सोमवार, 7 सितंबर 2009
दूषित सिरिंज से हमला करने वालों की पागलपंथी
शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
भारत ने किया हैजा-रिवार्ड घोषित
अब हैजे के किसी मरीज की जानकारी देने वाले को 200 रूपये का इनाम मिलेगा और जो हैजे का मरीज ठीक हो कर अस्पताल से घर जायेगा उसे लौटते हुये कुछ कपड़े एवं 200 रूपये दिये जायेंगे।
इस समाचार को स्वयं पढ़ने के लिये यहां क्लिक करिये।
इस नगद इनाम को देने का कारण यह बताया जा रहा है कि दूर-दराज में रहने वाले लोग इस बीमारी से ग्रस्त होते हुये भी यह समझते रहते हैं कि उन्हें भगवान द्वारा किसी कर्म की सज़ा दी जा रही है और इन सब धारणाओं के रहते वे अस्पताल नहीं आते।
सोमवार, 31 अगस्त 2009
तंबाकू --- एक-दो किस्से ये भी हैं !
रविवार, 23 अगस्त 2009
ब्रेड --- पाव रोटी या पांव रोटी ?
कल रात टीवी पर मैं एक रिपोर्ट देख रहा था – जिस में वह बाज़ार में मिलने वाली डबल-रोटी ( ब्रैड) की पोल खोल रहे थे --- पाव-रोटी को पांव रोटी कहा जा रहा था।
उस प्रोग्राम में बार बार यही ऐलान किया जा रहा था कि यह प्रोग्राम देखने के बाद कल से आप अपना नाश्ता बदल लेंगे। अलीगढ़ की एक ब्रेड फैक्ट्री में खुफिया कैमरे की मदद से ली गई वीडियो दिखाई जा रही थी जिस में दिखाया जा रहा था कि किस तरह किस गंदे से फर्श पर ही मैदा फैला कर उसे पैरों से गूंथा जा रहा था।
प्रोग्राम ऐंचर करने वाली पत्रकार बिल्कुल सही कह रही थी कि यह गोरख-धंधा केवल छोटे शहरों एवं कस्बों तक ही महदूद नहीं है --- मैट्रो शहरों में रहने वाले लोग यह ना समझ लें कि ऐसा तो छोटे शहरों में ही हो सकता है।
खुफिया कैमरे ले कर कुछ पत्रकार दिल्ली के नांगलोई, बादली एवं सुल्तानपुरी एरिया में भी जा पहुंचे। डबल-रोटी बनाने वाली जगहों पर गंदगी का वह आलम था कि क्या कहें ---हर तरफ़ मक्खियां, कीड़े मकौड़े भिनभिना रहे थे – जिधर मैदा गूंथा जा रहा था पास ही में वहां पर काम करने वालों की खाने की प्लेटें बिखरी पड़ी थीं।
इस स्टोरी को कवर करने वाला संवाददाता दिखा रहा कि कितना खराब मैदा इस्तेमाल किया जा रहा है ---यह इतना कठोर हो चुका था कि उस के ढले बने हुये थे।
फिर इन पत्रकारों ने इन स्थानों से ली गई ब्रेड को दिल्ली की एक जानी-मानी लैब से टैस्ट करवाया। सिर्फ़ एक ब्रैंडेड ब्रेड को छोड़ कर बाकी सभी ब्रेड के सैंपल पीएच ( pH) में फेल पाये गये। और एक में तो फंगस ( फफूंदी) लगी पाई गई। मेरी तरह आप ने भी अनुभव किया होगा कि कईं बार घर में फ्रिज में रखी हुई तथाकथित फ्रेश-ब्रेड में भी फफूंदी लगी पाई जाती है।
और इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि ब्रेडों के इन विभिन्न सैंपलों में किस किस तरह के कैमीकल पाये गये । जो ब्रेड ग्राहक के हाथ में जाये वह बिल्कुल सफेद हो इसलिये गेहूं को ब्लीच गिया था। ब्रेड में प्लास्टर ऑफ पैरिस ( plaster of paris ---POP) भी पाया गया। बाज़ार में खमीर की कमी होने की वजह से yeast ( खमीर) की जगह फिटकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। इन के साथ साथ ब्रेड में घटिया किस्म के वनस्पति तेल, तरह तरह के प्रिज़र्वेटिव एव पोटाशियम ब्रोमेट भी पाया गया ---इस का खुलासा रिपोर्ट में किया गया।
रिपोर्ट में बताया गया था कि लोग समझते हैं कि वे ब्रैंडेड ब्रेड खा रहे हैं ---रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया कि किस तरह से कूड़ा-कर्कट बीनने वालों से बड़ी कंपनियों की ब्रैडों के खाली रैपर ले कर उन में चालू किस्म की ब्रैड भर दी जाती है----रिपोर्ट में कहा गया कि बाज़ार में बिकनी वाली 60 से 70 फीसदी डबल-रोटी कुछ इन्हीं तरह की परिस्थितियों में तैयार की जाती है जहां पर साफ़-सफ़ाई का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता।
लेकिन मुझे इस रिपोर्ट में जो कुछ कमियां दिखीं वह यह थीं कि इसे बहुल लंबा खींचा गया ---- लगभग एक-डेढ़ घंटे तक यह प्रोग्राम खिंच गया, और बीच में बार बार कमर्शियल ब्रेक। मुझे सब से ज़्यादा इन डबल-रोटियों की लैब रिपोर्ट देखने की ललक थी। लेकिन उन रिपोर्टों को टीवी की स्क्रीन पर दिखाया नहीं गया ---- मुझे यह बहुत अटपटा लगा। एक प्राइवेट लैब के डायरैक्टर ने बस अपने हाथ में थामी रिपोर्ट में बता दिया कि अधिकतर सैंपल पीएच( pH) के मापदंड पर खरे नहीं उतरते पाये गये।
और जिन कैमीकल्स की बात मैंने ऊपर की उन के बारे में भी किसी लैब-रिपोर्ट को टीवी स्क्रीन पर नहीं दिखाया गया । मैं जिस बात की एक घंटे से प्रतीक्षा कर रहा था वह मुझे दिखी नहीं ---इसलिये मुझे निराशा ही हुई।
