बुधवार, 24 मई 2017

ब्रांडेड दातुन करिए जनाब ....मां प्रकृति का सान्निध्य

 सोना खरीद रहे हो यार!

हर पुराने शहरों के उन बाज़ारों में से उन तीन चार दातुन बेचने वालों के दिन भी बस समझिए लदने वाले हैं...कर ली उन्होंने जितनी कमाई करनी थी..अब उन्हें भी लगता है भरण-पोषण के दूसरे रास्ते तलाशने होंगे...

 हिन्दुस्तान २४ मई २०१७ 

इससे पहले कि खबर बासी हो जाए..वैसे भी गर्मी का मौसम है ...सोचा कि यह ब्रांडेड नीम की दातुन वाली खबर सब से पहले सब से तेज़ी से अपने ब्लॉग पर ही क्यों ना सहेज लूं!

ध्यान टीना मुनीम का भी आया...एक जमाने में लोकल गाड़ी में दातून बेचने वाले गीत गाये थे उसने ...अब यह सब ब्रांडेड होने वाला है तो क्या पता आने वाले समय में उन की कंपनी भी ये दातून विश्व स्तर पर बेचने लगे...


अभी लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले इंटरनेट पर भी देखा था कि नीम की दातून पैकिंग में बिक रही हैं...खासी महंगी ...शायद इन दातूनों को ब्रांडेड रूप में बेचने का आईडिया भी यहीं से आया होगा..

दातुन के बारे में लोग मेरे से पूछते हैं तो मैं कहता हूं कि हां, यह दांतों और मसूड़ों की सेहत के लिए बहुत उमदा तो है ही बेशक ..और यह सैंकड़ों --शायद हज़ारों ...(मेरा हिसाब-किताब और हिस्ट्री बेहद कमज़ोर है) सालों से चलन में है ..ज़ाहिर है मेरी आधुनिक पढ़ाई लिखाई ने मुझे टुथपेस्ट का ही महिमा-मंडन सिखाया है ..लेेकिन मैं इतना जानता हूं कि हमारे खान पान की बदली हुई आदतों की वजह से हमें दातून के अलावा दूसरे रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं... लेेकिन एक बात ज़रूर मानने वाली है कि जो लोग दातून करते भी हैं, वे दांतों को उस से इतनी बेरहमी से कूचते हैं कि दांत ही घिसा डालते हैं....एहतियात बरतिए... अपने दंत चिकित्सक से इस के बारे में चर्चा करिएगा...

प्रकृति की बात चली है तो मेरे विचार में आज इस पोस्ट में प्रकृति की ही कुछ तस्वीरें लगा दूं..

प्रकृति की छटा निराली है ...हर व्यक्ति अपने हिसाब से इस से सबक सीखता है ....आप इन सब तस्वीरों को देखिए ...अगर आप ध्यान से देखिएगा तो हर तस्वीर में प्रकृति के राज़, उस की मानवता के लिए सीख छिपी पड़ी है ....क्या हुआ?....कुछ ज़्यादा भारी भरकम बातें हो गईं! .. चलिए, भूल जाइए इन बातों को भी, बस आप ये तस्वीरें देखिए मजे से ...












अच्छा, वैसे तो यह एक निबंध का विषय है कि नैसर्गिक नज़ारे हमें क्या क्या सिखाते हैं...लेकिन मैं तो चंद लफ़्जों में ही इसे कहना चाहूंगा कि ये हमें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, प्रेम-करूणा, सहनशीलता, ठहराव, स्थिरता, मूक दर्शक, हमेशा खिले हुए रहना ..खुशियां बांटना, पल पल को जीने का सबक सिखाते हैं....अभी तो इतने ही भारी भरकम शब्द ही ध्यान में आए....आप भी कभी लिखियेगा ब्लॉग के कमैंट्स बॉक्स में जाकर कि आप को प्रकृति के नज़ारों से क्या सीख मिलती है ... और हां, एक बात और याद आ गई ...कभी मेरा अहम् जब मेरे ऊपर हावी होने लगे और मैं प्रकृति की गोद में जाऊं तो मुझे अपने तुच्छ होने का (तुच्छ भी बहुत बड़ा शब्द लग रहा है ....क्या कुछ तुच्छतम् जैसा शब्द भी होता है ...धूल का कोई कण जैसा!) अहसास होता है जो बहुत सुकून देता है ..


चलिए, बहुत उड़ने के बाद धरातल पर आ जाते हैं...और यह देखते हैं कि सरकारी दफ्तरों में भी इस तरह की वारदातें होने लगी हैं...मुझे याद है कुछ अरसा पहले यहां रेलवे के डीआरएम दफ्तर के प्रांगण में जब दो ठेकेदारों के बीच गोलियां चली थीं तो बड़ा हंगामा हो गया था ..लेकिन यहां पर किसी कर्मचारी को अगवा करने की घटना हो गई कल ....बाबू अच्छा था या बुरा, यह तय करना कोर्ट का काम है.....लेेकिन इस घटना की जितनी निंदा हो सके होनी चाहिए...प्रजातंत्र के लिए खतरा हैं ऐसी घटनाएं....Let's nip the evil in the bud!


 सुबह सुबह बेटे ने भी एक अच्छी बात शेयर की है ...यहां लगाये दे रहा हूं...

मैं भी इस बात से इत्तेफ़ाक रखता हूं... 

चलिए, ज़्यादा मत सोचिए, सेहत के लिए ठीक नहीं होता, यह गीत सुन कर मूड ठीक करिए और सुबह के लिए अपने अपने को तैयार कीजिए....सुप्रभात ..


सोमवार, 22 मई 2017

फोन रिकार्डिंग पिछली बार कब की थी ?

उस दिन जैसे ही उसने मुझे कहा कि वह ऐसे कैसे मुकर सकता है अपनी बात से ...मेरे फोन में रिकार्डिंग है मैं उसे सुना सकता हूं...

बरकत के ये शब्द सुनते ही मेरे मन में जो उस के बारे में इंप्रेशन था, उस पर बुरी तरह से आंच आ गई...

एक दिन मैंने शेरू को भी सुना कि वह फोन की रिकार्डिंग सुन रहा था ...मैंने कुछ कहा नहीं, लेकिन मुझे बहुत ही ज़्यादा बुरा लगा.. 

कईं साल पहले एक परिचित था जो बॉस की बातों को टेप किया करता था ...उसे वह अपने साथियों को सुनाता और उन की बातें टेप कर फिर बॉस को सुनाता...एक-दो बार में पता चल गया, विश्वास ही नहीं हुआ...लेकिन इन बातों में कोई सबूत नहीं मांगता ...बस, उस बंदे की क्रेडिबिलिटि इतनी नीचे चली गई कि उस के साथ बात करने से ही हिचकिचाहट होने लगी...

अभी कुछ समय पहले की ही बात है कि एक उच्च अधिकारी जब मेरे पास ओपिनियन के लिया अपने सारे डैंटल रिकार्ड लेकर आया तो पूछने लगा कि मैं आप की बात को टेप कर लूं....मुझे उस दिन भी बहुत अजीब लगा... लेकिन मैंने मना नहीं किया...हां, बातें ज़रूर मैं सोच सोच कर करता रहा..

उस अधिकारी को मैंने मना बस इसीलिए नहीं किया कि यह तो मेरे से पूछ रहा है ..वैसे भी हम लोग इतने लोगों से मिलते हैं कौन बात रिकार्ड कर रहा है, कौन वीडियो बना रहा है ...पता ही नहीं चलता....यकीन मानिए, यह एक बहुत बड़ी समस्या है ... मरीज़ के साथ आने वाले फोन पर लगे रहते हैं...फोटो भी खींचते हैं...फोन पर बातचीत भी चलती रहती है ... बस, बेतकल्लुफ़ी का यह आलम अब देखा नहीं जाता!

बस इसीलिए क्यों कि इस सब से डिस्ट्रेकशन तो होती ही है...

हां, तो बात चल रही थी फोन रिकार्डिंग की ...मेरे विचार में यह बहुत ही घटिया आदत है ...बिल्कुल पीठ पर वार करने जैसा ... यह उन लोगों का हथियार है जिन लोगों ने ऐसे स्टिंग आप्रेशन के जरिये अपने विरोधियों का मलियामेट करना होता है ... 

पढ़े लिखों को यह सब शोभा नहीं देता....सब से बड़ा खतरा यही होता है कि जैसे ही किसी दूसरे को पता चलता है कि यह तो इस तरह के पंगे भी करता है, लोग उस से किनारा करना शुरू कर देते हैं..

आज के दौर में इस से ज़्यादा विश्वासघात क्या होगा कि कोई हम से अपने दिल की बातें कर रहा है और हम विलेन वाली हरकतें करने में मसरूफ़ हैं....घोर निंदनीय... 

दरअसल मुझे ऐसा लगता है कि हमें मोबाइल फोन के एटिकेट्स भी नहीं हैं... We always flaunt our pricy mobiles...किसी को भी मिलने जा रहे हैं तो क्यों नहीं हम लोग अपना मोबाइल किसी पाउच में, पतलून की जेब में या लेडीज़ अपने पर्स में क्यों नहीं रख लेतीं... अगर हम इस तरह के टेपिंग वेपिंग के लफड़े में नहीं हैं तो हमें वैसा दिखना भी चाहिए...बस, कोशिश करिए किसी से मिलते वक्त वह शर्ट की जेब में न हो, हाथ में न हो...उसे बार बार छेड़ें नहीं, दूसरों को लगता है कि यह कुछ टेप ही कर रहा होगा....

मेरी सब को नसीहत यही रहती है कि कभी भी किसी की बात टेप मत किया करें....जितने लोगों को आप उसे सुनाएंगे, उतने लोगों की नज़रों से आप गिरते चले जायेंगे। आप का क्या ख्याल है?

लेकिन एहतियात यह भी रखनी ज़रूरी है कि कभी न कभी तो हमारी बातें टेप होती ही होंगी...अच्छा, एक बात और भी है कि आप की 6th sense बता ही देती है कि कौन सा बंदा इन सब चक्करों में है। एक बार इस तरह की भनक भी लग जाए तो मैं तो उस बंदे से फोन पर बातचीत करते वक्त नार्मल नहीं हो पाता...यार, बंदा किसी को कितने विश्वास में लेकर उससे ऐसी वैसी, जैसी तैसी, कैसी भी बात कर लेता है ...और उस की ऐसी टेपिंग-वेपिंग वाली घटिया हरकत का कभी पता चले तो ... 

हां, तो पोस्ट के शीर्षक में एक प्रश्न है ...जवाब तो देना ही होगा मुझे भी ....जी हां, मैंने भी एक बार यह घृणित काम किया था  ...शायद २००८  के आसपास की बात होगी... नया नया पता चला था कि फोन पर बात रिकार्ड हो जाती है ...तो मैंने भी एक दो मिनट की बातचीत रिकार्ड करी थी...लेकिन शाम को सुनते ही अपने आप से पूछा कि तेरे को इन सब की कब से ज़रूरत पड़ने लगी ....उसी समय डिलीट मारा ......और उस दिन के बाद कईं फोन बदले हैं... लेकिन कभी यह जानने तक की कोशिश नहीं की ...कि इस फोन रिकार्डिंग के फीचर को कैसे एक्टिवेट करना है .....अभी भी जो Nexus 6 इस्तेमाल कर रहा हूं, मुझे नहीं पता इस में फोन को कैसे रिकार्ड करते हैं... और किसी के साथ व्यक्तिगत बातचीत करते वक्त भी मैंने कभी रिकार्डिंग नहीं की ... ये सब बातें बड़ी बेकूफ़ाना लगती हैं... और एक बात, जब भी किसी से मिलने जाता हूं अपने मोबाइल को पतलून की जेब में ठूंस के रखता हूं....मेरी भी यही हसरत है कि जो लोग मुझ से मुलाकात करने आएं वे भी अपने मोबाइल मेरी तरफ़ प्वाईंट न कर के रखें....मैं असहज हो जाता हूं...... Inspite of all this, I stand by my words! ....जो बात मुंह से निकाल दी तो उस से मुकरना भी क्यों, अंजाम कुछ भी हो!!

 Having said all this, let's admit that we are living in times of mutual mistrust......God bless all of us!

अभी बिजली गुल थी ..मेरे एफएम रेडियो पर यह गोपाल दास नीरज जी का लिखा हुआ मेरा पसंदीदा गीत बज रहा था .. .यहां पर भी देख कर चलने की ही बात हो रही है...देख भाई ज़रा देख के चलो... 


