सोमवार, 26 मार्च 2018

बॉम्बे रोजनामचा..

आज सुबह मेरे पास यहां लिखने के कुछ खास है नहीं...बस, अपने उस्ताद की बात याद आ गई..

दरअसल आज से १६-१७ साल पहले मैं केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा आयोजित एक नवलेखक शिविर में शामिल होने आसाम के जोरहाट में गया हुआ था ..पंद्रह दिन तक चला था यह शिविर...

उस दौरान लिखने-पढ़ने की बहुत सी बारीकियां सीखने का मौका भी मिला ... एक बहुत बडे़ लेखक ने उन दिनों हमें बताया कि उन के दादा जी पुराने ज़माने में एक कागज़ पर चीनी,घी, आटा, चावल, दाल आदि खाने-पीने वाली वस्तुओं के दाम लिखते रहते थे .. बस, सौ साल बाद वह एक विश्वसनीय दस्तावेज़ बन गया ...यह भी साहित्य ही है ...वे हमें समझाते थे कि रोज़ लिखो, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखो और जो मन में आए अपनी डॉयरी में दर्ज करते जाइए... अब यही मशविरा मैं नये लेखकों को देता हूं ...रोज़ डॉयरी में एक सफ़ा भी लिखेंगे तो साल में हो गये ३६५ सफ़े....यकीं मानिए इन में ५०-६० तो कहीं छपने लायक भी ज़रूर होंगे ...बस, रोज़ाना कुछ भी लिखना लाज़मी है ..

डायरी वायरी में तो कुछ साल सब कुछ दर्ज किया ..फिर २००७ से जो कुछ भी कहना होता है अपने आप से या दूसरों से इसी ब्लॉग में ही सहेज लेने की फ़िराक में रहता हूं...

आज की इस पोस्ट में भी आप को चंद तस्वीरों और कुछ रेट-लिस्टों के अलावा कुछ नहीं दिखने वाला .. बंबई में आज घर कितने में मिलता है, क्या रेट है, कूरियर के क्या रेट हैं, मैडीकल जांच करवाने के लिए कैसे तैयार किया जा रहा है ...इन तस्वीरों पर नज़र फेर कर आप जान पाएंगे ...जान तो क्या पाएंगे, आप सब तो सुधि पाठक हैं, पहले ही से बहुत कुछ जानते हैं, बस मेरे कैमरे में बंद कुछ तस्वीरें देख लेंगे ....और हां, कुछ तस्वीरें बोलती तो हैं ही ...

कल मैंने बांद्रा एरिया की एक चर्च के बाहर यह बात पढ़ी.....मैंने इस का मतलब समझने की बहुत कोशिश की ..लेकिन मेरी समझ में अभी तक तो यह बात आई नहीं....मुझे चर्च के बाहर इस तरह के मैसेज पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, इन में ज़िंदगी को जी लेने की कला छिपी होती है .. पता नहीं, इस गधे वाले शख्स की बात मेरे पल्ले क्यों नहीं पड़ रही ...

अगर आप को इस बात का मतलब पता हो तो कमैंट में लिखिएगा... 
आज सुबह टहलने निकले तो अपनी बिल्डिंग में हर तरफ़ बसंत ऋतु का नज़ारा देखने लायक था ...हरे भरे वृक्ष और फूलों से लदे हुए जैसे कुदरत मौसम के मिजाज का लुत्फ उठा रही हो ..


अभी बिल्डिंग से बाहर निकले ही थे तो बाहर इस तरह से पेड़ पर पहली बार कटहल लगे हुए देखा ....जर्नल-नालेज कमज़ोर ही है मेरा भी ...मैं बिल्कुल भूल गया था कि कटहल भी पेड़ पर ही उगते हैं...सोच कर हैरानी भी होती है कि जितने बड़े बड़े कटहल बाज़ार में बिकते हैं वे कैसे पेड़ पर टिके रहते होंगे ...



आगे बढ़े तो देखा कि किडनी स्टोन और प्रोस्टेट ग्लैंड की जांच का एक इश्तिहार टंगा हुआ है जगह जगह ....३५०० रूपये के टैस्ट फोकट में करने की बात पची तो नहीं .. लेकिन फिर भी एक फोटो खींच ही ली... यहां चसपा करने के लिए ...


अभी थोडा़ आगे बढ़े थे कि किसी मकान बिकाऊ का एक इश्तिहार दिख गया ... पास जा कर देखा तो यह किसी बैंक के द्वारा किया गया किसी नीलामी का नोटिस था किसी फ्लैट का .. आप भी देखिए और इसे इत्मीनान से पढ़िए...यह जानने के लिए मुंबई में पाली हिल इलाके में इन दिनों प्रापर्टी का रेट क्या चल रहा है..


आगे चलते हैं ...एक छोटे से दुकानदरा की क्रिएटिविटी कुछ ऐसी दिखी ....मैंने फोटो खींची तो वह हंसने लगा ...कहने लगा कि इस के दो फ़ायदे हैं, एक तो बैठने की जगह मिल गई और दूसरा आते जाते हुए वाहन मेरे स्टाल के दरवाजे से टकरा कर उसे बंद नहीं कर पाते अब ... सही ही कहते हैं ..Necessity is the mother of invention!



उसी स्टाल पर ही एक कूरियर कंपनी का इश्तिहार पड़ा हुआ था ...उत्सुकता हुई मुझे देखने की ...क्योंकि मैं कूरियर के मामले में अभी भी बीस साल पहले के रेटों में ही कहीं अटका पड़ा हूं...जब कभी कोई चिट्ठी कूरियर करवाने जाता हूं और वह सौ रूपये मांग लेता है तो मेरे शरीर में एक हल्का सा करंट दौड़ पड़ता है ... फिर ध्यान आता है कि अब बीस-तीस रूपये वाली बात भी तो बीस साल पुरानी हो गई है ....इसलिए इस कूरियर की रेट-लिस्ट की भी फोटो खींच ली ..ताकि भविष्य में मुझे कूरियर रेट सुन कर लगने वाले हल्के करंट का प्रभाव कुछ कम हो सके ....यकीं मानिए, इसे पढ़ कर मुझे नहीं लगता कि मुझे भविष्य में ऐसी कोई तकलीफ़ कभी होगी...



आते वक्त इस पेड़ पर जब नज़र पड़ी तो हमेशा की तरह बचपन में बडे़-बुज़ुर्गों द्वारा घुट्टी की तरह पिलाई गई बात याद आ गई कि इस तरह के पेड़ों के इन खाली "खुड्डों" में सांप छिपे होते हैं...हा हा हा हा हा .....😀😁😂....अब तो मैं दांत निकाल रहा हूं लेकिन बचपन में ऐसी बात सुन कर ही हम लोग सहम जाया करते थे..


अच्छा, आज के दिन के लिए गप्पबाजी इतनी ही काफ़ी है ... सोच तो आप भी यही रहे होंगे कि तुम टहलने गये थे या तस्वीरें खींचने....मैं अपने आप से भी यही पूछ रहा हूं ...जब कि मैं भी जानता हूं कि मेरा टहलना तो बस फोटो खींचने का एक बहाना होता है ...वरना .. टहलना!!


अब मैं वापिस अपनी किताब की तरफ़ लौट रहा हूं ...मैं आजकल इसे पढ़ रहा हूं ...यह रूपा पब्लिकेशन की किताब है ...बहुत ही बढ़िया है ..

जाते जाते सोच रहा हूं कि रामनवमी के उपलक्ष्य में आज के दिन एक भक्तिगीत लगा दूं....यह गीत मुझे बेहद पसंद है ....शायद मैंने १९७३-७४ के आसपास जब अमृतसर में दूरदर्शन आया ही था....तब इसे टीवी पर ही देखा था ...बाद में तो कईं बार देखा ..और गली-मोहल्लों में लाउड-स्पीकरों पर तो यह गीत उस दौर में अकसर बजता ही रहता था .. राम चंदर कह गये सिया से ...ऐसा कलयुग आयेगा  !! .....आयेगा क्या भईया, आ चुका है..!!


शनिवार, 24 मार्च 2018

नकली दांतों के असली किस्से

नकली दांतों की बात करता हूं तो बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं अकसर ...जब हम लोग ननिहाल में गये होते ...नाना जी खाना खाने के बाद हैंडपंप के पास पहुंचते और बच्चों में से किसी को एक इशारा ही मिल जाता कि अब नाना जी कुल्ला करेंगे ...हैंडपंप को गेड़ना है दो मिनट के लिए हमें...मुझे अभी भी याद है अच्छे से कि किस तरह से वह हर खाने के बाद कुल्ला करने से पहले नकली दांतों का पूरा सैट मुंह से निकाल कर उसे भी हैंडपंप के पानी से जल्दी से धोते और खटाक से मुंह के अंदर बिठा लेते और हमारा कौतूहल भांप कर मुस्कुराते हुए कोई उर्दू की किताब पढ़ने में मशगूल हो जाते .. वे एक उर्दू अखबार के संपादक भी थे ...

समय का चक्का आगे चला ...नकली दांतों के बारे में पढ़ने, समझने, तैयार करने और उन्हें मरीज़ के मुंह में फिट करने का प्रोफैशन मिल गया ...इस दौरान तमाम तजुर्बात हुए ..हर तरह के .... कुछ दिन पहले नकली दांतों के पांच सैट वाला एक शख्स मिला तो सोचा कि चलिए, इस पर ही कुछ कहते हैं।

जब हम लोग डैंटिस्ट्री करते हैं तो पढ़ते हुए भी हमें मरीज़ों के नकली दांतों के सैट -शायद दस मरीज़ों के -- तैयार करने होते हैं...अब, इतनी प्रैक्टिस तो उस समय होती नहीं है ...ऐसे ही जल्दबाजी में कोटा पूरा करने के चक्कर में लगे रहते थे ... सरकारी कॉलेज था, फिर को मरीज़ों को नकली दांत लगवाने के लिए शायद १००-२०० रूपये जमा तो करने ही पड़ते थे ...अस्सी के दशक में भाई यह रकम भी काफी होती थी ..

किसी को दांत फिट नहीं हुए, किसी को चुभ रहे हैं, किसी का मुंह अजीब सा हो गया है ...ये सब आम समस्याएं होती हैं नये दांतों के साथ ... एक किस्सा जो मुझे ताउम्र याद रहेगा कि हमारी एक सीनियर थी...उसने एक बुज़ुर्ग महिला का डेंचर तैयार किया ...उसे फिट नहीं आ रहा था ...बार बार आ रही थी, वैसे भी नकली दांतों का सैट लगवाने के लिए मरीज़ को पांच छः बार तो आना ही होता था, वह हमारी सीनियर जब भी उसे दूर से देखती तो उस के पसीने छूटने लगते ...उस दिन भी जैसे ही बेबे आई ...उसने कहा कि यह दांत किसी काम के नहीं हैं....लेकिन सीनियर ने अपनी दलील दी कि हो जाएंगे रवां होते होते ... इतने में बेबे ने ज़ोर से उन दांतों को वहीं कमरे में पटका और ज़ोर से कहा ...लै रख ऐन्ना नूं वी, मेरे तो किसे कम दे नहीं, मैं समझांगी १०० रूपये दी सवा तेरे सिर च पा दित्ती..." (यह ले रख ले इन दांतों को, मेरे लिए तो किसी काम के हैं नहीं, मैं तो यही समझूंगी कि मैंने तेरे सिर पर १०० रूपये की राख डाल दी.).....और बुदबुदाते हुए वह बेबे चली गईँ....

इतने सालों में हर तरह के मरीज़ के साथ पाला पड़ा और पड़ भी रहा है ...कुछ एक दम ज़िंदगी से संतुष्ट ...कुछ ऐसे जो सब कुछ होते हुए भी हर समय शिकायत की मोड में दिखे .. कुछ बिना दांतों के भी या दो चार दांतों के साथ भी एकदम खुशी से लबरेज दिखे ...जब उन्हें दांत लगवाने के लिए कहा भी गया तो उन का जवाब यही था कि क्या करने हैं, अपना काम चल रहा है, कोई दिक्कत नहीं है ...दांत नहीं हैं तो क्या है, चने तक भी मैं इन इन चंद दांतों और टूटी फूटी दांत की जड़ों से चबा लेता हूं...कुछ कहते हैं कि अब क्या करना है, कितने दिन बचे हैं ज़िदगी में ...ऐसे ही गुजर-बसर हो जायेगी, चल रहा है अपना काम...उस दिन एक बुज़ुर्ग महिला मेरे पास अकेले आई थी जिसने कहा कि बेटा कहता है अब नकली दांतों पर इतना खर्च करोगी, तुम रहने ही कितने दिन वाली हो....उस की बात सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ।

ऐसे ऐसे मरीज़ दिखे जिन के नकली दांत देखने में ही लगता था कि यार, इन में को बहुत गड़बड़ है, इन्हें बनाते समय किसी से कुछ चूक हो गई है, लेकिन नहीं, वे मज़े में दिखे, सब कुछ खा पी रहे थे उन दांतों से ... (उन्हें कभी उन दांतों की कमियां गिनाने की हिमाकत कभी नहीं की मैंने)...और कुछ ऐसे नकली दांतों वाले जिन के दांत एकदम परफैक्ट हैं, लेकिन उन्हें उन से बीसियों शिकायते हैं ... इस के पीछे दांतों की कुछ कमी तो हो सकती है लेकिन बुज़ुर्ग लोगों की कुछ अन्य समस्याएं भी होती हैं...जैसे एक उम्र के बाद मुंह में लार का बनना कम हो जाना ...आदि आदि ... लेकिन कुछ यह सब हैरतअंगेज़ तरीके से स्वीकार कर लेते हैं .. और कुछ (बहुत कम) शिकायत ही करते रहते हैं .. जब हम लोग पढ़ते थे तो ऐसे मरीज़ों को साईकिक कह देते थे जब डाक्टर हम लोग आपस में बात करते थे ...व्यक्तिगत तौर पर मुझे किसी के लिए यह शब्द कहने में गुरेज़ ही रहा है ...दांतों से कोई संतुष्ट नहीं है , बार बार आ रहा है तो हम उसे कह दें कि वह तो पगला गया है....नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होता, कुछ तो दुश्वारियां उस की भी होंगी!!

