गुरुवार, 5 मार्च 2015

आते जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पे...

मैं अभी लखनऊ छावनी की उस सड़क से आ रहा था जो बेस अस्पताल के सामने से निकल कर आगे रायबरेली रोड़ पर मिल जाती है...काफ़ी लंबी सड़क है, और इस का कुछ हिस्सा अकसर सुनसान ही दिखता है।

आज भी मैंने देखा कि मेरे आगे एक बंदा जा रहा था साईकिल पर...लेकिन उस ने एक झंडा पकड़ा हुआ था...और अपनी मस्ती से साईकिल चलाता चला जा रहा था।

मुझे उत्सुकता हुई, मैंने एक फोटो तो खींच ही ली......लेकिन इतने में कहां मेरी खुजली शांत होने वाली थी...मुझे लगा कि यह बंदा किसी िमशन के तौर पर शायद साईकिल यात्रा पर निकला हुआ है...होता है ना, अकसर हम लोग देखते हैं लोग साईकिल पर भारत भ्रमण करते हुए किसी मुहिम को आगे बढ़ाते हैं।

मुझे वह मिशन जानने की तीव्र उत्सुकता तो थी ही। मैंने चलते चलते इन से वार्तालाप शुरू किया...बात मैंने शुरू कि आप कहां से आ रहे हैं...तब तक मैं देख चुका था कि उस बंदे के हाथ में एक राजनीतिक दल का झंडा था। उस ने बताया कि आज होली है, मुलायम सिंह के यहां से हो कर आ रहा हूं।

मुझे उत्सुकता हुई ...मैंने पूछा आप मुलायम सिंह के साथ होली खेल कर आ रहे हैं..तो उस ने हां में जवाब दिया...मैंने कहा ..कालिदास मार्ग पर?...हां, हां, जितने उत्साह से उसने कहा...मेरा भी उत्साह ऐसा बढ़ा कि मैंने कहा कि मैंने आप की तस्वीर खींचनी है।

वह बंदा तुरंत राजी हो गया...और उसने अपनी कमीज की ऊपरी जेब में रखी हुई लाल टोपी निकाल कर पहन ली...और फोटोशूट के लिए झट से तैयार हो गया। आप इसे भले-मानुस की तस्वीर यहां देख ही रहे हैं।
वह बताने लगे कि हर त्योहार पर वह नेता जी के यहां जाते हैं...(मुलायम सिंह यादव को नेता जी भी कहते हैं) ..दीवाली, होली ...और वहां से हम कुछ मांगते नहीं हैं लेकिन फिर भी सब कुछ मिलता है। साईकिल भी मिलता है। आगे उस ने दो तीन पंक्तियां राजनीतिक व्यक्तव्य के रूप में कहीं...मुझे ऐसे लगा जैसे यह कोई रटी-रटाई बात दोहरा रहे हैं।

खैर, दो मिनट मैं भी वहीं खड़ा हो गया... मैंने कहा कि यह झंडा साईकिल के साथ बांध ही क्यों नहीं लेते, तो कहने लगे कि नहीं, यह लंबा है, बंधेगा नहीं, ऐसा ही हाथ में ठीक है। यह मोहनलाल गंज के पास किसी गांव से आये हैं...अर्था्त् १५ किलोमीटर आना और जाना.....लेिकन उन्हें नेता जी से मिलने की बहुत खुशी थी।

मैंने पूछा कि क्या आप की नेता जी से आज कुछ बात हुई...कहने लगे कि आज कुछ बात तो नहीं हुई..लेकिन मुझे अखिलेश, राम गोपाल यादव, शिवपाल यादव सब पहचानते हैं।

मैंने कहा कि मैं आप की तस्वीर अपने सभी दोस्तों को दिखाऊंगा.......उन्हें शायद इस में कोई रुचि नहीं थी, पता नहीं उन्होंने मुझे कोई पत्रकार ही समझ लिया होगा....जो जाते जाते कह गये ....इसे नेता जी को ज़रूर दिखाईएगा।

तो एक तो थी यह मुलाकात...दो मिनट की .......दोस्तो, मैं अकसर यह बात लोगों से ज़रूर शेयर करता हूं कि हम जिन लोगों को ऐसे मिलते हैं ...आगे कि ज़िंदगी में कितनी संभावना है कि हम उसे फिर से मिलेंगे ...या देखेंगे.......ईश्वर करे वह भी शतायु हों और मैं भी ...लेकिन आप देखिए संभावना लगभग नगन्य है कि हम ऐसे फिर से एक दूसरे में टकराएंगे।आप को क्या लगता है?....अगर हम हर जगह मिलने वाले के बारे में ऐसे ही सोचने लगें कि यह हमारी आखिरी मुलाकात है तो हम कैसे किसी से ढंग से पेश नहीं आएंगे!!

एक मुलाकात और भी रही....एक नन्ही परी ..अपने मां बाप के साथ आई हुई थी ..मेरी ओपीडी के बाहर मुझे कानों में आवाज़ पड़ी उस की मां उसे खूब बुरा भला कह रही थी..बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी, मां कह रही थी कि तुम जहां भी जाती हो, मुझे परेशान ही करती हो, हमें अब इतना अनुभव हो गया है कि हमारी ओपीडी के बाहर चल क्या रहा है, हमें अकसर इस की पूरी खबर रहती है, आवाज़ों से फीडबैक मिलता रहता है।

मैंने अपने अटेंडेंट को कहा कि जिस औरत की यह छोटी बच्ची है उसे पहले बुला लो, अदंर आते ही चुप हो गई...मैं उस की मां का इलाज कर रहा था तो मैंने अचानक पीछे देखा कि वह चुपचाप अपनी मां के ब्रुश के साथ अपने दांत मांजने की कोशिश कर रही थी। तो यह तो थी इस नन्ही परी से छोटी सी मुलाकात..

और अब इस पोस्ट को लिखते लिखते राजेश खन्ना पर फिल्माए गये उस सुपर डुपर गीत का ध्यान आ गया ....ठीक है, राजेश खन्ना जिन अनजान लोगों से मिलने की बात कर रहे हैं वह अऩजान ग्रामीण भी हो सकता है और नन्ही परी ......हमारे हर तरफ़ उत्सव का वातावरण है, अगर हम इस महसूस करने की परवाह करें तो..

दोस्तो, यह गीत मैंने किसी ज़माने में बहुत सुना है...कहीं भी बज रहा हो, तो मैं सब काम छोड़छाड़ कर इसे सुनने बैठ जाता हूं...

बुधवार, 4 मार्च 2015

ये हरे-भरे पेड़ शहरों के फेफड़े हैं...

कल रात को मुझे मेरे मित्र डा अनूप ने करनाल के एक पार्क की कुछ तस्वीरें वॉट्सएप पर भेजीं और उस ने बड़े दुःख से बताया कि उस पार्क से ७०पेड़ काट दिए गये हैं...उन की बातों से बेहद अफसोस महसूस हो रहा था।

हो भी क्यों नहीं, हमारे आस पास जो भी पेड़ होते हैं उन से हमारा भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है..वे सब हमारे दुःख सुख के मूक साथी होते हैं, हमें अपने अस्तित्व मात्र से ही बहुत कुछ सिखाते रहते हैं।










उस ने लिखा कि वे तस्वीरें उस ने काफ़ी दूरी से ली हैं....मेरे विचार में ऐसा कर के उसने बड़ी समझदारी का परिचय दिया। क्योंकि जब पेड़ों की इस तरह की अंधाधुंध कटाई हो रही हो तो उस के रास्ते में आने वाले के साथ भी कुछ भी हो सकता है, हम अकसर मीडिया में देखते हैं।

मुझे एक वाक्या याद आ गया ..हम लोग यमुनानगर में जिस सरकारी आवास में रहते थे ..उस के पास बड़े बड़े पेड़ थे, एक दिन मेरी मिसिज़ ने देखा कि कुछ लोग एक पेड़ को कुल्हाड़ी से काट रहे हैं...तो उसने उन से पूछा कि किस के आदेश से इसे काट रहे हो...उन्होंने जवाब दिया कि आदेश हैं...तुरंत घर आकर मिसिज़ ने एक मुख्य अधिकारी को फोन किया....अब अगर इस तरह का फोन जाता है तो ये लोग चुप नहीं बैठते...उसने आगे अपने जूनियर अफसरों को हड़काया और चंद मिनटों में वह कटना बंद हो गया..लेकिन उस कुल्हाड़ी के प्रहार उस पेड़ के तने पर उस पर होने वाले अत्याचार की दास्तां ब्यां कर रहे हैं।

यह मैंने इसलिए लिखा कि हम लोग कोई पहल करते हैं तो अकसर हमें सफलता मिल ही जाती है..अकसर अनाधिकृत्त पेड़ काटने वाले एक माफिया का हिस्सा होते हैं....अगर ये बिना आदेश के काट रहे हैं तो वही बात है कि झूठ के पांव नहीं होते.....ये बहुत बार तुरंत तितर-बितर हो जाते हैं...लेकिन अकसर इन लोगों का ऐसे काम करने का टाइम ऐसा होता है जिस से आसपास के लोगों को पता ही नहीं चल पाता।

दोस्तो, वैसे ही अब शहरों में घने हरे-भरे छायादार पेड़ बचे ही कहां है, और जो बचे हैं अगर इन पर ही कुल्हाड़ी चल जाएगी तो लोग सुबह सुबह उठ कर अपने फेफड़ों को जो ताज़ी हवा दिलाने जाते हैं, वे कहां जाएंगे.....इतना तो हमें याद रखना चाहिए कि हर कटने वाले पेड़ के साथ हम भी थोड़ा सा मरते हैं...।

मैंने अपने दोस्त अनूप से पूछा कि क्या ये सफेदे के पेड़ थे....आप भी देखेंगे कि ये सफेदे के पेड़ नहीं लग रहे ...क्योंकि सरकारें अकसर सफेदे के पेड़ लगाती है, फिर उन्हें तैयार होने पर कटवाने का ठेका दे देती है।

अनूप बता रहा था कि उस ने एरिया के एक्सईएन से भी बात की तो उस का जवाब था कि हम छानबीन करेंगे.....सोचने वाले बात है कि क्या छानबीन से एक भी टहनी लौट आएगी।

वह बता रहा था कि वहां पर अखबार वाले भी पहुंचे हुए थे ...और सुबह अखबार में भी छप जाएगा। लेकिन कहने वाली बात यही है कि इस से आखिर होगा क्या...सच में बहुत दुःख हुआ...बेहद अफसोसजनक वाक्या हो गया यह ....आज सुबह जब लोग उस पार्क में टहलने जाएंगे तो इस तरह से अपने दोस्त पेड़ों का कत्ल हुआ देखेंगे तो उन के दिल पर क्या बीतेगी.....

मैं बंबई में दस साल रहा हूं और जानता हूं कि बड़े शहरों में तो लोगों ने पेड़ प्रेमियों के समूह बनाए हुए हैं....जैसे Friends of trees... अगर आप को कहीं पर भी पेड़ कटता दिख रहा है तो आप इस संस्था को फोन करिए ...उनके कार्यकर्त्ता तुरंत पहुंच जाते हैं और पुलिस को बुला लेते हैं....लोग इतनी हिम्मत ही नहीं करते।

लेकिन अकसर जैसे सड़क पर किसी को हादसे का शिकार हुए देख कर हम लोगों के हाथ-पांव वैसे ही फूल जाते हैं....और कुछ करने की बजाए हम लोग तमाशबीन की भूमिका निभाने लगते हैं......ऐसे ही आम आदमी को शायद पता ही नहीं है कि अनाधिकृत्त तौर से किसी भी पेड़ को कांटना एक संगीन अपराध है..मेरे िवचार में जहां पर भी पेड़ लगे हों, उन के आसपास इस तरह की सूचना भी एक बोर्ड पर लिखी होनी चाहिए कि अगर किसी पेड़ को कटते देखें तो इस की सूचना इस इस मोबाईल नंबर पर दें, वॉटसएप पर इस नंबर पर इस की सूचना दीजिए...आज के संदर्भ के यह बहुत ही ज़रूरी हो गया है।

अभी अभी दोस्त ने पेपर की कतरन भी भेजी है...आप भी देखिए ...कितना अजीब लगता है इस खबर में पढ़ना कि ये पेड़ इसलिए काट दिए गये क्योंकि ये पुराने हो गये थे। क्या हमारी दरिंदगी अब इतनी बढ़ गयी है कि बड़े-बुज़ुर्गों पर अत्याचार करने के बाद अब हमने बड़े-बुज़ुर्ग पेड़ों का रूख कर लिया है... बेहद शर्मनाक।


