रविवार, 18 सितंबर 2022

कुमार शानू लाइव शो में शिरकत कर पाना ही एक सुनहरे सपने जैसा ....

 दुनिया में हमारे प्रगट होने से भी पहले की फिल्म के गीतों का पेम्फलेट ..1960 में छपा होगा ..

फिल्मी गीतों की याद करते हैं तो हमें वो दिन याद आते हैं जब किसी फुटपाथ पर हमें 25-50 पैसे के पेम्फलेट पर हमें किसी फिल्म के गीत छपे हुए मिल जाते थे ...हम उसे देख-पढ़ कर खुश हो जाया करते थे ...पता नहीं मैं इन पेम्फलेटों को कैसे भूल गया था ...कुछ महीने पहले जब ऐसा ही एक पेम्फलेट एक विंटेज शॉप से 500 रूपये में खरीदा तो सभी यादें ताज़ा हो आईं...हा हा हा ....पांच सौ रूपये खर्च दिए इत्ती सी बेफ़िज़ूल चीज़ के लिए ....😂 हां, खर्च दिए यह सोच कर हमेशा की तरह कि जैसे एक पिज़्ज़ा खा लिया (अगर मैं यह न सोचूं तो इतनी फ़िज़ूलखर्ची करते वक्त मेरी तो भई जान ही निकल जाए...)  ...क्योंकि ऐसी ची़ज़ के फिर से दिखने के कोई चांस नहीं होते और हमारे जैसे लोगों के लिए ...ख़ास कर जो थोड़ा बहुत लिखना भी सीख रहे हों, उन के लिए तो ऐसा एक पेम्फ्लेट भी अपने साथ पुरानी खुशगवार यादों का तूफ़ान ले उमड़ता है ...

और एक बात, अभी इन पेम्फलेट्स से फुर्सत मिली ही थी कि मेरी उम्र के लोगों ने फिर गीतों की छोटी छोटी किताबें फुटपाथ से खरीद कर इक्ट्ठा करना शुरू कर दीं... तब तो ये हमें दो-तीन रूपये में मिल जाती थीं ...अब मैंने कितने में खरीदी हैं ये लता जी और किशोर दा की पुरानी किताबें, वह मत पूछिए....कभी खुद देखिएगा ट्राई कर के .. पता चल जाएगा.. 😂

खऱीदने का कारण .... कारण यही कि फिर ये किताबें कहीं नज़र आएं, न आएं ...कौन जाने...इसलिए खरीद लो जिस भी दाम पर मिलें, ऐसा सोच कर संग्रह कर लिया ...

पुरानी कैसटों का भी तो यही हाल होता था...जेब में सौ-पचास रूपये होते हुए भी 20-25 रूपये की कैसेट खरीद ही लेते थे ...दुकान पर चाहे दस मिनट सोचने में लगा देते कि लें या रहने दें..गाने तो इसमें अपनी पसंद के दो ही हैं....लेकिन फिर दिल पर दिमाग हावी पड़ता और उसे खरीद ही लेते। अपने एक दोस्त ने पिछले महीनों ढेरों कैसटें रद्दीवाले को दे दीं....हमें पता चला तो इतना दुःख हुआ ..हमने कहा कि हमें बताते, हम उठा लाते और सहेज कर रखते ....अब उन्हें जब भी हम यह बात याद दिलाते हैं वह भी उदास हो जाते है ं....हां, अपने पास भी कुछ बहुत पुरानी कैसटों का ज़ख़ीरा रखा पड़ा है ...यादों की पिटारियां हैं यार, इन्हें कैसे फेंक सकते हैं...अब कोई टेप-रिकार्ड इस लायक तो है नहीं कि उन पर इन्हें सुना जा सके ...और अगर कभी टू-इन-वन की तबीयत किसी दिन ठीक मिलती भी है तो उस दिन कैसेट का चलने का मूड ही नहीं होता....

खैर, इस तरह की बातें तो हमारे पास ऐसी हैं कि किताबें लिख मारें अगर चाहें तो ...लेकिन अभी तो कुमार शानू के लाइव शो की बात करते हैं...एतवार के दिन  बंबई की टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ एक सप्लीमैंट होता है ..मुंबई मिरर ....उस से पता चल जाता है कौन सा शो कब और कहां होने वाला है ....जब कुमार शानू के शो का पता चला तो मन बना लिया कि वहां कर हो कर आएंगे ही ...


परसों 16 सितंबर 2022 शाम 6.45 बजे यह शो शुरू होना था ...मैं लगभग साढ़े सात बजे वहां पहुंचा ...षणमुखानंद हाल है ...किंग्ज़ सर्कल में ...वह हाल ही है कि मैं उस दिन अपने एक साथी को कह रहा था कि वहां जा कर ही ऐसे लगता है जैसे कि मंदिर में ही आ गए हैं...उस की आब-ओ-हवा में ही कुछ ऐसा है ...। 

खैर, जब मैं वहां पहुंचा तो वहां कोई नयी गायिका रचना चोपड़ा कोई गीत गा रही थी ..लोग बेसब्री से कुमार शानू का इंतज़ार कर रहे थे ...शोर मचा रहे थे ..वे किसी दूसरे को सुनना नहीं चाहते थे ...ठीक है, जिन लोगों ने हज़ारों रूपये की टिकट खरीदी हो वे कब किसी की सुनें ..शो कम्पियर करने वाला कह रहा था कि दादा पहुंच चुके हैं...बस, अभी आने ही वाले हैं ...खैर, उन्हें स्टेज पर आते आते आठ तो बज ही गए...



कुमार शानू का स्टेज पर आने पर बहुत स्वागत हुआ ...उन्हें देखना ही सब को एक सपने का साकार होने जैसा लग रहा था...खचाखच भरे हाल में और दोनों बालकनियों में लोग इस प्रोग्राम का आनंद ले रहे थे....कम्पियर ने जब कहा कि दादा ने 30 हज़ार से ज़्यादा गीत अलग अलग ज़ुबानों में गाए हैं तो शानू ने कहा कि नहीं, यह गलत कह रहा है ...ऐसा एक रिवाज हो गया है कि फलां फलां ने 50 हज़ार गाए ..उसने 40 हज़ार गाए...उन्होंने कहा कि जब से यह फिल्म इंडस्ट्री बनी है तब से कुल 72000 गीत बने हैं ...उन्होंने 21 हज़ार से ज़्यादा गीत गाए हैं...

शानू ने कहा कि आप सब लोग हो जिसने कुमार शानू को बनाया है ..मुझे इतनी मोहब्बत दी है ..एक गीत के दौरान जब सब लोग साथ में वह गीत गुनगुना रहे थे तो कुमार ने कहा कि ऐसे खुशकिस्मत कितने गायक होंगे ...उन्होंने कहा कि मैं जीते जी आप को कभी धोखा नहीं दूंगा ...जैसा भी बन पडे़गा, गाता रहूंगा ... जेन्यून काम किया है हमारे दौर के गायकों ने ...अब लोग जब मुझे कहते हैं कि वैसा दौर वापिस कब लौटेगा....तो मैं कहता हूं वह दौर अब कैसे लौट सकता है ...कहां से लाऊंगा मैं वे लिरिसिस्ट, वे संगीतकार ...और वे प्ले-बैक सिंगर जिनके लिए काम एक जुनून था ...इसलिए जब तक हम हैं, हम से ही काम चलाओ...

उन्होंने पब्लिक की फरमाईश पर बहुत से गीत सुनाए ... अब मैं कैसे वह लिस्ट आप तक पहुंचाऊं ...एक के बढ़ कर एक गीत ... कुमार ने कहा कि 1990 का दौर ही रोमांस का दौर था...किसी ने कहा कि इन के गीत गुनगुना गुनगुना कर ही बहुत सी लव-स्टोरी परवान चढ़ी ...बहुत ही शादियां हो पाई इन गीतों की वजह से ही ...तो कुमार ने कहा कि हां, शादीयां तो हुईं मेरे गीतों की वजह से उपजी प्रेम-कहानियों की वजह से....लेकिन आगे किसी के साथ जो भी हुआ ..उस के लिए मैं कतई ज़िम्मेदार नहीं हूं...😂 तुम लोगों ने मेरे गीतों के नाम पर पता नहीं कितने कांड़ कर डाले होंगे ... 

लाइव -शो के दौरान लोगों को उन का बड़ी सहजता से बात करना ..बिना किसी लाग-लपेट के ...अच्छा लगा ..उन्होंने लोगों की फरमाईश पर एक गीत बंगला गीत भी सुनाया .. जिस में धरती मां की पूजा करने की बात थी ...

जब कुमार ने वह गीत गाया जब कोई बात बिगड़ जाए .... तो उन के कहने पर तीनों फ्लोर पर सभी ने अपने मोबाइल फोन की फ्लैश ऑन कर के उन का साथ दिया....बहुत खूबसूरत नज़ारा था ...वह भी अपने गीतों के लिए इतना प्यार उमड़ता देख कर भावुक हो गए... 



बिल्कुल सच बात है कि हिंदी फिल्मी गीतों के साथ हमारी यादें जुड़ी हुई हैं...हम सब की ...जाने अनजाने में ही सही ..लेकिन यह बात तो है ही ....कुछ दिन पहले हमने एक साथी से सुना वह गीत.....ज़िंदगी आ रहा हूं मैं (गीत का लिंक है यह) ..दो दिन पहले मैंने उसे कहा कि वह गीत हमें भी बहुत अच्छा लगता है ...तब अचानक उसके मुंह से निकला कि तुम्हें पता है कि 30-35 बरस पहले मैं और मेरे साथी एक ट्रेनिग करने के बाद बस में वापिस अपने शहर की तरफ जब लौट रहे थे तो हम लोग मिल कर बहुत यही गीत गा रहे थे .... बताते बताते वह बंदा भावुक हो गया...और हमें भी अपनी यादों की ओस में थोड़ा तो भिगा ही गया... 

खैर, हम सब के साथ यही है ...मुझे आज तक याद है बचपन में जब स्कूल पैदल जाते थे तो रास्ते में जो गीत बहुत बजा करता था...रास्ते में पड़ने वाली दुकानों के रेडियो सेट पर ...शर्मीली ...ओ...मेरी शर्मीली ...(गीत का लिंक है यह), बस यह गीत हमेशा के लिए याद रह गया...जब कभी भी इसे सुनते हैं बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं...ऐसी कम से कम सैंकड़ों यादें अभी भी ताज़ा हैं....क्या क्या लिखें, ..किसे दर्ज करें, किसे छोड़ दें, नाइंसाफी लगती है ....1990 में जब शादी के बाद मंसूरी में गये तो वहां पर सारी मंसूरी में आशिकी फिल्म के एक गीत ने जैसे धूम ही मचा रखी थी ... सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए..(गीत का लिंक यह है, इसे भी कुमार शानू ने गाया है) .बस, इक सनम चाहिए.... 


हां, तो मैं यह बात यहां लिखना चाह रहा हूं कि गीतों के साथ हमारी यादें तो जुड़ी होती ही हैं...लेकिन जो लोग इस तरह का क्रिएटिव करिश्मा कर गुज़रते हैं उन की भी बहुत सी यादें इन के साथ जुड़ी होती हैं...चाहे वह इन गीतों को लिखने वाले, चाहे इन के संगीतकार या गायक हों, या वो फिल्मी किरदार जिन पर ये फिल्माए जाते हैं...यादें सब की जुड़ी होती हैं...गीतकार अंजान, गीतकार गोपाल दास नीरज से ये सब बातें सुन चुका हूं ...लखनऊ में कुछ प्रोग्राम के दौरान...आनंद बख्शी के बेटे राकेश बेटे और हसरत जयुपरी की बेटी से नगमों के पीछे के किस्से आए दिन हम सुनते रहते हैं....और इसी तरह से गायकों की भी अपनी यादें होती हैं.... कुमार शानू ने बताया कि यह जो गीत आप सुनते हो ....कुछ न कहो, कुछ भी न कहो ...(गीत का लिंक) ..दरअसल यह उन का रिहर्सल टेक है..जिसे पंचम दा ने ओ के कर दिया....और मुझे बाहर आने के लिए कह दिया.... जब शानू ने कहा कि मुझे तो अभी फाइनल गीत गाना है ...तब पंचम दा ने कहा ... नहीं, उस की ज़रूरत नही ंहै, मुझे जो चाहिए था मुझे मिल गया है ... 

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ... जैसे ... जैसे ....जैसे ...शानू ने कहा कि पंचम दा ने कहा कि इस गाने में जैसे ....जैसे ...जैसे ...बहुत बार आया है ...बस, अगर तुम ने हर जैसे को अलग तरह से निभा लिया तो मेरा गीत समझो सुपर-डुपर हिट हो गया....। उन्होने इस की एक झलक पेश भी की ....

एक बुज़ुर्ग महिला जब शानू को मिलने स्टेज पर आईं तो उन्होंने नसीब फिल्म (1997) के उस गीत की फरमाईश कर दी ...शिकवा नहीं किसी से, किसी से  गिला नहीं, नसीब में नहीं था जो हमें मिला नहीं.... य़ह रहा इस गीत का लिंक ... 

सोच रहा हूं बहुत लिख दिया है ....शायद ज़रूरत से ज़्यादा ही ...अब फुल-स्टॉप लगाता हूं इस पोस्ट को .... जाते अलविदा लेते हुए कुमार शानू ने अपना यह गीत सुनाया .... 


और यह गीत भी कुमार शानू का ही है ... 


हां, एक काम और करना बाकी है ..जिस हाल में यह प्रोग्राम था, वहां की कुछ तस्वीरें ली थीं....वह शेयर कर रहा हूं....





