शनिवार, 7 मार्च 2009

सुन्नत / ख़तना करवाने ( Male circumcision) के बारे में आप क्या यह सब जानते हैं ?

दो वर्ष पहले अफ्रीका में की किये गये तीन सर्वेक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि जिन पुरूषों की सुन्नत हुई होती है उन में एड्स वॉयरस के प्रवेश का ख़तरा 60फीसदी कम होता है, इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एड्स की रोकथाम के लिये ख़तना करवाने की सिफारिश कर दी।

थोड़ा इस बात की चर्चा करें कि यह सुन्नत करवाना है क्या ----जैसा कि आप जानते होंगे कि पिनिस ( शिश्न, लिंग) का अगला नर्म भाग ( शिश्न मुंह अथवा glans penis) ढीली चमड़ी से ढका रहता है जिसे मैडीकल भाषा में प्रिप्यूस ( prepuce) कहा जाता है ---- एक बिलकुल छोटे से आप्रेशन के द्वारा शिश्न मुंह के ऊपर वाली इस चमड़ी को उतार दिया जाता है।

जब से विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह सिफारिश आई है विभिन्न गरीब देशों ने अपनी अपनी सरकमसिज़न पॉलिसी बनाने की तरफ़ कदम उठाने शुरू किये तो हैं लेकिन फिर भी लोगों के बीच इस सुन्नत के बारे में बहुत सी गलत भ्रांतियां चल निकली हैं। एक बहुत ही चिंता की बात यह भी यह है कि नीम-हकीमों ने बिना साफ़-सुथरे औज़ारों के ही यह काम सस्ते ढंग से करना का जिम्मा उठा लिया। वैसे तो तरह तरह की भ्रांतियों को समाप्त करने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस के बारे में यह वेबसाइट ही बना डाली है, लेकिन फिर भी अभी इस के बारे में बहुत जागरूकता की ज़रूरत है।

सब से पहले तो एक नज़र इस तरफ़ डाली जाये कि यह सरकमसिज़न आप्रेशन( सुन्नत, ख़तना) किया ही क्यों जाता है ---
- एक धार्मिक विश्वास के कारण ---- आप यह तो जानते हैं कि मुस्लिम धर्म में धार्मिक कारण की वजह से छोटे लड़कों की सुन्नत की जाती है।
- दूसरा कारण है जब कोई भी कंप्लीकेशन हो जाये तब ख़तना करना पड़ता है ---- होता क्या है कि कईं छोटे बच्चों की प्रिप्यूस इतनी टाइट होती है --- वह शिश्न-मुंड के ऊपर से बिल्कुल भी टस से मस नहीं होती ----इस अवस्था को फिमोसिस (phimosis) कहा जाता है। इस की वजह से कईं बार यह जटिलता हो जाती है कि छोटे लड़कों को पेशाब करने में ही दिक्तत हो जाती है जिस की वजह से उन के शिश्न-मुंड के ऊपर टाइट चमड़ी को इस छोटे से आप्रेशन के द्वारा उतार दिया जाता है।
- बिना किसी विशेष कारण के भी कईं बार सरकमसिज़न कर दी जाती है।

कुछ बातें इस प्रिप्यूस के बारे में करनी ज़रूरी लग रही हैं ---- अधिकांश नवजात शिशुओं में यह जो चमड़ी है ग्लैंस-पिनिस ( glans penis- शिश्न-मुंड) के साथ पूरी तरह चिपकी पड़ी होती है । और अगर बिल्कुल कुछ भी न किया जाये तो भी लगभग सभी लड़कों में यह चमड़ी लड़के के तीन साल की उम्र के होने तक शिश्न-मुंड से अलग हो जाती है -----------ध्यान दें कि केवल अलग हो जाती है –मतलब यह कि वह आसानी से शिश्न-मुंड से आगे-पीछे सरक सकती है।

यही कारण है कि लोगों को यह निर्देश दिया जाना बहुत ज़रूरी है कि तीन साल की उम्र तक तो शिशु के शिश्न के ऊपर जो foreskin है उस को ज़ोर लगा कर शिश्न-मुंड से पीछे सरकाने की कोशिश न करें। अगर तीन साल की उम्र तक भी ग्लैंस के ऊपर वाली यह चमड़ी ग्लैंस पर चिपकी ही रहती है तो बेहद एहतियात से बिल्कुल आहिस्ता से इस चमड़ी (foreskin) को पीछे सरकाने की कोशिश की जानी चाहिये --- और इस चमड़ी और शिश्न-मुंड के अंदर जो भी मैल सी चिपकी रहती है उसे साफ़ कर दिया जाये। लेकिन अगर शिशु के चार साल के होने तक भी यह चमड़ी शिश्न-मुंड के साथ चिपकी ही रहे तो किसी पैडिएट्रिक सर्जन से एक बार मिलना ठीक रहता है जो कि इस चमड़ी को बिना काटे ही पीछे सरका ( retract) कर सकता है।

अच्छा तो अब इस पोस्ट की दो बहुत ही अहम् बातें ---- पहली तो यह भ्रांति को तोड़ना होगा कि सरकमसिज़न ( सुन्नत, ख़तना) करवा ली और हो गई विभिन्न प्रकार की बीमारियों से शत-प्रतिशत रक्षा ---- इसीलिये बहुत से पुरूष विभिन्न यौन-जनित रोगों से बचाव के लिये कंडोम का इस्तेमाल करना ही बंद कर देते हैं।

इस से कहीं न कहीं हमें किसी रिस्क-बिहेवियर की भनक पड़ती है और लोग इस तरह के रिस्क-बिहेवियर में लिप्त होने के लिये इस सरकमसिज़न को एक क्लीन-चिट ही न समझ लें।

और अब बारी आती है वह बात कहने की जिस के लिये मैंने यह पोस्ट लिखी है ---- इस पोस्ट को पढ़ रहे कितने पुरूष पाठक ऐसे हैं जिन के बेटे सन-सरकमसाईज़ड (uncircumcised) हैं--- ( यह कोई खास बात नहीं कि ख़तना नहीं करवाया हुआ है ) ---- लेकिन उन्होंने कभी अपने बेटे के साथ इस बात की चर्चा ही नहीं की कि शिश्न-मुंड के ऊपर वाली चमड़ी (foreskin) को नियमित तौर पर पीछे सरका कर नहाते समय साफ़ करना निहायत ही ज़रूरी है --- ऐसा करना इसलिये ज़रूरी है कि जो इस ढीली चमड़ी और शिश्न-मुंड के अंदर मैल सी ( जिसे मैडीकल भाषा में smegma- स्मैगमा) इक्ट्ठा होती रहती है अगर उसे नियमित साफ़ न किया जाये तो उस से पेशाब में जलन होनी शुरू हो जाती है और कईं बार तो इस को साफ़ न करने की वजह से मूत्र-मार्ग मे सूजन भी आ सकती है - urinary tract infection (UTI).

