कुछ दिन पहले हम प्रियदर्शिनी पार्क (पी डी पी, इस नाम से भी यह जाना जाता है...) गए थे ...शाम की बेला थी...सात-साढ़े सात का वक्त था, आठ बजे रात में यह बंद हो जाता है ...कुछ कुदरती नज़ारे दिख भी नहीं रहे थे ...वैसे भी यह पार्क कोई गार्डन जैसा नहीं है, इसे तो एक कुदरती स्पॉट के तौर पर बरकरार रखा गया है ... उस दिन अच्छे से देख नहीं पाए ...इसलिए आज सुबह 6 बजे ही निकल पड़े पी.डी.पी के लिए ...
हमारी यादें इस पीडीपी से इस तरह से जुड़ी हुई हैं कि आज से 22 साल पहले जब हमने बंबई छोड़ने का बेवकूफ़ाना फैसला लिया तो हम जाने से पहले कुछ जगह हो कर आए..उस में यह प्रियदर्शिनी पार्क भी था ...उस वक्त इस को बनाने की शुरुआत ही हुई थी ...समंदर के किनारे पर खूब मिट्टी विट्टी डाली जा रही थी ..खुला खुला एरिया था, अच्छा लगा था...
आज सुबह जाकर भी वहां अच्छा ही लगा ...कौन होगा वैसे जिसे कुदरत के इतना पास जाकर अच्छा न लगता होगा...वैसे सुबह ठंड थी, रज़ाई से निकलने की इच्छा न हो रही थी ....लेकिन वही बात है कि एक बार तो रज़ाई के मोहपाश से आज़ाद होना ही पड़ता है ..
पार्क के गेट के बाहर यह डाक-पेटी लगी हुई थी ..एक छोटी सी बच्ची ने अपने डैड से पूछा - डैड, यह क्या है?..डैड ने उस के सवाल को अनसुना कर के उसे कहा .."लुक, आई टोल्ड यू नॉ!" अब हमें नहीं पता क्या टोल्ड और क्या अन-टोल्ड, लेकिन उस मासूम के सवाल का तो फिलहाल कत्ल हो गया...
पार्क की साफ़ सफ़ाई और उम्दा रख-रखाव आने वालों को अपनी तरफ़ खींचता है
और इसे तो बस फोटो-सैशन का एक मौका चाहिए होता है ...साथ जाने वालों की आफ़त हो जाती है सच में
पार्क काफी बड़े एरिया में फैला हुआ है ...और अच्छी हरियाली से मन तरोताज़ा हो जाता है ..
पीडीपी अभी तो है ..कुछ एरिया शायद कोस्टल-रोड़ के चक्कर में लपेट लिया गया है या लपेटा जा रहा है, टाइम्स में आता रहता है, मुझे इस की कुछ खास समझ है नहीं ...
बड़ी बड़ी भारी भरकम मशीनरी ब्यां तो यही कर रही थी कि विकास कार्य तेजी से चल तो रहा है ...😄
इतने बढ़िया मिट्टी के वॉकिंग-ट्रैक देख कर मज़ा आ गया ...
पता नहीं यह बतखें हैं या कोई और जानवर हैं, लेकिन वे भी पूरा मज़ा कर रहे थे
पार्क में बैठने के लिए पर्याप्त बैंच हैं ..कोई उस की याद में, कोई इस की याद में ...चलो, पब्लिक के लिए तो अच्छा ही है, दानवीरों का ईश्वर भला करे ...
बच्चों के लिए भी एक बहुत अच्छा पार्क है उस के अंदर ...रख-रखाव भी बहुत बढ़िया
दिल तो बच्चा है जी ...उछल कर एक शाख पर बैठने की इच्छा तो हुई मेरी भी..लेकिन फिर दिल की सदा सुन ली कि अपने घुटनों का और इम्तिहान न ले, उन पर तरस खा....अभी चल रहे हैं न जैसे तैसे, बस, काम चला...ज़्यादा उड़ने की कोशिश न कर ...फिर कईं कईं दिन घुटने का दर्द लेकर बैठा रहता है ...
पार्क में ओपन-एयर जिम भी है ...और बहुत से लोग कसरत करते दिखे ..
वातावरण ऐसा कि कोई भी वहां बैठ कर कवि बन जाए ...
इन सीनियर सिटिजनों को चलते चलते क्लीन-इंडिया की वोटिंग की चिंता सताए जा रही थी, यार ...हंसी मज़ाक करो ...क्या इतने गंभीर मु्द्दे के साथ सुबह सुबह उलझ रहे हो ...
फुर्सत के पल भी ऐसे कि वहां से उठने की इच्छा ही नहीं होती ..
बड़े बड़े पौधे देख कर मन खिल जाता है ...
हम से का भूल हुई...जो यह सज़ा हम का मिली...😕
कुछ वक्त बिताने के बाद जैसे ही वापिस लौटने लगे तो देखा कि अब वहां के कुदरती नज़ारे की छटा अलग दिख रही है...सूरज देवता प्रकट हो रहे है ं...दो दिन पहले रेडियो पर सुनी बात याद आ गई कि किसी भी कुदरती नज़ारों को देखने जाओ तो वहां पर सिर्फ हाथ लगाने न जाओ...वहां पर वक्त बिताओ...दिन में हर पहर के साथ वहां की छटा अलग होती है ...जिसे यादों की पिटारी में सहेज कर रखने से बड़ा सुकून मिलता है ...
