मंगलवार, 1 अगस्त 2017

तरजीह

लखनऊ का दुर्गापुरी मैट्रो स्टेशन एरिया ..यह चार बाग रेलवे स्टेशन से महज एक किलोमीटर की दूरी पर होगा ..आलम बाग से चारबाग, हज़रतगंज रोड पर जाने वाली सड़क पर यह मैट्रो स्टेशन है ....इस स्टेशन के पास ही मुख्य रोड़ से अंदर जा रही सड़क की नुक्कड़ पर एक एटीएम है ...

कल मैं जैसे ही स्कूटर रोक कर एटीएम के अंदर जाने लगा तो उस एटीएम से चंद कदम दूर कुछ लोग जमा हुए दिखे...मैं भी वहां चला गया...

एक ५०-५५ साल का व्यक्ति बदहवास सा पड़ा हुआ था ...नीचे वाले होंठ के अंदर से खून बह रहा था ....उस के पास बैठे एक सज्जन के हाथ में रूमाल था, मेरे कहने पर उसने वह रूमाल उस चोटिल बंदे के होंठ पर रख दिया...खून तो दो तीन मिनट में बंद होना ही था ...

चोट लगा वह बंदा कुछ ठीक नहीं लग रहा था, बीच बीच में होंठ पर रखे रूमाल को देख रहा था ...और एक दो बार उठने की उसने कोशिश भी करी लेकिन लड़खड़ा सा गया... मैंने भी और वहां मौजूद लोगों ने भी उसे यही ताकीद की कि आप कुछ समय लेटे रहिए...

इतने में उस भीड़ में से ही किसी ने बताया कि कोई गाड़ी वाला टक्कर मार कर गया है ...एक शख्स ने धीमे से गाड़ी का नंबर भी बताया लेकिन किसी ने उस की बात की तरफ़ गौर ही नहीं किया...

मैंने पूछा कि गाड़ी वाला रुका नहीं, तो किसी ने कहा कि वह क्यों रूकेगा, आफ़त मोल लेने के लिए?  मैं चुप ।

इतने में उस ज़ख्मी व्यक्ति ने अपने जेब से कुछ कागज़ निकाले ...और उठने की कोशिश की उसने लेकिन उठ नहीं पाया...बदहवास था, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी सगे-संबंधी को फोन करने के लिए कहेगा...लेकिन मैंने भी और दो तीन लोगों ने उसे यही कहा कि आप चंद मिनट लेटे रहिए....

पास ही उस का मोटरसाईकिल गिरा पड़ा था और एक हेल्मेट व बैग भी वहां पड़ा हुआ था ...

एक दो मिनट में ही वह उठ खड़ा हुआ...मन खुश हुआ कि चलो ठीक तो लग रहा है ... जब मैंने उसे फिर से कुछ समय लेटे रहने के लिए कहा तो उसने कहा कि उस का तो ट्रेन का आरक्षण है, उसे बदरीनाथ जाना है ...मुझे यह नहीं पता था कि वह किसी गाड़ी का बात कर रहा था, अपने गृह-नगर की बदरीनाथ धाम की .. लेकिन इस के बारे में उस से कुछ पूछा ही नहीं...बस, मैंने इतना कहा कि यह मुंह कटे-फटे की चिंता मत करिए, जल्द ही ठीक हो जायेगा सब कुछ...

उस व्यक्ति की ट्रेन पर जाने की बात सुन कर एक युवक बोल पड़ा ....ट्रेन तो फिर भी आयेगी। मैंने भी उस बात में हामी भर दी।

इतने में किसी ने पानी की बोतल उस व्यक्ति के मुंह के सामने कर दी ...कुल्ला करने के लिए ....मैंने समझाया कि बार बार कुल्ला मत करिए, थोड़ा पानी पी लीजिए...

भीड़ में से ही किसी ने कह दिया कि पानी मत पीना अभी....मुझे अजीब सा लगा, मैंने कहा कि मैं डाक्टर हूं ...इन्हें पानी पीने दीजिए...यह सुनने पर उसने पानी पिया...

तब तक वह उठ चुका था जैसे तैसे ....फिर उस की निगाह गई अपने मोटरसाईकिल पर ... शायद स्टार्ट करना चाह रहा था .....लेकिन आगे के पहिये के ऊपर लगा हुआ रिम टेढा़ हो चुका था ... कोई बात नहीं, एक युवक को अपने पैर से ज़ोर लगा कर उस रिम को सीधा करते देखा ..

मैं लिखते हुए यही सोच रहा था भीड़-तंत्र भी कभी समझ नहीं आ सकता ...उग्र भीड़ किसी राहगीर को अगर मौत के घाट उतारने की सज़ा दे देती है तो चंद मिनट में उसे निपटा भी देती है (अफसोस) और जब यही भीड़ किसी की विपदा में उस का हाथ थामने उमड़ पड़ती है तो बार बार यही लगता है कि इस भीड़ की प्रकृति तो यही है, आवारा भीड़ ज़रूर किसी के उकसावे में ही मार-धाड़ चीड़-फाड़ करती है ....

हां, तो उस के मोटरसाईकिल के अगले रिम को दुरूस्त होते देख मैं भी एटीेएम की तरफ़ लौट आया....भीड़ नहीं थी वहां बिल्कुल, मैं दो मिनट से भी पहले बाहर आया तो हादसे वाली जगह की तरफ़ देखा तो वह सुनसान पड़ी थी....कोई भी नहीं था वहां, मोटरसाईकिल भी नहीं ....

एटीएम के  बाहर खड़े गार्ड को मैंने ऐसे ही कहा कि बच गया बंदा, बहुत अच्छा हो गया....उसने बताया -- साब, यह इतनी तेज़  रफ्तार से इस अंदर वाली रोड़ से आ रहा था और गाड़ी के साथ इस की टक्कर इतनी भीषण थी कि यह हेल्मेट की वजह से बच गया, वरना इस का बचना ही मुश्किल था ....

जैसा कि अकसर होता है जब किसी को पता चलता है कि कोई डाक्टर है ...गार्ड ने भी पूछा- क्या आप डाक्टर हैं?
मेरे हां कहने पर उसने अपने पेट की तकलीफ़ बताई, मैंने दवाई लिखी और बरसात के मौसम में एहतियात बरतने की बात कही और वहां से अपने गंतव्य की तरफ़ आ गया...

सारा रास्ता में यही सोचता रहा था कि कैसे उस अनजान आदमी की तरजीह बदलती गईं.....पहले तो कुछ पल जान के ही लाले पड़े रहे,  फिर होंठ की चोट पर ध्यान आ गया ...कुछ राहत मिलते ही, इसी दौरान किसी सगे-संबंधी से बात करने की भी बात मन में आ गई...लेकिन बात की नहीं, थोड़ा सा संभलते ही आरक्षित रेल टिकट वाली गाड़ी छूटने की चिंता ने घेर लिया...और उठ खड़े होते ही अपनी मोटरसाईकिल की हालत की चिंता हो गई...

तरजीह की बात करें तो यही लगा कि हम सब की प्राथमिकताएं ऐसे ही पल पल बदलती रहती हैं...उस अनजान आदमी का व्यवहार भी बिल्कुल स्वभाविक था..उस की परिस्थिति में कोई भी होता तो यह सब कुछ ही करता...इसी तरह के निर्णय लेता .... ध्यान आ रहा है कि ढिठाई (ढीठपन) कह लें या हठ कह लें या एक आम आदमी की मज़बूरी, इस में फ़र्क कैसे पता चलता है...वैसे यह कभी भी न पल्ले पड़ने वाली बात है...चलो छोड़ो, आप भी इस चक्कर में मत पड़िए। 




चलिए, आज मेरी पसंद का एक गीत सुनते हैं...कितनी बड़ी सीख है इसमें भी, अगर हम किसी की बात सुनने की परवाह करते हों ...

रविवार, 30 जुलाई 2017

सरसों का तेल - हमारे दुःख सुख का सच्चा साथी

सुबह एक जगह खटमल का ज़िक्र हुआ...हमारे एक वाट्सएप ग्रुप पर ...बस फिर क्या था, सरसों का तेल ऐसे याद आया कि अभी तक उस से जुड़ी सभी यादें उमड़ पड़ी हैं...

बचपन के दिन भी क्या दीवानेपन के, बेपरवाह दिन हुआ करते हैं...

मुझे याद है कि खटमल जब भी लड़ते तो हमें तुरंत सरसों का तेल लगाने को दिया जाता ..बस, चंद ही लम्हों में हम अपना दुःख भूल जाते ..

दरअसल खटमल के काटने से चमड़ी जो थोड़ी सी उभर जाती है उसे धफ्फड़ कहते हैं... (पंजाबी में) ...इलाज तो मैंने बता ही दिया है ...धफ्फड़ ही नहीं, अगर मच्छर भी रात में काट रहे हैं, परेशान हो कर उठ बैठे हैं तो भी तेल की वह प्लास्टिक वाली शीशी ही काम आती थी...बडा़ सुकून मिल जाता था ...

अगर तितैया काट गया ... तो भी कटी हुई जगह पर लोहा रगड़ने के बाद तेल ही लगाना होता था ....

अब क्या क्या गिनाएं....झिझक भी होती है ... लेकिन मैं दूसरे लेखकों को पढ़ने के बाद थोड़ी हिम्मत करने लगा हूं ...बिंदास बात कहने लगा हूं ...सरसों के तेल की उपयोगिता चमूने लड़ने से लेकर कान और दांत में तेज़ दर्द में भी होती थी ...चमूने वाली परेशानी का मैं ज़्यााद वर्णऩ करने में असमर्थ हूं...जो भुक्तभोगी हैं वे सब जानते हैं....और कान में सरसों का तेल डालने से पहले उसे अंगीठी पर गर्म करते समय उस में लहसुन के दो टुकडे़ ज़रूर डाल दिये जाते थे ... कईं सालों बाद पता चला कि कान नाक के डाक्टर कहते हैं कि कान में कभी भी सरसों का तेल नहीं डालना चाहिए...लेकिन हमारे दोनों कानों में जब तक एक आध चम्मच तेल नहीं पहुंचता था, हमारी खारिश ही जाने का नाम न लेती थी ...

चलिए, पुरानी बातें को भी कितना याद करें....ऐसे ही कभी उमड़-घुमड़ आती हैं... बस, कहावत फिर वही याद आ जाती है कि अज्ञानता एक वरदान है .....यह कहावत बड़ी गहरी है, इसे सब लोग अपने अपने नज़रिये से पढ़ते हैं..

हां, जब हमें लासें पड़ जाती थीं....लासें (यह लाशें नहीं है, नोट करिए) ठेठ पंजाबी का शब्द है, इस का मतलब जब उमस आदि का मौसम हो ज़्यादा पसीना आता है तो हमारी साइडें लग जाती हैं...मतलब यह की हमारी जांघों के अंदरूनी हिस्सों में खारिश, लाली ...बस यह सब होने लगता है ...कईं दिन तक परेशानी का सबब...हमारे बचपन के दिनों में ये कैंडिड -इचगार्ड आदि कुछ भी नहीं था....क्या पता होता भी होगा, हमारी ही पहुंच से दूर होगा......चलिए, जो भी हो, हमें तो इस का सीधा इलाज समझाया गया था...कि रात को स्नान करने के बाद, सरसों का तेल चुपड़ लिया जाए, और सब से खुला पायजामा पहन कर सो जाया जाए......सच्ची यार, अगली सुबह ऐसे लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो। हैरान होता हूं कि पिछले दौर के लोग भी बहुत जुगाड़ू थे ..

कोई किसी को चोट लग जाए, कोई किसी को अंदरूनी चोट हो....हर एक के मुंह पर सब से पहले सरसों का तेल ही आता था....फर्स्ट एड कह ले ंया मरीज़ का ध्यान बंटाने के लिए या प्लेसिबो इफेक्ट कह लें.....कुछ भी कह लेते हैं क्योंकि अब कुछ कहने लिखने की और शायद उन बातों की थोड़ी खिल्ली भी उड़ाने की थोड़ी औकात हो गई है ......लेकिन याद है अच्छी तरह से जब केवल और केवल एक सरसों के तेल का ही सहारा हुआ करता था...

सिर पर भी रोज़ यह तेल चुपड़ा जाता था ...और कईं हफ्तों बाद इस से अपनी मालिश भी खुद करनी होती थी ...विशेषकर रविवार के दिन धूप में बैठ कर ..नहाने से पहले ....सिर पर कईं बार मां या बहन चंपी कर दिया करते थे..

बहुत से मरीज़ आते हैं जो कहते हैं कि हम लोग दांतों और मसूड़ों पर कड़ुवा तेल (यहां यू.पी मे इसे कड़ुवा तेल कहते हैं...कड़वा कहते हैं या कड़ुवा ...लेकिन उनके बोलने पर मुझे कड़ुवा ही सुनता है)..लगाते हैं, मालिश करते हैं मसूड़ों की उस से, बस उसी की वजह से दांत कायम हैं..

शरीर में कहीं भी शुष्कता लगे ...पंजाबी में कहते हैं खुश्की, तो भी यही तेल झस (लगा) दिया जाता था...और हां, सर्दियों में अकसर उन दिनों हमारे पैरों की अंगुलियां लाल हो जाती थीं, सूज जाती थीं...तब हमें गर्म पानी में सरसों का तेल और नमक डाल कर एक बड़े से पतीले में दिया जाता था...हम उस में पांच दस मिनट पांव रखे रहते, तोलिये से सुखा कर और जुराबें डाल कर सो जाते ...और सुबह एक दम चकाचक ....सब कुछ ठीक हुआ होता था...

मैं अपने दोस्तो ं से शेयर कर रहा था कि हमारे दिनो ं में तो भाई सरसों के तेल का संजीवनी बूटी जैसा मान सम्मान था... समय बदलता है तो लोगों की आदतें भी बदलने लगती हैं...स्वभाविक है ....वरना हमारे दिनों में तो फर्स्ट एड ही बस यह थी ... सरसों का तेल, मीठा सोड़ा (बेकिंग सोड़ा) पानी के साथ अगर कभी अफारा हो जाए... और सिरदर्द होने पर टूंडे (excuse me, हम उसे ऐसे ही बुलाते थे) की दुकान से एक सैरीडोन, पेट दर्द होने पर अजवाईन- नमक की पानी के साथ फक्की, और मां के दांतदर्द के समय बाज़ार से नसवार (powdered tabacco) लाना और पापा के दांत के दर्द के इलाज के लिए बाहर आंगन से गर्मा-गर्म ईंट के एक टुकड़े को उन्हें लाकर देना....सेंकने के लिए...

