस हिंदी बलोगिंग विच लोकां नूं अपने अपने इलाके दीयां बोलियां विच लिखदियां वेख रिहा हां तो मैं वी इह सोच रिहा हां कि कुज इहो जिहा मैंनू वी करना चाहिदा ऐ। क्योंकि गलां कुज ऐंज तरां दीयां वी हुंदियां ने जिहडीयां अपनी मां-बोली विच ही कह के, कर के ...दिल खुश हुंदा ऐ। नहीं तां उस दा मजा ही मारीया जांदा ए। बस, हुन तुसीं वेखियों मैं तुहाडे नाल ऐनियां गलां करिया करनीयां ने कि तुसीं कह देना ...य़ार, हुन बस वी कर। इह इक पहला अक्सपैरीमैंट जिहा ही कर रिहा हां , सो मैंनू आप सारियां दी बोत बोत हल्ला शेरी चाहीदी ऐ। नहीं तां, मैं किधरे ऐवें ही थक टुट के ना बह जावां। बस ऐना कू धियान रख लियो। इक तरां नाल मैं तां अपने मुंह दी मैल लाउन दा उपराला जिहा ही कर रिहा हां. ऐस ब्लोग विच तां बस आपां सारे वीरां-भैनां ने बस गलां ही गलां करनीयां ने।
चलो, अपने पिंड अंबरसर तो ही गल शुरू करदा हां....मैं उत्थे ही जमिया पलिया और उत्थे ही अपनी सारी पढ़ाई होई है, सो, मैंनू उस शहर नाल बहुत ही प्यार है। किहड़ा दिन होवेगा जदों मैं अपने शहर नूं याद नहीं करदा। बस, सब पुरानी गलां लगदियां हन ते तुहाडे सारेयां नाल दिल खोल के सांजियां करनीयां ने।
वैसे हुने हुने मैंनू उस कमल हीर दा उह गाना जिहडा मैंनू बडा ही पसंद है याद आ रिहा ऐ।
बैठ के त्रिंजना च सोहनीये,
कड्ढें जदों चादर उत्ते फुल तूं..
किन्नू याद कर कर हसदी ,
चुन्नी च लुका के सूहे बुल तूं।...
बस, अज ते मैं थोडी इंटरोडक्शन ही देनी सी। दसियो, तुहानूं मेरा ऐह ख्याल किद्दां दा लग्गा ऐ। वीरो, जे पसंद करोगे ठीक ऐ...नहीं ते अपने इस ने वगाह के परे सुटांगे..........असीं किहडा किसे कोलों कुछ पुछन जाना ऐ....बस, चुप चुपीते आप्शन्स ते जा कर के डिलेट दा ब्लाग ते ऊपर जा कर के उंगली रूपी सोटा नाल इक छोटा जिहा वार ही करना ऐ ना...................ते बलाग गायब।
वेखो, मैंनू मेरे इस अजीब जिहे आइडिये बारे ज़रूर लिखियो, चंगा लग्गेगा.................हां, इक गल दा होर ध्यान रखियो कि इस पोस्ट दे थल्ले टिप्पणी वगैरा लिखन विच कोई भी भाषा इस्तेमाल कर लियो, हिंदी , पंजाबी , अगरेजी.........मैंनू बहुत खुशी होवेगी। पर लिखियो ज़रूर।
अच्छा फेर हुन तां चलदा हां............फेर आपां मिलदे गिलदे रहां गे, बेलियो। तद तक रब राखा.........अपना ध्यान रखियो।
जिऊंदे-वसदे रवो।।।।।।।।

शनिवार, 8 मार्च 2008

कश्मीर सिंह दी बल्ले बल्ले....

वैसे उस बंदे दी वी जिन्नी वाह वाह कीती जावे घट ऐ...किद्दां उह दलेर बंदा पाकिस्तान दीयां वखो-वख जेलां विच दुख झेलदा रिहा.....दो तिन दिन पहलां तां जद उस दी सारी स्टोरी अखबारां विच आई सी तां यकीन मन्नियो अपने तां बई लू-कंडे खडे हो गये सन। सचमुच दिलेरी ही ऐ......ऊस दिन चंडीगढ़ तों छपन वाले अखबार ने संपादक वाले पेज ते उस दी खबर नूं पूरी कवरेज दित्ती होई सी....देख के बहुत वधीया लग्गिया......। उस दी तीवीं ...बीबी परमजीत कौर दी वी जिन्नी कु दाद देविये उन्नी ही घट ऐ.....ऊह बीबी ने खुद कम्म कर कर के अपने बच्चेयां नूं पालिया, पढाईया , लिखाईया.....हुन मैंनू लिखदिया लिखदिया खियाल आया ऐ कि अज अंतरराषटरी महिला दिन ऐ तो की जेकर अज उस ऐडे वड्डा हौंसला रखन वाली देवी नूं ही सनमानिया जांदा तां किन्ना वधीया हुंदा। वैसे तो हिंदोस्तान दी इक जनानी दे बलिदान दी एह इक जींदी जागदी तसवीर ही बन गई जापदी ऐ।
अज दीयां अखबारां विच इह पढ के बहुत तसल्ली होई कि पंजाब सरकार ने उन्नां दोवां नूं हर महीने पंज पंज हज़ार दी पैंशन देन दा फैसला वी कीता है। ऐह पढ़ के वी बहुत खुशी होई कि उन्नां नूं इक प्लाट वी दित्ता जा रिहा है ते उस प्लाट दे उत्ते मकान उसारन दा सारा खरचा वी सरकार ही अपने सिर लवेगी।
तुसीं इक गल पड़ी.....अखबार विच लिखिया होईया सी कि उस महान बंदे दे इक पुत्तर नूं पोलियो होईया होया है पर तुसीं उस दी फैमली दी ऐह वडीयाई वाली गल सुनी ऐ कि उन्नां ने उस नूं इन्नां 35सालां विच दसिया ही नहीं कि उस दे पुत ने ऐह तकलीफ ऐ....सिर्फ इसे कर के ओह पराये देश विच बैठिया होईया है ते उत्थे बैठा उह ऐवें ही दुखी होवेगा।
उस दी तीवीं न दसिया की पहलां पहलां उस दे घरवाले दी इक चिट्ठी आई सी....बस उस तो बाद उस ने उन्नां ने कईं चिटठीयां पाईंयां..............मैं तां इह पढ़ के हैरान ही रह गया कि उह बीबी दसदी ऐ कि असीं तां चिट्ठीयां पांदे रहे...सानूं तां इह वी नहीं सी पता कि साडीयां चिट्ठीयां उस तक पहुच रहीयां वी हन कि नहीं........
बस, दोस्तो, जे कर मेरे वस विच हुंदा तां मैं तां अज दे दिन उस महान औरत नूं सारे दुनिया दे किसे प्लेटफार्म उत्ते खड़ा कर के सनमानत करदा तां जो दुनिया दीयां अखां खुलियां दीयां खुलियां रह जांदीयां कि ऐ वेखो, मेरे देश पंजाब दी इक महान बीबी जिहड़ी 35 वरेयां दा वड्डा समां अपने साईं दी आस विच कढ दित्ता ......वैसे कोई पता वी नहीं सी कि उह वापिस आंदा वी कि न आंदा।
हां, काशमीर सिंह तां अपने पिंड विच आ के ऐडा खुश है कि उस ने आखिया कि मैंनूं तां अपने पिंड विच आ के ऐवें लगदै जिवें मैं पैरिस ही आ गिया हां। वैसे वेखिया जावे तां गल है वी किन्नी वड़डी.....असीं अपनी आज़ादी दी कीमत शायद पूरी तरह जानदे ही नहीं हा।
चलो सारे रल मिल के अरदास करीये कि इक दूजे दे देशे विच बंद सारे कैदी आपो-अपने घर पुज जान............ऐवें ही तां नहीं कहंदे कि ...जो सुख छज्जू दे चौबारे, उह न बलख न बुखारे।

दिल को देखो...चेहरा न देखो...चेहरों ने लाखों को लूटा !!