मिट्टी के रास्ते के साथ साथ इस तरह के पक्के रास्ते भी हैं ...फिसलने का कोई चांस ही नहीं ...
सुबह होते ही लड़के अपना जाल लेकर वहां पहुंच चुके थे ..
पेट्स का मेल-जोल देख कर अच्छा लगा..
पार्क के बारे में यह बात बढ़िया लगी ...और यह बिल्कुल सच भी लगा...
इतना कुछ होता है इस पार्क में ....बस, मुझे हमेशा लाफ्टर क्लब वाली बात हज़म नहीं होती ...हंसने के लिए भी यार कोई क्लब....हंसना तो बिल्कुल हमारी सांसों की तरह होना चाहिए ..बिल्कुल बिंदास, स्वतः ही हो जाने वाला और आसपास के माहौल को भी सहज कर देने वाला ...
इस तरह के कुदरती नज़ारे बरकरार रखने के लिए भी कितने लोग आगे आते हैं, इस पोस्टर से पता चला ...क्योकि वहां पर कोई टिकट नहीं है ...
अच्छा, एक बात और ...यह सुबह 10 बजे तक खुला रहता है, शायद 5-6 बजे खुलता है ...शाम में चार से आठ बजे तक खुलता है .हो कर आया करिए जब भी वक्त मिले ..पार्किंग की भी कोई ज़्यादा सिरदर्दी है नहीं ...लोग आसपास की सड़कों के किनारे लगा ही लेते हैं वाहन ...यह कोई ज़्यादा दूर भी नहीं है ...महालक्ष्मी मंदिर से यही पांच सात मिनट की ड्राइव होगी ....नेप्यिनसी रोड़ जो आगे जाकर मालाबार हिल की तरफ़ निकल जाती है ..,
अभी भूख लग रही है ..उठता हूं नाश्ता कर लूं ...चलिए, इतनी तस्वीरें लगाने के बाद आज नाश्ते की प्लेट की तस्वीरें भी लगा देते हैं...
जितना आज की जेनरेशन को पिज़्जा, रोल, बर्गर, और भी पता नहीं क्या क्या ....पसंद है, उस से कहीं ज़्यादा हमें सर्दी में रोज़ यह खाना पसंद है, जब से होश संभाला है, मक्की की रोटी गुड़ या गुड़ की शक्कर के साथ सर्दी में लगभग रोज़ ही खाते रहे हैं...अकसर आखिरी रोटी यही होती थी ...अब इसे आप स्वीट-डिश कहिए या सप्लीमेंट या कोई टॉनिक ही कहिए ...हां, जवान थे तो दो-तीन भी एक साथ खा लेते थे....
जाते जाते ....इतनी तस्वीरें खींचते-खिंचवाते साथी से एक नसीहत भी मिल गई कि उसने कहीं वाट्सएप पर एक सुंदर संदेश देखा था ...Leave the Camera, Live the Moment! बात तो बढ़िया है, लेकिन अगली बार ख़्याल रखेंगे ....😃
आज पार्क की बात हुई ....फूलों की बात हुई, इसलिए गीत भी वैसा ही कोई सुन कर इस सुस्त सी ऐतवार की सुबह में कुछ तो नया जोश भरते हैं ...
सही बात है ...कुछ भी चीज़ या इंसान हमें पसंद होता है या नापसंद होता है ...अकसर हम इस का कोई कारण भी नहीं बता पाते। मैं अकसर एक बंदे को याद कर के बहुत हंसता हूं ...मैं जहां काम करता हूं ..वहां काम करते मुझे कुछ महीने ही हुए हैं ..लेकिन एक इंसान मुझे एक ही बार ही मिला ...उस के बात करने का ढंग, उस का रंग-ढंग और उस के हाव-भाव कुछ इस तरह के थे कि अब वह मुझे कहीं भी बरामदे में दिख जाता है तो मेरी कोशिश होती है कि हम एक दूसरे से न ही भिड़ें ...क्योंकि उसे देखते ही मेरे ब्लड-प्रेशर में 20 प्वाईंट का उछाल तो ज़रूर आ जाता होगा...
मैं जब भी उस शख्स के बारे में किसी से भी बात करता हूं तो हम लोग बहुत हंसते हैं....खूब हंसी आती है ...और जिस भी जगह पर नौकरी के सिलसिले में रहे वहां एक-दो बंदे तो ऐसे मिल ही जाते हैं ....
गहराई से सोचता हूं तो समझने की कोशिश करता हूं कि ऐसा क्या होता है कुछ बंदों में कि कुछ के साथ बिना बात के भी बतियाने की इच्छा होती है और कुछ से हमेशा कन्ना कतराने की इच्छा होती है। लेकिन कुछ समझ में नहीं आता ..कोई तर्क भी इस में मदद नहीं करती दिखी ...बस, बहुत सी दूसरी चीज़ों की तरह कुछ लोग हमें पसंद आते हैं, कुछ को हम पसंद नहीं आते, कुछ हमें नापसंद होते हैं ...मुझे लगता है यह मानस की प्रवृत्ति ही होती होगी...