यह भी बताया गया कि किस तरह से कुछ डबल-रोटी निर्माता इस की पैकिंग पर इस के तैयार होने की तिथि के आगे बाद की तारीख लिखवा देते हैं। ऐसा इसलिये किया जाता है कि तैयार होने के तीन-चार दिन बाद ब्रैड किसी के भी खाने लायक नहीं रहती।
आप को भी लग रहा होगा कि क्यों आप के पड़ोस वाला दुकानदार किसी अच्छी कंपनी की ब्रैड मांगने पर क्यों किसी स्थानीय, चालू किस्म के ब्रांड को आपको थमा देने में इतनी रूचि लेता है। सब मुनाफ़ाखोरी का चक्कर है। और जहां पर मुझे ध्यान है कि अधिकतर चालू किस्म की ब्रेड पर तो इस के तैयार होने की तारीख प्रिंट ही नहीं हुई होती ----इसलिये इन दुकानदारों की चांदी ही चांदी।
वैसे तो हम लोग भी नियमित ब्रैड लेने के बिल्कुल भी शौकीन नहीं है ---जहां तक मेरी बात है मुझे तो मैदे ( refined flour) से बनी कोई भी वस्तु परेशान ही करती है ---- तुरंत गैस बन जाती है, सारा सारा दिन सिर दर्द से परेशान हो जाता हूं ---इसलिये मैं तो ब्रैड से बहुत दूर ही रहता हूं । लेकिन अब जब भी इसे खरीदूंगा तो केवल बढ़िया कंपनी( बढ़िया ब्रैंड) र की खरीदूंगा जिस पर उस के तैयार होने की तारीख अच्छी तरह से प्रिंट हो -----बस, ज़्यादा से ज़्यादा यही कर सकते हैं, और क्या !!
मुझे याद है कि बचपन में हमारे मोहल्ले में एक ब्रेड-वाला सरदार आया करता था जो एक ट्रंक में ब्रैड लाया करता था जो कि वह खुद तैयार किया करता था । बिल्कुल थोड़ी सी ब्रैडें उस के पास हुआ करती थीं -----लेकिन आज कल बस हर तरफ़ लालच का इतना बोलबाला है कि आम आदमी करे तो आखिर करे क्या ?
मैंने कुछ साल पहले ऐसे ही किसी से सुन तो रखा था कि कुछ ब्रेड की कंपनियों में मैदे को पैरों से गूंथा जाता है। जब मैं यह प्रोग्राम देख रहा था तो मुझे अमृतसर के कुलचे याद आये --- यह केवल अमृतसर में ही बनते हैं और वहीं पर ही मिलते हैं, यह अमृतसर की एक स्पैशलिटी है। और मैं बचपन से ही इन्हें खाने का बहुत शौकीन रहा हूं। लेकिन हुआ यह कि कुछ साल पहले मैं अमृतसर गया हुया था ---अपने पुराने स्कूल के पास ही हमारा एक बचपन का दोस्त सतनाम रहा करता था --- तो मैं उस का पता ढूंढता ढूंढता एक मकान में घुसा ही था कि क्या देखता हूं कि एक घर के आंगन में एक दरी पर हज़ारों कुलचे बिखरे पड़े हैं जिन पर कम से कम हज़ारों ही मक्खियां भिनभिना रही थीं ----शायद उस जगह पर कुचले तैयार हो रहे थे -----उस दिन के बाद मैंने कभी कुलचे न ही खाये और न ही ता-उम्र कभी खाऊंगा। मुझे वह मंज़र याद आता है तो बड़ी तकलीफ़ होती है।
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
बहुत लंबे अरसे से मैं इस प्रश्न से परेशान हूं ----मदद कीजिये।
आज की अखबार की एक खबर थी ---लिवर ट्रांसप्लांट के एक विशेष आप्रेशन करने के लिये दिल्ली के सर गंगा राम हास्पीटल के 35 विशेषज्ञ 16 घंटे के लिये आप्रेशन करने में लगे रहे।
इसी तरह से गुर्दे के मरीज़ों में भी ट्रांसप्लांट करने के लिये किसी मरीज को , उस के रिश्तेदारों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तरह तरह के टैस्ट करवाने के लिये किस तरह से पैसों का जुगाड़ करना होता है, सारी चिकित्सा व्यवस्था कितने सुचारू रूप से अपना काम करती है -- तो, लो जी हो गया सफल आप्रेशन।
मैं भी एक ऐसे ही 25-30 साल के युवक को जानता था –दो तीन साल पहले उस के गुर्दे का आप्रेशन हुआ, उस की सास ने उस को अपना गुर्दा दान में दिया था। खर्चा काफ़ी आया था लेकिन वह सारा खर्च रेलवे के चिकित्सा विभाग ने उठाया। बढ़िया से बढ़िया दवाईयां बाद में भी दी गईं ---जो आम तौर पर ऐसे मरीज़ों को दी जाती हैं ताकि जो गुर्दा मरीज़ के शरीर में ट्रांसप्लांट किया गया है वह मरीज़ के शरीर द्वारा रिजैक्ट न किया जा सके।
लेकिन कुछ महीने पहले वह बेचारा चल बसा ---दो अढ़ाई साल बस वह बीमार ही रहा। तीन-चार साल की उस की प्यारी से बच्ची है जो शायद आज पहले दिन स्कूल जा रही थी --- किलकारियां मार रही थी , अपने कलरफुल फ्राक पर लगा आईडैंटिटी कार्ड सब को बड़े शौक से दिखा रही थी ---- मुझे भी उस ने दिखाया। उस बच्ची को देख कर मन बहुत दुःखी होता है।
यह बच्ची उस घर में रहती है जहां से मैं सुबह दूध लेने जाता हूं ----ये लोग किरायेदार हैं। जितने लोग भी सुबह दूध लेने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं वे अकसर इस बच्ची की सुबह सुबह इस तरह की ज़ोर ज़ोर चीखें सुनते हैं ------- मुझे पापा पास जाना है !! पापा, आ जाओ ना !!