हां, सरसों के तेल की कुछ बातें और याद आ गईं... घर में कोई ताला नहीं खुल रहा, कोई कील-पेंच जाम हो गया तो वही सुपरहिट फार्मूला ....हिदायत दी जाती ऊपर से ...डाल दो इस ताले (जंदरे) में तेल और पड़ा रहने दो ....अपने आप रवां हो जायेगा....और पता नहीं फिर होता था कि नहीं, लेकिन जब कभी उस जंदरे को रिपेयर करने के लिए बाज़ार लेकर जाया जाता तो ताले वाले की फटकार ज़रूर सुनने को मिलती कि आप लोग तालों में सरसों का तेल क्यों डाल देते हो? मत किया करो यह कारस्तानी, खराब कर देता है यह ताले को।

ध्यान आ रहा है कि घर में छोटी सी एक पीतल की या कांसे की (कांसे को पंजाबी में कैं कहते हैं क्या, मुझे पता नहीं) कटोरी तेल के साथ हर समय तैयार ही रहती थी ....याद आ गया लिखते लिखते कि कभी साईकिल भारी चल रहा होता था तो साईकिल की चेन को भी इसी सरसों के तेल की चंद बूंदों का टॉनिक पिला दिया जाता था ... हा हा हा हा हा ....साईकिल की गरारी भी रवा हो जाती थी ........हा हा हा हा हा हा ... और वह हल्का चलने लगता था बिना ज़्यादा शोर शराबे के।

और हां, जब यह सरसों का तेल चोट, खरोंच या चमूनों-वूनों पर लगता था और चीखें निकलती थीं और कोई न कोई यह कह कर ढाढस भी बंधा देता था ....इस का मतलब खरा (शुद्ध) है, इसलिए लगेगा तो...लेकिन देखना आराम भी तुरत-फुरत आ जायेगा... हां भई हां, और होता भी ऐसा ही था .....  As I always say......Good Old Days!



गुरुवार, 29 जून 2017

किस भाषा में लिखें?

मुझे १५ साल पहले एक नवलेखक शिविर में एक विद्वान की यह बात सुनने का मौका मिला था ..कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए....सोचा उस समय इस के बारे में लेकिन कभी इस बात को गंभीरता से लिया नहीं शायद..

वहां से लौटने के बाद मैं अखबारों के लिए लेख लिखता रहा ...अधिकतर हिंदी में और यदा कदा पंजाबी में....इस के पीछे मेरी यही सोच थी कि पंजाबी अखबारों की रीडरशिप कम है...

२००७ से केवल ब्लॉगिंग कर रहा हूं....अधिकतर हिंदी में ...१० साल हो गये ...१५०० के करीब लेख हो गये...इसी दौरान २०१० के आसपास इंगलिश में भी ब्लॉगिंग शुरू की ...यही कोई तीन चार साल तक की ( चार सौ के करीब लेख) ... अभी भी कभी कभी कोई टैक्नीकल बात कहनी हो तो इंगलिश में ही लिखता हूं...उस के बहुत से कारण हैं...अभी उस में नहीं जाते। 
हिंदी और पंजाबी वाली बात तक ही अपनी बात को सीमित रखता हूं...एक है राष्ट्र भाषा और दूसरी मातृ-भाषा...दोनों का अपना अपना महत्व है..

कल मैं टीवी में प्रधानमंत्री मोदी का नीदरलैंड के हैग में हिंदुवंशियों के समूह में दिये गये भाषण को सुन रहा था...सही बात कही कि कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि उन के बच्चों को भारतीय भाषाएं आती ही नहीं हैं.. ऐसे में १५० साल पहले गये सुरीनाम जा बसे भारतीयों ने तीन चार पीढ़ियों के बाद भी जैसे अपने देश का सभ्यता, संस्कृति को संजो कर रखा है, उस की मोदी तारीफ़ कर रहे थे...

कुछ सप्ताह पहले एक बुक-फेयर में मुझे बलराज साहनी साहब की एक छोटी सी किताब मिल गई थी ...साहित्यकारों के नाम संदेश...उसमें भी यही संदेश था कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए... अच्छा लगा था उस किताब के शुरूआती आठ दस पेज़ पढ़ कर ..अभी पूरी नहीं पढ़ी लेकिन बात पल्ले पड़ गई।

इस में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग बच्चों को अपनी मातृ-भाषा में बात करते समय टोकते हैं...इस के बारे में क्या लिखूं, इस के बारे में हम सब लोग अच्छे से जानते हैं कि पंजाबी जैसी भाषायें धीरे धीरे लोग आज की युवा पीढ़ी कम बोलती है...मुझे यह बड़ा अजीब लगता है ...ऐसा नहीं होता कि आप १५-२० साल की उम्र में बच्चों को कहना शुरू करें कि भई, पंजाबी में बात किया करो...और वे ऐसा कर पायेंगे....मुश्किल काम होता उन के लिए भी।

यह तो है बोलने वाली बात ...लिखने की तो बात ही क्या करें!

ज़्यादा बात को खींचने की बजाए, मैं सीधा बात पर आता हूं कि मुझे लगता है कि मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा ...शायद इस का एक कारण यह था कि जब मैं हाथ से लिख कर अखबार में लिख कर भेजता था तो ठीक था, लेेकिन जब से मैंने कंप्यूटर पर काम करना शुरू किया तो मैंने नोटिस किया कि पंजाबी के कुछ शब्द मेरे से लिखे नहीं जा रहे थे क्योंकि मेरे को बिंदी-टिप्पी-अध्धक कंप्यूटर में इस्तेमाल करने मुश्किल लग रहे थे.....बस, ऐसे में धीरे धीरे पंजाबी लिखना कम से कम ब्लॉगिंग में छूट गया....लेकिन मुझे इस का बहुत मलाल है...

जो हमारी मातृभाषा होती है उस में हम सोचते हैं....और अगर उसी में लिखते-पढ़ते हैं तो यह सब बहुत नेचुरल होता है ... जद्दो-जहद नहीं करनी पड़ती।

सही में अगर मौलिकता की, सर्जनात्मकता की बात करें तो वह मातृ-भाषा में लिखते समय स्वतः आयेगी...और अगर अच्छा लिखा होगा तो उसका अपने आप बीसियों भाषाओं में अनुवाद भी हो जायेगा... लिखते समय कभी इस सिरदर्दी की चिंता मत करिए, यह दूसरों के लिए छोड़ दीजिए..बस, आप तो अपनी कह के मुक्त हो जाइए....

हिंदी में लिख तो लेता हूं ...कईं बार शब्दों की वजह से अटक जाता हूं... अपनी बात कहने के लिए वह शब्द नहीं मिल पाता जो मेरे मन के भाव प्रकट कर सके..और अगर मैं जबरदस्ती वहां कोई शब्द हिंदी का फिट कर भी देता हूं तो वह बात बनती नहीं.
मुझे शुरू शुरू में यही लगता था कि हिंदी बड़ी शुद्ध लिखनी चाहिए.. लेकिन ऐसा शायद हो नहीं पाता...हम वही हिंदी लिख पाते हैं जो हमें आती है ...हम वही शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जिन के इस्तेमाल के बारे में हमें पता है ...ऐसे ही धक्के से कुछ शब्द इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं तो फिर गड़बड़ हो जाती है....

मैं अकसर देखता हूं कि हिंदी लेखकों की कहानियां या हिंदी का कोई भी साहित्य पढ़़ते समय मैं कईं शब्दों पर अटक जाता हूं....फिर अनुमान लगाने लगता हूं...यह कहना आसान है कि उसी समय शब्दकोष देख लेना चाहिए, ऐसा नहीं हो पाता मेरे साथ..बस, इसी चक्कर में कुछ ही पन्ने पढ़ कर वह किताब अलमारी में वापिस सरका दी जाती है ...

लेकिन अगर मैं उन लेखकों की हिंदी कहानियां पढ़ता हूं जिन की मातृ-भाषा पंजाबी है तो मैं उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ पाता हूं...कुछ शब्दों पर अटकता हूं क्योंकि लेखक जिस भी परिवेश में पले-बढ़े हैं, कुछ शब्द वहां से भी साथ जुड़ ही जाते हैं...लेकिन फिर भी ऐसे लेखकों को पढ़ कर मेरी कमज़ोर हिंदी की हीन-भावना समाप्त होती दिखती है क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो मेरी हिंदी से मिलती-जुलती हिंदी ही है ...

कुछ हिंदी के लेखकों को पढ़ता हूं तो ज़्यादा समझ ही नहीं पाता...भारी भरकम शब्द ....मुझे कईं बार लगता है कि ये भारी भरकम शब्द कहीं जानबूझ तो इस्तेमाल नहीं किया जाते होंगे...अपनी अच्छी हिंदी को दिखाने के लिए...लेकिन जो भी हो इस से पढ़ने समझने में मुश्किल होती है ....इसी चक्कर में मैं हिंदी की कविताएं तो बिल्कुल भी समझ ही नहीं पाता....वही समझ में आईं जो स्कूल में मास्टरों ने डंडे के ज़ोर पर समझा दी, बाकी सब गोल।

तकनीकी शब्दावलियों को देखता हूं तो डर जाता हूं ...इतने भारी भरकम शब्द ...कोई कैसे इन शब्दों को समझेगा...इसीलिए हम लोग अपनी मातृ-भाषा में तो दूर अपनी राष्ट्र-भाषा में तकनीकी विषयों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं.....और जो देश ऐसा कर रहे हैं वे तारीफ़ के काबिल हैं..

मैं भाषा विज्ञानी नहीं हूं ..जो समझा हूं वही लिखने की कोशिश कर रहा हूं....हां, कठिन शब्दों से याद आया कि लेखक के परिवेश का और उसने किस दौर में लेखन किया, इन सब बातों का भी असर तो साहित्य पर पड़ता ही है ..मैं कल मुंशी प्रेमचंद की कुछ कहानियां पढ़ रहा था ...कुछ शब्द मेरे सिर के ऊपर से ही निकले जा रहे थे।

ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में ही यह समस्या है ...अकसर ऐसा भी होता है कि पंजाबी में भी किसी लेखक को पढ़ते हुए कुछ शब्दों पर अटक जाता हूं लेकिन वहां पर वह फ्लो खंडित नहीं होता क्योंकि वहां पर मैं आराम से कयास लगा लेता हूं...
अब ये सब बातें लिख कर ऊबने लगा हूं....लेकिन एक मशविरा तो है कि हमें अपनी मातृ-भाषा में लिखना-पढ़ना हमेशा जारी रखना चाहिए....हम सोशल मीडिया पर आडियो मैसेज तो दूर टैक्स्ट मैसेज भी मातृ-भाषा में नहीं करते ....बात भी मातृ-भाषा में नहीं करते ...और बात करते हुए भी अपने स्कूल कालेज के साथियों को भी "जी..जी " मिमियाने लगते हैं....मुझे इस से बड़ी नफ़रत है .....अगर हम स्कूल कालेज के दौर के ही अपने साथियों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट देने लगते हैं तो इसके कईं मतलब हैं...उन के बारे में आप स्वयं सोचिए.......लेेकिन मुझे किसी भी स्कूल कालेज वाले दौर के साथी को जी लगा कर बुलाना बड़ा अजीब लगता है और मैं ऐसा अकसर नही ंकरता ....जहां मुझ से ऐसी एक्सपैक्टेशन भी होती है ...मैं वहां से गोल ही हो जाता हूं..

अपनी मातृ-भाषा में लिखने-पढ़ने का मजा ही कुछ और है ...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि वहां पर भी कुछ शब्दों में मैं अटक जाता हूं....इस का कारण वही है कि उस लेखक का अपने समय का परिवेश अलग होता है ....कल मैं डा महिन्द्र सिंह रंधावा की आपबीती पढ़ रहा था ..किसी पंजाबी की किसी स्कूल की किताब में प्रकाशित हुई है....पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं उन से बातचीत कर रहा हूं...मेरे विचार में यह एक महान् लेखन के लक्षण हैं....और उन्होंने लिखा भी इतनी बेबाकी से था ....डा रंधावा साहब के बारे में अगर आपने नहीं सुना तो यह आप के सामान्य ज्ञान पर ही प्रश्न चिंह लगाती है ....यह देश की एक महान हस्ती हुई हैं ...विकिपीडिया पर इन के बारे में यहां जानिए... डा महेन्द्र सिंह रंधावा 

डा रंधावा साहब की पंजाबी भाषा में लिखी उस आपबीती से चंद पंक्तियां हिंदी में अनुवाद कर के लिख रहा हूं..
 'जून १९३० में मैंने एमएससी आनर्जड बॉटनी पहली श्रेणी में पास की। अब गांव आने के बाद यह सूझ ही नहीं रहा था कि कौन सा काम किया जाए जिस से कि गुज़ारा हो पाए। खेती बाड़ी में बड़ी डिप्रेशन थी और गेहूं डेढ़ रूपये में चालीस किलो के भाव से बिक रही थी।शहरों के लोग तो खुश थे कि गेहूं सस्ती है लेकिन किसानों का बहुत बुरा हाल था। तंग आ कर खेती-बाड़ी में उनका रूझान कम हो रहा था क्योंकि उन्हें उन की मेहनत का सिला नहीं मिल रहा था। फ़ालतू अन्न लोग पशुओं और कुत्तों को खिला रहे थे। गांवों के कुत्ते रोटियां खा खा के तगड़े होते जा रहे थे और दिन-दिहाड़े लोगों पर हमला कर देते थे। इस डिप्रेशन का बाकी काम-धंधों पर भी बड़ा बुरा असर पड़ा और कहीं कोई नौकरी नज़र नहीं आ रही थी।'
लेख बंद करते समय बस यही कहना है कि हिंदी भी पढ़िए, इंगलिश भी पढ़िए...लिखिए....इस के आधार पर विश्व मार्कीट में अपनी विशिष्टता दिखाईए.....लेकिन अपनी मातृ-भाषा को नज़र-अंदाज़ मत करिए....यह मैं किसी भी कट्टरवाद से प्रेरित हो कर नहीं कह रहा ..वह मेरा विषय कभी था ही नहीं और ना ही होगा....लेकिन मातृ-भाषा के अधिक उपयोग से हम अपनी बात को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं....हमें मन की बातें कहने के लिए शब्द ढूंढने नहीं पड़ते ...मैंने भी सोचा है कि अब पहले से अधिक पंजाबी साहित्य और पंजाबी साहित्यकारों को तवज्जो दूंगा...सोशल मीडिया पर भी मैं पंजाबी जानने वाले अपने साथियों और परिवार के सदस्यों के साथ पंजाबी लिख कर ही बात कहना पसंद करता हूं...पंजाबी गुरमुखी लिपि में लिखी हुई..