खैर, मुझे आज यह विचार इसलिए आया कि मैं आज जिस शहर में हूं वहां की अखबार देख रहा था ...हिंदी की अखबार ...लेकिन सारे पन्ने उलटने के बाद मुझे वह अखबार भी पसंद नहीं आई...अब यह बताना मुश्किल होगा अगर कोई मेरे से पूछे कि हां, भई, तुम्हें क्या बुरा लगा उस अखबार में .....पता नहीं यार, यह मेरे लिए कहना मुश्किल है, लेकिन मुझे वह अखबार अगली बार पढ़ने लायक लगी नहीं, और मैं उसे अगली बार कभी पढूंगा भी नहीं ...
अखबार से ख्याल आ रहा कि जैसे ही हमें पांचवी-छठी में अखबार का पता चला, हमने देखा हमारे घर में दो अखबार आते थे, चंडीगढ़ से छपने वाला इंगलिश का पेपर दा ट्रिब्यून और जलंधर से छपने वाला वीर प्रताप जो हिंदी का पेपर था ...मेरे पिता जी को हिंदी न आती थी, वह ट्रिब्यून पढ़ते थे और मेरे बड़े भाई-बहन का अंग्रेज़ी का शब्द-ज्ञान टेस्ट करते थे पेपर को पढ़ते हुए और मेरी मां हिंदी का अखबार घर के काम काज से फ़ारिग होने के बाद दोपहर में बांचा करती थी ...उस के बाद पड़ोस की कपूर आंटी और मां अपने अखबार एक्सचेंज कर लेतीं ...इस तरह वे दो अखबारें पढ़ लिया करती थीं...
अखबारों के बारे में मेरे स्ंस्मरण हैं जिन्हें सहेजने के लिए कईं लेख भी कम पड़ेंगे ...किस तरह से इंगलिश का हिंदु अखबार पढ़ने के लिए ...पूरे महीने के हिंदु अखबार किसी दूसरे शहर से मंगवाया करता था क्योंकि जिस शहर में रहता था वहां वह अखबार नहीं आता था... लेकिन आज तक इंगलिश के जिस अखबार से मैं सब से ज़्यादा मुतासिर हुआ हूं ...वह है टाइम्स ऑफ इंडिया ...और खास कर के इस का बंबई एडिशन ...खबरें आती हैं टीवी पर, रेडियो पर ...और ऑनलाइन भी लेेकिन मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्ने उलटना ही अच्छा लगता है ...वही बात है अपनी अपनी पसंद नापसंद की ..
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक काफी-टेबल टाइप बुक ..जो शायद इन्होंने अखबार के 100 साल पूरा होने पर निकाली होगी ...वाह, क्या किताब है वह...किसी एंटीक शाप से हासिल हुई थी ...चार हज़ार मांग रहा था ..तीन हज़ार में खरीद ली थी ...क्योंकि मुझे तो वह खरीदनी ही थी ...उस का एक एक पन्ना फ्रेम करवाने की इच्छा होती है.. टाइम्स ऑफ इंडिया का सारा इतिहास-भूगोल उस में लिखा हुआ है ..कुछ किताबें आप को रोमांचित करती हैं, यह किताब वैसी ही है ...कभी इस के बारे में कोई पोस्ट लिखूंगा..
हर चीज़ के बारे में हमारी पसंद नापसंद मुख्तलिफ़ होती है, होनी भी चाहिए..फिल्में हों, फिल्मी गीत हों....ज़ुबान हो, ड्रेस हो ....कलम हो ..पेन हो ...कुछ भी हो ...सब को अपनी अपनी पसंद मुबारक ... इसीलिए इस दुनिया की विविधता भी बरकरार है ...
लता जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं .... स्वर-कोकिला की आवाज़ का जादू !!
आज बहुत दिनों बाद यह गीत दिख गया ...जिसे सुनना भी बहुत पसंद है ...😂
सच में पता नहीं यह रेस कहां जा कर खत्म होगी, खत्म होगी भी कि नहीं ...बड़े शहरों में, मैट्रो सिटीज़ में दौड़ अंधाधुंध है ... लेकिन एक बात का मुझे आज ख्याल आ रहा था कि किसी भी शहर में आप जाइए....एक तो होता है शहर का नया रूप ...जो मुझे बेहद नीरस, अजीब सा लगता है ...हर तरफ़ मॉल, बड़े बड़े टावर, मल्टीप्लेक्स, बडे़ बड़े स्टोर....मुझे ये सब फूटी आंख नहीं सुहाते ...लेकिन मैं जैसे ही उस शहर के पुराने इलाकों की तरफ़ निकल जाता हूं तो मुझे एक इत्मीनान सा होता है ...
शहरों के पुराने इलाके हों या शहर के बाहरी इलाके...लगता है सब कुछ अभी भी ठहरा हुआ है ...अब विकास की परिभाषा हरेक की अलग है...हम कौन होते हैं किसी के लिए विकास की परिभाषा तय करने वाले ...हमारे एक ब्लॉगर मित्र हैं ...अनूप शुक्ल जी ...ऑर्डिनेंस फैक्टरी में महाप्रबंधक हैं...बहुत अच्छा लिखते हैं...मैं उन्हें 15 साल से पढ़ रहा हूं ...कुछ दिन पहले उन्होंने लिखा कि किसी भी शहर को जानने के लिए उस से दोस्ती करने के लिए उस के रास्तों को पैदल नापना बहुत अच्छी बात है, और अगर यातायात के किसी साधन का इस्तेमाल कर रहे हैं तो जितना धीमा वह साधन हो, उतना ही अच्छा. मुझे उन की यह बात बहुत अच्छी लगी ....क्योंकि हम ख़ुद भी इसी बात की हिमायत करता हूं ..
यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे ... बहुत खूब!👍
खम्मन-सेव ...वाह..वाह, मज़ा आ गया!
शहरों के पुराने इलाके में अभी भी ज़िंदगी दिखती है ...लोगों के पास एक दूसरे के साथ बैठने का वक्त है ...आते जाते देखते हैं कि आंगने में, यह दहलीज़ पर ही घर के दो तीन लोग बातचीत में मशगूल हैं ...कहीं पर तो अड़ोस पड़ोस के दो-तीन बुज़ुर्ग किसी झूले पर बैठे गप्पे हांके दिखते हैं...सुकून उन सब के चेहरों पर लिखा क्या, खुदा होता है ...यह हमें अच्छे से पढ़ना आता है ...पुरानी चारपाईयों पर आज भी पापड़ सूखने के लिए बिछे हुए दिखाई देते हैं ...अब हम कहां कहां की तस्वीरें खींचे...उस में पिटने का भी तो डर होता है ...उम्र देख कर अगर कोई गिरेबान न भी पकड़ेगा तो जलील तो कर ही देगा कि क्यों ये सब तस्वीरें ले रहे हो...
बच्चों के पास भी आपस में खेलने का वक्त है ...वे जैसे खुली फ़िज़ा में कुदरत के सान्निध्य में ज़िंदगी के सबक पढ़ रहे होते हैं ...शहर के पुराने इलाकों में गाय-भैंस भी दिख जाती हैं, उपले बनते भी दिखते हैं और उन को सुखाने में लगी महिलाएं भी ...उपलों के दाम आजकल हैं ..100 रूपये में 100 उपले...मुझे याद है जब बचपन में हमारी मां रोज़ तंदूर पर रोटियां लगाती थीं तो एक बोरी में भर कर कोई साईकिल पर ये उपले देकर जाता था ....2 या तीन रूपये की एक बोरी। और उस पर भी नाटक यह होता था अकसर कि उपले सूखे ही होने चाहिए...😂
क्या यार, तू भी न, जब देखो शहर ही में पड़ा रहता है..आए दिन सिरदर्द से बेज़ार, निकल वहां से अब तू भी..हो गया अब, और क्या चाहिए तुझे.... साईकिल उठा और भारत भ्रमण पर निकल जा (अपने आप से गुफ्तगू)😂
सभी शहरों के पुराने रूप मुझे तो एक जैसे ही लगते हैं....सुकून से भरे, फु़र्सत से लबरेज़, इत्मीनान, सब्र की बख्श हासिल किए हुए ...छोटी छोटी दुकानदारीयां जिन्हें देख कर मुझे बिना वजह डर सा लगता है कि इस दुकानदारी से क्या पा लेते होंगे ...बिल्कुल खामखां - बिल्कुल जैसे अंबानी-अडानी को मुझे नौकरी करते देख कर डर लगने लगे कि कैसे करता होगा यह गुज़ारा नौकरी कर के ...!!
फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत के बावजूद एसटीडी बूट पर चूना लगाने की कोई परवाह नहीं ...
कुछ इस तरह के रिमांइडर मैं अपनी हस्तलिपि में लिख कर सहेज लेता हूं...😎
मज़हब बड़ा संवेदनशील मुद्दा है भई इस देश में ...कोई खुल कर बात नहीं करता....डरे-सहमे से बात करते हैं ....और जब किसी धर्म के नाम पर किसी जगह पर कब्ज़ा होने की बात होती है तो वह भी बड़ा सोच विचार कर होती है ...
एक साल हो गया होगा ...मेरे मोबाइल में फोटो भी हैं ...मैं कल्याण में टहलते हुए देखा करता था कि रेलवे के ग्रांउड के बाहर किसी एक दीवार से टिका कर किसी ने लोहे का एक फ्रेम सा रख कर, उस के सामने सरसों के तेल का दिया जला रहा था ...और उस के सामने एक बंदा चुपचाप बैठा अजीब अजीब सी हरकतें कर रहा था, हिल ढुल रहा है ...सिर हिला रहा था...बस, जो भी था अपने को कोई पहुंचा हुआ पीर-फकीर दिखाने की कोशिश कर रहा था ...पहुंचा हुआ न भी सही तो कोई नौसीखिया सा ही समझिए...जिसने नया नया इस धंधे में पांव रखा हो...
जी हां, एक धंधा ही है यह भी किसी जगह पर कब्ज़ा करना ...समझने वाले लोग समझ जाते हैं कि कब्ज़ा होने की शुरूआत कैसे होती है ..यही कोई मूर्त, कोई और पत्थर, फूल, तेल ....कमबख्त बिल्कुल तांत्रिक से लगते हैं ऐसा करने वाले ..लेकिन वे सब कुछ बड़ी प्लॉनिंग से कर रहे होते हैं...और अपनी पब्लिक को किसी भी झांसे में आते देर नहीं लगती....आस पास के लोगों में दो चार पांच औरतें जो नरम दिल होती हैं वे उस पाखंड़ी को पहले तो कभी कभी रोटी-खीर पहुंचाने लगती हैं, फिर उस के दिए में तेल...फिर कुछ नकदी ..फिर कुछ उपाय पूछने लगती हैं कि पति की दारू कैसे छुड़वाऊं, बेटे का पढ़ने में दिल लगे, उस के लिए क्या करूं, बाबा...