यह उस मरीज़ की बात है जो कि सरकारी सर्विस में था ---रेलवे ने लाखों रूपया इलाज पर लगा दिया लेकिन क्या कोई आम आदमी अपने बल-बूते पर यह सब करवाने की सोच सकता है।
यह लंबी चौड़ी बात कहने का मकसद ? --- मकसद केवल इसी बात को रेखांकित करना है कि यह जो आधुनिक इलाज हैं यकीनन बहुत ही बढ़िया हैं --- इतनी तरक्की हो गई है कि कुछ भी संभव है। लेकिन ये आम आदमी की पहुंच से तो बहतु दूर हैं ही, और कईं बार इस तरह के इलाज का परिणाम क्या निकला वह तो कुछ महीनों बाद ही पता चलता है।
तो फिर चलिये इन से बचाव की बात कर ही लें ---- ठीक है, कुछ केसों में शरीर की भयानक व्याधियों के बारे में cause and effect relationship को परोक्ष रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन फिर भी कोई भी आम आदमी इन से बचने के लिये क्या करता है ? वह अपनी जीवन-चर्या ठीक कर लेगा, दारू से , तंबाकू से बच कर रहेगा, दिन में थोड़ा बहुत टहल लेगा और मेहनत कर लेगा, बाज़ार में मिलने वाली तरह तरह की चीज़ों से बच कर रह लेगा........यह सब तो बहुत हो गया लेकिन समझ लो कि बंदे ने जैसे तैसे यह सब कर ही लिया लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या ऐसा करने से वह सेहतमंद रह पायेगा। आप का क्या ख्याल है ?
मेरा ख्याल है कि कोई गारंटी नहीं ---- कारण ? कारण तो बहुत से हो सकते हैं जिन में हम नाम गिना लें कि उस को फलां फलां तकलीफ़ें तो उस की हैरेडिटी से ही मिली हैं, आजकल कीटनाशक बहुत हैं सब्जियों में, यह सब खादों की कृपा हो रही है ---कह देते हैं ना हम ये सब बातें ----और ये सब बातें करते करते हम थकते नहीं हैं, रोज़ाना ये बातें घरों में होती हैं, साथ साथ चाय की चुस्कियां भरी जाती हैं।
लेकिन यह शायद कोई नहीं सोचता कि इस कमबख्त चाय में जो दूध है वह कैसा है। नहीं, नहीं, मैं उस की उत्तमता की बात नहीं कर रहा हू ----आप के दूध में साफ सुथरा पानी मिल के आ रहा है, आप का दूध वाला भैंस के दूध में गाय का दूध डाल कर दे जाता है, इसे आप मिलावट न समझें, और जो बात कईं बार मीडिया में कही जाने लगी है कि पशुओं के चारे में ही इस तरह के कैमीकल हैं कि दूध में तो फिर वे आ ही जायेंगे। यह भी मान कर ही चलें कि पशुओं को दुहने से पहले टीका भी लगना ही लगना है ---- देश का कोई कानून इसी रोक नहीं पायेगा ---- यह सब बातें तो अब लोगों ने स्वीकार ही कर ली हैं ---चाहे इस टीके और कैमीकल्स की वजह से अब कुछ लड़के लड़कियों जैसे दिखने लगे हैं और लड़कियां लड़कों जैसी --- लेकिन जो है सो है। जो भी हो, ये मुद्दे तो अब रहे ही नहीं ।
अब तो भाई इस देश का मेरे विचार में सब से बड़ा मुद्दा है मिलावाटी दूध । मेरा अपना विचार ---अपने ब्लाग में लिख रहा हूं ---कि until unless proven otherwise, for me every milk is adultered. मुझे इस तरह की स्टेटेमैंट के लिये माफ़ कीजिये लेकिन हमारे कुछ अपने व्यक्तिगत विचार तैयार हो जाते हैं, दूध के बारे में मेरे ऐसे ही विचार बन गये हैं।
कल मैं रोहतक में था --- थैली वाले दूध से बनी चाय पी ---यकीन जानिये ऐसे लगा कि दवाई पी रहा हूं --- एक घूंट के बाद उसे फैंक ही दिया। वैसे चलिये मैं आप से शेयर करता हूं कि पिछले कुछ सालों से जब से यह दूध में तरह तरह के हानिकारक पदार्थ मिलाने का धंधा सामने आया है --- मैं कभी भी चाय बाहर नहीं पीना चाहता --- बाहर का पनीर बिल्कुल नहीं, बाहर का दही बिल्कुल नहीं --- और यहां तक कि मुझे बर्फी आदि भी बहुत पसंद रही है लेकिन अब मैं उस से भी कोसों दूर रहता हूं और कभी यहां-वहां एक दो टुकड़ी खा भी लेता हूं तो अच्छी तरह से यही सोच कर खाता हूं कि मैं जैसे धीमा ज़हर ही खा रहा हूं। वैसे इतना मन मारते हुये जीना भी कितना मुश्किल है ना !! लेकिन जो है सो है, अब हमारे सब के सामूहिक लालच ने हमें आज की इस स्थिति में ला खड़ा कर दिया है तो क्या करें ? --- बस, चुपचाप भुगतें और क्या !!
डाक्टर हूं, लेकिन किसी को भी पिछले कईं सालों से यह सलाह नहीं दी कि आप दूध पिया करें। और अगर देता भी हूं तो साथ में इसी तरह के लैक्चर का गिलास भी ज़रूर पिला कर भेजता हूं। अधिकतर इस तरह की सलाह मैं इसलिये नहीं देता हूं कि अगर मैं ही किसी वस्तु की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं हूं तो दूसरों को क्यों चक्कर मे डालूं ?
मिलावटी दूध की खबरें ऐसी ऐसी पिछले कुछ सालों से टीवी पर देख ली हैं कि अब तो ऐसी खबरें देखते ही उल्टी सी आने को होती है। और यह जो हम नाम लेते हैं ना मिलावटी दूध या कैमीकल दूध -----मुझे इस पर बहुत आपत्ति है, यह काहे की मिलावट जो लोगों को धीमे धीमे मार रही है , रोज़ उन का थोड़ा थोड़ा कत्ल कर रही है ---जो लोग इस ज़हरीले दूध का धंधा कर रहे हैं क्या वे सब के सब आतंकवादी नहीं है, इस तरह के आतंकवादियों का क्या होगा ?
