यह तस्वीर जो आप यहां देख रहे हैं यह एक आठ-नौ साल की बच्ची की है जो मेरे पास ठीक २ महीने पहले आई थी, इस की मां को इस के ऊपर वाले अजीब से दांत से परेशानी थी ...उसे लगता था कि यह कैसा दांत है, अजीब सा लगता है...
उसे बताया गया कि यह एक एक्स्ट्रा दांत है जो इस जगह पर निकल आता है ..इसे जितनी जल्दी हो सके निकलवा लेना चाहिए, वरना यह साथ वाले दांतों को बेतरतीब कर देते हैं ...देखने में तो बुरा लगता ही है ...
उसी दिन इस बच्ची का यह दांत निकाल दिया गया...इस तरह के दांतों को उखाड़ना बहुत आसान होता है ..
कल यह बच्ची दो महीने बाद अपने दंत परीक्षण के लिए आई थी...आप इस तस्वीर में देख सकते हैं कि कैसे धीरे धीरे दो दांतों के बीच वाली खाली जगह थोड़ी कम हुई है ...और मुझे उम्मीद है कि अगले दो तीन वर्षो ं में यह खाली जगह या तो खत्म ही हो जायेगी नहीं तो बिल्कुल ही कम हो जायेगी...
बच्ची अपने दांत ठीक से ब्रुश नहीं कर रही थी, उसे इस का सही तरीका समझाया गया और उस के दांतों की स्केलिंग भी कर दी थी...
पोस्ट यह छोटी है ...बस यही बताने के लिए कि दांतों का नियमित परीक्षण करवाते रहना चाहिए ...थोड़ी सी भी गड़बड़ी आगे चल कर बहुत दिक्कत पैदा कर सकती है ...
शायद पिछले २० वर्षों से आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स के बारे में सुन रहा था...बहुत जिज्ञासा तो थी ही....मुझे याद आ रहा है शायद सन् २००० के आसपास की बात होगी... उन दिनों हम लोग फिरोज़पुर में पोस्टेड थे, एक दिन लुधियाना जाने का अवसर मिला...वहां पर ऑर्ट ऑफ लिविंग के गुरू जी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक भव्य प्रोग्राम था...वहां पर भजन-संध्या का कार्यक्रम था...कुछ समय बैठ कर वहां बहुत अच्छा लगा ...उस के बाद एक शानदार प्रीति भोज भी था...वहां पर सब लोगों में एक ठहराव, सुकून देख कर अच्छा लगा...
कभी कभी गुरू जी के प्रोग्राम टीवी पर भी देखने-सुनने को मिलते रहे ...उन की सहजता और बच्चों जैसी सरलता का कायल हुए बिना न रह सका..
कुछ वर्ष पहले हम लोग हरियाणा में थे...वहां पर श्रीमति जी ने आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स किया ...शायद २००८ के आसपास की बात होगी ...और आस पास भी कुछ समर्पित आर्ट ऑफ लिविंग के टीचर्ज़ एवं वालेंटियर्ज़ थे ...जिन से बात कर के अच्छा लगता था...एक बार श्रीमति जी ने यमुनानगर में हमारे यहां की एक ऑफीसर्ज़ क्लब में इसे आयोजित करवाया था और एक बार सत्संग हमारे यहां भी हुआ था...
एक दो बार आर्ट आफ लिविंग की मासिक पत्रिका भी पढ़ने को मिली ...
हरियाणा में ही एक आर्ट का लिविंग के एक साधक थे जिन की फैक्ट्री में गुरू जी का जन्मदिवस हर साल मनाया जाता था...भजन-संध्या और फिर प्रीति-भोज ..दो चार बार हमें वहां भी जाने का मौका मिला...
और श्रीमति जी तो कभी कभी किसी सखी सहेली के साथ आर्ट ऑफ लिविंग सत्संग में कभी कभी चली जाती हैं....
मैं भी दो तीन दिन से इस कार्यक्रम में जा रहा हूं...बहुत अच्छा लग रहा है, हल्कापन लगता है ....
दरअसल इस कोर्स के बारे में मैं केवल आप को यह कह सकता हूं कि आप इसे अवश्य करिए....जैसा कि गुरू जी ने इस का नाम रखा है ..आर्ट ऑफ लिविंग ...सच में देख रहा हूं कि यह जीवन जीने का सलीका मानस को सिखा रहे हैं...
आप किसी भी धर्म-जाति से संबंधित हैं, आप का स्वागत है ....हम जैसे भी हैं, हमें तुरंत गुरू जी की परम अनुकंपा से स्वीकार किया जाता है ...
हां, तो मैं बात कर रहा था कि हमें जीवन जीने की कला यहां सिखाई जाती है ...और इस की शुरूआत इस बात से होती है कि हम पहले ठीक तरह से सांस लेने का सलीका तो सीख लें....अफसोस, जीवन की इस आपा-धापी में हम ढंग से सांस ही नहीं ले पा रहे हैं....इसलिए हर समय बुझे बुझे से रहते हैं और दिखते भी ऐसी ही हैं....यकीन मानिए, यहां पर आप को खिलने का पूरा अवसर मिलता है ...
एक बात जो इस आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स के बारे में बहुत मज़ेदार है वह यह है कि यहां पर सब खुशी की, जश्न की, उम्मीद की, सुबह की, आशा की, स्नेह-वात्सल्य की, गिरते हुए को थामने की, सभी में इस सर्वव्यापी ईश्वर में दीदार करने की बात करते हैं...मुझे मेरी नोट बुक में लिखी हुईं बशीर बद्र साहब की ये पंक्तियां ध्यान में आ रही हैं.....आप से शेयर कर रहा हूं...
बशीर बद्र साहब की ये पंक्तियां कितनी लाजवाब हैं .... जीने वाले तुम्हें खुदा की कसम मौत से ज़िंदगी की बात करो ..
मुझे बस यही लगता है कि कोर्स तो हम लोग बहुत से कर लेते हैं लेकिन हम उस अर्जित ज्ञान को कितना जी पाते हैं, और नियमित अभ्यास से कितना उस को अपने जीवन में उतार पाते हैं...यह सब ईश्वरीय अनुकंपा और गुरू की असीम कृपा से संभव हो पाता है ....मैं भी इस समय यही सोच रहा हूं कि दो तीन दिन में कोर्स तो यह संपन्न हो जायेगा....लेकिन बात तो तब है अगर वहां पर सीखी सुंदर बातों को अपने जीवन में अच्छे से अपना लूं....यह तभी संभव है अगर नियमित साधना हो और सत्संग के द्वारा इस ज्ञान को जीने वाले भाई-बहनों से प्रेरणा और आशीर्वाद मिलता रहे .....गुरूकृपा....रहमत ....जय गुरुदेव..
एक बात आप से शेयर करूं कि ये जो फिल्मी गीत हैं यह हमारे दिलो-दिमाग में इस कद्र छाए हुए हैं कि बहुत बार जब मैं आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में कुछ भी सुनता था तो मुझे अपने बचपन के दिनों का यह गीत ज़रूर याद आ जाया करता था....अभी भी याद आया....उस के अल्फ़ाज़ भी कुछ इस तरह के हैं...आ बता दे तुझे कैसे जिया जाता है! मेरे पसंदीदा गीत को आप भी सुनिए....मुझे इस गीत के लिरिक्स बेहद पसंद हैं...
आज सुबह ६.३० बजे के करीब इच्छा हुई कि टहलने जाया जाए...
कोहरा बहुत घना था, लेकिन फिर भी लोग घर के पास ही बाग में टहल तो रहे ही थे...
मैं भी टहलने के बाद एक जगह जब शांति से बैठ गया...पास ही बैठे एक सज्जन अपने एक मित्र से बतिया रहे थे कि अच्छा है, कोहरा इस बार अच्छा पड़ रहा है, उन्हें कह रहे थे कि हमें कोहरा बहुत अच्छा लगता है और विशेषकर इस में टहलना...
मित्र को बता रहे थे कि वैसे तो हम कभी आलस कर भी जाते हैं लेकिन इतने कोहरे में ज़रूर घर से निकल पड़ते हैं...और बाग में तो और भी अच्छा लगता है, इतने तरह के पेड़-पौधे देख कर मन खुश हो जाता है ...
मुझे इस सज्जन की बात अच्छी लगी ...जहां पर मैं बैठा था, पास ही में बहुत से आंवले के पेड़ लगे हुए हैं, अकसर आते जाते आंवले गिरते हुए दिख जाते हैं...
चलिए, यह तो हुई कोहरे की, आंवले की बात ...अब करते हैं नोटबंदी की बात....
इस ब्लॉग पर मेरी पिछली पोस्ट की डेट थी ८.११.२०१६ ...और उसी दिन रात में प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का एलान कर दिया था...मुझे अपने आप में लग रहा था कि मेरे जानने वालों को लग रहा होगा कि पुराने नोट ठिकाने लगाने में मैं इतना व्यस्त हो गया कि ब्लॉग पर लौटना ही भूल गया...नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, दो चार नोट ही थे, वे पेट्रोल पंप में लग गये थे, १० नवंबर की शाम १० मिनट बैंक की लाइन में लगा था और सौ-सौ रूपये का दस हज़ार का बंडल मिल गया था...कुछ दिन बाद मैंने एसबीआई की पर्सनल बैंकिंग ब्रांच में खाता खोल लिया...वहां पर किसी भी समय जा कर कम से कम दो हज़ार रूपया तो निकलवा ही लेते हैं...
प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय की मैं दाद इसलिए देता हूं क्योंकि इतने बड़े फैसले के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए ...वरना तो इस व्यवस्था में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को उस की मनपसंद जगह से हिलाने पर हंगामा खड़ा हो जाता है और वह वापिस अपनी पुरानी जगह पर लौट कर ही दम लेता है....मैनेजमंट का यह भी एक उसूल है कि फैसला होना चाहिए...फैसले की गुणवत्ता पर चर्चा बात में हो सकती है ...और प्रधानमंत्री जिसे प्रजातांत्रिक ढंग से हम ने स्वयं चुना है, वह जनहित में कोई भी निर्णय तो ले ही सकता है....पक्ष और विपक्ष की बातों की दौर भी चलना ज़रूरी है ....और चल ही रहा है ३५ दिनों से ....
एक बात और , बहुत लंबे समय तक कम्यूनिकेशन का विद्यार्थी रहा हूं...केवल थ्योरी ही समझ पाया हूं ...व्यवहारिक तौर मेरे संवाद में भी सभी खामियां मौजूद हैं, मैं जानता हूं ...लेकिन इन के बारे में अपने आप को सचेत करता रहता हूं...
एक विचार दो चार दिनों से आ रहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि हम किसी को अपशब्द कह कर ही अपमानित करें, हम अकसर जब झुंड में बैठे हों तो अपने शब्दों के चयन पर ज़्यादा ध्यान देते नहीं हैं....mob mentality मजदूरों के झुंड में ही नहीं होती, पढ़े लिखे इन्टेलेक्चुएल लोगों में यह अलग रूप में पाई जाती है....
आप कभी सोचिए कि जब हम लोगों का किसी से one-to-one ईन्ट्रेक्शन होता है तो हम अलग होते हैं, जब कोई तीसरा उस संवाद में घुस जाता है तो हम थोड़ा नाटकीय होने लगते हैं, और जब हम ग्रुप में होते हैं (ग्रुप या झुंड ...झुंड ही ठीक लगता है) तो हम बेलगाम हो जाते हैं....हर परिस्थिति में होने वाले संवाद की अपनी विशेषताएं हैं...काश, हम इन्हें अच्छे से समझ पाएं...मैं भी मरीज़ों एवं उनके अभिभावकों के साथ इंट्रेक्शन के समय इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं ....no compromise on this!