रविवार, 21 मई 2017

२१ मई २०१७ (रविवार)

क्या शीर्षक दें यार रोज़ रोज़ अपनी पोस्ट को ...अपनी डायरी में लिख रहे हैं...मेरे विचार में जब मन चाहे बस तारीख लिख कर छुट्टी करनी चाहिए जैसा कि मैंने आज किया है।

इसलिए बत्ती गुल है ... अभी थोड़े समय पहले टाटास्काई के चैनल ८१६ पर सोनी मिक्स प्रोग्राम देख रहा था .. उस चैनल पर पुराने फिल्मी गीत इस समय रात में ९ से ११ बजे तक दिखाते हैं ..क्या बढ़िया सा नाम है उस कार्यक्रम का ..हां, रैना बीती जाए!!

अभी मैने उस पर तीन फिल्मी गीत सुने ...बेहतरीन एक दम ...अपने स्कूल के दिन याद आ गये .. जब ये गाने सुबह शाम रेडियो पर बजते रहते थे ...मैं इन तीनों गीतों को यहां एम्बेड करूंगा अभी पोस्ट पूरी करने से पहले।


पहला गीत सुना .. राम की लीला रंग लाई, शाम ने बंसरी बजाई...दिलीप कुमार साब पर फिल्माया गया है यह गीत ...कितनी तारीफ़ करें उन की और इस गीत की भी ..पिछले चालीस सालों में कम के कम सैंकड़ों बार यह गीत कानों में रस घोल चुका है ..फिर भी मन नहीं भरता...

उस के बाद आया लैला मजनूं का वह गीत ...कोई पत्थर से ना मारो ..मेरे दीवाने को ..जब १९७७ में नवीं कक्षा में पढ़ते हुए अमृतसर के ऐनम थियेटर में जाड़े के मौसम में यह फिल्म देखी थी..ठीक चालीस साल पहले ...उस समय कहां इन गीतों के अल्फ़ाज़ की तरफ़ ध्यान ही जाता है ज़्यादा ...लेेकिन जब इत्मीनान से सुनते हैं कईं सालों बाद तो शायर की दाद दिए बिना कैसे रह सकते हैं !



शब्दों के जादू की बात शुरू हुई है तो दाग फिल्म का गीत वह गाना याद आ गया...जब भी जी चाहे नईं दुनिया बसा लेते हैं लोग... साहिर लुधियानवी साहब के बोल हैं और यशराज बैनर तले १९७३ में बनी यह बेहतरीन फिल्म ...शर्मीला जी के ऊपर फिल्माया गया यह गीत ..



टीवी में आजकल देखने को कुछ ज़्यादा होता नहीं है ...कितने पागल बनते रहेंगे वही मिश्रा और केजरीवाल के पचड़ों के बारे में सुन सुन कर ...कमबख्त सिर दुःख गया है ...फिर ईवीएम मशीनों ने भी आंखें दुखा दी है ं...इस विषय का मैं जानकार नहीं हूं...n

सोच रहा हूं बंद करूं यह पोस्ट लिखना ...इच्छा सी नहीं हो रही..सोच रहा हूं जैसे इच्छा नहीं होने पर अपनी डॉयरी को बंद कर के मेज पर दूर सरका दिया जाता है, इस पोस्ट को भी ठेल कर आराम करूं...

लेकिन सोने से पहले इतना तो यहां दर्ज कर लूं कि आज टीवी पर दंगल फिल्म देखी ..यह मैंने पहले नहीं देखी थी...जितनी तारीफ़ की जाए कम है ...ऐसी फिल्में देख कर यह भी पता चलता है कि फिल्में बनाने के लिए कितनी मेहनत लगती है ...आमीर खान के बारे में तो मशहूर है कि वे दो साल में एक फिल्म बनाते हैं और ये होती हैं यादगार फिल्में ...सच में ..तारे ज़मीं पर ....थ्री-इडिटएस और अब दंगल ऐसी फिल्में हैं जिन्हें बच्चों को एक साथ स्कूलों के प्रेक्षागृहों में दिखाया जाना चाहिए...(मैं ब्लॉग में भयंकर शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज करता हूं ..इसलिए प्रेक्षागृहों का मतलब भी लिख दूं...ऑडीटोरियम )...ये पहले वाली दोनों फिल्में ऐसी हैं जिन्हें कईं बार बच्चों के पेरेन्ट्स को देखने के लिए कह देता हूं ...अब दंगल देखने की भी सिफारिश किया करूंगा...

बेहद इमानदारी से किया गया रोल ...और आमिर फिल्म के बाद एक कार्यक्रम में बता रहे थे कि उस हरियाणवी भाषा का एक्सेंट सीखने के लिए उन्हें पूरे छः महीने लग गये....ज़ाहिर है जितनी तपस्या ये लोग करते हैं, फिल्म भी जनमानस के दिलो-दिमाग को उद्वेलित भी उसी अनुपात में ही करती है ....हम लोग कह देते हैं कि इसे इतने सौ करोड़ की कमाई हुई ...उसे इतने की हुई.....इस तरह की साफ़-सुथरी फिल्में देख कर यह पता चल जाता है कि ये सब लोग इस के हकदार हैं!!

पता नहीं ..उमस भरी गर्मी की वजह से या फिर क्यों, आज इस पोस्ट को लिखते हुए बड़ी बोरियत महसूस हुई ...होता है यह भी कभी कभी ...होना भी चाहिए!!

मंगलवार, 16 मई 2017

कभी किसान की भी सुध लीजिए...

सब्जी मंडी में सब्जियां बिकती देख कर मेरा ध्यान अकसर किसान की तरफ़ चला जाता है ..

उस का कारण यही है कि कईं बार जब सब्जियां और फल इतने सस्ते बिक रहे होते हैं कि बार बार ध्यान यही आता है कि किसान इस से क्या कमा लेता होगा!

यह तस्वीर जो मैं लखनऊ के देशी खरबूजों की यहां लगा रहा हूं...(जैसा मुझे उस रेहड़ी वाले ने कहा कि ये देशी हैं!) ...क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि इन सब का कितना दाम होगा? इस का जवाब है ..मात्र पांच रूपया...ये पांच रूपया किलो में बिक रहे हैं आज कल लखनऊ के बाज़ारों में ..कहीं इत्मीनान भी होता है कि निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग की पहुंच तक तो हैं....लेकिन किसान की कौन सोचता है कि उस ने क्या कमाया-खाया इस तरह की खेती से!

यदा कदा किसानों की खुदकुशी की खबरें आती हैं...हम लोग पढ़ लेते हैं जल्दी में कभी कभी..वरन हैडलाइन पढ़ना ही काफ़ी मान लेते हैं.. फिर अखबारों और टीवी की ऐसी चर्चाओं में भारी भरकम बुद्धिजीवियों (एक तो मेरे जैसे भारी भरकम और ऊपर से बुद्धिजीवि ...killer combination!) को डिनर के समय़ झेल लेते हैं.. बात आई गई हो जाती है!


 साहिब नज़र रखना..मौला नज़र रखना..

जंतर मंतर पर तमिल नाडू के किसान कितने समय तक धरना पर रहे ...बस, यह हमारे लिए एक खबर है ...टीवी के लिए टीआरपी बढ़ाने का जुगाड़ ...असल में किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ...अपने घर से चंद घंटे के लिए ही हम लोगों को बाहर रहना पड़े तो हमारी क्या हालत हो जाती है ...और ये लोग आए दिन अपनी वाजिब मांगों के लिए गुहार लगाते रहते हैं ...और थक हार कर लौट जाते हैं...(मेरा अल्प ज्ञान देखिए कि मुझे यह भी नहीं पता कि वे अभी भी दिल्ली में ही हैं या वहां से लौट गये है ं...बस मौसम की वजह से एक अनुमान ज़रूर लगा पा रहा हूं को लौट ही गये होंगे!!)

एक बात और भी है ना कि यह खरबूजों का ही हाल नही ंहै ....कभी कभी टमाटर १० रूपये किलो बिकते हैं...बढ़िया टमाटर ...और आम का भी यहां लखनऊ में आने वाले दिनों में यही हाल हो जाता है ...१०-१५ रूपये किलो बिकने लगते हैं...बहुत सी सब्जियां हैं जिन का यही हाल होता है ....

अकसर आप मीडिया में देखते-पढ़ते भी होंगे कि किसानों ने अपनी सब्जियों की पैदावार को सड़कों पर फैंक दिया...उन्हें लगा कि इतना सस्ता बेचने से अच्छा है कि यही काम कर दिया जाए..

हेल्थ-इकनोमिक्स विषय का अध्ययन किया था १९९१ में...तब इकनोमिक्स के बारे में भी अधकचरी सी जानकारी हुई थी कि किस तरह से मार्कीट शक्तियां ही किसी भी सामान का दाम तय करती हैं....और वैसे भी ऐसे पांच रूपये किलो खरबूजे बेचने वाले को आप दस रूपये कभी देना भी नहीं चाहते ....ये भी हम से कम स्वाभिमानी नहीं होते, और ऐसी हरकत से हम कैसे इन को चोट पहुंचा सकते हैं!!

हम लोग किन दिनों में जी रहे हैं जहां एक तरफ़ तो इन स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां-फलों का दाम कईं बार इतना नीचे गिर जाता है कि खरीदते हुए किसान के बारे में सोच कर अफसोस होता है ... (We really feel sorry for that unknown figure who must have cultivated and harvested this produce!)... और दूसरी तरफ़ एक पिज्जे के ऊपर शिमला मिर्च की दो बारीक सी फांके लग जाती हैं, यह कैप्सिकम पिज्जा बन जाता है तो यह डेढ़ दो सौ रूपये में भी बिक जाता है ...और घर में डिलीवर भी हो जाता है ... कितना बड़ी खाई है कि कैप्सिकम बाजा़र में कौडियों के भाव बिक रही है और ये पिज्जे विज्जे वाले कैसे मुनाफ़ा जमा कर रहे हैं...

कुछ भी हो, सब के हालात बदलने चाहिए....हर एक को उस की मेहनत की कीमत मिलनी चाहिए...सब्जी बेचने वालों की मजबूरी यह है कि वे इसे आज कल के मौसम में एक दिन भी नहीं रख सकते .. अगले दिन ही सब्जी और फल फ्रूट सड़ने-गलने लगता है ...

ऐसी सूरत में भी अगर कोई सरकार मध्यमवर्गीय किसानों के कर्ज़े माफ़ करने की बात ही करती है ...बिजली-पानी मुफ्त करने की बात होती है तो कैसे हम लोग अपनी भौहें तान लेते हैं...बिल्कुल सयाने कौवे की तरह ....यह भी पता नहीं कि असल में किन किसानों के कर्जे माफ़ हो जाते होंगे और कौन दर दर भटकने के लिए रह जाते होंगे ....सब जगह सैटिंग से ही काम चलता है ...वैसे सूरत कुछ कुछ बदल तो रही है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या!

जाते जाते मेरी गुजारिश यही है कि इन छोटे मोटे सब्जी वालों से मोल भाव मत किया करिए....पिज़ा कार्नर वाली की दादागिरी हम सहते हैं....किसी भी थोड़े से ठीक ठाक ढाबे में अढ़ाई-तीन सौ रूपये की दाल मक्खनी की प्लेट भी खा लेते हैं और तीस रूपये की एक रोटी भी .....सब्जी खरीदते समय भी उस तरह की लूट का ध्यान रख लिया करिए... क्या ख्याल है?

हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे ..

सोमवार, 15 मई 2017

सुबह की सैर वाला रोजनामचा १५.५.२०१७


आज मैं सुबह सवा छः बजे के करीब टहलने के लिए निकला..उमस बड़ी थी ...कल भी ऐसी ही हालत थी..पता चल गया था सुबह पेपर से कि कल लखनऊ तप रहा था.. कल का तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस के पास था ...

एक बात मैं अकसर यहां शेयर करता हूं कि अगर आप को सुबह टहलने का शौक है ना तो आप के लिए बहुत सी बढ़िया पार्क हैं...लखनऊ के हर कोने में ...

अधिकतर पार्कों में पेड़-पौधे भी खूब हैं...इसलिए सुबह सुबह यहां पर आ जाना भाता है ...सच में ऐसे हरे भरे पार्क भी किसी शहर के फेफड़े होते हैं..


टहलने के कुछ और ऑप्शन भी हैं लेकिन उन जगहों पर पेड़ नहीं हैं और आज कल सुबह ही इतनी उमस हो जाती है कि पसीने की वजह से हर बंदा थोड़ी छाया की ठौर ढूंढता है ...यह सुबह साढ़े छः -सात बजे का हाल था आज भी ... कल से सोच रहा हूं कि अपने टहलने का समय बदलना होगा... यह टहलना-वहलना पांच छः बजे तक निपटा लेना चाहिए...

