शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

आस्था के साथ साथ पर्यावरण से दोस्ती भी ज़रूरी !

आज सुबह पांच बजे से भी पहले मैं उठ गया....वैसे भी 5-6 बजे तो उठ ही जाता हूं..लेेकिन जब पूरी रात ए.सी में सोया रह जाता हूं, सुबह अकसर सिर भारी ही होता है ...वह बड़ी खराब फीलिंग होती है ...एक कहानियों की किताब लेकर पढ़ने लगा लेकिन सिर के भारीपन की वजह से कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, थोड़ी चाय ली ...और फिर सोचा कि बहुत दिन हो गए साईकिल को हवा लगाए हुए...आज वर्सोवा बीच तक हो कर आया जाए...एक दो बार ख्याल आया कि अभी तो पांच सवा पांच बजे हैं, और कॉलोनी में एक-दो स्ट्रे-डॉग्स भी हैं, जिस की वजह से मैं सुबह उठ कर भी ऐसे ही बिस्तर पर पसरा रहता हूं...लेकिन फिर सोचा कि नहीं, आज चलता हूं ..देखा जाएगा....

कॉलोनी वाले डॉगी ने तो कुछ नहीं कहा ...सो रहा होगा बेचारा कल त्योहार का माल खा कर कहीं ...वैसे भी कुछ दिन पहले कोई कह रहा था कि वह हल्का हो गया है ...मतलब पगला गया है ...क्योंकि कुछ लोगों को आते जाते काटने को दौड़ रहा है ...यह भी कैसी विडंबना है कि हमें इन जानवरों का और दूसरे लोगों को हल्कापन तो आसानी से दिख जाता हैं...हम उन की लेबलिंग भी कर देते हैं....बस, हमें ख़ुद का ही पता ही नहीं मिलता कहीं भी ..वैसे भी आज का इंसान इसे भी बस एक केमीकल लोचे की तरह लेकर सोचता है कि एक टेबलेट मूड भी अच्छा कर देगी, चिंताओं से निजात भी दिला देगी......मैं कोई मनोरोग विशेषज्ञ नहीं हूं लेकिन अकसर सोचता हूं कि आखिर यह कैसे मुमकिन है ...हमारी मुश्किल यही है कि हम न खुल कर बात करते हैं, न खुल कर हंसते हैं...न ही किसी की बात ठीक से सुनते ही हैं...और यह सब इसलिए नहीं करते कि कहीं कोई हमारा फायदा ही न उठा ले....बस, यही मुश्किल है ...लेकिन मैं इस वक्त यह क्या लिखने लग गया, मैं तो साईकिल पर घूमने निकला था...

रास्ते में टर्नर रोड़ पर मुझे देख कर एक बार कोई डॉगी भौंका तो ...लेकिन उस वक्त उस सुनसान सड़कर पर यह भी मुझे कल से उस रास्ते से न निकलने का फैसला लेने के लिए काफी था। इन जानवरों से बड़ा डर लगता है ...एक बार बेटों ने एक डॉगी पाल लिया ...मैं और मेरी मां उस से इतना डरते...हर वक्त उसे चैन से बांधे ऱखना पड़ता ...बेटे कहने लगे कि यह तो बापू इस जानवर पर अत्याचार है ....चूंकि हमारी डरने की बीमारी ठीक न हुई ...और वह हर वक्त बंधा होने की वजह से चिढ़चिढ़ा सो हो गया और एक दिन हमें उसे खुले खेतों में जाकर आज़ाद छोड़ ही देना पड़ा...

चलते चलते अभी मैं जूहू बीच पर पहुंचा ही था कि मुझे वहां कुछ चीज़ों के बड़े बड़े अंबार लगे देखे...मैं रुक गया...पहले तो मुझे यही समझ मे आया कि यहां क्यों आज इतनी गंदगी हो रखी है...यहां तो रोज़ाना सुबह बीसियों वर्कर सफ़ाई किया करते हैं...फिर अचानक नज़र कुछ कलशों और मूर्तियों पर पड़ी तो बात समझ में आ गई कि कल मूर्तियों एवं कलशों का विसर्जन हुआ होगा...

प्रशासन ने इस तरह के बैरीकेड लगा कर व्यवस्था भी कर दी ..लेकिन फिर भी समंदर के अंदर तक लोग पहुंच जाते हैंं ..

ज़रा यह सोचिए कि यह मंज़र मुंबई की एक बीच का है, बहुत सी और जगहें हैं जहां पर यह सब इक्ट्ठा हुआ होगा, समंदर में जा कर मिल भी गया होगा..!!





हमारी दिक्कत यह है कि जब किसी धर्म, आस्था की बात होती है तो उसे हम लोग बड़ी दबी आवाज़ में कहते हैं, और ज़्यादातर तो कुछ कहते ही नहीं, इन बातों को दरी के नीचे ही सरका के, छिपाए रखते हैं....लेकिन हमें ज़रूरत है अब इन सब आस्था के प्रतीकों के रख-रखाव और विसर्जन के वक्त भी पर्यावरण के साथ दोस्ताना रवैया रखने की ... आज मुझे जुहू बीच पर जाकर यह लगा कि हां, सच में कोरोना चला गया है, हम वापिस अपनी पुराने रंग-ढंग दिखाने लगे हैं...

जो मैंने मंज़र जुहू बीच पर आज देखा, उस के बारे में कुछ ज़्यादा कहूंगा नहीं....बस, आप से वे तस्वीरें शेयर करूंगा...आप सब मुझ से कहीं ज़्यादा समझदार हैं, आप भी सोचिए कि क्या हम इस गतिविधि को पर्यावरण की अच्छी सेहत के अनुसार थोड़ा ढाल सकते हैं....पिछले कुछ सालों में कितना आ रहा है कि मूर्तियां इको-फ्रेंडली तैयार हुआ करेंगी ..इन सब चीज़ों के बारे में सोचना ही होगा अब हम सब को ...आस्था बहुत अच्छी बात है, लेकिन क्या उस में हम छोटे प्रतीक इस्तेमाल नहीं कर सकते...मैंने वहां समंदर में बहुत से स्टॉर-स्टडड कलश भी देखे ...कुछ लोग पानी के अंदर जा कर उन में से कुछ तलाश कर रहे थे ...मां भगवती की कुछ मूर्तियां भी खड़ी हुई थीं...जल प्रवाह के बीचों बीच ..फिर अचानक वे लहरों में समा गईं...

इस मौज़ू पर ज़्यादा बातें कहना-सुनना-सुनाना मुनासिब नहीं लगता...एक बार किसी फिल्मी में शम्मी कपूर एक बुज़ुर्ग आदमी का किरदार निभा रहा था, उसका एक संवाद भी यही है.....कुछ बातें कहने-सुनने में अच्छी नहीं लगतीं, उन्हें ख़ुद ही महसूस करना होता है। 





उस दिन में जब अपनी पोस्ट में अपने बचपन के नवरात्रोत्सव की बातें याद कर रहा था तो मुझे अच्छे से याद है कि उन दिनों जब हम लोग खेतरी प्रवाह करने मंदिर में जाते तो वहां उन का बड़ा सा पहाड़ लगा देख कर मां बहुत महसूस करतीं और मुझे वह बात कहती भी ...लेकिन एक बात तो थी कि उस पहाड़ में एक भी पॉलीथीन (जिसे पंजाबी मेंं मोमजामा कहते हैं) न हुआ करता था ...लेकिन ये जो जुहू बीच पर तरह तरह के चीज़ों के अंबार लगे हुए थे, उन में प्लास्टिक की थैलियों की भी भरमार दिखी ..मुझे तो यही समझ नहीं आता कि हम आखिर सुधरेंगे कब ...आए दिन हम क़ुदरत की विनाश लीला देख रहे हैं....कभी यहां, कभी वहां, लेकिन हम वातावरण के बारे में नहीं सोचते ...हमारे मन में तो बस स्वच्छता अभियान वाले दिन किसी साफ़ सी जगह पर फोटू खिंचवाने का फ़ितूर सवार रहता है, और कुछ नहीं, बाकी, हम समझते हैं हमारा फ़र्ज़ नहीं है..

बात सोचने वाली यह है कि ठीक है, बीच की सफाई हो जाएगी...लेकिन कितने कैमीकल, कितना और सामान तो समंदर में ऐसा मिल गया जो समंदर में रहने वाले प्राणियों के प्राणों के लिए आफ़त है ....कितना कोई कहेगा, कितना लिखेगा ...समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है ...पर्यावरण से दोस्ती करिए...यही मां भगवती की सच्ची आराधना है, उपासना है ....यह जितना प्रकृति का पसार है, जल,थल, आकाश में यह सब मां भगवती की कृपा से ही हम देखते हैं ...हम अपनी आस्था के नाम पर उस क़ुदरत से, उस के जीवों से छेड़छाड़ करें और मां को अच्छा लगे, यह कैसे संभव है। 

आस्था रखिए, त्यौहार मनाइए ..लेकिन मां प्रकृति का भी ख़्याल रखिए....यही सच्ची भक्ति है, यही मां भगवती की आराधना है। 


और हां, मेरे सिर के भारीपन का क्या हुआ.....जी, बिल्कुल मां भगवती की कृपा से मां के इतने विराट दर्शन-दीदार कर के वह बिल्कुल ठीक हो गया कुछ ही वक्त में ........बस, मां, मुझे यह आशीर्वाद भी दीजिए कि मैं सुबह सुबह अच्छे कामों पर निकलने के लिए आलस न किया करूं...जय माता दी। सलीम ने इस भेंट को गाया है, इसे सुन कर मन झूमने लगता है ...वाह...क्या बात है!

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

बचपन के दिन भुला न देना....यादें दशहरे की

कईं बार मैं भी सुबह सुबह कुछ लिखने का सोच कर ऐसा पंगा ले लेता हूं कि मुझे भी नहीं पता होता कि बात कहीं सिरे लगेगी भी कि नहीं। ख़ैर, आज दशहरा है, बचपन के दौर का दशहरा जब याद करता हूं तो बस यही याद आता है कि उस दिन जलेबीयां ज़रूर खाई जाती थीं और दशहरे के मेले पर ज़रूर जाया करते थे...बस, और कुछ याद नहीं.....लेकिन मैं सब को यही कहता हूं कि एक बार आप किसी विषय पर कुछ लिखने लगेंगे तो ख़ुद ही पता नहीं कहां कहां से बातें याद आती जाएंगी...जो दिल के किसी कोने में दबी पड़ी और सोई पड़ी होती हैं...देखते हैं खैर...

जी हां, मैं बात कर रहा हूं 1970 के आस पास के दशहरे की ....इस से दो साल पहले और शायद 1970 वाले दशक के आखिर तक यह सिलसिला चला...फिर बदकिस्मती से हम बड़े हो गए...मेलों में बिकने वाले खाने में हमें तरह तरह की गंदगी दिखने लगी, मक्खियां ज़्यादा नज़र आने लगीं...गन्ने के रस में हैपेटाइटिस ए के जीवाणु "दिखने" लगे....

यह उन दिनों की बात है जब दशहरे से पहले हम रामलीला देखने के लिए दिन गिनते रहते थे ...और नवरात्रोत्सव शुरू होने से कईं दिन पहले ही हम यह सोच सोच कर खुश होते रहते थे कि चलो, अभी रामलीला शुरू होने में इतने ही दिन बाकी बचे हैं...वे भी क्या दिन थे...हम रोज़ रात का खाना खाने के बाद रामलीला देखने चले जाते। स्टेज के आगे टाट बिछा रहता था, कुछ कुर्सियां वुर्सियां भी रखी होती थीं....उन्हें या तो पहले आने वाले हथिया लेते थे .....वैसे हमें बचपन ही से कभी कुर्सी वुर्सी के लिए सिरदर्दी मोल लेने का शौक रहा नहीं ...अब जैसा रहा है, वैसा ही लिख रहे हैं, झूठ बोलने से मुझे अपना पता है सिरदर्द के सिवा मुझे कुछ हासिल न होगा..!!

रामलीला की लीलाएं सुनाने बैठ गया तो फिर दशहरा का मंज़र कहीं पीछे छूट जाएगा...रामलीला की बातें फिर कभी छेडेंगे। वैसे भी दशहरे वाले दिन के नाम पर मेरे पास गन्ने और जलेबियों के अलावा कुछ है भी तो नहीं ...