अपशब्द तो बहुत दूर की बात है, आज कौन किस की सुनता है, हम अपनी कही हुई बात की टोन से भी किसी दूसरी को नीचा दिखा सकते हैं.....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर कोई व्यक्ति पलट कर जवाब नहीं देता तो यह उस की महानता है...झुंड में बैठे लोग मन ही मन इस का संज्ञान लेते हैं ...चाहे वे वहां जुबान खोले या ना खोले...
मैं भी सुबह सुबह बेकार का फलसफा झाड़ने लग गया, बात केवल इतनी सी है कि हमारा किसी से मतांतर हो सकता है लेकिन किसी को भी किसी तीसरे के सामने कुछ ऐसा-वैसा कहने का अधिकार किसी को भी नहीं है, और झुंड में तो बिल्कुल भी नहीं है...एक बात और भी कहनी है कि अगर हम सामने वाले को अलग से कहेंगे तो उसे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा ...
यह बात तो ठीक है, लेकिन हम पहाड़ जैसी अपनी ईगो का क्या करें, कमबख्त वह तो किसी सज्जन की पगड़ी सरेआम उछाल कर ही शांत होती है ....
हां तो कोहरे की बात हो रही थी, तो मुझे धुंध फिल्म का ध्यान आ गया, याद आ रहा है कि जब मैं स्कूल में था तो रविवार के दिन रेडियो पर हिंदी फिल्मों की स्टोरी सुनाया करते थे, बड़ा मज़ा आता था, बढ़िया टाइम-पास .......और इस फिल्म की स्टोरी भी मैंने ऐसे ही सुनी थी, इस का भी एक गीत अभी ध्यान में आ गया जिसे अपनी अकल को ठिकाने पर रखने के लिए कभी कभी सुन लेना चाहिए( मैंने भी तीन चार बार सुन लिया है!!)....संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है, इक धुंध में आना है, इक धुंध में जाना है ....
I had read somewhere......When you are good to others, you are best to yourself! Take care!
सुबह के पांच बज चुके हैं...और मैं २००७ नवंबर से जो काम इस समय नियमित करता आ रहा हूं...लैपटाप लेकर बैठ गया हूं..मन की बातें अपने ब्लॉग पर लिख लेता हूं..किसी के लिए कोई नसीहत नहीं, किसी को सुधारने का कोई एजेंडा नहीं (पहले अपने आप को तो सुधार लिया जाए !) ....ब्लॉगिंग मैंने नवबंर २००७ में शुरू की थी ..
मैं अकसर राजनीतिक या धार्मिक विषयों पर कुछ कहता हूं नहीं...ये मेरे विषय हैं नहीं...क्योंकि इन में बहसबाजी करनी पड़ सकती है बहुत बार...उस काम में मैं शुरू से ही बहुत कमज़ोर हूं...बेहद कमज़ोर ...इतना कमज़ोर कि मैं बहस तो क्या करनी है, मैं ऐसे लोगों से ही दूर भागने लग जाता हूं..
कल मैं सुबह उठा...अखबार उठाया तो देखा कि एचपीवी टीकाकरण का दिल्ली सरकार का विज्ञापन छपा हुआ था उसमें ...उस इश्तिहार में भी लिखा हुआ था और मुझे भी पता है ...यह भारत में पहली बार है और दिल्ली सरकार की अग्रणी पहल है...इस टीकाकरण के बारे में मैंने आठ नौ साल पहले अपने कुछ विचार लिखे थे, अगर आप इस के बारे में डिटेल से पढ़ना चाहें तो इन लिंक्स को देखिए...
हां, तो मैं मन ही मन दिल्ली सरकार की इस बेहतरीन पहल के बारे में सोचता रहा कईं घंटों तक ....
दोपहर में लेटा हुआ था ...तभी दिल्ली सरकार के रीडिंग कैंप के बारे में रेडियो से पता चला...
सरकारों को अभी तक खुद ही अपनी अपनी पीठें थपथपाते हुए यह तो कहते सुना था कि हम ने शिक्षा के क्षेत्र में भी इतनी कीर्तिमान हासिल कर लिए...हम नहीं कह रहे आंकड़े बोल रहे हैं...सरकारी स्कूलों की हालत इतनी सुधर गई है ...लेकिन देश के स्कूल की पोल तो तब खुली जब हम लोगों को यह पता चला कि अधिकांश स्कूलों में तो टॉयलेट हैं ही नहीं...और बच्चियां अधिकतर स्कूल में अपना नाम भी इसी कारण नहीं लिखवातीं ..
लेकिन एक सरकारी विज्ञापन में अगर कोई सरकार यह कहे कि एक सर्वे में यह पाया गया है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में छठी कक्षा में पढ़ने वाले ७४ प्रतिशत बच्चे ठीक से अपनी किताब ही नहीं पढ़ पाते ...इसलिए अब सरकार जगह जगह पर रीडिंग कैंप लगा रही है ...ताकि सभी बच्चे १४ नवंबर तक अपनी किताबें पढ़ सकें...
यह रेडियो विज्ञापन बार बार चल रहा था...कभी शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया का संदेश, कभी किसी स्कूली बच्चे का और कभी किसी अध्यापक का संदेश आ रहा था कि आप भी अगर किसी ऐसे बच्चे को जानते हैं जो अपने पाठ को ठीक से पढ़ नहीं पाता तो उसे इस कैंप में भेजिए और हां, आप भी इस कैंप में बच्चों को पढ़ाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं...
निःसंदेह इस तरह के activist-turned-politicians ही इस तरह की सुंदर पहल कर सकते हैं ..वरना शिक्षा मंत्री जैसे लोग कौन इन झमेले में पड़ते हैं...इन सब मुद्दों से कहां वे अपना सरोकार दिखा पाते हैं, ऐसा मैं सोचता हूं...
आज से चालीस पैंतालीस साल पहले के दिनों की बातें याद आ रही हैं...हमारे घर के पास ही एक सरकारी स्कूल था, जिसे अमृतसर की ठेठ भाषा में खोती-हाता कहा जाता था....वैसे पूरा शब्द होता है खोती-अहाता (जहां पर खोतियों को रखा जाता है...अब खोती किसे कहते हैं...मुझे नहीं पता गधे का स्त्रीलिंग क्या है हिंदी में ..लेकिन पंजाबी में उसे खोती कहते हैं! )....यह मैं १९६८ -७०-७२ के आस पास की बातें सुना रहा हूं... ठीक बारह बजे दूध की कांच की बोतलें उन बच्चों के लिए लेकर एक ट्रक आ जाता था...सब बच्चे उसे पीते थे ...और उस के बाद फिर से अपने पहाड़े रटने में लग जाते थे...पहाडे़ (जो आजकल टेबल हो गये हैं) रटने का एक अच्छा म्यूजिकल सिस्टम था...बारी बारी से बच्चों को टीचर के पास खड़े होकर एक सुर में कविता जैसी शैली में किसी एक पहाड़े को बोलना होता था, उसके पीछे पीछे फिर सारी कक्षा उस पहाड़े को रिपीट करती थी... मुझे अभी भी वह लिरिक्स याद है ....शायद मुझे भी अधिकतर पहाड़े अपने स्कूल की बजाए इन बच्चों के रटने की आवाज़ों की वजह से ही याद हो गये!
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें...किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए..
पाठ्य पुस्तकों को पढ़ने-रटने के लिए भी यह मेहनत तो सब को करनी ही पड़ती थी ... मास्टर जी हमारे स्कूल में भी किसी एक छात्र को खड़ा करके एक पन्ना पढ़ने को कह देते थे...और हमें अपनी अपनी किताब साथ में खोल लेनी पड़ती थी..मुझे अभी तक इस का औचित्य कभी समझ में नहीं आया लेकिन कल मैंने मनीष सिसौदिया को सुना तो मुझे भी यह अहसास हुआ कि अगर बच्चे अपने पाठ पढ़ पायेंगे तो ही उसे समझ पाएंगे ...और तभी उन की बुद्धि का विकास भी हो पायेगा....मुझे यह बात सुनते सुनते तारे ज़मीं पर फिल्म का ध्यान आ रहा था ...मेरे विचार में मनीष स्वयं भी एक अध्यापक ही रहे हैं ...इसलिए वे इन तरह के शिक्षा से जुड़े अहम् मुद्दों की तरफ़ इतना ध्यान दे पा रहे हैं.....जिस के लिए ये सब बधाई के पात्र हैं।
वरना सरकारी स्कूल के बच्चों की शिक्षा के स्तर के बारे में सोचने की किसे पड़ी है ... अधिकतर टीचर नौकरी सरकारी स्कूल में हथियाना चाहते हैं लेकिन वहां जाते हुए अपने बच्चों को किसी प्राईवेट नामी-गिरामी स्कूल में ड्राप करते हुए जाते हैं...सरकारी मैडीकल कालेज सब मैडीकल शिक्षा पाने वालों की पहली पसंद होते हैं अकसर लेकिन वहां इलाज के लिए अधिकतर वही लोग जाते हैं जो साधन-संपन्न नहीं होते ... चलिए, यह तो अपने आप में एक मुद्दा है ही, इस के बारे में आए दिन पढ़ते रहते हैं!
कल मैं यह विज्ञापन रीडिंग कैंप वाला सुनते हुए यही सोच रहा था कि एक तो सभी बच्चों को लगभग लिखने में रुचि कम हो रही है ..लिखते भी कम हैं और ऊपर से यह जो समस्या कल पता चली कि अधिकांश बच्चे अपनी किताब को ठीक से पढ़ भी नहीं पा रहे ....चिंता का विषय तो है ही यह ..इसलिए अकसर यह भी कहा जाता है कि बच्चे स्कूल के दिनों में जो भी कॉमिक्स आदि पढ़ना चाहते हों, उन्हें पढ़ने से रोका नहीं जााए....इस से उन की रीडिंग कैपेसिटी बढ़ती है, कल्पनाशीलता और बुद्धि का विकास भी होता है!
बच्चों की ही बातें चल रही हैं ...तो तारे ज़मीं की फिल्म का ज़िक्र मैंने किया और साथ ही मुझे कल शाम एक मलयालम् फिल्म ओट्टल नाम की चल रही थी...टाटास्काई मिनिप्लेक्स चैनल पर आजकल मुंबई फिल्म फैस्टीवल चल रहा है, उस के अंतर्गत ही यह फिल्म दिखाई जा रही थी...फिल्म मलयालम भाषा में थी, सबटाईटल्स इंगलिश में थे, इसलिए आराम से समझ में आ गई...
साउथ इंडियन फिल्मों के बारे में मेरा कुछ ज़्यादा ज्ञान वैसे तो है नहीं, लेकिन आजकल टीवी में बहुत सी दिखने लगी हैं हिंदी डब्बिंग वाली ...वे सब की सब मुझे हिंदी डब्बिंग की वजह से डिब्बा ही लगती हैं...मैं पांच मिनट से ज्यादा उन्हें नहीं देख पाता .. लेकिन कुछ कुछ वहां की फिल्में ..जैसा कि मैं इस मलयालम फिल्म ओट्टल के बारे में बता रहा था, वे अपनी एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं... यह एक दादा और उस के पोते की कहानी है ...उन दोनों का संसार बस इतना ही है...इतनी बेहतरीन एक्टिंग की है दोनों ने कि मैं उस का वर्णन ही नही ंकर सकता, हालात कुछ इस तरह से पलटी मारते हैं कि उस आठ-दस साल का बच्चा पटाखे बनाने वाली एक फैक्टरी के मालिक के चुंगल में फंस जाता है ....very touching story....आप का मनोरंजन भी करेगी, केरल के लोगों के रहन सहन के बारे में बताएगी....और कुछ प्रश्न भी आप के लिए छोड़ जायेगी...Food for thought! मेरे विचार में यह फिल्म हम सब को देखनी चाहिेए...मुझे अभी यू-ट्यूब पर इस का एक ट्रेलर मिल गया ...इसे पूरा कैसे देखना है, यह आप सोचिए...
