शनिवार, 13 मई 2017

कहानी ....कलेजे का टुकड़ा

छोटा सा शहर .. वापी ...वहां पर पटेल के घर में आज पार्टी चल रही है ..उस की बीवी विमला बेन का जन्मदिन है आज ..कौन सा?...शायद ५२ वां या ५३ वां...डी जे की मस्ती में सब डूबे हुए हैं.. विमला बेन भी धीरे धीरे झूम रही हैं ..बेटी अनंता और बेटे राहुल का हाथ थामे हुए...

लेकिन आज से कुछ महीने पहले इस घर में वातावरण ऐसा खुशगवार नहीं था..क्योंकि पिछले लगभग सात-आठ सालों से विमला की तबीयत ढीली सी रहती थी..भूख न लगना, कुछ भी न पचना, हर समय थकावट, चक्कर आते रहना, पेट में दर्द रहना ...हर समय लेटे रहना..चलने फिरने में दिक्कत ...

जैसा अकसर होता है ... आस पास के नीम हकीम, डाक्टर और देशी नुस्खे वाले जब फेल होते दिखे तो झाड़-फूंक वालों की शऱण में जाना पड़ा...लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता दिखा...विमला बेन की हालत बहुत खराब हो चली थी...

तभी शहर के सरकारी अस्पताल में डा मोदी नाम का कोई सामान्य चिकित्सक आया ..जब विमला बेन को उसने देखा तो कुछ टैस्ट करवाने के लिए कहा ...पेट का अल्ट्रासाउंड भी करवाने को कहा ..

सारी रिपोर्टें लेकर डा पटेल के पास गये दोनों मियां-बीवी ..

"इन के लिवर में कुछ गड़बड़ है, इसीलिए यह इतना बीमार रहती हैं.."

"लिवर में गड़बडड मतलब?"

"इन के लिवर में सिरोसिस नाम की बीमारी हो चुकी है .."

"यह क्या होता है, डाक्साब.."

"इस बीमारी में लिवर में गांठे बन जाती हैं...लिवर के काम में रुकावट आने लगती है ...बिना किसी लक्षणों के भी यह बीमारी कईं बार अंदर ही अंदर बढ़ती रहती है ...और फिर लिवर की हालत इतनी खराब हो जाती है कि वह काम ही करना बंद कर देता है..वह बड़ी चिंताजनक स्थिति होती है .."

"डाक्टर साहब, मेरी बीवी का लिवर कैसी हालत में है?"....एक दिन अकेले में पटेल ने अकेले जा कर डाक्टर से पूछ ही लिया..
"देखो, पटेल, लिवर की हालत तो ठीक नहीं है, लेकिन आज कल इस के इलाज मे बहुत अच्छा काम हो रहा है, बंबई के एक अस्पताल में कुछ विशेषज्ञ आजकल लिवर प्रत्यारोपण द्वारा मरीज़ों को जीवनदान देने के लिए सुर्खियों में हैं..."

"यह क्या होता है , इस में कितना खर्च आ जाता है ...क्या यह विमला के केस में हो सकेगा?"

"देखो, पटेल, इस आप्रेशन में होता यह है कि कोई नज़दीकी रिश्तेदार अपने जिगर का एक टुकड़ा दान देता है ..जिसे मरीज़ के शरीर में लगा दिया जाता है ..इसे ही प्रत्यारोपण कहते हैं...ट्रांसप्लांटेशन। बाकी की जानकारी कि क्या यह आप की पत्नी के केस में हो पायेगा या नहीं या कितना खर्च लगेगा...यह सब तो आपको मुंबई जाने पर ही पता चलेगा.."
पटेल ने घर आकर सलाह की .. रिश्तेदारों से भी बात चीत हुई .. बच्चों से भी ...तीसरे दिन वे लोग मुंबई के लिए रवाना हो गये... वहां अस्पताल में विशेषज्ञों से मिले ...पता चला कि दान कौन दे सकता है ..और इस सारे इलाज पर पंद्रह बीस लाख का खर्च तो आ ही जाएगा...

पैसे की पटेल को कोई परवाह नहीं थी...खानदानी ज़मीन जायदाद थी, उसने मन बना लिया कि पैसे का क्या है, बीवी ठीक होना चाहिए...अभी बीवी की उम्र पचास के थोड़ा ही ऊपर हुई थी...

डोनर की बात आई ....डाक्टरों के साथ सारी चर्चा करने के बाद ...डाक्टरों ने यही बताया कि पटेल के बेटे के लिवर के टुकड़े को उस की मां में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है.. 

यह सुन कर तो जैसे सारे परिवार के पैरों तलों से ज़मीन ही निकल गई ....अभी चंद रोज़ पहले ही तो वह अट्ठराह वर्ष का हुआ है और अब इतना जोखिम वाला आप्रेशन करने की बात हो रही है ...डाक्टरों ने बड़ा अच्छे से उन्हें समझा तो दिया कि केवल राहुल के लिवर का एक बिल्कुल छोटा सा हिस्सा ही निकाला जाएगा ..और उस की अच्छी सेहत और उम्र को देखते हुए कुछ ही महीनों में उस का लिवर लगभग पहले जैसा ही बन जायेगा ..कोई दिक्कत नहीं होगी उसे..

फिर भी बात लिवर दान देने वाले पर आकर थम सी गई ... मां तो तैयार ही नहीं थी ..वह बार बार कहतीं कि मेरी जान के लिए यह अपनी जान क्यों जोखिम में डालेगा..

अनंता ने भी भाई को समझाना चाहा..अनंता भाई से १० साल बडी है, शादी शुदा है ...लेकिन भाई ने एक बात कह कर ही बहन को चुप करा दिया...दीदी, तुम जानती हो ना कि मां के ना रहने का क्या मतलब होगा! 

राहुल की और उस की मां की सभी जांचे हुईं....बहुत दिनों तक तो जांचें ही चलती रहीं.. इन दिनों सारे परिवार को यही देख कर डर लगता कि कईं मरीज़ों के लिए घर के लिए छः डोनर तक अनफिट करार दिये जाते ....सब को यही चिंता थी कि अगर राहुल को भी अपनी मां को अंगदान देने के लिए उपयुक्त न पाया गया तो क्या होगा...क्योंकि पिछले कुछ दिनो ंसे बिमला की तबीयत बहुत ही ज़्यादा बिगड़ चुकी थी...एक तरह से डाक्टरों ने जवाब ही दे दिया था ...अगर कोई डोनर मिल जाए तो उम्मीद है ...वरना तो ईश्वर ने जितनी सांसे दी हैं, बस..

और एक दिन विशेषज्ञों ने घोषणा कर दी कि राहुल अपनी मां को अंगदान कर सकता है ...घर के सारे परिवार में मिश्रित सा ही माहौल था .. विमला के भली चंगी हो जाने की उम्मीद की खुशी और राहुल को किसी संभावित खतरे की आशंका...सारे परिवार की जान कुछ दिनों तक अटकी रही ...आप्रेशन वाले दिन भी परिवारीजनों की हालत वैसी ही थी ...डाक्टर लोग सब भांप लेते हैं..

"आप चिंता मत करिए, हमें राहुल के केस में एक प्रतिशत का भी कोई रिस्क लगेगा तो हम यह प्रक्रिया वहीं रोक देंगे" -- डाक्टर टिक्कू ने जब यह कहा तो मां, बहन और पिता की जान में जान आई। 

आप्रेशन सफल हो गया ..दोनों का ... बाद में भी कोई दिक्कत नहीं हुई ...राहुल की तो ७ दिन के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई ..लेकिन मां को २५ दिन तक वहां रुकना पड़ा.. बाद में एक महीने बाद वे सब लोग खुशी खुशी घर आ गए... 

कुछ दिनो ंबाद राहुल अपनी पढ़ाई में जुट गया ...मां की ऐसी सेहत के चलते उस का एक साल पहले ही खराब हो चुका था ...अब वह और भी मन लगा कर अपनी मैडीकल प्रवेश परीक्षा में जुट गया .. अभी चंद रोज़ पहले ही उस का रिजल्ट आया है ..उस का दाखिला अहमदाबाद के एक मैडीकल कालेज में हो गया है ...उसने भी एक ट्रांसप्लांट सर्जन बनने की ठान ली है ... जब से उसने देखा है कि किस तरह से बिल्कुल हताश-निराश मरीज़ को जीवनदान दे देते हैं ये डाक्टर लोग ..जैसे ईश्वर के स्पैशल दूत हों... अभी कुछ ही दिनों में वह अहमदाबाद जाने वाला है ... वहां होस्टल में रहेगा...

बिमला को बाज़ार से कुछ भी खाना मना है ..राहुल को भी बाहर का खाने से मना किया गया .. ताकि इंफैक्शन से बचा जा सके .. विमला को दवाईयां सारी उम्र तक लेनी होंगी...राहुल को भी कोई दिक्कत नहीं है ..मस्त है ..खुश है कि मां को नईं ज़िंदगी मिल गई ... उस की भी जांचें बीच बीच में होती हैं...सब कुछ नार्मल है...

एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस तरह की बीमारी लिवर सिरोसिस आम तौर पर मदिरा सेवन करने वालों में होती है और हेपेटाईटिस बी और सी संक्रमण वाले मरीज़ों में भी इस बीमारी होने का रिस्क बढ़ जाता है .. अब विमला में तो ऐसा कुछ भी नहीं था...डाक्टरों को यह पता नहीं चला कि आखिर विमला को यह तकलीफ़ हुई कैसे! जो भी हो, इस का प्रभाव यह हुआ कि पटेल ने भी दारू पीना बिल्कुल छोड़ दिया ..वरना उस के दोस्तों की दारू की महफिलें अकसर लगती रहती थीं...। 

विमला की जांचें तीन महीने बाद होती हैं जिन्हें राहुल ईमेल से डाक्टरों को भिजवा देता है और वे ईमेल से ही मार्गदर्शन कर देते हैं.. डाक्टरों के काम काज और बर्ताव से सारा परिवार खुश है .. अगर उन को फोन करते हैं, मिस काल हो जाती है तो बाद में डाक्टर खुद फोन करते हैं...परिवार को इसी से बड़ा इत्मीनान है .. 
.....
जब केट काटने के बाद राहुल अपनी मां को केट खिला रहा था तो विमला की आंखों से खुशी के आंसू छलक गये ... 
लोग हर बात का अपना मतलब लगा लेते हैं....

विमला की सहेली ने रश्मि ने चुटकी ली...अरी विमला, तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा पढ़ाई के लिए ही तो जा रहा है...और अहमदाबाद कौन सा दूर है वापी से!

यह सुन कर विमला खिलखिला कर हंस दी ....मन ही मन यह सोच रही थी कि कलेजे का एक टुकडा़ तो जा रहा है, उसी के एक टुकड़े की वजह से ही तो उस की सांसें चल रही हैं! 

एक बार फिर से डीजे के शोरगुल में सभी मस्त हो गये.... गीत भी तो डीजे वाले बाबू कैसे कैसे लगा देते हैं.. वह कौन सा रिमिक्स बज रहा था ... मैंने होठों से लगाई तो हंगामा हो गया... 



PS...यह कहानी नहीं है, किसी की आपबीती है ...


पानी- गर्म, ठंडा या गुनगुना?

पानी भी ऐसी चीज़ है जिस के ऊपर किसी न किसी का उपदेश आए दिन कानों में पड़ ही जाता है ...कभी कभी बुज़ुर्ग मरीज़ भी नसीहत की घुट्टी पिला जाते हैं कि सुबह इतने गिलास पानी पिएं ...फिर देखिए कमाल ..खाने के इतने समय बाद पानी पिया करें...पानी हमेशा गुनगुना कर के पीजिए..पानी तांबे के गिलास में रात में रख दीजिए, सुबह सब से पहले इसे पीजिए....यह लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है ...ये सब अच्छी बातें है निःसंदेह ..लेकिन मेरी चिंता यही है कि हम लोग किसी की बात सुनते ही कहां हैं...कभी कोई बात किसी की जो दिल में उतर जाती है वह मान लेते हैं...बाकी एक कान से अंदर जाती हैं, दूसरे से बाहर! ऐसी ही होता है ना?

आज सुबह ईमेल खोली तो एक योगगुरू की मेल आई हुई थी...(पर्सनल नहीं, मेलिंग लिस्ट वाली) ..उसमें यही लिखा था कि किस तरह से हम लोग बर्फ़ वाला या वैसे फ्रिज में रखा हुआ ठंडा पानी पी पीकर अपनी सेहत को बेकार में खराब कर रहे हैं...जितनी भी बातें लिखी थीं, मेरा मन उन को मान रहा था... लेकिन फिर मैं यही सोच रहा था कि इस के फ़ायदा क्या, क्या मैं इस पर अमल करूंगा? बस, पढ़ लिया और छुट्टी! 

पिछले दिनों वाट्सएप पर भी शायद किसी आयुर्वेदिक विशेषज्ञ की भी एक पोस्ट खूब चल रही थी कि किस तरह से भोजन के साथ पिया पानी हमारे पाचन प्रक्रिया को किस कद्र बिगाड़ देता है ...

हम लोग कितनी ही जगहों से और कितने ही एक्सपर्ट्स से ये सुन चुके हैं कि पानी का तापमान बेहद महत्वपूर्ण है ..हम अमेरिका को ही ताकते हैं ना हर अच्छी सलाह के लिए...उन का यह हाल है, गुरू ने लिखा था कि वे लोग एक गिलास का तीन चौथाई हिस्सा बर्फ से भर कर ही पानी पीते हैं.. 

कुछ बातें मानने में हमें हीला-हवाली नहीं करनी चाहिए.....जैसे आज कल बच्चन किसी भी विज्ञापन में कितनी बेपरवाही से कहता दिखता है ..बस, ऐसा करिए...फटाक... इधर उधर जाने की क्या ज़रूरत ......हमें भी अपना दिमाग न लगाते हुए जो अच्छी बातें सुनने को मिलें, उसे जीवन में अपना लेने से क्या हो जाएगा...