बात तो लंबी हो गई पता नहीं अपनी बात ठीक से कह पाया हूं कि नहीं......शायद थोड़ी बहुत तो हो ही गई बात ....और एक बात कि अपनी मातृ-भाषा में लिटरेचर पढ़ने की शुरूआत ऐसे करें कि स्कूल की पंजाबी की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ते रहा करें...नेट पर भी पीडीएफ फोर्मेट पर पड़ी हुई हैं.....लेेकिन मेरी तरह इन्हें स्लीपिंग पिल की तरह मत इस्तेमाल करिए...थोड़ा समय रोज़ाना ऐसे साहित्य के साथ बिताइए.....यकीन मानिए यह हमारी मानिसक सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है...

एक छोटी सा बात जाते जाते कि हम लिखते इसलिए हैं कि जो कोई भी पढ़े उसे समझ में आ जाए...फिर अपनी बात किसी भी भाषा में इतनी घुमावदार ढंग से क्यों कही जाए...बस, इतना सा ध्यान रहे ...और लिखते समय भी यही ध्यान रखा जाए कि पढ़ने वाला कहीं भी अटके नही...हम क्यों नहीं बातचीत वाली भाषा में लिख पाते! लिखने वाले सोचिएगा...मातृ-भाषा की बात ही अलग होती है...उसे सुप्त मत होने दीजिए....जहां तक हो सके। फैशन के लिए कभी कभी एक दो जुमल मातृ-भाषा में बोल कर इसे उपहास का माध्यम न बनाएं, दिक्कत हमें और आने वाली पीढ़ियों को ही होगी।




रविवार, 25 जून 2017

लाहौर में कोहिनूर

आज इस शीर्षक के साथ हिन्दुस्तान में एक लेख प्रकाशित हुआ है ....साथ में महाराजा रंजीत सिंह की फोटो थी...उस लेख को जब पढ़ा तो बड़े रोचक तथ्यों का पता चला...जिन्हें यहां शेयर कर रहा हूं...


कोहिनूर के सभी स्वामियों की तुलना में इसका सबसे ज्यादा महाराजा इस्तेमाल रणजीत सिंह ने किया। कोहिनूर से उन्हें जुनून की हद तक मोहब्बत थी, और हर सार्वजनिक मौके पर वह उसे जरूर पहनते थे।

उन्हीं के शासनकाल में पहली बार कोहिनूर ने अपनी अलग पहचान बनाई जो अब तक बरकरार है। नादिर शाह और दुर्रानी के वंशजों ने इसे हमेशा किसी दूसरे कीमती पत्थर, मुगलों ने इसे खास तैमूरी माणिक्य के साथ पहना, नादिर शाह ने जिसे एजुल हूर और दुर्रानियों ने फखराज कहा था। पर अब कोहिनूर अकेले रणजीत सिंह के गले की शोभा बनकर उनके संघर्षों और आजादी के लिए लड़े गए मुश्किल युद्धों का प्रतीक बन चुका था।

दुर्रानी वंश के इस हीरे को हासिल करने को रणजीत सिंह ने अपनी सफलता के चरमोत्कर्ष का प्रतीक चिन्ह मान लिया था। दरअसल वह कोहिनूर को एक ऐसी मोहर मानते थे, जो यह साबित करती कि लड़खड़ाते दुर्रानी वंश के खात्मे का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। शायद यह एक बड़ी वजह रही होगी जिसने महाराजा रणजीत सिंह को हर मौके पर कोहिनूर पहनने की प्रेरणा दी।


जब रणजीत सिंह ने वर्ष 1813 में इस महान हीरे को हासिल किया, तो उन्हें शक था कि शाह शुजा उन्हें बेवकूफ़ भी बना सकता है। यही वजह थी कि उन्होंने तुरंत लाहौर के सारे बड़े जौहरियों को बुलाया और हीरे की प्रामाणिकता की जांच करने का आदेश दिया। उन्हें तब बड़ी राहत मिली और थोड़ी सी हैरानी भी हुई. जब सभी ने इसे खालिस खरा और बेशकीमती करार दिया।

एक पुराने दरबारी ने बाद में इस घटना को याद करते हुए लिखा है - महाराज जब महल लौटे तो उन्होंने दरबार बुलाया। कोहिनूर हीरे का प्रदर्शन किया गया और वहां मौजूद सभी सरदारों, मंत्रियों और विशिष्ट लोगों को इसे देखने का मौका दिया गया। सभी ने बार-बार महाराजा को इस अमूल्य रत्न के हासिल होने पर बधाई दी।

अगले दो दिनों तक रणजीत सिंह ने लाहौर के जौहरियों से इसकी प्रामाणिकता की जांच करवाई।

इसके बाद जब महाराजा इस बात से पूरी तरह से संतुष्ट हो गए कि जो हीरा उनके पास है वह असली कोहिनूर है तो उन्होंने शाह शुजा को सवा लाख रूपए दान में भिजवा दिए। महाराज इसके बाद अमृतसर गये और तुरंत ही अमृतसर के मुख्य जौहरियों को बुलवा भेजा, जिससे यह पता लग सके कि लाहौर के जौहरियों ने कोई गलती तो नहीं की और इस हीरे का असली मूल्य क्या है। उन जौहरियों ने कोहिनूर की ठीक से जांच की और जवाब दिया कि इस बड़े आकार के बेहद खूबसूरत हीरे की कीमत के आगे हर आंकडा़ बौना है। महाराज चाहते थे कि हीरे को कुछ इस शानदार अंदाज और तरतीब से रखा जाए जिसे दुनिया सराहे। वह हीरे को अपनी आंखों से दूर नहीं होने देना चाहते थे। यही वजह थी कि यह काम भी जौहरियों को महाराज की मौजूदगी मे ंही करना पड़ा।

यह काम पूरा हुआ, रणजीत सिंह ने कोहिनूर को अपनी पगड़ी के सामने की तरफ़ लगवाया, हाथी पर सवार हुए और अपने सरदारों ओर सहायकों के साथ शहर के मुख्य मार्ग पर कईं बार-बार आए-गए। कोहिनूर को रणजीत सिहं हर दीवाली, दशहरा और त्योहारों पर बाजूबंद की तरह पहनते थे। उसे हर उस खास व्यक्ति को दिखाया जाता जो दरबार आता था, खासकर दरबार आने वाले हर ब्रिटिश अफसर को। महाराज रणजीत सिंह जब भी मुलतान, पेशावर या किसी जगह दौरे पर जाते, वह अपने साथ कोहिनूर को ले जाते थे।

इसके थोड़े ही दिन बाद महाराजा ने हीरे की कीमत जानने के लिए हीरे के पुराने स्वामियों और उनके परिवारों से दोबारा संपर्क करना शुरू कर दिया। वफा बेगम ने उन्हें बताया - 'अगर कोई बेहद ताकतवर व्यक्ति एक पत्थर को चारों दिशाओं में फेंके और पांचवा पत्थर हवा मे ऊपर की ओर उछाल दिया जाए तो इन सारे पत्थरों के बीच भरे गये सोने-चांदी और जवाहरात का कुल मूल्य भी कोहिनूर की बराबरी नहीं कर सकेगा।'

महाराजा को पूरे जीवन इस बात की चिंता रही कि उनका यह बेशकीमती पत्थर कोई चुरा न ले। 

जब रणजीत सिंह इस हीरे को नहीं पहनते तो उसे गोबिंदगढ़ के अभेद्य किले के राजकोष में बहुत ही तगड़ी सुरक्षा के बीच रखा जता। महाराजा ने बहुत से राज्यों की यात्रा की थी और हर जगह इसे लेकर भी गए थे।

कोहेनूर का वह रखवाला 

महाराजा के अलावा मिश्र बेली राम ही पूरे राज्य में वह दूसरा व्यक्ति था, जिसे कोहेनूर के प्रबंधन के सर्वाधिकार मिले थे। मिश्र बेली राम हमेशा कोहिनूर के मोती जड़े हुए शानदार डिब्बे को अपने हाथों मे ही रखता था। जब महाराज अपने कामकाज या किसी और वजह से राजमहल से दूर होते तो बेली राम ही महाराजा की शानदार और संवेदनशील अमानत का ख्याल रखता .. बेली राम इस दौरान कोहिनूर को एक साधारण से दिखने वाले डिब्बे में रखता था .. इसके साथ ही ठीक वैसे ही डिब्बों में कोहिनूर के शीशे के दो प्रतिरूप भी रखे जाते थे। अगर महाराज का शाही लश्कर कहीं रात्रि प्रवास करता तो तीने बक्से बेली राम के पलंग से जंजीर के जरिए बांधे जाते।

यात्रा के दौरान भी उन्होंने इसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए कई नायाब तरकीबें ईजाद की थीं। यात्रा के दौरान चालीस ऊंट और उन पर एकदम एक तरह के बक्से रखवाए जाते थे। किसी को नहीं पता होता था कि असली कोहिनूर किस बक्से में रखा गया है। यह बात और थी कि आमतौर पर हर समय सुरक्षाकर्मियों के ठीक पीछे वाले यानी पहले ही बक्से में कोहिनूर रखा जाता था, पर इस बात की सख्त गोपनीयता बरती जाती कि कोहिनूर का असली बक्सा किसी को न पता चले।

महाराजा को पहनने या यात्रा में न होने की दशा में कोहिनूर को गोबिंदगढ़ के तोशाखाने में कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता था। कश्मीर से लेकर पंजाब तक महाराजा रंजीत सिंह के राज्य में करीब एक करोड़ तीस लाख लोग रहते थे और वह अपनी प्रजा के बीच बहुत ही लोकप्रिय थे।
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लेख थोड़ा आधा अधूरा सा इसलिए लगा कि आप कोहिनूर जैसे हीरे के बारे में रविवारीय अंक में लिख रहे हैं तो कुछ तो इस के बारे में भी लिखिए कि यह हीरा फिरंगियों तक कब और कैसे पहुंचा ...और आज यह किस के सिर का ताज है...और पीछे कुछ चर्चा हो रही थी ...पता नहीं राजनीति थी कि असलियत थी कि कोहेनूर को वापिस लाने की भी कुछ तिकड़म चल रही है...क्या पता कभी हमारी यह भी हसरत पूरी हो जाए....तब तक अच्छे दिनों से ही काम चला लीजिए।

वैसे हर बंदे की हर दौर की अपनी अपनी सिरदर्दीयां हैं ... मुझे सुबह से यही लग रहा है..

आप इसे देख सकते हैं...  Kohinoor Diamond of India 

 अभी कोहिनूर के नाम से गूगल कर रहा था को १९६० की कोहिनूर हिंदी फिल्म का यह गीत यू-ट्यूब पर दिख गया ...सुनिए अगर पुराने हिंदी फिल्मी गीत आप की पसंद में शुमार हैं...



मन को ना खोल पाना भी सेहत के लिए हानिकारक है ...

अभी महान् कथाकार जसवंत सिंह विरदी और नवतेज सिंह की पंजाबी कहानियां जिन का हिंदी में अनुवाद भी हो चुका है, पढ़ रहा था...बेहद उमदा कहानियां..छोटी छोटी ...६-७ पन्नों की कहानियां...ज़िंदगी से जुड़ी हुईं..किसी भारी भरकम शब्द की वजह से मन उलझ नहीं रहा था...इन महान कथाकारों की कहानियां हमारी स्कूल की किताबों में भी थीं...बहुत कुछ सोचने-समझने पर मजबूर करने वाली बातें...

और हां, एक मित्र ने उस दिन देश की एक बड़ी नामचीन पत्रिका के जून २०१७ अंक में अपनी कहानी छपने की बात बताई थी...ले आया था वह रसाला...लेकिन इतनी भारी भरकम भाषा...इतने कठिन शब्द ...कि मैं दो तीन पन्ने तो पढ़े लेकिन पल्ले कुछ खास पढ़ा नहीं...मैं बीच बीच में यही देख रहा था कि अभी पेंचो कितनी और पड़ी है...बस, चंद मिनटों के बाद नहीं झेल पाया...कठिन भाषा, बड़े बड़े शब्द ...

बचपन में हम लोग कैसे छुट्टियों के दिनों में कॉमिक्स और बाल साहित्य को पढ़ने के लिए आतुर रहते थे ..अगर किराये पर लेकर आते तो देर रात या सुबह जल्दी उठ कर उसे निपटाते क्योंकि किराया भरना होता था भई। लेकिन मित्र की कहानी में वह बात नहीं थी..

उस मित्र ने अपनी फेसबुक पोस्ट में इस बात की सूचना दी थी कि उस की कहानी छप रही है ...उस के नीचे बीसियों टिप्पणीयां ...मेरी भी इच्छा हुई कि एक ईमानदार सी टिप्पणी लिख दूं कि मेरे से पूरी पढ़ी ही नहीं गई....लेकिन हमेशा कि तरह ऐसा करने से रूक गया...

उस दिन एक साथी ने एक बुज़ुर्ग के किसी पंजाबी गीत पर मस्त हो कर झूमने की वीडियो शेयर की...उस बाबे की मस्ती देख कर मन मस्त हो गया और कमैंट कर दिया कि यह तो भई मैं ही हूं आज से २० साल बाद ....कल उसने फिर एक वीडियो शेयर की जिस पर उसने कमैंट लिखा कि मैं भी ऐसा ही कभी जीवन जीना चाहूंगा...उस पर भी मैं कुछ ऐसा लिखना चाहता था जिसे पढ़ कर हंसते हुए पेट में बल पड़ जाते ... और अगर वह मेरे सामने होता तो उसे दो चार धफ्फे मार के अपनी बात कह लेता...ठहाकों ठहाकों में ..मसखरे मौलिये की तरह !