लिखते लिखते निर्मल बाबा याद आ रहा है ....वह भी बड़े अजीबोगरीब उपाय सुझाया करता था ...पहले जब हम लोगों टीवी देखते थे तो मैं रोटी खाते वक्त उस का प्रोग्राम मनोरंजन के लिए लगा लिया करता था.
बहरहाल, शामलाट जगहों पर कब्ज़ा करना एक आर्ट एंड साईंस दोनों हैं ....लोगों को ऐसे ही फुद्दू से कामों में उलझाए रखना होता है और यह काम इतना लो-प्रोफाइल रख के आहिस्ता आहिस्ता करना होता है कि उस रास्ते से गुज़रने वाले पढ़े-लिखे तबके को इस की भनक भी न पड़े, वैसे भी यह तबका अपने काम से काम रखता है ...उस के पास तो पहले ही से ख़ुद की सिरदर्दीयां कम हैं कि वह इन सब बातों पर ध्यान दे....और जिस विभाग की जगह होती है, वे भी अकसर तब तक सोए रहते हैं जब तक वहां पर पक्के कमरा टाइप न बन जाए, कोई धार्मिक जगह न बन जाए ...फिर देखे कोई उस बाबे को वहां से उठाने की ...
जहां मैं रहता हूं ...वहां भी पास ही एक बुज़ुर्ग महिला ने एक धार्मिक स्थान की स्थापना कर रखी है ...उस का ठिकाना वही है.....कईं बार गुज़रते देखता हूं वहां पर धार्मिक गीत लगे होते हैं और वह अजीबो-गरीब तरीके से ताली बजा बजा कर सिर हिला रही होती है ...क्या है न इतनी मेहनत तो करनी पड़ती है लोगों को अपनी तरफ़ खीचने के लिए....या दूर रखने के लिए....अगर उस का यह दैवी रूप देख कर कोई चढ़ावा चढ़ा गया तो बढ़िया ....और अगर उस को इस हालत में देख कर कुछ लोग डर तक दूर रहते हैं उस जगह से, बच्चों को उस के पास फटकने से मना करते हैं तो भी उस के लिए तो यह भी ठीक ही है ....और रहे टांवे टांवे मेरे जैसे लोग लगभग नास्तिक से लोग ...जिन्हें न तो इस असर की बेवकूफियां अपनी पास खींच पाती हैं, न ही दूर रख पाती हैं ....उन के पास अपना हथियार है ....वे कागज़ पर लिख कर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं....
दो चार दिन पहले भी मैंने शाम के वक्त देखा कि एक औरत ने फुटपाथ पर किसी हवन-कुंड में आग जला रखी है और वह उस से चार पांच गज़ दूर बैठ कर ज़ोर ज़ोर से तालियां मारे जा रही थी...मुझे भी यह सब सूंघते कहां देर लगती है कि यह इस फुटपाथ को हड़पने की नौटंकी की शुरुआत भर है ....लोगों के मन में डर, खौफ़, कौतूहल, रोमांच पैदा करिए और अपना मतलब साधिए.....
वैसे ही लोग अंधविश्वास का चश्मा लगाए घूमते हैं ....कितनी शर्म की बात है कि आज भी देश के कईं हिस्सों में विधवा, बुजुर्ग औरतों को बेकाबू भीड़ यह कह कर मौत के घाट उतार देती है कि यह औरत बच्चों पर जादू-टोना करती हैं, बच्चे उठा कर ले जाती है....क्या यार, एक विधवा, असहाय, बुज़ुर्ग महिला क्या बिगाड़ लेगी कमबख्तों आप लोगों का ...जीन लेने तो उसे भी चैन की ज़िंदगी ...ऐसी महिलाओं की कुछ मदद करने की बजाए सिर फिरे लोग उन के साथ बड़ी बुरी तरह से पेश आते हैं ...पत्थर मारते हैं, पत्थर मार मार कर ही मार गिराते हैं ...इसीलिए मैं किसी धर्म-वर्म के चक्कर में बिल्कुल नहीं हूं....बस, एक ही धर्म को जानता हूं जिस में हर इंसान के साथ एक इंसान की तरह बर्ताव करना सिखाया जाता है ...बिना किसी भी तरह के भेदभाव के ....
सार्वजनिक जगहों पर कब्ज़ा करने के बारे में और भी बहुत सी बातें मन में उमड़-घुमड़ रही हैं ...लेकिन इस वक्त लिखने की फुर्सत नहीं है, अभी नहा-धो कर काम पर जाना है ...लिखने का क्या है, एक बात लिखने लगो तो अल्फ़ाज़ पीछे ही पड़ जाते हैं कि हमारे बारे में भी लिक्खो, हमारे बारे में भी तो कुछ कहो ...हमें भूल गए....क्यों भई.....चलिए, आज की बात को यहीं विराम देते हैं...