जिस पार्क की डा अनूप ने बात की है कि वहां से ७० पेड़ कटे हैं, मुझे ऐसा लगता है कि यह बिना किसी उच्चाधिकारी के आदेश के नहीं हो सकता......अब क्या कारण रहा होगा, इस का पता तो थोड़ी छानबीन से ही चल पाएगा। वैसे एक ढंग तो है सारी जानकारी हासिल करने का ... सूचना का अधिकार......पूरी खबर देख कर मैं अनूप को भी प्रेरित करूंगा कि आरटीआई अधिनियम के अंतर्गत कुछ प्रश्न पूछे.....कितने पेड़ कटे, क्या कारण था, किस के आदेश से ये पेड़ कटे, जिस फाइल में इस तरह का आदेश दिया गया उस की फाइल नोटिंग्स की फोटोकापी, कितनी रकम ठेकेदारों से वसूली गई....और भी कुछ प्वाईंटेड से प्रश्न............ये पेड़ तो लौट कर नहीं आएंगे लेकिन शायद सवाल पूछने से पता नहीं कितने पेड़ भविष्य में कुल्हाड़ी से वार से बच जाएंगे.........जैसे वह एक अभियान चला हुआ है ना....घंटी बजाओ.....जहां कहीं भी आप को औरते के साथ जुल्म होने की आवाज़ है, प्रताड़ित होने की आवाज़ें किसी घर से आएं....बस, आप घंटी बजा दो.....जी हां, इस तरह से पेड़ों की कटाई-छंटाई होने पर या बेहतर होगा उसी समय ही प्रश्न पूछने की एक आदत बना लें......देखिए, क्या होता है.......अगर तो किसी आदेश से यह सब हो रहा है, तो भी पता चलेगा कि क्या कारण है, और अगर पेड़ माफिया के चोर ये सब काम कर रहे हेैं तो वे वैसे भी भाग खड़े होंगे।

ये जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं ये सब बेकार हैं अगर हमें पेड़ों से प्यार ही नहीं है, उस की एक उदाहरण जो हमें हमारे बॉटनी(वनस्पति विज्ञान) के प्रोफेसर साहब (डीएवी कालेज अमृतसर) ने १९७८ में सुनाई थी वह थी उस महान शख्शियत सुंदर लाल बहुगुणा की.....पहाड़ों में उस संत ने एक ऐसी मुिहम चला दी कि जब भी लालची लोग पेड़ों को काटने आते तो गांव वाले पेड़ के तनों से लिपट जाते और उस माफिया को ललकारते कि पहले हमें काटते.....इस मुहिम को चिपको मूवमेंट का नाम दिया गया...ज़ाहिर सी बात है, ऐसे में कौन पेड़ काटे, पेड़ काटने वाले भाग खड़े होते। अब सोचने वाली बात यह है कि आज की तारीख में कहां हैं वे लोग जो पेड़ के तनों के इर्द-गिर्द एक सुरक्ष कवच बना कर अपने बच्चों की तरह इन की हिफ़ाजत करें। उन पहाड़ के लोगों की जान की कीमत कुछ सस्ती तो नहीं थी!!

 जब प्रोफैसर कंवल ने हमें क्लास में यह बात सुनाई तो सुन कर हमें बहुत अच्छा लगा...उन का वनस्पति प्रेम भी उन की आंखों से झलक जाया करता था.....एक बार उन्होंने क्लास लेते हुए एक छात्र को सामने वाले पेड़ से एक पत्ता उतार कर लाने को कहा ....उस दिन वे पत्ते के बारे में पढ़ा रहे थे....और उस लड़के ने क्या किया कि जा कर बडी निर्ममता से एक टहनी को मरोड़ा और खेंच कर ले आया........यह सब कंवल साहब दूर से देख रहे थे, तो फिर क्लास में वापिस लौटने पर उस की क्या शामत आई....प्रोफेसर कंवल साहब की नज़रों ने ही उस को तमाचे जड़ दिए...और उसी दिन हमने  भी पेड़ों के साथ पेश आने की तहज़ीब का एक अहम् पाठ पढ़ लिया।

इतनी बातें.....इतनी बातें........पेड़ों के बारे में तो जितना लिखें कम है, लेकिन कुछ करें भी तो बात बने......अब वे ७० पेड़ लौट कर नहीं आएंगे......हमारे प्यारे दोस्त, हमें सुकून देने वाले, ठंडी छाया देने वाले, धूप-बरसात से बचाने वाले....पक्षियों का आशियाना....शुद्ध हवा के अथाह भंडार और इस सब के भी ऊपर सैंकड़ों चेहरों पर सुबह सुबह मुस्कान लाने का एक ज़रिया ........अाज हमारे बीच नहीं हैं, अफसोस..............मैं ही बहुत आहत् हुआ हूं।

गौरी देवी को मेरा कोटि कोटि नमन.......आप भी इस देवी के जज्बे को देखिए...



मंगलवार, 3 मार्च 2015

चंद तस्वीरें जो आप को दिखानी हैं...

दोस्तो, मैं अकसर यहां वहां आते जाते रास्ते में तस्वीरें खींचता रहता हूं...पिछले कुछ दिनों में भी मैंने कुछ तस्वीरें खींचीं...सभी लखनऊ की ही हैं...मैं अभी डिलीट करने लगा तो सोचा, इतनी भी क्या जल्दी है, अब खेंच ही रखी हैं तो आप सब से दो दो लाइन लिख कर शेयर भी कर लेता हूं...


अपनी कॉलोनी के एक घर के बाहर इस तरह का पुराने ज़माने का लेटर-बॉक्स देख कर हैरानगी हुई...वैसे तो आजकल इस तरह के ये बॉक्स कहां बनते हैं...शायद इन लोगों ने कह कर बनवाया होगा।

यह हमारी कॉलोनी के मेनगेट की शोभा बढ़ाता है...
कुछ हाउसिंग सोसाइटीयों को बेल-बूटों की संभाल करने का हुनर होता है..यह एक नमूना है...आप ने शायद किसी गांव में ही पेड़ों की इस तरह की अच्छी हिफ़ाज़त होती देखी होगी...कितना सुंदर लगता है मिट्टी का प्लेटफार्म...और ये लोग इसे अकसर गमलों वाले रंग से सजाते रहते हैं....अच्छा लगता है। अकसर जिन जगहों पर इन पेड़ों के इर्दगिर्द सीमेंट का प्लेटफार्म बना दिया जाता है...ऐसे नहीं लगता जैसे पेड़ों का गला ही दबा दिया हो!...मुझे यह मिट्टी वाला आइडिया बहुत बढ़िया लगता है।




यह जो आप ऊपर तीन तस्वीरें देख रहें हैं , ये कल की हैं। मैंने कल पहली बार ऐसा देखा था कि इस तरह के बेड में एक बड़ा ट्रंक ही फिट करवा दिया। वैसे तो इस तरह की जुगाड़बाजी के अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी हैं..लेकिन जो भी हो, ज़रूरत आविष्कार की जननी है। मैंने इस भद्रपुरूष को जाते जाते पूछा कि ये कहां पर बनते हैं तो उसने बताया कि कह नहीं सकता...मैं तो मोहनलालगंज से लेकर आ रहा हूं....यह लखनऊ से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी पर है।




इस कॉलोनी में रहते दो बरस हो गये हैं....और माली अकसर नीचे काम करते दिख जाता था..इन तीनों में से सब से पहली तस्वीर जो आप देख रहे हैं, वह उस दिन की है जब मैंने एक जैसे दो बंदे देखे। मैं इन के पास गया और मैंने हैरानगी प्रकट की कि यार, आप दोनों अलग अलग हो, मुझे तो यह कभी पता ही नहीं चला....वे बताने लगे कि हम दोनों जुड़वा हैं ..दस मिनट का अंतर है....मैंने कहा..तस्वीर ले लूं ...तो वे झट से पोज़ देने के लिए खड़े हो गये।


रास्ते में जाते हुए यह पत्ते अच्छा लगा था कुछ दिन पहले.... यह इस तरह से मेरे कैमरे में आ गया।

आज शाम एक बाज़ार की नुक्कड़ पर ये सब तैयारियां होते देख ध्यान आया कि होलिका दहन की तैयारियां ज़ोरों पर हैं...तो मैंने इस मंज़र को कैमरे में कैद कर लिया.....पता नहीं यह भाई जी क्यों इतने गुस्से में लग रहे हैं, यह मेरा प्रश्न नहीं है, मेरे बेटे ने मेरे से पूछा!


तीन दिन पहले पीडब्ल्यूडी अफसरों की कॉलोनी के बाहर इस तरह का विज्ञापन पहली बार देखा.... मुझे नहीं पता था कि गाड़ी को धुलवाना भी इतना महंगा सौदा है......और ऊपर से आपने देख ही लिया...बिजली..पानी आपका...हा हा हा हा ...


आज कल हर तरफ़ लोगों को सेहतमद बनाने पर जोर है.....आए दिन  फिटनेस वर्कशाप लगती रहती हैं।


हमारे अस्पताल से मरीज़ों को माउथवाश भी मिलता है...दो दिन पहले एक पढ़ी लिखी लेडी बोतल लेकर मेरे को दिखाने आ गई कि क्या यह भी औरतों मर्दों के लिए अलग अलग होता है। मैंने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, यह कंपनी ने बिना कारण टिका दिया होगा, आप भी इसे बिना झिझक इस्तेमाल कर सकती हैं।


हमारे घर के पास ही किसी मकान के बाहर सड़क के किनारे उन्होंने यह शो-पीस रखा हुआ है...अच्छा लगता है ...रात के समय इस पर लाइट पड़ती है, इस का भी इंतजाम है.....अपने अपने शौंक की बात है!!

बस, आज के लिए इतना ही......लेिकन जाते जाते ध्यान आ गया कि पिछले बरस इन्हीं दिनों जब पड़ोस में होलिका दहन हो रहा था तो एक भोजपुरी गाने की खूब धूम मची हुई थी....मैंने अपने सहायक से आज पूछा कि वह कौन सा गीत है ....राजा जी...राजा जी.....उसने मुझे उस गीत का पूरा पता बता दिया....आप भी सुनिए...यह यहां का सुपर-डुपर गीत है....जैसे पंजाब का दिलेर मेंहदी का गीत है ना ...........गड्डे ते न चड़दी... गडीरे ते न चड़दी.....

सुबह अखबार न देखना भी सेहतमंद रहने का एक जुगाड़

कल रात से ही मेरा थोड़ा थोड़ा सिर दुःख रहा था..होता है जब कभी खा-पीकर बस लेटा ही रहता हूं तो यह होता ही है...वैसे भी पिछले दो दिन से मौसम बरसात और ठंडी हवाओं का था और ऊनी कपड़े पहने नहीं थे, इसलिए भी थोड़ा सिर भारी सा ही था।

मैं सुबह उठा तो ...ऐसे ही लेटा हुआ था तो मुझे बॉलकनी में अखबार के आने आवाज़ सुनाई दी।

लेकिन मैं हर रोज़ की तरह आज अखबार उठाने को लपका नहीं....इच्छा ही नहीं हुई....कहीं न कहीं मन में ऐसा ध्यान था कि यह जो सिर थोड़ा थोड़ा सा भारी हो रहा है, अगर अखबार के पन्ने उलटने-पलटने के चक्कर में पड़ गया तो यह फिर से फटने लगेगा। यही सोच कर चुपचाप बैठा रहा।

दोस्तों, आज से बीस वर्ष पहले मैंने बंबई में रहते हुए सिद्ध समाधि योग के कुछ प्रोग्राम किए थे...बहुत अच्छे लगे थे....अच्छे से सिखाया था...ये प्रोग्राम गुरू जी रिशी प्रभाकर जी द्वारा शुरू किए गये थे....हां, तो दोस्तो वहां पर हमें इस बात के लिए विशेष प्रेरणा दी जाती थी कि अखबार मत देखा करो...सुबह सुबह अखबार देखते ही सारी निगेटिविटी हम लोग अपने मन में ठूंस लेते हैं।

जैसा कि अकसर होता है कि हम लोग सुन सब की लेते हैं और करते मन की हैं, मैंने भी कुछ दिन --बिल्कुल थोड़े ही दिन--- गुरू जी की यह बात मानी और बाद में वहीं सुबह एक दो घंटे अखबारों के साथ बिताने शुरू कर दिए।

सोचने वाली बात तो है कि आज की अखबार में ऐसा है क्या कि हम लोग सुबह सुबह उन के लिए इतने तड़फने लगते हैं।

यू.पी कि कानून व्यवस्था से तो सब वाकिफ ही हैं, लखनऊ के अलावा यू.पी के किसी शहर में नहीं रहा, और यहां इतना क्राइम है कि सुबह सवेरे अखबार देखने पर ही सिर भारी होने लगता है...कईं बार तो रोने की इच्छा ही नहीं, रो ही पड़ते हैं। हमारे साथी अकसर कहते हैं कि आप लोग यूपी के अन्य शहरों में नहीं रहे हैं न, इसलिए आप को पता नहीं है कि यूपी के अन्य शहरों में क्या चल रहा है। वे कहते हैं कि हमें तो लखनऊ में इतना सुरक्षित महसूस होता है।

हम अकसर सोचते हैं कि क्या सुरक्षा की परिभाषा यही है ..हर रोज नित नये हथकंडे अपना कर मार-काट, देसी कट्टों को खुला इस्तेमाल, एटीएम की लूट, गार्डों की हत्या.....बलात्कार की ऐसी ऐसी वहशी घटनाएं....वैसे तो आप को लगता होगा कि यह अब देश के लगभग हर शहरों में होने लगा है, फिर भी यहां तो जुर्म बहुत ज़्यादा है, ऐसा लगता है कि लोगों में कानून का भय नहीं है।

हां तो दोस्तो इस तरह की खबरें रोज़ रोज़ सुबह सवेरे पढ़ने से क्या हमारा दिन अच्छा बीत सकता है...नहीं ना, तो फिर सुबह का समय हमें अपने लिए ...अपने चैन-सुकून के लिए रखना चाहिए। कितना अच्छा हो अगर सुबह हम लोग टहल लिया करें, और अपनी अपनी आस्था अनुसार ईश्वर से प्रार्थना-याचना-अरदास कर लिया करें...अखबार पढ़ने से कहीं अच्छा है कि हम चाहें तो रेडियो ही सुन लिया करें....रेडियो में भी मुझे लगता है कि सुबह सुबह तो अपना आकाशवाणी विविध भारती ही सुनना ठीक है, प्राईवेट एफएम चैनल भी सुबह सुबह जो कुछ अकसर परोसने लगते हैं वह सुकून देने वाला नहीं होता।

दोस्तो, मैं बीस सालों में अपने मन को इतना ही तैयार कर पाया कि सुबह सवेरे अखबार देखना सेहत के लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं है, लेकिन मैं इसे दोपहर या शाम को देखना तो अभी बंद नहीं कर पाऊंगा....शायद यह अकल भी कुछ बरसों बाद आ जाए...लेकिन अभी तो नहीं!