यह हाल किसी साउथ इंडियन सोसायटी द्वारा चलाया जा रहा है, इसलिए आप समझ सकते हैं कि वहां की साफ-सफाई, वहां की एम्बिएंस...और सारा वातावरण ही कितना संगीतमय, सुरमयी और सब को सुकून देने वाला होगा....कुछ महीने पहले भी मैंने लता जी के याद में एक प्रोगाम वहां अटेंड किया था ... उस में भी मैंने इस हाल की खूब तस्वीरें शेयर की थीं....अगर आप ने न देखी हों तो देखिएगा, कभी फुर्सत के पलों मे ं.... यह रहा उस का लिंक .... 

एक महीने पहले मो. रफी साहब की याद में भी वहां पर एक बहुत खूबसूरत प्रोग्राम में शिरकत करने का मौका मिला था...बस, अपनी डायरी स्वरूप अपने इस ब्लॉग में दर्ज करने से चूक गया....आलस किया दो तीन दिया....फिर बस लिखने से चूक ही गया...इसलिए सोचा कि आज पहले कुमार शानू वाले होम-वर्क को निपटाया जाए ...कहीं यह भी छूट न जाए....मेरे जैसे आलसी बंदों का क्या भरोसा... जो लोग वहां नहीं थे, उन तक कुछ तो ज़ायका पहुंचा दें... 😀

Take care.... enjoy ever green, immortal melodies! 
Praveen Chopra 

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

लौकी का रस और वह भी कड़वा !

इसे भी पढ़ लो यार, यह वाट्सएप की पोस्ट नहीं है ...क्वालीफाईड डाक्टरों की सीख है जिसे दोहराने का मन हो रहा है ...मुझे भी यह पता तो था लेकिन इस पर मोहर आज कुछ बहुत अनुभवी, भले एवं अपने काम में माहिर चिकित्सकों की लगी तो मुझे लगा कि इस पर ही बात करते हैं...

जितना आप की समझ में आए समझ लीजिए, बाकी की बातें गूगल से पूछ लीजिए...हां तो दोस्तो, मैंने भी कितनी बार सुना होगी यह बात कि लौकी का कड़वा रस बीमार कर देता है, सेहत के लिए ठीक नहीं होता...और इस सोशल-मीडिया की भरमार में और हमारे अपने बचपन एवं जवानी के अनुभवों के आधार पर हमें कभी यह लगा नहीं कि यह इतनी खराब चीज़ हो सकती है..क्योंकि हम उस दौर की पैदावार हैं जिस दौरान घर में तरह तरह की सब्जीयां बनती थीं, दालें भी अलग अलग तरह की ....और मिक्स दालें भी ...और बात यही होती थी कि जो भी घर में बना है सभी को वही खाना है, कोई ज़ोमैटो न था, किसी स्विग्गी न थी...बस, जो रसोई में तैयार हुए व्यंजन हैं, उन्हें ही सभी खुशी खुशी खा लेते थे ...फिर भी मैं पता नहीं क्यों करेले से हमेशा नफ़रत ही करता रह गया...और आज तक यह नफरत बरकरार है ...करेले अपने अलग अलग अंदाज़ में पके हुए, धागा बांध कर तले हुए ....जितने मेरी मां और नानी को पसंद थे, मुझे उन से उतनी ही घृणा थीं...मैं जब उन को करेले की सब्जी की तैयारी करते देखता, कईं बार धागे बांध कर .....मैं यही सोचा करता कि यार, यह कर क्या रही हैं, इन्हें अब करेला ही मिला था बनाने को ....खैर, फिर बहुत बार हम लोग अपनी मां से सुनते कि करेले का कड़वा जूस बहुत सी बीमारियों से बचाए रखता था ...यह दरअसल बाबे राम देव वाला दौर था जो तड़के सारे हिंदोस्तान को टीवी में प्रगट होकर योग करवाया करता था ..

तस्वीर देख कर आप को भी मज़ाक सूझ रहा होगा ..कि इन सब को छोड़ दें तो फिर खाएं क्या....जनाब, छोड़ने को कौन कहता है, बस काटने से पहले थोड़ा चख लें, कड़वी निकले तो मत पकाइए, और कड़वा जूस क्या कर सकता है, वह तो आप इस पोस्ट में पढ़ ही लेंगे ..🙏

खैर, क्योंकि मैं करेले साल में दो या तीन ही खा पाता हूं ....इसलिए मुझे नहीं पता कि इस करेले का रस क्या खुद ही से कड़वा होता है या यह भी किसी लफड़े की निशानी है ...जैसा कि आज हम लोग लौकी के बारे में जानते हैं....

खीरे को भी बचपन में खाने से पहले एक सिरे से काट कर झाग निकाल कर काटना कितना पकाने वाला काम लगता था ...ऐसे लगता था जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...लेकिन उसमें भी तो ज़रूर कोई वैज्ञानिक रहस्य ही छुपा होगा ..आज कल के खीरे भी कभी कभी कड़वे निकल आते हैं ...,शायद अब हमने वह उस का सिरा काट कर झाग निकालने के बाद ही खाने वाली प्रक्रिया से अपने आप को मुक्त कर लिया है ....क्योंकि हम अपने से ज़्यादा किसी को अक्लमंद समझते ही नहीं....तो जनाब सुनिए, अगर आपने भी यह शॉटकट अपना लिया है तो वापिस उस पुरानी रिवायत जिसमें खीरे का एक सिरा काट कर, उसे बाकी के खीरे पर रगड़ कर झाग निकालने के बाद ही खाने का उसूल था, उसे फिर से अपना लीजिए। इस कारण यह है कि कड़वी लौकी ही विलेन नहीं है, लौकी के परिवार की सैंकड़ों सब्जियां हैं जो अगर कड़वी निकलती हैं तो समझिए उन्हें खाना जोखिम का काम है...



अब सवाल यह है कि जिस तरह से इंसान की पहचान देखने से नहीं होती, सब्जियों की कहां से होगी कि कौन सी मीठी है, कौन फीकी और कौन कड़वी....इसलिए सब से अच्छी आदत यह है कि जिन सब्जियों की अभी आपने ऊपर तस्वीर देखी है उन को काटते वक्त ही थोड़ा चख लीजिए...अगर कोई तोरई, कोई करेला, खीरा, लौकी मुई कड़वी निकल आए तो उसे फैंक दीजिए.......और हां, बेचारे पुशुओं के खाने के लिए उसे मत छोड दीजिए....सोचने वाली बात है जो चीज हमारे लिए ठीक नहीं है, वह हमारे पशुओं के लिए कैसे ठीक हो सकती है ...इसलिए कभी भी फ्रिज से कुछ भी पुराना निकालिए तो उसे कचरे की पेटी में ही फैंकिए...

खैर, आगे चलें ...मैंने देश के बड़े बड़े शहरों में देखा कि लगभग सभी पार्कों के बाहर किसी पुरानी मारूति मैटाडोर में (जिसे पुरानी मसाला फिल्मों में हीरोईऩ को अगवा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था...) बीस तीस स्टील के बर्तनों में रखे हुए तरह तरह के सब्जियों के, फलों के या कोई भी हर्बल जूस बिक रहे होते हैं ...(मैंने इन स्टालों से कभी भी कुछ लेकर नहीं पिया...)...इस का फैसला खुद आप को ही लेना है कि आप इन के बारे में क्या सोचते हैं...इन को तैयार हुए कितना समय हो गया, आप को कुछ भी तो पता नहीं इन के बारे में ...फिर आप कैसे कहीं भी इन्हें खरीद कर पीना शुरू कर सकते हैं...बचे रहिए और बचाते रहिए...मैं आपको दिल्ली की एक घटना सुनाऊंगा अभी जिसे सुन कर आप फिर कभी इन चक्करों में पड़ेंगे ही नहीं....वैसे भी आज हमारे एक साथी बता रहे थे कि उन्होंने भी दो तीन ऐसी घटनाएं देखी हैं...जहां लोग घर से दूर हरे-भरे मैदानों में टहलने गए...और वहीं आस पास इसी तरह के जूस पी लिए और उस के बाद उन की हालत ऐसी बिगड़ी कि वे लोग घर आने से पहले ही खत्म हो गए...

खैर, आप को भी कहीं यह तो नहीं लग रहा कि आज यह क्या अजीब2 सी बातें कर रहा है ...न सिर न पैर....सच में मुझे भी नहीं पता होता लिखते वक्त कईं बार कि मैं क्या लिख रहा हूं ...जो दिल कहता है, हाथ लिखते रहते हैं, मैं बीच से हट जाता हूं और इबारत तैयार हो जाती है...आज भी कुछ ऐसा ही काम हो रहा है, क्योंकि मुझे आप सब को और अपने आप को भी एक बहुत अहम् संदेश देना है ....हां, तो लोगों की सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू, नसवार छुड़ाते छुड़ाते 30-40 बरस तो हो ही गए हैं...ज़्यादा ही पीछे पड़ जाओ किसी के तो उसे भी यही लगता है कि अपना तो दादू, नाना, काका ...90 की उम्र तलक फेफड़े सेंकता रहा, पान-तम्बाकू चबाता रहा  ...उस का तो कुछ न हुआ...हां, अगर आप ये सब तर्क लेकर खड़े हैं तो मुझे आप से कोई गिला नहीं है, न ही मुझे कुछ आप से कहना है ...। 

अच्छा हम तो लौकी के कड़वे जूस की बात कर रहे थे ... कानपुर के दो माईयों ने इसे पिया ...दोनों ने एक एक गिलास ...तबीयत दोनों की बिगड़ी ..वही उल्टियां दस्त पेट दर्द ....दोनों को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा, बडा़ इलाज विलाज हुआ....नाना प्रकार की जटिलताएं पैदा हुईं इलाज के दौरान लेकिन एक बच गया ... और दूसरा स्वर्ग-सिधार गया....बहुत बड़े बिजनेसमेन थे ...और संयोग भी यह रहा कि उन दोनों ने उस दिन लौकी का जूस पहली बार ही पिया था ...ये सब सुनी सुनाई राजन-इकबाल नावल के अफ़साने नहीं है, पूरी की पूरी सच्चाई है ..

अच्छा, एक बात बताऊं...जब मैंने दिल्ली और कानपुर की ये घटनाएं सुनीं तो मैने गूगल पर भी कुछ ढूढना चाहा ...मिला भी मुझे लेकिन मुझे इतना यकीं हुआ नहीं ...लेकिन कुछ दिन पहले बहुत पढ़े-लिखे, अनुभवी एवं नामचीन फ़िज़िशियन के मुंह से ये सब बातें सुनीं तो वे सब मन में ऐसी बैठीं कि मैं उसे आगे भी आप सब के दिलों में बैठाने निकल पड़ा ...

लौकी के बारे में बात करने से पहले मैं अपनी वनस्पति विज्ञान से मोहब्बत की बात बताता चलूं ..दोस्तो, मेरा कोई डैंटिस्ट-वैंटिस्ट बनने का कोई ख्याल न था....वह तो मेरे पिता जी के दफ्तर में उन के एक साथी का बेटा बीडीएस कर रहा था और उन्होंने मेरे पिता जी को बता दिया कि बीडीएस करने के बाद नौकरी मिल जाती है ...बस, हमें भी दाखिला दिला दिया गया.....और एक बार दाखिला जब ले लिया तो मैडलो ंकी बौछार ऐसी हुई कि एमडीएस में दाखिला भी मिल गया और नौकरीयों की जैसे झड़ी लग गई ...(इसे कहते हैं अपने मियां मिट्ठू बनना...अब कहते हैं तो कहते फिरें, दूसरे तो तारीफ़ करने से रहे, अपनी ही पीठ कभी भी थपथपा लेनी चाहिए, अच्छा लगता है ...😎) लेकिन हम अपने पहले प्यार "बॉटनी की पढ़ाई" से हमेशा के लिए महरूम हो गए...बस, पेड़ों को, हरियाली को निहारते निहारते ही 60 के हो गए.... 

हां, तो यह लौकी कुकरबिटेसी फैमली से है ...जिसमें सैंकड़ों सब्जियां आती हैं ..इस श्रेणी की जो सब्जियां आप को अपने आस पास दिखती हैं उन की तो यह रही तस्वीर जो आपने देखी...बाकी, अलग अलग जगहों पर, अलग अलग देशों में, वातावरण के मुताबिक उगती होंगी ...उनमें से कितनी खाने योग्य हैं, कितनी नहीं हैं...यह हम नहीं जानते ....हमारा तो सब्जियों के बारे में इल्म ऐसा है कि हमें नहीं याद कि जब हम लखनऊ में सब्जी लेने गए हों और हमने कोई नईं सब्जी न देखी हो ...इतनी विविधता है ....जिससे हम अंजान है ... खैर, होता यह है कि लौकी जैसी सब्जियां कीट पतंगों से एवं शाकाहारी पशुओं इत्यादि से बचने के लिए एक कड़वा पदार्थ पैदा करती हैं ....जिस की महक से कह लीजिए....ये सब कीट पतंगे एवं शाकाहारी पशु इन के पास नहीं फटकते ....