आप सब जानते हैं कि इस तरह के कैमीकल्स से लैस दूध में वे सब चीज़े डाली जा रही हैं जो कि आप की और मेरे सेहत से रोज़ खिलवाड़ कर रही है लेकिन यह एके47 से निकली गोली जैसी नहीं जिस का प्रभाव तुरंत नज़र आ जाये ---- तरह तरह की भयंकर पुरानी ( Chronic illnesses) बीमारियां, छोटी छोटी उम्र में गुर्दे फेल हो रहे हैं, लिवर खराब हो रहे हैं, तरह तरह के कैंसर धर दबोचते हैं, लेकिन इस तरह का आतंक फैलाने वालों की कौन खबर ले रहा है ? ----- शायद मेरा वह जर्नलिस्ट बंधु जो ऐसी किसी खबर को सुबह से शाम तक बार बार टीवी पर चीख चीख कर लोगों को आगाह करता रहता है लेकिन कोई सुने भी तो !!
हर कोई यह समझता है कि यह तो खबर है , दूध के बारे में जितने पंगे हो रहे हैं वे तो लोगों के साथ हो रहे हैं, हमें क्या ? अपना तो सब कुछ ठीक चल रहा है । बस, यही हम लोग भूल कर बैठते हैं।
पिछले कुछ हफ्तों से मैंने इस टॉपिक पर काफी रिसर्च की है ---- लेकिन मुझे मेरे इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला कि किसी भी आम आदमी के घर में जो दूध आ रहा है क्या वह विश्वास से यह कह सकता है कि उस में कोई इस तरह की ज़हर ---यूरिया, शैंपू या कोई और कैमीकल नहीं मिला हुआ। आज कल मेरी खोज कुछ ऐसा ढूंढने में लगी है कि कोई ऐसा मामूली सा टैस्ट हो जिसे कोई भी आम आदमी एक-दो मिनट में अपने घर में ही कर के यह फैसला कर ले कि आज सुबह जो दूधवाला दूध दे कर गया है उस में यूरिया, शैंपू , बाहर से मिलाई गई तरह तरह की अजीबोगरीब चिकनाई तो नहीं है जो कि उसे पीने वालों के लिये बहुत सी बीमारियां ले कर आ जायेगी। अगर, किसी ऐसे टैस्ट का जुगाड़ हो जाये तो ग्राहक भी तुरंत फैसला कर ले दूध उस के बच्चे के पीने लायक है या फिर बाहर नाली में फैंकने लायक।
पिछले हफ्तों में मैंने बहुत ही डेयरी संस्थानों की वेबसाइटें छान डालीं ----लेकिन मेरा बस एक प्रश्न वैसा का वैसा ही बना हुआ है ---कि कोई तो ऐसा घरेलू टैस्ट हो जिसे कोई भी दो-चार रूपये में एक दो मिनट में कर ले और यह पता लगा ले कि क्या दूध में कोई ज़हरीले कैमीकल्स तो नहीं मिले हुये ------पानी वानी की चिंता तो छोड़िये, उस की तो सारे देश को ही आदत सी पड़ चुकी है।
अभी मेरी खोज जारी है---- कुछ न कुछ तो ढूंढ ही लूंगा, क्योंकि मैं इस विषय के बारे में बहुत ही ज़्यादा सोचता हूं। पिछले दिनों तो हद ही हो गई ----आपने भी खबर तो देखी होगी कि सातारा में कोई मैट्रिक फेल आदमी एक ऐसा कैमीकल तैयार करने लग गया जो कि वह 70 रूपये किलो बेचता था ---- और इस एक किलो कैमीकल से 30 किलो दूध तैयार किया जा सकता है ----खबर थी इस तरह के कैमीकल से तैयार लाखों टन लिटर दूध बाज़ार में सप्लाई हो चुका था। लेकिन इस पावडर की यह विशेषता बताई जा रही थी कि यह दूध की गुणवता जांचने वाले सभी तरह के टैस्ट पास कर रहा था यानि कि कोई टैस्ट यह ही नहीं बता पाता था कि इस तरह से तैयार दूध में किसी तरह की कोई मिलावट भी है !! कितनी खतरनाक स्थिति है !!
लेकिन क्या है , हम सब इस तरह की इतनी खबरें देख-सुन चुके हैं कि अब यह सब कुछ भी नहीं लगता ----- हम ज़िदा ही हैं ना, let’s pinch ourselves and assure ourselves that we are very much alive !!
Prevention of Food Adulteration नामक कानून से संबंधित आंकड़े कहां से मिलेंगे ? ---यह जानकारी तो अपने मित्र दिनेशराय जी द्विवेदी जी ही दे पायेंगे --- पता नहीं मुझे इन दिनों इस के आंकड़े जानने का इतना ज़्यादा भूत क्यों सवार है कि कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत कितने कितने लंबे समय की सज़ा हुई ? ---- इस के बारे में कोई वेब-लिंक हो तो मुझे बताईयेगा।
पोस्ट को बंद करते वक्त बस यही अनुरोध है कि दूध एवं दूध के उत्पादनों से बहुत ज़्यादा सचेत रहा कीजिये ----- आप को भी अब तो लग ही रहा होगा कि काश कोई तो ऐसा टैस्ट हो जो हमें बता सके कि घर में जो दूध आया है वह यूरिया एवं अन्य कैमीकल रहित है। इस के लिये किसी लंबे-चौड़े टैस्ट की कोई गुंजाईश नहीं है ---टैस्ट बिल्कुल सुगम और सादा हो, सस्ता हो, स्वदेशी हो और इस देश की आम जनता की पहुंच में हो।
P.S……1. हम लोग मुंबई में लगभद दस साल सर्विस में रहे ---अब लगता है कि जो दूध वहां पर भी इस्तेमाल किया वह सब मिलावटी ही था ---- उस दूधवाले से चौबीस घंटे जितना चाहे दूध आप लेकर आ सकते थे -----हम तब सोचा करते थे कि यह दूध दही की नदियां पंजाब की बजाए अब बंबई में बहने लगी हैं क्या !!