मैंने उस पर चार पांच कमैंट तो किये....लेकिन मुझे पता है कि वे मेरे मन के भाव नहीं प्रगट कर पा रहे थे क्योंकि मैं दिल खोल कर लिखने से डर रहा था ...नहीं लिख पाया जो मैं लिखना चाहता था... दरअसल सोशल मीडिया आमने सामने वार्तालाप करने की जगह कभी भी नहीं लेगा..

जब हम लोग एक दूसरे के सामने बैठ कर गप्पबाज़ी करते हैं ...बिना किसी कारण से ...तो उस दौरान जो आदान-प्रदान होता है वह बेजोड़ होता है ...उस का कोई सानी नहीं...नाराज़गी, खुशी, मनमुटाव का तुरंत हिसाब किताब...पीठ पर धफ्फा मार के, ठहाके मार के, या छोटी मोटी गाली निकाल के ...

और कोई बुरा भी नहीं मनाता ....और जो बुरा मनाने वाला होता है ...वह अपने आप इस टोली से किनारे कर लेता है ...

लेकिन सोशल मीडिया में ऐसा नहीं है ...बहुत बार लगता है कि मैं अपना समय ही बरबाद करता हूं वहां पर .. वैसे तो मैं ज़्यादा समझ किसी वाद-विवाद में उलझता ही नहीं......मेरे में कभी इतनी शक्ति थी ही नहीं कि मैं किसी धर्म, नस्ल या जातिवाद किसी अन्य लफड़े में पड़ूं...न ही रूचि रही कभी ऐसी ( Of course, I do have my own strong personal views, which i prefer to keep to myself or my immediate family!!) ....  फिर भी जब हम लोग आमने सामने होते हैं तो बहुत से बातें कर लेते हैं जिन्हें लिखने में झिझक होती है ...शायद झिझक तो मेरे जैसे बंदे को क्या होनी है, डर को ही मैं झिझक कह रहा हूंगा.. 

आपसी वार्तालाप से हल्केपन का अहसास होता है ....सोशल मीडिया पर इंटलेक्चूएल बने रहने से बोझ बढ़ता है ... ऐसा कैसे हो सकता है कि आप जो कमैंट करें वह पॉलिटिक्ली भी सही है ...किसी को बुरा भी न लगे...सब को अच्छा लगे ..आप की छवि भी चमके....भई, ऐसा काम तो फिर पालिटिक्स वाले ही कर सकते हैं...

इतना घुमा फिरा कर क्यों लिख रहा हूं?.....बात सिर्फ़ इतनी है कि मैं सोशल मीडिया पर अपने आप को पूरी तरह से एक्सप्रेस नहीं कर पाता हूं....किसी की आलोचना नहीं कर पाता ..किसी को बुरा लगेगा...कईं बार चुप्पी साधना भी किसी बात को स्वीकार करने जैसा ही होता है .....

बहुत बार होता है कि कुछ कहने की इच्छा होती है ....लेकिन बीसियों कारणों की वजह से उंगलियों पर ताला लगाना पड़ता है कि बात का बतगंड़ न बन जाए कहीं....ये तो कुछ भी टाइप कर के छूट जायेंगी लेकिन खामियाजा तो मुझे ही भुगतना पड़ेगा.....

ब्लॉग पर अपने आप को एक्सप्रेस करना ज़्यादा आसान है ....लेकिन वहां भी मेरे से कमी तो रह ही जाती है ....मैं उन सब महान लेखकों की कल्पना करते हुए उन के चरणों में नतमस्तक हूं जो बेबाकी से सब कुछ लिख कर छुट्टी करते हैं...स्वयंं भी छूट जाते हैं ... और पाठकों को भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का थोड़ा मज़ा चखा जाते हैं....लेकिन उस के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ....

बस, इस पोस्ट में कुछ कहने को और है नहीं, अपने आप से यही कह रहा हूं कि मन को खोल लिया करो भाई ...कुछ नहीं होगा...इन सब वाट्सएप कंटैक्ट्स और फेसबुकिया मित्रों से क्या पता कभी ज़िंदगी में मिलना भी है कि नहीं, लेकिन यह जो मन की बातें मन में ही दबी रख के (कि किसी को बुरा नहीं लगे) खुल के अपनी बात न कह पाना भी अपनी सेहत के लिए भी हानिकारक है ....जैसे दंगल फिल्म में बच्चियां अपने बापू को सेहत के लिए हानिकारक कहती हैं... 😀😀😀

लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं खुलेपन से सोशल मीडिया पर कभी टहल पाऊंगा....दरअसल कभी किसी को कोई बात बुरी लग जाती है तो आदमी बेकार की बहसबाजी में पड़ जाता है ....and i just hate that! 


बुधवार, 21 जून 2017

जिह्वा के ज़ख्म को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते ...

यह तस्वीर एक ५५-५८ साल के एक बंदे की है ..इस तस्वीर में आप इस की जुबान की दाईं तरफ़ एक ज़ख्म देख सकते हैं...
एक महीना पहले यह मरीज़ अस्पताल में दाखिल है...और फिज़िशियन ने इसी जुबान के अल्सर की वजह से मुझे रेफर किया था...


मुझे देखते ही यह ज़ख्म कुछ अलग सा लगा था.. वैसा नहीं लगा जैसा किसी दांत आदि के चुभने से हो जाता है ...लेकिन इस बंदे की हिस्ट्री थोड़ा अलग सी थी..बता रहा था कि कभी हो जाता है, फिर कभी ठीक भी हो जाता है ...इसे विश्वास था कि यह कुछ दिनों में ठीक हो जायेगा..

मैंने जब पूछा कि कोई दांत तो नहीं इस जगह पर गढ़ता...तो इन्होंने मना किया...

मैंने भी किसी डेंटल कॉलेज के किसी विशेषज्ञ से राय लेना मुनासिब समझा...

वह जाने को राजी नहीं था...बड़ी मुश्किल से समझाया कि चेक-अप बहुत ज़रूरी है .. अगर कोई छोटा मोटा नुक्स है तो जल्दी इलाज हो जायेगा...

अगले दिन मैंने फोन किया कि दिखा कर आए...लेकिन बंदा नाराज़ था कि वहां तो पचास सीखने वाले डाक्टरों ने उसे घेर लिया...और मुझे कहने लगा कि मैं वहां नहीं जाऊंगा..

इस का हठ देख कर मैंने भी कहा कि अच्छा, एक काम करो, आप इसे मुझे पंद्रह दिन के बाद फिर एक बार दिखा कर जाइए...तब तक मैंने इन्हें एक माउथवॉश इस्तेमाल करने के लिए और एक जेल इस ज़ख्म पर लगाने के लिए दे दी ...
कुछ दिन मैं नहीं था ...बाहर था ...

आज सुबह ध्यान आया कि बंदे का पता किया जाए...फोन पर बड़ी खुशी से बताने लगे कि वह ज़ख्म बिल्कुल ठीक है ...मुझे भी खुशी हुई... मैंने कहा कि मुझे दिखा कर जाइए...


कुछ ही समय बाद वह मुझे दिखाने आ गए....आप इस तस्वीर में देख सकते हैं कि ज़ख्म पूरी तरह से ठीक हो चुका है ...
मैं थोड़ा हैरान था कि इस तरह का अल्सर जुबान पर हुआ और अपने आप ठीक भी हो गया..

फिर इस बंदे ने मुझे बताया कि डाक्टर साहब आप के मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरा एक पीछे वाला हिलता हुआ दांत कभी कभी जुबान के इस हिस्से में गढ़ता था...आप तो बाहर गये हुए थे ...बताने लगा कि मैंने एक दिन दो पैग मार के उस दांत को हिला हिला के उखाड़ दिया ... और हंसने लगा ...

मैंने समझाया कि ऐसा करना कईं बार महंगा भी पड़ जाता है ...खतरनाक काम है!

बहरहाल, उसने बताया कि उस के तीन चार दिन के बाद ही यह ज़ख्म ठीक हो गया....दवाई मैं लगाता भी रहा और कुल्ले भी करता रहा ..

मैंने कहा कि यह तो चलो बहुत बढ़िया है लेकिन फिर भी तंबाकू का बिल्कुल भी इस्तेमाल मत करें....यह जो मुंह के किनारे इस तरह से होंठ फटे हुए हैं...एक तरह से यह भी एक खतरे की घंटी है आने वाले समय के लिए..विशेषकर अगर तंबाकू का इस्तेमाल बंद नहीं किया गया तो ..

डाक्टर के पास जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

मुझे निदा फ़ाज़ली साहब के ये अल्फ़ाज़ अकसर याद आते हैं...

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए...
(आदाब- शिष्टाचार) 

इसी तरह से जब हम लोग किसी डाक्टर के पास जाते हैं तो वहां पर भी जाने के आदाब हुआ करते हैं...कम से कम इतना शिष्टाचार तो होना ही चाहिए कि अपने मोबाइल फोन को पैंट की जेब में या महिलाएं अपने हैंड-बैग में डाल लें...यह बहुत ज़रूरी है ...

मैं सब जानता हूं कि बिना मोबाइल हाथ में लिेए भी किसी भी बातें ...कुछ भी रिकार्ड करने की तकनीक है...सब कुछ चल रहा है..लेकिन कुछ जगहों पर हमें विशेष एहतियात बरतनी चाहिए। और डाक्टर का क्लिनिक एक ऐसी जगह है जहां पर आप को अपने मोबाइल को पतलून की जेब में ही ठूंसे रखना चाहिए..

एक बात मैंने अनुभव की है कि जब हम लोग किसी प्राईव्हेट डाक्टर के पास जाते हैं ..हमारी जान निकली होती है ...कुछ तो ताम-झाम ही कईं बार ऐसा मिलता है और कुछ डराने वाली चुप्पी हर तरफ़ ऐसी पसरी होती है कि आप हिम्मत ही नहीं कर पाते कि अपने मोबाइल पर लगे रहें...आप उसे अकसर हाथ में भी नहीं रखते इन जगहों पर ...यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो सकता है...समय बदल रहा है, आप का क्या अनुभव है, आप जानें।

फिर आते हैं..सरकारी डाक्टर ...मैंने ऐसा सुना है कि जो सरकारी डाक्टर अपनी नौकरी के साथ साथ प्राईव्हेट प्रैक्टिस भी करते हैं...उन का भी मरीज़ों की नज़रों में बड़ा दबदबा होता है ...सच में उन से बात करने में भी डरते हैं...होता है...ज़रूर होता है...

लेकिन देखने में आया है कि जो सरकारी डाक्टर थोड़ा ढंग से बात कर लेते हैं तो मरीज़ और उस के अभिभावक भी तरह तरह की लिबर्टी लेना शुरू कर देते हैं...बहुत सी बातों का कोई असर नहीं पड़ता ...घिसते घिसते बहुत सी बातों को नज़रअंदाज़ करना हम सीख लेते हैं..लेकिन कमबख्त एक बात जो सब से ज़्यादा अखरती है कि हमारे चेंबर में मरीज़ हम से बात करते करते अपने मोबाईल पर किसी से बात करने लगे ....फिर किसी और का फोन आए ... फिर उस से गुफ्तगू चलने लगे ...यकीन मानिए किसी भी डाक्टर के लिए यह बड़ा ईरीटेटिंग बात है ....बहुत गुस्सा आता है... बातचीत का लिंक टूट जाता है ...

लेकिन इस से भी इरीटेटिंग बात यह है कि मरीज़ का तो काम चल रहा है और उस के साथ आया उस का फैमिली मैंबर उधऱ पास ही निरंतर फोन पर लगा हुआ है ...वह भी सहना पड़ता है ... विशेषकर सरकारी सेट-अप में ... और मुझे विश्वास है कि प्राईव्हेट प्रैक्टिस में मरीज़ ऐसा नहीं करते ...लेकिन सब से ज़्यादा गुस्सा तब आता है जब उन के साथ आया हुआ उस मरीज़ का बेटा या बेटी अपने फ़ोन पर तो निरंतर लगा ही हुआ है ... और अचानक मरीज़ का कुछ प्रोसिज़र करते हुए जब आप पीछे मुड़ के देखते हैं तो पाते हैं कि उसने तो फोन फोटो खींचने या वीडियो बनाने के लहज़े में पकड़ा हुआ है ...

तब भी अकसर हम से कुछ कहते नहीं बनता......लेकिन मेरी इतनी बात पर यकीं करिए कि बहुत बार इस तरह की इरीटेटिंग बातों से मरीज़ की ट्रीटमैंट प्लानिंग में थोड़ा बदलाव ज़रूर आ जाता है ...यकीनन.... नहीं, नहीं, मरीज़ का कुछ नुकसान तो नहीं होता ... बस, कहीं न कहीं कुछ कमी तो रह ही जाती है जब किसी डाक्टर को लगे कि कोई आप के पीछे बैठा आप का वीडियो बना रहा है ...

बच्चे छोटे हों या बड़ें....आज कल इन को मेनेज करना भी टेढ़ी खीर है ....लेकिन जहां तक हो सके हम बच्चों को कुछ जगहों पर जैसे किसी डाक्टर के पास जाने के क्या एटीकेट्स हैं, सिखा ही दें तो बेहतर होगा .. एक बात और भी है कि मोबाइल के अलावा भी बातचीत में भी ठहराव होना चाहिए....वह तो हर जगह ही ज़रूरी है ...The other day i was just contemplating that the difference between confidence, over-confidence and arrogance is very subtle, but this Life teaches us everything.

एक छोटा सा संकेत दे रहा हूं जाते जाते कि डाक्टर के पास जब आप बैठे हों या आप का कोई सगा-संबंधी बैठा हो तो यही समझिए कि आप किसी कोर्ट में किसी जज के सामने बैठे हैं...आप की बहुत सी बातें नोटिस की जा रही हैं....समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है ...

सब समझते हैं कि हर जगह हर क्षेत्र में बाज़ारवाद है ....कोई अनाड़ी नहीं है .....लेकिन फिर भी डाक्टर, वकील, उस्ताद...को अपनी ऊल-जलूल हरकतों से इरीटेट मत करिए.....इसी में ही मरीज़, मुवक्किल एवं चेले-चपाटे की बेहतरी होती है।

सोमवार, 29 मई 2017

आज गुरू अर्जुन देव जी महाराज का शहीदी पर्व है ..