अब होता यह है कि अगर ये सब्जियां बहुत सी ज़्यादा गर्म या सर्द वातावरण में लगी हुई हैं या ज़मीन की उर्वरकता में ही कुछ झोल है या फिर उन्हें पानी ही पूरा नहीं मिल पाता तो होता यह है कि इन में उस नुकसानदायक कैमीकल की मात्रा बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है ...कि इन के सेवन से शरीर को बहुत नुकसान हो सकता है ... और कईं बार इन का जूस वूस पी लेने से तो कोई इंसान जान भी गंवा बैठता है । 

ऐसा भी सुना है (मैं प्रामाणिक तौर पर नहीं कह सकता हूं) कि जो इस तरह की कड़वी सब्जियों की पकी हुई सब्जी खा ले अगर तो वह बीमार तो हो सकता है लेकिन अमूमन उस की जान पर तो आफ़त नहीं आन पड़ती  ... लेकिन अगर जूस पी लिया जाए ... तो 50 से लेकर 300 मिलीलीटर तक जूस भी किसी की जान ले सकता है ...अब यह भी कोई नहीं कह सकता कि किस की जान चली जाएगी, किस की बच जाएगी, यह तो बड़े से बड़े चिकित्सक भी नहीं बता पाएंगे....साथियो, यह कोई एक्सपेरीमेंट थोडे़ न है कि ऐसा कर के देखा जाए....सीधी सीधी बात है मेडीकल वैज्ञानिक जैसा कह रहे हैं कि इस तरह की कड़वी सब्जियों के जूस से तो बचिए ही, उन को पका कर तैयार की गई सब्जियों से भी बचिए...

अब बंद कर रहा हूं पोस्ट ...कुछ इंगलिश में तस्वीरें लगा दूंगा ...देखिएगा.........और कुछ पूछना चाहें तो गूगल डाक्टर है ही, वरना मुझे भी कमैंट में लिखेंगे तो मैं ज़रूर आप के सवाल का जवाब दूंगा ...चाहे मुझे स्पेशलिस्ट से पूछ कर ही क्यों न आप को बताना पड़े...

अभी मैं पोस्ट का शीर्षक देख रहा था तो मुझे एक कहावत की याद आ गई......एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा। अच्छा भई, अपना ख्याल रखिए...देख भाल कर खाया करें, फ्रिज में रखी पकी हुई चीज़ों का,  गूंथे हुए आटे का भी अंधाधुंध इस्तेमाल करने से बचें....नहीं, यह मैंने किसी से नहीं पूछा, यह मेरा ख़ुद का अनुभव है ... गूंथे हुए आटे को, एक दो दिन पुरानी दाल-सब्जी को फ्रिज में देख कर ही मेरा दिल कच्चा होने लगता है, और कईं बार तो आधे सिर का दर्द ही ट्रिगर हो जाता है, उसे भी बहाना चाहिए होता है मुझे तंग करने का ... ...क्या करें, अब जो आदते जैसी हैं सो हैं, अब 60 की उम्र में इस का कुछ नहीं हो सकता...आदतें पक चुकी हैं.. 

बुधवार, 7 सितंबर 2022

सिर दुखाने वाले हैं गर तो टाइगर बॉम भी तो यहीं हैं....

मैं जहां पर इस वक्त नौकरी करता हूं...वहां पर एक मरीज़ आया मेरे पास ...मरीज़ कम है दरअसल, उसने बिना किसी बात पर उलझने की डाक्टरेट कर रखी है ...मैं उन दिनों नया नया था..एक दिन आया ..दो दिन आया....कुछ बार मिला ..लेकिन उसमें ऐसा क्या जादू कि जब भी मिले, और कुछ न सही थोड़ा या बहुत सिर तो दुःखा ही जाए...

मुझे कुछ दिनों बाद यह बात भी पता चल गई कि उस का सब के साथ यही हाल है...फिर मैंने उस के कुछ लोगों से भुग्त-भोगियों से उस के बारे में बात करनी शुरु की ...और हम लोग आपस में इतना हंसते उस की बातों और उस के लहज़े को याद करके कि हमारे पेट में बल पड़ना शुरू हो जाते ...और मज़ेदार बात यह कि अपनी तरफ़ से वह बड़ी शालीनता से ही पेश आता था लेकिन पता नहीं उस की शालीनता में भी , उसके लहज़े में कुछ तो ऐसा था कि मैं अपने करीबियों को बताता हूं कि उसे देखते ही १०-२० प्वाईंट बीपी तो ज़रूर उछल जाता होगा... और थोड़ा बहुत सिर भारी भी हो जाता है, अगर कोई टाइगर-बॉम जैसा शख्स उस के फ़ौरन बाद आप को बोलने-बतियाने के लिए मिल गया तो ठीक, वरना आप के उस दिन तो भाई समझिए पकौड़े लग गये....अब आप सोच रहे हैं कि यह टाइगर-बॉम जैसे लोग होते कौन हैं, अभी बताऊंगा इन रब्बी लोगों के बारे में ....

हां, तो पहले तो हम लोग सिर दुःखाने वाले लोगों के बारे में बात करेंगे ...हम में से हरेक के पास ऐसे कुछ लोग होते हैं जिन के साथ बात कर के मज़ा नहीं आता ...अब, उस की गहराई में जाने का कोई फायदा नहीं कि ऐसा क्यों होता है, बस आप मेरी बात से इत्तेफ़ाक तो रखेंगे ही कि ऐसा हम सब के साथ होता है ....माईं, किसी दिन मूड बढ़िया होता है, आदमी ने बढ़िया मनपसंद कपड़े भी पहने होते हैं...और बंदा आसमां पर उड़ रहा होता है कि कोई ऐसा शख्स अचानक कहीं से प्रकट हो जाता है कि दस मिनट बाद आप अकेले बैठे सिर न भी सहला रहे हों, लेकिन आसमां से अचानक ध़ड़ाम से नीचे ज़मीन पर गिर कर धूल चाट रहे होते हैं...ऐसा जादू होता है कुछ लोगों की बोल-वाणी में कि बंदा अपने आप को बिल्कुल निकम्मा, बेकार ...क्या कहते हैं यूज़लेस सा समझने लगता है ...

अचानक इस काले स्याह अंधेरे से आप को खींच कर बाहर निकालने वाला कोई शख्स मिल जाता है ..जिन को मैंने टाईगर-बॉम की संज्ञा दी है ...यह इंसान कोई भी हो सकता है ...आप के आसपास भी इस तरह के टाइगर बॉम जैसे लोग होते हैं...ज़्यादा नहीं होते, चार-पांच-सात ही लोग होंगे ...ये वे लोग होते हैं जिन का भरोसा आपने जीत लिया होता है और जो आप पर भी पूरा भरोसा करते हैं ...और एक बार किसी का भरोसा तोड़ने का मतलब तो आप समझते ही हैं, बंदा हमेशा के लिए अपनी ही क्या, दूसरे की आंखों में भी गिर जाता है ...

अब मैं आप को इन टाइगर-बॉम जैसे लोगों की कुछ खासियत बताना चाहता हूं ...ये वे चंद लोग होते हैं जब उन को आप मिलते हैं तो आप दोनों के चेहरे फूल की तरह खिल जाते हैं...असली फूल की तरह ...नकली फूल चाहे जितने भी खूबसूरत आज बाज़ार में मिल रहे हैं लेकिन वे अपनी असलियत जल्द ही दिखा देते हैं...

अच्छा, एक बात और भी याद आ रही है कि ये लोग ज़रूरी नहीं कि आप के आसपास ही हों, ये हो सकता है कि आप के पचास साल पुराने दोस्त हों, स्कूल के, कॉलेज के ज़माने के या जहां पर आप पहले कहीं नौकरी करते थे, ये वहां के भी हो सकते हैं...लेकिन इतनी बात तो पक्की है कि उन चंद लोगों के साथ बात करते वक्त आप को अपनी बातों को तोलना नहीं पड़ता ...आप बिल्कुल बाल मन से उन से सब कुछ कह लेते हैं ...कुछ भी ...और वह भी बेधड़क हो कर दिल की बात खोल कर कहते हैं...अब तो वाट्सएप का ज़माना है, बहुत बार तो आपस में ऑडियो मैसेज का भी आदान-प्रदान होता है ...और फोन पर तो बहुत बार बात होती है ...अब आप सोचिए कि हम लोग जिस दौर में जी रहे हैं, वहां फोन पर खुल कर बात करना, ऑडियो मैसेज भेजना इत्यादि इतना सहज भी नहीं होता अमूमन लेकिन इन चंद लोगों पर मैंने पहले भी कहा कि आप को अपने से भी ज़्यादा भरोसा होता है ...क्योंकि आप दिल में कहीं यह बात भी रखते हैं कि यार, अगर फलां बंदा मुझे कभी धोखा देगा तो फिर कुछ भी हो सकता है ....वैसे तो यह भी एक काल्पनिक बात ही लगती है मुझे ....क्योंकि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मुझे आजतक तो कोई ऐसा शख्स मिला नहीं जिसने मेरे साथ ऐसा किया हो और मैं .....??? मैं तो एक कान से सुन कर दूसरे तक भी नहीं पहुंचने देता...उसे पहले ही अपने अंदर दफ़न कर देता हूं....ऐसे ही निभती हैं ये यारीयां, दोस्तीयां .......वरना आज के दौर में कौन किसी से बतियाना चाहता है ..किसी के पास वक्त ही कहां है ...

हां, तो आगे चलते है ं....ये जो टॉइगर बॉम जैसे लोग आप के इर्द-गिर्द फैले होते हैं न, इन के साथ बात करते वक्त आप के पास कोई टॉपिक नहीं होता, टॉपिक होने से बातें नीरस हो जाती हैं, मन ऊबने लगता है ...बिना टॉपिक के ही चुटकुलों जैसी बातें कर के एक दूसरे के चेहरों पर खुशी लाना ही उन छोटी छोटी मुलाकातों का मक़सद होता है ...और कुछ नहीं, किसी ने कुछ नहीं किसी से लेना या देना....बस, आप लोग मिलते हैं खिले हुए चेहरों के साथ, दो चार पांच ठहाके लगाए और आप दोनों का दिन बन गया.....ताज़गी आ गई ...मूड एक दम फ्रेश हो गया....अब आप ही बताएं की अगर दुनिया नुमा इस भट्ठी में ऐसे चंद लोग हमारे पास फैले होते हैं तो क्या ये टाईगर-बॉम से कम हैं...सीधी-सपाट बातें भी लतीफ़ों जैसी, कोई भारी भरकम बातें नहीं और सब के सब दूसरों पर हंसने की बजाए अपने आप पर हंसना पसंद करते हैं ...ये भी इन रब्बी लोगों की खासियत होती है, लिख लीजिए कहीं ...

सब से पहले तो आप को यह बताना होगा कि मुझे आज सुबह उठते ही यह ख्याल आया कैसे कि इस टॉपिक पर लिखने बैठ गया ...उस दिन मेरा सिर भारी हो रहा था ...बदपरहेज़ी से दिल भी कच्चा हो रहा था...कच्चा क्या, एक दो बार उल्टी होने की वजह से पूरा पक्का हो कर पका हुआ था ...गोली भी ली थी, लेकिन बस जैसे कुछ कायम न था ...इतने में मुझे एक टॉइगर-बाम जैसा शख्स मिल गया ...मैंने कहा चलो यार चाय पी कर आते हैं....हम पास ही बाहर चाय पीने निकल गये ...पांच मिनट की दूरी पर वह छोटी सी दुकान है...रास्ते में हम दोनों ने लतीफ़ों जैसी बात कीं...जी हां, बिना टॉपिक वाली, हल्की-फुल्की बातें, आप मज़ाक खुद उड़ाया....दो घूंट चाय पी ...और दस मिनट में जब मैं वापिस लौट रहा था तो मैं मन ही मन सोच रहा था कि अभी तो मेरा सिर भारी था और अभी मैं हवा में उड़ रहा हूं .....तो जनाब यह है टाइगर-बॉम का कमाल ....


अच्छा यह नहीं कि यह टाइगर बाम जैसे लोग आप से रोज़ ही मुलाकात करें, या आप रोज़ उन को मिलने जाएं ज़रूर, कईं बार वे कुछ मैसेज ही ऐसे भेजते हैं कि वह भी जैसे आप को रास्ता दिखाने का काम करते हैं ...आप आप से एक मैसेज शेयर करता हूं ...जो मुझे एक टाईगर-बॉम ने भिजवाया था दो तीन दिन पहले ...


ये जो रब्बी लोग होते हैं, ये इस तरह के बढ़िया मैसेज भिजवा कर अपने काम से फ़ारिग नहीं हो जाते ...जब मिलते हैं तो पूछते हैं कि हां, वह मैसेज भेजा था, मिल गया था ....फिर आप को उस मैसेज़ से इत्तेफ़ाक रखते हुए हामी भरनी होती है ...

अच्छा इन रब्बी लोगों के बारे में बात करते वक्त मैंने यह तो बता दिया ये लोग कौन हो सकते हैं...जाने-पहचाने-परखे, स्कूल कालेज के दिनों के, जहां आप काम करते हैं वहां आप के साथ काम करने वाले ....लेकिन बहुत बार आते-जाते टैक्सी, ऑटो वाले से भी कोई बात हो जाए तो देखिए....वह भी टाइगर-बॉम ही निकलता है ....और हां, कभी कभी बहुत ही कम बार ऐसे होता है किसी लोकल-गाड़ी में भी कोई ऐसा शख्स मिल जाता है ...लेकिन यह बरसों में एक बार होता है ...क्योंकि माहौल ही ऐसा है महानगरों का कि आप किसी के साथ खुल ही नहीं पाते हैं...

और हां, जाते जाते एक बात लिख कर इस पोस्ट को बंद करूं कि टाईगर-बॉम का ख्याल मुझे यूं आया कि मेरे कुछ शौक ऐसे भी हैं कि मैं किसी एंटीक की दुकान से पुरानी ४०-५० बरस पुरानी चिट्ठीयां खरीद लेता हूं ...बहुत महंगी देते हैं वे ये एंटीक चिट्ठियां ...खैर, शौक का कोई मोल कहां होता है ...मुझे किसी की निजी बातों से क्या मतलब, बस, पढ़ता हूं उस दौर के लोगों के मन के अंदर झांकने के लिए....कि उस दौर में लोग क्या लिखते थे ...क्या दिल की बात लिखते थे ....जी हां, पहले तो मैं अपने पिता जी की लिखी चिट्ठियों को ही दुनिया की सब से बढ़िया चिट्ठीयां मानता था....हमारे कुछ रिश्तेदार यह भी कह कर हंसते थे कि अमृतसर वाले पापा जी की चिट्ठी आती है तो ऐसे लगता है जैसे अखबार आ गया हो, इतना कुछ लिख भेजते हैं.....जी हां, यह भी एक बहुत बड़ी खासियत थी उन की चिट्ठीयों में .........लेकिन अब जब मैं कुछ एंटीक चिट्ठीयां भी पढ़ चुका हूं तो मुझे यह विश्वास हो गया है कि हां, गुज़रे दौर में भी लोगों के पास फोन नहीं थे, वाट्सएप भले ही न था ....लेकिन ये जो ख़त थे न यही उन लोगों की टाइगर-बॉम थे ....(यहां यह याद आ रहा है दादी की टूटी-फूटी हिंदी में चिट्ठी जब आती थी तो पिता जी हम से दो-तीन बार पढ़वा कर उसे अपने तकिये के नीचे रख देते थे ...बार बार निहारते थे ....जैसे पढ़ने की कोशिश कर रहे हों ---हिंदी पढ़ना उन्हे नहीं आता था...).... हां, एक ऐसी ही एंटीक चिट्ठी में लिखा हुआ था किसी के रिश्तेदार ने जो कहीं बाहर रह रहा था कि वह फलां फलां चीज़ें भिजवा रहा है और उसमें आप की फेवरेट टाईगर-बॉम भी भिजवा रहा हूं ......उस वक्त तो मुझे ख्याल नहीं आया, अब इतना लिखने पर यह ख्याल आ रहा है कि यार, तुम्हारी चिट्ठी ही खुद टाइगर-बॉम है (मैंने तो पढ़ी है), अब इसे जिस ने भी आज से पचास साल पहले पढ़ा होगा उसे बॉम की डिबिया ही ज़रूरत ही कहां रहेगी .......लेकिन अगर उस तरह की चिट्ठी के बावजूद भी किसी को उस डिबिया की ज़रूरत महसूस हो...तो फिर तो मामला गड़बड़ है,दोस्तो ........फिर तो सेरिडॉन वाला मामला ही दिक्खे है .. 😎

लिखने के बाद यह भी ख्याल आया कि हमारे जो खून के रिश्ते होते हैं ...सब से बड़ी टाईगर-बॉम की डिबिया तो वही होते हैं....उन के बारे में मैने लिखा क्यों नहीं....क्योंकि वह भी कोई लिखने वाली बात है ...

और हां, एक बात और भूल गया यहां दर्ज करनी कि तब बहुत बड़ी दिक्कत हो जाती है जब दो तीन टाईगर-बॉम जैसे लोग एक साथ मिल जाते हैं....पता ही नहीं चलता...कि अभी तो रसगुल्ले से मुंह भरा पड़ा है, अब मिल्क-केक भी खाना है ....उसे पहले खाएं या इसे पहले खाएं....क्योंकि इतना कुछ होता है अपने ही ऊपर हंसने के लिए और बोलने-बतियाने के लिए कि क्या कहें....ऐसे मौकों पर एक शेल्फी भी अकसर हो जाती है ... 😎...और हां, आप भी जहां रहते हैं, काम करते हैं....इन टाईगर-बाम जैसे लोगों से राब्ता बनाए रखिए....वरना, बीमार हो जाएंगे ....सच कह रहा हूं...इसे एक हकीम की नसीहत की तरह लीजिए...

शनिवार, 27 अगस्त 2022

हुड़दंग-हुल्लड़बाज़ी ज़िंदगी बदल देती है कईं बार ....

आते जाते रास्तों पर सड़के नापते हुए फिरंगियों के वक्त की इमारतें देख कर हैरत में पड़ जाता हूं ...कुछ दिन पहले एक बस में बैठा बैलर्ड पियर जा रहा था (वी टी स्टेशन से गेटवे ऑफ इंडिया तक ए.सी बस सर्विस बहुत बढ़िया है)...रास्ते में एशिआटिक लाईब्रेरी दिखी ..पहली भी कईं बार देखी है ...उस दिन भी देखते ही बरबस मुंह से यही निकला ..पास बैठे अंजान यात्री से जैसे कुछ कहने लगा कि इन अंग्रेज़ों को भी अगर पता होता कि इन्हें इस देश से खदेड़ दिया जाएगा तो ये सब कुछ इतनी मोहब्बत से कहां बनाते ....उसने भी हामी भर दी ...। 


आज दोपहर बाद भी अभी एक-दो घंटे पहले ढ़ाई बजे के करीब मैं भायखला स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर एक पर दादर जाने के लिए लोकल-ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था ...वैसे तो पिछले कुछ महीने में भायखला स्टेशन का पूरा काया कल्प हुआ है ..एक दम हैरीटेज लुक दी गई है ...अच्छा लगता है ...अचानक इस घंटे पर नज़र गई और उस पर लिखा साल देखा तो हैरानी भी हुई १६० साल से पुराना घंटा ...फोटो खींच ली ... वैसे भायखला उस रेल लाइन पर आता है जहां पर हिंदोस्तान की सब से पहली रेलगाड़ी चली थी...मुंबई वी टी (या बोरी बंदर कहते थे तब) से ठाणे तक ....बाकी की स्टोरी तो आप जानते ही हैं...

फिरंगियों की तरफ से इस तरह के पुराने सामान को जब देखता हूं तो उन से किसी भी तरह की सहानुभूति की तो ऐसी की तैसी ...हर बार यही मज़ाक सूझता है कि इन पट्ठों ने ये सब यही सोच कर बनाया-सजाया होगा कि अब तो यह सब कुछ अपना ही है ...लेेकिन फिर मन ही मन नतमस्तक हो जाते हैं आज़ादी के उन दीवानों के बलिदान पर जिन्होंने अपनी जान गंवा कर हमें आज़ाद भारत में सांस लेने का और इस तरह के घंटे की फोटो खींचने का मौका दिया....

दो-तीन मिनट तो कभी कभी लोकल गाड़ी के लिए इंतज़ार करना ही होता है ...लेकिन इसी दौरान देखा कि सामने तीन नंबर प्लेटफार्म पर जो लोकल ट्रेन मुंबई वी टी की तरफ जा रही हैं, उस में बहुत से युवा ऊंची ऊंची आवाज़ निकाल कर हूटिंग सी कर रहे हैं....ऐसी ही हुल्लडबाजी ...मस्ती .....। मैंने सोचा कि शायद कल रविवार है, रेलवे भर्ती बोर्ड या किसी अन्य विभाग का कोई पेपर हो ...लेकिन उन युवकों की उम्र देख कर लगा नहीं ...अजीब सा शोर था....

खैर, इतने में मेरी ट्रेन भी कसारा लोकल आ गई ...बैठ गया....पेपर पढ़ने लगा ...इतने में पता नहीं मन किया कि परेल स्टेशन पर ही उतर जाता हूं ...उतरने लगा तो वहां पर भी दूसरी तरफ़ से आने वाली एक गाड़ी गुज़र रही थी और खूब शोर मचा हुआ था ...मुझे अचानक ख्याल आया कि दो दिन बाद गणेश-चतुर्थी है ...ये लड़के लाल बाग से गणपति बप्पा की मूर्ती लेने निकले होंगे ...हुल्लडबाजी कर रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं...उम्र ही ऐसी है इन की ...खैर, मैं नहीं उतरा वहां पर ..


अगला स्टेशन दादर था ...दादर सेंट्रल रेलवे के प्लेटफार्म नंबर एक पर उतरा तो यह महिला अपना बोझा ढोने के लिए बड़ी मशक्कत करती दिखी ..लेकिन उसने अपने बलबूते पर इतना सामान सिर पर उठा कर ही दम लिया....इतने में देखा एक लड़की १८-२० बरस की बदहवास सी प्लेटफार्म पर भागते भागते गाड़ी पर चढ़ने से रह गई ...उसे तुरंत एक महिला कांस्टेबल ने पकड़ कर नसीहत की अच्छी घुट्टी पिलाई कि इस के बाद कोई ट्रेन नहीं आएगी क्या....



खैर, सामने एक नन्हा बालक दिखा ...मां के हाथ में दूध की बोतल तो थी लेकिन वह मोबाइल पर गुफ्तगू में मसरूफ़ थी....वाट्सएप पर ऐसे बहुत सी पोस्टें दिखती रहती हैं न ...मुझे भी उस वक्त यही ख्याल आया जैसे कि वह शिशु मां को कह रहा हो कि मम्मी जी, मुझे भूख लगी है ...प्लीज़ मोबाइल पर तो सारा दिन रहती ही हो, मेरा भी तो कुछ ख्याल करो ...

कुर्ला, मध्य रेल, लोकल प्लेटफार्म नंबर १

खैर, अभी इस प्यारे से बालक की तरफ से नज़र हटी ही थी कि आगे फिर थोड़ा शोर सा दिखा ...प्लेटफार्म पर कुछ खून गिरा हुआ था...मुझे लगा कि किसी को चोट वोट आई होगी या किसी को खून की उल्टी हुई होगी ... अभी चंद कदम आगे चला था कि प्लेटफार्म के एक एरिया को कार्डन-ऑफ किया गया था ... भान हुआ कि कुछ तो मनहूस बात हुई ही है ...आगे बढ़ तो गया लेकिन रहा नहीं गया....पाटिल हवलदार से पूछा कि क्या हुआ...उसने जो बताया वह दिल को दहलाने वाला था ...कहने लगा कि पांच-दस मिनट पहले चार युवक गिर गए गाड़ी से ...गिरा तो एक ही, साथ में तीन और ले बैठा....किसी का हाथ कट गया है, किसी का पांव.....बहुत अफसोस हुआ यह सुन कर। मेरे पूछने पर उसने बताया कि अभी तो सॉयन अस्पताल भेज दिया है ...बाद में उन के परिवार वाले उन्हें जहां से लेकर जाना चाहें....

पाटिल बता रहा था कि ये लड़के लोग गणपति चतुर्थी के चक्कर में बड़ा हुड़दंग मचा रहे थे ...चलती ट्रेन से खंभे को छूने की कोशिश कर रहे थे ...बहुत ज़्यादा अफसोस हुआ यह सुन कर ...यार-दोस्त थोड़ी मस्ती करने निकले और अचानक क्या से क्या हो गया....किसी को कुछ फ़र्क नहीं पड़ता ...मुंबई एक मिनट भी नहीं थमी..हादसे के पांच मिनट बाद सब कुछ ऐसे चल रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं...

पोस्ट इसलिए लिखने पर मजबूर हुआ कि मन की बात कह लूं कि त्यौहार का मतलब हम लोग क्यों इतने हुड़दंग करना ही मान लेते हैं...खुशी है, उत्सव का माहौल है, ठीक है...लेकिन जोश के साथ होश भी तो रखना होगा...मैं मानता हूं कि हर किसी को इस तरह की नसीहत की पुडि़या बहुत बुरी लगती है ...क्योंकि हादसा तो कभी भी हो सकता है...किसी के साथ भी ..लेकिन फिर भी जितना हो सके, उतना ही ख्याल रखना ही चाहिए....पानी के सामने, आग के सामने, और गाड़ी के सामने किसी की नहीं चलती....

पानी से याद आया...पिछले दिनों में हर साल की तरह बंबई के जुहू बीच और अन्य बीचों पर कुछ युवा डूब गए...रेड-एलर्ट जारी था ...और सरकार भी क्या करे, लेकिन जवान लोग किस की सुनते हैं...समंदर की लहरें लील ले गईं जवान लोगों को ...अकसर इस तरह की खबरें देख कर मुझे कुछ पंद्रह बीच बरस पहले कोच्ची की अपनी यात्रा याद आ जाती है..कोच्ची से कोई २०-२५ किलोमीटर दूर एक बीच है...वहां कहते हैं ज़्यादा आगे जाना खतरनाक होता है (चेतावनी हम लोगों ने बाद में पढ़ी थी) ..हम लोग किनारे पर ही खड़े थे ...अचानक लहर आई ..हमारे पैरों के नीचे से ऐसे रेत खिसकी की मां कहां गई, पर्स कहां गया, छोटा बेटा दो-तीन साल का कहां बह गया...बाकी भी सभी लुढ़क गए...उस वक्त तो यही लगा कि पता नहीं कितने लुढ़क गए, कितने रह गए ...खैर, फटाफट जैसे तैसे उठ खड़े हुए और भागे वहां से ..टैक्सी में बैठ कर ....अभी याद आया .....जी हां, वह था कोवलम बीच 

हां, अभी कुछ दिन पहले कृष्ण जन्माष्टमी थी ..दही हांडी का उत्सव था ..किस तरह से कुछ युवक बुरी तरह से ज़ख्मी हो गए...अखबार में पढ़ा कि एक का तो दिमाग ऐसा डेमेज हुआ है कि उस का बचना मुश्किल है ..और दूसरा कोमा में है ....ऐसे बहुत से केस हर बरस होते हैं ....हम लोग सीख क्यों नहीं लेते ..उत्सव मनाएं लेकिन होशोहवाश में रह कर .... इस बार मेरे एक दोस्त ने दही हांडी वाले दिन एक वीडियो भेजी जिसे देख कर मेरा दिल दहल गया....कुछ युवक एक लड़के को पकड पर ऊपर हांड़ी की तरफ उछाल रहे थे ...उस युवक का जब सिर उस मटकी पर लगा वह हांडी फूट गई ....लेकिन होने को तो कुछ भी हो सकता था ...

