शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

चमड़ी रोग के लिये ली यह दवा मौत के मुंह में भी धकेल सकती है !

वैसे सुनने में बहुत हैरतअंगेज़ ही लगता है और खास कर किसी नॉन-मैडीकल इंसान को कि सोरायसिस नामक चमड़ी रोग के लिये ली गई एक दवा ( जिस में ईफॉलीयूमाब- efalizumab नामक साल्ट था) से तीन लोगों की अमेरिका में मौत हो गई। इसलिये वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने एक चेतावनी जारी की है कि भविष्य में इस दवाई पर एक ब्लैक-बाक्स चेतावनी लिखी जायेगी। इस की विस्तृत जानकारी आप इस लिंक पर क्लिक कर के प्राप्त कर सकते हैं।

अकसर मैंने देखा है कि लोग चमड़ी रोगों को बहुत ही ज़्यादा हल्के-फुलके अंदाज़ में लेते हैं। चमड़ी की कुछ तकलीफ़ों के बारे में तो अकसर लोग यही सोच लेते हैं कि इन का क्या है, कुछ दिन में अपने आप ही ठीक हो जायेंगी, अब कौन जाये चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास। अपने आप ही कोई भी ट्यूब कैमिस्ट से लेकर लगा कर समझते हैं कि रोग का खात्मा हो गया। लेकिन यह बात बिल्कुल गलत है। विभिन्न कारणों की वजह से लोग अकसर चमड़ी-रोग विशेषज्ञ के पास जाना टालते रहते हैं।

मेरा विचार है जो कि छोटी मोटी चमड़ी की तकलीफ़ें हैं उन का उपचार तो एक सामान्य डाक्टर ( एम.बी.बी.एस) से भी करवाया जा सकता है ---उदाहरण बालों में रूसी, कील-मुहांसे, जांघ के अंदरूनी हिस्सों में दाद-खुजली, स्केबीज़ आदि ---- लेकिन कुछ चमड़ी रोग इस तरह के होते हैं जो बहुत लंबे समय तक परेशान किये रहते हैं, बीच बीच में ठीक हुये से लगते हैं और कभी कभी फिर से उग्र रूप में उभर आते हैं। सोरायसिस भी एक ऐसी ही चमड़ी की तकलीफ़ है , वैसे तो और भी बहुत सी चमड़ी की तकलीफ़ें हैं लेकिन इस की एक मात्र उदाहरण यहां ले रहे हैं।
वैसे तो आम से दिखने वाले चमड़ी रोगों का भी जब कोई जर्नल एमबीबीएस डाक्टर या कोई भी स्पैशलिस्ट ( चमड़ी रोग विशेषज्ञ नहीं ) इलाज कर रहा होता है और कुछ दिनों के बाद भी उपेक्षित परिणाम नहीं मिलते तो समय होता है उसे चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास रैफर करने का। और जहां तक चमड़ी की क्रॉनिक बीमारियां हैं जो लंबे समय तक चलती हैं उन का इलाज तो चमड़ी रोग विशेषज्ञ से ही करवाना चाहिये।

इस में किसी चिकित्सक के डाक्टर को अहम् को ठेस पहुंचने वाली बात तो है ही नहीं ---जो भी जिस रोग का विशेषज्ञ है उसी के पास जाने में समझदारी है। यह सोच कर कि चमड़ी के कुछ रोगों का इलाज तो लंबा चलता है –बार बार कौन स्किन स्पैशलिस्ट के पास जाये, ऐसे ही किसी पड़ोस के फैमिली डाक्टर से कोई दवा लिखवा कर, कोई ट्यूब लिखवा कर लगा कर देख लेते हैं। इस से कोई फायदा होने वाला नहीं विशेषकर उन तकलीफ़ों में जो क्रॉनिक रूप अख्तियार कर लेने के लिये बदनाम हैं। एक तो रोग बिना वजह बढ़ता है और दूसरा यह कि ऐसी दवाईयों के इस्तेमाल की जितनी जानकारी और जितना अनुभव एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ को होता है उतना एक सामान्य डाक्टर को अथवा किसी दूसरे विशेषज्ञ को नहीं होता । और आज आपने अमेरिका में सोरायसिस के लिये दी जाने वाली दवा का किस्सा तो सुन ही लिया जिस की वजह से तीन लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अब इस बात का ध्यान कीजिये कि वहां पर कानून कायदे इतने तो कड़े हैं कि चमड़ी-रोग विशेषज्ञ ही चमड़ी के मरीज़ों का इलाज करते हैं। लेकिन फिर भी यह दुर्घटना हो गई ---- इस में चमड़ी रोग विशेषज्ञों का भी कोई दोष नहीं है, अब नईं नईं दवाईयां, नये नये इलाज आ रहे हैं जिन के इस्तेमाल को हरी झंडी मिल तो जाती है लेकिन फिर भी लंबे अरसे तक उन का इस्तेमाल करने से चिकित्सकों को बाद में पता चलता है कि उन के क्या क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं और जब ये फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के नोटिस में आते हैं तो फिर वह भी हरकत में आ कर उचित कार्यवाही करती है।

अकसर मैं देखता हूं कि चमड़ी के रोगों के इलाज में खूब गोरख-धंधा चल रहा है ---और इस का मुख्य कारण यह है कि चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास ना जा पाना। मरीज़ जब अपनी मरजी से तरह तरह की ट्यूबें लगा कर थक जाते हैं तो फिर किसी नीम-हकीम देसी दवाई वाले की शरण ले लेते हैं --- वह भी सभी अंग्रेज़ी दवाईयां कूट कूट कर मरीज़ों को महीनों एवं सालों तक छकवाता रहता है और जब या तो रोग बहुत ही ज़्यादा बढ़ जाता है और या तो बिना किसी हिसाब किताब के ली गई इन अंग्रेज़ी दवाईयों ( स्टीरायड्स इस में सब से प्रमुख हैं) .... के कारण जब शरीर में अन्य भयंकर रोग लग जायेंगे तो फिर चमड़ी रोग विशेषज्ञ को ढूंढना शुरू किया जाता है ---- अब इतनी देर से उस के पास जाने से कैसे बात तुरंत ही बन जायेगी। एक बात यहां यह भी रखनी ज़रूरी है कि संभवतः चमड़ी-रोग विशेषज्ञ भी अन्य दवाईयों के साथ साथ मरीज़ को स्टीरायड्स दे सकता है लेकिन उसने इन दवाईयों का सही नुस्खा लिखने की तहज़ीब सीखने के लिये दस साल लगाये हैं -----और वह आप के इलाज के दौरान आप के तरह तरह के टैस्ट करवा कर यह भी सुनिश्चित करता रहता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है, शरीर पर किसी तरह का दुष्परिणाम दवाईयों का नहीं पड़ रहा है।


दोस्तो, जिस का काम उसी को साजे ------वाली कहावत इस समय याद आ रही है --- कुछ साल पहले मेरी माता जी को आंख के पास भयानक दर्द थी, एक दो दिन में आंख के ऊपर माथे पर छोटी छोटी फुंसियां सी निकल आईं ---- दर्द बहुत भयानक था ---- याद आ रहा है कि उस दिन मैं, मेरा छोटा बेटा और मां जी भटिंडा स्टेशन पर बैठे थे ---जनवरी की सर्दी के दिन थे ---- वह लगातार दर्द से कराह रही थी ---- उस सारी रात वह एक मिनट भी नहीं सोईं ।

अगले दिन मैंने अपने एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ मित्र को अमृतसर फोन किया ---उस को सारा विवरण बताया , जिसे सुन कर उस ने बताया कि हरपीज़-योस्टर लग रहा है – फिर भी उस ने कहा कि तुरंत किसी चमड़ी-रोग विशेषज्ञ को दिखा कर आओ। हम लोग तुरंत गये शहर के एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ के पास, जिस ने कहा कि यह हरपीज़-योस्टर ही है ( जिसे अकसर लोग जनेऊ निकलने के नाम से भी जानते हैं) ---उस ने कुछ दवाईयां लिखीं और साथ में कहा कि तुरंत किसी नेत्र-रोग विशेषज्ञ को चैक अप करवायो (क्योंकि जब यह हरपीज़-योस्टर आंख को अपना शिकार बनाती है तो फिर कुछ भी हो सकता है) ---- तुरंत हम लोग नेत्र-रोग विशेषज्ञ के पास गये तो उस ने कहा कि आप बिल्कुल सही वक्त पर ही आये हो इस से आंख भी खराब हो सकती है। उन्होंने भी दवाईयां लिखीं ---खाने की और आंख में डालने की ---- और कुछ दिन इलाज करने के बाद सब कुछ ठीक हो गया।
यह उदाहरण इस लिये ही दी है कि किसी भी रोग को छोटा नहीं जानना चाहिये ---हमेशा यह मत सोचें कि सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा --- हां, अगर कोई विशेषज्ञ यह बात कहता है तो बात भी है !! कईं बार जिस तकलीफ़ को हम बिल्कुल छोटा समझते हैं वह स्पैशिलस्ट के लिये किसी बड़ी तकलीफ़ का संकेत हो सकती है और अकसर जब कभी हम यूं ही किसी बड़ी तकलीफ़ की कल्पना से डर कर किसी विशेषज्ञ से मिलने से कतराते रहते हैं लेकिन विशेषज्ञ से मिल कर भांडा फूट जाता है कि यह तो तकलीफ़ कोई खास थी ही नहीं ----कुछ ही दिनों की दवाई से तकलीफ़ छृ-मंतर हो जाती है।

एक बात और भी है कि आज कल कुछ तरह के चमड़ी रोगों के होम्योपैथी इलाज के विज्ञापन भी समाचार-पत्रों में हमें दिख जाते हैं --- अकसर जब मरीज़ इन के बारे में किसी डाक्टर से अपनी राय पूछता है तो वह चुप सा हो जाता है । ऐसा इसलिये होता है क्योंकि हमारी चिकित्सा शिक्षा में एलोपैथी और अन्य भारतीय चिकित्सा पद्वतियों का समन्वय न के बराबर है ---- ना तो यह चिकित्सकों के स्तर पर है और न ही मरीज़ों के स्तर पर ---- कईं बार बस असमंजस की स्थिति सी बन जाती है --- मेरे विचार में मरीज को यह पूर्ण अधिकार है वह सारी सूचना प्राप्त कर के अपने विवेक एवं सुविधा के अनुसार ही चिकित्सा पद्धति का चयन करे ---बस इतना ध्यान अवश्य कर ले कि जो भी होम्योपैथिक एवं आयुर्वैदिक चिकित्सक उस का इलाज करे वह प्रशिक्षित होना चाहिये और दूसरा यह कि दोनों चिकित्सा पद्वतियों के इलाज की खिचड़ी से दूर रहने में ही समझदारी है ---- वरना दो नावों की एक साथ सवारी करने वाले जैसी हालत हो जाती है। जाते जाते बस एक बात और करूंगा कि यह जो हमें अकसर बैंक, डाकखाने , पड़ोस में सेल्फ-स्टाईल्ड होम्योपैथ अथवा आयुर्वैदिक चिकित्सक मिल जाते हैं ना इन से तो बिल्कुल बच कर ही रहा जाये ---- इन के पास कोई प्रशिक्षण होता नहीं है , बस कहीं से एक किताब मंगवा कर उस के आधार पर देख देख कर ये अपने जौहर दिखाने पर हर समय उतारू रहते हैं--- बस ऊपर वाला हम सब की ऐसी नेक रूहों से रक्षा करें---- जी हां, होते ये बहुत नेक किस्म के इंसान हैं लेकिन बस वही बात बार बार याद आ जाती है ----नीम हकीम खतराये जान !!

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

वाह ! क्या सच में यह मशीन सब कुछ भला चंगा कर देगी !!

कुछ दिन पहले सूचना मिली कि शहर में फलां-फलां जगह पर जर्मनी से एक मशीन ला कर स्थापित की गई है जो कि बहुत से रोगों से निजात दिला देगी। कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि जिस के यहां यह जर्मनी वाली मशीन स्थापित की गई है उस ने कुछ दिन के लिये फीस के लिये छूट दे रखी है—लोग रोज़ाना जा कर सिंकवाई करवाये जा रहे हैं।

दो चार दिन पहले रोहतक गया तो वहां पर भी इस जर्मनी वाली मशीन के इश्तिहार जगह जगह लगे हुये थे।
सोच रहा हूं कि क्या इस मशीन से सचमुच ही सब कुछ ठीक हो जायेगा---तो जवाब संतोषजनक मिलता नहीं। लगता है कि पब्लिक को बस उल्लू बनाया जा रहा है –अब रोज़ाना इस इलाज के हर मरीज़ से तीस रूपये लिये जा रहे हैं। इस से कुछ भी तो होने वाला नहीं है। आज मैं अपने एक मरीज़ को कह रहा था कि यार, इस तीस रूपये के तो यार तेरा परिवार फल खा सकता है --- वैसे आम आदमी की क्या कम सिंकाई हो रही है जो मशीन से भी यह काम करवाने की भी ज़रूरत आन पड़ी है, और यह काम तो घर पर भी किया जा सकता है। और जहां तक बड़ी उम्र के साथ और बढ़े हुये वजन की बदौलत घुटने चलते नहीं, जोड़ जाम हो गये हैं, चाल टेढ़ी हो गई है तो उस में यह कमबख्त मशीनें क्या कर लेंगी ----कुछ नहीं कर पायेंगी ---- केवल झूठी आस देती रहेंगी ----कब तक ? ----जब तक जनमानस रोज़ाना तीस रूपये इन जगहों पर जा कर पूजते रहेंगे !

अकसर यह भी सोचता हूं कि हम लोग बहुत ज़्यादा भटक चुके हैं ---इस के बहुत से कारण है। जिस तरह से आज कल टीवी पर हाई-फाई विशेषज्ञों द्वारा राशि फल सुनाया जाता है वह भी अच्छा खासा रोचक प्रोग्राम हो गया है ---- इस काम को भी प्रोड्यूसरों ने अच्छा खासा रोचक बना दिया है। इसे पेश करने वाले लोगों के हाव-भाव, उन के गले में मालाओं की वैरायिटी, डिज़ाइनर कपड़े और बेहद उतावलापन देखते बनता है।

कुछ प्रोग्रामों पर तो तरह तरह के तावीज़, यंत्र-तंत्र धारण करने की गुज़ारिश की जाती है और इन को पेश करने का ढंग भी इतना लुभावना होता है कि आदमी इन को पहनने के लिये मचल ही जाये क्योंकि इस के फायदे बताने वाली बहन जी की बातों में जादू ही कुछ इस किस्म का है कि क्या कहने !!