आज की पोस्ट लिखने से पहले यह साफ़ कर दूं कि ऑडियो-रिकार्डिंग करने वाले लोगों से मुझे बड़ा डर लगता है ....यह सीधा सीधा पीठ में छुरा घोंपने वाली बात है ... मेरी आब्ज़र्वेशन यही कहती है कि पढ़े लिखे लोग इस के बारे में कुछ कहते नहीं अकसर, और कम पढ़े-लिखे लोग शेखी बघारते हुए किसी से फोन पर हुई बात की रिकार्डिंग बडे़ चाव से सुनते दिखते हैं...
मेरा ख्याल है कि इस से घटिया काम कोई हो ही नहीं सकता...मैंंने कभी फोन पर यह फीचर ढूंढने की कोशिश ही नहीं की ...क्योंकि मुझे नहीं करनी यार किसी के फोन की कोई रिकार्डिंग ...बहरहाल, आज मुझे यह सब ऐसे याद आ गया कि लोग कईं बार किसी पोस्ट का स्क्रीन-शॉट रख लेते हैं ...इस का भी कोई फायदा तो है नहीं, ऐसे ही अपने दिमाग पर बोझ डालने वाली बातें हैं...
ये तो हो गई आज के दौर की बातें ...गुज़रे ज़माने में भी लोगों ने अपने इंतजाम कर रखे थे ... 40-50 साल पहले भी ख़तो-किताबत का दौर था ..तो ऐसा नहीं था कि सब कुछ चंगा-चंगा ही चलता था ...ख़तों में भी लोग कभी कभी ऐसी बातेें लिख देते थे जो किसी को चुभ जाती थीं....किसी को क्या चुभ जाती थीं, सारे कुनबे को चुभ जाती थीं ...क्योंकि पहले ख़त घर में किसी एक के लिए नहीं, पूरे परिवार के लिए होते थे ...बारी बारी से सभी उन को पढ़ते थे ...
क्या हुआ कि कभी किसी फुफ्फड़ ने कोई हल्की बात लिख दी ...किसी पढ़ी-लिखी मामी ने कहीं अपना ज्ञान झाड़ दिया....क्या था न, उस दौर के लोगों के अहसासात (इमोशन) बहुत मजबूत हुआ करते थे ...किसी की बात को जल्दी भूलते नहीं थे, आज कल तो हम जैसे शुदाई से हुए पड़े हैं....सारा दिन वाट्सएप पर चिपके दिन भर कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, कोई पढ़े चाहे न पढ़े, कोई जवाब दे या न दे, फिर कुछ वक्त बाद अपने ही लिखे को पोंछ देते हैं....लेकिन पहले ऐसा कहां था, एक चिट्ठी डाक पेटी के हवाले करने का मतलब तीर आप के कमान से तो निकल गया, अब वह अपना काम कर के ही दम लेगा .... 😎...
हां, तो आज कल लोग स्क्रीन-शॉट रख लेते हैं कुछ पोस्टों के या ये सब ऑडियो-वॉडियो के चक्कर में पड़ जाते हैं ...पहले ऐसा कुछ न था, अगर ख़त में लिखी किसी की बात हल्की लगी तो पढ़ कर मूड खराब सब का होता ...फिर यह सोचा जाता कि इस में जवाब में क्या कहा जाएगा....लेकिन अकसर बात को इतना तूल नहीं दिया जाता था, ,,अपने आप ही में लोग घुटते रहते थे ..हां, किसी शादी-ब्याह पर या जन्म या मृत्यु पर जब ख़ानदान के लोग मिलते थे तो कईं बार उलाहना दिया जाता, दूसरे सगे-संबंधियों को यह बताया जाता दबी आवाज़ में कि फुफ्फड़ ने सुनो क्या लिख दिया ख़त में ...करना वरना किसी ने क्या होता था, ऐसे ही तमाशबीनी तब भी थी, आज भी है, पहले लोग परवाह करते थे कुछ तो, आज कल कमबख्त सभी इतनी घमंड़ी हो गये हैं कि किसी को किसी की परवाह ही नहीं, बस बहाना ढूंढते हैं किसी से बात न करने का ...उलाहने यह भी दिए जाते कि भई मौसा तो जवाब ही नहीं देता खत का...चाचा भी नहीं देता ...पांच खत लिखो तो कहीं जाकर जवाब में एक खत आता है ...
हां, अगर किसी की लिखी हुई कोई बात चुभ जाती तो उस चिट्ठी को संभाल कर अलग रख लिया जाता ताकि उसे बार बार अगले कईं बरसों तक पढ़ा जा सके ...और ज़रूरत पढ़ने पर दूसरे सगे-संबंधियों को प्रूफ के तौर पर दिखाया भी जा सके...