अपने आस पास भी देखा .. नानी पहनती थीं डेंचर, मेरे पापा भी पहनते थे ...लेकिन याद नहीं कभी इन्होंने ने कोई शिकायत की हो, इन दांतों के बारे में ... मेरे कहने का आशय यही है कि अगर कोई खुश है अपने नकली दांतों से या नाखुश है तो इस के पीछे बहुत से अन्य कारण होते हैं.... which are beyond the scope of this light article! But, yes, there are many such reasons like his/her mental make-up, their personal life, self-esteem, social life ...  ये सब बातें तय करती हैं कि कोई अपने नकली दांतों से ही क्या, ज़िंदगी से भी खुश है या वक्त को धक्का ही दिया जा रहा है बस!!

यह तो कोई मैडीकल पोस्ट नहीं लग रही है, किस्सागोई जैसा मामला लग रहा है ...हां, तो बहुत से किस्से ऐसे भी नज़रों में आए कि रात को बिल्ली, चूहा नकली दांत खाट के पास पडे़ हुए ले कर चला गया, नहाते समय दांत नीचे गिरे और सैट टूट गया, किसी ने चलती बस में थोड़ा मुंह बाहर निकाल कर खांसा तो डेंचर गायब.....ये सब किस्से अपने मरीज़ों को भी सुनाने पड़ते हैं उन्हें आगाह करने के लिए....

पंजाबी में एक कहावत है ...जब पैसा ज़्यादा होता है तो लड़ने लगता है ...लड़ने लगता है का मतलब कि उसे यहां-वहां-कहां भी खर्च करने की खुजली होने लगती है ... किसी ने नकली दांतों का सैट लगवाया हुआ है ..खुश है...लेकिन किसी रिश्तेदार ने जबड़े में फिक्स दांतों का सैट डेढ़-दो लाख रूपये खर्च कर लगवा लिया है ...इसलिए अब उसे भी वैसा ही पक्का काम करना है ....अपनी तरफ़ से तो समझा देते हैं ऐसे लोगों को भी ....शायद समझ भी जाते होंगे!


कुछ दिन पहले एक बुज़ुर्ग से मुलाकात हुई ... पिछले दस सालों से नकली दांतों का सैट पहन रहे हैं... दस साल पहले जो सैट लगवाया था वह जब थोडा़ घिस सा गया तो नया सैट बनवा लिया ... चंद साल पहले ... वैसे बता रहे थे कि उन नकली दांतों से शिकायत कुछ भी नहीं है अभी तक ...बस, फिर लखनऊ के किसी दूसरे इलाक में जा कर नया सैट बनवा लिया ... इतने में किसी ने कहा कि मेडीकल कालेज से बनवा लो ... उस के बारे में कहते हैं कि उन्होंने बहुत दौड़ाया लेकिन वह सैट किसी काम का नहीं है, एक दिन भी नहीं पहना ... इतने सालों से वह सैट न. २ ही पहन रहे थे कि उन्हें लगा कि नया सैट ही बनवा लिया जाए ... तो उन्होंने एक सैट और बनवा लिया ... और फिर उसमें कुछ प्राबल्म सी लगी (बताता हूं अभी उस के बारे में भी, थोड़ा सब्र रखिए जनाब) तो उसी डाक्टर से एक और सैट लगवा लिया ... लेकिन उस से भी मज़ा नहीं आया....मज़ा उन्हें नहीं आया कि किसी और को नहीं आया, अभी सुनाएंगे आप को पूरा किस्सा ...

 इन में से एक सैट इन के मुंह में था, और दो जेब में 

इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि इन बुज़ुर्ग साहब के पास कुल मिला कर नकली दांतों के पांच सैट हैं...जिन में तीन तो वे मुझे दिखाने लाये थे .. अभी पिछले कुछ महीनों में इन तीन सैटों पर बाईस हज़ार के करीब खर्च कर चुके हैं,...रिटायर सरकारी मुलाजिम हैं, उम्र ७५ के करीब. लेकिन नकली दांतों से अभी भी खुश नहीं हैं..

मुझे इन की बातचीत से लगा कि इन्हें इन सब नकली दांतों के सैट से कोई विशेष शिकायत नहीं है शायद.... लेकिन इन के बच्चों को है...शिकायत यह है कि एस सैट तो ऐसा बन गया है कि मुंह में लगाते पता ही नहीं चलता कि लगाया भी हुआ है या नहीं, और दूसरा सैट ऐसा है कि वह लगाते ही इन का ऊपर वाला होंठ थोड़ा सा ऊपर उठ जाता है, नकली दांत थोड़े बाहर की तरफ़ हैं... इन के बच्चे ऐसा मानते हैं .... मैंने पांच मिनट लगा कर यह सैट की वजह से होंठ ऊपर उठने वाली समस्या तो सुलटा दी .... खुश हो गये, लेकिन मुझे पता है कि वह समस्या अधिकतर मानसिक/काल्पनिक ही थी ...

उस दिन मैं एक ऐसे शख्स से पहली बार मिला था जिस के पास नकली दांतों के पांच सैट थे .. लेकिन वह फिर भी नाखुश था ... उस से बात करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि खुशी भी कितनी सब्जैक्टिव है, हर बंदे के अपने अपने मयार हैं खुशी को मापने-नापने के ...मुझे उस दिन वह भी याद आ रहा था कि हम लोगों ने वह भी मंज़र देखे हैं जब लोग फुटपाथ पर नकली दांतों के सैट रख कर बेचा करते थे .. जो जिसके नाप का हो, डाल कर देखे और ले जाए ...(इस का मैं चश्मदीद गवाह हूं) ...बेशक, यह एक गलत ही नहीं बेहद खतरनाक प्रैक्टिस रही है ... दांत एक दूसरे के फिट नहीं आ सकते .. और इन में रेडीमेड वाला कोई कंसेप्ट नहीं हो सकता ...और मैंने तो कईं बार देखा है लोग चश्मे भी ऐसे ही पुराने खरीद कर चढ़ा लेते हैं...जी हां, नज़र के चश्मे ...यह तो अभी भी होता देखा है मैंने कईं बार ...

यह भी एक अलग तरह की खाई है ...किसी के पास नकली दांतों के पांच पांच सैट और फिर भी पैसा लड़ रहा है ...मन मचल रहा है कि कुछ इस से भी उम्दा हो तो वही करवा लें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोग जो एक सैट के लिए तरसते हुए इस दुनिया से रूख्सत हो जाते हैं ...और कुछ को बच्चे यह कह कर टाल देते हैं कि अब तुम्हारी बची ही कितनी है,  और कितना जिओगे!!

चलिए, बहुत हो गई किस्सागोई, अब अपनी पसंद का एक गीत लगा रहा हूं, शायद यह आप की भी पसंद हो ...just check this out!


गुरुवार, 22 मार्च 2018

आज के दिन पानी की बातें ही होंगी...

सुबह अखबार देखा तो एक पूरी फेहरिस्त भी दिखी थी कि आज के दिन विश्व जल दिवस के मौके पर कौन कौन से प्रोग्राम कहां कहां होने जा रहे हैं...मैं आज के दिन के बारे में शायद भूल ही गया होगा अगर आज सुबह छोटी सी साईकिल यात्रा के दौरान मुझे खास देखा न होता...

ऐसा भी क्या खास देख लिया मैंने? -- आपने देखा होगा कि कुछ घरों के बाहर बहुत सारा पानी इक्ट्ठा हो जाता है ... पानी गंदा होता है, काई जमी होती है ...जानवर भी वहां पर पानी नहीं पीते, बिल्कुल बदबूदार, बीमारीयां परोसने वाला और मच्छरों की कॉलोनी होता है यह पानी ...आप ने ज़रूर देखे ही होंगे ऐसे मंज़र...इसे आप छप्पड़ से कंफ्यूज़ नहीं कर सकते ...

छप्पड़ क्या होते हैं...पहली बात तो यह है कि शायद यह पंजाबी का लफ़्ज है ...हिंदी में पोखर, तालाब कहते होंगे ...अकसर ये बरसाती पानी से गांव में या शहरों की खाली जगहों पर बन जाते थे ...बचपन में हम देखते थे हमारे साथी लोग उन छप्पड़ों में कूद कूद कर मज़ा किया करते थे और हम बस किनारे पर बैठ कर उन की हिम्मत की दाद दिया करते, शायद थोड़ी जलन भी होती लेकिन बस वहां किनारे पर मन ममोस कर बैठे ही आते ....उन छप्पड़ों में गाय, भैंस भी तैरने का आनंद ले रही होतीं...वे भी क्या दिन थे!

एक तो मैं बात को खींचने बड़ा लगा हूं... सीधी सी बात है कि आज सुबह मैंने देखा कि ऐसे ही एक गंदे पानी के तालाब के पास एक धोबी मैले कपड़ों की गठरियां खोलने में मशगूल था .. दोष उस का भी नहीं है, अब धोबीघाट तो पुरानी फिल्मों में ही दिखते हैं...उसने भी पूरी रिसर्च कर ही रखी होगी...वह भी अपना काम करे तो आखिर करे कहां...पापी पेट का सवाल है ...और सब से बड़ी बात जब ग्राहक को कोई शिकायत नहीं है तो आप और हम कौन होते हैं टांग अड़ाने वाले ....बस, ध्यान यही आ रहा था कि ऐसे पानी से धुले कपड़ों की साफ़-सफ़ाई का क्या म्यार होता होगा! यह एक लखनऊ की नहीं, सारे देश की समस्या होगी शायद!

मैंने अपने अनुभव और आबज़र्वेशन के आधार पर कह सकता हूं कि पर्यावरण की जितनी सेवा ऐसे लोग करते हैं जिन्हें हम कम पढ़ा लिखा, कम अवेयर कहते हैं या वे लोग जो कम साधन-संप्पन होते हैं ... वही लोग पेड़ों को काटने से गुरेज करते हैं... कम पानी में अपना निर्वाह करना जानते हैं... मजबूरी वश ही शायद, लेकिन वे लोग सीमित में भी खुश रहते हैं....पहाड़ों का ही देखिए, वहां के लोग तो प्राकृतिक संसाधनों को सहेज कर रखते हैं ...लेकिन पूंजीपति ही वहां जा कर कंकरीट के जंगल तैयार कर के पर्यावरण संतुलन में गड़बड़ कर देते हैं...

इसलिए मुझे हमेशा लगता है कि तरह तरह के दिन मनाने के नाम पर जो लोग या संस्थाएं पेज-थ्री जैसे आयोजन करती हैं ...वे सिर्फ़ पब्लिसिटी बटोरने का काम करते हैं ..अधिकतर ....(जेन्यून भी हैं बहुत से लोग) ... मुझे बड़ी चिढ़ होती है ऐसे प्रोग्रामों के नाम से ...मैं जानता हूं कुछ प्रभावशाली लोगों ने इन मौकों को नेटवर्किंग का बहाना बनाया हुआ है ...फंड्स मिलते हैं, मशहूरी होती है....रसूखदार लोगों के साथ उठना-बैठना होता है ...अखबारों में फोटो छपती हैं...बस...


लेकिन मेरा यकीन है कि सारा काम तो ज़मीन से जुड़ा हुआ आदमी ही करता है ...पेड़ अधिक लगाता है, मोह करता है उनसे, पानी का संरक्षण भी करता है ... शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में यकीन भी ज़्यादा रखता है ... एक तरह से पर्यावरण का संतुलन जितना भी बचा हुआ है उसी के भरोसे बचा हुआ है ...मुझे इस समय उस महान पर्यावरण संरक्षक सुंदर लाल बहुगुणा की याद आ रही है जो पहाड़ी क्षेत्रों में जब कोई पेड़ काटने पहुंचता था तो वह पेड़ों से चिपक जाता था कि पहले मुझे पर कुल्हाड़ी चलाओ, फिर पेड़ पर चलाना! ..अनगिनत ऐसे उदाहरण पड़े हुए हैं...