2. उस के बाद जब हमारी नौकरी फिरोज़पुर पंजाब में लगी तो वहां पर एक मशहूर डेयरी वाला इस लिये बहुत मशहूर था कि वह तो गांव से दूध लाने वालों को उस दूध में फैट की मात्रा देख कर भुगतान करता है ---वह सब दूध वालों के दूध का सैंपल भर कर रोज़ाना उन में एक इंस्ट्रयूमैंट लगा छोड़ता है ----इस से उसे फैट के प्रतिशत का पता चल जाता था ----लेकिन अब सोचता हूं कि क्या कुछ कैमीकल वगैरह से इस फैट को बढ़ाना कोई मुश्किल काम है ?
शिक्षा ---- तो, साथियो, आज के पाठ से हम ने क्या सीखा ------गोलमाल है भई सब गोलमाल है।
रोटी, कपड़ा और मकान का यह गीत भी तो कुछ यही कह रहा है -----पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई !!
शनिवार, 15 अगस्त 2009
स्वाईन-फ्लू ---- फेस मास्क किन लोगों के लिये है ?
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
स्वाईन-फ्लू ---वैसे आंकड़े तो बस आंकड़े ही हैं !!
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
स्वाइन-फ्लू --- बचने के लिये ज़्यादा लंबे-चौड़े लफड़े में क्या पड़ना !
महांमारी तो अब आ ही गई है, आगे चल कर यह क्या रूप अख्तियार करेगी, इस रहस्य का जवाब तो समय की कोख में छुपा हुआ है। लेकिन इतना मुझे ज़रूर लग रहा है कि इस महांमारी का जो खौफ़ पैदा हो गया है आने वाले समय में वह मार्कीट में कुछ वस्तुओं का बाज़ार ज़रूर गर्म कर देगा।
मैं पढ़ रहा था कि अगर फलां-फलां तरह के साबुन से हाथ धोयें जायें या ऐसे हैंड-रब का इस्तेमाल किया जाये तो इस से बचा जा सकता है। सोच रहा हूं कि क्या लोगों को इस तरह की सलाह दी जाये और अगर सलाह दी भी जाये तो क्या वे इस को मान लेंगे। कहां से मान लेंगे ? ---- उन की दूसरी प्राथमिकतायें भी तो हैं ( मेरी मां का दो दिन पहले रोहतक से फोन आया कि मेरा भाई चार-छः दुकानों पर पता कर आया है, चीनी नहीं मिल रही , इसलिये गुड़ की चाय पी रहे हैं !!)---- जिस देश के करोड़ों लोगों को नहाने के लिये अंग्रेज़ी क्या कपड़े धोने वाला साबुन भी उपलब्ध नहीं है और करोड़ों ऐसे लोग जो हाथ धोने के लिये मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें कैसे आप कह सकते हैं कि अब अगर आपने स्वाईन-फ्लू से बचना है तो फलां फलां साबुन खरीद लो।----करोड़ों लोगों के लिये बस यह एक शायद खोखली सी सलाह ही होगी क्योंकि चाह कर भी वे यह सब खर्च नहीं कर पाते।
जहां तक मेरी समझ है कि साबुन कोई भी हो लेकिन अगर इसी महांमारी के बहाने ही सही हमारा देश खांसना और छींकना सीख जाये तो भी बचाव ही बचाव है। हज़ार में से एक ने अगर मास्क खरीद भी लिया तो भी क्या यह महांमारी रूक जायेगी।
इस महांमारी का हम सब को मिल जुल कर सामना करना होगा ---- यह नहीं कि डा चोपड़ा तो घर में बहुत ही महंगे साबुन इस्तेमाल कर लेगा, अल्होकल युक्त हैंड-रब भी खरीद कर लेकर आयेगा, ज़रूरत पड़ने पर फेस-मास्क भी मिल ही जायेंगे, इसलिये उसे दूसरों के साथ क्या। शायद उसे दूसरों के साथ कोई सरोकार न होता अगर वह अपने किसी प्राइवेट प्लेनेट पर रह रहा होता और उसे हर समय अपने ही घर में रहना होता, लेकिन वास्तविकता यह है कि उसे भी दिन में 10-12 घंटे पब्लिक के बीच ही रहना है, उन के बीच ही रहना है, सांस भी वहीं लेना है, बैंक एवं डाकखाने की लाइन में खड़े भी होना है, ठसाठस भरी बस में भी यात्रा करनी है, उस के बच्चों ने भी स्कूल जाना है, सब के साथ मिक्स होना है------------तो, फिर बात वहां पर आकर खत्म होती है कि यह महांमारी किसी एक बंदे के द्वारा सारी सावधानियां बरत लेने से थमने वाली नहीं।
हमें पब्लिक को सचेत करना होगा कि मास्क नहीं है तो कोई गम नहीं है, ज़रूरत पड़ने पर आप अपने रूमाल को ही मास्क की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं और फिर उसे अच्छी तरह धो सकते हैं। बहुत से स्कूलों के बच्चों की जेब में रूमाल ही नहीं होता, उन्हें यह बताने का यह एक उचित अवसर है कि रूमाल रखने से कैसे आप की अपनी सेहत की ही रक्षा होती है। और खास बात और कि ज़रूरी नहीं सारे बच्चे बाज़ार से ही रूमाल खरीदें, आखिर घर में बने किसी रूमाल में या अगर रूमाल नहीं भी है तो किसी साफ़,सुथरे सूती कपड़ा का स्कूली बच्चों द्वारा रूमाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है तो इस में क्या बुराई है !!