याद आ रहा है कि अपने पिता जी की अस्थि-विसर्जन के लिये जब हम लोग हरिद्वार गये तो वहां पर हम ने भी 1500 रूपये में एक रूद्राक्ष खरीद कर यही सोचा था कि यार, यह रूद्राक्ष हमें इतनी आसानी से आखिर मिल कैसे गया ---क्योंकि उस बेचने वाले की बातों में बात ही कुछ ऐसी थी कि यह रूद्राक्ष तो बस केवल एक ही बचा है। सरासर हम लोगों को बेवकूफ़ बनाया गया था।

दोस्तो, मैं भी जगह जगह इतनी बार धोखा खा चुका हूं ---- इतनी बार बेवकूफ़ बन चुका हूं कि अपनी सारी फ्रस्ट्रेशन निकालने का केवल एक ही रास्ता ढूंढ निकाला है कि जनमानस को खूब सचेत किया जाये ----सुना है कि हर आदमी के लिये ऊपर वाले ने कोई न कोई काम बनाया हुआ है --- मेरे लिये तो मुझे लगता है कि जनमानस को जागरूक करना ही मेरे हिस्से आया है। और मुझे पूरा विश्वास है कि यह काम मैं आप सब के आशीर्वाद से अच्छे खासे ढंग से कर लेता हूं।

कईं बार रात को डेढ़-दो बजे आप टी वी लगा कर देखिये --- स्थानीय चैनलों पर प्रादेशिक भाषाओं में विदेशी महिलायें जो फर्राटेदार पंजाबी अथवा हिंदी( सब डब किया हुआ ) बोलती दिखती हैं, वह देश कर कोई भी हैरान हुये बिना रह ही नहीं सकता। वह इतनी तेज़ी तेज़ी से बोल रही होती हैं कि सुनने वाले को लगता है कि अगले कुछ ही घंटों में वह उसे उस की फालतू चर्बी से निजात दिलवा कर एकदम छरहरा कर देंगी ----सब अजीबो गरीब विज्ञापन इसी समय भी दिखते हैं ---किसी विज्ञापन में वक्ष सुडौल करने की रणनीति समझाई जाती है , कहीं पर पेट को बिल्कुल अंदर धंसाने के गुर सिखाये जा रहे होते हैं ---- और यह विज्ञापन इतने कामुक अंदाज़ में पेश किये जाते हैं कि लोग बार बार इन्हें देख कर भी थकते नहीं---- और लोहे को गर्म देख कर तुरंत मेम घोषणा करती है कि अगर तू भी इतना ही बलिष्ठ एवं सुडौल बनता चाहता है तो तुरंत फोन उठा के अपना सौदा बुक करवा ले, और दो हज़ार की छूट वाली स्कीम केवल पहले एक सौ फोन करने वाले दर्शकों के लिये ही है।

मन तो मुसद्दी का भी कर रहा है कि एक मशीन मंगवा कर विलायती कसरत कर ही ली जाये, लेकिन पास ही चटाई पर बेपरवाह घोड़े बेच कर सो रहे सारे परिवार जनों की अंदर धंसी हुई आंखें और गाल देख कर वह डर जाता है ---तुरंत बती बुझा कर वह भी सोने की कोशिश तो करने लगता है लेकिन उस विज्ञापन वाली मेम की मीठी-मीठी (लेकिन महंगी बातें) उसे ढंग से सोने ही नहीं देतीं।

सुबह अखबार वाले की साईकिल की घंटी सुन कर जैसे ही वह दरवाजे की तरफ लपकता है तो अखबार से पहले उस के हाथ में एक पैम्फलेट लगता है ---- जिस पर यह लिखा हुआ है ----

खानदानी ज्योतिषी – ज्योतिष रत्न बहुत सारे सम्मान पत्रों से सम्मानित –विश्वविख्यात ज्योतिषी से आप भी नौकरी, विदेश यात्रा, प्रेम विवाह, शिक्षा, शादी, प्रमोशन, निःसंतान, कोर्ट कचहरी, तलाक, मांगलिक, कालसर्प योग, पितृ-दोष, किया-कराया, शारीरिक कष्ट, वास्तु दोष, ग्रह कलेश आदि समस्त समस्याओं के विधि पूर्वक समाधान हेतु मिलें।
(सोचने से नहीं मिलने से कष्ट दूर होता है)
100 प्रतिशत समाधान की गारंटी निश्चित समय में।
इस इश्तिहार के नीचे तीन सूचनायें भी लिखी हुई हैं ---
तांत्रिक, मौलवी और बंगाली बाबाओं से विश्वास खो चुके व्यक्ति एक बार अवश्य मिलें। फीस श्रद्धानुसार।
जब कहीं न हो काम तो हमसे लें तुरंत समाधान।
नोट – किसी माता बहिन के सन्तान न होती हो या होकर खत्म हो जाती हो तो एक बार अवश्य मिलें।
विशेष प्रावधान – हमारी पूजा का असर तुरन्त होता है।

इस विज्ञापन से चकराये हुये सिर को डेढ़ प्याली कड़क चाय से दुरूस्त करने के बाद जैसे ही वह अपने चहेते पेपर का पन्ना पलटता है तो उसे सेहत से संबंधित विज्ञापनों में इतना अपनापन नज़र आता है कि वह राजनीति दंगल की किसी भी खबर को पढ़ने की बजाह वह वाला विज्ञापन बार बार पढ़ता है जिस में उसे यह आस दिखती है कि उस दवाई के इस्तेमाल से उस की ठिगनी ही रह गई प्यारी बिटिया का कद झट से बढ़ जायेगा, उसे वह विज्ञापन भी बहुत लुभाता है जिस में बताया गया है कि फलां फलां दवाई के इस्तेमाल से उस के स्कूल में पढ़ रहे बेटे की यादाश्त बढ़ सकती है, विज्ञापन तो वह वाला भी काट कर रख के छिपा लेता है जिस में पुरानी से पुरानी कमज़ोरी को दूर करने का वायदा दिलाया गया होता है ------------------लेकिन अफसोस ये सब सरासर झूठे, बेबुनियाद , धोखा देने वाले विज्ञापन ------ भला ऐसे कद बढ़ता है, यादाश्त बढ़ती है या यौवन लौट कर आता है क्या !!

वह असमंज की स्थिति में है ---- बस जैसे तैसे अपने पड़ोस के नीम हकीम के पास अपने परिवार को लेकर पहुंच जाता है। वह उन सब की तकलीफ़ों के लिये एक ही समाधान बताता है कि ताकत के टीके पांच पांच लगवा लो --- सब ठीक हो जायोगे। वह भी कर लिया --- लेकिन कुछ हुआ नहीं ---- लेकिन एक बात ज़रूर हो गई ----उस नीम हकीम के यहां टीके लगवाने से उसके लड़के को हैपेटाइटिस बी ( खतरनाक पीलिया ) हो गया ---- बैठे बिठाये आफ़त हो गई।

उसे लेकर जब बड़े शहर गया तो पांच हज़ार तो टैस्ट पर ही लग गये और उन टैस्टों से यह पता चला कि इस तकलीफ़ के लिये कुछ कर ही नहीं सकते। सब कुछ ऊपर वाले पर ही छोड़ना होगा।

यह जो आपने बातें सुनीं ये आज घर घर में हो रही हैं दोस्तो, जनमानस में स्वास्थ्य जागरूकता की इतनी ज़्यादा कमी है (विभिन्न कारणों की वजह से) कि क्या कहें और ऊपर से आम आदमी को अपने जाल में फंसाने वाले व्यवसायी हर समय घात लगाये बैठे हैं कि कब इस की तबीयत ढीली हो और कब हम इस का खून चूस कर इस की हालत और भी पतली करें ----साला जी कर तो दिखाये !!, बहुत जी लिया है बेटा तूने ....................................
मैं अकसर सोचता हूं कि क्या केवल स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ाने से ही बस लोगों की सेहत ठीक हो जायेगी ------ मुझे तो नहीं ऐसा लगता ---- क्योंकि हम लोगों की हर तकलीफ़ के कईं कईं पहलू हैं। लेकिन मुझे तो अपना काम करना है ----- जागरूकता की अलख जगानी है।

क्योंकि यह मेरा चिट्ठा है इसलिये मैं इमानदारी से कुछ भी लिख सकता हूं -----यह स्वास्थ्य जागरूकता का प्रचार-प्रसार करना ही मेरा मिशन है --- सर्विस कर रहा हूं लेकिन वह भी सोचता हूं कि एक तरह से भविष्य की सैक्यूरिटि के लिये भी कर रहा हूं वरना विचार तो यही बनता है कि किसी ऐसी संस्था के साथ जुड़ जाऊं जिस के साथ मिल कर इस जागरूकता को आगे बढाऊं -----सुबह से शाम तक गांव गांव जा कर लोगों से मिलूं ---- उन की जीवनशैली के बारे में उन से खूब बातें करूं, तंबाकू-शराब, अन्य नशों का सफाया करने में अपना योगदान दूं , और उन्हें प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति अपनाने के लिये प्रेरित करूं----------------लेकिन यह क्या आज की पोस्ट तो एक अच्छा खासा भाषण ही हो गया लगता है। एक बात जो मैं मुझे लगता है कि पत्थरों पर खुदवा देनी चाहिये वह यह है कि ताकत किसी टीके में, कैप्सूल में या टेबलेट में नहीं होती -------------------ताकत है तो सीधे सादे हिंदोस्तानी खाने में, बाकी सब वायदे झूठे हैं, फरेब हैं, झूठी आशा है , सरासर किसी को गुमराह करने के धंधे हैं-----------------जी हां, कुछ लोग इस प्रोफैशन को भी धंधे की तरह ही चला रहे हैं।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

इस कैंडी को तो आप भी ज़रूर ही खाया करें ...




दो-तीन दिन पहले मैं अपनी माता जी के साथ बाज़ार गया हुआ था ---रास्ते में वे बाबा रामदेव के एक औषधालय के अंदर शहद लेने गईं ---मैं बाहर ही खड़ा हुआ था, जब वह बाहर आईं तो हाथ में दो पैकेट पकड़े हुये थे जिन्हें उन्होंने मेरी तरफ़ सरका कर खाने के लिये कहा।

यह निराली कैंडी मैंने पहली बार देखी थी – आंवला कैंडी – दो तरह के पैकेट में यह दिखीं। इस का स्वाद बहुत बढ़िया था। अब आंवले के गुण तो मैं क्या लिखूं---- बस, केवल इतना ही कहूंगा कि इसे प्राचीन समय से अमृत-फल के नाम से जाना जाता है और यह आंवला तो गुणों की खान है। यह आंवला कैंडी का 55 ग्राम का पैकेट 10 रूपये में मिलता है। यह बाबा रामदेव की दिव्या फार्मेसी द्वारा ही बनाया जाता है , इसलिये हम लोग इस की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं।

मैं जब भी अपने मरीज़ों को आंवला खाने की सलाह देता रहा हूं तो अकसर तरह तरह की प्रतिक्रियायें देखने-सुनने को मिलती रही हैं। कुछ तो झट से कह उठते हैं कि उस का तो स्वाद बहुत ही अजीब सा होता है, वह हम से तो नहीं खाया जाता।

अब मरीज़ों को जो भी बात कहनी होती है तो बड़ी सोच समझ कर कहनी होती है क्योंकि अधिकतर मरीज़ डाक्टर के मुंह से निकली बात को ब्रह्म-वाक्य समझ कर उस पर अमल करना शुरू कर देते हैं। यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि बाज़ार से लेकर आंवले का मुरब्बा खाना आम आदमी के लिये थोड़ा बहुत महंगा ही है ---अगर तो इसे केवल किसी बीमार द्वारा ही लिया जाना हो तो शायद चल सकता है लेकिन अगर हम चाहते हैं कि एक औसत परिवार का हर सदस्य इस का नित्य-प्रतिदिन सेवन करे तो इस के इस्तेमाल का कोई सस्ता और टिकाऊ तरीका ढूंढना होगा।

यह आंवले का मुरब्बा तो मैं भी कभी कभी लेता रहा हूं ---- लेकिन बाज़ार में बिकने वाले मुरब्बा से मैं कोई ज़्यादा संतुष्ट नहीं हूं ---- बहुत अच्छी अच्छी दुकानों पर जिस तरह से बड़े बड़े टिन के डिब्बों में जिस तरह से इन की हैंडलिंग की जाती है , वह देख कर अजीब सा लगता है । व्यक्तिगत तौर पर मैं कम से कम अपने सेवन के लिये तो इस आंवले के मुरब्बे को बाज़ार से खरीद कर खाने के पक्ष में नहीं हूं---- और इस के कईं कारण हैं, दुकानों पर इस की इतनी बढ़िया हैंडलिंग न होना इस का एक मुख्य कारण है।

मैं अकसर जब मरीज़ों को आंवले के सेवन की बात कहता हूं तो वे समझते हैं कि मैं केवल इस के मुरब्बे की ही बात कर रहा हूं। कईं लोग मुरब्बे वाले आंवले को पानी से धो कर इस्तेमाल करने की बात भी करते हैं ---- क्योंकि उन्हें यह बहुत मीठा रास नहीं आता।

कईं बार मुझे अपने प्रयोग भी किसी किसी मरीज़ के साथ बांटने ज़रूरी हो जाते हैं --- क्योंकि हम सब लोग एक दूसरे से अनुभवों से ही सीखते हैं। कुछ साल पहले मुझे फिश्चूला की तकलीफ़ हो गई थी ---मैं लगभग चार पांच साल तक बहुत परेशान रहा --- अब क्या बताऊं कि चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ा होने के बावजूद भी मैं आप्रेशन करवाने के नाम से ही कांप उठता था --- मैं सोचा करता था कि अगर मैं आंवले का नियमित प्रयोग करता रहूंगा तो शायद धीरे धीरे सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा लेकिन ऐसा कभी होता है क्या !--- जयपुर के सर्जन डा. गोगना जी से आप्रेशन करवाना ही पड़ा और पूरे छ- महीने ड्रेसिंग चलती रही थी।

इस बात लिख कर मैं तो बस यह बात रेखांकित करना चाहता था कि मेरी उन चार-पांच साल तक चलने वाली तकलीफ़ के दिनों में इस आंवले में एक सच्चे मित्र की तरह मेरा पूरा साथ दिया। सर्दी के मौसम में तो जब आंवला बाज़ार में बिकता है उन दिनों तो मैं इसे उसी रूप में ही लेना पसंद करता हूं। इस का एक बहुत ही आसान हिंदोस्तानी तरीका है ----आंवले का आचार --- पंजाब में सर्दी के दिनों में यह बहुत चलता है।

अच्छा जब कभी आचार नहीं होता था तो मैं एक आंवले के छोटे छोटे टुकड़े कर लिया करता था और आचार की जगह इन टुकड़ों को खा लिया करता था ---इस तरह से भी ताज़े आंवले का सेवन कर लेना बहुत आसान है, इसे आप भी कभी आजमाईयेगा।
अच्छा तो जब ताज़े आंवले बाज़ार में नहीं मिलते तो तब क्या करें ---- सूखे आंवले का पावडर बना कर एक-आधा चम्मच लिया जा सकता है और यह भी मैं लगभग दो साल तक लेता रहा हूं। वो बात अलग है जिस शारीरिक तकलीफ़ का उपाय ही सर्जरी है , वह तो आप्रेशन से ही ठीक होगी लेकिन इस तरह से आंवले के इस्तेमाल से मेरा पेट बहुत बढ़िया साफ़ हो जाया करता था और मैं सौभाग्यवश उस फिश्चूला की जटिलताओं से बचा रहा।

आंवले की यह कैंडी भी बहुत बढ़िया आइडिया है --- आज कल जब बच्चे सब्जियां तक तो खाते नहीं है, ऐसे में उन से यह अपेक्षा करना कि वे आंवला खायेंगे, क्या यह ठीक है ? लेकिन मेरे विचार में उन्हें आंवले का सेवने करने के लिये प्रेरित करने के लिये इस आंवला कैंडी से बढ़िया कोई चीज़ है ही नहीं ---- इस का सेवन करने के बहाने वे आंवले के लिये अपना मुंह का स्वाद भी डिवैल्प कर पायेंगे जो कि इन की सारी उम्र मदद करेगा।

