शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

दुर्गा पूजा उत्सव में पहली बार...

कल पहली बार किसी दुर्गा पूजा उत्सव में जाने का अवसर मिला। अच्छा अनुभव रहा....मां दुर्गा पंडाल के पास मैंने यह वीडियो बनाई ...



जब इस भक्त ने अपनी अर्चना कर ली तो मैंने सोचा कि अब कोई भी दूसरा आ कर पूजा करेगा....दो चार मिनट तक जब कोई नहीं आया तो मैंने पास खड़े युवकों से पूछा कि आप लोग भी चले जाओ अंदर.........उन में से एक ने कहा कि अंदर ऐसे ही थोड़ा जा सकते हैं, पैसे लगते हैं........मैंने पूछा ...कितने? उन्हें यह पता नहीं था....लेकिन इतना पता था कि या तो जो इस समारोह के प्रबंधक लोग हैं, वही जा सकते हैं...जब हम लोग बाहर सांस्कृतिक कार्यक्रम में बाहर आ कर बैठे तो देखा कि यह पूजा करने वाला भक्त एक आर्गेनाइजर ही था। लोगों में इतनी श्रद्धा देख कर अच्छा लगा।

खूब रौनक थी...खाने पीने के स्टालों पर और भी ज़्यादा। एक जगह बिहार का मशहूर बाटी-चोखा भी बिक रहा था....उस का बनाने का तरीका ही इतना आकर्षित करने वाला है कि तुरंत खाने की इच्छा हो उठती है।

कमाल खान साहब प्रसिद्ध गजलें सुना कर लोगों को खुश कर रहे थे....जश्न का माहौल था। उन्होंने लोगों की फरमाईश पर बहुत ही खूबसूरती से समय बांध के रखा.....

इस तरह के विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर जाने से हमें देश के बारे में पता चलता है.....आपसी प्रेम-प्यार, सौहार्द, मिलवर्तन की भावनाएं प्रबल होती हैं। लोग एक दूसरे के रीति-रिवाज से वाकिफ हो पाते हैं।



वैसे वहां बैठे बैठे मुझे पता नहीं बार बार दो बातें याद आ गईं.....जब मैं छोटा बालक था तो किसी धार्मिक स्थान में जाया करता था तो पूजा की थाली हमेशा किसी आगे आगे बैठे सेठ के हाथ में देख कर मुझे बड़ी हैरानी हुया करती थी...केवल एक दो परिवार ही हमेशा थाली थाम के रखते थे.......मन में प्रश्न उठा करते थे....ये सभी प्रश्न २००७ तक उठते ही रहे जब मुझे ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हो गई और सब परतें अपने परतें खुलती चली गईं और निरंतर खुलती चली जा रही हैं।

एक बात का और ध्यान आ रहा था .....१९८१ में मैं, मेरी मां और बड़ा भाई जो बंबई से आया था, हम लोग एक धार्मिक स्थल पर गये.......बड़े भाई के पास लगभग १२-१३०० रूपये थे......हम लोग कुछ ही घंटों में पहुंच गये जी वहां....लेकिन वहां तो इतनी भीड़-भड़क्का, भाई ने वापिस भी जाना था, वह आस पास के क्वार्टरों में जाकर सैटिंग कर के आया कि लाइन में खड़े होने की बजाए किसी दूसरी तरफ़ से किसी के घर के रास्ते से घुस कर विशेष दर्शन कर पाएंगे.....प्रति व्यक्ति दो सौ रूपये लगेंगे........मुझे याद नहीं है ठीक से लेकिन इतना तो पक्का है कि लगभग ४०० रूपये उस सुविधा के लिए उस के खीसे से निकाले गये थे.....बाकी भी वहां पर बहुत खर्च हुआ था......

वापिस लौटते लौटते यह हाल था कि डर लग रहा था कि हम लोग किसी तरह से वापिस अमृतसर लौट जाएं..... किराया तो बच ही जाना चाहिए........मुझे पक्का याद है कि जब हम लोग अमृतसर के बस अड्‍डे पर पहुंचे तो भाई की जेब में कुल १०रूपये थे जिन्हें रिक्शे वाले को थमा कर हम घर पहुंचे........ढंग से खाना खाया और राहत की सांस ली।

कईं वर्षों से मुझे यह सवाल कचोटता रहा कि भक्ति हम जैसों की ज़्यादा थी जिन्होंने पैसे फैंक कर एक तरह से जबरदस्ती दर्शन कर लिए या फिर वे भक्त जो चुपचाप धूप में अपनी बारी की इंतज़ार करते रहे.......कृपा किसके ऊपर ज़्यादा होगी......तब तो यही प्रश्न था, लेकिन २००७ में जब ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हुई तो सभी के सभी प्रश्न ही हवा हो गये।

सिंदूरखेला.

हां, एक बात और......दु्र्गा पूजा जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है......ये जो ऊपर वीडियो में ढोल बजा रहे हैं, इन्हें ढाकिये कहते हैं जो विशेष रूप ले कलकत्ता से आते हैं इस तरह के समारोहों के लिए।

घर लौटने पर जब गुंडे फिल्म देख रहे थे तो दुर्गा पूजा का एक सीन आया.....जिस में औरतें एक दूसरे के ऊपर सिंदूर फैंक रही थीं.....बेटे ने पूछा कि यह क्या है, तो उस की मां ने कहा ....इसे सिंदूरखेला कहते हैं......कहानी फिल्म में नहीं देखा था कि सुहागिनें दुर्गा-पूजा के विसर्जन से पहले एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं............वैसे देखा जाए तो हमारी फिल्में भी हमें बहुत कुछ बताती हैं, शर्त यही है कि मन में बस जिज्ञासा की आग चाहिए।

मेरे ज़हन में भी फिल्मी गीतों का इतना अपार खजाना है कि मुझे लगता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर किसी एफएम रेडियो चैनल में नौकरी कर लेनी चाहिए.......लोगों को गीत सुनाने के बहाने स्वयं भी सारा दिन सुनता रहूंगा......अभी भी याद आ गया.........परवरिश फिल्म का मेरा एक बेहद पसंदीदा गीत.........गीत के बोलों की तरफ़ विशेष ध्यान दीजिए........खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का...बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का.

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

आंतों की सेहत के बारे में सचेत रहें...

पिछले सप्ताह यहां लखनऊ के पीजीआई मैडीकल संस्थान में पेट एवं आंत के विशेषज्ञों की गोष्ठी हुई थी, उस दौरान इन अनुभवी विशेषज्ञों ने बहुत सी काम की बातें मीडिया के साथ शेयर की जिन्हें समाचार पत्रों में भी जगह दी गई। कुछ ऐसी बातें हैं जो मैं इस पोस्ट में शेयर करना चाहता हूं.....

३० से कम उम्र वालों में भी बड़ी आंत का कैंसर.
अब ३० साल से कम उम्र के लोगों में भी बड़ी आंत का कैंसर हो रहा है। संजय गांधी पीजीआई में बड़ी आंत के निचले हिस्से (कोलोन एंड रेक्टम) के कुल मरीजों में २० फीसदी की उम्र ३० साल से कम है। पहले माना जाता था कि बड़ी आंत के इस हिस्से में कैंसर बड़ी उम्र के लोगों में होता है।

घूमते रहते हैं पाइल्स के चक्कर में...
विशेषज्ञों ने कहा कि कोलोन और रेक्टम कैंसर से ग्रस्त कुल मरीज़ों में २० फीसदी मरीज पाइल्स के चक्कर में घूमते रहते हैं। तब काफी देर हो जाता है। मल के रास्ते खून, मल विसर्जन के दौरान दर्द की परेशानी १५ दिन से अधिक समय तक रहे तो डॉक्टर से रेक्टम का परीक्षण ज़रूर करने के लिए कहना चाहिए। इससे गांठ का अंदाजा लग जाता है।

बीमारी की जड़- कब्ज
विशेषज्ञों ने बताया कि लंबे समय तक कब्ज रहने पर बड़ी आंत के निचले हिस्से में परेशानी होने की आशंका बढ़ जाती है। कब्ज से बचने के लिए चोकर युक्त आटे वाली रोटी, सत्तू का सेवन करना चाहिए ..रोज कम से कम दो लीटर पानी पीनी चाहिए। समय से खाना खाएं और रोज मल विसर्जन के लिए जाएं।

झोलाछाप डॉक्टर बिगाड़ देते हैं पाइल्स का केस..
पाइल्स का शर्तिया इलाज करने वाले झोलाछाप डाक्टर १० से १५ फीसदी केस बिगाड़ देते हैं। मरीजों के मल द्वार के पास और अंदर घाव हो जाता है। संक्रमण के कारण सेप्टीसीमिया तक हो जाता है। ऐसे मरीज हालत गंभीर होने पर गैस्ट्रोसर्जन के पास आते हैं।

दरअसल, झोलाछाप डाक्टर जो पाइल्स का शर्तिया इलाज करते हैं वह तेजाब का इंजेक्शन पाइल्स के समीप नस में लगा देते हैं। गलत जगह इंजेक्शन लगने पर मल द्वार और अंदर की सतह जल जाती है। इससे घाव और इंफेक्शन हो जाता है। इसी वजह से पाइल्स का इलाज किसी विशेषज्ञ से ही कराना चाहिए।

पाइल्स है क्या?
 लंबे समय तक कब्ज रहने पर बड़ी आंत के निचले हिस्से में रक्त प्रवाह करने वाली नसें फूल जाती हैं। यही गांठ का रूप बना लेती हैं। इसे पाइल्स कहते हैं। मल विसर्जित करते समय जोर लगाने पर गांठ फूटती है।

इससे मल के साथ रक्त स्राव होता है। ७० प्रतिशत लोगों में कब्ज की परेशानी होती है। पेट साफ करने के लिए दवा ले रहे हैं। पेट साफ नहीं हो रहा है। मल विसर्जन के बाद भी विसर्जन की फीलिंग तीन माह से अधिक समय तक यह परेशानी है तो विशेषज्ञ से सलाह लेना चाहिए।

बिना दर्द संभव होगी कोलोन एंड रेक्टल सर्जरी ...
पाइल्स, टी १ और टी २ प्रकार के छोटे कैंसर, आंत मल द्वार से बाहर आना (कांच उतरना), रेक्टोसील सहित कईं परेशानियों की सर्जरी अब बिना दर्द संभव हो गयी है।

नान सर्जिकल ट्रीटमेंट भी कारगर....
बड़ी आंत के निचले हिस्से में नसों का गुच्छा बन जाता है जिसे फिशर कहते हैं.. मल विसर्जन के समय दर्द, विसर्जन के बाद दर्द, मल में चिपका हुआ खून आता है। ऐसा क्रानिक कब्ज के कारण होता है। कब्ज को दूर कर के इस परेशानी को कम किया जा सकता है। देखा गया है कि लाइफ स्टाइल में बदलाव लाकर, मल द्वार पर लाने वाले क्रीम, लेक्सेटिव दवाओं से ५० से ६० फीसदी केसों में परेशानी दूर हो जाती है। इस परेशानी से ग्रस्त लोगों को फाइबर युक्त आहार (सत्तू, चोकर युक्त रोटी) के साथ खूब पानी पीना चाहिए।

वैसे कितनी बातें जो विशेषज्ञ तो बार बार हमारी अच्छी सेहत के लिए दोहराते रहते हैं, सोचने वाली बात है कि क्या हम इन का कहा मानते भी हैं या बस, ऐसे ही पढ़ा और बस भूल गये। नहीं, ऐसे नहीं चलेगा, विशेषज्ञों की हर बात में राज़ होता है.......वे अपनी बीसियों वर्षों के अनुभव को आप के साथ चंद मिनटों में साझा कर लेते हैं।

अपना ध्यान रखिएगा। 

आ रही है बकरीद

मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकता कि एक बकरा एक-डेढ़ हज़ार रूपये से ज़्यादा का होगा......शायद अगर कोई मुझे कहे कि अब महंगाई हो गई है इसलिए अब बकरा तीन- चार हज़ार या पांच हज़ार का बिकता है, मैं यह भी मान लूंगा।

दो चार दिन पहले की बात है मैंने हिन्दुस्तान समाचार पत्र में एक शीर्षक देखा... १२ से दो लाख तक के बकरे हैं बाजार में, लोग दे रहे मुंह मांगी कीमत। मैं यह पढ़ कर दंग रह गया था।

इसी खबर से कुछ वाक्य उठा कर यहां लिख रहा हूं.....