इसलिये अनुरोध है कि अपने किशोर बेटे को अगर अब तक यह शिक्षा आपने नहीं दी है तो और देरी मत कीजिये ----यह यौन-स्वास्थ्य का एक अभिन्न अंग है , इसे नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते। और एक सुझाव है कि यह शिक्षा बेहतर तो यही होगा कि बेटे को चार-पांच साल से ही दे दी जाये कि नहाते समय आहिस्ता से शिश्न-मुंड के ऊपरी चमड़ी को थोड़ा पीछे सरका के ( जितना भी आसानी से बिना किसी दर्द के सरकाई जा सके) उस पर लगी मैल को साफ़ कर दिया जाये। और लड़कों को छोटी उम्र से ही इस साफ़-सफ़ाई की आदत लग जाये तो वह भी सारी उम्र अपने यौन-स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने के साथ साथ तरह तरह की भ्रांतियों एवं काल्पनिक तकलीफ़ों से बचे रहते हैं। लेकिन इन लड़कों को यह भी ज़रूर बतायें कि रोज़ रोज़ शिश्न-मुंड ( glans penis) पर साबुन लगाना ठीक नहीं है ----जो स्मैग्मा ( मैल) जमा होती है वह बिल्कुल आहिस्ता से उंगली से ही पूरी तरह उतर जाती है ।

और अगर अब तक आप ने अपने टीन-एज- किशोर बेटे से इस के बारे में बात ही नहीं की है तो क्या करें ------- या तो उसे किसी तरह से यह पोस्ट पढ़वा दें, वरना इस का एक प्रिंट-आउट ही थमा दें ---- और अगर यह काम कर ही रहे हैं तो उस के द्वारा इस स्वपन-दोष वाली पोस्ट का पढ़ा जाना भी सुनिश्चित करे -----------------काश, हम लोगों के ज़माने में भी हमें ये सब बातें बताता ---हम लोगों ने तो यूं ही काल्पनिक बीमारियों की सोच में पढ़ कर ही अपने जीवन के सुनहरे काल के बहुत से वर्ष गर्क कर दिये ------लेकिन अब हमारे बच्चे इस तरह की बातों पर ध्यान देने लगेंगे तो बहुत बढ़िया होगा। आप भी झिझक छोड़ कर यह सब बातें अपने बेटे के साथ सांझी करेंगे तो ठीक रहेगा ----मेरा तो यह लाइफ़ का अनुभव है, आगे आप की मरज़ी -----जैसा ठीक समझें, वैसा करें।

वैसे तो सैक्स-ऐजुकेशन के लेबल के अंतर्गत लिखी मेरी सभी पोस्टें एकदम दिल से लिखी गई हैं ---आप देखें कि अपने बेटे की मैच्यूरिटि के अनुसार कौन कौन सी पोस्टें वह पढ़ सकता है---- कल रात यूं ही मैं इन पोस्टों का लेबल बदलने की कोशिश कर रहा था तो मुझे अचानक एक मैसेज दिखा कि इस लेबल की सभी पोस्टें डिलीट कर दी गई हैं------ मेरा तो सांस ऊपर का ऊपर ही रह गया ----थैंक-गॉड, ऐसा कुछ नहीं था , मुझे समझने में ही कमी थी ---उस का मतलब था कि अब ये पोस्टें बिना लेबल के हैं, इसलिये फिर मैंने उन्हें बारी बारी से सैक्स-ऐजुकेशन लेबल के अंदर रख दिया। मैं घबरा इस लिये गया कि दोस्तो ये पोस्टें मुझे स्वयं पता नहीं मैंने किसी घड़ी में लिख दी डाली हैं ---जो मैं इन दस-ग्यारह पोस्टों में पहले लिख चुका हूं अब कोई कहे कि ऐसा फिर से लिखो, वह मेरे तो बस की बात ही नहीं है, दोस्तो।
शुभकामनायें।

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

अगर मुंह में ही ये हालात हैं तो शरीर के अंदर क्या हाल होगा ?

जिस व्यक्ति के मुंह की तस्वीर आप इस दोनों फोटो में देख रहे हैं, इन की उम्र 50 साल की है और ये पिछले 20-25 सालों से धूम्रपान कर रहे हैं। यह मधुमेह की तकलीफ़ से भी परेशान हैं। जब इन्होंने धूम्रपान शुरू किया तो पहला कश यारों-दोस्तों के साथ बैठे बैठे यूं ही मज़ाक में खींचा था ---और इन्होंने भविष्य में दोबारा कश न खींचने की बात कही थी क्योंकि धुऐं से इन को चक्कर सा आने लगा था।

लेकिन उन्हीं यारों दोस्तों के साथ उठते बैठते कब यह मज़ाक एक बदसूरत हकीकत में बदल गया इन्हें भी इस का पता ही नहीं चला। वैसे तो मेरे पास यह दांत की तकलीफ़ के लिये आये थे ----आप देख ही रहे हैं कि तंबाकू के इस्तेमाल ने इन के मुंह में क्या तबाही कर रखी है !!

ऐसे मरीज़ों की दांत की तकलीफ़ को तो मैं बाद में देखता हूं ---पहले उन्हें तंबाकू की विनाश लीला से रू-ब-रू होने का पूरा मौका देता हूं। यह जो आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं यह इन के बायें तरफ़ की गाल का अंदरूनी हिस्सा है ---- यह भी ओरल-ल्यूकोप्लेकिया ही है ---अर्थात् मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था । आप दूसरी तस्वीर में दाईं तरफ़ की गाल का भी अंदरूनी हिस्सा देख रहे हैं कि उस तरफ़ भी गड़बड़ शुरू हो चुकी है।

अब यह कौन बताये कि कौन सा ल्यूकोप्लेकिया मुंह के कैंसर में तबदील हो जायेगा और इसे ऐसा करने में कितने साल लगेंगे ------ लेकिन फिर भी इस तरह का जोखिम आखिर कौन लेना चाहेगा ? – जब सरेआम पता है कि मुंह में एक शैतान पल रहा है तो फिर भी क्यों इस को नज़रअंदाज़ किया जाये। ऐसी अवस्था को नज़रअंदाज़ करना एक अच्छा-खासा जोखिम से भरा काम है। इसलिये इस का तुरंत इलाज करवाना ज़रूरी है।