हिंदुस्तान अखबार के संपादकीय पन्ने पर हर रोज़ बहुत सी काम की बातें होती हैं...किसी विषय पर संपादकीय लेख तो होता ही है (आज का विषय था...बिना दवा के राहत), साथ में एक व्यंग्य-कटाक्ष (यह भी बहुत ज़रूरी है लोगों में प्राण फूंकने के लिए), किसी सामाजिक मुद्दे पर किसी विशेषज्ञ की राय, कोई अध्यात्मिक बात ..बहुत कुछ होता है...लेकिन अपने ही बनाए कारणों की वजह से मैं हमेशा इस पन्ने का भी कुछ अंश ही पढ़ पाता हूं...सोचता हूं शाम में या रात में देखूंगा..लेकिन वो शाम कभी नहीं आती!
एक कॉलम है इस संपादकीय पन्ने पर मनसा वाचा कर्मणा...जिस में अमृत साधना नाम से किसी का एक लेख हफ्ते में एक बार ज़रूर छपता है ...इसे मैं ज़रूर पढ़ता हूं...मुझे विश्वास है कि अमृत साधना जी ओशो जी की अनुयायी हैं...याद है बहुत बार ओशोटाइम्स में इन के संपादकीय पढ़ते रहते थे...जीवन की सच्चाई होती है इन की लेखनी में ...
ओशो साहित्य तो वैसे ही अनुपम है ...मुझे याद है कुछ बरस पहले मैंने ओशो जी का एक लेख पढ़ा था ...जिस का शीर्षक ही था ...Comparison is a disease! यानि तुलना करना एक बीमारी जैसा है ...वह लेख मेरे मन में घर कर गया था...लेकिन फिर भी हम कब सुधरते हैं..लेख अच्छा लगा तो लगा, लेकिन हम तुलना करने से कभी बाज आए ही नहीं शायद.....नहीं, कोई शायद नहीं, यकीनन लिख कर अपना मन हल्का किए लेता हूं...जो है सो है।
हां तो मैं अमृत साधना जी के साप्ताहिक लेख की बात कर रहा था ...जो लेख आज उन का छपा है उस का शीर्षक है ...मौन का महत्व...सुबह सुबह मुझे और भी बहुत से काम तो थे ही, लेकिन मुझे लगा कि बजाए इस लेख की एक फोटो खींच के वाटसएप ग्रुपों पर देखे-अनदेखे, जाने-अनजाने, अपने-बेगाने लोगों के साथ शेयर करने के इसे अपने ब्लॉग पर संभाल के रख लेता हूं...
बहुत से मन को छू लेने वाले पाठ हम लोग स्कूल के दिनों में किताब से नकल कर कलम से अपनी नोटबुक में भी तो लिख लिया करते थे, यही काम अभी कर रहा हूं...
"हाल ही में विख्यात गायक पंडित राजन मिश्र ओशो रिजॉर्ट आए हुए थे। बातचीत में उन्होंने कहा, आजकल गायक बड़ी तैयारी के साथ गाते हैं, संगीत के नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन उनके संगीत में मौन नहीं होता। यह दिल में नहीं उतरता, क्योंकि वह उनके दिमाग से निकलता है। यह बात गौर करने लायक है।
वाकई आज की जिंदगी में हर तरफ़ मौन का महत्व खो गया है। कोई भी मिलता है , तो हम फौरन मौसम की चर्चा शुरू कर देते हैं, कुछ भी बात शुरू कर देते हैं। वह सिर्फ बहाना होता है। असल में, चुप रहना इतना कठिन है कि हम किसी भी बहाने से बोलना शुरू कर देते हैं। दो लोग मिलें और चुप बैठे हों, यह अजीब लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोग एक-दूसरे से मिलें, हाथ मिलाएं, मुस्कराएं और सिर्फ साथ बैठें? क्या हम दूसरों के साथ सिर्फ शब्दों से जु़ड़े हैं? आज कल लोग चुप रहने की कला भूल गए हैं। फ्रायड ने अपने जीवन भर के अनुभवों के बाद लिखा है कि पहले तो मैं सोचता था कि हम बात करते हैं कुछ कहने के लिए, लेकिन मेरा अनुभव यह है कि हम बात करते हैं कुछ छिपाने के लिए।
ओशो का सुझाव है , एक आदमी के पास कुछ देर मौन होकर बैठ जाएं, तो इस आदमी को जितना आप जान पाएंगे, उतना वर्ष भर उससे बात करने से भी न जान सकेंगे। बातचीत में आप उसकी आंखों को नहीं देख पाएंगे, उसके शब्दों में ही अटक जाएंगे। उसकी भाव-भंगिमा, उसके हृदय की वास्तविकता को महसूस न कर पाएंगे। आदमी शब्दों के परे बहुत कुछ होता है। शब्दों का लेन-देन तो व्यक्तित्व का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा होता है, बाकी पूरा वार्तालाप तो निःशब्द तरंगों से, भावों से होता है। यही वास्तविक मिलना है। आजकल समाज में जो मिलना है, वह मिलने की औपचारिकता है। इसीलिए भीड़ में भी आदमी अकेला महसूस करता है।"
अमृत साधना
(साभार..हिन्दुस्तान.. ०७ नवंबर, २०१६)
हां, तो अमृत साधना जी की बात तो हम सब ने पढ़ ली, लेकिन हम उस पर गौर कब करते हैं..बस सुनी, अच्छी लगी , बात आई गई हो गई ...लेकिन कुछ बातें हमेशा अपने ध्यान में रखने लायक होती हैं...और एक बात यह भी कि अकसर जब बोलने की ज़रूरत न होने पर भी हम बोलते हैं तो बकवास ही करते हैं, निंदा करते हैं, केजरीवाल, रागा, नमो ...किसी को भी विषय बना लेते हैं, बस अपनी फूहड़ता जगजाहिर करते रहते हैं....और वैसे भी एक सुंदर सी बात मैंने कही पढ़ी थी ....किसी व्यक्ति की मूर्खता पर तब तक ही संदेह किया जा सकता है जब तक वह मुंह नहीं खोलता....पता नहीं औरों के लिए यह बात कितनी सच है, लेकिन मुझे लगता है कि यह मेरे लिए ही लिखी गई है..
मैं सोच रहा था कि हम लोग मिलने पर ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी तो बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं आजकल, बिना वजह भी हर समय बक-बक करते रहते हैं...मैं भी यही सब करता हूं लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा हूं...एक स्टेट्स आप बीसवीं बार पढ़ रहे हैं लेकिन क्योंकि किसी ऐसे बंदे ने उसे इक्कीसवीं बार शेयर किया है...जिसे आपने खुश करना है...मन से उसे कोस रहे हैं (कम से कम!!) लेकिन प्रशंसा करते हुए खिलखिला कर हंसने वाली स्माईली लगाने का ढोंग रच रहे हैं....यकीनन, सोशल मीडिया पर हम से बहुत से लोग ईर्ष्या करते हैं और हमारी छाती की जलन का भी यही कारण है ...जितनी सोशल-इंजीनियरिंग आप सोशल मीडिया से सीख सकते हैं, उतनी तो आप किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं पढ़ सकते ...बिल्कुल सच कह रहा हूं....इस के बारे में लिखेंगे तो बात लंबी हो जायेगी...फिर कभी ....
अभी तो बस मेरी पसंद का लगे रहो मुन्नाभाई का एक सुपर-डुपर डॉयलॉग सुन कर आज दिन सोमवार की सुस्ताई हुई सुबह में जोश भर लीजिए... मेरे तो आज सुबह करने वाले बहुत से काम इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में एक बार फिर से टल गये..लगे रहो मुन्नाभाई का यह डॉयलाग मेरे दिल के बहुत करीब है ....मैं भी ऐसी ही नौकरी करना चाहता था जिस में मैं सुबह सुबह लोगों से मज़ेदार बातें करूं....चलिए, मैं न सही ....ईश्वरीय अनुकंपा से अब बेटा यह सब काम करता है, खुशी होती है कि वह वही काम करता है जिस में उसे खुशी मिलती है ...आज के दौर का नया कंटैंट है, नईं बातें हैं....कहता है कि वह किसी थके-मांदे उदास चेहरे पर खुशी लाने का कारण बनना पसंद करता है.... God bless him always!
पिछले आठ दस दिन से कुछ लिखने का मन नहीं हुआ...पहले तो चार पांच दिन के लिए मैं बाहर गया हुआ था..लैपटाप लेकर नहीं गया था...अब यह एक अच्छी आदत डालने की कोशिश कर रहा हूं कि जितने भी दिनों के लिए बाहर जाना हो, लैपटाप नहीं उठाता...इसी बहाने थोड़ा सा ही सही सिरदर्दी से राहत तो मिलती है !
मोबाइल पर मैं थोड़ा बहुत दो चार लाइनें तो लिख लेता हूं लेकिन इस से ज्यादा मैं कभी भी नहीं पाता ..मुझे बहुत ही भारी लगता है ..अब तो मोबाइल पर पढ़ना भी बहुत कम कर दिया है ...अभी तक इतने वर्षों में मैंने एक पोस्ट भी अपने ब्लॉग पर मोबाइल पर लिखकर नहीं डाली...होता ही नहीं है!
मैंने पिछले शनिवार के दिन २९ अक्टूबर की टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार देखी तो मुझे एक खबर देख कर बड़ी ही हैरानी हुई...सब से पहले तो मुझे ए वैडनेसडे हिंदी फिल्म के उस १८-२० साल के हैकर युवक की याद आ गई ...लेकिन वह तो फिल्मी बात थी ...फिल्में में तो बहुत से फॉड दिखाते ही रहते हैं...लेकिन यह जो खबर थी एक सच्ची घटना थी ..एक युवक ने अपने काल सेंटर खोल कर तरह तरह के स्टाफ को नौकरी पर रख कर अमेरिका में लोगों को करोड़ों रूपयों का चूना लगा दिया...
कई ंतरह का तो उसने स्टॉफ रखा हुआ था...पूरी सुनियोजित ढंग से सब काम चलाता रहा ...खूब पैसा कमाया...यहां तक की विरोट कोहली की ऑडी कार को अढ़ाई करोड़ में खरीद कर अपनी गर्ल-फ्रेन्ड को देने ही वाला था...खरीद तो ली थी लेकिन अभी दे नहीं पाया था कि सारी जालसाजी़ पकड़ में आ गई...
मैं कईं बार सोचता हूं कि इन युवाओं की बुद्धि भी कितनी कुशाग्र होती होगी....
पिछले दिनों किसी अखबार में पढ़ रहा था कि ऑनलाइन फ्राड करने के लिए बाकायदा ट्रेनिंग सेंटर खुले हुए हैं देश के कुछ हिस्सों में ... कभी डैटा चोरी, कभी एटीएम कार्ड के पिन चोरी ..कभी क्लोनिंग कभी कुछ ...कभी कुछ ..अब हैरानगी नहीं होती ..