दोस्तो, ठीक है अखबार में कुछ प्रेरणात्मक प्रसंग भी आते हैं...कुछ विकास से संबंधित मुद्दे भी छपते हैं ...लेकिन वे सब उस में ही रहेंगे ...दोपहर-शाम तक इंतज़ार कर सकते हैं ....किसी को भी एक विचार आ सकता है कि सुबह सवेरे हम लोग वही प्रेरणात्मक बातें ही पढ़ लें तो ...लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि यह संभव हो नहीं पाएगा, जिस तरह से निगेटिव खबरों की सुर्खियां सारी अखबार में बिछी पड़ी रहती हैं, ऐसे में बिना इन तरह की खबरों के कांटों में उलझे उन अच्छे लेखों पर पहुंचना खासा दुर्गम काम है। ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है यह मेरी व्यक्तिगत समस्या हो।

तो दोस्तो, मैंने तो आज से अपने आप से ही यह प्रण किया है कि सुबह सवेरे अपने मन में कचरा और निगेटिविटि ठूंसनी बंद कर देनी है। कुछ कुछ खबरें, तस्वीरें बहुत ज़्यादा विचलित कर देती हैं.....दोस्तो, हम सब लोगों का मन ही ऐसा है कि अगर सुबह छः बजे मोबाईल की घंटी बजती है तो सब से पहला ध्यान यही जाता है कि सब ठीक तो है ना, कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई!!....फोन चाहे कोई आम हो हो, लेकिन हम लोग दस-पंद्रह मिनट के लिए सामान्य नहीं हो पाते, होता है ना ऐसे ही?...ऐसे में क्यों सुबह सुबह अखबारों में छपी सारी वारदातें मन में बसा ली जाएं!!.... आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है!!

लेकिन दोस्तो काम की बात तो आप से शेयर नहीं की.... मैंने बताया ना कि सुबह सिर भारी था, अजीब सा लग रहा था, जानबूझ कर मैंने अखबार देखना तो दूर, बॉलकनी से उठाई तक नहीं......और हम लोग सुबह एक घंटे के लिए सत्संग करने के लिए चले गये.........वहां पहुंचते ही ऐसा खुशनुमा माहौल मिला कि पता ही नहीं सिर का भारीपन कहां गया, नहीं तो सारा दिन यह भारीपन पीछे पड़ा रहता, एक नया उत्साह...नईं स्फूर्ति का संचार हो गया।

बस दोस्तो यह आशीर्वाद दीजिए कि सुबह सुबह अखबार को छूने वाली अपनी बात पर टिका रह सकूं।

देखिए, मुझे यहां टिकाने के लिए पोस्ट के कंटेंट से मेल खाता एक सुदंर गीत भी मिल गया....सांचा तेरा नाम, तेरा नाम...तू ही बनाए बिगड़े काम....



रविवार, 1 मार्च 2015

क्या आपने भगत पूरन सिंह का नाम सुना है?

भगत पूरन सिंह जी ....कोटि कोटि नमन 
कोई बात नहीं, अगर नहीं भी सुना, तो इन के बारे में अभी बात कर लेते हैं...वैसे तो अगर आप स्वयं भी भगत पूरन सिंह लिख कर गूगल करेंगे तो इस महान् शख्शियत के बारे में सब कुछ जान सकते हैं...और अगर पिंगलवाड़ा अमृतसर लिख कर गूगल सर्च करेंगे तो भी सब कुछ आप आसानी से जान जाएंगे।

दोस्तो, हम लोगों ने बचपन से इस महान शख्शियत के बारे में सुना और इन के महान कामों को देखा।

आज अचानक इन का ध्यान आ गया क्योंकि दो दिन पहले मेरे एक मित्र नवराज ने फेसबुक पर इन के बारे में लिखा ...नवराज गांव राजासांसी (अमृतसर हवाई अड्डे का नाम राजासांसी एयरपोर्ट है....उस के साथ लगते गांव को राजासांसी कहते हैं)...का रहने वाला है...वह याद कर रहा था कि जब वह चौथी या पांचवी कक्षा में था तो एक दिन जब वह हाकी उठा कर सड़क पर मस्ती से चला जा रहा था तो उस की निगाह एक बुज़ुर्ग पर पड़ी जो सड़क से पत्थर उठा कर अपने रिक्शे में भरता जा रहा था... नवराज कहता है कि वह उस से बहुत प्रभावित हुआ..उसे फिर पता चला कि यह तो भगत पूरन सिंह है ... और वह इस तरह के राह पर गिरे पत्थर उठा रहा था ताकि कोई राहगीर चोटिल न हो जाए..

दोस्तो, मेरा भी इस शख्स से तारूफ़ १९७० के आस पास के दिनों का है.....मुझे बहुत अच्छे से याद है कि हर महीने हमारे घर लोहे की छोटी सी काली ट्रंकी रूपी दान-पात्र उठाए एक शख्स आया करता था और उस ट्रंकी पर लिखा होता था...दानपात्र...पिंगलवाड़ा, अमृतसर......और मेरे पिता जी उसे हर महीने बड़े सत्कार से दो रूपये देते और वह उसी समय रसीद काट कर दे जाता। मैंने यह रूटीन बरसों तक देखा....कईं बार जब वह शख्स किसी महीने नहीं आता तो मेरे पिता जी उसे अगले महीने दोगुनी रकम दे देते।


वह शख्स हमारी कॉलोनी में बहुत से घरों में जाया करता था... वह पिंगलवाड़े के लिए दान इक्ट्ठा किया करता था। उस की सभी बहुत ईज्जत किया करते थे।

लेकिन दोस्तो मेरे को यह बिल्कुल भी ध्यान नहीं है कि वह आने वाला शख्स स्वयं भगत पूरन सिंह ही था या उस के पिंगलवाडे का कोई सेवादार था....मुझे बड़ा अफसोस है कि मुझे याद नहीं है, लेिकन मैं जब भी भगत जी की फोटो देखता हूं तो उसी शख्स की तस्वीर मेरी आंखों के आगे घूम जाती है।

हां, तो बात आगे भी तो बढाऊं........हां, तो दोस्तो मैं नवराज की फेसबुक पोस्ट की बात कर रहा था...उसने उसमें लिखा था कि उसने एक पंजाबी फिल्म देखी है ...एह जन्म तुम्हारे लेखे...जो कि भगत पूरन सिंह के जीवन पर आधारित है। मैंने भी ट्रेलर तो उसी समय देख लिया और आज वह फिल्म भी देख ली... बहुत अच्छा लगा...मेरी मां भी भगत पूरऩ सिंह की बहुत बड़ी प्रशंसक हैं......अकसर उन का साहित्य पढ़ती रहती हैं...उन्होंने भी देखी है आज यह फिल्म। इस संत ने सामाजिक विषयों एवं नशेबंदी पर बहुत सुंदर लिखा है....अगली बार जब आप स्वर्ण मंदिर जाएं तो किसी से पूछ लेना भगत पूरन सिंह जी कि किताबें किस स्टाल पर मिलेंगी.....सारा साहित्य मुफ्त बांटा जाता है।

अच्छा आप भी ट्रेलर तो देखिए.... फिल्म भी देखने का जुगाड़ ज़रूर कर लेना....यकीन मानिए पवन मल्होत्रा ने भगत पूरन सिंह के रोल के साथ पूरा न्याय किया है!



दोस्तो, इस महान शख्स ने जितनी सेवा की है ...उसे शब्दों में ब्यां कर पाना मुश्किल है...घर घर जा कर भिक्षा लाना, पिंगलवाडे के लिए...जहां पर लूले, लंगड़े, अपाहिज, टीबी, कुष्ठ रोगी, मानसिक तौर पर अस्वस्थ रोगी...बेघर, बेबस महिलाएं....जो भी बिना आसरे के होता, उसे वहां पक्की पनाह मिल जाती ...अभी भी पिंगलवाड़ा चल रहा है।

दोस्तो, इस महान् शख्स के बारे में ज़रूर जानिए....फिल्म भी ज़रूर देखिएगा.... पंजाबी में है तो भी फिक्र नॉट, आप देखिएगा, आप को समझ आ जाएगी..........इंसानियत की भी क्या कोई भाषा होती है!

मुझे याद है मैं १९८७ में एक बार इस पिंगलवाड़े में गया था...एक साथी को वहां रहने वाले अपाहिज बच्चों पर कुछ स्टडी करनी थी...लेकिन अपने काम के प्रति उस में बिल्कुल संजीदगी नहीं थी....अफसोस!

Wikipedia Link... Bhagat Puran Singh ji
Wikipedia Link... Pingalwada, Amritsar

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

बुज़ुर्गों का असली रोग है अकेलापन

ऐसा नहीं है कि सभी बुज़ुर्गों का ऐसा हाल है ..लेकिन अधिकतर के बारे में यह बात कही जा सकती है।

मैं तो जितना जितना अपने प्रोफैशन में घिस रहा हूं, मुझे यही लगने लगा है कि बहुत बार तो किसी बुज़ुर्ग की सभी बातें अच्छे से सुनना ही उन का इलाज होता है...क्योंकि वे भी जानते हैं कि सभी अंग बदले नहीं जा सकते, सभी अंग अब जवान आदमी की तरह काम नहीं कर सकते, वे सब कुछ अच्छे से समझते हैं...लेकिन उन्हें बस डाक्टर से एक आश्वासन चाहिए होता है कि सब कुछ ठीक ठाक है।

मैं अपनी ओपीडी में जितना भी व्यस्त रहूं लेकिन मैं किसी भी बुज़ुर्ग की बात कभी नहीं काटता, मैंने कभी किसी को नहीं कहा कि अच्छा, अब आप चलिए...मुझे यही लगता है कि ये जितनी बातें करते हैं, कर लेने दें इन्हें...इन की घर पर अकसर कोई सुनता नहीं, बाहर कोई विशेष सर्कल अधिकतर लोगों का होता नहीं, ऐसे में अपने दिल का गुब्बार कहां जाकर ये लोग बाहर निकालें।

मसला सारा पांच सात दस मिनट का होता है...बस इतनी सी बातें होती हैं, वे अपने दिल को खोल कर हल्का महसूस करते हैं, उन के चेहरे से झलकता है।

जब ढंग से की दो बातें ही इलाज होता है.. (इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करिए)

आज से तीस साल पहले जब हम लोगों ने नईं नईं डाक्टरी सीखी तो क्या देखते हैं कि हमारे कुछ साथी बुज़ुर्गों से उतने सम्मान से पेश नहीं आते थे जितना किसी चिकित्सक से अपेक्षित होता है...कईं बार यह भी देखा कि जैसे ही किसी बुज़ुर्ग ने अपनी एक ही बात दो तीन बार कही तो हमारे साथ पढ़ने वाली कन्याएं अकसर कह दिया करती थीं कि ....ये तो साईकिक लगता है...(इंगलिश में शायद इतना बुरा नहीं लगता ..लेकिन हिंदी में इस का मतलब बहुत खराब है...यह थोड़ा सटका हुआ लगता या लगती है). ..