यही नहीं होली के दिन भी सभी अस्पतालों की एमरजैंसी को किस तरह से मुस्तैद रहने को कहा जाता है ....क्योंकि हादसे होते हैं, चोटे लगती हैं उन दिनों भी ....बात सोचने वाली यही है कि क्या हम अपने आप में रह कर संयम से अपने तीज-त्यौहार नहीं मना सकते ....ऐसा क्या है कि धार्मिक त्यौहारों पर भी सरकारों को इतने बड़े स्तर पर पुलिस बंदोबस्त करना पड़ता है कि एक अजीब सा खौफ़ कहीं न कहीं सताने लगता है ...

बस बात यही खत्म करते हैं कि किसी को कोई नसीहत की ज़रूरत नहीं है, जितना कुछ जानने लायक है उस से तो ज़्यादा ही हम लोग जानते हैं......मानते हैं या नहीं, वह अलग बात है। बस, अपना ख्याल रखा करो भाई...बच कर रहिए, बच कर चलिए, खुद भी बचिए, औरों को भी बचाते रहिए ..

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

20 हत्याएं जिन्होंने दुनिया बदल दी ...




कुछ किताबें के कवर देख कर हम लोग उसे खरीदने पर मजबूर हो जाते हैं....मेरे साथ तो ऐसा अकसर होता ही है ...महंगी महंगी किताब खरीदते वक्त मुझे बस अपने दिल को यह तसल्ली देनी होती है कि मैं समझूंगा कि मैंने कुछ पिज़ा खा लिए ....जो कि मैं कभी खाता नहीं ...

खैर, यह किताब हाथ में आई तो इसे झट से पढ़ने की तमन्ना भी जाग उठी....जैसा कि हम सब के साथ होता है मैंने भी इस के लेखक के बारे में पढ़ा, और उन बीस लोगों की फेहरिस्त देखी जिन की हत्याओं ने दुनिया को ही बदल कर रख दिया...

किताब तो बाद में पढ़नी थी ...लेकिन जिस बात ने मुझे सब से ज़्यादा हैरान-परेशान किया वह यह थी कि उन बीस हस्तियों में मैंने १४ लोगों के नाम ही कभी नहीं सुने थे ...है कि नहीं हैरानी वाली बात....साठ साल की उम्र होते होते कुछ तो पढ़ते ही रहे हैं लेकिन फिर भी सामान्य ज्ञान इतना कमज़ोर ....सच में थोड़ी डिप्रेशन भी हुई कि जिन बीस लोगों की हत्याओं ने दुनिया में तहलका मचा दिया, उन में से तुम्हें ७० फीसदी का नाम तक नहीं पता, अपने आप से इतना तो कहना ही पड़ा। 


और एक रोचक बात सुनिए ...जिन छः लोगों के नाम मैंने सुन रखे थे ...मुझे बिल्कुल भनक तक न थी उन में से दो की हत्या की गई थी ...इन में लार्ड माउंटबेटन और किंग लूथर का नाम मैं लेना चाहूंगा...इतनी बड़ी हस्तियां और हमें (नहीं, मुझे) इन के बारे में कुछ खास पता ही नहीं। जब से यह वाट्सएप आया है पिछले सात-आठ सालों में लेडी माउंटबेटन के साथ चाचा नेहरू की तस्वीरें तो वाट्सएप विश्वविद्यालय यूनिवर्सिटी चलाने वाले बार बार शेयर करते रहते हैं लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कभी कि माउंटबेटन की हत्या एक बम विस्फोट में १९७९ में हुई थी ...और उसी किताब से पता चला कि माउंटबेटन की हत्या के बाद भारत में एक हफ्ते का शोक रखा गया था ...उस में यह भी पढ़ा कि माउंटबेटन से हिंदोस्तान को पाकिस्तान और भारत में बांटने की गलती हो गई ....हैरानी तो मुझे भी बडी़ हुई कि ऐसी गलती हुई तो हुई कैसे ...खास कर के उस के बारे में, उस की बैकग्राउंड के बारे में पढ़ कर मुझे भी बड़ा अजीब सा लगा कि बस इसे एक गलती कह कर ही बात को रफा-दफा किया जाए...लाखों लोगों ने जाने गंवाई, बेघर हुए ...और आज तक लोग उस गलती का खमियाजा भुगत रहे हैं ...खैर, चलिए...अब पछताए होत क्या, जब चिढ़िया चुग गई खेत..

मार्टिन लूथर के बारे में भी पढ़ना है ...लिंकन के बारे में तो पहले ही से पढ़ा हुआ है ...भला इंसान था ...आप को भी याद होगा उसने जो चिट्ठी अपने बेटे के अध्यापक को लिखी थी .....बहुत ही नेक बंदा था ...इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बारे में पढ़ा ....इन दोनों की हत्याएं तो हमें बड़े अच्छे से याद हैं...और उन के बाद होने वाला घटनाक्रम भी। राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या की पूरी जानकारी आज पहली बार हासिल हुई ...और इस लिस्ट में कैनेडी नाम का एक और इंसान था, उस के बारे में पता चला कि वह भी कैनेडी का भाई ही था ...वह भी राजनीति में आगे आ रहा था ...उसे भी राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या (१९६३) के पांच बरस बाद १९६८ में मौत के घाट उतार दिया गया...

वैसे तो हम जितना भी पढ़-लिख लें, जितना भी ज्ञान अर्जित कर लें, हमारा ज्ञान दुनिया के ज्ञान के समक्ष एक रेत के कण के बराबर भी नहीं है ...यह बात बिल्कुल सच है ....लेकिन हमें ऐसे ही कभी कभी ऐसा महसूस होने लगता है कि हम तो सब कुछ जानते हैं...ऐसा नहीं है ...मुझे भी अकसर किताबें पढ़ते पढ़ते ही यह अहसास होता है कि मैं कितना कम पढ़ा-लिखा हूं ...मुझे किसी ने पूछा कि आप फिक्शन पढ़ते हैं या नॉन-फिक्शन ....मैंने कहा मुझे जो भी किताब अच्छी लगे, मैं उसे पढ़ना चाहता हूं ....हिंदी-इंगलिश-पंजाबी में पढ़ता हूं अकसर ...गुज़ारे लायक उर्दू भी पढ़ लेता हूं ....किंडल होते हए भी किताब तो भई हाथ में थाम कर ही अच्छा लगता है ...

इस किताब में दर्ज अहम जानकारीयां किसी अगली पोस्ट में शेयर करूंगा... वैसे तो नाम अब आप के पास हैं, गूगल कर के भी खुद भी ऑन-लाइन पढ़ सकते हैं...

वैसे एक बात और है ...ख्याल अगर खुद के कमज़ोर सामान्य ज्ञान का आ रहा है तो बात यह भी याद आ रही है कि हम कितना दुनियावी वैभव, शानो-शौकत के पीछे भागते भागते हांफते रहते हैं, एक तरह से हलकान हुए रहते हैं और इधर दुनिया के गिने-चुने बीस लोगों की हत्या हो गई और मेरे जैसे पढ़े-लिखे कहलाने वाले तक को भी उन में से अधिकांश के नाम ही न पता थे ....सच में सब कुछ कितना क्षणिक है, कितना क्षण-भंगुर है ....लेकिन इत्ती सी बात ही हमारे पल्ले इतनी आसानी से कहां पड़ती है ...😂

सोमवार, 1 अगस्त 2022

बदलते बदलते बदल गई लाटरीयां भी ...

लिखने वाले के लिए लेख भी बच्चोंं की तरह पीछे पड़ जाते हैं...मुझे मोहम्मद रफी साहब के बारे में कुछ लिखना है, स्टेचू ऑफ यूनिटी, गुजरात के बारे में कुछ लिखना है ...अभी वह सब सोच ही रहा था, ख़्याली पुलाव बना ही रहा था कि यह लाटरी वाला छोटा बालक जैसे बार बार कहने लगे ..हमारी बात कह पहले ...कह न ...हमारी बात पहले ....


तो दोस्तो हुआ यूं कि आज शाम को बंबई के भायखला स्टेशन में तीन चार महिलाओं का एक ग्रुप कुछ घरेलू सामान बेच रहा था ....कुछ लाटरी वाटरी सिस्टम था ...अच्छा, उन के बारे में सब से बाद में लिखूंगा ..सब से पहले आज से ५५ बरस पहले की बातें याद आ रही हैं इन लाटरीयों की, उन्हें तो लिख लूं ...यही कोई पहली दूसरी जमात में स्कूल में जाते वक्त दस पैसे तो मिलते ही थे ...यार, बहुत होते थे, उन दिनों दस पैसे भी ...उस से ज़्यादा तो हम संभाल भी न पाते ... और असल बात यह भी है कि हम से वह दस्सा (पंजाबी में दस पैसे के सिक्के को कहते थे दस्सा ..जो पीतल का होता था ...मेरी सिक्कों की क्लेक्शन में पड़ा है उस तरह की दस्सा भी ...) ...बचपन की कितनी यादें कितनी मीठी होती हैं न ..मां पीतल की एक डिब्बी में एक-दो परांठे गुड़ के साथ रख देतीं और पिता जी जाते वक्त एक दस्सा हाथ में रख देते ....बस, हम अपने आप को महाराजा पटियाला समझने लगते ...आस पास के दोस्तों के साथ, जिनमें एक देवकांत भी था...हम स्कूल के लिए निकल पड़ते .... वहां पर पांच पैसे की कभी कभी लाटरी खरीद लेते ..मेरे जैसे सठिया गए लोगों को तो याद होगा कि यह लाटरी का क्या चक्कर था, आप समझिए एक कैलेंडर जितनी शीट थी, जिस के ऊपर सौ-पचास छोटे छोटे पतले कागज के स्टिकर चिपके रहते थे ...हम उस स्कूल वाली मौसी को पांच पैसे देते, वह हमें एक स्टिकर उखाड़ने को कहती ...हम उसे खोलते, और इनाम निकलता ...कभी एक टाफी, कभी कुछ नहीं ...कभी यह इनाम होता कि चलो, एक बार लाटरी और खेल लो...कभी कोई छोटा-मोटा प्लास्टिक का लाटू, झुनझुना ...कुछ भी निकल आता ....

और हां, यह पांच पैसे की लाटरी हम लोगों को बड़े गुपचुप तरीके से खरीदनी होती थी ..क्योंकि जब भी घर में आकर बात चलती कि आज लाटरी खरीदी थी तो मां समझाने लगती - न खरीदया कर लाटरी, जुए दी आदत पै जांदी ए...(मत खरीदा कर ये लाटरीयां-वाटरीयां, इन से जुए की आदत पड़ जाती है ...) खैर, यह दौर ऐसे ही चलता रहा ..कुछ बरस पहले..यही कोई दस बरस पहले की बात होगी मैंने शायद लखनऊ की किसी दुकान पर वैसी ही लाटरी वाली शीट देखी तो मुझे पुराने दिन याद आ गये। 


खैर, आगे बढ़ते हैं ...घरों में अखबार के साथ एक प्रिंडेट पोस्टकार्ड आ जाता कभी कभी ...जिस में कुछ खानों में अंक इस तरह से भरे होते कि उन का जोड़ ४४ आता था ...हमें कहा जाता था कि इस के साथ ही खाली खानों में आप ने अंक तरह से भरने हैं कि उन का योग ४८ आ जाए.... और साथ में लिखा होता कि जिन का जवाब सही होगा उन्हें वीपीपी से ट्रांजिस्टर या टार्च या प्रैस ...(और भी पता नहीं क्या क्या, अब इतना याद नहीं ...उम्र हो चली है भई अब अपनी भी)....भिजवा दिया जाएगा...अच्छा एक बात मज़ेदार यह कि उस कार्ड की खासियत यह होती कि उस पर बिना टिकट लगाए ही हमें उसे डाकपेटी के सुपुर्द करना होता था ...उस पर लिखा रहता था कि इस पर टिकट लगाने की कोई ज़रूरत नहीं ....अच्छा, एक तो हमारा दिमाग यह बात खराब कर देती कि यार, हम ने तो पहेली का सही हल ढूंढ लिया....वैसे उसमें करने को कुछ होता न था, बस हर खाने में एक एक अंक बढ़ाना होता था ...खैर, चलिए उसे डाकपेटी में डाल भी आए........और कुछ ही दिनों में किसी कंपनी से एक पैकेट आ जाता वीपीपी से कि ५० रूपये दो और आप के लिए यह इनाम आया है ...रियायती दामों पर ......मुझे नहीं याद कि कभी इस तरह का वीपीपी का पैकेट हमने या हमारे मोहल्ले में किसी ने भी उस डाकिये से लिया हो .....इतने पैसे होते ही किस के पास थे। खैर, एक दो बार में इन पोस्टकार्डों वाले धंधे की बात समझ में आ गई .....

और हां, यही ५० बरस पुरानी बातें यह भी हैं कि मोहल्ले की औरतें कमेटियां डालती थीं ... ५० रूपये की कमेटी या २५ रूपये की कमेटी फलां फलां महीने के लिए ..पुरुष लोग भी डालते थे लेकिन अलग ..महिलाओं की कमेटीयां का भी एक अलग ही नज़ारा होता था ....जब कमेटी खुलती यानि जिस की लाटरी निकलती, उस के घर में थोड़ी बहुत पार्टी होती ..समोसे-जलेबी-गुलाब-जामुन-बर्फी की ...लेकिन ये जो औरतें कमेटी की आर्गेनाइज़र होती थीं, वे सब की सब बड़ी लडाकू किस्म की होती थीं ...क्या करती वो भी ....उन्हें दबंग होना ही पड़ता था ....वरना कोई वक्त पर कमेटी की रक्म न दे तो .....और हां, कईं बार कमेटी निकलने पर बहुत से बर्तन या कोई आइटम जैसे सिलाई-मशीन या कोई प्रेशर कुकर या कुछ भ ी....(याद नहीं यार अब इतना तो ...यह भी आज इतने लंबे अरसे बाद इसलिए याद आ गई बातें क्योंकि लिखने बैठ गया हूं ......मैं इसलिए कहता हूं अकसर को लिखते वक्त अपने आप बातें पुरानी से पुरानी जो हम भूल भी चुके होते हैं ..वे भी याद आने लगती हैं..) ..

खैर, आगे चलें ....यह जो कमेटियों वाला दौर था ...उसी दौर में बाज़ार में लाटरीयों वाले खड़े रहते थे ..एक रूपये की लाटरी, दो की, पांच की, दस की ..पचास की ..जहां तक मुझे याद है मेरे पिता जी भी कभी कभी तनख्वाह वाले दिन एक लाटरी टिकट खरीद कर लाते थे, और बडा़ संभाल कर रखते थे ....हमारे सारे कुनबे को यह फ़िक्र सताए रहती कि यह न हो कि इनाम निकल आए और फिर हमारी टिकट ही गुम हो जाए ....इसलिए मां अपनी लकड़ी की अलमारी में किसी साड़ी की तह में उसे संभाल कर रखती...फिर हम लोग रोज़ इंतज़ार करने लगते कि अभी इतने दिन हैं लाटरी का नतीजा आने में ...और अकसर यह नतीज़ा अखबार में भी आता ...यार, कैसे सांसे थाम कर हम लोग उस नतीजे का देखा करते थे ... अच्छा, लाख वाला तो नहीं आया, चलो दस हज़ार वाला देखो, पिछले पांच अंक भी नहीं मिल रहे टिकट के साथ.....इसी तरह जब हम आश्वस्त हो जाते कि दस रुपये भी नहीं निकले ....तो फिर कोई यह देता कि क्या पता अखबार में छपने में गलती हो गई हो ....इसलिए कोई न कोई घर का बंदा अगले दिन बाज़ार आते जाते उस लाटरी वाले से भी नतीजे का कंफर्म कर ही लेता .....एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया कि मां अकसर कुछ लोगों के बारे में यह भी बताया करतीं कि फलां फलां की लाटरी निकली दस लाख और उस का यह खबर सुनते ही हार्ट फेल हो गया.......हम भी ठहरे एकदम कोरे भोले पंछी.....हमें यही लगता कि चलो अच्छा ही हुआ ईनाम नहीं आया, ज़िंदगी से बढ़ कर भी है क्या कुछ.....सच में हम बहुत डर जाते यह सुन कर कि जिन का बड़ा ईनाम निकलता है ....उन की खुशी के सदमे से मौत भी हो जाती है ....

और हां, दीवाली, दशहरा, लौहड़ी पर कुछ खास लाटरीयां बिकती थीं ..बम्पर-शम्पर ...५०-१०० की टिकटें बिकती थीं ...शायद कभी कभी हम लोगों ने भी खरीदी थीं ....बड़ी हसरत के साथ के कभी तो निकले यार .....हमारी भी एक लाटरी ...घर में हम सब लोग ख्याली पुलाव बनाते कि अगर एक लाख की लाटरी निकलेगी तो उस से क्या क्या करेंगे ...और खूब हंसा करते ...और जब नतीजा आता तो हमारे सभी ख्वाब मिट्टी में मिल जाते .... 


अब और क्या लिखूं यार....याद करूंगा तो बहुत कुछ याद आता जाएगा....अब बात करते हैं आज की ...उन महिलाओं की ...मैंने सोचा कि यहां क्या चल रहा है, थोड़ा वह भी समझ लिया जाए। एक महिला लोगों को बता रही थी उस के हाथ मे ं एक शीट थी जिस पर स्क्रेच करने वाला एक स्टिकर था ...यह छोटी सी शीट १०० रुपये में बेच रहे थे .....चलिए, जल्दी से उसे स्क्रेच करें...और हां, उस पन्ने पर दो तरह की चीज़ों की लिस्ट बनी हुई थीं ....अगर तो उस स्टिकर को खरोंचने पर आप का कुछ इनाम इस तरह का आ गया जिस की कीमत ८५० रुपये होगी तो आप उस को मुफ्त हासिल कर सकेंगे .....बस, आप लूट ले जाइए....और अगर कोई बड़ी आइटम निकलती है तो आप को उस आइटम के दाम में २७५० रूपये की छूट मिल जाएगी..........और अगर कुछ नहीं भी निकला ...अगर आप इतने ही किस्मत के मारे हैं तो भी गम नहीं ...आप के १०० रुपये कहीं नहीं गए......आप को १०० की जगह ३०० रूपये वापिस मिल जाएंगे......वाह.....वाह ...

रविवार, 31 जुलाई 2022

बड़ौदा के बाबा ....

बताते हैं आप को बडौ़दा के बाबा के बारे में ...पहले कुछ इधर उधर की बात हो जाए...तीन चार साल पहले हमें दुबई जाने का मौका मिला...दो तीन दिन वहां रहे ...मुझे वह जगह बिल्कुल भी पसंद नहीं आई...हर तरफ इमारतें ही इमारतें, मैं अकसर कहता हूं कि मुझे अगर वहां जाने का मुफ्त टिकट भी मिले तो भी मैं दूसरी बार वहां न जाऊं...मैं वहां बहुत ऊब सा गया...हर तरफ ईट-सीमेंट के महल, चौबारे, कायदे-कानून....जहां पेड़ भी लगे हुए हैं वे भी इतने करीने से लगे हैं कि नकली दिखाई पड़ते हैं...

वैसे भी किसी भी जगह जाइए अगर वहां पर पुराने इलाकों को देखने का, महसूस करने का मौका ही न मिले तो फिर वहां जाने का फायदा ही क्या हुआ। एयरकंडीशन बसों में या मोटर गाडि़यों में हम कुछ देख ही नहीं पाते, महसूस करने की तो बात क्या करें...। मैं अकसर कहता हूं कि शहरों के अंदर जो पुराने शहर करीने से छुपे पड़े होते हैं उन को अगर किसी को देखना है तो पैदल चलना होगा, या साईकिल या शायद दो पहिया वाहन का सहारा लेना होगा....क्योंकि इन पुराने शहरों की शुरूआत ही वहीं से होती है जहां से उन बाज़ारों में, गलियों में मोटरकारें घुसना बंद होती हैं...अकसर स्कूटर वूटर तो लोग निकाल ही लेते हैं ....इन संकरी गलियों, कूचों में बसे होते हैं पुराने शहर ...इसलिए मैं अकसर सोचता हूं कि जब तक घुटने वुटने चल रहे हैं ..जो कुछ देखना है, जी भर के देख लेना चाहिए...एक बार अगर हम किसी के ऊपर आश्रित हो जाते हैं तो ज़िंदगी वैसे ही बकबकी सी, बोझिल सी लगने लगती है ....खुद को भी और दूसरों को भी ...

कुछ दिन पहले बड़ौदा में था...चार पांच रहना था...मैं जब भी मौका मिलता सुबह शाम साईकिल लेकर एक डेढ़ घंटे के लिए निकल जाता ...अलग अलग रास्तों पर निकलना, अनजान जगहों का रुख करना अच्छा तो लगता ही है ...अकसर मैं कहता हूं कि किसी भी इंसान के पास इतना कुछ है देखने को, एक्सप्लोर करने को .....कि क्या कहें...लेकिन उस के लिए हमें बस थोड़ा सा..ज़्यादा भी नहीं, अपने कंफर्ट ज़ोन से निकलना पड़ता है ..और हां, टीवी का पूर्ण त्याग भी ज़रूरी होता है....मैं जहां पर पांच दिन रहा, मैंने अपने रूम का टीवी ऑन तक नहीं किया...क्योंकि फिर यही अच्छा लगने लगता है कि इस के सामने ही बैठे रहें..

खैर, चलिए, उस दिन मै साईकिल लेकर ऐसे ही बिना किसी ख़ास मकसद के बड़ौदा की सड़के नाप रहा था कि मुझे दूर से लगा कि एक बुज़ुर्ग एक पार्क में चींटीयों को आटा डाल रहे हैं ...यह काम हम लोग बचपन में करते थे ..लेकिन कभी कभी जब ईश्वर से कोई काम होता था तभी ..मैंने साईकिल रोक तो लिया, फिर एक बार झिझक सी लगी कि क्या यार, मैं भी, खामखां, अनजान इंसान के क्या बात करूं.....लेकिन मैं उन तक पहुंच गया, साईकिल खड़ी की और उन से बात करने लगा। 

अब मैं उन से बात कैसे शुरु करता ...मैंने यही कहा कि आप को दाना डालते देख कर बहुत अच्छा लगा, इसलिए रुक गया...वह बुज़ुर्ग हंसने लगा ...उसने मुझ से मेरे बारे में कुछ नहीं पूछा ...मैंने उन से कुछ नहीं पूछा...मैंने बस इतना पूछा कि क्या वह यहां रोज़ आते हैं, कहने लगे कि हां, रोज़ आता हूं ....मैंने वही बेवकूफी वाला सवाल दाग दिया कि और भी लोग आत ेहैंं तो उन्होंने बताया कि कुछ लोग आते तो हैं, कभी कभी, लेकिन मैं तो बिना नागा रोज़ आता हूं....

मैंने देखा वह चींटीयों के झुंड ढूंढ ढूंढ कर आटा डाल रहे थे, उन्होंने बताया कि यह आटा ही नहीं है, इसमें गुड़ और देशी घी मिला हुआ है ...इस के बाद वह कबूतरों को दाना डालने लगे ...कबूतरों के झुंड जैसे उन का इंतज़ार ही कर रहे थे ...उन के पास पॉलीथीन में यह सामान भरा हुआ था ...कबूतरों के लिए दाना तो था ही, साथ में हरे मूंग भी थे, बताने लगे कि कबूतरों को यह खाना बहुत पसंद है ...

उन्होंने बताया कि वे महीने भर के लिए दो हज़ार रूपये का यह सामान इक्ट्ठा खऱीद लेते हैं ...बता रहे थे कि जो लोग अमेरिका में नौकरी धंधा करने गए हैं, वे पैसा भिजवा देते हैं, मैं इस काम में लगा देता हूं...मैंने नहीं पूछा कि कौन लोग हैं वे...कोई मतलब ही नहीं था यह सब पूछने का ...

पांच सात मिनट मैं उन के पास रहा हूंगा...लेकिन बहुत अच्छा लगा...उन के साथ फोटो भी खींच ली जिस के बिना आजकल कोई मुकालात पूरी कहां समझी जाती है...खैर, उन को यह नेक काम करते देख कर मुझे कुछ दूसरे लोग याद आ गए जो गलियो के डॉगीज़ और बिल्लीयों को सुबह सुबह कुछ खिलाने निकल पड़ते हैं...इन सब को देखना कितना सुखद लगता है...







अनजान और अजनबी बाबा को सलाम ...नदी नाम संयोगी मेले ...बहुत से लोगों से हम लोग ज़िंदगी में पहली और आखिरी बार मिलते हैं...हम दोनों एक दूसरे का नाम नहीं जानते...मैं कब उन रास्तों पर फिर से निकलूंगा ...लगभग नामुमकिन ...लेकिन उन के चेहरे की मुस्कान मेरे पास हमेशा के लिए रह गई ...हां, वहां से निकलते२ उन से कह तो दिया कि फिर मिलेंगे बाबा....लेकिन सोच यही रहा था कहां मिलेंगे ..यह भी यार तूने एक डॉयलाग ही बोल दिया ...सब कहने को ...




आप को कभी यह तो नहीं लगता कि बाबा का खिताब हासिल करने के लिए किसी विशेष रंग का चोला पहनना ज़रूरी है, लोगों को प्रवचन देना..और किसी ऊंची गद्दी पर बिराजमान होना ज़रूरी है ....मुझे कभी नहीं लगता क्योंकि मैं उस तरह के नामी-गिरामी बाबा-शाबा बहुत देख चुका हूं ...उन से तो मैं दूर भागता हूं और इस तरह के बेलौस, अनजान, अजनबी, गुमनान नेक बाबाओं को ढूंढता रहता हूं ...बाबा ने बताया कि अस्सी के ऊपर उम्र हो चुकी है, दवाई की कभी एक टिकिया नहीं ली ...अभी हाल ही में इन्होंने आंख का आप्रेशन करवाया है...डाक्टर ने कहा था कि वह १५ हज़ार रूपये लेगा .....लेकिन हंसते हंसते कहने लगे कि आप्रेशन के बाद उसने कहा कि नहीं, आप से कुछ नहीं लेना...हंस हंस कर बता रहे थे ....

मेरा बेटा अकसर कहता है कि बाप, दिल्ली की हवा में धोखा है, बंबई की हवा में मौका है ......उसी क्रम में मैं यह कह सकता हूं कि बडौ़दा की हवा में सुकून है....जैसा मुझे लगा कि अधिकतर लोग यहां पर शाकाहारी हैं, अमन-पसंद हैं, सादे हैं ....अपने आप के साथ सुकून से हैं....यह मेरा अनुभव है ...बाकी बाहरी शहर, शहरों के नए बसे हुए इलाके तो सब एक जैसे ही होते हैं जहां पर महंगी गाड़ियों की खूबसूरत कोठियों-बंगलों की एक अंधी दौड़ सी लगी होती है ....उस तरफ़ मुझे देखना भी नहीं सुहाता ...लेकिन शहर के पुराने इलाके को दो-चार दिन में महूसस करना कहां संभव हो पाता है ....और वह भी अगर सुबह शाम एक दो घंटे का वक्त आप को मिले इस यायावरी के लिए ...खैर, दो दिन पहले मैं ऐसे ही घूम रहा था तो एक बहुत पुरानी और सुंदर इमारत दिखी ...अंदर जा कर पता चला कि वह वहां की यूनिवर्सिटी है ...वहां पढ़ने वाले बच्चों को देख कर अच्छा लगा ....एक बच्चे को मैंने कहा कि मेरी तस्वीर खींच दो, उसने हंसते हंसते खींच दी ...कहने लगा कि उस के दोस्त आप के पीछे खड़े हो कर पोज़ दे रहे हैं...मैंने कहा ...वह तो और भी अच्छी बात है ... 😀😎

बडौ़दा यूनिवर्सिटी में इस को देख कर मुझे चंडीगढ़ का रॉक-गार्डन याद आ गया...खुदा जाने इस की छांव में कितनी प्रेम कहानियों ने जन्म लिया होगा ...अब भी यह आने जाने वालों को खुश कर रहा है ...





रविवार, 10 जुलाई 2022

लिखने की शुुरुआत कैसे करें....

सब से पहले तो रोज़ाना अपनी डॉयरी में रोज़ कुछ न कुछ लिखते रहिए....इतना बड़ा दिन होता है, इतने लोगों से हम मिलते हैं, इतने नज़ारे नज़र आते हैं, मोबाइल से सारा दिन चिपके रहते हैं, इतना कुछ देखते हैं, पढ़ते हैं और कभी कभी सोचने का भी वक्त तो मिल ही जाता है ...बस, इन में जो भी अच्छा, बुरा लगे जो भी आपके चेहरे पर मुस्कान ले आए या अगर कुछ उदास कर जाए, उसे अपनी नोटबुक में लिख कर फ़ारिग हो जाइए...

मैं तो अपने आप को कोई लेखक-वेखक भी नहीं मानता ..क्योंकि सरकारी नौकरी में होने की वजह से अपनी कलम पर कुछ तो लगाम कसे रखनी पड़ती है ...वरना, आप अकेले-थकेले पड़ जाते हैं, कोई भी आप के साथ नहीं खड़ा होता अगर कोई लफड़ा हो जाता है ...जब नौकरी से छूट जाएंगे तो देखेंगे कोई लगाम पकड़नी भी है या नहीं, वह तो बाद में देखेंगे....खैर, मेरे ब्लॉग्स के नीचे जो कमैंट्स आते हैं या व्यक्तिगत तौर पर मुझे जो लोग कहते हैं वह यही बात है कहते हैं कि आप का लेखन बड़ा नेचुरल है ....हां, अगर किसी को ऐसा लगता है तो उसका भी एक ही कारण है कि जो मन में आए, लिख दो ...कोई परवाह न करो ..(बस, जब तक नौकरी-चाकरी है तब तक बच के रहिए..., बाद में मेमॉयर्स की कश्ती पर तो अकसर लोग सवार होते ही हैं , वहां जी भर कर दिल खोल लीजिेए...😎)

लिखने के लिए इतना कुछ है कि ऐसे लगता है कि क्या लिखें, क्या छोड़ें ....एक बात यहां बता दूं कि २०-२२ बरस पहले जब मेैंने लिखना शुरू किया और अखबारों, पत्रिकाओं में लेख भेजने शुरू किए तो मैंने एक बार ऐसे ही एक फेहरिस्त सी बनाई कि आखिर कितने लेेख हैं जिन के बारे में मैं लिख सकता हूं ...मुझे ख्याल आ रहा है कि यही कोई ४०-४५ लेखों की लिस्ट बन पाई थी ...क्योंकि मेरी सोच तब वहां तक ही थी...

अब जैसे जैसे लिखते लिखते आप की सोच का दायरा बढ़ने लगता है तो पता चलता है कि लिखने पढ़ने की दुनिया तो समंदर है ..अगर आप सारा दिन भी लिखते रहें तो भी ज़िंदगी कट जाएगी और पता चलेगा कि आपने धूल के एक कण के बराबर भी न कुछ लिखा, और न ही पढ़ा....इसलिए जो लिखने की शुरुआत करना चाहते हैं उन के लिए मेरा नुस्खा यह है कि रोज़ कुछ न कुछ लिखा करें ...स्कूल में मास्टर लोग हमारी लिखावट सुंदर करने के लिए रोज़ाना एक पन्ना सुलेख का लिखवाते थे कि नहीं...बस, अपने लेखन में कुदरती प्रवाह लाने के लिए आप भी कुछ न कुछ रोज़ लिखिए ...और खूब पढ़िए..जो भी मन को भाए....सब कुछ पढ़िए...अच्छा, बुरा ...लेकिन अच्छा, बुरा तो कुछ होता ही नहीं, सब लिखने वाले अपने अनुभव लिख रहे हैं..आप पढ़िए सब कुछ, राय अपनी बनाइए...बार बार मुझे एक मशहूर नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक की बात याद आ जाती है (३०० से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं..)  ....

दो -ढाई बरस पहले जब पाठक जी दिल्ली में मिले तो इन से बात कर के मज़ा आया ...मैंने सोचा एक सेल्फी भी ले ली जाए...

एक इंटरव्यू में बता रहे थे कि उन्हें पढ़ना का इतना शौक है कि जिस लिफाफे में मूंगफली खाते हैं, उसे भी फैंकने से पहले फाड़ के ज़रूर पढ़ लेते हैं ...हा हा हा ह ाहा ....कल मैं भी मैं अपना कोई १५ बरस पहले लिखा ब्लॉग पढ़ रहा था ...उस दिन मैंने शकरकंदी खाई जिस कागज़ में उस पर एक कविता लिखी थी ..जो मेरे मन को छू गई और मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी ...अभी शेयर करता हूं उस का स्क्रीन शॉट...
१५ बरस पहले लिखी इस पोस्ट को देखा तो अच्छा लगा... वैसे मैं अपना पुराना कुछ भी लिखा पढ़ता नहीं हूं ...

लिखने की शुरुआत कर रहे हैं तो सोशल-मीडिया पर या इस वॉट्सएप भी दिल खोलना सीखें ...कोई एप्रिशिएट करे या न करें ...सारे चुप रहें तो रहें ..कुछ फ़र्क नहीं पड़ता ...एक बात बताऊं जिन लोगों की आप इस सोशल-मीडिया पर परवाह करते हैं, उन सभी (जी हां, सभी, आपने बिल्कुल सही पढ़ा) से हमारे रिश्ते कांच से भी ज़्यादा नाज़ुक हैं....हम कब तक सब को खुश ही करते रहेंगे ...कब तक सब की परवाह करते रहेंगे .... और एक बात ...ज़िंदगी ने मेरे फंड़े कुछ ज़्यादा ही क्लियर कर रखे हैं...जब भी मुझे लगता है कि कुछ लिखूं या न लिखूं ..दिल खोल के लिखूं या न लिखूं.....तो मैं अपने आप से यह कहता हूं कि ये जो कुछ सैंकड़ों लोगों की तुम परवाह के चक्कर में अपने एक्सप्रेशन को रोक रहे हो, यह भी सब छलावा है दोस्त ...अगर तुम्हें किसी दिन कुछ हो गया...तुम इस फ़ानी दुनिया से ही कूच कर गए तो मुमकिन है तुम्हारी कोई बात भी नहीं करेगा ...बस कुछ लोग RIP लिख कर वहां से कट लेंगे और ग्रुप में अगली पोस्ट किसी कॉमेडी-शो की होगी ...इसलिए किसी की भी परवाह करते रहना, अपने आप को दबाए रखना, अपने आप को खिलने ही न देना भी अपने साथ ही किया हुआ एक गुनाह तो है ही, समाज के साथ भी बेइंसाफी है क्योंकि हम में से हर एक के पास इतना कुछ कहने को है जिससे कोई न कोई कब कोई अहम् सबक ले ले, कोई प्रेरणा ही ले ले ....

यह जो टॉपिक मैंने शुरू कर तो दिया है ...पंगा सा ही ले लिया है ..क्योंकि मेरे पास इतना कुछ कहने को है, एक पोस्ट में तो आएगा नहीं.... लेकिन मैं इसे अपने दिल से लिखने की पूरी कोशिश करूंगा ..जो सीखा है, जो समझा या जो भी महसूस किया इस लिखने-पढ़ने की दुनिया में सब कुछ बांट दूंगा इन पोस्टों में ...वैसे मैंंने कुछ बरस पहले इंटरनेट पर लिखने के बारे में ५-७ पोस्टें भी लिखी थीं कि इंटरनेट पर लेखन के क्या कायदे-कानून हैं, दांव-पेंच हैं...वे भी ढूंढ कर अगली पोस्ट में शेयर करता हूं ..

कुछ बातें इधर उधर की भी शेयर करना चाह रहा हूं ..हमारे कुछ साथी हैं जिन से मुझे पिछले कुछ दिनों में दो-तीन बार कुछ ऐसा सुनने को मिला कि आज तो वह वक्त पर घर के निकल जाएंगे ....क्योंकि उन्हें बच्चों के साथ, मां के साथ वक्त बिताना है ...कहीं जाना है ...और यह कहते कहते वे मुझे इतने खुश दिखे कि उन की बात सुनते ही कोई भी भावुक हो जाए....काश, हम सब लोग ऐसा ही कर पाएं ...वर्क-लाइफ बेलेंस अच्छे से कर पाएं ...और अपनों को भी अपना वक्त दें ...उन के साथ वक्त बिताएं, घूमने जाएं, एक साथ बैठ कर बारिश का लुत्फ़ उठाएं...और कुछ नहीं तो बस सब लोग एक साथ बैठें और पुराने दिनों की मीठी यादों के पोखर में ही उछल-कूद करते रहें ...

और हां, एक बात और हैं ...दुनिया में रहते हुए हम लोग बहुत कुछ देखते हैं..कुछ के साथ धक्का होते देखते हैं, कुछ को बहुत से फेवर मिलते देखते हैं जिन के लिए वह हकदार भी नहीं होते, बस चाटुकारिता उन की सब से बड़ी स्पैशलिटी होती है ...Master in Sycophancy! 😎 लेकिन हम कुछ कहते नहीं....एक खतरनाक चुप्पी की चादर ओढ़े रखते हैं ...लेकिन लिखने वाले ये सब अपने दिल के ज़खीरे में सहेजे रहते हैं ...वे खुद नहीं जानते कब उन की कलम अल्फ़ाज़ की जगह, इस जमा हुए लावे को ही उगल दे...यह कोई नहीं बता सकता। 

इस वक्त जब मैं यह लिख रहा हूं ...साथ में विविध भारती भी बज रहा हूं ...मुंबई ेमें बारिश हो रही है .... साथ में रेडियो पर बारिश के सुपर-डुपर गीत बज रहे हैं...एक से बढ़ कर एक ...सच में समझ ही नहीं आ रहा कि यहां पोस्ट में किस को एम्बेड करूं और किसे रहने दूं....


मुस्कुराते रहिए, खुश रहिए... अभी मशहूर कामेडियन जगदीप साहब का इंटरव्यू चल रहा है ....फ़रमा रहे हैं...

या तो दीवाना हंसे,
या जिसे तू तौफ़ीक बख्शे, 
वरना इस दुनिया में ....
मुस्कुराता कौन है .....

अगली पोस्ट में यह शेयर करूंगा कि आखिर लिखने के आइडिया कहां से आते हैं, कहां से इंस्पिरेशन मिलती है ... जल्दी मिलते हैं ... ...


शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

108 हैं चैनल ..पर दिल बहलते क्यों नहीं!

यह लाइन मेरी लिखी नहीं है ...लगे रहो मुन्नाभाई के एक गीत की लाइन है ....लेकिन छोटी सी यह लाइन है बहुत पते की ...सोचने पर मजबूर करती तो है ही...इस लिंक पर क्लिक कर के आप इसे सुन सकते हैं ..आज से ४०-४५ बरस पहले जब घर-मोहल्लों में नया नया टीवी आया तो एक ही चैनल था और बहुत बार तो उस बक्से के सामने तब तक चिपके रहते थे जब तक कि टीवी वाले नमस्ते कह कर अपने प्रोग्राम बंद न कर देते थे...

अब १०८ चैनल नहीं हैं...इन की गिनती कईं सैंकड़ों में तो होगी ही ...लेकिन इन्हें देखना तो दूर की बात है, कभी गिनती जानने की भी इच्छा ही नहीं हुई। क्योंकि मुझे अच्छे से याद भी नहीं कि टीवी देखे हुए कितने बरस हो गए...कच्चा पक्का आईडिया इतना है कि मां थीं तो वह खबरिया चैनल ज़रूर देखती थीं ...और करती भी क्या घर में सारा दिन अकेले बैठे बैठे....खैर, मां को जुदा हुए पांच बरस हो गए ..शायद उन के बाद कभी रिचार्ज ही नहीं करवाया...

ऐसी क्या नाराज़गी हो गई टीवी से ? - नहीं, ऐसी कोई नाराज़गी नहीं है, बस टीवी देखना, उस पर खबरें सुनना नहीं अच्छा लगता तो नहीं अच्छा लगता, कोई मजबूरी नहीं है कि ज़रूर उन्हें सुनना ही है, ऐसा भी तो नहीं है, कोई कानून भी तो नहीं है न अभी तक ....जब कभी ऐसा कोई नियम आएगा तो देखा जाएगा....तब तक तो ऐसे ही चलेगा...दरअसल टीवी पर जब हमने उछल उछल कर परोसी जाने वाली, सर-दर्द पैदा करने वाली खबरें देखनी-सुननी शुरू की तो हमारी तबीयत ही बिगड़ने लगी ...एक तो बाहर से थके-मांदे आओ और सोफे पर पसरते ही वही सेंसेशनल खबरों का पिटारा खोले हुए चैनल ....बस, यूं ही कईं बरस पहले यह निश्चय कर लिया कि हटाओ यार इन्हें ....ये तो बीमार कर के रहेंगे ....बस, इसी तरह से टीवी ज़िंदगी से निकल बाहर हो गया...