इस पोस्ट में लगी सभी तस्वीरें उसी बाग की हैं जहां मैं सुबह गया था ... लेकिन आप सोचिए कि आज भी लखनऊ में कितनी तपिश और उमस होगी कि इतनी सुबह सवेरे भी इस तरह के नैसर्गिक वातावरण में भी लोगों का पसीने की वजह से हाल बेहाल हो रहा था ..

अगर सुबह के वक्त टहलते हुए ऐसे मंज़र दिखें तो किसे टहलने में सुस्ती आयेगी! 




यह पार्क भी ऐसा है लगता है जैसे किसी ने शहर के बीचों बीच जंगल स्थापित कर दिया हो ...बिल्कुल उस जंगल में मंगल वाली कहावत के उलट..जैसे प्रकृति ने कंकरीट के आशियानों में बसने वालों पर रहम कर दिया हो! 

लेकिन पता नहीं कुछ लोगों का यहां पर आने का केवल एक उद्देश्य होता होगा कि फूल तोड़ के लाने हैं...यह भद्रपुरूष भी एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जा कर फूल ही तोड़ता दिखा ..अब कोई इन को क्या कहे! ईश्वर ही सदबुद्धि प्रदान करे इन्हें!

लेकिन कुछ लोग सुबह उस वक्त भी परोपकार में लगे होते हैं...दूसरे से देखा कि यह नेक बंदा प्लास्टिक की बोतलें पैर से ठोकरें मार के एक जगह इक्ट्ठा करने में मशगूल है...मैं इन के पास गया तो गुस्से में लगे कि लोग कितना कचड़ा ऐसी जगहों पर भी फैंक जाते हैं...गुस्से में कहने लगे -- "कोई इन लोगों को समझाए कि जैसे इन बोतलों को लाते हो, वैसे जाते समय वापिस भी ले जाया करें...दूसरी चीज़ों की तरह जिन्हें भी प्यार से वापिस ले जाते हो..लेकिन किसी को कुछ भी कहने का ज़माना भी तो नहीं है।"

सुबह सवेरे स्वच्छता के लिए श्रमदान करते हुए एक बुज़ुर्ग
Journey of 3000 miles starts with the first step! 

यह बोतलें सुबह टहलने वाले नहीं लाते ... सुबह टहलने वाले जब यहां से निकल जाते हैं तो फिर यहां पर युगल आने शुरू होते हैं ...शाम तक वे यहां जमा रहते हैं...इन की ही ये बोतलें, चिप्स के पैकेट, चाकलेट की पैकिंग...पिज़ा-बर्गर के खाली डिब्बे ...इस तरह का कचरा वे लोग ही यहां फैंक जाते हैं..

पास ही खडा़ एक बंदा बताने लगा कि यहां भी अंडमान निकोबार समूह के हैवलॉक आईलेंड जैसा नियम होना चाहिए....उसने बताया कि वहां यह नियम है कि पानी को बोतल अगर लेकर वहां जा रहे हैं तो पहले आप को हर बोतल के लिए २०० रूपये प्रति बोतल के हिसाब से जमा करने होते हैं...लौट कर आइए.. प्लास्टिक की खाली बोतल उठा कर ले आईए..और अपने पैसे वापिस ले लीजिए...


मुझे यह आइडिया बहुत अच्छा लगा .. हमें भी कुछ कडे़ कदम ही उठाने पड़ेंगे ..हर तरफ़ कचरा ...हर तरफ़ गंदगी के अंबार लगे दिखते हैं...स्वच्छता तभी होगी जब कचरा-कूड़ा भी कम होगा ...

वापिस लौट कर देखा अपनी कॉलोनी में तो एक घर के बाहर रोज़ की तरह आज का संदेश यह लिखा हुआ था ..कुछ बातें समझ में आईं ..कुछ सोच विचार करने लायक लगीं....जैसे कि आप बस एक ही पैग लीजिए....यह उन के लिए है जो बेहिसाब पीते हैं.....और जो नहीं पीते हैं, उन्हें यह सब शुरू करने की ज़रूरत नहीं...



इतनी उमस में पूरे हिंदोस्तान को पवन-पुरवैया का ही ध्यान आ रहा होगा!

रविवार, 14 मई 2017

आप आज कल पढ़ क्या रहे हैं?

अच्छा, डाक्साब, बताईए, आप आज कल क्या पढ़ रहे हैं? कल जब मेरे एक मरीज़ ने यह प्रश्न दाग दिया तो मैं इसके लिए तैयार ना था...

अब उस को मैं क्या बताता कि दिन में कईं तरह की किताबें उठाता हूं ..और लेट कर ही पढ़ता हूं और पांच मिनट के अंदर नींद आ जाती है ..कोई भी किताब हो..इसलिए बच्चे भी जानते हैं कि यह बापू का लिटरेचर टाइम है तो मतलब सोने की तैयारी है।

मैं ऐसा सोचता हूं कि अच्छी या बुरी आदतें हमें बचपन से ही पड़ जाती हैं....मुझे यह लेट कर पढ़ने की आदत बचपन से ही है...वैसे तो किसी ने कभी भी पढ़ने-लिखने के कहा ही नहीं..लेकिन जो दो तीन कक्षाएं अहम् होती हैं कैरियर के ...उस दौरान मेरी मां कभी कभी ज़रूर कह देती थीं...उठ कर पढ़ा करो ...ऐसे लेट कर पढ़ने से कोई फायदा नहीं...कुछ समझ नहीं आता...नींद आई है तो सो जा, सुबह उठ कर पढ़ लेना...

लेकिन मैं भी ठहरा अव्वल दरजे का ढीठ प्राणी....अब तक भी लेटे बिना कुछ पढ़ते ही नहीं बनता और लेटने का मतलब नींद की झपकी...(वैसे मेरी मां की भी यही समस्या है...वे भी जैसे ही कोई किताब पढ़ने लगती हैं, उन्हें नींद आ जाती है ...) ...मतलब कुछ खानदानी मर्ज ही है!!

हां, उस मरीज़ की बात कर रहा था ...उसे मैंने ऐसे ही एक दो नाम बता दिए... अमृतलाल नागर जी और मुँशी प्रेम चंद जी के रचना संचयन के बारे में कहा कि उन्हें पढ़ रहा हूं..

मेरा यह जो मरीज है ..यह हिंदी प्रेमी है ...पांच छः अखबार लेता है ...और सुबह से शाम तक सारे पढ़ लेता है ..पहले भी कह चुका था..और आज भी कह रहा था कि आप के लेख जनसत्ता में छपते हैं...आप दूसरे अखबारों में भी भेजा करिए...मैंने बताया कि मैं किसी को भी नहीं भेजता, वे लोग ब्लॉग से अपने आप ले लेते हैं..

उन्होंने बताया कि वे आज कल रश्मिरथी पढ़ रहे हैं...और साथ में संस्कृति के चार अध्याय भी पढ़ रहे हैं... मुझे हिंदी साहित्य की जानकारी बहुत कम है ...मेरी जिज्ञासा भांप कर वह बताने लगे कि रश्मिरथी काव्य है ...दिनकर जी ...मैंने कहा ...रामधारी सिंह दिनकर जी ...कहने लगे..हां, हां, आज कल मैं उन को ही पढ़ रहा हूं...

उन की बातचीत से पता चला कि घर का सारा माहौल ही साहित्यिक है ...बीवी और बेटा भी ये सब साहित्य पढ़ते रहते हैं..घर में हर समय पढ़ाई लिखाई ही चलती रहती है ...

अच्छा लगा ये सब बातें सुन कर ...

मुझे याद आया कि दो साल पहले एक बात ये मुझे जैनेन्द्र कुमार का नावल त्यागपत्र पढ़ने के लिए दे गये थे ...मैंने उसे एक दो दिन मन लगा कर पढ़ा...और उस के बाद कुछ पंक्तियां अपनी डायरी में लिख दी थी...अभी डायरी सामने ही पड़ी हुई है, सोचा ब्लॉग पर वह चंद पंक्तियां शेयर करूं...

दिनांक ८.३.१५...
"उस समय भीतर ही भीतर सचमुच मुझे यह मालूम हो रहा था कि यहां देर तक मेरा रहना ठीक न होगा। लोग ने जाने क्या समझें। मैं आज तक इसी बात पर आश्चर्य किया करता हूं कि लोग क्या समझेंगे, इसका बोझ अपने ऊपर लेकर हम क्यों अपनी चाल को सीधा नहीं रखते हैं, क्यों उसे तिरछा-आड़ा बनाने की कोशिश करते हैं! लोगों के अपने मुंह हैं , अपनी समझ के अनुसार वे कुछ-कुछ क्यों न कहेंगे? इसमें उनको क्या बाधा है? उन पर फिर किसी को क्या आरोप हो सकता है? फिर उन सबका बोझ आदमी अपने ऊपर स्वीकार कर अपने भीतर के सत्य को अस्वीकार करता है - यह उसकी कैसी भारी मूर्खता है!!"
(जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास ...त्यागपत्र से ...) 

पढ़ने लिखने की बातों से बचपन की बातें उमड़-घुमड़ कर ज़रूर याद आ जाती हैं....जब चंदमामा, लोटपोट, नंदन, कभी कभी धर्मयुग भी, मायापुरी जैसी किताबें और कुछ छोटे छोटे जासूसी उपन्यास भी किराये पर लाकर पढ़े जाते थे ..शुक्र है कि उन दिनों टीवी नहीं होता था ..इसलिए कोशिश यही होती थी कि अगर चार पत्रिकाएं लाएं है ..मतलब एक रूपया किराया देना है कल सुबह तो कैसे भी रात देर तक जाग कर या सुबह जल्दी उठ कर निपटा लिए जाए...और अकसर यह काम हो ही जाता था...(जहां चाह वहां राह ..) ...हां, उन बच्चों के नावल के पचास पैसे थे एक दिन के ...वे भी खूब पढ़ते थे .. बचपन में ये पढ़ने-लिखने की आदतें हमारे जमाने में आम थीं...

स्कूल में हम लोग यह चर्चा करते थे ..पांचवी छठी कक्षा में अच्छा उस लोटपोट को पढ़ लिया तुमने .उस का सीरियल नंबर होता था ..फिर बिल्लू भी आने लगा था ... घर में धर्मयुग भी आता था और इलेस्ट्रेटेड वीकली भी ....मैं इन के भी पन्ने ज़रूर उलट लिया करता था ..फोटो देखता ..बच्चों के पढ़ने लायक कुछ पन्ने होते तो उन्हें भी देख लेता ...मां को सरिता पढ़ना पसंद था .. उस भी जरूर देख लेते थे और मामा जब आते थे तो उन के साथ मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां भी आती थीं, तब उधर भी नज़र पढ़ जाती थीं...रीडर डाईजेस्ट भी दसवीं कक्षा के आसपास दिखने लगी थी....और हां, क्लास में बच्चे जो मस्तराम जी का साहित्य पढ़ते थे तो वे बातें भी कानों में पढ़ती रहती थीं...याने सभी तरह के साहित्य का स्वाद चख लिया था ..स्कूल कालेज के दिनों में ही ...

बात उसी पर आते हैं कि आज कल कोई ऐसे पूछता नहीं है ना कि आप क्या पढ़ रहे हैं... लेकिन उस दौर में रिश्तेदार चिट्ठियों में लिखते थे कि खिलौना देखी है, आप लोग भी ज़रूर देखिए....मौसी ने लिखा कि चितचोर देख कर आए..कसमे वादे भी अच्छी है ...बहन गईं चाचा के यहां तो वहां से लिख भेजा कि ज़मीर फिल्म देख कर आये हैं...आप लोग भी देखिएगा...पहले हम लोग ऐसे निर्धारित करते थे कि कौन सी फिल्म देखनी हैं....मुझे अभी याद आ रहा है कि मुहल्ले की कुछ औरतें तलाश फिल्म देख कर आईं तो मां और उन की सहेलियां वाला ग्रुप भी अगले दिन सिटी लाइट हाल में यह फिल्म देखने चला गया ...


पहले कोई फिल्म देख कर आते थे तो शायद उस का नशा अगले सात दिन तक को कम से कम चढ़ा ही रहता था..हर शख्स अपने आप को उन चंद दिनों के लिए कुछ कुछ हीरो जैसा ही अपने आप को समझने लगता था ...फिर जब नशा उतर जाता तो सब कुछ नार्मल हो जाता था...