दरअसल पानी दिवस की बात होगी तो और भी बहुत सी बातें होंगी, सब कुछ आपस में गुंथा हुआ है ... पानी के बचाव की बात होगी, संरक्षण की बात भी ज़रूरी है और पानी अधिक से अधिक बरसे, इस का भी मंथन होगा...पेड़ों के संरक्षण की बातें होंगीं, नदियों को सुरक्षित रखने की चर्चा होगी, प्रदूषण कम करने की बात भी जुड़ेगी....कार्बन ईमिशन कम करने की चर्चा, पेट्रोल का कम इस्तेमाल, ए.सी आदि का कम से कम उपयोग.....सब मुद्दे इतने जुड़े से हैं कि इन के जुड़ाव का सम्मान करना और इन के बारे में सचेत रहना भी पर्यावरण की सेवा ही है ...



शहरी लोग तो शेव और ब्रुश करते समय पानी की टूटी ही बंद रखें, कार और बागीचे में अगर रिसाईक्लड पानी से काम चला लिया करें तो यह भी एक सेवा ही है ... बड़ी बड़ी बातें बड़े लोगों के बड़े बड़े वादों पर छोड़ते हैं.. कुछ पता नहीं लगता कौन जेन्यून है और कौन जुमलेबाजी में माहिर है बस ...जैसे कईं बार हम असली नकली में फ़र्क पता नहीं कर पाते ...आज सुबह मैं घर के बाहर गया तो यह फूल देखा ....मुझे लगा कि इस बहार के मौसम में कितने रंग-बिरंगे रंग रंग के फूल खिल रहे हैं... लेकिन मैंने उठाया तो मुझे तब पता चला कि यार, यह तो नकली है!


इसी बात पर यह गीत याद आ गया, इसे सुनने लगा हूं...लेख-वेख को यही छोड़ते हैं... जितना कह दिया उतना ही काफ़ी है !!...

बुधवार, 14 मार्च 2018

सोना कितना सोना है ...

आज सुबह पहली मरीज़ थी एक महिला ५० साल के करीब की उम्र की ... आध घंटे पहले अपने पति के साथ अस्पताल ही आ रही थी कि लखनऊ के ईको गार्डन के पास दो लुक्खे आए ...और उसके एक कान की सोने की बाली खींच के हवा में उड़ गये ...(ईको गार्डन यहां का एक पॉश एरिया है)...

पति ने बताया कि वह अकसर ३५-४० की स्पीड से ही स्कूटी चलाते हैं...और जो दो लुक्खे आये उन की पल्सर मोटरसाईकिल की स्पीड बहुत तेज़ थी .. उन्होंने एक झपट्टे में ही यह काम कर डाला ... पीछे से आ रहे एक मोटरसाईकिल वाले को उन्होंने कहा कि इन का पीछा करो भाई ... कुछ दूर तक उसने उन लुक्खों का पीछा तो किया ..लेकिन लुक्खे तो ठहरे लुक्खे, कहां किसी की पकड़ में आते हैं...

इस महाशय ने १०० नंबर पर फोन किया ...दारोगा अपनी कार में पहुंच गये .. और डॉयरी वॉयरी में कुछ रपट लिख ली उन्होंने ...
यह सब बातें एक सरदार जी सुन रहे थे जो भी एक मरीज़ थे ...उन्होंने अपना अनुभव शेयर किया कि जिस एरिया में वे लोग रहते हैं वहां तो मियां-बीबी सैर कर रहे होते हैं ...तो पीछे से अचानक मोटरसाईकिल सवार लुक्खे आते हैं और धक्का देकर आदमी को गिरा देते हैं और औरत के ज़ेवर नोच कर उड़ जाते हैं..

सरदार जी ने बताया कि अभी हाल का ही एक वाकया है कि एक औरत से चैन और कंगन की झपटमारी हुई ...उसके साथ उस की एक सहेली थी .. अभी वे लूट कर जा ही रहे थे और सहेली ने ज़ोर२ से शोर मचाया तो उस ने उसे कहा ...चुप कर, नकली ही थे। जैसे ही यह आवाज़ उन लुटेरे के कानों में पड़ी, वे लोग वापिस लौटे और महिला के मुंह पर कस के दो कंटाप मार गये कि नकली ज़ेवर पहन कर निकलती हो ...

बात वही है रोज़ ये जेवर लूटे जा रहे हैं...और हर शहर में ये घटनाएं हो रही हैं....अखबारें गवाह हैं ...शायद अब तो लोग ऐसी खबरें पढ़ते भी नहीं ... यह एक आम सी बात हो गई है ... और आज में सोच रहा था कि जो लोग इस तरह की लूट का शिकार औरतों से सहानुभूति दिखाते हैं वह भी काफ़ी हद तक सतही ही होती है ...कहीं न कहीं मन में सब के यही रहता है कि सारी दुनिया जानती है कि इस तरह की लूट अब बहुत आम बात हो गई है, ऐसे में हम लोग गहने-ज़ेवर पहन कर निकलते ही क्यों हैं....

बात सुनने में बड़ी अजीब सी लगती है कि लूट की घटनाएं होती हैं इसलिए औरतें ज़ेवर पहनना ही बंद कर दें ... ठीक है, अगर नहीं कर सकतीं तो ऐसी लूट के लिए तैयार भी रहें ... कानून व्यवस्था हम सब जानते हैं..कितने लुटेरे कब पकड़े जाते हैं और कितना माल उनसे बरामद होता है, यह आप और हम जानते हैं .... सरकार को Z plus security देनी है ...व्ही आई पी लोगों को भी ऐसे माहौल में सुरक्षित रखना है ...और भी बहुत से इंतजाम करने होते हैं...!!

मुझे कभी यह समझ नहीं आता कि इस तरह के हालात में लोग ज़ेवर पहनते ही क्यों हैं....बात सिर्फ़ लूट की ही नहीं है, जो लूटने निकला है ...वह पूरी तैयारी से निकला है ... और जो शिकार है वह एकदम निहत्था...वह शख्स कह रहा था कि हम तो शुक्र मनाते हैं कि हम लोग स्कूटर से गिरे नहीं ...अगर इस को (बीवी की ओर इशारा कर के कह रहा था) ब्रेन-हेमरेज हो जाता तो हम क्या कर लेते! आम आदमी कैसे अपने मन को तसल्ली दे लेता है!!

उसने बताया कि कुछ समय पहले उस की बेटी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ ..वह लड़कियों को स्कूटर चलाना सिखाती हैं और काफी साहसी है, ऐसे ही मोटरसाईकिल पर तीन लुक्खे आए, उस की सोने की चेन झपट कर दौड़ने लगे ...उसने भी अपनी स्कूटी तेज़ की और उन के पास जैसे ही पहुंची, एक ने तमंचा उस की तरफ़ कर दिया ...बस, वह अपनी जान बचाने के चक्कर में पीछे हट गई।

यह दोनों मियां बीबी मेरे पास अपने दांत उखड़वाने आए हुए थे ... दांत तो वे उखड़वा ही गये ... लेकिन बीच में एक बार झल्ला कर कहने लगा वह शख्स कि मैं तो कहता हूं कि असली सोना पहनना ही नहीं चाहिए... नकली ही पहनना चाहिए...
मैंने कहा कि पहनना ही क्यों चाहिए, और क्या गारंटी है कि नकली सोना पहनने वाले सुरक्षित रहेंगे ....जो भी इस तरह के सिरफिरे होते हैं वे पूरी तैयारी के साथ आते हैं... मैंने कहा कि हमारी तो एक अंगूठी पहनने की हिम्मत नहीं होती.... कब, कौन, कहां रोक ले क्या भरोसा....वैसे भी हम कौन सा  "शक्तिमान"  हैं...

 हां, तो इस से बचने का एक ही उपाय है कि लोग सोना पहन कर बाहर निकलना बंद कर दें ...अगर मेरी बात बुरी लगे तो अपनी सेफ्टी का इंतज़ाम भी स्वयं ही कर के निकलिए ....वरना उस शख्स की तरह उम्मीद ज़िंदा रखिए जैसे वह मुझे जाता जाता कह गया ..डाक्साब, मैंने भी उन्हें देख तो लिया है, आते जाते ध्यान रखूंगा ...और कभी तो मेरे हत्थे चढ़ ही जाएंगे....उस की इस बात से आज फिर लगा कि सच कहते हैं दुनिया आस पर टिकी है ..हम सब के अपने घरों में या बिल्कुल आसपास इक्का दुक्का किस्से हो चुके हैं, लेकिन हम हैं कि बाज़ ही नहीं आते सोना पहनने से .. अपनी जान तो जोखिम में डालते ही हैं, साथ में जाने वाले के लिए भी मानो खतरे की माला पहन कर चलते हैं... क्या ख्याल है आपका?

PS...सोने वोने से मुझे तो लगता नहीं कि कुछ होता है ...कुछ लोग पांच रूपये की मोती की माला में भी चमकते हैं और कुछ सोने लादे हुए भी ....Thank God beauty is not skin deep! Beauty is a very holistic concept...you know what I want to convey!

बर्फी फिल्म के इस गीत की तरह ही हम सब लोगों की हंसी-खुशी है ....क्या आप को ऐसा नहीं लगता? It has a very big message!!



मंगलवार, 13 मार्च 2018

दिन भर में कितना पानी पिएं और कब पिएं?


मुझे ऐसा लगता है कि यह सवाल बड़ा अहम है ...कि हमें कितना पानी पीना चाहिए और कब पीना चाहिए...इस के बारे में बिन मांगी सलाह देने वालों का तांता लगा हुआ है ... इतने लोग आप को इस सवाल का जवाब अपने अपने तरीके से देने वाले मिल जाएंगे कि सिर ही भारी हो जाए! 

मुझे याद है कि कुछ साल पहले मेरे पास एक बुज़ुर्ग आए थे ओपीडी में ...और सलाह देने लगे कि सुबह उठते ही दस पंद्रह गिलास पानी पीने चाहिए..मुझे अजीब सी बात लगी ...मैंने कहा कि इतना पानी कोई पी भी सकता है सुबह सुबह ...कहने लगे कि मैं तो पीता हूं ..इसे हाइड्रोथैरेपी कहते हैं... और मैं एक दम फिट रहता हूं...जिस बात के बारे में मुझे वैज्ञानिक तर्क नहीं मिल पाता उसे मैं एक कान से डाल कर दूसरे से निकाल दिया करता हूं...

और मजेदार बात यह होती है कि इस तरह के सलाह-मशविरे देने वाले लोगों को मैडीकल साईंस की ABC भी नहीं पता होती ...इसीलिए जब भी मुझे कोई मैसेज किसी विशेषज्ञ से मिलता है तो अकसर मैं समझ जाता हूं कि इस बात पर उस विशेषज्ञ की मोहर लगी हुई है ...

अभी बैठा हुआ था तो अपने एक पुराने ज़माने के स्कूल से दिनों से साथी डा चावला का एक वाट्सएप मैसेज आया ...जिसे मैंने यहां अपलोड किया है ... यू-ट्यूब के ज़रिये यहां लगाना चाहा तो अपलोड नहीं हुआ... मैंने ऐसे ही यू-ट्यूब पर हिंदी में यह लिख कर सर्च किया कि हमें कितना पानी पीना चाहिए और कब पीना चाहिए....बस, फिर क्या था, लाइन लग गई वीडियोज़ की .. कोई बाबा, कोई एक्सिविस्ट, कोई फलाना कोई ढिमका ... मैंने तो एक ही खोली और यू-ट्यूब बंद कर के डा चावला से मिली वीडियो पर ही फोकस करने लगा ...

मैं चाहता हूं कि आप यह जानकारी अच्छे से देखें और इस पर अमल भी करें ...


दरअसल इस तरह की पोस्टें शेयर करने के पीछे मेरा स्वार्थ भी छिपा होता है ...मैंने कहीं पढ़ा था और बहुत बार सुना भी है कि सीखने का सब से बढ़िया तरीका यह भी है कि आप पढ़ाना शुरू कर दीजिए...खैर, मैंने तो क्या पढ़ाना है, इस का मतलब आप यह ले लें कि जो बात या जो इल्म आप तक पहुंचा है आप उसे आगे बांटना शुरू कर दें ..क्योंकि जितनी बार आप उसे आगे भेजते हैं ..उतनी बार वही बात आप अपने आप से भी कह रहे होते हैं ...किसी भी बात पर अमल करने के लिए यह बड़ा ज़रूरी है ..

जब मैं यह वीडियो देख रहा था तो बीच में मैंने एक स्क्रीन-शॉट लिया जो जानकारी मुझे बड़ी सटीक लगी ...आप से भी शेयर करता हूं अभी ...

लेकिन लगता है यह स्क्रीन-शॉट ज़्यादा क्लियर नहीं है ...चलिए, पैन से लिख कर आप से शेयर करते हैं....क्योंकि यह जानकारी काफी अहम है याद रखने के लिए...आप के लिए भी और मेरे लिए भी ... 