इस समय मैं अपने लैप-टाप पर सच्चा-झूठा का वह वाला गाना सुन रहा हूं..... दिल को देखो, चेहरा न देखो, दिल सच्चा और चेहरा झूठा....यह गाना मुझे इतना पसंद है कि मैं इसे एक ही स्ट्रैच में सैंकड़ों बार सुन सकता हूं। बिल्कुल रोटी फिल्म के उस गाने की तरह....यह पब्लिक है सब जानती है......अभी तक यह समझ नहीं आया कि आखिर इन हिंदी फिल्मों के गीतों में इतनी क्या कशिश है कि आदमी इन्हें सुनते ही झट से कईं साल पहले वाले ज़माने में पहुंच जाता है।
आज जब सुबह हास्पीटल में बैठा हुया था तो कहीं से रेडियो पर बज रहे रोटी कपड़ा और मकान के उस बेहतरीन फिल्म के गीत की आवाज़ सुनाई देरही थी....मैं न भूलूंगा....मैं न भूलूंगी...बस, 70 के दशक के तो फिल्मी गानों की क्या बात करूं.......मन करता है लिखता ही जाऊँ... लगभग ऐसे ही सैंकड़ों गीत होंगे जिन के साथ बचपनी की यादें जुड़ी हुई हैं और जब भी ये रेडियो पर, टीवी पर या लैपटाप पर बजते हैं तो बंदा अपने पिछले दिनों की याद में डुबकियां लगाना शुरू कर देता है। ये वो फिल्में हैं जो मैंने अपने पांचवी-छठी कक्षा के दौरान देखी हुई हैं। तो आप भी मेरी यादों के इन झरोखों में से अपना भी कहीं पीछे छूटा अतीत देखने की एक कोशिश तो कीजिये।

वैसे आप के यहां यह ब्राड-बैंड रखा किस कौने में है ?


“ अंकल, आप जाइए, यह आप के काम की चीज़ नहीं है।”—दो-चार दिन पहले जब मैं जयपुर के एक इंटरनेट कैफे पर बैठा अपना कुछ काम कर रहा था तो मेरे सामने वाले एन्क्लोज़र में बैठे दो 13-14 साल के लड़कों के मुंह से निकली इस बात को सुन कर मैं दंग रह गया। हुया हूं कि उस इंटरनैट कैफे का सुपरवाईज़र-सा दिखने वाला वर्कर जब उन के सामने बस थोड़ा अभी खड़ा ही हुया था कि उन दोनों लड़कों ने उसे वहां से यह कह कर हटने के लिये कह दिया कि जो काम वे कर रहे हैं वह उस के काम की चीज़ नहीं है।

लेकिन ये इंटरनैट वाले भी सब कुछ समझते हैं....उन का रोज़ का काम है और पता नहीं कितने ऐसे बच्चों से उन का रोज़ाना पाला पड़ता होगा। शायद वह सुपरवाईज़र उन दोनों बच्चों को जानता था, सो पहले तो उस ने उन दोनों को बहुत गुस्से से बोला कि चलो, तुम लोग चलो यहा से......मैं कहता हूं निकलो यहां से......। लेकिन जब उन बच्चों के कान पर जूं तक न रेंगी तो उस ने झट से अपने जेब से मोबाइल फोन निकाला और उन बच्चों से पूछने लगा कि फोन करूं ?......शायद वह सुपरवाईज़र उन बच्चों के मां-बाप को फोन करने की बात कर रहा था। बस, मुझे यहां तक ही पता है, उस के बाद मेरा ध्यान अपने काम की तरफ़ चला गया......और मुझे नहीं पता कि आगे उन का क्या हुया !

लेकिन उस दिन मैं यही सोचता रहा कि हमारे आज के बच्चे भी कितने आगे निकल चुके हैं.....एक इंटरनैट कैफे के एक कर्मचारी को इस तरह से ब्लंट्ली कह देना कि यह तुम्हारे काम की चीज़ नहीं है ....। और वह भी जब इस तरह की बात 13-14 साल के बच्चों के मुंह से निकल रही हो। यह तो कोई बात ना हुई कि यह आप के काम की चीज़ नहीं है......अब उन बच्चों को यह भी तो समझने की ज़रूरत है कि यह कोई वीडियो गेम पार्लर नहीं है !!

मुझे वैसे यह भी लगा कि इंटरनैट के ऊपर जो अपने लोगों के मन में तरह-तरह के एडवैंचर करने की धुन है ना, यह भी कुछ समय की ही बात है। बहुत जल्द सब कुछ सामान्य सा हो जायेगा। मुझे ध्यान आ रहा है कि ये जो इंटरनैट पर यूज़र्स को कुछ ज़्यादा ही प्राइवेसी उपलब्ध करवाई जाती है, इस का भी थोड़ा दोष ही है...............ठीक है, हरेक को कंप्यूटर पर थोड़ी प्राईवेसी तो चाहिये ही, लेकिन क्यूबिकल्स के आगे परदे टांग देने या शीशे की पार्टिशन्ज़ लगवा देना मुझे ठीक नहीं लगता। वैसे तो इन सब को भी हमें कुछ दिन का मेहमान ही समझना चाहिये...जैसे जैसे इंटरनैट का यूज़ देश में बढ़ेगा इस तरह के मिस-एडवेंचर्ज़ कम होते जायेंगे.........हां, हां, जब किसी चीज़ पर भी ज्यादा अंकुश लगा होता है तो उसे जानबूझ कर ट्राई करने में एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति सी होती है.....वो ठीक ही कहते हैं ना “Stolen kisses are always sweeter!!”.....शायद यही आज हमारे यहां इंटरनैट पर हो रहा है।

मुझे ध्यान आ रहा था कि हमारे दिनों में कुछ रैस्टराओं में नवविवाहित युगलों अथवा प्रेमी युगलों के लिये एक दो कक्ष अलग से हुया करते थे.....और उन के बाहर एक परदा( अकसर बहुत गंदा सा) टंगा हुया करता था। अच्छा, आप को भी यह सब याद आने लगा है, अच्छा है। लेकिन आज कल ये परदे टंगे कहां दिखते हैं !.....एक बात और भी है ना कि उस ज़माने में जब हम लड़के लोग कोई सिनेमा देखने जाते थे.........और जब कभी बालकनी की टिकट लेने की हैसियत हुया करती थी तो कोशिश रहती थी कि सब से पिछले वाली पंक्ति में ही बैठा जाये....केवल बस इसलिये कि बॉक्स में बैठने वालों युगलों की एक्टिविटिज़ (सिर्फ़ कानाफूसी का !) का थोड़ा बहुत पता चलता रहे और हम दोस्तों का फिल्म के साथ साथ हंसी-ठट्ठा भी चलता रहे। शायद उस समय तो आंखे केवल दो ही और वह भी मुंह के आगे वाले हिस्से में लगाने के रब के इस मनमाने से लगने वाले फैसले पर गुस्सा भी आता था कि काश दो आंखे पीछे भी लगी होती। वो भी क्या दिन थे......बस हर तरफ मस्ती ही मस्ती, यकीन मानिये, हाल में घुसते हुये इन बाक्सों की तरफ कुछ इतनी हसरत से देखा जाता था कि क्या यहां बैठना हमें भी नसीब होगा.................लेकिन क्या कभी वहां बैठना नसीब हुया कि नहीं........sorry, friends, that I can’t share with you right now….that will be going too far !!... लेकिन आज बॉक्स तो क्या , शहरों में थियेटर ही नहीं दिखते हैं.................हां, तो मैं यही कह रहा था कि यह सब नया नया अच्छा लगता है, रोमांच देता है।

लेकिन इतना मुझे ज़रूर लगता है कि अगर हम अपने घर में इंटरनैट के कनैक्शन को किसी कॉमन जगह...जैसे कि लॉबी वगैरह में रखें तो कुछ तो समस्यायें कम हो ही सकती हैं।क्या है ना, कॉमन एरिया में घर के किसी न किसी सदस्य का आना जाना लगा रहता है जिस की वजह से बच्चों की इंटरनैट एक्टिविटि पर थोड़ा नज़र भी रखी जा सकती है और वे भी कुछ हैंकी –पैंकी देखने या करने से थोडा झिझकते /डरते हैं। वैसे मैं यह भी समझता हूं कि यह कोई फूल-प्रूफ तरीका नहीं है, लेकिन वही बात है ना कि ..something is better than nothing!!.....और हां, अगर यह ब्राड-बैंड कनैक्शन घर की किसी भी कामन जगह पर रखा हुया है तो बच्चे तो क्या, बड़े भी अपने काम से ही काम रखते हैं................हिंदी ब्लोगिंग, ब्लोवाणी, चिट्ठाजगत और ज्यादा से ज्यादा किसी पोस्ट पर टिपियाने के इलावा इस इंटरनैट से कोई सरोकार ही नहीं । कभी भूल से भी कोई एडवेंचर (मिस-एडवेंचर!) करने की कोई चाह ही नहीं होती !!

शुक्रवार, 7 मार्च 2008

क्या है आखिर इस तरह के फ्रूट-जूस में ?