बकरीद पर होने वाली कुर्बानी के लिए शहर की बकरा मण्डी पूरे शबाब पर है। चौक की बकरा मण्डी में रविवार को बकरा खरीदने वालों की खूब भीड़ उमड़ी। मण्डी में बकरा बारह हजार रूपये से लेकर २ लाख रूपये तक बिक रहे हैं।

खूबसूरती देख बिक रहे बकरे...
मण्डी में बकरा खरीदने आने वाले लोग खूबसूरत बकरों की मुंह मांगी कीमत अदा करने को तैयार हैं। खरीदारों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले ऐसे ही तमाम बकरे काफी महंगे कीमत पर बिक रहे हैं।

बकरा बाजार की कीमतें...
अजमेरी बकरा.. २५ हज़ार से १.५० लाख तक
बरबरा बकरा- ३० हज़ार से ८० हज़ार तक
तोता परी बकरा- ६० हज़ार से ३लाख तक
जमुनापनी बकरा- १२ हज़ार से ६० हज़ार तक
देसी बकरा - २० हज़ार से ५० हज़ार तक
दुम्बा- ६० हज़ार से २ लाख तक
बकरा खरीदने आ रहे लोग हर तरह से कर रहे हैं जांच परख, बकरे की सुंदरता भी परख रहे हैं लोग।

ऑनलाइन बिक्री
इसके अलावा ऑनलाइन भी बकरों की खूब बिक्री लग रही है। कई लोग तो ओएलएक्स और क्विक्र (  OLX and Quickr) जैसी साइटों पर भी बकरे बेच और खरीद रहे हैं।

कीमतों का मुझे सच में बिल्कुल अंदाज़ा नहीं है, इस का प्रमाण कल रात भी मिल गया जब हम लोग टाटास्काई के शो-टाइम में हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया फिल्म देख रहे थे....तो आलिया भट्ट फिल्म में अपने बापू से जिद्द करने लगी कि वह तो शादी में ५ लाख की कीमत वाला डिजाईनर लहंगा ही पहनेगी........मैंने तुरंत अपनी श्रीमति जी की तरफ़ देखा ...क्या लहंगे इतने महंगे होते हैं ?......उन की हां ने इस कीमत की पुष्टि कर दी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि जो दौड़ हम हांफते हुए दौड़े जा रहे हैं, क्या उस का कोई एंड प्वाईंट भी है।

बकरे वाली बात मैं यही खत्म करता हूं......दिल में बहुत सी बातें हैं......अपने परिवार में तो बैठ कर शेयर कर ही लेता हूं लेकिन यहां इस पोस्ट में नहीं लिखना चाहता क्योंकि इस तरह के विषय पर कुछ भी लिखे हुए को अकसर धार्मिक चश्मा पहने कर पढ़ने की कोशिश की जाती है........मुझे इस काम से घोर परहेज है।

मैं तो बस एक ही धर्म को जानता हूं और इसे ही मानता हूं .........इंसानियत।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

बहुत ही आसानी से ठीक हो जाता है पायरिया

इस २०-२२ वर्ष की युवती में पायरिया रोग 
इस २०-२२ वर्ष की लड़की के दांत और मसूड़े जितने भयानक दिख रहे हैं, दरअसल स्थिति इतनी बुरी है नहीं।

ब्लॉग पर मुझे एकदम सच बात ही लिखनी होती है....यह मेरा संकल्प है। कोई भी नेट पर बड़ी उम्मीद के साथ कुछ ढूंढ-ढांढ कर पढ़ने के लिए आता है। एक एक शब्द सच लिखने की तमन्ना रहती है।

इस लड़की के दांतों में पायरिया तो है...लेकिन इस उम्र में इस तरह के पायरिया का इलाज करना बहुत ही आसान भी होता है, और अगर यह लड़की डैंटिस्ट के बताए अनुसार दिन में दो बार ब्रुश करे, रोज़ाना जुबान की सफ़ाई करे और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला करने की आदत डाल ले तो इसे फिर से ऐसी तकलीफ़ होने की संभावना बहुत कम हो जायेगी...बहुत ही कम......हां, थोड़ा बहुत टॉरटर तो जम सकता है दांतों पर...वह तो किसी के भी दांतों पर जम सकता है, लेकिन ऐसे हालात फिर से नहीं होंगे अगर यह अब दांतों की साफ़-सफ़ाई का पूरा ध्यान रखेगी।

ऐसे पायरिया के केसों में इलाज के साथ साथ इस बात का भी बहुत ही ज़्यादा महत्व है कि मरीज़ अपने दांतों की स्वच्छता की तरफ़ पूरा ध्यान देना शुरू करे। इसलिए मैं तो हमेशा इस तरह के मरीज़ का इलाज ही तभी शुरू करता हूं जो वे पांच-सात दिन में अच्छे से ब्रुश करना शुरू कर देते हैं......पहले तो मैं उन्हें सिखाता हूं, फिर जब आश्वस्त हो जाता हूं कि अब इसे अच्छे से समझ आ गई है तभी इलाज शुरू करता हूं। वरना तो इलाज करने का कोई फायदा होता ही नहीं, क्योंकि कुछ ही महीनों में पायरिया फिर से लौट आता है।
इसी युवती के नीचे के दांतों के अंदर की तरफ़ जमा कचरा (टॉरटर) 
मरीज़ों को लगता है कि यार अब ब्रुश करना भी सीखना पड़ेगा..लेकिन इस मामले में मैं उन की नहीं सुनता, सीखना तो है ही, और उसे प्रैक्टिस भी करना है। सभी मरीज बात मान लेते हैं।

यह लड़की भी जो मेरे पास दो दिन पहले आई थी.....यह अगले पांच सात दिनों में लगभग दो बार आकर लगभग ठीक हो जाएगी, इस के मसूड़ों से रक्त बहना बंद हो जाएगा, और मुंह से बदबू भी आनी बंद हो जायेगी। लेकिन यह जो मसूड़े अजीब से दिखने लगे हैं, इन्हें पंद्रह दिन-एक महीने बाद भी देखना पड़ेगा......अकसर कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, यह भी अपने आप नार्मल जैसे दिखने लगेंगे.........

जानते हैं मैंने यह पोस्ट क्यों लिखी, इस का कारण यह है कि अगर आप या आप के आसपास इस तरह के पायरिया रोग से ग्रस्त लोग हैं तो उन में भी यह जागरूकता फैलाएं कि इस का इलाज करवाना बिलकुल आसान है........जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं।

और हां, जितनी कम उम्र होगी, उतना ही जल्दी ठीक हो जाएगा यह पायरिया रोग। मैंने लिखा कि इस तरह के केसों में जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं इसे ठीक करना बहुत सुगम है, इस का कारण यह है कि अभी यह सूजन या पायरिया मसूड़ों तक ही सीमित है, यह आगे नीचे जबड़े की हड्‍डी तक नहीं फैला है........जब यह आगे हड़्डी तक फैल जाता है तो दांत हिलने लगते हैं, मसूडे दांतों से पीछे हट जाते हैं, मसूड़ों से पस निकलने लगती है........लेिकन इलाज तो उसका भी है..........but as they say......."a stitch in time saves nice"

"An ounce of prevention is better than a pound of treatment"

अच्छा, बात समझ में तो आ ही गई होगी। कुछ पूछना चाहते हैं तो बिंदास कमैंट्स में लिखिए।

                         इस तरह के लफड़ों से भी बच कर रहें......

फूलों की जगह लेने वाले हैं फल....

इतना बढ़िया टॉपिक है यह फूलों का तो इस की शुरूआत एक फूलों की आरती से तो होनी ही चाहिए , है कि नहीं..



फूल-पत्तों से सभी को प्यार होता है , मुझे ही दीवानगी की हद तक इन से लगाव है। सुबह सैर करते हुए किसी को फूल तोड़ कर प्लास्टिक की पन्नी में धकेलते देख कर मूड खराब हो जाता है। ईश्वर सब को तौफ़ीक बख्शे कि हम कुदरत की नेहमतों को कम से कम जैसे हैं वैसे तो रहने दें, अगर इन में इज़ाफ़ा नहीं भी कर सकते।

घर में सैंकड़ों फूल खिला करते थे लेकिन कभी याद नहीं कि किसी तरह की पूजा-अर्चना के लिए इन्हें तोड़ा हो, मुझे यह ठीक नहीं लगता, जिस ने हमें फूल दिया हम उसी को चढ़ाने के लिए उसे तोड़ दें।  हां, जब बचपन था तो 31मार्च के दिन (जिस दिन मेरा रिजल्ट निकलता था) मेरी बड़ी बहन मेरे लिए तीस-चालीस गुलाब के फूल तोड़ कर एक हार अपने स्कूल के प्रिंसीपल साहब के गले में डालने के लिए ज़रूर थमा कर मुझे स्कूल के लिए विदा करती थी....मुझे अभी भी याद है उस का उस दिन सुबह सुबह उठ कर, सूईं धागे से उन फूलों को एक माला में पिरोना...। आज लगता है कि यार उस की भी क्या ज़रूरत थी, जब एक फूल ही से काम चल सकता था।

मुझे तब भी बड़ा बुरा सा लगता है जहां पर मैं सैंकड़ों-हज़ारों फूलों की बर्बादी होती देखता था.....माखन लाल चतुर्वेदी जी की रचना पुष्प की अभिलाषा याद आ जाती है....हम हिंदी के मास्टर साहब ने बड़े दिल से पढ़ाई थी। एक बात बताऊं कि मैंने कभी भी बुके (फूलों का गुलदस्ता) किसी को भेंट करने के लिए नहीं खरीदा.......मुझे यह एक घोर फिजूलखर्ची, सिरदर्दी सी लगती है दोस्तो.......हम देखते हैं कि कितने टन फूल यूं ही स्टेजों को सजाने में, एक दूसरे का सम्मान करने के चक्कर में बर्बाद कर दिये जाते हैं.....और कभी देखें कि एक घंटे के बाद वही फूल उधर ही पब्लिक के पैरों के नीचे मसले जा रहे होते हैं.....यह सब देख कर सिर भारी हो जाता है........

फूल तो हैं हर तरफ खुशी बिखरने के लिए...यह मेरी टेबल के गुलदस्ते में रूक कर क्या करेंगे, यह इन का स्वभाव नहीं है, आप याद करिए जब कभी हम लो सा फील कर रहे थे और फिर बाग मे टहलने गये, और रंग बिरंगे खुखबूदार फूलों को देख कर हम ने कितना आनंद अनुभव किया था......उसी तरह आप कल्पना करें कि दिनों से बीमार व्यक्ति को जब अस्पताल की खिड़की से बाहर फूलों का बागीचा दिखता है तो उस का शरीर तो क्या, रूह भी गद गद हो जाती है......चेहरे पर अपने आप एक मुस्कान आ जाती है....

खिलो तो फूलों की तरह, बिखरो तो खुशबू की तरह..

बहुत हो गई शायरी, अब एक सुंदर सा गीत सुनते हैं .........और आश्चर्यचकित हो कर इन फूलों के बारे में सोचते हैं.....




पांच दिन पहले २६सितंबर की हिन्दुस्तान के संपादकीय पन्ने पर एक लेख दिखा था....नज़रिया स्तंभ के अंतर्गत....इस का शीर्षक था.....फूलों की जगह फलों से हो स्वागत। शीर्षक ही इतना बढ़िया लगा था कि उसे पढ़ने की उसी समय इच्छा हो गई....इसे गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी ने लिखा था। लेख इतना बढ़िया लगा कि उसे ऐसे का तैसा ही लिखने लगा हूं............
 "यह विचार गुजरात से आया है, लेकिन सबके लिए उपयोगी है। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने एक कार्यक्रम चलाया है, जिसके तहत राज्य भर में अब गण्यमान्य लोगों का स्वागत फूलों से नहीं, फलों से किया जाएगा। इस कार्यक्रम के तहत जितने भी फल एकत्रित होंगे, वे किसी आंगनबाड़ी केंद्र, विद्यालय या अनाथालय में भेजे जाएंगे।  
पूरी दुनिया की तरह ही भारत में भी लोगों का फूलों से स्वागत करने की परंपरा बहुत पुरानी है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति का पुष्पगुच्छ से स्वागत करता है, तो अक्सर वे पुष्पगुच्छ व्यक्ति के मान-सम्मान और व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन करते हैं, उस व्यक्ति का नहीं, जो सम्मानित होता है।  
देश भर में एक दिन में भिन्न भिन्न स्तर के नेताओं के स्वागत में हजारों टन पुष्प खर्च किए जाते हैं। स्वागत के बाद उनका कोई सदुपयोग नहीं होता है.। फूलों की उपयोगिता समाज में जहां है, वहां उनका उपयोग होना चाहिए। लेकिन गणमान्य लोगों के सम्मान में यदि फूल की जगह फल के छोटे छोटे टोकरे का उपयोग हो, तो उसका शहर और गांव के गरीब बच्चों के लिए उपयोग हो सकता है।  
हमारे देश में आज कुपोषण की बहुत चर्चा होती है। इसका स्थानीय स्तर पर एक समाधान ऐसे भी हो सकता है। यह ठीक है कि इससे सभी कुपोषित बच्चों को सुपोषित नहीं बनाया जा सकता है। परंतु स्वागत के फूल की जगह फल का उपयोग संवेदनशीलता का प्रतीक तो है ही। गोवा में राज्यपाल पद की शपथ लेने के बाद मैंने तय किया कि मैं भी यही करूंगी। पिछले दिनों मुझे उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी और उनकी पत्नी सलमा अंसारी का एयरपोर्ट पर स्वागत करने का अफसर मिला, तो मैं इसके लिए फल लेकर ही वहां पहुंची, जिसे देखकर उपराष्ट्रपति की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे - ' फल ' ? मैंने जब फूल के बदले फल की बात बताई, तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा --"   मैं पिछले सात वर्षों से लोगों से कह रहा हूं कि स्वागत के लिए फूल बर्बाद मत करो, एक फूल काफी है। पर मेरे दिमाग में फूल के बदले फल की बात नहीं आई। ये फल में दिल्ली ले जाऊंगा। एक-दो खाऊंगा और बाकी ज़रूरतमंदों को भिजवाऊंगा।" 
अब यह उम्मीद सभी गण्यमान्य लोगों से है। हमारे देश में बहुत सारी ऐसी गंभीर समस्याएं हैं, जिन्हें छोटे छोटे निर्णयों व कार्यों से सुलझाया जा सकता है। जब इस निर्णय की चर्चा मैंने गोवा के किसी गण्यमान्य व्यक्ति से की, तो उन्होंने मुझे बताया कि फूलों के गुच्छे की तुलना में फल देना सस्ता रहेगा। फिर यह भी पता चला कि गोवा में फूलों की खेती बहुत ज़्यादा होती भी नहीं। वहां फूल बाहर से मंगवाए जाते हैं। जहां फूलों की खेती होती है, वहां भी फल की छोटी डाली एक बड़े गुच्छे से सस्ती ही पड़ेगी। वैसे यह महंगे और सस्ते की बात नहीं है। बात तो भावना की है और सरोकार की है, जिसे पूरे देश को अपनाना ही चाहिए। "
-- मृदुला सिन्हा, राज्यपाल, गोवा.