क्या है ना इस तरह की दिव्य वस्तुओं के लिये स्वाद डिवैल्प होना भी बहुत ज़रूरी है --- अब हम लोगों को बचपन से ही आदत रही है कि गला खराब होने पर मुलैठी चूसनी है और हम दो एक दिन में बिल्कुल ठीक भी हो जाया करते थे ....लेकिन अब हम लोग अपने बच्चों को इस का इस्तेमाल करने को कहते हैं तो वह नाक-मुंह सिकोड़ते हैं, और इस तरह से दिव्य देसी नुस्खों से दूर रह कर बिना वजह कईं कईं दिन तक दुःख सहते रहते हैं।

एक बार और भी है ना कि इस तरह की कैंडी खाते वक्त इसे ज़्यादा खा लेने से डरने वाली भी कोई बात नहीं --- जैसा कि मैंने उस पैकेट को दो-एक घंटे में ही खत्म कर दिया क्योंकि मुझे इस का स्वाद बहुत बढ़िया लगा। हां, अगर ज़्यादा मीठा सा लगे तो खाने से पहले धो लेंगे तो भी चलेगा।

आंवले इतने सारे दिव्य-गुणों की खान है कि इसे खाने का जहां भी मौका मिले उस से कभी भी न चूकें। और खास कर जब आंवला-कैंडी ऐसी कि बच्चे भी इसे बार बार चखने के लिये मचल जायें। तो, मेरा आपसे अनुरोध है कि आप इस आंवला कैंडी का खूब सेवन किया करें----- आज बाबा रामदेव की संस्था दिव्य फार्मेसी द्वारा तैयार इस आंवला कैंडी के लिये इस पोस्ट के माध्यम से विज्ञापन लिख कर बहुत अच्छा लग रहा है----शायद यह पहली बार है कि जब मैं किसी वस्तु का अपनी इच्छा से विज्ञापन कर रहा हूं ----- आप जिस भी शहर में हैं वहां पर बाबा रामदेव की फार्मेसी से ये सब प्राडक्ट्स आसानी से उपलब्ध होते हैं।

पांच-छः साल पहले मैं आसाम में जोरहाट में एक लेखक शिविर में गया हुआ था ---वह मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि कुछ दुकानों पर पान-मसालों एवं गुटखों के पैकेटों के साथ साथ सूखे आंवले के छोटे छोटे पाउच एक-एक रूपये में भी बिक रहे थे ---वहां मुझे यही विचार आ रहा था कि आदमी की ज़िंदगी भी क्या है ----दिन में बार बार उसे किन्हीं दो चीज़ों में से एक को चुनना होता है और इस च्वाईस पर ही उस का भविष्य निर्भर करता है ---अब जोरहाट वाली बात ही लीजिये कि बंदा चाहे तो एक रूपये में आंवले जैसे अमृत-फल का सेवन कर ले और चाहे तो एक रूपये का पान-मसाला एवं गुटखा रूपी ज़हर खरीद कर आफ़त मोल ले ।।

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

जब भिखारी भीख में तंबाकू मांगने लगें..... तो समझो मामला गड़बड़ है!!

क्या आप को किसी भिखारी ने तंबाकू दिलाने को कभी कहा है ? मेरे साथ ऐसा ही हुआ कुछ दिन पहले जब मैं पिछले सप्ताह चार-पांच दिन के लिये एक राष्ट्रीय कांफ्रैंस के सिलसिले में नागपुर गया हुआ था। मैं एक दिन सुबह ऐसे ही टहलने निकल गया। रास्ते में एक मंदिर के बाहर बहुत से मांगने वाले बैठे किसी धन्ना सेठ की बाट जोह रहे थे। वहां से कुछ ही दूर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति जो बीमार लग रहा था –उस की टांग में कोई तकलीफ़ लग रही थी- उस ने मुझे आवाज़ दी ---बाबू, तंबाकू दिला दो। मैं एकदम हैरान था।

यह पहला मौका था जब किसी मांगने वाले ने मेरे से तंबाकू की फरमाईश की थी। मुझे उस की यह फरमाईश सुन कर न तो उस पर गुस्सा आया, ना ही तरस आया ---- वैसे तो मैं उस समय भावशून्य ही हो गया। लेकिन पता नहीं क्या सोच कर मैंने उसे कहा कि बिस्कुट खायोगे (पास में एक किरयाना की दुकान खुली हुई थी ) --- तो उस ने अपना तर्क रखा कि इस समय कहां मिलेंगे बिस्कुट। मैं तुरंत उस दुकान पर गया और वहां से बिस्कुट खरीद कर उसे दिये।

साथ में उस के एक कुत्ता बैठा हुआ था --- मैं समझ गया कि यह इस के दुःख सुख का साथी है, एक पैकेट उस के लिये भी दिया। एक बात का ध्यान आ रहा है कि जितनी शेयरिंग ये मांगने वाले आपस में या अपने पालतु जानवरों के साथ करते हैं, यह काबिले-रश्क होती है। मैं बहुत बार देखा है कि अगर इन के पास ब्रैड के दो पीस हैं तो एक-एक खा लेते हैं। मैं इस बात से बहुत ही ज़्यादा प्रभावित होता हूं ।

खैर, उस मांगने वाले के बारे में सोच कर मैं मिष्रित सी भावनाओं से भरा रहा --- खाने के लाले पड़े हैं, ऊपर से बीमारी, रहने का कोई ठिकाना नहीं लेकिन तंबाकू का ठरक एकदम कायम !! लेकिन यह हल्के-फुल्के अंदाज़ में टालने वाली बात नहीं है। उसी दिन बाद दोपहर तंबाकू के ऊपर एक सैमीनार ने भी यही कहा कि हमें तंबाकू के आदि हो चुके लोगों का कभी भी मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिये --- ये बीमार लोग हैं, ये लोग तंबाकू के आदि हो चुके हैं, इन से प्यार और सहानुभूति से ही पेश आने की ज़रूरत है, तभी ये हमारी बात मानेंगे।

उस दिन तंबाकू एवं पान-मसाला, गुटखे के इस्तेमाल से होने वाले विनाश की दो गाथायें सुन कर मन बहुत ही बेचैन हुआ। वर्धा के सुप्रसिद्ध ओरल-सर्जन ने एक 21 साल के युवक के बारे में बताया जो कि गुटखा इस्तेमाल किया करता था --- उन्होंने बताया कि उसे मुंह का कैंसर हो गया --- पूरे दस घंटे लगा कर उन्होंने उस का आप्रेशन किया ---सारी तस्वीरें उन्होंने दिखाईं---आप्रेशन की और जब हास्पीटल से छुट्टी लेने के बाद वह अपने मां-बाप के साथ खुशी खुशी घर लौट रहा था। लेकिन उन्होंने बताया कि इतना लंबा आप्रेशन करने के बावजूद छःमहीनों के बाद ही उसे दोबारा से मुंह के कैंसर ने धर दबोचा और वह देखते ही देखते मौत के मुंह में चला गया। मुंह के कैंसर के रोगियों के साथ अकसर यही होता है। इस 21 साल के नवयुवक के केस के बारे में सुन कर हम सब लोग आश्चर्य-चकित थे --- ऐसे केस अब इतनी कम उम्र में भी बिल्कुल होने लगे हैं क्योंकि यह गुटखा, पानमसाला, तंबाकू हमारे जीवन में ज़हर घोले जा रहा है।

दूसरा केस यह था कि चार साल का बच्चा जो गुटखे और पानमसाले का आदि हो चुका था उस का मुंह ही खुलना बंद हो चुका था ---- वह ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस की तकलीफ़ का शिकार हो चुका था और उस की तस्वीर के नीचे लिखा हुआ था ----मेरा क्या कसूर है ? बात सोचने की भी है कि उस का निःसंदेह कोई कसूर भी तो नहीं है, कसूर सामूहिक तौर पर हम सब का ही है, सारे समाज का ही दोष है कि हम सब मिल कर भी इन विनाशकारी पदार्थों को उस के मुंह तक पहुंचने से रोक न सके !

कुछ दिन पहले मेरे पास एक साठ साल के लगभग उम्र वाला एक मरीज़ आया --- उस से मैंने यह सीखा कि बार बार तंबाकू छोड़ने वाली बात के पीछे पड़े रहना कितना ज़रूरी है। यह मरीज़ पिछले कईं सालों से तंबाकू-चूने का मिश्रण बना कर गाल के अंदर रखा करता था --- इस से उस की गाल का क्या हाल हुआ, यह आप इस तस्वीर में देख सकते हैं। इस अवस्था को ओरल-ल्यूकोप्लेकिया (oral leukoplakia) कहा जाता है और यह कैंसर की पूर्व-अवस्था है।

मैंने पंद्रह-बीस मिनट उस मरीज़ के साथ बिताये ---उसे खूब समझाया बुझाया। नतीज़ा यह निकला कि मरीज़ कह उठा कि डाक्टर साहब, ये सब बातें आपने एक साल पहले भी मेरे से की थीं, लेकिन मैं ही इस आदत को छोड़ नहीं पाया, लेकिन आज से प्रण करता हूं कि इस शैतान को कभी छूऊंगा भी नहीं। और इस के साथ ही उस ने यह तंबाकू का पैकेट मेरी टेबल पर रख दिया जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं--- मैंने पूछा कि चूने वाले डिबिया भी यहीं छोड़ जाओ। उस ने बताया कि सब कुछ इस पैकेट में ही है। उस समय मुझे यह पैकेट देख कर इतनी खुशी हो रही थी जितनी इंटरपोल के अधिकारियों को किसी अंतर्राष्ट्रीय गैंग के खूंखार आतंकवादी को पकड़ते वक्त होती होगी------ वैसे देखा जाये तो यह तंबाकू भी किसी खतरनाक आतंकवादी से कम थोड़े ही है --- इस का काम भी हर तरफ़ विनाश की आग जलाना ही तो है !!

आज वह पांच दिन बाद मेरे पास वापिस लौटा था --- बता रहा था कि यह देखो कि हाथ कितने साफ़ कर लिये हैं ---कुछ दिन पहले उस के हाथों पर तंबाकू की रगड़ के निशान गायब थे , ( काश, शरीर के अंदरूनी हिस्सों में तंबाकू के द्रारा की गई विनाश-लीला भी यूं ही धो दी जा सकती !!) …. वह बता रहा था कि पांच दिन हो गये हैं तंबाकू की तरफ़ देखे हुये भी। मैंने सलाह दी कि अपने कामकाज के वक्त भी ध्यान रखो कि किसी साथी से भी भूल कर तंबाकू की चुटकी मत लेना ---- बता रहा था कि आज सुबह ही उसे एक साथी दे तो रहा था लेकिन उस ने मना कर दिया। मुझे बहुत खुशी हुई उस की ये बातें सुन कर। और मैंने उसे कहा कि थोड़े थोड़े दिनों के बाद मुझे आकर मिल ज़रूर जाया करे और अपने दूसरे साथियों की भी इस शैतान से पीछे छु़ड़वाने में मदद करे।

और मैंने उस की इच्छा शक्ति की बहुत बहुत तारीफ़ की --- यही सोच रहा हूं कि तंबाकू छुड़वाने के लिये पहले तो डाक्टर को थोड़ा टाइम निकालना होता है और दूसरा मरीज़ की इच्छा-शक्ति, आत्मबल होना बहुत ज़रूरी है --- वैसे अगर डाक्टर उस समय यही सोचे कि उस के सामने बैठा हुआ वयोवृद्ध शख्स उस के अपने बच्चे जैसा ही है तो काम आसान इसलिये हो जाता है कि अगर हमारा अपना बच्चा कुछ इस तरह का खाना-चबाना शुरू कर दे तो क्या हम जी-जां लगा कर उस की यह आदत नहीं छुड़वायें---- बेशक छुड़वायेंगे, तो फिर इस बच्चे के साथ इतनी नरमी क्यों----यह भी जब तंबाकू रूपी शैतान को लात मार देगा तो इस का और इस के पूरे परिवार का संसार भी तो हरा-भरा एवं सुनहरा हो जायेगा-------और यकीन मानिये कि डाक्टर के लिये इस से ज़्यादा आत्म-संतुष्टि किसी और काम में है ही नहीं, दोस्तो।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

विज़िटिंग कार्डों का बोझ ---1.

कल ऐसे ही मेरे हाथ विज़िटिंग कार्डों वाला फोल्डर लग गया ---वैसे तो आज के ई-युग में इस की तरफ़ लपकने की ज़रूरत ही कहां महसूस होती है ! एक कार्ड पर नज़र गई --- केशव गोपीनाथ भंडारी – यह शख्स मेरे साथ हास्पीटल अटैंडेंट के तौर पर बंबई में काम किया करता था और यह कार्ड उस ने मुझे लगभग पंद्रह साल पहले अपनी सेवा-निवृत्ति के समय दिया था।

मैंने झट से बंबई का नंबर लगाया ---बस आगे 2 लगा लिया --- घंटी बजी ---उधर से पूछने पर मैंने बताया की भंडारी से बात करनी है। तो, फोन उठाने वाले ने आवाज़ लगाई कि पापा, आप का फोन है। भंडारी के फोन पर आने के बाद मैंने कहा, भंडारी बाबू, राम-राम -----उस ने पूछा कौन। मैंने कहा --- भंडारी, काम पुड़ता मामा। वह यह बात बहुत बार बताया करता था ---- यह मराठी भाषा का एक जुमला है जिस का अर्थ है ---- काम पड़ने पर लोग किसी को भी मामा बना लेते हैं !! 10-15 मिनट उस से बातें होती रहीं --- मुझे और उसे बहुत ही अच्छा लगा। लेकिन, एक छोटे से विज़िटिंग कार्ड का कमाल देखिये कि उस ने हमारी पुरानी यादें हरी कर डालीं।

वैसे यह विज़िटिंग कार्ड वाला फोल्डर मैंने उठाया इसलिये था कि मैंने इस की सफ़ाई करनी थी – यह बंबई लोकल की तरह खचाखच भरा हुआ था। मेरे पास कुछ और कार्ड थे जिन्हें इस फोल्डर में जगह देनी ज़रूरी थी ---वही डार्विन वाली बात हो गई --- survival of the fittest ! अर्थात् जो लोग काम के लगेंगे वही इस फोल्डर में टिक पायेंगे और बाकी कार्ड रद्दी की टोकरी के सुपुर्द हो जायेंगे।

आज सुबह मैंने डेढ़-दो सौ के करीब कार्ड रद्दी की टोकरी में फैंक दिये --- और यह काम मेरे को बहुत आसान लगा। यह काम करते हुये सोच रहा था कि अकसर बहुत से लोगों के साथ हमारे संबंध कितने ऊपरी सतह पर ही होते हैं --- और ऐसे कार्डों को फोल्डर से निकाल कर बाहर फैंकते वक्त एक क्षण के लिये भी सोचना ही नहीं पड़ता। ये कार्ड विभिन्न कंपनियों आदि के साथ, उन के डीलर्ज़ के थे --- जब ये कार्ड किसी से लिये होंगे या जब किसी ने इन्हें दिया होगा तो शायद इंटरएक्शन ही कुछ इस तरह का हल्का-फुल्का रहा होगा कि कभी खास संपर्क बाद में रखा ही नहीं गया।

कुछ कार्ड इस लिये भी सुपुर्दे ख़ाक हो गये क्योंकि उन की जगह पर उन्हीं लोगों के नये अपडेटेड कार्ड मुझे मिल चुके थे --- और कुछ कार्ड ऐसे थे जो ट्रेन में सफ़र करते वक्त विज़िटिंग-कार्ड एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत प्राप्त हुये थे, इसलिये सालों तक इन को रखे रखने की भी कोई तुक नहीं थी।

