लखनऊ का दुर्गापुरी मैट्रो स्टेशन एरिया ..यह चार बाग रेलवे स्टेशन से महज एक किलोमीटर की दूरी पर होगा ..आलम बाग से चारबाग, हज़रतगंज रोड पर जाने वाली सड़क पर यह मैट्रो स्टेशन है ....इस स्टेशन के पास ही मुख्य रोड़ से अंदर जा रही सड़क की नुक्कड़ पर एक एटीएम है ...
कल मैं जैसे ही स्कूटर रोक कर एटीएम के अंदर जाने लगा तो उस एटीएम से चंद कदम दूर कुछ लोग जमा हुए दिखे...मैं भी वहां चला गया...
एक ५०-५५ साल का व्यक्ति बदहवास सा पड़ा हुआ था ...नीचे वाले होंठ के अंदर से खून बह रहा था ....उस के पास बैठे एक सज्जन के हाथ में रूमाल था, मेरे कहने पर उसने वह रूमाल उस चोटिल बंदे के होंठ पर रख दिया...खून तो दो तीन मिनट में बंद होना ही था ...
चोट लगा वह बंदा कुछ ठीक नहीं लग रहा था, बीच बीच में होंठ पर रखे रूमाल को देख रहा था ...और एक दो बार उठने की उसने कोशिश भी करी लेकिन लड़खड़ा सा गया... मैंने भी और वहां मौजूद लोगों ने भी उसे यही ताकीद की कि आप कुछ समय लेटे रहिए...
इतने में उस भीड़ में से ही किसी ने बताया कि कोई गाड़ी वाला टक्कर मार कर गया है ...एक शख्स ने धीमे से गाड़ी का नंबर भी बताया लेकिन किसी ने उस की बात की तरफ़ गौर ही नहीं किया...
मैंने पूछा कि गाड़ी वाला रुका नहीं, तो किसी ने कहा कि वह क्यों रूकेगा, आफ़त मोल लेने के लिए? मैं चुप ।
इतने में उस ज़ख्मी व्यक्ति ने अपने जेब से कुछ कागज़ निकाले ...और उठने की कोशिश की उसने लेकिन उठ नहीं पाया...बदहवास था, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी सगे-संबंधी को फोन करने के लिए कहेगा...लेकिन मैंने भी और दो तीन लोगों ने उसे यही कहा कि आप चंद मिनट लेटे रहिए....
पास ही उस का मोटरसाईकिल गिरा पड़ा था और एक हेल्मेट व बैग भी वहां पड़ा हुआ था ...
एक दो मिनट में ही वह उठ खड़ा हुआ...मन खुश हुआ कि चलो ठीक तो लग रहा है ... जब मैंने उसे फिर से कुछ समय लेटे रहने के लिए कहा तो उसने कहा कि उस का तो ट्रेन का आरक्षण है, उसे बदरीनाथ जाना है ...मुझे यह नहीं पता था कि वह किसी गाड़ी का बात कर रहा था, अपने गृह-नगर की बदरीनाथ धाम की .. लेकिन इस के बारे में उस से कुछ पूछा ही नहीं...बस, मैंने इतना कहा कि यह मुंह कटे-फटे की चिंता मत करिए, जल्द ही ठीक हो जायेगा सब कुछ...
उस व्यक्ति की ट्रेन पर जाने की बात सुन कर एक युवक बोल पड़ा ....ट्रेन तो फिर भी आयेगी। मैंने भी उस बात में हामी भर दी।
इतने में किसी ने पानी की बोतल उस व्यक्ति के मुंह के सामने कर दी ...कुल्ला करने के लिए ....मैंने समझाया कि बार बार कुल्ला मत करिए, थोड़ा पानी पी लीजिए...
भीड़ में से ही किसी ने कह दिया कि पानी मत पीना अभी....मुझे अजीब सा लगा, मैंने कहा कि मैं डाक्टर हूं ...इन्हें पानी पीने दीजिए...यह सुनने पर उसने पानी पिया...
तब तक वह उठ चुका था जैसे तैसे ....फिर उस की निगाह गई अपने मोटरसाईकिल पर ... शायद स्टार्ट करना चाह रहा था .....लेकिन आगे के पहिये के ऊपर लगा हुआ रिम टेढा़ हो चुका था ... कोई बात नहीं, एक युवक को अपने पैर से ज़ोर लगा कर उस रिम को सीधा करते देखा ..
मैं लिखते हुए यही सोच रहा था भीड़-तंत्र भी कभी समझ नहीं आ सकता ...उग्र भीड़ किसी राहगीर को अगर मौत के घाट उतारने की सज़ा दे देती है तो चंद मिनट में उसे निपटा भी देती है (अफसोस) और जब यही भीड़ किसी की विपदा में उस का हाथ थामने उमड़ पड़ती है तो बार बार यही लगता है कि इस भीड़ की प्रकृति तो यही है, आवारा भीड़ ज़रूर किसी के उकसावे में ही मार-धाड़ चीड़-फाड़ करती है ....
हां, तो उस के मोटरसाईकिल के अगले रिम को दुरूस्त होते देख मैं भी एटीेएम की तरफ़ लौट आया....भीड़ नहीं थी वहां बिल्कुल, मैं दो मिनट से भी पहले बाहर आया तो हादसे वाली जगह की तरफ़ देखा तो वह सुनसान पड़ी थी....कोई भी नहीं था वहां, मोटरसाईकिल भी नहीं ....
एटीएम के बाहर खड़े गार्ड को मैंने ऐसे ही कहा कि बच गया बंदा, बहुत अच्छा हो गया....उसने बताया -- साब, यह इतनी तेज़ रफ्तार से इस अंदर वाली रोड़ से आ रहा था और गाड़ी के साथ इस की टक्कर इतनी भीषण थी कि यह हेल्मेट की वजह से बच गया, वरना इस का बचना ही मुश्किल था ....
जैसा कि अकसर होता है जब किसी को पता चलता है कि कोई डाक्टर है ...गार्ड ने भी पूछा- क्या आप डाक्टर हैं?
मेरे हां कहने पर उसने अपने पेट की तकलीफ़ बताई, मैंने दवाई लिखी और बरसात के मौसम में एहतियात बरतने की बात कही और वहां से अपने गंतव्य की तरफ़ आ गया...
सारा रास्ता में यही सोचता रहा था कि कैसे उस अनजान आदमी की तरजीह बदलती गईं.....पहले तो कुछ पल जान के ही लाले पड़े रहे, फिर होंठ की चोट पर ध्यान आ गया ...कुछ राहत मिलते ही, इसी दौरान किसी सगे-संबंधी से बात करने की भी बात मन में आ गई...लेकिन बात की नहीं, थोड़ा सा संभलते ही आरक्षित रेल टिकट वाली गाड़ी छूटने की चिंता ने घेर लिया...और उठ खड़े होते ही अपनी मोटरसाईकिल की हालत की चिंता हो गई...
तरजीह की बात करें तो यही लगा कि हम सब की प्राथमिकताएं ऐसे ही पल पल बदलती रहती हैं...उस अनजान आदमी का व्यवहार भी बिल्कुल स्वभाविक था..उस की परिस्थिति में कोई भी होता तो यह सब कुछ ही करता...इसी तरह के निर्णय लेता .... ध्यान आ रहा है कि ढिठाई (ढीठपन) कह लें या हठ कह लें या एक आम आदमी की मज़बूरी, इस में फ़र्क कैसे पता चलता है...वैसे यह कभी भी न पल्ले पड़ने वाली बात है...चलो छोड़ो, आप भी इस चक्कर में मत पड़िए।
चलिए, आज मेरी पसंद का एक गीत सुनते हैं...कितनी बड़ी सीख है इसमें भी, अगर हम किसी की बात सुनने की परवाह करते हों ...
कल मैं जैसे ही स्कूटर रोक कर एटीएम के अंदर जाने लगा तो उस एटीएम से चंद कदम दूर कुछ लोग जमा हुए दिखे...मैं भी वहां चला गया...
एक ५०-५५ साल का व्यक्ति बदहवास सा पड़ा हुआ था ...नीचे वाले होंठ के अंदर से खून बह रहा था ....उस के पास बैठे एक सज्जन के हाथ में रूमाल था, मेरे कहने पर उसने वह रूमाल उस चोटिल बंदे के होंठ पर रख दिया...खून तो दो तीन मिनट में बंद होना ही था ...
चोट लगा वह बंदा कुछ ठीक नहीं लग रहा था, बीच बीच में होंठ पर रखे रूमाल को देख रहा था ...और एक दो बार उठने की उसने कोशिश भी करी लेकिन लड़खड़ा सा गया... मैंने भी और वहां मौजूद लोगों ने भी उसे यही ताकीद की कि आप कुछ समय लेटे रहिए...
इतने में उस भीड़ में से ही किसी ने बताया कि कोई गाड़ी वाला टक्कर मार कर गया है ...एक शख्स ने धीमे से गाड़ी का नंबर भी बताया लेकिन किसी ने उस की बात की तरफ़ गौर ही नहीं किया...
मैंने पूछा कि गाड़ी वाला रुका नहीं, तो किसी ने कहा कि वह क्यों रूकेगा, आफ़त मोल लेने के लिए? मैं चुप ।
इतने में उस ज़ख्मी व्यक्ति ने अपने जेब से कुछ कागज़ निकाले ...और उठने की कोशिश की उसने लेकिन उठ नहीं पाया...बदहवास था, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी सगे-संबंधी को फोन करने के लिए कहेगा...लेकिन मैंने भी और दो तीन लोगों ने उसे यही कहा कि आप चंद मिनट लेटे रहिए....
पास ही उस का मोटरसाईकिल गिरा पड़ा था और एक हेल्मेट व बैग भी वहां पड़ा हुआ था ...