हां, एक बात और याद आ गई...कईं बार बंदिश से भी अच्छे काम हो जाते थे ...याद करिए किस तरह से हम लोग छोटे साईकिल एक घंटे के लिए २५ पैसे के हिसाब से किराये पर लेते थे ..उस समय लंबा चल कर दुकान तक जाना भी बिल्कुल नहीं अखरता था...और वहां कुछ समय इंतज़ार करने में भी दिक्कत नहीं होती थी..साथ में कोई साथी भी होता था ...जिस के साथ आधे आधे समय चलाने का कान्ट्रेक्ट हुआ होता था ....सच बताऊं जो खुशी उस छोटे साईकिल को उस एक घंटे में चलाने में होती थी वह तो मुझे कभी भी आई२० गाड़ी  चलाने में भी नहीं हुई....कभी भी नहीं.. बस, उस साईकिल को चलाते समय एक घंटे के खत्म होने की चिंता सताती रहती थी ...फिर इतनी अकल भी आ गई कि एक घंटे होते होते दुकान के आसपास ही चक्कर लगाने हैं...ताकि जैसे ही वह आवाज़ लगाए .. तो उसे साईकिल जमा करवा दी जाए...क्योंकि जेब में २५ पैसे से ज़्यादा माल भी तो नहीं होता था....

बदल गया है ज़माना है ....बदलना भी ज़रूरी होता है...पहले किसी के यहां केसेट आती थी तो पता चल जाता था कि उस के यहां ये ये कैसेट्स हैं, मिल बांट कर सुनते से सारे .....अब सभी के फोनों पर स्क्रीन लॉक लगे होते हैं....घर में हज़ारों रूपये के फोन , लैपटाप आते हैं तो भी लोग कहां एक साथ  बैठ कर खुशी मना पाते हैं ! हरेक को अनजान हडबड़ाहट है....वाट्सएप, ट्विटर और  फेसबुक पर पीछे छूट जाने की फिक्र है शायद ..

हां, जाते जाते किताब कौन सी पढ़ रहा हूं, इस का जवाब तो मैंने ऊपर दे दिया ... लेकिन आज कौन सी खरीदी है ...उस का नाम है ...Rishi Kapoor की किताब Uncensored Khullam Khulla......It reminds me of that popular song ... जो अकसर Big FM 94.3 पर बजता रहता है ....

शनिवार, 13 मई 2017

कहानी ....कलेजे का टुकड़ा

छोटा सा शहर .. वापी ...वहां पर पटेल के घर में आज पार्टी चल रही है ..उस की बीवी विमला बेन का जन्मदिन है आज ..कौन सा?...शायद ५२ वां या ५३ वां...डी जे की मस्ती में सब डूबे हुए हैं.. विमला बेन भी धीरे धीरे झूम रही हैं ..बेटी अनंता और बेटे राहुल का हाथ थामे हुए...

लेकिन आज से कुछ महीने पहले इस घर में वातावरण ऐसा खुशगवार नहीं था..क्योंकि पिछले लगभग सात-आठ सालों से विमला की तबीयत ढीली सी रहती थी..भूख न लगना, कुछ भी न पचना, हर समय थकावट, चक्कर आते रहना, पेट में दर्द रहना ...हर समय लेटे रहना..चलने फिरने में दिक्कत ...

जैसा अकसर होता है ... आस पास के नीम हकीम, डाक्टर और देशी नुस्खे वाले जब फेल होते दिखे तो झाड़-फूंक वालों की शऱण में जाना पड़ा...लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता दिखा...विमला बेन की हालत बहुत खराब हो चली थी...

तभी शहर के सरकारी अस्पताल में डा मोदी नाम का कोई सामान्य चिकित्सक आया ..जब विमला बेन को उसने देखा तो कुछ टैस्ट करवाने के लिए कहा ...पेट का अल्ट्रासाउंड भी करवाने को कहा ..

सारी रिपोर्टें लेकर डा पटेल के पास गये दोनों मियां-बीवी ..

"इन के लिवर में कुछ गड़बड़ है, इसीलिए यह इतना बीमार रहती हैं.."

"लिवर में गड़बडड मतलब?"

"इन के लिवर में सिरोसिस नाम की बीमारी हो चुकी है .."

"यह क्या होता है, डाक्साब.."

"इस बीमारी में लिवर में गांठे बन जाती हैं...लिवर के काम में रुकावट आने लगती है ...बिना किसी लक्षणों के भी यह बीमारी कईं बार अंदर ही अंदर बढ़ती रहती है ...और फिर लिवर की हालत इतनी खराब हो जाती है कि वह काम ही करना बंद कर देता है..वह बड़ी चिंताजनक स्थिति होती है .."

"डाक्टर साहब, मेरी बीवी का लिवर कैसी हालत में है?"....एक दिन अकेले में पटेल ने अकेले जा कर डाक्टर से पूछ ही लिया..
"देखो, पटेल, लिवर की हालत तो ठीक नहीं है, लेकिन आज कल इस के इलाज मे बहुत अच्छा काम हो रहा है, बंबई के एक अस्पताल में कुछ विशेषज्ञ आजकल लिवर प्रत्यारोपण द्वारा मरीज़ों को जीवनदान देने के लिए सुर्खियों में हैं..."

"यह क्या होता है , इस में कितना खर्च आ जाता है ...क्या यह विमला के केस में हो सकेगा?"

"देखो, पटेल, इस आप्रेशन में होता यह है कि कोई नज़दीकी रिश्तेदार अपने जिगर का एक टुकड़ा दान देता है ..जिसे मरीज़ के शरीर में लगा दिया जाता है ..इसे ही प्रत्यारोपण कहते हैं...ट्रांसप्लांटेशन। बाकी की जानकारी कि क्या यह आप की पत्नी के केस में हो पायेगा या नहीं या कितना खर्च लगेगा...यह सब तो आपको मुंबई जाने पर ही पता चलेगा.."
पटेल ने घर आकर सलाह की .. रिश्तेदारों से भी बात चीत हुई .. बच्चों से भी ...तीसरे दिन वे लोग मुंबई के लिए रवाना हो गये... वहां अस्पताल में विशेषज्ञों से मिले ...पता चला कि दान कौन दे सकता है ..और इस सारे इलाज पर पंद्रह बीस लाख का खर्च तो आ ही जाएगा...

पैसे की पटेल को कोई परवाह नहीं थी...खानदानी ज़मीन जायदाद थी, उसने मन बना लिया कि पैसे का क्या है, बीवी ठीक होना चाहिए...अभी बीवी की उम्र पचास के थोड़ा ही ऊपर हुई थी...

डोनर की बात आई ....डाक्टरों के साथ सारी चर्चा करने के बाद ...डाक्टरों ने यही बताया कि पटेल के बेटे के लिवर के टुकड़े को उस की मां में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है.. 

यह सुन कर तो जैसे सारे परिवार के पैरों तलों से ज़मीन ही निकल गई ....अभी चंद रोज़ पहले ही तो वह अट्ठराह वर्ष का हुआ है और अब इतना जोखिम वाला आप्रेशन करने की बात हो रही है ...डाक्टरों ने बड़ा अच्छे से उन्हें समझा तो दिया कि केवल राहुल के लिवर का एक बिल्कुल छोटा सा हिस्सा ही निकाला जाएगा ..और उस की अच्छी सेहत और उम्र को देखते हुए कुछ ही महीनों में उस का लिवर लगभग पहले जैसा ही बन जायेगा ..कोई दिक्कत नहीं होगी उसे..

फिर भी बात लिवर दान देने वाले पर आकर थम सी गई ... मां तो तैयार ही नहीं थी ..वह बार बार कहतीं कि मेरी जान के लिए यह अपनी जान क्यों जोखिम में डालेगा..

अनंता ने भी भाई को समझाना चाहा..अनंता भाई से १० साल बडी है, शादी शुदा है ...लेकिन भाई ने एक बात कह कर ही बहन को चुप करा दिया...दीदी, तुम जानती हो ना कि मां के ना रहने का क्या मतलब होगा! 

राहुल की और उस की मां की सभी जांचे हुईं....बहुत दिनों तक तो जांचें ही चलती रहीं.. इन दिनों सारे परिवार को यही देख कर डर लगता कि कईं मरीज़ों के लिए घर के लिए छः डोनर तक अनफिट करार दिये जाते ....सब को यही चिंता थी कि अगर राहुल को भी अपनी मां को अंगदान देने के लिए उपयुक्त न पाया गया तो क्या होगा...क्योंकि पिछले कुछ दिनो ंसे बिमला की तबीयत बहुत ही ज़्यादा बिगड़ चुकी थी...एक तरह से डाक्टरों ने जवाब ही दे दिया था ...अगर कोई डोनर मिल जाए तो उम्मीद है ...वरना तो ईश्वर ने जितनी सांसे दी हैं, बस..

और एक दिन विशेषज्ञों ने घोषणा कर दी कि राहुल अपनी मां को अंगदान कर सकता है ...घर के सारे परिवार में मिश्रित सा ही माहौल था .. विमला के भली चंगी हो जाने की उम्मीद की खुशी और राहुल को किसी संभावित खतरे की आशंका...सारे परिवार की जान कुछ दिनों तक अटकी रही ...आप्रेशन वाले दिन भी परिवारीजनों की हालत वैसी ही थी ...डाक्टर लोग सब भांप लेते हैं..

"आप चिंता मत करिए, हमें राहुल के केस में एक प्रतिशत का भी कोई रिस्क लगेगा तो हम यह प्रक्रिया वहीं रोक देंगे" -- डाक्टर टिक्कू ने जब यह कहा तो मां, बहन और पिता की जान में जान आई। 

आप्रेशन सफल हो गया ..दोनों का ... बाद में भी कोई दिक्कत नहीं हुई ...राहुल की तो ७ दिन के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई ..लेकिन मां को २५ दिन तक वहां रुकना पड़ा.. बाद में एक महीने बाद वे सब लोग खुशी खुशी घर आ गए... 

कुछ दिनो ंबाद राहुल अपनी पढ़ाई में जुट गया ...मां की ऐसी सेहत के चलते उस का एक साल पहले ही खराब हो चुका था ...अब वह और भी मन लगा कर अपनी मैडीकल प्रवेश परीक्षा में जुट गया .. अभी चंद रोज़ पहले ही उस का रिजल्ट आया है ..उस का दाखिला अहमदाबाद के एक मैडीकल कालेज में हो गया है ...उसने भी एक ट्रांसप्लांट सर्जन बनने की ठान ली है ... जब से उसने देखा है कि किस तरह से बिल्कुल हताश-निराश मरीज़ को जीवनदान दे देते हैं ये डाक्टर लोग ..जैसे ईश्वर के स्पैशल दूत हों... अभी कुछ ही दिनों में वह अहमदाबाद जाने वाला है ... वहां होस्टल में रहेगा...

बिमला को बाज़ार से कुछ भी खाना मना है ..राहुल को भी बाहर का खाने से मना किया गया .. ताकि इंफैक्शन से बचा जा सके .. विमला को दवाईयां सारी उम्र तक लेनी होंगी...राहुल को भी कोई दिक्कत नहीं है ..मस्त है ..खुश है कि मां को नईं ज़िंदगी मिल गई ... उस की भी जांचें बीच बीच में होती हैं...सब कुछ नार्मल है...

एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस तरह की बीमारी लिवर सिरोसिस आम तौर पर मदिरा सेवन करने वालों में होती है और हेपेटाईटिस बी और सी संक्रमण वाले मरीज़ों में भी इस बीमारी होने का रिस्क बढ़ जाता है .. अब विमला में तो ऐसा कुछ भी नहीं था...डाक्टरों को यह पता नहीं चला कि आखिर विमला को यह तकलीफ़ हुई कैसे! जो भी हो, इस का प्रभाव यह हुआ कि पटेल ने भी दारू पीना बिल्कुल छोड़ दिया ..वरना उस के दोस्तों की दारू की महफिलें अकसर लगती रहती थीं...। 

विमला की जांचें तीन महीने बाद होती हैं जिन्हें राहुल ईमेल से डाक्टरों को भिजवा देता है और वे ईमेल से ही मार्गदर्शन कर देते हैं.. डाक्टरों के काम काज और बर्ताव से सारा परिवार खुश है .. अगर उन को फोन करते हैं, मिस काल हो जाती है तो बाद में डाक्टर खुद फोन करते हैं...परिवार को इसी से बड़ा इत्मीनान है .. 
.....
जब केट काटने के बाद राहुल अपनी मां को केट खिला रहा था तो विमला की आंखों से खुशी के आंसू छलक गये ... 
लोग हर बात का अपना मतलब लगा लेते हैं....