अब तो प्राइवेट अस्पतालों को भी स्वाईन फ्लू टैस्टिंग की एवं इलाज की अनुमति मिल गई है, इसलिये मुझे लगता है कि बहुत से अस्पताल तो इस से संबंधित विज्ञापन भी समाचार-पत्रों में जारी करने की तैयारी में जुटे होंगे। देखते हैं आने वाले समय में स्वाईन-फ्लू की टैस्टिंग के लिये कैसी होड़ लगती है।
और एक बेहद ज़रूरी बात यह भी है कि जहां तक हो सके अपनी इम्यूनिटी को बढ़ाने की चेष्टा करनी चाहिये ---अगर वॉयरस शरीर में चली भी जाये तो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही उसे धर-दबोचे। और इस के लिये सात्विक आहार लेना होगा जो संतुलित भी हो, उपर्युक्त मात्रा में पानी पीना चाहिये और इन सब से बहुत ज़रूरी है कि कम से कम अब तो प्राणायाम् करना शुरू कर लिया जाये।
बस, इतना कुछ ही कर लें। और कर भी क्या सकते हैं। मैं भी घर में मौजूद साधारण साबुन ही इस्तेमाल कर रहा हूं , लेकिन बार बार हाथ धो लेने में कभी भी आलस नहीं करता हूं -------लेकिन इस महांमारी की वजह से अब अपने एवं दूसरों के खांसने-छींकने के बारे में ज़्यादा सचेत रहना होगा ----- इस के अलावा कोई चारा भी तो नहीं होगा। बस, जो कुछ सहज-स्वभाव से बचाव के लिये कर पायें, बिल्कुल ठीक है, बाकी इस प्रभु पर छोड़ दें, जो भी होगा अच्छा ही होगा !!a
स्वाईन फ्लू --- जितना हो सके बच लें।
यह तस्वीर बहुत अजीब सी लगी। वैसे भी टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें दिखाई जा रही हैं उन में लोग बदहवास से मास्क लगाये हुये दिख रहे हैं। एकदम लगता है कि जैसे कि पैनिक सा फैल गया है।
लेकिन सोचने की बात है कि अंधाधुंध केवल मास्क पहन लेने से या थोड़ी बहुत गला खराब-खांसी, जुकाम, बुखार हो जाने पर और बिना टैस्ट करवाये ही टैमीफ्लू खा लेने से क्या सब ठीक हो जायेगा, यह महामारी रुक जायेगी क्या ?
वैसे तो स्वाईन-फ्लू का टैस्ट जितना महंगा है ( लगभग दस हज़ार रूपये ) उसे अभी तक तो कुछ चिंहित सरकारी संस्थानों में ही किया जाता रहा है लेकिन आज सरकार ने प्राइवेट संस्थानों को इस की टैस्टिंग की व इस के इलाज की अनुमति दे दी है।
इस में कोई शक नहीं कि इस स्वाईन-फ्लू ने एक महांमारी का रूप तो ले ही लिया है। लेकिन बार बार यह भी कहा जा रहा है कि घबराने की कोई बात नहीं ----केवल हमें बेसिक साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना है। छींकने, खांसने का सलीका लोग अभी भी सीख लें तो इस बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है।
मैं कल कहीं पढ़ रहा था कि नाक साफ़ करने के लिये टिश्यू का इस्तेमाल करें और फिर इसे फैंक दें। कितने लोग हैं जो कि देश में नाक साफ़ करने के लिये टिश्यू का प्रयोग करते हैं ---- केवल अच्छी तरह से नाक साफ करन के बाद हाथों को अच्छी तरह से धोने की बात बेहद ज़रूरी है।
जब से यह महांमारी के फैलने की खबरें आने लगी हैं, लगता है कि फेस-मास्क, तरह तरह के ऐंटीसैप्टिक साबुनों आदि की भी लाइनें लग जायेंगी।
वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइज़ेशन ने स्वाईन-फ्लू से बचने के लिये जो दिशा-निर्देश जारी किये हैं उन में से कुछ इस प्रकार हैं --
---भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जितना हो सके कम समय व्यतीत करें।
----घर दफ्तर की खिड़की वगैरा खोल कर रखें।
----अपने नाक और मुंह को छूने के बाद अपने हाथों को साबुन से अच्छी तरह धोएं।
----अगर आप स्वाईन-फ्लू से ग्रस्त किसी मरीज़ की देखभाल कर रहे हैं तो मास्क पहनें।
और कुछ बातें ना करने के लिये भी कहा गया है जैसे कि ---
---जिस व्यक्ति में इंफ्लूऐंजा जैसे लक्षण दिखें उस से कम से कम एक मीटर की दूरी अवश्य बनायें।
---बिना डाक्टरी सलाह के कोई भी वायरस-नाशक दवा जैसे कि टैमीफ्लू आदि लेनी शुरू न कर दें।
---अगर आप बीमार नहीं हैं तो मास्क मत पहनें।
---मास्क के गलत प्रयोग से बीमारी के फैलने में किसी तरह की सहायता मिलने की बजाये इस के और भी फैलने की आशंका बढ़ जाती है।
हां, अगर आप किसी ऐसी जगह पर हैं जहां पर इस बीमारी से ग्रस्त बहुत से लोग एक साथ इलाज आदि करवा रहे हैं तो मास्क पहन लेना चाहिये। अगर मास्क नहीं भी है तो इस काम के लिये एक बड़ा-सा रूमाल इस्तेमाल करने में क्या बुराई है।
सोच रहा हूं जो तस्वीर मैंने आज देखी उस में जो मास्क बच्चों ने लगा रखे थे वे उन्हें स्कूल द्वारा सप्लाई किये गये होंगे या उन्होंने उस के पैसे अपनी जेब से भरे होंगे, लेकिन एक बार मास्क लगा लेने में किसी चीज़ का हल भी तो नहीं है।
शनिवार, 25 जुलाई 2009
यहां पढ़े हैं आरटीआई के अनगिनत सवाल ...