जब मैं उस फोल्डर को उलटा-पुलटा कर रहा था तो रह रह कर यही विचार मन में आता जा रहा था कि जो कार्ड डस्ट-बिन में फैंक दिये वे तो सही जगह पर पहुंच गये हैं लेकिन जो बचे हुये कार्ड हैं इन में से हरेक कार्ड के पीछे एक अच्छी खासी स्टोरी है। और यही स्टोरियां ही मैं लिख कर साझी करना चाह रहा हूं।

जब मैं ये विज़िटिंग कार्ड फैंक रहा था तो कुछ कार्ड फैंकते हुये मुझे दुविधा सी हो रही थी कि फैंकूं या पड़ा रहने दूं ---- बस, फिर उस समय जो ठीक समझा कर दिया ---लगता है कि जब ऐसे मौके पर दुविधा हो तो उस कार्ड को रखे रखना ही मुनासिब है ।

यह साफ़-सफाई करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मेरे इस फोल्डर में अपने किसी बचपन के दोस्त का कार्ड मिल जाता तो मैं देखता कि उसे मैं कैसे फैंक पाता – पता नहीं जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमारे संबंधों में इतना फीकापन क्यों आ जाता है --- कालेज से ज़्यादा अपने स्कूल के संगी-साथी अज़ीज लगते हैं, प्रोफैशन से जुड़े लोगों से कहीं ज़्यादा अपने कालेज के दिनों के हमसफर क्यों इतना भाते हैं , .........बस, इस तरह अगर हम यूं ही आगे चलते जायेंगे तो पायेंगे कि हम लोगों की कितनी जान-पहचान तो बस ऐसे ही कहने के लिये ही होती हैं ---- जैसे जैसे उम्र बढ़ती है इस में फीकापन इसलिये आता है क्योंकि हम मुनाफ़े और नुकसान का टोटल मारना शुरू कर देते हैं --- इस से मेरे को यह फायदा होगा और इस से कुछ नहीं होगा -----बस, यही हमारी समस्याओं की जड़ है। हम क्यों नहीं बच्चों की तरह हो जाते ---- जब मैंने डेढ़-दो सौ कार्ड अपने छठी में पढ़ रहे बेटे को कूड़ेदान में फैंकने के लिये दिये तो उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया ----पापा, ये सब मैंने अभी अपने पास रखूंगा, ये मेरे काम के हैं, बाद में बताऊंगा----ये कह कर उसने वे सभी मेरे डिस्कार्ड किये हुये कार्ड अपनी स्टडी-टेबल की दराज में रखे और अपना स्कूल का बैग उठा कर बाहर भाग गया । मैं हमेशा की तरह यही सोचने लगा कि यार, हम लोग कब बच्चों की तरह सोचना बंद कर देते हैं, पता नहीं हम लोग बड़े होकर, बड़ों की तरह सोच कर , बड़ों की तरह कैलकुलेटिंग होने से आखिर क्या हासिल कर लेते हैं !!

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्या च्यूईंग चबाना ठीक है ?

जब कभी फिल्म समारोहों में बहुत नामी गिरामी सितारों ( आप के और मेरे ही बनाये हुये) को या फिर क्रिकेट आदि के मैचों के बाद जब खिलाड़ियों को तरह तरह के सम्मान से नवाज़ा जा रहा होता है तो इन सितारों, खिलाड़ियों को कईं बार च्यूईंग-गम चबाते हुये देख कर आप के मन में क्या ख्याल पैदा होते हैं ? --मुझे तो यह बहुत भद्दा लगता है, मुझे लगता है कि बंदा कह रहा है कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं है , मैं हरेक को अपने जूते की नोक पर रखता हूं । कईं बार तो जो इस तरह के प्रोग्राम कंपीयर कर रहा होता है वह भी यह सब चबा कर अपने माडर्न होने का ढोंग करता दिखता है। जब कोई मुंह में पान चबाते हुये या पान मसाला खाते हुये हम से मुखातिब होता है तो हम आग बबूला हो जाते हैं लेकिन हमारे ही ये चहेते कलाकार अथवा खिलाड़ी जब सैटेलाइट टीवी के ज़रिये करोड़ों लोगों से मुखातिब हो रहे होते हैं तो हम क्यों नहीं इन्हें कहते कि जाओ, पहले इस च्यूईंग-गम को थूक के आओ, फिर हम तुम्हें सुनेंगे -----चलो, जल्दी से पहले कुल्ला कर के आओ, शाबाश, अच्छे बच्चे की तरह ---और आगे से भी इस का ध्यान रखना ------वरना ...............इस गाने की तरफ़ ध्यान कर लेना !!

मुझे तो इन समारोहों में इन चांद-सितारों को देख कर अपने स्कूल के दिनों के दो सहपाठियों का ध्यान आ जाता है ---गुलशन और राकेश ----ये कमबख्त हमारी क्लास में टैरर थे ---च्यूईंग को चबाते तो रहते ही थे और बाद में दूसरों की बैंच पर चिपका देते थे जिस से वहां पर बैठने वाले की पैंट खराब हो जाया करती थी, कईं बार तो किसी सहपाठी के बालों पर ही चिपका दिया करते थे ---कईं बार तो इस की वजह से थोड़े बाल ही काटने पड़ जाया करते थे !

चलिये , अब ज़रा यह देख लेते हैं कि च्यूईंग-गम का हमारी सेहत पर क्या प्रभाव होता है !!

शनिवार, 31 जनवरी 2009

चमड़ी को चमड़ा बनने से पहले --- पानमसाले को तो अभी से ही थूकना होगा !!


हमारा धोबी नत्थू अकसर मुझे जब यह कहता है कि वह तो पिछले 20 साल से ज़र्दे-धूम्रपान का सेवन कर रहा है लेकिन उसे किसी प्रकार की बीमारी नहीं है, यहां तक की कभी कब्ज की शिकायत भी नहीं हुई ----यह सुन कर मुझे यह लगता है कि वह मुझे मुंह चिढ़ा रहा हो कि देखो, हम तो सब कुछ खा पी रहे हैं लेकिन फिर भी हैं एक दम फिट !!

वैसे मुझे वह क्या चिढ़ायेगा ---लेकिन इसे पढ़ कर कहीं आप भी यह मत सोच लें कि ज़र्दा-धूम्रपान उस के लिये घातक नहीं है। ज़र्दा-धूम्रपान से होने वाले नुकसान शुरू शुरू में महसूस नहीं होते हैं –इन का पता तभी चलता है जब कोई लाइलाज बीमारी जकड़ लेती है। लेकिन यह पता नहीं कि किसी व्यक्ति को यह लाइलाज रोग 5 वर्ष ज़र्दा-धूम्रपान के सेवन पर होगा या 50 वर्ष के इस्तेमाल करने के बाद !!

इसे समझने के लिये एक उदाहरण देखिये --- अपने मकान के पिछवाड़े में बार बार भरने वाले बरसात के पानी को यदि आप ना देख पायें तो नींव में जाने वाले इस पानी के खतरे का अहसास आपको नहीं होगा। उसका पता तभी चलेगा जब इससे मकान की दीवार में दरार आ जाए या मकान ही गिर जाए ---लेकिन तब तक अकसर बहुत देर हो चुकी होती है। ज़र्दा-धूम्रपान का इस्तेमाल एक प्रकार से बार-बार पिछवाड़े में भरने वाले पानी के समान है।

आज मेरे पास लगभग बीस वर्ष का युवक आया ----आया तो था वह मुंह में किसी गांठ को दिखाने के लिये ---लेकिन मुझे उस का मुंह देख कर लगा इस ने तो खूब पान-मसाला खाया लगता है। पूछने पर उसने बताया कि डेढ़-दो साल पहले इस पानमसाले के एक पैकेट को रोज़ाना खाना शूरू किया था और पिछले तीन महीने से छोड़ रखा है--- ( लगभग सभी मरीज़ यही कहते हैं कि कुछ दिन पहले ही बिल्कुल छोड़ दिया है !!) –उस नवयुवक के मुंह की चमड़ी बिलकुल चमड़े जैसी बन चुकी थी --- और चमड़ा भी बिलकुल वैसा जैसा पुराना चमड़ा होता है ---अपने जिस शूज़ को आप छःमहीने तक नहीं पहनते जिस तरह से उस का चमड़ा सूख जाता है, बिलकुल वैसी ही लग रही थी उस के मुंह की चमड़ी ---- उस से मुंह पूरा खोले ही नहीं बन पा रहा था । इस अवस्था को कहते हैं ----ओरल सबम्यूकसफाईब्रोसिस (Oral submucous fibrosis)---- यह पानमसाला सादा या ज़र्देवाला खाने से हो सकती है और इसे मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था कहा जाता है (Oral precancerous lesion of the oral cavity) .

कृपया इसे ध्यान से पढ़िये ---- मुंह की कोमल त्वचा (Oral mucous membrane) के साथ तंबाकू, चूना, सुपारी आदि का सतत संसर्ग बड़े भयंकर परिणाम ले आता है । मुंह की त्वचा द्वारा रक्त में घुलता निकोटीन ( nicotine) तो अपने हिस्से का काम करता ही है , लेकिन इन वस्तुओं का सतत संपर्क मुंह की कोमल त्वचा के ऊपर की पर्त को इतना ज़्यादा नुकसान पहुंचाता है कि धीरे धीरे यह कोमल त्वचा अपना मुलायमपन (smoothness), चमकीलापन (luster), और लचक (elasticity) खो देती है।
लार-ग्रंथि (salivary gland) को हानि पहुंचने से लार कम हो जाती है और मुंह सूखा रहता है। स्वाद परखने वाली ग्रंथियां (taste buds) भी कुंठित हो जाती हैं और प्रकृति की जिस अद्भुत रचना से मानव नाना प्रकार के भिन्न भिन्न स्वादों को परख पाता है, वे निक्म्मी हो जाती हैं।

इस के फलस्वरूप मुंह की त्वचा सूखी, खुरदरी, झुर्रीदार बन जाती है और उस की निचली पर्त में भी अनेकानेक परिवर्तन होने लगते हैं। ऐसे मरीज़ों का मुंह खुलना धीरे धीरे बंद हो जाता है जैसा कि मुझे आज मिले इस मरीज़ का हाल था। गरम,ठंडा,तीखा, खट्टा सहन करने की क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। इसी स्थिति को ही सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस (Submucous fibrosis) कहा जाता है और यह मुंह में होने वाले कैंसर की एक खतरे की घंटी के बराबर है। ऐसे व्यक्ति को तुरंत पान-मसाले, गुटखे, ज़र्दे वाली लत छोड़ कर अपने दंत-चिकित्सक से बिना किसी देरी के मिलना चाहिये क्योंकि ऐसे व्यक्तियों में भविष्य में मुंह का कैंसर हो जाने की आशंका होती है। इसीलिये इन सब को ---पानमसाले को भी ----हमेशा के लिये आज ही इसे थूक देने में समझदारी है।

संक्षेप में कहें तो इस तरह के सब पदार्थ केवल लोगों की सेहत के साथ घिनौना खिलवाड़ ही कर रहे हैं ---ध्यान आ रहा है कि पिछले हफ्ते ही एक नवयुवक जिस की उम्र भी लगभग 20-22 की ही होगी के मुंह में देखने पर पाया कि उस के मुंह में ओरल-ल्यूकोप्लेकिया है --- ( यह भी मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था ही है ) लेकिन इस उम्र में मैंने पहले यह अवस्था पहले कभी नहीं देखी थी ---अकसर 35-40 साल के आसपास ही मैंने इस तरह के ल्यूकोप्लेकिया के केस देखे थे ---वह युवक कुछ सालों से ज़र्दे का सेवन करता था। ध्यान इस बात का भी आ रहा है कि कुछ हानिकारक पदार्थ जो इन में पड़े होते हैं उन का हमें पता है लेकिन उन पदार्थों का हमें कैसे पता चलेगा जिन के बारे में तो पैकेट के ऊपर भी कुछ नहीं लिखा होता लेकिन अकसर मीडिया में इन हानिकारक तत्वों की भी पोल खुलती रहती है।

चलो, यार, इधर ब्रेक लगाते हैं ----ताकि इस समय पान मसाला चबा रहे अपने बंधु , इसे थूक कर ( सदा,सदा के लिये !!) , अच्छी तरह कुल्ला करने के बाद तरोताज़ा होकर नेट पर वापिस लौटें और फिलहाल चुपचाप इस सुपरहिट गाने से ही काम चला लिया जाए।

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं !

सीख कबाब आप के शहर में भी खूब चलते होंगे---लेकिन इसे जानने के बाद शायद आप कभी भी उस तरफ़ का रूख ही न करना चाहेंगे --- ब्रिटेन के विभिन्न शहरों में बिकने वाले लगभग 500 कबाबों के अध्ययन करने से यह पता चला है कि इन में इतनी वसा, इतना नमक और इस तरह का मांस होता( shocking level of fat, salt and mystery meat !) है कि इसे जान कर आप भी हैरान-परेशान हुये बिना रह न पायेंगे।

जब कोई व्यक्ति कबाब खाता है तो समझ लीजिये उसे खाकर वह अपने दिन भर की नमक की ज़रूरत का 98प्रतिशत खाने के साथ साथ लगभग एक हज़ार कैलोरीज़ खपा लेता है। कहने का मतलब कि एक महिला को सारे दिन में जितनी कैलोरीज़ लेने की ज़रूरत है , उस का आधा भाग तो एक कबाब ने ही पूरा कर दिया। कबाब खा लेने से दैनिक सैचुरेटेड फैट की मात्रा का डेढ़ गुणा भी निगल लिया ही जाता है। कुछ ऐसे कबाब हैं जिन में लगभग दो हज़ार कैलोरीज़ का खजाना दबा होता है।

चिंता की बात यह भी तो है कि इन में से बहुत से कबाब तो ऐसे पाये गये जिन्हें बनाने के लिये वह मांस इस्तेमाल ही नहीं किया गया था जिस का नाम इंग्रिडिऐंट्स में लिखा गjया था। ज़रूरी नहीं कि कुछ भी सीखने के लिये सारे तजुर्बे खुद ही किये जाएं ----दूसरों के अनुभव से भी तो हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। और यहां इस अध्ययन से हम यह सीख क्यों न ले लें कि अगर ब्रिटेन में यह सब हो रहा है तो अपने यहां क्या क्या नहीं हो रहा होगा ? -----यह सोच कर भी हफ्तों पहले खाये कबाब की मात्र याद आने से ही उल्टी जैसा होने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं है !!

ऊपर लिखी नमक वाली बात से तो मैं भी सकते में आ गया हूं –इस समय ध्यान आ रहा है कि यह नमक हमारी सेहत के लिये इतना जबरदस्त विलेन है लेकिन हम हैं कि किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है, बस अपनी मस्ती में इस का अंधाधुंध इस्तेमाल किये जा रहे हैं -----जिस की वजह से उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग के चक्कर में फंसते चले जा रहे हैं।

नमक के बारे में अमेरिका में लोग कितने सजग हैं कि न्यू-यार्क सिटी में विभिन्न रेस्टरां, बेकरर्ज़, होटलों आदि को कह दिया गया है कि नमक के इस्तेमाल में 25 फीसदी की कटौती तो अभी कर लो, और 25 फीसदी की कटौती का लक्ष्य अगले दस साल के लिये रखो---- क्योंकि यह अनुमान है कि इस 50फीसदी नमक की कटौती से ही हर साल लगभग डेढ़ सौ अमेरिकियों की जान बचाई जा सकती है।

और जिन वस्तुओं में नमक कम करने की बात इस समय हो रही है उन में पनीर, बेक्र-फॉस्ट सीरियल्ज़, मैकरोनी, नूडल्स, केक, मसाले एवं सूप आदि शामिल हैं ---- ( cheese, breakfast cereals, bread, macaroni, noodle products, condiments, soups) .