लीजिए, आ गया जी दशहरा ..आप सब को भी विजय-पर्व की ढ़ेरों बधाईयां...दशहरे वाले दिन सुबह ही से बड़ी खुशी का माहौल पसरा होता था .. हमें बस बाज़ार से जलेबियां लाने की ड्यूटी मिल जाती थी...लेकिन जब बहुत छोटे से तब नहीं...यही कोई कक्षा दस -बारह तक पहुंचते पहुंचते ...मुझे अभी भी अच्छे से याद है कि अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में पिपलीवााल गुरुद्वारे के पास हलवाई की दुकान से या लोहगढ़ गेट के अंदर थथ्थे हलवाई की दुकान से ही जलेबीयां लाते थे ...(थथ्था हलवाई का मतलब वह हलवाई बोलते समय थोड़ा हकलाता था ...टुटलाने-शाने को मारो गोली, वह बंदा बहुत अच्छा था, हंसता रहता था, और मुझे तो और भी अच्छा लगता था क्योंकि मुझे उस की दुकान के बेसन के लड्डू बहुत ज़्यादा भाते थे ...मैंने बहुत खाए..एक दम अच्छे से सिके हुए बेसन से बने हुुए....चार पांच एक बार खा कर मज़ा आ जाता था। 

थथ्थे हलवाई की दुकान पर जब भी जाते थे तो इंतज़ार करनी ही पड़ती थी...सुबह सुबह वह आलू-पूरी बेचता था ...मुझे उस की पूरी के सिवा कभी पूरी को आलू के साथ खाना नहीं भाता, हमारे लिए पूरी का मतलब साथ में बढ़िया से छोले होने ही चाहिएं...😎लोग सच ही कहते हैं कि अमृतसर के लोगों का खाने-पीने का बड़ा नखरा होता है ...क्योंकि उस शहर की फिज़ाओं में ही जैसे एकदम लज़ीज़ खाने की महक रची बसी है...

और उन दिनों जलेबियां कागज़ के खाकी लिफाफों में मिला करती थीं...शायद एक किलो जलेबीयां तो ले ही आते थे...और यह काम दशहरे वाले दिन चार पांच बजे तक हो जाता था...फिर हमें जल्दी होती थी दशहरे के मेले पर जाने की ...

दशहरा के मेले का मतलब जो दशहरा ग्राउंड के आस पास और रास्तों पर दूर दूर तक खाने पीने की दुकानें सज जाती थीं वही हमारा मेला होता था ...रावण का पुतला दुर्ग्याणा मंदिर के एक बडे़ से ग्रांउड में जलाया जाता था...वहां से हमारा घर यही कोई एक-डेढ़-दो किलोमीटर होगा ...बचपन के छोटे छोटे कदमों को दो ही लगता होगा...अब एक किलोमीटर लगता है। दशहरे वाले दिन उस रास्ते पर सुबह ही से दुकानें सजने लगती थीं...मिठाईयों की दुकानें...जलेबियां, पकौड़े तलने के लिए वहां ताज़ी ताज़ी तैयार की गई मिट्टी की भट्टियों पर (कुछ तो अभी सूखी भी न होतीं) बड़ी बड़ी लोहे की कड़ाहीयां पड़ी दिखतीं...(बाज़ार के पकौड़ों का अलग ही नज़ारा हुआ करता था...😎).., पास ही कोई बेसन में पानी डाल कर, आलू-प्याज़ काट कर अपनी धुन में तैयारी में लगा रहता., तीर-कमान भी, दस बीस पैसे में सिर की टोपियां, और हां, बाजे भी ....यही कोई पांच दस पैसे में बिकने वाले बाजे...और हां, जगह जगह बिक रहे गन्ने...दशहरे के दिन घर में गन्ने लेकर आना बड़ा शुभ माना जाता था...और दशहरे के मेले से लौटते वक्त मुझे वह नज़ारा भी अच्छे से याद है कि लोगों के हाथों ने हाथों में लंबे लंबे गन्ने पकड़े हुए और बच्चे लगातार बाजे बजा रहे होते ...

ऐसी मान्यता थी कि सूर्य के डूबने के साथ ही रावण का पुतला जलाया जाए....इसलिए वह नज़ारा देखते बनता था...इतनी भीड़ में हमें डर भी लगता था...तरह तरह के डर हमारे दिलो-दिमाग में बैठ चुके थे...इतने भीड़-भड़क्के में कहीं गुम हो गए तो, कहीं दब-कुचल गये तो ....और एक बात, घर से जाते वक्त वो ख़ास हिदायत ...पुतले के पास बिल्कुल नहीं जाना, दूर ही से देखना...कईं बार पुतला ऊपर भी गिर जाता है, यह भी याद दिला दिया जाता। हम भी अपने दौर के सभी बच्चों की तरह मां-बाप की बात को गांठ बांध कर रखते थे ..चुपचाप जा कर नज़ारा देख कर, खा-पी कर, और बाजा बजाते हुए घर लौट आते थे। 

एक बात और ...एक क्रेज़ और भी ..क्रेज़ कहूं या एक चलन था कि रावण का पुतला जलने के बाद जब नीचे गिरता तो उस की कोई न कोई अधजली लकड़ी को अपने साथ लेकर वापिस लौटना सारे परिवार के लिए बड़ा शुभ माना जाता था...यह काम हमने 2005 में फिरोज़पुर रहते हुए भी किया था...मन तब भी इन ढकोंसलों को नहीं मानता था, आज भी नहीं मानता....लेकिन दुनिया के इस थियेटर में हर कोई अपना अपना किरदार निभा रहा है, हम भी वही कर रहे हैं।

मैंने कहा था न कि जब हम कुछ लिखने लगते हैं तो दिल के कोने में दबी पड़ी यादों की पोटली खुद-ब-खुद खुलने लगती है..हम अतीत की यादों के समंदर में डुबकीयां लगाने लगते हैं...और मन बाहर आने को करता ही नहीं। इतना पढ़ने के बाद आप को यह महसूस होगा कि मुझे यश चोपड़ा की फिल्म वीर-ज़ारा का यह गीत क्यों इतना ज़्यादा पसंद है ...(अलग नीचे दिया हुआ गीत न चले तो आप इस लिंक पर क्लिक कर के भी वह सुंदर गीत सुन सकते हैं... धरती सुनहरी, अंबर नीला....हर मौसम रंगीला, ऐसा देश है मेरा। 

बाप के कंधे चढ़ के जहां बच्चे देखें मेले, मेलों में नट के तमाशे, कुलफी के चाट के ठेले, 

कहीं मीठी मीठी गोली, कहीं चूरण की है पुडिया, भोले भोले बच्चे हैं जैसे गुड्डे और गुडिया.....😄👏👌


यहां बंबई में भी 1990 के दशक की दशहरे से जुड़ी यादें हैं...उन दिनों चौपाटी पर रावण का पुतला जलाया जाता था ... और वहां पर एक बहुत बड़ा लोहे का पुल हुआ करता था ...हम कईं बार उस के ऊपर चढ़ कर दशहरे का नज़ारा देखा करते थे...

फिर धीरे धीरे क्या हुआ...हमारे हाथों में कैमरे आ गए...घरों में केबल-टीवी की घुसपैठ हो गई...हम लोगों ने जब टीवी पर ही देश भर में मनाए जा रहे दशहरे का जश्न देखना शुरू किया...हमें लगा यही है दशहरा...लोग दशहरे के मेले के असली रोमांच से महरूम रहने लगे ...और सिलसिला अभी भी जारी है ...अब तो टीवी-वीवी की तो बात ही क्या करें, सारी दुनिया हमारे हाथ में पकड़े मोबाइल तक ही सिमट गई है ....इसी पर दशहरे की वीडियो देख देख कर खुश हो लेते हैं...इसी पर दशहरे की मुबारकबाद भेजते-भिजवाते ही दशहरा बीत जाता है ...और हम उस वक्त बड़े हैरान होते हैं जब कोई हमें बताता है कि उन के दो साल के नाती को खाना खिलाने के लिए पहले उस शिशु की मां उस के सामने बढ़िया बढ़िया वीडियो चला देती हैं...यह भी कोई हैरान करनी वाली बात है। हम सारा दिन क्या कर रहे हैं, हमारी दुनिया भी तो ऐसे ही सिमट गई है 

लेकिन असली वाला रोमांच जो इन पर्वों के मेलों पर हम महसूस किया करते थे, दुनिया देखा करते थे, बहुत सी चीज़ें घर से बाहर निकल कर खुद जान लेते थे, अच्छे-बुरे का फ़र्क समझ में आने लगता था .......वह सब अब गुज़रे ज़माने की बातें हैं ......अब अगर कोई मेरे जैसा भूला-भटका बंदा कभी ऐसे इस तरह के लेख में अपने मन के कबाड़ को बाहर निकालने की ज़हमत करे तो करे...। लेकिन एक बात और भी तो है....आज खूब मिठाईयों की बात हो रही है...मुझे ख्याल यह भी आ रहा है कि जैसे हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता, उसी तरह मैं भी अपना डायरी रूपी यह ब्लॉग लिखने के बाद पढ़ना बिल्कुल भी पसंद नहीं करता। अब डायरी में कुछ लिख दिया ..तो उसे बार बार कौन पढ़े, पहले ही इतनी सिरदर्दीयां हैं....दिल ने जो लिखवाया, सो लिख दिया...और एक बार जो दिल से लिख दिया, उसे कांट-छांट कर दुरूस्त करने का तो सवाल ही नहीं उठता....

कभी आथेंटिक पंजाबी खाना खाने को मन मचलने लगे तो यहां हो कर आइए....

मेरा रिश्तेदार नहीं है, मुझे कोई डिस्काउंट भी नहीं  ...फिर भी इमानदारी से कुछ जगहों की तारीफ़ करनी बनती है .. 

फिर से मिठाई की बातें ....जलेबीयों की बातें...मेरा इस वक्त तो जलेबीयां खाने का कोई मूड नहीं है, क्योंकि मैं पिछले दो दिनों में पंजाबी चंदू हलवाई का पतीसा इतना ज़्यादा खा चुका हूं कि अब रोटी खाने की भी इच्छा नहीं हो रही ...इसी चक्कर में कल रात को भी रोटी नहीं खाई क्योंकि पतीसा बहुत ज़्यादा खा लिया था...देखते हैं अगर शाम को फिर जलेबीयां याद आ गईं तो खा लेंगे ...गुड की जलेबीयां...जुहू में एक पंजाबी रसोई में बिकती हैं...😄😄जितनी मेहनत मैंने और बेटों ने पंजाबी ज़ायके वाली खाने-पीने की चीज़ो की रिसर्च करने में की है, अगर हम लोग अपनी पढ़ाई ही में इतना मन लगा लेते तो आज अपना भी नाम होता। 

इस जश्न में मुझे मेरे शहर में हुए एक हादसे की याद बहुत दुःखी करती है ....अमृतसर के जोड़ा फाटक के पास तीन चार साल पहले दशहरे का आयोजन था...लोग लाइनों के आसपास इक्ट्ठा थे...अंधेरा हो चुका था...बत्ती गुल थी...इतने में इस लाइन पर गाड़ी आ गई ...लोगों में अफरातफ़री मच गई ...इसी चक्कर में तीस चालीस लोग उस दिन गाड़ी के नीचे कट गये थे...बहुत अफसोसनाक घटना थी...आज उन सब आत्माओं की शांति की प्रार्थना करते हैं ......और आप सब को दशहरे की बहुत बहुत बधाईयां....काश!आज भी बुराई पर अच्छाई की विजय होती रही, झूठ पर सच भारी पड़ता रहे। 

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

हर पोस्ट कार्ड एक कहानी कहता है ...

सन् 2001-2002  के आस पास की बात रही होगी...मैंने केंद्रीय हिंदी डायरेक्ट्रेट की तरफ़ से एक विज्ञापन अख़बार में देखा...उन्होंने लिखा कि अहिंदी भाषी नवलेखकों के लिए एक नवलेखक शिविर का आयोजन कर रहे हैं...लेकिन उस की एक चयन प्रक्रिया होगी...और उस के लिए पहले आप को अपना कोई एक लेख लिख कर भेजना होगा....

पढ़ा, अच्छा लगा ...इस से पहले मैं केवल छुट-पुट मेडीकल एवं डेंटल विषयों पर ही लिखता था , अपने स्कूल की पत्रिका का स्टूडेंट-एडिटर भी रहा...बाद में पत्रिकाओं के लिेए लिखता था..लेकिन क्रिएटिव राइटिंग के बारे में कुछ पता न था...इसलिए सोचा कि देखते हैं अगर मौका मिलेगा तो इस नवलेखक शिविर में हो कर आएंगे। 

अपने पास यादों का बढ़िया ज़खीरा तो है ही ..हम एक ऐसे दौर में रहे हैं जिस में बहुत कुछ देखा, महसूस भी किया ....और ज़िंदगी को नज़दीक से देखा भी। तो, जनाब, हिदी की टाइपिंग तो तब आती न थी, मैंने भी कागज़ पर एक लेख लिख कर दाग दिया...उस का शीर्षक लिखा...डाकिया डाक लाया। सच बताऊं उसे लिखने में ही मुझे इतना मज़ा आया कि मैं बता नहीं सकता...इस में मैंने लिखना क्या था, अपनी दादी, नानी, मामा, चाचा, बुआ और पापा की चिट्ठीयों की यादें लिख डालीं...और कुछ दिन बाद मुझे चिट्ठी मिल गई कि आप का 15 दिन के नवलेखक शिविर के लिए चयन कर लिया गया है ...मैं बहुत खुश ...जोरहाट में यह शिविर हुआ...गुवाहाटी से भी एक रात का सफर था ..उस दौरान मुझे समझ आया कि लिखना किसे कहते हैं....बस, अपने दिल की बातों को लिखते लिखते कोई भी लिक्खाड़ बन  सकता है, कोई रॉकेट साईंस नहीं है यह भी ...आप को पता ही है कि सरकारी महकमों के खलारे भी कैसे होते हैं...वहां पर उन्होंने बड़े बड़े नामचीन लेखकों को बुलाया था...हमें कहानी, लेख, संस्मरण लिखने की विधा से रू-ब-रू करवाने के लिए। 

वापिस पोस्ट कार्ड पर लौटें...मेरी ड्यूटी का समय हो रहा है ...बात छोटी ही रखेंगे आज... हां, तो पोस्ट कार्ड से जुड़ी मेरी सभी यादों को मैंने अपने एक पंजाबी ब्लाग में सहेज दिया है ...बहुत बार सोचा कि उस का ही हिंदी अनुवाद कर के इस ब्लॉग पर भी टिका दूं लेकिन कभी कोई मोटीवेशन लगी नहीं...लेकिन कभी इस ब्लॉग पर भी लिखूंगा ज़रूर पोस्ट कार्ड से जुड़ी मेरी बेशुमार यादें। आप को सुन-पढ़ कर भी मज़ा आएगा। 

बहरहाल, उस दिन विश्व पोस्ट कार्ड दिवस था ...मैं मुंबई के जीपीओ में गया तो पता चला कि अभी स्पेशल कवर तैयार हो कर नहीं आया...मुझे वह ज़रूरी चाहिए था...वह अब मुझे मिल गया है, लीजिए आप भी उस के दीदार कर लीजिए....

जब हम लोग अमृतसर के डीएवी स्कूल में पढ़ते थे तो हमारी क्लास में हमारा एक साथी था, उसने पेन-फ्रेंड बना रखे थे, उन को चिट्ठीयां लिखता था, उन की चिट्ठीयां उन्हें आती थीं, वह हमें दिखाता था, उस ख़तों पर लगी शानदार टिकटें देख कर ही हम हैरान होते रहते थे ..लेकिन कभी पेन-फ्रेंडशिप की दुनिया में जा न सके...शायद इसलिए कि हमें घर में आने-जाने वाले ख़तों को पढ़ने-लिखने से ही फुर्सत न थी...और मेरी तो एक और ड्यूटी भी थी ...अडो़स पड़ोस के कुछ लोगों की चिट्ठीयां पढ़ कर उन्हें सुनाना और उन की चिट्ठीयों के जवाब लिख कर देना...मैं कभी भी उन्हें इस काम के लिए मना नहीं करता था...लेकिन वह चाहते थे कि मैं ही उन की चिट्ठीयां लिखूं...😄..मुझे कहीं न कहीं अपनी नानी का ख़्याल भी आ जाता उन दिनों ,जो बस दो-चार क्लास गुरमुखी पढ़ी थीं, इसलिए उन्हें हिंदी में खत लिखने-पढ़ने के लिए पड़ोस की लड़कीयों की खुशामद करनी पड़ती थी...

मालगुडी डेज़ के डाकिये को अगर जानना हो तो इस लिंक पर क्लिक कीजिए ..

खैर,...पेनफ्रेंड शिप के बारे में बाद में भी सोचता रहा ...लेकिन इस पूल में डुबकी न लगाई ..फिर तो डिजिटल दुनिया में इस तरह के शौक की कोई जगह ही न थी.....लेकिन कल ही मुझे एक नवयुवक से पता चला है पोस्टक्रासिंग डॉट काम के बारे में ..आप भी एक बार इसे देख तो ज़रूर लीजिए... postcrossing.com ---मुझे तो इसे देख कर बहुत मज़ा आया। 

और हां, उस दिन मैंने जब जीपीओ के बाबू को एक ख़त स्पीड पोस्ट के लिए दिया तो उसने मुझे कहा कि यह आप की हैंड-राइटिंग है ...मैने कहा ..जी, मेरी ही है ..उसने कहा कि आप को हैंड-राईटिंग बहुत सुंदर है । मैं किसी के साथ शेयर कर रहा था कि यह कंप्लीमेंट मेरे लिए अभी तक का सब से कीमती कंप्लीमैंट है ..एक बाबू जिस की नज़रों से हज़ारों-लाखों हस्त-लिखित काग़ज़ गुज़र गए ...अगर उस ने भी तारीफ़ कर दी एक पते को देख कर तो .....!! लेकिन अपने आप को यह याद दिलाना भी ज़रूरी है कि ज़मीन पर टिका रहो..इतना उड़ने की भी ज़रूरत भी नहीं...बडे़ से बड़े कलाकार पड़े हैं, मैंने अभी दुनिया देखी ही कितनी है...! 

और हां, उस दिन एक संयोग यह भी तो हुआ कि पोस्ट-बाक्स की रंगाई-पुताई हो रही थी ...मैं यह देख कर रूक गया और इन को कहा कि आज पहली बार किसी पोस्ट-बाक्स की रंगाई होते देख रहा हूं , अच्छा लगा, इसलिए एक फोटो ले रहा हूं....वह दोनों भी बहुत खुश हुए और कहने लगे कि बंबई जीपीओ के अंतर्गत आने वाली सभी डाक-पेटियों की रंगाई-पुताई हर बरस होती है ...यह बात भी ऩईं पता चली थी....

आप के काम को मैं सलाम करता हूं...

अब यहीं ब्रेक लगा रहे हैं.....और डाकिये पर फिल्माया मेरा बेहद पसंदीदा गीत आप भी सुुनिए...और गुज़रे दौर की यादों में खो जाइए कुछ लम्हों के लिए ही सही ...बाद में दिन भर की भाग-दौड़ में तो हम सब को दौड़ना ही है ...

अरे यार, बंद करते करते निदा फ़ाज़ली साहब की बात याद आ गई...

"सीधा सादा डाकिया जादू करे महान....

एक ही थैले में भरे, आंसू और मुस्कान ..

वो सूफी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान.

जितनी बीते आप पर उतनी ही सच मान....."😎👏

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

बिग बी ने छोड़ा पान मसाले का विज्ञापन

अभी अभी अखबार में यह ख़बर पढ़ी तो मुझे बहुत खुशी हुई ...वरना जब से मुझे पता चला था कि बिग बी अब पान मसाले की सरोगेट एड्वर्टाईज़िंग कर रहा है, मुझे उस पर गुस्सा तो आ ही रहा था..लेकिन वही बात है, मेरे जैसे तुच्छ बंदे के गुस्से का उस की सेहत पर भला क्या असर, सिर्फ़ अपने आप में कुढ़ने वाली बात ही तो है...


लीजिए, आप भी टाइम्स ऑफ इंडिया में आज प्रकाशित हुई इस ख़बर को ख़ुद पढ़ लीजिए...अगर पढ़ने में दिक्कत लगे तो इस की तस्वीर पर क्लिक करिए। अमिताभ कह रहे हैं कि उन को यही न पता था कि वे पान मसाले का सरोगेट एड्वर्टाईज़िंग कर रहे हैं...इस के बारे में आप क्या सोचते हैं, चलिए, आप जो भी सोचें...सोचते रहिए। 

पान मसाले से पैदा होने वाले ओरल-सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस के सैंकड़ों मरीज़ देखे, कई कईं बरसों तक उन का फालो-अप भी किया ..डेंटल कॉलेज जैसी प्रीमियर संस्थाओं के विशेषज्ञों के पास उन को इलाज के लिए भी भेजा लेकिन मुझे इस वक्त यह ख्याल नहीं आ रहा कि पान मसाले से पैदा हुई यह बीमारी किसी की ठीक हो गई हो ....हां, सैंकड़ों में कोई ऐसा मरीज़ ज़रूर दिखा जिस का मुंह इस बीमारी की वजह से पहले बिल्कुल कम खुलता था, लेकिन जब पान मसाले को छोड़ दिया तो बहुत लंबे अरसे के बाद उस का मुंह बिल्कुल थोड़ा सा थोडा़-बहुत निवाला धकेलने लायक खुलने लगा ...और यह उसने ख़ुद कहा कि अब मुंह में घाव न होने की वजह से और मुंह थोड़ा ज़्यादा खुलने की वजह से खाना तनिक आराम से खा ले पा रहा हूं...लेकिन वैसे तो जो एक अपंगता आ जाती है, मैंने वह एक भी मरीज़ की जाती नहीं देखी...

लेकिन एक बात तो पक्की है कि जब भी कोई पान मसाला छोड़ देता है - उसे मुंह के घाव-वाव में तो थोड़ी राहत महसूस होती ही है..अगर तब तक उस के मुंह के अंदर की चमड़ी में कैंसर के बदलाव न आ चुके हों तो थोड़ा बहुत आराम तो उसे महसूस होता ही है... लेकिन दो एक केस मैंने ऐसे भी देखे हैं कि जिन को पान मसाले से उत्पन्न यह बीमारी थी, उसने पान मसाला भी छोड़ दिया (जैसा उन्होंने मुझे बताया) लेकिन 10-15 साल बाद उन्हें फिर भी मुंह का कैंसर हो गया। 

पान मसाले की बुराईयां गिनाते-सुनाते, इस से पैदा होने वाले बीमारयों से जूझ रहे मरीज़ों की आपबीती दुनिया तक पहुंचाते पहुंचाते हम बूढ़े हो गए हैं...पिछले 15-20 बरसों में यही कोई 150-200 लेख तो इस ज़हर के विभिन्न पहलुओं को कवर करते हुए हिंदी और इंगलिश में लिख लिख कर बहुत से काग़ज़ काले कर डाले 😄 ...अब इच्छा नहीं होती...इस के लिए जितना ज़रूरी कंटैंट क्रिेएट करना था, कर दिया है ...सब कुछ ऑनलाइन पडा़ है ... बिल्कुल कॉपी-लेफ्टेड रखा है ....उसे कोई भी कापी करे, पेस्ट करे, कहीं भी इस्तेमाल करे...बिल्कुल भी किसी तरह का क्रेडिट भी नहीं चाहिए.....लेकिन बस पान मसाला हमेशा के लिए छुड़वाने में जुट जाए।

पान मसाले पर चाहे मैं अब लिखता नहीं हूं लेकिन इस का इस्तेमाल करने वाले हर इंसान की 10-15 मिनट की ब्रेन-वॉशिंग क्लास मैं ज़रूर लेता हूं ...बस, कुछ लिखने का मन नहीं करता ...जितना कहना था, कह लिया...वैसे भी लोग इस पर लिखी वार्निंग से नहीं डरे,...फिर सरकार ने डरावनी तस्वीरें इस के पैकेट पर छपवानी शुरू कीं...उस से भी नहीं डरे...यह एक बहुत बड़ा काम था सरकार के लिए...पान मसाला, गुटखा व्यापारीयों का खेल बहुत बड़ा है, वे नहीं चाह रहे थे इस रूप में पिक्टोरियल वार्निंग जिस तरह की हम आज कल इन पैकेटों पर देखते हैं... सुप्रीम कोर्ट तक बात गई...सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही ये ख़तरनाक तस्वीरें इन पैकेटों पर छपने लगीं। लेकिन मुझे यह कभी नहीं लगा कि लोग इन तस्वीरों से डर गये हों....नहीं, वैसे ही धड़ल्ले से चबा-खा रहे हैं, और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी हर दिन मारे जा रहे हैं....

गुटखे पर बैन लगा तो पानमसाला और पिसी हुई तंबाकू के अलग अलग पाउच मिलने लगे ... और इन को मिला लिया तो हो गया गुटखा तैयार ...यही हम आज कल हर जगह देख रहे हैं...जब यह सब देखते हैं तो बहुत दुःख होता है, सर भारी हो जाता है ...

जिस तरह से मुंह के कैंसर के रोगी का आप्रेशन करते करते कैंसर सर्जन के घंटों खड़े रहते हुए पसीने छूटने लगते हैं....8-10 घंटे चलनी वाली सर्जरी, पहले दांतों के साथ जबड़े की हड्डी को सर्जरी के द्वारा काट कर अलग करना ..फिर प्लास्टिक सर्जन का घंटों तक काटे हुए गालों को शरीर के दूसरे हिस्से से चमड़ी लेकर थोड़ा बहुत बनाने की कोशिश करना ...और सोचने वाली बात यह भी है कि कितने लोग इस तरह का इलाज करवा पाते हैं....सीधी सीधी बात है 100 में से दो चार प्रतिशत ही करवा पाते हैं...कारण आप भी जानते हैं...अधिकतर नीम हकीमों के चक्कर में पड़े पड़े हार जाते हैं...

Areca Nut- Smokeless Tobacco plays havoc with young lives! 

Oral Submucous Fibrosis in a 58-year old pan-masala chewer 

Mouth Pre-cancer in a 32-year old male 

आज बिग बी की खबर दिखी तो इस पर लिखने बैठ गया...अच्छा किया बिग बी ने जो यह पान मसाले की सरोगेट एड्वर्टाईज़िंग से किनारा कर लिया ....चलिए, आप भी मान लीजिए कि बिग बी को पता ही न था कि वे पान मसाले की सरोगेट ए्ड्वर्टाईज़िंग कर रहे थे ...होता है, कभी कभी बड़े बड़ों को धोखा हो जाता है ..

शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

बी.ए किया है, एम.ए किया ....लगता है वो भी ऐवें किया..

 यह जो खूबसूरत गीत है न यह "मेरे अपने" फिल्म का है ...बहुत अच्छी फिल्म थी...1973-74 के आसपास अमृतसर में नया नया टीवी आया था- हमारे पड़ोसी कपूर साहब ने भी उन्हीं दिनों खरीद लिया था...उन्हें मुबारक देने गए तो वहां यह फिल्म चल रही थी .. उन्होंने उठने नहीं दिया और फिर यह फिल्म वहीं बैठे बैठे देखी...यह गाना दिल में समा गया हो जैसे ...उस के बाद तो अकसर रेडियो पर बजता यह गीत सुनाई दे ही जाता था...

लेकिन यह सुबह सुबह ...बी ए किया है, एम ए किया...लगता है सब कुछ ऐवें किया...यह गीत का ख्याल कैसे आ गया। कोई भी चीज़ बिना वजह नहीं होती ...बस, इस की भी है। उस दिन मैंने एक एंटीक शॉप पर जब सुंदर फ्रेमों में आज से 55-60 साल पुरानी एक डाक्टर (नाम जान कर आप क्या करेंगे, बस इतना जानना आप के लिए काफ़ी है कि मैं सच कह रहा हूं) की कुछ डिग्रीयां दुकान में दिख गईं...

डिग्रीयां कौन सी? - इन चार फ्रेमों में बंबई यूनिवर्सिटी की एमबीबीएस, एम डी (आब्सटेट्रिक्स etc branch) -ऐसा ही एट्सेट्रा भी लिखा हुआ था ..और कॉलेज ऑफ फिज़िशियन से फैमली प्लानिंग का डिप्लोमा और गाईनी-ओब्स का डिप्लोमा....मुझे बेटे कहते हैं कि मैं एक क्यूरेटर हूं ...मुझे भी अब यही लगने लग गया है ....क्योंकि मैं पुरानी यादों को ही नहीं सहेजता, मुझे सभी एंटीक चीज़ें बहुत ज़्यादा रोमांचित करती हैं...और मैं इन को हर कीमत पर खरीद ही लेता हूं...आज से 60 साल पुराना कोई मैगज़ीन जिस के ऊपर उस की कीमत 75 पैसे लिखी हुई है ...उसे एक हज़ार में भी खरीद लेता हूं ...वह कहते हैं न कि शौक का कोई मोल नहीं होता ...यही हाल फाउंटेन पेन, एंटीक कलमदानों, इंक-पॉस्ट्स का, किताबें है...जब मैं इस तरह की एंटीक की दुकानों पर जाता हूं तो मुझे यह देख कर बड़ी राहत महसूस होती है कि इस तरह का नमूना मैं ही नहीं, और भी बहुतेरे हैं...लखनऊ की एक एंटीक शॉप पर मैंने देखा एक महिला को ...ड्राईवर के साथ अपनी बीएमडब्ल्यू में आई थी और बाबा आदम के ज़माने की कपड़े इस्त्री करने वाली प्रेस ले कर चली गई ...वह प्रेस जिसे हम लोग घर में कोयले डाल कर पहले गर्म करते थे। अपने इस शौक के चलते मुझे अपने जैसे बहुत से नमूनों को देखने का, उन से गुफ़्तगू करने का सबब हासिल होता ही है ...

खरीदते समय लगता भी है कि यार इस चीज़ की इतनी कीमत क्यों दे रहे हैं..लेकिन वह ख़्याल दो मिनट के लिए ही आता है ...

हां, तो बात रही थी उन बेहद खूबसूरत लकड़ी के पुराने फ्रेमों की ...मैंने वह नहीं खरीदे क्योंकि उन में रखी डिग्रीयां देख कर मेरा मूड खराब हुआ...पैसे वह 2 हज़ार मांग रहा था ..लेकिन दो चार सौ कम भी कर लेता, कह रहा था...लेकिन मेरी इच्छा ही नहीं हुई उन फ्रेमों को वहां से उठाने की ...

दो तीन साल पहले की बात है मैंने जब यहीं बंबई में एंटीक फ्रेम देखे तो उन में बुज़ुर्ग लोगों की तस्वीरें भी पड़ी दिखीं...मुझे तब भी बहुत ज़्यादा अजीब लगा था ..मैं कईं दिन यही सोचता रहा कि जिसने भी इन्हें इस दुकान तक पहुंचाने का काम किया ...वह बुज़ुर्ग औरत उस की भी कुछ तो लगती ही होगी....और यहां एंटीक शॉपस में चीज़ें स्क्रैप-डीलर ही पहुंचाते हैं....ये दुकानदार कोई क्यूरेटर नहीं है जो इन सब चीज़ों के लिए जगह जगह हंटिंग करते हों...लेकिन कुछ लोग करते हैं...लखनऊ में मैंने जब एक बुज़ुर्ग बंदे से एक बहुत ही खूबसूरत क़लमदान खरीदा तो मैंने उसे पूछ ही लिया कि ये सब आप को मिलते कहां हैं...उसने बताया कि इन चीज़ों को हासिल करने के लिए हमें गांव गांव की ख़ाक छाननी पड़ती है...और मुझे विश्वास है कि वह सच ही कह रहा था। 

डाक्टर साहब की डिग्रीयां देख कर मन में कईं तरह के विचार आते रहे ....किस ने उन्हें यूं ही फिंकवा दिया होगा ...क्या डाक्टर साहब ज़िंदा होंगे ..कहीं कोरोना तो नहीं खा गया उन को ..डिग्री पर लिखी तारीख से मैंने यह हिसाब भी लगाया कि अगर वे अभी होते तो आज कुछ ज़्यादा नहीं, यही 80 साल के करीब होते....आज के हालात में यह कोई इतनी बड़ी उम्र भी नहीं है ..कल ही पता चला कि लगभग इसी उम्र का एक कैंसर विशेषज्ञ रोज़ाना दस लाख रूपये कमा लेता है...जब यह पता चला तो मैंने उस के शतायु होने की दुआ की ...ताकि अच्छे से कमाई करने की उस की हसरत भी पूरी हो जाए...

ज़िंदगी में कुछ वाक्यात ऐसे होते हैं जो अमिट छाप छोड़ जाते हैं...हम अपनी डिग्रीयों को कितना संभाल संभाल कर रखते हैं...पहले तो हम लेमीनेट भी करवा लेते थे ..फिर उन्हें यहां वहां फ्लांट भी करते थे ...फ्रेम में लगा कर टांग भी देते थे ... और मैंने देखा है, अनुभव किया है कि जब ये डिग्रीयां नईं नईं हासिल होती हैं तो चंद महीनों-बरसों के लिए हम आसमां पर जैसे उड़ते रहते हैं, नीचे उतरते ही नहीं....फिर आहिस्ता आहिस्ता जैसे जैसे ज़िंदगी के थपेड़े पड़ते हैं, आटे दाल का सही भाव मालूम होने लगता है...ज़िंदगी की असलियत समझ में आने लगती है ...इन डिग्रीयों से परे भी ज़िंदगी है, यह जान जाते हैं ...इन डिग्रीयों से कहीं ज़्यादा तो जब हमें हमारे मरीज़ ही सिखा जाते हैं...बहुत कुछ तो दुनिया ही सिखा देती है ...हम जब अच्छे से घिस जाते हैं तो एक फलदार पेड़ की तरह पूरी तरह से झुक जाते हैं ......और मैंने अनुभव किया है कि जितना कोई घिस चुका है ...वह उतना ही नरम और विनम्र होता चला जाता है....यह स्टेटमेंट मैं बड़ा सोच समझ कर दे रहा हूं....वैसे भी 60 साल की उम्र में जो कुछ भी कहा जाता है, वह बड़ा सोच विचार  कर ही कहा जाता है...😄और वैसे भी हम सब देखते ही हैं कि जो शाखाएं एकदम तनी रहती हैं, झुकना जो सीख नहीं पातीं, वे अकसर आंधीयों में टूट जाती हैं..😔

चलिए, इन यादों को यहीं समेटते हैं...उस डाक्टर की याद को सलाम- क्या, आप उस का नाम जानना चाहते हैं? - नहीं, यार, यह काम नहीं होगा...वह अपने मरीज़ों के राज़ लंबी उम्र तक राज़ ही रखता रहा, और मैं उस का नाम लिख कर यह जगजाहिर कर दूं कि उस की डिग्रीयां यूं बीच बाज़ार यूं फ्रेम समेत नीलाम हो रही थीं...नहीं, नहीं, यह काम मैं नहीं कर सकता। क्योंकि सोचने वाली बात यह है कि हम लोगों का भी देर-सवेर हश्र तो यही होने वाला है ...

इसलिए नाम-वाम के चक्कर में मत पड़िए., आराम से सुबह सुबह मेरे साथ सुंदर सा फिल्मी गीत सुनिए....और जो बात इस में कही जा रही है, उसे भी याद रखिए ...आने वाला पल जाने वाला है ...😄😄कालेज के दिनों में कड़की होते हुए भी कोई भी फिल्म देखने से महरूम न रहे...और कालेज की पढ़ाई से कहीं ज़्यादा इन की सपनीली दुनिया के सुनहरों ख़्वाबों में ही खोेए रहे....क्या करें, यह तो भई सारा कसूर उस बाली उम्र का था!!!😉

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

अमृतसर का नवरात्रि उत्सव ...यादों के पिटारे से

पंजाबी में हम नवरात्रि को नवरात्रे या कई बार जल्दबाजी में नराते भी कह देते हैं ...कल दोपहर में पता चला कि हमारे एक साथी ने यहां मुंबई में अपने घर में घट की स्थापना की है ...यह पता लगने पर हमने भी सोचा कि अपने यादों की पिटारी को हम भी खोल लें...

जी हां, यह पचास साल पुरानी यादें हैं....अब आप सोच रहे होंगे कि यह सब लिखने की क्या ज़रूरत ...यह भी कोई लिखने वाली बात हुई...लेकिन ये सब बातें अगली पीढ़ीयों तक पहुंचाने के लिए दर्ज करनी ज़रूरी हैं...जैसे हम लोग पुराने लेखकों का 100 साल पुराना लिखा पढ़ते हैं तो मस्त हो जाते हैं.. उस ज़माने की बातें पता चलती हैं...ये सिर्फ लेख ही नहीं, उस ज़माने के दस्तावेज़ हैं।  अगर हम नहीं लिखेंगे अपनी आपबीती तो अगली पीढ़ीयां कहां से हमारे ज़माने की बातें जान पाएगी...कैसे वह अतीत के झरोखे में झांक पाएगी। 

रही बात फ़ुर्सत की ...कोई इतना भी ज़्यादा खाली नहीं होता कि वह लिखने लग जाए....बस एक जज़्बा होता है कुछ संजो कर रख लेने का ....और हां, जब कोई नया नया ब्लॉगिंग में कदम रखता है तो उसे यह बात बड़ी अजीब सी लगती है कि उसे अपने बारे में इतनी सारी बातें लिखनी पड़ती हैं ..कुछ पर्सनल भी ...लेकिन लिखते लिखते फिर एक स्टेज ऐसी आती है कि ब्लॉग के ज़रिए हमारी ज़िंदगी एक खुली किताब जैसी ही लगने लगती है ...लेकिन इसमें भी कुछ मेरे जैसे लोग उस किताब को चाहते हुए भी पूरी तरह से नहीं खोल पाते, हर आदमी की खास कर के नौकरी पेशा लोगों की कुछ मजबूरियां होती हैंं ...खैर, कोई बात नहीं ...किताब जितनी खुल पाए, उतनी ही ठीक है । वैसे लिखने को तो ऐसी ऐसी बातें हैं कि सुनामी आ जाए...लेकिन हंगामा खड़ा करना अपना मक़सद भी तो नहीं।

बहरहाल, अमृतसर के नरातों की जो बचपन की यादें मेरे ज़ेहन में करीने से पड़ी हुई हैं इस वक्त उन्हें साझा कर रहा हूं...इस वक्त सुबह के साढ़े पांच बज रहे हैं ...आज नवरात्रि का दूसरा दिन है ...मैं सीधा 50-52 बरस पहले आप को अमृतसर शहर में लेकर जा रहा हूं...नवरात्रि के इन दिनों में मां और उन की चार पांच सहेलीयां सुबह घर से नंगे पांव चल कर घर से दो एक किलोमीटर दूर अमृतसर के प्रसिद्ध दुर्ग्याना मंदिर जातीं...जाते जाते रास्ते में माता की भेंटें गुनगुनाती जातीं महिलाओं की यह टोली ...और एक टोली नहीं, सडक पर महिलाओं की टोलियां ही टोलियां दिखतीं...यह वह दौर था जब महिलाओं बेधड़क इतनी सुबह भी कहीं आने जाने का बिना किसी डर के सोच सकती थीं...

मुझे कैसे पता है यह सब ...क्योंकि जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है इस वक्त दो एक बार मैं भी इतनी सुबह उठ बैठा था और मां और उन की सहेलीयों की टोली के साथ हो लिया था...मैंने उस दिन देखा कि वहां दुर्ग्याना मंदिर में ये सब महिलाएं माथा टेकती हैं, और वहां से पुजारी इन्हें छोटी गड़वी (लोटे) में कच्चा दूध देते हैं ...(कच्चा दूध मतलब पानी और दूध का मिश्रण)....लिखते वक्त कुछ बातें अपने आप ही याद आने लगती हैं...कल तक मुझे यही याद था कि वहां से महिलाएं पानी ले कर आती थीं...अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि नहीं, वह तो कच्चा दूध होता था ...

फिर वहां से लौटते वक्त मैं किसी न किसी मिट्टी के खिलौने के लिए मचलने लगता था ...मुझे यह तो बड़ा अच्छा से याद है कि एक दिन मैं नींद से उठा और मैंने देखा मां मेरे लिए मिट्टी का खिलौना लाई हैं...एक हरे रंग का तोता- और मैं बहुत खुश हुआ था... ऐसे ही मैं कभी साथ जाता तो मिट्टी की गोलक या कोई भी और खिलौना मां ज़रूर दिलवा देती ....(एक बात जो बार बार लिखने को दिल करता है कि हमारी मां ने कभी पिटाई करना तो दूर, कभी गुस्से से देखा तक नहीं...किसी काम के लिए मना नहीं किया ..मां जब 80-85 बरस की हो गईं तो हम भाई बहन जब मिलते तो उन को यह कह कर छेड़ा करते कि आप भी कैसी मां हैं, बीजी, आपने किसी भी बच्चे को कभी पीटा ही नहीं...)

ख़ैर, आगे चलें.... लो जी ्अमृतसर के मंदिर से कच्चा दूध ले आई मां ...और हां, एक बात तो लिखनी भूल ही गया कि सुबह मंदिर जाने से पहले नहाना भी ज़ूरूरी होता था...और फिर वहां से लौट कर उस कच्चे दूध को खेतरी में डाला जाता था ...हर जगह पर अलग अलग नाम हैं...बहुत सी जगहों पर जिसे घट स्थापना (कलश स्थापना) कहते हैं...उसे अमृतसर में खेतरी बीजना कहते थे ... नवरात्रि शुरू होने के एक दिन पहले ही एक मिट्टी का बर्तन ले आते थे ..और साथ में जौं भी मिलते थे ..आजकल की तरह मिट्टी भी बाज़ार से नहीं लानी पड़ती थी ...क्योंकि हम लोग हर मिट्टी ही से जुड़े रहते थे...आस पास मिट्टी की कोई कमी न थी, इसलिए उस मिट्टी के खुले से कटोरे में जौ बीज दिए जाते थे ...और रोज़ाना बड़ी श्रद्धा भाव से उस में कच्चा दूध डाला जाता था...

दो तीन दिन पहले मुंबई के भायखला इलाके में भी घट बिकते दिखे- मिट्टी समेत!

बात एक और याद आ रही है कि नवरात्रि के दिनों में मां पूरी रामायण ज़रूर पढ़तीं ...वैसे भी मां को रामायण पढ़ते हम अकसर देखा करते थे ..लेकिन नवरात्रि में तो पूरी पढ़ती थीं...सभी श्लोकों को पूरी लय के साथ पढ़ती और दुर्गा स्तुति का पाठ भी ज़रूर करतीं ... एक दो दिन नवरात्रि के व्रत भी रखतीं ...और उन दिनों संघाडे के आटे, कुट्टू के आटे के जो तरह तरह के पकवान बनते और विशेष तरह का फलाहार जो हम सब लोग खाते, वह हमें बहुत अच्छा लगता...तब हम ने यह कुट्टू के आटे के मिलावट के बारे में कुछ नहीं सुना था...यह तो बीस साल से ही हम देख सुन रहे हैं कि मिलावटी या पुराने कुट्टू के आटे की वजह से इतने लोग बीमार हो गए और इतने लोग परेशान हो गए।.

लीजिए, एक सप्ताह बीत गया... खेतरी में जौ की शाखाएं लहलहाने लगीं... लोग इतने सीधे कि अगर किसी की खेतरी में जौ कम अंकुरित होती तो गृहणियां उदास सी हो जाती और अगर शाखाएं बड़ी बड़ी होती तो उल्लास का माहौल होता कि भगवती मां की कृपा अपार हो गई। दुर्गाष्टमी के दिन सुबह कन्या-पूजन किया जाता ... सात कन्याएं एवं एक बालक (जिसे वीर लौंकड़ा कहा जाता था) को सादर बुलाया जाता ...मैं या मेरा भाई, कईं बार मां भी पानी से उन के पैर धोते, फिर बहन उन सब के हाथों पर मौली बांधती, मां उन्हें तिलक लगातीं...और फिर बड़े प्रेम से उन्हें पूरी-छोले-हलवा का प्रसाद खिलाया जाता और जाते समय बडे़ प्रेम से कुछ पैसे भी दिए जाते ....कितने ...अच्छे से याद है  50 साल पहले तो ये 25 या 50 पैसे का सिक्का होता, फिर एक रूपया का सिक्का ... कुछ सालों बाद हर कन्या को दस रूपये के नोट की भेंट दी जाने लगी ...कईं बार मां उन के लिए कोई स्टील का बर्तन जैसे प्लेट ले कर आतीं ...हर एक को वह दी जाती ...कईं बार रबड़ का गेंद, लकड़ी के गीटे (अब गीटे अगर आप नहीं जानते तो मैं आप को यह हिंदी में समझा नहीं पाऊंगा) या मां उन के लिए लाल रंग की चुन्नियां पहले से खरीद कर रखतीं उन्हें भेंट देने के लिए। 

कन्या पूजन को पंजाबी में कंजक बिठाना ही कहते हैं ...कंजकों के जाने के बाद ही हम लोग पूरी-छोले और हलवे पर टूट पाते ...और तब तक खाते रहते जब तक खाते खाते थक ही न जाते ..और अकसर उस दिन दोपहर में भी हलवा-पूरी ही चलता ...

अब सुनिए...दुर्गाष्टमी के दिन शाम को मोहल्ले की औरतें इक्ट्ठा हो कर बच्चों को साथ लेकर उस खेतरी को प्रवाह करने जातीं...अभी मैं अपनी बहन के साथ बैठा उन दिनों को याद कर रहा था तो वह भी झट से बोलीं...बिल्ले, हमें उस मेले में जाकर कितना मज़ा आता था। जी हां, उस खेतरी को हम लोग दुर्ग्याणा मंदिर में रख आते थे ...वहां पर हम हज़ारों खेतरियों का पहाड़ लगा हुआ देख कर हैरान हो जाया करते ...फिर वहां से मंदिर के प्रबंधक उन्हें किसी ट्रक-ट्राली में डाल कर सामूहित तौर पर बहते पानी में प्रवाह कर देते थे ...और उस शाम मंदिर के बाहर एक मेला लगा होता था ...आलू की टिक्की, तीले वाली कुल्फी, चाट-पापड़ी, गोलगप्पे, बर्फी-जलेबी ..क्या था जो उस दिन हमें वहां दिखता न था....सब लोग जितना दिल चाहे खाते थे ...मैंने उन मेलों में 60 पैसे की आलू की टिक्की जो खाई हैं कुछ बरसों तक वैसी मैंने कभी 60 रूपये में भी नहीं खाई...वह हरी चटनी, और प्याज़...कुछ अलग ही जादू है अमृतसर के खाने-पीने में ....मैं कहीं पर भी इस की गवाही देने के लिए तैयार हूं...

फिर जैसे जैसे हम बड़े हो गए...हम झिझकने लगे...उस मेले में जाना बंद हो गया...मां ही सहेलीयों साथ चली जातीं....

नवरात्रि के दिनों के बारे में एक बात और भी तो दर्ज करनी है कि वैसे भी हमारे घर में मंगलवार के दिन मीट-अंडा नहीं बनता था ..लेकिन नवरात्रि के दिनों में तो बिल्कुल नहीं ..लोग लहसून-प्याज़ तक का इस्तेमाल नहीं करते थे...अब मुझे याद नहीं कि इतने सब पतिबंध हमारे यहां भी लगते थे या नहीं, लेकिन मेरे ख्याल में नहीं.... बस, मीट-अंडे से उस हफ्ते दूर रहते थे...अब तो 25 साल से सब कुछ छोड़ रखा है ..कभी यह सब खाने की इच्छा ही नहीं होती ...अंडा तो मैंने कभी भी नहीं खाया, बताते हैं कि बचपन में अगर देने की कोशिश की जाती थी तो मैं थूक देता था ...बस, इसीलिए आज तक अंडा खाया ही नहीं। 

अरे यार, मैं पोस्ट बंद करने लगा हूं और अमृतसर के नवरात्रों की एक विशेष बात तो शेयर करनी भूल ही गया ....वह यह है कि जो नवरात्रे इन दिनों में आते हैं वहां पर छोटे बच्चों और बड़ों को लंगूर बनाने का चलन है ...यह क्या है, सुनिए....लोगों ने जैसे कोई मन्नत मांगी ...और जब उन की मनोकामना पूर्ण होती है तो वे उस बच्चे या बड़े को सात-आठ दिनों के लिए अमृतसर के हनुमान मंदिर में लंगूर बना कर ले जाते थे...

घर ही से बच्चे को लंगूर के कपडे़ पहना कर ढोल बाजे के साथ मंदिर तक जाना होता था ...वहां जा कर माथा टेक कर फिर ढोल-बाजे की रौनक के साथ घर वापिस लौटना होता था ...मुझे अच्छे से याद है कि लंगूर की ड्रेस कुछ लोग तो सिलवा लेते थे, और कुछ मंदिर के पास ही बनी दुकानों से किराये पर भी ले लेते थे ...हमें लंगूर देख कर बहुत मज़ा आता था..हम घर के अंदर कुछ भी कर रहे होते, जैसे ही हमें ढोल की आवाज़ सुनती हम सब काम छोड़ कर लंगूर के नाच का आनंद लेने बाहर आ जाते और तब तक वहीं खडे़ रहते जब तक वह आंखों से ओझिल न हो जाता ....और हां, जो परिवार अपने किसी बच्चे या बड़े को लंगूर बनाता तो आस पास रहने वाले अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को भी निमंत्रण देता कि आप भी हमारे साथ चला करिए ...और लोग जाते भी थे....

अभी मैं अपनी बात पूरी कह नहीं पाया...लेकिन उसे पूरी ज़रूर करूंगा. ..अमृतस के इन नवरात्रों के बारे में और भी लिखूंगा....महान गायक नरेंद्र चंचल से जुड़ी यादें भी अभी साझा करनी हैं...मधुरतम यादें बचपन की। 

अब बहुत हो गया....कुछ और याद आएगा तो फिर से लिख दूंगा ...अभी के लिेए इतना ही काफी है...यही सोच रहा हूं कि हम लोगो का बचपन भी कितना ख़ुशग़वार गुज़रा है ...सुनहरी यादों का ख़ज़ाना है अपने पास ....आज के दौर का गाना भी है न एक सुंदर सा ...यह दिल है मेरा यारा इक यादों की अल्मारी, जिस में रखी है मैंने यह दुनिया सारी...यह रहा इस गीत का लिंक (अगर नीचे दिया लिंक न चले तो।...

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

धीरे धीरे सुबह हुई ...जाग उठी ज़िंदगी..

मैं अपने मरीज़ों को यह ज़रूर कहता रहा हूं कि दिन में जब भी मौका मिले टहल लिया करो....और सुबह का वक्त तो इस काम के लिए सब से बेहतरीन होता ही है... दोस्तो, मैंने ऐसे ऐसे लोगों को वॉकर के साथ टहलते देखा है कि अगर ८-९ बजे तक लंबी ताने सोए रहने  जवान लोग उन्हें बाग में टहलते देख लें तो शर्म से पानी पानी हो जाएं...

मुझे अगर मरीज़ कहते कि हम ज़्यादा चल नहीं सकते तो मैं उन्हें कहता कि आप ने रेस नहीं लगानी, जितना आराम से चल सकते हैं, उतना चलिए...चलने का लुत्फ़ लीजिए...कुछ ऐसे महिलाएं जो कहतीं कि बिल्कुल भी कहीं जाने की तमन्ना ही नहीं होती...चलने की तो बिल्कुल नही....मैं उन्हें कहता कि जब भी वक्त मिले घर के पास के किसी बगीचे में ही बैठ जाइए..सर्दी है तो धूप का आनंद लीजिए, पेड़ पौधे, फूल-पत्ते देख कर तबीयत को हरा-भरा रखिए....कुछ तो मान भी लेते हैं ...

मैं सब को यही कहता हूं कि जितना भी हो सके एक-आध घंटे के लिए ही सही, घर से निकला तो करिए...जब भी हम लोग सुबह बाहर निकलते हैं, कुछ न कुछ नया दिखता है, क़ुदरती नज़ारे दिखते हैं...अचानक रास्ते में वे चीज़ें दिख जाती हैं जिन की तरफ़ वैसे दिन भर की आपा-धापी में कभी ध्यान ही नहीं जाता। 

कहते तो हम रहते हैं जब भी मौका मिलता है सभी को ...जो नहीं मानते उन से भी कोई गिला-शिकवा नहीं ...क्योंकि हम लोग नसीहत देने वाले ही कहां अपनी कही बातें ख़ुद मानते हैं...मैं सुबह सुबह साईकिल पर दूर तक जाना बहुत पसंद करता हूं ...मैं पिछले साल इन्हीं दिनों साईकिल पर रोज़ सुबह २०-२५ किलोमीटर घूम कर आता है ..ज़्यादातर तो बांद्रा से जुहू बीच होते हुए, वर्सोवा बीच तक जाता था और वहां से वापिस लौट आता था...कईं बार तो जुहू बीच की रेत पर अपनी फैट-बाइक भी चलाता था ..


फिर किसी बंदे ने नेक सलाह दे दी कि उस रेत में साई्कल चलाने में जितना ज़ोर लगता है न, तुम अपने घुटनों की बची-खुची सलामती भी खो दोगे... और मैंने यह सलाह मान ली। २ महीने साईकिल चलाया और वज़न १०-१२ किलो कम हो गया था...लेकिन पिछले ११ महीनों से साईकिल नहीं चलाता ...कोई कारण नहीं, जा सकता हूं लेकिन नहीं, आलस करता हूं ...पता भी है कि इस उम्र में बहुत ज़रूरी है ..अभी मैं कुछ दिन पहले सुबह साईकिल पर घूमने गया था ...बहुत अच्छा लगा था...बांद्रा से जुहू होते हुए इस्कॉन टेंपल तक गया और वापिस लौट आया...वही बात है, जैसे एक प्रसिद्ध कहावत है कि ...कुछ भी करने के मौसम नहीं, मन चाहिेए।

और जहां तक सुबह टहलने की बात है....वह भी कईं कईं दिन बाद ही होता है ....घर के आस पास ही किसी काम की वजह से जहां भी जाना होता है, वह पैदल ही जाता हूं और इसीलिए मैं यहां नया स्कूटर नहीं खरीद रहा हूं ..क्योंकि मुझे अपना पता है अगर मेरे पास स्कूटर होगा तो जैसा मैं हूं ...मैं अपनी टांगों को थोड़ी बहुत ज़हमत देनी भी बंद कर दूंगा। 

जहां हम अब रहते हैं...उस के सामने बीच है ...बढ़िया प्रॉमेनेड है, पास ही ख़ूबसूरत जागर्स पार्क है...और 10-15 मिनट की पैदल की दूरी पर बैंड-स्टैंड है वहां का भी प्रॉमनेड बहुत बढ़िया है ...इस एरिया में फिल्मी हस्तियां, मॉडल टहलते दिखते हैं अकसर ...लेकिन हम कईं कईं दिन बाहर निकलने का मूड बनाने में ही निकाल देते हैं...और जिस दिन अगर कभी टहल ही आएं तो सारा दिन वे तस्वीरें शेयर कर कर के दूसरों का जीना दूभर कर देते हैं... जैसा कि मैं अभी करने वाला हूं ...😎

मेरी बहन आई हुई हैं ...मेरे से 10 साल बड़ी हैं...डाक्ट्रेट हैं, यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर रही हैं...अभी भी यूनिवर्सिटी क्लासेस के लिए बुलाती है ..मुझे आठवीं तक इंगलिश-विंग्लिश खूब अच्छे से पढ़ाती थीं, मैं इन से अपने दिल की सभी बातें शेयर कर लेता था... आठवीं में पढ़ ही रहा था कि इन की शादी हो गई, मुझे बुरा लग रहा था, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भी खुशी थी कि अब इन का साईकिल मुझे मिल जाएगा...कल सुबह उन्हें बैंड-स्टैंड की तरफ़ लेकर गया तो बहुत अच्छा लगा...आलस त्याग कर जब भी सुबह उठ जाते हैं तो अच्छा ही लगता है ... 

ज़िंदगी की आपा-धापी में हम लोग बहुत सी चीज़ों को तो नोटिस भी नहीं करते ...बैंड-स्टैंड के पास ही अभिनेत्री रेखा के बंगले (बसेरा) के सामने यह बैंच हमने कभी आते जाते नोटिस ही नहीं किया था ... यह भी कोई दो एक सौ साल पुराना है ...और देखने लायक है ..

ध्यान से देखिए बंदा वॉकर की मदद से नीचे समंदर की लहरों तक पहुंच गया है ...जहां चाह वहां राह!!

रिमांइडर हर तरफ़ मिलते हैं हमें, लेकिन हम किसी की बात सुनें तों...यह एलडीएल को देख कर मुझे भी ख्याल आया कि कुछ दिन पहले करवाए मेरे लिपिड प्रोफाईल में भी कुछ लफड़ा था..डा जायस्वाल मैम ने कहा भी था कि ख़ूब तेज़ तेज़ रोज़ टहला करो...आज यह रिमांइडर फिर से मिला...

हैरानगी की बात यह भी है कि इतनी बार गये हैं इस तरफ़ लेकिन कभी यह चिल्ड्रन-पार्क की तरफ़ ध्यान ही न गया...आप यह तो नहीं सोच रहे न कि चिल्ड्रन पार्क में तुम क्या कर रहे हो...हम भी तो अभी बच्चे ही हैंं!

कौन है जिसे इन सुंदर फूलों को यूं ज़मीन पर पड़े देख कर "पु्ष्प की अभिलाषा" याद न आ जाती होगी!


सी.एस.आर भी अच्छी बात है ....कुछ बातें याद दिलाते रहना भी एक बड़ी ख़िदमत है ...

एक नेक महिला प्लेट में इस महारानी को खानी परोस रही दिखी ...और इसे बड़े प्यार से कुछ कह भी रही थीं साथ साथ ...शायद यह कह रही होगी कि तुम इतना बिगड़ा मत करो, अब मान भी जाओ...घर से निकलते निकलते कभी देर हो भी जाती है....मैं ऐसी सभी महिलाओं के इस जज़्बे के आगे नतमस्तक हूं ...

जनाब कौआ जी धरने पर बैठे हों जैसे...मानो कह रहे हों कि यह तो सब कुछ कबूतरों के लिए लिखा है, मेरे पेट पर क्यों लात मार रहे हो, मुझे भी तो कुछ खिलाओ...पिलाओ

सिर्फ इस लिए खीले (कील) ठोंक दिए गये हैं ताकि आते-जाते कोई थका-मांदा राही गल्ती से भी दो मिनट चैन की सांस न ले ले .....यह भी है मुंबई नगरिया तू देख बबुआ...जो अमिताभ न दिखा पाया डॉन फिल्म के उस गाने में ...

आज यहीं बंद करते हैं ..आज तो हम नहीं गए टहलने, कल के नज़ारों को ही इस पोस्ट में समेटने में लग गए...और कल सुबह से जिस गीत का बार बार ख़्याल आ रहा है, अब हम सब मिल कर वह गीत सुनते हैं- 'धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी'...मेरे लिए यही सुबह की प्रार्थना, इबादत भी है ...जिसे बार बार कहने-सुनने को दिल मचलता है....😄यसुदास की मधुर आवाज़ के नाम!

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2021

इह है बंबई नगरिया ...सच में?

 4 अक्टूबर 2021 - सुबह 9 बजे 

पश्चिम रेल की लोकल चर्चगेट जाती हुई ....2-3 मिनट में दादर स्टेशन आने वाला है ...फर्स्ट क्लास में डिब्बे में बैठा मैं अखबार पढ़ रहा था तो कहीं से बड़ी तेज़ तर्रार बहस की आवाज़ सुनाई दी..अकसर ऐसा लोकल गाड़ियों के फर्स्ट क्लास में मैंने कम ही देखा है। मैंने पीछे मुड़ के देखा...55-60 की उम्र का एक शख्स दरवाजे के पास खड़ा था ...और करीब तीस साल की उम्र का एक युवक उस से बहस कर रहा था...बहस, कुछ ज़्यादा ही गर्म लगी मुझे..लड़के ने उस अधेड़ उम्र के शख्स को कह रहा था...काका, यह जो अपनी ...(सुना नहीं मुझे कुछ) है, यह अपने घर के लिए रखो।

जैसा कि बंबई में होता है ..कोई किसी के मामले में अकसर पड़ते नहीं लेकिन मैं अपनी सीट छोड़ कर उस नौजवान की सीट के सामने वाली खाली सीट पर बैठ गया...उसे मैंने उसे इशारा किया कि चुप रहे ...फिर मैंने उस खड़े हुए शख्स को भी इशारा कर के कहा कि कोई बात नहीं, जाने दीजिए....कुछ नहीं ..कुछ नहीं....लेकिन इस के बाद भी वे दोनोें एक दूसरे को कुछ न कुछ कहते रहे ..लेकिन मेरी बात का कुछ तो असर दिखा मुझे ..मुझे अपने सफेद बालों का बहुत बड़ा फायदा यही लगने लगा है कि लोग मेरी बात सुन लेते हैं...दोनों कुछ कुछ नरम पड़ रहे थे ...इतने में मेरे साथ बैठे एक दूसरे आदमी ने भी उन्हें कहा कि कोई बात नहीं, रहने दीजिए..चलिए, जल्द ही वह गर्मागर्म बहस ठंड़ी पड़ गई..

बात इसलिए यहां लिख रहा हूं जो मैंनेे देखा है कि जब दो लोग झगड़े पर उतारू हो ही जाते हैं न तो अकसर दिल से वह यह सब सिरदर्दी मोल नहीं लेना चाहते हैं...बस, कोई बीच-बचाव कर के ...उस आग पर पानी डालने वाला पास नहीं होता...तमाशबीन लोग मज़ा लेने के चक्कर में होते हैं...हम तो भाई रह नहीं पाते....अंजाम कुछ भी हो, लेकिन कोशिश तो की जाए...और बहुत बार कोशिश रंग लाती ही है...

4 अक्टूबर 2021- रात 10 बजे - कुर्ला स्टेशन 

मध्य रेल के कुर्ला लोकल स्टेशन का पुल जो हार्बर लाइन से मेन लाइन प्लेटफार्म पर आने के लिए इस्तेमाल होता है। अभी मैं उस के ऊपर पहुंचा ही था..कल मेरे दाएं घुटने में कुछ ज़्यादा ही दर्द था, और मैंने नी-कैप भी नहीं पहनी थी ...खैर, ऊपर पहुंचते ही मुझे ज़ोर ज़ोर से मार-कुटाई की आवाजें सुनाई दीं...ध्यान से देखा तो दो 20-25 साल के युवक एक 20-22 साल के युवक को बुरी तरह से पीट रहे थे ...उस सिर पर और मुंह पर मुक्के मार रहे थे ...मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ कि कोई भी बीच बचाव नहीं कर रहा था ....सब पास ही खड़े तमाशा देख रहे थे ... मैंने हिम्मत नहीं की आगे आने की क्योंकि जितने आक्रोश में वे दोनों युवक थे, वे कुछ भी कर सकते थे ..और साथ में यह कहे जा रहे थे कि मोबाइल पर हाथ मार रहा है ....ख़ैर, एक आधे मिनट में देखते ही देखते उस पिटने वाले जवान के मुंह से खून निकलना शुरू हो गया...मैंने सोचा मैं आगे बढ़ कर रूमाल ही दे दूं.....लेकिन न ही जेब में रूमाल था और न ही मेरे पास उस वक्त पानी की बॉटल ही थी....मुझे इस बात से बहुत आत्मग्लानि हुई। 

जब उसके मुंह से खून आने लगा तो वे दोनों युवक वहां से हट कर जाने लगे..इतने में वहां एक सिपाही पहुंच गया.....अब 30-40 लोग जो अब तक तमाशा देख रहे थे ...उन्होंने उन युवकों को मां की गाली निकाली और उन के पीछे हो लिए ...वे रुक गए...सिपाही उन के पास पहुंच गया...घायल युवक भी वहीं था...मामले की जांच होने लगी ...

मेरी ट्रेन का समय हो गया था, मैं वैसे ही लेट हो चुका था...मैं सीड़ियां उतर कर नीचे प्लेटफार्म पर पहुंच गया...और गाड़ी में चढ़ गया। मैं यही सोच रहा था कि इतना आक्रोश क्यों है आज लोगों में ...चंद लम्हों में कुछ भी कर सकते हैं...यह तो जंगल का कानून हो गया...अगर मोबाइल पर हाथ मार ही रहा था तो कानून है, पुलिस है ....यह कानून की किस किताब में लिखा है कि हम किसी को भी बुरी तरह से घायल कर दें...यह पागलपन है, दादागिरी है ..जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं की जा सकती। 

5 अक्टूबर 2021 - शाम - दादर (मध्य रेल) की इस्ट साइड - लक्ष्मी नारायण मंदिर वाली साइड - 

उधर से गुज़रते हुए देखा ..कुछ पुलिस वाले एक फुटपाथ के पास खड़े हैं...जल्द ही वे चले गए ..और एक युवक देखा जिस की बाजू से खून टपक रहा था ... कोई कह रहा था कि इस ने अपनी नस काट ली है, किसी की सुन नहीं रहा ...कुछ कुछ बोले जा रहा था...एक औरत ने कुछ कपड़ा देना चाहा तो भी ऊंची ऊंची आवाज़ में कुछ कहने लग गया...उस के पास जाने की कोई हिम्मत न कर पा रहा था ...

जी हां, यह है मुंबई की आंखों-देखी तस्वीर ....मुझे लगा इसे भी दर्ज कर दूं क्योंकि जब लोग अमिताभ का 45 साल पुराना गीत सुने ...यह है बंबई नगरिया..तू देख बबुआ....तो वे यह भी देखें कि अमिताभ की तरह बंबई भी बदल चुकी है ...अमिताभ भी अब इतना सब कुछ पा लेने के बाद भी पान मसाले की सरोगेट-विज्ञापन करने लगा है ...ख़ुदा जाने उस की क्या मजबूरी रही होगी...और बंबई के रंग ढंग भी बदल चुके हैं....सब के तेवर चढ़े रहते हैं...कुढ़ते रहते हैं, दिन भर पिसते हैं....कुंठित हैं.... बस बहाना ढूंढते हैं ...किसी के गले पड़ने का.. और लोगों को उन के पहनावे, झूठी शानो-शौकत और बाहरी दिखावे से ही पहचानने की भूल करते हैं अकसर ...

रोज़ाना सुबह यह प्रार्थना कर लेनी चाहिए...और जितना हो सके ..आग में घी की जगह, पानी छिड़कते रहिए....इस तपिश में ठंडक की बेहद ज़रूरत है...बाकी सब बेकार की बातें हैं...

रविवार, 3 अक्तूबर 2021

किताबों के ज़रिए भी हम दुनिया से रू-ब-रू होते हैं...

शादी के कुछ महीने बाद 1990 में हम लोग एक रात दिल्ली में मिसिज़ की मौसी के घर पहुंचे...सुबह श्रीमति जी का यूपीएससी इंटरव्यू था ..मौसा जी इंगलिश पढ़ाते थे दिल्ली में ...अरोड़ा साब...लेकिन वह रात मेरे लिए यादगार थी ...मैं उन के कमरे में उन के साथ था ...लेकिन कमरा क्या, वह तो भाई लाईब्रेरी ही दिख रही थी...हर तरफ़ किताबें ...और मेरी तो उत्सुकता थी ही किताबें के बारे में ...वह देर रात तक अपनी किताबों के बारे में बताते रहे ....देर रात कब नींद आ गई, पता न चला। कुछ दिन पहले उन के नाती की शादी पर दिल्ली गए तो मैं कितनी खुशी से उस दिन को याद कर रहा था .. हर तरफ़ किताबें, बेड के अंदर किताबें, गद्दे के नीचे किताबें....मैंने पूछा उन के बेटे से कि डैड की अगर कोई किताब रखी हो तो बताएं। लेकिन किसी किताब का अब नामो-निशां न बचा था। 

अब मैं उन अरोड़ा साब को जब याद करता हूं तो बहुत हंसता हूं ...हंसी की वजह यह भी होती है कि मुझे क्या पता था कि हमारे घर मेंं भी वही मंज़र दिखने वाला है। हर तरफ़ किताबें ...हर तरफ़ मैगज़ीन....सभी विषयों के ऊपर किताबें ...हिंदी, पंजाबी, इॆगलिश, उर्दू ज़ुबानों में ....मां को भी पढ़ने की आदत थीं...मुझे बहुत बार कहतीं कि इतनी सारी किताबों पर पैसा खर्च करने के लिए भी दिल चाहिए होता है...उन का सानिध्य 88 बरस की उम्र तक हमें मिला ... कोई न कोई किताब पढ़ती दिखतीं, इंगलिश-हिंदी का अखबार भी पढ़ती...कभी कोई लफ़्ज़ मुश्किल लगता तो अपने साथ ही रखी डिक्शनरी में उसे देख कर अपनी नोटबुक में नोट कर लेतीं...और जैसा हमें बचपन से वह सिखाती आईं ..पांच-दस बार लिखती उसे। मेरे नाना भी जालंधर में एक उर्दू अखबार के सब-एडिटर रहे...और बहुत सालों तक अपने एक दोस्त के लिए जो हिंदी का नामचीन लेखक था ..उस के लिए ghost-writing करते रहे-उसे कहानियां उर्दू में लिख कर देते,  दोस्त उन्हें हिंदी में अपने नाम से छपवा लेते। 

घर में भी सब को बचपन से ही कुछ न कुछ पढ़ते ही देखा...आज से पचास साल पहले घर में इलस्ट्रेटेड वीकली, धर्मयुग, सरिता, फिल्मफेयर पढ़े जाते थे ...पापा भी इंगलिश की अखबार को जैसे चबा जाते थे ...😂और उन के लिखने का तो जवाब ही क्या....कंटैंट तो टापक्लास होता ही था...और खुशख़त लिखते थे ...किसी ख़त का जवाब लिखने में भी उन्हें कोई जल्दी नहीं होती थी...पोस्ट कार्ड हो या अंतर्देशीय उसे पूरी तरह से भर कर ही डाक पेटी के हवाले करते थे। रिश्तेदार उन के ख़त संभाल कर रखते थे.. और मिलने पर अकसर तारीफ़ किया करते थे..

गुलज़ार साब की याद आ गई...जहां हम रहते हैं वहां बिल्कुल पास ही में, पैदल की दूरी पर ही गुलज़ार साब का बंगला है ...उस रोड़ पर चलते हुए जब दरवाज़ा खुला होता है तो उन के घर की पहली मंज़िल में रखी उन की किताबों की अल्मारीयां दिखती हैं...मैं जब भी उधर से गुज़रता हूं उस तरफ़ ज़रूर देखता हूं (उस तरफ़ देखना ही सजदा करने जैसा लगता है) ....कुछ महीने पहले एक सुखद अनुभव हुआ....वह उसी बालकनी में खड़े थे ...नीचे उन के स्टॉफ में चल रही किसी गुफ्तूग का आनंद ले रहे थे, गले में तौलिया लपेटे थे... अचानक उन्होंने बाहर देखा तो मैंने उधर से गुज़रते हुए उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया .... जितनी आत्मीयता से उन्होंने वहां खड़े खड़े मुझे इस का जवाब दिया, वह मुझे ताउम्र याद रहेगा। 

और हां, उन की किताबों की अल्मारीयां देख कर मुझे उन की मशहूर कविता ...किताबें झांकती हैं बंद अल्मारी से ....याद आ जाती है ...सोचता हूं यही अल्मारीयां ही यह लिखने की प्रेरणा रही होंगी शायद।

इस मशीनी युग में भी हमें किताबों को साक्षात पढ़ना ही भाता है ... किंडल लिया कुछ अरसा पहले, अनलिमिटेड सब्सक्रिपशन भी ले ली ..लेकिन मज़ा आया नहीं...किताबों के सफ़े पलट कर, उन मेंं बुक मार्क रख कर, कभी कभी पेज़ के किनारे को थोड़ा मरोड़ कर रखने में जो मज़ा है ...वह किंडल-विंडल में कहां। और मोबाइल पर ज़्यादा पढ़ने से तो शायद हम लोग, मेरी पीढ़ी के लोग गुरेज़ ही करते होंगे ...

अभी कुछ दिन पहले देखा-पढ़ा कि महानगरों के कईं फुटपाथों पर लिखा हुआ है कि नो-किसिंग ज़ोन, नो पार्किंग ज़ोन ....और यह पेंट से लिखा हुआ था ...मुझे उस वक्त ख़्याल आ रहा था ..न्यू-यार्क शहर के बीचों बीच एक लाइब्रेरी का ..जिस के फुटपाथ पर बड़े बड़े लेखकों द्वारा कही कुछ बातें लिखी हुई हैं....दो ढ़ाई साल पहले जब वहां गए थे तो वे फुटपाथ देख कर बहुत अच्छा लगा था ...सच कहते हैं कि बरसों पहले लिखी किताबों को पढ़ना भी तो उन पुराने युग के महान लेखकों से मुलाकात करने जैसा है ...








न्यू-यार्क शहर में फुटपाथ पर किताबों की उम्दा सीख यूं बिछी दिखी

आज भला मैं क्यों यह सब लिखने लग गया...क्योंकि मैं दो दिन से एक किताब पढ़ रहा हूं ....अंग्रेज़ी के महान लेखक सोमरसेट मोगम की किताब - समिंग अप ---(W. Somerset Maugham - The Summing Up-) यह 85 साल पहले लिखी हुई किताब 1938 में लिखी गई थी ...क्या गजब किताब है ...उस में उस बंदे ने ज़िंदगी भर के अपने सारे तजुर्बे लिख दिए हैं...पढ़ने लगता हूं ...एक दो सफे पढ़ता हूं तो झट से नींद आ जाती है ...क्या करें, यह लेट कर पढ़ने की बीमारी की वजह से मैंने पहले भी बहुत ख़ता खाई है ..

चलिए, अब इस को बंद करते हैं....लिखता रहूंगा किताबों की सुनहरी दुनिया के बारे में ...हम लोग बचपन से क्या क्या पढ़ते रहे हैं और उन सब से हम ने क्या सीखा ...इन सब के बारे में लिखते रहेंगे ....मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि जहां पर भी आप जाइए, आप अपने पास एक किताब ज़रूर रखिए, किसी को मिलने गए हैं, अभी वक्त लगना है, थोड़ा किताब को ही पढ़ लीजिए...मुझे भी यह बात अच्छी लगी....मैं भी अकसर कहीं भी जाता हूं कुछ न कुछ पढ़ने का मेरे पास रहता ही है...और किताब के हर पन्ने में कुछ सीख है, कोई सवाल है, कोई कौतूहल है, कोई प्रेरणा है....कोई तो उमंग है...और बहुत सी खुशी भी तो है। 

लोगों को सुबह सुबह अल्लाह-ईश्वर याद आता है...मुझे मेरे पसंदीदा बढ़िया बढ़िया 40-50 साल पुराने फिल्मी गीत याद आते हैं...रेडियो पर जिन्हे सैंकड़ों बार सुनते सुनते वे कब हमारे डीएनए में ही शामिल हो गए पता ही न चला .... 😂

शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

कैंसर की भी नकली दवाईयां ....

अभी टाइम्स (2.10.2021) में कैंसर की नकली दवाईयों की ख़बर दिखी तो मन बहुत दुःखी हुआ...वाट्सएप पर उस की तस्वीर शेयर करते करते अपना कुछ फालतू ज्ञान भी बांट रहा था तो अचानक वह मैसेज ही गायब हो गया....शायद उस की भी इन धोखेबाज़ों के साथ सांठ-गांठ होगी। फिर सोचा, अपने आप से कहा, तुम्हें क्या फ़िक्र है, अपने ब्लॉग पर दिल की बात लिख कर के मन को हल्का कर ले। 

कैंंसर की नकली दवाईयां, टीबी जैसे रोगियों के इस्तेमाल में होने वाली दवाईयां नकली...(मैंने भी खाई थीं- 15-16 साल पहले ...और यह सोच कर मन दहल जाता है कि अगर वे भी नकली होतीं...)...अब लोग क्या क्या छोड़ें.... बीमार को दवाईयां तो लेनी ही पडेंगी ...और कैंसर के इलाज की दवाईयां तो होती भी इतनी महंगी हैं कि सामान्य लोग तो बहुत बार सड़क पर आ जाते हैं...इन्हें खरीदते खरीदते ...और इस पर भी पता चले कि नकली दवाईयां ही मरीज़ को दिए जा रहे थे ...कितनी शर्मनाक बात है! चुल्लू भर पानी से भी कम पानी में भी डूब कर मरने की बात है! 

