शनिवार, 5 अप्रैल 2008
जब पटना यूनिवर्सिटी में कोई सवाल ऑउट-ऑफ सिलेबस पूछा जाता है !
अंग्रेज़ी अखबार के इस कैप्सूल ने मुझे तो ठीक ना किया !!
शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008
प्री-मैरिज काउंसिलिंग......खोदा पहाड़, निकला चूहा !
आज सुबह सुबह यह प्री-मैरिज काउंसिलिंग वाली न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ कर तो कुछ ऐसी ही फीलिंग हुई कि खोदा पहाड़-निकला चूहा। मैं तो बस संक्षेप में इतना ही कहना चाह रहा हूं कि जितनी परमिसिवनैस हम लोग आज अपने समाज में भी देख रहे हैं.....ऐसे वातावरण में तो यह अपने आप में एक सुलगता मुद्दा है ही !!....आज आप स्कूली बच्चों को यौन-शिक्षा देने की बात करें तो झट से कईं फ्रंट बन जायेंगे। ऐसे में अब हमें शादी के कुछ दिन पहले ही यह प्री-मैरिज काउंसिलिंग करने की बातें याद आने लगी हैं। क्या इतने क्विक-फिक्स सल्यूशन चल पायेंगे.....आप को क्या लगता है...........वो मैं आप की बात से पूर्णतयः सहमत हूं ...Something is better than nothing !!
वैसे मैं तो अपने यहां के युवक-युवतियों को तभी परिपक्व मानूंगा जब वे शादी से पहले एक दूसरे से मैडीकल-रिपोर्टज़ ( विशेषकर एचआईव्ही स्टेटस) की मांग करेंगे। हम लोग बाज़ार में दो सौ रूपये का सामान लेने जाते हैं तो इतनी नुक्ता-चीनी करते हैं और जब हमारे बेटी-बेटों को ब्याहने की बारी आती है तो हम इन के स्वास्थ्य के बारे में कुछ भी बात करने में इतना झिझकते हैं मानो कि ......!! मुझे पता है कि आज की तारीख में तो इस तरह की बात उठाना भी उपहास का कारण बनने के बराबर है...........लेकिन मार्क मॉय वर्ड्स ....देर-सवेर यह झिझक हमें खुद ही दूर करनी होगी !!.....बाकी फिर कभी !!
पानी साफ ही तो है.......क्या फर्क पड़ता है !
केवल इतना कह देने से ही नहीं चल पायेगा कि हमारे शहर में तो सीधा फलां-फलां नदी का ही पानी आता है, साफ़-स्वच्छ दिखता है ....इसलिये पानी के बारे में कभी इतना सोचा नहीं, अब कौन इस पानी-वानी की शुद्धता के चक्कर में पड़े। लेकिन यह सरासर एक गलत-फहमी ही है। क्योंकि जो पानी हमें साफ़-स्वच्छ दिखता है....उस में तरह तरह की कैमीकल एवं बैक्टीरीयोलॉजिकल अशुद्दियां हो सकती हैं जो हमें तरह तरह के रोग दे सकती हैं। आज जिस तरह से हवा-पानी-वातावरण प्रदूषित हैं, ऐसे में हमें पीने वाले पानी के बारे में भी अपना यह मांइड-सैट बदलना ही होगा।
पानी का क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिये। तो क्या बोतल वाली पानी ही घर में भी शुरू कर दिया जाये ?.....ना तो इस की शायद इतनी ज़रूरत है और ना ही यह 99 प्रतिशत लोगों( कहने की इच्छा तो 99.9 प्रतिशत लोगों की हो रही है) के वश की बात है।
अकसर एक बात मुझे बहुत सुनने में मिलती है कि लोग एक्वागार्ड का पानी इसलिये नहीं पीते ....क्योंकि उन्हें लगता है कि अब पानी भी इतना शुद्ध पीना शुरू कर देंगे तो शरीर की इम्यूनिटी क्या करेगी ...........उसे भी तो कोई काम दे कर रखना है.....ऐसा ना हो कि ऐसा पानी पीने से हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही खत्म हो जाये।