दो-तीन दिन से गर्मी के मौसम के पदचाप सुनाई देने लगे हैं....ऐसे में आने वाले दिनों में फलों के जूस वगैरह का बाज़ार गर्म होता नज़र आयेगा..........फलों के ताज़े जूस का नहीं पिछले कुछ समय से तो टैट्रा-पैक में मिलने वाले कुछ फलों के जूसों ने भी तो धूम मचा रखी है। कल जब एक ऐसे ही टैट्रा-पैक को देखा तो उस के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार लिखने की बात मन में आई।


इस मिक्सड़ फ्रूट जूस (जिसे वर्ल्ड के नंबर वन होने का दावा किया गया है) की एक लिटर की पैकिंग के बारे में टैट्रा-पैक के बाहर लिखा हुया है (अंग्रेज़ी में) कि इस में ये सब इन्ग्रिडीऐंट्स मौजूद हैं........ पानी, सेब के जूस का कंसैन्ट्रेट, अनानास के जूस का कंसैन्ट्रेट , चीनी( शूगर), संतरे के जूस का कंसैन्ट्रेट, आम के जूस का कंसैन्ट्रेट, अमरूद की पलप, एसिडिटी रैगुलेटर( 330), विटामिन-सी। और साथ में फलेवर्ज़ डले होने की बात भी कही गई है.....( contains added flavor….natural flavouring substances)..

यही सोच रहा हूं कि अगर इतने सारे फलों के रस इस में मौज़ूद हैं तो आखिर इस में विटामिन-सी बाहर से डालने की आखिर क्या ज़रूरत आन पड़ी है। क्या कोई मेरी इस प्रश्न का जवाब देगा ?


लेकिन इस के बारे में ग्राहकों को कुछ नहीं बताया गया कि ये सब इन्ग्रिडीऐन्ट्स कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं.......अब ग्राहक को तो लगता है कि इस से कुछ लेना देना है नहीं, बस उसे तो जूस का स्वाद अच्छा लगना चाहिये जो उसे चंद पलों के लिए ठंडक पहुंचा दे.....चाहे यह कंपनी तो यह दावा कर रही है कि इस का ज़ायका आप को सारा दिन मज़ा देता रहेगा ( लेकिन कंपनी तो आखिर ठहरी कंपनी !)..


अब अगर ग्राहक दस-गिलास ताजे जूस के दाम के बराबर कोई ऐसे जूस का डिब्बा खरीद रहा है तो उसे क्या इतना जानने का अधिकार भी नहीं है कि उस में कितनी चीनी(शक्कर ) मिली हुई है ! …..शायद नहीं। अब ये सब बातें आप को कंपनी बताने लगेगी तो उसे बड़ी दिक्कत हो जायेगी। ताजे जूस में हमारे पड़ोस वाला जूसवाला क्या कम शक्कर उंडेलता है जो हम इस डिब्बे वाले जूस में शक्कर के इतना पीछे पड़ रहे हैं। इस के बारे में आप भी सोचिए....। मेरी पत्नी, डा.ज्योत्स्ना चोपड़ा, जो एक जर्नल फिजिशियन हैं ....उन्हें भी इस के बारे में ( शक्कर वाली बात) जान कर बहुत हैरानगी हुई। खैर, चलिये आगे चलते हैं।


इस स्वीटंड फ्रूट-जूस ( sweetened fruit juice) के डिब्बे के ऊपर यह भी लिखा हुया था कि इस में न तो कोई एडेड कलर है और न ही प्रिज़र्वेटिव..........(No added colour and preservative)………लेकिन यह इस में किसी प्रिज़र्वेटिव के ना होने वाली बात मुझे तो हज़म नहीं हो रही है ( क्या करूं ?.......हाजमोला ले लूं !........ठीक है , वह भी ले लूंगा, पहले आप से दो बातें तो कर लूं। ) .....लेकिन हाजमोला लेने के बाद भी मुझे इस नो-प्रिज़र्वेटिव वाली बात की बदहज़मी बनी रहेगी क्योंकि मैं बड़े विश्वास से यह सोच रहा हूं कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो बिना प्रिज़र्वेटिव के छःमहीने पर ठीक ठाक रहती है..........इस की पैकिंग पर लिखा हुया है कि दिसंबर 2007 में बना यह जूस का डिब्बा जून 2008 तक ले लेना बैस्ट है ( Mfd…Dec.2007, Best before June 2008)..


इस जूस के 100 मिलीलिटर की न्यूट्रिश्नल वैल्यू भी तो आप जानना चाहेंगे.....तो सुनिये इस में प्रोटीन है – 0.4 ग्राम, फैट और कोलेस्ट्रोल ज़ीरो ग्राम, कार्बोहाइड्रेट- 13.7ग्राम ..............आगे लिखा हुया है सोडियम 5मिलीग्राम, पोटाशियम 103मिलीग्राम और विटामिन-सी 40मिलीग्राम। अब इन के बारे में अलग अलग से बतलाना शुरू करूंगा तो भी पोस्ट कुछ ज़्यादा ही लंबी न हो जायेगी, यही सोच कर आगे बढ़ रहा हूं। वैसे यह जो फैट और कोलेस्ट्रोल के नाम के आगे ज़ीरो ग्राम लिखने का चलन शुरू हो गया है ना, इस के बारे में फिर कभी लिखूंगा।


इस डिब्बे बंद जूस की पैकिंग पर यह घोषणा भी बेहद शानदार तरीके से की गई है कि इस जूस के एक पाव-किलो( 250मिलीलिटर) का गिलास पी लेने पर आप सारे दिन में उन पांच फलों एवं सब्जियों की सर्विंग्स (जिन की डाक्टर सलाह देते हैं)...में से एक सर्विंग हासिल कर लेते हो और यह गिलास पीने से आप सारे दिन की विटामिन-सी की सप्लाई प्राप्त कर लेते हो। इस के बारे में भी मेरे विचार अलग हैं.....(कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली !)..क्या है ना, कहां वे ताज़े फल और सब्जियां ...और कहां ये डिब्बे में मिलने वाले जूस...........और जहां तक सारे दिन की विटामिन-सी की पूरे दिन की सप्लाई की बात है, उस बात में भी कुछ ज़्यादा वज़न लगा नहीं ...क्योंकि उस सप्लाई को प्राप्त करने के लिये इतने रूपये खर्च करने की क्या ज़रूरत है....वह तो कोई भी ताज़ा फल( संतरा, कीनू इत्यादि और यहां तक कि बहुत ही प्रचुर मात्रा में आंवले से भी मिल ही सकता है) ..बड़ी आसानी से दिला सकता है।


और हां, एक बात की तरफ़ और भी ध्यान दीजियेगा कि टैट्रा-पैक तो यह भी लिखा हुया है कि अगर आप को यह डिब्बा फूला हुया सा लगे तो इसे न खरीदें। वैसे उन्होंने इसे लिखवा कर अच्छा किया है।


सीधी सी बात है कि ताज़े फल का कोई सानी नहीं है.....हां,अगर आप किसी ऐसे टापू पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं जहां पर ताज़े फल का जूस नहीं मिलेगा या फल ही न मिलेंगे, वहां पर आप इस डिब्बा-बंद जूस को ज़रूर ले कर जा सकते हैं। लेकिन, एक बात जो मैं अकसर बहुत बार कहता हूं और जो हम सब को हमेशा याद रखनी है , वह यही है कि ज़ूस से भी कहीं ज्यादा बेहतर होगा अगर हम ताज़े फलों को ही खा सकें....क्योंकि इन फलों में कुछ अन्य फायदेमंद इन्गर्डिऐन्ट्स भी हैं जो हमें केवल ताज़े फले खाने से ही प्राप्त हो सकते हैं .....वैसे एक बात और भी है कि इन फलों में तो कुछ ऐसी अद्भुत चीज़ें भी हैं जिन का राज़ इस प्रकृति ने अभी भी राज़ ही बना कर रखा हुया है।......अभी तो वैज्ञानिक इन चमत्कारी घटकों के बारे में कुछ पता ही नहीं लगा पाये हैं।


दो-चार दिन पहले मैं स्टेशन पर बैठा हुया था तो दो पुरूष आपस में बैठे प्लेटफार्म के बैंच पर बातें कर रहे थे...उन में से एक शायद किसी कोल्ड-ड्रिंक कंपनी में काम करने वाला था। जब दूसरे बंदे ने यह पूछा कि यार, वैसे पीछे बड़ा सुनने में आ रहा था कि इन ठंडे की बोतलों में कीटनाशक हैं और यह फलां-फलां बाबा जी अपने प्रवचनों में इन ठंडों की बड़ी क्लास लेते हैं तो उस कोल्ड-ड्रिंक कंपनी वाले ने इस पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाल कर उस की ( साथ में मेरी भी !)…जिज्ञासा शांत कर डाली......................देख, भई, ये ठंडे तो बिकने ही हैं...चाहे कुछ भी हो जाये....कोई कुछ भी कहता रहे.......ठीक है , लोग खरीद कर ना भी पियेंगे, लेकिन विवाह-शादियों एवं अन्य पार्टियों में जहां ये फ्री में मिलते हैं....इन जगहों पर तो वे इन पर टूटने से बाज़ आयेंगे नहीं, तो फिर कंपनियों को टेंशन लेने की क्या ज़रूरत है...........इन पार्टियों वगैरह में तो एक एक बंदा चार-पांच गिलास तक गटक जाता है। बस, हमारी कंपनियों के लिये इतना ही काफी है............अब तुम्हें बताऊं यह जो सारी तरह की पब्लिसिटि इन ठंडों के बारे में पीछे हो रही थी ना, इस में कंपनियों की सेल में सिर्फ़ 3-4 प्रतिशत का ही फर्क पड़ा है, लेकिन इस से भी जूझने के लिये कंपनियों के पास बहुत से रास्ते हैं..........................