न्यूयार्क सिटी बहुत से मामलों में सारे विश्व के लिये एक मिसाल सामने रखता है ---पहले वहां पर विभिन्न रेस्टरां में ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर रोक लगी , फिर हाल ही में वहां पर होटलों के मीनू-कार्डों पर बेची जाने वाली वस्तुओं के नाम के आगे उन में मौज़ूद कैलोरीज़ का ब्यौरा दिया जाने लगा और अब इस नमक को कम करने की मुहिम चल पड़ी है। इस से हमें भी काफ़ी सीख मिलती है – इतना कुछ तो सरकार किये जा रही है ---और किसी के घर आकर नमकदानी चैक करने से तो रही !!

हमें बार बार सचेत किया जा रहा है कि नमक एक ऐसा मौन हत्यारा है जिसे हम अकसर भूले रहते हैं। इसी भूल के चक्कर में बहुत बार उच्च रक्तचाप का शिकार हो जाते हैं, गुर्दे नष्ट करवा बैठते हैं, दिल के मरीज़ हो जाते हैं और कईं बार यही मस्तिष्क में रक्त-स्राव ( stroke) का कारण भी यही होता है। सन् 2000 में एक सर्वे हुआ था कि अमेरिका में पुरूष अपनी दैनिक ज़रूरत से दोगुना और महिलायें लगभग 70 फीसदी ज़्यादा नमक का इस्तेमाल करते हैं और इस के दुष्परिणाम रोज़ाना हमारे सामने आते रहते हैं, लेकिन फिर भी पता नहीं हम क्यों समझने का नाम ही नहीं ले रहे , आखिर किस बात की इंतज़ार हो रही है ?

एक बार फिर से उस पुराने पाठ को याद रखियेगा कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 2300मिलिग्राम सोडियम से ज़्यादा सोडियम इस्तेमाल नहीं करना चाहिये ---इस 2300 मिलिग्राम सोडियम का मतलब है कि सारे दिन में एक चाये वाले चम्मच से ज़्यादा खाया गया नमक तबाही ही करता है ------हाई-ब्लड प्रैशर, हृदय रोग से बचना है तो और बातों के साथ साथ यह नमक वाली बात भी माननी ही होगी------ इस खामोश हत्यारे से जितना बच कर रहेंगे उतना ही बेहतर होगा।

यह पुराने पाठ को दोहरा लेने वाली बात कैसी रही ? -- स्कूल में भी जब हम लोग कोई पाठ पढ़ते थे, अपने मास्टर साहब कितने प्यार से उसे दोहरा दिया करते थे ---बाद में हम लोग उसे घर पर दोहरा लिया करते थे और फिर कईं बार टैस्ट से पहले, त्रैमासिक, छःमाही, नौ-माही परीक्षा से पहले सब कुछ बार बार दोहरा करते थे और फिर जब बोर्ड की मैरिट लिस्ट में नाम दिखता था तो क्या जबरदस्त अनुभव होता था , लेकिन जो शागिर्द मास्टर के पढ़ाये पाठ को आत्मसात करने में ढील कर जाते थे उन का क्या हाल होता था , यह भी हम सब जानते ही हैं -------तो फिर उन दिनों की तरह अपनी सेहत के लिये इन छोटी छोटी हैल्थ-टिप्स को नहीं अपने जीवन में उतार लेते ----- आखिर दिक्तत क्या है !! ----मास्टर लोगों की मजबूरी यही है कि कॉरपोरल पनिशमैंट के ऊपर प्रतिबंध लग चुका है , वरना हम लोगों की क्या मजाल कि ..............................!!

बुधवार, 28 जनवरी 2009

चार साल से भी ज़्यादा हो गये हैं टाई पहने हुये ...


जब से अमर उजाला में मेरा यह लेख छपा है –इसे चार साल से भी ज़्यादा हो गये हैं ---मुझे कभी टाई पहनने की इच्छा ही नहीं हुई। अकसर अपने दूसरे साथियों को देख कर जो कभी थोड़ी प्रेरणा मिलती भी है वह इस लेख का ध्यान आते ही छू-मंतर हो जाती है। बस, इसे पढ़ते हुये यह ध्यान दीजियेगा कि यह तो बस मेरी ही आप बीती है ---बस, जगह जगह अपने यार का ज़िक्र करने का केवल एक बहाना ही किया है। उस समय शायद अपने बारे में इतनी बात मानने की भी हिम्मत नहीं थी !!

लेकिन यह शत-प्रतिशत सच है कि यह लेख छपने के बाद एक बार भी टाई नहीं पहनी ----सभी जगह इस के बिना ही काम चला लिया। इसे क्या कहूं ----लेख का असर ? ………………जो भी है, धन्यवाद, अमर उजाला !!

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

इन के लुप्त होने का मुझे बहुत दुःख है !!

मैं जब भी 26 जनवरी के राष्ट्रीय महोत्सव में सम्मिलित होता हूं तो एक बात मेरे को बहुत ही ज़्यादा कचोटती है कि इस के माध्यम से वैसे तो हम अपने संविधान की सालगिरह मनाते हैं, जश्न मनाते हैं ------यही संविधान जो हमें सब की बराबरी का सुंदर पाठ पढ़ाता है, यह कहता है कि देश के सब नागरिक एक समान हैं, कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं ---- और यह संविधान प्रत्येक भारतीय को बराबरी का हक दे रहा है, लेकिन अकसर जहां पर ये समारोह चल रहे होते हैं मैं अकसर देखता हूं कि बहुत से लोगों को लड्डू के लिफ़ाफे तो दूर, यारो ,एक दरी भी नसीब नहीं होती ----- कुछ लोग दो-तीन घंटे तक बस चुपचाप खड़े होकर सारे प्रोग्राम का आनंद ले कर चुप चाप घर चले जाते हैं।

और मैं जब ऐसे ही किसी प्रोग्राम में सोफ़े पर बैठा इन सब की तरफ़ नज़र दौड़ाता हूं तो पाता हूं कि इन में से ऐसे भी हैं जो कि उम्र में मेरे से बहुत बड़े हैं, बुजुर्ग हैं ----और यह उन की देश-प्रेम की भावना है कि जो ये इन समारोहों में खिंचे चले आते हैं। और साथ में यह भी सोचता रहता हूं कि क्या मैं सोफ़े पर बैठा इस खड़ी जनता-जनार्दन के किसी भी सदस्य से ज़्यादा बड़ा भारतीय हूं, इन में से किसी से भी ज़्यादा देशभक्त हूं, इन में से किसी से भी किसी भी किस्म से ज़्यादा श्रेष्ठ हूं तो पाता हूं कि ऐसा बिलकुल नहीं है---------यही लोग इसी देश की जान है, संविधान रचे जाने की प्रेरणा है, इन्हीं लोगों के सपने इस संविधान में पड़े हैं, इन की आशायें-उम्मंगें-----सब कुछ इऩ का इसी संविधान में ही है। मैं इन्हें सम्मान पूर्वक कुर्सी जैसी छोटी वस्तु दिलाने की बात सोचता हूं ---- लेकिन अगर यह संविधान ही न होता तो इऩ की क्या हालत होती,यही सोच कर कांप जाता हूं !! जो भी होती , वह तो अलग बात है लेकिन चूंकि अभी तो हम सब भारतीयों की बराबरी का मसीहा ---यह संविधान है ---- तो फिर इन्हें बैठने के लिये कुर्सी नसीब क्यों नहीं होती ? मुझे यह प्रश्न परेशान कर देता है।

और हां, इस तस्वीर में यह जो आप संगीत का यंत्र देख रहे हैं ना, यह गणतंत्र दिवस के समारोह-स्थल के बाहर से लिया गया है ---- कल तो मैं और मेरा बेटा इसे तानपुरा कह कर ही बुलाते रहे, लेकिन आज ध्यान आ रहा है कि यह तो एक-तारा है ---- क्या मैं ठीक कह रहा हूं ?.
मुझे इस तरह के यंत्र देख कर बहुत ही खुशी होती है क्योंकि अपना बचपन याद आ जाता है और इन लुप्त हो रहे यंत्रों से जिन से देश की मिट्टी की खुशबू आती है
और इसे बेचने वाली महान आत्मा की बात ही क्या करें ---- यह फ़िराक दिल इंसान इसे बजाने की कला भी खरीदने वाले हर खरीददार को सिखाये जा रहा है। लेकिन मुझे इस यंत्र होने के धीरे धीरे लुप्त होने के साथ साथ इसे बेचने वाले उस गुमनाम से हिंदोस्तानी की भी फिक्र है क्योंकि मुझे दिख रहा है कि उस की खराब सेहत उस की निश्छल एवं निष्कपट मुस्कुराहट का साथ दे नहीं पा रही है , लेकिन साथ में सब को गणतंत्रदिवस की शुभकामनायें तो कह ही रही हैं। गणतंत्रदिवस के मायने सब के लिये अलग हैं ---इस जैसे हिंदोस्तानियों के लिये शायद यह कि इस दिन उस के ये यंत्र इतने बिक जायेंगे कि अगले पांच दिन बढ़िया निकल जायेंगे। यही सोचता हुआ कि इस महात्मा के बाद इस यंत्र का क्या होगा----कौन करेगा इतनी मेहनत इसे बनाने में, और कौन ही परवाह करेगा इन्हें खरीदने की !! ---बिना किसी विशेष प्रयास के यह वाद्य़ यंत्र भी लुप्त हो कर रह जायेगा---- तभी बेटे को कहता हूं कि चलो, बैठो यार चलते हैं।

गणतंत्र दिवस की आप सब को बहुत बहुत शुभकामनायें। तो, उस उस गुमनाम राही ( जो वह इकतारा बेच रहा था ) के नाम पर यह गीत ही हो जाये ----

सोमवार, 26 जनवरी 2009

आज मुझे इस विज्ञापन की बखिया उधेड़नी ही होगी !

अवार्डों का मौसम है ---विभिन्न कारणों की वजह से लोगों को अवार्ड मिल रहे हैं –मुझे भी लगभग पंद्रह महीने तक हिंदी ब्लॉग लिखने के बाद परसों एक टिप्पणी के रूप में अवार्ड मिला कि मैं आंखे बंद करके एलोपैथी के लिये विज्ञापनीअंदाज़ में लेख लिखता हूं। इस से पिछली पोस्ट पर भी कुछ इस तरह की मिलती जुलती एक टिप्पणी आई थी।

वैसे इस तरह का स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत तो है नहीं क्योंकि मैं किसी सेठ का गुलाम तो हूं नहीं कि कोई मुझे यह बताये कि यह लिख और यह मत लिख। वैसे कोई अगर यह कहता भी है तो तुरंत समझ में आ ही जाता है कि लिखने वाला किस भावना से ऐसा आग्रह कर रहा है। अपना तो सीधा सा फंडा है कि जिस बात को लिख कर सिर हल्का सा हो जाये , बस लिख कर छुट्टी की जाये, लेकिन फिर भी स्पष्ट कर ही देना ठीक होगा कि इस विज्ञापनबाजी के चक्कर में मुझे आज तक तो पड़ने की कोई ज़रूरत महसूस ही नहीं हुई। और शुक्र है कि किसी भी चीज की कमी नहीं है , वरना ज़रूरत अविष्कार की जननी है –यह मैं भी अच्छी तरह से जानता हूं।

लेकिन यह टिप्पणी देने वाले का भला हो --- क्योंकि इस विज्ञापनी अंदाज़ वाली बात से यह प्रेरणा मिली कि क्यों न मैं ब्लॉग में कुछ विज्ञापनों की बखिया ही उधेड़ लिया करूं। यह जो विज्ञापन आप यहां देख रहे हैं—इस तरह के कईं विज्ञापन आप को अकसर दिखते रहते हैं और इस तरह के लोशन वगैरा खरीदने के लिये उकसा ही देते हैं।

अकसर ऐसे मरीज़ मिलते हैं जिन से पता चलता है कि उन्होंने अपने दांतों पर बाज़ार से लेकर एक लोशन लगाया ताकि दांत चमक जायें लेकिन दो-चार दिन बाद ही दांत काले पड़ गये और साथ ही दांतों में ठंडा-गर्म लगना शुरू हो गया।

ऐसे एक एक बात गिनाने लगूंगा तो पोस्ट बहुत ही लंबी हो जायेगी—इसलिये एक काम करता हूं कि तरह तरह के लोशनों की हमारे मुंह एवं दांतों के स्वास्थ्य में क्या कोई भूमिका है , इस का विश्लेषण करते हैं ।

अभी तक कोई भी ऐसा लोशन बन कर तैयार नहीं हुआ है जिसे लगाने से दांत में किसी भी रंग का दाग दूर हो जाये -
लोशन के द्वारा यह काम संभव है ही नहीं --- ये दाग वगैरा दूर हो सकते हैं केवल एक प्रशिक्षित डैंटिस्ट के अपना इलाज करवा कर ही । कईं बार तो दांतों की पालिशिंग से ही ये दाग दूर हो जाते हैं। मैंने प्रशिक्षित डैंटिस्ट इसलिये लिखा है क्योंकि ये झोलाछाप अपने आप को दांतों का डाक्टर कहने वाले बशिंदे भी बहुत बार इस तरह के लोशन लोगों के दांतों पर लगा तो देते हैं ---बात में क्या होता है , इस से उन्हें क्या मतलब ? होता दरअसल यह है कि जो ये प्रोडक्ट्स वगैरह ये नीम-हकीम तथाकथित दंत-चिकित्सक इस्तेमाल करते हैं इस में कोई न कोई एसिड ( अमल, तेजाब) जैसी वस्तु पड़ी होती है ,अब आप ही सोचें कि जब इन तरह तरह की बेहद आयुर्वैदिक पदार्थों की आड़ में दांतों पर यह एसिड भी रगड़ा जायेगा तो क्या परिणाम होंगे --- मैं इस तरह के परिणाम अकसर देखता ही रहता हूं।

मसूढ़ों को शक्तिशाली बनाने वाला भी कोई लोशन अभी नहीं बना ---
ये सब गल्त क्लेम हैं, गल्त ही क्या , बेबुनियाद एवं भ्रामक हैं। लेकिन अफ़सोस यही है कि यहां पर लोशन ही नहीं तरह तरह के मंजन जो बसों में , फुटपाथों पर बिकते हैं ...वे भी यह क्लेम करते फिरते हैं। यह संभव ही नहीं है -----ये सब गुमराह करने के रास्ते हैं।

लोशन से दांत, इनामैल सुरक्षित रहेगा ---
इस का जवाब पहले ही दे चुका हूं कि ये लोशन इनामैल की धज्जियां उड़ाते हैं ना कि उसे सुरक्षित रखते हैं।

दांत की पथरी, मुंह से दुर्गंध, ठण्डा पानी या मिठाई खाने पर दांत सिरसिराना, पाइरिया एवं दांत से खून आना इस तरह के लोशन से कभी भी बंद हो ही नहीं सकता
यह कतई संभव है ही नहीं –अगर कोई ऐसी तकलीफ़ है तो डैंटिस्ट से मिल कर उपचार करवाना ही होगा, वरना दंत-रोग अंदर ही अंदर बढ़ता ही रहेगा।
इस तरह के लोशन ही क्यों, हिंदी के अखबारों में या जगह जगह ऐसी पेस्टों के विज्ञापन भी मिल जायेंगे जो कहेंगे कि इस से पॉयरिया ठीक हो जायेगा, मसूड़ों से खून आना ठीक हो जायेगा ---यह सरासर झूठ है, इस पर कभी भी विश्वास न ही करें तो बेहतर होगा – क्वालीफाइड डैंटिस्ट के पास जाये बिना यह कभी भी ( शत-प्रतिशत गारंटी !!) दुरूस्त हो ही नहीं सकता। हां, एक बात हो सकती है कि कुछ समय के लिये दांतों एवं मसूड़ों की कोई अवस्था दब जाये लेकिन इस अवस्था के पीछे जो कारण हैं वे बिल्कुल बरकरार रहते हैं और मज़े से पल्लवित-पुष्पित होते रहते हैं और बीमारी को उग्र रूप देना में योगदान देते हैं।