वैसे एक बात बता दूं कि आज के दौर में ऐसी सोच बिल्कुल बेबुनियाद ही नहीं...बल्कि खतरनाक भी है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के इलावा दूसरे लोगों को तो यह पता ही नहीं कि आज कल पानी का प्रदूषण किस स्तर पर पहुंचा हुया है। और रही बात शरीर की इम्यूनिटी खत्म होने का डर............इस देश में रहते हुये उस की तो आप चिंता ना करें क्योंकि उस इम्यूनिटी को पूरी लिमिट पर काम करने के बहुत मौके मिलते रहते हैं। और जहां तक पानी की बात है....ठीक है, आप घर में शुद्ध पानी पी लेंगे, ऑफिस में एक्वागार्ड का पानी पी लेंगे...लेकिन फिर भी हम लोग कितनी ऐसी जगह में जाते हैं जैसे किसी के घर, किसी के ऑफिस में....वहां पर जाकर ऐसे वैसे पानी को पीने से मना करना शिष्टाचार के नियमों का हनन लगता है ....सो, ऐसे मौकों पर हम जो कुछ भी मिलता है...चाहे वह कैसा भी हो और किस ढंग से परोसा जा रहा है....हम बहुत कुछ अनदेखा कर के दो-घूंट भर लेने में ही बेहतरी समझते हैं। तो, अपनी इम्यूनिटी को थोड़ा काम सौंपने के लिये बस कुछेक ऐसे ही मौके ठीक हैं.....इस से ज्यादा हम उस से काम लेना चाहेंगे तो अकसर वह भी हाथ खड़े कर के कह देती है..कि यह पड़ा तेरा सिस्टम, अब तूने जो लापरवाहियां की हैं, उन्हें तू ही निपट.....मैं तो आज से 15-20 दिन के लिये छुट्टी पर जा रही हूं क्योंकि जब टायफायड और हैपेटाइटिस ए (पीलिया ) जैसे रोग तूने बुला ही लिये हैं तो मुझे थोड़े दिनों की छुट्टी दे, थोड़े दिन तू भुगत ले....मैं फिर आती हूं, ऐसा कह के इम्यूनिटी अकसर अपने घुटने टेक देती है।
यह जो मैं शिष्टाचार की बात ऊपर कह चुका हूं...इस का भी जितना कम से कम उपयोग हो वही बेहतर है। चलिये, मैं ऐसी कुछ परिस्थितियों में क्या करता हूं बता देता हूं ....शायद किसी का फायदा हो जाये.....बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव बांटना अब मेरी तो आदत सी ही हो गई है....
-मैं जब भी किसी भी दुकान पर जाता हूं वहां पानी नहीं पीता हूं( जब तक कि कोई घोर एमरजैंसी ही ना हो)....बस ऐसे ही कुछ भी कह कर टाल जाता हूं कि बस पांच मिनट पहले ही चाय पी है.....( लेकिन ऐसे झूठ बोलने पर कभी अफसोस भी नहीं हुया)।
रैस्टरां वगैरा में भी पानी जितना अवाय्ड हो सके करता हूं , ऐसे ही दो-तीन घूंट पी लेने तक ही सीमित रहता हूं। वैसे अकसर हम लोग कहीं भी ऐसी जगह जायें पानी अपना ही साथ ले कर चलते हैं।
अपने आफिस में भी मैंने पानी कभी नहीं पिया...हां, गर्मी के मौसम में एक बोतल अपने साथ ज़रूर रखता हूं।
बस, बात केवल इतनी ही है कि हमें इस के बारे में थोडा अवेयर रहना होगा............मैं तो अपने मरीज़ों से भी यही कहता हूं कि अब इन एक्वागार्डों वगैरा का इस्तेमाल कोई लग्ज़री नहीं रह गया, ये बिजली की तरह ही ज़रूरी हो गये हैं ....इसलिये जो भी लोग इन को अफोर्ड कर सकते हैं वे इन्हें ज़रूर लगवा लें।
माफ कीजियेगा....मैंने इस पोस्ट दो बार इस एक्वागार्ड का नाम ले लिया है.....ऐसे प्रोड्क्टस के नाम लेना मेरे प्रिंसीपल्स के खिलाफ है.......मेरा इस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं है....मैं तो बस इसे पानी शुद्ध करने के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र की जगह ही इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अकसर लोग इतनी शुद्ध भाषा समझते नहीं है..तो आप लोग अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अच्छी कंपनी का यह संयंत्र तो अपने यहां लगवा ही लें। और जहां तक संभव हो ऐसे पानी को ही अपने वर्क-प्लेस पर ले जायें....अब पता नहीं जितना यह सब कुछ लिख देना आसान है उतना आप लोगों के लिये यह प्रैक्टीकल भी है कि नहीं......पर यह है बहुत ही महत्वपूर्ण !!