आज तो पता नहीं मेरे जैसे चिकने घड़े पर भी क्या असर हो गया कि मैंने भी शायद महीनों बाद मटके का पानी पिया ...अच्छा लगा .. सीखने की और किसी की बात मानने का कोई भी समय बुरा नहीं होता ...जब हम जाग जाते हैं तभी सवेरा हुआ समझ लीजिए, क्या फ़र्क पड़ता है .. कोशिश करूंगा कि आज से फ्रिज में रखा हुआ या बर्फ़ वाला पानी नहीं पिऊंगा ....देखता हूं इस पर कितना चल पाता हूं!

वैसे भी मुझे लगता है ...पता नहीं क्यों, कि ये जो पानी को गर्म करने का फिर पीने का ...ये सब चोंचले ज़्यादा चल नहीं पाते ..कितने दिन कोई इन सब को चला पाएगा... (अगर कोई कर पाता है, तो अच्छी बात है ...please keep it up!) ..जो मुझे ठीक लगता है कि ज़्यादा सोच विचार के बिना बस मटके के पानी पर ही वापिस लौट आया जाए....बड़ी उड़ाने भर लीं हम लोगों ने भी ...इस से पहले की सेहत की टांय-टांय फिस ही हो जाए बिल्कुल, आज ही से मटका ज़िंदाबाद ...हम लोग आईसबॉक्स के दिनों के और शिकंजवी, सत्तू, रूहअफज़ा, या बंटे वाली बोतल को पीने के लिए बाज़ार  से पच्चीस पैसे की बर्फ़ खरीद कर हाथ में (साईकिल में कैरियर नहीं था, और हम लोग थैला लेकर जाने में अपनी बेइज्जती समझते थे..) लेकर आने वाले दौर के गवाह हैं!! (पालीथीन थी नहीं, और दुकानदार जिस छोटे से अखबार मे टुकडे़ में बर्फ लपेट देता था, वह दो मिनट में गल जाता है ...बस फिर घर आने तक जैसे तपस्या ही होती थी!) ..

बहुत से काम पहले तो बंदिश में ही करने पड़ते हैं...फिर धीरे धीरे आदत ही बन जाती है...यही होता है ना हम सब के साथ! आज सुबह मैं साईकिल चलाते हुए यही सोच रहा था कि जिन लोगों को साईकिल चलाने की सब से ज़्यादा ज़रूरत है वे इसे एक बोझ के समान समझते हैं...शायद मेरा भी यही हाल है ...कईं बार काफ़ी दूर निकल जाता हूं ...वापिस लौटने में भी तो उतना ही समय लगेगा, आज इसी चक्कर में लगभग डेढ़ घंटा साईकिल ही चलाता रहा.. 

बंदिश मैंने इसलिए कहा कि मेरे जैसे लोगों को साईकिल चलाते हुए ऐसे लगता है जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...ऐसा नहीं होना चाहिए...विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात पर विशेष बल दिया है कि दैनिक परिश्रम कुछ ऐसा करते जो आप की सामान्य दिनचर्या का ही एक हिस्सा सा बनता दिखे...आप दूध, सब्जी लेने जा रहे हैं, पैदल जाइए, अपने कार्यस्थल पर पैदल या साईकिल पर जाइए (जैसा भी संभव हो...हरेक की अलग परिस्थिति है)...बात पते की है बिल्कुल, अगर यह परिश्रम या वैसे भी हिलना-ढुलना जीवनशैली का एक सहज हिस्सा ही बनता दिखेगा तो स्वतः ही होता रहेगा यह सब कुछ ...इन अच्छी आदतों का बोझ नहीं ढोना पड़ेगा..खामखां.

चीन के बारे में दो चार दिन पहले किसी अखबार में पढ़ रहा था कि वहां पर ३८ करोड़ के करीब साईकिल हैं...(आंकड़े याद रखने के बारे में मैं बड़ा कमज़ोर हूं) .. और वहां पर लोग साईकिलों पर ही निकलने लगे हैं.. हां, वे किसी भी साईकिल को कहीं पर भी छोड़ सकते है ंऔर किसी भी जगह से पड़ी हुई साईकिल को अपने इस्तेमाल के लिए उठा सकते हैं...मुझे बड़ी हैरानी हुई यह पढ़ कर ... साईकिल का लॉक भी QR code स्कैन करने से खुल जाता है ...और भी बहुत सी बातें लिखी हुई थीं उस लेख में .. कतरन भी रखी है, लेकिन हर बार की तरह वह गुम है! 

बहुत से विकसित देशों के बारे में भी पढ़ता रहता हूं ..आंकड़े भी दिख जाते हैं कि वहां पर कितने ज़्यादा लोग साईकिल चलाने लगे हैं.. और मैं जब किसी मरीज़ से पूछता हूं कि साईकिल चलाते हैं आप?.."कहां डाक्टर साहब, बच्चे नहीं चलाने देते, उन्हें नहीं अच्छा लगता"- अकसर यही जवाब मिलता है। 

आओ स्कूल चलें हम...
पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया 
वैसे कुछ साईकिल चलाने वालों के लिए यहां पर दिक्कते भी हैं...जैसे हर पैदल के लिए फुटपाथ होना चाहिए, साईकिल पर चलने वालों के लिए भी  साईकिल ट्रैक होंगे तो ही लोग बच्चों को साईकिलों पर स्कूल जाने देंगे या खुद भी तभी निकलेंगे ..वरना जिस तरह का बेतरतीब यातायात है यहां ....पैदल, साईकिल और दो पहिया वाहन चालकों का तो रब ही राखा है ..सब का ही रब राखा, लेकिन इन का कुछ ज़्यादा ही है, तभी ये शाम को सकुशल अपने आशियानों पर लौट आते हैं...

साईकिल ट्रैक बन जाते हैं तो उन को क्लियर रखना भी सुनिश्चित होना चाहिए.. यह देखिए इन नीचे दी गई तस्वीरों में कैसे सुबह के सुबह यहां लखनऊ में इन वाहनों में कब्जा कर रखा होता है ..और फिर कुछ समय बाद लोग इन में अपने दोपहिया वाहन खड़े कर देंगे.. और जो ट्रैक बाज़ारों में से निकलते है ं उन में दुकानदार अपना कबाड़-सामान सजा देते हैं ....उद्देश्य बस इतना ही कि कोई इन साईकिल ट्रैक्स को इस्तेमाल न कर पाए...वरना पब्लिक को एक बार अच्छी आदत की लत लग गई तो दिक्कत हो जायेगी...



पता नहीं इस दिशा में कितना काम हो पायेगा या नहीं हो पायेगा ..विशेषकर जब एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव निशान ही एक साईकिल हो ...लेकिन अब यह पार्टी सत्ता में नहीं है!  Let's rise above politics!! यही समय की मांग है ..


हां, पानी से याद आया...आज एक गमले वाले के पास रूका तो मुझे पता चला कि यह गमला नहीं है...इसे नोंद कहते हैं...(यही तो कहा था उसने ..अपने सहायक से पूछूंगा ..मेरे लिए यू.पी का एन्साईक्लोपीडिया वही है...और मार्गदर्शक भी!) ... यह छः सौ रूपये का है...लोग इस में पानी भर कर घर के बाहर जानवरों के लिए रखते हैं ...बहुत अच्छा लगा ...यह देख कर ...

मैं तो फ्लैट में रहता हूं ...सोसाईटी पर गेट है...क्या कहते हैं को-ट्रैप भी लगा हुआ है गेट पर ..आवारा जानवर भी नहीं है कालोनी में, बंदरों तक को इजाजत नहीं ..दो लंगूरों को सुबह से शाम तक नौकर रखा हुआ है ..  आते जाते किसी भटके हुए जानवर का इस तरह के पानी के बड़े भगौनों तक पहुंचने का प्रश्न ही नहीं है .....हां, परिंदे ज़रूर आते हैं नियमित ...उन के लिए ज़रूर कुछ जुगाड़ कर रखा है ..


जाते जाते आप के लिए मेरा आज का शुभसंदेश .. आप और आपके सभी अपने इस सूर्यमुखी की तरह खिलते रहिए..और ऊपर लिखी भारी भरकम बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दीजिेए...बस मस्त रहिए और अगर हो सके तो ठंडा पानी बात बस पर ध्यान करिएगा...जैसे मैंने आज ही किया!



गुरुवार, 11 मई 2017

पेड़ हैं तो हम हैं...फिर भी!

पसंद अपनी अपनी ...बेबी को बेस पसंद है, किसी को पशुओं के चारे में मुंह मारना पसंद है, किसी को स्कूली बच्चों को रोज़ाना मिलने वाले मिड-डे मील के चोगे में चोंच मारना पसंद है, जैसे इस सब से पेट न भरा है...कुछ पानी के टैंकरों के घपले के चुल्लू भर पानी में डूब मरते हैं, किसी को स्टैंट से मोटी कमीशन पसंद है और किसी को इस जहां से रुख्सत होने से पहले मरीज़ों की दवाईयों के फर्जीवाडे़ से पैसा जमा करना पसंद है ...कोई किसी का पेट काट कर जेब भर लेना चाहता है और कोई पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से कर माल कमा लेना चाहता है, किसी को वृक्षारोपण मुहिम के दौरान पेड़ों की संख्या में हज़ारों की हेराफेरी पसंद है .. इस लिस्ट को अाप चाहें जितना लंबा करते जाएं, यह खत्म होने वाली नहीं है...

पेड़ों से ध्यान आया ..एक तरफ़ तो पेड़ों को काटने वाला माफ़िया है ...और दूसरी तरफ़ पेड़ों से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले फरिश्ते हैं..आज मैं अमर अजाला में एक ऐसी ही रिपोर्ट पढ़ रहा था ..पौधों की पूजा होती है और प्रसाद में बांटते हैं बीज..

अच्छा लगा यह सब पढ़ कर कि किस तरह से चंद्रभूषण तिवारी जी पेड़ों की सेवा करने की मुहिम चलाए हुए हैं...

बकौल तिवारी जी ...
"मेरा जन्म देवरिया के एक गांव में साधारण परिवार में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई के लिए किताब-कापियों की जरूरत मेैं बाज़ार में नीम की निबौरी बेचकर पूरी करता था। अ से अमरूद और आ से आम की पढ़ाई मुझे पेड़ों के कल्पना-लोक में ले जाती थी. आम की गुठली से निकले पौधे और उनके फल देने की प्रक्रिया मुझे बचपन से ही रोमांचित करती थी।  
..... मैंने लखनऊ में बच्चों के लिए छह स्कूल खोले हैं। मैं गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देता हूं। हर घर में दान लेने के बदले वहां एक वृक्ष लगाकर रिश्ता जोड़ने की मुहिम शुरू की, जिसकी वजह से आज लोग मुझे 'पेड़ वाले बाबा' के नाम से पुकारते हैं।मैं स्कूलों में जा-जाकर गरीब बच्चों की शिक्षा देने के बदले में उनसे दस पौधे लगाने का वायदा लेता हूं।  
मैं इस मिशन में जब भी किसी शहर में जाता हूं, तो वहां के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मस्तिष्क में भी पौधा लगा कर आता हूं। मैं वहां बच्चों को अपने सगे-संबंधियों को पौधे लगाने की अपील करते हुए चिट्ठी लिखने के लिए प्रेरित भी करता हूं। 
चूंकि धार्मिक मान्यताओं का असर समाज में व्यापक रूप से फैला है, इसलिए मैंने अपने पर्यावरण प्रेम को इसी से जोड़ा। मैं प्रति वर्ष अपने गृहजनपद के गांव में जाकर दुर्गा मंदिर में पौधों का भंडारा भी करता हूं। इस भंडारे के बाद में लोगों को प्रसाद के रूप में पौधे बांटता हूं। इसके साथ मैं हरा-हरि व्रत कथा के नए प्रयोग पर भी काम कर रहा हूं। इस कथा में पौधों की पूजा करके बीज को प्रसाद की तरह बांटता हूं.."
दुनिया भी टिकी हुई है इसी वजह से कि किसी की फितरत अगर पेड़ काटने जलाने की है तो और बहुतेरों का स्वभाव पेड़ों से मुहब्बत करने वाला है...पिछले दिनों पृथ्वी दिवस के अवसर पर अखबार ने उस लोगों को फोटो छापने की स्कीम चाहिए जो उन्हें किसी पेड़ के साथ अपनी शेल्फी भिजवा देंगे...

मुझे भी पेड़ों के साथ खड़े हो कर फोटो खिंचवाने का बेहद शौक है ... दिल की बात करूं तो मैं ऐसे ही टाइम-पास के लिए बहुत से विषयों पर कलम घिसाता तो रहता हूं ....लेकिन मेरा मन प्रकृति के नज़ारों की आलौकिकता के बारे में ही लिखने को करता है बस...मुझे यह सब मैडीकल-फैडीकल में लिखना पसंद नहीं है ... क्योंकि ३० सालों से इस सब से जुड़े होने के कारण कभी कभी कुछ मैं भी आंखों देखी बातें दर्ज कर देता हूं..

इस कायनात का हर पेड़ मुझे चकित कर देता है .. मैं पेड़ों को देख कर अचंभित हुए बिना नहीं रह पाता.. कितना पुराना होगा यह पेड़, कब और किसने लगाया होगा...यह बीते ज़माने की अच्छाईयों-बुराईयों का गवाह रहा होगा .. कितना सहनशील है यह पेड़, कितना परोपकारी और सहज है ... पत्थर मारने वाले को भी फल ही देता है!! बस मुझे ये सब बातें ही रोमांचित करती हैं , और कुछ नहीं....एक पेड़ के दो पत्ते भी एक जैसे नहीं है ..ऐसे में हम लोग कैसे छोटी छोटी बातों पर लोगों की तुलना करने पर उतारू हो जाते हैं !!