जाते जाते यह ध्यान आ रहा है कि चलो यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है फूलों की जगह फलों की शुरूआत....लेकिन वही बात है कि यहां भी अगर स्पर्धा शुरू हो गई कि महंगे से महंगे फल देना, ड्राई फ्रूट देना......लेकिन अच्छा ही होगा उन बच्चों के लिए जिन में यह सब कुछ बांटा जाएगा जिन के नसीब में वैसे यह सब कुछ नहीं होता....।

जाते जाते बनावटी फूलों के बारे में भी एक बात कर लेते हैं...........बात क्या करनी है, गीत ही सुन लेते हैं.......सारी बात समझ में आ जाएगी... आप तो पहले ही से समझे हुए हैं।



अबार्शन के लिए कूरियर से मिलने वाली दवाई

मैं अकसर बहुत बार नेट पर बिकने वाली दवाईयों के बारे में सचेत करने के लिए लिखता रहता हूं, इसलिए जब कल की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले ही पन्ने पर इस तरह की खबर का शीर्षक दिखा (लिंक इस पोस्ट के अंत में दिया है) तो यही लगा कि यह भी कुछ वैसा ही चक्कर होगा....दवाईयां इंटरनेट के द्वारा बेचने वेचने का।

लेकिन जैसे जैसे उस न्यूज़-रिपोर्ट को पढ़ता गया मेरे सारे पूर्वाग्रह गल्त सिद्ध होते रहे।

पहले तो यही लगा कि नागपुर का जो शख्स यह काम कर रहा है, इसे एक धंधे के तौर पर ही तो कर रहा होगा...कि जो महिलाएं गर्भपात करवाने की इच्छुक हैं लेकिन जिन का देश इस बात की अनुमति नहीं देता, उन्हें यह शख्स अबार्शन करने के लिए टेबलेट्स कूरियर से भेजता है... मुझे लगा कि यह भी तो एक धंधा ही हुआ...

थोड़ा अजीब सा तो लगा कि ऐसे कैसे कोई भी औरत जिस का देश उसे गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं देता, वह इन्हें लिखे और गर्भ को गिराने के लिए गोलियां मंगवा के खा ले......बस.......मुझे ऐसे लगा कि यह तो बड़ा जोखिम भरा काम है......दवाई मंगवाने वाली महिला को क्या पता कि वह दवा खा भी सकती है या नहीं, उस की प्रेगनेन्सी की क्या अवस्था है, इतना सब कुछ एक महिला कैसे जान पाती है, यह सब कुछ कहां समझ पाती है एक औसत घरेलू महिला।

लेकिन फिर जैसे मैंने इस िरपोर्ट को आगे पढ़ा तो इस सुंदर अभियान की परतें खुलती गईं।

तो हुआ यूं कि यह जेंटलमेन जो दवा महिलाओं को भेजते हैं ....उन को एक संस्था के बारे में पता चला ... और उस से भी पहले उस महिला चिकित्सक के बारे में इन्हें पता चला जिन्होंने ऐसे देशों की महिलाओं (जिन में अबार्शन किया जाना प्रतिबंधित था).. के लिए एक समुद्री जहाज में एक गर्भपात क्लिनिक खोल दिया....जो जहाज उस देश के बाहर खड़ा रहता था ताकि महिलाएं वहां आकर अपना अबार्शन करवा पाएं......लेकिन उस काम में कोई इन्हें ज़्यादा सफलता मिली नहीं।

फिर इन्होंने एक वेबसाइट खोली ...Women on Web......इस साइट के माध्यम से ज़रूरतमंद महिलाओं इस संस्था से संपर्क करती हैं, अधिकतर ऐसी महिलाएं जिन के देशों में स्थानीय कानून अबार्शन की अनुमति नहीं देते.... जब ये महिलाओं अपना प्रेगनेंसी टेस्ट करवा लेती हैं. और अगर हो सके तो अल्ट्रासाउंड भी करवा लेती हैं तो ये महिलाएं  एक प्रश्नोत्तरी के माध्यम से इंटरनेट पर इस संस्था की किसी महिला चिकित्सक से परामर्श लेती हैं......इस संस्था की वेबसाइट भी एक बार अवश्य देखें कि किस तरह से ज़रूरतमंद औरतों का सही मार्गदर्शन किया जाता है।

जब वह महिला चिकित्सक उन की प्रार्थना को स्वीकार कर लेती हैं तो वह गर्भपात की दवाईयों का नुस्खा उस नागपुर के इस कार्यकर्त्ता को भेज दिया है जो फिर वहां से दवाई को उस के गनतव्य स्थान की तरफ़ कूरियर कर देता है।

नागपुर का यह बंदा इस काम से कोई मुनाफ़ा नहीं कमाता....केवल सेवाभाव से काम कर रहा है, हां लेकिन महिला को इस संस्था को ९० यूरो दान के रूप में देने के लिए आग्रह किया जाता है.......लेिकन जो नहीं भी दे पातीं, उन्हें ऐसे ही दवा भिजवा तो दी ही जाती है।

 इसे भी ज़रूर देखिए....
Pills-by-post op helps women abort
The abortion ship's doctor


मंगलवार, 30 सितंबर 2014

लखनऊ का वनस्पति उद्यान -एक स्लाईड शो

अच्छा, संक्षेप में बात करता हूं ..आज मैं लखनऊ के सुप्रसिद्ध वनस्पति उद्यान गया था.....क्यों गया था, क्या किया वहां, कितनी देर रूका, कैसा अनुभव रहा, क्या सीखा......ये सब बातें बाद में..क्योंकि इस समय थक चुका हूं....थकावट इसलिए हो गई कि वहां मैंने बहुत सी तस्वीरें खींची......और फिर ध्यान आया कि आप से साथ शेयर भी तो करनी हैं.....बस, इसी चक्कर में १०० के करीब फोटो की एडिटिंग में और फिर इन का स्लाईड शो बनाने के चक्कर में पूरे छः घंटे का समय लग गया......इसलिए अभी तो आप इस स्लाईड-शो को देखिए........बाद में एक दो दिन के बाद में अपना सारा अनुभव और कोशिश करूंगा कि एक एक तस्वीर के बारे में आप से जानकारी शेयर करूं.......अच्छा तो देखिए आप इस स्लाईड शो को.....


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शनिवार, 27 सितंबर 2014

सिंघाडे और कुट्टू के आटे के बारे में चंद बातें...

सूखे हुए सिंघाडे 
आज हम एक किरयाना स्टोर पर गये तो वहां एक आदमी सूखे हुए सिंघाडे उठा रहा था..मैंने सूखे हुए सिंघाडे पहले नहीं देखे थे...बताने पर कहने लगा कि इस को पीस कर आटा तैयार किया जाता है जो व्रत में इस्तेमाल होता है। यह सिंघाडे १५० रूपये किलो बिक रहे थे जब कि सिंघाडे का आटा १४० रूपये किलो बिक रहा था। उस का और दुकानदार का वार्तालाप मैं सुन रहा था कि आज कल कुछ लोग इस तरह से सूखे सिंघाडे ले जा कर घर में उस को पीस कर उस का आटा बनाते हैं।

उस बंदे ने पूछा कि आटा आप सस्ता बेच रहे हो और सिंघाडे महंगे तो दुकानदार ने बड़ी साफ़गोई से उसे कहा कि यह जो आटा हम लोग बेच रहे हैं यह इस तरह के साबुत सिंघाडे से तो तैयार होता नहीं है, इस में सिंघाडे के टुकड़े इस्तेमाल होते हैं.....ज़ाहिर सी बात है अगर दुकानदार स्वयं ही यही कह रहा तो सिंघाडे के टुकड़े ही नहीं बल्कि उन की गुणवत्ता पर भी सवालिया निशान तो थोड़ा सा लग ही जाता है।

कुट्टू के आटे के पैकेट भी सामने ही पड़े हुए थे... यह एक सौ रूपये किलो के हिसाब से बिकता है ...और कुट्टू जिस का आटा बनता है, वह भी उस ने साबुत रखे हुए थे...८० रूपये किलो।

कुट्टू जिस का आटा बनता है... 
सिंघाडे और कुट्टू के आटे से तैयार व्यंजन हम लोगों ने भी खूब खाए....व्रत के नाम पर इस के तरह तरह के तेल और घी से तैरते हुए व्यंजन तैयार किए जाते हैं। हिंदी के समाचार पत्रों वाले भी बड़ा योगदान कर रहे हैं लोगों को जागरूक करने के लिए। दो दिन पहले ही मैंने हिन्दुस्तान अखबार में एक डॉयटीशियन का बहुत अच्छा लेख लिखा जिस में उसने बडे़ सुंदर ढंग से लिखा हुआ था कि लोग व्रत में सिंघाडे और कुट्टू के आटे से तेल से लैस पूरियां, पकौड़े, टिक्कीयां तो खूब खाते रहते हैं और इस तरह से वसा से युक्त पदार्थ सेहत के साथ खिलवाड़ है.....उन्होंने बड़ी अच्छी सलाह दी कि लोगों को चाहिए व्रत के दिनों में इन आटों से चपातियां बना कर खाया करें..........अच्छा लगा उन का यह सुझाव।

कुछ साल पहले जब मीडिया में खबरें छपती थीं कि कुट्टू का आटा व्रत के दिनों में खाने से इतने लोग बीमार हो गये, इतने लोग बहुत बीमार हो गये और इतने लोगों की मौत हो गई। बहुत बुरा लगता था.......लेकिन फिर सरकार ने इस तरफ़ बहुत ध्यान देना शुरू किया और इस तरह के आटे की बिक्री पर पैनी निगाह रखी कि इस की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं हो।

लेकिन आज कल आप देखिए कि पहले ज़माने के दिनों की तरह शायद कुट्टू और सिंघाडे के आटे के खुले में बिकने वाले ढेर तो होते ही होंगे ... हर आदमी का अपना बजट है, लेकिन फिर भी इस तरह के पैकेट सिंघाडे और कुट्टू के आटे के बिकने लगे हैं... और यहां तक कि सूखे सिंघाडे और कुट्टू भी बिकते हैं।

वैसे कुट्टू के आटे में इतनी जल्दी खराबी आती क्यों है, मैंने अभी गूगल सर्च किया तो पता चला. आप भी इस लिकं पर जाकर पढ़ सकते हैं...

मैं इस लेख को लिखने लगा तो मैंने कुट्टू का आटा लिख कर गूगल सर्च किया...तो बहुत से अच्छे लिंक मिल गये। मैं सोच रहा था कि बस कुट्टू को हिंदी में लिखने की देर है, सब कुछ मिल जाता है लेकिन हिंदी में लिखना आना चाहिए।

आखिर कुट्टू क्या होता है?
कुट्टू के आटे के फायदे..
क्यों बदनाम हुआ कुट्टू का आटा...

हां, सिंघाडे से याद आया......मैंने भी बचपन में सिंघाडे और शकरकंदी ( sweet potato) खूब खाए, अकसर यह दोनों घर ही में तैयार किए जाते थे......और जितने मेरे बच्चों को नूडल्स और पिज़ा पसंद है, मुझे सिंघाडे और शकरकंदी भी उतने ही पसंद थे और आज भी हैं.......लेकिन अब मुझे सिंघाडे खाने में कुछ ज़्यादा रूचि नहीं रही... पिछले कुछ वर्षों से हरे रंग के छिलके वाले सिंघाडे मिलते हैं (हम लोग काले रंग के सिंघाडे खाया करते थे...पता नहीं क्या डालते थे उस में उन के छिलके को काला करने के लिए......लेिकन फिर पता चला कि कुछ डाई वाई का इस्तेमाल किया जाता है तो इन्हें खाने में रूचि न रही)...


इस लिंक में कुट्टू के आटे के बहुत ही लुभावने व्यंजन दिख तो रहे हैं , .....कुट्टू के आटे की पूरी.... लेकिन तेल वेल की तऱफ़ ध्यान दीजिएगा......इसलिए मेरी तो सलाह है कि इस तरह के खान पान से दूर ही रहें.......बस, सीधी सादी चपातियां आदि बना लेनी चाहिए इन आटों से......ये तले वले के चक्कर में पड़ेगें तो इतने दिन तक खाते खाते वजन बढ़ाने का पूरा इंतजाम हो जाएगा......और फिर लोग कहते हैं कि इतने व्रत रखते हैं फिर भी वजन कम होने का नाम नहीं ले रहा।

इस कुट्टू सिंघाडे की कथा का समापन एक भेंट से करते हैं.......



स्तन रोग के बारे में कुछ काम की बातें...