सुबह उठ कर जब रेडियो ऑन किया तो उस पर पंजाबी गीत पता है कौन सा चल रहा था..तूतक तूतक तूतियां हेज मालो...आ जा तूतां वाले खुह ते ..हेज मालो... मस्ती से भरा गीत है दलेर मेंहदी का ...सो तो है..लेकिन आज के गुरू साहिबान के शहीदी पर्व पर यह गीत बजता देख कर अच्छा नहीं लगा...उसी समय रेडियो बंद कर दिया...

इन गुरूओं पीरों पैगंबरों से जुड़े दिन प्रेरणा दिवस है सारी मानवता के लिए ...मानवता को भूले-बिसरे पाठ याद दिलाने के लिए!!

पिछले साल भी इसी शहीदी पर्व के अवसर पर भी मैंने एक पोस्ट लिखी थी...उसमें भी शायद यही मन के भाव व्यक्त किए थे कि हमें वलियों- पीर-पैगंबरों और उन की याद से जुड़े दिन-दिहाड़ों का ज़्यादा इल्म ही नहीं है ...इसी वजह से हम लोग बार बार भूल कर बैठते हैं ..इन सब भूलों का ज़िक्र मैंने उस पोस्ट में किया था ...उस पोस्ट को देखिएगा....नीचे उस का लिंक दिये दे रहा हूं...उस पोस्ट में आप को गुरू अर्जुन देव जी महाराज के बारे में विस्तृत जानकारी मिल जायेगी....पता होना चाहिए..किस तरह से हम खुली फि़ज़ाओं में अगर सांस ले रहे हैं तो इन सब विभूतियों की वजह से जिन्होंने हंसते हंसते अपनी जां अपने देश-कौम पर न्योछावर कर दी...


आज सुबह मेरी यह किताब पढ़ने की इच्छा हुई ...मेरी मां अकसर यह पढ़ती रहती हैं ...सिखों के दस गुरु और उनका इतिहास ..यह राजा पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है ... आज मैं गुरू जी के बारे में पढ़ रहा था ...

मैंने जिस पोस्ट का नीचे लिंक दिया है उस से आप को पूरी जानकारी मिल जाएगी...जाते जाते सोच रहा हूं इस किताब के कुछ अंश यहां लिख दूं....

गुरू अर्जुन देव जी जब जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुए तो उसने सवाल किया - 'तुमने खसुरो की मदद क्यों की?'
'वह मेरी शरण में आया था' .. गुरू साहब ने स्पष्ट जवाब दिया ..  'उस वक्त मैं उस दरबार का सबसे बड़ा सेवक था, जहां किसी किस्म का भेद-भाव नहीं है। जहां सबकी नि-स्वार्थ मदद की जाती है। यदि मैं खुसरो को शरण न देता तो यह गुरू परंपरा का सरासर अपमान होता।' 

'तुमने एक विद्रोही को शरण दी।' बादशाह अपना फैसला सुनाते हुए बोला...'तुम पर दो लाख रुपये का जुर्माना किया जाता है।' 

'मैंने कोई गलत कार्य नहीं किया। गुरु के दरबार में एक विद्रोही का भी वही सम्मान होता है जो एक बादशाह का होता है।' गुरू साहब कहने लगे ...'वहां किसी भी तरह का भेद-भाव नहीं होता. जब मैंने कोई गलत कार्य किया ही नहीं तो जुर्माना कैसा? मैं जुर्माना भरने से इंकार करता हूं। जुर्माना भरने का सीधा-सा अर्थ यह होगा कि मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं. यह नहीं होगा।' 

बादशाह ने उन्हें मृत्यु दंड की सजा सुना दी। सुनकर गुरू साहब हंस पड़े और बोले --'बादशाह! तू मेरे शरीर को मार सकता है, लेकिन मुझे नहीं। मैं फिर जन्म लूंगा और फिर सिख धर्म की सेवा करूंगा।'

पहले तो जहांगीर ने गुरू साहब को तरह तरह की यातनाएं देकर उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए विवश किया। जब गुरु साहब उसकी किसी यातना के सामने नहीं झुके तो उसने उन्हें तड़पा-तड़पाकर मार डालने का आदेश दे दिया। 

दिनांक ३० मई १६०६ को रावी नदी के किनारे एक लोहे की चादर को तपती हुई भट्ठी के ऊपर रखकर लाल किया गया। उस पर गुरू साहब को लिटा कर उन पर गरमा-गर्म रेत डाली गई। इतने अत्याचारों के होते भी गुरू साहब व्याकुल नहीं हुए। उन्होंने हंसते-हंसते आत्म-बलिदान तथा सत्य की रक्षा की। शहीद होते समय गुरू साहब ने परमात्मा को याद करते हुए कहा था .. 'हे करुणामय ईश्वर! मुझे आप जहां भी बिठाओगे, वही स्थान मेरे लिए स्वर्ग है।'

यह पोस्ट भी अगर आप देखना चाहें जिसे मैंने एक साल पहले लिखा था.. शहीदों के सरताज- गुरू अर्जुन देव जी (आप इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं) 

रविवार, 28 मई 2017

इंडियन टॉयलेट की वजह से गौरवान्वित?


कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब हिन्दुस्तान अखबार के संपादकीय पन्ने पर प्रियंका भारती के बारे में एक लेख छपा था ...बड़ी हिम्मत दिखाई सच में इस नवविवाहित महिला ने ...जिसने ससुराल जाने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उन के यहां शौचालय नहीं था...बाकी की कहानी तो आप को विद्या बालन ने ऊपर वाले यू-ट्यूब वीडियो में सुना ही दी है ..

अच्छा लगता है जब इस तरह के अभियान चलते हैं...आज का पेपर भी यह मासिक धर्म पर मुंह बंद रखने वाली रूढ़ियों को ध्वस्त कर रहा था ....अच्छा लगा यह भी पढ़ कर कि किस तरह से लोग ईन्नोवेटिव तरीके ईजाद कर रहे हैं...एक जगह के बारे में लिखा था कि जब वहां पर महिलाओं ने सेनेटरी पैड्स इ्स्तेमाल करना शुरू किया तो पालतू जानवरों की वजह से सारा कचड़ा सड़कों पर बिखरने लगा ... लोग आपत्ति करने लगे ...फिर अब वहां किशोरी मटका इस्तेमाल होता है ...जिस में इन सेनेटरी निप्किन्स का डिस्पोज़ल कर दिया जाता है ..वहीं पर गांव में यह बना दी गई है अंगीठी जैसी कोई चीज़..बाद में इन के सूखने पर इन को आग लगा दी जाती है .. 

किसी पॉश ऑफिस के बारे में लिखा था कि वहां पर महिलाओं के लिए टॉयलेट में सैनेटरी पैड्स की वैंडिंग मशीन लगेगी या शायद लग चुकी है ... और इन के उचित डिस्पोज़ल के लिए भी एक मशीन होगी ...

अच्छा लगता है इस तरह की खबरों को पढ़ कर जब कुछ भी समाज में कोई पॉज़िटिव पहल करता है ... बात वही है ... सूरत बदलनी चाहिए...हालात बदलने चाहिए... पिछले कुछ अरसे से अच्छा काम हो रहा है किशोरियों एवं महिलाओं को उन के मासिक धर्म रख-रखाब के बारे में जागरूक करने का ...होना भी चाहिए..मंगल ग्रह पर फ्लेट की बुकिंग अगर  हो सकती है तो पहले यह सब ज़रूरी मुद्दे भी सुलटा लिए जाएं...जिस की वजह से देश में महिलाओं को बीमारियों से परेशान रहना पड़ता है .. 

अभी मुझे एक वाट्सएप मैसेज आया कि दुनिया में १५० देश हैं..लेकिन टायलेट का आर्किटेक्चर दो ही तरह का है ..इंडियन स्टाईल और वेस्टर्न स्टाईल ... इसलिए हमें भारतीय होने पर गर्व है ...

मैं यह तो मन बना नहीं पाया कि इस तथ्य की वजह से मुझे गर्व होना चाहिए कि नहीं.....लेकिन मेरे दिमाग की फिर्की बस बात पर चल निकली कि ऐसे कैसे दो ही श्रेणीयां, इस की तो बहुत सी किस्में हैं....चलिए इस की क्लासीफिकेशन करते हैं...
इंडियन स्टाईल की श्रेणियां इस तरह की हो सकती है ...

१. ओपन एयर स्टाईल .... 

   क) लोटे सहित ... इस के अंतर्गत लोटे या बिसलेरी की बोतल का साथ रहता है ..हां, दातून तो साथ में होती ही है। 

   ख) बिना लोटे वाली श्रेणी...इस के बारे में मेरे को ताज़ा जानकारी नहीं है, लेकिन मैं इतना कह सकता हूं कि मेरी जानकारी के अनुसार इस के बिना भी काम चलाया जाता रहा है ...आप तो गहरी सोच में पड़ गए?...इतना भी सुस्पेंस नहीं है ....एक तो विकल्प होता है अभी भी गांव के छप्पड़ का (छप्पड़ का मतलब गांव का तालाब जहां हमेशा पानी इक्ट्ठा रहता है) ...और अगर वह नहीं है तो वीरान जंगलों आदि में सोचिए किस चीज़ का विकल्प बचता है?....जी हां, आपने बिल्कुल सही सोचा ...छोटे पत्थर या ईंट के टुकड़े। 

ओपन एयर स्टाईल (क्या कहते हैं इसे... जंगल पानी!) इतना पापुलर है कईं जगहों पर कि लोगों को घर में बनी टॉयलेट रास नहीं आती, कमबख्त हाजत ही नहीं होती तीन तीन बीड़ी मारने के बाद भी ....बस, बाहर ठंड़ी हवा में जाकर ही पेट साफ़ हो पाता है! अमिताभ बच्चन और बहुत से लोग इस बीमारी का इलाज करने में लगे तो हुए हैं...देखते हैं कब तक ये सब चल पाता है!

 अरे यार, वह कार्टून याद आ गया... एक बंदा रेल की लाइन पर बैठ कर पेट की सफ़ाई कर रहा है ..साथ में फोन पर संबंधित अधिकारी को फोन पर कह रहा है कि देखिए...अभी राजधानी को पांच मिनट के बाद स्टेशन से छोडिएगा....यहां पर लाइन पर डिजिटल इंडिया का काम चल रहा है... इससे ध्यान आया कि एक श्रेणी आप चाहें तो यह भी मान लीजिए जिन्हें रेलवे की लाइन पर या इस के दस-बीस गज की हद में ही हाजत होती है..

२. वेस्टर्न कमोड 

जी हां, आज से कुछ पच्चीस तीस पहले यह एक स्टेट्स सिंबल के तौर पर उभर कर सामने आया...लेकिन यहां भी भ्रांतियों ने पीछा नहीं छोड़ा ...हड़्डी के डाक्टर कहें कि इस तरह की विलायती सीट पर ही बैठिए लेकिन लोगों के पेट वहां भी न साफ होते ... अनेकों बाते ंसुनने को मिलीं...चुटकुले भी ..रिसर्च ेपेपर ही क्या, एक किताब लिखी जा सकती है इस विषय पर .. 
क) जेट सहित 
ख) जेट के बिना 
ग) टॉयलेट पेपर की सुविधा सहित 
घ) मग्गे की सुविधा सहित 
ड) टॉयलेट शावर की सुविधा सहित (बेहतर नियंत्रण हेतु) 

टॉयलेट पेपर से याद आई एक बात कि कुछ अरसा पहले  एक उच्च सरकारी अधिकारी की पत्नी ने किसी जूनियर अफसर को टायलेट पेपर के रोल भिजवाने के लिए कह कर एक बड़ा पंगा ले लिया....जो हम लोगों को मीडिया से पता चला .. बात का बतगंड बन गया ..और साहब को आखिर सफ़ाई भी देनी पड़ी कि हम लोग टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल करते ही नहीं.. देखिए, आप कोई भी बात छोटी नहीं होती, कभी भी राई का पहाड़ बन जाता है...संभल कर रहिए! 

मैं भी किस क्लासीफिकेशन के चक्कर में पड़ गया ...सीधी सी बात है कि अगर आप किसी पब्लिक प्लेस पर हैं और अगर आप को खुदा-न-करे टॉयलेट यूज़ करने की ज़रूरत आन पडे़, और अगर आप को यह बंद नहीं मिले तो आप सही मायनों में खुशकिस्मत हैं , और अगर खुला हो और चिटकनी भी हो तो समझिए आप की तो हो गई बल्ले बल्ले....समझ लीजिए आप ने आधी जंग जीत ली .. उस के बाद आप देखते हैं कि नल चालू है कि नहीं, अकसर यह चालू हालत में नहीं होता ... या मरियल सा चल रहा होगा ...जिस के मुताबिक आप मन ही मन कुछ स्ट्रेटेजिक प्लॉनिंग कर लेते हैं....और सब से नीचे हमारी प्रायर्टी में होता है फ्लश का चलना ..अगर टॉयलेट साफ मिला है तो हमें लगता है कि मेरा तो काम हो गया, ठीक है ...बाद में आने वाले की अपनी किस्मत ...कोई किसी के हाथ की लकीरें थोड़े न बदल सकता है ..... 

कुछ कुछ गाडि़यों में इतने सारे विकल्प रहते हैं ...ऊपरी श्रेणियों में ... कि आदमी असमंजस में पड़ जाता है कि किस सुविधा का इ्स्तेमाल करें और किस को बस ट्राई कर के अपना सामान्य ज्ञान थोड़ा बढ़ा लें....कईं बार ट्रेन में स्टील के लोटे को लोहे की जंजीर से बंधे देख कर झुंझलाहट तो होती है ..फिर वही वाट्सएप वाला चुटकुला याद कर मन हल्का हो जाता है ...

चुटकुला यह है जनाब .... किसी बंदे ने इसी जंजीर से बंधे हुए लोटे की शिकायत संबंधित अधिकारी को कर दी ...कि जंजीर बंधी होती है .. दिक्कत होती है ....और ऊपर से जंजीर भी छोटी ..परेशानी का सबब है इस तरह की जंजीर.....ऑफिस से जवाब आया.... महोदय, लोटा बंधा हुआ है ...आप तो नहीं! 

देखिए, कितना बढ़िया समाधान घर बैठे ही बता दिया गया.. 