एक बात मैंने और बहुत नोटिस की है कि बहुत सारी जगह पर ये एक्वागार्ड तो लगे होते हैं लेकिन उन की मेनटेनैंस पर लोग ध्यान नहीं देते, उन का एएमसी नहीं करवाते जिसके तहत कंपनी सालाना आठ-नौ रूपये में इस की मुरम्मत का सारा जिम्मा लेती है और दो-एक बार कार्बन वगैरा भी चेंज करवाती है......इन संयंत्रों का फायदा ही तभी है जब ये परफैक्ट वर्किंग आर्डर में काम कर रहे होते हैं....नहीं तो क्या फायदा !! इसलिये इस सालाना 800-900 रूपये के खर्च को भी हमें सहर्ष सहन कर लेना चाहिये....अपने सारे परिवार की सेहत की खातिर.....यकीन मानिये, शायद उतने से ज़्यादा तो तरह तरह की पानी से पैदा होने वाली मौसमी बीमारियों की वजह से डाक्टर के भरने वाले बिल में कटौती आ जायेगी।
लेकिन हां, अगर कोई किसी भी कारणवश यह मशीन नहीं लगवा रहा, तो उसे कम से कम पानी उबाल कर ही पीना चाहिये। यह बहुत ज़रूरी है।
और रही बात पानी के साफ दिखने वाली....जब जब भी इस बात पर भरोसा किया है धोखा ही खाया है। कुछ महीने पहले हम लोग कुल्लू-मनाली गये.....रास्ते में जहां भी रूके वहां पर खूब पानी पिया....वहां मनाली पहुंच कर भी अपने रेस्ट-हाउस का ही पानी पीते रहे.....क्योंकि सब ने यही कहा कि यहां तो पानी सब से शुद्ध है....सीधा पहाड़ों से ही आ रहा है.......लेकिन पता तब चला जब वहां से वापिस आते ही सारे का सारा परिवार पेट दर्द, ग्रैस्ट्रोएँटराइटिस और बुखार से एक हफ्ता पड़ा रहा.....तब मन ही मन निश्चय किया कि अगर बाहर घूमने में तीस हज़ार रूपये खर्च कर आते हैं तो आखिर तीन सौ रूपये में पानी की बोतलें खरीद कर पीने में क्या हर्ज़ है.........बस, क्या कहूं.......कि यह मिडिल क्लास मांइड-सैट भी कभी कभी penny- wise but pound-foolish वाली सिचुयेशन में जा फैंकता है।
जाते जाते , एक ही बात कि पानी की शुद्धता से कोई समझौता नहीं ......चाहे दिखने में साफ दिखे, फिर भी उस में हज़ारों जीवाणु आप के शरीर में जाकर उत्पाद मचाने की तैयारी में हो सकते हैं।
अगर कुछ बच गया होगा तो आप की फीडबैक के बाद लिख देंगे।
पानी साफ ही तो है.......क्या फर्क पड़ता है !
केवल इतना कह देने से ही नहीं चल पायेगा कि हमारे शहर में तो सीधा फलां-फलां नदी का ही पानी आता है, साफ़-स्वच्छ दिखता है ....इसलिये पानी के बारे में कभी इतना सोचा नहीं, अब कौन इस पानी-वानी की शुद्धता के चक्कर में पड़े। लेकिन यह सरासर एक गलत-फहमी ही है। क्योंकि जो पानी हमें साफ़-स्वच्छ दिखता है....उस में तरह तरह की कैमीकल एवं बैक्टीरीयोलॉजिकल अशुद्दियां हो सकती हैं जो हमें तरह तरह के रोग दे सकती हैं। आज जिस तरह से हवा-पानी-वातावरण प्रदूषित हैं, ऐसे में हमें पीने वाले पानी के बारे में भी अपना यह मांइड-सैट बदलना ही होगा।
पानी का क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिये। तो क्या बोतल वाली पानी ही घर में भी शुरू कर दिया जाये ?.....ना तो इस की शायद इतनी ज़रूरत है और ना ही यह 99 प्रतिशत लोगों( कहने की इच्छा तो 99.9 प्रतिशत लोगों की हो रही है) के वश की बात है।
अकसर एक बात मुझे बहुत सुनने में मिलती है कि लोग एक्वागार्ड का पानी इसलिये नहीं पीते ....क्योंकि उन्हें लगता है कि अब पानी भी इतना शुद्ध पीना शुरू कर देंगे तो शरीर की इम्यूनिटी क्या करेगी ...........उसे भी तो कोई काम दे कर रखना है.....ऐसा ना हो कि ऐसा पानी पीने से हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही खत्म हो जाये।
वैसे एक बात बता दूं कि आज के दौर में ऐसी सोच बिल्कुल बेबुनियाद ही नहीं...बल्कि खतरनाक भी है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के इलावा दूसरे लोगों को तो यह पता ही नहीं कि आज कल पानी का प्रदूषण किस स्तर पर पहुंचा हुया है। और रही बात शरीर की इम्यूनिटी खत्म होने का डर............इस देश में रहते हुये उस की तो आप चिंता ना करें क्योंकि उस इम्यूनिटी को पूरी लिमिट पर काम करने के बहुत मौके मिलते रहते हैं। और जहां तक पानी की बात है....ठीक है, आप घर में शुद्ध पानी पी लेंगे, ऑफिस में एक्वागार्ड का पानी पी लेंगे...लेकिन फिर भी हम लोग कितनी ऐसी जगह में जाते हैं जैसे किसी के घर, किसी के ऑफिस में....वहां पर जाकर ऐसे वैसे पानी को पीने से मना करना शिष्टाचार के नियमों का हनन लगता है ....सो, ऐसे मौकों पर हम जो कुछ भी मिलता है...चाहे वह कैसा भी हो और किस ढंग से परोसा जा रहा है....हम बहुत कुछ अनदेखा कर के दो-घूंट भर लेने में ही बेहतरी समझते हैं। तो, अपनी इम्यूनिटी को थोड़ा काम सौंपने के लिये बस कुछेक ऐसे ही मौके ठीक हैं.....इस से ज्यादा हम उस से काम लेना चाहेंगे तो अकसर वह भी हाथ खड़े कर के कह देती है..कि यह पड़ा तेरा सिस्टम, अब तूने जो लापरवाहियां की हैं, उन्हें तू ही निपट.....मैं तो आज से 15-20 दिन के लिये छुट्टी पर जा रही हूं क्योंकि जब टायफायड और हैपेटाइटिस ए (पीलिया ) जैसे रोग तूने बुला ही लिये हैं तो मुझे थोड़े दिनों की छुट्टी दे, थोड़े दिन तू भुगत ले....मैं फिर आती हूं, ऐसा कह के इम्यूनिटी अकसर अपने घुटने टेक देती है।
यह जो मैं शिष्टाचार की बात ऊपर कह चुका हूं...इस का भी जितना कम से कम उपयोग हो वही बेहतर है। चलिये, मैं ऐसी कुछ परिस्थितियों में क्या करता हूं बता देता हूं ....शायद किसी का फायदा हो जाये.....बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव बांटना अब मेरी तो आदत सी ही हो गई है....