इस का शीर्षक देख के बिल्कुल भी दूर न भागने की कोशिश करिएगा.....मैं भी लेक्चर टाइप की बातों से बहुत दूर भागता हूं क्योंकि सिर बहुत जल्दी भारी हो जाता है। तो हुआ यूं कि आज एक सुप्रसिद्ध कैंसर सर्जन डा विनय गर्ग को सुनने का मौका मिला.. वे स्तन रोग के बारे में अपनी प्रस्तुति देने आए थे।

मैं कईं बार लोगों से शेयर करता हूं कि जब डाक्टर लोग बोलते हैं ना उन्हें बड़े ध्यान से सुनना चाहिए.... क्योंकि ये लोग अपने बीस-तीस-चालीस वर्ष के अनुभव को एक घंटे में आप के साथ बिल्कुल निःस्वार्थ भाव से शेयर कर लौट जाते हैं।

इन डाक्टर साहब ने भी स्तन रोग के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें शेयर कीं......जो मुझे याद रह गईं वह मैं जल्दी से आप से साझा करना चाहता हूं ताकि फिर से न भूल जाऊं...

एक बात तो उन्होंने यह बड़ा ज़ोर दे कर कही कि महिलाओं में स्तन की हर गांठ कैंसर नहीं होती....इस बात का खूब प्रचार प्रसार होना चाहिए..क्योंिक जैसे ही किसी महिला को अपने स्तन में गांठ का पता चलता है, वह और उस का परिवार इतने खौफ़जदा हो जाते हैं कि वे इलाज करवाने ही नहीं पहुंचते या डर के कारण इलाज करवाने में बहुत देरी कर देते हैं.... इसलिए स्तन की गांठ का एक क्वालीफाईड डाक्टर द्वारा निरीक्षण एवं जांच होनी चाहिए ताकि समुचित इलाज करवाया जा सके।

दूसरी बात... जो उन्होंने बताई वह यह कि शहरों में स्तन कैंसर गांवों की तुलना में ज़्यादा होता है...आंकड़े ये हैं भारत के ..शहरों में २८ केस हर एक लाख की पापुलेशन पर और गांवों में यह आंकड़ा १८ केस हर एक लाख की पापुलेशन पर पाया जाता है। इस का कारण भी उन्होंने साफ़ साफ़ बताया कि शहरों में अब महिलाएं भी पुरूषों के साथ कंधे से कंधे मिला कर काम कर रही हैं, अपने कैरियर की तरफ़ ज़्यादा ध्यान देने लगी हैं, इसलिए आम तौर पर शहरी कन्याएं शादी देर से करती हैं, इसलिए बच्चे भी देर से होते हैं, गर्भपात के केसों की संख्या भी बढ़ रही हैं, और बच्चों को स्तनपान कम करवाया जाता है ...और करवाया भी जाता है तो बहुत कम समय के लिए.... शहरी महिलाओं में इन सब के साथ साथ तनाव बहुत अधिक होने के कारण स्तन कैंसर होने का रिस्क ग्रामीण महिलाओं की तुलना में ज़्यादा होता है। गांव में तो महिलाएं बच्चों को ३ साल, ५ साल तक स्तनपान करवाती हैं, इस सब का परिणाम यही होता है कि उन में स्तन कैंसर का खतरा कम हो जाता है...।

इन्हीं कारणों की वजह से ही वे बता रहे थे कि इस बीमारी को हॉरमोनल बीमारी या लाइफ-स्टाईल डिसीज़ भी कहा जाने लगा है।

डाक्टर साहब बार बार इसी बार को रेखांकित कर रहे थे कि इस के बारे में जितनी ज़्यादा अवेयरनैस बढ़ाई जाए उतना ही अच्छा है।

वह यह भी शेयर कर रहे थे कि अब स्तन कैंसर के केस छोटी उम्र में भी पाए जाने लगे हैं....... कहने लगे कि मैं १९ वर्ष की युवती में भी स्तन कैंसर को पाया है। तभी मुझे भी ध्यान आ रहा था कि मेरे पास भी दो चार दिन पहले एक महिला अपने मुंह की किसी समस्या से आई थीं ...पहले ही उसने मुझे बता दिया था कि वह स्तन कैंसर का इलाज करवा चुकी हैं....उस की भी उम्र भी २५-२८ के करीब की ही होगी।

एक बात का उन्होंन विशेष ज़िक्र किया कि आज कर हर डेयरी में किस तरह से गाय-भैंसों को वैज़ोप्रेसिन- ऑक्सीटोसिन के इंजैक्शन लगा लगा कर ही उन का दूध निकाला जा रहा है जिस से भी महिलाओं में हार्मोनल लोचा हो जाता है...

अच्छा...थोड़ा सांस लेकर अभी बाकी बातें बाद में लिखता हूं ...इस से अगली पोस्ट में, अभी बहुत सी काम की बातें करनी हैं।

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

रोस्ट चिकन है फूड पाइप कैंसर का प्रमुख कारण...

परसों की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी कि मद्रास में चिकित्सकों ने एक रिसर्च में पाया है कि रोस्ट चिकन --जिस चिकन को मिर्च-मसाले और तेल-वेल लगा कर गैस पर या कोयलों के ऊपर ग्रिल किया जाता है...क्या कहते हैं इसे बारबीक्यू....कुछ ऐसा ही कहते हैं ना......जो लोग ऐसा रोस्ट चिकन खाते हैं उन में फूड पाइप (oesophagus) का कैंसर होने का खतरा कईं गुणा बढ़ जाता है... अल्कोहल का भी इस में प्रमुखता से नाम था। वैसे तो मिर्च-मसाला, आचार आदि की भी फूड-पाइप के कैंसर में भूमिका बताई जाती है।

मद्रास में की गई इस मैडीकल रिसर्च में यह बताया गया है कि किस तरह से चिकन एवं मछली को सीधा गैस या कोयले पर सेंकने से कोयले एवं गैस के धुएं में मौजूद कैंसर पैदा करने की क्षमता रखने वाले कैमीकल चिकन एवं मछली की सतह पर चिपक जाते हैं, जिस से फूड-पाइप के कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

Smoked meat now deadlier than liquor (Times of India)

मैं कल सोच रहा था कि आज तक तो इस तरह से सेंक कर कुछ न कुछ खाने का चलन भी बढ़ता ही जा रहा है, जैसे बहुत सी जगहों पर आजकल पनीर के टिक्के भी इसी तरह सेंक कर ही सर्व किए जाते हैं।

जो मैडीकल रिसर्च भारत में हो रही है उस पर भी थोड़ी नज़र तो रखनी ही चाहिए, बस ज़्यादा नहीं, थोड़ा थोड़ा पता रहना चाहिए, अंदर की बात चाहे पता हो या ना हो, लेकिन जब मैडीकल वैज्ञानिकों ने यह कह दिया कि रोस्टेड चिकन एवं मछली को खाने में इस तरह का लफड़ा है, तो फिर ऐसे चीज़ों से परहेज़ करना ही मुनासिब लगता है , है कि नहीं ?

वैसे एक बात बताऊं जहां भी इस तरह का रोस्टेड सा कुछ भी बन रहा होता है, उस वस्तु को खाने की इच्छा बड़ी हो जाती है, क्योंिक इस तरह के स्टालों के आसपास गजब का अरोमा  होता है। वैसे तो मैंने पिछले बीस वर्ष से नान-वैज नहीं खाया, कोई धार्मिक कारण नहीं, बस इच्छा ही नहीं हुई कभी।

मैं जब इस तरह के टॉपिक पर कुछ लिखता हूं तो बहुत बोझिल सा महसूस करता हूं...... हर रोज नईं रिसर्च ...यह खाओ, यह मत खाओ, इस में यह लफड़ा, इस का यह फायदा, इस के साथ साथ मैडीकल रिसर्च को प्रभावित करतीं मार्कीट शक्तियां......ऐसे में कैसे कोई भी अपने आप को इतना अपडेट रख सकता है, थोड़ा मुश्किल ही जान पड़ता है। कोई कहता है टमाटर खाओ तो इस बीमारी से बचो, यह वाला तेल इस्तेमाल करो तो इस से बच जाओगे......कईं बार तो इतनी सूचना से खिचड़ी सी ही बन जाती है।

मुझे तो लगता है कि ठीक है, हम इधर उधर से ज्ञान तो अर्जित करते रहें, कोई बुराई नहीं है.....लेकिन कुछ फंडे बिल्कुल क्लियर रखें जैसे कि संतुलित आहार की बात, शारीरिक परिश्रम की बात, टहलने का नियम, योग-प्राणायाम् की आदत, तंबाखू- एवं अन्य नशों से दूरी बनाएं रखें, और अच्छा प्रेरणात्मक साहित्य पढ़ें......बस और क्या, हम तो इतना ही कर सकते हैं।

दवा का रिएक्शन मुंह में कैसा दिखता है?

यह आदमी अपने मुंह का घाव दिखाते हुए... 
कल मेरे पास एक ४५-५० वर्ष की उम्र का आदमी आया...उसने कहा कि उसने कोई दवा खाई थी दो तीन दिन पहले जिस से उस के सारे शरीर में खुजली होने लगी और मुंह में बहुत बड़ा घाव हो गया।

यह तो पक्का ही था कि उसे दवाई लेने से ही यह घाव हुआ था क्योंकि एक टेबलेट लेने के कुछ घंटे बाद ही इस तरह मुंह में छाला सा हो गया जो तुरंत फूट गया और यह बढ़ कर यह घाव बन गया। 

इस घाव की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं....देखने में काफ़ी बड़ा तो लग रहा है, इस आदमी को परेशान भी बहुत कर रहा है...उससे कुछ भी खाया पिया नहीं जा रहा। 

लेिकन आप चिंता न करें, यह घाव तो तीन-चार दिन में ठीक हो ही जाएगा.......बिना किसी ऐंटीबॉयोटिक जैसी दवाईयों के.....इस पर दिन में चार पांच बार मुंह में लगाने वाली दर्द निवारक एवं ऐंटीसेप्टिक जैल लगानी होगी..... कुछ के नाम मैं यहां लिख रहा हूं......Dentogel, Dologel, Zytee, Emergel आदि.....इन में से किसी भी एक जैल का इस्तेमाल किया जा सकता है। घाव में दो बूंद लगाने पर इसे पांच मिनट बाद थूक देना होता है.....विशेषकर खाना खाने से पहले इस का इस्तेमाल खाने से होने वाली दिक्कत को बहुत कम कर देता है। 

अकसर किसी भी दर्द-निवारक टेबलेट खाने की भी ज़रूरत नहीं होती.......अगर है तो कोई भी हल्की फुल्की दवा ली जा सकती है। 

टुथब्रुश एवं जुबान साफ़ करने वाली पत्ती का इस्तेमाल नियमित जारी रखना होगा.......ताकि किसी तरह की इंफैक्शन से बचा जा सके। 

एक बात बताऊं जब मैंने इस आदमी से पूछा कि आप को किस दवाई से ऐसा हुआ तो वह नाम ही नहीं बता पाया....न ही उस के पास वह दवाई मौजूद थी......इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए की अगर इस तरह की कोई तकलीफ़ हो भी जाए तो चिकित्सक के पास कम से कम वह दवा तो दिखाने के लिए जाना ही चाहिए, ताकि आप वह दवा किसी दूसरे ट्रेडनेम से भी फिर से खाए जाने से बच सकें। 

दवा का जब किसी को रिएक्शन होता है तो नाना प्रकार के लक्षण हो सकते हैं......सारे शरीर में खुजली, इधर उधर फफोले से पड़ जाना, मुंह में फफोले और घाव आदि हो जाना.......और भी बहुत हैं, लेकिन छोड़िए क्या करेंगे खाली-पीली सभी के बारे में जान कर.......यही शुभकामना है कि आप स्वस्थ रहें। 

हां, यार, एक ध्यान आया....कुछ साल पहले लोग कुछ ज़्यादा ही सीधे हुआ करते थे शायद......कुछ लोग दांत की दर्द से निजात पाने के लिए ऐस्प्रिन की गोली को पीस कर मुंह में दुःखते दांत के सामने टिका दिया करते थे......दर्द तो कहां दूर हो पाता था, लेकिन इसी तरह का ज़ख्म ज़रूर कईं दिन तक परेशान किए रहता था।

यह तो था इन साहब के मुंह का हाल, कल मैंने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में किशोर दा का यह गाया हुआ यह गीत एक आर्टिस्ट की आवाज़ में सुना ... इन्हें लखनऊ में जूनियर किशोर दा कहते हैं.......अच्छा लगा अपने बचपन के दिनों का गीत सुन कर .....आप भी सुनिए... यह दिल के हाल की बात कर रहा है.........

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

जब कोई अस्पताल कहता है......सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः



कल मैंने अपनी एक मरीज़ के हाथ में जो इलाज की डॉयरी देखी उस पर लिखा था......सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः। अच्छा लगा यह पढ़ कर कि मरीज को दी जाने डायरी पर कितनी अच्छी बात लिखी है.....सब सुखी रहें, निरोगी रहें ..सब का क्लयाण हो, कोई दुःखी न रहे।

यही लगा कि सरकारी अस्पताल ही इस तरह की सुंदर पहल कर सकते हैं....यह छोटी बात नहीं है, एक मरीज़ ही जान सकता है कि उसे डाक्टर से मिलने से पहले ही इस तरह की बात कितना सुकून दे सकती है.....जैसे कि सब उस की अच्छी सेहत के लिए दुआ कर रहे हों।

बात एक बार मैंने एक सत्संग में भी सुनी थी कि किसी भी सरकार की सफ़लता का आंकलन इस बात से भी होना चाहिए कि उस के कार्यकल में कितने अस्पताल बंद किए गये......बात को पचाना तो मुश्किल है, लेकिन सतसंग की वैसे कहां हम सारी बातें पचा ही लेते हैं ....इसे भी ऐसे ही निगल लें.........महात्मा के कहने का आशय यही था कि लोग इतने निरोगी, सेहतमंद और खुशहाल हो जाएं कि उन्हें किसी अस्पताल में जाने की आवश्यकता ही न रहे, और सरकारों को धीरे धीरे अस्पताल ही बंद करने पड़ जाएं। बात पचाने लायक है या नहीं, लेकिन आमीन कहते हुए तो हमें कुछ खर्च नहीं ना करना पड़ता। तो चलिए मिल कर कहे देते हैं......आमीन!!