लेिकन इतने बरस घिसते घिसते सारा कुछ समझ में आने लगता है ...जब वह कोई छोटा सा घाव भी हमें दिखाने आता है तो उस के दिमाग में भयंकर से भयंकर बीमारी का नाम घूम रहा होता है, हम जैसे ही नज़र मार के उसे आश्वासन देते हैं कि कुछ नहीं है, चिंता न करिए, दो चार दिन में एक दम ठीक हो जाएगा......यह सुनते ही उस के चेहरे पर चमक लौट आती है। सच कह रहा हूं दोस्तो रोज़ चेहरों पर दो मिनट में ही चमक आते देखता हूं।

जैसे जैसे हम अपने काम में घिसते चले जाते हैं यह बात हमारे मन में अच्छे से घर कर जाती है कि मरीज़ की परिस्थिति बदलने के लिए हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, उस की सारी की सारी परिस्थितियां हमारी पहुंच से बहुत दूर हैं...हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते लेकिन एक बहुत अहम् बात तो फिर भी है कि हम उस से अच्छे से बात तो कर सकते हैं.... यह भी उस की सेहत के लिए इलाज जितना ही ज़रूरी है..क्योंकि मरीज़ किसी किसी डाक्टर के पास जा कर बोलते हैं कि उस से तो बात कर के ही आधा दुःख छू-मंतर हो जाता है, कुछ तो जादू होगा ऐसी रूहों में....कुछ तो करिश्मा होगा....कुछ तो शफा होगा उन नेक आत्माओं में।

इसी बात से संबंधित यह पोस्ट भी देखिएगा..... मरीज से ढंग से बात करने की बात (क्लिक करिए)

मेरा भुलक्कड़पन देखिए....लिख मैं बुज़ुर्गों पर रहा हूं लेकिन पता नहीं कहां से कहां निकल गया....हां, एक बुज़ुर्ग की बात करता हूं ...दोस्तो, एक ७०-७५ साल का बुज़ुर्ग मुझे कहीं मिला.

अपनी सेहत की बात कर के वह दो चार मिनट के लिए अपनी व्यक्तिगत बातें करने लगा कि किस तरह से घर के सभी लोग उसे कहते हैं कि मकान को बांट दो, पैसा भी बांट दो.....मुझे कहने लगा कि मेरे पास पैसा इतना है कि अगर सोना खाया जा सकता तो मैं सोना ही खाता... मकान ८० लाख का है, लेकिन सोच रहा हूं बेच दूंगा लेकिन किसी को एक टका नहीं दूंगा... कह रहा था कि मेरा कोई ध्यान ही नहीं करता...सब को मेरे पैसे की पड़ी है। मेरे खाने-पीने का कोई टाइम नहीं है...बताने लगा कि वह तीन चार महीने के लिए हरिद्वार में स्थित एक आश्रम में रहने चला गया था...सात दिन बाद इन लोगों का फोन आया, पहले तो मैंने उठाया नहीं, फिर उस के बाद कभी कभी इन का फोन आता तो बात कर लिया करता।

हरिद्वार वाले आश्रम की बात याद कर के बहुत खुश था...हर महीने का चार हज़ार रूपया लेते हैं...सब कुछ सुविधाएं...चालीस लोगों के लिए मैस की सुविधा...सुबह साढ़े छः बजे चाय, फिर आप नाश्ता स्वयं अपना करिए, दोपहर में साग-सब्जी, दाल, चावल ...और उस ने ज़ोर देकर कहा कि गाढ़ी दाल......और फिर रात में भी बढ़िया खाना..लेकिन मेन्यू बदल कर........सब चीज़ की सुविधा है... मैंने इतना कहा कि वहां जिन लोगों के साथ इतना समय रहे उन से बात करते हैं ?...बताने लगा कि हां, उन के नंबर हैं, कल ही बात हो रही थी मुरादाबाद........कहने लगा कि वहां पर ८०-८५ और ९० साल तक के बुज़ुर्ग रहते हैं....मस्ती से रहते हैं, अगर कोई बुज़ुर्ग बाहर के देश से आता है तो अपनी मरजी से चार हज़ार की बजाए ११ हज़ार रूपये एक महीने के दे देता है.....वहां पर एक डाक्टर भी रोज़ आता है... बात का सार यह कि वह खुश था वहां.......अब भी कह रहा था कि वहां कुछ महीने के लिए चला जाऊंगा।

मुझे आज इस बुज़ुर्ग की याद इसलिए आ गई कि आज की अखबार में पढ़ा है कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दर्ज हुई जिस में कहा गया है कि हर शहर में एक वृद्ध आश्रम खोला जाना चाहिए.......ठीक है, वृद्ध आश्रम खुल जाएंगे या खुले भी हुए हैं, लेकिन फिर भी वहां ये लोग खुशी से नहीं, मजबूरी में ही रहते हैं.....हर कोई अपने घर ही में रहना चाहता है।

सरकारें क्या करें, कर रही है सरकार अपना काम...कितनी कितनी स्कीम बनाती हैं. पीछे एक स्कीम बनी थी रिवर्स-मॉटगेज की ...कि कोई बुज़ुर्ग अपने जीते जी अपने घर को बैंक के पास गिरवी रख दे और उसे उस के जीते जी ब्याज मिलता रहे ....मुझे पूरी स्कीम का तो पता नहीं लेकिन था कुछ ऐसा ही.......मैं गणित में थोड़ा कमजोर ही हूं। फिर वह भी एक स्कीम आई जिस में कानून था कि बुज़ुर्गों के ऊपर अत्याचार होने पर फलां फलां धारा लागू हो जाएगी।

कौन सा बुज़ुर्ग अपने बच्चों के साथ पंगा लेना चाहता हैं ...उस समय में किस के पास इतनी ताकत होती है, और वैसे भी ये लोग कहां बच्चों पर केस दर्ज करवाने जाते हैं.......सब कुछ चुपचाप सहते रहते हैं, खामोशी की चादर ओढ़ कर चुपचाप अकेले में आंसू पीते रहते हैं......लेकिन बुज़ुर्गों का शोषण जितना हमें सामने दिखता है, उस से कहीं बहुत ज़्यादा व्यापक स्तर पर होता है.........लेकिन बाहर उजागर नहीं होता.......और कभी हो भी नहीं सकता.........There are so many subtle ways to exploit and torture the senior citizens..........इन का हर तरह का शोषण किया जाता है ...आर्थिक शोषण भी जितना हो सके.....समय पर खाना न देना, ढंग से बात तो करना तो दूर बात ही न करना, उन की हर बात या ज़रूरत तो नज़रअंदाज़ करना......यह सब घोर शोषण का ही हिस्सा है........लेकिन वे सब चुपचाप सहते रहते हैं..

और ऊपर से मैडीकल विज्ञान की बड़ी भूतियापंथी यह कि वह इन के बुझे हुए मन के रोगों को भी उन के शरीरों में तलाशता ही नहीं फिरता, अंग्रेज़ी दवाईयों से उन्हें दुरूस्त करने का दावा भी ठोंकने से नहीं हिचकता।

सच में क्या हम लोग चांद पर जाने के लिए तैयार हो चुके हैं?........मुझे तो कभी नहीं लगा, पहले ज़मीन पर तो हम सब मानस बन कर रहना सीख लें। क्या ख्याल है?

एक लेख यह भी ठीक ठाक लगता है... सफल डाक्टर का फंडा (क्लिक करिए)




शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है!

सुबह का सुंदर समय है...खुशनुमा माहौल है....मुझे लगता है कि मैं अपनी फिजूल की बक-बक शुरू करूं इस से पहले आप फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई से विद्या बालन के इस बेहद सुंदर डॉयलाग को सुन लें, मुझे पता है आपने इसे कम से कम सैंकड़ों बार सुना हुआ है ...लेिकन फिर भी इसे बार बार सुनना बहुत भाता है...एक नईं स्फूर्ति का संचार सा हो जाता है.....होता है ना?



हां, तो दोस्तो, विद्या बालन ने तो अपनी बात इतने सुंदर अंदाज़ में कर ली, अब हम भी थोड़ा शुरू हो जाते हैं।


दोस्तो, यह जो आप तस्वीर देख रहे हैं ना यह लखनऊ में हमारे अस्पताल के बाहर वाली सड़क की तस्वीर है।

पिछले कुछ दिनों से मैं जब भी अस्पताल से निकलता तो बाहर सड़क पर इतने सुंदर रंग बिरंगे फूल देख कर मन खुश हो जाता....कल मेरे से रहा नहीं गया, मैंने एक फूल उठा ही लिया....फिर लगा कि जितना सुंदर यह मुझे दूर से दिखा करता था, पास से तो यह हज़ारों गुणा ज़्यादा मनोहर है।




मैं कईं बार सोचता हूं कि प्रकृति भी हमें निरंतर सब कुछ सिखा रही है...सारे गुण जो इस में हैं उन से हम कौन सी सीख नहीं ले सकते!!

सहनशीलता

सब से पहले तो सहनशीलता ही देखिए....इतने सुंदर फूल, सब कोई पैर के तले मसल कर आगे निकल रहा है ...फिर भी प्रकृति को किसी से कोई गिला शिकवा नहीं...और हमें पब्लिक ट्रांसपोर्ट में किसी की बाजू भी टच हो जाए तो हम कैसी निगाहों से उसे घूरने लगते हैं!

परोपकार 

सब को खुशियां बांटना, सब के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना ही जैसा इन फूलों का धर्म हो, और कुछ नहीं...किसी और से कुछ लेना देना नहीं....हर समय परोपकार की भावना..उदास चेहरों को खुशनुमा बना देने का हुनर......हम में से कितनों का आता है यह, अपने दिल पर हाथ रख कर बोलिए।

निःस्वार्थ भाव 

जो भी परोपकारी काम किया जा रहा है, ऐसी अनुपम छटा बिखेरते हुए..इस से कोई एक्सपेक्टेशन बिल्कुल भी नहीं कि कोई राही आयेगा, मेरी तारीफ़ करेगा ... मुझे इस के बदले कुछ मिलेगा.......बिल्कुल भी तो नहीं ..यही बात लिखते लिखते पुष्प की अभिलाषा गीत का ध्यान आ गया।



इस रास्ते से अधिकतर बहुत से फौजी निकलते हैं इसलिए मुझे इस गीत का तुरंत ध्यान आ गया..

प्रकृति रहस्यमयी है

पता नहीं कितने रहस्य प्रकृति की गोद में कैद हैं......और साईंसदान एक एक रहस्य खोजने में सैंकड़ों बरस गरक कर देते हैं....दोस्तो, इस फूल को देख कर यही लगता है कि दुनिया की सारी दौलत इक्ट्ठा कर के भी इस की एक पंखुडी का सृजन करने की क्या कोई कल्पना भी कर सकता है!....एक पंखुड़ी तो बहुत बड़ी बात हो गई ..

अगर हम प्रकृति से दोस्ती कर लेंगे तो यह अपने रहस्य धीरे धीरे हमारे समक्ष अनफोल्ड करती चली जाती है, आजमा कर देखिएगा।

प्रकृति हमें आशावादी बनाती है

सोचने वाली बात है कि अगर इस तरह का अद्भुत फूल बिना किसी कारण तैयार हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है....प्रकृति संभावनाओं से परिपूर्ण है....अपने हर तरफ़ नज़र दौडाएं...संभावनाएं बिखरी पड़ी हैं......लेकिन जैसा कि विद्या बालन ऊपर वीडियो में कह रही हैं कि हमें यह सब देखने की फुर्सत ही कहां है!

और हम किसी मरीज़ को कितनी आसानी से कह सकते हैं कि यह बीमारी तो ठीक न होगी!..यह तो तुम्हारे साथ ही जाएगी।

हम तो बस दौड़े जा रहे हैं, दौड़े जा रहे हैं ...बिना इस पर विचार किए कि शहर की इस दौड़ में दौड़ के आखिर करना क्या है !

प्रकृति के पास रहेंगे...इसे निहारते लगेंगे, इस की गहराई में डूबने लगेंगे  तो किसी को धोखा दे कर कुछ पैसे बना लेने या किसी का किसी तरह का भी शोषण करने का सोच भी कैसे सकते हैं, नहीं हो पाएगा...कैसे भ्रष्टाचार से इक्ट्ठा कर के घर में बोरों में कागज के टुकड़े छिपा पाएंगे.....कितना गौण लगता है यह सब कुछ प्रकृति की विशालता के सामने.....सच में ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है, अगर हमारे पास कुछ समय इस के साथ बिताने की फुर्सत है....

अपने हिस्से का आकाश ढूंढ कर तो देखिए..

लगता है अब बंद कर दूं इस पोस्ट को.....किसी धार्मिक चैनल के प्रवचन की अगर आप को गंध भी आ गई तो मेरी खैर नहीं....अच्छा दोस्तो, आज की यह पोस्ट विद्या बालन की इस सुंदर बात और इस सुंदर पुष्प की अनुपम छटा के नाम रही। मिसिज कह रही हैं कि इस पेड़ को फोरेस्ट फॉयर कहते हैं....मुझे नहीं पता था, न ही मैंने इस का नाम जानने की कोशिश ही की। हमें तो इसी से संतोष कर लेना चाहिए कि हमें प्रकृति नित्य-प्रतिदिन कुछ नया परोसती है.. जो कि हमारी रूह की खुराक हुआ करती है, लेकिन अगर हमारे पास चंद लम्हों की फुर्सत हो तो!



गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

खुले में ताज़ा हवा लेना भी जैसे हुआ दुश्वार

आज मैं शाम को ड्यूटी से आ रहा था तो मुझे एक मोटरसाईकिल दिखा..उस के पीछे एक मशीन सी बंधी हुई थी...मुझे अचानक ध्यान आया कि कुछ दिन पहले हम लोगों ने भी अपनी पानी की टंकी साफ करवाई थी...वह भी कुछ इसी तरह की बिजली की मशीन से चलने वाली मशीन लाया था...और कह गया था कि हर तीन महीने में एक बार इसे साफ़ अवश्य करवा लिया करिए.....आप को भी पता ही होगा कि ये पानी की टंकी साफ़ करने वाले अढ़ाई सौ रूपये लेते हैं और सक्शन मशीन से उसे अच्छे से अंदर से साफ कर जाते हैं, सारी काई-वाई अच्छे से साफ हो जाती है।

हां, तो बात हो रही थी उस मोटरसाईकिल की जिसे मैंने आज शाम को देखा....अभी मैं टंकी वाली सफाई की बात सोच ही रहा था ... कि मेरी नज़र उस मोटरसाईकिल की नंबर प्लेट पर पड़ गई...उस पर लिखा था...Pharmacist. फिर मैंने उस के चालक को देखा ..वह भी फेसमास्क पहना हुआ डाक्टरनुमा ही लग रहा था।

मेरे से रहा नहीं गया....मैंने पूछ ही लिया कि यह कौन सी मशीन है। चलते चलते उस ने बताया कि यह ऑक्सीजन बनाने वाली मशीन है...पहले तो किसी को ऑक्सीजन लगाने के लिए सिलेंडर लगता था..अब इस तरह की मशीन से काम चल जाता है...बताने लगा कि इस को बस बिजली का कनैक्शन चाहिए होता है और यह ऑक्सीजन बनाना शुरू कर देती है। वह अभी इस मशीन को किसी मरीज को ही लगाने जा रहा था..। दोस्तो, आप को अगर मैं उस का साईज बताऊं तो आप समझिए कि एक मीडियम साईज के गीज़र जैसा साईज था। मेरी मिसिज़ ने मुझे अभी बताया है कि इसे ऑक्सीजन कंसेन्ट्रेटर (Oxygen Concentrator) कहते हैं और यह मशीन अब हस्पतालों में भी उपलब्ध रहती है।

ठीक है, वह बंदा जा रहा है किसी का भला करने...ईश्वर उस के मरीज को स्वस्थ करे। लेकिन नई नईं तकनीक से कईं बार मरीज़ बेचारा बुरी तरह से कंफ्यूज सा ही हो जाता है.....अब हम सब जानते हैं कि सरकारी अस्पतालों के गहन चिकित्सा केंद्रो की हालत क्या है, ठसा ठस भरे हुए..जगह है नहीं..बैड खाली नहीं ....ऐसे में मरीज़ों को कुछ कार्पोरेट अस्पताल नींबू की तरह नचोड़ लेते हैं....हम लोग अकसर इस तरह के किस्से देखते-पढ़ते-सुनते रहते हैं। ऐसे में शायद इस तरह के लोग घर घर जा कर ऑक्सीजन लगा कर सेवाएं तो कुछ सस्ती देते ही होंगे......मुझे ठीक से पता नहीं इस के बारे में... पता करूंगा......इस की कीमत ४५००० रूपये है....ज़ाहिर सी बात है इस का किराया कम से कम ५०० -७०० रूपये तो होगा ही।

एक बात और ...आज सुबह जब टाइम्स आफ इंडिया का पहला पन्ना देखा तो एक सुर्खी दिखी ... कि दिल्ली की एम्बेसियों में जो यूरोप का स्टॉफ है उन के लिए एयर प्यूरीफॉयर खरीदे जा रहे हैं --Air Purifier-- जिस से हवा शुद्ध् की जाती है। अब कितनी होती है कि नहीं होती है, ये तो कंपनी वाले ही जाने।


लेकिन कोई कोई खबर देख कर बड़ा अजीब लगता है कि अब साफ-स्वच्छ हवा खाना भी कहीं दुश्वार न हो जाए... देख लेना जब इस तरह की खबर पहले पन्ने पर छपती है तो यह ऐसे ही नहीं छप जाती......पूरी मार्केटिंग स्ट्रेट्जी होती है इस के पीछे..शायद......बिल्कुल भेड़ चाल हो जाएगी इन्हें खरीदने में........स्टेट्स सिंबल ही बन जाएगा, देखना ऐसा ही होगा......एसी भी खरीदने जाते थे पांच सात साल पहले तो इस तरह के शब्द सुनने को मिलते थे..हवा शुद्ध भी करता है इस का यह फीचर।

अभी ओबामा के आने से पहले भी अमेरिकी एम्बेसी ने १८०० बढ़िया किस्म के एयर-प्यूरीफॉयर खरीदे थे...अपने कर्मचारियों की सेहत की सुरक्षा के लिए।

मुझे याद है कईं वर्ष पहले मैंने एक लेख लिखा था जिस में अहमदाबाद में ताजी हवा खाने के लिए ऑक्सीजन पार्लर खुलने की बात कही गई थी।

सच में हम लोग किस दौर में रह रहे हैं.....कल हमारे अस्पताल में डाक्टरों की क्लीनिकल मीटिंग चल रही थी...यही स्वाईन-फ्लू के ऊपर...और बात चल रही थी कि किस तरह से बच्चे भी आज कर स्कूल में मास्क पहने पर जा रहे हैं...तब एक सीनियर डाक्टर ने कितनी सही बात की ........उसने कहा कि हम बच्चों को कैसी दुनिया दे कर जा रहे हैं, सोच कर बहुत बुरा लगता है........मैं उन की बात से बिल्कुल सहमत हूं.....उन्होंने आगे कहा कि हम लोगों ने बचपन इतना मस्ती से खेल कूद में बिंदास अंदाज़ में बिताया लेकिन अब तो ......।।

मुझे लगता है कि आने वाले समय में इस तरह की मशीनें बनेंगी तो इस के ग्राहक भी ढूंढ ही लिए जाएंगे....लेिकन दो लाइन का मेरे संदेश यही है कि सुबह शाम घर के आस पास जिस पार्क में भी ताजी-खुशनुमा हवा मिले उस का आनंद तो दोस्तो उठा ही लिया करिए.....और उस खुशनुमा माहौल में अगर प्राणायाम् भी हो जाए तो कहना ही क्या!! और एक बात कि धूम्रपान से बिल्कुल बस कर रहिए......वैसे ही हर तरफ़ इतना ज़हर फैला हुआ है कि इस के चलते सिगरेट-बीड़ी के धुएं के कश खींच कर फेफड़ों की सिंकाई करने की ज़हमत उठाने की बिल्कुल भी ज़रूरत ही कहां है!!

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

अपनी मरजी से करवाए जाने वाले मैडीकल टैस्ट


आज सुबह मैं एक मैडीकल लैब में खड़ा था...एक व्यक्ति आया...अच्छा, उस के बारे में लिखने से पहले मैं यह कहना चाहता हूं कि ऐसी किसी परिस्थिति में किसी का मज़ाक उड़ाने की हम सोच भी नहीं सकते, बस कोई बात आप तक पहुंचाने के लिए उस की उदाहरण ले रहा हूं।

जब वह काउंटर पर खड़ा होकर उस लैब वाले कर्मचारी से बात कर रहा था तो दोस्तो, सच में मुझे मेरे शहर का बेस्ट पकौड़ें वाला याद आ गया। बिल्कुल वही भाषा इस्तेमाल हो रही थी। उस के पास डाक्टर का कोई नुस्खा नहीं था।

उसने तीन चार टेस्ट उस कर्मचारी को गिनवाए ...उस ने उस का रेट बताया...फिर अचानक पूछा कि क्या आप के यहां स्वाईन-फ्लू का टेस्ट होता है, उस के प्रश्न का जवाब हां में मिलने पर उस ने पूछा कितने में,तो लैब वाले ने कहा साढ़े पांच हज़ार रूपये में। रेट सुन कर वह चुप कर गया।

फिर वह व्यक्ति लैब वाले को कहने लगा कि ऐसा करो, एक तो वो करदो लेकिन उस दूसरे वाले को छोड़ दो, एक वो और वो भी कर दो...मुझे बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे हम लोग अकसर पकौड़े वाले के सामने खड़े होकर कहते हैं ना...अच्छा तीन आलू के, दो मेथी के, दो मिर्ची और दो पनीर.....बाकी प्याज के डाल दो।

दरअसल मुझे लगता है कि कईं बार बिना किसी मैडीकल ज्ञान वाला आम आदमी को भी लगता है कि बिना डाक्टरी सलाह के ही कुछ टैस्ट करवा लिए जाएं...यहां तक कि किसी फैमली डाक्टर से भी संपर्क नहीं किया जाता... और शायद गूगल बाबा से ही पूछ लिया जाता है।

लेिकन यह गलत है... ठीक है गूगल बाबा ज्ञान प्रदान करता है, लेकिन अपनी सेहत के बारे में कोई भी निर्णय हमें अपने अल्प मैडीकल ज्ञान के आधार पर नहीं करना चाहिए.... इस से फायदा तो कुछ नहीं बल्कि नुकसान ज़रूर हो सकता है। केवल आपके चिकित्सक को ही पता है कि कौन सा टेस्ट आप के लिए ज़रूरी है, कौन सा गैर-ज़रूरी है। अपनी सेहत से संबंधित कोई भी निर्णय केवल नेट पर कुछ पढ़ लेने से या दोस्तों से सुन कर करना ठीक नहीं है।

मुझे उस समय यही लगा कि थैंक-गॉड स्वाईन-फ्लू का टेस्ट साढ़ें पांच हज़ार का है......मुझे ऐसे लग रहा था कि उस की टेस्ट करवाने की इच्छा तो है, लेकिन शायद इतने महंगे रेट के चक्कर में मामला अटक गया है......क्योंकि वह काउंटर वाला उसे बाद में कुछ समझा तो रहा था कि टेस्ट की रिपोर्ट दो दिन में मिल जाएगी।

सच में जब किसी बीमारी की जागरूकता के अभाव में कोई अफवाह फैलती है तो यही अफरातफरी का माहौल पैदा हो जाता है... कोई अपने आप ही टैस्ट करवाना चाहता है, कोई बिना कारण दवाई पहले ही से खा लेना चाहता है, कोई बच्चों को मास्क लगा कर स्कूल रवाना कर रहा है....और इन सब के चक्कर में बाज़ार में बैठा व्यवसायी, लैब का मालिक या कैमिस्ट चांदी कूटने से नहीं चूकता।

इस पोस्ट को इतनी सिरियसली न लें, बस उस व्यक्ति को और उस के लहजे को देख कर अमृतसर के पकौड़ें वाली दुकानें याद आ गईं.......बस, इतनी सी गुस्ताखी हो गई, कृपया आप माफ़ कर दें। किसी की भी सेहत किसी भी मज़ाक को विषय़ हो ही नहीं सकता।

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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

तुम भी चलो...हम भी चलें...

दरअसल हम हिंदोस्तानियों की ज़िंदगी इतनी फिल्मी हो चुकी है कि हमें अधिकतर मौकों पर या तो कोई हिंदी फिल्म का डॉयलाग या फिर कोई गाना याद आता है...मेरे साथ तो यह बहुत बार होता है।


आज शाम मैं लखनऊ की रायबरेली रोड पर जा रहा था तो मुझे ये तीन बुज़ुर्ग मिल गये..बड़ी मस्ती से, बातें करते, हंसी-मज़ाक करते बड़ी मस्ती से टहल रहे थे। देख कर बहुत अच्छा लगा।

एक बात जो झट से स्ट्राईक की वह यह थी कि तीनों के हाथ में एक छड़ी थी...

पता नहीं मुझे क्या सूझी कि मैंने स्कूटर रोका और इस सुंदर लम्हे को अपने मोबाइल में कैद कर लिया।

उसी समय मुझे यह गीत भी याद आ गया...मुझे यह पता नहीं कि इन्हें देख कर मेरे मन ने यह गीत गुनगुनाया....या इन बुज़ुर्गों की इस समय की मनोस्थिति यह गीत ब्यां कर रहा है...


कितना सुंदर गीत है ना.......घर आकर यू-ट्यूब पर सुना और सोचा आप से साझा भी करूं, इस के बोलों पर भी ध्यान दीजिएगा।

दोस्तो, जब मैं लोगों को टहलते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है.....क्योंकि मैं जो समझ पाया हूं कि यह लक्षण है...जीवन है, जीवंत होने का....सेहतमंद होने का ...सेहतमंद होने के एक सतत प्रयास का.