-मैं जब भी किसी भी दुकान पर जाता हूं वहां पानी नहीं पीता हूं( जब तक कि कोई घोर एमरजैंसी ही ना हो)....बस ऐसे ही कुछ भी कह कर टाल जाता हूं कि बस पांच मिनट पहले ही चाय पी है.....( लेकिन ऐसे झूठ बोलने पर कभी अफसोस भी नहीं हुया)।
रैस्टरां वगैरा में भी पानी जितना अवाय्ड हो सके करता हूं , ऐसे ही दो-तीन घूंट पी लेने तक ही सीमित रहता हूं। वैसे अकसर हम लोग कहीं भी ऐसी जगह जायें पानी अपना ही साथ ले कर चलते हैं।
अपने आफिस में भी मैंने पानी कभी नहीं पिया...हां, गर्मी के मौसम में एक बोतल अपने साथ ज़रूर रखता हूं।
बस, बात केवल इतनी ही है कि हमें इस के बारे में थोडा अवेयर रहना होगा............मैं तो अपने मरीज़ों से भी यही कहता हूं कि अब इन एक्वागार्डों वगैरा का इस्तेमाल कोई लग्ज़री नहीं रह गया, ये बिजली की तरह ही ज़रूरी हो गये हैं ....इसलिये जो भी लोग इन को अफोर्ड कर सकते हैं वे इन्हें ज़रूर लगवा लें।
माफ कीजियेगा....मैंने इस पोस्ट दो बार इस एक्वागार्ड का नाम ले लिया है.....ऐसे प्रोड्क्टस के नाम लेना मेरे प्रिंसीपल्स के खिलाफ है.......मेरा इस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं है....मैं तो बस इसे पानी शुद्ध करने के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र की जगह ही इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अकसर लोग इतनी शुद्ध भाषा समझते नहीं है..तो आप लोग अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अच्छी कंपनी का यह संयंत्र तो अपने यहां लगवा ही लें। और जहां तक संभव हो ऐसे पानी को ही अपने वर्क-प्लेस पर ले जायें....अब पता नहीं जितना यह सब कुछ लिख देना आसान है उतना आप लोगों के लिये यह प्रैक्टीकल भी है कि नहीं......पर यह है बहुत ही महत्वपूर्ण !!
एक बात मैंने और बहुत नोटिस की है कि बहुत सारी जगह पर ये एक्वागार्ड तो लगे होते हैं लेकिन उन की मेनटेनैंस पर लोग ध्यान नहीं देते, उन का एएमसी नहीं करवाते जिसके तहत कंपनी सालाना आठ-नौ रूपये में इस की मुरम्मत का सारा जिम्मा लेती है और दो-एक बार कार्बन वगैरा भी चेंज करवाती है......इन संयंत्रों का फायदा ही तभी है जब ये परफैक्ट वर्किंग आर्डर में काम कर रहे होते हैं....नहीं तो क्या फायदा !! इसलिये इस सालाना 800-900 रूपये के खर्च को भी हमें सहर्ष सहन कर लेना चाहिये....अपने सारे परिवार की सेहत की खातिर.....यकीन मानिये, शायद उतने से ज़्यादा तो तरह तरह की पानी से पैदा होने वाली मौसमी बीमारियों की वजह से डाक्टर के भरने वाले बिल में कटौती आ जायेगी।
लेकिन हां, अगर कोई किसी भी कारणवश यह मशीन नहीं लगवा रहा, तो उसे कम से कम पानी उबाल कर ही पीना चाहिये। यह बहुत ज़रूरी है।
और रही बात पानी के साफ दिखने वाली....जब जब भी इस बात पर भरोसा किया है धोखा ही खाया है। कुछ महीने पहले हम लोग कुल्लू-मनाली गये.....रास्ते में जहां भी रूके वहां पर खूब पानी पिया....वहां मनाली पहुंच कर भी अपने रेस्ट-हाउस का ही पानी पीते रहे.....क्योंकि सब ने यही कहा कि यहां तो पानी सब से शुद्ध है....सीधा पहाड़ों से ही आ रहा है.......लेकिन पता तब चला जब वहां से वापिस आते ही सारे का सारा परिवार पेट दर्द, ग्रैस्ट्रोएँटराइटिस और बुखार से एक हफ्ता पड़ा रहा.....तब मन ही मन निश्चय किया कि अगर बाहर घूमने में तीस हज़ार रूपये खर्च कर आते हैं तो आखिर तीन सौ रूपये में पानी की बोतलें खरीद कर पीने में क्या हर्ज़ है.........बस, क्या कहूं.......कि यह मिडिल क्लास मांइड-सैट भी कभी कभी penny- wise but pound-foolish वाली सिचुयेशन में जा फैंकता है।
जाते जाते , एक ही बात कि पानी की शुद्धता से कोई समझौता नहीं ......चाहे दिखने में साफ दिखे, फिर भी उस में हज़ारों जीवाणु आप के शरीर में जाकर उत्पाद मचाने की तैयारी में हो सकते हैं।
अगर कुछ बच गया होगा तो आप की फीडबैक के बाद लिख देंगे।
गुरुवार, 3 अप्रैल 2008
मैडीकल खबरों की खबर...1.