लेकिन इस का इलाज कैसे हो ? ---सब से पहली बात है कि जब भी पता चले कि यह तकलीफ़ है तो उसी क्षण से सिगरेट-बीड़ी के पैकेट पर गालीयों की जबरदस्त बौछार कर के ( जैसे जब-व्ही -मेट --jab we met की नायिका ने अपने पुराने ब्वॉय-फ्रैंड पर की थी !! , अगर हो सके तो उस से भी ज़्यादा ....!! ) बाहर नाली में फैंक दिया जाये। मेरे मरीज़ों को मेरी यह बात समझ में बहुत अच्छी तरह से आ जाती है जब मैं उन्हें यह कहता हूं कि देखो, भई, बहुत पी ली बीड़ीयां अब तक ---- अब इसे कभी तो छोड़ोगे, और अब खासकर जब आप को पता लग चुका है इस तंबाकू ने अपना रंग आप के मुंह में दिखा दिया है -----ऐसे में अगर अब भी इस कैंसर की डंडी ( सिगरेट- बीड़ी / कैंसर स्टिक) का मोह नहीं छूटा तो समझो कि धीरे धीरे आत्महत्या की जा रही है।

सिगरेट बीड़ी छोड़ कर इस ओरल-ल्यूकोप्लेकिया के इलाज की तरफ़ ध्यान दिया जाये – अगर तो आप किसी ऐसे शहर में रहते हैं जहां पर कैंसर हास्पीटल है तो वहां पर कैंसर की रोकथाम वाले विभाग में जाकर इस की ठीक से जांच करवायें, ज़रूरत होगी तो उस जगह से थोड़ा टुकड़ा लेकर बायोप्सी भी की जायेगी और फिर समुचित इलाज भी किया जायेगा। यह बहुत ही ज़रूरी है ----लेकिन इलाज से पहले , प्लीज़, कृपया, मेहरबानी कर के धूम्रपान की आदत को लात मार दें तो ही बात बनेगी।

मैं तंबाकू के विरोध में जगह जगह इतना बोलता हूं कि कईं बार ऊब सा जाता हूं –यहां तक कि इस किस्म के लेख लिख कर भी थकने लगता हूं लेकिन फिर वही ध्यान आता है कि अगर हम लोग ही थक कर, हौंसला हार कर बैठ गये तो यह तंबाकू नामक गुंडे का हौंसला तो और भी बुलंद हो जायेगा।

सोचने की बात यह है कि मुंह में तो यह तंबाकू के विभिन्न उत्पाद जो ऊधम मचा रहे हैं वह तो डाक्टर ने मरीज़ का मुंह खुलवाया और देख लिया लेकिन शरीर के अंदरूनी हिस्सों में जो यह तबायी लगातार मचाये जा रहा है, वह तो अकसर बिना किसी चेतावनी के उग्र रूप में ही प्रकट होती है जैसे कि दिल का कोई भयंकर रोग, श्वास-प्रणाली के रोग, फेफड़े का कैंसर, मूत्राशय का कैंसर -----------आखिर ऐसा कौन सा अंग है जो इस के विनाश से बचा रह पाता है ?

इसलिये केवल और केवल एक ही आशा की किरण है कि हम लोग सभी तरह के तंबाकू उत्पादों से दूर रहें -----यह भी एक खौफ़नाक आतंकवादी ही है जो गोली से नहीं मारता, बल्कि यह धीमा ज़हर है, धीरे धीरे मौत के मुंह में धकेलता है। सोचने की बात यह भी है कि आखिर यह सब जानते हुये भी किस फरिश्ते की इंतज़ार कर रहे हैं जो आकर हमें इस शैतान से निजात दिलायेगा।

तंबाकू या स्वास्थ्य -----------------आप केवल एक को ही चुन सकते हैं !!

गुरुवार, 5 मार्च 2009

क्यों हूं मैं खुली बिकने वाली दवाईयों का घोर विरोधी ?

आज सुबह ही बैंक में मेरी मुलाकात एक परिचित से हुई ---अच्छा खासा पढ़ा लिखा , अप-टू-डेट है और बीस-पच्चीस हज़ार का मासिक वेतन लेता है। बताने लगा कि डाक्टर साहब कल शाम को जब मेरे गला खराब हुआ तो मैं फलां फलां डाक्टर से कुछ दवाईयां लेकर आया , तो सुबह तक अच्छा लगने लगा। इस के साथ ही उस ने एक अखबार के कागज़ के छोटे से टुकड़े में लपेटी तीन चार दवाईंयां ---दो कैप्सूल, एक बड़ी गोली, एक छोटी गोली –दिखाईं। पूछने लगा कि क्या यह दवाई ठीक है ?

सब से पहले तो मैंने उसे यही समझाना चाहा कि यार, ठीक गलत का पता तो तभी चलेगा ना जब यह पता लगे कि आप जो दवाईयां ले रहो हो उन में आखिर है क्या !! वह मेरी बात समझ रहा था, आगे कहने लगा कि डाक्टर साहब, लेकिन मेरे को तो इस से आराम लग रहा है। मैंने यह भी कहा कि यार, देखो बात आराम आने की शायद इतनी नहीं है, बात सब से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि आप जैसे पढ़े-लिखे इंसान को यह तो पता होना ही चाहिये कि आप दवाईयां खा कौन सी रहे हैं। फिर वह मेरे से पूछने लगा कि अब आप बताओ कि यह बाकी पड़ी खुराकें खाऊं कि नहीं --- तब मुझे उसे कहना ही पड़ा कि मत खाओ आगे से यह दवाईयां।

आज कल यह बड़ी विकट समस्या है कि नीम हकीम, झोला-छाप डाक्टर और कईं बार तरह तरह के गैर-प्रशिक्षित डाक्टर लोग इस तरह की खुली दवाईयां मरीज़ों को बहुत बांटने लगे हैं। मैं इन से इतना चिढ़ा हुआ हूं कि जब मुझे कोई दिखाता है कि इन खुली दवाईयों की खुराकें ले रहे हैं तो मुझे उन मरीज़ों को इतना सचेत करना पड़ता है कि वे खुद ही मेरी ओपीडी में पडें डस्ट-बिन में उन बची खुराकों को फैंक देते हैं।