मैं पिछले वर्षों में बहुत सारी अखबारें पढ़ने के बाद कुछ अरसे से केवल तीन अखबारें पढ़ता हूं। मेरे दिन की शुरूआत सुबह सुबह तीन अखबारें पढ़ने से होती है -- अमर उजाला, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदु। मुझे बहुत सारी अखबारें छानने के बाद यह लगने लगा है कि अगर हम इन को ध्यान से देखें तो इन के हर पन्ने पर कोई न कोई सूचना के अधिकार का सवाल बिखरा पड़ा होता है।
वह बात भी कितनी सही है कि एक पत्रकार किसी बेबस, गूंगे इंसान की जुबान है। कितनी ही बातें हैं जिन से हम केवल अखबार के द्वारा ही रू-ब-रू होते हैं। अब एक पत्रकार ने तो इतनी मेहनत कर के किसी मुद्दे को पब्लिक के सामने रख दिया। लेकिन अगर गहराई में जायें तो बस इन्हीं न्यूज़-रिपोर्टज़ से ही कईं आरटीआई के सवाल तैयार हो सकते हैं।
आरटीआई के बहुत से सवालों का खजाना वह इंसान भी होता है जिन ने कभी सूचना के अधिकार में कुछ पूछने की ज़ुर्रत तो कर ली लेकिन जाने अनजाने उस ने किसी की दुखती रग पर हाथ रख दिया जिस की वजह से उसे किसी बहाने से ....।
ज़िंदगी के करीब के बहुत से सवाल किसी भी आम आदमी के पसीने के साथ रोज़ बहते रहते हैं। यह आम आदमी की ज़िंदगी तो आरटीआई में पूछने लायक सवालों का खजाना है। जिस किसी भी जगह पर कोई भी लाचार, बेबस, कमज़ोर, शोषित, सताया हुआ, पीड़ित, किसी षड़यंत्र का शिकार इंसान खड़ा है उस के पास आप को बीसियों आरटीआई के सवाल बिखरे पड़े मिलेंगे। लेकिन उस का बेबसी है कि अभी तक उसे अपनी कलम की ताकत पर विश्वास नहीं है या यूं कह लें कि अभी उस ने अपनी कलम उठाई नहीं है। या फिर यह भी हो सकता है कि उसे लगता हो कि वह आरटीआई में दिये जानी वाली दस रूपये की फीस से वह कुछ और भी अहम् काम कर सकता है।
जो भी हो, जब कभी मैं कभी कभी यहां-वहां किसी के मुंह से यह सुनता हूं कि यह आरटीआई सिरदर्दी बन चुका है तो मैं यह समझ जाता हूं कि इस का मतलब है कि सूचना के अधिकार अधिनियम का काम बिलकुल ठीक ठाक चल रहा है। जहां तक लोगों के द्वारा ढंग से सवाल पूछने जाने पर कुछ लोगों को कभी कभी आपत्ति रहती है तो इस में मुझे तो कुछ खराब लगता नहीं -----सीख जायेंगे, सीख जायेंगे, दोस्त, उन्हें हम लोग अपना दिल खोल तो लेने दें। ढंग वंग का क्या है, किसी भी सवाल की आत्मा का ही तो महत्व है।
आरटीआई में अवार्ड्स की घोषणा कुछ दिनों से दिख रही है ---- मेरे लिये उस का पात्र आने वाले समय में कौन होगा पता है ? --- वह मज़दूर जो सुबह मज़दूरी करता है और रात में प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रम के तहत पढ़ना सीख रहा है। और जैसे ही सीख लेता है वह रात में कैरोसीन के दीये की धुंधली लौ में अपने बच्चे की कलम से एक काग़ज पर आरटीआई का एक सवाल लिख रहा है जो कि उस की बाजू पर आये पसीने की वजह से गीला है और ऊपर से उस के माथे से पसूने की बूंदे उस गीले कागज़ पर टपक रही हैं --- जिसे उस का बेटा किसी चाक के टुकड़े से लगातार पौंछे जा रहा है ताकि उस के बापू का यह सवाल कहीं गीलेपन की वजह से खराब ही न हो जाये ------उस के गांव में स्कूल में मास्टर पिछले चार महीनों से नहीं है, इस का क्या कारण है और उस के गांव के दवाखाने में कोई डाक्टर पिछले छः महीनों से तैनात क्यों नहीं है। जब इस तरह के लोगों द्वारा सवाल पूछे जाने लगेंगे तो मैं समझूंगा कि हां, भई, अब हलचल शुरू हुई है।
पता नहीं मुझे तो हर तरफ़ आरटीआई के सवाल ही पड़े दिखते हैं ----- आप जिस सड़क पर जा रहे हैं उस की खस्ता हालत जिन खड्डों की वजह से है, उन में बहुत से आरटीआई के सवाल छुपे पड़े हैं, लोगों ने अपने घरों के बाहर कईं कईं फुट की जो एनक्रोचमैंट कर रखी होती है, वह भी एक सवाल है ................हर तरफ सवाल ही सवाल हैं, केवल इन्हें देखने वाली आंख चाहिये।
और कितना समय ये मुट्ठियां-वुठ्ठियां बंद रहेंगी, ये तो भई खुलनी ही चाहियें ....
शनिवार, 18 जुलाई 2009
शॉपिंग माल में चोरी करते ये बच्चे
मैंने जाते ही कहा --- बस करो भई, बहुत हो गया। तब उस माल का एक कर्मचारी कहने लगा कि इस तरह के बच्चे रोज़ चोरी करते हैं। इन दोनों ने अपनी जेबों में चाकलेटें ठूंस रखी थीं और हम ने कैमरे की मदद से इन का यह काम पकड़ लिया, इसलिये इन्हें यह सज़ा दे रहे हैं। वह कर्मचारी कहने लगा कि इसी तरह की चोरियों की वजह से हमारे सारे कर्मचारियों को हर महीने अपनी तनख्वाह से एक हज़ार रूपये कटवाने पड़ते हैं।
मैंने उन्हें कहा कि चलो, छोड़ो अब इन को --- छोटे हैं। मैंने सुरक्षा वाले को कहा कि इन के लिये कुछ पैसे वैसे भरने हैं तो मैं तैयार हूं। उसने कहा कि नहीं, सामान तो हम ने वापिस करवा लिया है, इन्हें अब छोड़ भी देंगे। फिर मेरी पत्नी ने भी उन से बात करी ---- उन में से एक लड़के ने बताया की बाहर एक लड़का खड़ा था जिस के कहने पर हम यह काम कर रहे थे।
मेरा मूड इतना खराब हुया कि मैं बता नहीं सकता --- मैं एक डिओडोरैंट की शीशी शापिंग-बास्कट में डालते हुये यही सोच रहा था कि मेरी डिओडोरैंट से कहीं ज़्यादा ज़रूरत बच्चों को चाकलेट की होती है। वैसे हो भी क्यों नहीं, जब मैं इस उम्र में चाकलेट के लिये मचल जाता हूं तो फिर बच्चों की तो बिसात ही क्या है !