एक बाज़ार से मैं अकसर निकलता हूं और इस इतने बडे़ पेड़ को देखता हूं ...कईं बार सोचा कि इस का फोटो खींचूंगा ..लेेकिन झिझकता रहा ..कल बाज़ार में सन्नाटा था, एक ७५-८० साल का बुज़ुर्ग बाहर खड़ा था .. मैंने पूछा कि यह कब का है, तो कहने लगे कि यह तो हमें भी नहीं पता...हमारे पिता जी को भी नहीं पता था, उन से भी पीछे ज़माने वाले ही जानते होंगे ... आप देखिए किस तरह से इन की एक दुकान इस पेड़ के पीछे पहुंच चुकी है ...लेकिन इन्होंने कैसे इस पेड़ को आंच नहीं आने दी.. ऐसे लोग उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जिन्हें तो बस किसी न किसी बहाने पेड़ों को काटने-छांटने का बहाना चाहिए होता है ..वैसे आप लोगों का उन के बारे में क्या ख्याल है जो जाड़े के दिनों में पेड़ों की छंटाई इसलिए करवा देते हैं ताकि आंगन तक धूप पहुंचने का रास्ता साफ़ हो सके... (मैंने तो क्या कहना है, हमारे घर में भी यह सब होता रहा है....यही नहीं, कहीं भी दीवार के पास पीपल आदि का नन्हा-मुन्ना पेड़ देखते ही उसे सजाए मौत की सजा सुनाने और काटने-कटवाने के गवाह हम भी हैं...ताकि वर्षो बाद उस की जड़े नींव में घुस कर हमारे ताजमहल को हिला न दें!!)

मिट्टी गारे के ऐेसे थडे़ पेड़ों की ठंडक को चार चांद लगा देते हों जैसे ..

एक बात और ...हम अकसर देखते हैं कि पेड़ों के आस पास लोग कंक्रीट के प्लेटफार्म से बना देते हैं... ऐसे लगता है जैसे पेड़ों का गला दबा दिया हो किसी ने ...लेकिन इस तरह के मिट्टी के प्लेटफार्म जैसा कि मैं अपनी सोसायटी में देखता हूं या किसी गांव में देखता हूं...बहुत बढ़िया है .. अगर प्लेटफार्म बनाना भी है तो तो थोड़ा हट कर बनाया जा सकता है जैसा कि आप इस पेड़ के आसपास देख रहे हैं..चालीस-पचास लोगों को ठंड़क देता यह बट-वृक्ष.. मुझे ऐसे पेड़ बेहद रोमांचित करते हैं... खामखां मेरा दाखिला बीडीएस में हो गया....मैं नहीं करना चाहता था यह कोर्स....बस, पिता जी के सहकर्मी ने उन्हें बताया कि यह कोर्स करने से नौकरी मिल जाती है ...और मुझे बीडीएस क्लास में बिठा दिया गया... मेरा मन तो बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) पढ़ने में ही था .. लेकिन ... जैसे तैसे मन लगा ही लिया ...पहले एक डेढ़ साल तो किताबों को हाथ लगाने का मन ही नहीं किया...लेकिन जब रुचि बनी, मैडल मिलने शुरू हो गये, यूनिवर्सिटी में टॉप करने का तुक्का लग गया तो फिर ध्यान उधर ही लगा लिया...और नौकरी ..एक नहीं, कम से कम दस मिल गईं एक साथ... इंंडियन ऑयल, रेलवे, एचएमटी, सीआरपीएफ, आर्मी, ईएसआईसी, टीचिंग वगैरह, स्टेट मैडीकल सर्विस में...लेकिन बात वही समझदार कौवे वाली ही हुई मेरे साथ भी!!

मैं भी किधर से किधर निकल गया, यही मेरी समस्या है ....बातें बहुत सारी हैं कहने सुनने को ...


कल दोपहर अमौसी एयरपोर्ट के बाहर इस पेड़ के नीचे एक घंटे बैठ कर मैं पढ़ता रहा .. बहुत अच्छा लगा ..

हमारी सोसायटी में एक ब्रिगेडियर साहब अपने घर के सामने पेड़ कर एक इस तरह का संदेश लिख कर रोज़ लगा देते हैं..सुबह टहलने वाले बड़े चाव से उस संदेश को पढ़ते हैं....कल का संदेश यह था .. आप भी पढ़िए.. यह पढ़ कर एक बार फिर यही लगा कि हम लोग अपने ही देश को कितना कम जानते हैं! 



परसों ड्यूटी पर आते हुए इस पेड़ को देखा .. लोग आज कल कहीं भी आग लगा देते हैं... झाड़ियों में किसी ने आग लगाई होगी...उस चक्कर में यह निर्दोष भी पिट गया .. बुरा लगा यह देख कर ..


रास्तों की सारी रौनक पेड़ों से ही जुड़ी हुई है ं...सुनसान रास्ते जिस पर पेड़ नहीं होते, कितने डरावने दिखते हैं...और होते भी हैं...जलती-भुनती दोपहरी में दूर से एक पेड़ जब दिख जाता है तो कितना सुकून मिलता है ...यह हम सब अनुभव करते हैं...अपने साईकिल से लेकर मोटर वाहन तक को किसी छायादार पेड़ के नीचे ही रखना चाहते हैं...

तलाशते हैं ऐसे छायादार पेड़ों को ..काश, हम इन को लगाने में और इन की परवरिश में भी इतनी ही रूचि ले पाएं!


 और यह रहा मेरा आज का सुप्रभात संदेश आप सब के लिए...आप का आज कल से बेहतर हो..
ईश्वर ने आप को  बिना कारण प्रसन्न रहने की सभी वजहें पहले ही से दे रखी हैं!!

आज की यह गीत भी कुछ मिलता जुलता संदेश ही दे रहा है ....मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है ..जीना उस का जीना है, जो औरों को जीवन देता है .. 




मंगलवार, 9 मई 2017

ऐसे "बंगाली डाक्टर" हर जगह मिल जाएंगे...

आज सोच रहा हूं बंगाली डाक्टरों पर चंद बातें लिखूं... इन डाक्टरों से मेरा अभिप्रायः है वे डाक्टर जिन्होंने किसी तरह का प्रशिक्षण हासिल नहीं किया होता, बस जैसे तैसे अपना खोखा या गुमटी जमा लेते हैं...

मैंने तो देखा है हर शहर में ये नीम हकीम डाक्टर मिल जाते हैं और इन के चाहने वाले भी ...

अधिकतर ये अपने आप को भगंदर के इलाज का एक्सपर्ट मानते हैं.. शहर की दीवारों पर भी इन के इश्तिहार चिपके मिल जाते हैं कि एक ही टीके में पुरानी से पुरानी बवासीर और भगंदर का इलाज पाएं..

जाहिर सी बात है कि इन के किसी भी दावे में सच्चाई नहीं हो सकती .. प्रशिक्षित सर्जन जो ये काम करते हैं ... वे बीस तीस साल अपने प्रोफैशन में घिसने के बाद ही किसी मुश्किल केस को हैंडल कर पाते हैं..लेकिन ये नीम हकीम बंगाली डाक्टर किसी भी जटिल से जटिल केस की गारंटी ले लेते हैं...

हर प्रशिक्षित सर्जन को अपनी सीमाएं पता होती हैं..बहुत अच्छी बात है ...वह किसी भी मरीज़ का इलाज इस तरह से करता है कि वह किसी कारणवश पूर्णतयः ठीक न भी हो पाए तो भी वह बदतर नहीं हो जाए और सब से महत्वपूर्ण बात यह कि वह यह सुनिश्चित करता है कि सारा काम अच्छे से कीटाणुरहित औजारों से हो ताकि किसी भी तरह की भयंकर बीमारी का संप्रेषण न हो जाए... उस ने कम से कम दस साल यही कुछ सीखने की घोर तपस्या की होती है ..ऐसे ही नहीं डाक्टर बन जाते!!

लेकिन इन नीम हकीम बंगाली डाक्टरों के पास जाने पर पता ही नहीं कि वे कौन सी सूईं लगा रहे हैं...दवा के नाम पर अंदर क्या भेज रहे हैं...कौन से धागे ...कौन सी सूईंयां...सब कुछ गड़बड़झाला ....मुझे कईं मरीज़ पूछते हैं कभी तो मैं उन्हें बड़ी सख्ती से मान करता हूं कि यही कहता हूं कि अगर बवासीर ठीक हो भी गई (जो कि इन से होगी नहीं!) तो भी सौगात में वे कौन सी बीमारीयां ठेल देंगे, आप को महीनों या सालों बाद ही पता चलेगा! इस में उन का भी दोष नहीं है ...उन्हें जब खुद ही नहीं पता इन सब वैज्ञानिक सिद्धांतों का तो वे इन खतरों की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं...

जब कोई आ कर कहता है कि मैं एक टीका लगवा कर या कुछ और इन के पास जाकर करवाने से ठीक हो गया..मुझे खुशी नहीं होती बिल्कुल ...क्योंकि जब मैं उन से पूछता हूं कि उस के बाद किसी सर्जन को दिखाया है तो जवाब मिलता है ...नहीं...इसलिए बिना प्रशिक्षित सर्जन के कोई भी कल्याण नहीं कर सकता ऐसी बीमारियों में...हां, सुना तो है कि आयुर्वैदिक पद्धति में भी बहुत कारगार इलाज है भगंदर , बवासीर जैसी बीमारियों के लिए .. लेकिन उस के बारे में ज़्यादा पता नहीं कि कहां पर होता है यह सब ...

मेरे एक निकट संबंधी ने भी करवाया यही टीकाकरण बवासीर के लिए....कुछ समय के लिए दब गई तकलीफ़, और फिर बाद में खूब जटिल आप्रेशन करवाना पड़ा और सर्जन की झिड़कियां खानी पड़ीं सो अलग...

दरअसल हमारे शरीर की आंतरिक संरचना है ही इतनी जटिल कि कैसे एक अनपढ़ बंदा जो कुछ भी नहीं जानता ... उस से खिलवाड़ कर सकता है ...और दुःख यही है कि यह सब हो रहा है....हर शहर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी की यह ड्यूटी है कि वह इस तरह के नीम हकीमों और झोलाछाप डाक्टरों पर नकेल कसें...

बेहतर होगा अगर जन मानस ही इतना जागरूक हो जाए कि बंगाली क्या, पंजाबी क्या और मारवाड़ी क्या, किसी भी नीम हकीम के चक्कर में फंसे ही नहीं ... जागो ग्राहक जागो ...हम भी नारा तो दे ही दें..

एक निकट संबंधी को भगंदर जैसी कुछ शिकायत थी... एमसीएच यूरोलॉजी को दिखा रहे थे .. क्या कहते हैं आप्रेशन के एक दिन पहले यूरोथ्रोस्कोपी हुई ...विशेषज्ञ को लगा कि इसे यूरेथर्र फिस्टूला ही मान कर आप्रेशन किया जायेगा.. फिश्चूला की जगह ही कुछ ऐसी थी ..अगले दिन सुबह आप्रेशन होने लगा तो सिविल अस्पताल के एक रिटायर्ड सर्जन भी वहां ओटी में बैठे हुए थे .. तो यूरोलॉजिस्ट ने उन्हें भी दिखा दिया केस ... उन्होंने देखते ही जांच कर के कहा कि ये भगंदर ही है .. high-end है ... और फिर उस यूरोलॉजिस्ट के कहने पर इन्होंने ही वह आप्रेशन किया ....मेरी भी इन सब के बारे में इतनी जानकारी नहीं है ...बस, यह मैंने इसलिए लिखा कि इतने इतने पढ़े-लिखे डाक्टर भी कभी कभी असमंजस में पड़ जाते हैं....कोई बात नहीं, सब के साथ होता है ...सीखते सीखते ही हम लोग पारंगत हो पाते हैं.......लेकिन इन बंगाली नीम हकीमों के पास तो जाना तो अपने पैर पर आप कुल्हाडी मारने जैसा है ..बच के रहिए, और दूसरों को भी बचाते रहिए...

हां, एक बात आज मित्र से पता चला ...उस ने इन पर अध्ययन किया ...कि ये सब बंगाल से आते हैं, बंगाली भाषा बोलते हैं.. और दुर्गा पूजा पर अपने गांव जाते है ं और लौटते समय गांव के कुछ लौंडों को साथ ले आते हैं... यह धागे से भगंदर को ठीक करने वाला काम सिखाने के लिए ...और जब इन को लगता है कि ये भी खिलाड़ी हो गये हैं तो ये आसपास के गांवों में जा बसते हैं....बंगाली डाक्टर का बोर्ड टंगवा कर भोले भाले लोगों की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू कर देेते हैं..

मुझे आज ही यह पता चला कि इन के क्लिनिक के बाहर एक सांप भी होता है ...उम्मीद है सांप की तस्वीर ही होती होगी, यह तो मैं पूछना ही भूल गया.. लेकिन इस तरह के नीम हकीम अकसर सपेरों का काम भी कर लेते हैं ... सांप पकड़ने के लिए इन्हें बुलाया जाता है अकसर ...

बंगाली शब्द को उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेगें...बेहतर होगा...यह शब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि इन के बोर्डों पर कुछ ऐसा ही लिखा होता है ...
बंगाली डाक्टर ...पुरानी से पुरानी बवासीर, भगंदर का शर्तिया इलाज ... एक ही टीके में जड़ से खत्म !!



शनिवार, 6 मई 2017

ज्ञान की ओवरडोज़ का क्या करें?

अभी मैं अखबार में बच्चों की परवरिश के बारे में एक बढ़िया लेख पढ़ रहा था...पढ़ने के बाद मुझे ध्यान आया कि इस कतरन को अपने एक रिश्तेदार को भेजूंगा जिस के बच्चे अभी छोटे हैं...