इन खुली दवाईयों से आखिर क्यों है मुझे इतनी नाराज़गी ? –इस का सब से बड़ा कारण यह है कि इन दवाईयों के इस्तेमाल करने वाले मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा शून्य के बराबर होती है। उन्हें पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है --- न दवाई का पता, न कंपनी का पता ---- यह तो भई बस में बिक रही दर्द-निवारक गोलियों की स्ट्रिप जैसी बात ही लगती है। उन्हें अगर किसी दवाई से रिएक्शन हो भी जाता है तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि आखिर उन्हें किस दवा के कारण यह सब सहना पड़ा। इसलिये संभावना रहती है कि भविष्य में भी वे दोबारा उसी तरह की दवाईयों के चंगुल में फंसे।

दूसरा कारण है कि आज कल वैसे ही नकली दवाईयों का बाज़ार इतना गर्म है कि हम लोग इतने इतने साल प्रोफैशन में बिताने के वाबजूद कईं बार चकमा खा जाते हैं। अकसर ये नीम हकीमों द्वारा बांटी जाने वाली दवाईयां बहुत ही सस्ते किस्म की, घटिया सी होती हैं ------इनका जितना विरोध किया जाये उतना ही कम है। तीसरा कारण है कि मुझे पूरा विश्वास है कि इन तीन-चार गोलियों-कैप्सूलों में से जो सब से छोटी सी गोली होती है वह किसी खतरनाक स्टिरायड की होती है ----steroid ----खतरनाक शब्द केवल इस लिये लिख रहा हूं कि ये लोग इन बहुत ही महत्वपूर्ण दवाईयों का इतना ज़्यादा गलत- उपयोग करते हैं कि बिना वजह भोले-भाले मरीज़ों को भयानक शारीरिक बीमारियों की खाई में धकेल देते हैं, इस लिये मैं इन का घोर विरोधी हूं और हमेशा यह विरोध करता ही रहूंगा।

नकली, घटिया किस्स की दवाईयों से ध्यान आ रहा है ---पंद्रह-बीस साल पहले की बात है कि हमारा एक दोस्त बता रहा था कि रोहतक शहर में उस के पड़ोस में एक नीम-हकीम अपने बेटे के साथ मिल कर रात के समय खाली कैप्सूल में मीठा सोडा और बूरा चीनी भरते रहते थे और सुबह मरीज़ों का इस से कल्याण किया करते थे। लालच की भी हद है !!--- यहां यह बताना ज़रूरी लग रहा है कि यह खाली कैप्सूलों के कवर बाज़ार में पैकेटों में बिकते हैं –और बस केवल चालीस-पचास रूपये में एक हज़ार रंग-बिरंगे कवर उपलब्ध हो जाते हैं। अब आप ही सोचें कि खुली दवाईयों को खाना कितना खतरनाक काम है ------अब कौन इन खाली कवर में क्या डाले, यह तो या तो डालने वाला जाने या ईश्वर ही जाने !!

मुझे अकसर लगता है कि मेरी जो यह खुली दवाईयों के बारे में राय है शायद इस के विरोध में किसी के मन में यह विचार भी आता हो कि यह तो हाई-फाई बातें कर रहा है , अब अगर किसी मरीज़ को बीस रूपये में दो-तीन दिन की दवाई मिल रही है तो इस में बुराई ही क्या है !! देश में निर्धनता इतनी है कि मेरे को भी इस बात का सही समाधान सूझ नहीं रहा ---- अगर जनसंचार के विभिन्न माध्यम इस तरह की बातों के प्रचार के लिये बढ़-चढ़ कर आगे आयें तो शायद कुछ हो सकता है।

ऐसा मैंने सुना है कि कुछ क्वालीफाईड डाक्टर भी कुछ तरह की दवाईयां ज़्यादा मात्रा में खरीद कर मरीज़ों को अपने पास से ही देते हैं, अब ऐसे केसों में यह निर्णय आप लें कि आप क्या उन्हें यह कहने के लिये तत्पर हैं कि डाक्टर साहब, कृपया आप नुस्खा लिख दें, हम लोग बाज़ार से खरीद लेंगे। यह बहुत नाज़ुक मामला है, आप देखिये कि इसे आप कैस हैंडल कर सकते हैं। मेरे विचार में अगर आप किसी क्वालीफाइड डाक्टर से इस तरह की खुली दवाईयां लेते हैं तो भी आप के पास ली जाने वाली दवाईयों का नुस्खा तो होना ही चाहिये।

कईं बार हास्पीटल में दाखिल मरीज़ों को नर्स के द्वारा खुली दवाईयां दी जाती हैं --- वो बात और है, दोस्तो, क्योंकि उस वक्त हम लोगों ने पूरी तरह से अपने आप को उस अस्पताल के हाथों में सौंपा होता है। बहुत बार तो नर्स आप की सुविधा के लिये गोलियों एवं कैप्सूलों का कवर उतार कर ही देती हैं , मेरे विचार में इस के बारे में कोई खास सोचने की ज़रूरत नहीं होती, यह एक अलग परिस्थिति है।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

बचपन में एक बार हुआ गला खराब बना सकता है दिल का रोगी ...



ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के इस्तेमाल के बारे में बार बार लोगों को सचेत किया जाता है कि आम छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिये इन्हें इस्तेमाल न किया करें लेकिन पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब हो तो तुरंत ऐंटिबॉयोटिक दवाईयों का कोर्स पूरा कर लेने में ही समझदारी है क्योंकि कईं बार एक बार यूं ही खराब हुआ गला सारी उम्र के लिये उस बच्चे को दिल का रोगी बना सकता है।

मैं जिस हास्पीटल में कुछ साल पहले काम किया करता था वहां पर रजिस्ट्रेशन काउंटर के पास ही एक बहुत बड़ा पोस्टर लगा हुआ था कि पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब हो तो उस का ठीक से इलाज करवायें वरना इस से दिल का रोग हो सकता है। दोस्तो, अगर किसी को देर उम्र में किसी अन्य कारण से दिल का रोग हो जाता है तो लोग शायद थोड़ा सब्र कर लेते हैं ---क्योंकि अकसर ऐसे केसों में थोड़ी बहुत जीवन-शैली में किसी चीज़ की कमी रह गई होती है । लेकिन अगर किसी व्यक्ति को बीस-तीस साल की उम्र में ही दिल का कोई गंभीर रोग हो जाये और उस के पीछे कारण केवल इतना सा हो कि बचपन में एक बार गला खराब हुआ था जिस का समुचित इलाज नहीं करवाया गया था ----तो उस मरीज़ को एवं उस के अभिभावकों को कितना बुरा लगता हो , शायद इस की हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर सकते।