बस इन युवाओं के साथ सहानुभूति होती है ...सहानुभूति?..जी हां, मुझे इन लोगों के साथ एक तरह से सिंपेथी ही होती है ..इतने ज़हीन युवा, इतनेे जटिल काम कर लेते हैं ...हैकिंग के माहिर, और यह जो कालसेंटर चलाने वाले युवक की बात है इसने तो कोई जालसाजी छोड़ी ही नहीं ...बस, रास्ता गलत पकड़ लिया...देर-सवेर जालसाज़ पकड़े तो जाते ही हैं ...मेरी सहानुभूति इन युवाओं के प्रति मेरे तक ही सीमित है ..कानून तो अपना काम करेगा ही ...दूध का दूध पानी का पानी ......यह भी अच्छा है मैंने वकालत नहीं पढ़ ली ...वरना वहां भी अनर्थ हो जाता ..मुझे हर आरोपी पर तरस ही आने लगता ...जज साहिब, इसे इस बार क्षमा कर दीजिए, अगली बार से ऐसा नहीं करेगा......लेकिन कानून व्यवस्था ऐसे भी तो नहीं चल सकते...
हम सब जानते हैं कि देश में कितनी बेरोज़गारी है, और इस के कारण भी हम सब जानते हैं ..और इतने ज़हीन युवा शायद कुछ हद तक इसलिए भी इन चक्करों में पड़ जाते होंगे ...इतने अकलमंद की जुर्म की यूनिवर्सिटीयों के वरिष्ठ प्रोफैसर बन के काबिल .. जेबकतरों की ट्रेनिंग होती है हम जानते हैं, उचक्कों की, टप्पामारों की ....सब की ट्रेनिंग होती है ...लेकिन आज क ल तो इतने इतने आधुनिक फ्रॉड सामने आ रहे हैं कि इन की कंप्लेक्सिटी सोच कर ही सिर घूम जाता है ..
हां, आज शाम बिजली पासी ग्राउंड में घूमते हुए पता चला है कि लखनऊ महोत्सव की तैयारियां शुरू हो गई हैं...वहां पर स्टाल आदि तैयार करने का सामान आना शुरू हो गया है ...२५ नवंबर से शुरू होगा और १० दिसंबर तक चलता है ...
जब तक लोग खुद जागरूक नहीं होंगे ..नकली खोया ऐसे ही खपता रहेगा, तंबाकू वाले मंजन धडा़धड बिकते रहेंगे, लोग बाज नहीं आते, किसी की नहीं सुनते, चीनी पटाखे-फुटझड़ियां भी बिकेंगी, चीना मांझा चाहे जितने गले काट दे चलता रहेगा...हम नहीं सुधरेंगे।
जैसे जैसे हम उम्र में बड़े हो रहे थे हमें कभी कभी पता चलता था कि फलां फलां बंदा या कोई महिला घर के बाहर जाकर कुछ भी नहीं खाते..इधर यू.पी में तो कुछ ज़्यादा ही देखा इस तरह का परहेज एक विशेष तबके के लोगों में ....बाहर से कुछ नहीं खाएंगे ..सफर में भी नहीं, लईया-चना, सत्तू, फल-फ्रूट या कुछ भी घर से लेकर चलेंगे, लेकिन बाहर से कुछ भी लेकर खाना इन्हें गवारा नहीं है....मैं जानता हूं कि यह सब केवल सेहत की सुरक्षा के लिए ही नहीं होता रहा है ....इस के पीछे कुछ और कारण भी हैं जैसे कि कुछ लोग आज के जमाने में भी इस बार का ध्यान रखते हैं कि बाहर का खाना किस ने बताया होगा ...कुछ पता नहीं!
मुझे कुछ साल पहले तक तो शायद यह एक सनक ही लगती थी कि बाहर से कुछ भी नहीं खाएंगे ..ऐसा कैसे हो सकता है! लेकिन जैसे जैसे अपने ऊपर बीतती गई यह बात पते की है यह पता चलता रहा। जब भी बाहर खाया, अपनी तबीयत खराब की.......यह सिलसिला अभी भी जारी है ..शायद पांच सितारा होटलों को छोड़ कर ...लेकिन वहां हम लोग खाते ही कितना है!
बहरहाल, अब मेरा यह मानना है कि जो भी लोग घर से बाहर खाने में जितना हो सके बच के रह सकते हैं वे बहुत बुद्धिमान हैं...उन के ऐसा न करने के कारण कुछ भी हो सकते हैं...शायद पुरानी रूढियों और भ्रांतियों से प्रेरित......लेेकिन मैं तो बस यहां सेहत की सुरक्षा के नजरिये से बात कर रहा हूं..
आज अभी सुबह की अखबार उठाई तो पता चला कि यहां यूपी के काकोरी में (लखऩऊ के पास ही है यह जगह ..काकोरी कांड को तो आप जानते ही होंगे) ..कुछ लोगों को घटिया मिल्क पाउडर से खोया बनाते गिरफ्तार किया गया...मौके से १८ कुंतल नकली खोया जब्त कर दिया गया।
मुखबिर से सूचना मिली थी कि घटिया स्किम्ड मिल्क पाउडर में स्टार्च मिलाया जाता था, इसके बाद पामोलीन ऑयल, चीनी मिलाई जाती थी, शुद्ध खोये की रंगत देने के लिए आरोपी पीला रंग मिला देते थे। यह सब कुछ मौके से बरामद भी किया गया...
छोटी दुकानें, गांव-कसबों के खोमचों में ही यह सब नहीं खपेगा...लखनऊ जैसे महानगरों की बड़ी हाई-जैंट्री दुकानें भी कहां अछूती हैं इन सब से ...इन की करतूतों के कच्चे चिट्ठे भी मीडिया दुनिया के सामने खोलता ही रहता है ...
आप भी ज़रा सोचिए कि आप जिस भी राज्य या शहर में रहते हों, आप ने नकली खोये की बातें ज़रूर सुनी होंगी....पहले जब हम लोग पंजाब हरियाणा में थे तो सुनते थे कि मुजफ्फरनगर नकली खोये का हब है ...यकीन कर लेते थे ..पकड़ा भी जाता है बहुत बार ..लेकिन इस के कुछ नहीं होता ...इस तरह के कारोबारीयों के तार ऊपर तक जुड़े होते हैं ...व्हिसल ब्लोउर को ही एक इशारे पर खत्म करवा दें अगर चाहें तो ...और वह हर जगह अकेला!
कानून बड़े सख्त हो गये हैं मिलावटी सामान से संबंधित .....लेकिन आप ने कब सुना कि फलां फलां बंदा नकली खोया बेचने या सिंथेटिक दूध बेचने के इल्जाम में जेल में सड़ रहा है ....मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सुना हो !
वैसे एक बात है कि इन मिलावटखोरो को सजा बड़ी दर्दनाक मिलनी चाहिए...लोगो ं की सेहत से इतना बड़ा खिलवाड़...अब अगर कुछ भी ऐसा वैसा शरीर में जा रहा है तो लिवर-किडनी जैसे अंगों को खराब होने से आप कैसे रोक सकते हैं....सस्ते मिल्क पावडर की बात से याद आया शायद आज से पंद्रह साल पहले की बात जब सस्ते किस्म के मिल्क-पावडर से दर्जनों बच्चे चल बसे थे...उन के गुर्दे खराब हो गये थे ..बाद में जांच हुई तो पता चला कि मिल्क पावडर में यूरिया और पता नहीं ऐसी कुछ और चीज़ों की मिलावट हुई मिली थी...
ठीक कहती है विद्या बालन जो लोगों को तो कह कह के थक चुकी है ..अब मख्यियों से कह लेती है कि लोगों की सेहत का ध्यान करियो.....काश, सभी लोग सचेत हो जाएं .....वरना फिर खोये से ही बात करनी होगी !
मत खाइए मिठाईयां, न इस दीवाली पर न ही इस ईद पर ....कभी नहीं.....एक बात और, आप भी न खाईए, औरों के लिए भी न लेकर जाइए....पता है एक बात है , हम चाहे कितने भी संयम से रह रहे हों तो भी कहीं से मिठाई आने पर तो खा ही लेते हैं ....सब मिलावट, घटिया खोये, मैदे, घटिया किस्म के रंग और फ्लेवर्ज़ का कमाल है, और कुछ नहीं है......सेहत खराब, बहुत खराब करने के लिए बनी हैं ये सब चीज़ें ....मैं वैसे तो मिठाई बहुत कम ही खाता हूं ...मुझे पसंद तो बहुत है ...लेकिन पिछले २५ सालों में कुछ हालात ही ऐसे बने कि लगभग छूट ही गई ये मिठाईयां ...मिलावट के डर ने ऐसा खौफ़ज़दा किया कि आम तौर पर चाह कर भी खोये या बाहर के पनीर से तैयार हुई कोई भी चीज़ खाने की इच्छा ही नहीं होती !
आप भी ध्यान रखिएगा और बच के रहिए...दीवाली आ रही है!
वोटर कार्ड (चाहे आप उस शहर में ३० साल पहले रहे हों)
आधार कार्ड
पासपोर्ट फोटो (जितनी ज्यादा अपने झोले में रख सकें..)
राशन-कार्ड (चाहे पच्चीस तीस साल पुराना हो, परेशान मत होइए, कोई कुछ नहीं पूछेगा)
अपना वर्तमान पहचान पत्र तो साथ में रखना ही है हमेशा
ड्राईविंग लाइसेंस
पैन कार्ड
यैलो कार्ड
अपना डेबिट कार्ड
क्रेडिट कार्ड
चैकबुक, पासबुक, पुरानी नईं जो भी हैं बस थैले में रख तो लीजिए...
बिजली के बिल या टेलीफोन के बिल की कापी भी पहले मांगी जाती थी(रख लीजिए थैले में अगर आप के पास है तो)
अगर आप के बच्चों से संबंधित कुछ लेन देन है तो उस का जन्म-प्रमाण पत्र..
अगर पिता जी स्वर्गवासी हैं और आप मां के साथ जा रहे हैं तो पिता जी के स्वर्गलोक प्रस्थान के प्रमाण की भी कुछ कापियां रख लीजिए...
अपना वह फोन जिस पर आप को बैंक के मैसेज आते हैं.. (इस के अलावा भी आप शांत मन से दस मिनिट के लिए सोचिए कि अगर आप उस बाबू की जगह हों तो आप किसी से किस किस दस्तावेज़ की मांग कर सकते हैं, वे सब कुछ थैले में साथ लेकर चलिए)
अभी तो मुझे इन डाक्यूमेंट्स का ध्यान आ रहा है ...उस जिल्लत के आधार पर जो इतने वर्षों में डाकखानों और बैंकों में झेलनी पड़ी ..और जो इस जिल्लत से सीखा....मैं अकसर लोगों से कहता हूं कि जिल्लत से घबराया मत करिए...हर अनुभव हमें बहुत कुछ सिखा भी जाता है ..
हां, तो जो मैंने ऊपर लिस्ट तैयार की है, वह इसलिए है कि बैंक और डाकखाने में पता नहीं कब कौन सा दस्तावेज मांग लें, इस का अंदाज़ आप नहीं लगा सकते..मैं भी नही ंलगा पाया पचास की उम्र पार करने के बाद भी ...