ज़्यादा गर्मी होने पर, एक्सरसाईज़ करते वक्त पानी की डिमांड बढ़ना नेचुरल है 

बातें हम लोग जानते हैं ...शायद ज़रूरत से ज़्यादा जानते हैं लेकिन इस्तेमाल नहीं करते, कर नहीं पाते या इस्तेमाल कर पाने की तमन्ना ही नहीं होती ... इसीलिए बार बार कुछ अच्छी बातों को दोहराया जाना ज़रूरी होता है ... 

मैं भी इस हिसाब से दिन भर की ज़रूरत का लगभग आधा या उससे थोड़ा ज्‍यादा ही पानी पीता हूं ....गलत बात है ...सुधर जाना ज़रूरी है ...यह जो सुबह उठते ही दो गिलास पानी पीने वाली बात है ..यह मुझे जब याद आ जाती है तो मैं ज़रूर पी लेता हूं ...फिर एक दो महीने की छुट्टी ...हां, खाने से बाद ३०-४० मिनट बाद ही पानी पीता हूं जैसा कि इस वीडियो में बताया गया है ..लेकिन खाना खाने से ४० मिनट एक गिलास पानी पीने वाली बात को नज़रअंदाज़ करता हूं... 

शायद आप भी मेरी तरह पानी तभी पीते हैं जब प्यास लगती है लेकिन मैडीकल विशेषज्ञ यही कहते हैं कि जब आप को प्यास लगती है तो इस का मतलब है कि आप के शरीर में पानी की कमी होने लगी है (डीहाईड्रेशन) ...इसीलिए यह नौबत आने ही नहीं देनी चाहिए....

आज से आप भी पानी पीने के बारे में सचेत रहिए...मैं भी कोशिश करूंगा .. अभी लिखते लिखते ही मुझे ध्यान आया शाम के समय पानी पीने वाली बात का तो मैंने अभी एक गिलास पानी पिया ... 

और हां, बच्चों को भी छुपटन से ही ये आदतें डाल दीजिए...क्योंकि बचपन की आदतें ही आगे चल कर पक्की होती हैं....कईं लोगों से सुनता हूं कि गुनगुना पानी पीना चाहिए सर्दी में ...लेकिन वह मेरे से बिल्कुल नहीं पिया जाता ... इतना अजीब लगता है कि क्या बताएं! और बचपन से ही आदत है कि खांसी-जुकाम होने पर बस नमक वाले पानी से गरारे करने हैं, मुलैठी चूसनी है ...बेसन का सीरा पीना है ....बस, यही परफैक्ट इलाज समझता हूं आज तक ...कभी भी ऐंटीबॉयोटिक लेने की इच्छा ही नहीं हुई खांसी जुकाम के लिए ....अगर कभी शुरू भी कर दिया तो महज़ एक ही खुराक के बाद छोड़ दिया ....क्योंकि गरारे और मुलैठी से ही ठीक लगता है ....वही बात है, बहुत सी आदतें बचपन से ही पड़ जाती हैं... 

तो ठीक है, दोस्तो, आज से हम सब अपनी पानी पीने की आदतों को देखेंगे .... सुधारेंगे ...और पानी पीने के लिए प्यास लगने का इंतज़ार नहीं करेंगे ...यह बहुत ज़रूरी है .. और हां, ज़रूरत से बहुत ज़्यादा पानी पीने के क्या नुकसान हैं....वह भी आपने वीडियो में देख ही लिए...इस से गुर्दे साफ़ नहीं होते, उन पर लोड पड़ता है ...और हां, कुछ शारीरिक व्याधियां ऐसी होती हैं जिन में डाक्टर लोग स्वयं मरीज़ को कम पानी पीने के लिए कहते हैं ..विशेषकर कुछ गुर्दे की बीमारियों में ...

बस अपना ध्यान रखिए ...और इन बातों को याद रखिए .. 

एक बाबा है जो अकसर टीवी पर दिख जाता है ...उसे अचानक गुलाब जामुन दिखने लगते हैं, हलवा दिखने लगता है...खीर दिखने लगती है ..बस, मुझे भी पानी पर लिखते लिखते मोहम्मद रफी साहब का यह सुपरहिट पंजाबी गीत याद आ रहा है ...जिसे २०-२५ साल की उम्र तक शायद सैंकड़ों-हज़ारों बार आल इंडिया रेडियो जालंधर से सुन चुका हूं... 

शौचालय में बैठने का सही तरीका

मैं किसी भी काम के माहिरों की बहुत कद्र करता हूं और यह ज़रूरी भी है ... ये लोग अपनी सारी ज़िंदगी अपने काम में महारत हासिल करने में गुज़ार देते हैं...इसलिए जब भी वाट्सएप पर कोई भी पोस्ट किसी माहिर की शेयर की हुई मिलती है तो मैं उसे बड़ी संजीदगी से पढ़ता हूं और समझने की कोशिश करता हूं...

और अगर यह माहिर कोई डाक्टर हो और वह अपने पेशे से जुड़ी कोई बड़ी अहम् बात शेयर कर रहा हो तो बात ही क्या है! यकीन मानिए देखने में आप को वह बात बिल्कुल छोटी लगेगी लेकिन उस का हमारी सेहत पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है ...
चुटकुले, मज़ाक, व्यंग्य, सरकारों की नुक्ताचीनी, ट्रोल ....इन सब से अलग कुछ समय संजीदा किस्म की बातें भी पढ़ने समझने में बिताना ठीक होता है ...

मैंने अभी अभी वाट्सएप पर देखा कि हमारे अपने डीएवी स्कूल के ग्रुप में हमारे एक प्रिय साथी डा चावला ने एक पोस्ट शेयर की है ...यह एक अनुभवी सर्जन हैं...और जब मैंने उसे देखा तो यही सोचा कि इतनी अहम बात तो आगे भी ज़्यादा से ज्‍यादा लोगों के साथ शेयर करनी चाहिए... ये माहिर लोग दिन भर पेट की तकलीफ़ों से जूझ रहे परेशान लोगों को देखते हैं...वही मस्से, कब्ज, भगंदर, नासूर, फिस्चुला ....इसलिए अगर एक सर्जन की तरफ़ से ऐसी हिदायत आई है कि जैसे हम लोग पहले नीचे बैठ कर शौच किया करते थे वही तरीका बिल्कुल सही था ....तो यह बात मानने में ही हमारी भलाई है ..

इस वीडियो को मैं यहां एम्बैड भी कर रहा हूं .... आप देखिए कि किस तरह से इंगलिश टॉयलेट पर बैठने से हमारी आंतड़ियों की सफाई में रूकावट पैदा होती है ... और फिर हम तरह तरह की तकलीफ़ों से रूबरु होने लगते हैं....

और हां, इंगलिश टॉयलेट ही है अगर घर में या किसी कारणवश आप नीचे बैठ ही नहीं पाते हैं तो आप अपने पैरों के नीचे एक स्टूल रख सकते हैं जैसा कि इस वीडियो में दिखाया गया है ...



मैं तो इसे आज से ही लागू करने का मन बना लिया है ....आप देखिए, एक तो हमारा बैठने का तरीका सही नहीं, ऊपर से हाथ से मोबाईल या बुरी खब़रों से ठूंसा हुई अखबार ....फिर हम कहते हैं कि पेट अच्छे से साफ़ नहीं होता ... आप खुद ही समझदार हैं....अपनी सेहत से जुड़े फ़ैसले आपने खुद ही करने होते हैं...

मुझे ध्यान आ रहा है कि मैंने भी कुछ महीने पहले एक पोस्ट लिखी थी टॉयलेट में साफ़-सफ़ाई के बारे में ...उस का लिंक भी यहां लगा रहा हूं, देखिएगा....

 धोना या पोंछना --हिंदोस्तानी ठीक ठाक कर लेते हैं (इस पर क्लिक कर के इसे पढ़ सकते हैं) 

जाते जाते ध्यान आ रहा है कि बहुत से मैडिकल विशेषज्ञ तो कुछ बोलते ही नहीं सोशल मीडिया पर ....और जो कुछ कहते हैं कम से कम उन की बातों को ही हम पकड़ लिया करें....शुक्रिया डा चावला ...आप की इस वीडियो से बहुत लोगों को फ़ायदा होगा...

लिखते लिखते पैडमैन फिल्म का ध्यान आ रहा है ....अभी तक देखी नहीं वह फिल्म तो देखिए...


मंगलवार, 6 मार्च 2018

एक कंपनी के आटे में प्लास्टिक वाली वीडियो फेक है ...

फैंकना, फैंकू.....आज कल वैसे भी इन शब्दों से बच कर ही रहना चाहिेए...लोग कहने लगते हैं कि फलाना-ढिमका फैंकूं हूं... लेकिन यहां एक फेक वीडियो ...मतलब यहां पर लोगों को गुमराह करने वाली वीडियो की बात हो रही है ...

आप ने भी देखा ही होगा कि कुछ चैनल वालों ने तो इस तरह के प्रोग्राम ही बना दिए हैं जिन में वे सोशल मीडिया पर वॉयरल हो चुके वीडियो के सच को जांचते हैं...और फिर उसे फेक न्यूज़ का ठप्पा लगा देते हैं...

न्यूज़-चैनल के लिए इस तरह का काम कर पाना मुमकिन होता है ...लेकिन मेरे जैसे ब्लॉगर के लिए यह कहां पॉसिबल हो पाता है कि सोशल मीडिया पर आने वाली खबरों को जांचते-परखते रहें ...दिन भर के अपने दूसरे कामों के साथ यह नहीं हो पाता .. वैसे भी जो लोग इस तरह की न्यूज़-वीडियो शेयर करते हैं उन की भी कुछ तो जिम्मेवारी है ...और जो इन्हें सच मान लेते हैं वह भी कहां बेकसूर हैं ...हर स्तर पर अपनी अपनी जिम्मेवारी है ... लेकिन आप ने कितनी बार देखा है कि कोई विशेषज्ञ जिसे  उस विषय का ज्ञान होता है, वह ऐसी किसी झूठी बात का खंडन करता हो ...

लोगों के पास समय ही कहां है, और वैसे भी लोग बात करना ही कहां चाहते हैं....सोच रहा हूं मैं भी इस पचड़े में पड़ना छोड़ दूं.. क्या करना, सब अपना अपना सच खुद टटोला करें... और नहीं तो गूगल चचा से ही पूछ लिया करें....लेकिन देख रहा हूं गूगल के सुझाए हुए वेबलिंक्स में से भी किस पर यकीं करना है किस पर नहीं, यह भी एक सीखने वाली बात है ..जो हर किसी को उस की शैक्षिक एवं बौद्धिक स्तर के अनुसार ही पता चल पाएगी...

अपनी बात कह के छुट्टी करूं.. हां, तो अभी एक वाट्सएप ग्रुप पर एक वीडियो दिखा कि एक मशहूर कंपनी के आटे में प्लास्टिक मिला है ... वीडियो देख कर डर तो लगा ..लेकिन यकीं तब भी नहीं हुआ... कारण? ..एक तो यह कि वह कंपनी बहुत बड़ी कंपनी है ...गुणवत्ता तो देखते ही होंगे ......इसे यह सोच कर बिल्कुल भी मत देखिए कि मैं किसी बड़ी कंपनी की हिमायत कर रहा हूं....यह काम मैंने किसी के लिए भी नहीं किया.... मैडीकल फील्ड में जब यह होने लगता है तो यह बहुत गलत बात है...सच को वैसे भी किसी सहारे की ज़रूरत नहीं होती और झूठ के पांव ही नहीं होते ....

वैसे भी हम कभी एमरजैंसी में ही बाज़ार से इस तरह के पैकेटों में मिलने वाला आटा ही खरीदते हैं ... बड़ा अजीब सा कारण है ... हमें बाज़ार से मिलने वाले आटे की रोटी मैदे की रोटी जैसी लगती है ..जिसे हम अकसर खाते नहीं हैं....आटाचक्की से मोटा पिसा हुआ आटा ही खा पाते हैं... खैर, अपनी अपनी आदते हैं और अपना अपना यकीन है ...

हां, तो मैं एक बड़ी कंपनी के आटे में प्लास्टिक दिखाने वाली वीडियो की बात कर रहा था ...वैसे उसे देखते ही मुझे १५-१६ साल पहले शिशुओं को दिए जाने वाली पावडर दूध जो चीन से आ रहा था, उस में प्लास्टिक की बात याद आ गई ...जिस की वजह से कईं छोटे शिशुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी ... और बहुत से बच्चों के तो गुर्दे खराब हो गये थे ...

इसलिए यह जो वीडियो सोशल मीडिया पर मिली थी ..प्लास्टिक वाले आटे के बारे में ... इस का सच जांचने के लिए गूगल की मदद ली तो पता चला कि यह फेक वीडियो है ... इस के बारे में आप इस लिंक पर क्लिक कर के खुद भी पढ़ सकते हैं ... देख लीजिए...