अभी मुझे लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि कारण कुछ भी रहे हों ...हमारे पापा की उम्र के लोगों को हिंदी नहीं आती थी, वे उर्दू और इंगलिश जानते थे ...इसलिए वे अपने भाईयों के साथ ख़तोकिताबत उर्दू में करते थे, और बहुत बार इंगलिश में भी ...अमूमन हमारे घर चिट्ठीयां हिंदी में ही आती और हिंदी में ही उन के जवाब लिखे जाते ...आज मुझे इस बात का अहसास हो रहा है कि यह भी एक अजीब बात थी, हमारी मातृ-भाषा पंजाबी, कोई भी इंसान अपनी मातृ-भाषा के अलावा किसी भी ज़ुबान में अपने जज़्बात उतने अच्छे से नहीं रख सकता ...जितना कि वह खुल कर अपनी बात अपनी मां-बोली भाषा में कह सकता है ....खैर, चलिए जो था, जैसा था, चल रहा था ख़तों का आना-जाना ...अब तो हमने उस टंटे से भी निजात पा ली है ...न किसी को कुछ लिखो, न कोई आप को कुछ लिखो ....सारा दिन वाट्सएप के फारवर्डेड संदेशों में गुम रहो ....बस टिकटॉक पर टिके रहिए...😃😂
ऐसा कहते हैं न कि अगर किसी में कोई कमी रह जाती है तो ईश्वर उस की कहीं न कहीं भरपाई तो कर ही देता है ...ऐसा ही उस दौर के लोगों के साथ था...फोन न थे, बार बार मिलना जुलना इतना आसां न था, ले देकर ख़त ही बचते थे ..इसलिए वे हाथ से लिखे हुए ख़तों में जैसे अपना दिल खोल दिया करते थे ...सोच समझ कर लिखते थे अकसर .. अपने मन की बात चंद अल्फ़ाज़ में दूर दराज बैठे परिवार के लोगों तक पहुंचा ही देते थे ....मैं बहुत बार कहता हूं न कि अगर किसी के पास कुछ नहीं भी है न लिखने के लिए तो भी वह बस कागज़ कलम लेकर बैठ जाए ....पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं ...मुझे अभी याद आ रहा है पिछले से पिछले रविवार को रेेडियो पर दो बीघा ज़मीन की स्टोरी सुना रहे थे ...बाईस्कोप की बातों में ...उसमें कुछ चिट्ठीयों का आदान प्रदान भी होता है परिवार में ...सच कह रहा हूं उन चिट्ठीयों को सुनते हुए कोई भी बंदा हिल जाए, ऐसी चिट्ठीयों का ज़िक्र था उस स्टोरी में ...
अच्छा, एक बात और भी थी, अकसर लोग बड़ी गैरत वाले थे .. किसी को चिट्ठी लिखी ..एक दो ...तीन ...बस, फिर नहीं लिखते थे ...फिर तो जब किसी जीने-मरने पर मुलाकात होती तो उस की खिंचाई होती थी कि जवाब क्यों नहीं देते ...लेकिन तब भी बहाने बनाने वाले अपने फ़न को बखूबी जानते थे ...
कान की सफाई किसी ईएनटी क्लीनिक में जाकर करवाने का कोई ख़ास चलन है नहीं इस मुल्क में ...हमें भी जब बचपन में ...बचपन क्या, 18-20 साल की उम्र तक जब भी कान में खारिश होती तो मां कहती कि सोने से पहले कान में सरसों का तेल डाल दूंगी गर्म कर के ...और अगर थोड़ा दर्द-वर्द भी होता, तो उस गर्म तेल में लहसून की तुरीयां एक दो डाल दी जातीं ...फिर जो काला सा तेल तैयार होता, कान की संजीवनी की तरह रात में सोते वक्त दोनों कानों में दो दो चार चार बूंदे उस तेल की उंडेल दी जाती और साथ में दोनों कानों में थोड़ी थोड़ी रूई भी ठूंस दी जाती ...ताकि तेल बाहर न निकल जाए ....और शायद सिरहाने को खराब होने से बचाना भी इस का मक़सद रहता होगा....आज वह सब याद आता है तो दिल सिहर जाता है कि वे सब कितने खतरनाक कारनामे थे ....
फिर थोड़ी सी समझ आने लगी तो दियासिलाई से, लेड-पैंसिल से ... स्वेटर बुनने वाली सिलाई से ....थोड़ी बहुत एहतियात से कान की खुजली शांत की जाने लगी ...मैल निकल आए तो ठीक, नहीं निकले तो भी कोई टेंशन नहीं, बस, यह सब करते हुए कान से खून निकल पड़े तो फिर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता था...पहले तो घर में हरेक से डांट फटकार खाओ और बाद में ईएनटी विशेषज्ञ के गुस्से को झेलो...जहां तक मुझे याद है हम बचपन में कान में छोटी छोटी स्लेटी भी डाल कर कुछ न कुछ तो करते थे ...और कईं बार वह अंदर टूट भी जाती थी ...जब, दुनिया की नज़रों में हम समझदार हो गए तो कान में जमी हुई वेक्स को पिघलाने के लिए दो बूंदे दवाई की डालने लगे ..लेकिन फिर भी उस के बाद भी ईएऩटी विशेषज्ञ के पास जाने से परहेज ही किया ....
ईमानदारी से सोचता हूं तो लगता है कि फुटपाथ पर जो लोग किसी कान के नीम-हकीम कारीगर से कान का इलाज करवाने लगते हैं हम अपने आप को ज़्यादा बुद्धिजीवि कहने या समझने वाले लोग भी उन के मरीज़ों से थोड़ा सा ही कम हैं ....यह ठीक है, हम उन के पास नहीं जाते लेकिन विशेषज्ञ के पास भी तो हम तब तक नहीं जाते जब तक जान पर ही नहीं पड़ आती...है कि नहीं ?
