मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

ज्यादा पका हुआ मीट बढ़ा देता है ब्लैडर कैंसर का रिस्क

यह तो हम सब जानते ही हैं कि कम पका हुआ (undercooked meat) मीट खाने से फूड-प्वाईज़निंग के साथ ही साथ अन्य कईं तरह की बीमारियां होने का भी रिस्क रहता है।

लेकिन ज़्यादा पका हुआ मीट भी क्या सेफ़ है! -- इस से मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा दोगुना हो जाता है। अमेरिका में एक स्टडी जिसे 1700 लोगों पर किया गया और जो 12 साल तक चली है उस के बाद चिकित्सा वैज्ञानिकों ने ये परिणाम दुनिया के सामने रखे हैं। यहां तक कि बहुत ज़्यादा मीट खाने से भी यह रिस्क बढ़ जाता है।

वैसे तो यह रिस्क तली हुई मछली एवं चिकन खाने से भी बढ़ जाता है।

मीट को फ्राई करने से, इस की ग्रिलिंग एवं बारबीक्यूइंग करने से कैंसर पैदा करने वाले कुछ रासायन पैदा हो जाते हैं जिन्हें हीटरोसाईक्लिक एमीनज़ (heterocyclic amines) कहा जाता है जो कि मूत्राशय का कैंसर उत्पन्न करने के लिये विलेन का काम करते हैं। इस स्टडी ने एक बार फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे खान-पान का कैंसर से कितना गहरा संबंध है।

वैसे तो धूम्रपान भी मूत्राशय के कैंसर के लिये सब से महत्वपूर्ण कारण है जिस से सीधे तौर पर तंबाकू का त्याग करने से बचा जा सकता है।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

रोज़ाना आ रही है यौन रोगों की सुनामी

यौन रोग ( सैक्सुयली ट्रांसमिटेड इंफैक्शन्ज़) के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि बैक्टीरियल एस.टी.डी के लगभग 10 लाख नये केस रोज़ाना हो जाते हैं।

इन के बारे में छोटी छोटी बातें हैं जो कि अकसर आम आदमी ठीक से समझ नहीं पाता या शायद उसे कभी इस के बारे में ढंग से बताया ही नहीं जाता। कारण कुछ भी हो इन तकलीफ़ों के बारे में बहुत सी भ्रांतियां हैं।

इन के बारे में हम लोग कितनी भी चर्चा कर लें ---लेकिन सोलह आने सच्चाई यह है कि इन तकलीफ़ों का सब से बड़ा कारण है --ये तरह तरह की यौन-विकृतियां। आपने देखा है कि अकसर अब अखबारों में, चैनलों पर गैंग-रेप की खबरें दिखती हैं। तरह तरह की ग्रुप्स हैं, क्लबें हैं......अखबारों में इस इस तरह के इश्तिहार दिखते हैं कि यह यकीन मानना ही होगा कि अब जहां तक हमारी कल्पना शक्ति पहुंच सकती है वह सब कुछ कहीं न कहीं हो रहा है।

अकसर यही समझा जाता है कि संभोग करने से ही यौन-रोग एक पार्टनर से दूसरे पार्टनर को फैलते हैं लेकिन ऐसा नहीं है यौन-रोग चुंबन से भी और शरीर से निकले वाले अन्य द्वव्यों (secretions) से भी फैलते हैं।

अकसर लेखों में लिखा जाता है कि आप अपने पार्टनर के प्रति वफ़ादार रहें और साथ में यह भी कहीं कहीं लिखा होता है कि जहां ज़रूरत हो वहां पर कंडोम का इस्तेमाल भी ज़रूर करें।

मुझे लगता है कि पढ़े-लिखे लोगों में कैजुएल सैक्स का डर तो है लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिये। और कम पढ़े लिखे लोग और घरों से बाहर दूर-दराज नगरों में रहने वालों लोगों में तो जोखिम और भी है।