अच्छा तो मैंने आप को इसे पढ़ने के काम में लगा दिया है ....और मैं तब तक एक गीत सुन लूं ..लंबे अरसे के बाद आज टीवी पर इसे देखा ....आप भी देखिएगा... 

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

मेडीकल पोस्ट शेयर करने से पहले ...

सुबह से शाम हो जाती है ...वाट्सएप पर हर तरह का ज्ञान हम तक पहुंचता रहता है ...सच झूठ का कुछ पता नहीं चलता, दंगे- फसाद शुरू हो जाते हैं इन के चक्कर में .. इसी तरह से लोगों में नफ़रत फैलाने का एजेंडा लिए हुए भी लोग कुछ न कुछ पोस्ट करते रहते हैं...और कुछ का तो सारा दिन काम ही यही होता है...

मेरा तो सीधा सादा फंडा है कि जिस बात की विश्वसनीयता में मुझे संदेह लगता है ...उसे आगे कभी भी शेयर नहीं करता ..तरह तरह के इलाज के विज्ञापन, दवाईयों के विज्ञान, चमत्कारी इलाज ...पता नहीं क्या क्या दिखता रहता है ...

किसी भी बात को अगर हम आगे शेयर करते हैं तो उस पर एक तरह से हमारी स्वीकृति का भी ठप्पा लग जाता है ....
मेरे पास तो रोज़ाना ऐसी बहुत सी पोस्टें आती हैं....लेकिन मैं आगे शेयर करना तो दूर, इसे भिजवाने वाले को इस की विश्वसनीयता जांचने का जिम्मा भी सौंप देता हूं..


आज भी अभी शाम में एक जिम्मेवार चिकित्सा कर्मी से एक वीडियो मिला कि दिल्ली के किसी अस्पताल के एक डाक्टर ने आप्रेशन से किसी की आंतड़ियों से नूडल्स निकाले हैं ..लिखा था कि ये हमारे शरीर में पचते नहीं हैं... इसलिए ये आंतड़ी में फंस गये ...

बात कुछ पच नहीं रही थी ...मैंने  उस वीडियो को डाक्टर्ज़ साथियों के ग्रुप में शेयर किया ... वहां भी आज दोपहर में थोड़ा सा माहौल गर्माया हुआ है ...होता है, कभी कभी हर ग्रुप में होता है ... मैंने एक्सपर्ट्स से रिक्वेस्ट करी कि वे बताएं कि क्या यह सच हो सकता है ... उसे ग्रुप पर शेयर किए हुए एक घंटा हो चुका है ...और एक्सपर्ट से एक जवाब मिला है ...कि यह नूडल्स तो नहीं लग रहे, ऐसा लग रहा है कि ये आंतडियों में इक्ट्ठा हो चुके कीड़ों का गुच्छा है ....यह विचार अनुभवी रेडियोलॉजिस्ट के हैं ...ज़ाहिर सी बात है उन का इस तरह के पेट के अंदरूनी मसलों के बारे में काफ़ी अनुभव होता है ..

बात यहां यह नहीं है कि नूडल्स खराब होते हैं या ठीक ... ये हम सब जानते हैं कि नूडल्स एक तरह का जंक -फूड तो है ही और दूसरे जंक-फूड की तरह इस के प्रभाव भी वैसे ही होते हैं ..लेकिन इस तरह की वीडियो सोशल मीडिया पर ठेल कर यह बताना कि नूडल्स वैसे के वैसे आंतडी़ तक पहुंच गये ...यह बात असंभव लगती है ....नूडल्सज़ ने मुंह से आंतड़ी तक का रास्ता तय भी कर लिया और उस के आकार पर कुछ असर ही नहीं पड़ा ... पेट का एसिड (ग्रेसटिक एसिड) भी उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाया !!

वही एजेंडे वाली बात है ...क्या पता किसी अस्पताल की मशहूरी के लिए, या किसी चिकित्सक को प्रमोट करने के लिए या नूडल्स कंपनी से कोई पुराना हिसाब चुकता करने के लिए इस तरह की वीडियो वॉयरल कर दी होगी ... you see anything is possible now-a-days.

पारंपरिक मीडिया इस तरफ़ इतना ध्यान नहीं देता ...वह भी क्या करे, उसे अपनी TRP की चिंता है ...उऩ में से कुछ ने अपने सेठ के एजेंडे को भी देखना है ....इस तरह की खबरों की खबर लेने की उन्हें कहां फुर्सत है....

लेकिन इस तरह के वीडियो लोगों में बिना वजह डर फैलाते हैं ... अफवाहों को बढ़ावा देते हैं ....बेकार में यह सब देखने में लोग अपना समय नष्ट करते हैं...और क्या!

बात वही है कि ज्ञान की निरंतर वर्षा हो रही है ....लेकिन ज्यादातर मामलों में सच-झूठ का कुछ पता नहीं चलता...बस बेकार में हम हर बात के एक्सपर्ट बने फिरते हैं... चाहे हम लोग उस बात की एबीसी भी न जानते हों ...

ध्यान से रहिए.....पढ़े-लिखे होने का मतलब यह भी है कि हर ज्ञान की विज्ञान की कसौटी पर परखें ....और फिर ही उस को आगे शेयर करने के बारे में विचार करें...

चलिए, इस बात पर यहीं पर ही मिट्टी डालते हैं....बात करते हैं...पैडमैन की ....एक बेहतरीन फिल्म ....मैंने तो देख ली दो तीन दिन पहले ...आप ने देखी कि नहीं....अगर नहीं देखी तो इस वीकएंड पर देख आईए...it has a strong message!

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

गुरबत, अनपढ़ता, बेबसी, दबंगई ...दोषी कौन?

यह जो यूपी के उन्नाव में एक बात सामने आई है कि एक झोलाछाप डाकदर लोगों को एक ही सूईं से टीके लगाता रहा..जिस की वजह से २५ लोगों को एचआईव्ही संक्रमण हो गया ... मीडिया को तो टीआरपी भी देखनी है .. अभी एक पत्रकार किसी पीड़ित से पूछ रहा था कि क्या आप को पहले से पता था कि वह एक ही सूईं से टीके लगाता है ... बेवकूफ़ी से भरा सवाल तो है ही ....उस पीड़ित ने यही कहा कि पहले से पता होता तो हम लोग जाते ही क्यों वहां...

वैसे वह झोलाछाप इन लोगों का इलाज १० रूपये में करता था ... एक टीका तो लगाता ही था और साथ में दो तीन खुराक दवाई देता था...सुबह रेडियो में भी यह खबर आ रही थी कि इतने लोग इस से संक्रमित हो गये हैं और इन को इलाज के लिए फलां फलां जगह रेफर कर दिया गया है ... ठीक है, इलाज के लिए रेफर कर दिया है और इन की बेहतरी भी इसी में ही है कि वे  लोग समय पर दवाईयां आदि जो भी इन्हें दी जाएं...इन के खून की जांच के बाद ...लेते रहें ...लेकिन क्या इस से ये दुरुस्त हो जाएंगे! बीमारी के आगे बढ़ने की रफ्तार कम हो जाएगी..बस, बाकी इंफेक्शन तो रहेगा ही!

मुझे यह समझ नही आ रही थी इस तरह की घटनाओं में हम लोग दोष किस के सिर पर मढ़ें....गुरबत, अनपढ़ता, बेबसी, दबंगई .... गुरबत, अनपढ़ता, बेबसी तो पीड़ितों की हम जानते ही हैं ...लेकिन उस झोलाछाप की दबंगई की बात करें तो वह भी मुझे देखने में कहीं से भी दबंग नज़र नहीं आया....लेकिन दोष तो है कि जिस इलाज का आप को इल्म ही नहीं है उसी में जा घुसे ...और इतनी भयंकर बीमारियां परोस दी उन लोगों को ...अभी तो उस एरिया के २०० लोगों का ही टेस्ट हुआ है ... बाकी का तो अभी होना है ...

इस तरह की घटनाएं यहां वहां और सारे देश से यदा कदा आती रहती हैं....मीडिया के लिए ये वाकया होते हैं..हम लोगों के लिए भी शायद यही कुछ ... सुनते हैं, भूल जाते हैं... लेकिन जिस तन लागे, वह तन जाने! अभी मुझे ध्यान आ रहा है कि पंजाब के एक जिले में कुछ साल पहले एक झोलाछाप नपा गया क्योंकि उस ने एेसे ही दूषित सूईं से दर्जनों लोगों को हैपेटाइटिस बी की बीमारी दे डाली थी ...

कहने का मतलब है कि जो घटनाएं मीडिया में पहुंचती हैं....उस के अलावा भी सैंकड़ों-हज़ारों ऐसी घटनाएं होती होंगी और ज़रूर होती हैं...जिन तक मीडिया पहुंच ही नहीं पाता....बहुत से कारण है कि बहुत सी घटनाओं को तो दबा ही दिया जाता है ... 
देश में हर तरफ़ झोलाछाप डाक्टर, झोलाछाप फुटपाथिया डेंटिस्ट, चलते फिरते ट्रंकी वाले कान के स्पैशलिस्ट और हर मेले पर स्टॉल सजाए हुए आप को टैटू गुदवाने वाले मिल जायेंगे... और ये सब लोग भी कमा-खा ही रहे हैं ...क्योंकि लोग इन से इलाज करवा ही रहे हैं... 

यह जो मैंने गुरबत और बेबसी वाली बात की है ....अब तो यह भी लगने लगा है कि ऐसा नहीं है कि गरीब लोग ही इन के शिकार बनते हैं या अनपढ़ लोग ही इन की बातों में आ जाते हैं....ठीक ठाक पढ़े लिखे लोग भी इन के पास जाते हैं... इन से टैटू भी गुदवाते हैं.... टीके भी लगवाते हैं.... भगंदर, फिश्चूला तक के टीके ये झोलाछाप लगा देते हैं ....कौन जानता है ये लोग रोज़ाना कितने सैंकड़े लोगों को एचआई व्ही, हेपेटाइटिस बी, सी तथा अन्य तरह के संक्रमण जिन के बारे में शायद अभी हम लोग जानते ही न हों, वे सब फैला रहे हों....कोई नहीं जानता, कोई आंकड़े नहीं है, बस ढुल-मुल रवैया है हर बंदे का ....अगर सख्ती बरती जाए तो ये झोलाछाप कहीं नज़र ही न आएं...लेकिन शायद यह कहना जितना आसान है उतना इस तरह की व्यवस्था को लागू करना इतना आसान भी नहीं है ...

अभी कुछ दिन पहले लखनऊ के एक खानदानी मर्दाना ताकत का व्यापार करने वाले एक हकीम के यहां छापा मार कर बिना लाईसेंस की दवाईयां आदि जब्त तो की हैं.....एक बात तो है ही सरकार काफी कुछ कर रही है, जागरूकता के लिए जनसंचार माध्यमों से संदेश प्रसारित करती है ... और भी बहुत कुछ ....कुछ तो जिम्मा जनता को भी तो लेना पडे़गा...हर बार वही अनपढ़ता वाली बात कह कर पल्ला नहीं छुड़ा सकते ....

स्कूटर पर बैठ कर दांतों का इलाज करवाया जा रहा है ..लखनऊ कैंट  की तस्वीर है यह 
गरीब-गुरबे ही क्यों .... अच्छे पढ़े-लिखे दिखने वाले भी इन झोलाछापों के चक्कर में आ ही जाते हैं...परसों मैंने यहां लखनऊ में पहली बार देखा कि एक युवक अपने स्कूटर पर बैठ कर एक चलते-फिरते झोलाछाप दांतों के स्पेशलिस्ट से कुछ दांत साफ़ करवा रहा था ...इस के बारे में मैं एक पोस्ट लिखूंगा अलग से ... मुझे दुख हुआ यह देख कर कि न तो यह काम करने वाले को ही और न ही करवाने वाले को ही पता है कि जो इलाज चल रहा है उस का और जो औजार इस्तेमाल हो रहे हैं इन से कितनी भयंकर बीमारियां फैलने का रिस्क है ... 

बड़ी विषम समस्याएं हैं हम लोगों की ... जागरूक करते रहते हैं ... सरकारी मीडिया भी अपना काम करता ही रहता है ...लेकिन फिर भी अगर लखनऊ जैसी जगह में यह मंजर दिखा या लखनऊ के ही साथ लगते उन्नाव में यह एचआईव्ही वाली घटना हुई ....ऐसे में जो दूर-दराज के एरिया हैं वहां पर क्या हो रहा होगा, उस की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते शायद.... 

जनमानस को जागरूक करने की और झोलाछापों पर शिकंजा कसने की बहुत ज़रूरत है ... 

बस, एक प्रार्थना ही कर लेते हैं सब के लिए ....

शनिवार, 13 जनवरी 2018

टमाटर के बिना ही बन रही है टमाटर सॉस

अकसर अगर हम नामी गिरामी कंपनियों के अलावा टमाटर सॉस की बात करते हैं तो हमारा इंप्रेशन यही होता है कि चालू कंपनियां सडे़-गले टमाटर इस्तेमाल करती होंगी और इन को तैयार करते वक्त स्वच्छता के मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता होगा....यही सोचते हैं न हम?