ठीक है टहलना सब के ज़रूरी है..लेिकन अधिकतर मेरे जैसे लोग केवल नसीहत बांटनें में ज़्यादा ध्यान देते हैं लेिकन अपनी सेहत के बारे में उतने जागरूक नहीं होते जितना होना चाहिए....मैं नियमित टहलने तक नहीं जाता।

लेिकन जब बुज़ुर्गों को देखता हूं ..सुबह शाम इक्ट्ठा होकर हंसी मज़ाक करते और अपनी क्षमता अनुसार घूमते तो मजा आ जाता है....मेरे दिन बन जाता है।




मैं अपनी ड्यूटी के दौरान भी लोगों को विशेषकर पुरानी बीमारियों से ग्रस्त सभी मरीज़ों को टहलने के लिए खूब प्रेरित करता रहता हूं.....कोई कहता है कि नहीं हो पाता..मैं कहता हूं घर से बाहर तो निकलो, पांच दस मिनट ..जितना समय मस्ती से टहल पाएं ...टहला करो भाई.....अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी मैं थोड़ा सा "भड़का"(उकसा?) देता हूं कि दिन में कुछ समय तो अपने लिए भी रखा करिए। उस समय तो मान जाती हैं...और नियमित टहलने की बात कह कर जाती हैं।

सच में दोस्तो टहलना भी एक अद्भुत व्यायाम है........सब से पहले तो आप टहल पा रहे हैं, यही अपने आप में एक कुदरत का बेशकीमती उपहार है.....इसलिए हर समय अपने भाग्य या सरकारों को कोसने से और हर समय खबरिया चैनलों के सामने बैठे रहने से कहीं अच्छा है कि एक बढ़िया से शूज़ लें और बिना वजह घर से बाहर कुछ समय के लिए निकल जाया करिए....देखिए कितना मज़ा आता है.......कोई बहानेबाजी नहीं, बिल्कुल नहीं...

बस, एक बात और कर के, इस पोस्ट को विराम दूंगा....मेरी फिरोज़ुपर में पोस्टिंग थी ..दस-पंद्रह साल पहले की बात है...एक दिन बाज़ार में मुझे एक ८०-८५ साल के बुजु्र्ग मिले...बातचीत हुई पता चला ..कि रोज़ दोपहर ४ बजे घर से निकलते हैं और १५-२० किलोमीटर टहल कर घर लौटते हैं ... कह रहे थे कि जेब में मिश्री रख लेता हूं.....मैं आप को बता नहीं सकता कि जो चमक मैंने उन के चेहरे पर देखी... उस के बाद भी अकसर आते जाते मिल जाया करते थे... सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहने हुए और सफेद स्पोर्ट्स शूज़ डाले हुए ..हाथ में छोटा सा सफेद तौलिया लिए हुए... उन्हें देखते ही तबीयत खुश हो जाया करती थी .....क्या नाम था उन का सिक्का साहब, वे सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके थे.......बड़े हंसमुख..

मैं नहीं कहता कि हम सभी इतना ही टहलें लेकिन दोस्तो, जितनी जितनी भी हमारी क्षमता है, हम उतना तो टहलना शुरू करें.........एक पहल तो करें......क्या कहा? कल से.......आज से क्यों नहीं!!

अभी पोस्ट खत्म करते करते यह गीत याद आ गया है.........दादा जी का छड़ी हूं मैं...(फिल्म-उधार की ज़िंदगी)

लखनऊ मैट्रो और पान थूकने वालों का छत्तीस का आंकड़ा अभी से शुरू

मुझे लखनऊ में रहते दो वर्ष हो चुके हैं... सड़क पर जाते समय यही डर लगा रहता है कि कहीं किसी पान थूकने वाले का थूक मुंह पे न पड़ जाए... स्कूटर पर चलते समय तो और भी दिक्कत होती है क्योंकि कोई भरोसा ही नहीं कि कब, किस तरफ़ से पान का थूक आ जाए।

दोस्तो, चिकित्सा क्षेत्र में हूं..अस्पताल में आए किसी बीमार के थूकने पर कोई आपत्ति नहीं है न ही हो सकती है, मेरी ओपीडी में किसी मरीज़ को उल्टी हो जाती है तो मैं या मेरा सहायक उस की पीठ पर हाथ रख कर उसे सहारा देने में नहीं चूकते.....यह अपना पेशा है।

लेकिन यह जो जगह जगह पान थूकने वाले हैं ना, इन से मुझे बड़ी चिढ़ है... दीवारें तो दीवारें, शहर की सड़कें तक इस थूक से रंगी हुई हैं। यह देखने में गंदा लगता है, वातावरण के लिए खराब है और सेहत के लिए भी तो बहुत नुकसानदायक ही है।

हां, तो दोस्तो, जब यहां पता चला कि लखनऊ में मैट्रो चलेगी तो मुझे दिल्ली मैट्रो वाले दिन याद आ गये...किस तरह से उन्होंने मेरे विचार में प्लेटफार्मों पर ही चेतावनी लगा रखी है कि स्टेशन परिसर या मैट्रो में थूकने वालों पर शायद ५०० रूपये का जुर्माना ठोका जाएगा...और मुझे पता चला है कि वे इस मामले में बहुत कड़क हैं......होना भी चाहिए, अगर इतनी स्वच्छता रखनी है तो यह सब तो करना ही होगा, वरना लोग डरते नहीं है....

दिल्ली मैट्रो ने एक बढ़िया काम किया है ...तरह तरह के गल्त कामों के िलए यह कानूनी-वूनी कार्रवाई का डर नहीं डाला...हर अपराध का रेट फिक्स है, आप हर्जाना भरिए और छूट जाइए....no questions asked!

मुझे लखनऊ मैट्रो को लेकर यही चिंता थी कि अगले दो एक साल में जब इस की सेवाएं शुरू हो जाएंगी तो यहां के पान-गुटखा थूकने वालों की तो बहुत आफ़त हो जाएगी.....मैं यही सोच रहा था कि देखते हैं यहां पर मैट्रो रेल का क्या रवैया रहता है, जब इस पान-गुटखा चबाने वालों को एक तरह से सामाजिक स्वीकार्यता हासिल है तो क्या यहां पर मैट्रो प्रशासन ढीला पड़ जाएगा, अगर कहीं बदकिस्मती से यह हो गया तो मैट्रो के स्टेशन परिसरों का और मैट्रो के सवारी डिब्बों का तो हुलिया बिगड़ जाएगा।

लेिकन कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला कि यह पान-गुटखे वाला लफड़ा तो अभी ही से शुरू हो गया।

तो हुआ यह है, दोस्तो, कि मैट्रो के निर्माण कार्य के लिए मैट्रो रेल को जगह जगह बैरीकेड लगाने होते हैं....और ये तो आपने देखा ही होगा िक ये लोग बिना किसी तरह के अवरोध के अपना काम चुपचाप करते रहते हैं।

लेिकन लखऩऊ में अब मैट्रो तैयार करने वाली कंपनी इन पान-थूकने वालों से बड़ी परेशान हो गई है...लार्सन-टूबरो के एक अधिकारी ने कहा है कि मैट्रो बिछाना कोई बड़ा काम नहीं है, हम उसे करते आए हैं, लेकिन इन पान-गुटखा थूकने वालों को काबू में रख पाना बड़ा टेढ़ा काम लग रहा है।

रिपोर्ट में लिखा था कि जिस स्ट्रेच में अभी मैट्रो का काम चल रहा है, उस के आसपास मैट्रो रेलवे ने जो बैरीकेड लगा रखे हैं...आते जाते लोग दो और चार पहिया वाले इस के ऊपर सारा दिन थूकते रहते हैं जिस की वजह से वह इतने गंदे और भद्दे हो जाते हैं कि रोज़ाना सुबह आठ से दस मैट्रो कर्मचारी अपना नियमित काम छोड़ कर इन पान के दागों को धोने में ही लगे रहते हैं.....सच में इस से मैट्रो के निर्माण कार्य में बड़ी परेशानी हो रही है।

अब देखने वाली बात यह है कि यह तो अब की बात है जब कि मैट्रो का निर्माण कार्य शुरू हुआ है.... अभी यह देखना तो बाकी है कि जब मैट्रो बन कर तैयार हो जाएगी और इस पर गाड़ीयां दौड़ने लगेंगी तब क्या होता है।

आगे आगे देखिए होता है क्या, मेरी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि काश! इसी मैट्रो के बहाने ही लखनऊ के बाशिंदों का पान-गुटखा-पानमसाला से मोहभंग हो जाए....इस से ये स्वयं भी स्वस्थ रहेंगे और लखनऊ मैट्रो -लखनऊ की शान --भी चमचमाती रहेगी।

काश! ऐसा ही हो!!

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से कैसे करें बचाव?

जैसा कि अब हम जानते हैं कि यह एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा भी एक मौसमी एन्फ्लुऐंजा ही है, इस से डरने की कोई विशेष वजह नहीं है। यह स्वाईन-फ्लू नहीं है।

क्या एहतियात के तौर पर पहले ही से दवा ले लें?

अब प्रश्न जो मन में उभरना स्वभाविक है कि क्या कोई ऐसा जुगाड़ या दवाई है कि हम लोग इस से बचे रह सकें ?
इस का जवाब यही है कि क्या हम लोग अन्य बीमारियों से बचने के लिए पहले ही से दवाई ले लेते हैं?....नहीं ना, तो फिर इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के लिए भी ऐसा कुछ दवा नहीं है कि जिसे हम लो खा लें और निश्चिंत हो जाएं कि यह इंफेक्शन हमें नहीं होगा।

क्या इस से बचाव का टीका ही न लगा लें?

जी हां, इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से बचाव का टीका तो है लेकिन इस से भी ८०-९० प्रतिशत बचाव ही मिलता है। सामान्यतयः इस टीके को स्वास्थ्य-कर्मियों को लेने की सलाह दी जाती है और जो लोग हाई-रिस्क केटेगरी में आते  हैं..जैसे कि बहुत बुज़ुर्ग, गर्भवती महिलाएं या ऐसे लोग जिन की इम्यूनिटि कुछ दवाईयों (जैसे कि स्टीरॉयड आदि) की वजह से दबी हुई है।

कल मेरे पास एक महिला अपने इलाज के लिए आई थी, पूछने लगी कि उस की बेटी नर्सिंग का कोर्स कर रही है ..कालेज वालों ने एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा का टीका लगवाने के लिए कहा है। मैंने उसे बताया कि यह टीका जब भी अस्पताल में आएगा पहले डाक्टरों एवं स्वास्थ्यकर्मियों को ही लगेगा जिन का मरीज से सीधा और नजदीकी संपर्क रहता है। पूछने लगी का बाज़ार में इस की कितनी कीमत है, मैंने नेट पर चेक किया तो पता चला कि इस टीके का दाम  बाज़ार में २५०रूपये है।

लेकिन इस समय परेशानी यह है कि ये टीके सरकारी अस्पतालों और मैडीकल कालेजों में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, ये बाहर से निर्यात होते हैं... आज पेपर में पढ़ा है कि सरकारी अस्पतालों द्वारा भी इस तरह के टीकों का आयात करना एक लंबी प्रक्रिया है क्योंकि इस में लगभग दो महीने का समय भी लग सकता है।

छोटी छोटी बातें---बड़े बड़े लाभ

बड़ी सीधी सी बात है कि इस इंफेक्शन से भी बचे रहने के लिए हमें बड़ी बेसिक सी बातों की तरफ़ ध्यान देना होगा।
सब से पहले तो विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर हम लोग सलीके से खांसने और छींकने की तहजीब सीख पाएं तो हम इस तरह की बीमारियों से ही नहीं, टीबी, कुष्ठरोग जैसी अन्य बीमारियों से भी बचे रह सकते हैं।


खांसने की तहजीब (Cough Etiquettes) 

अधिकतर हमें खांसने की तहजीब नहीं है, कईं बार तो किसी पब्लिक जगह पर ऐसे लगता है कि खांसने वाले आप के मुंह में खांस रहा है। बार बार हमें याद दिलाया जाता है कि हमें अपने रूमाल में खांसना चाहिए... पता हमें सब कुछ है, लेकिन हम सुधरने वाले नहीं है।

दरअसल हमारी खांसी में जो कीटाणु निकलते हैं उनके ज़रिये बहुत सी बीमारियां एक से दूसरे बंदे में फैल जाती हैं।
अब आप सोचते होंगे कि हम सब इस तरह से आसपास के लोगों की खांसी की बदतमीजी (जी हां, यह एक बदतमीजी ही है, इतना सीखने के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं.....अगर कोई बहुत गंभीर व्यक्ति खांस रहा है, उसे कोई सुध नहीं है, उसे तो बिल्कुल क्षमा किया जा सकता है)....लेकिन जो हट्टे-कट्टे पढ़े लिखे लोग बिना अपने मुंह ढंके खांसते रहते हैं, उन्हें यह तहज़ीब सीखने की बहुत ज़रूरत है...हम अकसर देखते हैं कि हमें यह सब बुरा लगता है, लेकिन हम लोग शिष्टाचार वश किसी से कुछ कहते वहते नहीं हैं।


अब आते हैं छींकने वालों पर

वही बात, बिना रूमाल, या हाथ या बाजू आगे किए हुए छींकने से भी बहुत सी बीमारियां फैल जाती हैं। खांसने और छींकने से जो ड्राप्सलेट्स हमारे नाक और मुंह से निकलते हैं वे कुछ मीटर तक बैठे व्यक्ति को भी अपनी चपेट में लेते हैं।

खांसने और छींकने की बदतमीजी का शिकार हो कर भी अगर कोई व्यक्ति इन बीमारियों से बच जाता है तो इस के लिए उस की इम्यूनिटि (रोग प्रतिरोधक क्षमता) को इस का क्रेडिट मिलना चाहिए।