हिलने वाले दांतों तो मजबूत करने वाला कोई लोशन भी नहीं बना
अकसर यह भी कहा जाता है कि हिलने वालेदांत तो बिठाने के लिये भी पाउडर मिलता है। यह भी सरासर लोगों को च - - बनाने का एक ढंग है लेकिन लोग किसी ठोस प्रामाणिक जानकारी के अभाव में खुशी खुशी बन भी तो रहे हैं। हिलते दांतों के बारे में कुछ विशेष बातें मैं पहले भी लिख चुका हूं।

कहने को तो कोई यह भी कहे कि यार ये जो लोशन वगैरा मिलते हैं इन में तो कपूर, बबूल , माजूफल, लौंग का तेल, नारियल का मूल, दालचीनी, बकुल, अमृत पत्ता ------सब कुछ पड़ा तो हुआ है, सब कुछ आयुर्वैदिक ----भला, यह क्यों इस तरह के लोशन को भला-बुरा कह रहा है—हो न हो, यह मीडिया डाक्टर तो वास्तव में ही आयुर्वेद का धुर विरोधी भी है और किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त भी है।

आयुर्वेद की तारीफ़ मैं किन अल्फाज़ में करूं ---मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं, लेकिन आज कल कईं ऐसे -वैसे निर्मात्ता आयुर्वैदिक के नाम पर लोगों को वही बनाये ( आप समझते हैं क्या, ऊपर आप को हिंट दे तो दिया था !!) जा रहे हैं। वैसे भी मुझे अकसर उन इनग्रिडिऐन्ट्स की चिंता रहती है जिस का ज़िक्र इस तरह की दवाईयों की पैकिंग पर या रैपर पर कभी भी नहीं होता। और लोग यही समझते हैं कि आयुर्वैदिक ही तो है ना, तो सब ठीक ही होगा।

आयुर्वेदिक पद्धति से कोई अपनी किसी भी बीमारी का इलाज करवाना चाहता है तो उसे प्रशिक्षित आयुर्वेद के चिकित्सक के पास जाना ही होगा ----- वे ही इस तरह की दवाईयों के जानकार हैं, वरना झोलाछाप देसी डाक्टर तो इस देश के लगभग हर परिवार में एक-दो होते ही है जो लोकल बस स्टैंड पर खरीदी किसी देसी दवाईयों की किताब से ही अपने फन का सिक्का जमाने की धुन में मस्त हैं।

मुझे डर लगता है जिस तरह से लोग बस में किसी भी तरह के चूर्ण का सैंपल किसी से भी लेकर अपना हाजमा दुरुस्त करने लगते हैं, किस तरह अपने मुंह की बास खत्म करने के लिये किसी मंजन को आजमाने से नहीं चूकते, और तो और किसी से भी आंखों की दवाई डलवाने से भी नहीं चूकते----लेकिन ये सब खतरनाक काम हैं।लेकिन अफ़सोस जिन लोगों को मैं यह बात कहनी चाह रहा हूं उन तक मेरी बात शायद ही कभी पहुंचेगी। फिर भी कर्म किये जाना अपना कर्त्तव्य है।

और जाते जाते उस टिप्पणी का एक बार फिर से धन्यवाद करना चाहूंगा कि मुझे उस से एक नया आइडिया मिला। और रही बात, किसी टिप्पणी के माध्यम से किसी का मनोबल कम करने की बात, तो हम जैसे लोग कहां इस मिट्टी के बने हैं , हम ठहरे ढीठ किस्म के लोग, ऐसी हज़ारों टिप्पणीयों का स्वागत है और यह भी वायदा है कि इन्हें कभी भी डिलीट नहीं करूंगा-------मुझे उस टिप्पणी में यह भी लिखा गया था कि उसे डिलीट कर दूं , वरना मेरे टिप्पणीकारों को बुखार आ जायेगा---- लेकिन अफसोस मैं ऐसा करने के बिल्कुल भी मूड में नही हूं ---बुखार आयेगा तो क्या है , पैरासिटामोल की टेबलेट है ना !!

अभी मुझे ध्यान आ रहा है निठल्ला चिंतन ब्लॉग के तरूण जी का --- उन्होंने मुझे शुरू शुरू में एक बार सचेत भी किया था कि कमैंट-माडरेशन ऑन कर लेनी चाहिये ---- मैंने ऑन की भी थी लेकिन कुछ दिन बाद ही अन्य ब्लागर बंधुओं के अनुरोध पर हटा भी दी थी क्योंकि पता नहीं मैं समझता हूं कि कमैंट-माडरेशन ऑन करना किसी आज़ाद बाशिंदे के मुंह पर पट्टी बांधने के समान है। आज सब तरफ़ आज़ादी की हवा चल रही है ---हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है , है कि नहीं ?

और जाते जाते उस टिप्पणी करने वाले से इतना ज़रूर पूछना चाहूंगा कि मेरी ऐसी कौन सी पोस्टें हैं जहां से उन्हें विज्ञापनबाजी की बास आ रही है , मुझे तो अपनी सभी पोस्टों से सच्चाई की , प्रेम प्यार की, अपनेपन की, सद्भाव की, विश्व-बंधुत्व की खुशबू आ रही है, लेकिन मैं गलत भी हो सकता हूं ---इसलिये अगर अन्य पाठकों को भी ऐसी वैसी बास आ रही हो, तो प्लीज़, बेझिझिक हो कर लिखियेगा, चाहे तो अनॉनीमस ही लिख दीजियेगा-----ताकि इस मीडिया डाक्टर पर बेकार लिखने की माथा-फोड़ी छोड़ कर हम भी नेट पर कोई दूसरी गली पकड़ें जहां पर दो पैसे भी कमायें और रोज़ाना बच्चों के तानों से भी बचें कि क्या हो जायेगा पापा ये सब लिखने से, देख लेना कुछ भी नहीं होगा !!

मैं खुशवंत सिंह जी की बेबाक लेखनी का बहुत प्रशंसक हूं --- पर पता नहीं आज कल उन के लेख दिखते नहीं हैं ---अगर आप को इस का कुछ पता हो कि वे आजकल किस पेपर में छपते हैं तो बतलाईयेगा, हां, तो उन की लिखी एक बात का ध्यान आ रहा है --- भगवान का शुक्र है कि पैन के लिये कोई कांडोम नहीं बना !! वाह, खुशवंत जी, क्या खूब बात कही !! -- आज के ज़माने में अगर ऐसा भी कुछ बन जाता तो अपने जैसों कितने ही लोगों का मन की बातें मन में रखे रहते दम ही निकल जाता।


मैं भी कभी कभी बाल की कितनी खाल खींचने लग जाता हूं ---- मैंने इतना लिख कर जो बात कही, वही बात सुपरस्टार राजेश खन्ना कितनी सहजता से, कितने सुकून से, कितने सुरीले अंदाज़ में कह रहे हैं, आप भी सुनिये।

रविवार, 25 जनवरी 2009

हनी, हम बच्चों को तबाही की तरफ़ धकेल रहे हैं !


इस समय मेरे सामने बच्चों के एक जंक-फूड का रैपर पड़ा हुआ है जिस के ऊपरी लिखी सूचना पढ़ कर मुझे डिस्कवरी चैनल के उस बहुत ही लोकप्रिय प्रोग्राम का ध्यान आ रहा है --- Honey, we are killing the kids !!
Ingredients के आगे लिखा हुआ है ----Rice meal, Edible oil, Corn Meal, Gram Meal, Spices, Condiments and Salt.

और इस के आगे एक बहुत ही बड़ी स्टैंप लगी हुई है कि नो एमएसजी, ज़ीरो ट्रांसफैट्स एवं कोलेस्ट्रोल फ्री ( No Added MSG, Zero Trans Fats, Cholesterol free) ---- अब इन शातिर कंपनियों को पता है कि पब्लिक को कैसे उल्लू बनाना है – चलो मान भी लिया कि कंपनी ने इस पैकेट में MSG ( Monosodium glutamate ---जिसे आमतौर पर रेहड़ी वाले चीनी नमक कह कर बहुत फख्र महसूस कर लिया करते हैं ), लेकिन यह कोलैस्ट्रोल फ्री वाली बात तो मेरी समझ में कभी आई नहीं कि आखिर यह कैसे हो सकता है कि इस तीस ग्राम के पैकेट में अगर लगभग 12 ग्राम वसा है तो यह भला कौन सा जादू हो गया कि फिर भी यह कोलैस्ट्रोल फ्री है।

इस पांच रूपये के पैकेट पर लिखी बाकी जानकारी कुछ इस प्रकार की थी --- कुल वजन 30 ग्राम
प्रत्येक 16 ग्राम उत्पाद में निम्नलिखित इन्ग्रिडिऐंट्स हैं –
कैलीरीज़ – 92.6
टोटल फैट – 5.8 ग्राम
कोलैस्ट्रोल - ज़ीरो मिलिग्राम ( कंपनी के लिये ज़ोर ज़ोर से तालियां मारने की इच्छा हो रही है !!----इतना बहादुरी का काम कर दिया !!)
टोटल कार्बोहाइड्रेट – 8.48 ग्राम
प्रोटीन – 1ग्राम

तो, सीधा सीधा इस का मतलब यह हुआ कि जब किसी ने यह पांच रूपये का पैकेट खा लिया तो उस ने बिना वजह स्वाद स्वाद के चक्कर में या यूं कह लें कि अपने मां-बाप के लाड के चक्कर में बिल्कुल कोरी सी 200 कैलोरी अपने अंदर फैंक दीं।

और ध्यान दें कि लगभग आधी कैलोरीज़ इस तरह के पैकेट में फैट से ही आ रही हैं।

अब अगर कोई यह सोचे कि क्या डाक्टर आज इस मासूम से पांच रूपये के पैकेट के पीछे पड़ गया है। जो भी हो, यह पैकेट इतना मासूम है----इस का कारण यह है कि इस तरह के पैकेट खाने से एक तो बच्चों को इस का चस्का सा लग जाता है जिस तरह का बीड़ी का या गुटखे-पान मसाले का चस्का होता है उसी तरह से इन बेकार की चीज़ों का भी एक चस्का ही होता है।

आपने क्या कहा ---- हम कौन सा बच्चों को ये सब रोज़ ले कर देते हैं ? –चलिये मैं यह भी बात मान लूं कि आप बच्चों को ये कभी कभी ले कर देते हैं लेकिन फिर भी आप ने उस दिन के लिये उस का नुकसान कर ही दिया ना---- क्योंकि बच्चों की भी अपनी कैलीरोज़ की ज़रूरत है –अब दो-चार सौ कैलोरी अगर उस की इस तरह के एक-दो चालू उत्पादों से पूरी हो गई तो भला उसे दाल, सब्जी खाने की क्या पड़ी है ---- बस, इस तरह के एक दो पैकेट, साथ में एक चॉकलेट बार, और ऊपर से थोड़ी बहुत कोल्ड-ड्रिंक हो गई तो हो गया उस का रात का खाना ----कब सोफे पर टीवी देखता हुआ, किसी भूत-प्रेत वाला टीवी सीरियल देखते देखते खौफ से डर कर आंखे बंद कर के सोने का नाटक करते करते खर्राटे भरने लगता है किसी को पता ही नहीं चलता क्योंकि वे अभी दूसरी तरफ़ वारदात देखने में मसरूफ़ हैं --- तो, बात तो ठीक ही हुई ना कि हनी, हम लोग बच्चों को तबाह ( चलिये खुल कर ही लिख देते हैं ---तबाह नहीं मार रहे हैं !!) – कर रहे हैं ।

हां, इस प्रोग्राम में दिखाया जाता था कि एक खूब मोटा-ताज़ा विदेशी
परिवार कैसे अपने खाने पीने की आदतों, टीवी देखने की आदतों एवं एक्सरसाइज़ करने की आदतों में क्रांतिकारी बदलाव कर के अपनी फिटनैस को पुनः प्राप्त कर लेते हैं ---- यह प्रोग्राम मुझे बहुत बढ़िया लगता है इसे देखने के बाद मैंने भी बहुत बार खीर एवं हलवा खाने के लिये मना किया होगा।

यह जो जंक फूड है ना इन पर सारी सूचना होती भी तो अंग्रेज़ी में ही है ----वैसे अगर हिंदी में भी यह सब लिखा रहेगा तो इन शक्तिशाली कंपनियों का भला कोई क्या उखाड़ लेगा --- वैसे इंगलिश में यह सारी सूचना लिख कर इन का काम आसान भी तो हो जाता है ---जो मां-बाप इंगलिश नहीं भी जानते वो भी इन्हें यह सोच कर खरीदते हैं कि चलो, इंगलिश में सब कुछ लिखा है तो ठीक ही होगा। लेकिन जो भी हो, आज कल जब भी मैं किसी ऐसे बच्चे के हाथ में ये पैकेट देखता हूं जिसे मैं समझता हूं कि इस पैकेट से कहीं ज़्यादा रोटी-सब्जी की ज़रूरत है तो मन बहुत दुःखी होता है --- इच्छा होती है इस के हाथ से इसे कैसे भी छीन लूं --- बाद में जब भूख लगेगी तो चुपचाप मज़े से खिचड़ी खा ही लेगा।

आप का प्रश्न मैंने भांप लिया है --- कि डाक्टर तुम्हारे सामने इस तरह के जंक-फूड का पैकेट कहां से आया ?—आप के सामने तो लगता है आज पोल खुल गई ---कल शाम को बेटे को दिलाया था ---लेकिन ज़रा इस तरफ़ भी ध्यान दीजियेगा कि यह सब होता कितने समय के बाद ------निःसंदेह कुछ महीनों के बाद !!
लेकिन फिर भी यह गलत है ---आखिर क्यों मैं उसे यह चस्का लगाने में उस की मदद कर रहा हूं !!

शनिवार, 24 जनवरी 2009

होल्टर-मॉनीटर टैस्ट – 24 घंटे तक चलने-वाली चलती-फिरती ईसीजी !!

होल्टर-मॉनीटर एक ऐसा यंत्र है जिसे हम एक पोर्टेबल ईसीजी मशीन कह सकते हैं जिस से किसी व्यक्ति के हृदय की गतिविधि 24 से 48 घंटे तक रिकार्ड की जाती है । यह तो हम जानते ही हैं कि ईसीजी के द्वारा हमारे हृदय की इलैक्ट्रिक गतिविधि चंद मिनटों के लिये जांची जाती है और होल्टर –मॉनीटर के द्वारा हमारे हृदय की लय ( cardiac rhythm) को हास्पीटल के बाहर 24 से 48 घंटे तक रिकार्ड कर लिया जाता है।

और इस दौरान उस मरीज़ की सारी दैनिक क्रियायें चलती रहती हैं यहां तक की उस के सोते रहते भी यह मशीन चालू रहती है। इस से डाक्टरों को ऐसे लक्षणों को देखने का अवसर मिलता है जो कुछ समय के लिये आते हैं फिर खत्म हो जाते हैं लेकिन इन के साथ साथ हृदय की लय में बदलाव भी होता है ।

यह टैस्ट करवाने से पहले किसी विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है --- जिन पुरूषों की छाती पर बहुत से बाल हैं उन्हें उन की शेव करने के लिये कहा जा सकता है।

यह टैस्ट होता कैसे है ? – डाक्टर के पास अथवा किसी डॉयग्नोस्टिक लैब में काम कर रहा टैक्निशियन मरीज को होल्टर-मॉनीटर फिट कर देता है और इसे इस्तेमाल करने की उचित सलाह दे देता है । मरीज़ की छाती पर पांच स्टिकर लगा दिये जाते हैं—इन के साथ जुड़ी तारों को होल्टर-मॉनीटर के साथ जोड़ दिया जाता है। इन तारों के द्वारा आप के हृदय का दिन भर का इलैक्ट्रिक पैटर्न मॉनीटर में रिकार्ड हो जाता है और इस स्टोर किये जा चुके डैटा का डाक्टर बाद में विश्लेषण करते हैं।

होल्टर मॉनीटर का साइज़ इतना होता है कि यह किसी के पर्स में अथवा जैकेट की जेब में आसानी से आ जाता है , वैसे इसे स्ट्रैप की मदद से कंधे पर भी लटकाया जा सकता है।

इस के लगे रहते ही आप को अपनी दैनिक क्रियायें करनी होती हैं ---बस इतना ध्यान रखना होता है कि जब तक आप इसे धारण किये रहते हैं उस समय तक आप को नहाना नहीं होता और दूसरा यह कि आप को एक छोटी डॉयरी इस लिये दी जाती है ताकि आप उस में ऐसे किसी भी अजीबोगरीब लक्षण को ( समय के साथ) अपने पास लिख कर रखें – ऐसा लक्षण जो आप को थोड़ा बहुत भी चिंताजनक सा लगा हो !!

टैस्ट के बाद डाक्टर आप की डॉयरी के साथ साथ होल्टर मानीटर में स्टोर किये गये डैटा को यह जानने के लिये स्टडी करता है कि आप के द्वारा बताये गये ( लिख कर रिकार्ड किये गये लक्षण ) लक्षण क्या हृदय के किसी रोग की वजह से हैं !!

इस टैस्ट को करवाने से कोई रिस्क नहीं है – बस, आप को मॉनीटर हास्पीटल को वापिस लौटाना होता है !! बाद में इस रिकार्डिंग का प्रिंट-आउट लेकर डाक्टर इस का अध्ययन करते हैं।

संक्षेप में बताया जाये तो यही है कि कुछ एंजाइना ( angina) के मरीज़ ऐसे होते हैं जिन में डाक्टर को लगता है कि इनमें इस्कीमिक हार्ट डिसीज़ ( हृदय को मिलने वाले रक्त की सप्लाई की कमी) हो सकती है लेकिन इन की ईसीजी नार्मल आ रही है ---तो फिर दिन भर सारी सामान्य दैनिक क्रियाओं के दौरान ऐसे मरीज़ों के हृदय की एक्टीविटी रिकार्ड करने के लिये होल्टर-मानीटर टैस्ट करवाया जाता है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

अनहोनी को होनी कर दें ...!!

निःसंदेह अमर अकबर एंथोनी में निरूपा राय को एक साथ अकबर और एंथोनी का रक्त चढ़ता दिखाते हुये रील-लाइफ़ में एक अनहोनी को होनी बता कर के तो दिखा दिया। लेकिन ऐसा रियल लाइफ में नहीं होता है क्योंकि जब किसी रक्त-दाता से रक्तदान प्राप्त होता है तो उस की कईं प्रकार की जांच होती है।


इसी बात पर ध्यान आ रहा है कि ये जो डाक्टर लोग रेडियो एवं टीवी वगैरह पर आते हैं इन की सब बातें पूरे ध्यान से सुननी चाहिये क्योंकि अकसर मैंने यह देखा है कि ये सारी उम्र भर के अनुभव को उस एक घंटे के कार्यक्रम में श्रोताओं से साझा कर देना चाहते हैं। ऐसे ही मुझे दो-दिन पहले विविध-भारती पर सुने एक ऐसे ही कार्यक्रम का ध्यान आ रहा है जिस में वह किसी ब्लड-बैंक के डाक्टर से की गई बातचीत का प्रसारण कर रहे थे।


अकसर हम लोग सोचते हैं कि किसी सर्टीफाइड ब्लड-बैंक से लिया गया रक्त लिया है तो वह शत-प्रतिशत सुरक्षित ही होता है। लेकिन डाक्टर साहब इस बात पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहे थे कि ठीक है, रक्त किसी सर्टीफाइड बैंक से लिया है लेकिन फिर भी कुछ बीमारी तो इस प्रकार से लिये रक्त से भी फैलने का रिस्क तो बना ही रहता है ---चाहे यह रिस्क होता बहुत कम है !!

अब आप का यह सोचना बिलकुल मुनासिब है कि अब यह कौन सी नईं मुसीबत है कि किसी मान्यता-प्राप्त ब्लड-बैंक से रक्त लेकर भी रिस्क की चिंता बनी रहे। दोस्तो, यह इसलिये है क्योंकि अभी भी बहुत से ऐसी वॉयरस हैं जिन का हमें पता ही नहीं है। जिन वॉयरसों अथवा जिवाणुओं का हमें पता है उन की तो हम नें रक्त दाता से रक्त लेकर जांच कर डाली लेकिन जिन के बारे में अभी चिकित्सा विज्ञान को कुछ भी पता ही नहीं है, उन का क्या ? कल ही मैं पढ़ रहा था कि रक्त के चढ़ाने से एक अन्य नईं सी बीमारी ( नाम ध्यान में नहीं आ रहा ) के फैलने के रिस्क का भी पता चला है ।

चलिये इस नईं सी बीमारी का तो मैं नाम भूल गया – लेकिन हैपेटाइटिस सी का तो नाम हम सब को याद है। दोस्तो, रक्त-दान से प्राप्त किसी भी रक्त की थैली के बाहर लिखा होता है कि इस रक्त की वीडीआरएल, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी, एच-आई-व्ही, मलेरिया के जीवाणुओं के लिये जांच की जा चुकी है और इस सुरक्षित है ।
अकसर सर्टीफाइड सरकारी ब्लड-बैंक रक्त के एक यूनिट के लिये 250 रूपये की रकम लेते हैं – और यह रक्त की कीमत नहीं है (!!) , यह तो इसे टैस्टिंग करने की कीमत है और वह भी ये सब कैसे कर पाते हैं मैं इस का पता लगा कर बताऊंगा क्योंकि अकसर बाजार में ये सारे टैस्ट ही एक हज़ार-बारह सौ रूपये में होते हैं क्योंकि हैपेटाइटिस सी के लिये रक्त की जांच करने के ही लगभग 650 रूपये का खर्च बैठता है।

बात मुझे आज हैपेटाइटिस सी के बारे में ही करनी है --- मलेरिया, वीडीआरएल टैस्ट के साथ साथ हैपेटाइटिस बी और एचआईव्ही की जांच भी होती है , यह तो आप सब अच्छी तरह से जानते ही हैं लेकिन हैपेटाइटिस सी के बारे में इतना कहना चाहता हूं कि रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी के लिये जांच अभी पिछले कुछ ही सालों से शुरू की गई है ----पहले यह टैस्टिंग नहीं की जाती थी –और जब से यह एचआईव्ही का शैतान आ गया तो उस के बाद से ही ये सारे टैस्ट वगैरह होने लगे।

इस का क्या यह मतलब है कि जब से हम लोगों ने रक्त के लिये इस तरह के टैस्ट करवाने शुरू कर दिये उस समय से ही ये बीमारियां हैं ---नहीं, उस से पहले ही से ये बीमारियां हैं लेकिन हमें इन के जीवाणुओं के बारे में ही पता ही न था और अगर पता भी था तो हमारे पास कुछ बीमारियों को पता करने के साधन नहीं थे और जहां कहीं किसी बीमारी अथवा इंफैक्शन का पता करने के लिये साधन थे , वहां तब यह पालिसी ही नहीं थी अथवा शायद ज़रूरत ही नहीं समझी जा रही थी कि इस बीमारी के लिये भी रक्त की जांच किये जाने की ज़रूरत है !!

अब यह पढ़ कर यह विचार आना कि यह सब भ्रम मात्र हैं ---- क्या पहले रक्त नहीं चढ़ा करता था ( blood transfusion) ---पहले भी तो यह सब होता ही था ना ---- ठीक है , होता तो था लेकिन जैसे कि ऊपर बार बार बताया जा चुका है कि हमारे पास कुछ बीमारियों की टैस्टिंग करने का कोई जुगाड़ ही न था।

अब चलिये हैपेटाइटिस की ही बात करते हैं ----कहां किसी को पीलिया होने पर इतनी जांच की जाती थी ----बस, पीलिया हो गया है तो यह कह दिया जाता था कि इस का सारा रक्त पानी बन गया है – और कुछ बच जाते थे और कुछ लंबे समय तक बीमार रहते थे और कुछ को पीलिये की बीमारी लील लिया करती थी। लेकिन आज किसी की व्यक्ति को जब पीलिया होता है तो तुरंत उस की जांच की जाती है कि यह दूषित पानी पीने की वजह से है ( हैपेटाइटिस ए) , दूषित रक्त अथवा ऐसे ही अन्य कारणों की वजह से ( हैपेटाइटिस बी, सी) , शराब द्वारा लिवर को तबाह कर दिये जाने की वजह है , पित्ते में पत्थरी की वजह से है ..........कहने का भाव यह है कि जो भी कारण पता चलता है उस के मुताबिक मरीज़ का इलाज शुरू कर दिया जाता है।

अब जिस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूं कि जब हैपेटाइटिस सी की बीमारी की जांच नहीं हुआ करती थी , बीमारी तो यह तब भी थी और रक्तदान से प्राप्त रक्त को किसी को चढ़ाने के कारणवश फैलती तो होगी लेकिन किसी को पता ही नहीं चलता था । फिजिशियन से बात हो रही थी कि जिस दौर में हैपेटाइटिस सी का टैस्ट नहीं किया जाता था , उस ज़माने में जिन लोगों को रक्त चढ़ाया गया होगा, उन में हैपेटाइटिस सी की पुरानी बीमारी ( chronic hepatitis C infection) होने की संभावना तो है ही----यह रिस्क तो उन को झेलना ही पड़ा।

हैपेटाइसिस सी के बारे में थोड़ी बातें जाननी ज़रूरी हैं ---- इस इंफैक्शन के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह वॉयरल सिकनैस खामोश रह सकती है और जिस का इलाज करना मुश्किल तो हो सकता है लेकिन इस का इलाज हो भी सकता है ।

हैपेटाइटिस सी इंफैक्शन का पता कईं बार तब चलता है जब बहुत सालों तक यह लिवर को तबाह कर चुकी होती है। विकसित देशों में तो आज की तारीख में लिवर ट्रांसप्लांट का एक मुख्य कारण ही वॉयरल हैपेटाइटिस है।
हैपेटाइटिस सी के बारे में यह बात बहुत रोचक है कि आज कल जिस तरह की दवाईयां उपलब्ध हैं उन के इस्तेमाल से पुरानी इंफैक्शन के 40 से 80 प्रतिशत केसों को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।

सब से ज़्यादा ध्यान देने योग्य बात यही है कि हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन का कईं कईं साल तक पता ही नहीं चलता । ये वायरस इतनी चंचल है कि अकसर यह कईं सालों तक सोई रहती है और उस के बाद यह एक ऐसा रूप धारण कर लेती है कि डाक्टर लोग भी असमंजस की स्थिति में हैं कि इस के इलाज की सिफारिश करें अथवा मरीज़ों को सजग रहते हुये इंतज़ार करने की सलाह दें ( wait and watch !!) .

कहीं आप को यह सुन कर एक झटका न लगे कि अमेरिका जैसे देश में 32 लाख लोग ऐसे हैं जिन में हैपेटाइटिस सी की क्रानिक इंफैक्शन तो है लेकिन उन्हें इस का पता नहीं है ---- ऐसा कहा जाता है कि पांच में से चार लोगों में जब यह इंफैक्शन पहली बार होती है तो इस के कुछ भी लक्षण नहीं होते ( no symptoms).

अमेरिका में तो बहुत से लोगों को तो तब ही इस हैपेटाइसिस सी की बीमारी का पता चलता है जब वे रक्त दान देते हैं अथवा हैल्थ इंश्योरैंस के लिये उन का सारा चैक-अप होता है।

जिन लोगों को हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन होती है उन में से लगभग एक तिहाई लोग ऐसे होते हैं जिन की रोग-प्रतिरोधक शक्ति ( natural immunity) ही इस वॉयरस का खात्मा कर देती है लेकिन 70 फीसदी लोग ऐसे होते हैं जिन में यह एक क्रॉनिक संक्रमण का रूप ले लेती है जिस की वजह से लिवर की सिरोसिस ( liver cirrhosis) एवं लिवर के कैंसर की संभावना बहुत बढ़ जाती है। विडंबना देखिये कि जो लोग हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन होने के तुरंत बाद बीमार हो जाते हैं उन में इस वायरस के खत्म हो जाने की काफ़ी संभावना रहती है।
तो इस हैपेटाइटिस सी का इलाज क्या है ? – इस के लिये दवाईयां तो हैं जो महंगी तो हैं ही –इस के साथ ही साथ उन के साइड-इफैक्टस भी सीरियस किस्म के होते हैं । इसलिये कईं बार यह फैसला करना कि किस का इलाज किया जाये और किस का नहीं थोड़ा पेचीदा सा काम ही होता है।


विशेषज्ञों के अनुसार लगभग एक तिहाई ऐसे मरीज़ जिन में यह क्रॉनिक इंफैक्शन होती है उनमें लिवर सिरोसिस हो जाती है ---- पांच से दस प्रतिशत मरीज़ ऐसे होते हैं जिन में लिवर कैंसर हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो बहुत से मरीज़ क्रॉनिक इंफैक्शन होते हुये भी बिना किसी तकलीफ़ के ज़िंदगी बिता देते हैं --------मुश्किल बात यही बताना है कि कौन सा बंदा ठीक चलता रहेगा और किस की इस क्रॉनिक इंफैक्शन की वजह से मौत हो जायेगी।

अमेरिका में 1980 के दशक में हैपेटाइटिस सी इंफैक्शन के हर साल दो लाख चालीस हज़ार नये केस पकड़ में आते थे और यह संख्या 2006 में केवल 19000 रह गई है । लेकिन हम लोग ज़रा अपने यहां की हालात की कल्पना करें ----- सीधा जवाब है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कहां पर खड़े हैं --- इस की एक छोटी सी शुरूआत मैं सूचना के अधिकार के अंतर्गत यह पता कर के करने की करूंगा कि पिछले पांच सालों में रक्त-दान के कितने केसों में से कितने लोगों में हैपेटाइटिस सी का संक्रमण पाया गया है।

हां, तो आप यह सब पढ़ कर भयभीत तो नहीं हो गये ----क्या करें, थोड़ा बहुत आदमी हो ही जाता है और विशेष कर अगर किसी को उस ज़माने में रक्त चढ़ाया जा चुका है जब रक्तदान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी की टैस्टिंग ही नहीं हुआ करती थी ----अगर ऐसा है तो डरने की बजाये आप अपने फिजिशियन से मिल कर अगर वह आप को सलाह दे तो हैपेटाइटिस सी के लिये अपना ब्लड-टैस्ट करवा लेंगे तो बेहतर होगा।

वैसे एक बात की तरफ़ हमेशा ध्यान रहना चाहिये कि अभी भी बहुत से वॉयरस हैं जिन का हमें अभी पता ही नहीं है --- लेकिन फिर भी दोस्त जब किसी को रक्त-दान दिया जाना होता है उस की लाइफ़ बचाने के लिये रक्त चढ़ाया ही जाता है ---- फौरी तौर पर उस की ज़िंदगी बचाना सब से ज़्यादा लाज़मी होता है ।

लेकिन एक बात का आप को पता है कि कई बार आप्रेशन के वक्त जिस किसी मरीज़ को रक्त दिये जाने की संभावना रहती है वह आप्रेशन के कुछ महीने पहले अपना ही रक्त निकलवा कर सुरक्षित रखवा देता है जिसे उस के आप्रेशन के समय ज़रूरत पड़ने पर चढ़ा दिया जाता है --- इसे ऑटोलॉगस ट्रांसफ्यूज़न ( Autologous transfusion) --कहते हैं। एक तरह से किसी तरह की बीमारी के फैलने की होनी को अनहोनी में बदलने का एक रास्ता !!