साभार : हिन्दुस्तान १३.१.१८ (इसे अच्छे से पढ़ने के लिए इस इमेज पर क्लिक कर सकते हैं) 
मेरी भी यही सोच थी आज तक ...लेकिन आज का अखबार देख कर इतनी हैरानगी हुई ...गुस्सा भी आया कि किस तरह से जन मानस की सेहत के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है कि टमाटर सॉस बनाते वक्त टमाटर इस्तेमाल ही नहीं किए जा रहे कुछ जगहों पर ..

कल कुछ इधर लखनऊ के पास छापेमारी में पता चला कि उस जगह पर बन रहे सॉस में किसी सब्जी का इस्तेमाल होने के बजाए स्टार्च, रंग और एमएसजी (मोनो सोडियम ग्लूटामेट) व अन्य सामग्री का इस्तेमाल हो रहा था और ये सब चीज़ें वहां से बहुत ही ज्यादा मात्रा में बरामद हुईं....ये सब चीज़ें सेहत के लिए बेहद नुकसानदायक हैं... आप पढिए इस न्यूज-स्टोरी को जिस को मैंने यहां एम्बेड किया है ...

सोचने वाली बात यह है कि क्या यही एक जगह होगी कि यहां यह सब गोरखधंधा हो रहा था ...ऐसा कैसे हो सकता है! स्वास्थ्य विभाग की जिस टीम ने यह छापा मारा वह बधाई की पात्र है ...चाहे है तो यह एक tip of the iceberg वाली बात ही ..लेकिन इतनी भयंकर मिलावट सामने तो आई...अब लोगों का भी तो कुछ रोल है कि वे चालू किस्म की ऐसी चीज़ों से थोडा़ बच के रहें...

लोगों से यह उम्मीद करना कि वे बच कर रहें ...कुछ ज़्यादा नहीं लगता?...कैसे बचे आम जन ? अच्छी कंपनी की जो सॉस १२० रूपये में बिकती है ....ये चालू कंपनियां सॉस के नाम पर इस तरह का मिलावटी सामान २० रूपये में बेचती हैं...ज़्यादातर लोग देश में रोड-साइड ठेलों, खोमचों, ढाबों, चालू किस्म के रेस्टरां में ही खाते हैं....और क्या आप को लगता है कि वे अच्छी कंपनी के प्रोडक्ट्स इस्तेमाल करते होंगे....आलम तो यह है यहां लखनऊ के कुछ बेहद नामचीन और प्रसिद्ध रेस्टरां से भी कुछ अरसा पहले चालू किस्म की सॉस बरामद हुई थी ....

और आंकड़े भी देखने-ढूंढने चाहिए कि कितने लोगों को अभी तक इस तरह के मिलावटी सामान तैयार करने या इस्तेमाल करने के ज़ुर्म में कैद हुई ...कितनों को जुर्माना हुआ...

मुझे तो यही लगता है कि जागरूकता ही एक उम्मीद बची है ....इन मिलावटखोरों का कोई क्या उखाड़ लेगा, कब उखाडेगा ....यह हम सब जानते हैं...कानूनी प्रक्रिया बड़ी जटिल है ... शायद अगर हम लोग खुली हुई सॉस बाज़ार में इस्तेमाल करना और खरीदना ही बंद कर दें तो कुछ हो जाए....शायद....फिर भी शायद वाली बात ही तो है.... देश में इतनी गरीबी, लाचारी, भुखमरी, बेबसी, शोषण है ...कि लोग कूड़ेदान बीनते दिख जाते हैं कि कुछ मिले तो सही .......ऐसे में सॉस कहां से आई ...कैसे बनी, इसे कौन देखेगा! धिक्कार है उन सब व्यापारियों पर जो इन धंधों में संलिप्त हैं...

मेरा काम है घंटी बजाना, वह मैंने बजा दी है .....सचेत रहिए, बचे रहिए और अपने से कम मुकद्दरवालों को भी थोड़ा बचाते रहिए...

सोमवार, 8 जनवरी 2018

और उस नन्हें बालक की सांसे थम गईं...

वाटसएप पर दो दिन पहले एक संदेश आया कि सारा संसार तो नफ़रत की आग में धधक रहा है, पता नहीं फिर यह कमबखत ठिठुरती सर्दी कहां से आई? मैं भी सहमत हूं इस बात से ...जिस तरह से हम लोगों ने आपस में तरह तरह की दीवारें खड़ कर रखी हैं, हम लोगों को हमारे ही अहम् (ईगो) ने बीमार कर रखा है... हम बिना बात के ही ऐंठे रहते हैं...दूसरे को नीचा और अपने को श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में हलकान हुए फिरते हैं...किसी को आंखों से हिकारत से देखते हैं, किसी को बातों से चोटिल करते हैं..किसी पर अपनी कलम की ताकत से वार करने से नहीं चूकते...यही सब करते हैं हम लोग....बात वही है जो हम लोगों को बार बार समझाई जाती है कि अंदर गई हुई सांस बाहर आई है तो ठीक है ...नहीं तो इस मिट्टी के पुतले की क्या बिसात! 

दो तीन दिन पहले मैं ट्रेन से लखनऊ से सैकेंड ए.सी में दिल्ली जा रहा था...शुरू से ही पास के एक केबिन से एक छोटे शिशु के रोने की थोडे़ थोडे़ समय बाद आवाज़ आ रही थी लेकिन अकसर छोटे बच्चे तो ये सब करते ही हैं ..किसी ने इतना नोटिस नहीं किया। 

रात में कुछ शोर शराबा हुआ ...एक महिला की आवाज़ आ रही थी कि मुझे तो मेरा बच्चा चाहिए बस...मुझे तो मेरा बच्चा चाहिए बस....अब बच्चे की आवाज़ तो नहीं आ रही थी लेकिन उस महिला के रुंदन-क्रंदन की छटपटाहट सुनाई दे रही थी ..और वह किसी को कह रही थी तुम्हारी लापरवाही की बदौलत यह सब हुआ ...

दरअसल हुआ यह जो मेरे भी कानों में पड़ा कि उस बच्चे को कोई सांस की तकलीफ़ थी ...लखनऊ के किसी अस्पताल द्वारा उसे दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में रेफर किया गया था...बच्चे को ऑक्सीजन लगी हुई थी ...और साथ में एक ऑक्सीजन का एक्स्ट्रा सिलेंडर भी एक या दो स्टॉफ के साथ रखवाया था...परिवार की बदकिस्मती यह रही कि सिलेंडर की चाबी स्टॉफ लाना भूल गया...जो मैंने अपने सहयात्रियों से सुना...अब जैसे ही पहला सिलेंडर खत्म हुआ और नया सिलेंडर खोलने की बात आई तो यह भूल सामने आई....सिलेंडर खोलने के लिए कुछ न कुछ जुगाड़ किया जाने लगा लेकिन ऑक्सीजन का सिलेंडर इस तरह का होता है कि उसे खोलने के लिए कोई जुगाड़ नहीं, बस उस की चाबी ही काम करती है...मां तो बार बार कहती रही कि आप लोग ऐसे कैसे यहां से वहां इलाज के लिए भेज देते हो अगर बच्चे की हालत ठीक नहीं थी तो ...वह कोई बात नही, एक दुःखियारी मां के दिल से निकल रहे उद्गार  थे.. 

बच्चा की जब सांसे उखड़ने लगीं और वह छटपटाने लगा तो बदहवास मां ने चेन खींच दी इस उम्मीद के साथ कि जहां भी गाड़ी रुकेगी ..वहां ही किसी पास के अस्पताल में बच्चे का इलाज करवा लेंगे...लोग कह तो रहे थे कि अभी मुरादाबाद २०-२५ मिनट में आ जायेगा...लेकिन बदकिस्मती देखिए कि चेन खींचने के बाद गाड़ी एक ब्रिज पर जा रूकी.... उन लोगों का नीचे उतरना तो दूर .. गाड़ी भी वहां काफ़ी समय रूकी रही ...क्योंकि लोग बता रहे थे कि एक बार चेन खींची जाने के बाद गार्ड को उस डिब्बे तक आकर कुछ लीवर ठीक करना होता है...तभी गाड़ी आगे चलती है ...बहरहाल जैसे तैसे कुछ समय के बाद कुछ रेलकर्मी आए...चेन को ठीक ठाक किया होगा ...और तब गाड़ी चल पड़ी... 

थोड़ी देर में मुरादाबाद आ तो गया लेकिन शायद तब तक देर हो चुकी थी ... किसी के मुंह से इतना तो कहते सुना कि अगरबत्ती जलवा दो....पता नहीं किसने यह कहा लेकिन कोई आला दर्जे का बेवकूफ़ ही होगा ...वे बच्चे का इलाज करवाने जा रहे थे ना कि ....

थोड़े समय के बाद आवाज़े आनी बिल्कुल बंद हो गईं... रो रो कर वह मां भी थक हार के सो गई होगी...धुंध के कारण ट्रेन लेट थी दो तीन घंटे ..दिल्ली पर कोई व्यक्ति उन्हें रिसीव करने आया हुआ था ... शायद वह शिशु की दादी रही होगी जिसने शाल में उसे लपेटा हुआ था ...और मां नींद से उठने के बाद फिर रोने लगी ..उस का शोकग्रस्त पति रोते हुए उसे भी संभालने की कोशिश कर रहा था...प्लेटफार्म पर उन सब को जाते देख कर मन बहुत दुःखी हुआ... बेहद अफसोस हुआ... ईश्वर उस शिशु की आत्मा को शांति प्रदान करे .. जो खिलने से पहले सी टहनी से टूट गया....

एक पुरातन कहावत है ...जाको राखे साईंयां...लेकिन  इस के विपरीत इस शिशु के साथ तो सब कुछ इस के उलट हुआ जैसे होनी अटल होती है ...यही बात हो गई...

बात यही नहीं कि बच्चा कितना सीरियस था ....अगर दूसरा सिलेंडर खुल भी जाता तो शायद दिल्ली तक चिकित्सकों के पास तब भी पहुंच पाता या नहीं....बात यह भी नहीं है ...यह दुनिया ही आस पर टिकी हुई है...लेकिन आम पब्लिक की नज़र में और रिश्तेदारों की नज़र में इस कोताही की वजह से ही बच्चा चल बसा....कोई कितनी भी लीपापोती कर ले, लेकिन जो दिखता है वही सच माना जाता है ... क्या पता बच्चे की सांसे चलती रहतीं!

मुझे दो तीन दिन से यही ध्यान आ रहा है कि गोरखपुर में आक्सीजन की कमी की वजह से कितने दर्जन बच्चों ने अपनी जान गंवा दी....और भी यहां वहां इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं...और यहां तक कि गलती से ऑक्सीजन के खाली सिलेंडर भी मरीज को चढाए जाने के हादसे हो चुके हैं ....और हर हादसा एक सीख दे कर जाता है ...जैसा कि यह चाबी उपलब्ध न  होने वाला कांड़ सारी चिकित्सा व्यवस्था को एक बड़ा सबक दे गया...काश, हम लोग हर भूल से मिलने वाले सबक को गांठ बांध लिया करें...

पता नहीं मैं कितना ठीक हूं या नहीं लेकिन मेरे विचार में इस तरह की कुछ रिसर्च होनी चाहिए कि ऑक्सीजन वाले सिलेंडर को खोलने के लिए चाबी की ज़रूरत ही न हो... होना चाहिए कुछ ऐसा ज़रूर ...शायद लोगों ने कुछ कोशिश तो की होगी ...ऑक्सीजन की कम-ज़्यादा करने के लिए तो व्यवस्था होती ही है ...लेकिन खोलने का कुछ आसान तरीका होना चाहिए...अकसर देखने में आता है यह चाबी उस सिलेंडर के साथ ही टंगी होती है ....लेकिन फिर भी चाबी के इधर-उधर होने की या यात्रा के दौरान इस तरह की भूल होने की गुंजाइश तो रहती ही है ... हमें हर हादसा एक सबक देता है....

दुआ है कि सांसे सब की चलती रहें ....कुछ महीने पहले मेरा बेटा बाली के समुद्र में स्कूबा डाईविंग - गहरी डाईविंग की ट्रेनिंग ले कर आया तो मैं उस की समुद्र में नीचे जा कर तैरने की बातें सुन कर रोमांचित हो रहा था तो उसने मुझे एक ही बात कही कि बापू, उस ट्रेनिंग के दौरान एक बात तो सीख ली कि ज़िंदगी में बेकार की बातों की टेंशन-वेंशन में अपनी खुशखवार ज़िंदगी को बर्बाद नहीं करना चाहिए....और उसने मुझे समझाया कि बस एक बात है ....जब तक बाहर गई हुई सांस वापिस अंदर आ रही है ना समझो सब कुछ ठीक है ......मैंने उसे उस दिन अपना गुरू मान लिया और उस की यह बात पल्ले बांध ली... 


शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

धोना या पोंछना ? - हिंदोस्तानी ठीक ठाक कर लेते हैं...