दरअसल जो काउंटर पर कर्मचारी बैठा है, वह आप को भगवान होता है उस समय ..उस ने जो कह दिया वह कानून है .....और बहुत बार सब कुछ उस के मूड पर ही निर्भर करता है और आप के बातचीत करने के अंदाज़ पर भी ...इसलिए बेहतर यही होगा कि अपनी सभी डिग्रीयां पीएचडी-डीएचडी भी घर पर ही रख कर जाइए..वहां जाकर उस बाबू से कोई तर्क-वितर्क के चक्कर में पड़ गये तो अपना ही नुकसान है .....किसी सीधे-सादे काम में भी ऐसा अडंगा लगा देगा कि बार बार हांफने लगेंगे आप ...वहां तो बस चुपचाप रहने में और जो कहा जाए उतना ही करने में भलाई है ....
एक तो यह केवाईसी की बड़ी सिरदर्दी हो गई है .....कुछ कुछ अंतराल के बाद अब मैसेज आने लगे हैं कि आप का खाता के वाई सी कंप्लायंट नहीं है ...अपनी शाखा से संपर्क कीजिए...वहां जाने पर अगर तो आप ऊपर दी गई मेरी चैक-लिस्ट के हिसाब से जाते हैं... तो ज्यााद सिरदर्दी नहीं होगी...बाबू जो जो मांगता जाए, उसे उसी समय उस की कापी थमाते जाइए....बिना कुछ कहे ..जैसे आप को दीन-दुनिया का कुछ पता नहीं....तीन चार दस्तावेज मांगने पर वह थोड़ा सा थक जायेगा कि इस के पास तो सब कुछ है..इसलिए आप को काम होने की पूरी संभावना है ...
उस दिन ऐसा ही हुआ ...बैंक में कुछ काम था ...मैंने बेटे से कहा कि उस के पास जितने भी दस्तावेज हैं उन सब को और उन की फोटोकापियों को साथ लेकर चलेंगे ..मैंने भी अपने यही सारे हथियार साथ ले लिए...पहले तो जो डेस्क पर जो मैडम थी उन्होंने ने तीन चार तरह के दस्तावेज मांग लिए...उन का हर बार कहने का यही अंदाज़ था, यह लाना पड़ेगा...वही दस्तावेज उसे तुरंत थैले में से निकाल कर दे दिया जाता ....और यह प्रक्रिया इतनी तेज़ी से की जाती कि उसे वह दस्तावेज देखने-निहारने का समय ही न मिलता...बहरहाल, केस पहुंचा अधिकारी के पास....उन्होंने भी दो दूसरे दस्तावेज़ों की मांग कर दी...वे भी तुरंत उन्हें थमा दिये गये... .नतीजा यही कि काम हो गया.....वरना कुछ भी कम होता तो काम लटक जाता...
मैं बहुत बार सोचता हूं कि हमारे देश में यह सब सिक्योरिटी इतनी टाइट है तो फिर कैसे माल्या जैसे लोग रफू-चक्कर हो जाते हैं...चार दिन खबरों में रहते हैं .....फिर लंबी चलने वाली कानूनी प्रक्रिया ...
हां, जाते जाते एक बात....चुपचाप भोंदू की तरह सब कुछ दिए जाने के बाद भी अगर अंत में आप को यह कह दिया जाए कि क्या आप किसी गवाह को ला सकते हैं जो आप को जानता-पहचानता हो.....तो अगर उस समय आप का सब्र का बांध टूट पड़े तो अचानक आप के मुहं से फिरंगी भाषा के कुछ शब्द फूट पड़ेंगे......बड़े शालीन ढंग से .....तब बाबू को अचानक झटका लगता है कि यार, यह तो पढ़ा लिखा है .......शायद आप को काम हो जाए......अगर नहीं होता तो फिर आप को आखिर में उस बाबू को कहना होगा कि आप इस पर Regret लिख कर मुझे लौटा दीजिए.......पूरी संभावना है कि इतनी स्टेज तक पहुंचते पहुंचते आप का काम हो जायेगा.....वरना मैनेजर के पास जा कर थोड़ी फर्राटेदार इंगलिश का रूआब ज़रूर काम आ जायेगा.... Guaranteed!
वैसे मैं एक बात आप से शेयर करूं.....मुझे बैंकों और डाकखाने में जाने से बहुत नफ़रत है ...बडी़ फार्मेलिटीज़ हैं....यह लाओ, वो लाओ....आप की फोटो हमारे रिकार्ड में नहीं है, आप के दस्तखत अभी सिस्टम में नहीं हैं....ये सब बातें भुग्ती हुई हैं इसीलिए इतनी सुगमता से दिल से निकल पड़ीं.....
और हां, उस मैट्रिक - हाई स्कूल के सर्टिफिकेट की फोटोकापी मैं कैसे भूल गया...उस की भी कुछ कापियां झोले में फैंके रखिए, क्या पता किस बाबू की जिज्ञासा या उस का शक उसी प्रमाण-पत्र से ही शांत हो पाए..
इस पोस्ट रूपी लिफाफे को थूक से चिपकाते हुए (हम बचपन में यही तो करते थे...) यही ध्यान आ रहा है कि इस में तो आफिस आफिस वाले मुसद्दी बाबू की बेबसी ब्यां हो गई कुछ कुछ ....सिर भारी हो गया मेरा तो लिखते लिखते ..चलिए, इस भारीपन को बेलेंस करने के लिए एक हल्का फुल्का गीत सुन लेते हैं...
परसों मैं रोहतक से दिल्ली आ रहा था..नांगलोई से दो युवक डिब्बे में चढ़े...जबरदस्त हड़बड़ाहट...जैसे तैसे उन के सेबों की चार पेटियां सीटों के नीचे फिट हो जाएं...उन पेटियों के साथ धक्का-मुक्की करने के बाद दस मिनट में उन्होंने यहां वहां सारा माल फिट कर ही दिया...टीटीई आया...हां भई, कहां से आरक्षण है?...ऩई दिल्ली से है।
टीटीई ने कहा कि ऐसे कैसे, नांगलोई से कैसे आप चढ़ गये इस आरक्षित डिब्बे में....उन युवकों ने अपना परिचय दिया..थोड़ी उस से रिक्वेस्ट करी और टीटीई साहब आगे से ऐसी हरकत न करने के लिए आगाह करते हुए लौट गये..
मैं भी कहां कुछ कहने से रह पाता हूं...मैंने इतना ही कहा ...An apple a day keeps the doctor away! और आप लोगों ने तो लगता है पूरे साल का ही जुगाड़ कर लिया है...वे भी हंसने लगे ...वे किस विभाग में काम करते थे, वह लिखना यहां ज़रूरी नहीं है ..ठीक भी नहीं लगेगा।
उन्होंने बताया कि वाराणसी जाना है ...और मुझे जब उन के विभाग का पता चला तो मैंने उन के अधिकारी का पदनाम लेकर कहा कि यह उन के लिए दीवाली के तोहफ़े का जुगाड़ किए दे रहे हैं आप...वे फिर हंस पड़े......बताने लगे कि आप बिल्कुल सही कह रहे हैं..मैंने कहा कि ठीक है, अब लोग कहां रंग बिरंगी ईमरतियां, बर्फीयां खाते हैं....इस तरह की फ्रूट ही ठीक है..
एसी टू के उस कैबिन में एक अधेड़ उम्र की महिला भी थीं...वह भी उन की बातों में पूरी दिलचस्पी दिखा रही थी ...उन लड़कों ने बताया कि ये पेटियां वे आज़ादपुर मंडी से लेकर आये हैं...मुझे लगा कि वहां पर बहुत बड़ी सब्जी-फल मंडी है, इसलिए वहां से खरीद लाये होेंगे ..
नहीं, वे यह खरीद कर नहीं लाये थे, जैसा उन्होंने बताया कि उन के एक अंकल फौजी अफसर रिटायर हैं और अब शिमला के भी ऊपर उन्होंने सेब के बाग खरीद लिये हैं...यह उन्हीं के खेत से हैं...बता रहे थे कि ये सेब वहां पर तो १५-२० रूपये किलो के हिसाब से ही बिकते हैं...लेकिन इन सेबों की सब से खास बात यह है कि इन पर वैक्स (मोम) नही ंलगी है....
उन से एक विश्वसनीय बात यह पता चली कि बिना वैक्स के सेब इतने दिन रह ही नहीं सकता और मंडी में लाने के बाद सभी सेबों पर वेक्स की कोटिंग की जाती है ...लेेकिन ये सेब जो वे अपने साहिब लोगो ं के लिए ले जा रहे हैं इन पर वेक्स बिल्कुल भी नहीं है...
उस डिब्बे का माहौल इतना सेबमय हुआ देख मैं मन ही मन सोच रहा था कि ये सेब भी कितने खुशकिस्मत हैं...इन सेब की पेटियों की जरिये ये युवक अपने साहिब लोगों को शीशे में उतारेंगे और फिर पता नहीं उन से ट्रांसफर, प्रमोशन, कोई अनड्यू फायदे लेंगे ....सुना है ऐसा ही होता है...और अब लोग भी सभी हथकंड़ों से वाकिफ़ हो ही चुके हैं...किस को कैसे खुश करना है, कुछ लोग इस में महारत हासिल किए रहते हैंं...
एक बार मैं फिर किसी महकमे का नाम नहीं लूंगा लेकिन सुना है कि कुछ महानगरों में रहने वाले अधिकारियों के लिए फल-सब्जियां तीन चास सौ किलोमीटर की दूरी से आती हैं और इस सेवा के लिए बंदे तैनात होते हैं...जम्मू से चावल, राजमा, अमृतसर के पापड़-वडियां, लुधियाना के शर्बत, मुरब्बे, आचार, लखनऊ के टूंडे कबाब, कढ़ाई वाले सूट-कुर्ते...क्या क्या नाम गिनाऊं...बेकार में!
हां, तो सामने बैठी औरत को तो इस बात की चिंता थी कि उसे इस तरह के सेब कैसे मिलेंगे दिल्ली में रहते हुए..उन से फोन नंबर मांगने लगी..उन्होंने कहा कि नहीं, यह संभव नहीं है...इस तरह के सेब बिकाऊ नहीं है, और वे विक्रेता भी नहीं हैं...उन युवकों ने एक सेब निकाल कर मुझे खाने के लिेए कहा ...मैंने कहा...बढ़िया है, लौटा दिया...फिर उन्होंने एक गोल्डन सेब निकाल कर कहा कि आप इसे तो खा कर देख ही लीजिेए...मैंने उस सेब को सूंघा तो उन से कहा कि यह खाने के लिए नहीं, सहेजने के लिए है ...दिव्य सुगंध है इसकी...
पानी से धो कर खाने पर उस का स्वाद बहुत ही बढ़िया लगा .. अब पता नहीं यह साईकोलॉजिकल था ...या फिर असल में ...
लेकिन कल मैंने उन युवकों की बात से यह सीख ज़रूर ले ली है कि यह जो मैं कभी कभी बिना काटे सेब खा लेता हूं....यह अब बंद करना पड़ेगा....शायद आप लोगों ने भी नोटिस किया होगा कि अब सेब को छिलके के साथ खाने में बड़ा अजीब सा लगता है ..बकबका सा लगता है .....शायद यह उस के ऊपर चढ़ी मोम की वजह से ही होता हो...
सेबों की बात होने पर उन दोनों युवकों और उस महिला को जब मेरे बारे में पता चला कि मैं डैंटल-सर्जन हूं ..तो फिर वहां पर मुझे उन की दांतों से जुड़ी समस्याओं का निवारण भी करना ही था... लेकिन मुझे इस में कोई आपत्ति नहीं होती कभी भी, जिस बात की जानकारी जिस के पास है, उसे ही लोग उस के बारे में पूछेंगे...मैं कभी किसी को टालने वाले बात नहीं करता...