फिर तुरंत ध्यान आया कि मैं भी किस ज़माने में जी रहा हूं...ये सारी बातें पता नहीं सैंकड़ों बार वे सोशल मीडिया पर पढ़ कर आगे बांट चुके होंगे...लेकिन मेरे कालेज के दिनों के दौरान मेरे अंकल ने बंबई से मुझे खत में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक कतरन भेजी थी..यह मुझे आज तीस साल भी याद है अच्छे से। 

कल पंजाबी के एक साहित्यकार को पढ़ रहा था ..वे बता रहे थे कि आपस में बातें करना, अपनी कहना, दूसरे की सुनना मानव की प्रवृत्ति है .. हम गप्पबाजी करना चाहते हैं, हंसी ठट्ठा हमें अच्छा लगता है ...यही सब तो सोशल मीडिया पर भी चल रहा है. 

लेकिन जो मैंने अनुभव किया है कि सोशल मीडिया के संवाद काफ़ी हद तक ऊबा देने वाले भी होते है ं..बार बार एक ही संदेश बीसियों जगह से आ जाता है ... ऐसे में बहुत बार संदेशों को पढ़ना देखना सुनना तो दूर, खोलना तक बेकार लगता है ...और एक मानसिकता हो चली है (मेरी भी) कि मैं तो सब कुछ जानता हूं, मेरा लिखा तो हर कोई पढ़े, मुझे किसी को पढ़ने की ज़रूरत नहीं है ...दना् दन् मैसेज ठेले जा रहे हैं...मुश्किल से हम लोग कितने खोल पाते होंगे, देखने-सुनने की तो बात ही ना करिए...

हमारी कालोनी मेें एक घर के आगे सुबह एक बोर्ड टंगा रहता है ...उस पर उस घर का स्वामी एक कागज़ चिपका देता है रोज़ ..किसी महांपुरूष का कोई वचन, कोई अच्छी बात, मशविरा ...आज देखा लिखा था कि अपनी जीवनशैली ठीक रखिए, सुबह पांच बजे उठना श्रेयस्कर है ...

सोशल मीडिया का तो एक पंगा यह भी है कि बहुत बार लोग कुछ भी चिपका देते हैं... इतनी काल्पनिक बातें लेकिन वे अकसर वॉयरल हो जाती हैं..मेरा तो सोशल मीडिया का फंडा यही है कि मैं उस बात के स्रोत की तरफ़ विशेष ध्यान देता हूं ...अगर यह विश्वसनीय है तो चल सकता है ..लेकिन अगर संदेह लगे तो गूगल से अवश्य जांच लीजिए...काम तो सिर दुखाऊ है ही ...किस के पास इस सब झंझट में पड़ने का समय है...इसलिए अधिकतर माल बिना देखे ही रह जाता है ...कुछ नहीं कर सकते! 

 सोशल मीडिया पर भी हमारी बेसब्री इस कद्र बढ़ चुकी है कि जो मैसेज, इमेज सामने नज़र आ जाए, बस उसे देख लेते हैं...लेकिन जैसे ही डाउनलोड़ वाली बात आती है ..झट से आगे खिसक लेते हैं..मैं तो अधिकतर ऐसा ही करता हूं.. मलाल भी होता है कि पता नहीं कितनी काम की बात होगी, लेकिन कुछ कर नहीं सकते! 

उस दिन वाट्सएप पर एक मैसेज दो तीन ग्रुप्स में आया कि आज रविवार है ...आज छुट्टी है..आज किसी बात पर विचार करने की ज़रूरत नहीं है ..अच्छा लगा यह पढ़ कर ...आइडिया अच्छा है जैसे कुछ लोग सेहत के लिए व्रत रखते हैं..ऐसे ही मानसिक सुकून के लिए भी एक साप्ताहिक अवकाश तो होना ही चाहिए.. 

एक ज्ञान मैं भी बांट दूं सुबह सुबह ... खबर पढ़ी है अभी अभी पेपर में कि सारेगामा कारवां रेडियो लौटाएगा पुराना दौर .. आगे लिखा है कि सारेगामा साल १९०३ से लेकर २००० तक के फिल्मी गीतों को एक ही रेडियो में लेकर आया है ..सारेगामा कंपनी ने एक ऐसा रेडियो लॉन्च किया है जिसमें गुजरे जमाने के मशहूर गायकों और लेखकों के गाने मौजूद हैं.. पांच हज़ार नौ सौ नब्बे रूपये की कीमत के इस रेडियो को सारेगामा कारवां का नाम दिया गया है ..अभी मैंने इस का एक प्रोमो देखा .. आप भी यहां क्लिक कर के देख सकते हैं... बिना आर जे के यह एक्सपिरियंस कैसा होता होगा, मुझे भी पता नहीं ! 

मुझे तो यही कीमत बहुत ज़्यादा लगती है ...अगर पांच सौ रूपये में बिकता तो ज़रूर ले लेता ...अभी तो डुप्लीकेट वर्ज़न का ही इंतज़ार करना पड़ेगा... आ जायेगा देर सवेर, किस प्रोडक्ट की हम लोग नकल करने में पीछे हैं!

वैसे मैंने भी एक तरह से यह सब लिख कर ज्ञान की ओवरडोज़ का कुछ समाधान थोड़े ही ना जुटा दिया....बल्कि समस्या को और बढ़ा दिया...आज कौन किसी की सुनता है,  पब्लिक सब पहले ही से जानती है, सब पक्के ज्ञानी-ध्यानी हैं...शुक्रिया, सोशल मीडिया ! 



शुक्रवार, 5 मई 2017

अच्छा तो चलते-फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ भी होते हैं..

दंदानसाज़ उर्दू का शब्द है ...जब मेरा डेंटिस्ट्री में दाखिला हुआ तो मेरे ताऊ जी मुझे यह कह कर बुलाया करते थे...आज अभी गूगल पर इस का अर्थ देखा .. लेकिन अकसर पुराने लोग फुटपाथों पर दांतों की दुकाने सजाए हुए लोगों के लिए ही इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं..

अकसर नीम-हकीम दंदानसाज़ आपने भी अपने शहरों में जगह जगह बैठे देखे होंगे .. फिक्स अड्डों पर ..सामने कुछ पत्थर के दांतों के जबड़े रखे हुए, कुछ दांत उखाड़ने वाले औज़ार ..और कुछ दवाईयां ...दरअसल यह हमारे देश की बदकिस्मती है कि आज भी ये लोग अपनी दुकानें चमकाने के नाम पर जनता की सेहत से खेल रहे हैं..

दांत उखाड़ना कोई बड़ी बात नहीं है ..लेेकिन जब यह काम ये नीम हकीम करते हैं तो सारी गड़बड़ ही गड़बड़ है ...एक दो रिस्क हो तो मैं गिना भी दूं...लेकिन इन खतरों की लिस्ट इतनी लंबी है कि लिखते लिखते रात बीत जाएगी... पता नहीं कितने लोगों को ये लोग लाइलाज बीमारियां भी दे डालते होंगे..

बहरहाल, मैंने भी अनेकों जगहों पर यह सब काम होते देखा है....एक खबरिया चैनल की भाषा है ..सत्ता के गलियारे ...जी हां, दिल्ली के सत्ते के गलियारों की नाक के बिल्कुल नीचे भी इने पनपते देखा ...लेकिन मुझे हमेशा यही लगता था कि ये लोग एक फिक्स जगह पर बैठ कर ही अपना धंधा करते हैं ...

आज पहली बार एक मरीज़ से पता चला कि चलते फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ भी हुआ करते हैं..

एक मरीज़ आया...बता रहा था कि आगे का एक दांत हिल रहा था तो उसने तार लगवा ली दांतों को हिलने-ढुलने से रोकने के लिए...मुझे देखने से ही अंदाज़ा हो गया कि यह किसी नीमहकीम बंदे की ही कारस्तानी है ...उसने भी बताया कि ऐसे ही करवा लिया था चार पांच साल पहले ...ऑफिस में ही दांतों का इलाज करने के लिए एक आदमी आया करता था ...बडे़ बाबू, छोटे बाबू...सब लोग उसी से ही दांतों का इलाज करवा लिया करते थे ...मैंने भी एक दिन यह काम करवा लिया...

एक संदूकची रखे रहता था वह दंदानसाज़ और सारा काम उधर दफ्तर के अंदर ही बैठे बैठे कर के चला जाता था.. मुझे बड़ी हैरानगी हुई ... कानों की सफ़ाई वाले तो ऐसे गली-गली कूचे कूचे घूमते देखे थे ..लेकिन इन घूमते फिरते दंदानसाज़ों के बारे में आज पहली बार सुन रहा था ..

हां, दो दिन पहले मैंने आप को ऐसे ही एक नीमहकीम द्वारा लगाए गये किसी मरीज़ के फिक्स दांतों का नमूना दिखाया था... फिक्स दांतों की सिरदर्दी...  इन झोलाछाप सड़कछाप दंदानसाज़ों के काम का एक नमूना और देखते हैं..


आप देखिए किस तरह से एक दो हिलते हुए दांतों को रोकने के लिए कैसे साथ के स्वस्थ दांतों पर भी कस के तार बांध दी गई है ..मरीज़ को कुछ पता नहीं होता...उन्हें तो फौरी तौर पर लगता है कि हां, हिलते हुए दांत कसे गये हैं...बस, काफ़ी है...लेकिन इस तरह का इलाज तकलीफ़ को और भी बिगाड़ देता है ...

इस तार की वजह से और पायरिया की वजह से अब इस मरीज़ के चार दांत बुरी तरह से हिल रहे थे ...और मसूड़े भी कैसे दांतों से पीछे हट रहे हैं.. आप इस तस्वीर में देख सकते हैं..


इन दांतों के अंदर की तरफ़ देखिए कैसे एक्रिलिक नामक मैटीरियल तार के ऊपर लगा कर दांतों को रोकने का जुगाड़ किया गया है ...यह "मसाला" तो उसने तार के ऊपर बाहर की तरफ़ भी लगाया था, लेकिन वह निकल गया है ....मरीज़ मेरे पास इसीलिए आया था ..

मैंने उसे समझाया तो है कि उचित इलाज के लिए पहले तो उसे तार से निजात पानी होगी...यह सुन कर दुविधा में पड़ गया दिखता था ...मैंने कहा, दो तीन दिन सोच लो...उस के बाद ही समुचित इलाज की बात हो सकती है ..

हां, ये जो हिलते दांत होते हैं इन को फिक्स करने का क्वालीफाईड डैंटिस्ट के पास वैज्ञानिक तरीका और सलीका होता है ...जो कि पूरी तरह से सुरक्षित होता है ..वह पहले तो इस बात का पता करता है कि ये दांत हिल क्यों रहे हैं, फिर जितना संभव हो सके उस का इलाज भी किया जाता है ...

बस, आज इतनी ही बात कहनी थी कि ऐसे चलते-फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ों से बचे रहिए...मुझे यकीन है कि इसे पढ़ने वाले कभी ना तो इन के चंगुल में फंसे होंगे और ना ही फंसेगे.....लेकिन फिर भी मैं अपनी आदत से मजबूर.......ज्ञान बांटने बैठ जाता हूं!!

इस समय मेरे रेडियो पर यह गीत बज रहा है ..आप भी सुनिए....पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे ..

बुधवार, 3 मई 2017

ऐसे तो कपड़े की थैलियां भी बेकार हैं!

यह जो मुझे आज सुबह टहलते हुए दिखा ...यह हर नुक्कड पर आप भी रोज़ देखते होंगे 

सुबह टहलते जब निकलते हैं तो हर तरफ़ प्लास्टिक के अंबार देख कर, जलता हुआ प्लास्टिक देख कर, पशुओं को प्लास्टिक निगलते देख कर ..आस पास के नालों को प्लास्टिक से रूके देख कर और वहां से निकलती दुर्गंध से मन दुःखी होता है ...

बार बार मन में यही विचार आता है कैसे हम इस प्लास्टिक वाली बीमारी से निजात पा सकेंगे आखिर ...बहुत साल पहले जब दूध प्लास्टिक की पन्नियों में बिकने लगा तो हैरानगी हुई, फिर जब दही भी इन में मिलने लगा तो भी अजीब सा लगा ...फिर गर्मागर्म दाल भी ढाबे वाले इसी में बेचने लगा ...लेकिन यहां जब यहां यू.पी में देखा कि गर्मागर्म चाय भी इन पन्नियों में भी बिकती है तो आंखे फटी की फटी रह गईं...और जब इन के साथ आने वाले प्लास्टिक के गिलासों की तरफ़ ध्यान गया तो उन का मैला-कुचैला रंग और बिल्कुल पतला प्लास्टिक यह बताने के लिए काफ़ी होता है कि ये किस तरह के घटिया, रीसाईक्लज़ प्लास्टिक से तैयार किए होंगे...और तो और, अब तो पानी पीने के लिए भी बाजा़र में दो रूपये की पानी की पन्नी मिलती है ...जो काम हम लोग किसी प्याऊ पर हथेलियां जोड़ कर ही निपटा लेते थे ...

उस दिन मेरा एक मरीज़ मुझे मशविरा दे गया ... डाक्टर साब, आज कल तो डिस्पोज़ेबल गिलास आते हैं..आप भी यहां ओपीडी में कांच के गिलास इस्तेमाल करना बंद कर दीजिए...उसने मुझे और भी ज्ञान बांट दिया कि उन का तो यही फायदा है कि यूज़ एंड थ्रो...

मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी...