पता नहीं क्यों सैक्स के बारे में हम लोग अपने घर में अपने बच्चों के साथ खुल के बात क्यों नहीं करते ---अगर बाप अपने बेटे को और मां अपनी बेटी को समझा के रखे तो यौन रोगों से बचे रहने में काफ़ी मदद मिल सकती है।

यह जो आज पोर्नोग्राफी खुले आम बिक रही है --- इस ने भी सारी दुनिया के सीधे सादे लोगों की ज़िंदगी में आग सी लगा दी है। उस का तजुर्बा करने की ललक कुछ लोगों में जाग उठती है। वे यह भूल जाते हैं ये तो पोर्न-स्टार हैं ---कलाकर हैं ---- और यह भी तो नहीं पता कि ये किन किन भयानक बीमारियों से ग्रस्त हैं। क्योंकि यौन रोगों से ग्रस्त रोग अकसर देखने में स्वस्थ दिखते हैं

और कितनी भी कोई सावधानियां बरत ले, यह यौन-विक़तियों वाला खेल तो आग से खेलने के समान है ही। पिछले कुछ दिनों से मैं कुछ रिपोर्ट देख रहा हूं कि अमेरिका जैसे अमीर देश में भी यौन रोगों के केस बहुत तेज़ी से  बढ़ रहे हैं।

हमारे देश में इन यौन रोगों का दंश सब से ज़्यादा महिलायें सहती हैं। अकसर पुरूष लोग अपनी इस तरह की तकलीफ़ों को बताते नहीं ----बस यूं ही सब कुछ चलता रहता है और बीमारी आगे फैल जाती है। वैसे तो कुछ यौन रोगों के इलाज का तो नियम ही यही है कि मर्द-औरत का इलाज एक साथ हो -----ताकि बीमारी का पूरा सफाया हो सके।

यह इतना पेचीदा विषय है कि जब भी मैं इस के ऊपर लिखने लगता हूं तो यही लगता है कि कहां से शूरू करूं ------बस, ऐसे ही जो मन में आता है लिख देता हूं। लेकिन एक बात तो तय है कि अकसर जो छोटे मोटे यौन रोग दिखते हैं जिन की वजह से यौनांगों पर छोटे छोटे घाव से हो जाते हैं ऐसे रोग इन घावों की वजह से एच-आई-व्ही संक्रमण जैसे रोगों को भी निमंत्रण दे देते हैं। 

कोई समाधान तो हो कि आदमी का ध्यान बस इन सब में ही गड़े रहने से बचा रहे ----कोशिश की जाए की बच्चों को बचपने से ही अच्छे अच्छे संस्कार दिये जाएं ---और यह नियमित तौर पर किसी सत्संग में जुड़े रहने के बिना संभव नहीं है। और बच्चों को शारीरिक परिश्रम करने की आदत डाली जाए ---- सात्विक खाना खाएं और जिस कमाई से यह सब आ रहा है वह भी इमानदारी की हो , और बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार रखा जाए ताकि आप उन की अवस्था के अनुसार ये सब मुद्दे उन के साथ डिस्कस भी कर सकें और वे भी अपना दिल की बातें आप से बांटने में संकोच न करें---- I think that's the only survival kit for saving the younger generation from being swept by this notorious hurricane of sexual perversions ----pre-marital sex, extra-marital affairs, group sex, swaps, sex parties and so on and so forth --------- as I say one's imagination is the limit, really !!!