हां, तो मैं उस महिला की डॉयरी की बात कर रहा था......उस के अगले कवर को तो मैंने आप को दिखा दिया, उस पर लिखे को आप से शेयर कर दिया......उस डॉयरी के पिछले कवर पर भी कुछ उपयोगी जानकारियां मिलीं....बहुत ही बढ़िया..अब लोग कहां से टीकाकरण के शैड्यूल को याद कर पाएं, उन की सुविधा के लिए इस जानकारी को भी पिछले कवर पर छपवाया गया है, और साथ में नीचे स्वच्छता का संदेश कितना सुंदर है..........मुझे भी कल ही Cleanliness is next to Godliness का सही तर्जुमा पता चला........मैंने इस वाक्य का अनुवाद बहुत बार करता था, लेकिन ठीक नहीं लगा मुझे अपने आप को भी......लेकिन कल पता चला .........ईश्वर-परायणता के पश्चात स्वच्छता का ही स्थान है। ....वाह जी वाह....कितनी सुंदर बात है।

कुछ अस्पतालों में इस तरह की डॉयरी इश्यू नहीं की जाती.....वहां पर मरीज़ अपनी अपनी डॉयरी या कोई कापी बाज़ार से खरीद लेते हैं...और हर बार वही लेकर आते हैं..कईं बार मरीज बहुत बड़ी बड़ी भारी भरकम डॉयरी खरीद लेते हैं तो मैंने उसे कहता हूं कि यार, आप लोगों ने बीमार ही थोड़े पड़े रहना है, बिल्कुल पांच-दस रूपये में बिकने वाली छोटी डायरी इस काम के लिए खरीदा करो। बात सुन कर वे बहुत खुश हो जाते हैं।

हां, तो डॉयरी के ऊपर कुछ सुंदर से संदेश देख कर अच्छा लगता है.......कितनी ही उपयोगी जानकारियां और भी हैं, जच्चा बच्चा से संबंधित, टीबी के इलाज से संबंधित, खानपान के बारे में टिप्स, स्वच्छ पानी के बारे में कुछ संदेश.....कुछ भी इन दो तीन पन्नों में डाला जा सकता है.....इस से मरीज़ों के बारे में कईं तरह के भ्रम गायब हो सकते हैं......मिसिज़ एक सरकारी अस्पताल में एक सामान्य चिकित्सक हैं, आज एक मधुमेह का मरीज उन से कहने लगा कि क्या करवाएं बार बार जाकर रक्त की जांच.....खाने से पहले और बाद में जो रक्त इतना ज़्यादा निकाल लेते हैं वे तो उसे भी बेच देते हैं। कितनी अज्ञानता व्याप्त है और यह मैं एक महानगर के लोगों की बात कर रहा हूं।

परसों एक बुज़ुर्ग मिला... कहने लगा कि मुझे दूसरे शहर में भेजा गया था दिल की बीमारी के इलाज के लिए...वहां से मुझे किसी दूसरे प्राईव्हेट अस्पताल में भेजा जा रहा था (मरीज़ को वहां पैसा नहीं भरना होता, सरकारी विभाग के द्वारा भेजे गये मरीज़ों का कुछ अस्पतालों में बिलिंग प्रणाली से इलाज किया जाता है..मरीज से कुछ नहीं लिया जाता, बिल उस के विभाग को भुगतान के लिए भेज दिया जाता है)...तो मैंने तो मना कर दिया....मैंने डाक्टर को कहा कि पहले तो आप मेरे को यह बताओ कि जो मेरे हार्ट का ईको-टैस्ट आपने किया है, उस में खराबी है कहां.........पता नहीं वह किस पूर्वाग्रह की वजह से ऐसी बातें कर रहा था कि उसने तो उस प्राईव्हेट अस्पताल में जाने से साफ़ मना कर दिया......तीन चार लाख बिल विभाग भरता है और सब लोगों की कुछ न कुछ सैटिंग तो ज़रूर होती होगी........उसे शक था कि बिना वजह कहीं उस का आप्रेशन न कर दिया जाए।

अब आप देखिए कि एक आमजन अगर डाक्टर को इस तरह की बात कर के एक तरह से चुनौती दे कि मुझे यह बताओ की दिल की ईको में खराबी है कहां, यह बात आप अपने दो टके के पुराने ट्रांजिस्टर को ठीक करवाने जाते हैं तो वहां पर उस मैकेनिक से ऐसी बात नहीं कर सकते.....नहीं ना करते?..........अकसर मरीज़ों की बातें सुन कर यही लगता है कि अभी भी कम्यूनिकेशन की बहुत ही कमी है। कईं तरह की बातों की वजह से लोग पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं.....इसी बुज़ुर्ग की बीवी ने तुरंत कहा कि इन के चाचा के बेटे जो केवल ६० वर्ष के ही थे और जिन के दो दिल के आप्रेशन हुए लेकिन वे बच नहीं सके.........शायद यही बात उन के मन में अटक गई थी।

सोचने की बात यह है कि अब इस तरह के भ्रम दूर करने की जिम्मेदारी चिकित्सक की नहीं तो किस की है ?

सोमवार, 22 सितंबर 2014

ज़हरखुरानी से भी बचना होगा...

सुनने में आया है कि अब तो ज़हरखुरानी की घटनाएं स्प्रे से भी होने लगी हैं......बहुत चिंताजनक बात है। पहले तो सफर के दौरान बिस्कुट, खाने या मिठाई में कुछ मिला कर ज़हरखुरानी की घटनाएं की जाती थीं लेकिन यह स्प्रे का अब नया लफड़ा शुरू हो गया लगता है। लोग मास्टर माईंड से हो गये हैं....ऐसे ही थोड़ा कहा जा रहा है कि अब सपेरे ने सांपों को पिटारे में यह कह कर बंद कर दिया है कि अब इंसान को काटने के लिए इंसान ही काफ़ी हैं।

अब रेलवे भी इस तरह की ज़हरखुरानी के बारे में यात्रियों को सचते करने के लिए एक अभियान चलाएगी।

अभी मैं जब पोस्ट लिखने लगा तो मुझे ध्यान आया कि रेल मंत्रालय ने एक वीडियो भी तो जारी किया था ...जिस पर मैंने एक टिप्पणी भी दी थी......पता नहीं उस लंबी चौड़ी टिप्पणी को वहां तो किसी ने देखा या नहीं, आप इसे यहां ज़रूर पढ़ सकते हैं........पहले तो वह वीडियो ही देखिए... 


संदेश अच्छा लगा लेकिन यह बहुत ही संक्षिप्त सा लगा। बात समझ में आ जाती है कि किस तरह से अपटुडेट लोग भी इस तरह के धंधों में संलिप्त होते हैं। 
देश में कुछ जगहें विशेष तौर पर कुख्यात हैं जहां पर इस तरह की ज़हरखुरानी की घटनाएं बहुत आम हैं। उदाहरण के तौर पर मैं हरियाणा के अंबाला का नाम जानता हूं। यहां पर अप्रवासी श्रमिक या फिर फौजी जो अपने घरों की तरफ़ लौट रहे होते हैं तो उन की चाय, काफ़ी आदि में भी कुछ बेहोशी का कुछ मिला कर उन से लूटपाट कर ली जाती है।  
मुझे कईं बार बहुत हैरानगी इसलिए भी होती है कि किसी दूसरे की तो बात मान भी ली जाए कि वे किसी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गए... लेकिन फौजी भाई जो देश के दुश्मनों के दांत खट्टे किए रहते हैं अपने ही लोगों के अपनेपन के बहकावे में आ जाते हैं।  
एक ध्यान आ रहा है कि किस तरह से ये शातिर लोग विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं ..दूषित बिस्कुट, चाय को देते समय अपनी उंगली को चाय में डुबो देना जिस पर पहले ही से कुछ लगा रहता है, यह सब मैंने सुना है और अकसर मीडिया मेें भी देखते सुनते ही रहते हैं।  इस तरह के प्रामाणिक हथकंड़ों से भी जनता को आगाह किया जाना चाहिए। बाकी सुझाव बाद में कभी भेजेंगे...
मुझे अच्छे से याद है कि कुछ रेल स्टेशनों पर या यहां तक की गाडि़यों में जनता को सचेत करने के लिए नोटिस भी चसपा किये जाते हैं...........अंबाला छावनी स्टेशन पर तो मैंने स्वयं देखा है कि गाड़ी रूकने के बाद आरपीएफ के जवान इस तरह की ज़हरखुरानी से आगाह करने वाली एनाउंसमैंट्स प्लेटफार्मों पर कर रहे होते हैं।  
अब सोचने की बात है कि अब सरकार इस से बढ़ कर क्या करें, थोड़ी जिम्मेवारी तो पब्लिक की भी बनती है कि नहीं।
बहरहाल, आज रेल विभाग का यू-ट्यूब चैनल देख कर अच्छा लग रहा है कि देश की जनता तक जनोपयोगी संदेश पहुंचाने के लिेए इसे कितने कारगर ढंग से इस्तेमाल किया जाना प्रारंभ हुआ है।  
शुभकामनाएं भविष्य के लिए भी.........यह जनमानस के कल्याण का काम यूं ही चलता रहे। आमीन। 

मुंह से बोतल खोलना मर्दानगी की निशानी तो नहीं लेकिन......

आज सुबह यह बंदा आया था....कि एक दांत में दस दिनों से असहाय दर्द है.....तुरंत कहने लगा कि चाउमीन बच्चे खाने लगे तो पास में रखी सॉस की बोतल को जल्दी जल्दी में दांतों से खोलने के चक्कर में दांत पर दबाव पड़ा और बस दर्द शुरू हो गया।

मैं उस की बात से ही समझ गया था कि लफड़ा क्या है, बाद में मुंह का चैक-अप करना तो बस एक फार्मेलिटि सी ही लग रही थी। दस दिन से इसे दांत में भयंकर दर्द है और पहले तो सूजन भी आ गई थी, अब सूजन तो नहीं है लेकिन कह रहा था कि खाने का एक कोर भी उस दांत के नीचे चले जाने से जान निकल जाती है, बहुत ज़्यादा ठंडा लगने लग गया है, यहां तक कि हवा भी लगती है तो दांत में दर्द होने लगता है।

जैसा कि इस तरह के पंगे लेने से अकसर होता है, इस का दांत क्रैक हो गया है......क्रैक होने की एक लाइन दांत दिख रही है, शायद आप इस तस्वीर में देख नहीं पा रहे होंगे, नीचे की तस्वीर में जिस जगह पर यह औज़ार टिका हुआ है, वह क्रैक लाइन ही है।

अकसर इस तरह के दांत कुछ ही दिनों में चटक जाते हैं.....यह दांत भी कुछ दिनों में ही ..या फिर दो एक हफ़्ते में ही अंदर से टूट जायेगा। और इस का कोई इलाज नही होता....सारा दांत तो नहीं टूटेगा.....लेकिन एक हिस्सा अवश्य अलग हो जायेगा......बाद में बचे हुए भाग की रिपेयर हो जाती है।

अब बात यह उठती है कि क्या इस क्रैक दांत के क्रैक हिस्से को अभी ही क्यों न अलग कर दिया जाए। मैं ऐसा करना ठीक नहीं समझता क्योंकि दांत क्रैक होते हुए भी मन में यही सोचता है कि यह क्रैक तो ठीक हो ही जाएगा.....ऐसे में अगर दांत के एक हिस्से को अलग कर भी दिया जाए तो मरीज़ को हमेशा यही लगता है कि यह बस सकता है, यह ठीक हो सकता था। इसलिए थोड़े दिन का इंतज़ार करना ठीक रहता है.......जैसे ही दांत का चटका हुआ हिस्सा बिल्कुल पूरी तरह से हिलने लगेगा तो मरीज़ इसे निकलवाने के लिए और पूरे इलाज करवाने के लिए तैयार होता है।

इस तरह के दांत के चटकने के केस अकसर आते ही रहते हैं......बहुत से केस तो इस तरह के ही होते हैं जिसमें किसी ने कोल्ड-ड्रिंक या कोई भी बोतल को दांत से खोलने की कोशिश की, या फिर खाना खाते खाते अचानक दांत के नीचे कोई कंकड़ आ जाए तो भी दांत का ऐसा हाल हो सकता है.....या फिर जो लोग सुपारी चबाने के शौकीन होते हैं, उन में भी कईं बार सख्त किस्म की सुपारी को चबाने से ऐसी आफ़त हो जाती है।

बेहतर यही है कि हम इस तरह की आदतें न ही डालें..... कब यह सब परेशानी हो जाए कोई कह नहीं सकता, यही बंदा जो मेरे पास आया था जिस के दांतों की आप तस्वीर देख रहे हैं, वह बता रहा था कि वैसे तो वह बीयर की बोतल भी दांतों से ही खोल लेता है लेकिन सॉस की बोतल पर ज़रूर कुछ मजबूर सा ढक्कन फिक्स हुआ रहा होगा। मैं सोच रहा था कि जब तुमने पहली बार ही ढक्कन को इस तरह के दांतों से खोला होगा, उसी दिन ही तुम्हें कोई अच्छी नसीहत दे देता तो तुम्हारा अच्छा भला दांत बच सकता था।