उस की तो मैंने हां में हां मिला दी ..मरीज़ को क्या नाराज़ करना, लेकिन करता मैं वही हूं जो मैं ठीक समझता हूं...मेरे यहां आने से पहले यहां डिस्पोज़ेबल गिलास ही इस्तेमाल होते थे ...लेकिन मैंने कभी नहीं मंगवाये...दिक्कत क्या है, कांच के इतने सारे गिलास हैं, आराम से साफ़ हो जाते हैं...जिसे दिक्कत है, वह घर से अपना गिलास ले आए...(कुछ लोग लाते भी हैं!) ..बेकार में हम लोग जितना कचड़ा जमा करते रहेंगे, कहीं न कहीं ढेर लगता रहेगा,  इतने ज़्यादा प्लास्टिक या थर्मोकोल का डिस्पोज़ल भी तो एक सिरदर्दी ही है!

यहां घर के पास ही हफ्ते में दो दिन सब्जी मंडी लगती है ..अकसर देखता हूं कि लोग कपड़े के थैले तो उठाए रहते हैं लेकिन हर सब्जी अलग प्लास्टिक की पन्नी में मिलने की वजह से उस थैले में पंद्रह बीस पन्नियों तो जमा हो ही जाती होंगी...सोचने वाली बात है कि ऐसे में फिर उस कपड़े वाले थैले के साथ दिखने का फायदा ही क्या....nothing beyond a new fashion statement! 

बचपन की यादें हैं कि जब कपड़े की थैलियों में सब्जी आती थी तो कितना समय तो उन सब्जीयों को अलग अलग करने में ही लग जाता था...मिर्ची मेथी में घुसी हुई ...और अरबी आलू-कचालू में...एक एक मटर को अलग करना, आप को भी थोडा़ बहुत याद तो होगा (नाटक मत कीजिए!) कि किस तरह से उस थैले को जमीन पर उल्टा कर के सब्जियों को अलग अलग करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती थी.. फिर वही मलाल....कईं बार जब टमाटर और केले और कभी कभी आम और आलूबुखारे भी दब जाते थे ... लेकिन उस दौर में भी लोगों को अच्छी समझ तो थी ही कि टमाटर और केले सब से आखिर में ही खरीदने हैं...

अब टमाटर आदि के लिए चाहे लोग अलग से थैला लेकर जाने लगे हैं..लेकिन दुकानदार उसे फिर भी प्लास्टिक की पन्नी में डाल के ही देता है ... 

हमें इस तरह से खरीदारी का ढंग बदलना होगा ..हम से मतलब मुझे भी ...यह जो हमारा लाइफ-स्टाईल बन चुका है जिस में हम लोग प्लास्टिक की पन्नियां ही इक्ट्ठी करते रहते हैं...इस से निजात पानी होगी ...अगर हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण ठीक रहे ...बद से बदतर होने से बचा रहे...एक बार एक आश्रम में लिखा देखा था कि आप जिस कमरे में रह रहे हैं..खुशी से रहिए, बस लौटते समय इतना सुनिश्चित कीजिए कि इसे आप उसी हालत में छोड़ कर जाएँ जिस हालत में यह आप को मिला था ...बात मन को छू गई........क्या हम यही बात अपने वातावरण के लिए नहीं कर सकते कि अगली पीढ़ी को भी धरा, वन-सम्पदा, नदी, तालाब, पोखर, झरने ....हम विरासत में वैसे ही देकर जाएं जैसे ये कभी हमें मिले थे ....सोचिएगा!

काम मुश्किल भी नहीं है इतना जितना हम समझ लेते हैं... शुरूआत करने की ज़रूरत है ...यह लिखने से मेरे को यह फायदा हुआ है कि अब मैं जब भी थैला लेकर निकलूंगा तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवाने से गुरेज करूंगा ....कर लेंगे ध्यान यार टमाटर और केलों को बचाने का ... पहले अपने आप को तो बचा लें, हम भी अगर कहीं प्लास्टिक के पहाड़ों के नीचे दब गये तो!

कहने को तो ये इज़ी-डे, स्पेन्सर्ज़ जैसे स्टोर भी खरीदारी के वक्त अगर थैली देते हैं तो उस का अलग से चार्ज करते हैं...लेकिन इन जगहों पर भी सब्जी और फलों के लिए अलग अलग प्लास्टिक की पन्नीयां ही दिखती हैं.. बड़ी बड़ी दुकानों ने भी कागज़ के थैले के लिए अलग से पैसे वसूलने शुरू किए हुए हैं...अच्छा है वैसे तो यह भी उपाय...जितने भी छोटे छोटे कदम दिखें, मुबारक हैं...क्योंकि इन सब का बड़ा उद्देश्य एक ही है ...पर्यावरण की रक्षा। 

बंद करता हूं अब इस पोस्ट को ...ड्यूटी पर जाने का समय हो गया है ...

बस, यही गुजारिश है कि अगली बार जब कपड़े का थैला लेकर बाज़ार के लिए निकलें तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवा कर उस की सौम्यता को ग्रहण मत लगने दीजिए....मैं स्वयं आज ही से इस बात का विशेष ध्यान रखूंगा ... अपने आप से यह वादा कर रहा हूं!!

कुछ दिन पहले टीवी पर किसी ने बड़ी सुंदर बात कही कि गंगा नदी को साफ़ करने पर करोड़ो रूपये खर्च हो रहे हैं....लेकिन यह साफ़ तभी होगी जब हम लोग इसे गंदा करना बंद कर देंगे...

मंगलवार, 2 मई 2017

फिक्स दांतों की सिरदर्दी

दांतों के झोलाछाप डाक्टर भी जनमानस के दांतों काे बद से बदतर किये जा रहे हैं...इस तरह के अनक्वालीफाईड डाक्टर फिक्स दांत लगाने की आड़ में बहुत गड़बड़ कर देते हैं...आज इस के बारे में थोड़ी सी बात करते हैं...

 आज जो महिला मेरे पास आई ...५५-६० साल की होगी...आगे का एक दांत बता रही थीं कि कुछ साल पहले निकल गया था ...एक साल पहले एक दांतों के डाक्टर से फिक्स दांत लगवा लिया था ...बस, कुछ समय के बाद से ही तकलीफ़ शुरू हो गई..

तकलीफ़ यह है कि इन्हें फिक्स दांत के आसपास हर समय दर्द रहता है, मसूड़ों में दर्द होता रहता था, खाने ढंग से खाया-चबाया नहीं जाता, फिक्स दांत के आसपास छाले हो जाते हैं, घाव पड़े रहते हैं...बस, वह दुःखी हो चुकी है ..

मैंने उसे समझा दिया कि यह सारी परेशानी इन फिक्स दांतों की वजह से हो रही है .. मैंने पूछा कि यह काम किसी फुटपाथ से करवाया?...बताने लगी कि नहीं ..फुटपाथ से तो नहीं लेकिन एक खोखे से करवाया....मैं समझ गया कि किसी झोलाछाप नीम हकीम ने यह काम किया है ..पैसे भी कम नहीं लिये ...एक हज़ार रूपये भी ले लिए.. लेकिन फिक्स दांत की जगह इसे एक बीमारी दे दी..

संक्षेप में यही बताना चाहता हूं ...ये फिक्स दांत होते ही नहीं हैं..कोई भी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक इस तरह का काम करते ही नहीं हैं...फिक्स दांत सही ढंग से लगवाने का अलग तरीका होता है (उस के बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे)

आप इस महिला के दांतों की हालत देख सकते हैं कि कैसे बिल्कुल खराब ढंग से कैसे डेंटल एक्रिलिक (Dental acrylic) को आसपास के नेचुरल दांतों पर लगा कर और पीछे की तरफ़ कैसे अच्छे भले साथ वाले दांतों पर तार बांध कर नकली दांत की पकड़ मजबूत करने का जुगाड़ किया गया है ..

यह तो महिला एक साल बाद आईं...लेेकिन बहुत से लोग तो कुल दो चार महीनों के बाद ही फूले हुए मसूड़े और घाव के साथ आ जाते हैं..इस का केवल एक ही इलाज है कि जल्दी से जल्दी इस तरह के फिक्स दांतों को उतार दिया जाए...और बाद में नया दांत लगवाया जाए...

यह मरीज़ भी पांच मिनट में ही तैयार हो गई इसे उतरवाने के लिए ...इस के अलावा और कोई भी चारा भी तो नहीं! ...कईं बार लोग मना भी कर देते हैं कि हमें तो दर्द से आराम दिलवा दीजिए...हम फिक्स दांतों को नहीं उतरवाएंगे।

बस, आज के लिए इतना ही संदेश ...झोलाछाप तथाकथित दांतों के नकली डाक्टरों से बच कर रहिए...

रविवार, 30 अप्रैल 2017

यारो ! उठो, चलो, भागो, दौड़ो

कुछ साल पहले यमुनानगर (हरियाणा) में हम लोगों के प्रवास के दौरान मैं अकसर बहुत ही बुज़ुर्ग हो चले एक इंसान को अकसर देखा करता ...जिनकी पीठ पूरी तरह से आगे की तरफ़ झुक चुकी थी ..लेकिन वह सुबह-शाम अपने बाज़ार के सारे काम खुद ही निपटाते दिखते..कैसे? वह एक साईकिल का सहारा लेकर उस के सहारे पैदल चल कर ही सब कुछ खरीदते दिखते...

मुझे ध्यान है यहां लखनऊ में भी मैंने कईं बार देखा कि बाज़ार में कभी कभी बुज़ुर्ग को साईकिल का सहारा लेकर अपनी खरीदारी करते हुए..

कईं बार सुबह टहलते हुए कोई बुज़ुर्ग महिला या पुरूष दिख जाता है जो वाकर की मदद से धीरे धीरे टहल रहे होते हैं...मुझे अपना समय याद आ जाता है ... १२ साल पहले मेरा फिश्चूला का जब आप्रेशन हुआ तो मुझे भी चिकित्सक ने रात के खाने के बाद थोड़ा टहलने की हिदायत दी ...और अस्पताल में दाखिल रहते हुए जब मैं रात को नीचे १०-१५ मिनट नीचे टहलने जाता तो मुझे कितना अच्छा लगता, यह मैं ब्यां भी नहीं कर सकता.. मुझे बस इसी बात का इंतज़ार रहता कि कब मैं ठीक से अपनी चाल चल पाऊंगा...

लेकिन हम लोग ठीक ठाक होने पर कैसे सब कुछ भूल जाते हैं..और सेहत को तो ऐसे समझते हैं जैसे कि हम लोगों को १०० साल की गारंटी मिल चुकी है ..नहीं, ऐसा नहीं है...

मुझे याद आ रहा है यहां लखनऊ में अपनी कॉलोनी में एक बुज़ुर्ग वाकर की मदद से टहला करते थे ..शायद अधरंग का शिकार थे ...साथ में उन की मदद के लिए एक हेल्पर भी होता था ...और कुछ महीनों के बाद उन की चाल के साथ साथ उन का चेहरा भी निखरने लगा था...

मैं अकसर यही बात शेयर करता हूं कि किसी की कैसी भी हालत हो वह अपने सामर्थ्य के अनुसार उठे, चले, भागे, दौड़े ....तभी बात बनने वाली है ..केवल पढ़ने-लिखने से कहां कुछ होता है ... ज्ञान तो हम सारा दिन वाट्सएप पर लेते-देते ही रहते हैं, उसमें क्या है! कल वाट्सएप पर किसी ने अखबार की एक कतरन शेयर की गई जिस में विश्वविख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डा त्रेहन का एक बीवियों को एक मशविरा छपा था कि वे अपने पति को तब तक नाश्ता न दें जब तक वह ५५ मिनट तक कसरत न कल लें...

आज भी सुबह मैंने लखनऊ की जेल रोड़ पर जाते हुए इस बुज़ुर्ग को ऐसे साईकिल को थामे हुए चलते देखा तो मुझे पहली बार तो दूर से देखने पर यही लगा कि पैंचर हो गई होगी साईकिल ..लेकिन फिर उन के स्पोर्टस शूज़ आदि देख कर लगा कि यह भी टहलते हुए एक सहारे के तौर पर ही इस साईकिल को इस्तेमाल कर रहे हैं..


रहा नहीं गया बिना पूछे...उन के पास रूक कर पूछ ही लिया कि साईकिल में खराबी है कोई?..."नहीं, नहीं, वैसे ही टहल रहा हूं." उन से अपेक्षित जवाब मिलने पर मैं इतना कह कर अागे निकल गया... "बहुत अच्छा, टहलना तो बहुत बढ़िया बात है!"

इस बुज़ुर्ग के एक घुटने में बहुत दिक्कत लग रही थी...लेकिन फिर भी टहलना जारी है !

आगे जाते हुए मैं यही सोच रहा था कि जब भी मुझे ऐसा कोई शख्स मिल जाता है सड़क पर आते जाते तो मैं उस की फोटो खींच कर अपने ब्लॉग पर शेयर अवश्य करता हूं ...एक रिमांइडर की तरह ...और बस अाप को ही याद करवाने के लिए ही नहीं, अपने आप को भी याद दिलाने के लिए भी कि जब तो हाथ-पांव चल रहे हैं, इन को अच्छे से इस्तेमाल कर लेने में ही समझदारी है ...वरना बाद में तो वही बात है ...अब पछताए होत क्या...

पुरानी आदतें बदलनीं, नईं अच्छी आदतों को ओढ़ना....बहुत मुश्किल काम है ...इसलिए छोटी छोटी बातों के बारे में सचेत रहिए...मेरी तरह नहीं कि कईं महीनों से साईक्लिंग बस इस लिए बंद है क्योंकि साईकिल में हवा नहीं है, इस से ज़्यादा बेवकूफ़ाना बहाना भी कोई हो सकता है क्या अपने शरीर को कसरत से दूर रखने के लिए!

देखता हूं आज कुछ करता हूं...मानना ना मानना आप के अपने हाथ में है, जो भी हो, इस तरह के बुज़ुर्ग राह में चलते-फिरते शायद हमें कुछ भूले हुए पाठ याद दिलवा देते हैं...