रविवार, 18 अप्रैल 2010

आ गया है ......पाकेट साईज़ अल्ट्रासाउंड

दो महीने पहले ही GE कंपनी ने एक पाकेट साइज़ अल्ट्रासाउंड को लांच किया है। इस का वज़न केवल एक पांड है। और इसे डाक्टर स्टैथोस्कोप की तरह अपने साथ ही ऱख सकेंगे ताकि ज़रूरत पड़ने पर तुरंत मरीज़ का अल्ट्रासाउंड कर के उस का निदान किया जा सके।
इस से मरीज़ों को भी कितनी सुविधा होगी इस का अंदा़ज़ा वे लोग बेहतर ढंग से लगा पायेंगे जिन्हें अल्ट्रा-साउंड करवाने के लिये दूर दराज़ के गांवों से शहर की तरफ़ भागना पड़ता था ----केवल अल्ट्रासाउंड करवाने के लिये।
अभी मैंने सुना तो नहीं कि यह मशीन यहां पहुंच गई है ---लेकिन अगर बाहर लांच हो गई है तो इधर  आने में भी कितना समय लगेगा!!

फिटनैस वॉकिंग ----किताब के कुछ अंश

कुछ वर्ष पहले मैंने एक किताब खरीदी थी --फिटनैस वॉकिंग। मुझे यह बहुत पसंद आई। इस में कुछ पंक्तियों को मैंने ऐसे ही सहज भाव में रेखांकित कर दिया था। आज इसे देख रहा था तो ऐसा ध्यान आया कि इस की कुछ महत्वपूर्ण बातों को ही शेयर किया जाए।

Fitness Walking -- By Les Snowdon & Maggie Humphreys.
There are some quotes written on the first page --
"The difference between a good walker and a bad one is that one walks with his heart , and the other with his feet" .........W.H.Davies.
"If one just keeps on walking everything will be all right".......Soren Kierkegaard

आदमी पिछले 30 लाख वर्षों से टहल रहा है, पैदल चल रहा है ---लेकिन उस ने दौड़ना, भागना ( जॉगिंग) तो पिछले तीस-चालीस वर्षों से ही शुरू किया है। इस से यही शिक्षा मिलती है कि टहलिये, सैर कीजिये ----यह मत सोचिये कि भागने से ही ज़्यादा फायदा होगा।

From this book ---"Man has been walking at least three million years. He has been jogging for 30. The moral is simple: you dont have to break yourself with 'no pain, no gain' jogging -walk, dont run, Fitness walking is the 'best' exercise recommended by exercise physiologists, biomedical experts, cardiologists, chest experts, obesity experts and stress experts, among others.

Walking has always been a major form of transportation for Man, but only recently have the health and mental benefits of fitness walking become apparent.

फिटनैस वॉकिंग से सारी टेंशन, तनाव दूर भाग जाता है और इस के बाद हम बहुत रिलैक्स महसूस करते हैं।
"Fitness walking is a universal stress reliever. It energises you; helps you relax; makes you feel good about yourself; helps you cope with anything that life throws at you, especially in the work place. Walk to work, or part of the way; take a fitness walking break during the day; walk at least part of the way home; or take a walk in the evening. It will help you beat depression, and it will help you sleep better. Fitness walking is the best -- and cheapest--stress manangement system around.

अकसर मेरा भी सिर भारी होता है ---तो फिर मैं भी अगर उस समय टहलने के काबिल होता हूं तो 30-40 मिनट बाहर जा कर टहल आता हूं --- बस, सिर हल्का होते ही सब अच्छा लगने लगता है।

वैसे मैं नियमित टहलता नहीं हूं ---- इस के अनगिनत फायदे जानते हुये भी बिना वजह ऐसी हिमाकत करता हूं। पिछले कुछ दिनों से मेरे बाएं घुटने में थोड़ा दर्द सा होने लगा था ---मैंने थोड़ा टहलना शूरू किया है, बहुत अच्छा लगता है।

मैं अकसर सोचता हूं कि किसी भी डाक्टर के पास जाने से पहले हमें अपनी जीवन-शैली को पटड़ी पर लाना ही होगा ---हम क्या खाते हैं, हमारी क्या आदते हैं, अल्कोहल-सिगरेट बीड़ी आदि क्या ले रहे हैं, क्या रोज़ाना तीस-चालीस मिनट टहलते भी हैं या बस एक जगह स्थूल पड़े ही रहते हैं ---- ये सब बातें ठीक ठाक करने के बाद ही उस " डाक्टर रूपी भगवान " ( ?) के पास जाना ठीक है, वरना उस का नुस्खा कितना फायदा कर पाएगा  ? हां,  एमरजैंसी के लिये तो ठीक है, जो हमें सचेत करने के लिये है कि भई, अब भी संभल जाएं वरना बाद में मत कहना कि किसी ने पहले नहीं चेताया।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

क्या आपने वैल-डन अब्बा देख ली ?