मुझे याद है कि जिन दिनों मैडीकल कालेज के मैडीसन के प्रोफैसर साहब ने हमें 1982 में इस बीमारी के बारे में पढ़ाया था तो अगले कुछ दिनों के लिये मैंने भी एक चिंता पाले रखी थी ---क्योंकि मुझे याद था कि बचपन में मेरा भी दो-चार बार गला तो बहुत खराब हुआ था , गले में इतना दर्द कि थूक निगलना भी मुश्किल था---जबरदस्त दर्द !! मेरे से ज़्यादा परेशान मेरे स्वर्गीय पिता जी हो जाया करते थे --- थोड़ा थोड़ा डांट भी दिया करते थे कि स्कूल से टाटरी वाला चूर्ण खाना बंद करोगे तो ही ठीक रहोगे । साथ में किसी कैमिस्ट से दो-चार खुराक कैप्सूल –गोली की ले आते थे और उसे खाने पर एक-दो दिन में ठीक सा लगने लगता था- याद नहीं कभी पूरा कोर्स किया हो।

दोस्तो, जब हम लोग बच्चे थे तो कभी किसी तकलीफ़ के लिये किसी विशेष डाक्टर के पास जाने का इतना रिवाज कम ही था --- इस के बहुत से कारण हैं जो कि मेरे लिखे बिना ही समझ लिये जायें। पता ही नहीं तइतना डर क्यों था कि पता नहीं कितना खर्च हो जाये, कितने पैसे मांग ले ----- और दूसरी बात है कि लोगों इतने ज़्यादा सचेत नहीं थे । चलिये जो भी था, ठीक था, कभी कभी अज्ञानता वरदान ही होती है ----- कम से कम अपने आप से यह कह कर मन को समझाया तो जा ही सकता है।

एक बार तो मैं हिम्मत कर के अपने मैडीसन के प्रोफैसर साहब, डा तेजपाल सिहं जी के पास पहुंच ही गया कि सर, मेरे को भी बचपन में गला खराब तो हुआ था, दवा बस एक-दो दिन ही ली थी , अब जब मैं साइकिल को चलाता हुआ पुल पर चढ़ता हूं तो मेरी सांस फूलने लगती है। मुझे याद है उन्होंने मुझे अच्छे से चैक करने के बाद कहा कि सब ठीक है ---इसे सुन कर मुझे बहुत सुकून मिला था।

अच्छा तो अपनी बात हो रही थी कि पांच से पंद्रह साल के बच्चों का जब गला खराब हो उस का तुंरत इलाज किया जाना बहुत ही ज़रूरी है --- इस का कारण यह है कि कईं बार जिस स्ट्रैपटोकोकाई बैक्टीरिया ( streptococci bacteria) की एक किस्म के कारण की वजह से यह गला खराब होता है – हिमोलिटिक स्ट्रैपटोकोकाई ( haemolytic streptococci) --- उस का अगर तुंरत किसी प्रभावी ऐंटिबॉयोटिक से उपचार नहीं किया जाये तो मरीज़ को रयूमैटिक बुखार हो जाता है --- Rheumatic fever – हो जाता है। इस बुखार के दौरान जोड़ों में दर्द भी होता है ----लोग अकसर इस का थोड़ा बहुत इलाज करवा लेते हैं लेकिन शायद इस बात को भूल सा जाते हैं और इस का कभी ज़िक्र ही किसी से नहीं होता। लेकिन जब वही बच्चा बीस-तीस साल की उम्र में पहुंचता है तो जब उस की अचानक सांस फूलने लगती है ---हालत इतनी खराब हो जाती है कि वह थोड़ा भी चल नहीं पाता तो किसी फिजिशियन के द्वारा चैक-अप करने से पता चलता है कि उसे तो रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease) हो गई ---- उसे के दिल के वाल्व क्षतिग्रस्त हो चुके हैं --- ( valvular heart disease) --- तो उस की दवाईयां आदि शुरू तो की जाती हैं ---- आप्रेशन भी करवाना होता है -----कहने का भाव उस की ज़िंदगी बहुत अंधकारमय हो जाती है – कहां सब लोग आप्रेशन का खर्चा उठा पाते हैं, इतनी इतनी दवाईयां खरीदने कहां सब के बस की बात है ----- बहुत दिक्कतें हो जाती हैं , आप्रेशन जितने समय तक मरीज को ठीक रख पायेगा उस की भी समय सीमा है। पचास साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते ये इसी दिल की बीमारी की वजह से अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं।

मैं अपने हास्पीटल के फिज़िशियन डा हरदीप भगत से इस तकलीफ़ के बारे में कल ही बात कर रहा था ----वह भी यही कह रहे थे कि बच्चों का हर स्ट्रैपटोकोकल सोर थ्रोट ( streptococcal sore throat) केस ही रयूमैटिक बुखार की तरफ़ रूख कर लेगा ---- यह बात नहीं है ---लगभग दो फीसदी स्ट्रैपटोकोकल सोर थ्रोट के केसों में ही यह रयूमैटिक बुखार वाली जटिलता उत्पन्न होती है लेकिन दोस्तो, सोचने वाली बात तो यही है कि जब मैडीकल फील्ड में इस की पूरी जानकारी है कि बच्चों के गले खराब होने के बाद यह कंपलीकेशन हो सकती है तो कोई भी डाक्टर इस तरह का जोखिम पांच से पंद्रह साल की उम्र के बच्चे के साथ लेता ही नहीं है। इसलिये तुरंत उस के लिये चार-पांच दिन के लिये एक ऐंटीबॉयोटिक कोर्स शुरू कर दिया जाता है ।

वैसे हम लोगों के लिये यह कह देना कितना आसान है कि बच्चों के इस आयुवर्ग में गले खराब के लगभग दो फीसदी केसों में यह समस्या उत्पन्न होती है -----क्या करें , आंकड़े अपनी जगह हैं , यह भी तो ज़रूरी हैं लेकिन बात यह भी तो अपनी जगह कायम है कि जिस किसी के बच्चे को यह रोग हो जाता है उस के लिये तो इस का आंकड़ा दो-प्रतिशत न रह कर पूरा शत-प्रतिशत ही हो जाता है।