विमला की सहेली ने रश्मि ने चुटकी ली...अरी विमला, तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा पढ़ाई के लिए ही तो जा रहा है...और अहमदाबाद कौन सा दूर है वापी से!

यह सुन कर विमला खिलखिला कर हंस दी ....मन ही मन यह सोच रही थी कि कलेजे का एक टुकडा़ तो जा रहा है, उसी के एक टुकड़े की वजह से ही तो उस की सांसें चल रही हैं! 

एक बार फिर से डीजे के शोरगुल में सभी मस्त हो गये.... गीत भी तो डीजे वाले बाबू कैसे कैसे लगा देते हैं.. वह कौन सा रिमिक्स बज रहा था ... मैंने होठों से लगाई तो हंगामा हो गया... 



PS...यह कहानी नहीं है, किसी की आपबीती है ...


पानी- गर्म, ठंडा या गुनगुना?

पानी भी ऐसी चीज़ है जिस के ऊपर किसी न किसी का उपदेश आए दिन कानों में पड़ ही जाता है ...कभी कभी बुज़ुर्ग मरीज़ भी नसीहत की घुट्टी पिला जाते हैं कि सुबह इतने गिलास पानी पिएं ...फिर देखिए कमाल ..खाने के इतने समय बाद पानी पिया करें...पानी हमेशा गुनगुना कर के पीजिए..पानी तांबे के गिलास में रात में रख दीजिए, सुबह सब से पहले इसे पीजिए....यह लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है ...ये सब अच्छी बातें है निःसंदेह ..लेकिन मेरी चिंता यही है कि हम लोग किसी की बात सुनते ही कहां हैं...कभी कोई बात किसी की जो दिल में उतर जाती है वह मान लेते हैं...बाकी एक कान से अंदर जाती हैं, दूसरे से बाहर! ऐसी ही होता है ना?

आज सुबह ईमेल खोली तो एक योगगुरू की मेल आई हुई थी...(पर्सनल नहीं, मेलिंग लिस्ट वाली) ..उसमें यही लिखा था कि किस तरह से हम लोग बर्फ़ वाला या वैसे फ्रिज में रखा हुआ ठंडा पानी पी पीकर अपनी सेहत को बेकार में खराब कर रहे हैं...जितनी भी बातें लिखी थीं, मेरा मन उन को मान रहा था... लेकिन फिर मैं यही सोच रहा था कि इस के फ़ायदा क्या, क्या मैं इस पर अमल करूंगा? बस, पढ़ लिया और छुट्टी! 

पिछले दिनों वाट्सएप पर भी शायद किसी आयुर्वेदिक विशेषज्ञ की भी एक पोस्ट खूब चल रही थी कि किस तरह से भोजन के साथ पिया पानी हमारे पाचन प्रक्रिया को किस कद्र बिगाड़ देता है ...

हम लोग कितनी ही जगहों से और कितने ही एक्सपर्ट्स से ये सुन चुके हैं कि पानी का तापमान बेहद महत्वपूर्ण है ..हम अमेरिका को ही ताकते हैं ना हर अच्छी सलाह के लिए...उन का यह हाल है, गुरू ने लिखा था कि वे लोग एक गिलास का तीन चौथाई हिस्सा बर्फ से भर कर ही पानी पीते हैं.. 

कुछ बातें मानने में हमें हीला-हवाली नहीं करनी चाहिए.....जैसे आज कल बच्चन किसी भी विज्ञापन में कितनी बेपरवाही से कहता दिखता है ..बस, ऐसा करिए...फटाक... इधर उधर जाने की क्या ज़रूरत ......हमें भी अपना दिमाग न लगाते हुए जो अच्छी बातें सुनने को मिलें, उसे जीवन में अपना लेने से क्या हो जाएगा...

आज तो पता नहीं मेरे जैसे चिकने घड़े पर भी क्या असर हो गया कि मैंने भी शायद महीनों बाद मटके का पानी पिया ...अच्छा लगा .. सीखने की और किसी की बात मानने का कोई भी समय बुरा नहीं होता ...जब हम जाग जाते हैं तभी सवेरा हुआ समझ लीजिए, क्या फ़र्क पड़ता है .. कोशिश करूंगा कि आज से फ्रिज में रखा हुआ या बर्फ़ वाला पानी नहीं पिऊंगा ....देखता हूं इस पर कितना चल पाता हूं!

वैसे भी मुझे लगता है ...पता नहीं क्यों, कि ये जो पानी को गर्म करने का फिर पीने का ...ये सब चोंचले ज़्यादा चल नहीं पाते ..कितने दिन कोई इन सब को चला पाएगा... (अगर कोई कर पाता है, तो अच्छी बात है ...please keep it up!) ..जो मुझे ठीक लगता है कि ज़्यादा सोच विचार के बिना बस मटके के पानी पर ही वापिस लौट आया जाए....बड़ी उड़ाने भर लीं हम लोगों ने भी ...इस से पहले की सेहत की टांय-टांय फिस ही हो जाए बिल्कुल, आज ही से मटका ज़िंदाबाद ...हम लोग आईसबॉक्स के दिनों के और शिकंजवी, सत्तू, रूहअफज़ा, या बंटे वाली बोतल को पीने के लिए बाज़ार  से पच्चीस पैसे की बर्फ़ खरीद कर हाथ में (साईकिल में कैरियर नहीं था, और हम लोग थैला लेकर जाने में अपनी बेइज्जती समझते थे..) लेकर आने वाले दौर के गवाह हैं!! (पालीथीन थी नहीं, और दुकानदार जिस छोटे से अखबार मे टुकडे़ में बर्फ लपेट देता था, वह दो मिनट में गल जाता है ...बस फिर घर आने तक जैसे तपस्या ही होती थी!) ..

बहुत से काम पहले तो बंदिश में ही करने पड़ते हैं...फिर धीरे धीरे आदत ही बन जाती है...यही होता है ना हम सब के साथ! आज सुबह मैं साईकिल चलाते हुए यही सोच रहा था कि जिन लोगों को साईकिल चलाने की सब से ज़्यादा ज़रूरत है वे इसे एक बोझ के समान समझते हैं...शायद मेरा भी यही हाल है ...कईं बार काफ़ी दूर निकल जाता हूं ...वापिस लौटने में भी तो उतना ही समय लगेगा, आज इसी चक्कर में लगभग डेढ़ घंटा साईकिल ही चलाता रहा.. 

बंदिश मैंने इसलिए कहा कि मेरे जैसे लोगों को साईकिल चलाते हुए ऐसे लगता है जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...ऐसा नहीं होना चाहिए...विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात पर विशेष बल दिया है कि दैनिक परिश्रम कुछ ऐसा करते जो आप की सामान्य दिनचर्या का ही एक हिस्सा सा बनता दिखे...आप दूध, सब्जी लेने जा रहे हैं, पैदल जाइए, अपने कार्यस्थल पर पैदल या साईकिल पर जाइए (जैसा भी संभव हो...हरेक की अलग परिस्थिति है)...बात पते की है बिल्कुल, अगर यह परिश्रम या वैसे भी हिलना-ढुलना जीवनशैली का एक सहज हिस्सा ही बनता दिखेगा तो स्वतः ही होता रहेगा यह सब कुछ ...इन अच्छी आदतों का बोझ नहीं ढोना पड़ेगा..खामखां.

चीन के बारे में दो चार दिन पहले किसी अखबार में पढ़ रहा था कि वहां पर ३८ करोड़ के करीब साईकिल हैं...(आंकड़े याद रखने के बारे में मैं बड़ा कमज़ोर हूं) .. और वहां पर लोग साईकिलों पर ही निकलने लगे हैं.. हां, वे किसी भी साईकिल को कहीं पर भी छोड़ सकते है ंऔर किसी भी जगह से पड़ी हुई साईकिल को अपने इस्तेमाल के लिए उठा सकते हैं...मुझे बड़ी हैरानी हुई यह पढ़ कर ... साईकिल का लॉक भी QR code स्कैन करने से खुल जाता है ...और भी बहुत सी बातें लिखी हुई थीं उस लेख में .. कतरन भी रखी है, लेकिन हर बार की तरह वह गुम है! 

बहुत से विकसित देशों के बारे में भी पढ़ता रहता हूं ..आंकड़े भी दिख जाते हैं कि वहां पर कितने ज़्यादा लोग साईकिल चलाने लगे हैं.. और मैं जब किसी मरीज़ से पूछता हूं कि साईकिल चलाते हैं आप?.."कहां डाक्टर साहब, बच्चे नहीं चलाने देते, उन्हें नहीं अच्छा लगता"- अकसर यही जवाब मिलता है। 

आओ स्कूल चलें हम...
पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया 
वैसे कुछ साईकिल चलाने वालों के लिए यहां पर दिक्कते भी हैं...जैसे हर पैदल के लिए फुटपाथ होना चाहिए, साईकिल पर चलने वालों के लिए भी  साईकिल ट्रैक होंगे तो ही लोग बच्चों को साईकिलों पर स्कूल जाने देंगे या खुद भी तभी निकलेंगे ..वरना जिस तरह का बेतरतीब यातायात है यहां ....पैदल, साईकिल और दो पहिया वाहन चालकों का तो रब ही राखा है ..सब का ही रब राखा, लेकिन इन का कुछ ज़्यादा ही है, तभी ये शाम को सकुशल अपने आशियानों पर लौट आते हैं...

साईकिल ट्रैक बन जाते हैं तो उन को क्लियर रखना भी सुनिश्चित होना चाहिए.. यह देखिए इन नीचे दी गई तस्वीरों में कैसे सुबह के सुबह यहां लखनऊ में इन वाहनों में कब्जा कर रखा होता है ..और फिर कुछ समय बाद लोग इन में अपने दोपहिया वाहन खड़े कर देंगे.. और जो ट्रैक बाज़ारों में से निकलते है ं उन में दुकानदार अपना कबाड़-सामान सजा देते हैं ....उद्देश्य बस इतना ही कि कोई इन साईकिल ट्रैक्स को इस्तेमाल न कर पाए...वरना पब्लिक को एक बार अच्छी आदत की लत लग गई तो दिक्कत हो जायेगी...



पता नहीं इस दिशा में कितना काम हो पायेगा या नहीं हो पायेगा ..विशेषकर जब एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव निशान ही एक साईकिल हो ...लेकिन अब यह पार्टी सत्ता में नहीं है!  Let's rise above politics!! यही समय की मांग है ..


हां, पानी से याद आया...आज एक गमले वाले के पास रूका तो मुझे पता चला कि यह गमला नहीं है...इसे नोंद कहते हैं...(यही तो कहा था उसने ..अपने सहायक से पूछूंगा ..मेरे लिए यू.पी का एन्साईक्लोपीडिया वही है...और मार्गदर्शक भी!) ... यह छः सौ रूपये का है...लोग इस में पानी भर कर घर के बाहर जानवरों के लिए रखते हैं ...बहुत अच्छा लगा ...यह देख कर ...

मैं तो फ्लैट में रहता हूं ...सोसाईटी पर गेट है...क्या कहते हैं को-ट्रैप भी लगा हुआ है गेट पर ..आवारा जानवर भी नहीं है कालोनी में, बंदरों तक को इजाजत नहीं ..दो लंगूरों को सुबह से शाम तक नौकर रखा हुआ है ..  आते जाते किसी भटके हुए जानवर का इस तरह के पानी के बड़े भगौनों तक पहुंचने का प्रश्न ही नहीं है .....हां, परिंदे ज़रूर आते हैं नियमित ...उन के लिए ज़रूर कुछ जुगाड़ कर रखा है ..


जाते जाते आप के लिए मेरा आज का शुभसंदेश .. आप और आपके सभी अपने इस सूर्यमुखी की तरह खिलते रहिए..और ऊपर लिखी भारी भरकम बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दीजिेए...बस मस्त रहिए और अगर हो सके तो ठंडा पानी बात बस पर ध्यान करिएगा...जैसे मैंने आज ही किया!



गुरुवार, 11 मई 2017

पेड़ हैं तो हम हैं...फिर भी!