अब यह खबर लोगों को इतना क्यों डरा रही है कि आइसक्रीम खाने से हड्डीयां कमज़ोर हो सकती हैं। यह खबर जो आप यहां देख रहे हैं यह आज के ही पेपर में छपी है। जब सुबह सुबह मैं इस तरह की खबरों के दर्शन कर लेता हूं ना तो परेशान हो उठता हूं....क्योंकि मैं जानता हूं कि इन हिंदी अखबारों का दायरा बहुत बड़ा है और एक औसत पाठक इन में लिखी एक-एक लाइन को बहुत बारीकी से पढ़ता तो है ही उस पर अमल करने की भी कोशिश करता है।
इस तरह की त्रुटियां जहां भी मुझे हिंदी या पंजाबी के पेपरों में दिखती रही हैं मैं इन को संबंधित सम्पादकों के नोटिस में ई-मेल, फैक्स के ज़रिये पिछले चार-पांच वर्षों से लाता रहा हूं, लेकिन सिवाय एक-दो बार के जब कि अगले ही दिन संपादक ने संपादक के नाम पत्रों वाले कॉलम में इन्हें वैसे का वैसे छाप दिया.....ज़्यादातर मौकों पर इस पर कोई ध्यान ना दिया गया । अब यही काम अपनी इस ब्लोग पर कर लेता हूं क्योंकि मैंने देखा है कि इस हिंदी-ब्लोगोस्फीयर में भी बहुत से पत्रकार हैं जिन को इस विषय के बारे में अवेयर/सैंसेटाइज़ किया जा सकता है।
खैर, आज की यह खबर तो आप पढ़ें। मुझे तो यह बड़ी ही अजीब सी खबर लगी ....केवल इस की बढ़िया सी तस्वीरें और हैडिंग्ज़ ही न देखे जायें, कुछ बातें इस में लिखी बातों की भी हो जायें तो बेहतर होगा।
इस में और बातें तो की गई हैं कि बर्फ की सिल्लीयों में धूल-मिट्टी और मक्खियां लगती रहती हैं, लेकिन जिस पानी से यह बर्फ बनती है उस के बारे में भी बात होनी लाज़मी थी कि नहीं ....सारा दोष तो उस पानी का ही है।
अब अगले पैराग्राफ में यह भी बहुत ठोक-पीट कर कह तो दिया गया कि पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिये। अब कितना आसान है इस तरह की स्टेटमैंट जारी कर देना कि यह होना चाहिये वो होना चाहिये........अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि आइसक्रीम की फैक्टरी वाला इस काम के लिये कोई अलग पानी इस्तेमाल करता है जिस में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है और वह ऐसा भी नहीं करता होगा कि इस फ्लोराइड को बाहर से इस पानी में मिला देता हो.....उस के लिये ना तो ऐसा करना मुनासिब ही है और ना ही उस के द्वारा ऐसा करना संभव ही है। वैसे भी उसे ज्यादा फ्लोराइड वाले पानी को इस्तेमाल करने से कोई विशेष लाभ तो मिलने से रहा। तो, बात सीधी सी इतनी है कि जो भी पानी उस के पास उपलब्ध है वह वही तो इस्तेमाल करेगा............लेकिन जो भी हो , इस का शुद्धिकरण किया जाना बेहद लाजमी है, सिवाय उस फ्लोराइड के ज़्यादा-कम के चक्कर में पड़े हुये क्योंकि पानी में फ्लोराइड की मात्रा को नियंत्रित करने के लिये अमीर देशों में तो बहुत महंगे प्लांट लगे हुये हैं लेकिन हम लोग तो अभी इस मुद्दे पर बात न ही करें तो बेहतर होगा...............क्योंकि अभी मच्छरों से छुटकारा पाने जैसे और भी तो बहुत से बेसिक मुद्दे हैं। वैसे पेय जल में ज़्यादा फ्लोराइड वाला मुद्धा एक अच्छा खासा विषय है जिस के हडि्डयों एवं दांतों पर बुरे प्रभावों के बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे।
बात केवल इतनी है कि जिस एरिये की जनता जो पानी पी रही है उसी पानी से ही तो ये बर्फ, बर्फ के गोले बन रहे हैं........ऐसे में सारा दिन मजबूरी वश यही पानी पीने से जो असर इन बशिंदों की हड्डियों पर पड़ेगा, यकीन मानिये एक बर्फ का गोला खाने से उस में आखिर क्या अंतर पड़ने वाला है, इसी समय यही सोच रहा हूं!!