और हां, एक बात और ...बात से बात निकलती है ...उस ख़त का ध्यान आ गया जिस की वजह से रेलवे के डिब्बों में टॉयलेट बनवाने शुरू किए गये...एक बंदे ने रेलवे प्रशासन को यह पत्र लिख भेजा .. आप ने पहले ज़रूर कहीं पढ़ा होगा... 


 ग) मिक्सड़ श्रेणी... 

यह एक चलताऊ काम है ..जब इंडियन स्टाईल पर स्टूल रख कर कुछ लोग बीमारी या किसी शारीरिक तकलीफ़ की वजह से पांच दस मिनट के लिए वेस्टर्न कमोड़ में बदल लेते हैं ....इन से कोई शिकायत नहीं भाई....इनसे पूरी सहानुभूति है ...इन की दिक्कत की वजह से ..

लेकिन यह जो दूसरी क्लास है न जो वेस्टर्न कमोड़ पर इंडियन पद्धति का लुत्फ़ उठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ....यह कृत्तिम बुद्धिजीवि क्लास है ... इस से संबंधित कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाए...क्योंकि सर्वे में लोगों ने इस का जवाब नहीं दिया 😃😄  ...लेकिन इतना पता चला है कि कुछ लोग वेस्टर्न कमोड़ पर लगी गंदगी की वजह से और बीमारियों से बचने हुए सूट-बूट समेट इस पर विराजमान हो जाते हैं और फिर एक मिनट में ही चलती गाड़ी में गिर कर कम से कम हाथ पांव टुड़वाने के डर से आसन से नीचे उतर जाते हैं....अकसर ये ना इधर के रहते हैं न उधर के ....प्रोसेस बीच में आधी अधूरी छूट जाती है, सो अलग..

आप सोच रहे होंगे कि तुम इस मिक्सड़ श्रेणी के बारे में इतने विश्वास से यह कैसे लिख रहे हैं....जवाब सीधा है कि मैंने भी कभी न कभी बचपन में इसे ट्राई तो किया ही होगा....नहीं, किया होगा नहीं, मैं ब्लॉग में कभी झूठ नहीं बोलता.. फर्स्ट हैंड एक्सपियेंस है भाई.. खुश?.....मेरे मुंह से सच्चाई उगलवा के .. 

बस, अब बंद करूं ....उस विज्ञापन का ध्यान आ रहा है  जिस में एक आदमी अपने बेटे से पूछता है कि कौन सा टीवी लाएं....बेटा भी एक नंबरी ...बापू को कहता है कि आप ले लाओ कोई भी ... आपने कौन सा देखना है..!!
बापू कहता है कि यह क्या बात हुई ..टीवी खरीदूंगा लेकिन देखूंगा नहीं?...तब उस का लौंडा उस की आंखे खोलता है कि टॉयलेट बनवा तो ली है घर में, कभी गये हो उसमें?

आइए ... भारत के स्वच्छता अभियान मिशन को सफल बनानें में सहयोग करें...ध्यान आ रहा है सुलभ शौचालय का जिन को देखते ही कितना सुकून मिल जाता है कि अगर ज़रूरत पड़ेगी तो ये हैं ना......आशा है आप कम से कम इस बात पर तो मेरे से सहमत होंगे ही !!

बुधवार, 24 मई 2017

ब्रांडेड दातुन करिए जनाब ....मां प्रकृति का सान्निध्य

 सोना खरीद रहे हो यार!

हर पुराने शहरों के उन बाज़ारों में से उन तीन चार दातुन बेचने वालों के दिन भी बस समझिए लदने वाले हैं...कर ली उन्होंने जितनी कमाई करनी थी..अब उन्हें भी लगता है भरण-पोषण के दूसरे रास्ते तलाशने होंगे...

 हिन्दुस्तान २४ मई २०१७ 

इससे पहले कि खबर बासी हो जाए..वैसे भी गर्मी का मौसम है ...सोचा कि यह ब्रांडेड नीम की दातुन वाली खबर सब से पहले सब से तेज़ी से अपने ब्लॉग पर ही क्यों ना सहेज लूं!

ध्यान टीना मुनीम का भी आया...एक जमाने में लोकल गाड़ी में दातून बेचने वाले गीत गाये थे उसने ...अब यह सब ब्रांडेड होने वाला है तो क्या पता आने वाले समय में उन की कंपनी भी ये दातून विश्व स्तर पर बेचने लगे...


अभी लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले इंटरनेट पर भी देखा था कि नीम की दातून पैकिंग में बिक रही हैं...खासी महंगी ...शायद इन दातूनों को ब्रांडेड रूप में बेचने का आईडिया भी यहीं से आया होगा..

दातुन के बारे में लोग मेरे से पूछते हैं तो मैं कहता हूं कि हां, यह दांतों और मसूड़ों की सेहत के लिए बहुत उमदा तो है ही बेशक ..और यह सैंकड़ों --शायद हज़ारों ...(मेरा हिसाब-किताब और हिस्ट्री बेहद कमज़ोर है) सालों से चलन में है ..ज़ाहिर है मेरी आधुनिक पढ़ाई लिखाई ने मुझे टुथपेस्ट का ही महिमा-मंडन सिखाया है ..लेेकिन मैं इतना जानता हूं कि हमारे खान पान की बदली हुई आदतों की वजह से हमें दातून के अलावा दूसरे रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं... लेेकिन एक बात ज़रूर मानने वाली है कि जो लोग दातून करते भी हैं, वे दांतों को उस से इतनी बेरहमी से कूचते हैं कि दांत ही घिसा डालते हैं....एहतियात बरतिए... अपने दंत चिकित्सक से इस के बारे में चर्चा करिएगा...

प्रकृति की बात चली है तो मेरे विचार में आज इस पोस्ट में प्रकृति की ही कुछ तस्वीरें लगा दूं..

प्रकृति की छटा निराली है ...हर व्यक्ति अपने हिसाब से इस से सबक सीखता है ....आप इन सब तस्वीरों को देखिए ...अगर आप ध्यान से देखिएगा तो हर तस्वीर में प्रकृति के राज़, उस की मानवता के लिए सीख छिपी पड़ी है ....क्या हुआ?....कुछ ज़्यादा भारी भरकम बातें हो गईं! .. चलिए, भूल जाइए इन बातों को भी, बस आप ये तस्वीरें देखिए मजे से ...












अच्छा, वैसे तो यह एक निबंध का विषय है कि नैसर्गिक नज़ारे हमें क्या क्या सिखाते हैं...लेकिन मैं तो चंद लफ़्जों में ही इसे कहना चाहूंगा कि ये हमें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, प्रेम-करूणा, सहनशीलता, ठहराव, स्थिरता, मूक दर्शक, हमेशा खिले हुए रहना ..खुशियां बांटना, पल पल को जीने का सबक सिखाते हैं....अभी तो इतने ही भारी भरकम शब्द ही ध्यान में आए....आप भी कभी लिखियेगा ब्लॉग के कमैंट्स बॉक्स में जाकर कि आप को प्रकृति के नज़ारों से क्या सीख मिलती है ... और हां, एक बात और याद आ गई ...कभी मेरा अहम् जब मेरे ऊपर हावी होने लगे और मैं प्रकृति की गोद में जाऊं तो मुझे अपने तुच्छ होने का (तुच्छ भी बहुत बड़ा शब्द लग रहा है ....क्या कुछ तुच्छतम् जैसा शब्द भी होता है ...धूल का कोई कण जैसा!) अहसास होता है जो बहुत सुकून देता है ..


चलिए, बहुत उड़ने के बाद धरातल पर आ जाते हैं...और यह देखते हैं कि सरकारी दफ्तरों में भी इस तरह की वारदातें होने लगी हैं...मुझे याद है कुछ अरसा पहले यहां रेलवे के डीआरएम दफ्तर के प्रांगण में जब दो ठेकेदारों के बीच गोलियां चली थीं तो बड़ा हंगामा हो गया था ..लेकिन यहां पर किसी कर्मचारी को अगवा करने की घटना हो गई कल ....बाबू अच्छा था या बुरा, यह तय करना कोर्ट का काम है.....लेेकिन इस घटना की जितनी निंदा हो सके होनी चाहिए...प्रजातंत्र के लिए खतरा हैं ऐसी घटनाएं....Let's nip the evil in the bud!


 सुबह सुबह बेटे ने भी एक अच्छी बात शेयर की है ...यहां लगाये दे रहा हूं...

मैं भी इस बात से इत्तेफ़ाक रखता हूं... 

चलिए, ज़्यादा मत सोचिए, सेहत के लिए ठीक नहीं होता, यह गीत सुन कर मूड ठीक करिए और सुबह के लिए अपने अपने को तैयार कीजिए....सुप्रभात ..


सोमवार, 22 मई 2017

फोन रिकार्डिंग पिछली बार कब की थी ?

उस दिन जैसे ही उसने मुझे कहा कि वह ऐसे कैसे मुकर सकता है अपनी बात से ...मेरे फोन में रिकार्डिंग है मैं उसे सुना सकता हूं...

बरकत के ये शब्द सुनते ही मेरे मन में जो उस के बारे में इंप्रेशन था, उस पर बुरी तरह से आंच आ गई...

एक दिन मैंने शेरू को भी सुना कि वह फोन की रिकार्डिंग सुन रहा था ...मैंने कुछ कहा नहीं, लेकिन मुझे बहुत ही ज़्यादा बुरा लगा.. 

कईं साल पहले एक परिचित था जो बॉस की बातों को टेप किया करता था ...उसे वह अपने साथियों को सुनाता और उन की बातें टेप कर फिर बॉस को सुनाता...एक-दो बार में पता चल गया, विश्वास ही नहीं हुआ...लेकिन इन बातों में कोई सबूत नहीं मांगता ...बस, उस बंदे की क्रेडिबिलिटि इतनी नीचे चली गई कि उस के साथ बात करने से ही हिचकिचाहट होने लगी...

अभी कुछ समय पहले की ही बात है कि एक उच्च अधिकारी जब मेरे पास ओपिनियन के लिया अपने सारे डैंटल रिकार्ड लेकर आया तो पूछने लगा कि मैं आप की बात को टेप कर लूं....मुझे उस दिन भी बहुत अजीब लगा... लेकिन मैंने मना नहीं किया...हां, बातें ज़रूर मैं सोच सोच कर करता रहा..

उस अधिकारी को मैंने मना बस इसीलिए नहीं किया कि यह तो मेरे से पूछ रहा है ..वैसे भी हम लोग इतने लोगों से मिलते हैं कौन बात रिकार्ड कर रहा है, कौन वीडियो बना रहा है ...पता ही नहीं चलता....यकीन मानिए, यह एक बहुत बड़ी समस्या है ... मरीज़ के साथ आने वाले फोन पर लगे रहते हैं...फोटो भी खींचते हैं...फोन पर बातचीत भी चलती रहती है ... बस, बेतकल्लुफ़ी का यह आलम अब देखा नहीं जाता!

बस इसीलिए क्यों कि इस सब से डिस्ट्रेकशन तो होती ही है...

हां, तो बात चल रही थी फोन रिकार्डिंग की ...मेरे विचार में यह बहुत ही घटिया आदत है ...बिल्कुल पीठ पर वार करने जैसा ... यह उन लोगों का हथियार है जिन लोगों ने ऐसे स्टिंग आप्रेशन के जरिये अपने विरोधियों का मलियामेट करना होता है ... 

पढ़े लिखों को यह सब शोभा नहीं देता....सब से बड़ा खतरा यही होता है कि जैसे ही किसी दूसरे को पता चलता है कि यह तो इस तरह के पंगे भी करता है, लोग उस से किनारा करना शुरू कर देते हैं..

आज के दौर में इस से ज़्यादा विश्वासघात क्या होगा कि कोई हम से अपने दिल की बातें कर रहा है और हम विलेन वाली हरकतें करने में मसरूफ़ हैं....घोर निंदनीय... 

दरअसल मुझे ऐसा लगता है कि हमें मोबाइल फोन के एटिकेट्स भी नहीं हैं... We always flaunt our pricy mobiles...किसी को भी मिलने जा रहे हैं तो क्यों नहीं हम लोग अपना मोबाइल किसी पाउच में, पतलून की जेब में या लेडीज़ अपने पर्स में क्यों नहीं रख लेतीं... अगर हम इस तरह के टेपिंग वेपिंग के लफड़े में नहीं हैं तो हमें वैसा दिखना भी चाहिए...बस, कोशिश करिए किसी से मिलते वक्त वह शर्ट की जेब में न हो, हाथ में न हो...उसे बार बार छेड़ें नहीं, दूसरों को लगता है कि यह कुछ टेप ही कर रहा होगा....

मेरी सब को नसीहत यही रहती है कि कभी भी किसी की बात टेप मत किया करें....जितने लोगों को आप उसे सुनाएंगे, उतने लोगों की नज़रों से आप गिरते चले जायेंगे। आप का क्या ख्याल है?

लेकिन एहतियात यह भी रखनी ज़रूरी है कि कभी न कभी तो हमारी बातें टेप होती ही होंगी...अच्छा, एक बात और भी है कि आप की 6th sense बता ही देती है कि कौन सा बंदा इन सब चक्करों में है। एक बार इस तरह की भनक भी लग जाए तो मैं तो उस बंदे से फोन पर बातचीत करते वक्त नार्मल नहीं हो पाता...यार, बंदा किसी को कितने विश्वास में लेकर उससे ऐसी वैसी, जैसी तैसी, कैसी भी बात कर लेता है ...और उस की ऐसी टेपिंग-वेपिंग वाली घटिया हरकत का कभी पता चले तो ... 