तो आपने इस पोस्ट से क्या सीख ली?........ मुझे पता है कि आप जवाब में कुछ नहीं कहेंगे, कोई बात नहीं। 

रविवार, 21 सितंबर 2014

पुरूषों का सेक्स हार्मोन भी बना एक धंधा

 इस न्यूज़-रिपोर्ट का स्क्रीन शॉट
पुरूषों में उम्र बढ़ने के साथ जब टेस्टोस्टीरोन नामक हार्मोन के स्तर में कमी आने लगे तो मांसपेशियां ढिलकने लगती हैं, कुछ लोगों को सेक्स में कुछ इश्यू होने लगते हैं और पुरूष थका थका सा रहने लगे तो अमेरिका में इस के लिए क्या किया जा रहा है, इस के लिए आप को इस न्यूज़-रिपोर्ट पर क्लिक कर के देखना होगा.....
FDA to Probe Testosterone Therapy Claims, Safety

इतना तो पता पहले ही था कि विदेशों में इस तरह के लक्षणों के इलाज के लिए मेल-सैक्स हार्मोन टेस्टोस्टीरोन को पुरूषों को दिया जाता है। यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि यह हार्मोन टेस्टोस्टीरोन वैसे तो प्राकृतिक ढंग से ही पैदा होता है लेकिन बढ़ती उम्र के साथ यह जितनी मात्रा में शरीर में उत्पन्न होता है उस में कमी आने लगती है.....कईं बार तो इसे Male menopause (पुरूषों की रजोनिवृत्ति) की संज्ञा दी जाती है......जैसे कि महिलाओं में रजोनिवृत्ति के समय मासिक धर्म होना बंद हो जाता है।

हां, इस हार्मोन का उम्र के साथ कम होना एक स्वाभाविक सी बात है....लेकिन वियाग्रा के जमाने में कोई इसे आसानी से माने तो कैसे माने। हर बात पर कुदरत से पंगा लेना एक जुनून ही बन चुका है शायद।

हां, तो आप भी इस रिपोर्ट में देख सकते हैं कि किस तरह से दवा इंडस्ट्री को जब यह पता चला कि टेस्टोस्टीरोन का धंधा तो एक अच्छा खासा धंधा है तो बस बाकी फिर देर क्या थी।

ऐसा नहीं है कि टेस्टोस्टीरोन हार्मोन को ऐसे लोग को ही दिया जा रहा है.....कुछ लोग जिन में इस हार्मोन का प्राकृतिक स्तर वैसे ही कम होता है क्योंकि उन में पौरूष ग्रंथियां ठीक से विकसित नहीं हो पाती (hypogonadism) उन में तो यह हार्मोन दिया ही जाता है......एक अनुमान के अनुसार २०१४ में अमेरिका में २३ लाख पुरूष यह हार्मोन ले रहे हैं जिन में से आधों को इस की ज़रूरत ही नहीं है।

किस तरह से पुरूषों को लेबल करने के लिए कि इन में इस हार्मोन का स्तर कम है, क्या क्या धंधे हो रहे हैं, यह आप इन पंक्तियों में स्वयं पढ़ लें ...कि टैस्ट को ठीक ढंग से ठीक समय पर ठीक विशेषज्ञ द्वारा किया ही नहीं जाता।
इसी रिपोर्ट से ......पढ़ने के लिए क्लिक करिए
चिंताजनक बात यह है कि जिन लोगों में इस तरह का हार्मोन बिना वजह बिना ठीक तरह से टेस्ट किये ही दिया जाने लगता है उन में दिल के दौरे या दिमाग में अटैक (स्ट्रोक) का खतरा बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है।

यह हुई बात अमेरिका की.........ज़रा इन देशी हकीमों आदि की भी, नीम हकीमों की भी बात थोड़ी कर लें.......क्या आप को नहीं लगता कि ये लाखों करोड़ों की दौलत में डूबने वाले लालची किस्म के खानदानी नीम हकीम मरीज़ों को यह सब खिला खिला कर उन की अच्छी भली सेहत खराब नहीं कर रहे होंगे........अगर उन्हें दूसरी अनाप शनाप ताकत की दवाईयां खिला खिला कर कुछ बचता होगा तो।

अगर इन के शाही-बादशाही कोर्सों की या इन के इंजैक्शनों की टेस्टिंग होगी तो उन में भी यही सब कुछ तो मिलेगा........लेकिन इन की नकेल कसे तो कसे कौन!! सरकारी सांड की तरह फलते-फूलते जा रहे हैं ......अब तो केबल टीवी पर भी १०-१५ मिनट के स्लॉट खरीद कर लोगों को ताकत बेचने लगे हैं.......ये ताकत के बादशाह !!

चलो यह तो एक बात हुई, लेकिन इस गाने का यहां क्या काम?......पता नहीं यार, अच्छा लगे तो देख  लेना .........गुड नाइट......

नेट पर बिकने वाली सेहत

इतने वर्ष हो गये नेट पर मेडीकल विषयों पर लिखते हुए ... अब यह पक्का लगने लगा है कि नेट पर जो हम लोग सेहत संबंधी विषयों के बारे में पढ़ते हैं, उसे हैंडल करना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है।

आए दिन मैडीकल रिसर्च से नईं नईं बातें सामने आ रही हैं...लेिकन बहुत सी बातें अभी भी रिसर्च की स्टेज तक ही होती हैं कि विभिन्न कारणों की वजह से --(इस में मार्कीट शक्तियों की भी बहुत भूमिका है).. उन्हें आगे कर दिया जाता है।

कोई भी नेट पर मैडीकल सामग्री पढ़ने वाला आसानी से भ्रमित हो जाता है.....जिस टेस्ट की नहीं भी ज़रूरत वह जा कर करवा के आ जाएगा, जिस जांच की ज़रूरत है वह करवाएगा नहीं, नईं नईं दवाईयों के चक्कर में या नेट पर ऑनलाइन दवाईयों के चक्कर में पड़ सकता है.....और तो और, कुछ विषयों के ऊपर पढ़ कर कईं तरह की काल्पनिक बीमारियों के चक्कर में अपने मन का चैन खो बैठता है। इस तरह के पचड़ों में पड़ने की लिस्ट खासी लंबी है, कहां तक गिनवाएं।

मैं जनसंचार (मॉस कम्यूनिकेशन)  पांच वर्ष पढ़ने के बाद से पिछले सात वर्षों से निरंतर नेट पर सेहत संबंधी विषयों पर लिख रहा हूं...इसलिए जेन्यून और फालतू जानकारी के बीच अंतर जानने में दिक्कत नहीं होती..लेिकन फिर भी बहुत बार तो मैं भी कंटाल जाता हूं.......अभी अभी खबर पढ़ी कि ये आर्टिफिशियल स्वीटनर्ज़ हैं, इस से भी मधुमेह के रोगियों में रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। इस का स्क्रीन शाट यहां लगा रहा हूं।

लो, कर लो बात......
यही कारण है कि मैं किसी को भी सलाह नहीं देता कि नेट पर कुछ भी पढ़ कर आप अपनी सेहत के बारे में महत्वपूर्ण फैसले करें....यह आप के हित में है ही नहीं। आप के फैमली डाक्टर का न तो कोई विक्लप बना है, शायद न ही बन सकता है। उस से बात कर के ही आप की कईं चिंताएं हवा हो सकती हैं।

हां, नेट में अगर जानना हो तो ह्लकी फुल्की जानकारी सेहत के बारे में....किसी टेस्ट के बारे में कोई जानकारी चाहिए हो तो वह पढ़ लें, समझ लें, किसी भी आप्रेशन के बारे में कुछ भी ऐसे ऊपरी ऊपरी जानकारी पा सकते हैं, लेकिन कोई भी निर्णय इस आधार पर लेने की कोशिश न करें.......क्या है ना, डाक्टर लोग बीसियों वर्षों तक हज़ारों मरीज़ देखने के बाद इस मुकाम तक पहुंचते हैं कि आप से चंद मिनट बात कर के, आप के कुछ टेस्ट करवा के, आप की सेहत के.. बारे में जान लेते हैं.........आप कैसे ये सब निर्णय ले सकते हैं।

एक और मशविरा .... डाक्टर से आप जितने प्रश्न करें, आप का अधिकार है...लेकिन अगर अपना नेट से पढ़ा मैडीकल ज्ञान दिखाने के लिए अगर आप कुछ कह रहे हैं तो वह भी चिढ़ जाता है, आखिर है तो वह भी इंसान, उसे कुछ भी समझते देर नहीं लगती। बेहतर हो कि डाक्टर के सामने बिल्कुल अनाड़ी (और दरअसल हम हैं भी... डाक्टर की तुलना में) की तरह ही बिहेव करें......कुछ ज़्यादा लिख दिया.......चलिए, इतना तो कर ही सकते हैं कि जो डाक्टर साहब कह रहे हैं, उसे अच्छे से समझने की कोशिश करें।

नेट पर पढ़ा करें कि खुश कैसे रहें, जीवनशैली को कैसे पटड़ी पर लाएं, खाना पीना कैसे ठीक करें, व्यायाम कैसे नियमित करने की आदत डालें, विचार कैसे शुद्ध हों (जी हां, यह भी जाना जा सकता है).....कैसे शांत रहना सीखें.....बस इतना ही काफ़ी है ......लेकिन आप कहेंगे कि इन के बारे में क्या पढ़ें, डाक्टर, यह सब तो क्या हम पहले ही से नहीं जानते क्या?.......तो फिर उन्हें व्यवहार में लाने से आप को कौन रोक रहा है। 

घड़ीसाज़ ने भी जवाब दे दिया...

६५ वर्ष पुरानी हमारे घर की घड़ी 
 उस दिन जब मैंने लखनऊ के आलमबाग में एक घड़ी की दुकान से सैल बदलवाया तो वहां बैठा एक बुज़ुर्ग घड़ीसाज़ मुझे बहुत अनुभवी लगा। उसे देखते ही मुझे मेरे घर में बरसों से बेकार पड़ी एक उस बुज़ुर्ग जितनी ही पुरानी घड़ी की याद आ गई. मैंने सोचा कि उस का मुआयना और इलाज इन्हीं से करवाएंगे।

आज दोपहर में मैं जब उसे लेकर उस कारीगर के पास गया तो उसे देखते ही उसने कहा कि इस का कुछ नहीं हो सकता,  मैंने कहा कि आप देख तो लें....शायद कुछ हो जाए...तब उस ने कहा कि इस के कलपुर्ज़े ही बीसियों साल पहले मिलने बंद हो गये।

मैंने पूछा कि शायद पुर्ज़े बदलने की ज़रूरत ही न हो, उसने कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता....जब कोई मशीन चलती है तो उस के पुर्ज़े तो घिसते ही हैं। बहरहाल, उसने अपने किसी दूसरे साथी को आवाज़ लगा कर पूछा कि प्रेम, इसे देखो, इस का कुछ हो सकता है। एक तरह का सैकेंड ओपिनियन ले रहा था वह बुज़ुर्ग।

उस ने भी उस घड़ी को देखते ही दूर से अपना फैसला सुना दिया.......कुछ नहीं, इस का कुछ नहीं हो सकता।
मुझे बहुत बुरा लगा.......जैसा मरीज़ों को भी लगता होगा जब कोई डाक्टर किसी मरीज़ को ऐसा जवाब देता होगा।
बहरहाल, आप को इस घड़ी के बारे में कुछ विशेष बातें बताने लगा हूं।

जब से मैंने होश संभाला इस क्लॉक को घर में देखा..... सीमेंट की एक शेल्फ पर एक कमरे में बनी हुई थी..... सरकारी घरों में शो-पीस तो हुआ नहीं करते थे।

उस शेल्फ पर मैंने बचपन से ही तीन चीज़े पड़ी देखीं......उस पर मेरी मां द्वारा एक बढ़िया सा कढाई किया हुआ मेजपोश बिछा रहता था....जिस पर तीन चीज़ें--- एक फ्रेम की हुई मेरे दादा जी की फोटो, बीच में यह घड़ी और तीसरी एक फोटो..मेरे पिता जी के इष्टदेव बाबा बालकनाथ जी की तस्वीर जिस पर वह रोज़ाना सुबह धूप-बत्ती किया करते थे।

हां, तो बात घड़ी की हो रही है......इस घड़ी को चाबी रोज़ाना दी जाती थी, और अधिकतर ....अधिकतर क्या, लगभग हर रोज़ मेरे पिता जी ही इसे चाबी दिया करते थे। दूसरा कोई भी चाबी देने लगता तो लफड़ा कर बैठता....थोड़ा सा भी ज़्यादा ज़ोर लगाने पर यह चाबी देने वाला बटन खराब हो जाता था, फिर उसे बनवाना पड़ता था।

रोज़ाना एक ही समय में इसे चाबी भरना भी जैसे घर में एक इवेंट हुआ करता था।

लेकिन इस घड़ी में अलॉर्म लगाना तो एक और भी बड़ा काम.........सारे घर को पता रहता था कि आज घड़ी में कितने बजे का अलॉर्म लगा है और किस काम के लिए लगा है, कोई पेपर वेपर की तैयारी करनी है या कोई गाड़ी वाड़ी पकड़ने का चक्कर है।

आज मैं अपने बेटे को भी यह सारा किस्सा सुना रहा था....किस्सागोई करते करते मैं यही सोच रहा था कि उस ज़माने में भी गजब का सब्र हुआ करता था...घर में किसी ने भी टाइम देखना है तो हर किसी को उस कमरे में आना ही होगा जिस की शेल्फ पर यह सजी रहती थी......नहीं तो, अपना आल इंडिया रेडियो जब टाइम बताये तो तब सुन लिया जाता था.....मुझे याद है, चाय वाय के टाइम तो रेडियो के प्रोग्रामों --खबरों आदि के साथ बंधे हुए थे।

इस घड़ी की कार्य-प्रणाली जिसे मैं आज तक न समझ पाया...
और एक बात, यह जो आप ने इस घड़ी के पिछले हिस्से की तस्वीर देखी..उस के विभिन्न बटनों को समझना मेरे लिए किसी साईंस एक्सपैरीमेंट जैसा था.....वैसे भी मैं अकेले में इस से पंगे लेता रहता था....जब भी इस में कोई भी रूकावट आती तो शक की सूईं सब से पहले मेरे पर ही जैसे रूक जाया करती... कि इसने ही छेड़खानी की होगी।

आज मैं अपनी मां जी से इस घड़ी की बातें शेयर कर रहा था तो उन्होंने मेरे ज्ञान में एक और इज़ाफ़ा कर दिया....उन्होंने बताया कि जब तेरे पिता जी ने यह घड़ी १९५० में ५० रूपये में खरीदी थी तो हमारे घर के आस पास इसे देखने आये थे.... कि अलॉर्म वाली घड़ी आई है जो कि रात के समय टिमटिमाती भी है.....टिमटिमाना तो मुझे भी याद है जब मैं अपने पिता जी के साथ रात में सोने की कोशिश किया करता तो बत्ती बंद होने के बावजूद इस में से हरे टिमटिमाते से सितारे अच्छे लगते.... यह रेडियम के कारण है।

पिता जी की घड़ी जिसे मैंने शायद १९८० से उन की कलाई पर देखा
चालीस वर्ष बाद आज मेरी कलाई पर...