एक विचार यह भी आ रहा है कि अपने ही प्रोफैशन से जुड़े व्यक्तियों की बातें काटते हुये अच्छा तो नहीं लगता, बहुत समय तक मैं यह सब कुछ पढ़ कर चुप रहता था, अपने आप में कुढ़ता रहता है ....अब मैं इन बातों को उजागर करता हूं...क्योंकि मैं यह अच्छी तरह से यह समझ गया हूं कि अगर मेरे जैसे लोग इस काम का बीड़ा नहीं उठायेंगे तो और कौन यह काम करने आयेगा!!
अब इस खबर की एक अजीबो-गरीब बात यह देखिये कि कहीं भी इस आइस-क्रीम बनाने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले दूध के ऊपर इस ने बिल्कुल भी सवालिया निशान नहीं उठाया....सवालिया निशान की तो छोड़िये, इस का जिक्र तक करने की ज़रूरत नहीं समझी !!....वैसे मेरी तरह आप को भी पांच-सात रूपये में बिकने वाली आइसक्रीम की सोफ्टी देख कर हैरानगी तो बहुत होती होगी कि पांच-सात रूपये में इतना ज़्यादा........हो न हो, जरूर कुछ तो गड़बड़ होती है, वरना पांच-सात रूपये में यह सब कैसे मिल सकता है। मुझे भी नहीं पता ये लोग क्या मिलाते हैं क्या नहीं !!..
इस खबर में एक दंत-चिकित्सक यह कह रहे हैं कि अगर आइस-क्रीम खाई है तो ब्रुश कर के सोना चाहिये.....नहीं तो दांतों मे ठंडा-गर्म लगने लगता है। अब इस के बारे में तो इतना ही कहना चाहूंगा कि आइसक्रीम खाने के दिन ही नहीं ...रोजाना रात को सोने से पहले ब्रुश करना निहायत ज़रूरी है। और, ऐसा न करना दांतों की हर प्रकार की तकलीफों को जन्म देता है............सिर्फ दांतो में ठंडा-गर्म लगना ही नहीं, हां उन तकलीफों में से एक यह हो सकता है।
चलते चलते यही कहना चाहूंगा कि बाज़ार में बिकने वाली इन आइसक्रीम और गोलों में सब कुछ गड़बड़ ही है..........जैसा कि आप इस खबर में भी पढ़ रहे हैं कि तरह तरह के नुकसानदायक रंग इस्तेमाल किये जाते हैं, बर्फ खराब, बर्फ को बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला पानी गड़बड़, सैकरीन का प्रयोग, अजीबोगरीब फ्लेवरर्ज़....क्योंकि अकसर इन आइसक्रीम वालों को , गोलों को किसी तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सकता .....( या, कोई करना नहीं चाहता !!....क्या आप यह सोच रहे हैं ?)…..ऐसे हालात में आखिर इस तरह की आइसक्रीम, बर्फ के गोलों वगैरा के चक्कर में आखिर पड़े तो क्यों पड़ें ?........वैसे बात सोचने की है कि नहीं !
बुधवार, 2 अप्रैल 2008
अच्छा तो अब तस्वीरें ही करेंगी अपना काम !!
ये एन.सी.ई.आर.टी एवं राज्य शिक्षा बोर्डों की किताबें !
इस के बारे में मैं इतने स्कूल के प्रशासनों को कह चुका हूं..और मीडिया में इस के बारे में इतना लिख चुका हूं....लेकिन कुछ भी ना तो हुया है और ना ही होगा। सब कुछ यूं ही चलता रहेगा...ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अकसर मैं देखता हूं कि जिस दिन छोटी छोटी कक्षाओं की किताबें स्कूल में लेने लोग जाते हैं तो दो-अढ़ाई हज़ार रूपये मां-बाप की जेब से उड़ा लिये जाते हैं। घर आकर जब अकसर टोटल मारा जाता है तो यकीनन यही खुलासा होता है कि इन सब का योग तो इस रकम का आधा ही बनता है।
बात यह नहीं है कि कौन इन स्कूलों के ये नखरे बर्दाश्त कर सकता है और कौन नहीं ! सीधी सी बात यही है कि हम लोगों की इस तरह की छोटी-छोटी समस्यायें ही विकराल रूप धारण ही इसलिये कर लेती हैं क्योंकि हमारी सोच कुछ इस तरह की हो गई है कि यार, छोड़ो क्या फर्क पड़ता है, यह भी कोई रकम है जिस के लिये किसी से बात की जाये !!!..........यही हम लोगों की भूल है....फर्क पड़ता है, बहुत पड़ता है ...बहुत से लोगों को पड़ता है लेकिन उन की कोई आवाज़ ही नहीं है और न ही वे अपनी आवाज़ उठाना चाहते हैं और हम लोग जो अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचाना जानते हैं, हमारा क्या है..........हमें क्या फर्क पड़ता है !! और खेद की बात तो यही है कि जिन पब्लिशर्ज़ की किताबें इन स्कूलों में लगवा दी जाती हैं कईं बार तो उन का नाम तक भी हम लोगों ने सुना नहीं होता, और कईं बार तो इन में इतनी गलतियां होती हैं कि क्या कहें !