लेकिन अफसोस इन रास्तों के बारे में मैं कुछ ज़्यादा सुन नहीं पाया क्योंकि उसी समय प्लेटफार्म पर ऐंटर हो रही मेरी गाड़ी के शोर में उन दोनों की बातें मेरी ऑडिबल-रेंज से बाहर हो गईं।

क्या है आखिर इस तरह के फ्रूट-जूस में ?



दो-तीन दिन से गर्मी के मौसम के पदचाप सुनाई देने लगे हैं....ऐसे में आने वाले दिनों में फलों के जूस वगैरह का बाज़ार गर्म होता नज़र आयेगा..........फलों के ताज़े जूस का नहीं पिछले कुछ समय से तो टैट्रा-पैक में मिलने वाले कुछ फलों के जूसों ने भी तो धूम मचा रखी है। कल जब एक ऐसे ही टैट्रा-पैक को देखा तो उस के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार लिखने की बात मन में आई।


इस मिक्सड़ फ्रूट जूस (जिसे वर्ल्ड के नंबर वन होने का दावा किया गया है) की एक लिटर की पैकिंग के बारे में टैट्रा-पैक के बाहर लिखा हुया है (अंग्रेज़ी में) कि इस में ये सब इन्ग्रिडीऐंट्स मौजूद हैं........ पानी, सेब के जूस का कंसैन्ट्रेट, अनानास के जूस का कंसैन्ट्रेट , चीनी( शूगर), संतरे के जूस का कंसैन्ट्रेट, आम के जूस का कंसैन्ट्रेट, अमरूद की पलप, एसिडिटी रैगुलेटर( 330), विटामिन-सी। और साथ में फलेवर्ज़ डले होने की बात भी कही गई है.....( contains added flavor….natural flavouring substances)..

यही सोच रहा हूं कि अगर इतने सारे फलों के रस इस में मौज़ूद हैं तो आखिर इस में विटामिन-सी बाहर से डालने की आखिर क्या ज़रूरत आन पड़ी है। क्या कोई मेरी इस प्रश्न का जवाब देगा ?


लेकिन इस के बारे में ग्राहकों को कुछ नहीं बताया गया कि ये सब इन्ग्रिडीऐन्ट्स कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं.......अब ग्राहक को तो लगता है कि इस से कुछ लेना देना है नहीं, बस उसे तो जूस का स्वाद अच्छा लगना चाहिये जो उसे चंद पलों के लिए ठंडक पहुंचा दे.....चाहे यह कंपनी तो यह दावा कर रही है कि इस का ज़ायका आप को सारा दिन मज़ा देता रहेगा ( लेकिन कंपनी तो आखिर ठहरी कंपनी !)..


अब अगर ग्राहक दस-गिलास ताजे जूस के दाम के बराबर कोई ऐसे जूस का डिब्बा खरीद रहा है तो उसे क्या इतना जानने का अधिकार भी नहीं है कि उस में कितनी चीनी(शक्कर ) मिली हुई है ! …..शायद नहीं। अब ये सब बातें आप को कंपनी बताने लगेगी तो उसे बड़ी दिक्कत हो जायेगी। ताजे जूस में हमारे पड़ोस वाला जूसवाला क्या कम शक्कर उंडेलता है जो हम इस डिब्बे वाले जूस में शक्कर के इतना पीछे पड़ रहे हैं। इस के बारे में आप भी सोचिए....। मेरी पत्नी, डा.ज्योत्स्ना चोपड़ा, जो एक जर्नल फिजिशियन हैं ....उन्हें भी इस के बारे में ( शक्कर वाली बात) जान कर बहुत हैरानगी हुई। खैर, चलिये आगे चलते हैं।


इस स्वीटंड फ्रूट-जूस ( sweetened fruit juice) के डिब्बे के ऊपर यह भी लिखा हुया था कि इस में न तो कोई एडेड कलर है और न ही प्रिज़र्वेटिव..........(No added colour and preservative)………लेकिन यह इस में किसी प्रिज़र्वेटिव के ना होने वाली बात मुझे तो हज़म नहीं हो रही है ( क्या करूं ?.......हाजमोला ले लूं !........ठीक है , वह भी ले लूंगा, पहले आप से दो बातें तो कर लूं। ) .....लेकिन हाजमोला लेने के बाद भी मुझे इस नो-प्रिज़र्वेटिव वाली बात की बदहज़मी बनी रहेगी क्योंकि मैं बड़े विश्वास से यह सोच रहा हूं कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो बिना प्रिज़र्वेटिव के छःमहीने पर ठीक ठाक रहती है..........इस की पैकिंग पर लिखा हुया है कि दिसंबर 2007 में बना यह जूस का डिब्बा जून 2008 तक ले लेना बैस्ट है ( Mfd…Dec.2007, Best before June 2008)..


इस जूस के 100 मिलीलिटर की न्यूट्रिश्नल वैल्यू भी तो आप जानना चाहेंगे.....तो सुनिये इस में प्रोटीन है – 0.4 ग्राम, फैट और कोलेस्ट्रोल ज़ीरो ग्राम, कार्बोहाइड्रेट- 13.7ग्राम ..............आगे लिखा हुया है सोडियम 5मिलीग्राम, पोटाशियम 103मिलीग्राम और विटामिन-सी 40मिलीग्राम। अब इन के बारे में अलग अलग से बतलाना शुरू करूंगा तो भी पोस्ट कुछ ज़्यादा ही लंबी न हो जायेगी, यही सोच कर आगे बढ़ रहा हूं। वैसे यह जो फैट और कोलेस्ट्रोल के नाम के आगे ज़ीरो ग्राम लिखने का चलन शुरू हो गया है ना, इस के बारे में फिर कभी लिखूंगा।


इस डिब्बे बंद जूस की पैकिंग पर यह घोषणा भी बेहद शानदार तरीके से की गई है कि इस जूस के एक पाव-किलो( 250मिलीलिटर) का गिलास पी लेने पर आप सारे दिन में उन पांच फलों एवं सब्जियों की सर्विंग्स (जिन की डाक्टर सलाह देते हैं)...में से एक सर्विंग हासिल कर लेते हो और यह गिलास पीने से आप सारे दिन की विटामिन-सी की सप्लाई प्राप्त कर लेते हो। इस के बारे में भी मेरे विचार अलग हैं.....(कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली !)..क्या है ना, कहां वे ताज़े फल और सब्जियां ...और कहां ये डिब्बे में मिलने वाले जूस...........और जहां तक सारे दिन की विटामिन-सी की पूरे दिन की सप्लाई की बात है, उस बात में भी कुछ ज़्यादा वज़न लगा नहीं ...क्योंकि उस सप्लाई को प्राप्त करने के लिये इतने रूपये खर्च करने की क्या ज़रूरत है....वह तो कोई भी ताज़ा फल( संतरा, कीनू इत्यादि और यहां तक कि बहुत ही प्रचुर मात्रा में आंवले से भी मिल ही सकता है) ..बड़ी आसानी से दिला सकता है।


और हां, एक बात की तरफ़ और भी ध्यान दीजियेगा कि टैट्रा-पैक तो यह भी लिखा हुया है कि अगर आप को यह डिब्बा फूला हुया सा लगे तो इसे न खरीदें। वैसे उन्होंने इसे लिखवा कर अच्छा किया है।


