शनिवार, 10 मई 2008

हिंदी चिट्ठाजगत की सेवा...


कल रात सोने से पहले में दीपक भारतदीप जी के ब्लॉग दीपकबाबू कहिन की एक ताज़ा-तरीन पोस्ट पढ़ रहा था जिस में उन्होंने उड़न तश्तरी ब्लॉग के लेखक श्री समीर लाल जी के अभियान के बारे में लिखा है जिस के अंतर्गत समीर जी हिंदी चिट्ठाजगत की प्रगति के लिये प्रयास कर रहे हैं।
मैं भी पिछले दो तीन दिन से नोटिस तो कर रहा था कि समीर लाल जी की जहां भी टिप्पणीयां दिखती थीं तो साथ में दो-तीन ये लाइनें भी नज़र आती थीं...जिन्हें देख कर यही लगता रहा कि समीर जी बिल्कुल ठीक फरमा रहे हैं, हमें भी तो इस यज्ञ में अपना योगदान देना चाहिये।
समीर जी लिखते हैं कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें ...यही हिंदी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है। वह आगे लिखते हैं कि एक नया चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरू करवायें और हिंदी चिट्ठों की संख्या और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
मैं अपनी ही बात बताता हूं...मुझे इंस्क्रिप्ट हिंदी टाइपिंग तो पिछले पांच-छः साल से आती है लेकिन मुझे यह हिंदी ब्लॉगिंग के बारे में बिलकुल पता न था ....पता तब लगा जब मेरा 16वर्षीय बेटा कुछ सर्च कर रहा था तो उसे रवि रतलामी जी का हिंदी ब्लॉग दिखा जिस के बारे में उस ने मुझे बतलाया कि हिंदी में भी ब्लॉगिंग शुरु हो चुकी है। फिर एक –दो दिन बाद ही उस ने बताया कि अब नेट पर सीधे ही हिंदी में भी लिखा जा सकता है......और मैंने भी इंस्क्रिप्ट स्टाइल से ट्राई किया तो सफलता मिली और इस तरह से मैंने ब्लॉगिंग की दुनिया में पांव रखा।
अब इस पोस्ट के माध्यम से मैं कुछ सुझाव आप सब बलॉगरवीरों को देना चाहता हूं( यह शब्द ब्लागरवीर मैंने लवली कुमारी जी के ब्लोग से चुराया है, मुझे अच्छा लगा था कि किसी ने हम लोगों को वीर तो कहा !!!)……ऐसा समझता हूं कि देश-विदेश में बहुत से लोग हिंदी चिट्ठाजगत में कूदना तो चाहते हैं लेकिन शायद उन्हें भी मेरी तरह इस के बारे में जानकारी नहीं है।
----सब से पहला सुझाव तो मेरा यही है कि आप सब लोग मिल कर एक दो-तीन पेज का हिंदी चिट्ठों के बारे में एक परिचय सा तैयार करें। आप सब लोग कलम के मंजे हुये खिलाड़ी हैं ....इस काम में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये।
होता हूं है ना कि किसी को हिंदी चिट्ठों के बारे में पूरे विस्तार से बतलाना मुझ जैसे कम-पेशेन्स वाले बंदों के लिये थोड़ा मुश्किल सा काम लगता है । अगर हम लोग दो –तीन पेज का एक डाक्यूमैंट तैयार कर के रखें और इस के प्रिंट-आउट हम अपने पास रखें और जहां भी ज़रूरत हो इसे अपने मित्रों, संबंधियों एवं परिचितों में बांटते चलें ताकि दूसरे लोगों को इस हिंदी चिट्ठाकारी का पता लग सके।
इन दो –तीन पन्नों में पहले तो यही बताया गया हो कि आप कंप्यूटर पर हिंदी बिना हिंदी टाइपिंग सीखे हुये भी लिख सकते हैं......यह यूनिफोंट, कृतिदेव आदि के बारे में भी बताया जाना चाहिये---सीधे सादे शब्दों में और संक्षेप में।