कुछ महीने पहले टीवी पर एक फिल्म आ रही थी ---बच्चों से पता चला कि यह हिंदी फिल्म डोर है। मुझे यह फिल्म बेहद पसंद है। यह फिल्म बहुत से संदेश लिये हुये है। अगर आपने अभी तक नहीं देखी तो ज़रूर देखिये।

एक फिल्म है --वैल-डन अब्बा --- कुछ दिन पहले अंग्रेज़ी के अखबार दा हिंदु में इस का एक अच्छा सा रिव्यू पढ़ा था। मैं जगह जगह जो फिल्म की समीक्षा छपती रहती है उन पर तो इतना भरोसा नहीं करता लेकिन अगर दा हिंदु में किसी फिल्म के बारे में अच्छा लिखा होता है तो फिर मैं उसे ज़रूर देखता हूं।

तो, फिर वैल-डन अब्बा फिल्म देख ही ली। मुझे यह फिल्म बहुत ही पसंद आई है। इस की स्टोरी मैं आप को बताना नहीं चाहता क्योंकि मैं चाहता हूं कि इसे आप ज़रूर देखें। इस में भी श्याम बेनेगल में बहुत से सामाजिक मुद्दों की तरफ़ पब्लिक का ध्यान खींचा है। एक तो यह है कि किस तरह से भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी फैल चुकी हैं। लोगों को सूचना का अधिकार इस्तेमाल करने के लिये भी प्रेरित किया गया है। अरब देशों के अमीर किस तरह से छोटी छोटी उम्र की मासूम लड़कियों को इस्तेमाल कर के छोड़ देते हैं ---ये सब समस्यायें बेहद प्रभावपूर्ण ढंग से दिखाई-समझाई गई हैं। लेकिन कैसे भी हो, इसे आप भी ज़रूर देखिये और फिर इस के बारे में अपने विचार शेयर करिये।

बुधवार, 17 मार्च 2010

रोड-साइड.....नहीं, बीच-साइड हैल्थ चैकअप स्टाल

आज मधुमेह (डायबीटीज़) का रोग बहुत आम हो चुका है और अकसर लोगों ने घर में रक्त में शर्करा ( ब्लड-ग्लूकोज़) के स्तर की जांच के लिये ग्लुकोमीटर घर में ही रख लिया है। लेकिन अगर घर में नियमित टैस्ट करते रहने से ब्लड-ग्लुकोज़ का स्तर सामान्य भी आता है तो भी ग्लाईकोसेटेड हीमोग्लोबिन (glycosated haemoglobin) नामक टैस्ट तो करवा ही लेना चाहिये।

यह भी एक सच है कि घर में स्वयं ही अपने ग्लुकोज़ के स्तर की जांच कर लेने से ब्लड-ग्लुकोज़ के स्तर के फ्लकचुएट होने का पूरा पता नहीं लग पाता क्योंकि ऐसा देखा गया है कि जिन टाइप-2 डायबीटीज़ के रोगियों में मधुमेह का कंट्रोल बहुत बढि़या है, उन में भी ग्लुकोज़ के कम स्तर वाले और ज़्यादा स्तर वाले (hypoglycaemia and hyperglycemia events) कई मौके ऐसे होते हैं जिन का इस घर में टैस्ट किये जाने वाली प्रणाली से पता नहीं चल पाता। मधुमेह के टाइट कंट्रोल के लिये यह ज़रूरी है कि बिल्कुल सही तस्वीर सामने आए ताकि ये जो कम और ज़्यादा स्तर वाले मौके घरेलू टैस्टिंग से मिस हो जाते हैं उन के बारे में भी इस ग्लाईकोसेटेड़ हीमोग्लोबिन टैस्ट के द्वारा पता किया जा सके। इस तरह की फ्लकचुएशन जो मिस हो जाती हैं उन का हृदय की सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