मैं पिछले एक घंटे से यही सोच रहा हूं कि आखिर कसूरवार कौन ? --शॉपिंग माल में जो दो छोटे छोटे बच्चे ये काम कर रहे थे इस के लिये असली कसूरवार कौन है ? मैं तो इस का जवाब ढूंढ पाने में असमर्थ हूं --- मुझे लगता है कि मेरा दिल मेरे दिमाग से हमेशा ज़्यादा काम करता है।
जिस रोड़ से वापिस हम लोग घर लौट रहे थे उस की हालत देख कर यही सोच रहा था कि इस के जितने खड्ढे हैं ये भी चीख चीख कर किसी न किसी की इमानदारी के किस्से ब्यां कर रहे हैं, जो लोग एटीएम में नकली नोट डालते हैं उन्हें आप क्या कहेंगे, स्मार्ट या कुछ और----------- मैं देख रहा था कि उन दो मासूम बच्चों को पकड़ कर उस माल का सारा स्टाफ आपस में और दूसरे ग्राहकों को यह किस्सा इस तरह से सुना रहे थे जैसे कि उन्होंने 26नवंबर के बंबई के उग्रवादी हमले के दोषियों को पकड़ लिया हो।
पता नहीं मुझे यह सब देख कर बहुत ही ज़्यादा दुःख हुया। लेकिन फिर भी मैंने बाहर आते आते घर में सो रहे अपने बच्चों के लिये दो चाकलेट उस शापिंग बास्केट में डाल दीं।
चलो, मेरी पसंद का यह गाना सुनते हैं -----
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
जब एटीएम ही नकली नोट उगलने लगे तो ....
वैसे तो शायद इस के बारे में पहले ही से कोई पालिसी मौजूद हो ---शायद मुझे इस का ज्ञान न हो, वैसे पब्लिक को भी लगता है कि इस का कुछ पता-वता है नहीं।
समस्या यही है कि जिस भी आम बंदे के साथ ऐसा हादसा होता है उस की हालत तो देखते बनती है। यह चपत तो उसे लगी सो लगी, साथ में उसे यह डर सताता है कि पता नहीं अब बैंक वाले कितने तरह के सवाल पूछेंगे। मैंने एक बार रोहतक में एक ऐसे ही किसी गुमनाम आम आदमी को एक बैंक आफीसर को अपनी व्यथा सुनाते हुये सुना था।
मैंने नोटिस किया कि वह बंदा उस आफीसर से इस अंदाज़ में बात कर रहा था जैसे कि वह उस की चापलूसी कर रहा है, बिना वजह इतने दास-भाव से बात कर रहा था जैसे कि एटीएम से अगर उस के रूपयों में एक नकली पांच सौ रूपये का नोट आ गया है तो उस से कोई जुर्म हो गया है। शायद अगर मेरे साथ भी अगर इस तरह की वारदात हो तो मैं भी शायद उतनी ही विनम्रता से या उस से भी शायद ज़्यादा नर्मी से बात करूंगा।
दरअसल ऐसे मौकों पर एक आम ग्राहक की यह मानसिकता होती है कि बस कैसे भी हो मेरे यह नकली नोट जो एटीएम से निकला है --बस किसी तरह से यह एक्सचेंज हो जाये। और दूसरी बात यह होती है कि उसे कहीं न कहीं यह डर भी सताता होगा कि पता नहीं कितने सवाल उस से पूछे जायें। यह तो हम सब जानते ही हैं कि कईं बार ऐसे मौकों पर लेने के देने भी पड़ सकते हैं ----अब ग्राहक कैसे यकीन दिलाये कि यह वाला नकली नोट बैंक की एटीएम मशीन से ही निकला है।
वैसे यह बहुत कंपलैक्स ईश्यू है ना ---- वैसे देखा जाये तो एक सीधे-सादे ग्राहक का इस में क्या कसूर। मेरा विचार है कि अगर कभी ऐसा हो भी जाता है तो भी यह बैंक के उस कर्मचारी या अधिकारी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होनी चाहिये जो उस मशीन में नोट डालने के लिये जिम्मेदार होता है। जब तक इस तरह का कोई नियम नहीं होता, तब तक यह सब कुछ यूं ही ढीला-ढाला चलता रहेगा। लेकिन वही बात है ना कि अब ग्राहक कैसे यह विश्वास दिलाये कि यह नोट उस मशीन से ही निकला है। और दूसरी बात यह भी है ना बैंक के इंटरैस्ट का भी पूरा ध्यान रखा जाना चाहिये ताकि कोई भी बंदा इस तरह के नियम का गलत इस्तेमाल करते हुये अपने किसी नकली नोट को बैंक में जा कर एटीएम का बहाना बना कर एक्सचेंज न करवा पाये। शायद इस संबंध में पहले ही से कोई कानून हो, अगर इस तरह का कोई नियम है तो उसे एटीएम कक्ष में हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषा में लोगों की सूचना के लिये लिखा होना चाहिेये --- एटीएम कक्ष में ही क्यों, उस एटीएम की पर्ची पर भी यह लिखा होना चाहिये।
क्या आप को लगता है कि एटीएम में जो नोट भरे जाते हैं उन के नंबर किसी कर्मचारी द्वारा नोट किये जाते होंगे। भई जो भी आम बंदे के साथ किसी किस्म का धक्का नहीं होना चाहिये ---पांच सौ रूपये कम तो नहीं होते।
वैसे मैं इस संबंध में सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत एक आवेदन भेज कर इस संबंध में सटीक जानकारी पाने का विचार कर रहा हूं।