उस के बाद ब्लागिंग के बारे में थोड़ा बतलाया जाना चाहिये और हिंदी में ब्लागिंग के बारे में भी कुछ लिखा जाना चाहिये।
सोच रहा हूं कि कईं धुरंधर लेखक और साहित्यकार हैं जिन्हें कंप्यूटर-नेट से कुछ भी लेना देना नहीं है...इन लोगों के लिये हम इंक-ब्लोगिंग कंसैप्ट की भी बात करनी चाहिये कि शुरूआत तो आप हस्त-लेखन से भी कर सकते हैं।
हमें यह प्रचार-प्रसार खास कर ऐसी जगहों पर करना चाहिये जहां हिंदी के प्रतिभाशाली चाहवान पाये जाने की विशेष उम्मीद होती है जैसे कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग, पत्रकारिता संस्थानों के छात्र आदि आदि......देखा जाये तो रास्ते तो बहुत हैं लेकिन बस हमारे मन में हिंदी चिट्ठों की सेवा करने की तमन्ना होनी चाहिये।
यह जो दो-तीन पन्नों का डाक्यूमैंट तैयार हो उस में अगर थोड़ा सा वैब-राइटिंग के कायदों के बारे में भी थोड़ी बात कर ली जाये तो बेहतर होगा।
मुझे तो यह भी लग रहा है कि इस तरह की कोई सामूहिक ब्लाग ही हम लोग क्यों न शुरू करें जिस में हम लोग हर नये आने वाले का स्वागत करें और अपने तजुर्बे उस के साथ बांट कर उसे उत्साहित करें क्योंकि शुरू शुरू में यह हौंसला-अफज़ाई की बहुत ज़्यादा ज़रूरत रहती है।
मुझे लगता है कि ऐसी कुछ चिट्ठे पहले से ही हैं तो जिन में हिंदी ब्लागिंग के विभिन्न पहलुओं की जानकारी हिंदी में दी तो गई है.....लेकिन वे तो हो गई पोथियां.......हमें नये लोगों को इधर खींचने के लिये एक कायदा( छोटी सी पुस्तक जिस हम लोग पहली क्लास में पढ़ते थे जिस में टेबल्स और वर्णमाला रहती थी....कुछ कुछ याद आया???)….भी तो तैयार करना होगा।
हां, अगर हिंदी ब्लागिंग से परिचय करवाने हेतु जो हम दो-तीन पन्ने तैयार करें अगर उस को अंग्रेज़ी वर्ज़न भी साथ हो तो अच्छा होगा....क्योंकि कुछ लोगों को इतने वर्षों बाद हिंदी जगत में वापिस आने में थोड़ी दिक्कत होना स्वाभाविक ही तो है।
जाते जाते मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि ठीक है नेट पर तो सूचनाओं का अंबार है लेकिन हम-आप सब लोग मिल कर जो पिछले कुछ अरसे से इस हिंदी चिट्ठाजगत की चारागाह में चरते चले जा रहे हैं हम क्यों ना मिल जुल कर हिंदी चिट्ठाजगत के बारे में दो-तीन पन्नों तैयार करें और फिर उन के चालीस-पचास प्रिंट आउट निकाल कर अपने पास रखें जिन्हें किसी भी जिज्ञासु को थमा दिया जाये। और हां, इन पन्नों में हिंदी चिट्ठों के ऐग्रीगेटर्ज़ के बारे में बताया जाना ज़रूरी है।
अब यह सुझाव मन में आ रहा था लिख दिया है.....अब गेंद आप सब के पाले में है.....आप क्या कहते हैं ?....लेकिन एक बात तो तय है कि आंकड़े तो बहुत हैं कि इस साल के अंत तक इतने हिंदी ब्लाग हो जायेंगे, अगले साल के अंत तक इतने हो जायेंगे और हिंदी चिट्ठाकार इतनी इतनी कमाई करनी भी शुरू कर देंगे....लेकिन क्या यह हम सब के हाथ-पैर मारे बिना संभव हो जायेगा.......कहीं ये भी कोरे भविष्यवाणी के आंकड़े ही ना बन कर रह जायें............इसलिये कुछ तो सक्रिय भूमिका इस में भी हमें निभानी होगी..........और यह भूमिका क्या होगी...यह हम सब मिल जुल कर तय करेंगे !!!