मैं नई दिल्ली पर उतरने वाला था ..वे थोड़ा सा परेशान सा दिखे कि अब जिन लोगों की सीटें हैं अगर उन लोगों ने अपना सामान अपनी सीटों के नीचे ही रखने को कहा तो ......मैंने कहा..तो क्या, आप लोगों को उस की क्या चिंता है...मैंने अपने हाथ वाले सेब की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ...आप के पास ये सब हैं न इतने सारे, एक एक उन्हें भी थमा कर उन की भी बोलती बंद कर दीजिएगा.....एक बार फिर से डिब्बे में ठहाके लगने लगे!
चलिए, अपनी बात को यहीं विराम देता हूं ...वैसे भी दीवाली की खरीदारी का मौसम है, आपने भी जाना होगा....लेकिन तोहफ़े खऱीदते समय हमेशा उन अनजान लोगों को विशेष कर ध्यान में रखिए जिन को शायद ही कभी कोई याद रखता है या यही सोचता है कि क्या यार...
तोह़फे दीजिए....अपने स्कूल के पुराने मास्टरों को ढूंढिए, अगर वे अभी तक सितारों में नहीं मिल गये हैं तो उन के पास जाकर उन को तोहफ़े दीजिए...पुराने दिनों को याद कीजिए...अगर आप के गुरुजन अभी नहीं है, तो बच्चों के पुराने या मौजूदा टीचरों को इसी बहाने याद कीजिए...जिन बसों में आप के बच्चे रोज़ स्कूल से आते हैं...उसे के ड्राईवर और कंडक्टर को याद करने की हमें फुर्सत ही कहां है..मुझे याद है कि कुछ साल पहले जब मैंने उस स्कूल बस के कंडक्टर को एक भेंट दी थी दीवाली से एक दिन पहले तो उसे कितना अच्छा लगा था... अपनी हाउसिंग सोसायटी के सभी सिक्योरिटी गार्ड्स को ज़रूर याद रखिए.....जिस सैलून में आप के हर महीने बाल कटवाने पहुंच जाते हैं उस गणेश को आप कैसे भूल सकते हैं....कभी यह सब कर के देखिएगा...बहुत अच्छा लगेगा...बात तो मन की खुशी की है ...अच्छा, एक बात और ...आते जाते किसी भी ज़रूरतमंद दिखाई देने वाले अंजान बंदे को तोहफ़े देने से हमें कौन रोक रहा है....इस बात यह भी काम करेंगे!
और एक बात...बहुत बार लोग ऐसे ही एक रिचूएल के तौर पर ही तोहफों के आदान-प्रदान कर लेते हैं....इधर से आया उधऱ भिजवा दिया...क्या फायदा इस सब सिरदर्दी का ...इस ते बेहतर होगा चुपचाप घर में बैठ कर रेडियो विविध भारती सुनिए। तोहफ़ों को तोहफे ही रहने दीजिए....उन पर चाटुकारिता, फ्लैटरी का रैपर मत लपेटिए.....इन छोटी छोटी बातों से कुछ नहीं होता ..जो लोग हाशिये पर खड़े नज़र आएं, उन्हें ढूंढ ढूंढ कर खुश करिए......यही दीवाली का असली जश्न है, आप का भी और उन का भी !!
सेब की बागानों की बात चली तो देखिए मुझे कितना सुंदर यह गीत ध्यान में आ गया...one of my favourites since school days..
दरअसल इस पोस्ट का हैडिंग मुझे भी अजीब सा लग रहा है ...लेकिन बिना हैडिंग के पोस्ट पब्लिश नहीं हो पाती..इसलिए ऐसे ही जो मन में आया लिख दिया...
कल से तीन बातें मन में घूम रही हैं...सोच रहा हूं लिख के छुट्टी करूं....वरना बेकार में परेशान किए रहेंगी...
दलाली...
कुछ साल पहले मेैं शताब्दी में सफ़र कर रहा था...पिछली सीट पर दो ऑफीसर जैसी बातें करने वाले दोस्त दिखने वाले बंदे बैठे हुए थे...अपने बॉस का तवा उन्होंने लगा रखा था... बीच बीच में तो मुझे झपकी आती रही ...लेकिन अपने बॉस की बातें सुना रहे थे कि किस तरह से उस ने किसी भी शहर में कार्यरत कनिष्ठ अधिकारियों को नहीं बख्शा...कहीं से आचार, कहीं से मुरब्बे और कहीं से शर्बत और कहीं से देसी घी की गज्जक और रेवड़ीयां मंगवाता रहता था .. और भी बहुत कुछ...और आपस में बात कर रहे थे कि पाखंडी इतना तगड़ा कि सभी अंगुलियों में हर तरह के नग और मोती धारण किये रहता था...कैसे कोई ग्रह उस की खिलाफ़त कर पाए।
उन में से एक ने किस्सा सुनाया कि कैसे एक मशीन उन के दफ्तर में आई तो उस के पीछे पड़ गया कि कंपनी से पांच हज़ार रूपये दिलवाओ...यह बंदा अपने दोस्त से कह रहा था कि अब उसने वैसे तो किसे से कुछ लिया नहीं था, एक बार तो उसे कहने की इच्छा हुई कि सर, आप अपने आप ही ले लीजिए...लेकिन इतनी हिम्मत जुटा नहीं पाया...लेकिन जब तक पांच हज़ार रूपये उस के घर उस के माथे पर नहीं मार आया उस बॉस को चैन नहीं पड़ा....
दूसरा उस के ट्रांसफर के किस्सों को याद कर रहा था कि कैसे उसने छठे पे कमीशन के कुछ आफीसर्ज़ के सारे के सारे एरियर्ज़ हड़प लिए... कमबख्त पता नहीं क्यों इतना भिखमंगा सा लगने लगा था अपनी नौकरी के पिछले दो तीन सालों में...जी हां, उन्होंंने उस के लिए ऐसे ही शब्द इस्तेमाल किये थे...
और दूसरा कहने लगा कि ऐसा लगता था कि यार वह बॉस नहीं है, ट्रांसफर करने करवाने वाला कोई उच्चकोटि का दलाल है ....ट्रांसफर करवाने, धमकाने और निरस्त करने के बल पर ही उसने फगवाड़े में एक आलीशान बंगला खड़ा कर लिया था ...
दूसरे ने उस की हां में हां मिलाते हुए कहा कि यार, तुम ने बिल्कुल सही पकड़ा ...बिल्कुल दलाल ही तो लगता था...उस की शक्ल भी वैसी ही हो गई थी..(आगे उसने जो कहा, वह मैं यहां नहीं लिख सकता, आप समझ सकते हैं) ...विधि का विधान देखिए रिटायरमैंट के दिन जब रात में पार्टी में धुत हो कर अपने ड्राईवर के साथ फगवाडा़ बंगले में जा रहा था तो रास्ते में ही सीबीआई टीम ने कार से तीन करोड़ की रकम के साथ धर दबोच लिया... अभी केस चल ही रहा था कि डेढ़ साल में वह चल बसा...
किसी ने सही ही कहा है ...कोयलों की दलाली में मुंह काला...
चुप्पी ...
कुछ दिन पहले एक साहित्यिक कार्यक्रम में था....एक ९७-९८ वर्ष की महान् साहित्यकार का सम्मान होना था...साहित्यकार तो संवेदनशील होते ही हैं...सब ने उन के शतायु ही नहीं, दीर्घायु होने की प्रार्थना की...किसी ने कहा कि बख्शी दीदी आज ९८ साल की हैं, ईश्वर उन्हें मेरे ९८ साल के होने तक स्वस्थ रखे... सब का उदबोधन सुन कर अच्छा लग रहा था...इतने में शहर के एक नामी गिरामी सेठ की बारी आई...उसने अपने भाषण मेे ंकहा कि दीदी, ९८ साल की हैं, इन्हें देख कर अच्छा लग रहा है, मित्रो, अब उम्र ही ऐसी है ...एक तरह से अब यह मेहमान ही हैं..दो तीन या चार साल की और....ज़्यादा से ज़्यादा किसी आदमी की इतनी ज़िंदगी ही तो होती है ...उस रईस के ये शब्द सुन कर पंडाल में बैठे सभी लेखक-विचारक एक दूसरे का मुंह देख कर हंसने लगे कि यह कह क्या रहा है! उस समय मुझे यही बात याद आ रही थी...
उस समय मैं भी यही सोच रहा था कि वह बात ठीक ही है कि कईं बार चुप रहने में ही अकलमंदी होती है ...और इस चुप्पी से भले ही लोगों को हमारे मूर्ख होने का शक होने लगे....वरना एक बार मुंह खुलने पर तो फिर शक की कोई गुंजाईश ही नहीं रहती!
तलाशी...
तलाशी एयरपोर्ट पर, सिनेमा घरों में, शापिंग माल में, मेट्रो स्टेशनो ं पर सब जगह होती है, बुरा नहीं लगता ...कुछ वीवीआईपी के रिश्तेदारों को लगता होगा बुरा... जिन को अभी एग्ज़ेम्ट लिस्ट में शामिल नहीं किया गया है ...लेकिन यह भी गलत है ...कुछ लोगों पर आप कैसे दूसरों से अधिक भरोसा कर सकते हैं...चलिए, इस दिशा में भी मौजूदा सरकार ने कुछ काम तो किया था शुरु शुरु में ही ...उस के बाद कुछ खबर नहीं आई। लेकिन मुझे एक तलाशी थोड़ी परेशान कर गई...तीन चार दिन पहले मैं एक सर्विस स्टेशन के बाहर खड़ा था... वर्करो ंकी छुट्टी का टाइम था, जिस तरीके से उन की तालाशी ली जा रही थी बाहर आते वक्त, यह मुझे कचोट गया ... गेट पर खडे़ उस सिक्योरिटी वाले गोरखे का तरीका ही कुछ ऐसा था....वर्करों के शोल्डर बैग्ज़ के सभी हिस्सों को ऐसे टटोल रहा था कि ..........क्या कहूं, मन खराब हुआ यह देख कर .....यह सोच कर कि छोटे बच्चे भी यह नहीं चाहते आज कल कि कोई उन के बैग से छेड़छाड़ करे ...और यहां तो .!!
तीन बातें कह कर मन को कुछ सुकून सा मिला तो है ...बाकी का काम यह गीत कर देगा...
पायरिया रोग याने वह रोग जिस में मसूड़ों से खून आने लगता है, मसूड़े फूल जाते हैं...पस रिसती है, बाद में दांत हिलने लगते हैं..दांतों में ठंडा गर्म की शिकायत शुरू हो जाती है ...मसूड़े दांतों से पीछे सरक जाते हैं...(Gum recession)
जितना यह नाम भयानक है ...और जितना डर लोगों के मन में इस के बारे में है, उतना डरने वाली बात है नहीं... पहली बात यह कि इस से बचाव संभव है और दूसरी बात यह कि अगर यह हो भी इसका पूरा उपचार हो जाता है ...
यह युवक २० वर्ष का है, इस के मसूड़ों की हालत आप देख रहे हैं...हाथ लगाते ही इन से खून टपकने लगता है ...कह रहा था कि पिछले चार पांच महीने से परेशान हूं...लेकिन कल किसी दोस्त ने आप के बारे में बताया तो मैं हिम्मत कर के चला आया...
जितनी पेस्ट होती है कर रहा है, लेकिन अच्छे से कर नहीं पाता...
चलिए, यह तो कर रहा है लेकिन अधिकतर लोग इस तरह की अवस्था में ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं...सोचते है ंकि ब्रुश करने से खून आता है तो चलिए ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं...आर अपनी अंगुली से दांत मांजने लग जाते हैं...
इस से तकलीफ़ बढ़ जाती है, कम नहीं होती ..