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि किसी पांच से पंद्रह साल के बच्चे का जब गला खराब हो तो पता कैसे चले कि इस के पीछे उस हिमोलिटिक स्ट्रैपटोकोकाई जीवाणुओं का ही हाथ है --- इस के लिये बच्चे के गले से एक स्वैब ले कर उस का कल्चर- टैस्ट करवाया जाता है। लेकिन अकसर ऐसा प्रैक्टिस में मैं कम ही देखता हूं कि लोगों को बच्चे के खराब गले के लिये इस टैस्ट को करवाने के लिये कहा जाता है -----अकसर डाक्टर लोग किसी बढ़िया से ब्रॉड-स्पैक्ट्रम ऐंटिबॉयोटिक का चार पांच दिन का कोर्स लिखने में ही बेहतरी समझते हैं और मेरे विचार में यह बात है भी बिल्कुल उचित है। फिज़िशियन अथवा शिशुरोग विशेषज्ञ अपने फील्ड में इतने मंजे हुये होते हैं कि उन्हें मरीज़ की हालत देख कर ही यह अनुमान हो जाता है कि इस केस में ऐंटीबॉयोटिक दवाई का पूरा कोर्स देने में ही भलाई है।

मुझे इस तरह के मरीज़ों के इलाज का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है लेकिन मैं एक मैडीकल राइटर होने के नाते इतनी सिफारिश ज़रूर करूंगा कि पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब है, गले में दर्द है , और लार निगलने में दिक्तत हो रही है , साथ में बुखार है तो तुरंत अपने फैमिली डाक्टर से अथवा किसी शिशु-रोग से मिल कर खराब गले को ठीक करवाया जाये ----- दोस्तो, यह केवल खराब गले की ही बात नहीं है, यह उस बच्चे की सारी लाइफ की बात है ---- कितनी बार किसी बच्चे का इस तरह का गला खराब होता है -----शायद बहुत कम बार, लेकिन ज़रूरत है तुरंत उस के इलाज की । उस समय अपनी सूझबूझ लगाना कि यह तो जुकाम की वजह है या यह तो इस ने यह खा लिया या वह खा लिया इसलिये किसी डाक्टर के परामर्श करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है , यह बात बिल्कुल अनुचित है। क्योंकि वह दो-फीसदी वाली बात कब किसी के लिये शत-प्रतिशत बन जाये , यह कौन कह सकता है !!

यह बात बिलकुल सही है कि इस आयुवर्ग में अधिकतर गले खराब के मामले वायरसों की वजह से ही होते हैं जिन की वजह से रियूमैटिक बुखार का जोखिम भी नहीं होता और इन के इलाज के लिये ऐंटीब़ॉयोटिक दवाईयां कारगर भी नहीं होतीं लेकिन वही बात है कि जैसी स्थिति चिकित्सा क्षेत्र की है – न तो मरीज़ अपने गले से स्वैब का कल्चर करवाने का इच्छुक है, और न ही इस की इतनी ज़्यादा सुविधायें उपलब्ध हैं इसलिये बेहतर यही है कि तुरंत अपने डाक्टर से मिल कर उस की सलाह अनुसार किसी प्रभावी ऐंटिबॉयोटिक कोर्स शुरू कर लिया जाये।

वैसे ग्रुप-ए स्ट्रैप्टोकोकल फरंजाईटिस( pharyngitis--- वही आम भाषा में गला खराब) – के लक्षण इस प्रकार हैं ---- अचानक गले में दर्द शुरू हो जाना, लार निगलते वक्त भी दर्द होना, और 101 डिग्री से ऊपर बुखार। बच्चों में तो सिरदर्द, पेट दर्द, दिल कच्चा होना( मतली लगना) और उल्टी भी हो सकती है। अगर यह इंफैक्शन रयूमैटिक बुखार की तरफ़ बढ़ जाती है तो इस के लक्षण हो सकते हैं --- बुखार, दर्दनाक, सूजे हुये जोड़, जोड़ों में ऐसा दर्द जो एक जोड़ से दूसरे जोड़ की तरफ़ चलता है, दिल की धड़कन का बढ़ जाना( palpitations), छाती में दर्द, सांस फूलने लगती है , चमड़ी पर छपाकी सी निकल आना ।

यह मुझे बैठे बिठाये आज इस विषय का ध्यान कैसे आ गया ---- क्योंकि दो एक दिन पहले मैं एक न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ रहा ता कि हमारे जैसे देशों में तो यह रोग है लेकिन अब अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी इन ने अपना सिर फिर से उठाना शुरू कर दिया है।

सोमवार, 2 मार्च 2009

मंदी से बेहाल विदेशी महिलायें बेच रही हैं अपने डिम्ब (eggs)…..

मेरा एक मित्र जो विश्वविद्यालय में जर्नलिज़्म का प्रोफैसर है उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि हिंदोस्तान के भिखारियों का चेहरा सारे संसार में जाना जाता है ---उस का कहना है कि भिखारी तो दूसरे देशों में भी हैं, कुछ लोगों का हाल-बेहाल है लेकिन उन का चेहरा दुनिया के सामने नज़र नहीं आता। इसलिये वह हमें बता रहा था कि जब वह पिछली बार विदेश गया --- देश का मेरे को ध्यान नहीं आ रहा ---- वहां पर उस ने जब एक भिखारी को पांच डालर की भीख दी तो उस ने उस भिखारी की तस्वीर भी खींच ली ----कह रहा था कि केवल इस बात के प्रमाण के तौर पर कि भिखमंगे उन देशों में भी हैं।

कल रविवार की अखबार की वह वाली खबर देख कर मन बहुत बेचैन हुआ जिस का शीर्षक था कि ऑस्कर अवार्ड समारोह से लौटने पर स्लम-डॉग मिलिनेयर के एक नन्हे कलाकार की उस के बाप ने की जम कर पिटाई --- कारण यह था कि वह उसे घर से बाहर आकर टीवी पत्रकारों को इंटरव्यू देने के लिये राज़ी कर रहा था। स्लम-डॉग मिलिनेयर में हिंदोस्तानियों की गरीब बस्ती के हालात सारे संसार ने देखे क्योंकि एक विदेशी ने इस कंसैप्ट पर यह हिट फिल्म बना डाली। हिंदोस्तानी फिल्मकारों को विदेशों के कुछ ऐसे ही मुद्दे पकड़ कर फिल्में बनाने से भला कौन रोक रहा है ---- आइडिया तो यह भी बुरा नहीं कि वहां पर कुछ महिलायें अपने निर्वाह के लिये अपने डिम्ब बेचने को इतनी आतुर हैं।