जाते जाते एक बात याद आ गई ...सरकारें बदलती हैं तो वफ़ादार भी बदल जाते हैं...नियम कायदे बहुत कुछ बदलता है ..पुरानी सरकारों के फैसलों के निर्णयों की समीक्षा होने लगती है, उन के घोटालों की खोजबीन होने लगती है..लेकिन शायद आटे के साथ घुन भी पिस जाता है ...कुछ दिन पहले खबर थी कि यूपी में पिछले शासन-काल के दौरान जो सड़कों के किनारे साईक्लिंग पथ बने हैं ..Cycle Track.. बने हैं, उन की समीक्षा भी होगी कि क्या उन्हें रखा जाएगा या नहीं....मेरा व्यक्तिगत विचार है कि चाहे साईकिल किसी एक पार्टी का चुनाव-चिन्ह है, लेकिन फिर भी इन साईकिल ट्रैकों को इस रद्दोबदल की आंच से दूर से रहने दिया जाए....लंबे अरसे के बाद देश में साईकिल चलाने वालों के बारे में भी कुछ हुआ है ...बेहतर होगा इस से प्रेरणा लेकर यह काम आगे बढ़ाया जाए.. वरना एक बार समीक्षा की खबरें तो बाहर आ ही गई हैं ...और वैसे भी ये जो सड़कों-रास्तों पर कब्जा कर के बैठ जाते हैं..उन्हें तो बस एक इशारा ही काफ़ी होता है!


शनिवार, 29 अप्रैल 2017

सारी ड्रामेबाजी है पेज थ्री वाली ...

महान एक्टर विनोद खन्ना साहब नहीं रहे, मन दुःखी है ...

कल रात मैं दो तीन अखबारें देख रहा था जिस में उन के स्वर्गवास होने के समाचार के साथ साथ बहुत से श्रद्धांजलि संदेश भी छपे हुए थे...

वे संदेश पढ़ते पढ़ते मुझे यही लग रहा था जैसा कि मेरा विश्वास भी है कि दुनिया में सब शब्दों का ही खेल है..लिखे-पढ़े गये, कहे-सुने गये ...और वे शब्द भी जो कभी कहे नहीं गये लेकिन आंखें बेहतर ढंग से कह गईं....हम इस आंखों की भाषा को अकसर कम आंक लेते  हैं लेकिन हैं ये भी दिल की जुबां...शायद इसीलिए लोग कुछ अवसरों पर काला चश्मा चढ़ा लेते होंगे..

हां, तो जब मैं श्रद्धांजलि संदेश पढ़ रहा था तो मुझे एक बार बड़ी अजीब सी लगी ...सब लोगों ने कहा कि वे बहुत हेंडसम थे, बड़े अच्छे इंसान थे, और एक्टर तो एकदम सुपरहिट तो थे ही... वह तो यार हमें भी पता है ..लेकिन जो बात इन सब संदेशों में गायब थी कि ये लोग कब विनोद खन्ना साहब का हाल चाल लेने पहुंचे थे ...

वे बीमार तो पिछले दो साल से चल ही रहे थे ...किसी ने लिखा कि उन से मिले कईं साल हो चुके थे ..लेकिन वे थे बहुत अच्छे...एक ने कहा कि वह उन के थोड़ा ठीक होने की इंतज़ार कर रहा था, ताकि वह फिर अपने भाई के साथ जा कर उन का हाल चाल पता कर के आते...

सब ऐसी ही बातें थी ..किसी ने यह नहीं लिखा कि हम उन्हें अस्पताल में कब मिल कर आए...बस, वह नाटक हमें उन की सांसे थमने के बाद दिखा कि कौन सा बंदा कौन सा काम छोड़ कर उन के यहां पहुंच गया। 

वैसे यह बॉलीवुड का ही हाल नहीं है...समाज का भी तो यही हाल है ..किसी के पास किसी के लिए समय ही कहां हैं..बस ऐसे ही लफ़्फाज़ी है ...कोई इसे अच्छे से कर पाता है, कोई इस में भी पीछे रह जाता है ....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि फर्क पड़ता है!!

मुझे यह तो आभास है कि हम सब लोगों की तरह इन फिल्मी हस्तियों की ज़िंदगी भी खोखली ही होती है ....बस बाहरी चमक दमक ही इन्हें रखनी पड़ती है...वरना कौन इन्हें विज्ञापनों के लिए करोड़ों देगा.. 

बस, एेसी ही ड्रामेबाजी है बॉलीवुड में भी ...बिल्कुल बाहर वाले हमारे समाज की ही तरह ...

खुशकिस्मत हैं वे लोग जो अपनी शर्तों पर ज़िंदगी को जी पाते हैं ...वरना लोग तो हरेक को खुश करने के चक्कर में अपनी ज़िंदगी कबाड़ कर लेते हैं...


मुझे ध्यान आ रहा था कि हम लोग कह तो देते हैं कि फलां फलां कलाकार इस उम्र में भी काम कर रहा है ..लेकिन सोचने वाली बात है कि वह काम क्या कर रहा है, कोई समाज सेवा का या परोपकार का काम हो तो बात भी है, वरना करोड़ो रूपये लेकर तेल मालिश के विज्ञापन, पान मसालों के विज्ञापन कर के क्या हासिल .. पानमसाले का विज्ञापन इतना बड़ा स्टार है कि सोच रहा हूं कि पानमसाले पर एक किताब छाप कर उसे तो भेज ही दूं... पैसे की क्या कमी होती है इन हस्तियों के पास, अगर ये चाहें तो बहुत से सामाजिक सरोकारों से जुड़ कर समाज की बेहतरी के लिए काम कर सकते हैं...

कल रात मच्छरों के आतंक की वजह से १ बजे के करीब उठ बैठा...टीवी लगाया तो देखा कि धर्म भाजी कब्ज दूर करने वाली किसी दवाई का बहुत लंबा विज्ञापन कर रहे हैं... कम से कम १५-२० मिनट तक तो चला ही होगा यह विज्ञापन!! 

दुनिया में तो सारी ड्रामेबाजी ही है...लफ़्फ़ाज़ी है ...कोई किसी की चापलूसी में लिप्त है, कोई किसी की खुशामद में संलिप्त है, लफ़्फ़ों का खेल है बस! बंद करो यार यह नौटंकी ...जाने वाले को क्या फ़र्क पड़ता है कि कौन उसे श्रद्धांजलि देने आया, कौन नहीं आया...He was already an eolved soul who would be remembered for being a great human being and great artist.....rest in peace, Vinod Khanna! 


खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का , बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का ....पिछले दिनों मैंने इस गीत को बहुत बार सुना...गीतकार ने भी क्या गजब लिख दिया है!!


शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

कल शाम मुझे गौरक्षक याद आये...

गौरक्षा की बहुत बातें चल रही हैं... जब भी यह चर्चा चलती है तो नरेन्द्र मोदी का एक भाषण याद आ जाता है कि गौरक्षकों को यह बात समझनी होगी कि असल में अगर वे गौरक्षक हैं तो उन्हें गौमाता को प्लास्टिक खाने से बचाने के लिए कुछ काम करना चाहिए..

जिस तरह से गाएं प्लास्टिक खा खा के बीमार हो रही हैं, मर रही हैं, वह चिंता का विषय तो है ही....मोदी ने अपने भाषण में बताया कि गुजरात के सीएम रहते हुए अपने संस्मरण साझा किए कि किस तरह के गऊयों का आप्रेशन करने के बाद एक एक बाल्टी भर प्लास्टिक उन के पेट से निकाला जाता था..





कल ट्रेन में यात्रा करते समय गाजियाबाद स्टेशन से पहले बाहर नज़र गई तो इस तरह के मंज़र देख कर चिंता यही हुई कि हर तरफ प्लास्टिक के अंबार लगे हुए हैं...इतने कानून बन गये...इतने नियम कायदे बन गये लेकिन यह प्लास्टिक दिखना बंद नहीं होता...हमें, हमारी धरा को तो यह प्लास्टिक बर्बाद कर ही रहा ...पशु तो इसे खाने से मर रहे हैं!


पानी के छोटे छोटे हौज हम लोग बचपन से देखते रहे हैं...घरों के बाहर ... हमने भी बनवाया था ..लेकिन एक बात नोटिस की कुछ लोग इन में पानी नियमित चेंज करते रहते हैं, साफ़-सफ़ाई करते हैं...लेेकिन हम ने इस तरफ़ कभी इतना ध्यान नहीं दिया...शायद इसलिए कि हमनें कभी उस छोटे से हौज से किसी जानवर को पानी पीते देखा भी नहीं...सुनसान सड़क पर घर था और वह सड़क आगे से बंद थी...शायद यही कारण होगा।
 ये दोनों तस्वीरें अजमेर में खींची थी मैंने ...just took it from my instragram profile @justscribblelife


दो साल पहले में अजमेर गया तो वहां भी घरों के आगे इस तरह के पत्थर से बनी हुई जानवरों के लिए पानी की टंकियां दिखीं...अच्छा लगा...वहां तो प्याऊ भी बहुत नज़र आते हैं...

मैं भी यही मानता हूं कि कुछ ऐसा काम किया जाना चाहिए...कल मैंने देखा दिल्ली के द्वारका एरिया में एक घर के आगे इस तरह की पानी की खुली टंकी सी तैयार करवा रखी थी... यह देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा..इस तरह का हौज जानवरों के पानी पीने के लिए मैंने किसी घर के बाहर शायद पहली बार ही देखा था ..

एकदम साफ़ थी यह टंकी और सब से बढ़िया बात यह लगी कि पानी के निकास के लिए भी व्यवस्था है ...यह बहुत ज़रूरी है ...वरना इसी चक्कर में इस तरह की टंकियों में गंदगी इक्टठा होती रहती है कि इस की सफाई टलती ही रहती है ...अगर निकास की व्यवस्था की गई है तो पानी भरना कोई बड़ा मुद्दा लगा नहीं ...वैसे उस के लिए भी यहां एक सुंदर व्यवस्था दिखा नलके की ....वरना बाल्टी भर भर के या पानी की पाईप से इस में पानी भरने का लोग आलस ही करते हैं! यह गृह साधुवाद का पात्र है निःसंदेह !
कल मुझे दिल्ली के द्वारका इलाके में  पानी की टंकी जो एक घर के बाहर जानवरों के इस्तेमाल के लिए दिखी ...

पानी भरने की टूटी और निकासी का भी समुचित प्रबंध ...जय हो!!

काश मछली रक्षक भी होते!

कल मैंने दिल्ली में एक जगह देखा कि फुटपाथ पर एक मछलीयां बेचने वाले ने एक टब में पानी भरा हुआ था..और उस में मछलियां डाल रहे थे ..वे मजे से उन में तैर रही थीं....लेेकिन यह आज़ादी किस काम की ...उसी दुकानदार के पास से लौटते हुए मैंने देखा कि कुछ युवा लोग मछली खरीद रहे थे ..जिस तरह से जिंदा मछली को पकड़ कर वह दुकानदार यातना दे कर मार रहा था उसे देख कर उन में से एक युवक के चेहरे पर जो भाव थे, वे मुझे हमेशा याद रहेंगे....

मैं यही सोच रहा था कि जितनी जितनी पढ़ी लिखी पब्लिक ज़रूरत से ज़्यादा लिख-पढ़ रही है और सब्जियों में फार्म-फ्रेश की तरह मांसाहार के लिए भी सब कुछ अपनी आंखों के सामने ही बरबाद और तैयार हुआ देखना चाहते हैं...उतना उतना इन बेजुबान पशुओं  पर अत्याचार ही बढ़ रहा है....मुझे बहुत बुरा लगा कल यह सब देख कर!


शायद आपने भी नोटिस किया होगा कि कुछ समय पहले तक तो मछलियां बेचने वाले एक ऐसा छोटा सा टब रखते थे जिस में बिल्कुल थोड़ा सा पानी डालते थे जिस से मछलीयां न जी ही पाती थीं और न ही मर पाती थीं, बस किसी ग्राहक के आने तक छटपटाती ही रहती थीं ...ग्राहक के आने पर उन्हें इस तड़प से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती!

गौशालाओं को बहुत बातें हो रही हैं...कुछ दिन पहले आदित्यनाथ जोगी की गौशाला और मुलायम सिंह के बेटे प्रतीक यादव की गौशालाएं देख कर बहुत अच्छा लगा....सोच रहा हूं किसी दिन गौशाला में ज़रूर जाऊंगा...बहुत सुनता हूं इन के बारे में ...बडा़ पुण्य का काम है ...निःसंदेह ... मैं जानता हूं कुछ लोग इस मिशन में कितनी लगन के साथ लगे हुए हैं...काश! हम सब पशु-पक्षियों के प्रति भी ..सभी प्राणियों ....पेड़-पत्तों के प्रति भी इतने संवेदनशील हो जाएं कि अगर उन्हें खरोंच भी लगे तो दर्द हमें होने लगे...आमीन !

बेटे ने राजस्थान के हिंदु एवं मुस्लिम गौरक्षकों पर कुछ डाक्यूमैंटरीज़ तैयार की थीं एक महीना पहले ....सोच रहा हूं मुस्लिम गौरक्षकों वाली उस यू-ट्यूब वीडियो को यहां शेयर करूं...


बंद कर रहा हूं इस पोस्ट को .....कुछ सिर पैर मुझे ही समझ में नहीं आ रहा ....कहीं आप के सब्र का इम्तिहान ही न लेने लगूं !!
(लेखक २३ वर्षों से शुद्ध शाकाहारी है ...अपनी मरजी से ...बिना किसी तरह के दबाव के .....Just because of simple principle ...  जियो और जीने दो!)




पान मसाले-गुटखे की लत ऐसे भी लगती है!

बचपन में हमारे पड़ोस में एक बुज़ुर्ग महिला थीं.. बहुत अच्छी...अकसर जब मुहल्ले के बच्चों में से कोई बाज़ार जाता दिखता तो उसे चुपके से नसवार लाने के लिए पैसे देती .. और अकसर हम उन्हें देखा करते कि वे चुपके चुपके इस नसवार को अपने दांतों पर घिस रही होतीं (परदे में)...

हमें यह भी नहीं पता था उस लड़कपन में कि यह नसवार होती क्या है, बस हमें यह बात पता थी कि वह बुज़ुर्ग काकी उसे अपने दांतों पर घिसती हैं और हमें वह खुशबू कुछ कुछ अलग लगती है ... न अच्छी न बुरी। 

पर जब हम लोग थोड़े बड़े हो गये तो हमें काकी बताया करती थीं कि यह बुरी आदत मुझे दांतों की वजह से लग गई....जब दांतों में दर्द होता, मैं इसे घिसती और राहत महसूस होती ...बस, यह कब लत लग गई, पता ही नहीं चला...

वैसे उस समय में हम लोग अकसर देखा करते थे कि लोग दांत दर्द से निजात पाने के लिए नसवार दांतों पर घिस कर खटिया पर लेट जाते और मुंह से लार टपकने देते कि इस से दर्द ठीक हो जायेगा...मैंने अपनी मां को भी बहुत बार ऐसा करते देखा...
समय बीतता चला गया....काकी का मुंह तो बच गया ..दांत सारे गिर तो गये और नकली दांत भी लगवा लिए... लेकिन फिर अचानक उन्हें मूत्राशय का कैंसर हो गया...आप्रेशन भी हुए...रेडियोथैरिपी(सिकाई) भी हुई...लेकिन वे चल बसीं..

तंबाकू ज़रूरी नहीं कि मुंह में ही अपना ज़हर उगलता है ...यह काम यह किसी भी अंग को निशाना बना कर सकता है ...मूत्राशय के कैंसर का रिस्क तंबाकू चबाने वालों में बहुत ज़्यादा तो होता ही है ...

मुझे कुछ दिनों से वह काकी बहुत याद आ रही थी बार बार .... खास कर जब से विनोद खन्ना के मूत्राशय के कैंसर का पता चला था ...आप को भी याद होगा विनोद खन्ना धूम्रपान काफ़ी किया करते थे...मुझे बहुत दुःख है विनोद खन्ना के चले जाने का भी ..बचपन से लेकर बड़े होने तक उन की बहुत सी फिल्मों की यादें हमारे साथ हैं...बेहतरीन शख्स, कलाकार...शायद ही इन की कोई फिल्म होगी जो अमृतसर के किसी थियेटर में ही लगी हो और वह मिस हो गई हो ...

अफसोस, कैंसर से जंग हार गये वह भी ..

मेरे लिखने का यह आशय बिल्कुल नहीं है कि जो लोग तंबाखू का इस्तेमाल करते हैं वे सभी मूत्राशय के कैंसर के शिकार होंगे ..या जो लोग तंबाकू नहीं पीते-खाते-चबाते वे ताउम्र इस मामुराद बीमारी से बचे रहेंगे...चाहे मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं..लेकिन इतना तो पक्का है ही कि तंबाकू से इस बीमारी का रिस्क भी बढ़ जाता है ...

जब मुझे आज एक ४५ वर्षीय महिला अपने दांत दिखाने आईं तो उस से यह सुन कर हैरानगी नहीं हुई कि पहले तो वह कुछ पानमसाला आदि नहीं खाती थीं.. लेकिन १०-१२ साल पहले उस के दांतों में दर्द होने लगा तो किसी के कहने पर जब उस पर पान मसाला घिसने लगीं तो आराम सा लगने लगा ...बस ऐसे करते करते लत ही पड़ गई...

मुंह के अंदर की चमड़ी सफेद पड़ गई है, मुंह पूरा खुल भी नहीं रहा 

उस महिला ने १०-१२ साल पहले जिस पानमसाले से शुरूआत की थी उस में दरअसल तंबाकू भी मिला रहता था ...फिर एक साल बाद उसने मसाला बदल दिया.... और पिछले कुछ वर्षों से तो उसने ऐसा मसाला शुरू कर लिया है जिस के साथ तंबाकू अलग पाउच में मिलता है ...और ये दोनों को यह खाने से पहले मिला लेती हैं... और सारे दिन में दो तीन पाउच तो खप ही जाते हैं... 

बातों बातों में यह भी पता चला कि वह केवल पानमसाला ही नहीं चबातीं, बल्कि जब दांतों में दर्द होता था तो किसी के कहने पर तंबाकू वाला मूसा का गुल मंजन भी घिसना शुरू कर दिया था ... पहले पहल तो बता रही थीं कि उसे लगाने पर ऐसा चक्कर आता कि वहीं की वहीं बैठ जाती लेकिन दर्द में राहत महूसस होती ..फिर उस की भी लत लग गई ...और दिन में दो तीन बार इस गुल-मंजन को घिसने लगीं...
गाल के बाएं तरफ़ की अंदर की चमड़ी (बिल्कुल सूखे चमड़े जैसी सख्त हो चुकी है) 

दाएं तरफ की गाल के अंदर की हालत ..छोटे छोटे घाव भी बने रहते हैं

अब कभी कभी जब इस तंबाकू वाले मंजन को घिसने की इच्छा नहीं होती तो यह किसी सामान्य पेस्ट का इस्तेमाल कर लेती हैं...अब इन की समस्या यही है कि मुंह में घाव हैं...कुछ भी खाने पीने से बहुत चुल होती है ...परेशानी बहुत ज़्यादा होती है ...
इस महिला को इस के मुंह के अंदर की ये सभी तस्वीरें दिखा कर १५-२० मिनट लगा कर इसे सभी तरह की ऐसी आदतों को छोड़ने के लिए प्रेरित किया .. और ऐसा न करने के क्या परिणाम हो सकते हैं...इस से भी आगाह करवाया...बातों से तो लगा है कि वह यह सब कुछ छोड़ने के लिए राजी हो गई है ..क्योंकि इस बीमारी का सब से बडा़ इलाज ही यही है ...

आप इन के मुंह के अंदर की फोटो मेें देख सकते हैं कि कैसे मुंह के अंदर की चमड़ी --मुंह के पिछले हिस्से में और गालों के अंदरूरनी हिस्सों में पीली तो पड़ ही चुकी है और बिल्कुल सूखे चमड़े जैसी सख्त भी हो चुकी है ..घाव तो दिख ही रहे हैं...जिन पर लगाने के लिए दवाई दी है और कुल्ला करने के लिए माउथ-वाश.....लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक यह इस आदत को नहीं छोडेंगी, कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ेगा... 

दांत के दर्द से निजात पाने के लिए
कुछ लोग दांत के दर्द के लिए तंबाकू घिसने लग जाते हैं - जैसा कि ऊपर चर्चा हुई है, कुछ लोग दांत के दर्द के चक्कर में इस लत का शिकार हो जाते हैं..

सुबह पेट साफ ही नहीं होता 
जिस महिला के बारे में मैंने ऊपर लिखा है उस ने भी यही कहा कि सुबह जब तक गुल मंजन घिस नहीं लेती, पेट साफ ही नहीं होता...लेकिन इस तरह की भ्रांतियां जनमानस में बहुत लंबे समय से व्याप्त हैं...बीड़ी के बिना हाजत नहीं होती, तंबाकू के बिना पेट साफ़ नहीं होता...

काम ही ऐसा है, क्या करें
मैंने बहुत बार स्वच्छ कारों को भी इस पानमसाले-गुटखे से दूर रहने के लिए प्रेरित किया है ..लेकिन उन का एक ही तर्क होता है कि क्या करें, काम ही ऐसा है... बिना इसे खाए-चबाए तो हम खड़े नहीं हो सकते! लेकिन फिर भी मैं बार बार इन्हें याद दिलाता ही रहता हूं कि यह कोई समाधान नहीं है...कुछ मान जाते हैं और कुछ टालते रहते हैं..

भारी काम, रात की ड्यूटी 
बहुत से वर्कर यह कहते हैं कि पहले इन सब चीज़ों का सेवन नहीं करते थे ..लेकिन जब से यह भारी काम करते हैं..रात की शिफ्ट में काम करते हैं तो नींद को दूर भगाने के लिए और सचेत रहने के लिए सहकर्मियों के अनुऱोध पर थोडा़ थोड़ा मसाला रखते रखते बस कब यह खेल लत में बदल गया, पता ही नहीं चला, अब छोड़ ही नहीं पा रहे। 

पीप अंदर नहीं लेते, थूक देते हैं
बहुत से लोगों में यह भ्रांति है कि वे तो बस गुटखे-मसाले को गाल के अंदर थोड़ा दबा देते हैं...चबा कर उस के रस को अंदर भी नहीं लेते, बस थूकते जाते हैं....लेकिन यह भी एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि अगर मसाले वाली लार को अंदर नहीं ले रहे हैं तो सब कुछ ठीक ठाक है ...ऐसा बिल्कुल नहीं है, चाहे आप उसे चबाएं या नहीं चबाएं, आप जहां पर भी गुटखा-पानमसाला मुंह में रखते हैं...उस के हानिकारक तत्व वहीं से ही शरीर के अंदर प्रवेश पा लेते हैं ...एक बात, दूसरी बात यह कि वहां पड़े पड़े भी वे क्या तांडव करते हैं, इस का ट्रेलर भी आप कितनी ही बार मेरी पोस्टों के माध्यम से देख चुके हैं...जैसा कि इस महिला के मुंह वाली तस्वीरों से भी आप देख सकते हैं कि मुंह के अंदर वाली चमड़ी की कितनी बुरी हालत हो चुकी है...इस अवस्था को ओरल-सब-म्यूक्स-फाईब्रोसिस कहते हैं जो कि निश्चित ही मुंह के कैंसर की एक पूर्वावस्था है ....अगर आदमी इस अवस्था तक पहुंचने पर भी नहीं समझता तो फिर कौन उस की मदद कर सकता है!.....इस अवस्था में भी अगर यह सब लफड़ा करना बंद कर दिया जाए तो स्थिति बद से बदतर होने से बच जाती है ..

जैैसा कि मैं हमेशा कहता हूं...इन तरह के जानलेव शौक से बचे रहिए, बचाते रहिए... और कोई रास्ता है भी नहीं!!

इतनी बोझिल टॉपिक था आज का.... एक गीत चला रहा हूं ... विनोद खन्ना साब का .. विनम्र श्रद्धांजलि इस महान अभिनेता को .. 




मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

आंवला जूस के बारे में आप भी सचेत रहिए...


आंवले के जूस के बारे में कल मुझे मेरी बड़ी बहन से एक वाट्सएप मैसेज मिला ...दरअसल हर घर में कोई न कोई तो इस जूस का दीवाना हो चला है ...पिछले कईं सालों से ..इसलिए ऐसी खबर पढ़ कर एक दूसरे की चिंता हो जाना भी स्वाभाविक सी बात है!

आंवला अच्छा है, मुरब्बा अच्छा है...आंवले का पावडर बढ़िया है ...आंवले का आचार, चटनी, कैंडी भी अच्छे हैं...लेकिन जब से यह आंवले का जूस बाज़ार में आया है ना तभी से मेरे मन में इस के बारे में अजीब से विचार हैं...

अब ब्लॉग है तो ज़ाहिर सी बात है कि विचार ही होंगे, मैं कोई लैबोरेट्री तो खोल कर बैठा नहीं हूं कि सब कुछ अपने जांचे-परखे तथ्यों के आधार पर ही कहूं...ऐसा नहीं हो सकता, इस काम के लिए देश की बड़ी बड़ी विश्वसनीय लैब्स हैं जो यह काम बखूबी कर रही हैं...जैसा कि आप इस रिपोर्ट में भी देख सकते हैं..

रात को सोते समय जिज्ञासा सी हुई कि ज़रा इस वाट्सएप मैसेज की विश्वसनीयता ही जांच ली जाए...गूगल के अलावा कोई साधन है नहीं इस के लिए भी ... इसी न्यूज़-स्टोरी का शीर्षक लिख कर गूगल किया तो ये रिज़ल्ट आ गये ...बात पक्की हो गई.. (आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं) और टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑनलाईन संस्करण में भी यह खबर दिख गई ...

कलकत्ता की एक लैब ने इस आंवला जूस की जांच करने पर पाया है कि इसे पीना असुरक्षित है .. आर्मी की कैंटीनों में इस की बिक्री बंद कर दी गई है ...

जब हम लोग आंवले जैसे किसी खाद्य पदार्थ के जूस के बारे में सोचते हैं तो मन में कुछ बूंदों की कल्पना होती है ... न कि बड़ी बड़ी आंवले जूस से भरी एक लिटर बोतलों की ...लेकिन यह प्रश्न मेरे मन में ही रहा इतने वर्षों से कि इस तरह के आंवले के जूस कैसे हैं जो इतनी इतनी बड़ी बोतलों में मिलते हैं..एक बोतल भरने के लिए पता नहीं कितनी बोरी आंवले पीसे जाते होंगे..

कल रात मेरी जब मिसिज़ से इस बारे में बात हुई तो उन का भी यही विचार था कि इस तरह के आंवला-जूस वैसे नहीं होते होंगे जैसा पब्लिक समझती है कि जैसे हम लोग संतरे-कीनू का जूस निकालते हैं....यह जूस वह होगा जो आंवला कैंडी बनाते समय आंवले को पानी में उबालने से बच जाता होगा......बात मेेरे भी मन को लगी तो!

मैं किसी एक ब्रांड की बात भी नहीं कर रहा हूं...लेकिन एक बात तो है कि पब्लिक के इस नये जुनून को कैमिस्टों ने खूब भुनाया..एक तरह से रामबाण औषधि की तरह इस जूस को प्रमोट किया गया...यकीनन, आंवला अमृत फल है...इस के सभी उत्पाद भी .....लेकिन इस आंवले के जूस के बारे में रह रह कर मन में प्रश्न आते रहते हैं....