एक बार मैं इसी एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के संबंध में एक प्रश्न टीवी पर सुन रहा था कि हम ऐसा क्या करें कि हमारी इम्यूनिटि ठीक रहे। इस का जवाब विशेषज्ञों ने बिल्कुल सही दिया कि आप नशों, तंबाकू-गुटखा, दारू से दूर रहें, संतुलित आहार लें, रोजाना व्यायाम करें, टहला करें......इस से आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहेगी, अधिकतर बीमारियां आप के पास नहीं फटकेंगी। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सब कुछ एक दो महीने ही एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से बचने के लिए अगर मान रहे हैं, फिर से पुरानी दिनचर्या और वही जंक-फूड आदि खाना-पीना शुरू हो जायेगा तो यह इम्यूनिटि टिक नहीं पाती.........यह तो दोस्तो निरंतर जीवनपर्यंत मानने वाली बातें हैं।


बार बार अच्छे से हाथ धोने की आदत

अगर हमें बार बार अच्छे से हाथ धोने की आदत है तो भी हम इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से ही नहीं अन्य बीमारियों से भी बचाव कर सकते हैं। हम देखते हैं कि हम लोग कितने दिन मनाने लगे हैं...वेलेंटाइन डे, चॉकलेट डे, फ्रेंडशिप डे........सब से ज़्यादा अहम् है हैंडवॉशिंग दिवस.....जी हां, पिछले कुछ सालों से मैंने देखा है कि विदेशी स्कूलों में हैंडवॉशिंग दिवस भी मनाया जाता है... यह बहुत बहुत बहुत ज़रूरी है कि हम बच्चों को तो सिखाएं ही और हम जो पहले से सब कुछ सीखे हुए हैं, उसे नज़रअंदाज़ न करें।

दूर ही से नमस्कार ठीक है

मिलने जुलने का सीधा सादा हिंदोस्तानी तरीका --दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करने वाला-- सब से उत्तम है। हाथ मिलाने से हम लोग एक दूसरे तक बीमारियों के जीवाणु भी परोस सकते हैं...इसलिए हमेशा आदत रहनी चाहिए कि कुछ भी खाने से पहले हाथ हम लोग अच्छी तरह से धो लें, बिना धोए हाथों को मुंह, आंख, नाक में कभी न डालते फिरें, इस से बीमारियां फैलती हैं।

खांसी-जुकाम होने पर बच्चों को स्कूल न भेजें

बच्चों में खांसी जुकाम होने पर अगर बच्चे स्कूल नहीं जाएं तो यह भी एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से रोकथाम का एक बड़ा कदम है। दो दिन पहले मैं एक शिशु रोग विशेषज्ञ को टीवी पर सुन रहा था ..उस ने कितना सही कहा कि बच्चे एक दिन स्कूल जा कर अगर काले और गुलाबी रंग का भेद दो दिन बाद सीख लेंगे तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर वे खांसी-जुकाम के दौरान स्कूल जाएंगे तो उन के बहते नाक से, खांसी से तरह तरह की इंफेक्शन दूसरे बच्चों में फैल जाती है ...और फिर उन दूसरे बच्चों के रास्ते उन के घर के अन्य सदस्य भी इस तरह के संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं।

दोस्तो, यह बात नहीं है कि आज कल एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा की चर्चा ज़ोरों पर है, इसलिए ही हमें यह बच्चों को स्कूल न भेजने वाली एहतियात बरतनी है, यह तो भाई एक सामान्य बचाव है जो हमें हमेशा ही करना होगा ताकि बाकी बच्चे इस तरह की बीमारियों से बचे रहें......और वैसे भी बच्चे के नाक से जो पानी बहता है, और मुंह से वे जो खांसते हैं, उन के खांसने में और छींक में वॉयरस बहुत अधिक मात्रा में होते हैं और लंबे समय तक ये वॉयरस के जीवाणु उन में मौजूद रहते हैं।

मुझे एक बाल रोग विशेषज्ञ की यह बात बहुत बढ़िया लगी कि स्कूलों में यह जो नया फैशन सा है .. १०० प्रतिशत अटेंडेंस के लिए अवार्ड---इसे तो बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए...इसी अवार्ड के चक्कर में खांसी-जुकाम से ग्रस्त छोटे बच्चे भी स्कूल रवाना कर दिये जाते हैं....जिससे दूसरे बच्चे इस की चपेट में आ जाते हैं।

बचाव की बातें काफी हो गई हैं, लगता है अब इस पर विराम लगाएं.......इस से डरने की ज़रूरत नहीं है, हर साल सर्दियों और बरसात के मौसम में होता है, किसी साल कम किसी साल ज़्यादा होता है...डेंगू का भी तो यही हाल है, कभी ज़्यादा, कभी कम। लेकिन वही पुरानी कहावत यहां भी फिट बैठती है........परहेज से इलाज भला......परहेज का मतलब कि हम लोग कैसे बचाव कर पाएं........पूरी रामकथा ऊपर लिख दी है, इन्हें मान लेने में ही भलाई है।

खुशखबरी यह है कि आज अखबार में भी आया कि बस होली तक ही ये एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के केस मिलेंगे...जैसे जैसे तापमान बढ़ता है इस वॉयरस की बीमारी पैदा करने की क्षमता भी घटने लगती है...इसलिए इस के केसों में भी कमी आने लगती है। फिर बरसात में मौसम में, ह्यूमिडिटी की वजह से वॉयरस जल्दी जल्दी बढ़ती है और फिर से एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के केस बढ़ने लगते हैं।

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दोस्तो, आज शिवरात्रि है, न मैंने कहीं जाकर शिव जी का विवाह सुना ..न कुछ और ... सुबह से इस इंफ्लूऐंजा के बारे में ऐसा लिखने बैठा हूं कि शाम होने को है.....अब इस के बारे में बची खुची बातें कल कर लेंगे.......जाते जाते आप बम बम भोले को याद कर लें!

एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा का टेस्ट -- कब और कैसे?

मैंने पिछली पोस्ट में एक मित्र के बारे में लिखा कि उसे खांसी-जुकाम हुआ...उसने फ़िज़िशियन से कहा कि मेरी स्वाईन-फ्लू (दरअसल ये H1N1 एन्फ्लुऐंजा है) की जांच करवा दें, वह मान गए, घर में लैब-टेक्नीशीयन आ कर गले से स्वैब ले गया.... और अगले दिन टेस्ट पॉज़िटिव आ गया, फिर उस की दवाई तो शुरू हो ही गई, साथ ही उस के परिवार के अन्य लोगों को भी बचाव के लिए दवाई दी जाने लगी, पांच दिन के लिए।

दोस्तो, मैं आपसे यह शेयर करना चाहता हूं कि यह टेस्ट बहुत महंगा है, सरकारी अस्पताल ही जो ये टेस्ट अपने सरकारी कर्मचारियों का प्राईव्हेट लैब से करवाते हैं उन्हें ही इस के लिए लगभग साढ़ें चार हज़ार रूपये चुकाने होते हैं।

मैंने अभी अभी लखनऊ की एक प्राईव्हेट लेब को फोन किया ...इस टेस्ट का रेट पूछने के लिए.. यहां पर इस का रेट साढ़े पांच हज़ार रूपये हैं और रिपोर्ट दो दिन में मिलती है...यानि आज टेस्ट करवाया तो रिपोर्ट दो दिन बाद परसों मिलेगी।

अभी मैं हिंदी का अखबार देख रहा था, कल यहां पर आर्चीटेक्चर कालेज के कुछ छात्र इक्ट्ठे हो कर मैडीकल कालेज पहुंच गये कि उन्हें एच१एन१ की जांच करवानी है...इस की दवाई लेनी है क्योंकि कुछ दिनों से उन का खांसी-जुकाम ठीक नहीं हो रहा...सीनियर डाक्टर ने उन्हें खांसी-जुकाम की दवाई दे कर और मास्क दे कर यह कह कर वापिस भेज दिया कि अगर ये दवाईयां लेने से कुछ समय बाद भी राहत महसूस न हुई तो एच१एन१ एन्फ्लुऐंजा की जांच करेंगे।

इस सीनियर डाक्टर ने बिल्कुल सही किया.... टेस्ट को टाल दिया..यह बहुत ही ज़रूरी है, वरना होता क्या है जब इस तरह की बीमारी होती है और मीडिया में खौफ़ पैदा कर दिया जाता है तो कुछ लोग अपने रसूख के बल पर यह टेस्ट करवा लेना चाहते हैं ....और हो भी जाता है, यहां रसूख से बड़े से बड़े काम हो जाते हैं, यह तो कुछ भी नहीं।

लेकिन यह गलत है। मेरे मित्र को भी अपने आप चिकित्सक को कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी कि क्या आप मेरा एच१एन१ टेस्ट करवा देंगे।

अब आपके मन में यह प्रश्न आना स्वभाविक है कि मेरे मित्र ने किसी डाक्टर को कहा कि उसका टेस्ट करवा दे, और टेस्ट होने के बाद उस की रिपोर्ट पॉज़िटिव भी आ गई....ऐसे में तो मेरे मित्र ने बड़ी समझदारी का परिचय दिया।

नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, आप कृपया यह बात गांठ बांध लें कि चिकित्सक अपने हिसाब से अपने अनुभव के आधार पर जो काम कर रहा है, उसे करने देना चाहिए, उसी में ही हम सब की भलाई है....मित्र ने टेस्ट करवाने की इच्छा ज़ाहिर की और उसने भी कहा कि हां, ठीक है, करवा लो।

अब मैं आता हूं असली बात पर.......वह यह है कि खांसी जुकाम तो इस मौसम में बहुत से लोगों को हुआ ही करता है, सर्दी में भी होता है और बरसात में भी होता है....ऐसे में क्या हर बंदा सरकारी अस्पतालों में या प्राईव्हेट लैब में लाइनें लगा कर टेस्ट करवाना शुरू कर दे....इस एच१एन१ एन्फ्लुऐंजा वॉयरस के लिए। नहीं, इस की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।

H1N1 एन्फ्लुऐंजा टेस्ट किस का होना चाहिए? 

हम सब लोगों की फ्लू से जान पहचान तो है ही, है कि नहीं?-- H1N1 एन्फ्लुऐंजा के लक्षण भी बिल्कुल मौसमी फ्लू जैसे ही हैं, सिर और शरीर में दर्द, नाक बहता है...और इस के लिए इऩ लक्षणों के लिए ही जो दवाईयां आदि हम लोग अकसर लेते हैं या देसी जुगाड़ --मुलैठी, नमक वाले गर्म पानी से गरारे, बुखार के लिए या बदन दर्द के लिए कोई दर्द की टिकिया ले लेते हैं....गर्मागर्म चाय-वाय खूब पीते हैं अदरक डाल कर.... क्योंकि अच्छा लगता है..और अकसर यह दो चार दिन में ठीक हो जाता है...

लेकिन अगर खांसी-जुकाम के साथ साथ कुछ चेतावनी देने वाली लक्षण भी दिखने लगें तो हमें अस्पताल में चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए....दोस्तो, मैंने यह नहीं कहा कि हमें किसी लैब में जाकर H1N1 एन्फ्लुऐंजा का टेस्ट करवा लेना चाहिए, इस की कोई ज़रूरत नहीं है, लैब वाले तैयार बैठे हैं, लेकिन उस की ज़रूरत है कि नहीं, यह पता करना तो चिकित्सक का काम है। हां, तो बात हो रही थी चेतावनी देने वाले लक्षणों की ....

चेतावनी देने वाले लक्षण 

दरअसल अगर H1N1 एन्फ्लुऐंजा का संक्रमण गले से छाती में चला जाता है और यह काम ५ से ७ दिन में हो जाता है, तो इस से मरीज़ को निमोनिया की तकलीफ़ हो जाती है, अब मरीज को कैसे पता चले कि निमोनिया हो गया है...यह हो रहा है......उसे तेज बुखार के साथ साथ सांस लेने में तकलीफ़ होगी, पेट में दर्द हो, उल्टी आए और खांसी करने पर बलगम में खून आने लगे तो तुरंत चिकित्सक से मिलना चाहिए। उस हालात में उस का H1N1 एन्फ्लुऐंजा टेस्ट करवाया जाता है और तुरंत इस बीमारी का समुचित इलाज शुरू किया जाता है।

ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि कुछ मरीज़ों में विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए... बच्चों में खांसी जुकाम तो होता ही है, लेकिन अगर इस के साथ अगर उस ने फीड लेनी बंद कर दी है, तेज़ बुखार के साथ वह सांस भी तेज़ तेज़ ले रहा है, उस की पसली चलने लगी है और बच्चा नीला पड़ रहा है तो तुरंत चिकित्सक को मिलना चाहिए। इसी तरह से बुज़ुर्गों में भी ६५ वर्ष से ऊपर वालों में अगर वे खांसी-जुकाम और बुखार होने पर गफलत में जा रहे हैं, उन के हाथ-पैर ठंड पड़ रहे हैं तो ये चेतावनी वाले लक्षण हैं....यह आम खांसी-जुकाम के लक्षण नहीं है, इन्हें चिकित्सक के पास ले कर जाना चाहिए।

उसी तरह से जब यही लक्षण सांस की बीमारी से ग्रस्त, दिल के किसी रोगी या मधुमेह रोगी या ऐसी किसी व्यक्ति में पाये जाएं जिन की रोग प्रतिरोधक क्षमता पहले ही से कम है.. इम्यूनिटी कंप्रोमाइज्ड है-- चाहे वे इम्यूनिटी दबाने वाली कोई दवाएं खा रहे हों पहले से....इन सब में भी ऊपर लिखे चेतावनी वाले लक्षणों के मिलते ही तुरंत चिकित्सक से संपर्क साधना ज़रूरी है।

कैसे होता है टेस्ट 

जिन मरीज़ों में चिकित्सक समझते हैं कि उन का एच१एन१ टेस्ट होना चाहिए तो उन का यह टेस्ट एक स्वॉब से ही हो जाता है... इस के लिए किसी तरह के रक्त की जांच की ज़रूरत नहीं पड़ती ...