चलिये, यह तो होम टैस्टिंग की बात हो गई। मैंने पिछली बार बात की थी कि किस तरह मद्रास के मरीना बीच पर बिल्कुल सुबह-सवेरे एक महिला वज़न तोलने वाली मशीन लेकर बैठी हुई थी और किस तरह वहां पर भ्रमण करने वालों ने उसे व्यस्त कर के रखा हुआ था।

लीजिये, उस के आस पास ही मुझे एक प्लेटफार्म पर यह नोटिस दिखा ---Instant BP and Blood sugar testing. यह बोर्ड देख कर मेरी उत्सुकता बढ़ गई और मैं चंद मिनटों के लिये उधर पास ही में ही कहीं बैठ गया।
यह जो भद्रपुरूष आप इस तस्वीर में देख रहे हैं यह उधर ही लोगों के बी.पी एवं ब्लड-ग्लुकोज़ की जांच भी करते हैं --- ( अंगुली से रक्त का सैंपल ले कर) । मैंने इन से बात भी की। यह इस चैक-अप के लिये पचास रूपये चार्ज करते हैं ---बता रहे थे कि तीस एक रूपये की तो स्ट्रिप ही पड़ती है।

मैं आते हुये भी देखा कि यह लोगों को विस्तार से जीवन-शैली से संबंधित इन महामारीयों के बारे में बता रहे थे---सुबह सुबह यह सब देख कर अच्छा लगा।

अच्छा लगा कि इसी बहाने जागरूकता ही बढ़ रही है...मैं जानता हूं कि कुछ लोग विभिन्न कारणों की वजह से डाक्टर के पास जाने से कतराते रहते हैं --- क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि ऐसे लोग डाक्टर एवं मरीज़ के बीच एक सेतु का काम कर रहे हैं। और तो और, कुछ लोग जिन्हें व्हाईट-कोट हाइपर-टैंशन (white-cotton hypertension)होती है ---अर्थात् जब कोई डाक्टर उन का ब्लड-प्रैशर देखता है तो यह एक दम बहुत ऊपर पहुंच जाता है --लेकिन जब वे किसी बहुत खुशगवार एवं मित्रतापूर्वक ढंग से किसी दूसरे पैरा-मैडीकल कर्मचारी से इस नपवाते हैं तो यह सामान्य निकलता है, ऐसे लोगों के लिये भी इन हालात में अपनी रक्तचाप जैसी सामान्य जांच करवाना भी कितना उचित है !!

यह मंज़र भी मैंने पहली बार मद्रास में ही देखा था। मद्रास शहर मुझे बहुत अच्छा लगा --- पढ़े-लिखे लोग, अपने काम से काम रखने वाले और बड़े-बुज़ुर्गों का सम्मान करने वाले। वहां लगता है कि हर कोई अपनी दुनिया में मस्त है।

रविवार, 14 मार्च 2010

पिचयासी किलो है तो मशीन-वाली का क्या दोष ?



यह तस्वीर देख कर यही लगता है ना कि अगर वज़न बताने वाली मशीन वज़न एक आध-किलो ऊपर नीचे बता रही है तो मशीन वाली से तकरार होने लगी है --- दो दिन पहले भी पिचयासी और आज भी उतना ही! तुम्हें पता है कि मैं पिछले तीन दिनों से कितना टहल रहा हूं। ठीक है, मुबारक है भाई तुम खूब टहले -- लेकिन यह सब इस बेचारी से कहने से क्या फायदा? और इस ने तो सुबह की चाय भी नहीं पी है। इस से क्यों खाली-पीली कहा-सुनी करने का ----ठीक है, टहले हैं तो टहलते रहिये ---आज नहीं तो कुछ दिनों में वज़न कम होने लगेगा। और हां, टहलने के साथ साथ अगर खाने पीने पर भी थोड़ा ध्यान दे दिया जाए तो कैसा रहेगा !!