हां, तो पोस्ट के शीर्षक में एक प्रश्न है ...जवाब तो देना ही होगा मुझे भी ....जी हां, मैंने भी एक बार यह घृणित काम किया था  ...शायद २००८  के आसपास की बात होगी... नया नया पता चला था कि फोन पर बात रिकार्ड हो जाती है ...तो मैंने भी एक दो मिनट की बातचीत रिकार्ड करी थी...लेकिन शाम को सुनते ही अपने आप से पूछा कि तेरे को इन सब की कब से ज़रूरत पड़ने लगी ....उसी समय डिलीट मारा ......और उस दिन के बाद कईं फोन बदले हैं... लेकिन कभी यह जानने तक की कोशिश नहीं की ...कि इस फोन रिकार्डिंग के फीचर को कैसे एक्टिवेट करना है .....अभी भी जो Nexus 6 इस्तेमाल कर रहा हूं, मुझे नहीं पता इस में फोन को कैसे रिकार्ड करते हैं... और किसी के साथ व्यक्तिगत बातचीत करते वक्त भी मैंने कभी रिकार्डिंग नहीं की ... ये सब बातें बड़ी बेकूफ़ाना लगती हैं... और एक बात, जब भी किसी से मिलने जाता हूं अपने मोबाइल को पतलून की जेब में ठूंस के रखता हूं....मेरी भी यही हसरत है कि जो लोग मुझ से मुलाकात करने आएं वे भी अपने मोबाइल मेरी तरफ़ प्वाईंट न कर के रखें....मैं असहज हो जाता हूं...... Inspite of all this, I stand by my words! ....जो बात मुंह से निकाल दी तो उस से मुकरना भी क्यों, अंजाम कुछ भी हो!!

 Having said all this, let's admit that we are living in times of mutual mistrust......God bless all of us!

अभी बिजली गुल थी ..मेरे एफएम रेडियो पर यह गोपाल दास नीरज जी का लिखा हुआ मेरा पसंदीदा गीत बज रहा था .. .यहां पर भी देख कर चलने की ही बात हो रही है...देख भाई ज़रा देख के चलो... 


रविवार, 21 मई 2017

२१ मई २०१७ (रविवार)

क्या शीर्षक दें यार रोज़ रोज़ अपनी पोस्ट को ...अपनी डायरी में लिख रहे हैं...मेरे विचार में जब मन चाहे बस तारीख लिख कर छुट्टी करनी चाहिए जैसा कि मैंने आज किया है।

इसलिए बत्ती गुल है ... अभी थोड़े समय पहले टाटास्काई के चैनल ८१६ पर सोनी मिक्स प्रोग्राम देख रहा था .. उस चैनल पर पुराने फिल्मी गीत इस समय रात में ९ से ११ बजे तक दिखाते हैं ..क्या बढ़िया सा नाम है उस कार्यक्रम का ..हां, रैना बीती जाए!!

अभी मैने उस पर तीन फिल्मी गीत सुने ...बेहतरीन एक दम ...अपने स्कूल के दिन याद आ गये .. जब ये गाने सुबह शाम रेडियो पर बजते रहते थे ...मैं इन तीनों गीतों को यहां एम्बेड करूंगा अभी पोस्ट पूरी करने से पहले।


पहला गीत सुना .. राम की लीला रंग लाई, शाम ने बंसरी बजाई...दिलीप कुमार साब पर फिल्माया गया है यह गीत ...कितनी तारीफ़ करें उन की और इस गीत की भी ..पिछले चालीस सालों में कम के कम सैंकड़ों बार यह गीत कानों में रस घोल चुका है ..फिर भी मन नहीं भरता...

उस के बाद आया लैला मजनूं का वह गीत ...कोई पत्थर से ना मारो ..मेरे दीवाने को ..जब १९७७ में नवीं कक्षा में पढ़ते हुए अमृतसर के ऐनम थियेटर में जाड़े के मौसम में यह फिल्म देखी थी..ठीक चालीस साल पहले ...उस समय कहां इन गीतों के अल्फ़ाज़ की तरफ़ ध्यान ही जाता है ज़्यादा ...लेेकिन जब इत्मीनान से सुनते हैं कईं सालों बाद तो शायर की दाद दिए बिना कैसे रह सकते हैं !



शब्दों के जादू की बात शुरू हुई है तो दाग फिल्म का गीत वह गाना याद आ गया...जब भी जी चाहे नईं दुनिया बसा लेते हैं लोग... साहिर लुधियानवी साहब के बोल हैं और यशराज बैनर तले १९७३ में बनी यह बेहतरीन फिल्म ...शर्मीला जी के ऊपर फिल्माया गया यह गीत ..



टीवी में आजकल देखने को कुछ ज़्यादा होता नहीं है ...कितने पागल बनते रहेंगे वही मिश्रा और केजरीवाल के पचड़ों के बारे में सुन सुन कर ...कमबख्त सिर दुःख गया है ...फिर ईवीएम मशीनों ने भी आंखें दुखा दी है ं...इस विषय का मैं जानकार नहीं हूं...n

सोच रहा हूं बंद करूं यह पोस्ट लिखना ...इच्छा सी नहीं हो रही..सोच रहा हूं जैसे इच्छा नहीं होने पर अपनी डॉयरी को बंद कर के मेज पर दूर सरका दिया जाता है, इस पोस्ट को भी ठेल कर आराम करूं...

लेकिन सोने से पहले इतना तो यहां दर्ज कर लूं कि आज टीवी पर दंगल फिल्म देखी ..यह मैंने पहले नहीं देखी थी...जितनी तारीफ़ की जाए कम है ...ऐसी फिल्में देख कर यह भी पता चलता है कि फिल्में बनाने के लिए कितनी मेहनत लगती है ...आमीर खान के बारे में तो मशहूर है कि वे दो साल में एक फिल्म बनाते हैं और ये होती हैं यादगार फिल्में ...सच में ..तारे ज़मीं पर ....थ्री-इडिटएस और अब दंगल ऐसी फिल्में हैं जिन्हें बच्चों को एक साथ स्कूलों के प्रेक्षागृहों में दिखाया जाना चाहिए...(मैं ब्लॉग में भयंकर शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज करता हूं ..इसलिए प्रेक्षागृहों का मतलब भी लिख दूं...ऑडीटोरियम )...ये पहले वाली दोनों फिल्में ऐसी हैं जिन्हें कईं बार बच्चों के पेरेन्ट्स को देखने के लिए कह देता हूं ...अब दंगल देखने की भी सिफारिश किया करूंगा...

बेहद इमानदारी से किया गया रोल ...और आमिर फिल्म के बाद एक कार्यक्रम में बता रहे थे कि उस हरियाणवी भाषा का एक्सेंट सीखने के लिए उन्हें पूरे छः महीने लग गये....ज़ाहिर है जितनी तपस्या ये लोग करते हैं, फिल्म भी जनमानस के दिलो-दिमाग को उद्वेलित भी उसी अनुपात में ही करती है ....हम लोग कह देते हैं कि इसे इतने सौ करोड़ की कमाई हुई ...उसे इतने की हुई.....इस तरह की साफ़-सुथरी फिल्में देख कर यह पता चल जाता है कि ये सब लोग इस के हकदार हैं!!

पता नहीं ..उमस भरी गर्मी की वजह से या फिर क्यों, आज इस पोस्ट को लिखते हुए बड़ी बोरियत महसूस हुई ...होता है यह भी कभी कभी ...होना भी चाहिए!!

मंगलवार, 16 मई 2017

कभी किसान की भी सुध लीजिए...

सब्जी मंडी में सब्जियां बिकती देख कर मेरा ध्यान अकसर किसान की तरफ़ चला जाता है ..

उस का कारण यही है कि कईं बार जब सब्जियां और फल इतने सस्ते बिक रहे होते हैं कि बार बार ध्यान यही आता है कि किसान इस से क्या कमा लेता होगा!

यह तस्वीर जो मैं लखनऊ के देशी खरबूजों की यहां लगा रहा हूं...(जैसा मुझे उस रेहड़ी वाले ने कहा कि ये देशी हैं!) ...क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि इन सब का कितना दाम होगा? इस का जवाब है ..मात्र पांच रूपया...ये पांच रूपया किलो में बिक रहे हैं आज कल लखनऊ के बाज़ारों में ..कहीं इत्मीनान भी होता है कि निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग की पहुंच तक तो हैं....लेकिन किसान की कौन सोचता है कि उस ने क्या कमाया-खाया इस तरह की खेती से!

यदा कदा किसानों की खुदकुशी की खबरें आती हैं...हम लोग पढ़ लेते हैं जल्दी में कभी कभी..वरन हैडलाइन पढ़ना ही काफ़ी मान लेते हैं.. फिर अखबारों और टीवी की ऐसी चर्चाओं में भारी भरकम बुद्धिजीवियों (एक तो मेरे जैसे भारी भरकम और ऊपर से बुद्धिजीवि ...killer combination!) को डिनर के समय़ झेल लेते हैं.. बात आई गई हो जाती है!


 साहिब नज़र रखना..मौला नज़र रखना..

जंतर मंतर पर तमिल नाडू के किसान कितने समय तक धरना पर रहे ...बस, यह हमारे लिए एक खबर है ...टीवी के लिए टीआरपी बढ़ाने का जुगाड़ ...असल में किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ...अपने घर से चंद घंटे के लिए ही हम लोगों को बाहर रहना पड़े तो हमारी क्या हालत हो जाती है ...और ये लोग आए दिन अपनी वाजिब मांगों के लिए गुहार लगाते रहते हैं ...और थक हार कर लौट जाते हैं...(मेरा अल्प ज्ञान देखिए कि मुझे यह भी नहीं पता कि वे अभी भी दिल्ली में ही हैं या वहां से लौट गये है ं...बस मौसम की वजह से एक अनुमान ज़रूर लगा पा रहा हूं को लौट ही गये होंगे!!)

एक बात और भी है ना कि यह खरबूजों का ही हाल नही ंहै ....कभी कभी टमाटर १० रूपये किलो बिकते हैं...बढ़िया टमाटर ...और आम का भी यहां लखनऊ में आने वाले दिनों में यही हाल हो जाता है ...१०-१५ रूपये किलो बिकने लगते हैं...बहुत सी सब्जियां हैं जिन का यही हाल होता है ....

अकसर आप मीडिया में देखते-पढ़ते भी होंगे कि किसानों ने अपनी सब्जियों की पैदावार को सड़कों पर फैंक दिया...उन्हें लगा कि इतना सस्ता बेचने से अच्छा है कि यही काम कर दिया जाए..

हेल्थ-इकनोमिक्स विषय का अध्ययन किया था १९९१ में...तब इकनोमिक्स के बारे में भी अधकचरी सी जानकारी हुई थी कि किस तरह से मार्कीट शक्तियां ही किसी भी सामान का दाम तय करती हैं....और वैसे भी ऐसे पांच रूपये किलो खरबूजे बेचने वाले को आप दस रूपये कभी देना भी नहीं चाहते ....ये भी हम से कम स्वाभिमानी नहीं होते, और ऐसी हरकत से हम कैसे इन को चोट पहुंचा सकते हैं!!

हम लोग किन दिनों में जी रहे हैं जहां एक तरफ़ तो इन स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां-फलों का दाम कईं बार इतना नीचे गिर जाता है कि खरीदते हुए किसान के बारे में सोच कर अफसोस होता है ... (We really feel sorry for that unknown figure who must have cultivated and harvested this produce!)... और दूसरी तरफ़ एक पिज्जे के ऊपर शिमला मिर्च की दो बारीक सी फांके लग जाती हैं, यह कैप्सिकम पिज्जा बन जाता है तो यह डेढ़ दो सौ रूपये में भी बिक जाता है ...और घर में डिलीवर भी हो जाता है ... कितना बड़ी खाई है कि कैप्सिकम बाजा़र में कौडियों के भाव बिक रही है और ये पिज्जे विज्जे वाले कैसे मुनाफ़ा जमा कर रहे हैं...

कुछ भी हो, सब के हालात बदलने चाहिए....हर एक को उस की मेहनत की कीमत मिलनी चाहिए...सब्जी बेचने वालों की मजबूरी यह है कि वे इसे आज कल के मौसम में एक दिन भी नहीं रख सकते .. अगले दिन ही सब्जी और फल फ्रूट सड़ने-गलने लगता है ...

ऐसी सूरत में भी अगर कोई सरकार मध्यमवर्गीय किसानों के कर्ज़े माफ़ करने की बात ही करती है ...बिजली-पानी मुफ्त करने की बात होती है तो कैसे हम लोग अपनी भौहें तान लेते हैं...बिल्कुल सयाने कौवे की तरह ....यह भी पता नहीं कि असल में किन किसानों के कर्जे माफ़ हो जाते होंगे और कौन दर दर भटकने के लिए रह जाते होंगे ....सब जगह सैटिंग से ही काम चलता है ...वैसे सूरत कुछ कुछ बदल तो रही है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या!

जाते जाते मेरी गुजारिश यही है कि इन छोटे मोटे सब्जी वालों से मोल भाव मत किया करिए....पिज़ा कार्नर वाली की दादागिरी हम सहते हैं....किसी भी थोड़े से ठीक ठाक ढाबे में अढ़ाई-तीन सौ रूपये की दाल मक्खनी की प्लेट भी खा लेते हैं और तीस रूपये की एक रोटी भी .....सब्जी खरीदते समय भी उस तरह की लूट का ध्यान रख लिया करिए... क्या ख्याल है?

हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे ..

सोमवार, 15 मई 2017

सुबह की सैर वाला रोजनामचा १५.५.२०१७


आज मैं सुबह सवा छः बजे के करीब टहलने के लिए निकला..उमस बड़ी थी ...कल भी ऐसी ही हालत थी..पता चल गया था सुबह पेपर से कि कल लखनऊ तप रहा था.. कल का तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस के पास था ...

एक बात मैं अकसर यहां शेयर करता हूं कि अगर आप को सुबह टहलने का शौक है ना तो आप के लिए बहुत सी बढ़िया पार्क हैं...लखनऊ के हर कोने में ...

अधिकतर पार्कों में पेड़-पौधे भी खूब हैं...इसलिए सुबह सुबह यहां पर आ जाना भाता है ...सच में ऐसे हरे भरे पार्क भी किसी शहर के फेफड़े होते हैं..


टहलने के कुछ और ऑप्शन भी हैं लेकिन उन जगहों पर पेड़ नहीं हैं और आज कल सुबह ही इतनी उमस हो जाती है कि पसीने की वजह से हर बंदा थोड़ी छाया की ठौर ढूंढता है ...यह सुबह साढ़े छः -सात बजे का हाल था आज भी ... कल से सोच रहा हूं कि अपने टहलने का समय बदलना होगा... यह टहलना-वहलना पांच छः बजे तक निपटा लेना चाहिए...

इस पोस्ट में लगी सभी तस्वीरें उसी बाग की हैं जहां मैं सुबह गया था ... लेकिन आप सोचिए कि आज भी लखनऊ में कितनी तपिश और उमस होगी कि इतनी सुबह सवेरे भी इस तरह के नैसर्गिक वातावरण में भी लोगों का पसीने की वजह से हाल बेहाल हो रहा था ..