जहां तक ये ड्रामे, सीरियल, नौटंकी की बात है ...वह सब तो असल ज़िंदगी में जहां हम लोग काम करते हैं, जहां रहते हैं ...वहां ही यह सब कुछ इतना दिख जाता है कि छोटे या बड़े परदे पर भी यह सब देखा जाए, सच में सहन नहीं कर पाते ...सहन नहीं कर पाते तो होता क्या है, कुछ खास नहीं, बस जो लोग संवेदनशील होते हैं, उन्हें सर-दर्द पकड़ लेता है जो सेरिडॉन से भी नहीं जाता ...वैसे भी बार बार दर्द की टिकिया खाने से कहीं बेहतर है कि सर-दर्द पैदा करने वाली चीज़ को ही ज़िंदगी से बाहर किया जाए...और यहां मैं कुछ बी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं लिख रहा हूं ..ऐसा लिखने की मेरी क्या मजबूरी हो सकती है, कुछ भी तो नहीं ....लेकिन जो आपबीती है वह तो लिखने वाले लोग लिख कर ही दम लेते हैं ...

ये जो ओटीटी प्लेटफार्म आ गए हैं ...इन पर जो फिल्में या सीरिज़ आती हैं ...कईं बार देखने बैठते हैं तो दस-पंद्रह मिनट में ही या तो बंद कर देते हैं या उसे देखते देखते जब १०-१५ मिनट में सो जाते हैं ..पता ही नहीं चलता...और हां, यह जो १०-१५ मिनट की समय अवधि लिख रहा हूं, पूरी सच्चाई से लिख रहा हूं ......क्या करें, हमारा मन लगता ही नहीं इस तरह के कंटेंट में ....क्योंकि हम ने १९६०,७०,८० का फिल्मों का सुनहरा दौर देखा हुआ है ... जब एक एक फिल्म हमें दिनों तक सोचने पर मजबूर करती थी और बहुत सी फिल्मों में जो सीख थी वह जाने-अनजाने हमेशा हमें रास्ता दिखाया करती थी ..

मुझे क्यों है आज कल की अधिकतर फिल्मों, ड्रामों , सीरियल्ज़ या सीरीज़ से इतनी शिकायत ....बस दो बातें कर के अपनी बात समाप्त करूंगा ..सब से पहला कारण तो यही है कि जिस भाषा का इस्तेमाल वे लोग करते हैं या तो वह बिल्कुल फिरंगी टाइप लगती है ...या इतनी फुटपाथ छाप ज़ुबान का इस्तेमाल होता है कि वह एक आम भारतीय की भाषा है ही नहीं ...स्क्रिप्ट में बार बार पर गालियां लिखने से कोई लेखन महान नहीं हो जाता ...पुराने दौर की फिल्में देखिए, किस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है ....क्योंकि उन सब फिल्म मेकर्ज़ के सामाजिक सरोकार थे जिन को उन्होंने बखूबी निभाया ...

भाषा से याद आया ..पुरानी कोई भी फिल्म देख लीजिए...आप को संवाद में या नगमों में जो भाषा सुनने को मिलेगी ....वह भाषा ही एक आम हिंदोस्तानी की भाषा है ....न वह हिंदी है न उर्दू है ...वह तो हिंदोस्तानी है जिसे हिंदोस्तान बोलता है, उस में हिंदी भी है और उर्दू भी...ज़मीन के ऊपर बार्डर की लकीर खींचने से लोग तो इधर-उधर तितर-बितर हो सकते हैं...भाषाएं नहीं ऐसे बंटा करतीं....लोग उर्दू को मुस्लमानों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा समझने की बेवकूफी करने लगे ...और यह एक बिल्कुल गलत नज़रिया है....फालतू सोच है ...क्योंकि भाषाएं मुल्कों की नहीं, मज़हबों की नहीं, इलाकों की हुआ करती हैं...लेकिन हमें पहले एक दूसरे से लड़ने-मरने से फ़ुर्सत मिले तब न हम भाषा-वाषा के बारे में सोचें....जो आवाज़ें यहां वहां से हिंदोस्तानी भाषा के समर्थन में उठती हैं, वे कब से कैसे खामोश हो गईं, किसी को पता ही नहीं चलता। 

उर्दू की बात छोड ही दीजिए, हिंदी तक आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती, जो जानते हैं वे लिखते नहीं या लिखना नहीं चाहते ...फिल्मों में काम करने वाले कलाकार जो आज कल की पीढ़ी के रोल-माडल हैं वे तो हिंदी पढ़ना ही नहीं जानते ...इसलिए सारी स्क्रिप्ट अकसर देवनागरी की बजाए रोमन में ही लिखी जाती है ...अब वह कहने को हिंदी तो हो गई लेकिन हर ज़ुबान के विभिन्न अक्षरों की आकृतियां-सजावट-डिज़ाईनिंग, उन की बनावट-बुनावट भी उस ज़ुबान का ही हिस्सा हुआ करती है ....उन से भी बहुत कुछ ब्यां होता है ..बिना लिपि के वह ज़ुबान कैसी ...निष्प्राण, बिना रुह वाली ज़ुबान जिसे रोमन स्क्रिप्ट में भी कलाकार लोग सही उच्चारण के साथ पढ़ नहीं पाते ...और बडे फ़ख्र से कहते हैं कि मेरी हिंदी बिल्कुल अच्छी नहीं है ...और बाद में डबिंग-वबिंग से सारी बातों पर परदा पड़ जाता है ...

हम वैसा ही लिखेंगे जैसा हम पढ़ेंगे ...यह बात उन लेखकों के लिेए है जो फिल्में, सीरियल या दूसरा कुछ भी लिख रहे हैं...उन का कोई कसूर नहीं ...अपना अनमोल हिंदी या आंचलिक भाषाओं या क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अकसर उन्होंने पढ़ा ही नहीं हुआ....पुरानी फिल्मों की कद्र वे जानते नहीं, पुराने डॉयलाग , गीत उन्हें सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन हर तरफ रिमिक्सिंग का दौर है ...आज कल आप देखिए बहुत ही कम फिल्में ऐसी बन रही हैं जिन के डॉयलाग आप को बहुत मुतासिर करते हैं, और बहुत ही कम गीत ऐसे हैं जो हमारे साथ फिल्म देखने के बाद बने रहते हैं, वरना हमें याद ही नहीं रहता कि क्या गीत था...क्योंकि उस के लिरिक्स की मुझे तो समझ ही नहीं आती कि गीतकार कहने का क्या चाह रहा है ...शायद मेरी अब उम्र हो गई है मुझे इसलिए समझ न आती हो , अगर आप को आती हो तो नीचे कमैंट में जाते जाते एक लाइन टिका दीजिएगा। 

फिल्में, ड्रामे लिखने वालों के ऊपर भी पूरा दोष मढ़ देना कितना मुनासिब है, मैं नहीं जानता, मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं ...न ही फिल्मकार हूं, बस एक आम हिंदोस्तानी की तरह अपने मन की बात लिख रहा हूं ....अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल कर रहा हूं ...जो लिखने वाले हैं वे भी तो आज के समाज से ही आते हैं ....और अगर साहित्य या फिल्में हमारे समाज का दर्पण होती हैं, जो बिल्कुल सत्य बात है ...तो फिर वे लोग तो वही लिखेंगे जो आज समाज में घट रहा है ...जो वे देख रहे हैं, जिस के बीच वे पले-बढ़े हैं, जिस तरह का कंटेट देखते-सुनते वे बड़े हुए हैं ...अब क़लम की पैनी धार के लिए इतनी सारी चीज़ें जो दरकार होती हैं, वे आएं तो आएं कहां से ....और दुनिया एक झटके में उन का काम आसां कर देती है ...जेनरेशन गैप ..दो पीढ़ीयों की सोच में फ़र्क की बात है, और कुछ नहीं ....चलिए, जो भी चल रहा है, वह ऐसे ही चलता रहेगा लेकिन इतना तो हम देख ही रहे हैं जिस तरह का अधिकतर कंटेंट बन रहा है .(अपवाद तो हमेशा से रहे ही हैं), उसे अगर कोई एक बार भी देख ले तो गनीमत है ...मेरे से तो नहीं देखा जाता ...ऊपर लिख ही चुका हूं ...इसी वजह से वे कालजयी रचनाएं बन ही नहीं पाती ..वैसे गीत नहीं बन पाते जिन्हें हम पचास बरसों से हज़ारों बार सुन चुके हैं लेकिन कान अभी भी तरसते हैं उन को सुनने के लिए....है कि नहीं?

पुराने दौर के फिल्म बनाने वालों ने संघर्ष देखा....देश के विभाजन की त्रासदी को झेला, बंबई में आने पर कहीं खाने या ठहरने का ठिकाना नहीं, इधर उधर भटकना, मारे मारे फिरना...फिर रात कैसे भी कहीं भी पसर कर काट लेना, मुफलिसी, मायूसी, अभाव, देश के दयनीय हालात, भूखमरी, सूखा, बीमारी .....उन सब महान फिल्ममेकर्ज़ ने वह सब देखा, उसे हंडाया (जिया), और सब कुछ उन के अंदर आत्मसात होता चला गया ....जिन महान गीतकारों के गीत हम सुनते नहीं थकते, जिन संगीतकारों या गायकों के हम मुरीद हैं, सब की ज़िंदगी की अमूनन ऐसी ही कहानी थी ...मैं तो इन लोगों के बारे में पढ़ता रहता हूं और इसलिए इन लोगों के लिए मेरे दिल में बहुत इज़्ज़त है ...लेकिन आज कल की पीढ़ी जो आगे आ रही है, उन्होंने संघर्ष देखा ही नहीं, वह कहते हैं न कि मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुए ...अपना अपना मुकद्दर है, वे फिल्मों में आए भी ज़रूर, लेकिन एक-दो-चार फिल्मों के बाद ऐसे गायब हुए कि न तो कभी कहीं नज़र ही आए, न ही कभी याद आए... 

रेडियो पर भी यही सरदर्दी है ....बहुत से चैनल हैं ..लेकिन अकसर बहुत से ऐसे हैं जिन पर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है या ऐसा कंटेंट परोसा जाता है कि वहां पांच मिनट भी नहीं टिका जाता ....क्योंकि लगता ही नहीं कि वे अपनी बात कर रहे हैं ....मेरा बेटा भी लंबे समय तक एक काफी मशहूर प्राईव्हेट एफएम चैनल पर रेडियो-जॉकी रहा ... और शाम के वक्त तीन चार घंटे का उस का रोज़ाना एक टॉक-शो होता था ....जिसे बताते हैं युवा लोग बहुत पसंद करते थे ....लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैंने उस प्रोग्राम को कभी नहीं सुना ...यह इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि मुझे पता है वह मेरे ब्लॉग भी कभी नहीं पड़ता ...जब कभी उसे लिंक भेजता हूं तो इतना ज़रूर लिख देता है कि पापा, बाद में पढूंगा ....। मैं पढ़ने-लिखने की पूरी आज़ादी का पैरोकार हूं, मैं उसे इतना भी नहीं कह पाता कि बाद में पढ़ने वाली बात तो यह है कि बेटा, मैं तुम्हारी दादी की डॉयरी तक पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं निकाल पाता ...जो वह इतने चाव से लिखा करती थीं कि उस के नाते-पोतियां पढ़ेंगे और उसे याद किया करेंगे कि दादी भी पढ़ी लिखी थी (ऐसा वह अकसर कहा करती थीं...). 

अच्छा तो जाते जाते यह भी बता दें कि अगर मुझे आज के कंटेंट से इतनी शिकायत है तो मैं फिर मन बहलाने के लिए करता क्या हूं ...टाइम्स आफ इंडिया देखता हूं, किताबों और मैगजीनों को अकसर उठा लेता हूं, कभी कभी दो चार मिनट के जो वाट्सएप पर वीडियो या मैसेज दिख जाते हैं, वे देख लेता हूं ...वैसे वह भी बहुत कम ...और हां, रेडियो पर विविध भारती या आकाशवाणी सुनता हूं ..और पुराने दौर का जब कोई गीत याद आ जाता है तो उसे बिना एयर-फोन के दो चार बार सुन लेता हूं ....डायरी लिखता हूं कभी कभी लेकिन वो सब नहीं लिख पाता जो लिखना चाहता हूं ...कुदरत के साथ वक्त बिता लेता हूं कभी कभी ...हंसमुख इंसानों से मिलना-जुलना पसंद है जो खुल कर अपनी बात करें और खुल कर मेरी भी सुनें ...और इतना सब कुछ करने के बाद अगर वक्त बच जाता है तो ख्याली पुलाव बनाने लगता हूं ...भूख का ख्याल भी तो रखना पड़ता है ...हा हा हा हा 😎

वैसे मैं इतना ज्ञान बघारता नहीं हूं जितना आज इस पोस्ट में लिख दिया है ....लेकिन हर इंसान का कुछ उसूल होता है, अपना यह है कि ब्लॉग में जो भी लिखा है, १५ साल से उसे कभी भी एडिट नहीं किया, उसे डिलीट करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ..कम से कम लिखने में इतना ईमानदारी तो बरत ही लेता हूं...अगर आप इसे पढ़ते पढते इस लाइन तक पहुंच ही गये हैं तो मेरी कच्ची कलम को झेलने के लिए बहुत शुक्रिया....गाना सुनते हैं अभी एक....