पिछले वर्षों में जब भी मैंने यह बात स्कूल प्रशासनों के साथ उठाई है तो मुझे बेहद ओछे से जवाब मिले हैं.....जैसे कि हां, हां, अगले साल से हम कुछ करेंगे, हम तो टीचर्ज़ की एक कमेटी बना देते हैं जो ये सब किताबें रिक्मैंड करती है, या कईं बार तो मुझे यह कह कर भी समझाने की कोशिश की गई कि ये जो सरकारी किताबें हैं ना ये होती हैं....औसत छात्रों के लिये....चूंकि हमारा लक्ष्य होता है बच्चों के शैक्षिक स्तर को बहुत ज्यादा बढ़ाना, इसलिये हमें ये प्राइवेट किताबें तो लगवानी ही पड़ती हैं। मैं इस से रती भर भी सहमत नहीं हूं.....पहले एनसीईआरटी द्वारा इतनी मेहनत से और इतने कम दाम में उपलब्ध करवाई जाने वाली किताबें तो बच्चे पढ़ लें....बाद में जितनी मरजी ये बच्चे प्राईवेट प्रकाशकों की किताबें पढ़ सकते हैं।
विभिन्न विषयों की किताबे तैयार करवाने के लिये एनसीईआरटी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है...यह हम में से अधिकांश लोग जानते नहीं । इतने सारे बुद्धिजीवी इस प्रोसैस में इन्वाल्व होते हैं कि यकीन ही नहीं होता कि एक किताब तैयार करने के लिये इतने सारे सिज़न्ड लोगों को शामिल किया जाता है। मैंने भी एनसीईआरटी के निमंत्रण पर कुछ सप्लीमैंटरी बुक्स की तैयारी के वक्त इस तरह की मीटिंग्स अटैंड की हुई हैं, इसलिये मैं यह सब इतने विश्वास से कह पा रहा हूं।
एक तरफ तो गैर-सरकारी स्कूलों ने किताबों से संबंधित लूट सी मचा रखी है....माफ़ कीजियेगा, मुझे कोई माइल्ड शब्द मिल नहीं रहा, क्या करूं !
ऐसे घुटन भरे माहौल में कल बड़ी मुश्किल से कल की अखबार के रूप में शिक्षा विभाग, चंडीगढ़ प्रशासन की तरफ से ठंडी हवा का एक झोंका सा आया तो है......कल की अखबार में छपे इस विज्ञापन को आप भी देखिये....लंबा था, इस लिये दो हिस्सों में है............आप देख रहे हैं ना कि सब कुछ कितना पारदर्शी और साफ़-सुथरा लग रहा है...किसी को कोई शक नहीं और न ही संदेह करने का लेश-मात्र भी स्कोप है ! शिक्षा विभाग द्वारा इस साल राजकीय स्कूलों में लागू कक्षा 1 से 10 तक की पाठ्य पुस्तकों की पूरी सूची जारी कर दी है और यहां तक कि पुस्तक विक्रेता इन के दाम पर कितनी छूट देने को बाध्य है, इस का भी सही खुलासा कर दिया गया है। और बुक-विक्रेता के द्वारा उक्त छूट देने से मना करने पर जो फोन नंबर घुमाना है, वह भी तो दे दिया गया है....अब सरकार इस से ज़्यादा और करे भी तो क्या करे!!...कुछ काम पब्लिक का भी तो है ना, दोस्तो !!
मेरे मन में तो बस यही विचार आ रहा है कि सभी राजकीय स्कूलों में तो ठीक है यह लिस्ट लागू हो जायेगी , माडल स्कूलों में भी ये किताबें ही लगवाई जायेंगी, लेकिन जो बच्चे गैर-सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, वे क्या करें ! …..आखिर इस तरह के आदेशों में गैर-सरकारी स्कूलों (लेकिन सरकार ही से मान्यता प्राप्त) को क्यों छोड़ दिया जाता है ?......शायद इसलिये ताकि वे मनमानी कर सकें। शायद आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे कि इस तरह के आदेश तो सारे ही स्कूलों के लिये ही लागू होने चाहिये।
मंगलवार, 1 अप्रैल 2008
ऐसा विज्ञापन तो आपने पहले कभी देखा न होगा.......लगी शर्त ?