अपने टेबल का दराज देख रहा था तो मेरे पिता जी की एक घड़ी पर भी नज़र पड़ गई......मैंने उन्हें १९८० के आसपास इसे पहने देखा......लगभग बीस वर्षों से यह ऐसे ही पड़ी है, आज मैंने पहनी तो अच्छा लगा......इसे कोई चाबी वाबी नहीं देनी पड़ती और न ही सेल बदलवाने का झंझट है......इस के डायल पर SEIKO -- Automatic लिखा हुआ है.... अच्छा लगा ...इस तरह की चीज़ों को आस पास रखने से बहुत से अहसास कायम रहते हैं.........आज कल मैं शायर मुन्नवर राणा साहब को पढ़ रहा हूं........शायद इतने सारे अहसास उस की वजह ही से लौट आ रहे हैं।


शनिवार, 20 सितंबर 2014

बोरों में लाश किसकी-- जानवर या इंसान

आज बाद दोपहर मैं लखनऊ के आलगबाग से बंगला बाज़ार की तरफ़ आ रहा था...जिस रोड से मैं आ रहा था उसे व्ही.आई.पी रोड कहते हैं.....शायद इसलिए कि जब माननीय लोग हवाईअड्डे की तरफ़ जाते हैं तो इन की गाड़ियों के काफ़िले इस रोड से ही निकलते हैं, मुझे ऐसा लगता है कि इसीलिए नाम भी यही पड़ गया होगा।





नहरिया के ऊपरी सतह से निकला बोरा...


हां, तो उस व्हीआईपी  रोड के एक तरफ़ तो है बौद्ध विहार नामक एक स्मारक.....बहुत बढ़िया स्मारक है, देखने लायक....सुश्री माया वती के कार्यकाल के दौरान तैयार हुआ था। लेकिन कुछ दिनों से व्ही आई पी रोड के बीच में एक बंद रास्ता खोल दिया गया है। और इस स्मारक की दीवार के आगे एक नहर है.......इसे यहां की भाषा में नहरिया कहते हैं......लेकिन मुझे यह किसी नाले जैसा ही लगता है।

आज मैंने आते हुए देखा कि वहां पर लोगों का तांता लगा हुआ है......मैं भी रूक गया, पूछने पर पता चला कि नीचे नहर में दो बोरे पड़े हैं. कुछ दिनों से पड़े हुए थे, लोगों ने बदबू की शिकायत की तो आज उन्हें पुलिस की देखरेख में और जेसीबी मशीन की मदद से उठाया जा रहा है।

मैंने भी आगे होकर देखा कि एक वर्कर नीचे जा कर उन में से एक बोरे को रस्से से बांध रहा था....और फिर जेसीबी मशीन के द्वारा उसे ऊपर उठा लिया गया। वह वर्कर उस के बाद वापिस ऊपर आ गया।

जे सी बी मशीन में चंद लम्हों में वे बोरे ऊपर उठा कर रख दिए....आप इन तस्वीरों मेें देख रहे हैं...

उस के बाद वही बोरे जेसीबी ने सावधानी से उठाये और चलती बनी......पुलिस भी वहां से हट गई......और जनता भी तितर बितर हो गई।

हर कोई एक दूसरे से पूछ रहा था कि इन बोरों में लाश जानवर की है या इंसान की है?......तभी किसी ने एक बोरे की तरफ़ इशारा किया कि देखो, जानवर के पांव जैसा एक बोरे से बाहर दिख रहा है। लेकिन किसी ने इस बात की पुश्ति नहीं की कि आखिर क्या था उन बोरों में।

वहां खड़ा एक आदमी कहने लगा कि अगर जानवर की ही लाश होती तो उसे इतने टुकड़ों में काट कर बोरे में बंद कर के भला फैंकने की क्या ज़रूरत थी?...बात तो सही लग रही थी।

अब यह रहस्य कल के अखबार में शायद खुल जाए कि क्या था उन बोरों में.......पुलिस तहकीकात में क्या पता चला......मुझे वहां खड़े खड़े सोनी टीवी के सीआईडी सीरियल का ध्यान आ रहा था।

एक बार जर्नलिज़्म के एक प्रोफैसर ने क्लास मे एक शेयर मारा था....पूरा तो अभी याद नहीं, लेकिन कुछ शब्द ऐसे थे कि......
अब कौन देखने जाए कहां से उठ रहा है धुआं....
कल सुबह अखबार में पढ़ लेंगे आग कहां लगी है।। 

आज हमारे समाज का भी कुछ ऐसा ही हाल हो गया है। सनसनी हर तरफ़ दिख रही है लेकिन इस के आगे किसी को कोई सरोकार नहीं.......कुछ मतलब नहीं। दो मिनट में तांता लग जाता है तीसरे मिनट में तितर बितर हो जाता है........आज सुबह किसी फेसबुक मित्र की एक पोस्ट देखी थी ...अब सपेरे ने यह कह कर सांप अपने पिटारों में बंद कर दिये हैं.....कि अब इंसान को काटने के लिए इंसान ही काफ़ी है।

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

इन मिलावटखोरों के कारनामे...

आज फेसबुक पर एक मित्र ने एक वीडियो शेयर की थी....उसे देख कर मेरा तो जैसा दिमाग घूम गया। किसी चैनल ने मिलावटखोरो की पोल खोल कर रखी थी।

शायद आपने भी यह सब देखा-सुना तो होगा.....लेकिन प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ सब कुछ देखना बड़ा विचलित करता है...।

इस गुज़रे सीज़न में हम ने तरबूज खूब खाए....घर के ही सामने मंडी में एक दुकानदार तरबूजों का बड़ा सा ढेर लगा कर बैठा करता था कि कोई भी तरबूज फीका नहीं होगा और हर तरबूज अंदर से लाल ही होगा। एक-दो-तीन-चार.....सभी के सभी तरबूज एक दम लाल और मीठे......यार, यह तो कोई पहुंची हस्ति लगती है........लेकिन मन में कहीं न कहीं विचार तो आता ही था कि कुछ न कुछ तो लफड़ा है ही......इस विषय पर मैंने छःसात वर्ष पहले भी कुछ लिखा था.....मिलावटी खानपान के कुछ केस ये भी हैं.......लेकिन इस वीडियो ने सब कुछ देख कर एक बार फिर से विश्वास पक्का हो गया कि ये हरामी मिलावटखोर किसी के भी सगे नहीं है, ये तो चंद सिक्कों के लिए कुछ भी बेच दें.....।



वीडियो में आप यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से सब्जियों पर रंग चढ़ाया जा रहा है, हम सब को बीमार, बहुत बीमार तैयार करने की तैयारियां....घोर शर्मनाक.

हम सब्जियों की बातें करते हैं तो इतनी महंगी तो पहले ही से हैं......मैं कल बाज़ार से निकल रहा था, मैंने एक जगह फुल गोभी देखी....अच्छी दिखी......एक छोटा सा पीस ..पचास रूपये में.......मैंने वजन करने के लिए कहा .. यह ४०० ग्राम से भी कम था......खरीद लिया क्योंकि फुल गोभी यहां लखनऊ में तोल के हिसाब से नहीं, प्रति पीस के हिसाब से मिलती है........खरीद तो ली मैंने ...लेकिन मैं यही सोच रहा था कि यार, यह फुल गोभी भी अब १२५ रूपये किलो बिकेगी क्या.  चलिए महंगी तो है ही, ऊपर से यह भी नहीं पता कि कितनी शुद्ध है, कितनी मिलावटी......किसी चैनल पर यह भी दिखा था कि ये जो फुल गोभी के बहुत साफ़ साफ़ पीस दिखते हैं...ये सफाई भी एक कैमीकल के घोल में इन्हें डुबो कर ही प्राप्त की जाती है।

जब मैंने इस वीडियो के कंटैंट अपनी मिसिज़ से शेयर किया तो उन्होंने भी यही किया कि हर तरफ़ ही मिलावट तो है ही, लेकिन कोई करे तो क्या करे, कैसे सब्जी को खाना बंद दे जनता....मैं भी यही सोचता हूं। लेकिन फिर भी इस तरह की चैनलों की कवरेज से लोग थोड़ा सचेत तो ज़रूर हो ही जाते हैं।

रही बात, विभिन्न मिलावटी वस्तुओं को घर ही में टैस्ट करने की बात........मुझे यह बात कभी भी प्रैक्टीकल नहीं लगी, और यह है भी नहीं। देखिए ना, वैसे किसी का लोंडा चाहे साईंस पढ़े या न पढ़े.. वह स्कूल में कोई प्रैक्टीकल कर पाए न पाए, लेकिन बापू बेचारा घर में विभिन्न तरह की मिलावटी जांच के लिए एक पूरी की पूरी प्रयोगशाला बना कर बैठ जाए........और किस किस चीज़ में मिलावट ढूंढता फिरेगा.......

जब मैं अपनी मिसिज़ से बात कर रहा था तो उन्होंने बताया कि कुछ अरसा पहले जब उन्होंने अपने किरयाने वाले से कहा कि किशकिश इतनी पीली पीली सी क्यों है, तो उसने जवाब दिया कि बाज़ार में कलर की हुई किशमिश भी मिल जाएगी, यही बात सौंफ के लिए भी है, जो ज़्यादा हरी हरी दिखे, वह भी कलर वाली हो सकती है, जिस तरह से बड़ी चमकती दमकती सब्जियां ......क्योंकि इस से यह तो पता चलता ही है कि इन के ऊपर विभिन्न कलर या कैमीकल तो इस्तेमाल किए ही गये होंगे और साथ में इन की चमक इस बात का भी प्रमाण है कि इन्हें कीट आदि से बचाने के लिए कितने रासायनिक कीटनाशक इस्तेमाल किए गये होंगे।

वैसे इस वीडियो में हो रही मिलावट के भयंकर कारनामे देख कर मन बहुत दुःखी हुआ..... इसलिए भी कि यह हरामी तो सेहतमंद को बीमार कर दें और बेचारे किसी भी लाचार, बीमार को मौत के घाट उतारने में भी रती भर संकोच नहीं करते......हरामी मिलावटखोरों में खौफ़ पैदा करने का एक उपाय है.....इन दल्लों का मुंह काला कर के, इन्हें गधे पर बैठा कर, जूतों का हार इन के गले में पहना कर, जूते मारते हुए सारे शहर में घुमाया जाना चाहिए......पानी में भिगो भिगो कर........शायद इस से इन के मन में कुछ खौफ़ पैदा हो पाए, शायद........... ।।।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

वो हजामत के दिन, वे बरफी की यादें...

शायद आप में से कुछ सोच रहे होंगे कि यह हजामत का बरफी से क्या संबंध.....शायद कुछ को तो हजामत का मतलब ही न पता हो, या जिस हमाजत के बारे में वे सोच रहे हैं यह वह हजामत नहीं है।

सब से पहले तो हजामत का मतलब ही समझ लें.....वैसे मुझे यह भी नहीं पता कि सही शब्द हज़ामत है या हजामत, क्योंकि जब से होश संभाला पंजाब में अमृतसर की धरती पर हमेशा यही सुना कि बाल वध गये ने, जामत नहीं करवानी हल्ले... (बाल बढ़ गये हैं, अभी बाल नहीं कटवाने जाना).... जी हां, आपने ठीक समझा पंजाब में  ठेठ भाषा में बाल कटवाने को जामत करवाना ही कहते रहे हैं....यह १९६० के दशक के आखिरी और १९७० के दशक के पहले वर्षों की बातें आपसे साझी कर रहा हूं...हजामत समझ हमें लंबा लगता है, इसलिए शायद हम उसे आसानी से छोटा कह कर उस की भी जामत कर देते हैं।

फ्लैशबैक...