फिल्म से ध्यान आया कि रयूटर्ज़ की साइट पर इस न्यूज़-आइटम ( यह रहा इस का वेबलिंक) से पता चला है कि आर्थिक मंदी से बेहाल होकर ऐसी महिलायों की संख्या बढ़ रही है जो कि अमेरिकी फर्टिलिटि क्लीनिकों पर जा कर अपने अंडे (डिम्ब) बेचने को तैयार हैं जिस के लिये उन्हें दस हज़ार पौंड तक का मुआवजा दिया जा सकता है।

न्यूज़-रिपोर्ट में एक एक्ट्रैस के बारे में लिखा गया है कि नवंबर के महीने से उसके पास कोई काम नहीं है, इसलिये उस ने कुछ पैसे कमाने के लिये अपने एग्ज़ बेचने का निर्णय किया है। इस रकम से वह अपने क्रैडिट कार्ड बिल और अपने फ्लैट का किराया भर पायेगी। औसतन लगभग पांच हज़ार पौंड इस काम के लिये मिल जाते हैं।

लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी तो है कि केवल किसी महिला की इच्छा ही काफ़ी नहीं है कि वह अपने डिम्ब बेचना चाहती है --- उसे इस काम के लिये योग्य भी होना पड़ता है। जो संस्था इस काम में कार्यरत है उस के अनुसार जितने प्रार्थना-पत्र उसे प्राप्त होते हैं उस में से पांच से सात फीसदी केसों को ही डिम्ब-दान के योग्य पाया जाता है। इस के लिये योग्यता यही है कि डिम्ब-दान करनी वाली महिला बीस से तीस साल की उम्र की हो, सेहतमंद , आकर्षक व्यक्तित्व वाली हो और अच्छी पढ़ी लिखी होनी चाहिये।

जो महिलायें ये डिम्ब-दान करना चाहती हैं उन का मैडीकल, मनोवैज्ञानिक एवं जैनेटिक टैस्ट किया जाता है और साथ ही उन की पृष्ठभूमि की भी जांच की जाती है। अगर किसी महिला का चयन कर लिया जाता है तो उसे तब तक कुछ हारमोन इंजैक्शन लगवाने होते हैं जब तक कि उस के डिम्ब उस के शरीर से निकाले जाने के लिये तैयार नहीं हो जाते।

और ऐसा कहा जा रहा है कि यह काम किसी दूसरी महिला की मदद के लिये किया जा रहा है --- ये किसी दूसरी महिला को एक महान उपहार देने का एक ढंग है जो कि सामान्य तरीके से मां बन पाने में सक्षम नहीं होती। काम बहुत महान है, इस में तो कोई शक नहीं ---- लेकिन यह कहना कि यह उपहार है , किसी ज़रूरतमंद विवाहित जोड़े की मदद करना मात्र है, क्या ये बातें आसानी से आप के गले के नीचे सरक रही हैं ?---- खैर, कोई बात नहीं ---- मैं तो केवल यही सोच रहा हूं कि अगर यह इतना ही नोबल मिशन है, अगर किसी उपहार से इस की तुलना की जा रही है तो यह पांच से दस हज़ार पौंड बीच में पड़े क्या कर रहे हैं। चलिये, हम कुछ नहीं कहेंगे ----- डिम्ब बेचने वाली महिला का भी काम हो गया और उस डिम्ब को कृत्तिम-फर्टिलाईज़ेशन ( इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन) के माध्यम से गृहण करने वाली किसी भावी मां का भी काम चल गया ----- बहुत खुशी की बात है।

एक विचार है ----विदेशी फिल्मकार ने आकर हमारी धारावी झोंपड़-पट्टी का चेहरा सारी दुनिया के सामने रखा और कईं ऑस्कर उस की झोली में आ पड़े ----यार, कोई अपने देश का फिल्मकार भी उन अमीर देशों की कोई ऐसी ही बात लेकर सारी दुनिया के सामने रख कर क्यों नहीं ऑस्कर लाता ? ---एक आइडिया तो मैंने दे ही दिया है ----डिम्ब-दान ( दान ??) करने वाली महिलायों के इर्द-गिर्द घूमती और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देने वाली ऐसी ही किसी थीम को लेकर भी कभी कोई फिल्म बननी चाहिये।

लेकिन जो पुरूष अपने शुक्राणु दान (??) करना चाहते हैं उन्हें इतना ज़्यादा उत्साहित होने की कोई खास वजह नहीं है ----उन्हें हर बार शुक्राणु दान करने के लिये 60 डालर ही मिलते हैं ----------यहां तो मर्द लोग मात खा गये !! …..क्या पता आने वाले समय में इस देश के बेरोज़गार, लाचार, बेहाल युवकों को भी इसी काम से ही कभी कभी अपना काम चलाना होगा !!

स्लम-डॉग मिलिनेयर देख ली है ---- सब से ज़्यादा उन सब बाल कलाकारों की अदाकारी मुझे पसंद आई ----क्योंकि वे सब नन्हे शैतान तो जन्मजात अभिनेता ही हैं , उन सब नन्हे कलाकारों के उजले भविष्य की कामना के साथ और उन के लिये बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ यही विराम ले रहा हूं।

मरीज़ की प्राईवेसी नाम की चीज़ भी तो होती है ----1.

अकसर मैं अपने कॉलेज के जमाने से देख रहा हूं कि मैडीकल फील्ड में अकसर किसी मरीज़ की प्राइवेसी की तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया जाता। बिल्कुल नये नये तैयार हुये बहुत से डाक्टर तो इस के बारे में रती भर सचेत नहीं हैं ----यह नहीं कि मरीज़ की प्राइवेसी की तहज़ीब आती ही नहीं है ---आती तो शायद कुछ लोगों को ज़रूर है लेकिन साठ-पैंसठ साल की उम्र यूं ही बिताने के बाद ।