सीधी सी बात है कि ताज़े फल का कोई सानी नहीं है.....हां,अगर आप किसी ऐसे टापू पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं जहां पर ताज़े फल का जूस नहीं मिलेगा या फल ही न मिलेंगे, वहां पर आप इस डिब्बा-बंद जूस को ज़रूर ले कर जा सकते हैं। लेकिन, एक बात जो मैं अकसर बहुत बार कहता हूं और जो हम सब को हमेशा याद रखनी है , वह यही है कि ज़ूस से भी कहीं ज्यादा बेहतर होगा अगर हम ताज़े फलों को ही खा सकें....क्योंकि इन फलों में कुछ अन्य फायदेमंद इन्गर्डिऐन्ट्स भी हैं जो हमें केवल ताज़े फले खाने से ही प्राप्त हो सकते हैं .....वैसे एक बात और भी है कि इन फलों में तो कुछ ऐसी अद्भुत चीज़ें भी हैं जिन का राज़ इस प्रकृति ने अभी भी राज़ ही बना कर रखा हुया है।......अभी तो वैज्ञानिक इन चमत्कारी घटकों के बारे में कुछ पता ही नहीं लगा पाये हैं।


दो-चार दिन पहले मैं स्टेशन पर बैठा हुया था तो दो पुरूष आपस में बैठे प्लेटफार्म के बैंच पर बातें कर रहे थे...उन में से एक शायद किसी कोल्ड-ड्रिंक कंपनी में काम करने वाला था। जब दूसरे बंदे ने यह पूछा कि यार, वैसे पीछे बड़ा सुनने में आ रहा था कि इन ठंडे की बोतलों में कीटनाशक हैं और यह फलां-फलां बाबा जी अपने प्रवचनों में इन ठंडों की बड़ी क्लास लेते हैं तो उस कोल्ड-ड्रिंक कंपनी वाले ने इस पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाल कर उस की ( साथ में मेरी भी !)…जिज्ञासा शांत कर डाली......................देख, भई, ये ठंडे तो बिकने ही हैं...चाहे कुछ भी हो जाये....कोई कुछ भी कहता रहे.......ठीक है , लोग खरीद कर ना भी पियेंगे, लेकिन विवाह-शादियों एवं अन्य पार्टियों में जहां ये फ्री में मिलते हैं....इन जगहों पर तो वे इन पर टूटने से बाज़ आयेंगे नहीं, तो फिर कंपनियों को टेंशन लेने की क्या ज़रूरत है...........इन पार्टियों वगैरह में तो एक एक बंदा चार-पांच गिलास तक गटक जाता है। बस, हमारी कंपनियों के लिये इतना ही काफी है............अब तुम्हें बताऊं यह जो सारी तरह की पब्लिसिटि इन ठंडों के बारे में पीछे हो रही थी ना, इस में कंपनियों की सेल में सिर्फ़ 3-4 प्रतिशत का ही फर्क पड़ा है, लेकिन इस से भी जूझने के लिये कंपनियों के पास बहुत से रास्ते हैं..........................


लेकिन अफसोस इन रास्तों के बारे में मैं कुछ ज़्यादा सुन नहीं पाया क्योंकि उसी समय प्लेटफार्म पर ऐंटर हो रही मेरी गाड़ी के शोर में उन दोनों की बातें मेरी ऑडिबल-रेंज से बाहर हो गईं।

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

भाई, हमें तो कभी ये जूस का आइडिया नहीं पचा। जूस पी जाओ और फल के फाईबर को कूड़े के हवाले करो, ये कौन सी समझदारी है। फिर डिब्बे का क्या। वो गाना नहीं सुना आप ने- खाली की गारंटी दूंगा, भरे हुए की क्या गारंटी। डिब्बा ही चाहिए तो खाली खरीदो।

mamta said...

आँखें खोलने वाली पोस्ट। भाई कभी-कभार हम जूस तो पीते है पर इतनी सारी बातों पर ध्यान नही देते है।

Sanjeet Tripathi said...

जूस से याद आया, किडनी इन्फेक्शन वाल पेशेंट को जूस पीने से मना किया था एक विशेषज्ञ नें यह कहते हुए कि इससे शरीर में यूरिया की मात्रा बढ़ जाएगी और खतरा होगा इसलिए जू्स पीने की बजाय फल सीधे खाए जाएं बेहतर होगा!!

तो कृपया यह ज्ञानवर्धन करें कि क्या जूस में यूरिया की मात्रा ज्यादा होती है

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी,हम यह सब जानते हे फ़िर भी थोडा बहुत पीना ही पढ्ता हे,घर मे हो तो हम सिर्फ़ पानी ही पीते हे, बाहर इस लिये की या बीयर पियो वो भी यहा पानी की तरह हे,या कोक जिसे हम बिलकुल भी नही पीते, फ़िर कोक से अच्छा डिब्बे का जुस ही ठीक हे,
आप का बहुत बहुत धन्यवाद जानकारी देने का

गुरुवार, 6 मार्च 2008

सिर्फ़ दस रूपये खर्च कर कीजिये बच्चों की सारी टेंशन खल्लास.....


जी हां, सवाल सिर्फ़ दस रूपये के एक नोट का है और आप अपने बच्चे की सारी टेंशन छू-मंतर कर सकते हैं। लेकिन नहीं, मैंने कोई इस तरह का काउंसलिंग का धंधा शुरू नहीं किया है और सर्विस में होने की वजह से ना ही कुछ ऐसा वैसा शुरू कर सकता हूं। तो, सुनिये फिर आप ने ये दस रूपये का नोट किसे थमाना है।

बात ऐसी है कि अभी अभी बाज़ार से लौटा हूं.....दुकान पर बिकते ये पोस्टर देखे। पोस्टर देखते ही माथा ठनका कि हो ना हो ये किसी प्रैक्टीकल की ही तैयारी हो रही है। जब पूछा तो पता चला कि ये पोस्टर आज कल खूब बिक रहे हैं.....ये मैट्रिक के साईंस प्रैक्टीकल के लिए बच्चों को खरीदने पड़ रहे हैं( अच्छी तरह से नोट कर लें इन शब्दों को .....खरीदने पड़ रहे हैं) ....। मज़े की बात तो यह भी है कि इन को किताबों की दुकान से खरीद कर लाने के लिये भी बच्चे को अपने बापू के साथ बाज़ार आने की ज़हमत उठाने की ज़रूरत ही नहीं है.....बस, बापू को इतना बताना ही काफी है कि आज रात से पहले पहले दो फलां-फलां पोस्टर उस दुकान से ज़रूर ले आईयो, अगर आप लोग मुझे साईंस में पास देखना चाहते हो। ठीक है, बेटा, तुम तब तक अगर टीवी के रोडीज़ शो से फ्री हो भी गये तो तुम आराम से थोड़ी इम्पार्टैंट तरह की छोटी-मोटी पर्चियां ज़रूर तैयार कर लेना।

कुछ इस तरह के ही आदेशों की पालना करता मुझे अपने साथ खड़ा बंदा दिख रहा था। बहुत सारे पोस्टर देखने के बाद आखिर उस ने दुकानदार को एक आंख वाला और एक बॉयोगैस वाला पोस्टर पैक करने का आर्डर दे ही डाला। पांच रूपये का एक पोस्टर था, सो कुल खर्च आया ..दस रूपये।

लेकिन अफसोस इस तरह के बॉयोगैस के कंसैप्ट और आंख की जानकारी तो भई उस पोस्टर पर ही रह जायेगी। जब तक तीन-चार बार अपनी समझ से बार बार इरेज़ करने वाले रबड़ का प्रयोग नहीं किया जायेगा, कैसे हो पायेगा यह पोस्टर को समझने वाला काम। लेकिन क्या करें................इतना टाईम नहीं है भई, अभी इंडियल आयडल से फ्री हुये ही थे कि ये फिल्मों के अवार्ड्स वाले कार्यक्रम धन-धना-धन शुरू हो गये हैं , फिर यह रोडीज़ भी तो देखना ज़रूरी है......ऐसा मौका फिर कहां मिलेगा...................इतना टाईट शैड्यूल और ऊपर से इन पोस्टरों को बनाने के झंझट में कौन पड़े..............क्या है ना पापाजी, चार रूपये का पोस्टर वैसे आता है और पूरी तरह से तैयार बना-बनाया पोस्टर अगर पांच रूपये में मिल रहा है तो आखिर फायदा ही है ना...................न स्कैच पैन खरीदने का झंझट, ना कहीं और माथा-पच्ची करने की ज़रूरत।क्या है ना डैड, आज कल सब कुछ फास्ट चलता है।