मैं इतने विवादास्पद मुद्दे पर जो कि पब्लिक सेंटीमेंट्स से इतना जुड़ा हुआ है ....इस पर लिखने की हिम्मत जुटा पा रहा हूं क्योंकि रात में एक और वाट्सएप मैसेज भी मिला था ...
"एक क्रिकेटर बता सकता है कि कौन सा इंवर्टर, सीमैंट और दारू अच्छी है...एक एक्टर बता सकता है कि कौन सा अन्डरवियर, दीवार का पेंट, फेस-क्रीम अच्छी है...
लोक सभा का एक सदस्य बता सकता है कि जल शुद्धिकरण का कौन सा यंत्र टनाटन है!
लेकिन एक डाक्टर नहीं बता सकता कि दवाई का कौन सा ब्रांड अच्छा है !
अविश्वसनीय भारत!!"
इसे देख कर यही लगा कि हमें भी किसी भी चीज़ के बारे में अपनी बेबाक राय रखने की हिम्मत करनी चाहिए....वैसे कौन सा पब्लिक हर बात पढ़ कर मान ही लेती है ...वे भी स्वतंत्र हैं सच की खोज करने के लिए.

बहुत से लोग अकसर मिलते हैं जो आंवला जूस रोज़ पीते हैं...मैं किसी को नहीं कहता कि इसे मत पियो या इसे पियो...मैंने एक दो बार ज़रूर पिया था ..लेकिन मैं आंवले का प्राकृतिक रूप में, पावडर रूप में ...आचार-मुरब्बे के रूप में सेवन करना बेहतर मानता हूं...

मुझे कल यही ध्यान आ रहा था कि देश में इतनी ज़्यादा गर्मी पड़ती है ...हम लोग खाने पीने वाली चीज़ों को एक घंटा भी बाहर नहीं छोड़ते, फ्रिज में ठूंसते रहते हैं...और एक हिंदोस्तानी घर में फ्रिज़ में आटा, दाल, सब्जी, दूध-मलाई और पानी की छःसात बोतलें ही इतनी मुश्किल से ठूंसी जाती है कि यह आंवले जूस वाली बोतल को फ्रिज में रखने की जगह ही नहीं बचती होगी ...हमारे यहां भी यह आंवले जूस वाली बोतल मेज पर ही सजी दिखती है ...

अभी मेैं इस बोतल को देख रहा था कि इस में प्रिज़र्वेटिव ..सोडियम बेंजोएट भी पड़ा हुआ है ...वह कोई इतना बड़ा इश्यू नहीं है....अब अगर एक उत्पाद की शेल्फ-लाइफ एक साल बताई जा रही है (आंवले जूस की एक्सपॉयरी तैयार होने से एक साल तक की बताई गई है ...इस सौ रूपये में बिकने वाली एक लिटर बोतल में!) तो ज़रूरी है कि उस में प्रिज़र्वेटिव भी तो होगा!

अब हमारे जैसे गर्म देश में बिना रेफ्रीजरेशन के ऐसे पेय पदार्थ मेज़ों पर सजे रहेंगे तो इन में कुछ तो बदलाव आता ही होगा....मैं नहीं मानता कि इन्हें आप तब भी राम बाण या संजीवनी मानते रहेंगे ...लोग भी इतने सेंटीमेंटल हैं यहां के .....एक घंटा पुरानी लस्सी (छाछ) या दस मिनट पुराना गन्ने का रस तो नहीं पिएंगे ..लेकिन इन सब डिब्बा बंद प्रोडक्टस के बारे में कम ही सोचते हैं!

अब लैब ने रिपोर्ट दी है तो बड़ी जांच परख कर ...ठोक बजा कर ही दी होगी ....शायद आज की अखबार में भी आप को यह खबर दिख जाए... लेेकिन एक बात और भी पक्की है कि आज से ही एक आरोपों-प्रत्यारोपों का अभियान भी मीडिया में चलने लगेगा....कि हम सच्चे हैं, नहीं हम सच्चे हैं....करोड़ों रूपये खर्च किये जाएंगे ...शायद कुछ महीनों बाद कोई आप से यह भी कहने आ जाए (नूडल्स की तरह)  कि नहीं, नहीं, सब ठीक है, गलतफहमी दूर हो गई है, आप जी भर कर इस्तेमाल कीजिए इसे ..........वह तो ठीक है , लेकिन समझदार को बस एक इशारा ही काफ़ी होता है...

मैंने ऊपर भी लिखा कि यह किसी एक कंपनी की बात नहीं है ....  इतनी इतनी बड़ी बोतलों में मिलने वाले जूस मेरे मन में कुछ प्रश्न छोड़ जाते हैं...लेकिन वे मेरे अंदर ही रहे ...मैं तो आंवले से तैयार विभिन्न खाद्य पदार्थों का महिमामंडन ही करता रहा इस ब्लॉग पर भी ..और यह सच भी है ...लेेकिन कलकत्ता की लैब ने हो न हो इस आंवले जूस पर तो एक प्रश्न चिंह लगा ही दिया है ...

हमें खबर पता चली हम ने आगे शेयर कर दी ...लोग मेच्योर हैं...बड़े से बड़े फैसले अपने आप लेने में सक्षम हैं...पता नहीं यह बात मानेंगे कि नहीं.....लेकिन एक काम कीजिए...अगर आपकी मां भी इसे पीती हैं, मेरी मां की तरह, तो उसे ज़रूर मना कर दीजिए....मेरी मां तो मान गई हैं....मां को मनाना कौन सा मुश्किल काम होता है, झट से हमारी बातों में आ जाती हैं! बाहर चाहे हमारी कोई एक बंदा भी न सुनता हो, लेकिन मां के सामने हम तीसमार खां बन ही जाते हैं!!

इस पोस्ट को बंद करते समय यही ध्यान आ रहा है कि ऐसे जूसों की जगह इतने पैसों में तो कोई बंदा कुछ दिन तक बाज़ार में सस्ते बिकने वाले मौसमी फलों का जुगाड़ कर सकता है .....एक ध्यान यह भी आ रहा है कि इन चीज़ों के चक्करों में नहीं पड़ना चाहिए... ताज़ा बना हुआ सीधा सादा हिंदोस्तानी खाना ही सर्वोत्तम है, बाकी सब चोंचले हैं...ज्वार भाटा फिल्म के इस गीत का भी यही क्रक्स है ..दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ...


आंवले के बारे में एक बार फिर से लिख दूं कि यह तो अमृत फल है ही...मैं भी इसे अकसर खाता ही हूं..पावडर भी लेता हूं बहुत बार .....लेकिन आंवले के जूस के बारे में अपने विचार मैं लिख कर हल्कापन महसूस कर रहा हूं......ज़रूरी नहीं कि आप मेरी इस बात से सहमत हों, मतभेद भी ज़रूरी है ......लेकिन अपने विचार इस पोस्ट के नीचे टिप्पणी के रूप में दर्ज करते जाईएगा....ज्ञान का आदान-प्रदान बड़ा ज़रूरी है...ज़रूरत पड़ने पर मैं अपनी इस पोस्ट में संशोधन भी कर सकता हूं...

बिल्कुल एक unknown territory में आज पंगा ले लिया है, देखते हैं!

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

1973 के ज़माने का अपना साथी....सतनाम सिंह!

मैं कईं बार लिख चुका हूं हमारे घर का स्टडी रूम लिखने-पढ़ने की जगह कम और कबाड़खाना ज़्यादा लगता है ...वहां पढ़ने-लिखने के अलावा कुछ भी हो सकता है, रेडियो सुना जा सकता है, सपने बुने जा सकते हैं..और पुरानी यादों को ताज़ा किया जा सकता है ...

मैंने पिछले १५-२० सालों में बहुत बार कोशिश की सब कुछ व्यवस्थित करूं ..लेकिन कभी हो नहीं पाया...कुछ भी ऐसा मिल जाता है जिस की यादों में खो जाता हूं और बस, वह दिन तो गया....

मैं जब भी पुरानी डॉयरियां, कापियां या पर्चियां, विज़िटिंग कार्ड्स देखता हूं तो उन्हें बड़ी एहतियात के साथ संभालता हूं ...और बहुत सोच समझ कर फाड़ता भी हूं कभी कभी....वह क्लेरिटी तो है मुझे। 

आज शाम को भी १४-१५ साल पुरानी एक डॉयरी हाथ लग गई... २००१-०२ के आसपास मैं अमृतसर गया था एक लेखक वर्कशाप के लिए..कुछ दिन वहां पर ही रहा ..और उन दिनों मैंने राइटर वर्कशाप में इतनी रूचि नहीं ली जितनी अपने स्कूल के पुराने साथियों को ढूंढने की मुझे बेसब्री थी...

बड़ा मेहनत का काम था..किसी को उस के बैंक में पकड़ा, किसी को उस की फैक्टरी में, क्लिनिक में ...कुछ को घर में जा कर धर दबोचा, किसी को उस के स्कूल में .....बड़ा मुश्किल काम था...लेकिन जिसे भी मिलता, मिल कर मज़ा आ जाता ...पुराने दिन याद आ जाते ...अपना एक साथी है ...सतनाम सिंह .. १९७३ में मैं डीएवी स्कूल अमृतसर में दाखिल हुआ तो शायद सतनाम पहले ही से वहां पढ़ रहा था ... सतनाम का घर भी हमारे स्कूल के गेट के सामने ही था...याद है कईं बार आते जाते उस के घर में उसे आवाज़ लगा दिया करते थे...हां, तो जब मैं १४-१५ साल बाद अमृतसर गया तो मैं उस गली में भी गया जहां सतनाम का घर था... उस गली में एक कुल्चे बनाने का कारखाना था...सतनाम का कुछ अता-पता-ठिकाना न मिला...

मैंने भी हार नहीं मानी ....धक्के खाते खाते उस का फोन नंबर मिल गया...और उसी दिन ही मुझे वापिस लौटना था...फोन पर बात हुई ...बहुत अच्छा लगा...

हां, तो आज जब मुझे वह डॉयरी मिली तो पन्ने उलटे-पुलटे ...जिन स्कूल के साथियों को मिला था ...और जिन मास्साब के घर भी गया उन सब का ठिकाना और फोन नंबर तो लिखे थे ...एक जगह पर सतनाम का फोन नंबर भी लिखा मिल गया...बहुत खुशी हुई....मुझे सतनाम पर इतना तो भरोसा था कि उसने फोन नहीं बदला होगा...इसलिए जैसे ही फोन मिलाया और ट्रू-कॉलर पर सतनाम लिखा आया तो मज़ा ही आ गया...

खूब बातें हुई ...पुराने साथियों की बातें हुईं... उसे बताया कि अपने स्कूल के साथियों का वाट्सएप ग्रुप है ...उसे भी उस में अब शामिल होना है ... 

यह वाट्सएप ग्रुप वैसे तो एक साल पुराना है ..मैंने उस में बहुत बार कहा कि सतनाम का पता करो....लेकिन शायद कुछ पता लग नहीं पाया... चलिए, कोई बात नहीं, देर आयद..दुरुस्त आयद... 

सतनाम सिंह जो आजकल केंद्र सरकार के एक विभाग में अधिकारी हैं...
हां, तो सतनाम के बारे में दो बातें...सतनाम बड़ा खुले स्वभाव का है ....खूब हंसोड़... जब मैं १९७३ के सतनाम को याद करता हूं तो मुझे खुलेपन से हंसने वाला अपना एक साथी याद आता है...जो हमेशा मस्त रहता था...बड़ी सहज तबीयत, कोई टेंशन वेंशन नहीं लेना उस का स्वभाव था....

आज सतनाम से बात करने के बाद यही लग रहा है कि जिस भी चीज को हम लोग मन से चाहते हैं...वह अपने आप हम तक पहुंच जाती है, वरना कुछ संयोग ऐसा हो जाता है कि हम लोग उस तक पहुंच जाते हैं... इसलिए उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए.. 

उम्मीद से एक बात याद आ गई ....पुराना एक रिवाज था कि लोग एक बोतल में किसी के नाम चिट्ठी लिख कर समुद्र में डाल दिया करते थे...उस उम्मीद के साथ कि चिट्ठी कभी न कभी तो ठिकाने पर पहुंच ही जायेगी.. अभी कुछ समय पहले किसी को ऐसी ही एक १०८ साल पुरानी एक चिट्ठी मिली है ...कुछ पता नहीं कि किस ने किस को लिखी थी...लेकिन उसे गिनिज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कर दिया गया है ....

तो आज के इस किस्से से हम ने क्या सीखा?....उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए, उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है सारी ...
और एक बात अपनी तरफ़ से जोड़ रहा हूं कि किसी के सपनों पर कभी हंसना भी नहीं चाहिए....कायनात बहुत बड़ी है, सब के हिस्से का आकाश है! 

हां, एक बात लिखनी तो भूल ही गया कि इतने सालों के बाद बात करने पर भी सतनाम को याद था कि हम दोनों की १४-१५ साल पहले बात हुई थी और वह बता रहा था कि वह लोगों से यह शेयर करता रहा इन सालों में कि अपना एक साथी आया था ..उसने पता नहीं कितनी मेहनत-मशक्कत कर के मेरा नंबर पता किया ..लेकिन अपनी मुलाकात नहीं हो सकी ..और सतनाम यह भी बता रहा था कि वह उसे हमारे घर के पास वह जगह भी बड़ी याद आती है ...जहां वह खेलने जाया करता था...कह रहा था कि लोगों को उस के बारे में बताता हूं जब भी उधर से गुजरता हूं.. 

कोई गल नहीं, सतनाम...कोई गल नहीं ...मिलांगे यार ज़रूर ....वादा रिहा ...जिउंदे वसदे रहो ..यारां नाल बहारां..