लेकिन इस विज्ञापन को देखने के बाद आप प्रशासन की भी चेतनता की दाद दिये बिना कैसे रह पायेंगे! ठीक है, इस तरह की समस्यायें देखी तो जाती हैं....लेकिन अकसर बारहवीं के परिणाम के बाद या कभी कभी दसवीं के परीक्षा परिणामों के बाद भी तो इस तरह की खबरें न्यूज़ में रहती हैं। और हां, उन दिनों एफएम पर इस तरह के प्रोग्राम भी कईं बार सुनाये जाते हैं जिन में कांऊस्लर्ज़ इन छात्रों को परिणामों को फेस करने के टिप्स बताते हैं या तो फिर कईं न्यूज़-पेपरर्ज़ में टीन-एजर्ज़ के जो सप्लीमेंट्स आते हैं उन में इस तरह के विषय कवर होते हैं। लेकिन इस तरह का सरकारी इश्तिहार भई मैंने तो पहली बार ही देखा है।
आठवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम घोषित करने से पहले इस तरह की Disaster preparedness देख कर मिक्सड़ फीलिंग्स सी हो रही हैं। बड़े बड़े चिकित्सक तैयार हैं... उन के मोबाइल फोन इश्तिहार में बताये गये हैं।
इस लाइन की तरफ तो ध्यान करिये.....माता-पिता को सलाह दी जाती है कि यदि बच्चा ज्यादा उदास या परेशान लगे तो इन नंबरों पर संपर्क करें व बच्चे को अकेला ना छोड़ें, उसका मन लगाएं , भला बुरा न कहें..............यह पढ़ कर मेरे मन में तो यही विचार आ रहा है कि रिजल्ट से पहले ही वह पंजाबी का गीत सीडी में डाल कर तैयार ही रखा जाये....जिस के बोल हैं......खायो पियो ऐश करो मितरो...दिल पर किसे दा दुखायो ना.........और हां, अगर बच्चे के बाप को अच्छा भंगड़ा डालना आता हो और मां को गिद्दा डालना आता है तो ऐसे समय में यह बहुत काम आयेगा क्योंकि प्रशासन भी तो यही कह रहा है कि उदास बच्चे का मन लगायें.......और जब भांगड़ा डालने के बाद सारा परिवार अच्छी तरह हांफ जाये तो किसी फास्ट-फूड रैस्टरां में जाकर चाइनीज़ खाने पर टूट पड़ने के बारे में आप का क्या ख्याल है !!
ओहो, यह क्या भूल हो गई, ....विज्ञापन में बात तो कही गई है कि 31मार्च को आठवीं कक्षा को रिजल्ट आने वाला है लेकिन यह विज्ञापन आज 1 अप्रैल को अखबार में क्या कर रहा है....अगर कल ही किसी के साथ कोई मिसहैपनिंग हो जाती तो !!
खैर, मैं तो फिलहाल यही सोच रहा हूं कि समय बहुत जल्दी बदल रहा है और शायद अगले साल प्रशासन को पांचवी कक्षा के परिणाम से पहले भी ऐसा विज्ञापन देना पड़े। लेकिन ध्यान रहे.....रिजल्ट से पहले, बाद में नहीं !!
5 comments:
डॉ. साहब, आप की सब बातों से सहमति है। मूल बात तो यह कि पानी जो आप पिएं वह स्वच्छ और जीवाणु रहित होना चाहिए। अगर आप के पाइप में पानी पीने योग्य आ रहा है तो अतिरिक्त साधन की आवश्यकता नहीं है। फिर भी हम चाहेंगे कि मानव शरीर जो प्रत्येक समस्या का हल स्वयं खोजने की क्षमता रखता है। उस क्षमता का ह्रास नहीं हो। मानव शरीर की इस क्षमता के बारे में अवश्य ही लिखें। यह मेरा अनुरोध है।
आपने जो कुछ भी लिखा है मैं उस सब का पालन करता हूं....फिर भी बीमारियां घेर ही लेती हैं.
लगता है उबाला और फिर छाना पानी बेस्ट है।
चोपडा जी , मे कई बार हेरान होता हु जब कभी टी बी पर देखता हु की हमारे देश मे नदियो मे सीधा फ़ेकट्रीयो, कारखानो, ओर शहर के नाले का पानी आता हे, ओर रही सही कसर लोग गन्दगी डाल कर पुरी कर देते हे, जब की यही पानी सभी ने पीना हे,लेकिन फ़िर भी जानबुझ कर करते हे, नेता भी यही पानी पीते हे फ़िर भी नदियो को गन्दा करने वालो को कुछ नही कहते, पेसा ले कर चुप हो जाते हे,जब मोत सामने खडी हो गी तो यह पेसा भी काम नही आये गा,कया सच मे हम तरक्की कर रहे हे ???
SECURITY CENTER: See Please Here
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