एक दो मिनट में ही वह उठ खड़ा हुआ...मन खुश हुआ कि चलो ठीक तो लग रहा है ... जब मैंने उसे फिर से कुछ समय लेटे रहने के लिए कहा तो उसने कहा कि उस का तो ट्रेन का आरक्षण है, उसे बदरीनाथ जाना है ...मुझे यह नहीं पता था कि वह किसी गाड़ी का बात कर रहा था, अपने गृह-नगर की बदरीनाथ धाम की .. लेकिन इस के बारे में उस से कुछ पूछा ही नहीं...बस, मैंने इतना कहा कि यह मुंह कटे-फटे की चिंता मत करिए, जल्द ही ठीक हो जायेगा सब कुछ...
उस व्यक्ति की ट्रेन पर जाने की बात सुन कर एक युवक बोल पड़ा ....ट्रेन तो फिर भी आयेगी। मैंने भी उस बात में हामी भर दी।
इतने में किसी ने पानी की बोतल उस व्यक्ति के मुंह के सामने कर दी ...कुल्ला करने के लिए ....मैंने समझाया कि बार बार कुल्ला मत करिए, थोड़ा पानी पी लीजिए...
भीड़ में से ही किसी ने कह दिया कि पानी मत पीना अभी....मुझे अजीब सा लगा, मैंने कहा कि मैं डाक्टर हूं ...इन्हें पानी पीने दीजिए...यह सुनने पर उसने पानी पिया...
तब तक वह उठ चुका था जैसे तैसे ....फिर उस की निगाह गई अपने मोटरसाईकिल पर ... शायद स्टार्ट करना चाह रहा था .....लेकिन आगे के पहिये के ऊपर लगा हुआ रिम टेढा़ हो चुका था ... कोई बात नहीं, एक युवक को अपने पैर से ज़ोर लगा कर उस रिम को सीधा करते देखा ..
मैं लिखते हुए यही सोच रहा था भीड़-तंत्र भी कभी समझ नहीं आ सकता ...उग्र भीड़ किसी राहगीर को अगर मौत के घाट उतारने की सज़ा दे देती है तो चंद मिनट में उसे निपटा भी देती है (अफसोस) और जब यही भीड़ किसी की विपदा में उस का हाथ थामने उमड़ पड़ती है तो बार बार यही लगता है कि इस भीड़ की प्रकृति तो यही है, आवारा भीड़ ज़रूर किसी के उकसावे में ही मार-धाड़ चीड़-फाड़ करती है ....
हां, तो उस के मोटरसाईकिल के अगले रिम को दुरूस्त होते देख मैं भी एटीेएम की तरफ़ लौट आया....भीड़ नहीं थी वहां बिल्कुल, मैं दो मिनट से भी पहले बाहर आया तो हादसे वाली जगह की तरफ़ देखा तो वह सुनसान पड़ी थी....कोई भी नहीं था वहां, मोटरसाईकिल भी नहीं ....
एटीएम के बाहर खड़े गार्ड को मैंने ऐसे ही कहा कि बच गया बंदा, बहुत अच्छा हो गया....उसने बताया -- साब, यह इतनी तेज़ रफ्तार से इस अंदर वाली रोड़ से आ रहा था और गाड़ी के साथ इस की टक्कर इतनी भीषण थी कि यह हेल्मेट की वजह से बच गया, वरना इस का बचना ही मुश्किल था ....
जैसा कि अकसर होता है जब किसी को पता चलता है कि कोई डाक्टर है ...गार्ड ने भी पूछा- क्या आप डाक्टर हैं?
मेरे हां कहने पर उसने अपने पेट की तकलीफ़ बताई, मैंने दवाई लिखी और बरसात के मौसम में एहतियात बरतने की बात कही और वहां से अपने गंतव्य की तरफ़ आ गया...
सारा रास्ता में यही सोचता रहा था कि कैसे उस अनजान आदमी की तरजीह बदलती गईं.....पहले तो कुछ पल जान के ही लाले पड़े रहे, फिर होंठ की चोट पर ध्यान आ गया ...कुछ राहत मिलते ही, इसी दौरान किसी सगे-संबंधी से बात करने की भी बात मन में आ गई...लेकिन बात की नहीं, थोड़ा सा संभलते ही आरक्षित रेल टिकट वाली गाड़ी छूटने की चिंता ने घेर लिया...और उठ खड़े होते ही अपनी मोटरसाईकिल की हालत की चिंता हो गई...
तरजीह की बात करें तो यही लगा कि हम सब की प्राथमिकताएं ऐसे ही पल पल बदलती रहती हैं...उस अनजान आदमी का व्यवहार भी बिल्कुल स्वभाविक था..उस की परिस्थिति में कोई भी होता तो यह सब कुछ ही करता...इसी तरह के निर्णय लेता .... ध्यान आ रहा है कि ढिठाई (ढीठपन) कह लें या हठ कह लें या एक आम आदमी की मज़बूरी, इस में फ़र्क कैसे पता चलता है...वैसे यह कभी भी न पल्ले पड़ने वाली बात है...चलो छोड़ो, आप भी इस चक्कर में मत पड़िए।
चलिए, आज मेरी पसंद का एक गीत सुनते हैं...कितनी बड़ी सीख है इसमें भी, अगर हम किसी की बात सुनने की परवाह करते हों ...