अभी जब ये कोरोना वैक्सीन के इंजेक्शन लग रहे थे तो भी कितनी बार मीडिया दिखा रहा था कि जालसाज़ों ने नकली कैंप रख लिए और ज़ाहिर सी बात है इन कैंपों में लोगों को कोरोना वैक्सीन की जगह क्या लगा दिया गया, यह किसी को नहीं पाता.....अगर आपने कहीं यह ख़बर पढ़ी हो कि इन नकली कैंप वालों को क्या सज़ा हुई, वे अभी कहां है, तो मुझे भी वह लिंक शेयर करिएगा। 

इमानदारी-बेइमानी हमारे अपने लिए है....कोई कितना भी पीछे पड़ जाए अगर हम बेइमानी पर उतर ही आएं तो किसी को कुछ भी पता नहीं लग सकता....वैसे भी लोगों के पास अपने ही इतने पचड़े हैं कि वे बहुत बार आंखें बंद करना ही बेहतर समझते हैं....क्योंकि इन गोरखधंधों में लिप्त लोग कब खुली आंखों वालों को गायब करवा दें, यह भी कोई नहीं जानता... जो फिल्मी में दिखाते हैं, वे सब किसी दूसरे ग्रह की बातें थोड़े न हैं, फिल्में हमारे समाज का दर्पण होता है और वे वही कुछ दिखाती हैं जो हमारे आस पास घट रहा होता है ...

ज़िंदगी के छठे दशक में प्रवेश करते करते बहुत से लोगों को देखा....और पढ़ा ...बेइमान आदत इतनी अपार दौलत का करेगा क्या....बीस हज़ार के जूते खरीद लेगा...हज़ारों रूपयों की लागत की पैंट-शर्ट या डिज़ाइनर ड्रेस ले लेगा ...लाखों-करोडो़ं की गाडि़यों में घूम लेगा...लेकिन कुदरत से भला कौन टक्कर ले पाता है ...कभी न कभी कहीं पर ट्रैप हो ही जाएगा...जितना भी शातिर दिमाग हो...कहीं न कहीं इस तरह के लोगों का बाप कहां से प्रकट हो जाता है पता ही नहीं चलता, फिर बाहर भागते हैं, अंडरग्रांउड हो जाते हैं...तरह तरह की बीमारियां ..महंगे अस्पताल...बडे़ बड़े डाक्टर भी क्या कर लेंगे .... डाक्टर भी भगवान हैं लेकिन कुछ हद तक ....बेइमानी, दलाली, कमीशनखोरी के कैंसर के लिए उन के पास अभी कोई दवाई नहीं है...न ही होगी....बीमारी के ऊपर किसी का कुछ बस नहीं है वैसे तो ...लेकिन धोखेबाज़ों को अकसर तिल तिल रुबड़ते-तड़पते देखा है ... अनाप शनाप पैसा होगा...करोड़ों के घर खरीदे जाते हैं...पूरी अय्याशी में लिप्त ज़िंदगी जी जाती है ...यहां भी और दूसरे देशों में भी ....सब बेकार। 

साधु लोग कितनी सही बात कहते हैं....जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन। यह बात कह कर ज्ञानी लोगों ने जैसे कूज़े में समंदर भर दिया...अगर इमानदारी के पैसे की खरीदी दो ड्रैस भी हैं, दादर के फुटपाथ से खरीदे 250 के जूते हैं, बीवी के गले में अगर वीटी स्टेशन के बाहर बिकने वाली 20 रूपये का मंगल-सूत्र है, पांच रूपये के झुमके हैं .....लेकिन वही मुबारक हैं....वहीं सुखदायी हैं...और उन की चमक-दमक भी निराली ही दिखेगी, साधारण से चेहरे को भी नूरानी चेहरा बना देंगे। बेइमानी, रिश्वतखोरी के पैसे जमा के 20 लाख का हीरे का हार भी भद्दा ही दिखता है ..क्योंकि उस में डर भी तो मिला हुआ है, और दस रूपये की चूड़ीयों मे सच्चाई है, सादगी है, इमानदारी का गुरूर है.....क्या आपने कभी यह सब नोटिस किया। मैने तो बहुत किया....घुटने दर्द करते हैं, लेकिन मैं फिर खूब चलता-फिरता हूं, दुनिया देखता हूं ...

कभी भी गौर करिएगा कि बेइमान इंसान बड़ा डरा डरा सा, सहमा सहमा सा दिखेगा....उसे किसी से बात करते हुए भी डर लगेगा ..इस की तुलना में ईमानदार लोगों को देखते ही आप को पता चल जाएगा कि यह ईमानदार है ...वह आप की आंखों में आंंखें डाल कर बात करेगा...आंखें चुराएगा नहीं कभी। हम समझते हैं कि लोग अगर कुछ कहते नहीं है तो वे बेवकूफ हैं, ऐसा नहीं है, बस उन्होंने अपनी सलामती के लिए आंखें थोड़ी सी बंद की होती हैं. 

आदमी जितनी मर्ज़ी दौलत इक्ट्ठा कर ले ... उस से कुछ नहीं होता...लोग भी बेकार की मुंह पर तारीफ़ करेंगे, बाद में गाली निकालेंगे कि यह सब दो नंबर का माल है ... 

लेकिन मैं यह सब क्या लिखने लग गया....क्यों। क्योंकि अगर नहीं लिखता तो मेरा सिर भारी हो जाता और पूरा दिन मैं वैसे ही काट देता क्योंकि उस नकली कैंसर की दवाई ने मुझे बहुत परेशान किया...अब कुछ तो हल्का महसूस हो रहा है ..😎😄यह कोई ज्ञान बांटने की कोशिश नहीं थी, अपने मन को हल्का करने का एक बहाना भर था। 


बुधवार, 29 सितंबर 2021

तुम भी चलो...हम भी चलें...चलती रहे ज़िंदगी...

प्रभादेवी लोकल स्टेशन...28 सितंबर 2021 

कल मैंने जब पश्चिम रेलवे के प्रभादेवी स्टेशन पर कुछ लोगों को एक स्टॉल पर नाश्ता करते देखा तो मेरी तबीयत ख़ुश हो गई ...वैसे तो उस ख़ुशी का कारण एक बड़े से कांच के मर्तबान में दिख रहे लड्डू भी थे ...लेकिन इतने लोगों को पाव-भाजी, रगड़ा-पेटीज़ का इत्मीनान से लुत्फ़ उठाते देख कर बहुत अच्छा लगा...

मेरा क्या है...तस्वीरों में आने से मुझे बहुत गुरेज़ है लेकिन तस्वीरें खींचना तो अपना काम है ....उसी वक्त जो तस्वीरें लीं, यहां लगा रहा हूं ...

लोकल गाड़ी में बैठा मैं यही सोच रहा था कि जैसे भुज में भुकंप आया फिर से भुज बस गया...ऐसे ही कोरोना की भी एक सुनामी आई ...इस ने महाराष्ट्र में ही 90 हज़ार लोगों की जान लील ली ...अब थोड़ा चैन आया है लोगों को ..लेकिन अभी भी ज़रूरी एहतियात तो रखनी ही होगी...

मुझे मुंबई की लोकल गाडि़यों में सफर करना ही भाता है ... अब तो घर के लोगों ने कहना ही बंद कर दिया है कि गाड़ी लेकर जाओ...चलो, यह भी अच्छा है...गाड़ी चलाना और गाड़ी में चलना मुझे बिल्कुल भी नहीं भाता... दरअसल बात यह है कि लोकल गाड़ियों में ज़िंदगी दिखती है ...ज़िंदादिली से हमारी मुलाकात होती है ...और अनेकों दुश्वारियों के बीच भी कैसे ख़ुश रहा जा सकता है ...ये सब सबक मिलते हैं...जिन्हें रो़ज़ाना अगर अपने आप को याद दिलाना है तो लोकल गाड़ी एवं अन्य पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जुड़ कर रहना होगा ....अपने शहर के बाज़ारों और गलियों में बिना किसी ख़ास मक़सद के पैदल टहलना भी होगा ....बस, इस मशीनी से युग में ज़िंदगी से जुड़ने का यही एक बहाना मुझे समझ में आता है। मोटर-गाड़ी में चलते वक्त सारा मज़ा तो खौफ़नाक ट्रैफिक, पार्किंग की सिरदर्दी में लुप्त हो जाता है, रोड़-रैश से जूझते, बचते-बचाते 15 मिनट में सिर भारी हो जाता है ...बस इत्ता सा ही है मेरा थ्रैशहोल्ड, क्या करें। 

हां, तो बात फोटो की हो रही थी जो मैंने कल शाम को प्रभादेवी स्टेशन पर खींची...मुझे अपनी 100 खींची हुई फोटो में से 1-2 ही पसंद आती हैं...उन्हीं को शेयर करने की इच्छा होती है ...वरना गैलरी में हज़ारों तस्वीरें ठूंसी पड़ी हैं...लॉक-डाउन के दौरान भी मैं लोकल-गाडि़यों से ही चलता था ...इसलिए उन सभी लम्हों को - स्टेशनों को, खाली लोकल ट्रेनों को, मुंबई के फुटपाथों-गलियों को मेरे कैमरे ने सहेजने में मेरी बहुत मदद की ....

वैसे भी फोटो खींचने के लिए कोई बहुत ज़्यादा महंगा कैमरा खरीदने की ज़रूरत नहीं होती ...मॉस कम्यूनिकेशन पढ़ते हुए इस का ज्ञान तब हुआ जब हमारे एक प्रोफैसर ने कह दिया कि दुनिया का सब से नफ़ीस कैमरा वह होता है जो आप के हाथ में है ...बात है भी तो बिल्कुल सही ...बात तो जैसे भी उस लम्हे को कैद करने की है ....उसे आई फोन से किया जाए....तो बढ़िया है ...लेकिन अगर जेब में 600 रूपये वाला चाइनीज़ फोन ही है तो भी बढ़िया है ...यह बात हम लोगों ने अच्छे से पल्ले बांध ली। 

लिखते लिखते यह ध्यान आ रहा है कि हम लोग तो उस दौर से तालुक्क रखते हैं जब शादी की एक एल्बम बनती थी 100-150 फोटो की ...अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक ...इस में कोई किसी से नुक्ताचीनी नहीं करता था...कज़िन की शादी हुई थी 1968 में ...यहीं पांच छः बरस का रहा हूंगा...मुझे याद है शादी के बाद जब हम लोग कुछ महीने बाद वापिस ताऊ जी के यहां गए तो उस एल्बम को देखने के लिए जो तांता लगता था ...वह तांता उस के बरसों बाद चलन में आने वाली शादी की वीडियो या रामायण-महाभारत के धारावाहिक के वक्त जैसा ही जान पड़ता था...

याद आ रहा है कि उस एल्बम को हम लोग कैसे एक दुसरे के ऊपर चढ़ कर देखा करते थे ...लेकिन जब तक सभी की समझ में सभी तस्वीरें नहीं आ जाती थीं तो मज़ाल है कि उस एल्बम के पन्ने को परता जाए। यह कौन है, वह कौन है, यह क्यों इतना चुप सा है, वह देख कितना अच्छा नाच रही है, चंचल ने ढोलकी कितनी अच्छी बजाई थी, चाचा भी कैसे दारू पी कर आउट हो कर यबलियां मारने लगा था ...सब कुछ कैद होता था ...और एक मज़े की बात उन दिनों इन्हीं एल्बम से अपने अपने मतलब की कोई एक फोटो चुपके से उतार कर रख लेने का भी रिवाज़ था ..मैं किसी को क्या कहूं ...मैने ख़ुद अपनी मौसी की शादी (1971) की एल्बम से एक फोटो उड़ाने का जुगाड़ किया था ... तो ऐसा था हम लोगों का बचपन... और ऐसी थी उस दौरान खींची तस्वीरों की अहमियत। 

और हां, वापिस बंबई आते हैं, लोकल स्टेशन पर ...मैं अभी गैलरी में देख रहा था तो पिछले साल 4 अक्टूबर की भी एक तस्वीर दिख गई ...देखिए, कैसी डरा देने वाली वीरानगी बिछी हुई है स्टाल पर ....क्योंकि इसी हालात में पड़े पड़े एक साल पहले भी 6-7 महीने हो चुके थे ...इसलिए जो टाट इस के आगे लगा हुआ है...वह भी तार-तार हो चुका है...

मुंबई का एक लोकल स्टेशन...4 अक्टूबर, 2020 (एक बरस पहले) ..सभी स्टेशनों पर ऐसा ही मंज़र था...

अच्छा तो दोस्तो, बस कल लोकल स्टेशन पर खाते-पीते लोग देख कर बहुत अच्छा लगा ....मुझे अपनी खींची हुई तस्वीरों को देखते वक्त कुछ मेरे ज़माने के फिल्मी गीत भी ज़रूर याद आ जाते हैं.....लीजिए, आप भी सुनिए...और मस्त हो जाइए...

कुछ यादें यहां भी सहेज रखी हैं.....मुंबई की लोकल ट्रेन में एक सफर