स्वच्छता अभियान...टायलेट एक प्रेम कथा फिल्म ही बन गई... दरवाज़ा बंद करो अभियान...हर घर में टायलेट बनाएं...पिछले तीन साल से ऐसे बहुत से अभियान चल रहे हैं..अच्छी बात है ..



बड़ा अहम् मुद्दा है जिस तरफ़ लोगों का ध्यान अब जा रहा है...पहले कहां लोग ध्यान करते थे कि स्कूलों में टॉयलेट की सुविधा है भी कि नहीं! विषय तो काफ़ी बडा़ है यह कि हिंदोस्तानी टाइप की नीचे बैठ कर हल्का होने वाले टायलेट ठीक हैं या वेस्टर्न तरह के टायलेट (वेस्टर्न कमोड- WC)

लेकिन हल्का हो जाने के बाद अपनी पर्सनल साफ़-सफ़ाई की बात अकसर कम होती दिखी है ... आज के पेपर में ऐसी एक खबर दिखी तो सोचा कि इस के बारे में थोडा़ ब्लॉग पर लिखा जाए..

आज से १५ साल पहले की बात है ...मैं ४-५ साल के बेटे की पीटीए मीटिंग के लिए गया हुआ था .. एक बच्चे की मां टीचर को कह रही थीं कि उस के बेटे को टॉयलेट में जेट इस्तेमाल करने की आदत है ...इसलिए स्कूल में उसे कईं बार बड़ी परेशानी होती है ...

मुझे उस दिन बड़ी हैरानी हुई थी..कि कैसे कैसे मुद्दे पीटीए मीटिंग में उठ जाते हैं..

मुझे याद नहीं है कि मैंने कहां पढ़ा था कि ये जो जेट हैं इन से भी एनल-फिशर जैसी तकलीफ़ें होने का अंदेशा बना रहता है ...
अब तो कईं तरह के इंतजाम हो गये हैं... जेट भी, शॉवर जैसा उपकरण भी ....और रेल में लोटे की सुविधा अभी भी है ...
एक वाकया याद आ गया ...एक रेलयात्री ने शिकायत भेजी मंत्रालय को कि रेल के टायलेट में रखे लोटे को जिस जंजीर से बांधा गया है वह छोटी होती है जिस से दिक्कत हो जाती है। रेलमंत्रालय से जवाब आया कि लोटा बंधा हुआ है, आप तो नहीं!!

एक किस्सा और याद आ गया ...एक ऐतिहासिक चिट्ठी है .. जिस के बाद रेलों ने डिब्बों में टॉयलेट बनाने शुरू कर दिये थे...आप भी पढ़िए उस चिट्ठी को ...


(इस लिंक पर क्लिक कर के आज की टाइम्स ऑफ इंडिया की यह रिपोर्ट भी ज़रूर देखिए) 

हां, तो इस रिपोर्ट की शुरूआत में ही बताया गया था कि टॉयलेट पेपर से हम अपनी सफ़ाई ठीक से नहीं कर पाते जिस से कुछ सेहत की समस्याएं हो सकती हैं....मैं इस से पूर्णतया सहमत हूं...

हिंदोस्तानियों ने तो हमेशा धोने में ही विश्वास रखा है जब कि जापान, इटली और ग्रीस जैसे देशों में लोग अाम तौर पर बिडेट्स (bidets) इस्तेमाल करते हैं... ब्रिटेन, यूएसए और आस्ट्रेलिया में लोग अाम तौर पर टॉयलेट पेपर से ही काम चला लेते हैं....

यह सब मेरा ज्ञान नहीं है ...मैं तो भई हिंदोस्तान की सरहद के आगे कभी नहीं गया...ऐसे में मुझे इन देशों के तौर-तरीकों के बारे में कुछ पता नहीं है...बस जो टाइम्स आफ इंडिया में लिखा है वही लिख रहा हूं....

डाक्टरों ने अब सचेत करना शुरू कर दिया है कि टॉयलेट पेपर से केवल पोंछ देने से पूरी तरह से आप साफ़ नहीं कर पाते हो और टॉयलेट पेपर के ज़्यादा इस्तेमाल से मतलब कि जोर-जोर से घिसने के कारण एनल-फिशल (Anal fissure)  और मूत्र-नली के संक्रमण (यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन-UTI) जैसी दिक्कतें आ सकती हैं....सही कह रहे हैं डाक्टर लोग ! 
डाक्टर सही कहते हैं कि टॉयलेट पेपर मल को मूव कर देता है रिमूव नहीं करता .. मतलब उसे इधर उधर सरका देता है बस... Toilet paper moves s***, but it doesn't remove it. 

इस के अलावा चंद बातें आप ऊपर दिये गये टाइम्स ऑफ इंडिया के लिंक पर जा कर पढ़ ही लेंगे ...

मुझे तो टॉयलेट पेपर से यह याद आ गया कि दो तीन साल पहले की बात है ...मीडिया में खूब उछला था यह किस्सा...एक बहुत बड़े रेल अधिकारी की बीवी ने एक जूनियर अधिकारी को बंगले पर टॉयलेट पेपर भिजवाने को कहना ...उसने मना कर दिया....फिर क्या था, उस का शायद तबादला-वादला हो गया था ....मीडिया को तो ऐसी खबरों की भूख रहती ही है....मुझे याद है मीडिया में यह ब्यान दे कर रेलवे के उस आला अधिकारी ने अपनी जान छुड़ाई कि हम लोग टॉयलेट पेपर इस्तेमाल करते ही नहीं....

हां, अपना अनाड़ीपन भी ज़ाहिर कर ही दूं...टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर दिखी तो मुझे उत्सुकता हुई कि यह Bidet क्या होता है, यह भी पता कर ही लिया जाए....मुझे ऐसे लग रहा था कि यह भी कोई हाई-टैक शॉवर, जेट-वेट ही होगा ..लेकिन यह तो कुछ ज़्यादा ही हाई-फाई गैजेट सा लगा ...मैंने Wikihow पर सर्च किया तो जो रिजल्ट आया उस का लिंक यहां लगा रहा हूं आप भी देख लीजिएगा....क्या पता कभी काम ही आ जाए!

बिडेट (Bidet) किस चिड़िया का नाम है और इस का इस्तेमाल कैसे करें (इस लिंक पर आप क्लिक करें इसे पढ़ने के लिए)  जो मैं समझ पाया हूं वह यह है कि वेस्टर्न कमोड के साथ ही एक और उपकरण जिस पर बैठ कर स्वयं ही (Automatic) साफ़-सफ़ाई हो जाती है ... एक बटन पर ड्राई लिखा हुआ था, मैं हंसी यह सोच कर रोक न पाया कि यह तो कपड़े धोने वाली ऑटोमैटिक मशीन से भी आधुनिक मशीन है!! हर जगह पर रहने वाले लोगों के अपने तौर-तरीके हैं...कोई मज़ाक नहीं है किसी का, न ही किसी की खिल्ली उड़ाना मंशा ही है!







रविवार, 29 अक्तूबर 2017

झोलाछाप का इलाज कौन करे!

 ये जितने भी झोलाछाप तीरमार खां हैं न ये लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.. लोग सस्ते के चक्कर में या किसी और बात के कारण इन के चक्कर में आ ही जाते हैं... आज से लगभग ३० साल पहले की बात है ...मैंने कईं बार दिल्ली के नार्थ ब्लॉक या साउथ ब्लॉक बिल्डिंग के बाहर ऐसे झोलाछाप दांत के मजदूरों को प्रैक्टिस करते देखा...उन दिनों मुझे यही लगता था कि अगर ये लोग दिल्ली के ऐसे पते पर अपना धंधा जमा कर बैठे हुए हैं तो गांव-खेड़ों की तो बात ही कोई क्या करे...

तरह तरह की तस्वीरें हमें सोशल मीडिया पर दिखती रहती हैं... अपने ही शहरों में हम लोग अकसर देखते हैं कि ऐसे प्रैक्टिस करने वाले अपनी दुकानें सजा कर बैठे हुए होते हैं...
 
ऐसी तस्वीरें मुझे बहुत दुःखी करती हैं

आज भी मुझे ये तस्वीरें मिली हैं ....आप देखिए किस तरह से बच्चे के दांतों का उपचार किया जा रहा है ...मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ...

इलाज शब्द तो इस्तेमाल ही नहीं करना चाहिए इस तरह के काम-धंधे के लिए ...क्योंकि मरीज़ या उस के मां-बाप को लगता होगा कि यह इलाज है ..लेकिन वे इस बात से नावाकिफ़ हैं कि इस तरह से इलाज के नाम पर कोई भी झोलाछाप कितनी भयंकर बीमारियां फैला सकता है ...जैसे हैपेटाइटिस बी (खतरनाक पीलिया), हैपेटाइटिस सी (हैपेटाइटिस बी जैसा ही खतरनाक पीलिया), एचआईव्ही संक्रमण... और भी पता नहीं क्या क्या.....औज़ार इन के खराब ..दूषित होते हैं...शरीर विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं... कोई वास्ता नहीं और मरीज़ को क्या तकलीफ़ है पहले से ...बस, अपने पचास सौ रूपये पक्के करने के लिए ये झोलाछाप कुछ भी कर गुज़रने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं... 

अफसोसजनक...कि आज भी लोग सड़क पर ऐसे इलाज करवा रहे हैं

कितनी बार तो हम लोग लिखते रहते हैं कि इस तरह के झोलाछाप डाक्टरों से बच कर रहिए...फिर भी लोग इन का शिकार हो ही जाते हैं... क्या करें... 

मैं कईं बार सोचता हूं कि इस तरह के झोलाछाप अगर कहीं भी पनप रहे हैं तो किसी न किसी की लापरवाही से ही तो यह हो रहा है .. किसी की तो जिम्मेवारी होगी कि इस तरह से पब्लिक को नुकसान पहुंचाने वाले लोग अपनी दुकानें न चला पाएं...कभी कभी किसी शहर से कईं सालों के बाद कुछ कार्यवाही की खबरें आती हैं...बस, फिर आगे कुछ नहीं... मुझे कईं बार यह भी लगता है कि अधिकारियों को भी शायद यही लगता होगा कि क्या करें इनका, हमारे बच्चे, हमारे परिवार या हम तो इन के पास नहीं जाते ...अगर कमजोर तबका जाता भी है इन के पास तो क्या करें, अनपढ़ जनता है ...लेकिन ऐसा नहीं है, अनपढ़ पब्लिक के हुकूक की हिफाज़त करना भी हुकुमत की एक अहम् जिम्मेवारी होती है ... 

कुछ दिन पहले मुझे यह वाट्सएप पर वीडियो दिखी .. 



पेड़ों की रेडियोफ्रिक्वेंसी टैगिंग की नौबत आन पहुंची है ..

पीछे कुछ तरह तरह के पशुओं की रेडियोफ्रिक्वैंसी टैगिंग की बातें हो रही थीं...अभी पंजाब का एक नेता भी कुछ ऐसा ही कह रहा था ....मैंने कुछ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि इस तरह की कुछ खबरों में तो ज़्यादा राजनीति होती है ...

लेकिन आज जैसे ही अखबार उठाया तो पहले ही पन्ने पर एक खबर दिख गई ....शिमला में हाई-कोर्टों के आदेश पर अब वहां के पेड़ों की RFIT  Radio-frequency Identification Tagging .. होगी ... सरकारी जगहों पर लगे पेड़ों की टैगिंग का खर्च सरकार को उठाने को कहा गया है और प्राईव्हेट जगहों पर इस खर्च का वहन इस जगह के मालिक द्वारा किया जायेगा..

जब मैंने खबर पूरी पढ़ी तो मुझे इतनी हैरानी हुई कि किस तरह से लालची-शातिर लोग पेड़ों की जड़ों में पहले तो तेजाब डाल कर उन्हें सुखा देते हैं..फिर पेड़ जब सूख जाता है ..तो अपने आप गिर जाता है या फिर कानून को तोड़-मरोड़ कर उसे वहां से निकलवा दिया जाता है ....और यह सब सिर्फ़ लकड़ी हासिल करने के लिए ही नहीं हो रहा, इस में भू-माफिया का पूरा हाथ है ....ताकि पेड़ों को हटाकर वहां पर कंकरीट के जंगलों का निर्माण किया जा सके...

मुझे इस देश के तीसरे और चौथे खंभे ...न्यायपालिका एवं पत्रकारिता पर भी बहुत भरोसा है... पत्रकारिता देश में अपना सामाजिक दायित्व निभा रही है और न्यायपालिका के कहने ही क्या....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर देश में न्यायपालिका ढीली होती तो क्या हाल होता...

पेड़ों की हिफ़ाज़त के मामले में भी अब हाईकोर्ट को इस तरह के सख्त आदेश देने पड़ रहे हैं...


पेड़ों की बात करें तो अच्छे हम सब को लगते हैं...लेकिन हम इन का खडा़ करने और इन की देखभाल के लिए कुछ ज़्यादा करना नहीं चाहते हैं...जहां मैं इस समय बैठा हूं, मेरे कमरे से बाहर का यह नज़ारा दिख रहा है ....ठंडी छाया ... और घर के सभी कमरों से ऐसा ही नज़ारा नज़र आ रहा है ..