पसंद अपनी अपनी ...बेबी को बेस पसंद है, किसी को पशुओं के चारे में मुंह मारना पसंद है, किसी को स्कूली बच्चों को रोज़ाना मिलने वाले मिड-डे मील के चोगे में चोंच मारना पसंद है, जैसे इस सब से पेट न भरा है...कुछ पानी के टैंकरों के घपले के चुल्लू भर पानी में डूब मरते हैं, किसी को स्टैंट से मोटी कमीशन पसंद है और किसी को इस जहां से रुख्सत होने से पहले मरीज़ों की दवाईयों के फर्जीवाडे़ से पैसा जमा करना पसंद है ...कोई किसी का पेट काट कर जेब भर लेना चाहता है और कोई पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से कर माल कमा लेना चाहता है, किसी को वृक्षारोपण मुहिम के दौरान पेड़ों की संख्या में हज़ारों की हेराफेरी पसंद है .. इस लिस्ट को अाप चाहें जितना लंबा करते जाएं, यह खत्म होने वाली नहीं है...

पेड़ों से ध्यान आया ..एक तरफ़ तो पेड़ों को काटने वाला माफ़िया है ...और दूसरी तरफ़ पेड़ों से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले फरिश्ते हैं..आज मैं अमर अजाला में एक ऐसी ही रिपोर्ट पढ़ रहा था ..पौधों की पूजा होती है और प्रसाद में बांटते हैं बीज..

अच्छा लगा यह सब पढ़ कर कि किस तरह से चंद्रभूषण तिवारी जी पेड़ों की सेवा करने की मुहिम चलाए हुए हैं...

बकौल तिवारी जी ...
"मेरा जन्म देवरिया के एक गांव में साधारण परिवार में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई के लिए किताब-कापियों की जरूरत मेैं बाज़ार में नीम की निबौरी बेचकर पूरी करता था। अ से अमरूद और आ से आम की पढ़ाई मुझे पेड़ों के कल्पना-लोक में ले जाती थी. आम की गुठली से निकले पौधे और उनके फल देने की प्रक्रिया मुझे बचपन से ही रोमांचित करती थी।  
..... मैंने लखनऊ में बच्चों के लिए छह स्कूल खोले हैं। मैं गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देता हूं। हर घर में दान लेने के बदले वहां एक वृक्ष लगाकर रिश्ता जोड़ने की मुहिम शुरू की, जिसकी वजह से आज लोग मुझे 'पेड़ वाले बाबा' के नाम से पुकारते हैं।मैं स्कूलों में जा-जाकर गरीब बच्चों की शिक्षा देने के बदले में उनसे दस पौधे लगाने का वायदा लेता हूं।  
मैं इस मिशन में जब भी किसी शहर में जाता हूं, तो वहां के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मस्तिष्क में भी पौधा लगा कर आता हूं। मैं वहां बच्चों को अपने सगे-संबंधियों को पौधे लगाने की अपील करते हुए चिट्ठी लिखने के लिए प्रेरित भी करता हूं। 
चूंकि धार्मिक मान्यताओं का असर समाज में व्यापक रूप से फैला है, इसलिए मैंने अपने पर्यावरण प्रेम को इसी से जोड़ा। मैं प्रति वर्ष अपने गृहजनपद के गांव में जाकर दुर्गा मंदिर में पौधों का भंडारा भी करता हूं। इस भंडारे के बाद में लोगों को प्रसाद के रूप में पौधे बांटता हूं। इसके साथ मैं हरा-हरि व्रत कथा के नए प्रयोग पर भी काम कर रहा हूं। इस कथा में पौधों की पूजा करके बीज को प्रसाद की तरह बांटता हूं.."
दुनिया भी टिकी हुई है इसी वजह से कि किसी की फितरत अगर पेड़ काटने जलाने की है तो और बहुतेरों का स्वभाव पेड़ों से मुहब्बत करने वाला है...पिछले दिनों पृथ्वी दिवस के अवसर पर अखबार ने उस लोगों को फोटो छापने की स्कीम चाहिए जो उन्हें किसी पेड़ के साथ अपनी शेल्फी भिजवा देंगे...

मुझे भी पेड़ों के साथ खड़े हो कर फोटो खिंचवाने का बेहद शौक है ... दिल की बात करूं तो मैं ऐसे ही टाइम-पास के लिए बहुत से विषयों पर कलम घिसाता तो रहता हूं ....लेकिन मेरा मन प्रकृति के नज़ारों की आलौकिकता के बारे में ही लिखने को करता है बस...मुझे यह सब मैडीकल-फैडीकल में लिखना पसंद नहीं है ... क्योंकि ३० सालों से इस सब से जुड़े होने के कारण कभी कभी कुछ मैं भी आंखों देखी बातें दर्ज कर देता हूं..

इस कायनात का हर पेड़ मुझे चकित कर देता है .. मैं पेड़ों को देख कर अचंभित हुए बिना नहीं रह पाता.. कितना पुराना होगा यह पेड़, कब और किसने लगाया होगा...यह बीते ज़माने की अच्छाईयों-बुराईयों का गवाह रहा होगा .. कितना सहनशील है यह पेड़, कितना परोपकारी और सहज है ... पत्थर मारने वाले को भी फल ही देता है!! बस मुझे ये सब बातें ही रोमांचित करती हैं , और कुछ नहीं....एक पेड़ के दो पत्ते भी एक जैसे नहीं है ..ऐसे में हम लोग कैसे छोटी छोटी बातों पर लोगों की तुलना करने पर उतारू हो जाते हैं !!



एक बाज़ार से मैं अकसर निकलता हूं और इस इतने बडे़ पेड़ को देखता हूं ...कईं बार सोचा कि इस का फोटो खींचूंगा ..लेेकिन झिझकता रहा ..कल बाज़ार में सन्नाटा था, एक ७५-८० साल का बुज़ुर्ग बाहर खड़ा था .. मैंने पूछा कि यह कब का है, तो कहने लगे कि यह तो हमें भी नहीं पता...हमारे पिता जी को भी नहीं पता था, उन से भी पीछे ज़माने वाले ही जानते होंगे ... आप देखिए किस तरह से इन की एक दुकान इस पेड़ के पीछे पहुंच चुकी है ...लेकिन इन्होंने कैसे इस पेड़ को आंच नहीं आने दी.. ऐसे लोग उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जिन्हें तो बस किसी न किसी बहाने पेड़ों को काटने-छांटने का बहाना चाहिए होता है ..वैसे आप लोगों का उन के बारे में क्या ख्याल है जो जाड़े के दिनों में पेड़ों की छंटाई इसलिए करवा देते हैं ताकि आंगन तक धूप पहुंचने का रास्ता साफ़ हो सके... (मैंने तो क्या कहना है, हमारे घर में भी यह सब होता रहा है....यही नहीं, कहीं भी दीवार के पास पीपल आदि का नन्हा-मुन्ना पेड़ देखते ही उसे सजाए मौत की सजा सुनाने और काटने-कटवाने के गवाह हम भी हैं...ताकि वर्षो बाद उस की जड़े नींव में घुस कर हमारे ताजमहल को हिला न दें!!)

मिट्टी गारे के ऐेसे थडे़ पेड़ों की ठंडक को चार चांद लगा देते हों जैसे ..

एक बात और ...हम अकसर देखते हैं कि पेड़ों के आस पास लोग कंक्रीट के प्लेटफार्म से बना देते हैं... ऐसे लगता है जैसे पेड़ों का गला दबा दिया हो किसी ने ...लेकिन इस तरह के मिट्टी के प्लेटफार्म जैसा कि मैं अपनी सोसायटी में देखता हूं या किसी गांव में देखता हूं...बहुत बढ़िया है .. अगर प्लेटफार्म बनाना भी है तो तो थोड़ा हट कर बनाया जा सकता है जैसा कि आप इस पेड़ के आसपास देख रहे हैं..चालीस-पचास लोगों को ठंड़क देता यह बट-वृक्ष.. मुझे ऐसे पेड़ बेहद रोमांचित करते हैं... खामखां मेरा दाखिला बीडीएस में हो गया....मैं नहीं करना चाहता था यह कोर्स....बस, पिता जी के सहकर्मी ने उन्हें बताया कि यह कोर्स करने से नौकरी मिल जाती है ...और मुझे बीडीएस क्लास में बिठा दिया गया... मेरा मन तो बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) पढ़ने में ही था .. लेकिन ... जैसे तैसे मन लगा ही लिया ...पहले एक डेढ़ साल तो किताबों को हाथ लगाने का मन ही नहीं किया...लेकिन जब रुचि बनी, मैडल मिलने शुरू हो गये, यूनिवर्सिटी में टॉप करने का तुक्का लग गया तो फिर ध्यान उधर ही लगा लिया...और नौकरी ..एक नहीं, कम से कम दस मिल गईं एक साथ... इंंडियन ऑयल, रेलवे, एचएमटी, सीआरपीएफ, आर्मी, ईएसआईसी, टीचिंग वगैरह, स्टेट मैडीकल सर्विस में...लेकिन बात वही समझदार कौवे वाली ही हुई मेरे साथ भी!!

मैं भी किधर से किधर निकल गया, यही मेरी समस्या है ....बातें बहुत सारी हैं कहने सुनने को ...


कल दोपहर अमौसी एयरपोर्ट के बाहर इस पेड़ के नीचे एक घंटे बैठ कर मैं पढ़ता रहा .. बहुत अच्छा लगा ..

हमारी सोसायटी में एक ब्रिगेडियर साहब अपने घर के सामने पेड़ कर एक इस तरह का संदेश लिख कर रोज़ लगा देते हैं..सुबह टहलने वाले बड़े चाव से उस संदेश को पढ़ते हैं....कल का संदेश यह था .. आप भी पढ़िए.. यह पढ़ कर एक बार फिर यही लगा कि हम लोग अपने ही देश को कितना कम जानते हैं! 



परसों ड्यूटी पर आते हुए इस पेड़ को देखा .. लोग आज कल कहीं भी आग लगा देते हैं... झाड़ियों में किसी ने आग लगाई होगी...उस चक्कर में यह निर्दोष भी पिट गया .. बुरा लगा यह देख कर ..


रास्तों की सारी रौनक पेड़ों से ही जुड़ी हुई है ं...सुनसान रास्ते जिस पर पेड़ नहीं होते, कितने डरावने दिखते हैं...और होते भी हैं...जलती-भुनती दोपहरी में दूर से एक पेड़ जब दिख जाता है तो कितना सुकून मिलता है ...यह हम सब अनुभव करते हैं...अपने साईकिल से लेकर मोटर वाहन तक को किसी छायादार पेड़ के नीचे ही रखना चाहते हैं...

तलाशते हैं ऐसे छायादार पेड़ों को ..काश, हम इन को लगाने में और इन की परवरिश में भी इतनी ही रूचि ले पाएं!


 और यह रहा मेरा आज का सुप्रभात संदेश आप सब के लिए...आप का आज कल से बेहतर हो..
ईश्वर ने आप को  बिना कारण प्रसन्न रहने की सभी वजहें पहले ही से दे रखी हैं!!

आज की यह गीत भी कुछ मिलता जुलता संदेश ही दे रहा है ....मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है ..जीना उस का जीना है, जो औरों को जीवन देता है .. 




मंगलवार, 9 मई 2017

ऐसे "बंगाली डाक्टर" हर जगह मिल जाएंगे...

आज सोच रहा हूं बंगाली डाक्टरों पर चंद बातें लिखूं... इन डाक्टरों से मेरा अभिप्रायः है वे डाक्टर जिन्होंने किसी तरह का प्रशिक्षण हासिल नहीं किया होता, बस जैसे तैसे अपना खोखा या गुमटी जमा लेते हैं...

मैंने तो देखा है हर शहर में ये नीम हकीम डाक्टर मिल जाते हैं और इन के चाहने वाले भी ...

अधिकतर ये अपने आप को भगंदर के इलाज का एक्सपर्ट मानते हैं.. शहर की दीवारों पर भी इन के इश्तिहार चिपके मिल जाते हैं कि एक ही टीके में पुरानी से पुरानी बवासीर और भगंदर का इलाज पाएं..

जाहिर सी बात है कि इन के किसी भी दावे में सच्चाई नहीं हो सकती .. प्रशिक्षित सर्जन जो ये काम करते हैं ... वे बीस तीस साल अपने प्रोफैशन में घिसने के बाद ही किसी मुश्किल केस को हैंडल कर पाते हैं..लेकिन ये नीम हकीम बंगाली डाक्टर किसी भी जटिल से जटिल केस की गारंटी ले लेते हैं...

हर प्रशिक्षित सर्जन को अपनी सीमाएं पता होती हैं..बहुत अच्छी बात है ...वह किसी भी मरीज़ का इलाज इस तरह से करता है कि वह किसी कारणवश पूर्णतयः ठीक न भी हो पाए तो भी वह बदतर नहीं हो जाए और सब से महत्वपूर्ण बात यह कि वह यह सुनिश्चित करता है कि सारा काम अच्छे से कीटाणुरहित औजारों से हो ताकि किसी भी तरह की भयंकर बीमारी का संप्रेषण न हो जाए... उस ने कम से कम दस साल यही कुछ सीखने की घोर तपस्या की होती है ..ऐसे ही नहीं डाक्टर बन जाते!!