मेरे विचार में बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं, इस के लिए तो इतना ही काफ़ी है..एक बात जो मेरे ज़हन में आ रही है आप की तरफ़ से वह यह है कि आप सोच रहे होंगे कि मेरे दोस्त को अगर एच१एन१ इंफेक्शन का पता न चलता तो उस की दवाई शुरू न होती, जिस से उस की जान पर बन सकती थी। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है, अगर उस में ऊपर लिखे चेतावनी वाले लक्षण होते तो उस का टेस्ट हो जाता और उस का फिर इलाज शुरू कर दिया जाता। हर खांसी-जुकाम के केस में यह टेस्ट करवाने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।

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एच१एन१(H1N1) एन्फ्लूऐंजा मौसमी है, स्वाईन फ्लू नहीं है

H1N1 (एच1एन1) एन्फ्लूऐंजा मौसमी है, स्वाईन फ्लू नहीं है...

पिछले कईं हफ्तों से एक तरह से हड़कंप मचा हुआ है...स्वाईन फ्लू आ गया है, फैल रहा है...लेकिन सब से पहले समझने वाली बात यही है कि यह स्वाईन फ्लू नहीं है, नहीं है, नहीं है।

यह स्वाईन फ्लू नहीं है...इन शब्दों पर ज़ोर देने के लिए मुझे तीन बार लिखना पड़ा क्योंकि मीडिया में बार बार स्वाईन फ्लू शब्द का ही इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि सरासर गलत है, लोगों में भम्र पैदा कर रहा है, इसी की वजह से ही अफरातफरी का माहौल बन रहा है।

कुछ दिन पहले मैंने किसी विषय पर लेख लिखा था...लेकिन उस के कमैंट में एक भाई ने पूछा कि क्या स्वाईन-फ्लू की दवा है?..मैंने उन्हें संक्षेप सा उत्तर तो दे दिया...लेकिन उस उत्तर से मैं भी संतुष्ट नहीं था, मुझे लगा कि बात विस्तार से करनी होगी।

चार पांच दिन पहले मेरे एक मित्र का दिल्ली से फोन आया...बताने लगा कि तबीयत नासाज़ है, खांसी-जुकाम है, मैंने ही डाक्टर को कहा है कि क्या मुझे स्वाईन-फ्लू का टेस्ट करवा लेना चाहिए। डाक्टर ने कहा है--करवा लेते हैं। अगले दिन उस का फोन आया कि स्वाईन-फ्लू का टेस्ट पाज़िटिव निकला है। मैं उसे तसल्ली दी कि परेशान न होए, अपने खाने-पीने का ध्यान रखे....लेकिन उस की तसल्ली होती दिखी नहीं, दरअसल मीडिया ने स्वाईन-फ्लू के नाम ही से इतना प्रचार-प्रसार कर दिया है।

उस दोस्त की भी दवाई शुरू हो गई पांच दिन के लिए ... और घर के अन्य सदस्यों को दवाई एहतियात के तौर पर दी जाने लगी है... लेकिन क्या ऐसे हर केस में या इन के परिवार को दवाई दी जानी ठीक है, इस के बारे में मैडीकल विज्ञान के आधार पर बात करने की ज़रूरत है..आज सारा दिन मैं आप से इस एच१एन१ एन्फ्लुऐंजा के बारे में ही बात करूंगा......आज मुझे छुट्टी है, सोच रहा हूं आज शाम तक इस विषय पर सही सही जानकारी आप तक सटीक ढंग तक पहुंचा कर इस का खौफ खत्म करने के लिए अपना एक तुच्छ योगदान मैं भी दूं।

अब यह सूअर से नहीं, आदमी से आदमी में फैलता है...

जी हां, ये जो आज कर फ्लू हो रहा है, यह स्वाईन-फ्लू नहीं है, यह बस मौसमी एन्फ्लुऐंजा है... जो हर साल आता है जाता है। इसे सीज़नल H1N1एन्फ्लुऐंजा  (Seasonal Influenza H1N1) कहते हैं। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि यह स्वाईन फ्लू नहीं है। स्वाईन का मतलब है कि सूअर से फैलने वाला......लोगों में तो यह भी भ्रांति है कि यह सूअर का मांस खाने से फैलता है, ऐसा नहीं है, वो अलग बात है कि सूअर के मांस के साथ अन्य मुद्दे जुड़े हुए हैं जो इस पोस्ट की चर्चा का विषय नहीं है।

 दरअसल २००९ में जब स्वाईन-फ्लू आया --जब इस वॉयरस का मुखौटा सामने आया या यूं कह लें कि २००९ में जब यह वॉयरस पैदा हुई.. तब इसे पैनडैमिक एच१एन१ कहा गया था, यह विश्व के बहुत से देशों में फैलने लगा।

२००९ में जब यह फ्लू आया तो विश्व स्वास्थ्य संगठन इस पर बराबर नज़र रखे हुए था, उसने विश्व स्तर पर एलर्ट भी जारी किया था... क्योंकि यह वॉयरस का बिल्कुल नया मुखौटा था... जिस का न तो कोई वैक्सीन था, न ही लोगों के शरीर में इस का मुकाबला करने की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही थी।

तो यह बात अब हम सब की समझ में आ चुकी है कि यह २००९ वाली वॉयरस ही है, तब यह विश्व में पहली बार दिखी थी, लेकिन २००९ से २०१५ के बीच में हम सब में "herd immunity" पैदा हो चुकी है.......इस अंग्रेजी का मतलब केवल यही है कि इतने लंबे समय में हम लोगों के शरीर में इस का मुकाबला करने की क्षमता पैदा हो चुकी है....यह अपने अपने होता है......बिना बीमार हुए, बिना इस इंफेक्शन से ग्रस्त हुए......आप यूं समझ लें कि इस तरह की हर्ड-इम्यूनिटि हमारे लिए एक प्रकृति का तोहफ़ा है।

पहली बात तो यह कि अब सूअर वाली बात इस बीमारी के बीच से निकल चुकी है.......क्योंकि यह अब एक व्यकित से दूसरे व्यक्ति में खांसी-ज़ुकाम की तरह ही फैल रहा है.......और सीधी सीधी बात यह कि बहुत से लोगों में होगा, लेकिन गंभीर नहीं होगा, अब इम्यूनिटि है, इस से टक्कर लेने की रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो चुकी है।

मुझे ध्यान आया कि मैंने २००९ में कुछ स्वाईन-फ्लू से संबंधित लेख लिखे थे, अगर आप चाहें तो इस ब्लाग के दाईं तरफ पैनल में जो सर्च-बॉक्स बना है, उस में स्वाईन-फ्लू लिखें, तो सारे लेख आप के सामने आ जाएंगे.......मैंने भी अभी अभी देखे, लेकिन मैं जान-बूझ कर उन का लिंक यहां नहीं लगा रहा, जब यह स्वाईन-फ्लू है ही नहीं तो आप को क्यों बिना वजह उलझाया जाए।

तो दोस्त, आज सुबह जब अखबार आप के हाथ में आए तो पहले पन्ने पर स्वाईन-फ्लू के बारे में खबरें देख कर बिल्कुल भी भयमीत मन होइएगा.....इस के बारे में आज आप से बहुत सी बातें शेयर करनी हैं।

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

विविध भारती सेहतनामा-- बच्चों में दिल की बीमारियां

चलिए दोस्तो आज मैं कुछ नहीं कहता...आज आप को एक रेडियो का प्रोग्राम सुनाते हैं....मैंने इसे आज दोपहर में विविध भारती पर सुना और इसे आप तक अभी पहुंचा रहा हूं।

इस प्रोग्राम में बच्चों की दिल की बीमारियों पर चर्चा हो रही है। आप देखिए कि विविध भारती यह एक अद्भुत सेवा दे रहा है। आप इसे इस लिंक पर क्लिक कर के सुन सकते हैं....बच्चों में दिल की बीमारियां।

आप इसे इत्मीनान से सुनिए और बताईए कैसे लगा आप को यह कार्यक्रम!

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

गुटखा, देसी दारू और तंबाकू दो महीने में छूट गये


आज सुबह मेरे पास एस ३०-३५ वर्ष का आदमी आया था--अपनी छः साल की बेटी के इलाज के लिए। जब वह मेरे से बात कर रहा था तो मुझे उस का नीचे वाला होंठ एक तरफ़ से उठा हुआ दिखा। मैंने पूछा कि यहां क्या हो गया, मुझे नहीं लगा था कि उस ने तंबाकू दबाया हुआ है...शायद, उसने समझा कि मुझे पता है कि तंबाकू ही है।

इसीलिए उस ने तुरंत कहा कि कुछ नहीं है, सर, सॉरी। ऐसे ही फुंसी सी है। मैंने पूछा...तंबाकू है ना?... कहने लगा-- हां। मैंने इतना ही कहा कि क्यों इन सब के लफड़े में पड़ते हो।

उस बच्ची का इलाज होने के बाद मैंने उस आदमी से कहा कि आप बाहर जा कर कुल्ला कर के आएं और मैं फिर आप के मुंह के अंदर देखना चाहूंगा। वह तुंरत गया और कुल्ला कर के लौट आया....उस के नीचे के होंठ के अंदर का मांस सफ़ेद पड़ा हुआ था। मैंने उसे शीशे के पास जा कर दिखा भी दिया... और वह आज ही से तंबाकू के इस्तेमाल को लात मारने के लिए राजी भी हो गया।

झट से उसने तंबाकू का पैकेट जेब से निकाला और डस्टबिन में फैंक दिया......मुझे बड़ी खुशी हुई कि चलो, आज का दिन बन गया, एक और बच गया!

फिर वह जाते जाते दो मिनट में अपनी बात कह गया....उसने कहा-

"डाक्टर साहब, मैं दस साल तक देसी शराब पीता था... दो महीने पहले जब लखऩऊ में देसी नकली शराब से बहुत से लोग मरे थे, उन्हीं दिनों की बात है कि मैंने एक दिन ठेके से देसी दारू का क्वार्टर लिया, उसे चढ़ा लिया... तुरंत मेरा मुंह लाल हो गया...मैं जाते समय देसी का एक क्वार्टर घर में पीने के लिए भी ले लेता था, उस दिन भी लिया... घर जाकर मैं एक कमरे में गया, उसे भी चढ़ा लिया, लेिकन उसे पीते ही मुझे अजीब सा महसूस होने लगा, आंखों के आगे अंधेरा सा छा लगा.........बस, उस दिन से दारू पीने से तौबा कर ली और आज तक नहीं छुई।  
मैं गुटखा उस तरह का खाता था ...जिसमें मसाला अलग आता था, और तंबाकू अलग। मुझे उस में तंबाकू ज़्यादा मिला कर अच्छा लगता था, कईं बार तंबाकू-मसाला बेचने वालों से कहासुनी हो जाती थी जब मैं उन्हें कहा करता था कि आप तंबाकू कम वाला पैकेट देते हैं। उन्हीं दिनों एक दिन ऐसी ही एक तकरार से मैं इतना खफ़ा हो गया कि उस दिन से यह गुटखा बंद कर दिया।  
बस, डाक्टर साहब, आजकल यह तंबाकू चबाना ही चल रहा था. जिसे आज हमेशा के लिए त्याग दिया।"
आपने इस सज्जन की बातों से देखा कि जब हमें किसी नशे से दिल से नफ़रत हो जाती है तो कोई भी बात फिर उसे छोड़ने में हमारे आड़े नहीं आती।

यह पोस्ट मैंने इसलिए लिखी है कि इस तरह की चीज़ों का सेवन करने वालों का हौंसला बुलंद हो कि जब आप कुछ ठान लेते हैं तो फिर यह प्रबल इच्छा शक्ति (will power) ही है जो बड़े से बड़े काम करवा लेती है।

एक बात और करनी है पाठकों से......जो भी इस तरह के पदार्थ खाते हैं उन्हें अपने मुंह का स्वयं निरीक्षण भी करते रहना चाहिए, अच्छी रोशनी में आइने के सामने खड़े होकर देखिए कि कहीं कोई घाव, कोई सफेद दाग तो नहीं है, अगर नहीं है तो उसी दिन से ये सब नशे छोड़ दें, और अगर है तो अपने चिकित्सक से तुंरत संपर्क करे।

Stay safe---stay healthy.....stay blessed..
Take care!