कईं बार ऐसे ही टहलते टहलते कुछ ऐसा दिख जाता है कि उसे कैमरे में बंद करने की इच्छा होती है। पिछले महीने मैं एक कांफ्रैंस के सिलसिले में बाहर गया हुया था और समुद्र के किनारे पर सुबह सुबह मैंने यह तस्वीर खींची। दरअसल उन दो दिनों में मैं एक फोटोग्राफी वर्कशाप भी कर रहा था ---मुझे कुछ खास समझ में आया नहीं, क्योंकि बहुत से लोग तो अपने साथ एसएलआर कैमरा लाये हुये थे और मेरे जैसे डिजीटल कैमरा वाले चंद ही लोग थे।

यह तस्वीर चैन्ने की मैरीना बीच पर पिछले महीने एक सुबह को खींची गई है। इस महिला को इतनी सुबह सुबह वज़न करने वाली मशीन रखे देख मेरी उत्सुकता बढ़ गई। मैं दूर बैठा देख रहा था ---बहुत से लोग जो समुद्र के सुंदर किनारे पर टहलकदमी कर रहे थे वे इस महिला से वज़न भी करवा रहे थे। मैंने अपने पास बैठे एक स्थानीय सज्जन से जब पूछा तो उस ने बताया कि कुछ लोग तो सैर करने से पहले और सैर करने के बाद भी वज़न करवाते हैं--------मैं सोच रहा था कि शायद आज का वयस्त मानव वज़न कम करने का क्विक-फिक्स सोल्यूशन ढूंढ रहा है?

चलिये, जो भी है स्वास्थ्य जागरूकता देख कर अच्छा लगा--और उस से भी अच्छा यह लगा कि इस जागरूकता से एक महिला को एक अच्छा सा व्यवसाय मिला हुआ है।

बुधवार, 10 मार्च 2010

कद बढ़ाने वाला सिरिप

जिस तरह आजकल लोग बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोरों में जा कर सैंकड़ों तरह की अनाप-शनाप कंज्यूमर गुड्स को देख देख कर परेशान हो हो कर कुछ न कुछ खरीदने में लगे रहते हैं, कैमिस्टों की दुकानों के काउंटरों पर जिस तरह से तरह तरह के टॉनिक और ताकत के कैप्सूल बिखरे रहते हैं और दुकान के ठीक बाहर जिस तरह से इस तरह की चीज़ों के विज्ञापन टंगे रहते हैं किसी भी आदमी का धोखा खा जाना कोई मुश्किल काम नहीं है।

मैं कल एक कैमिस्ट से एक दवाई खरीद रहा था -- कैमिस्ट ठीक ठाक ही लगता है-- इतने में एक आदमी अपने लगभग 13साल के बेटे के साथ आया और सिरिप की दो बोतलों को कैमिस्ट को लौटाते हुये कहने लगा कि उस ने जब इस बोतलों के बारे में ठीक से पढ़ा है तो उसे पता चला कि ये कद को लंबा करने के लिये नहीं हैं।

चूंकि उस ने वे बोतलें काउंटर पर ही रखी थीं तो उत्सुकतावश मैंने भी उन्हें देखा --- मैंने देखा कि अढ़ाई सौ रूपये के करीब एक बोतल का दाम था। मैंने देखा कि कैमिस्ट ने उस ग्राहक से ज़रा भी बहस नहीं की। ये दुकानदार भी बड़े प्रैक्टीकल किस्म के लोग होते हैं---ये मार्केटिंग स्किलज़ में मंजे होते हैं। झट से उस ने उस तरह की एक दूसरी शीशी उसे थमा दी।