सोच रहा हूं कि प्रैक्टीकल के लिये रेडीमेड पोस्टरों की बाज़ार में उपलब्धता का तो मुझे आज पता चला है , लेकिन प्रैक्टीकल की कापियां तो हमारे समय में भी कई विद्यार्थी बाज़ार से ही 15-20 रूपये दे कर बनवाते थे। यह सिलसिला आठवीं कक्षा से शुरू हो जाया करता था..........लेकिन मुझे आज तक यही लगता था कि नो डॉयट, आज भी यह चलन तो है , लेकिन मैट्रिक तक ही है।

लेकिन मैंने फिर भी प्लस टू में पढ़ रहे एक लड़के से फैक्टस वैरीफ़ॉय करने में ही बेहतरी समझी। ---उस का जवाब मिला ...जी हां, आज कल तो बारहवीं की भी बनती हैं...बताने लगा कि ग्यारहवीं की भी बाज़ार से बनती तो हैं ,लेकिन अकसर बच्चे इन को इतना सीरियस्ली लेते नहीं है क्योंकि ये एग्ज़ाम तो स्कूल ही में निबट जाते हैं। आगे उस ने बताया कि इन्हें बनाने में 55, 65, 80 और 100 रूपये तक लगते हैं। मुझे यह क्रयूसिटि होनी लाज़मी थी कि इतना अंतर....................उस ने झट से उस का निवारण भी यह बतला कर कर ही दिया..............अंकल, दिस ऑल डिपेंड्स ऑन दा आर्टिस्ट्री।

बस , एक बार यही सोचने पर मजबूर हो गया हूं कि हमारे देश में यहां के युवाओं में वैज्ञानिक टेंपरामैंट को बढ़ावा देने के लिए इतने यत्न हो रहे हैं और ये दस रूपये खर्च कर के अपनी टेंशन खल्लास करने की फ़िराक में हैं।

बुधवार, 5 मार्च 2008

मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था!

ओह माई गुडनैस, मैं आज भी सोचता हूं तो कांप सा जाता हूं कि आखिर मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था......बात जुलाई1980 की है....मैंने कुछ दिन पहले ताज़ा-ताज़ा पीएमटी टैस्ट क्लियर किया था....यूनिवर्सिटी से रिज़ल्ट कार्ड मिल चुका था। अब बारी थी एडमीशन के लिए अप्लाई करने की ...जिस के लिये एक अदद अटैस्टैड कापी उस रिज़ल्ट कार्ड की भी चाहिये थी। अब इस से पहले तो हमें तो यही पता था कि ऐसे किसी भी डाक्यूमैंट की कापी का मतलब तो यही होता था कि किसी टाईपिस्ट के साथ बैठ कर उस सर्टिफिकेट की कापी टाइप करवाओ और फिर किसी आफीसर से उसे सत्यापित करवाने का जुगाड़ ढूंढो।

लेकिन उन्हीं दिनों मैंने पता नहीं कहां से सुन लिया था कि एक ऐसी मशीन आ गई है जिस से किसी भी सर्टिफिकेट की हुबहू कापी हो जाती है। ऐसे में मैं कैसे पीछे रह जाता। हां तो पता चला कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में एक दुकान पर ऐसी मशीन लग गई है। सो, मैं भी दो-तीन किलोमीटर साइकल हांक कर पहुंच गया । और ,. उस दुकानदार को दे दिया वह सर्टिफीकेट कापी करने के लिये ।

वह दुकानदार मेरा रिज़ल्ट कार्ड लेकर अंदरवाले कमरे में चला गया......लेकिन यह क्या ,. मैं एक बार तो डर ही गया कि यार मैं कहां आ गया , कहीं कोई पंगा तो नहीं हो जायेगा, मेरा इतनी मेहनत से कमाया हुया रिज़ल्ट कार्ड तो मुझे सही सलामत वापिस मिल जायेगा ना....बस , मैं तो इन्हीं विचारों में सहमा सा खड़ाथा कि उस दुकानदार ने एक स्टूल उठाया..............अरे, यह क्या , पहले थोड़ा मशीन की फिजिकल अपीयरेंस के बारे में तो लिखूं.....तो सुनिए, हज़रात, वह मशीन लगभग इतनी लंबी-चौड़ी थी कि आप यह समझ लो कि उस ने इतनी ज़मीन घेरी हुई थी जितनी किसी पुरानी स्टाईल की प्रिंटिंग मशीन ने घेरी होती थी।

हां, तो मैं बता रहा था कि उस दुकानदार ने एक बड़ा सा स्टूल उठाया, और उस पर चढ़ कर मशीन के ऊपर चढ़ गया....और फिर उस ने बहुत बड़ी-बड़ी दो प्लेटें सी उठाईं और उन्हें हिलाया -डुलाया....उन में सी बडी़ सुरीली सी आवाज़े छन-छना-छन- छन आ रही थीं..................मैं तो बस यही प्रार्थना मन ही मन किये जा रहा था कि कहीं मेरे रिज़ल्ट कार्ड पर कालिख ही न पुत जाये। क्योंकि दुकानदार के हाथ भी इस स्याही वगैरह की वजह से काले पड़े हुये थे। लेकिन अभी कहां, अभी तो टाइम लग रहा था....शायद फोटोस्टैट की दो कापियां करने में 3-4मिनट भी लग गये थे.। और हां, एक कापी करवाने के उन दिनों दो रूपये लगते थे....लेकिन यह कमबख्त दो रूपये उस रोमांच के आगे तो कुछ भी नहीं थे !!

लेकिन आज सोचता हूं कि उस मशीन को देख कर यही लग रहा जैसे कि वह दुकानदार न हो कर, इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइज़ेशन का कोई वरिष्ट साइंटिंस्ट है जो स्टूल पर चढ़ कर अभी कोई सैटेलाइट को स्पेस में लांच करने की तैयारी में है। लेकिन जो भी यह फोटोस्टैट का पहला एक्सपीरीयैंस बेहद रोमांचक था। पोस्ट लंबी हो रही है, इसलिए किसी अगली पोस्ट में लिखूंगा कि आने वाले सालों में इस फोटोस्टैट कागजों ने मेरी लाइफ में क्या क्या गुल खिलाये हैं।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

लेकिन इस परी के पंख काटने से तुझे क्या मिला ?


कल शाम के वक्त मैं रोहतक स्टेशन पर पानीपत की गाड़ी में इस के चलने की इंतज़ार कर रहा था। इतने में मेरी नज़र पड़ी सामने वाले प्लेटफार्म पर....वहां पर एक छोटी-सी बहुत प्यारी नन्ही मुन्नी परी जैसी एक लड़की (3-4साल की होगी)......खूब चहक रही थी। हां, बिल्कुल वैसे ही जैसे इस उम्र में बच्चे होते हैं...बिल्कुल बिनदास, मस्तमौला टाइप के। मुझे उसे देख कर अच्छा लग रहा था।
वह अपने पिता के इर्द-गिर्द उछल कूद मचाये जा रही थी जो कि लगातार मोबाइल फोन पर बातें करने में मशगूल था। लेकिन वह नन्हीं मुन्नी बच्ची खूब मज़े कर रही थी। कभी पापा की पैंट खींचती, कभी मम्मी के पीछे जा कर खड़ी हो जाती, कभी इधर देखती , कभी उधर देखती। लेकिन यह क्या .........किसे पता था कि उस की इस नटखट दुनिया को इतनी जल्दी नज़र लग जायेगी।
हुया यूं कि उस की मां या बाप को बार-बार उसे थोड़ा रोकना पड़ रहा था....डैडी तो ज्यादातर फोन पर बतियाने में ही मशगूल था लेकिन मम्मी से शायद अब और सहन नहीं हो रहा था...............क्या यह कह दूं कि बच्ची की खुशियां देखी नहीं जा रही थीं...................वह झट से उठी और पास ही खड़े रेलवे पुलिस के तीन चार जवानों के पास उसे ले गई। अब मैं कुछ सुन तो सकता नहीं था लेकिन मैं उस औरत के आव-भाव से अनुमान ज़रूर लगा सकता था कि वह उस परी को डराने धमकाने के लिये ही उन के पास ले गई थी। बस , अगले ही पल उस नन्ही परी ने खूब ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया और डर कर, सहम कर बेहद लाचारी से मैं की बगल में बैठ कर दिल्ली वाली गाड़ी का इंतज़ार करने लग गई।
उस की लाचारी ने मुझे यही सोचने पर मजबूर किया कि आखिर उस महिला को इस परी के पंख काटने से क्या हासिल हुया ...........ऐसा करने से उस ने अनजाने में ही उस बच्ची के मन में पुलिस के खौफ़ का बीज बो दिया और जब आने वाले समय में यह अपनी जड़ें पक्की कर के एक भीमकाय पेड़ की शक्ल हासिल कर लेगा तो हम लोग ही यही लकीर पीटेंगे कि पुलिस को अपनी छवि सुधारनी होगी।
खैर, जो भी हो उस परी के दुःख को देख मैं भी थोड़ा तो पिघल ही गया और लगा सोचने कि क्या हम लोग अपने बच्चों के भी आये दिन ये पंख पता नहीं कितनी बार काटते हैं और उन की कल्पना शक्ति को संकुचित किये जाते हैं।

तब मैं अपने हाथ खड़े कर ही देता हूं !