मुझे पेड़ों से बहुत लगाव है ....शायद हज़ारों तस्वीरें पेड़ों की मैंने अपने मोबाइलों से ले डाली हैं ... मुझे हर नये पेड़ से मिलना किसी नये शख्स के मुखातिब होने जैसा लगता है ....मुझे यह रोमांचित करता है ...



पेड़ों की जान अगर तरह तरह के धार्मिक विश्वासों की वजह से भी बच जाती है तो भी मुझे अच्छा लगता है ... लेकिन लोग पता नहीं पेड़ की जड़ों के आसपास इस तरह से सीमेंट क्यों पैक कर देते हैं...उन्हें भी फैलने का मौका दीजिए... बहुत बार इस तरह के पेड़ों दिख जाते हैं जिन का दम घुटता दिखता है ...

अब तो रेडियो-टैगिंग की बात हो रही है ...बचपन में लगभग ४० साल पहले की बात है ... हमारी कॉलोनी में पेड़ों पर नंबर लिख कर गये थे ..उस का क्या हुआ, क्या नहीं, कुछ ध्य़ान नहीं....लेकिन पेड़ों को बचाने के लिए तो जितने भी प्रयास किये जाएं कम हैं... फैलने दीजिए, उन्हें भी जैसा उन का मन चाहे, वे आप की जान नहीं लेंगे ..निश्चिंत रहिए..



मुझे ऐसे लोगों से बेहद नफ़रत है...घिन्न आती है मुझे ऐसे लोगों से जो अपने स्वार्थ के लिए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चला देते हैं..

डाक्टरों की बोलचाल का लहज़ा ..

मुझे बहुत बार ध्यान आता है कि डाक्टरों की बोलचाल में कुछ तो सुधार की ज़रूरत होती ही है ....विरले डाक्टर ही दिखते हैं जो एक कुशल चिकित्सक के साथ साथ कम्यूनिकेशन में भी बहुत अच्छे होते हैं...

मरीज़ को दरअसल दोनों ही चीज़ों से सरोकार है...डाक्टर की काबलियत से भी और उस की बोलचाल से भी ...
क्यों हम कह देते हैं कि पुराने ज़माने में नीम-हकीम वैध या आजकल के झोलाछाप आसानी से मरीज़ के मन में घुस जाते हैं...लेकिन यह भी गलत है ..क्योंकि यह भी धोखाधड़ी ही है एक तरह से ..आप को अपने काम का ज्ञान तो है नहीं, बस चिकनी चुपड़ी बातों से आप अपना उल्लू सीधा करना जानते हैं...

और दूसरी तरफ़ बड़े से बड़े स्पैशलिस्ट देखे हैं...अपने अपने फन के माहिर ..लेकिन कुछ तो कम्यूनिकेशन में फेल...यह भी क्या अंदाज़ हुआ कि मरीज़ से साथ इतना धीमे बोलो और आंख से आंख मिलाओ ही नहीं...ऐसे में मरीज़ क्या सोचता है या क्या विश्वास लेकर जाता है....यह भी सोचने वाली बात है ...

कहीं न कहीं बेलेंस की कमी तो है ही ...निःसंदेह ...कईं बार हम लोग ज़्यादा पढ़-लिख लेने के बाद ...शायद संवाद में उतने अच्छे रहते नहीं हैं....यह शायद मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ...लेकिन जो है, वह मैं लिख रहा हूं...दोस्तो, बात यह है कि डाक्टर और मरीज़ के संवाद में थोड़े तो पागलपन की ज़रूरत होती ही है ... मामूली सा, बिल्कुल हल्का सा झूठ भी (मरीज़ के हित में अगर हो तो) अगर मरीज़ के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान भी ले आए तो क्या हर्ज़ ही क्या है, हम कौन सा सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के वंशज हैं।

डाक्टर का रूतबा समाज में बहुत बड़ा है ...मारपिटाई की छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें ...आप यह देखिए कि न तो मरीज़ के लिए डाक्टर का धर्म और जाति किसी मतलब का होता है और न ही डाक्टर को अपने मरीज़ की जाति-धर्म से कोई सरोकार होता है ...

मैं कुछ दिन पहले सोच रहा था कि मरीज़ अपने डाक्टर के चेहरे को ऐसे ताकता है जैसे फांसी वाला कैदी जज के सामने खड़ा हो...और उस के चेहरे के हाव-भाव भी पढ़ लेने की कोशिश कर रहा हो ...

इस टॉपिक पर तो मेरी लिखने की इच्छा थी बहुत दिनों से लेकिन मैं ठीक से अपने विचार लिख नहीं पा रहा हूं..जो मैं कहना चाह रहा हूं उस का एक अंश ही इबारत की शक्ल ले पा रहा है ...

मुझे ध्यान आया एक दिन कि कोर्ट-कचहरी के मामलों में तो तारीख पे तारीख और अपील पर अपील वाली ऑप्शन भी होती है ..लेकिन यहां तक एक अनुभवी डाक्टर के जज से भी कितना बड़ा होता है ...उसने आप को जांच कर के एक बार जो कह दिया वह लगभग आप पक्का फैसला ही समझ लीजिए....कहीं भी अपील कीजिए...कुछ भी कीजिए... कुछ होता-वोता नहीं..बस मन की तसल्ली ....Just wishful thinking and failure to accept things!

 कल मुझे ध्यान यह भी आ रहा था कि धार्मिक स्थानों से भी कहीं ज़्यादा ये जो अस्पताल हैं...(ईश्वर सब को तंदरूस्त रखे) ... ये लोगों को अच्छा बनने के लिए प्रेरित करते हैं...वहां किसी की धर्म-जाति का कोई झंझट नहीं होता, कोई और टकराव की बात नहीं, बस अपने अपने मरीज़ की सलामती की दुआएँ और आजू-बाजू के मरीज़ के लिए भी दुआओं का सिलसिला ...
वैसे तो ये सब बातें लिखने वाली नहीं है...अनुभव करने वाली हैं...

डाक्टर लोग सच में बहुत महान हैं जो इतनी भयंकर निगेटिविटी के बावजूद भी काम करते हैं...इसलिए मुझे लगता है कि डाक्टर की अपनी सेहत और उस का मूड बिल्कुल टनाटन होना चाहिए......क्योंकि जो लोग उस के पास आ रहे हैं वे बिल्कुल मुरझाए हुए हैं....उन को थोड़ा सी हल्ला-शेरी देनी तो बनती है कि नहीं, यह तभी संभव है अगर डाक्टर स्वयं चुस्त-दुरूस्त और खुश है...

हम किसी की नेचर बदल तो नहीं सकते लेकिन फिर भी किसी के फायदे के लिए अगर थोड़ी बहुत एक्टिंग भी करनी पड़े तो बुराई क्या है .. अगर इतना करने से ही किसी बदहाल मरीज़ या उसके तीमारदारों के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान भी आती हो तो ऐसा करने में बुराई क्या है....बस, कुछ डाक्टर लोग किसी गलतफ़हमी में अपने आप को सच में खुदा ही न समझने लगें...(मरीज़ ऐसा सोचते हैं...यह उन का बड़प्पन है) ....

असलियत सब जानते हैं...कुछ बीमारियां ऐसी हैं जिन का कुछ भी न करो तो भी वे कुछ अरसे के बाद ठीक हो जाने वाली होती हैं...कुछ ऐसी होती हैं कि जब तक मरीज़ अपनी दिनचर्या या जीवनशैली नहीं बदलेगी ..वे ठीक नहीं हो सकती ...और कुछ ऐसी हैं जिन का कुछ भी कर लो....कुछ नहीं होने वाला ....अब यह ़डाक्टर के ऊपर है कि वह मरीज़ की बेहतरी के लिए उस का मन कैसे बहलाए रखे ...ताकि उस के स्वास्थ्य लाभ की प्रक्रिया को तेज़ी मिले...

बार बार मरीज़ से उस की उम्र पूछ कर उसे कहीं यह तो याद दिलाना चाहते तो कि अब इतना तो तू जी ही चुका है ....कुछ को कहते सुना कि माई, तेरे घुटनों की ग्रीस हो गई है खत्म, तेरी नाड़ीयां हो गई हैं तंग......क्या आप को लगता है कि जो लोग डाक्टरों के पास जा रहे हैं वे ये सब नहीं जानते .......सब जानते हैं, लेेकिन वहां वह यह सब सुनते नहीं जाते ...वहां वे उम्मीद की घुट्टी लेने जाते हैं...विश्वास में भी बहुत ताकत है ...

छोड़ो यार, मैं भी यह क्या लिखने लग गया.....बस, अपने अनुभवों के आधार पर यही लिख रहा हूं कि डाक्टरों को अपना संवाद सुधारने के लिए हमेशा--हमेशा..और हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए....कोई भी परफेक्ट नहीं होता..हमेशा मरीज़ से बातचीत के ढंग को कल से आज बेहतर करने की गुंजाईश बनी रहेगी....एक एक शब्द सोच समझ कर बोलना होता है ...विशेषकर जो मरीज़ की बीमारी और इलाज के बारे में होता है ...क्योंकि मरीज़ उन्हीं शब्दों को अपने साथ लेकर जाता है ...और महीनों डाक्टर के एक एक लफ्ज़ के मायने समझने की कोशिश करता रहता है ...

और अकसर मरीज़ डाक्टर के दो चार सहानुभूति वाले या कर्कश या सख्त शब्द अपने साथ ले जाता है और दवा-दारू के साथ साथ उन्हें भी दिन में कईं बार खाता-चबाता रहता है ...आप देखिए, कितनी पावर है डाक्टरों के अल्फ़ाज़ में! ये सब तजुर्बे की बातें हैं ...डाक्टर के तौर पर भी, मरीज़ और तीमारदार के रोल में भी ..!

I wish doctors become more sensitive about their communication skills! वैसे ज़िंदगी भी एक पहेली है ...इसे कौन समझा है!!





गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता...


हिंदोस्तानी सिनेमा में देशवासियों की संवेदनाओं को जगाने का बहुत बड़ा काम अंजाम दिया है .... अभी भी लोग लगे ही हुए हैं.. आज भी मैंने जब बंबई के एक उपनगरीय स्टेशन पर इस तरह से बूट पालिश होते देखे तो मुझे दीवार फिल्म का वह सीन याद आ गया....जो हम लोगों के ज़ेहन में एकदम फिट हो चुका है ...कि मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता ..

अपने अपने विचार हैं...अपना ही नज़रिया होता है ... वैसे तो लोगों का धंधा है .. लेकिन मैं तो जिसे भी इस तरह से बूट पालिश करवाते देखता हूं ...तो मेरे मन में तुरंत दीवार फिल्म कौंध पड़ती है ...और मैं मन ही मन उस बंदे को कह देता हूं कि अमां, यह क्या, दस रूपये खर्च कर के ...आप तो अपनी औकात ही भूल गये!


बूट पालिश करने वाले को लगता हो या नहीं....विभिन्न कारणों के रहते ...लेकिन मुझे तो यह भी मानवीय अधिकारों का हनन जान पड़ता है .. मुझे इस से कुछ मतलब नहीं कि बूट पालिश करने वाला या करवाने वाला किस जाति का है ... मैं इन सब बातों में बिल्कुल ध्यान नहीं देता ... यह मेरा विषय नहीं है..मुझे तो बस इस बात से आपत्ति है कि जिस अंदाज़ में बूट पालिश करवाने वाला बडी़ ठसक के साथ अपना जूता उस पालिश वाले की पेटी पर टिकाता है ....और हां, अगर सामने बैठा बंदा भी कोई दीवार फिल्म के बाल कलाकार जैसा हो तो अलग बात है! 

समाज में कुछ कुछ तौर तरीके बस ऐसे ही चलते रहते हैं...लेकिन फिर भी ... थोड़ा सा ध्यान रखिएगा...अगली बार...अकसर मोची के पास एक स्टूल रखा होता है ...अगर ऐसा कोई आप्शन है तो उस पर बैठ कर इत्मीनान से चमकवा लीजिए जूतों को..

मैंने भी शायद कभी कईं साल पहले एक बार इस तरह से शूज़ पालिश करवाए थे ....मुझे तो इतना बुरा लगा था ...बुरा क्या, अपने आप पर भी शर्म सी आई थी....कहने की बात नहीं है, कोई बड़प्पन वड़प्पन भी नहीं, बस ऐसे ही शेयर कर रहा हूं कि हम लोग तो वह हैं....मेरे बेटे भी ...जब किसी दुकान पर जूता लेने जाते हैं...और अगर नया जूता पहन कर ही बाहर आना है तो पुराने जूते को सेल्समेन को बिल्कुल भी हाथ नहीं लगाने देते .... स्वयं उसे थैली में डालते हैं... और उठाते हैं....मुझे यह देख कर अच्छा लगता है ....

Respect people's dignity!