मैंने जो बात अनहोनी को होनी में बदलने की की थी उसे होनी को अनहोनी में बदल कर समाप्त कर रहा हूं। बस, अपना ध्यान रखियेगा।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

हिल रहे दांत मरीज़ों की नींद उड़ा देते हैं

बहुत दिनों से विचार था कि हिलते हुये दांतों के बारे में थोड़ी चर्चा की जाये। यह एक बहुत ही आम समस्या है जिस के लिये मरीज़ दंत-चिकित्सक के पास चले आते हैं। मुझे लग रहा है कि हिलते हुये दांतों के कारणों व उपचार के ऊपर थोड़ी रोशनी डालने की आवश्यकता है।

चलिये, बच्चे के जन्म से भी पहले गर्भवती मां के दांतों से शुरू किया जाये---बहुत सी गर्भवती महिलाओं मसूड़ों से रक्त आने की शिकायत करती हैं- इस का नाम ही है प्रैगनेन्सी जिंजीवाइटिस ( अर्थात् गर्भावस्था में होने वाली मसूड़ों की सूजन) – इस दौरान भी कुछ महिलायें यह शिकायत करती हैं कि उन के दांत हिल से रहे हैं---इस का सीधा सरल समाधान होता है कि दंत-चिकित्सक से इस का उपचार करवा लिया जाये जिस से लगभग शत-प्रतिशत केसों में राहत मिल जाती है।

चलिये, बबलू का जन्म हो---लेकिन यह क्या, उस के मुंह में तो जन्म के समय से ही दो छोटे छोटे दांत मौजूद हैं ----जो हिल तो रहे हैं –लेकिन सारा कुनबा मुंह फुलाये बैठा है कि हो ना हो कोई तो अनर्थ होने ही वाला है –यह तो घोर अपशगुन है । लेकिन मेरी भी तो सुनिये---- कोई अपशगुन-वगुन नहीं है, होता है कभी कभी ऐसा होता है लेकिन इन हिलते हुये छोटे छोटे दांतों ( neo-natal /natal teeth) को तुरंत दंत-चिकित्सक के पास ले जाकर निकलवा देना चाहिये ---इस का कारण यह है कि इन दांतों की वजह से बच्चा स्तनपान कर नहीं पाता ऊपर से मां की छाती पर इन की वजह से जख्म हो जाते हैं। एक बार और यह भी है कि बच्चा चाहे कुछ ही दिनों का ही हो, इस प्रकार के दांतों को निकालना बहुत ही ज़्यादा आसान होता है क्योंकि इन दांतों की जड़े बेहद कमज़ोर होती हैं और ये लगभग मसूड़े के ऊपर ही पड़े होते हैं जिन्हें बिना कोई इंजैक्शन लगा कर , केवल एक दवाई लगा कर या थोड़ा सा सुन्न करने वाली दवाई का स्प्रे करने के पश्चात् डैंटिस्ट निकाल बाहर करता है।

बबलू बड़ा हो गया --- थोड़ी थोड़ी मस्ती करने लगा --- 2-3 साल का हो गया – बस कभी कभी गिर जाता है और अपने होंठ कटवा लेता है और कईं बार आगे के दूध वाले दांत थोड़ा थोड़ा हिलना शुरू हो जाते हैं ----लेकिन धैर्य रखिये ऐसे केसों में भी कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं होती। बस, बर्फ लगा कर उस का रक्त रोकिये--- और थोड़ा बहुत हिलते हुये दांतों की चिंता न करिये ---यह जो मां प्रकृति है ना यह भी इन नन्हे-मुन्नों के आगे घुटने टेक ही देती है – और मैंने अपनी प्रैक्टिस में देखा है कि इन बच्चों में कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं होती --- और दंत-चिकित्सक से मिल कर एक दो दिन बस दर्द-निवारक ड्राप्स वगैरह लगाने से सारा मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाता है ---शुरू शुरू में मुझे भी इस की बहुत हैरानी हुआ करती थी। बस करना इतना होता है कि बच्चे को उन दांतों को इस्तेमाल करने के लिये रोकना होता है।

बबलू और भी बडा हो गया ---लगा साईकल चलाने, गली-क्रिकेट खेलने और ऐसे ही एक दिन गिर गया ---अगले दांत पर ज़ोर आया जिस मे दर्द भी शुरू हो गया और वह थोड़ा थोड़ा हिलना भी शुरू कर दिया। इस के लिये ज़रूरत है एक-आधा दिन देख लें, कोई दर्द-निवारक दवाई वगैरा दे दें ---और उस के बाद उसे दंत-चिकित्सक के पास लेकर जाना बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि वह इस का एक्स-रे करने के पश्चात् चोट की उग्रता का अनुमान लगाते हैं और यथोचित उपचार कर देते हैं ----बताने वाली बात यह है कि इस तरह का हिलता हुआ दांत भी उचित उपचार के बाद बिल्कुल ठीक हो जाता है ----हिलना जुलना बिल्कुल बंद, एक दम फिट !! अकसर मां-बाप बहुत घबराये से होते हैं लेकिन जब उन्हें सब कुछ समझा दिया जाता है तो वे भी आश्वस्त हो जाते हैं। बस बच्चे को यह समझाने की बहुत ज़रूरत होती है कि वह कम से कम दो-तीन हफ्ते दांत को बार बार पकड़ कर शीशे के सामने खड़े होकर यह चैक करने की कोशिश ना करे कि दांत कितना जाम हुआ है और कितना अभी हिल रहा है --------प्रकृति को उस का काम करने का समय तो देना ही होगा।

बबलू बड़ा हो गया ---- और अब बना गया बब्बन उस्ताद ---- लेकिन अब उसे दांत सफा करने की फुर्सत नहीं ---- कभी कभार कोई मंजन घिस दिया तो घिस दिया, वरना छुट्टी ---दंत चिकित्सक के पास नियमित चैक-अप करवा कर आने का कोई ख्याल ही नहीं। ऊपर से बब्बन ने गुटखे और तंबाकू वाली चुनौतिया को जेब में रखना शुरू कर दिया। ऐसे में क्या हुआ कि बब्बन के 25-30 साल के होते होते मसूडों से रक्त आने लगा ----चूंकि मसूड़ों से खून ब्रुश करने से या दातुन करने से आता था, इसलिये पड़ोस के पनवाड़ी बनारसी चाचा की सलाह उस के काम आ गई ----बब्बन, चल छोड़ इन ब्रुश दातुन का चक्कर, तू तो बस मेरी मान तू तो नमक-तेल शुरू कर दे ---तेरी चाची का भी पायरिया इसी से ठीक हुआ था –बस , उस दिन से बब्बन ने दांतों की थोड़ी बहुत सफाई जो वह पहले कर लिया करता था ,वह भी बंद कर दी -----बस अगले दो-चार-पांच साल ऐसे ही चलता रहा ---किसी साइकिल वाले से, किसी बस में मंजन व अंजन बेचने वाले से कोई भी पावडर लेकर लगा लिया ---- चंद दिनों के लिये रोग दब गया लेकिन यह मसूड़ों से आने वाला खून तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा है और अब तो दांत भी हिलने लगे हैं , इसलिये बब्बन ने सोचा कि चलते हैं ---किसी चिकित्सक के पास।

सिविल हस्पताल के चिकित्सक ने चैक-अप किया ---बता दिया कि भई तुम्हारा पायरिया रोग तो नीचे हड़डी तक फैल चुका है, इस का तो पूरा इलाज होगा ---मसूड़ों की सर्जरी होगी और या तो फलां फलां मसूड़ों के स्पैशलिस्ट के पास चले जाओ वरना पास ही के कस्बे के डैंटल कालेज में जा कर अपना पूरा इलाज करवा लो, तभी दांत बच सकते हैं।

गुस्से से लाल बब्बन डाक्टर को कोसता हास्पीटल से बाहर आकर यही सोच रहा कि लगता है कि इस डाक्टर का दिमाग फिर गया है ---अब इत्ती से तकलीफ़ के लिये मैं भला आप्रेशन करवाऊंगा ----- हा, हा, हा......इतने में उस की नज़र सामने के फुटपाथ पर बैठे एक फुटपाथ छाप दंदान-साज़ पर पड़ती है ----बब्बन ने सोचा कि अभी बस को आने में तो थोड़ा टाइम है चलो इस के साथ थोड़ा टाइम-पास कर लिया जाये। उस समय वह किसी दूसरे शिकार का दांत उखाड़ रहा था और जब नहीं उखड़ा तो कल आने के लिये कह दिया। अब बारी बब्बन की थी ----उस ने इतना ही कहा था कि मेरे तीन चार ऊपर के और तीन चार नीचे के दांत हिल रहे हैं ---बस , फिर तो वह उस फर्जी फुटपाथ छाप चिकित्सक की बातों में ऐसा उलझा कि उस ने कुल 15 रूपये में अपना इलाज करवा ही लिया। इलाज के तौर पर उस ने एक बहुत ही नुकसानदायक पदार्थ उस के हिलते हुये दांतों के आगे-पीछे चेप दिया और बब्बन खुशी खुशी घर की तरफ़ चल पड़ा।

रास्ते में दूसरे बस-यात्रियों से भी उस फुटपाथ वाले बंदे के गुण गाता रहा और उस सिविल हास्पीटल वाले डाक्टर की ऐसी की तैसी करता रहा । कुछ समय तक वह रहा खुश ----उसे लगा वह ठीक हो गया है लेकिन तीन-चार महीनों में ही उस का मुंह सूज गया और बहुत ज़्य़ादा इंफैक्शन हो गई।

इंफैक्शन इतनी ज़्यादा हो गई कि उसे एक क्वालीफाइड दंत चिकित्सक के पास जाना ही पड़ा ---उस ने एक्स-रे किया तो पता चला कि हिलते दांतों के इतने बेरहम इलाज की वजह से आस पास के चार-दांत भी पूरी तरह से नष्ट हो गये हैं, वे भी पूरी तरह से हिलने लग गये हैं --- और आस पास के मसूड़ों में भयंकर सूजन आई हुई है। ऐसे में उसे अगले चार पांच दिनों में अपने छः दांत उखड़वाने पड़े ।

अपने बाकी के दांतों का भी उचित उपचार करवाने की जगह उस ने फिर किसी नीम हकीम डैंटिस्ट की बातों में आकर एक तार सी लगवा ली कि इस से बाकी के दांत रूक जायेंगे --- लेकिन कुछ महीनों बाद फिर वही सिलसिला –साथ वाले अच्छे भले दांत भी हिल गये ---- धीरे धीरे कुछ महीनों में उस को छः दांत और उखड़वाने पड़े ----अब तक जितने दांत बच रहे थे उन की भी हालत पतली ही थी ---इसलिये बब्बन उस्ताद ने फैसला किया कि अब इन का क्या काम -----तो चालीस-ब्यालीस के आसपास उस ने सारे दांत निकलवा दिये ----और कुछ साल तक नकली दांत लगवाने की सलाह ही बनाता रहा जिस की वजह से उस के जबड़े की हड्डी ( जिस पर नकली दांत टिकते हैं) काफी घिस गई -----एंड रिजल्ट यह निकला कि जब अपनी बेटी की शादी से पहले उस ने नकली दांतों का सैट लगवा तो लिया लेकिन वह कभी भी सैट ही नहीं हो पाया ---- बब्बन आज भी बिना दांतों के ही रोटी खाता है --- और यही वजह है कि वह ठीक से कुछ खा नहीं पाता –और पचास की उम्र में ही उस की सेहत इतनी ढल गई है कि वह पैंसठ का लगता है ।

यह बबलू-बब्बन की कहानी नहीं -----रोज़ाना ऐसे केस देखता हूं ---सिक्वैंस लगभग यही रहता है । मेरी अगर कोई बात माने तो दांतों को स्वस्थ रखने के लिये ये गुटखे-वुटखे,पान मसाले सदा के लिये थूक देने होंगे, सुबह तो ब्रुश करना ही है , रात को सोने से पहले भी ब्रुश करने की आदत डालनी होगी, जुबान रोज़ाना टंग-क्लीनर से साफ़ करनी होगी और अपने दंत-चिकित्सक से छः महीने के बाद जा कर नियमित दांतों का चैक-अप करवाना भी निहायत ज़रूरी है।

यह बात लगता है कि किसी पत्थर पर खुदवा दूं कि मेरे विचार मे 99प्रतिशत देशवासियों के बस में है ही नहीं कि वे अपने एडवांस पायरिया का इलाज करवा सकें ---एडवांस से भाव है कि दांत हिल रहे हैं,मसूडों से पीप आ रही है, दांतों से मसूड़ें अलग हो चुके हैं -----बस दांत निकलवाने की ही इंतज़ार में समय बीत रहा है । ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं कि इस तरह के पायरिया का इलाज पहले तो हर जगह होता ही नहीं है ---- दूसरा यह काफी महंगा इलाज है ---बार बार जाना होता है ---बेचारा अपनी दाल-रोटी में पिसा इस देश का एक आम आदमी सुबह से लेकर शाम तक बीसियों तरह की और चिंतायें करे या अपने दांत ठीक करवाता फिरे ---- शायद उस की जेब इस की इज़ाजत भी नहीं देती ---वरना आम तौर पर इतने एडवांस पायरिया को जड़ से खत्म करने वाले पैरियोडोंटिस्ट ( periodontist) स्पैशलिस्ट भी या तो बडे शहरों में ही मिलते हैं या डैंटल कालेजों में दिखते हैं। हां, अगर कोई खुशकिस्मत मरीज़ इस तरह के पायरिये का पूरा इलाज करवा भी लेता है तो इस के लिये उसे बाद में भी अपने दांतों की साफ़ –सफाई का खास ध्यान रखना होगा। वरना यह बीमारी वापिस अपना सिर निकाल लेती है ---इसलिये हम लोग कहते हैं कि पायरिया की तकलीफ़ को जितना जल्दी हो सके ठीक करवा लेना चाहिये, वरना बहुत देर हो जाती है और ज्यादातर मामलों में ऊपर लिखे विभिन्न कारणों की वजह से दांत निकलवाने के अलावा कोई चारा बचता नहीं है।

तो आप दंत चिकित्सक से अपने नियमित चैक-अप के लिये कब मिल रहे हैं। वैसे कभी कभी दांतों से संबंधित बीमारियों के उपचार के लिये मेरा याहू आंसर्ज़ का यह पन्ना भी देख लिया करें।