यार, मैं अगर अपना ब्लड-प्रैशर भी किसी फ़िजिशियन से चैक करवाने जाऊं तो मुझे महसूस होता है कि उस समय उस के चैंबर में कोई और मरीज़ न ही हो, अगर मैं अपनी श्रीमति जी के चैंबर में भी अपने स्वास्थ्य से संबंधित कोई परामर्श उन से लेने जाता हूं तो मेरी इच्छा होती है कि उस समय कमरे में वार्ड-ब्वॉय भी न हो ---- दोस्तो, यह एक स्वाभाविक चेष्ठा है। इस में कोई बुराई तो नहीं है भई। लेकिन अकसर मैं जगह जगह घूमता रहता हूं और यही देखता हूं कि हमें मरीज़ की प्राइवेसी का आदर करने की तरफ़ भी बहुत ही ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।

मुझे लगता है कि इस का मुख्य कारण यह है कि कॉलेज स्तर पर चिकित्सकों को कम्यूनिकेशन स्किल्ज़ नाम का कोई विषय नहीं है ---- मैं समझता हूं कि इस की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में जानता है तो ही वह उसे प्रैक्टिस भी कर सकता है। पता नहीं डाक्टर लोग मेरे इस लेख को किस भाव से लेंगे, लेकिन मेरा तो भई दृढ़ विश्वास है कि मरीज़ों की प्राइवेसी की धज्जियां जगह जगह उड़ रही हैं। यह इतना महत्वपूर्ण एरिया है और किसी भी मरीज़ के इलाज का परिणाम इस से भी बहुत हद तक जुड़ा हुआ है।

मैं भी कभी इस तरफ़ ज़्यादा दिमाग लगाया नहीं करता था ---कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था – 1992 तक ---- उस साल मैंने बंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ से एक वर्ष के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में एडमिशन लिया था। वहां पर हमारा एक विषय था –कम्यूनिकेशन । उसे पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा ----मेरी सोच कर नज़रिया बहुत फैला। और उस कोर्स के बाद मैंने मरीज़ की प्राइवेसी का लगभग पूरा पूरा ध्यान रखा है।

वैसे आप इस प्राइवेसी से क्या समझ रहे हैं ----- इस से मतलब यह है कि जब मरीज़ हमारे सामने अपनी बात रख रहा है तो उस समय किसी तीसरे का उस कक्ष में होने का कोई मतलब है ही नहीं। लेकिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के हास्पीटल में काम करते वक्त इस को पूरा पूरा निभा पाना शायद नामुमकिन सा लगता है--- लेकिन इस में भी मुझे लगता है कि हमारी इच्छा शक्ति की ही कमी होती है कि हम लोग चंद प्रभावशाली लोगों तक अपना यह संदेश पहुंचा ही नहीं सकते कि यार, सारे मरीज़ों की प्राइवेसी एक जैसी ही है। अकसर डाक्टर लोग ऐसी परिस्थितियों में ज़्यादा पंगा मोल लेना के इच्छुक नहीं होते और यूं ही बिना बारी के अंदर घुस चुके ( इन्हे गेट-क्रेशर्ज़ कह दें तो कैसा रहेगा !!) इन चंद so-called “व्ही-आई-पी” (manytimes - "self-styled" as well !!) की वजह से बहुत से आम मरीज़ों के इलाज में व्यवधान ही पैदा होता ही दिखता है।

ज़रा इस तरफ़ ध्यान करें कि ये लोग बिना किसी दूसरे की प्राइवेसी का ध्यान किये हुये अंदर क्यों घुस आते हैं --- सरकारी सैट-अप की बात करें तो शायद इस का कारण यह है कि किसी भी डाक्टर का जो अटैंडैंट हैं वह इतनी कड़ाई से इस नियम का पालन कर ही नहीं पाता क्योंकि शायद वह इस का पालन करना ही नहीं चाहता क्योंकि वह भी सिस्टम से डरता है। उस का डाक्टर उसे चाहे कितनी बार ही क्यों न कह दे कि एक मरीज़ के अंदर होते हुये दूसरा अंदर नहीं आयेगा तो भी इन "व्ही-आई-पी " की बॉडी-लैंगवेज़ ही कुछ इस तरह की होती है कि उस की उस कर्मचारी की कमज़ोर सी इच्छा शक्ति उसी समय उसे बाहर ही रूक कर इंतज़ार करने के लिेये कहने वक्त और भी कमज़ोर पड़ जाती है। यह काम वो करता है लेकिन आम आदमी के साथ ----उस के साथ इतनी कड़की बरती जाती है जितनी कि शायद ज़रूरी भी नहीं होती --- मैंने देखा कि आम आदमी को तो कोई एक बार हल्के से भी कह दे कि आप को अपनी बारी की शांति से प्रतीक्षा करनी होगी और वे दो घंटे टस से मस नहीं होते और न ही किसी तरह का व्यवधान किसी दूसरे के इलाज में डालते हैं ------ मैडीकल फील्ड इन की सहनशीलता को सैल्यूट करती है !!

किसी किसी हास्पीटल में तो डाक्टर के कमरे में घुस कर ऐसा लगता है जैसे कि वह उस का हास्पीटल कक्ष न होकर उस के घर का ड्राईंग-रूम हो ---- वहां पर मरीज़ों का चैक-अप चल रहा होता है ---और साथ ही कुर्सीयों पर वे लोग सजे होते हैं जो लोग मैटर करते हैं ( people who really matter !!) – पास ही कंपनियों के मैडीकल-रैप अपनी नईं दवाईयों की तारीफ़ के पुल बांधने में लगे होते हैं, चाय का दौर चल रहा है ----- और डाक्टर साहब की मल्टी-स्किलिंग देखिये कि वह इस के साथ साथ मरीज़ की छाती को स्टैथोस्कोप से जांच भी रहे हैं और उसे गहरे सांस दूसरी तरफ़ छोड़ने के लिये कह भी रहे हैं।

मैंने तो देखा है कुछ प्राईवेट क्लीनिकों में मरीज़ों की इस प्राइवेसी का सम्मान ज़्यादा होता है --- आप का क्या ख्याल है ?---बहुत से सरकारी हास्पीटलों के डाक्टरों द्वारा भी शायद इस का ध्यान रखा जाता है ----लेकिन जो मेरी आब्जर्वेशन थी वह मैंने आप से साझी की है। जो भी डाक्टर –सरकारी या प्राइवेट प्रैक्टिस में – किसी मरीज़ को यह पर्सनल स्पेस उपलब्ध करवाता है इस से उस का भी काम आसान हो जाता है ---मरीज़ उस में अपने एक सहानुभूति से भरे मित्र की छवि देखने लगता है जो उस की बात सुनने के लिये आतुर है और उस बातचीत के वक्त उस के लिये कोई भी अन्य काम महत्वपूर्ण नहीं है ।
बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं !!