मंगलवार, 18 मार्च 2008

अगर यही विकास है तो.........



अभी सुबह के चार बजे हैं ...और मैं आधे घंटे तक मच्छरों से परेशान होकर.....परेशान क्या, हार कर उठ के बैठ गया हूं। हां, हां, पता है वो पचास रूपये वाली मशीन लगा लेनी थी.....लेकिन गर्मी भी तो अभी दो-तीन दिन से ही थोड़ी महसूस होने लगी है। आज पहली बार एक नंबर पर पंखा चला।
मैं एकदम निठल्ला बैठा हुया इस समय विकास की परिभाषा ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं..........मुझे नहीं याद कि बचपन में हम लोग कभी इन मच्छरों की वजह से उठे हों। अब इस तरह के घर में रहता हूं जिस में एक भी मक्खी नहीं है, ये कमबख्त मच्छर भी सुबह तो दिखते नहीं लेकिन शाम एवं रात के वक्त इन के द्वारा परेशान किया जाना बदस्तूर जारी है। घर के आसपास भी ...लगभग आधे किलोमीटर तक ...गंदगी कहीं भी नज़र नहीं आती।
हम लोग इतने दशकों से सुनते आ रहे हैं ना कि मच्छरों को रोकथाम के लिये फलां-फलां कदम हमें उठाने चाहियें ....और हर बंदा अपने सामर्थ्य के अनुसार इस दिशा में कुछ न कुछ कर के खुश होता भी रहता है। लेकिन फिर भी इन बीमारियों की खान.....मच्छरों को हम लोग मिलजुल कर कंट्रोल नहीं कर पाये.......और बातें हम लोग इतनी बड़ी बड़ी हांकेंगे कि जैसे पता नहीं .............यकीन नहीं हो तो ट्रेन के सामान्य डिब्बे में हो रही गर्मागर्म डिस्कशन में थोड़ा सम्मिलित हो कर देख लीजियेगा। किसी कंपार्टमैंट में तो एक ग्रुप के माडरेटर को यही चिंता सताये जा रही है कि पाकिस्तान का क्या बनेगा....तो दूसरा, यह सोच कर दुःखी है कि इस बार उस का मनपसंदीदा चैनल सब से तेज़ चैनल न बन पाया.........!!
और हां, पहले इन दिनों में ही आंगन में तो नहीं ,लेकिन बरामदे में सोने की तैयारियां शुरू हो जाया करती थीं। और अब बच्चों को तारों से भरे अंबर के तले सोना भी किसी परी-कथा जैसा लगता है...............कोई सो कर तो देखे...या तो मच्छर ही अगवा कर के ले जायेंगे ....और अगर कहीं अगवा होने से बच गया तो सुबह इन के द्वारा काटे हुये के निशान देख देख कर तुरंत मच्छर-मार या मच्छर भगाऊ मशीन को लेने दौड़ पड़ता है।
जो भी हो......जैसा कि सब जगह ही कहते हैं कि इन बदले हुये हालातों के लिये हम सब ज़िम्मेदार हैं.................मुझे सब से ज़्यादा दुःख इसी बात का है कि हम सारा दिन गंदगी को रोना रोते रहते हैं ...............साफ ढंग से नहीं हो पा रही है, सफाई वाले अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं.........लेकिन बात सोचने की तो यह भी है कि हम आखिर क्या कर रहे हैं !!---मुझे पूरा विश्वास है कि अगर हर घर के द्वार पर भी एक सफाईवाला खड़ा कर दिया जाये...तो भी हमारी हालत में सुधार नहीं हो सकता।
और इस तरह की गंदगी जो हमें जगह जगह दिखने लगी है उस का सब से अहम् कारण जो मुझे लगता है कि हमारा लाइफ-स्टाइल कुछ इस तरह का हो गया है कि हम बहुत ज़्यादा कूड़ा-कर्कट जनरेट करने लग गये हैं.............आप को भी याद होगा कि जब हम लोग बच्चे थे तो सारे घर की सफाई होने के बाद जो धूल-मिट्टी इक्ट्ठी हुया करती थी, उसे काम-वाली एक कागज़ पर डाल कर बाहर दरवाजे के बाहर फैंक आती थी और उन दिनों भी इस तरह के बिहेवियर पर बड़ी आपत्ति उठाई जाती थी कि यार, यह भी कोई बार हुई कि गंदगी को मुंह से उतार कर नाक पर लगा लिया.......घर की सफाई कर के सारी गंदगी बाहर डाल दी , यह भी कोई बात हुई !
लेकिन अब तो हम अपने आप को विकसित कह कर खुश होने वाले लोग...कुछ ज्यादा ही उच्चश्रृंखल से हो गये हैं। एक घर का कूड़ा-कर्कट देख कर डर लगता है................किसी के घर का ही क्यों ....मुझे तो अपने घर का ही दैनिक कूडा देख कर हैरानगी होती है कि यार, हम लोग एक दिन में इतना खा जाते हैं....दो-तीन थैलियां रोज़ाना कूड़ा। खैर, हमारे यहां तो नहीं , लेकिन आम तौर पर इस कूड़े में बच्चों के चिप्सों के पैकेट , उन की मनपसंद चीज़ों के पैकेट इत्यादि भी बहुत मात्रा में मिलते हैं....और दुःख की बात तो यही है कि ये उत्पाद हमारे बच्चों की सेहत बिगाड़ने के बाद भी हमारे पर्यावरण को भी विध्वंस करने में नहीं चूकते क्योंकि ये टोटली नान-बायो-डिग्रेडेबल होते हैं।
वैसे जिस तरह से मैं अपनी चारों तरफ़ रोज़ाना बड़े बड़े नाले इन प्लास्टिक की थैलियों की वजह से चोक हुये देखता हूं ना ...इस से मुझे तो लगता है कि आज की ताऱीख में ये थैलियां हमारी बहुत बड़ी शत्रु हैं.........कईं जगह इन पर बैन लगा है लेकिन फिर मैं और आप जब भी इसे मांगते हैं , हमें तुरंत एक थमा ही दी जाती है................यार, दही, दूध, दाल, सब्जी तक इन घटिया किस्म की थैलियों में मिलने लगी है। इन सस्ती थैलियों में लाई गई खाने पीने की वस्तुयें खा कर हम बीमारियों को तो खुला आमंत्रण दे ही रहे हैं ,उस के बाद ये हमारे नालीयां एवं नाले रोक कर सारे शहर में गंदगी फैलाती हैं। और कईं बार तो हमारे पशु-धन ( गऊ-माताओं वगैरह..) के पेट से इन के बंडल निकाले जा चुके हैं ..............हम सब के लिये कितनी शर्म की बात है कि हमें केवल एक कपड़े का थैला उठाने में इतनी झिझक हो रही है और पर्यावरण का जो मलिया-मेट हो रहा है , उसे हम देख नहीं पा रहे हैं या देख कर भी न देखने का ढोंग कर रहे हैं । और हर काम में सरकारी पहल की आस लगाये रहते हैं कि यार, काश हमारे शहर में भी इन चालू किस्म की पालिथिन की थैलियों पर बैन लग जाये........इस बैन में क्या है, आप आज से कपड़े का थैला उठा लीजिये , कसम खा लीजिये कि इन थैलियों को नहीं छूना..............तो बस हो गया बैन....................इस के लिये किसी कानून की ज़रूरत थोड़े ही है। लेकिन कुछ भी हो, अब तो यह सब करना ही होगा .....ऩहीं तो ये मच्छर हमें परेशान करते रहेंगे, गंदगी के अंबार हमारे आस-पास लगते रहेंगे.......और जैसा कि वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइज़ेशन कह रही है कि आज कल नईं नईं बीमारियों दिखने लगी हैं..................वे तो दिखेंगी ही क्योंकि हम लोगों ने निराले निराले शौक पाल रखे हैं ।
लेकिन जो भी हो, इन पालीथिन की थैलियों को बाय-बाय कह ही दिया जाये..............इसी में ही हम सब की बेहतरी है....बेहतरी को मारो गोली............अब तो वह स्टेज रही ही नहीं, अब तो भई इन को बहिष्कार करने के इलावा कोई चारा ही नहीं बचा। और अगर अभी भी मन को समझा न पायें हों तो जब कोई सफाई-कर्मचारी बिना दस्ताने डाले हुये किसी रुके हुये मेन-होल की सफाई कर रहा हो तो थोड़ा उस के पास खड़े होकर अगर हम उस में निकलते हुये तरह तरह के आधुनिकता के , विकास के प्रतीकों को ...और उस के द्वारा लगातार बाहर निकाल कर रखे जा रहे इन्हीं थैलियों के ढेर को देखेंगे तो सारा माजरा समझ में आ जायेगा। लेकिन कितने दिन यह सब ठीक रहेगा..............बस, चंद दिनों के लिये ही ।
चलिये......थोडा सोचें कि आखिर हम ने इस विकास से क्या पाया.......ठीक है फोन पर ढेर बतियाने लगे हैं, घर में ही रेल टिकट निकालने लगे हैं, हवाई जहाज में उड़ने के बारे में घर बैठे ही जानने लगे हैं , चंद मिनट पहले दूर- देश में क्या हुया है जानने लगे हैं, स्टिंग आप्रेशन भी करने लगे हैं..............लेकिन इस मच्छर का भी तो कुछ करो ना यारो। बहुत परेशानी होती है.....चिल्लाने की इच्छा होती है।
वही बात है ना कि जैसे जावेद अख्तर साहब लिखते हैं कि पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, .......तुमने और मैंने क्या पाया इंसा होके !!................कितना उम्दा एक्सप्रेशन है...............वाह भई वाह!!..........लेकिन हम भी तो हम ही ठहरे, अपनी तरह के एक अदद अलग ही पीस, हम ये सब बातें सुन कर भी कहां सुधरने वाले हैं।.....मैं कोई झूठ बोल्या ?...........



8 comments:

Gyandutt Pandey said...
पॉलीथीन तो बहुत बड़ा अभिशाप है। एक बड़ी खोज वह होगी जिसमें पॉलीथीन को बायोडिग्रेडेबल बनाया जा सकेगा। वह अनुसन्धान कर्ता या तो कुनैन/पेनिसिलीन के आविष्कारक की तरह मानवता का सेवक होगा, या बिल गेट्स की तरह सबसे धनी।
उस आविष्कारक की इन्तजार में है यह दुनियां।
दिनेशराय द्विवेदी said...
गंदगी लोगों को ग्राह्य होती जा रही है।
डॉ. अजीत कुमार said...
पता नहीं ब्लोग पढने वाले कितने लोग इस बात की चिंता करते होंगे? या कितने आदमी इस पर अमल करते होंगे...
mamta said...
गंदगी और पॉलीथीन की समस्या जटिल ही होती जा रही है।
गोवा मे सब्जी या फल वाले पॉलीथीन नही देते है क्यूंकि यहां पॉलीथीन मे सामान देने पर दुकानदार को जुर्माना देना पड़ता है।
हालांकि अभी ये पूरी तरह सफल नही है ।
परमजीत बाली said...
बहुत गंभीर मसला है...लेकिन अभी बचाव का कोई रास्ता नजर नही आता।

" मैं कोई झूठ बोल्या?"
कोई ना।
Mired Mirage said...
मैं तो बार बार पॉलीथीन की थेली लेने से मना करती हूँ । सब्जी आदि खरीदने जाती हूँ तो अपनी अलग अलग थैलियों में सब्जी डलवाती हूँ । सब्जी वाले व वालियाँ अवश्य मुझे किसी प्रकार का सनकी मानते हैं । एक रूपये में बिकते शैम्पू, पान मसाले आदि के पाऊच भी बहुत बड़ी समस्या हैं । परन्तु यदि इनके विरुद्ध बोलेंगे तो गरीब विरोधी कहलाएँगे ।
घुघूती बासूती
Padma Srivastava said...
डॉक्टर साहब, देश में गंदगी और पॉलीथीन की समस्या बढ़ती जा रही है।
नीरज गोस्वामी said...
आप सच कह रहे हैं, बचपन में हम लोग घर की लान में चारपाई की एक श्रृंखला बना कर गर्मियों में सोया करते थे और मच्छर का नमो निशान नहीं हुआ करता था अब तो लान क्या छत पर सोये कई दशक हो गए...हम ही अपने इस हाल के लिए जिम्मेदार हैं.
नीरज

सोमवार, 17 मार्च 2008

वो ट्रंक-काल वाले दिन..........मत याद दिलाओ !!


वो ट्रंक-कॉल करने वाले दिन भी क्या दिन थे....चलिए अपनी यादों को ज़्यादा तो नहीं....बस बीस-पच्चीस साल पहले तक ही रीवाइंड कीजिये.....। सबसे पहले चार-पांच किलोमीटर का सफर साईकिल पर तय कर के ज़िले के बड़े डाकखाने पर पहुंचना होता था।

तार-बाबू के काउंटर पर पहुंच कर पहले उस का मूड देखा जाता था। क्योंकि सब कुछ तो उस के हाथ में ही होता था....अगर उसे ग्राहक के आव-भाव कहीं पसंद नहीं आये और उस ने तपाक से कह दिया कि ......मैं कह रहा हूं ना कि जयपुर की लाइन मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं है इस समय..........तो आप उस का क्या लेते ?.....इसलिये सब काम बड़ी तहजीब से चलता था।

बस, आप का थोड़ा सा इंटरव्यू डयूटी पर बैठा बाबू पहले लेता था कि हां, बोलो, कहां करोगे बात........शायद आधे लोगों की स्क्रीनिंग तो इसी स्टेज पर ही हो जाया करती थी कि यूं ही समय बरबाद करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि सुबह से ही बम्बई की लाइनें मिल ही नहीं रही हैं। और मुझे याद है कि कईं बार तो एक फोन करने के लिये दो-तीन दिन उस जीपोओ के चक्कर लगाने पड़ते थे।

सब से पहले बाबू एक फार्म आप को थमा देता था...जिसे भरने के लिये कोई कौना ढूंढना पड़ता था ....लेकिन अभी अभी याद आ रहा है कि कभी कभी वह सिर्फ आप से पूछ लेता था कि आप ने कहां फोन करना है......और वह झट से अपने रजिस्टर में आपका बताया हुया नंबर लिख लेता था......और साथ में यह भी ज़रूर पूछ लिया करता था कि अर्जैंट करना है या आर्डिनरी................क्योंकि इन के चार्जेज़ में भी फर्क हुया करता था। इतनी फार्मैलिटि के बाद फिर वह आप से बीस या पचास रुपये ( दूरी के हिसाब से) ...लेकर अडवांस के रूप में जमा कर लिया करता था।

अब होती थी ....ग्राहकों की तपस्या शुरू......इंतजार की घड़ियां खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं। वह बाबू दन-दना-दन एक के बाद नंबर घुमाता जाता और कुछ कुछ अपने लोकल बस-अड्डे के बाथ-रूम के ठेकेदार वाले अंदाज़ में ग्राहकों को आवाज़ लगा दिया करता कि ....कौन है ग्वालियर वाला , कौन है नासिक वाला.............उस की आवाज़ आने का मतलब होता था कि भई...तेरा फोन लग गया है या घंटी बज रही है ...चल, भाग कर उस कैबिन में जल्दी से घुस जा जहां पर एक पुराने ज़माने का एक काला टैलीफोन सैट पड़ा होता था। और , फोन पर बतियाने वाले मेरे जैसे नये नये खिलाड़ी जो इतनी तेज़ी से बोलते थे कि शायद आस-पास के कस्बों तक आवाज़ वैसी ही पहुंच जाये। लेकिन अकसर सब की बातें खुली होती थीं.....सब को बाहर सुनती थी कि उस के परिवार में क्या क्या चल रहा है !! लेकिन तब हम लोग प्राइवेसी के इतने दीवाने भी नहीं हुया करते थे।

लेकिन यह क्या, यह वाले लाला जी तो आधे मिनट में ही फोन वाले कैबिन से बाहर आ गये और कह रहे हैं कि दूसरी तरफ से आवाज़ ही क्लियर नहीं सुन रही थी। खैर, किसे मंजे हुये अंपायर की तरह उस बाबू का फैसला अकसर फाइनल ही हुया करता था..........कि इस तरह की काल्स को चार्ज करना है या नहीं ....अकसर चार्ज कर ही लिया जाता था।

और यह बहस भी कभी कभी गर्मागर्म दिख जाती थी कि यार, बात तो इतनी छोटी की है और आप कह रहे हो कि तीस रूपये का बिल आ गया है । लेकिन वही बात कि बाबू के आगे सब की बोलती बंद हो जाया करती थी....जितनी मरजी कोई सब तरह के पलस जानने की शेखी बघारता, लेकिन बाबू के आगे उस की एक न चलती । क्योंकि बाबू ने अपने उस पुरानी सी मेज पर एक स्टाप-वाच भी रखी होती थी जिसे वह फोन लगते ही चालू कर दिया करता था...और दिन और रात के चार्जेज़ का भी अंतर हुया करता था। अब लगता है कि यार, हम लोगों में कुछ ज़्यादा ही पेसेंस थी.....एक फोन करने के लिये इतनी माथा-पच्ची.........इन की यादों की बारात में ही मैं खुद को संभाल नहीं पा रहा हूं। लेकिन वे दिन भी बस कुछ अलग ही थे......।

जिन का फोन झट से लग जाया करता था और जो लोग अकसर वहां पर फोन करने आया करते थे , वे भी कहां बड़ी बड़ी छोड़ने से बाज आते थे.....सब अपना अपना ज्ञान फैंकने पर तुले होते थे......तू देख, अगर तेरे को दिल्ली करना है ना फोन तो शाम को छः बजे आया कर, देख पहली ट्राई में ही मिलता है। उस कमरे में पूरी जमघट लगा हुया करता था......क्योंकि औसतन जितने बंदे फोन करने वाले उतने ही उस को एस्कार्ट करने वाले हुया करते थे। वाह, क्या नज़ारा हुया करता था। लेकिन , यह क्या.....यह महिलाओं के साथ भेदभाव तब भी होता था...............बस जनानीयां ते टावीयां-टुक्कीयां हुंदीयां सन...( महिलाओं तो बस कभी कभार ही दिखती थीं...) ...

इतना सब कुछ लिखने का ध्यान इसलिये आया कि आज शाम को अपने एक फ्रैंड को अमृतसर मोबाइल पर दो बार फोन ट्राई किया....लेकिन काल नहीं लगी.....चूंकि वह दोस्त अमृतसर के बड़े डाकखाने के पास ही रहता था तो झट से पुराने ज़माने की सारी बातें एक फ्लैश-बैक की तरह याद आ गईं जिन्हें आप के साथ साझा कर लिया ।

बैठ के त्रिंजनां च सोहनीये.......( जब तुम दूसरी लड़कियों के साथ बैठ कर...)

इस सुपर-डुपर पंजाबी गीत....बैठ के त्रिंजनां च सोहनीये...........पंजाबी मुंडा अपनी सोहनी से पूछ रहा है कि तुम त्रिंजनां( जब मुटियारां इक्ट्ठी हो कर बैठती हैं तो उसे त्रिंजन कहते हैं) ...में बैठ कर जब चादर पर कढ़ाई कर के फूल निकाल रही होती हो तो किस को याद कर के अपने लाल-लाल होंठों को दुपट्टे में छिपा कर हंसती रहती हो। यह भी बताओ कि वह कौन है जिस के लिये तुम इतना श्रृंगार करती हो !...यह भी बताओ कि तुम अंधेरी बन कर किस गबरू के ऊपर फिदा हो गई हो। वह कौन है जिस के लिये तुम अपनी उंगलियों में छल्ले डालने लग गई हो और अमावस्या के मेले पर भी आने लग पड़ी हो।
मुझे तो यह पंजाबी गीत बेहद पसंद है ...आप भी सुनिये।

मरने से पहले जीना ना छोड़ो, यारो !!

किसी बैंक में गये हुये हैं और कितनी भी जल्दी में हों तो क्या किसी के कहने पर कि फार्म भर दें ,तो क्या कोई बंदा मना कर सकता है ?......बिल्कुल भी नहीं.........मैंने भी कभी मना नहीं किया। जब हम लोग फिरोज़पुर में थे तो हम देखा करते थे कि कुछ रिटायर्ड लोग बैंक के बाहर एक छोटी सी मेज लगा कर बुजुर्ग एवं अनपढ़ लोगों के फार्म भरा करता थे। मेरे मन में ऐसे लोगों के लिये बेइंतहा इज्जत है और जो ऐसे लोग बिना किसी भी तरह के स्वार्थ के जन-जनार्धन की सेवा में रमे हुये हैं ....मैं तो इन्हें इश्वर से भी ऊपर मानता हूं......अब मानता हूं तो मानता हूं, यह मेरे वश में नहीं है और किसी धार्मिक स्थल की बजाये ऐसे लोगों को बार-बार नमन करना चाहूंगा।

पता है जब कोई किसी अनपढ़ को या बहुत ही बुजुर्ग को फार्म भरने के लिये मना भी नहीं करता और फार्म भरता भी नहीं ....तो उस खाली फार्म हाथ में पकड़े हुये इंसान को कितनी पीढ़ा होती है। अगर पता नहीं है तो अगली बार जब बैंक में जायें( नहीं, नहीं, विदेशी बैंक में नहीं...अपने ही किसी राष्ट्रीयकृत्त बैंक में !) ...तो कुछ ऐसे ही चेहरे ढूंढ कर पढ़ने की कोशिश कर लीजियेगा। यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जायेगी। और हां, किसी को फार्म भर दें तो वह बंदा इतनी ज़्यादा दुयाओं की बौछार कर देता है कि मेरे जैसे बंदे को अपने ऊपर शर्म आने लगती है...कि यार, ऐसा कौन सा तीर मार दिया है हमने।

अच्छा तो मैं बात कर रहा था कि कुछ बुजुर्ग लोग किसी बैंक में जाकर अपने साथियों की थोड़ी मदद करने को अपना टाइम-पास बना लेते हैं........वैसे कितना सुपर-हिट आइडिया है। सारा दिन वही घिसे-पिटे चैनल देख कर क्या मिलना है........क्या कुछ बदल जायेगा.....तो फिर अगर लिमिट में यह सब देखा जाये तो ही ठीक है ना। अकसर देखता हूं कि रिटायर्ड लोग अनुभव का खजाना होते हैं तो फिर यह कहीं दो-तीन घंटे जा कर किसी कम खुशनसीब की मदद करने में कैसी झिझक..........किसी बैंक में जाया जा सकता है या किसी डाकखाने के बाहर बैठ कर लोगों की मदद की जा सकती है ...किसी कोर्ट कचहरी के बाहर बैठ कर लोगों को रास्ता दिखाया जा सकता है, किसी मरीज से जा कर बात की जा सकती है, कईं लोगों की ड्राफ्टिंग बहुत बढ़िया होती है , वे लोगों की चिट्ठी -पत्री में उन की मदद कर सकते हैं.....बहुत से लोग अपने अपने फन में खिलाड़ी होते हैं और रिटायर्ड होते ही बस अपनी खाट पर बेबसी, आलस की रजाई ओढ़ कर उस इडियट बॉक्स ( हां, वही टीवी और क्या ) ....के सामने डटे रह कर बस अपनी बीपी की अगली खुराक के समय का हिसाब लगाते रहते हैं या तो फिर अपने ब्याज का टोटल मार-मार कर परेशान होते रहते हैं कि यार, यह भी तो अनर्थ ही है ना कि पहले तो मिलते थे 750 रूपये महीने में लेकिन अब उसी पैसे पर 480रूपये मिलते हैं।

लेकिन अगर यही अनुभवी लोग अपने अपने महारत वाले फील्ड में किसी की उंगली थामना शुरू कर दें तो दुनिया की तसवीर ही बदल जायेगी.........दुनिया की तो छोड़ों....इन की लाइफ की तस्वीर ज़रूर बदल जायेगी...शायद धीरे धीरे इन की दवाईयां ही कम हो जायेंगी..........वैसे भी अगर ये सारा दिन बैठे बैठे अपने साथियों की दुआयें ही खातें रहेंगे तो दवाई खाने की इन्हें कहां फिक्र रहेगी।

ऐसे में मुझे अवतार फिल्म का वह गीत ध्यान में आ रहा है .......जिस में बुजुर्ग राजेश खन्ना अपने बुजुर्ग साथियों से कहता है कि यारो, उठो, चलो, भागो, दौड़ो..........मरने से पहले जीना ना छोड़ो, यारो। यू-टयूब पर इस गाने को ढूंढते ढूंढते मनोबल बढ़ाने के लिये इसी फिल्म की एक क्लिपिंग मिल गई .......सो, साथ ही चटका रहा हूं।

रविवार, 16 मार्च 2008

यह हाई-ब्लड-प्रैशर का हौआ क्यों बना हुया है!

लगभग पंद्रह साल पहले जब मैंने सिद्ध समाधि योग प्रोग्राम के एक पेम्फलेट में यह पढ़ा कि डाक्टर लोग मरीज़ों को तो बड़ी आसानी से कह देते हैं कि चिंता मत किया करो। लेकिन वे खुद इतनी ज़्यादा चिंता से ग्रस्त रहते हैं। यह बात मुझे छू गई। वैसे सोचता हूं कि बात में सच्चाई तो है।

अकसर यह भी सोचता हूं कि हमारे शरीर में करोड़ों-अरबों सूक्ष्म रासायनिक प्रक्रियायें हर पल चल रही हैं..........और इन्हीं प्रक्रियाओं के फल-स्वरूप ही हमारे शरीर का इंटरनल-मिल्यू ( internal milieu) तय होता है.......जैसा भी हो......उदाहरण के तौर पर देखें तो अब किसी को ब्लड-प्रैशर है और किसी का बी.पी बिल्कुल परफैक्ट है। इसलिये मैं यह सोचने पर बहुत मज़बूर होता हूं कि रोज़ की एक टेबलेट या कुछ टेबलेट कैसे किसी का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल कर सकती है। लेकिन हां, यह भी ठीक होगा की ब्लड-प्रैशर कंट्रोल तो हो जाता होगा लेकिन इस का क्यूर( इलाज) तो नहीं न हो पाता। मेरा व्यक्तिगत विचार तो यह भी है कि एक अंग्रेज़ी दवाई की गोली से हमारे शरीर रूपी इस बेहद अद्भुत संरंचना को कंट्रोल करना इस दैविक संरचना से पंगा लेने से क्या कम है..............?...इस के बारे में बहुत सोचता हूं !!!

इसीलिये सोचता हूं कि शायद इसीलिये इतने लोग दिखते हैं जो रोज़ाना टेबलेट्स लेते हैं लेकिन फिर भी कंपलेन करते हैं कि उन का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल में नहीं है। सोचता हूं कि इस तरह की तकलीफ़ों के लिये और इन के स्थायी इलाज के लिये कभी भी मेरा इस टेबलेट कल्चर में विश्वास रहा ही नहीं।

यह तो हुई अंग्रेज़ी दवाईयों वाली बात................आयुर्वैदिक दवाईयों का या होम्योपैथिक दवाईयों का मुझे कोई खास ज्ञान है नहीं ......और ये ब्लड-प्रैशर को कंट्रोल करने के लिये भी जिन अंग्रेज़ी दवाईयों की बात मैंने की है...ये शत-प्रतिशत मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जो कि आज मैं अपनी खुद की डायरी पर ही लिख रहा हूं। मैं यह भी तो नहीं चाहता कि मेरी यह बात पढ़ कर ब्लड-प्रैशर के मरीज़ अपनी अंग्रेज़ी दवाईयां फैंक दें और फिर जब इस के परिणाम-स्वरूप कुछ और ही जटिलतायें पैदा हो जायें तो बीच-बाज़ार मेरा गिरेबान पकड़ कर मुझ से जवाब मांगें कि लिखता तो बहुत कुछ है, अब बोल.....अब जवाब दे हमें कि अंग्रेज़ी दवाईयां लेते रहें कि नहीं !!

जो भी हो मेरी जो भी बेबाक राय थी, मैंने आज डायरी में लिख दी है। इस में तो कोई शक है ही नहीं कि एमरजैंसी को टैकल करने के लिये एलोपैथिक दवाईयों का कोई जवाब नहीं है.........ऐसा मैं समझता हूं............जब कोई हार्ट-अटैक का मरीज़ आता है , जब किसी का ब्लड-प्रैशर बहुत ही ज़्यादा बढ़ जाता है तो किस तरह से अकसर एलोपैथिक दवाईयां उसे तुरंत ही लाइन पर ले आती हैं।

मेरी बात लगता है कि थोड़ी कंफ्यूज़िंग सी लग रही है....सो, सीधी सीधी बात करता हूं कि मैं किसी भी ब्लड-प्रैशर के मरीज़ को अपनी कोई भी दवाई बंद करने की सलाह कतई नहीं दे रहा हूं....लेकिन मैं इतना ज़रूर कह रहा हूं कि उन्हें अपनी जीवन-शैली में भी उचित परिवर्तन करने होंगे..................अपना वज़न कम करना होगा, नमक का इस्तेमाल कम करना होगा, रोज़ाना सैर और शारीरिक व्यायाम/ योग-प्राणायाम् करना होगा, खाने-पीने में एहतियात बरतनी होगी, और सब से ज़रूरी ....बेहद ज़रूरी है ..........कि रोज़ाना मैडीटेशन करनी ही होगी।

इन लाइफ-स्टाईल से संबंधित बीमारियों को दूर रखने के लिये मैडीटेशन का बहुत बड़ा रोल है.....और ध्यान रहे कि इस पुरातन विद्या को गुरू-शिष्य परंपरा के अंतर्गत ही किसी गुरू से ही ग्रहण किया जा सकता है। यह निहायत ही ज़रूरी है..................जैसे हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिये स्नान ज़रूरी है , उसी तरह से हमारे मन को साफ-स्वच्छ रखने के लिये भी मैडीटेशन बहुत---बहुत ----बहुत .....बहुत ही लाज़मी है। यह मेरा पिछले 14वर्ष का व्यक्तिगत अनुभव है .....और आज कल तो विश्व के चोटी के वैज्ञानिक इस की हामी भर रहे हैं। मेरे विचार में हमारी लाइफ़ में प्रतिदिन नियमित तौर पर मैडीटेशन करना ही सब से महत्वपूर्ण बात है।

और हां, मैं कह रहा था कि ब्लड-प्रैशर वाले मरीज़ अपनी दवाई तो न छोड़ें, लेकिन ऊपर बताये गये सब प्रकार के जीवन-शैली में बदलाव ज़रूर कर लें.....किसी तरह के तंबाकू, शराब या किसी भी नशे को पास न फटकने दें और एक बात और भी बहुत ज़रूरी है कि अपने ब्लड-प्रैशर को नियमित चैक भी करवाते रहें ......तो यकीन मानिये.....आप का इलाज कर रहे चिकित्सक धीरे धीरे आप की ब्लड-प्रैशर की दवाईयां कम करने या तो धीरे धीरे बंद करने पर ही बाध्य हो जायेंगे।

प्राब्लम तो बस यही है कि हम तो टस से मस होना नहीं चाहते....किसी तरह का बदलाव अपने जीवन में हमें गवारा है ही नहीं..............हम तो अपने कंफर्ट-ज़ोन के साथ इस तरह चिपके हुये हैं कि बस............लेकिन हां, ब्लड-प्रैशर कंट्रोल वाली गोली टाइम पर ज़रूर खा लेते हैं...............लेकिन अकेली यह एक अदद बेचारी गोली क्या कर लेगी ?

आयुर्वैदिक दवाईयों को मैं बहुत बढ़िया मानता हूं...........और उन से बढ़िया बाबा रामदेव जी की बातों को..............यह बाबा जी भी एक करिश्मा ही हैं.............करोड़ों लोगों को वे अपने जीवन से प्यार करना सिखा रहे हैं। मुझे स्वयं उन को सुनना बहुत भाता है। वैसे चिकित्सा क्षेत्र में अगर किसी को उस की महान उपलब्धियों के लिये नोबेल-पुरस्कार देना हो तो मेरे ज़हन में बाबा रामदेव का नाम सर्वोपरि आता है......सिम्पली ग्रेट !! लेकिन ये असली बाबा लोग कहां इन दुनियावी तगमों के पीछे भागते हैं !

पता नहीं बात अकसर लंबी हो जाती है...............लेकिन सब से महत्वपूर्ण बात वही है कि ज़्यादातर केसों में यह ब्लड-प्रैशर का हौवा हमारा खुद का ही तो पैदा किया होता है......हम ज़रा से सजग हो जायें....अपनी जीवन-शैली को थोड़ा टटोलने लगें तो इसे( हाई बीपी) भागने का रास्ता नहीं मिलता। लेकिन सब से अहम् बात हमें हमेशा याद रखनी होगी...............मैडीटेशन...मैडीटेशन ...मैडीटेशन.............जब तक हमारे मन पर विभिन्न प्रकार की कुंठाओं के परिणाम स्वरूप हर पल जम रही मैल की सफाई भी प्रतिदिन नहीं होगी तो कैसे हो पायेगा हमारा मन एकदम क्लियर....................मुझे अपने गुरू जी की बात इस समय याद आ रही है...................As a matter of fact all religions started with meditation….but somehow they all ended in giving prescriptions for actions !......कितनी सही बात है !

एक बात और भी है ना कि पुरानी बातों के बोझ को हम लोग जो हमेशा अपने दिल पर लादे रखते हैं ना ....यह भी हमें ढंग से जीने नहीं देता। इसलिये आज की बात आज ही भूल जानी चाहिये..............कल का नया दिन नईं उमंगे, नये सपने , ऩई अवसर ले कर आ रहा है..............तो चलिए बांहे पसार कर उस के स्वागत की तैयारी करें...............वैसे , इस गाने में अमिताभ बच्चन भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रहे हैं .........सुनिये और कर डालिये अपने कुछ गम गलत ….अभी...इसी वक्त !!!!!

इक दुश्मन जो दोस्तों से भी प्यारा है !!

रविवार की इस सुस्त सी सुबह में पुराने वाली दुश्मन फिल्म का यह राजेश खन्ना और मुमताज़ पर फिल्माया गया गीत रविवार की इस अल्साई, सुस्ताई को छू-मंतर करने के लिये काफी है ......................यह सुन कर आप एकदम चकाचक न हो जायें तो कहियेगा......................


शनिवार, 15 मार्च 2008

बच्चों पर विश्वास नहीं करेंगे तो बहुत मुश्किल हो जायेगी !


मैं सोच रहा हूं कि जिस तरह से इंटरनेट का यूज़ दिन प्रति दिन बढ़ रहा है ....यकीनन इस के बेइंतहा फायदे तो हैं ही......लेकिन इस के दुष्परिणामों से कैसे हम अपने बच्चों को कच्ची उम्र में बचा सकते हैं। मेरे को तो एक ही ...केवल एक ही उपाय सूझ रहा है कि हमें अपने बच्चों पर विश्वास करना सीखना होगा। ज़माना बहुत बदल गया है और हमें अपने बच्चों पर विश्वास कर के उन का विश्वास जीतना ही होगा।
हां, एक बात मैंने कुछ दिन पहले कही थी कि अपने घर में इंटरनैट कनैक्शन को किसी कॉमन सी जगह जैसे कि लॉबी वगैरह में रखना एक अच्छा आइडिया है।
बात एक और भी है ना कि हमें अपनी उदाहरण से लीड करना होगा.....अगर हम चाहते हैं कि जब हम नैट पर बैठे हों तो बच्चे पास तक न फटकें तो इस से बच्चे चाहे छोटे ही हों उन्हें एक गलत मैसेज जाता है। उन्हें लगता है कि यार, अगर बापू ऐसा कर सकता है, अलग बैठ सकता है ..तो मैं क्यों नहीं ? उन में भी विद्रोह करने की एक ज्वाला सी धधकने लगती है....वैसे बात है भी तो सही...कायदे-कानून सब के लिये एक जैसे ही हों तो ही बात ठीक लगती है।
आज भी जब मैं अपने बच्चों को नेट की हिस्ट्री उड़ाने के बारे में कभी कभार पूछता हूं तो मुझे बहुत अपराध बोध होता है...मैं पहले अपने आप से पूछता हूं कि क्या मैंने यह नेट-हिस्ट्री खुद कभी नहीं उड़ाई......चाहे कभी भी यह काम किया हो , लेकिन किया तो था ना तो फिर अपने इस तरह के डबल-स्टैंडर्ड्ज़ मुझे परेशान करते हैं। और आज तो बच्चों के पास इस तरह की सैटिंग्स को बार-बार बदलने के लिये अपने ही कुछ टैक्नोलॉजी से जुड़े हुये कारण भी तो होंगे ( और हैं !)..................सीधी सी बात है कि मुझे तो कभी इस तरह के प्रश्न पूछने उन से ठीक लगते नहीं हैं..........बाकी सब की अपनी अपनी राय हो सकती है। मुझे लगता है कि मैं इस तरह के पुलिसिया सवाल पूछ कर उन के मन में अविश्वास के बीज रोप रहा हूं।
लेकिन मुझे लगता है कि बच्चों को अगर ऐसा लगता है कि उन के पेरेन्ट्स उन के ऊपर इतना ज़्यादा विश्वास करते हैं तो वे कभी भी (कुछ अपवाद हो सकते हैं) उन के विश्वास को ठेस पहुंचाने के बारे में सोचेंगे भी नहीं।
मुझे याद है कि मुझे नेट से जुड़े लगभग 10 साल होने को हैं.....शुरू शुरू में मेरा बेटा मेरे साथ कभी कभी जाया करता था....उस ज़माने में मैं तो चैटिंग वैटिंग में मसरूफ रहता था और मैं बेटे को एक कंप्यूटर पर बिठा देता था ...............मुझे आज भी वो कहता है कि पापा, आप ने भी मेरा शुरू शुरू में बड़ा उल्लू बनाया, खुद तो बैठ जाते थे ...नेट पर और मुझे कंप्यूटर के सेवड़ पेजिज़ देखने में लगा देते थे। जी हां, वह 1999 का ज़माना भी तो वह था कि जब इंटरनेट पर चैटिंग को बड़ी अजीब सी बात माना जाता था। लेकिन शायद हम लोगों ने यह चैटिंग करते करते ही इंटरनेट के बेसिक्स सीखे।( और लोग समझते हैं कि इन हिंदी ब्लोगरों की सीधी एंट्री ही चिट्ठों पर ही हुई है) !!...
तब तो हमें यह भी नहीं पता होता था कि इन सर्च-वर्च इंजनों का क्या फंडा होता है.............बस चैटिंग का ही पता था। मुझे याद है कि एक बार मेरा बास अपने बच्चे की किसी बिमारी के बारे में बात कर रहा था और मैं यह पूछना चाह रहा था कि आप ने यह सब नेट पर देखा होगा...............लेकिन मेरे मुंह से ये शब्द निकले थे........सर, आप को यह नेट में चैटिंग से पता चला होगा...............उस ने मुझे कोई खास जवाब नहीं दिया था।
विश्वास के इलावा अब कोई चारा नहीं दिखता...........मैं सोच रहा हूं कि जब केबल टीवी आया तो लगभग 15 साल पहले कुछ चैनल बच्चों के लिये लॉक करने की बहुत बातें हुईं.....अब इंटरनेट पर कुछ तरह की साइट्स ब्लाक करने की बात हो रही है ....लेकिन टैक्नोलॉजी इतने ज़ोरों से बढ़ रही है कि इतना सब कुछ करना माथा-पच्ची के सिवाय कुछ नहीं लगता।
और इसी टैक्नोलॉजी के कारण ही बच्चे हमारे से बहुत आगे निकल चुके हैं....अब मुझे ही देखिये...केवल लिखने का काम मेरा है ...बाकी सब कुछ मुझे मेरे बेटे ने सिखाया ...यहां तक कि मंगल फांट के बारे में भी , इस ब्लोगवाणी को , चिट्ठाजगत को उसी ने कहीं ढूंढ निकाला......मेरे ब्लोग्स को ऐग्रिगेटर्ज़ पर डालने का आइडिया भी उसी का था जो उस ने बखूबी किया.............इन पोस्टों के फांट्स वगैरह के बारे में भी मुझे बताता रहता है और ये जो मेरी विभिन्न बलोग्स पर आप यू-टयूब से लिंक किये हुये तरह तरह के फड़कते हुये गीत सुनते हो ना ,इन सब को अपनी पोस्ट पर लगाने की विधि भी इस ने ही मेरे को बताई है। अभी सोच रहा हूं कि इस की नेट-अक्सेस पर अगर मैंने भी तरह तरह के अंकुश लगाये होते तो यह सब मेरे लिये भी कैसे संभव हो पाता। ऐसा है ना कि हम लोगों के पास टाइम नहीं होता और अपने बच्चों से कुछ भी सीखने में हमें कभी किसी तरह का कंप्लैक्स भी नहीं होता।
और हां, बात हो रही थी विश्वास करने की ..........सोच रहा हूं कि मेरे बीजी-पापा जी ने भी मुझ पर बेइंतहा विश्वास किया ....और मैंने भी कभी भी उन के इस विश्वास को ठेस नहीं पहुंचाई ( एक नावल के इलावा !) ….हुया यूं कि जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तो कहीं से एक नावल मेरे हाथ लग गया ....सारी ज़िंदगी में केवल वह एक ही नावल पढ़ा है.......उस के कुछ पन्ने पढ़ने मुझे बहुत अच्छे लगते थे( जितना बता रहा हूं उतने से ही इत्मीनान कर लीजिये.......!!)..और मैंने उन्हें फोल्ड कर के रख छोड़ा था...........और अकसर उस नावल को छिपा कर ही रखता था ...और जैसे ही मौका मिलता तो अपनी किसी बड़ी सी किताब के अंदर छिपा कर उस के वही पन्ने बार बार पढ़ कर अच्छा लगने लगा था। और मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब घर में कोई भी नहीं होता था तो मैं उस नावल को बहुत आराम से पढ़ता था। लेकिन मैं भी किधर का किधर निकल गया.............शायद यह सब याद करना भी ज़रूरी था ....और इस के साथ यह भी कि वो पुराने दिन वो थे जब मनोहर कहानियां, मायापुरी पढ़ना छोटे बच्चों के लिये ठीक नहीं समझा जाता था। लेकिन जो मज़ा उन दिनों ये मनोहर कहानियां ( खास कर एक दो विशेष कहानियां...) और वह भी बार-बार पढ़ कर आया करता था उस के क्या कहने ।
बात कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई है ना तो मैंने सोचा कि इस विषय के अनुरूप मेरी बेहद पसंदीदा फिल्म रोटी का एक गीत आप की तऱफ़ फैंकू...............यार हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो, जिस ने पाप ना किया हो , जो पापी न हो......लेकिन उस का लिंक कापी न हो सका किसी ने उस पर पहरा लगा रखा है , सो , अगर विचार बने तो यू-ट्यूब पर जा कर सर्च में केवल तीन शब्द ....यार हमारी बात ....ही लिख दीजियेगा वह गीत प्रकट हो जायेगा। इतना ज़बरदस्त गीत है कि सब कुछ इतने इफैक्टिव तरीके से कह देता है ...........ज़रूर सुनियेगा और बतलाईएगा कि कैसा लगा।

असां ते तैनूं रब मनिया....( हम ने तो तुम्हें रब मान लिया है !)....

इस पंजाबी गाने के बोलों पर ज़रा ध्यान दीजिये.....तू माने या न माने दिलदारा...असां ते तैनूं रब मन्निया.........यह जबरदस्त पंजाबी गीत को गाने वाले हैं वडाली बंधू.............इन की सूफी गायकी भी गज़ब है ....इन को लाइव देखने का एक बार अवसर मिल चुका है और ये दोनों भाई इस कद्र समां बांध लेते हैं कि श्रोताओं का मन करता है कि बस समां यहीं पर ही थमा रहे। ये दोनों भाई जितने चोटी के गायक हैं , उतने ही सरल स्वभाव के एवं सादी जीवन-शैली जीने वाले हैं ..............जब भी मैं इन के गाये हुये गीत सुनता हूं तो मुझे बेहद सुकून महसूस होता है । इन की सूफी गायकी की जितनी भी तारीफ की जाये कम है।

एक बार ये अपने एक सूफी गीत के द्वारा कुछ इस तरह की बात बता रहे थे.......कि एक बार किसी संत को कुछ छोटे छोटे बच्चों ने कुछ ऐसा कह दिया कि वह भड़क उठा और उस ने उन को बुरा भला कहना शुरू कर दिया.....और साथ ही कुछ बच्चे एक बेरी के पेड़ पर पत्थर मार रहे थे और पेड़ से बेर नीचे गिर रहे थे..............तब, एक फकीर उस बाबा को कहता है कि देख, ये छोटे-छोटे बच्चे तो रब का रूप हैं..........इन्होंने तेरे साथ थोड़ी सी मस्ती की है और तूने भड़क कर इन्हें बददुआयें दे डाली हैं..............और इस बेरी का बड़प्पन देख.....ये इन के पत्थर खा कर भी इन्हें मीठे मीठे बेर खिला रही है।

यकीन मानिये....मैं अपनी बात तो ज़रा भी सही ढंग से कह नहीं पाया हूं ....लेकिन इन के गायन में क्या बात होती है कि जब भी इन को पूरे मन से सुनते हैं ना तो लू-कंडे ( रोंगटे) खड़े हो जाते हैं। और हां, जब यह बेरी वाली बात ये बंधु गा कर सुना रहे थे और मेरे साथ और भी सैंकड़ों दर्शकों की आंखें भीगी हुईं थीं।
चलिये ,इन की गायिकी का एक नमूना सुनते हैं. ..........और खो जाते हैं किसी दूसरी ही दुनिया में । यही तो सूफी गायकी की खासियत है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

आज की हैल्थ-टिप.....मेरी आपबीती !

कल का दिन मेरे लिये बहुत बेकार था....कल सुबह जब मैं पांच बजे के करीब उठा तो सिर में बहुत ज़्यादा दर्द था,सोचा कि बस यूं ही मौसम में ठंडी की वजह से हो रहा होगा....कुछ समय में ठीक हो जायेगा। लेकिन यह तो अलग किस्म का ही सिर दर्द था। खैर, सिर को बांध कर लेटना चाहा लेकिन इस से भी चैन कहां पड़ना था। सोचा, ऐसे ही ठंड-वंड लग गई होगी....परसों रात को यमुनानगर से 15-20 किलोमीटर दूर गांव कागोवाली में एक सत्संग में सम्मिलित होने गया था...आते समय कार की खिड़की खुली थी , सो ऐसा लगा कि ठंडी हवा लग गई होगी। लेकिन ऐसी ठंडी हवा भी इतनी तकलीफ़ नहीं देती जितनी मुझे कल हो रही थी।
खैर, तब तक घर के सब मैंबरर्ज उठ चुके थे। मिसिज़ ने कहा कि कुछ चाय-बिस्कुट ले लो....मैंने हां तो कह दी लेकिन जब चाय तैयार हो गई तो उस की तरफ़ देखने की इच्छा नहीं ! खैर,सुबह सुबह ही मुझे बार बार मतली सी आने लगी...बार-बार सिंक पर जाता और थोड़ा सा हल्का हो के आ जाता। लेकिन फिर वही समस्या....बस, चैन नहीं आ रहा था, और सिर तो जैसे फटा जा रहा था। ( हां, यहां एक बात शेयर करना चाहता हूं कि मुझे कभी भी उल्टी करने वाले मरीज़ से घिन्न नहीं आई.....पता नहीं, जब कोई मरीज़ में रूम में भी उल्टी कर देता है तो मुझे बिलकुल भी फील नहीं होता, मुझे उस से बहुत सहानुभूति होती है और मैं उसे कहता हूं ....कोई बात नहीं, आराम से कर लो...........पता नहीं, मुझे कुछ अपना पुराना टाइम याद आ जाता है ).........खैर, हास्पीटल तो जाना ही था.....क्योंकि कल मैं हास्पीटल के चिकित्सा अधीक्षक का कार्य भी देख रहा था।
हस्पताल में बैठ कर भी हालत में कुछ सुधार हुया नहीं। एक एसिडिटी कम करने के लिये कैप्सूल लिया तो, लेकिन वह भी चंद मिनटों के बाद सिंक में बह गया। खैर, श्रीमति जी ने भी कह दिया कि अकसर सिर-दर्द होने लगा है, कहीं न कहीं लाइफ-स्टाईल में गडबड़ तो है ही ना। मुझे पता है कि वे यही कर रही थीं कि नियमित सैर-वैर के लिये जाते नहीं हो, योग करते नहीं हो। खैर, उस समय तो कुछ सूझ नहीं रहा था।
जैसे जैसे दोपहर बाद एक बजे घर आ कर लेट गया....लेकिन कुछ खाने की इच्छा नहीं हो रही थी। जूस मंगवाया ...लेकिन जूस की दुकान बंद होने की वजह से अपना रामू गन्ने का रस ले आया । लेकिन उसे भी पीने की इच्छा नही हुई। । बस ,सिर दुखता ही रहा और बीच बीच में मतली सी होती रही।
यह सब स्टोरी बताना ज़रूरी सा लग रहा है इसीलिये लिख रहा हूं। खैर, कुछ समय बाद समय में आया कि घर में पिछले दो-तीन दिन से बाज़ार का आटा इस्तेमाल हो रहा था......बस सब कुछ समझ में आते देर न लगी। झट से समझ में आ गया कि क्योंकि पिछले दो-तीन दिनों से ही पेट नहीं साफ हो रहा था, रबड़ जैसी सफेद रोटी देख कर उसे खाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी और दो -तीन दिन से ही एसिडिटी की तकलीफ भी रहने लगी थी। हमारे यहां किसी को भी बाज़ार के लाये आटे की रोटी कभी नहीं सुहाती ........सब सदस्य इस के घोर विऱोधी हैं। हम जब बम्बई में पोस्टेड थे तो हमारी सब से बड़ी समस्या ही यही थी कि बाजार में हमें कभी ढंग का आटा मिला ही नहीं थी। बंबई सैंट्रल एरिया में एक स्टोर में पंजाबी आटा मिल तो जाता था.........लेकिन उस में भी वो बात न थी। खैर, जब हम वापिस पंजाब में आये तो हमे (खासकर मुझे) इस बात की तो विशेष खुशी थी कि अब आटा तो ढंग का खायेंगे।
पिछले दो तीन से घऱ मे बाजार का आटा इसलिये इस्तेमाल हो रहा था कि दो -तीन बार जब भी रामू चक्की पर गया थो तो बिजली बंद ही मिली। ऐसा है न कि हम सब को मोटे आटे की आदत पड़ चुकी है। इसलिये हमें बाज़ार में यहां तक की आटा चक्की में मिलने वाला भी पतला आटा कभी भी नहीं चलता .....कहने को तो वे इसे पतला आटा कह देते हैं...ऐसे लगता है कि इस का दोष केवल इतना ही है कि इस को ज़्यादा ही बारीक पीसा हुया है ...लेकिन नहीं , इस का तो पहले इन्होंने रूला किया होता है जिस के दौरान आनाज के दाने की बाहर की चमड़ी उतार ली जाती है......और इसे रूला करना कहने हैं....और जो झाड़ इसे रूला करने की प्रक्रिया में प्राप्त होता है ये चक्की वाले इसे अलग से बेचते हैं......मजे की बात यह है कि लोग इसे जानवरों के लिये खरीद कर ले जाते हैं...यह गेहूं का एक पौष्टिक हिस्सा होता है। मुझे इस का भरा हुया पीपा एक चक्की वाले ने दिखाया भी था।
मैंने स्वयं कईं बार लोगों को चक्की वाले को यह कहते सुना है कि रूला ज़रूर कर लेना..पीसने से पहले। क्योंकि उन्हें भूरा आटा पसंद नहीं है.....और हां, बाज़ार में जो आटा बिकता है उस में से चोकर भी निकला होता है .....सो , हमारे सामने एक तरह से मैदा ही तो रह जाता है जिस को सफेद रोटियां देख कर आज कल लोग ज्यादा खुश होने लगे हैं। लेकिन यह ही है हमारी सब की ज़्यादातर तकलीफों की जड़.......विशेषकर ऐसा आटा खाने वाले के पेट ठीक से साफ होते नहीं है, जिस की वजह से सारा दिन सिर भारी-भारी सा रहता है और मन में बेचैनी सी रहती है।
कुछ साल पहले पंजाब के भोले-भाले किसानों के बारे में एक चुटकुला खूब चलता था......जब शुरू शुरू में भाखड़ा नंगल डैम के द्वारा बिजली का उत्पादन शुरू हुया था तो भोले भाले किसान यह कहते थे.....लै हुन , पानी चों बिजली ही कढ़ लई तां बचिया की ( ले अब अगर पानी से बिजली ही निकाल ली गई तो बचा क्या !)........लेकिन अफसोस आज हम लोग बाज़ार से ले लेकर जिस तरह का आटा खा रहे हैं उसके बारे में हम ज़रा भी नहीं सोचते कि यार, जिस गेहूं का रूला हो गया, जिस में से चोकर निकाल लिया गया......उस से हमें तकलीफें ही तो मिलने वाली हैं। क्या है ना कि गेहूं में मौजूद फाईबर तो उस की इस बाहर वाली कवरिंग (जिसे रूला के द्वारा हटा दिया जाता है) ...और चोकर में पड़ा होता है जो कि हमारे शरीर के लिये निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि इस तरह के अपाच्य तत्व हमारी आंतड़ियों में जाकर पानी सोख कर फूल जाते हैं और मल के निष्कासन में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।
इसलिये जिन का भी पेट साफ नहीं होता उन को हमेशा मोटा आटा .....जिस में से कुछ भी निकाला न गया हो.....खाने की ही सलाह दी जाती है। इसके साथ ही साथ अगर दालों सब्जियों का प्रचुर मात्रामें सेवन किया जायेगा तो क्यों नहीं होगा यह पेट साफ। ऐसे ही टीवी पर अखबारों मे पेट साफ करने वाले चूरनों की हिमायत करने वालों की बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दिया करें।
......हां, तो मैं इसी बारीक आटे की वजह से बिगड़ी अपनी तबीयत की बात सुना रहा था....तो शाम के समय पर तबीयत थोड़ी सुधरी थी कि थोड़े से अंगूर और कीनू का जूस पी लिया.....लेकिन हास्पीटल जाते ही उल्टी हो गई । बस , इंजैक्शन लगवाने की सोच ही रहा था कि मन में सैर करने का विचार आ गया......आधे घंटे की सैर के बाद कुछ अच्छा लगने लगा और घर आकर थोडा टीवी पर टिक गया ......खाना खाने की इच्छा हुई, तो मोटे वाले आटे की ही रोटियां खाईं ......तो जान में जान आई। आप भी हंस रहे होंगे कि यह तो डाक्टर ने नावल के कुछ पन्ने ही लिख दिये हैं।
इस सारी बात का सारांश यही है कि हमें केवल....केवल....केवल......मोटे आटे का और सिर्फ मोटे आटे का ही सेवन करना चाहिये। जिन पार्टियों में सफेद सफेद दिखने वाली तंदूर की रोटियां, नान आदि दिखें.....इन्हें खा कर अपनी सेहत मत बिगाड़ा करिये...............वैसे मेरे पास बैठा मेरा बेटा भी इस बात पर अपनी मुंडी हिला कर अपना समर्थन प्रकट कर रहा है। लेकिन आप ने क्या सोचा है ?
चलते चलते सायरा बानो और अपने धर्म भा जी भी सावन-भादों फिल्म में कुछ फरमा रहे हैं .....अगर टाईम बचा हो तो मार दो एस पर भी एक क्लिक..........

मुंह के ये घाव/छाले.....II……..कुछ केस रिपोर्ट्स

कल मैंने इन मुंह के छालों पर पहली पोस्ट लिखी थी और आज मैं हाजिर हूं कुछ केस रिपोर्ट्स के साथ।

- एक महिला ने जब होली मिलन के दौरान मिठाईयां खाईं तो उन के मुंह में छाले से हो गये जिस पर वे हल्दी लगा कर काम चला रही हैं।

अब यह एक बहुत ही आम सी समस्या है...इतने ज़्यादा मुंह के मरीज़ जो आते हैं उन से जब बिल्कुल ही कैज़ुयली पूछा जाता है कि कैसे हो गया यह, तो बहुत से लोगों का यही कहना होता है कि बस, एक-दो दिन पहले एक पार्टी में खाना खाया था। तो,इस से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं................हमें यही सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इन विवाह-शादियों के खाने में तरह तरह के मसालों वगैरह की भरमार तो होती है जो कि हमारे मुंह के अंदर की कोमल चमड़ी सहन नहीं कर पाती.......अब पेट ने तो गैस बना कर, बदहज़मी कर के अपना रोष प्रकट कर लिया, लेकिन मुंह की चमड़ी को अपना दुःखड़ा कैसे बताये ! सो, एक तरह से मुंह में इस तरह के घाव अथवा छाले वह दुःखड़ा ही है। और अकसर ये छाले वगैरह बिना कुछ खास किये हुये भी दो-तीन दिन में ठीक हो ही जाते हैं। आम घर में इस्तेमाल की जाने वाली कोई प्राकृतिक वस्तु (हल्दी आदि) से अगर किसी को आराम मिलता है तो ठीक है , आप उसे लगा सकते हैं। लेकिन कभी भी इतनी सी चीज़ के लिये न तो ऐंटीबायोटिक दवाईयों के ही चक्कर में पड़े और न ही मल्टीविटामिनों की टेबलेट्स ही लेनी शुरू कर दें। इन को कोई खास रोल नहीं है......यह लाइन भी बहुत बेमनी से लिख रहा हूं कि कोई खास रोल नहीं है। मेरे विचार में तो कोई रोल है ही नहीं.....जैसे जैसे इस सीरीज़ में आगे बढ़ेंगे, इन छालों के लिये बिना वजह ही इस्तेमाल की जाने वाली काफी दवाईयों को पोल खोलूंगा।

लेकिन किसी का मिठाई खा लेने से ही मुंह कैसे पक सकता है ?........जी हां, यह संभव है। क्योंकि पता नहीं इन मिठाईयों में भी आज कल कौन कौन से कैमीकल्स इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन क्या करें, हम लोगों की भी मजबूरी है...अब कहीं भी गये हैं तो थोड़ा थोड़ा चखते चखते यह सब कुछ शिष्टाचार वश अच्छा खासा खाया ही जाता है। लेकिन हमारे किसी तरह के अनाप-शनाप खाने को पकड़ने के लिये यह हमारे मुंह के अंदर की नरम चमड़ी एक बैरोमीटर का ही काम करती है....झट से इन छालों के रूप में अपने हाथ खड़े कर के हमें चेता देती है। अभी मैं कैमिकल्स की बात कर रहा हूं तो एक और केस रिपोर्ट की तरफ ध्यान जा रहा है।

एक व्यक्ति जब भी सिगरेट पीता था तो उस के मुंह में छाले हो जाते थे.......

सिगरेट पीने पर भी मुंह में इस तरह के छाले होने वाला चक्कर भी बेसिकली कैमिकल्स वाला ही चक्कर है। यह तो हम जानते ही हैं कि सिगरेट के धुयें में निकोटीन के अतिरिक्त बीसियों तरह के कैमीकल्स होते हैं जिन्हें हमारे मुंह की कोमल त्वचा सहन नहीं कर पाती है और इन छालों के रूप में अपना आक्रोश प्रगट करती है। अगर हम इस नरम चमड़ी के इस तरह के विरोध को समय रहते समझ जायें तो ठीक है ....नहीं तो, यूं ही तो नहीं कहा जाता कि तंबाकू का उपयोग किसी भी रूप में विनाशकारी है।

एक अन्य केस रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति ने ध्यान दिया है कि जब भी वे बिना धुली कच्ची सब्जी, फल इत्यादि खाते हैं तो उन्हें मुंह में एक फुंशी सी हो जाती है।

कौन लगायेगा इस का अनुमान !...जी हां, यह भी कैमीकल्स का ही चक्कर है। आज कल सब्जियों - फलों पर इतने कैमीकल्स-फर्टीलाइज़र इस्तेमाल हो रहे हैं कि बिना धोये इन को खाने से तो तौबा ही कर लेनी ठीक है। फलों को भी तरह तरह के कैमीकल्स लगा कर तैयार किया जाता है.....आपने देखा है ना जो अंगूर हमें मिलते हैं उन के बाहर किस तरह का सफेद सा पावडर सा लगा होता है....ये सब कैमीकल्स नहीं तो और क्या हैं !....आम के सीज़न में आमों का भी यही हाल है......कईं बार जब हम आम को चूसते हैं तो क्यों हमारे मुंह पक सा जाता है....सब कुछ कैमीकल्स का ही चक्कर है। ऐसे में यही सलाह है कि सभी फ्रूट्स को अच्छी तरह धो कर ही खाया जाये। और आम को काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है...नहीं तो पता नहीं इसे चूसते समय हम इस के छिलके के ऊपर लगे कितने कैमीकल्स अपने अँदर निगल जाते होंगे। वैसे बातें तो ये बहुत छोटी-छोटी लगती हैं लेकिन हमारी सेहत के लिये तो शायद यही बातें ही बड़ी बड़ी हैं।

एक 20-22 वर्ष का नौजवान है...उस को हर दूसरे माह मुंह में छाले हो जाते हैं । वह घर से बाहर रहता है। अकसर इन छालों के लिये सारा दोष कब्ज के ऊपर मढ़ दिया जाता है। उस युवक ने दांतों की सफाई भी करवा ली है, लेकिन अभी वह इन छालों से निजात पाने के लिये कोई स्थायी इलाज चाहता है।

इस युवक की उम्र देखिये....20-22 साल.....ठीक है , उस के मुंह में टारटर होगा, या कोई और दंत-रोग होगा जिस के लिये उस ने दांतों एवं मसूड़ों की सफाई करवा ली है। ठीक किया । लेकिन अगर इस से यह समझा जाये कि अब मुंह में छाले नहीं होंगे, तो मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। इस का कारण मैं विस्तार में बताना चाहूंगा।

यह जो कब्ज वाली बात भी अकसर लोग कहने लग गये हैं ना इस में कोई दम नहीं है......कि कब्ज रहती है,इसलिये मुंह में छाले तो होंगे ही। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब 1982 में हमारे प्रोफैसर साहब इन मुंह के छालों के बारे में पढ़ा रहे थे तो उन्होंने भी इस कब्ज से मुंह के छालों के लिंकेज को एक थ्यूरी मात्र ही बताया था। और सब से ऊपर हाथ कंगन को आरसी क्या .....अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में मैंने तो यही देखा है कि जब हम लोगों को कहीं कुछ समझ में नहीं आता तो हम झट से कोई स्केप-गोट ढूंढते हैं ...विशेषकर ऐसी कोई जो कि लोगों की साइकी में अच्छी तरह से घर कर चुकी होती है। और यह कब्ज और मुंह के छालों का लिंकेज भी कुछ ऐसा ही है।

वैसे चलिये ज़रा इस के ऊपर विस्तार से चर्चा करें......सीधी सी बात है कि वैसे तो किसी भी उम्र में जब किसी को कब्ज हो तो कुछ न कुछ गड़बड़ तो कहीं न कहीं है ही......लेकिन 20-22 के युवक में आखिर क्यूं होगी कब्ज। और यकीन मानिये ये जो हम कब्ज के विभिन्न प्रकार के डरावने से कारणों के बारे में अकसर यहां वहां पढ़ते रहते हैं ना, शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों कब्ज से परेशान मरीज़ों में से किसी एक को ही ऐसी कोई अंदरूनी तकलीफ़ होती होगी। ऐसा मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि अधिकांश कब्ज के केस हमारी जीवन शैली से ही संबंधित हैं.....हमारी बोवेल हैबिट्स रैगुलर नहीं है। 20-22 के युवक में कब्ज होना इस बात को इंगित कर रही है कि या तो उस युवक का खान-पीन ठीक नहीं है या उस में शारीरिक परिश्रम की कमी है। खान-पान से मेरा मतलब है कि उस युवक का खाना-पीना संतुलित नहीं होगा, उस के भोजन में सलाद, रेशेदार फ्रूट्स की कमी होगी....क्योंकि अगर कोई इन वस्तुओं का अच्छी मात्रा में सेवन करता है तो कब्ज का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। और अगर फिर भी है तो अपने चिकित्सक को ज़रूर मिलें...........लेकिन पहले अपना खान-पान तो टटोलिये......सारी कमी यहीं पर नज़र आयेगी। और हां, कब्ज के लिये विभिन्न प्रकार के अंकुरित दालें एवं अनाज बेहद लाभदायक हैं। और मुझे जब कुछ साल पहले ऐसी समस्या हुई थी तो मैं एक-दो आँवले रोटी के साथ अचार के रूप में खा लिया करता था और जब बाज़ार में आंवले मिलने बंद हो जाया करते थे तो आंवले के पावडर का आधा चम्मच ले लिया करता था, जिस से कब्ज से निजात मिल जाया करती थी। मैं अपने आप ही किसी भी तरह की कब्ज से निजात पाने वाली दवाईयां लेना का घोर-विरोधी हूं.....इस तरह से अपनी मरजी से ली गई दवाईयां तो बस कब्ज को बद से बदतर ही करती हैं ... और कुछ नहीं, इस के पीछे जो वैज्ञानिक औचित्य है उस को किसी दूसरी पोस्ट में कवर करूंगा।

और हां, बात हो रही थी, किसी 20-22 साल के युवक की जिसे कब्ज भी रहती है और यह समझा जाता है कि मुंह के छाले इसी कब्ज की ही देन हैं। तो यहां पर एक बात बहुत ही ध्यान से समझिये कि किसी बंदे को कब्ज है ....इस का अधिकांश केसों में जैसा कि मैंने बताया कि निष्कर्ष यही तो निकलता है कि उस के खाने-पीने में गड़बड़ है....वह रेशेदार फल-फ्रूट-सब्जियां एवं दालें ठीक मात्रा में ले नहीं रहा और/अथवा जंक फूड़ पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा किया जा रहा है। क्योंकि कब्ज का रोग मोल लेने का एक आसान सा तरीका तो है ही कि इस मैदे से बने तरह तरह के आधुनिक व्यंजनों( बर्गर, नूडल्स, पिज़ा, हाट-डाग आदि आदि आदि) को हम अपने खाने में शामिल करना शुरू कर दें।
......मुझे तो ज़्यादा नाम भी नहीं आते क्योंकि मैं तो बस एक ही तरह के जंक फूड का बिगड़ा हुया शौकीन हूं....आलू वाले अमृतसरी नान व छोले......जंक इस लिये कह रहा हूं कि ये अकसर मैदे से ही बनते हैं ...लेकिन फिर मैं दो-तीन महीनों में एक बार इन्हें खाकर पंगा मोल ले ही लेता हूं और फिर सारा दिन खाट पकड़ कर पड़ा रहता हूं जैसा कि इस पिछले रविवार को हुया था...।

बस जाते जाते बात इतनी ही करनी है कि इस 20-22 साल के युवक के खान-पान में कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है ही, अब अगर वह इन बातों की तरफ़ ध्यान देगा तो क्यों होगा वह बार बार इन मुंह के छालों से परेशान....क्योंकि जब शरीर को संतुलित आहार मिलता है तो शरीर में सब कुछ संतुलित ही रहता है और मुंह की कोमल त्वचा भी स्वच्छ ही रहती है क्योंकि जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि यह मुंह के अंदर की कोमल त्वचा तो वैसे भी हमारे सारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है।

बाकी, बातें अगली पोस्ट में ...इसी विषय पर करेंगे। अगर इस का कोई अजैंडा सैट करना चाहें तो प्लीज़ बतलाईयेगा....टिप्पणी में या ई-मेल में।

आज की हैल्थ-टिप.....मेरी आपबीती !


कल का दिन मेरे लिये बहुत बेकार था....कल सुबह जब मैं पांच बजे के करीब उठा तो सिर में बहुत ज़्यादा दर्द था,सोचा कि बस यूं ही मौसम में ठंडी की वजह से हो रहा होगा....कुछ समय में ठीक हो जायेगा। लेकिन यह तो अलग किस्म का ही सिर दर्द था। खैर, सिर को बांध कर लेटना चाहा लेकिन इस से भी चैन कहां पड़ना था। सोचा, ऐसे ही ठंड-वंड लग गई होगी....परसों रात को यमुनानगर से 15-20 किलोमीटर दूर गांव कागोवाली में एक सत्संग में सम्मिलित होने गया था...आते समय कार की खिड़की खुली थी , सो ऐसा लगा कि ठंडी हवा लग गई होगी। लेकिन ऐसी ठंडी हवा भी इतनी तकलीफ़ नहीं देती जितनी मुझे कल हो रही थी।
खैर, तब तक घर के सब मैंबरर्ज उठ चुके थे। मिसिज़ ने कहा कि कुछ चाय-बिस्कुट ले लो....मैंने हां तो कह दी लेकिन जब चाय तैयार हो गई तो उस की तरफ़ देखने की इच्छा नहीं ! खैर,सुबह सुबह ही मुझे बार बार मतली सी आने लगी...बार-बार सिंक पर जाता और थोड़ा सा हल्का हो के आ जाता। लेकिन फिर वही समस्या....बस, चैन नहीं आ रहा था, और सिर तो जैसे फटा जा रहा था। ( हां, यहां एक बात शेयर करना चाहता हूं कि मुझे कभी भी उल्टी करने वाले मरीज़ से घिन्न नहीं आई.....पता नहीं, जब कोई मरीज़ में रूम में भी उल्टी कर देता है तो मुझे बिलकुल भी फील नहीं होता, मुझे उस से बहुत सहानुभूति होती है और मैं उसे कहता हूं ....कोई बात नहीं, आराम से कर लो...........पता नहीं, मुझे कुछ अपना पुराना टाइम याद आ जाता है ).........खैर, हास्पीटल तो जाना ही था.....क्योंकि कल मैं हास्पीटल के चिकित्सा अधीक्षक का कार्य भी देख रहा था।
हस्पताल में बैठ कर भी हालत में कुछ सुधार हुया नहीं। एक एसिडिटी कम करने के लिये कैप्सूल लिया तो, लेकिन वह भी चंद मिनटों के बाद सिंक में बह गया। खैर, श्रीमति जी ने भी कह दिया कि अकसर सिर-दर्द होने लगा है, कहीं न कहीं लाइफ-स्टाईल में गडबड़ तो है ही ना। मुझे पता है कि वे यही कर रही थीं कि नियमित सैर-वैर के लिये जाते नहीं हो, योग करते नहीं हो। खैर, उस समय तो कुछ सूझ नहीं रहा था।
जैसे जैसे दोपहर बाद एक बजे घर आ कर लेट गया....लेकिन कुछ खाने की इच्छा नहीं हो रही थी। जूस मंगवाया ...लेकिन जूस की दुकान बंद होने की वजह से अपना रामू गन्ने का रस ले आया । लेकिन उसे भी पीने की इच्छा नही हुई। । बस ,सिर दुखता ही रहा और बीच बीच में मतली सी होती रही।
यह सब स्टोरी बताना ज़रूरी सा लग रहा है इसीलिये लिख रहा हूं। खैर, कुछ समय बाद समय में आया कि घर में पिछले दो-तीन दिन से बाज़ार का आटा इस्तेमाल हो रहा था......बस सब कुछ समझ में आते देर न लगी। झट से समझ में आ गया कि क्योंकि पिछले दो-तीन दिनों से ही पेट नहीं साफ हो रहा था, रबड़ जैसी सफेद रोटी देख कर उसे खाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी और दो -तीन दिन से ही एसिडिटी की तकलीफ भी रहने लगी थी। हमारे यहां किसी को भी बाज़ार के लाये आटे की रोटी कभी नहीं सुहाती ........सब सदस्य इस के घोर विऱोधी हैं। हम जब बम्बई में पोस्टेड थे तो हमारी सब से बड़ी समस्या ही यही थी कि बाजार में हमें कभी ढंग का आटा मिला ही नहीं थी। बंबई सैंट्रल एरिया में एक स्टोर में पंजाबी आटा मिल तो जाता था.........लेकिन उस में भी वो बात न थी। खैर, जब हम वापिस पंजाब में आये तो हमे (खासकर मुझे) इस बात की तो विशेष खुशी थी कि अब आटा तो ढंग का खायेंगे।
पिछले दो तीन से घऱ मे बाजार का आटा इसलिये इस्तेमाल हो रहा था कि दो -तीन बार जब भी रामू चक्की पर गया थो तो बिजली बंद ही मिली। ऐसा है न कि हम सब को मोटे आटे की आदत पड़ चुकी है। इसलिये हमें बाज़ार में यहां तक की आटा चक्की में मिलने वाला भी पतला आटा कभी भी नहीं चलता .....कहने को तो वे इसे पतला आटा कह देते हैं...ऐसे लगता है कि इस का दोष केवल इतना ही है कि इस को ज़्यादा ही बारीक पीसा हुया है ...लेकिन नहीं , इस का तो पहले इन्होंने रूला किया होता है जिस के दौरान आनाज के दाने की बाहर की चमड़ी उतार ली जाती है......और इसे रूला करना कहने हैं....और जो झाड़ इसे रूला करने की प्रक्रिया में प्राप्त होता है ये चक्की वाले इसे अलग से बेचते हैं......मजे की बात यह है कि लोग इसे जानवरों के लिये खरीद कर ले जाते हैं...यह गेहूं का एक पौष्टिक हिस्सा होता है। मुझे इस का भरा हुया पीपा एक चक्की वाले ने दिखाया भी था।
मैंने स्वयं कईं बार लोगों को चक्की वाले को यह कहते सुना है कि रूला ज़रूर कर लेना..पीसने से पहले। क्योंकि उन्हें भूरा आटा पसंद नहीं है.....और हां, बाज़ार में जो आटा बिकता है उस में से चोकर भी निकला होता है .....सो , हमारे सामने एक तरह से मैदा ही तो रह जाता है जिस को सफेद रोटियां देख कर आज कल लोग ज्यादा खुश होने लगे हैं। लेकिन यह ही है हमारी सब की ज़्यादातर तकलीफों की जड़.......विशेषकर ऐसा आटा खाने वाले के पेट ठीक से साफ होते नहीं है, जिस की वजह से सारा दिन सिर भारी-भारी सा रहता है और मन में बेचैनी सी रहती है।
कुछ साल पहले पंजाब के भोले-भाले किसानों के बारे में एक चुटकुला खूब चलता था......जब शुरू शुरू में भाखड़ा नंगल डैम के द्वारा बिजली का उत्पादन शुरू हुया था तो भोले भाले किसान यह कहते थे.....लै हुन , पानी चों बिजली ही कढ़ लई तां बचिया की ( ले अब अगर पानी से बिजली ही निकाल ली गई तो बचा क्या !)........लेकिन अफसोस आज हम लोग बाज़ार से ले लेकर जिस तरह का आटा खा रहे हैं उसके बारे में हम ज़रा भी नहीं सोचते कि यार, जिस गेहूं का रूला हो गया, जिस में से चोकर निकाल लिया गया......उस से हमें तकलीफें ही तो मिलने वाली हैं। क्या है ना कि गेहूं में मौजूद फाईबर तो उस की इस बाहर वाली कवरिंग (जिसे रूला के द्वारा हटा दिया जाता है) ...और चोकर में पड़ा होता है जो कि हमारे शरीर के लिये निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि इस तरह के अपाच्य तत्व हमारी आंतड़ियों में जाकर पानी सोख कर फूल जाते हैं और मल के निष्कासन में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।
इसलिये जिन का भी पेट साफ नहीं होता उन को हमेशा मोटा आटा .....जिस में से कुछ भी निकाला न गया हो.....खाने की ही सलाह दी जाती है। इसके साथ ही साथ अगर दालों सब्जियों का प्रचुर मात्रामें सेवन किया जायेगा तो क्यों नहीं होगा यह पेट साफ। ऐसे ही टीवी पर अखबारों मे पेट साफ करने वाले चूरनों की हिमायत करने वालों की बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दिया करें।
......हां, तो मैं इसी बारीक आटे की वजह से बिगड़ी अपनी तबीयत की बात सुना रहा था....तो शाम के समय पर तबीयत थोड़ी सुधरी थी कि थोड़े से अंगूर और कीनू का जूस पी लिया.....लेकिन हास्पीटल जाते ही उल्टी हो गई । बस , इंजैक्शन लगवाने की सोच ही रहा था कि मन में सैर करने का विचार आ गया......आधे घंटे की सैर के बाद कुछ अच्छा लगने लगा और घर आकर थोडा टीवी पर टिक गया ......खाना खाने की इच्छा हुई, तो मोटे वाले आटे की ही रोटियां खाईं ......तो जान में जान आई। आप भी हंस रहे होंगे कि यह तो डाक्टर ने नावल के कुछ पन्ने ही लिख दिये हैं।
इस सारी बात का सारांश यही है कि हमें केवल....केवल....केवल......मोटे आटे का और सिर्फ मोटे आटे का ही सेवन करना चाहिये। जिन पार्टियों में सफेद सफेद दिखने वाली तंदूर की रोटियां, नान आदि दिखें.....इन्हें खा कर अपनी सेहत मत बिगाड़ा करिये...............वैसे मेरे पास बैठा मेरा बेटा भी इस बात पर अपनी मुंडी हिला कर अपना समर्थन प्रकट कर रहा है। लेकिन आप ने क्या सोचा है ?
चलते चलते सायरा बानो और अपने धर्म भा जी भी सावन-भादों फिल्म में कुछ फरमा रहे हैं .....अगर टाईम बचा हो तो मार दो एस पर भी एक क्लिक..........

4 comments:

Padma Srivastava said...

डॉ.साहब आपने बहुत ही अच्छी जानकारी दी है।

डॉ. अजीत कुमार said...

सही कहा सर जी, हमारे यहां भी तो मोटे आटे की रोटियां ही बनती हैं. हां ये बात अब अलग है कि जब से पटना में अकेला रह रहा हूं तो बाहर के आटे की भी आदत लग गयी है.

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी कहो तो यहां से भिजवा दु आप को आप कि मनंपसद का आटा,हम यहां वेसा ही आता लाते हे जेसा आप ने बताया,ओर आटा गलत आ जाये तो कोई रोटी ही नही खाता.

Dr.Parveen Chopra said...

@राज जी, बहुत बहुत शुक्रिया.....बस एह तकलीफ़ थोडे़ दिनां दी ही सी.....हुन आ गिया ऐ ओही वाला मोटा आटा !!

मुंह के ये घाव/छाले.....II……..कुछ केस रिपोर्ट्स

कल मैंने इन मुंह के छालों पर पहली पोस्ट लिखी थी और आज मैं हाजिर हूं कुछ केस रिपोर्ट्स के साथ।

- एक महिला ने जब होली मिलन के दौरान मिठाईयां खाईं तो उन के मुंह में छाले से हो गये जिस पर वे हल्दी लगा कर काम चला रही हैं।

अब यह एक बहुत ही आम सी समस्या है...इतने ज़्यादा मुंह के मरीज़ जो आते हैं उन से जब बिल्कुल ही कैज़ुयली पूछा जाता है कि कैसे हो गया यह, तो बहुत से लोगों का यही कहना होता है कि बस, एक-दो दिन पहले एक पार्टी में खाना खाया था। तो,इस से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं................हमें यही सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इन विवाह-शादियों के खाने में तरह तरह के मसालों वगैरह की भरमार तो होती है जो कि हमारे मुंह के अंदर की कोमल चमड़ी सहन नहीं कर पाती.......अब पेट ने तो गैस बना कर, बदहज़मी कर के अपना रोष प्रकट कर लिया, लेकिन मुंह की चमड़ी को अपना दुःखड़ा कैसे बताये ! सो, एक तरह से मुंह में इस तरह के घाव अथवा छाले वह दुःखड़ा ही है। और अकसर ये छाले वगैरह बिना कुछ खास किये हुये भी दो-तीन दिन में ठीक हो ही जाते हैं। आम घर में इस्तेमाल की जाने वाली कोई प्राकृतिक वस्तु (हल्दी आदि) से अगर किसी को आराम मिलता है तो ठीक है , आप उसे लगा सकते हैं। लेकिन कभी भी इतनी सी चीज़ के लिये न तो ऐंटीबायोटिक दवाईयों के ही चक्कर में पड़े और न ही मल्टीविटामिनों की टेबलेट्स ही लेनी शुरू कर दें। इन को कोई खास रोल नहीं है......यह लाइन भी बहुत बेमनी से लिख रहा हूं कि कोई खास रोल नहीं है। मेरे विचार में तो कोई रोल है ही नहीं.....जैसे जैसे इस सीरीज़ में आगे बढ़ेंगे, इन छालों के लिये बिना वजह ही इस्तेमाल की जाने वाली काफी दवाईयों को पोल खोलूंगा।

लेकिन किसी का मिठाई खा लेने से ही मुंह कैसे पक सकता है ?........जी हां, यह संभव है। क्योंकि पता नहीं इन मिठाईयों में भी आज कल कौन कौन से कैमीकल्स इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन क्या करें, हम लोगों की भी मजबूरी है...अब कहीं भी गये हैं तो थोड़ा थोड़ा चखते चखते यह सब कुछ शिष्टाचार वश अच्छा खासा खाया ही जाता है। लेकिन हमारे किसी तरह के अनाप-शनाप खाने को पकड़ने के लिये यह हमारे मुंह के अंदर की नरम चमड़ी एक बैरोमीटर का ही काम करती है....झट से इन छालों के रूप में अपने हाथ खड़े कर के हमें चेता देती है। अभी मैं कैमिकल्स की बात कर रहा हूं तो एक और केस रिपोर्ट की तरफ ध्यान जा रहा है।

एक व्यक्ति जब भी सिगरेट पीता था तो उस के मुंह में छाले हो जाते थे.......

सिगरेट पीने पर भी मुंह में इस तरह के छाले होने वाला चक्कर भी बेसिकली कैमिकल्स वाला ही चक्कर है। यह तो हम जानते ही हैं कि सिगरेट के धुयें में निकोटीन के अतिरिक्त बीसियों तरह के कैमीकल्स होते हैं जिन्हें हमारे मुंह की कोमल त्वचा सहन नहीं कर पाती है और इन छालों के रूप में अपना आक्रोश प्रगट करती है। अगर हम इस नरम चमड़ी के इस तरह के विरोध को समय रहते समझ जायें तो ठीक है ....नहीं तो, यूं ही तो नहीं कहा जाता कि तंबाकू का उपयोग किसी भी रूप में विनाशकारी है।

एक अन्य केस रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति ने ध्यान दिया है कि जब भी वे बिना धुली कच्ची सब्जी, फल इत्यादि खाते हैं तो उन्हें मुंह में एक फुंशी सी हो जाती है।

कौन लगायेगा इस का अनुमान !...जी हां, यह भी कैमीकल्स का ही चक्कर है। आज कल सब्जियों - फलों पर इतने कैमीकल्स-फर्टीलाइज़र इस्तेमाल हो रहे हैं कि बिना धोये इन को खाने से तो तौबा ही कर लेनी ठीक है। फलों को भी तरह तरह के कैमीकल्स लगा कर तैयार किया जाता है.....आपने देखा है ना जो अंगूर हमें मिलते हैं उन के बाहर किस तरह का सफेद सा पावडर सा लगा होता है....ये सब कैमीकल्स नहीं तो और क्या हैं !....आम के सीज़न में आमों का भी यही हाल है......कईं बार जब हम आम को चूसते हैं तो क्यों हमारे मुंह पक सा जाता है....सब कुछ कैमीकल्स का ही चक्कर है। ऐसे में यही सलाह है कि सभी फ्रूट्स को अच्छी तरह धो कर ही खाया जाये। और आम को काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है...नहीं तो पता नहीं इसे चूसते समय हम इस के छिलके के ऊपर लगे कितने कैमीकल्स अपने अँदर निगल जाते होंगे। वैसे बातें तो ये बहुत छोटी-छोटी लगती हैं लेकिन हमारी सेहत के लिये तो शायद यही बातें ही बड़ी बड़ी हैं।

एक 20-22 वर्ष का नौजवान है...उस को हर दूसरे माह मुंह में छाले हो जाते हैं । वह घर से बाहर रहता है। अकसर इन छालों के लिये सारा दोष कब्ज के ऊपर मढ़ दिया जाता है। उस युवक ने दांतों की सफाई भी करवा ली है, लेकिन अभी वह इन छालों से निजात पाने के लिये कोई स्थायी इलाज चाहता है।

इस युवक की उम्र देखिये....20-22 साल.....ठीक है , उस के मुंह में टारटर होगा, या कोई और दंत-रोग होगा जिस के लिये उस ने दांतों एवं मसूड़ों की सफाई करवा ली है। ठीक किया । लेकिन अगर इस से यह समझा जाये कि अब मुंह में छाले नहीं होंगे, तो मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। इस का कारण मैं विस्तार में बताना चाहूंगा।

यह जो कब्ज वाली बात भी अकसर लोग कहने लग गये हैं ना इस में कोई दम नहीं है......कि कब्ज रहती है,इसलिये मुंह में छाले तो होंगे ही। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब 1982 में हमारे प्रोफैसर साहब इन मुंह के छालों के बारे में पढ़ा रहे थे तो उन्होंने भी इस कब्ज से मुंह के छालों के लिंकेज को एक थ्यूरी मात्र ही बताया था। और सब से ऊपर हाथ कंगन को आरसी क्या .....अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में मैंने तो यही देखा है कि जब हम लोगों को कहीं कुछ समझ में नहीं आता तो हम झट से कोई स्केप-गोट ढूंढते हैं ...विशेषकर ऐसी कोई जो कि लोगों की साइकी में अच्छी तरह से घर कर चुकी होती है। और यह कब्ज और मुंह के छालों का लिंकेज भी कुछ ऐसा ही है।

वैसे चलिये ज़रा इस के ऊपर विस्तार से चर्चा करें......सीधी सी बात है कि वैसे तो किसी भी उम्र में जब किसी को कब्ज हो तो कुछ न कुछ गड़बड़ तो कहीं न कहीं है ही......लेकिन 20-22 के युवक में आखिर क्यूं होगी कब्ज। और यकीन मानिये ये जो हम कब्ज के विभिन्न प्रकार के डरावने से कारणों के बारे में अकसर यहां वहां पढ़ते रहते हैं ना, शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों कब्ज से परेशान मरीज़ों में से किसी एक को ही ऐसी कोई अंदरूनी तकलीफ़ होती होगी। ऐसा मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि अधिकांश कब्ज के केस हमारी जीवन शैली से ही संबंधित हैं.....हमारी बोवेल हैबिट्स रैगुलर नहीं है। 20-22 के युवक में कब्ज होना इस बात को इंगित कर रही है कि या तो उस युवक का खान-पीन ठीक नहीं है या उस में शारीरिक परिश्रम की कमी है। खान-पान से मेरा मतलब है कि उस युवक का खाना-पीना संतुलित नहीं होगा, उस के भोजन में सलाद, रेशेदार फ्रूट्स की कमी होगी....क्योंकि अगर कोई इन वस्तुओं का अच्छी मात्रा में सेवन करता है तो कब्ज का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। और अगर फिर भी है तो अपने चिकित्सक को ज़रूर मिलें...........लेकिन पहले अपना खान-पान तो टटोलिये......सारी कमी यहीं पर नज़र आयेगी। और हां, कब्ज के लिये विभिन्न प्रकार के अंकुरित दालें एवं अनाज बेहद लाभदायक हैं। और मुझे जब कुछ साल पहले ऐसी समस्या हुई थी तो मैं एक-दो आँवले रोटी के साथ अचार के रूप में खा लिया करता था और जब बाज़ार में आंवले मिलने बंद हो जाया करते थे तो आंवले के पावडर का आधा चम्मच ले लिया करता था, जिस से कब्ज से निजात मिल जाया करती थी। मैं अपने आप ही किसी भी तरह की कब्ज से निजात पाने वाली दवाईयां लेना का घोर-विरोधी हूं.....इस तरह से अपनी मरजी से ली गई दवाईयां तो बस कब्ज को बद से बदतर ही करती हैं ... और कुछ नहीं, इस के पीछे जो वैज्ञानिक औचित्य है उस को किसी दूसरी पोस्ट में कवर करूंगा।

और हां, बात हो रही थी, किसी 20-22 साल के युवक की जिसे कब्ज भी रहती है और यह समझा जाता है कि मुंह के छाले इसी कब्ज की ही देन हैं। तो यहां पर एक बात बहुत ही ध्यान से समझिये कि किसी बंदे को कब्ज है ....इस का अधिकांश केसों में जैसा कि मैंने बताया कि निष्कर्ष यही तो निकलता है कि उस के खाने-पीने में गड़बड़ है....वह रेशेदार फल-फ्रूट-सब्जियां एवं दालें ठीक मात्रा में ले नहीं रहा और/अथवा जंक फूड़ पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा किया जा रहा है। क्योंकि कब्ज का रोग मोल लेने का एक आसान सा तरीका तो है ही कि इस मैदे से बने तरह तरह के आधुनिक व्यंजनों( बर्गर, नूडल्स, पिज़ा, हाट-डाग आदि आदि आदि) को हम अपने खाने में शामिल करना शुरू कर दें।
......मुझे तो ज़्यादा नाम भी नहीं आते क्योंकि मैं तो बस एक ही तरह के जंक फूड का बिगड़ा हुया शौकीन हूं....आलू वाले अमृतसरी नान व छोले......जंक इस लिये कह रहा हूं कि ये अकसर मैदे से ही बनते हैं ...लेकिन फिर मैं दो-तीन महीनों में एक बार इन्हें खाकर पंगा मोल ले ही लेता हूं और फिर सारा दिन खाट पकड़ कर पड़ा रहता हूं जैसा कि इस पिछले रविवार को हुया था...।

बस जाते जाते बात इतनी ही करनी है कि इस 20-22 साल के युवक के खान-पान में कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है ही, अब अगर वह इन बातों की तरफ़ ध्यान देगा तो क्यों होगा वह बार बार इन मुंह के छालों से परेशान....क्योंकि जब शरीर को संतुलित आहार मिलता है तो शरीर में सब कुछ संतुलित ही रहता है और मुंह की कोमल त्वचा भी स्वच्छ ही रहती है क्योंकि जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि यह मुंह के अंदर की कोमल त्वचा तो वैसे भी हमारे सारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है।

बाकी, बातें अगली पोस्ट में ...इसी विषय पर करेंगे। अगर इस का कोई अजैंडा सैट करना चाहें तो प्लीज़ बतलाईयेगा....टिप्पणी में या ई-मेल में।

3 comments:

Ghost Buster said...

बहुत बहुत शुक्रिया. अच्छी जानकारी रही.

दिनेशराय द्विवेदी said...

धन्यवाद! प्रवीण जी। आप ने कब्ज वाली थ्योरी को झाड़ दिया। मेरी कोई मानता न था। पर आप के विश्लेषण से एक बात यह सामने आई कि कब्ज होने और छाले होने के बहुत से कारण समान हैं। इस कारण यह हो सकता है कि कब्ज और छाले साथ-साथ होते हों और इसी कारण यह धारणा बनी हो। कब्ज की दवा लेने से कब्ज तो ठीक होती ही है पथ्य भी सुधार लेने से छाले भी स्वतः ही एक-दो दिनों में ठीक हो लेते हैं।
आप का यह सुझाव अच्छा है कि रेशेदार खाद्य भोजन में अवश्य होना चाहिए। इस के लिए अंकुरित अनाज और दालों का उपयोग सही और सुगम भी है। अगर एक-दो फल नित्य ही अच्छी तरह धोकर खा लिए जाएं तो मेरे विचार में उत्तम है। मैं यह अवश्य जानना चाहूंगा कि अगर छाले हो जाएं और वह भी काफी बड़े और कष्टदायी तो क्या करना चाहिए?
आप के द्वारा दी गई जानकारी के लिए पुनः आप का बहुत बहुत धन्यवाद।

Udan Tashtari said...

जानकारी अच्छी है मगर डर गये हम मसाला खाने वाले!!

जे आपां दोवें रुस बैठे तां..(अगर हम दोनों रूठ गये तो...)

यह पंजाबी का एक सुपर-डुपर गीत है जिस में एक पंजाबी मुटियार अपने माही से कह रही है कि तुम ने मुझे क्या मनाना था, तुम तो स्वयं ही मेरे से रूठ गये हो......लेकिन साथ में उसे यह भी आगाह कर रही है कि ज़माना तो तमाशा तो तमाशबीन है ही जो कि हमारे इस झगड़े में भी तमाशा देख रहा है। इसलिये मुटियार को यही चिन्ता सताये जा रही है कि अब मसला यह है कि अगर हम दोनों ही एक दूसरे से रूठ जायेंगे तो हमें आखिर मनायेगा। इस गीत को पंजाब के मशहूर गायक हंस राज हंस ने गाया है ....जिस में आप को सूफी गायकी के भी अंश मिलेंगे।
इस पंजाबी गीत में पंजाबन मुटियार तो अपने गबरू से यह भी कह देती है कि तेरे वियोग में अगर मैं हंजुओं(अश्रुओं) के सैलाब में डूब रही हूंगी तो मेरे को कौन उस सैलाब से निकाल कर गले लगायेगा।
वैसे पता नहीं मैं क्यों इतनी लंबी कमैंटरी दिये जा रहा हूं.......पता नहीं क्यों मैं तुहाडे अते इस गीत दे विचकार इक कबाब दी हड्डी जही बन रिहा हां.....सो मितरो, एह चलिया जे मैं ते तुसीं आनंद मानो इस पंजाबी विरसे दा।
वैसे यह गीत हमें कितना कुछ सिखा रहा है........इस के लिरिक्स में कितनी गहराई है.......सुनिये और महसूस कीजिए.........और इक दो लाइनां कदे कमैंटां विच वी सुट दिया करो.....बस , ऐवें ही नहीं, वधिया वधिया गीत सुन के लांबे हो गये.............एह ते मितरो कोई गल ना होई। अच्छा , हुन तुसीं एह फड़कदा होया गीत सुनों। नहीं, नहीं, इह न ध्यान करिया करों कि सवेरे सवेरे सिरफ धार्मिक गीत ही सुनने हन.........!! बस जो कुछ वी सुन के मज़ा आवे उस दे ही मेरे वांगू बुल्ले लुट लिया करो। जिउंदे-वसदे रहो ते खुशियां मानो, जी।

वो चित्रहार वाले दिन भी क्या दिन थे !

आज ऐसे ही ध्यान आ रहा था कि हमारा समय भी क्या था कि अगर हिंदी फिल्मी के गीत देखने भी हैं तो वे सिर्फ़ सिनेमाघरों में जा कर ही देखे जा सकते थे । यह टीवी..वीवी तो बाद में आया....और उस पर भी ये फिल्मी गीत हफ्ते में एक-दो दिन लगभग आधे घंटे के लिये ही दिखाये जाते थे। और दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले इस प्रोग्राम का नाम हुया करता था...चित्रहार,जिस में पांच-छः गीत सुनाये जाते थे। और यकीन मानिये, हफ्ते के बाकी दिन बस इसी कार्यक्रम का ही इंतज़ार हुया करता था। स्कूल का होम-वर्क भी उस दिन इस चाव में दोपहर में भी निबटा लिया जाता था कि आज शाम को तो टीवी पर चित्रहार आना है । और हां, स्कूल में भी अपने दोस्तों के साथ इस तरह की बातें होती थीं कि अच्छा तू बता, आज कौन कौन से गाने दिखायेंगे ...चित्रहार में । और ये डिस्कशन लंबे समय तक चलती थी जब तक वह डरावना सा दिखने वाला हिस्ट्री का मास्टर क्लास में अपनी ऐन्ट्री से इस डिस्कशन का सारा मज़ा किरकिरा ही नहीं कर देता था।

लेकिन वो हमारी प्रोबल्म थी.....आप क्यों बिना वजह सुबह सुबह अपना मूड खराब करते हैं। लीजिये, उन्हीं दिनों की अपनी हसीन यादों में से एक बेहद सुंदर गीत फैंक रहा हूं.......जिसे शायद बीसियों बार देख चुका हूं, सुन चुका हूं........अब आप के साथ फिर से सुन रहा हूं।

बुधवार, 12 मार्च 2008

जिंदगी हंसने गाने के लिये है...पल दो पल

जब मेरा मन भारी सा होता है..........मैं सोचता हूं कि जब मेरा मन भारी सा होता है तो मैं किस तरह उसे हल्का करता हूं........नहीं, नहीं, डाक्टर होते हुये भी आज तक कभी भी ये टेंशन-वेंशन दूर भगाने वाली गोलियों से दूर ही रहा हूं और ऐसी दुआ करता हूं कि ताउम्र इन से कोसों दूर ही रहूं और अपने मरीज़ों को भी यही मशविरा देता रहूं। फिलहाल तो मैंने अपने ही कुछ तरीके निकाल रखे हैं ...इस टेंशन को दूर भगाने के लिये। उस में से सब से महत्त्वपूर्ण है .....मैडीटेशन............मैं जितना भी लो-फील कर रहा होता हूं, कितना भी थका-मांदा सा.......मैडीटेशन कर लेने के बाद मैं एकदम फ्रेश एवं चुस्त-दुरूस्त फील करने लगता हूं। दूसरा तरीका है ....जब सिर थोड़ा थोड़ा भारी होने लगता है तो लंबी पैदल सैर कर निकल पड़ता हूं.......आधे-पौने घंटे की तेज़ रफ्तार सैर के बाद मैं एकदम बढ़िया फील करने लगता हूं। और, तीसरा तरीका है कि मैं डैक्सटाप पर या लैटलाप पर ....अपनी पसंद के हिंदी या पंजाबी ( नहीं, इंगलिश गाने कभी सुने ही नहीं, इसलिये कभी समझ ही नहीं आते................सिवाये उस के ....ब्राजील.....ब्राजील.....क्योंकि वह लंबे समय तक बजता रहा है) ...। हां, तो मैं अपनी पसंद के हिंदी गीत या पंजाबी गीत अपने स्टडी-रूम में बहुत तेज़ आवाज़ में सुनने का बहुत ज़्यादा शौकीन रहा हूं। मेरी डाक्टर बीवी को इस से नाराज़गी इसलिये होती रही है कि उन्हें डर लगता रहता है कि कहीं इस से मेरे कानों पर इसका बुरा असर न पड़े। लेकिन अब यह आवाज़ वाला फैक्टर काफी कंट्रोल हो चुका है.................लेकिन मेरी यह आदत तो अभी भी यूं की त्यों बनी हुई है ....जो गाना पसंद है तो बस उस को बार-बार कईं बार सुनता है ...इस आदत को मैं कभी कंट्रोल करना भी नहीं चाहता....जैसी है, वैसी रहे ....क्या फर्क पड़ता है.........।
मैं अकसर सोचता हूं कि मैं इस तरह के जश्न वाले गानों में इतना खो इसलिये भी जाता हूं क्योंकि मैं इन गानों को एक दर्शक के तौर पर कभी नहीं देखता... मैं तो अपने आप को भी उसी उत्सव का हिस्सा ही मानने लगता हूं और इसी उत्सव में धूम मचाने की वजह से मेरे सिर का भारीपन पता नहीं कहां छू-मंतर हो जाता है।
तो, क्या आप भी यह मैथेड ट्राई करना चाहेंगे....तो, लीजिये इस गाने पर क्लिक करिये और खो जाइये इस के जश्न में .............ध्यान से देखियेगा कि ये सब लोग कितने खुश दिख रहे हैं , तो हमें कौन रोक सकता है !

और हां, स्टैस मैनेजमैंट के नये नये फंडे- ब्लोगिंग- के बारे में लिखना तो भूल ही गया। जब भी कभी कोई शिकायत होती है ..तो बलोग-पोस्ट की-बोर्ड पर उंगलियां पीटने से तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है ना।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

अब मुश्किल नहीं कुछ भी !

मैंने तो जब से इस गाने को सुना है मुझे तो नहीं लगता कि नामुमकिन नाम का कोई शब्द शब्द-कोष में है। इस गीत का एक एक शब्द, इस के म्यूज़िक नोट्स और श्रेयस तलपड़े की बेहतरीन एक्टिंग में इतना ज़्यादा जादू है कि किसी भी गिरे हुये बंदे को उठने के लिए प्रेरित ही नहीं कर दें, बल्कि उस की बांह पकड़ कर उसे उठा ही दे। मुझे तो यह गाना बेहद पसंद है ...जब भी यह कभी टीवी वगैरा पर देखता हूं तो किसी और लोक में ही पहुंच जाता हूं। इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी भी इतनी है कि इस की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम चाहे। सिम्पली सुपर्ब।
एक बार फिर से इस का आनंद लेता हूं।

आ जाओ पंजाब दा इक गीत सुनिये( आइए पंजाब का एक जबरदस्त गीत सुनें !)

दोस्तो, जब मैं अमृतसर के होस्टल में रहता था ना तो मुझ पर अपने टू-इन-वन पर बिलकुल देसी टाइप के पंजाबी गाने सुनने का नशा सा सवार रहता था। मेरी दोस्त मुझे कईं बार यह कहते थे कि यार , तुम्हारे टूइनवन पर बज रहे गाने सुन कर मज़ा आ जाता है, साथ में एकदो दोस्त यह ज़रूर कह देते थे कि यार, हैं ये सब ट्रक-ड्राईवरों की पसंद के ही। बस, अपनी अपनी पसंद है, अगर कुछ विशेष सुन कर मज़ा आता है तो क्यों न यह आनंद लूटा जाये।

अभी अभी मुझे बैठे बैठे एक बहुत ही मशहूर पंजाबी गीत की याद आ रही है.....आप भी सुनिए और आनंद लूटिये। इस में एक पंजाबी मुटियार अपने ट्रक-ड्राइवर पति की प्रतीक्षा करते करते बेहाल हो रही है, उस की सखियां उस से छेड़खानी कर रही हैं ,उस का प्यारा सा बेटा अपनी दुनिया में खोया रहता है और आग इधर ही नहीं लगी, दूसरी तरफ उस का घरवाला ( पति) भी अपने ट्रक के टूर के दौरान अपनी बीवी और बच्चे की याद में टाइम धकेलता रहता है। फिर वे अपनी अपनी जगह पर एक साथ बिताये हुये पलों को याद कर खुश होते रहते हैं।

रविवार, 9 मार्च 2008

जागो ग्राहक जागो, लेकिन फिर ?


हां, लेकिन ग्राहक जाग कर भी आखिर कर क्या लेगा ! अभी अभी बाज़ार से हो कर आ रहा हूं। कुछ दिन पहले एक दुकानदार को कोर्डलैस फोन के लिए पैनासॉनिक की ओरिजिनल बैटरी के लिये बोल कर आया था। कह रहा था कि दिल्ली से मंगवानी पड़ेगी.....सो, आज लेने गया तो उस ने एक बैटरी उस कोर्डलैस के हैंड-सैट में डाल दी और मैं उसे 125 रूपये थमा दिये।
लेकिन जब मैंने उस बैटरी की तरफ़ देखा तो मुझे लगा कि यह तो ऐसे ही कोई चालू सा ब्रांड है, ऐसे ही लोकल मेक....बस उस की पेकिंग पर केवल ग्रीन-पावर लिखा हुया था....ना कोई आईएसआई मार्क, न ही कोई अन्य डिटेल्स..........सीधी सी बात कि मैं एक बार फिर उस दुकानदार के हाथों उल्लू बन गया था।
मैंने उस से पूछा कि तुम्हें तो ओरिजिनल बैटरी के लिये कहा था , लेकिन वह कहने लगा कि ओरिजिनल अब कहां मिलती हैं....यह जो आप ने पहले से इस में डलवाई हुई है,वह तो बिल्कल ही डुप्लीकेट है जो कि 75रूपये में ही मिल जाती है और यह केवल आठ महीने चलेगी। लेकिन यह जो बैटरी अभी मैंने डाली है ...इस की कोई कंप्लेंट हमारे पास आई नहीं है और कम से कम एक साल तक चलेगी। मैं समझ गया कि अब एक बार फिर से बेवकूफ़ बन तो गया हूं ....अब ज़्यादा इस से बात करने से कुछ हासिल होने वाला तो है नहीं। इसलिए मैंने उस को यह भी बताना ठीक नहीं समझा कि यह जो बैटरी जिसे वह डुप्लीकेट कह रहा है वह तो इस कोर्डलेस के साथ खरीदते वक्त ही मिली थी और पिछले चार सालों से ठीक ठाक बिना किसी कंप्लेंट के चल रही थी....अब खत्म हुई है।
सही सोच रहा हूं कि हमारे यहां पर ग्राहक का तो बस हर तरफ़ शोषण ही शोषण है....पढ़ा-लिखा बंदा कहीं यह सोचने की हिमाकत भी न कर बैठे कि अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोग ही उल्लू बना करते हैं। देखिए, इस की एक जीती-जागती उदाहरण आप के सामने मौज़ूद है। क्या है ना , इन सब बातों से फ्रस्ट्रेशन होती है कि जब कोई ओरिजिनल चीज़ के लिये कहता है और मोल-भाव भी नहीं करता तो भी उसे ओरिजिनल चीज़ नहीं मिलती। अब यहां पर रोना तो इसी बात का है।
यह तो एक उदाहरण है..............ऐसे सैंकड़ों किस्से हम और आप अपने मन में दबाये हुये हैं और दबाये ही रहेंगे क्योंकि दैनिक दिनचर्या में हम लोग इतने पिसे हुये हैं कि हमारा यही एटिट्यूड हो जाता है......यार, भाड़ में जायें ये सौ-दो-सौ रूपये..................दफा करो..............कौन इतनी माथा-पच्ची करे ! बस, इतना सुकून है कि एक लेखक होने के नाते अपनी सारी फ्रस्ट्रेश्नज़ ( सारी बिल्कुल नहीं, बहुत कुछ दबा कर रखा हुया है, लेकिन आप लोगों से प्रोमिस कर चुका हूं कि एक न एक दिन सारा पिटारा आप के सामने खोल दूंगा.....फिर चाहे उस का कुछ भी हो अंजाम....परवाह नहीं करूंगा.................लेकिन वह समय कब आयेगा, मुझे भी पता नहीं) ...अपनी उंगलियों को की-बोर्ड पर पीट पीट कर निकाल लेता हूं...............what a great stress-buster, indeed!.....Isn’t it?.
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
लेकिन, हां, यकीन मानिये मैं किसी ग्राहक संगठन या किसी ट्रेंडी से नाम वाले उपभोक्ता संगठन में अपना दुःखड़ा रोने नहीं जाऊंगा। बस, आप तक अपनी बात पहुंचा दी है ना, चैन सा आ गया है..............जो कि दोपहर में किसी दूसरे दुकानदार के द्वारा मूर्ख बनाये जाने से पहले बहुत ज़रूरी था।
मैंने भी आज संडे के दिन आप का मूड भी आफ कर दिया है.....सो, चलिये अब थोडा मूड फ्रैश करते हैं , चलिये आप मेरी पसंद का एक गाना सुनिये..................यह गाना भी वह गाना है जिसे मैं सुनते कभी थक नहीं सकता !!...

पंजाबी अखबार पढ़ के वी हुन मज़ा नहीं आंदा..

हुने हुने इक पंजाबी दी अखबार पढ़ के हटिया हां.... पर ज़रा वी मज़ा नहीं आया। ऐन्ने कु ज्यादा इश्तिहार इस विच भरे होये हुंदे ने कि बंदे दा दिल करदै कि वगा के परे सुट्टे ऐन्नां अखबारां नूं। दो-चार पंज मिनट च अखबार पूरी खतम हो जांदी ऐ। वैसे मैं पिछले कुछ सालां दौरान लगभग सारीयां पंजाबी दीयां अखबारां नूं पढ़ मारीया है.....पर कुछ कम जचिया जिहा नहीं । कुछ ने जिहडीयां सिऱफ सियासी पारटीयां दी ही गल करदीयां ने, कुछ ने जिहड़ीयां बहुत ही अजीब तरह दीयां गल्लां ते फोटोयां छापदीयां रहंदीयां ने ते कुज जिह़डीयां कुछ ज्यादा ही चल्लन लग पैंदीयां ने उह तां ऐन्नां इश्तिहारां नाल ऐंज तूसीयां हुदीयां ने जिवें पढ़न वाले ने तिन रूपये इन्नां हज़ारां ऐडां नूं ही पढ़न लई खर्चे ने........बस, कुज दिनां बाद ही उन्नां तो मन भर जांदै। बस, हुन तां बस ऐतवार वाले दिन इक पंजाबी दा अखबार आंदा ऐ ताकि छोटे मुंडे दी पंजाबी वधिया हो जावे।
मैं समझदा हां कि अपनी मां -बोली दा गियान होना वी बहुत ज़रूरी है.....सानू्ं अपनी गल अपनी मां-बोली विच कहन च फखर वी महसूस होना चाहीदै। साडे सिर ते अपनी इस मां बोली दा इक बड़ा वड्डा करजा ऐ जिहडा सानूं थोडा़ जिहा तां लाउन दी कोशिश करनी ही चाहीदे ऐ......पूरा भार तां असीं लाउन दी सोच ही नहीं सकदे। पता नहीं अज कल मियारी अखबार क्यों नहीं लभदे.............इक आम बंदा ऐ ..उस नूं नेट नाल कोई सरोकार नहीं, उस दा महंगे महंगे रसालियां नाल वी कोई ऐडा कोई रिश्ता नहीं.....बस, उस दा तां रिश्ता है उस दी अपनी लोकल भाषा दे अखबार नाल....पर , हुन ऐह वी मसला बनिया होया ऐ कि आम बंदे तक असीं किवें अपनी गल बिना तोडे -मरोडे पहुंचा सकिये।
हां, जे कर तुसीं किसे पंजाबी ब्लोग ऐगरीगेटर बारे जानदे हो तां मैंनूं दसियो......होर तुसीं की की चाहंदे हो कि इस ब्लोग विच कवर होवे ,मैनूं लिखयो.....मैं पूरी कोशिश करांगा। अपनी मां-बोली विच वी लिखना किन्ना आसान ऐ ...बंदा नूं लगदै जिवे अपने यारा मितरां नाल गप्पां ही मार रिहा होवे। बस अजे एत्थे ही ब्रेक लानां वां.............मितरो, बोर ते नहीं हो रहे ना, जेकर कुछ अजेही गल वी होवे तां दस ज़रूर देयो................आपां उस्से वेले बंद कर दियांगे।
अच्छा , बेलीयो....................अगली पोस्ट तक रब राखा

आ जाओ मितरो थोडी गप-शप वी तां कर लईये !

इस हिंदी बलोगिंग विच लोकां नूं अपने अपने इलाके दीयां बोलियां विच लिखदियां वेख रिहा हां तो मैं वी इह सोच रिहा हां कि कुज इहो जिहा मैंनू वी करना चाहिदा ऐ। क्योंकि गलां कुज ऐंज तरां दीयां वी हुंदियां ने जिहडीयां अपनी मां-बोली विच ही कह के, कर के ...दिल खुश हुंदा ऐ। नहीं तां उस दा मजा ही मारीया जांदा ए। बस, हुन तुसीं वेखियों मैं तुहाडे नाल ऐनियां गलां करिया करनीयां ने कि तुसीं कह देना ...य़ार, हुन बस वी कर। इह इक पहला अक्सपैरीमैंट जिहा ही कर रिहा हां , सो मैंनू आप सारियां दी बोत बोत हल्ला शेरी चाहीदी ऐ। नहीं तां, मैं किधरे ऐवें ही थक टुट के ना बह जावां। बस ऐना कू धियान रख लियो। इक तरां नाल मैं तां अपने मुंह दी मैल लाउन दा उपराला जिहा ही कर रिहा हां. ऐस ब्लोग विच तां बस आपां सारे वीरां-भैनां ने बस गलां ही गलां करनीयां ने।
चलो, अपने पिंड अंबरसर तो ही गल शुरू करदा हां....मैं उत्थे ही जमिया पलिया और उत्थे ही अपनी सारी पढ़ाई होई है, सो, मैंनू उस शहर नाल बहुत ही प्यार है। किहड़ा दिन होवेगा जदों मैं अपने शहर नूं याद नहीं करदा। बस, सब पुरानी गलां लगदियां हन ते तुहाडे सारेयां नाल दिल खोल के सांजियां करनीयां ने।
वैसे हुने हुने मैंनू उस कमल हीर दा उह गाना जिहडा मैंनू बडा ही पसंद है याद आ रिहा ऐ।
बैठ के त्रिंजना च सोहनीये,
कड्ढें जदों चादर उत्ते फुल तूं..
किन्नू याद कर कर हसदी ,
चुन्नी च लुका के सूहे बुल तूं।...
बस, अज ते मैं थोडी इंटरोडक्शन ही देनी सी। दसियो, तुहानूं मेरा ऐह ख्याल किद्दां दा लग्गा ऐ। वीरो, जे पसंद करोगे ठीक ऐ...नहीं ते अपने इस ने वगाह के परे सुटांगे..........असीं किहडा किसे कोलों कुछ पुछन जाना ऐ....बस, चुप चुपीते आप्शन्स ते जा कर के डिलेट दा ब्लाग ते ऊपर जा कर के उंगली रूपी सोटा नाल इक छोटा जिहा वार ही करना ऐ ना...................ते बलाग गायब।
वेखो, मैंनू मेरे इस अजीब जिहे आइडिये बारे ज़रूर लिखियो, चंगा लग्गेगा.................हां, इक गल दा होर ध्यान रखियो कि इस पोस्ट दे थल्ले टिप्पणी वगैरा लिखन विच कोई भी भाषा इस्तेमाल कर लियो, हिंदी , पंजाबी , अगरेजी.........मैंनू बहुत खुशी होवेगी। पर लिखियो ज़रूर।
अच्छा फेर हुन तां चलदा हां............फेर आपां मिलदे गिलदे रहां गे, बेलियो। तद तक रब राखा.........अपना ध्यान रखियो।
जिऊंदे-वसदे रवो।।।।।।।।

शनिवार, 8 मार्च 2008

कश्मीर सिंह दी बल्ले बल्ले....

वैसे उस बंदे दी वी जिन्नी वाह वाह कीती जावे घट ऐ...किद्दां उह दलेर बंदा पाकिस्तान दीयां वखो-वख जेलां विच दुख झेलदा रिहा.....दो तिन दिन पहलां तां जद उस दी सारी स्टोरी अखबारां विच आई सी तां यकीन मन्नियो अपने तां बई लू-कंडे खडे हो गये सन। सचमुच दिलेरी ही ऐ......ऊस दिन चंडीगढ़ तों छपन वाले अखबार ने संपादक वाले पेज ते उस दी खबर नूं पूरी कवरेज दित्ती होई सी....देख के बहुत वधीया लग्गिया......। उस दी तीवीं ...बीबी परमजीत कौर दी वी जिन्नी कु दाद देविये उन्नी ही घट ऐ.....ऊह बीबी ने खुद कम्म कर कर के अपने बच्चेयां नूं पालिया, पढाईया , लिखाईया.....हुन मैंनू लिखदिया लिखदिया खियाल आया ऐ कि अज अंतरराषटरी महिला दिन ऐ तो की जेकर अज उस ऐडे वड्डा हौंसला रखन वाली देवी नूं ही सनमानिया जांदा तां किन्ना वधीया हुंदा। वैसे तो हिंदोस्तान दी इक जनानी दे बलिदान दी एह इक जींदी जागदी तसवीर ही बन गई जापदी ऐ।
अज दीयां अखबारां विच इह पढ के बहुत तसल्ली होई कि पंजाब सरकार ने उन्नां दोवां नूं हर महीने पंज पंज हज़ार दी पैंशन देन दा फैसला वी कीता है। ऐह पढ़ के वी बहुत खुशी होई कि उन्नां नूं इक प्लाट वी दित्ता जा रिहा है ते उस प्लाट दे उत्ते मकान उसारन दा सारा खरचा वी सरकार ही अपने सिर लवेगी।
तुसीं इक गल पड़ी.....अखबार विच लिखिया होईया सी कि उस महान बंदे दे इक पुत्तर नूं पोलियो होईया होया है पर तुसीं उस दी फैमली दी ऐह वडीयाई वाली गल सुनी ऐ कि उन्नां ने उस नूं इन्नां 35सालां विच दसिया ही नहीं कि उस दे पुत ने ऐह तकलीफ ऐ....सिर्फ इसे कर के ओह पराये देश विच बैठिया होईया है ते उत्थे बैठा उह ऐवें ही दुखी होवेगा।
उस दी तीवीं न दसिया की पहलां पहलां उस दे घरवाले दी इक चिट्ठी आई सी....बस उस तो बाद उस ने उन्नां ने कईं चिटठीयां पाईंयां..............मैं तां इह पढ़ के हैरान ही रह गया कि उह बीबी दसदी ऐ कि असीं तां चिट्ठीयां पांदे रहे...सानूं तां इह वी नहीं सी पता कि साडीयां चिट्ठीयां उस तक पहुच रहीयां वी हन कि नहीं........
बस, दोस्तो, जे कर मेरे वस विच हुंदा तां मैं तां अज दे दिन उस महान औरत नूं सारे दुनिया दे किसे प्लेटफार्म उत्ते खड़ा कर के सनमानत करदा तां जो दुनिया दीयां अखां खुलियां दीयां खुलियां रह जांदीयां कि ऐ वेखो, मेरे देश पंजाब दी इक महान बीबी जिहड़ी 35 वरेयां दा वड्डा समां अपने साईं दी आस विच कढ दित्ता ......वैसे कोई पता वी नहीं सी कि उह वापिस आंदा वी कि न आंदा।
हां, काशमीर सिंह तां अपने पिंड विच आ के ऐडा खुश है कि उस ने आखिया कि मैंनूं तां अपने पिंड विच आ के ऐवें लगदै जिवें मैं पैरिस ही आ गिया हां। वैसे वेखिया जावे तां गल है वी किन्नी वड़डी.....असीं अपनी आज़ादी दी कीमत शायद पूरी तरह जानदे ही नहीं हा।
चलो सारे रल मिल के अरदास करीये कि इक दूजे दे देशे विच बंद सारे कैदी आपो-अपने घर पुज जान............ऐवें ही तां नहीं कहंदे कि ...जो सुख छज्जू दे चौबारे, उह न बलख न बुखारे।