और ऊपर से टीवी पर आने वाले रंगारंग विज्ञापन ...महंगी ठंडे गर्म वाली पेस्टें या कोई देशी पेस्ट खरीद लेते हैं क्योंकि इन विज्ञापन की भाषा ही इतनी लच्छेदार होती है ..लेकिन इस से रोग कम नहीं होता, बढ़ता ही रहता है।
दांतों में ठंडा गर्म लगने के उपचार के लिए प्रचारित की जाने वाली पेस्टें इस तकलीफ़ से छुटा तो क्या दिलाएंगी, बस वे शायद कुछ समय के लिए ठंडा-गर्म लगने वाला लक्षण दबा लेती हैं.. आदमी समझता है कि मैं ठीक हो गया...बस, यही काम है इस तरह की पेस्टों का।
इस पायरिया रोग के बारे में और क्या लिखें....सब कुछ तो पहले ही लिखा जा चुका है ...कभी कभी रिमांइडर के तौर पर पुराने पाठ को दोहराना पड़ता है ..बस।
इस युवक के मसूड़ें भी बिल्कुल दुरुस्त हो जाएंगे...पूछ रहा था कि क्या इस की दवाई लंबे अरसे तक चलेगी...मैंने उसे बताया कि इस के लिए कोई दवाई होती ही नहीं...बस, तुम्हें दांतों की अच्छे से साफ़-सफ़ाई रखने का सलीका सीखना होगा, जुबान रोज़ाना साफ़ करनी होगी....और मेरे पास तीन चार बार आकर इस का इलाज करवाना होगा...
यहां यह बताना अनिवार्य होगा कि इस छोटी उम्र में अच्छी इम्यूनिटी की वजह से इस तरह की मसूड़ों की सूजन बड़े ही आराम से और बड़ी जल्द ही ठीक हो जाती है ... कुछ ही दिनों में यह सब परेशानी गायब, लेकिन नियमित सुबह रात ब्रुश अच्छे से अच्छी क्वालिटी की पेस्ट से करना निहायत ही ज़रूरी है ...और दिन भर में कुछ भी खाने के बाद कुल्ला कर लेना एक और अच्छी आदत है..आप भी इसे डाल लीजिए ..
इस युवक के बहुत जल्दी ठीक होने की संभावना इसलिए भी है क्योंकि यह गुटखा-पान मसाला जैसी किसी चीज़ों का इस्तेमाल नहीं करता ..ये सब चीज़ें पायरिया रोग में कोढ़ में खाज जैसा काम करती हैं..
जाते जाते बस एक बात कि रोज़ाना हर जगह देखते हैं कि बड़ी बड़ी कंपनियां या बड़े बड़े लोग यह प्रचारित करते हैं कि पायरिया रोग उन की इस पेस्ट से हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा...वैसे बाज़ारों में भी रिक्शा में बैठ कर कुछ नीमहकीम यह ढिंढोरा पीट रहे होते हैं कि उन के मंजन से पायरिया रफू-चक्कर हो जायेगा......पक्का यकीन रखिए कि ऐसा हो ही नहीं सकता, कभी भी....ये सब विज्ञापनबाज़ी है ...और कुछ नहीं, पायरिया के उचित इलाज के लिए किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक की चौखट पर जा कर दस्तक देनी ही होगी....वरना बेकार के चक्करों में समय नष्ट करने वाली बाते हैं..
दांतों, मसूडों की हालत जैसी भी है, घबराईए नहीं, जा कर दंत चिकित्सक से मिलिए... एक बात और भी है कि मसूड़ों से खून निकलने के बीसियों कारण हैं...रक्त के कैंसर से लेकर मुंह के कैंसर तक ....लेकिन ओपीडी में आने वाले अधिकांश केसों में 99 प्रतिशत या उस से भी ज्यादा पायरिया के रोगियों में मूसड़ों की सूजन ही इस का कारण पाया जाता है ....Reminds me of my college professor who used to advise us quite often..."In a patient, you see what you know, you don't see what you don't know! First and foremost, always think of the common symptoms of the common diseases."
और हां, इस युवक के मसूड़ों के फिर से स्वस्थ होने की तस्वीरें मैं कुछ दिन बाद शेयर करूंगा...
अकसर इस तरह की बात खाने के साथ चलती है ...भर पेट खाना....लगभग पंद्रह वर्ष पहले की बात है मैंने जयपुर के एक चौराहे पर एक होटल के बाहर इस तरह का बोर्ड देखा था कि इतने रूपये में आप भरपेट खाना खा सकते हैं...पहली बार इस तरह की विज्ञापन देखा था...वरना हम तो यही जानते हैं कि भर पेट खाना या तो घर में मिलता है या फिर गुरुद्वारे के लंगर में...
इसलिए आज लखनऊ के चारबाग एरिया में इस तरह का भर पेट पानी वाला स्टॉल देखा तो उत्सुकता हुई इस के बारे में जानने के लिए...रूक गया मैं वहीं...
बोर्ड तो आप देख ही रहे हैं कि २ रूपये में भर पेट पानी पीजिए...और ब्रांड भी एक तूफ़ानी सा ही लगा...घनघोर ठंडा पानी.. डिस्पोज़ेबल पानी के गिलास में आप २ रूपये में जितना भी पानी पीना चाहें पी सकते हैं...
मुझे उत्सुकता हुई इस सेवा के बारे में कुछ जानने की ...
रुक तो मैं गया ही था...यह जो लड़का पानी के स्टाल को संंभाले हुए है...इस के पास ही एक अधेड़ उम्र का बंदा इस का मालिक लग रहा था..एक कुर्सी पर बैठा हुआ ...लोगों को चेता रहा था कि देखो, भई, पानी फैंको मत।
अब मुझे लगा कि इस से बात शुरू कैसे करूं, प्यास मुझे है नहीं... मैंने ऐसे ही पूछा एक बेवकूफ़ाना सा प्रश्न उस की तरफ़ उछाल ही दिया...चाहे कोई एक बोतल पानी पी ले?
उसने कहा कि जी हां, डिस्पोजेबल गिलास में अगर पानी पी रहा है कोई तो वह २ रूपये में जितना भी पीना चाहे पी ले... और एक बात कि अगर किसी के पास पैसे नहीं है तो वह भी बिना गिलास के कैंटर की टोटी के नीचे मुंह लगा कर अपने हाथ से पानी पी सकता है ..
मैंने उस की पीठ थपथपाई....कहने लगा कि बाऊ जी, यह काम ३० सालों से चला रहे हैं...सुबह से शाम सभी दिन यह पानी की सेवा चलती है ...बेशर्ते की बिजली आ रही है क्योंकि इन सभी कैंटरों में पानी जो भरा जाता है वह बोरिंग का पानी होता है ...और मोटर चलाने के लिए बिजली होनी ज़रूरी है ! आप उधर देख रहे हैं, यह एक लेबर भी रखा हुआ है पानी लाने के लिए!
एक बात उसने और भी कही कि अगर कोई दिव्यांग है तो उसे मुफ्त पानी पिलाया जाता है ...
मैंने उस बंदे को कहा कि इस के बारे में तो अखबारों में आना चाहिए....उसने कहा कि बहुत सी अखबारों में आता रहता है ...और लोग फोटो खींच ले जाते हैं और इस के बारे में नेट पर भी चलता रहता है ...(शायद यू-ट्यूब पर भी किसी ने अपलोड़ किया हो !)
मैंने भी उस से वायदा किया कि मैं भी इस के बारे में इंटरनेट पर शेयर करूंगा....
चलिए, यह बंदा तो अच्छा काम कर रहा है...इस को साधुवाद देना चाहूंगा...
लेकिन मुझे सारे रास्ते आज से ४० साल पहले हमारे स्कूली दिनों के ज़माने की छबीलें और प्याऊ याद आते रहे ..दुर्ग्याणा मंदिर के दशहरा ग्राउंड के पास ही सेवा समिति के उस प्याऊ में जो बुज़ुर्ग हमें स्कूल से आते वक्त ठंडा पानी पिलाया करता था उन की उम्र कम से कम ८० की तो होगी ...हम लोग पांचवी कक्षा में थे और प्याऊ का इंतजा़र किया करते थे... १०-११साल की उम्र में इतनी अकल भी आ चुकी थी कि पानी पीने के बाद ५० पैसे के जेब-खर्च में से जो पांच दस पैसे बचे हुए हैं उसे उस प्याऊ की स्लैब पर रख देना है ....ऐसा करना बहुत अच्छा लगता था ..उस बुज़ुर्ग ने कभी मांगे नहीं और कभी हमारे रखे पैसों की तरफ़ देखा भी नहीं और न ही कभी मुंह से कुछ भी कहा ....बहुत से रिक्शा वाले और दूसरे राहगीर भी वहां ज़रूर पानी के लिए रुकते.... शायद उस बुज़ुर्ग और उस तरह के कुछ लोगों से मिली प्रेरणा ही है कि मेरी Wish-list में कुछ प्याऊ खोलना और उस के अंदर बैठ कर लोगों को पानी पिलाने की सेवा करने की बहुत तमन्ना है....कभी ऐसा कुछ ज़रूर करूंगा..अभी पहले ढिंढोरा तो पीट लूं और TRP तो बटोर लूं...😀😀😀😬😬
पानी पर बहुत कुछ लिखा है पहले ही ..लेकिन जब पोस्ट के बाद पानी से जुड़ा कोई गीत लगाने की बारी आती है तो मुझे बस यही गीत याद आता है ....पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...
आज यहां लखनऊ में एक और पुस्तक मेला शुरू होने जा रहा है ... कईं बार जाऊंगा वहां इन तारीखों में .. चुन चुन कर बड़े नामचीन लेखकों की कुछ पुस्तकें हम लोग वहां से खरीद भी लाएंगे लेकिन यह कोई भरोसा नहीं कि पढ़ेंगे कब!
अभी सुबह जागी नहीं है ...साढ़े चार बजे हैं..ऐसे ही ध्यान आ रहा है कि किताबों, पत्रिकाओं एवं कॉमिक्स से जुड़ी अपनी यादों पर कुछ लिखा जाए...
बरकत अपना मित्र है, पंजाबी भाषा में लिखता है ... उस के घर में हर तरफ़ किताबें बिखरी रहती हैं..पिछली बार मिला तो बताने लगा कि उस की बीबी और बीवी को हर समय यही चिंता रहती है कि किताबें कब और कैसे सिमटेंगी....कईं बार उसे सलाह मिल चुकी है कि कार्डबोर्ड ेके डिब्बों में बंद कर के इन्हें संभाल ले, एक लिस्ट बना ले और जिस किताब से वास्ता हो, उसे बाद में पलंग से नीचे रखे डिब्बे से निकाल लिया करे ...लेकिन इस सुझाव को बरकत हमेशा सुना-अनसुना कर देता है ...ठहाके लगा कर कहने लगा कि सामने पड़ी हुई किताबों को तो छूने की फ़ुर्सत नहीं मिलती .. .अब डिब्बे से निकालने की कौन ज़हमत उठाएगा!
बरकत ने एक दिल को छूने वाली बात यह भी कह दी कि उसे पता है अंत में कभी न कभी तो इन बेचारी किताबों का नसीब डिब्बे में बंद होना ही है ...लेकिन जब तक सामने दिखती हैं तो एक आस बंधी रहती है कि मैला आंचल, राग-दरबारी, झूठा सच, गोदान जैसी कालजयी रचनाएं हाथों तक पहुंच ही जाएंगी कभी भूले-भटके ..
मैं उस की बात सुन रहा था .. तो गुलजार साहब की वह कविता रह रह कर मेरे मन में आ रही थी ...