लेकिन इन नीम हकीम बंगाली डाक्टरों के पास जाने पर पता ही नहीं कि वे कौन सी सूईं लगा रहे हैं...दवा के नाम पर अंदर क्या भेज रहे हैं...कौन से धागे ...कौन सी सूईंयां...सब कुछ गड़बड़झाला ....मुझे कईं मरीज़ पूछते हैं कभी तो मैं उन्हें बड़ी सख्ती से मान करता हूं कि यही कहता हूं कि अगर बवासीर ठीक हो भी गई (जो कि इन से होगी नहीं!) तो भी सौगात में वे कौन सी बीमारीयां ठेल देंगे, आप को महीनों या सालों बाद ही पता चलेगा! इस में उन का भी दोष नहीं है ...उन्हें जब खुद ही नहीं पता इन सब वैज्ञानिक सिद्धांतों का तो वे इन खतरों की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं...

जब कोई आ कर कहता है कि मैं एक टीका लगवा कर या कुछ और इन के पास जाकर करवाने से ठीक हो गया..मुझे खुशी नहीं होती बिल्कुल ...क्योंकि जब मैं उन से पूछता हूं कि उस के बाद किसी सर्जन को दिखाया है तो जवाब मिलता है ...नहीं...इसलिए बिना प्रशिक्षित सर्जन के कोई भी कल्याण नहीं कर सकता ऐसी बीमारियों में...हां, सुना तो है कि आयुर्वैदिक पद्धति में भी बहुत कारगार इलाज है भगंदर , बवासीर जैसी बीमारियों के लिए .. लेकिन उस के बारे में ज़्यादा पता नहीं कि कहां पर होता है यह सब ...

मेरे एक निकट संबंधी ने भी करवाया यही टीकाकरण बवासीर के लिए....कुछ समय के लिए दब गई तकलीफ़, और फिर बाद में खूब जटिल आप्रेशन करवाना पड़ा और सर्जन की झिड़कियां खानी पड़ीं सो अलग...

दरअसल हमारे शरीर की आंतरिक संरचना है ही इतनी जटिल कि कैसे एक अनपढ़ बंदा जो कुछ भी नहीं जानता ... उस से खिलवाड़ कर सकता है ...और दुःख यही है कि यह सब हो रहा है....हर शहर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी की यह ड्यूटी है कि वह इस तरह के नीम हकीमों और झोलाछाप डाक्टरों पर नकेल कसें...

बेहतर होगा अगर जन मानस ही इतना जागरूक हो जाए कि बंगाली क्या, पंजाबी क्या और मारवाड़ी क्या, किसी भी नीम हकीम के चक्कर में फंसे ही नहीं ... जागो ग्राहक जागो ...हम भी नारा तो दे ही दें..

एक निकट संबंधी को भगंदर जैसी कुछ शिकायत थी... एमसीएच यूरोलॉजी को दिखा रहे थे .. क्या कहते हैं आप्रेशन के एक दिन पहले यूरोथ्रोस्कोपी हुई ...विशेषज्ञ को लगा कि इसे यूरेथर्र फिस्टूला ही मान कर आप्रेशन किया जायेगा.. फिश्चूला की जगह ही कुछ ऐसी थी ..अगले दिन सुबह आप्रेशन होने लगा तो सिविल अस्पताल के एक रिटायर्ड सर्जन भी वहां ओटी में बैठे हुए थे .. तो यूरोलॉजिस्ट ने उन्हें भी दिखा दिया केस ... उन्होंने देखते ही जांच कर के कहा कि ये भगंदर ही है .. high-end है ... और फिर उस यूरोलॉजिस्ट के कहने पर इन्होंने ही वह आप्रेशन किया ....मेरी भी इन सब के बारे में इतनी जानकारी नहीं है ...बस, यह मैंने इसलिए लिखा कि इतने इतने पढ़े-लिखे डाक्टर भी कभी कभी असमंजस में पड़ जाते हैं....कोई बात नहीं, सब के साथ होता है ...सीखते सीखते ही हम लोग पारंगत हो पाते हैं.......लेकिन इन बंगाली नीम हकीमों के पास तो जाना तो अपने पैर पर आप कुल्हाडी मारने जैसा है ..बच के रहिए, और दूसरों को भी बचाते रहिए...

हां, एक बात आज मित्र से पता चला ...उस ने इन पर अध्ययन किया ...कि ये सब बंगाल से आते हैं, बंगाली भाषा बोलते हैं.. और दुर्गा पूजा पर अपने गांव जाते है ं और लौटते समय गांव के कुछ लौंडों को साथ ले आते हैं... यह धागे से भगंदर को ठीक करने वाला काम सिखाने के लिए ...और जब इन को लगता है कि ये भी खिलाड़ी हो गये हैं तो ये आसपास के गांवों में जा बसते हैं....बंगाली डाक्टर का बोर्ड टंगवा कर भोले भाले लोगों की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू कर देेते हैं..

मुझे आज ही यह पता चला कि इन के क्लिनिक के बाहर एक सांप भी होता है ...उम्मीद है सांप की तस्वीर ही होती होगी, यह तो मैं पूछना ही भूल गया.. लेकिन इस तरह के नीम हकीम अकसर सपेरों का काम भी कर लेते हैं ... सांप पकड़ने के लिए इन्हें बुलाया जाता है अकसर ...

बंगाली शब्द को उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेगें...बेहतर होगा...यह शब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि इन के बोर्डों पर कुछ ऐसा ही लिखा होता है ...
बंगाली डाक्टर ...पुरानी से पुरानी बवासीर, भगंदर का शर्तिया इलाज ... एक ही टीके में जड़ से खत्म !!



शनिवार, 6 मई 2017

ज्ञान की ओवरडोज़ का क्या करें?

अभी मैं अखबार में बच्चों की परवरिश के बारे में एक बढ़िया लेख पढ़ रहा था...पढ़ने के बाद मुझे ध्यान आया कि इस कतरन को अपने एक रिश्तेदार को भेजूंगा जिस के बच्चे अभी छोटे हैं...

फिर तुरंत ध्यान आया कि मैं भी किस ज़माने में जी रहा हूं...ये सारी बातें पता नहीं सैंकड़ों बार वे सोशल मीडिया पर पढ़ कर आगे बांट चुके होंगे...लेकिन मेरे कालेज के दिनों के दौरान मेरे अंकल ने बंबई से मुझे खत में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक कतरन भेजी थी..यह मुझे आज तीस साल भी याद है अच्छे से। 

कल पंजाबी के एक साहित्यकार को पढ़ रहा था ..वे बता रहे थे कि आपस में बातें करना, अपनी कहना, दूसरे की सुनना मानव की प्रवृत्ति है .. हम गप्पबाजी करना चाहते हैं, हंसी ठट्ठा हमें अच्छा लगता है ...यही सब तो सोशल मीडिया पर भी चल रहा है. 

लेकिन जो मैंने अनुभव किया है कि सोशल मीडिया के संवाद काफ़ी हद तक ऊबा देने वाले भी होते है ं..बार बार एक ही संदेश बीसियों जगह से आ जाता है ... ऐसे में बहुत बार संदेशों को पढ़ना देखना सुनना तो दूर, खोलना तक बेकार लगता है ...और एक मानसिकता हो चली है (मेरी भी) कि मैं तो सब कुछ जानता हूं, मेरा लिखा तो हर कोई पढ़े, मुझे किसी को पढ़ने की ज़रूरत नहीं है ...दना् दन् मैसेज ठेले जा रहे हैं...मुश्किल से हम लोग कितने खोल पाते होंगे, देखने-सुनने की तो बात ही ना करिए...

हमारी कालोनी मेें एक घर के आगे सुबह एक बोर्ड टंगा रहता है ...उस पर उस घर का स्वामी एक कागज़ चिपका देता है रोज़ ..किसी महांपुरूष का कोई वचन, कोई अच्छी बात, मशविरा ...आज देखा लिखा था कि अपनी जीवनशैली ठीक रखिए, सुबह पांच बजे उठना श्रेयस्कर है ...

सोशल मीडिया का तो एक पंगा यह भी है कि बहुत बार लोग कुछ भी चिपका देते हैं... इतनी काल्पनिक बातें लेकिन वे अकसर वॉयरल हो जाती हैं..मेरा तो सोशल मीडिया का फंडा यही है कि मैं उस बात के स्रोत की तरफ़ विशेष ध्यान देता हूं ...अगर यह विश्वसनीय है तो चल सकता है ..लेकिन अगर संदेह लगे तो गूगल से अवश्य जांच लीजिए...काम तो सिर दुखाऊ है ही ...किस के पास इस सब झंझट में पड़ने का समय है...इसलिए अधिकतर माल बिना देखे ही रह जाता है ...कुछ नहीं कर सकते! 

 सोशल मीडिया पर भी हमारी बेसब्री इस कद्र बढ़ चुकी है कि जो मैसेज, इमेज सामने नज़र आ जाए, बस उसे देख लेते हैं...लेकिन जैसे ही डाउनलोड़ वाली बात आती है ..झट से आगे खिसक लेते हैं..मैं तो अधिकतर ऐसा ही करता हूं.. मलाल भी होता है कि पता नहीं कितनी काम की बात होगी, लेकिन कुछ कर नहीं सकते! 

उस दिन वाट्सएप पर एक मैसेज दो तीन ग्रुप्स में आया कि आज रविवार है ...आज छुट्टी है..आज किसी बात पर विचार करने की ज़रूरत नहीं है ..अच्छा लगा यह पढ़ कर ...आइडिया अच्छा है जैसे कुछ लोग सेहत के लिए व्रत रखते हैं..ऐसे ही मानसिक सुकून के लिए भी एक साप्ताहिक अवकाश तो होना ही चाहिए.. 

एक ज्ञान मैं भी बांट दूं सुबह सुबह ... खबर पढ़ी है अभी अभी पेपर में कि सारेगामा कारवां रेडियो लौटाएगा पुराना दौर .. आगे लिखा है कि सारेगामा साल १९०३ से लेकर २००० तक के फिल्मी गीतों को एक ही रेडियो में लेकर आया है ..सारेगामा कंपनी ने एक ऐसा रेडियो लॉन्च किया है जिसमें गुजरे जमाने के मशहूर गायकों और लेखकों के गाने मौजूद हैं.. पांच हज़ार नौ सौ नब्बे रूपये की कीमत के इस रेडियो को सारेगामा कारवां का नाम दिया गया है ..अभी मैंने इस का एक प्रोमो देखा .. आप भी यहां क्लिक कर के देख सकते हैं... बिना आर जे के यह एक्सपिरियंस कैसा होता होगा, मुझे भी पता नहीं ! 

मुझे तो यही कीमत बहुत ज़्यादा लगती है ...अगर पांच सौ रूपये में बिकता तो ज़रूर ले लेता ...अभी तो डुप्लीकेट वर्ज़न का ही इंतज़ार करना पड़ेगा... आ जायेगा देर सवेर, किस प्रोडक्ट की हम लोग नकल करने में पीछे हैं!

वैसे मैंने भी एक तरह से यह सब लिख कर ज्ञान की ओवरडोज़ का कुछ समाधान थोड़े ही ना जुटा दिया....बल्कि समस्या को और बढ़ा दिया...आज कौन किसी की सुनता है,  पब्लिक सब पहले ही से जानती है, सब पक्के ज्ञानी-ध्यानी हैं...शुक्रिया, सोशल मीडिया ! 



शुक्रवार, 5 मई 2017

अच्छा तो चलते-फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ भी होते हैं..

दंदानसाज़ उर्दू का शब्द है ...जब मेरा डेंटिस्ट्री में दाखिला हुआ तो मेरे ताऊ जी मुझे यह कह कर बुलाया करते थे...आज अभी गूगल पर इस का अर्थ देखा .. लेकिन अकसर पुराने लोग फुटपाथों पर दांतों की दुकाने सजाए हुए लोगों के लिए ही इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं..

अकसर नीम-हकीम दंदानसाज़ आपने भी अपने शहरों में जगह जगह बैठे देखे होंगे .. फिक्स अड्डों पर ..सामने कुछ पत्थर के दांतों के जबड़े रखे हुए, कुछ दांत उखाड़ने वाले औज़ार ..और कुछ दवाईयां ...दरअसल यह हमारे देश की बदकिस्मती है कि आज भी ये लोग अपनी दुकानें चमकाने के नाम पर जनता की सेहत से खेल रहे हैं..