शुक्रवार, 9 मई 2008

इंक ब्लॉगिंग के साथ प्रयोग...भाग 3


आज की इस पोस्ट में थोड़ी गड़बड़ यह हो गई है कि इंक-ब्लोगिंग के लिये मैं पेज तो बहुत बड़ा इस्तेमाल कर बैठा लेकिन जब पोस्टिंग से पहले स्कैनिंग करने लगा तो पता चला तो कि यह साइज़ तो मेरा स्कैनर लेता ही नहीं है। इसलिये इन दोनों पन्नों की फोटो लेकर ही पोस्ट पर डालनी पड़ी....इसलिये अगर इन को पढ़ने के लिये अगर इन पर क्लिक करने की ज़हमत उठानी पड़े तो तकलीफ सह लीजिये...वैसे मैं आगे से इस का खास ध्यान रखूंगा कि आप को इंक-ब्लागिंग में बार बार क्लिक करने की ज़रूरत न पड़े। बाकी के कुछ अनुभव अगली पोस्टों में डालता हूं।






मंगलवार, 6 मई 2008

सारे नियम तोड़ दो ....नियम पे चलना छोड़ दो !!

ये लाईनें पढ़ कर आप को शायद फिल्म अभिनेत्री रेखा एवं छोटे-छोटे बच्चों के ऊपर फिल्माया गया वह प्यारा-सा खूबसूरत फिल्म (1980) का वह सुपर-डुपर हिट गाना याद आ गया होगा। सचमुच कभी कभी इन नियमों-वियमों को ताक पर रख कर बड़ा मज़ा आता है......

सोमवार, 5 मई 2008

आज मौसम बड़ा बेइमान है !!

यकीन मानिये, आज यहां यमुनानगर में मौसम बेहद खुशगवार बना हुया है। पिछले कईं दिनों से चिलचिलाती गर्मी से सब लोग बेहद परेशान थे। लगता है रात में लिखी मेरी उस पोस्ट पखी से लेकर ए.सी तक के सफरनामे वाली पोस्ट ने दुआ का काम किया है। और इस समय बहुत अच्छा लग रहा है.....थोड़ी थोड़ी बूंदाबांदी हो रही है, लगता है सभी पेढ़-पौधे जश्न के mode में हैं......अभी अभी दस मिनट पहले घर में खींची फोटो यहां डाल रहा हूं....इसलिये उन्हें देखने के बाद लिखने को बचता ही कुछ नहीं है। मैं बहुत खुश हूं और मुझे वो वाला गाना याद आ रहा है....आज मौसम बड़ा बेईमान है !!

रविवार, 4 मई 2008

मेरे इस पंखी से ए.सी तक के सफरनामे ने खोल दी विकास की पोल !

जब आप उस पंखी से ए.सी तक का मेरा सफरनामा सुनेंगे ना तो आप भी मेरी तरह यह सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि आखिर यह कैसा विकास है जिस का हम ढोल पीट रहे हैं.....अगर यही विकास है तो यार हम लोग तो अविकसित ही भले थे।

याद आ रही है अपने प्राइमरी स्कूल के दिनों की....वाह, वे दिन भी क्या खूब थे.....गर्मियों के दिनों में शाम के समय सूरज ढलते ही इस बात का बड़ा शौक हुया करता था कि अब हम ने सारे आंगन में पानी का छिड़काव करना है…उस के बाद सारे आंगन में ठंडक सी हो जाती करती थी। फिर, अगला काम होता है रात पड़ते पड़ते चार-पांच चारपाईयां( हम इन्हे मंजियां कहते हैं) ...बिछाने का......और उन के बीच में अपने खटोला (छोटी चारपाई) भी कहीं फिट करना होता था.......और उस के नीचे मैं अपनी एक बिल्कुल छोटी सी पानी की सुराही ज़रूर रखा करता था।
हां, हां, उन दिनों गर्मी की शुरूआत का मतलब होता था बाज़ार में तरह तरह की सुराहीयां एवं मटके मिलने शुरू हो जाया करते थे....और ये ही क्यों वे हाथ से घुमाने वाली छोटे पंखे भी तो खूब बिका करते थे ....क्योंकि ना तो तब हम लोगों के पास फ्रिज ही हुया करते थे और ना ही इन्वर्टर के बारे में ही सुना था, वैसे सुन भी लेते तो क्या कर लेते !! मैं ये बातें 1969-70 की कर रहा हूं।

बस, उस समय हम लोग बहुत मज़े से बाहर ही सोया करते थे....बहुत मज़ा आता था नीले नीले आसमान के नीचे सितारों की चादर ओढ़ कर सोने में.....कोई मच्छर नहीं, कोई पंखा नहीं....कोई मच्छर भगाने वाली क्रीम नहीं। हां, एक दो हाथ से घुमाने वाली पंखियां चारपाईयों पर ज़रूर रख लिया करते थे।

फिर थोड़े समय बाद मच्छर वच्छर काटने जब शुरू हुये तो घर में जो दो-तीन मच्छऱदानियां हुया करती थीं वे चारपाईयों पर लगा दी जाती थीं.......उन को लगाने में भी बहुत मज़ा आया करता था। मुझे तो उन के अंदर सो कर उस से भी ज़्यादा मज़ा आया करता था.....क्योंकि मैं अपने आप को तब महाराजा पटियाला से कम ना समझा करता था।

तो, इस खुले वातावरण में सो कर जब सुबह उठते थे तो बहुत फ्रैश महसूस करते थे और बहुत जल्दी उठ जाया करते थे। वैसे सो भी तो जल्दी ही जाया करते थे क्योंकि तब हमारा दिमाग खराब करने के लिये ये घटिया किस्म के सीरियल्स नहीं हुया करते थे...और ना ही दिमाग खराब कर देने वाले इन खबरिया चैनलों ने नाक में दम ही किया होता था जो कि जब तक आजकल सोने से पहले दो-चार खौफनाक सी घटनायें ना दिखा लें....शायद उन्हें लगता है कि जब तक हमारे दर्शकगण खौफ़ से सहम नहीं जायेंगे , उन्हें नींद कैसे आयेगी !!

एक-दो साल बाद यानि की 1970 के दशक के शुरू शुरू में यह देखा कि अब सोने से पहले आंगन में एक बिजली का पंखा भी एक स्टूल पर रख दिया जाता था.......यह पंखा फिक्स किस्म का था.....इसे कईं बार मकैनिकों को दिखाया गया कि इस के घूमने वाला मकैनिज़्म दुरूस्त हो जाये, लेकिन यह भी ढीठ किस्म का था.....दो-तीन दिन घूमता और फिर बस एक ही तरफ हवा फैंकता। खैर, अब हमें इस का मिजाज पता लग चुका था...सो, हमने इस के सामने एक ही कतार में सारी मंजियां लगानी शुरू कर दीं।

खैर, अच्छी खासी कट रही थी.....कुछ सालों बाद ही अमृतसर में उग्रवाद ने सिर उठाना शुरू कर दिया.......इस का एक असर यह हुया कि लोगों ने बाहर आंगन में सोना धीरे धीरे बंद कर दिया.....खौफ़ सा पैदा हो गया लोगों के दिलों में....क्योंकि बहुत सी ऐसी वारदातें हुईं कि कईं लोगों को बाहर सोते-सोते ही खत्म कर दिया गया। तो, हम लोगों ने कमरों के अंदर पंखे लगाकर सोना शूरू कर दिया.....लेकिन तब भी कमरों में कोई जाली वाले दरवाज़े नहीं थे.......लेकिन फिर से मच्छर से इतने परेशान ही हम कभी ना थे। कारण शायद यही होगा कि तब ये पोलीथीन न होने की वजह से इतनी गंदगी न हुया करती थी, सो सब ठीक ठाक ही चल रहा था।

दो-चार साल बाद फिर हम लोगों को इन बिजली के पंखों के चलने के बावजूद गर्मी लगती रहती......तो फिर आ गये ये कूलर...जिन्हें सुबह तो कमरे में कर लिया जाता....और रात के समय वही मंजियों के सामने इसे इक्सटैंशन वॉयर इत्यादि लगा कर इसे सरका दिया जाता। यह क्या, यार, इस कूलर की वजह से भी आंगन में सोने का मज़ा आने लगा। लेकिन सुबह उठने पर वो पहले जैसी चुस्ती गायब होती गई

धीरे धीरे कुछ ही सालों में पता नहीं हम लोगों की टीवी या वीसीपी पर फिल्में देखने की आदतें कुछ इस तरह की हो गईं कि हमें अपने अपने कमरों में ही सोना अच्छा लगने लगा...एक कूलर की जगह अब हर कमरे में कूलर लग गया। लेकिन मौसम में बदलाव कुछ इस तरह से ज़ारी रहा कि अब कूलर भी गर्मी के शुरू शुरू के कुछ दिन ही ठंडक पहुंचा पाता......अब ह्यूमिडिटी से परेशानी होने लगी.......ऊपर से मच्छरों ने भी अब तक अपने पैर पक्के कर लिये थे......ये आडोमास, कछुआ-छाप....खूब इस्तेमाल होने लगी थीं......आजकल तो कहते हैं ना कि कछुआछाप से तो इन मच्छरों की दोस्ती हो गई है......इसलिये पिछले कईं सालों से मच्छरों को भी गुड-नाइट कहने के लिये मशीनें आ गईं हैं।

धीरे धीरे अब हाल यह है कि बाहर सोने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, मच्छर ही मच्छर हैं सब तरफ.......जिस जगह हम लोग रहते हैं वहां पर बहुत साफ-सफाई है तो यह हाल है......साफ-सुथरे घर हैं.....हर दरवाज़े के साथ जाली का दरवाजा भी है जो हमेशा बंद रहता है.....ए.सी भी लगे हुये हैं......लेकिन हालात यह है कि रात पड़ते ही बुखार चढ़ना शुरू हो जाता है कि यार, अब फिर इन हालातों में सोना पड़ेगा....क्योंकि ए.सी कमरों में भी मच्छर परेशान किये रहते हैं। सोचता हूं कि यार, जीवन की इतनी यात्रा कर लेने के बाद भी पाया तो क्या पाया......पहले चैन से मज़े से नींद आ जाया करती थी, सुबह प्रसन्नचित उठा करते थे.......लेकिन अब एसी कमरे में सो कर जब उठते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने बैंत के डंडों से पीटा हो.....सुबह सारा शरीर दुःख रहा होता है जिस के अंदर जब तक एक-दो कड़क चाय रूपी पैट्रोल नहीं पहुंच जाता, तब तक वह ना तो गेट तक जाकर अखबार ही उठा पाने के योग्य नहीं होता और ना ही ब्राड-बैंड लगाने की हिम्मत होती है। अकसर सोचता हूं यार अगर विकास यही है तो वे बिना विकास वाले दिन ही बढ़िया थे......ऐसे विकास का क्या करना जो रातों की नींद ही उड़ा ले। लेकिन किसी और को दोष भी तो नहीं दे सकते....यह सब कुछ हमारा अपना ही तो किया-धरा है....हम ही तो प्रकृति के साथ इतने पंगे ले रहे हैं और इतने मौसमी बदलाव के बावजूद भी कहां बाज आ रहे हैं।