मैं पांच-सात-आठ वर्ष का बालक......अपने पिता जी की साईकिल के अगले डंडे पर बैठा हूं...पता नहीं उन्होंने उस पर बच्चों वाली काठी कभी क्यों नहीं लगवाई, लेकिन मुझे उस पर बैठने में दिक्कत बहुत हुआ करती थी....सब कुछ दुःखने लगता था.....क्योंकि मैं डंडे के दोनों तरफ़ एक एक टांग कर के बैठता और बार बार हिलता रहता कि नीचे चुभने वाला दर्द कम तो हो.......लेकिन जो भी वे भी बहुत अच्छे दिन थे, अपने पिता जी का साईकिल पर आगे बैठ कर किसे उम्र की उस अवस्था में बादशाह जैसे फील नहीं हुआ होगा.......मजे की बात तब बादशाह का पता ही कहां होता है!!

 नहीं यार यह मैं नहीं हूं..गूगल से
लो जी हम पहुंच गये...अमृतसर के हरीपुरा एरिया के एक नाई के यहां.......आज हेयर-ड्रैसर कहते हैं, तब तो नाई ही कहते थे.....वह माहौल अभी भी याद है...... उस की दुकान पर एक लकड़ी की कुर्सी हुआ करती थी, अब वह एडजस्ट तो हो नहीं पाती थी, इसलिए मेरे जैसे छोटे बच्चों के लिए एक लड़की का फट्टा रख कर उस पर मुझे बैठा दिया जाता था.. फिर एक कपड़ा बांध कर वह अपना काम शुरू कर दिया करता था।

एक बात का और भी ध्यान आ रहा है कि उस नाई की दुकान पर बहुत सी तस्वीरें ये हीरो-हारोईनों की मायापुरी और लोकल हिंदी के अखबार --पंजाब केसरी से काट कर आटे की लेवी से चिपकाई हुई होती थीं..विशेषकर हीरोईनों के विभिन्न मन-लुभावने पोज़ों को तरजीह दी जाती थी...... दो दिन से एक अभिनेत्री के क्लीवेज को लेकर इतनी चर्चा हो रही है, तब नाई की दुकान पर भी यह सब दीवारों पर चिपका पड़ा मिलता था।

मुझे याद है मुझे उस नाई की मशीन से बड़ा डर लगता था......इतनी आवाज़ करती थी, और बार बार उस का बालों में अटक जाना......कईं जगह से चमड़ी काट दिया करती थी वह मशीन...इसलिए मुझे जामत करवाने जाना कभी अच्छा नहीं लगता था, फिर भी मैं राजी हो जाया करता था, कारण अभी बताऊंगा।

जिस उस्तरे से वह कलमें बनाया करता था, वह भी मल्टी-पर्पज़ ही हुआ करता था.....हर पांच मिनट के बाद वह एक पुरानी चमड़े की बेल्ट पर रगड़ कर उस की धार लगाया करता था......फिर उस से किसी ग्राहक की शेव, किसी की बगलों के बाल, किसी के नाखून और किसी की जामत को फाईनल टच उसी उस्तरे से ही दिया जाता था।

कोई चूं चां नहीं किया करता था......बस, उस समय थोड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि कोई जब जामत करवा रहा होता और एक दूसरा बंदा आकर अपना कुर्ता ऊपर उठा कर उसे बगलें साफ़ करने को कह देता.......नाई बड़ा सहनशील हुआ करता था, वह किसी को नाराज़ न करता।

मेरी जामत के दौरान मेरे पिता जी उस दुकान के बाहर अपने एक डेरी वाले दोस्त से गप्पबाजी किया करते...

जामत करवाने के बाद जब मैं थोड़ा थोड़ा सा परेशान उस कुर्सी से नीचे उतरता से मेरे पिता जी मुझे साथ वाली हलवाई की दुकान पर बरफी दिलवाने ले जाते।

उस दुकान की क्या तारीफ़ करूं.......मैंने इतनी बढ़िया बरफी कभी नहीं खाई..मुझे मेरे पिता जी मुझे पचास पैसे की या एक रूपये की बरफी दिला देते......मैं उस की खुशबू पर ही मुग्ध हो जाता ..और जामत के समय हुए अत्याचार को भूलते देर न लगती.....इतनी नरम और ताज़ी बरफी ...कि उस कागज़ के लिफ़ाफे में वे टुकड़ियां आपस में जुड़ जाया करती थीं....क्या कहूं कि इतना मज़ा तो आज तक किसी मिठाई में नहीं आया........

जैसे थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि वह बुज़ुर्ग मिठाईवाला सुबह से लेकर शाम तक उस कोयले वाली बड़ी सी अंगीठी में दूध को हिलाता रहता था और शाम को जो दो-तीन ट्रे बरफी की तैयार होती थी, वह हाथों हाथ बिक जाया करती थी।  ओ माई गॉड---- इतना सबर।

पहले तो नहीं कहते थे कि बरफी खरीदने के दो दिन के अंदर ही खा लें.....नहीं तो खराब हो जायेगी। अब पता ही नहीं चलता कि ये लोग क्या क्या मिला कर देते हैं.....दूध का कुछ भरोसा नहीं........अब बरफी खाते तो हैं, लेकिन कईं कईं महीने बीत जाने के बाद दो-चार टुकड़े.......और यह जानते हुए कि ये सेहत खराब ही करेंगे.....फिर भी दिल तो बच्चा है जी.......।।

मेरा बेटा मुझे कईं बार कहता है कि बाज़ार जाते वक्त बरफी ले कर आना........लेकिन मैं जानबूझ कर उस की फरमाईश पूरी नहीं करता......और कुछ ले आता हूं लेकिन अकसर बरफी नहीं लाता।

अच्छा, अगर आप के बचपन की भी कुछ यादें हैं इस तरह की ईमानदारी की बीमारी से ग्रस्त हलवाईयों से जुड़ी हैं, तो आप साझा क्यों नहीं करते.......लिखिएगा। अच्छा लगेगा।



बस क्या सेहत विभाग ही संभाल लेगा हमारी सेहत..

सेहत विभाग की टीमों का ध्यान करें तो मुझे अपनी २०-२५ वर्ष की उम्र वाले दिन याद आ जाते हैं.....तब, जून की गर्मी में गन्ने का रस पीने की इच्छा हुआ करती थी तो पता चलता था कि सेहत विभाग की टीमें छापे मार रही हैं, इसलिए गन्ने का रस बेचने वाले कुछ दिनों के लिए छुप कर बैठ गये हैं।

और उस के बाद इतने साल हो गये, त्यौहारों के सीजन में ....दीवाली, दशहरा, बैसाखी....हर दिन इस देश में एक उत्सव है... अखबारों में निकलने लगता है कि सिविल सर्जन की टीम ने फलां मिठाई की दुकान में छापा मारा, इतने बोरे खोए (मावा) के, इतने क्विंटल रसगुल्ले, बर्फी.... वहां से उठवा कर नष्ट करवा दी ....कईं बार वहां से सैंपल उठाने की बात भी हुई.....बस, उस के बाद फिर कभी खबर दिख गई तो ठीक, न दिखी तो ठीक कि उन मिलावटी सामान बेचने वाले दुकानदारों का आखिर हुआ तो हुआ क्या...

सभी सरकारें इतने इतने अभियान भी चलाती हैं ..अखबारों में, टीवी-रेडियो में भी......लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या इस से हम लोगों की खाने पीने की आदतें सुधर गईं, हम ने कभी दूध एवं दूध से बनने वाले खाद्य पदार्थों को लेने से पहले कभी सोचा भी कि यार, इतना सारा दूध आखिर आ कहां से जाता है, हर तरफ़ पनीर की भरमार, हर तरफ़ मावे की हर तरह की मिठाईयां....

चलिए, बात आगे बढ़ाते हैं......मुझे लगता है कि सरकार जितना कर रही है, कर ही रही है, सिविल सर्जन के दस्ते भी कर ही रहे हैं.......लेकिन फिर भी मेरा यह मानना है कि बाहर से कुछ भी खरीद कर खाने के प्रति हमारी अपनी जिम्मेदारी कहीं ज़्यादा है......और इस में जहां तक मैं समझ पाया हूं शिक्षा और आर्थिक अवस्था की बहुत बड़ी भूमिका है।

आखिर हम कैसे सोच भी लें कि सरकारी दस्ते हर जगह हर खाने पीने के खोमचे तक पहुंच जाएंगे .....इस देश में यह एकदम असंभव सा प्रतीत होता है। हर गली, हर नुक्कड़, हर मोहल्ले, हर तिराहे-चौराहे पर दर्जनों खोमचे वाले मिल जाएंगे जो हमें कुछ भी खिला-पिला दें......

दस रूपये में बिक रहा जंबो बन-मक्खन..
दो दिन पहले मैं अपने घर के पास एक सब्जी मंडी में गया....वहां मैं अकसर देखता हूं कि ये समोसे-वोसे वाले तो रेहड़ीयों पर अपना सामान बेच रहे होते हैं.....अच्छा एक बात का ध्यान आया कि ये चीनी की चासनी में भीगे समोसे तो मैंने यहां लखनऊ में ही देखे हैं......कोई बात नहीं, हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं......।

हां, तो आज मैंने देखा कि एक रेहड़ी वाला इस तरह के बन-मक्खन बेच रहा था... दस रूपये का एक पीस दे रहा था.....जो बच्चे अपने मां-बाप के साथ आए हुए थे, वे मचल रहे थे, और इन बन-मक्खनों की खूब बिक्री हो रही थी। ठीक है, उस ने कांच से कवर तो किया हुआ था......लेिकन जिस तरह का रंग आप देख रहे हैं, और जिस तरह का मक्खन मैंने वहां देखा.....जिसे वह एक्स्ट्रा भी लगा कर देख रहा था.....देख कर सिर घूम रहा था। कुछ माताएं अपने दोनों बच्चों को दिखा कर सब से बड़े बन-मक्खन के लिए आग्रह करतीं तो उन्हें वह नाराज़ नहीं करता.......हां, हा, पता है मुझे, कह कर औरों से बड़ा बन थमा देता।

आप देख सकते हैं कि कैसे दस रूपये में इतना बड़ा बन और मक्खन बेचा जा सकता है........कम से कम यह मक्खन तो हो नहीं सकता। दुःख होता है ये सब कुछ बिकता देख कर।

बन-मक्खन का क्लोज़-अप..
पता ही नहीं कि इन तरह के मिलावटी खाद्य पदार्थों में किस किस चीज़ की मिलावट हो रही है, कौन बताएगा। बेचने वाला अपनी जगह ठीक है, वह तो कमीशन पर काम कर रहा है, उसे एक पीस में एक रूपया मिलता है... क्या करे, उसने भी बच्चों का पेट भरना है, अच्छा खरीदने वाले क्या करें, उन्हें भी कम पैसे में यह सब कुछ चाहिए.....इसीलिए मैं बहुत बार कहता हूं कि इस देश का सारी समस्याओं का समाधान इतना आसान भी नहीं है, बेहद जटिल हैं.... अब इसी बात को लें कि अगर लोग समझ जाएं कि कुछ भी हो, हम ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं खरीदेंगे ...तो ये अपने आप ही बिकने बंद हो जाएंगे...अपने पास ही ये खोमचे वाले फल-फ्रूट, चना-कुरमुरा आदि बेचने लगेंगे। ....शायद मैं बहुत सोचता हूं इसलिए ऐसा सोच रहा हूं।

यह पेठे की मिठाई भी आजकल खूब बिकती है..
अभी थोड़ी दूर ही गया तो यह पेठे वाला मिल गया........आप देखिए कि किस तरह से खुले में यह सब बिक रहा है......वैसे तो मैं अकसर इस तरह से बिकते हुए पेठे पर खूब मक्खियां भिनभिनाते देखता हूं लेकिन आज कुछ कम ही दिखीं......लेकिन फिर भी इस तरह के पेठे में क्या है, कहां पे यह तैयार हुआ, इस की हैंडलिंग कैसे हुई......जब जनता यह सब सोचने लगेगी तो नहीं खरीदेगी यह सब।

एक बात अकसर सत्संग आदि में सुनाई जाती है कि सारे संसार पर कालीन या चटाई तो बिछाई नहीं जा सकती, इसलिए समझदारी इसी में है कि हम कांटों से बचने के लिए अपने एक जूता ही पहन लें...... काश, ऐसा हो जाए।


कंटीला परवल... सब्जी है यह भी एक...
लेकिन यार, जैसे राशन की दुकान  या सब्जी मंडी में जा कर मुझे किसी न किसी दाल का नाम जानने को तो मिलता है,  और नईं नईं सब्जियां भी देखने को मिलती हैं ...जिन्हें मैंने अभी तक चखा भी नहीं.... शायद इसलिए कि ये सब पंजाब-हरियाणा में बिकती देखी नहीं....या मुझे कभी इन की तरफ़ देखने की फुर्सत ही न थी.....पता नहीं......दो दिन पहले पता चला कि यह जो सुंदर सी तरकारी (सब्जी) आप इस तस्वीर में देख रहे हैं......यह है कंटीला परवल.....क्या आपने इसे कभी खाया है। दरअसल जो सब्जियां हम लोगों ने बचपन में नहीं खाई होतीं, वे हम लोग अकसर बड़े होकर भी नहीं खा पाते....जैसे कि मैं करेले से दूर भागता हूं........इसलिए मैं बच्चों के अभिभावकों को कहता रहता हूं कि इन्हें हर सब्जी, हर दाल खाने की आदते डालिए.......वरना बड़े होकर भी ये जंक-फूड़ को ही सुपर-फूड समझते रहेंगे।