सोच रहा हूं कि एक डाक्टर होने के नाते मेरे लिए कुछ पल बेहद निराशात्मक होते हैं .....उन क्षणों के दौरान मैं अपने आप को बेहद फ्रस्टरेटड महसूस करता हूं। उन में से एक नज़ारा जो मुझे परेशान करता है , वह यह है कि जब मैं किसी को भी मुंह में गुटखा उंडेलते देखता हूं.........मुझे एक बार तो उसी समय लगता है कि इस के लिए मैं ही उत्तरदायी हूं और मैं एक बार फिर अपना संदेश इस बदकिस्मत इंसान तक पहुंचाने में नकामयाब रहा। और अपने आप पर यह खुन्नस तो और भी ज़्यादा होती है जब किसी युवा को , किसी बच्चे को इस का इस्तेमाल करते देखता हूं। मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं कि यह सब देखना कितना फ्रस्टरेटिंग अनुभव है।

यार, यह भी कोई डाक्टरी है कि पहले इन को गुटखों, तंबाकू, शराब से आत्महत्या करते देखते रहो, फिर जब ये बदकिस्मत इंसान( वैसे इमानदारी से बतला दूं तो इतनी सहानुभूति भी मुझे इन से कम ही होती है क्योंकि मैं समझता हूं कि मान भी लिया पढ़ाई लिखाई नहीं आती, किसी बड़े –बुजुर्ग ने बताया ही नहीं , लेकिन वह जो सारा दिन एफएम वाला 100रूपये में खरीदा डिब्बा चिल्ला कर कहता रहता है उस की भी तो सुनो। वह सैक्स में संयम रखने की सलाह दे रहा हो, गुटखे, तंबाकू, शराब से बचे रहने की सलाह दे रहा है, बड़े से बड़े विशेषज्ञों को यह रेडियो आप की खाट पर आप के तकिये के किनारे खड़ा कर देता है.........तो फिर भी इन की बेशकीमती बातें अच्छी नहीं लगतीं क्या.................बस, वही गाना ही अच्छा लगता है..........थोड़ी सी जो पी ली है, चोरी तो नहीं की है.....इतना सब कुछ यह रेडियो बतला रहा है....................और 100 रूपये में क्या इस की जान ही निकाल लोगो क्या ?............................................हां, तो मैं बात कर रहा था....जब ये सब पदार्थ अच्छी तरह इस्तेमाल करने के बाद.....अपने फेफड़े खतरनाक हद तक सिंकवाने के बाद, लिवर को बुरी तरह से जला लेने पर, मुंह के कैंसर या मुंह की किसी अन्य गंभीर बीमारी हो जाने पर, या दिल को एक-आध छोटा-मोटा झटका लगने के बाद होश में आये तो क्या खाक होश में आये.....................सोच रहा हूं कि ज़्यादातर केसों में इन सब नशीली वस्तुओं के प्रभाव लंबे समय तक चलने वाले होते हैं या कईं बार तो स्थायी ही होते हैं.....................ऐसे में चिकित्सक के पास ऐसी कौन सी संजीवनी बूटी है जिसे पिलाने के बाद पिछला सब हिसाब छु-मंतर हो जायेगा।

नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा, .....जब तक इस प्रकार की सभी लतों को पूरे ज़ोर से लात नहीं मारी जायेगी, कुछ नहीं होगा। अब सांस लेने में दिक्कत होगी, चलने पर सांस फूलेगा तो डाक्टर कोई टैबलेट थमा ही देगा....लेकिन यह कब तक चलेगा। दारू पी पी कर अगर लिवर ही जल गया तो क्या कर लेगा डाक्टर......................मुझे तो नहीं लगता कि कोई भी इलाज प्रभावी होगा अगर कोई बंदा यह अधिया मारना बंद नहीं करेगा...................तंबाकू से जनित मुंह के रोग क्या तंबाकू बिना छोड़े ठीक हो जायेंगे? ---यह आप भी जानते हैं।

Oh, my goodness, day in and day out ….this all is so very much frustrating. We keep on seeing these souls consuming all sorts of harmful stuffs recklessly, we keep on seeing all other high-risk activities…………………But I always ask myself what else to do… to make them aware of all this is your duty and that you have done…………….What else?

I had read something very interesting somewhere which I want to share …..

Cancer cures smoking !!!

आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मेरी अंतर्रात्मा ने मुझे यह कह कर झकझोरा है तू करता तो है बहुत कुछ .......लेकिन यह तेरी हाथ खड़े करने वाली बात मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरा मन मेरे से पूछ रहा है कि तू इस बात की कल्पना कर कि अगर कल को तेरा बेटा ही यह गुटखा शुरू कर दे तो क्या हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहेगा या फिर बेबसी से तब भी अपने हाथ खड़े कर देगा....................नहीं, नहीं,....................मेरी अंदर से आवाज़ आई......मैं तो उस की यह लत छुड़वाने के लिए ज़मीन-आसमां एक कर दूंगा।

तो फिर अपने आप से जो प्रश्न किया वह यही था कि क्या तू इस देशों के लाखों बच्चों के लिए भी ज़मीन-आसमां एक नहीं कर सकता...............तुझे ऐसा करने से कौन रहा है................ये भी तो किसी के बच्चे हैं ....किसी के सगे हैं....................सो, ऐसे हाथ खड़े करने से काम नहीं चलेगा। चल उठ जा, और इन नशीले पदार्थों के विरूद्ध छेड़ी जंग को पूरी बहादुरी से बिना किसी बात की परवाह किये बिना लड़।

इसलिए अब तो वह हाथ खड़े करने वाली बात के बारे में कभी सोचूंगा भी नहीं... क्योंकि अभी तो इस जंग की शुरूआत ही हुई है।

इसे दुनिया का आठवां अजूबा न कहूं तो और क्या कहूं?

बहुत दिनों से सोच रहा हूं कि दुनिया के सातों अजूबों के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं .....और हां , इन हिंदी ब्लोगर महिलाओं को अब यदा-कदा प्रिंट मीडिया में जगह दी जा रही है.....देख कर, पढ़ कर अच्छा लगता है। आप को भी लग रहा होगा कि ये आठवें अजूबे में महिला ब्लोगरज़ को कहां ले आया तूं..............आप ठीक कह रहे हैं ...लेकिन मैंने आज इस देश की अरबों ऐसी महिलाओं की बात करने का निश्चय किया है, जो इस देश के तमाम पुरूषों को इस लायक बनाती हैं कि वे अपने अपने क्षेत्र में जीत के परचम फहरा कर अपनी उपलब्धियों की शेखी बघेर सकें....और जिसके बारे में शायद बड़ी ही लापरवाही से बिना सोचे-समझे यह कह दिया जाता है या ज़्यादातर वह अपने आप को कुछ इस तरह से इंट्रोड्यूस करने में ही विश्वास करती है......हमारा क्या है, सारा दिल्ला चुल्हे-चौके में ही निकल जाता है और वह इतनी भी तो नहीं जानती कि आज कल उसे हम होम-मेकर कह कर पंप देने लगे हैं......................और सब से महत्वपूर्ण बात यह भी है कि ये अरबों महिलायें वे हैं जो सब अपने हाथों से अपने सारे कुनबे का भरन-पोषण करती हैं( इस से भी मेरा मतलब यह तो बिल्कुल नहीं है कि महिला बलोगर्स स्वयं खाना नहीं बनाती होंगी !)……….और हां ,इसे खाने वाली बात की ही तो बात आज मैंने करनी है।