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा वो शायद अब नही होंगे!!
(गुलज़ार)
दिनांक १५ अक्टूबर २०१६
यह पोस्ट मैंने कल सुबह ४.३० बजे लिखनी शुरू तो की ..लेकिन फिर नींद आ गई थी...सोच रहा हूं कि इस विषय पर जो कहना है एक पोस्ट के जरिये नहीं हो पाएगा...इस पर कभी फिर से लिखूंगा ..अभी तो बस सफदर हाश्मी साहब की इस बात का ध्यान आ रहा है ...
किताबें करती हैं बातें..
बीते जमानों की दुनिया की, इंसानों की आज की, कल की एक-एक पल की गमों की, फूलों की बमों की, गनों की जीत की, हार की प्यार की, मार की क्या तुम नहीं सुनोगे इन किताबों की बातें?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं तुम्हारे पास रहना चाहती हैं किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं किताबों में झरने गुनगुनाते हैं परियों के किस्से सुनाते हैं किताबों में रॉकेट का राज है किताबों में साइंस की आवाज है किताबों में ज्ञान की भरमार है क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं.. तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
(सफ़दर हाश्मी)
बचपन के उन स्कूली दिनों के बाद जब चंदामामा, नंदन, लोट-पोट, मोटू-पतलू, मायापुरी को पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ने-देखने के बाद ही भूख लगा करती थी, याद नहीं उन दिनों के बाद कब किस किताब को पूरा पढ़ा था...शायद कभी नहीं, पाठ्य पुस्तकों तक को भी नहीं...वहां भी वही चुन चुन कर पढ़ने की हिमाकत !
एक शॉपिंग मेले में गये हुए थे कल.. मिसिज़ एक लेडीज़ स्टॉल पर सूट-दुप्पटों में व्यस्त थीं ...मैं तो कुल जमा पांच सात मिनट में किसी दुकान पर खड़ा खड़ा ऊब जाता हूं...बाहर निकला तो पास ही एक चमकदार स्टाल की तरफ़ ध्यान चला गया...
वहां पहुंचा तो ये सब रंग बिरंगी चमकीली चीज़ें देख कर मन बहला रहा था...तभी एक ग्राहक की आवाज़ सुनाई दी...यह ग्बोल है?...दुकानदार ने तुरंत कहा - "नहीं नहीं , यह क्रिस्टल है.."
दुकानदार ने कुछ आगे कहा तो था कि यह कौन सा क्रिस्टल है ...वह बंदा थोडा़ सकपका गया ...अब मैंने उसकी असहजता भांप कर यह कह दिया कि मैंने भी ग्लोब ही समझा था..
दुकानदार कहने लगा कि यह घर की सारी निगेटिव एनर्जी सोख लेता है ....बंदे ने उस का दाम पूछा...मुझे याद नहीं कितने का था, मेरा ध्यान कहीं और था उस समय...
ग्राहक ने पूछा कि इस से छोटा नहीं है...दुकानदार तो दुकानदार ही होते हैं...नहीं, इस से छोटे का क्या करोगे?...लोग तो इस से भी बड़े बड़े क्रिस्टल ले जाते हैं, सारे घर की निगेटिव एनर्जी को इसने सोखना होता है ...
बहरहाल, फिर उस ग्राहक का ध्यान इस पिरामिड की तरफ़ चला गया..साढ़े सात सौ रूपये का था...देख कर उसने रख दिया वापिस...और यंत्रों-तंत्रों में उलझने के लिए शायद...एक घर के बाहर लटकाने वाला कुछ अष्ट धातु का यंत्र देख कर उसे यही लगा कि जंग तो नहीं लग जायेगा...कोई चुरा तो नहीं लेगा...बिल्कुल अपने लोगों जैसे मध्यमवर्गीय प्रश्न...लेकिन उसे दुकानदार ने अच्छे से फिर समझा दिया कि इस यंत्र को किसी कमरे के बाहर कील लगा कर फिक्स कर लीजिए...बस, और अगर इसे जंग लग गया या ७२ घंटे के अंदर कोई शुभ बात न घटित हो तो भी मुझे फोन कर देना....मैं अपने इस लड़के (वर्कर) को घर भिजवा कर इसे वापिस कर लूंगा...
मैं उन रंग बिरंगी आकृतियों में उलझा हुआ था ...बिना किसी मतलब के ...क्योंकि सत्संग में जाते हैं...हम इस सर्व-व्यापी कण कण में विद्यमान ईश्वर के अलावा किसी भी यंत्र-तंत्र पर यकीं नहीं करते ...बिल्कुल भी नहीं...इन जगहों पर जाकर सत्संग की बातें अचानक मन में घूमने लगती हैं...
मेरा ध्यान गया उस दुकानदार के विज़िटिंग कार्ड की तरफ ..उस पर लिखा हुआ था...फेस-रीडिंग एक्सपर्ट .... मुझे याद आया कालेज से दिनों से छुटकारा मिलने के बाद एक बार एक किताब के बारे में सुना था.....How to read a person like a book?....किसी आदमी को एक किताब की तरह कैसे पढ़ा जाए?.....मैंने भी खरीदी थी, लेकिन अपनी हर खरीदी किताब की तरह इस के भी दो चार पन्ने पढ़ कर किसी कोने में फैंक दिया...बड़ी अजीब सी बात लगी थी कि हम लोग किसी दूसरे को पढ़ने के लिेए इतने आतुर ही क्यों हैं, पहले अपने आप को तो पढ़ लिया जाए !
हां, फेस-रीडिंग की बात पर वापिस लौटते हैं.....मैंने जिज्ञासा वश उस दुकानदार से पूछा कि फेस-रीडिंग आप करते हैं?...उसने हां कहा तो मैंने पूछा कि इस के कुछ दाम लगते हैं...उसने बताया कि दो हज़ार रूपये...और हमारा एक ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट भी है जहां पर हम लोगों को ट्रेन करते हैं...
फेस-रीडिंग से पहले वे लोग हमारे शरीर के चक्रों की चाल को चैक करते हैं...उस के हिसाब से फिर फेस-रीडिंग की जाती है ...जैसा उसने मुझे कहा...उसने यह भी कहा कि इस से आप के चेहरे का ओजस बढ़ जायेगा...
अचानक उसने मेरे से यह पूछा कि क्या आप इन सब बातों में यकीं करते हैं ?.... मैंने प्रश्न को टालना चाहा ...उस की दुकानदारी चल रही थी... लेकिन उसने तभी पूछा कि इन चीज़ों में से आपने घर में क्या रखा हुआ है ?... मुझे और कुछ तो ध्यान में आया नहीं , बस लॉफिंग बुद्धा का ध्यान आ गया, मैंने बता दिया ...उसे शायद इत्मीनान हो गया हो कि इस को भी इन सब में विश्वास तो है ...
लेकिन मैंने उसे यह नहीं बताया कि यह लॉफिंग बुद्धा टीवी के सामने पड़ा हुआ है ...और जब कभी भी इस की तरफ़ ध्यान चला जाता है तो अच्छा लगता है ....इस को मस्ती वाला पोज़ देख कर ...बस, और कुछ नहीं एक्सपेक्टेशन है नहीं कि यंत्र-तंत्र कुछ कर सकते हैं...
सब कुछ अपने अंदर है ..मन जीते जग जीत....बस, हम इसे बाहर ढूंढते ढूंढते बेहाल हुए जा रहे हैं..
इतने में उस ग्राहक ने साढ़े सात में इस पिरामिड जैसी रंग बिरंगे यंत्र को खरीद लिया ...और लगा पूछने कि रखना कहां है...फिर दुकानदार शुरू हो गया कि कंपास से देख लेना ...कमरे की किसी उत्तर दिशा में इसे रख देना...७२ घंटे में यह अपना काम करना शुरू कर देगा...शुभ समाचार मिलेगा !
मैं उस दुकान से हटते हुए यही सोच रहा था कि हम लोग भी किस तरह से एक दूसरे को टोपी पहनाने लगे हैं.....उस बंदे का यह खरीदारी करते वक्त अपने एक पुराने लोकल ब्रांड के हेल्मेट को हाथ में पकडे़ रखने से मुझे यही ध्यान आया कि लोग टोपियां पहनाने के इस चक्कर में मिडिल क्लॉस लोगों को कैसे कैसे सपने बेचने लगे हैं.... God bless your all children, bring them out of darkness of ignorance to this light of divine knowledge!
हमारे शरीर में किसी भी चोट को रिपेयर करने की बेइंतहा क्षमता होती है ..हम लोग तो हर दिन कुदरत का यह करिश्मा देखते रहते हैं...वरना अगर यह चीज़ भी पैसे से ही मिलती तो कारपोरेट अस्पतालों की तो चांदी हो जाती...जिस तरह से आज कल प्लेटलेट्स का धंधा खूब चमका हुआ है...मरीज़ों को क्या पता कि किस इलाज की ज़रूरत है, किस की नहीं है!
यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं ...यह एक ५०-५५ वर्ष की महिला की है ...यह अस्पताल में दाखिल थी ..क्योंकि इसे दौरा पड़ गया था...और यह घर में बेहोश हो गई...बेहोशी की हालत में इसे नहीं पता कैसे इस की जुबान कट गई...बहुत खून बहने लगा ...फिर इसे अस्पताल लाया गया ...खून बंद हो गया...और यह मुझे एक या दो दिन के बाद ही दिखाने आई थी.
ये ऊपर लगी दोनों तस्वीरें उस दिन की हैं जब ये मेरे पास आई थी...बहुत डरी हुई कि पता नहीं जुबान कभी ठीक भी होगी कि नहीं...लेकिन उस दिन इसे दर्द भी बड़ा था...स्वाभाविक सी बात है कि अगर कभी खाना खाते वक्त हमारी जुबान थोड़ी सी भी दांतों के नीचे आ जाए तो कैसे हम लोगों की चीख निकल जाती है ...और यहां पर इतना बड़ा घाव था..
इसे मैंने सब से पहले यही भरोसा दिलाया कि यह सब चार-पांच-सात दिन में एकदम दुरुस्त हो जायेगा... मेरी बातों से इसे इत्मीनान सा हो गया शायद...
ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां तो इसे पहले ही किसी दूसरे कारण से चल रही थीं...इसलिए किसी और ऐंटीबॉयोटिक की तो ज़रूरत थी नहीं, कुछ दर्द निवारक टेबलेट्स दे दी थीं...और लगाने के लिए मुंह के छालों पर लगाने वाली जो दवाईयां आती हैं...Zytee/Emergel/Dologel/Dentogel (इन में सो कोई भी एक)...उसे इस घाव पर दिन में चार पांच बार लगाने के लिए कहा गया...और साथ में बीटाडीन जैसा माउथ-गार्गल करने के लिए बता दिया था..
दो दिन बाद यह महिला फिर परसों दिखाने आई थी... बस खाने वाली दवाईयां खा रही थीं, लेकिन लगाने वाली दवाई अभी तक इसने लगानी नहीं शुरू की थी...कुल्ले बीटाडीन से कर रही थी...लेकिन फिर भी आप देख रहे हैं कि ज़ख्म ठीक हो ही रहा है ....बता भी रही थी कि अब काफ़ी आराम है ....उसे फिर से इस ज़ख्म पर दवाई लगाने की सलाह दी ...
जुबान कटने का उपचार कितना आसान है! ...आप भी यही सोच रहे होंगे ...लेकिन कड़वी जुबान से होने वाले घावों का हम लोगों के पास भी कोई उपचार है नहीं ! Mind your tongue!