जब हम बच्चे थे तो सुना करते थे कि गर्मी के दो महीने ही होते हैं...मई-जून और होता भी कुछ ऐसा ही था क्योंकि जुलाई के मिडल पर बरसात होनी शुरू हो जाया करती थी। फिर धीरे धीरे जुलाई भी गर्मी में शामिल हो गया.......पिछले 6-7 सालों से देख रहा था कि मई से लेकर अगस्त तक ही गर्मी की वजह से नाक में दम हुया रहता है.....लेकिन पिछले साल तो ऐसा अनुभव रहा कि 15 सितंबर तक ही गर्मी चलती रही । और इस साल तो सुभान-अल्ला 15 अप्रैल से ही मौसम के तेवर बदले हुये हैं.......इतनी गर्मी , इतनी तेज़, चिलचिलाती धूप, इतना सेक.......। इसलिये अब तो कम से कम पांच महीने गर्मी के ही समझें............15 अप्रैल से 15 सितंबर.....लेकिन सोचता हूं अगर इसी तरह यह गर्मी की अवधि बढ़ती रही तो क्या होगा हमारा...........वैसे हमारा क्या है, हम तो अब लगभग चले हुये कारतूस के समान है......बात है अगली जेनरेशन की......वैसे तो मैं बेहद नान-इंटरफियरिंग किस्म का फादर हूं....बच्चों को प्रोफैशन चुनने के मामले में अपने मन को फॉलो करने की छूट दे रखी है....लेकिन मैं उन्हें यह बात अकसर याद दिलाता रहता हूं कि देखो भई कुछ भी करना..लेकिन इतना तो ज़रूर कमाने की हैसियत रखना कि जिन चीज़ों को इस्तेमाल करने की आदत आप लोगों को पड़ चुकी है .....उन्हें अपने दम पर अफोर्ड करने की हैसियत तो कैसे भी बनानी ही होगी......और उन में से एसी आइटम नंबर वन है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

ऐसा क्यों कि खौफ़नाक सपना टूटने पर भी खुशी न हो !!


अभी ठीक डेढ़ घंटा पहले मैं अपना लैपटाप लेकर अपने बेड-रूम में आया...मुझे कुछ काम करना था....लेकिन आजकल तो इधर यमुनानगर में लिटरली आग बरसने के कारण मेरी कुछ करने की इच्छा नहीं हुई और मैं अपना सारा सामान पास ही में रख कर सो गया। लेकिन अभी पांच मिनट पहले उठ गया हूं....क्योंकि एक बेहद खौफ़नाक सा सपना देख लिया।

हुया कुछ इस तरह से है कि मैं कहीं बाहर से घर आया हूं....जब मेरा खाना-पीना हो गया है तो मैं थोड़ा दूसरे कमरों की तरफ़ जब रूख करता हूं तो पाता हूं कि मेरे पिता जी पीड़ा में हैं....मुझे दिखने में ही लगता है कि वे थोड़े डिस्टर्ब हुये हुये हैं....उन का पैर टेढ़ा हुया हुया है....और पैर पर सूजन के साथ-साथ एक काला सा काटे का निशान सा भी है। मुझे मेरे पिता जी बताते हैं कि मुझे आज काला बड़ा सा सांप काट गया है। उसी समय मेरी पत्नी भी मुझे बताती हैं कि हास्पीटल से मंगवा के सांप के काटे का इंजैक्शन लगा दिया है। लेकिन पता नहीं पिता जी ने फिर से अपनी कुछ तकलीफ़ ब्यां की जिस पर मैंने कहा कि कोई बात नहीं किसी डाक्टर को दिखा आते हैं।

शायद मेरे यह बात कहने में इतना दम नहीं था क्योंकि मेरी मां ने उसी समय मुझे कहा कि हां, हां, चलते हैं ......कोई बात नहीं, डाक्टर के पैसे ही खर्च होंगे ना।

खैर, उसी समय मेरे पास ट्यूशन के लिये एक एक कर के छात्र आने शुरू हो जाते हैं......मेरा सारा ध्यान अपने पिता जी की तरफ ही है कि मैंने अभी उन को डाक्टर के पास लेकर जाना है.....उन बच्चों का यह मेरे साथ ट्यूशन का पहला दिन है......( वैसे मैं भी बहुत हैरान हूं कि यह ट्यूशनों का कैसा चक्कर.......फिर ध्यान आया कि आज खाना खाते वक्त एक सीरियल से दो-तीन मिनट दिखा था जिस में एक औरत 8-10 बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ा रही थी!)…….मैं उन बच्चों के साथ यूं ही एक-एक बात कर ही रहा था कि मेरी मां उस कमरे में किसी बहाने आती हैं......मैं उन ट्यूशन पढ़ने आये हुये बच्चों के साथ बातें करते करते सोचने लगता हूं कि यार बचपन में जब मुझे कहीं सोच लगती थी तब तो मेरी मां और मेरे पिता जी की फर्स्ट तो परायर्टी यही होती थी कि जल्द से जल्द इसे कैसे डाक्टर तक पहुंचा जाये......और यहां मैं इन बच्चों के साथ बातें करने में मसरूफ हूं कि कहीं आज पहले दिन ही मेरा यह टरकाऊ रवैया देख कर इन के माता-पिता कल से इन्हें ट्यूशन भेजना ही ना बंद कर दें !!)…..इसलिये मैंने उन पांच-छःबच्चों को कहा कि आज का दिन तो बस इंट्रो का समझो.....कल से ही महीना शुरू कर लेंगे....आज आप लोग घर जायें।

उन बच्चों को इतना कह कर मैं अपनी कार निकालता हूं और अपनी मां और पिता जी को कार में बिठा कर किसी डाक्टर की तरफ़ निकल पड़ता हूं.....लेकिन गाड़ी चलने पर भी यह मन नहीं बना पा रहा हूं कि किस डाक्टर के पास ले कर जाऊं......क्योंकि मुझे मन ही मन यह लग रहा है कि सांप के कटे का टीका तो शुक्र है लग ही चुका है .....अब वैसे तो सब ठीक ही है, लेकिन मैं अपने मां एवं पिता जी की संतुष्टि के लिये इन्हें डाक्टर के पास ले कर जा रहा हूं...................लेकिन अभी कहीं रास्ते में ही हूं और पसीने से लथ-पथ अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ जाता हूं........क्योंकि मेरे बेटे की मस्तियों से मेरी नींद खुलने के बाद सपना भी कहीं टूट कर, बिखर कर रह गया.................लेकिन एक बात तय है कि ऐसा शायद पहली बार हुया है कि एक भयानक सपना टूटने के बाद भी राहत सी महसूस न हुई हो.......खुशी न पहुचीं हो.......इस का कारण यही कि मेरे पिता जी को तो गुजरे हुये 13 साल हो चुके हैं !!

अभी मैंने यह पोस्ट लिखनी ही शुरू की थी कि मेरा बेटा चादर खींच रहा था लेकिन दो-चार मिनटों के बाद ही नींद में खोते खोते उस की टांग हिली और वह उठ कर बैठते बैठते पूछने लगा कि ऐसा क्यों होता है कि मुझे सपना आ रहा था कि हम मनाली के एक मंदिर में गये हैं.....वहां पर ठंडा पानी बह रहा है और जैसे ही वह मेरी टांग के ऊपर गिरता है, मेरी टांग हिल जाती है.......इतना कह कर वह फिर से सो जाता है।

लेकिन मैं अब सोच रहा हूं कि हमारी बड़ों की और इन छोटे छोटे बच्चों की दुनिया भी कितनी अलग है.....हमें सपने भी सांपों के आते हैं और इन के सपनों की दुनिया में भी मंदिर, झरने, कुदरती वादियां........यह सब कुछ है!!.....तभी मुझे ध्यान आता है कि उस बेहद सुंदर गीत का ....जिसे सुन कर इन बच्चों की दुनिया की एक झलक ज़रूर मिलती है.........आप भी ज़रूर सुनिये और अपने बचपन के दिन दोबारा जी लीजिये।


गुरुवार, 1 मई 2008

वैसे आप एक वर्ष में पिस्ते की कितनी गिरीयां खा लेते हैं ?....(मैडीकल व्यंग्य)

इस से पहले कि आप मेरा यह बेहूदा सा प्रश्न पढ़ कर आक्वर्ड महसूस करें और यह सोच कर मुझ से खफ़ा होने लगें कि क्या अब और कुछ लिखने को बचा नहीं जो......, इस प्रशन का जवाब सब से पहले मैं ही अपने आप से पूछता हूं। तो,सुनिये, मैं भी पूरे वर्ष में पिस्ते की आठ-दस गिरीयां खा ही लेता हूं। मेरा यह कोटा तो लगभग फिक्स ही है......दो-तीन गिरीयां मैं जब अपने ससुराल जाता हूं तब खाता हूं, दो-तीन फिर मुझे अपने दीदी के यहां जाकर भी खानी होती हैं......और वैसे मैं कोई इतना ज़्यादा सोशल-प्राणी हूं नहीं, ज्यादा कहीं आता जाता नहीं.....अब जैसा भी हूं, आप के सामने हूं.....अब अपने द्वारा खाई गई पिस्ते की गीरियों का स्कोर बढ़ाने के लिये तो इधर-उधर जाने से रहा.............लेकिन मेरे तक आप के मन का प्रश्न पहुंच गया है कि यार, तू अब हमें बातों में मत उलझा, पहले तो अपनी आठ-दस गिरीयों का ब्रेक-अप पूरा कर.....सो, चार गिरियां तो मैं गिना ही चुका हूं.....बाकी की खाता हूं दिवाली के दिनों में.....जब कोई भूला-भटका हमारा चाहने वाला ड्राई-फ्रूट के एक डिब्बे का उपहार हमें दे जाता है..( खुद खरीद कर तो पिछले बीस वर्षों में घर में एक-दो बार ही 50-100 ग्राम पिस्ते के दर्शन हुये हैं !!).. तो फिर उस के बाद आने वाले दस-बीस शुभचिंतकों के बीच जब उन पिस्ते की गीरियों को घुमा कर अपनी साधन-संपन्नता का परिचय दिया जाता है तो ऐसे ही कईं बार फार्मैलिटी के राउंड पे राउंड चल पड़ते हैं जब मेजबान कहता है कि लीजिये ना, यह पिस्ता तो आप छू तक नहीं रहे हैं, प्लीज़ लीजिये....फिर मेहमान का वही रटा-रटाया हुया फिकरा कसना.......डाक्टर साहब, सुबह से कईं जगह हो कर आये हैं.....पेट में बिल्कुल भी जगह नहीं है.....लेकिन इतने पर भी मेजबान कैसे हार मान ले....वह फिर अपने संभ्रांत होने का परिचय देने पर मजबूर हो जाता है......क्या यार, इंद्रजीत, इस ड्राई-फ्रूट के लिये भी क्या पेट में खाली जगह होने की ज़रूरत होनी जरूरी है ??( वो बात अलग है कि जब गेस्ट के जाने के बाद बच्चे इन गिरियों की मुट्ठियां भरना चाहते हैं तो हम ही उन के कान खींच कर कहते हैं कि अब तू इन से पेट भरेगा क्या ?.. दाल-रोटी को तो तू मुंह लगा के राज़ी नहीं).........बस, उस एक अदद ट्रे की घुमाई-फिराई के चक्कर में समझ लो पांच-छः गिरीयां विवशता वश खानी ही पड़ जाती हैं.....हां तो हो गया ना मेरा एक साल का कोटा पूरा....आठ-दस गिरीयां, अब तो आप खुश हैं ना .....वैसे एक बात यहां बता दूं कि यह गिरीयां खाने की विवशता मैंने इसलिये लिखी है क्योंकि मेरा इन को इतनी कम मात्रा में खाने से कुछ नहीं होता....वो कहते हैं ना ज़ुबान भी गीली नहीं होती........मैं तो अकसर व्यंग्य का एक बाण यह छोड़ा करता हूं कि अव्वल तो किसी को ट्रे इत्यादि में ड्राई-फ्रूट परोसो नहीं.......अगर किसी भी कारणवश हमारी ड्राई-फ्रूट परोसने की औकात हो ही जाये तो सीधे-सादे ठेठ पेंडू तरीके से कटोरियों में डाल कर सभी मेहमानों के हाथों में एक एक कटोरी थमा दो..................यकीन मानिये, मेरे ये कटोरी में ड्राई-फ्रूट परोसने वाले विचार मेरे बेटों को बहुत भाते हैं.....उन की तो बांछे ही खिल जाती हैं....लेकिन आप अभी तक यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर मैं कहना क्या चाह रहा हूं !!

कहने को ऐसा कुछ खास भी नहीं है....बस परसों की इंगलिश की अखबार में एक हैल्थ-कैप्सूल देख लिया जिसे नीचे दे रहा हूं.....

चलिये ज़रा अपनी टूटी-फूटी हिंदी में इस का अनुवाद भी किये देता हूं.....
प्रश्न है.....क्या गिरीयां खाने से मेरा ब्लड-प्रैशर कम हो जायेगा ?
जवाब दिया गया है कि हां, पिस्टाशिओ की गिरीयां तुम्हारा यह काम कर सकती हैं। मुट्ठी भर पिस्टाशिओ की गिरीयां...डेढ़ आउंस के लगभग रोज़ाना खाने से ब्लड-प्रैशर कम हो जाता है।
मुझे गिरी और अंग्रेज़ी नाम से शक सा तो हो गया कि शायद यह कैप्सूल रोज़ाना चालीस-पचास ग्राम पिस्ता खाने की ही बात कर रहा है मैंने यह हैल्थ-कैप्सूल पढ़ कर अपने पास बैठी श्रीमति जी से पिस्टाशिओ का मतलब पूछा। लेकिन जब उन्होंने भी इस संबंध में अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर की तो फिर मुझे फ़ादर कामिल बुल्के के अंगरेजी हिन्दी कोश का रूख करना ही पड़ा....जहां से यह तो तय हो गया कि यह पिस्टाशिओ नाम की बला कोई और नहीं अपना पिस्ता ही है। अब पता नहीं अंग्रेज़ों ने इस का इतना नटखट नाम क्यों रख दिया .....या मुझे तो यह भी नहीं पता कि यह हिंदी नाम ही पिस्टाशिओ से ही चुराया गया है....वैसे संभावना मुझे इस की ज़्यादा लग रही है।
लेकिन क्या आप को लगता है कि मैं अपने किसी मरीज़ को यह सलाह देने की ज़ुर्रत कर सकता हूं कि देख, तूने अगर अपना ब्लड-प्रेशर कम करना है ना तो मेरी बात मान जो कि मैंने कल इंगलिश के अखबार में पढ़ी है ....तू रोज़ाना 40-50 ग्राम पिस्ते की गिरीयां तो खा ही डाला कर...........पता है मैं इस तरह की सलाह क्यों नहीं देना चाहता, क्योंकि मुझे पता है कि मुझे शायद उसी समय उस के मुंह से नहीं भी तो उस की आंखों से यह जवाब मिल ही जायेगा......डाक्टर, तू तो अच्छा भला होता था, तू तो पहले हमेशा से सस्ते, सुंदर और टिकाऊ देसी पौष्टिक खाने की बातें किया करता था, आज तेरे को क्या हो गया है...तू ठीक तो है ना......तेरे को पता है कि पिस्ता 500 रूपये किलो और ऐसे में घर में एक-दो सदस्य 50 रूपये का पिस्ता ही खाने लगेंगे तो बच्चों को या तो पास के किसी गुरूद्वारे में भेजना पड़ेगा या कटोरा पकड़वा कर नुक्कड़ पर खड़ा करना होगा......डाक्टर तू जानता है जिस मुट्ठीभर पिस्ते की गीरियों की तू बात कर रहा है.......यह तो हमारे लिये किसी सपने के बराबर है.......डाक्टर, तू तो जानता है कि अब तो हालत इतनी पतली है कि आसमान को छूते इस साली दाल के दामों की वजह से यह दाल भी इस मुट्ठी से सरकी जा रही है, तू इन में पिस्ता भरने की बातें कर रहा है...मेरे किसी भी बच्चे ने पिस्ते की शकल तक नहीं देखी...यहां तक कि सब्जी लेने बाज़ार में जाना ही बंद कर दिया है...न रेट पूछो..ना ही किसी तरह की हीन भावना का अहसास ही हो.....बच्चे भी बेचारे सारा दिन वह बढ़िया बढिया सीरियल देख कर खुश हो लेते हैं जिस में औरतें ने कईं किलो मेक-अप चढ़ाया होता है, जिस में सब लोग बढिया बढिया कपड़े पहन कर, पूरी तरह सज कर , बढ़िया खाना खाने के लिये कुछ इस तरह से बैठते हैं मानो कि हमें चिढ़ा रहे हों .....ऐसे हालातों में सच बता, डाक्टर तू हम लोगों से इस तरह का बेहूदा मज़ाक भला करता ही क्यों है ?....अब इस का है कोई मेरे जैसे डाक्टर के पास जवाब ??....नहीं, यार, अब क्या जवाब दूं मैं इस का।

ऐसे मौकों पर मुझे मेरे पेरेन्ट्स द्वारा बचपन में कईं बार सुनाया गया वह बाहर के किसी अमीर देश का किस्सा ज़रूर याद आ जाता है ....उस देश में जब अकाल पड़ा तो वहां की जनता बेहाल होकर जब रानी साहिबा के पास पहुंची तो उस ने उन्हें यह लापरवाही से कह डाला.......कोई बात नहीं अनाज नहीं है तो क्या, आप बिस्कुट खा लिया करें। कहते हैं कि उस की इस स्टेटमैंट्स से उस देश में एक गदर हो गया। सोच रहा हूं कि ये काजू-पिस्ते-चिल्गोज़े जैसी खाने वाली चीज़ों के इस्तेमाल के ज़्यादा मशवरे अपने मरीज़ों को ना ही देने में ही मेरी भलाई है.....और मेरे मरीज़ों की भी !!!