एक एक्सपेरीमैंट( प्रयोग) की तरफ़ मेरा ध्यान जा रहा है.......क्या है ना, कि अगर हम एक किसी दिन दाल या सब्जी की एक सी मात्रा अपने किसी नज़दीकी रिशतेदार महिला( मां, नानी-दादी, पत्नी, बहन, भाभी, मौसी.....) को दें और साथ एक जैसे मसाले एक ही मात्रा में दे दें, उसे पकाने के बर्तन भी एक जैसे ही उपलब्ध करवा दें, किस प्रकार की आंच सभी प्रतिभागियों द्वारा उस दाल-सब्जी को बनाने में इस्तेमाल होगी, लगे हाथों इस को भी स्टैंडर्डाइज़ड कर दिया जाये.........................इतना सब करने के बावजूद क्या आपको लगता है कि उन सब के द्वारा बनाये हुये खाने का ज़ायका एक सा ही होगा। नहीं ना, कभी हो ही नहीं सकता, आप भी मेरी तरह यही सोच रहे हैं ना..........बिल्कुल सही सोच रहे हैं। अपनी नानी के हाथ के पकवान आखिर क्यों हम सब उस कागज की किश्ती और बाऱिश के पानी की तरह हमेशा अपनी यादों की पिटारी में कैद कर लेते हैं..........आखिर यार कुछ तो बात होगी। क्यों हमारी माताओं द्वारा हमें बेहद प्यार से बना कर खिलाये गये पकवान अगली पीढ़ी के लिए बिल्कुल एक स्टैंडर्ड का काम करते हैं......यार, मां तो ऐसा बनाती है या बनाती थीं........इस में अगर मां के बनाये पकवान की तरह यह होता तो क्या कहने......। बस, ऐसी ही बहुत ही बातें , जो इस देश के घर-घर में नित्य-प्रतिदिन होती रहती हैं।

सोचता हूं कि यह तो थी ...रोटी, दाल, सब्जी की बात......लेकिन अगर इसी प्रयोग को चाय के ऊपर भी किया जाये तो भी इस के परिणाम हैरतअंगेज़ ही निकलेंगे.....आप एक घूंट भर कर ही बतला दोगो कि आज चाय बीवी ने बनाई है या यह मां के हाथ की है.............................सोचता हूं कि ऐसा कैसे संभव है, घर की सभी महिलायें इन में एक जैसा चीज़ें डालती हैं, .....आंच भी एक जैसा , समय भी लगभग एक ही जैसा, लेकिन आखिर यह सब संभव कैसे हो पाता है कि हम झट से ताड़ लेते हैं कि आज की दाल तो पानी जैसी पतली बनी है , सो यह करिश्मा तो सुवर्षा मौसी ही कर सकती है ...................केवल फिज़िकल अपियरैंस ही क्यों, इस की महक, इस का स्वाद सब कुछ एक दम बदल सा जाता है। मेरी लिये तो भई यह ही इस दुनिया का आठवां अजूबा है.......क्या आप को यह किसी भी तरह के अजूबे से कम लगता है। लेकिन इस का जवाब देने से पहले अपने नानी –दादी के प्यार से बनाये गये और उस से दोगुने लाड से परोसे गये पकवानों की तरफ़ ध्यान कर लेना और तब अपने दिल पर हाथ रख कर इस बात का जवाब देना।

चलते चलते ज़रा इस की तरफ़ भी तो थोड़ा झांके कि आखिर ऐसा क्यों है......ऐसा इसलिये है क्योकि चाहे एक जैसे मसाले यूज़ हो रहे हैं, एक ही प्रकार का आंच यूज़ हो रहा है( बार –बार मैं इस आंच के एक ही तरह के होने की बात जो किये जा रहा हूं ...वह केवल इसलिए ही है कि इस हिंदी ब्लोगिंग कम्यूनिटि में कुछ युवा लोग ऐसे भी तो होंगे जिन्होंने कभी चुल्हे पर पकाई गई दाल खा कर उंगलीयां न चाटी हों......etc.) …….तो आखिर फिर यह अंतर कैसे पड़ जाता है ....................मेरा विचार है यह जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है ना....इसे आप प्यार कहिए, दुलार कहिए, इसे आप भावना कहिये, इसे आप श्रद्धा कहिये.......................मेरा क्या है, मैं तो लिखता हूं जाऊंगा.........सारा अंतर इस की वजह ही से होता है............हमें वह बात तो पहले ही से पता है...जाकी रही भावना जैसी.....................। बाकी इस पर ज़्यादा प्रकाश तो निशा मधुलिका जी डाल सकती हैं जो कि अपने हिदी बलोग के माध्यम से नाना प्रकार के व्यंजनों से तारूफ करवाती रहती हैं।

और हां, एक बात और भी याद आ रही है कि पहले तो इन मसालों वगैरह के नाप-तोल के लिए ये चम्मच तक भी इसेतमाल नहीं होते थे........................मेरी नानी के के चौके में भी एक लकड़ी की नमकदानी( पंजाबी में इसे लूनकी और आज कल रैसिपि बुक के एक एक लाइन पढ़ कर खाना बनाने वाले कुछ लोग इसे masala-box भी कह देते हैं---क्या है ना कम से कम नाम तो ट्रेंडी हो.....ऐसा भी ना हो कि लूनकी कह दो और किसी की भूख ही मर जाये) .....................हुया करती थी, और मुझे अच्छी तरह से याद है कि चुस्तीलेपन से, बेपरवाह लहजे से, पूरे आत्मविश्वास के साथ बस झट से कुछ चुटकियां भर भर कर वह सब्जी बनाते समय पतीले में या कडाही में उंडेल दिया करती थीं..............और लीजिए तैयार है खाना –खजाना शो-वालों को ओपन-चैलेंज देता हुया एक डिश............ओह नो, सारी, डिश नहीं भई, तब तो सीदी सादी दाल, रोटी , सब्जी ही हुया करती थी.........जिसे खाने के बाद एकदम खूब नशा हो जाया करता था।

लेकिन इन फाइव-स्टारों के खाने में मज़ा क्यों नहीं आता......................क्योंकि मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस खाने में टैक्नीकली सब कुछ ठीक ठाक होता है, शायद शुद्धता भी पूरी, परोसने का सलीका भी रजवाड़ो जैसे, ...........लेकिन आखिर इस में फिर कमी क्या रह जाती है...........................बस वही भावना की कमी होती है, और क्या । इस भावना से एक बात और भी याद आने लगी है कि पहले जब रसोई-घर में सब एक साथ बैठ कर खाना खाते थे तो ज़ायका अच्छा हुया करता था....या अब ड्रैसिंग-टेबुल पर सज कर जो खाया जाता है......................ओ.के......ओ.के..........मैं भी थोड़े अनकम्फर्टेबल से प्रश्न पूछने लगा हूं.....ठीक है, हमारा मन तो सच्चाई जानता है, बस इतना ही काफी है, लेकिन भई आखिर क्या करें, इस संसार में रहना भी तो है, थोड़ा दिखावा भी तो ज़रूरी है।

मेरा ख्याल है अब बस करूं........इसे चाहे तो आप मेरे द्वारा इस महान देश की हर मां, हर बहन, हर बीवी, हर भाभी , हर नानी, हर दादी ....................के मानवता की अलख जगाये रखने के लिए उस के द्वारा दिये गये अभूतपूर्व योगदानों के लिए उसे थोड़ा याद कर लेने का एक तुच्छ प्रयास ही समझें , चाहे कुछ और समझें......लेकिन मेरे लिए तो यही दुनिया का आठवां अजूबा है.........................
अफसोस, इन्हें कभी किसी समारोह में लाइफ-टाइम अचीवमैंट अवार्ड से सम्मानित नहीं किया.... वैसे पता है क्यों., क्योंकि इस देवी को किसी भी बाहरी सम्मान की न तो कभी भूख थी, न ही कभी भूख रहेगी। इस ने तो बस केवल अपने आप को इस मेहनत-मशक्तत की भट्ठी में जलाना ही सीखा है...................लेकिन वह इस में भी खुश है.................। पता नहीं, कईं बार सोचता हूं कि इस देश की नारी के ऊपर , उस के द्वारा दिये जा रहे योगदानों के ऊपर यथार्थ-पूर्ण किताबैं लिखी जानी चाहिये।

और एक तरफ हम हैं............हमारी नीचता देखिए ...कितने सहज भाव से बिना कुछ सोचे-समझे कितने बिनदास मोड में कईं बार कह देते हैं , कह चुके हैं और शायद कहते रहेंगे.....................कि यार, अपनी नानी भी थी बिल्कुल अनपढ़ लेकिन खाना बनाने में तो बस उस का कोई जवाब भी नहीं था। सोचने की बात है कि इस तरह के वाक्य बोल कर हम इन महान देवियों के योगदान को कितनी आसानी से नज़र-अंदाज़ करने का प्रयत्न कर लेते हैं। तो, फिर अब आप कब अपनी नानी-दादी की बातें हम सब को सुना रहे हैं।

पोस्ट लंबी ज़रूर है , लेकिन मुझे तो बस इतना ही लग रहा था कि मेरी स्वर्गीय नानी मेरे पास ही बैठी हुई थीं जिस से मैं बातें कर रहा था.......................अब बारी आप की है !!!!