दांत उखाड़ना कोई बड़ी बात नहीं है ..लेेकिन जब यह काम ये नीम हकीम करते हैं तो सारी गड़बड़ ही गड़बड़ है ...एक दो रिस्क हो तो मैं गिना भी दूं...लेकिन इन खतरों की लिस्ट इतनी लंबी है कि लिखते लिखते रात बीत जाएगी... पता नहीं कितने लोगों को ये लोग लाइलाज बीमारियां भी दे डालते होंगे..

बहरहाल, मैंने भी अनेकों जगहों पर यह सब काम होते देखा है....एक खबरिया चैनल की भाषा है ..सत्ता के गलियारे ...जी हां, दिल्ली के सत्ते के गलियारों की नाक के बिल्कुल नीचे भी इने पनपते देखा ...लेकिन मुझे हमेशा यही लगता था कि ये लोग एक फिक्स जगह पर बैठ कर ही अपना धंधा करते हैं ...

आज पहली बार एक मरीज़ से पता चला कि चलते फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ भी हुआ करते हैं..

एक मरीज़ आया...बता रहा था कि आगे का एक दांत हिल रहा था तो उसने तार लगवा ली दांतों को हिलने-ढुलने से रोकने के लिए...मुझे देखने से ही अंदाज़ा हो गया कि यह किसी नीमहकीम बंदे की ही कारस्तानी है ...उसने भी बताया कि ऐसे ही करवा लिया था चार पांच साल पहले ...ऑफिस में ही दांतों का इलाज करने के लिए एक आदमी आया करता था ...बडे़ बाबू, छोटे बाबू...सब लोग उसी से ही दांतों का इलाज करवा लिया करते थे ...मैंने भी एक दिन यह काम करवा लिया...

एक संदूकची रखे रहता था वह दंदानसाज़ और सारा काम उधर दफ्तर के अंदर ही बैठे बैठे कर के चला जाता था.. मुझे बड़ी हैरानगी हुई ... कानों की सफ़ाई वाले तो ऐसे गली-गली कूचे कूचे घूमते देखे थे ..लेकिन इन घूमते फिरते दंदानसाज़ों के बारे में आज पहली बार सुन रहा था ..

हां, दो दिन पहले मैंने आप को ऐसे ही एक नीमहकीम द्वारा लगाए गये किसी मरीज़ के फिक्स दांतों का नमूना दिखाया था... फिक्स दांतों की सिरदर्दी...  इन झोलाछाप सड़कछाप दंदानसाज़ों के काम का एक नमूना और देखते हैं..


आप देखिए किस तरह से एक दो हिलते हुए दांतों को रोकने के लिए कैसे साथ के स्वस्थ दांतों पर भी कस के तार बांध दी गई है ..मरीज़ को कुछ पता नहीं होता...उन्हें तो फौरी तौर पर लगता है कि हां, हिलते हुए दांत कसे गये हैं...बस, काफ़ी है...लेकिन इस तरह का इलाज तकलीफ़ को और भी बिगाड़ देता है ...

इस तार की वजह से और पायरिया की वजह से अब इस मरीज़ के चार दांत बुरी तरह से हिल रहे थे ...और मसूड़े भी कैसे दांतों से पीछे हट रहे हैं.. आप इस तस्वीर में देख सकते हैं..


इन दांतों के अंदर की तरफ़ देखिए कैसे एक्रिलिक नामक मैटीरियल तार के ऊपर लगा कर दांतों को रोकने का जुगाड़ किया गया है ...यह "मसाला" तो उसने तार के ऊपर बाहर की तरफ़ भी लगाया था, लेकिन वह निकल गया है ....मरीज़ मेरे पास इसीलिए आया था ..

मैंने उसे समझाया तो है कि उचित इलाज के लिए पहले तो उसे तार से निजात पानी होगी...यह सुन कर दुविधा में पड़ गया दिखता था ...मैंने कहा, दो तीन दिन सोच लो...उस के बाद ही समुचित इलाज की बात हो सकती है ..

हां, ये जो हिलते दांत होते हैं इन को फिक्स करने का क्वालीफाईड डैंटिस्ट के पास वैज्ञानिक तरीका और सलीका होता है ...जो कि पूरी तरह से सुरक्षित होता है ..वह पहले तो इस बात का पता करता है कि ये दांत हिल क्यों रहे हैं, फिर जितना संभव हो सके उस का इलाज भी किया जाता है ...

बस, आज इतनी ही बात कहनी थी कि ऐसे चलते-फिरते झोलाछाप दंदानसाज़ों से बचे रहिए...मुझे यकीन है कि इसे पढ़ने वाले कभी ना तो इन के चंगुल में फंसे होंगे और ना ही फंसेगे.....लेकिन फिर भी मैं अपनी आदत से मजबूर.......ज्ञान बांटने बैठ जाता हूं!!

इस समय मेरे रेडियो पर यह गीत बज रहा है ..आप भी सुनिए....पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे ..

बुधवार, 3 मई 2017

ऐसे तो कपड़े की थैलियां भी बेकार हैं!

यह जो मुझे आज सुबह टहलते हुए दिखा ...यह हर नुक्कड पर आप भी रोज़ देखते होंगे 

सुबह टहलते जब निकलते हैं तो हर तरफ़ प्लास्टिक के अंबार देख कर, जलता हुआ प्लास्टिक देख कर, पशुओं को प्लास्टिक निगलते देख कर ..आस पास के नालों को प्लास्टिक से रूके देख कर और वहां से निकलती दुर्गंध से मन दुःखी होता है ...

बार बार मन में यही विचार आता है कैसे हम इस प्लास्टिक वाली बीमारी से निजात पा सकेंगे आखिर ...बहुत साल पहले जब दूध प्लास्टिक की पन्नियों में बिकने लगा तो हैरानगी हुई, फिर जब दही भी इन में मिलने लगा तो भी अजीब सा लगा ...फिर गर्मागर्म दाल भी ढाबे वाले इसी में बेचने लगा ...लेकिन यहां जब यहां यू.पी में देखा कि गर्मागर्म चाय भी इन पन्नियों में भी बिकती है तो आंखे फटी की फटी रह गईं...और जब इन के साथ आने वाले प्लास्टिक के गिलासों की तरफ़ ध्यान गया तो उन का मैला-कुचैला रंग और बिल्कुल पतला प्लास्टिक यह बताने के लिए काफ़ी होता है कि ये किस तरह के घटिया, रीसाईक्लज़ प्लास्टिक से तैयार किए होंगे...और तो और, अब तो पानी पीने के लिए भी बाजा़र में दो रूपये की पानी की पन्नी मिलती है ...जो काम हम लोग किसी प्याऊ पर हथेलियां जोड़ कर ही निपटा लेते थे ...

उस दिन मेरा एक मरीज़ मुझे मशविरा दे गया ... डाक्टर साब, आज कल तो डिस्पोज़ेबल गिलास आते हैं..आप भी यहां ओपीडी में कांच के गिलास इस्तेमाल करना बंद कर दीजिए...उसने मुझे और भी ज्ञान बांट दिया कि उन का तो यही फायदा है कि यूज़ एंड थ्रो...

मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी...

उस की तो मैंने हां में हां मिला दी ..मरीज़ को क्या नाराज़ करना, लेकिन करता मैं वही हूं जो मैं ठीक समझता हूं...मेरे यहां आने से पहले यहां डिस्पोज़ेबल गिलास ही इस्तेमाल होते थे ...लेकिन मैंने कभी नहीं मंगवाये...दिक्कत क्या है, कांच के इतने सारे गिलास हैं, आराम से साफ़ हो जाते हैं...जिसे दिक्कत है, वह घर से अपना गिलास ले आए...(कुछ लोग लाते भी हैं!) ..बेकार में हम लोग जितना कचड़ा जमा करते रहेंगे, कहीं न कहीं ढेर लगता रहेगा,  इतने ज़्यादा प्लास्टिक या थर्मोकोल का डिस्पोज़ल भी तो एक सिरदर्दी ही है!

यहां घर के पास ही हफ्ते में दो दिन सब्जी मंडी लगती है ..अकसर देखता हूं कि लोग कपड़े के थैले तो उठाए रहते हैं लेकिन हर सब्जी अलग प्लास्टिक की पन्नी में मिलने की वजह से उस थैले में पंद्रह बीस पन्नियों तो जमा हो ही जाती होंगी...सोचने वाली बात है कि ऐसे में फिर उस कपड़े वाले थैले के साथ दिखने का फायदा ही क्या....nothing beyond a new fashion statement! 

बचपन की यादें हैं कि जब कपड़े की थैलियों में सब्जी आती थी तो कितना समय तो उन सब्जीयों को अलग अलग करने में ही लग जाता था...मिर्ची मेथी में घुसी हुई ...और अरबी आलू-कचालू में...एक एक मटर को अलग करना, आप को भी थोडा़ बहुत याद तो होगा (नाटक मत कीजिए!) कि किस तरह से उस थैले को जमीन पर उल्टा कर के सब्जियों को अलग अलग करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती थी.. फिर वही मलाल....कईं बार जब टमाटर और केले और कभी कभी आम और आलूबुखारे भी दब जाते थे ... लेकिन उस दौर में भी लोगों को अच्छी समझ तो थी ही कि टमाटर और केले सब से आखिर में ही खरीदने हैं...

अब टमाटर आदि के लिए चाहे लोग अलग से थैला लेकर जाने लगे हैं..लेकिन दुकानदार उसे फिर भी प्लास्टिक की पन्नी में डाल के ही देता है ... 

हमें इस तरह से खरीदारी का ढंग बदलना होगा ..हम से मतलब मुझे भी ...यह जो हमारा लाइफ-स्टाईल बन चुका है जिस में हम लोग प्लास्टिक की पन्नियां ही इक्ट्ठी करते रहते हैं...इस से निजात पानी होगी ...अगर हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण ठीक रहे ...बद से बदतर होने से बचा रहे...एक बार एक आश्रम में लिखा देखा था कि आप जिस कमरे में रह रहे हैं..खुशी से रहिए, बस लौटते समय इतना सुनिश्चित कीजिए कि इसे आप उसी हालत में छोड़ कर जाएँ जिस हालत में यह आप को मिला था ...बात मन को छू गई........क्या हम यही बात अपने वातावरण के लिए नहीं कर सकते कि अगली पीढ़ी को भी धरा, वन-सम्पदा, नदी, तालाब, पोखर, झरने ....हम विरासत में वैसे ही देकर जाएं जैसे ये कभी हमें मिले थे ....सोचिएगा!

काम मुश्किल भी नहीं है इतना जितना हम समझ लेते हैं... शुरूआत करने की ज़रूरत है ...यह लिखने से मेरे को यह फायदा हुआ है कि अब मैं जब भी थैला लेकर निकलूंगा तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवाने से गुरेज करूंगा ....कर लेंगे ध्यान यार टमाटर और केलों को बचाने का ... पहले अपने आप को तो बचा लें, हम भी अगर कहीं प्लास्टिक के पहाड़ों के नीचे दब गये तो!

कहने को तो ये इज़ी-डे, स्पेन्सर्ज़ जैसे स्टोर भी खरीदारी के वक्त अगर थैली देते हैं तो उस का अलग से चार्ज करते हैं...लेकिन इन जगहों पर भी सब्जी और फलों के लिए अलग अलग प्लास्टिक की पन्नीयां ही दिखती हैं.. बड़ी बड़ी दुकानों ने भी कागज़ के थैले के लिए अलग से पैसे वसूलने शुरू किए हुए हैं...अच्छा है वैसे तो यह भी उपाय...जितने भी छोटे छोटे कदम दिखें, मुबारक हैं...क्योंकि इन सब का बड़ा उद्देश्य एक ही है ...पर्यावरण की रक्षा। 

बंद करता हूं अब इस पोस्ट को ...ड्यूटी पर जाने का समय हो गया है ...

बस, यही गुजारिश है कि अगली बार जब कपड़े का थैला लेकर बाज़ार के लिए निकलें तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवा कर उस की सौम्यता को ग्रहण मत लगने दीजिए....मैं स्वयं आज ही से इस बात का विशेष ध्यान रखूंगा ... अपने आप से यह वादा कर रहा हूं!!

कुछ दिन पहले टीवी पर किसी ने बड़ी सुंदर बात कही कि गंगा नदी को साफ़ करने पर करोड़ो रूपये खर्च हो रहे हैं....लेकिन यह साफ़ तभी होगी जब हम लोग इसे गंदा करना बंद कर देंगे...