अगर सुबह के वक्त टहलते हुए ऐसे मंज़र दिखें तो किसे टहलने में सुस्ती आयेगी! 




यह पार्क भी ऐसा है लगता है जैसे किसी ने शहर के बीचों बीच जंगल स्थापित कर दिया हो ...बिल्कुल उस जंगल में मंगल वाली कहावत के उलट..जैसे प्रकृति ने कंकरीट के आशियानों में बसने वालों पर रहम कर दिया हो! 

लेकिन पता नहीं कुछ लोगों का यहां पर आने का केवल एक उद्देश्य होता होगा कि फूल तोड़ के लाने हैं...यह भद्रपुरूष भी एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जा कर फूल ही तोड़ता दिखा ..अब कोई इन को क्या कहे! ईश्वर ही सदबुद्धि प्रदान करे इन्हें!

लेकिन कुछ लोग सुबह उस वक्त भी परोपकार में लगे होते हैं...दूसरे से देखा कि यह नेक बंदा प्लास्टिक की बोतलें पैर से ठोकरें मार के एक जगह इक्ट्ठा करने में मशगूल है...मैं इन के पास गया तो गुस्से में लगे कि लोग कितना कचड़ा ऐसी जगहों पर भी फैंक जाते हैं...गुस्से में कहने लगे -- "कोई इन लोगों को समझाए कि जैसे इन बोतलों को लाते हो, वैसे जाते समय वापिस भी ले जाया करें...दूसरी चीज़ों की तरह जिन्हें भी प्यार से वापिस ले जाते हो..लेकिन किसी को कुछ भी कहने का ज़माना भी तो नहीं है।"

सुबह सवेरे स्वच्छता के लिए श्रमदान करते हुए एक बुज़ुर्ग
Journey of 3000 miles starts with the first step! 

यह बोतलें सुबह टहलने वाले नहीं लाते ... सुबह टहलने वाले जब यहां से निकल जाते हैं तो फिर यहां पर युगल आने शुरू होते हैं ...शाम तक वे यहां जमा रहते हैं...इन की ही ये बोतलें, चिप्स के पैकेट, चाकलेट की पैकिंग...पिज़ा-बर्गर के खाली डिब्बे ...इस तरह का कचरा वे लोग ही यहां फैंक जाते हैं..

पास ही खडा़ एक बंदा बताने लगा कि यहां भी अंडमान निकोबार समूह के हैवलॉक आईलेंड जैसा नियम होना चाहिए....उसने बताया कि वहां यह नियम है कि पानी को बोतल अगर लेकर वहां जा रहे हैं तो पहले आप को हर बोतल के लिए २०० रूपये प्रति बोतल के हिसाब से जमा करने होते हैं...लौट कर आइए.. प्लास्टिक की खाली बोतल उठा कर ले आईए..और अपने पैसे वापिस ले लीजिए...


मुझे यह आइडिया बहुत अच्छा लगा .. हमें भी कुछ कडे़ कदम ही उठाने पड़ेंगे ..हर तरफ़ कचरा ...हर तरफ़ गंदगी के अंबार लगे दिखते हैं...स्वच्छता तभी होगी जब कचरा-कूड़ा भी कम होगा ...

वापिस लौट कर देखा अपनी कॉलोनी में तो एक घर के बाहर रोज़ की तरह आज का संदेश यह लिखा हुआ था ..कुछ बातें समझ में आईं ..कुछ सोच विचार करने लायक लगीं....जैसे कि आप बस एक ही पैग लीजिए....यह उन के लिए है जो बेहिसाब पीते हैं.....और जो नहीं पीते हैं, उन्हें यह सब शुरू करने की ज़रूरत नहीं...



इतनी उमस में पूरे हिंदोस्तान को पवन-पुरवैया का ही ध्यान आ रहा होगा!

रविवार, 14 मई 2017

आप आज कल पढ़ क्या रहे हैं?

अच्छा, डाक्साब, बताईए, आप आज कल क्या पढ़ रहे हैं? कल जब मेरे एक मरीज़ ने यह प्रश्न दाग दिया तो मैं इसके लिए तैयार ना था...

अब उस को मैं क्या बताता कि दिन में कईं तरह की किताबें उठाता हूं ..और लेट कर ही पढ़ता हूं और पांच मिनट के अंदर नींद आ जाती है ..कोई भी किताब हो..इसलिए बच्चे भी जानते हैं कि यह बापू का लिटरेचर टाइम है तो मतलब सोने की तैयारी है।

मैं ऐसा सोचता हूं कि अच्छी या बुरी आदतें हमें बचपन से ही पड़ जाती हैं....मुझे यह लेट कर पढ़ने की आदत बचपन से ही है...वैसे तो किसी ने कभी भी पढ़ने-लिखने के कहा ही नहीं..लेकिन जो दो तीन कक्षाएं अहम् होती हैं कैरियर के ...उस दौरान मेरी मां कभी कभी ज़रूर कह देती थीं...उठ कर पढ़ा करो ...ऐसे लेट कर पढ़ने से कोई फायदा नहीं...कुछ समझ नहीं आता...नींद आई है तो सो जा, सुबह उठ कर पढ़ लेना...

लेकिन मैं भी ठहरा अव्वल दरजे का ढीठ प्राणी....अब तक भी लेटे बिना कुछ पढ़ते ही नहीं बनता और लेटने का मतलब नींद की झपकी...(वैसे मेरी मां की भी यही समस्या है...वे भी जैसे ही कोई किताब पढ़ने लगती हैं, उन्हें नींद आ जाती है ...) ...मतलब कुछ खानदानी मर्ज ही है!!

हां, उस मरीज़ की बात कर रहा था ...उसे मैंने ऐसे ही एक दो नाम बता दिए... अमृतलाल नागर जी और मुँशी प्रेम चंद जी के रचना संचयन के बारे में कहा कि उन्हें पढ़ रहा हूं..

मेरा यह जो मरीज है ..यह हिंदी प्रेमी है ...पांच छः अखबार लेता है ...और सुबह से शाम तक सारे पढ़ लेता है ..पहले भी कह चुका था..और आज भी कह रहा था कि आप के लेख जनसत्ता में छपते हैं...आप दूसरे अखबारों में भी भेजा करिए...मैंने बताया कि मैं किसी को भी नहीं भेजता, वे लोग ब्लॉग से अपने आप ले लेते हैं..

उन्होंने बताया कि वे आज कल रश्मिरथी पढ़ रहे हैं...और साथ में संस्कृति के चार अध्याय भी पढ़ रहे हैं... मुझे हिंदी साहित्य की जानकारी बहुत कम है ...मेरी जिज्ञासा भांप कर वह बताने लगे कि रश्मिरथी काव्य है ...दिनकर जी ...मैंने कहा ...रामधारी सिंह दिनकर जी ...कहने लगे..हां, हां, आज कल मैं उन को ही पढ़ रहा हूं...

उन की बातचीत से पता चला कि घर का सारा माहौल ही साहित्यिक है ...बीवी और बेटा भी ये सब साहित्य पढ़ते रहते हैं..घर में हर समय पढ़ाई लिखाई ही चलती रहती है ...

अच्छा लगा ये सब बातें सुन कर ...

मुझे याद आया कि दो साल पहले एक बात ये मुझे जैनेन्द्र कुमार का नावल त्यागपत्र पढ़ने के लिए दे गये थे ...मैंने उसे एक दो दिन मन लगा कर पढ़ा...और उस के बाद कुछ पंक्तियां अपनी डायरी में लिख दी थी...अभी डायरी सामने ही पड़ी हुई है, सोचा ब्लॉग पर वह चंद पंक्तियां शेयर करूं...

दिनांक ८.३.१५...
"उस समय भीतर ही भीतर सचमुच मुझे यह मालूम हो रहा था कि यहां देर तक मेरा रहना ठीक न होगा। लोग ने जाने क्या समझें। मैं आज तक इसी बात पर आश्चर्य किया करता हूं कि लोग क्या समझेंगे, इसका बोझ अपने ऊपर लेकर हम क्यों अपनी चाल को सीधा नहीं रखते हैं, क्यों उसे तिरछा-आड़ा बनाने की कोशिश करते हैं! लोगों के अपने मुंह हैं , अपनी समझ के अनुसार वे कुछ-कुछ क्यों न कहेंगे? इसमें उनको क्या बाधा है? उन पर फिर किसी को क्या आरोप हो सकता है? फिर उन सबका बोझ आदमी अपने ऊपर स्वीकार कर अपने भीतर के सत्य को अस्वीकार करता है - यह उसकी कैसी भारी मूर्खता है!!"
(जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास ...त्यागपत्र से ...) 

पढ़ने लिखने की बातों से बचपन की बातें उमड़-घुमड़ कर ज़रूर याद आ जाती हैं....जब चंदमामा, लोटपोट, नंदन, कभी कभी धर्मयुग भी, मायापुरी जैसी किताबें और कुछ छोटे छोटे जासूसी उपन्यास भी किराये पर लाकर पढ़े जाते थे ..शुक्र है कि उन दिनों टीवी नहीं होता था ..इसलिए कोशिश यही होती थी कि अगर चार पत्रिकाएं लाएं है ..मतलब एक रूपया किराया देना है कल सुबह तो कैसे भी रात देर तक जाग कर या सुबह जल्दी उठ कर निपटा लिए जाए...और अकसर यह काम हो ही जाता था...(जहां चाह वहां राह ..) ...हां, उन बच्चों के नावल के पचास पैसे थे एक दिन के ...वे भी खूब पढ़ते थे .. बचपन में ये पढ़ने-लिखने की आदतें हमारे जमाने में आम थीं...

स्कूल में हम लोग यह चर्चा करते थे ..पांचवी छठी कक्षा में अच्छा उस लोटपोट को पढ़ लिया तुमने .उस का सीरियल नंबर होता था ..फिर बिल्लू भी आने लगा था ... घर में धर्मयुग भी आता था और इलेस्ट्रेटेड वीकली भी ....मैं इन के भी पन्ने ज़रूर उलट लिया करता था ..फोटो देखता ..बच्चों के पढ़ने लायक कुछ पन्ने होते तो उन्हें भी देख लेता ...मां को सरिता पढ़ना पसंद था .. उस भी जरूर देख लेते थे और मामा जब आते थे तो उन के साथ मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां भी आती थीं, तब उधर भी नज़र पढ़ जाती थीं...रीडर डाईजेस्ट भी दसवीं कक्षा के आसपास दिखने लगी थी....और हां, क्लास में बच्चे जो मस्तराम जी का साहित्य पढ़ते थे तो वे बातें भी कानों में पढ़ती रहती थीं...याने सभी तरह के साहित्य का स्वाद चख लिया था ..स्कूल कालेज के दिनों में ही ...

बात उसी पर आते हैं कि आज कल कोई ऐसे पूछता नहीं है ना कि आप क्या पढ़ रहे हैं... लेकिन उस दौर में रिश्तेदार चिट्ठियों में लिखते थे कि खिलौना देखी है, आप लोग भी ज़रूर देखिए....मौसी ने लिखा कि चितचोर देख कर आए..कसमे वादे भी अच्छी है ...बहन गईं चाचा के यहां तो वहां से लिख भेजा कि ज़मीर फिल्म देख कर आये हैं...आप लोग भी देखिएगा...पहले हम लोग ऐसे निर्धारित करते थे कि कौन सी फिल्म देखनी हैं....मुझे अभी याद आ रहा है कि मुहल्ले की कुछ औरतें तलाश फिल्म देख कर आईं तो मां और उन की सहेलियां वाला ग्रुप भी अगले दिन सिटी लाइट हाल में यह फिल्म देखने चला गया ...


पहले कोई फिल्म देख कर आते थे तो शायद उस का नशा अगले सात दिन तक को कम से कम चढ़ा ही रहता था..हर शख्स अपने आप को उन चंद दिनों के लिए कुछ कुछ हीरो जैसा ही अपने आप को समझने लगता था ...फिर जब नशा उतर जाता तो सब कुछ नार्मल हो जाता था...

हां, एक बात और याद आ गई...कईं बार बंदिश से भी अच्छे काम हो जाते थे ...याद करिए किस तरह से हम लोग छोटे साईकिल एक घंटे के लिए २५ पैसे के हिसाब से किराये पर लेते थे ..उस समय लंबा चल कर दुकान तक जाना भी बिल्कुल नहीं अखरता था...और वहां कुछ समय इंतज़ार करने में भी दिक्कत नहीं होती थी..साथ में कोई साथी भी होता था ...जिस के साथ आधे आधे समय चलाने का कान्ट्रेक्ट हुआ होता था ....सच बताऊं जो खुशी उस छोटे साईकिल को उस एक घंटे में चलाने में होती थी वह तो मुझे कभी भी आई२० गाड़ी  चलाने में भी नहीं हुई....कभी भी नहीं.. बस, उस साईकिल को चलाते समय एक घंटे के खत्म होने की चिंता सताती रहती थी ...फिर इतनी अकल भी आ गई कि एक घंटे होते होते दुकान के आसपास ही चक्कर लगाने हैं...ताकि जैसे ही वह आवाज़ लगाए .. तो उसे साईकिल जमा करवा दी जाए...क्योंकि जेब में २५ पैसे से ज़्यादा माल भी तो नहीं होता था....

बदल गया है ज़माना है ....बदलना भी ज़रूरी होता है...पहले किसी के यहां केसेट आती थी तो पता चल जाता था कि उस के यहां ये ये कैसेट्स हैं, मिल बांट कर सुनते से सारे .....अब सभी के फोनों पर स्क्रीन लॉक लगे होते हैं....घर में हज़ारों रूपये के फोन , लैपटाप आते हैं तो भी लोग कहां एक साथ  बैठ कर खुशी मना पाते हैं ! हरेक को अनजान हडबड़ाहट है....वाट्सएप, ट्विटर और  फेसबुक पर पीछे छूट जाने की फिक्र है शायद ..

हां, जाते जाते किताब कौन सी पढ़ रहा हूं, इस का जवाब तो मैंने ऊपर दे दिया ... लेकिन आज कौन सी खरीदी है ...उस का नाम है ...Rishi Kapoor की किताब Uncensored Khullam Khulla......It reminds me of that popular song ... जो अकसर Big FM 94.3 पर बजता रहता है ....