अब दोष किस का है, मैं चंद लम्हों के लिये यह सोच रहा था। सब से पहले तो इस तरह की बोतलें कैसे किसी को भ्रमित करने वाली घोषणाएं कर सकती हैं कि इस से कद बढ़ जायेगा। चलिये, यह मान भी लिया जाये कि इस तरह की बोतलें मार्कीट में आ ही गईं। अब क्या कैमिस्ट का दोष है कि वह इस तरह के प्रोडक्ट्स बेच रहा है ---लेकिन फिर सोचा कि उस एक के हरिश्चन्द्र बन जाने से क्या होगा----साथ वाले ये सब बेचते रहेंगे तो वह पीछे रह जाएगा। यह भी सोचा कि क्या यह हमारी स्वास्थ्य प्रणाली का दोष है कि एक 40 साल के आदमी को यह समझ नहीं कि कद कोई शीशी पी लेने से नहीं बढ़ता।

तो, फिर दोष सब से ज़्यादा किस का ? सब से ज़्यादा दोष उस ग्राहक का जो इस तरह की शीशी खरीद रहा है--- और शायद इस के लिये उस की आधी-अधूरी शिक्षा ही ज़िम्मेदार है।

यह रात 9 बजे के आसपास की बात है --मैंने उस ग्राहक को मोटरसाइकिल को किक मारते देखा ---मुझे लगा कि वह टल्ली है। मैंने देखा कि उस ग्राहक के परिचित एक सरदार ने थोड़े मज़ाकिया से लहज़े में उसे इतना भी कहा ----की यार, कद वधान लई टॉनिक. लेकिन उस ग्राहक ने पुरज़ोर आवाज़ में कहा कि क्या करें, इस का कद बढ़ ही नहीं रहा है।

लेकिन मेरी बेबसी देखिये मैं सब जानते हुये भी चुप था। मुझे पता है कि इस शीशी से कुछ नहीं होने वाला----और ऐसे ही राह चलते बिना मांगी गई सलाह देना और वह भी किसी अजनबी को और वह भी उसे जो टल्ली लग रहा था और वह भी किसी कैमिस्ट की दुकान पर ही, इन सब के कारण मैं चुपचाप मूक दर्शक बना रहा। इस तरह के मौके पर कुछ कह कर कौन आफ़त मोल ले--- दूसरी तरफ़ से कुछ अनाप-शनाप कोई कह दे तो पंगा-----इसलिये मैं तो इस तरह की परिस्थितियों में चुप ही रहता हूं---पता नहीं सही है या गलत-----लेकिन क्या करें?

यह केवल एक उदाहरण है --सुबह से शाम तक इस तरह की बीसियों बातें सुनते रहते हैं, देखते रहते हैं---किस किस का ज़िक्र करें। हर एक को अपना रास्ता खुद ही ढूंढना पड़ता है।

आज लगभग पूरे चार महीने बाद लिख रहा हूं ----अच्छा लगा कि हिंदी में लिखना भूला नहीं ---वरना पिछले चार महीनों में जिस तरह से मैं अपने फ़िज़ूल के कामों में उलझा रहा, मुझे यह लगने लगा था कि अब कैसे लिखूंगा। चलिये, इसी बहाने यह जान लिया कि यह राईटर्ज़-ब्लॉक नाम का कीड़ा क्या है।

फिज़ूल के काम तो मैंने कह दिया --ऐसे ही हंसी में --लेकिन हम सब लिखने वालों के भी अपने व्यक्तिगत एवं कामकाजी क्षेत्र से जुड़े बीसियों मुद्दे होते हैं जिन पर लिखना या इमानदारी से लिख पाना हर किसी के बस की बात होती भी नहीं और मेरे विचार में इस तरह के विषयों पर नेट पर लाना इतना लाज़मी भी कहां है ?