खैर, ये जो मुझे फुटपाथों पर अलग अलग इलाकों में कान साफ करने वाले मजदूर दिखते हैं ...इन के अनुशासन से मैं बहुत मुतासिर हूं ... इस की टोपी या इन का ड्रेस-कोड बड़ा कड़क है ...दूर ही से इन के मरीज़ इन को ताड़ लेते हैं ... लेकिन आज लिखते लिखते यह ख्याल आया कि इलाकों के मुताबिक ही इन की वेश-भूषा भी होती है ... यानि ड्रेस-कोड...
कुछ दिन पहले जब कोविड़ के बहुत से केस हो रहे थे तो कान की सफाई जैसे गैर-ज़रूरी (दूसरे किसी इलाज की तुलना में) काम बड़े अस्पतालों में होने बंद थे ... ऐसे में इन नीम हकीमों की पौ-बारह थी ...किसी पेड़ के नीचे अपने शिकार को लेकर बैठे ये अकसर दिख जाते थे ...एक दिन तो मुझे एक पढ़ा-लिखा बंदा किसी ऐसे ही कारीगर के शिकंजे में पड़ा दिख गया ....हैरानी हुई ...वह बंदा इतने इत्मीनान से अपने कानों का इलाज करवा रहा था कि क्या कहें ....
यह खड़े खड़े कान की सफाई वाला कारनामा मैंने शायद ही पहले कभी देखा हो ...मैं यही सोच रहा था कि नीम हकीम सोच रहा होगा ....चुनाव की आंधी चल रही है, रैलीयां हो रही हैं, और इसे अभी कान की सफाई का ख्याल आया है ...!!
दो तीन दिन पहले की बात है कि यह मंज़र दिखाई दिया ....फोटो ले ली ...लेकिन खड़े खड़े इस तरह से कान साफ़ करवाना तो ज्यादा ही जोखिम वाला काम लगा ...वैसे तो इन नीम हकीमों के हाथों को कान पर लगवाना ही खतरे से खाली नहीं है ...अगर कान का परदा इन से न भी फट पाए तो भी ये ऐसी ऐसी बीमारियां (संक्रमण) फैलाने के बाइस हो सकते हैं ...हो सकते क्या, होते हैं ...जो जानलेवा भी हो सकती हैं। और अगर कान का परदा फट जाए तो उस के क्या नतीजे निकलते हैं, उस के बारे में न ही जानिए तो अच्छा है, जानिए तो बस आप इतना ही कि रास्ते में आते जाते ऐसे नीम हकीमों के शिकार मत बनिए...
इस तरह का सस्ता इलाज हमेशा सेहत के लिए खतरनाक तो होता ही है ....ज़ूम कर के देखा दस दस के तीन सिक्के भी दिख गए ... मुझे ऐसे लगा जैसे कान का कारीगर उसे यह कहना चाह रहा हो कि इतने पैसों में तो तेरा कहीं केस-पेपर भी न बन पाता ...और तुमने चंद सिक्कों में ही परेशानी से छुटकारा पा लिया............(वैसे यह तो वक्त ही बताएगा, छुटकारा पा लिया या कोई मुसीबत मोल ले ली!!)
मैं वहां कुछ पल ही रूका ....इतने में मरीज़ ने कान के इस मजदूर को कुछ सिक्के दिए ...मुझे भी बेवजह की उत्सुकता की बीमारी है ..मैंने फोटो तो खींच ली ...लेकिन जैसे ही मरीज़ चलने लगा तो उस से पूछे बिना रह न सका कि कितने पैसे लेते हैं कान की सफाई के ...उसने बताया कि तीस रूपये ... कईं बार बंदा कितनी बेवकूफी की बात कर देता है ...लेकिन अपने साथ यह कभी कभी नहीं, अकसर ही होता है ...जब मैंने उसको अगला सवाल दाग दिया ...दोनों कानों की सफाई के!! चलते चलते उसने कह तो दिया कि हां..लेकिन मुझे पता है वह मन ही मन मेरा सवाल सुन कर क्या सोच रहा होगा ...किस बारे में ?- मेरे बारे में ही, और क्या!!
अभी नींद आ रही है ...सोने से पहले मेरा यह संदेश है कि कान ही नहीं, दांतों की भी सफाई आज कल फुटपाथ पर लोग करने करवाने लगे हैं, आंखों में तरह तरह के अंजन-सुरमे एक ही सुरमचू से डलवाने लगे हैं ...पैरों की ब्याईयां, नाखूनों के इलाज सभी फुटपाथ से करवाने लगे हैं .......लेकिन यह सब खतरनाक काम है, बच कर रहिए....
सडकें, फुटपाथ, गलियां बुरी नहीं हैं ...जीवन के दर्शन वहीं होते हैं .... लेकिन बस दर्शन तक ही ठीक है, किसी के झांसे में, बहकावे में मत आइए....याद रखिए....वह पुरानत कहावत ...नीम हकीम खतराए जान....और हां, सड़क की बात हुई ...फुटपाथ की बात हुई तो सोने से पहले आप भी आशा फिल्म का यह सुपर हिट गीत सुनिए ...इसमें जो छोटा बच्चा नाच रहा है, वह रितिक रोशन है ...यह फिल्म उस के नाना ने बनाई थी ... क्या नाम था उन का ... जे ओमप्रकाश, निर्माता-निर्देशक...
यादें...यादें...यादें ....ख़तो-किताबत की दुनिया की पचास साल पुरानी यादों की गठरियां हैं मेरी उम्र के लगभग सभी लोगों के पास...कुछ लोग इन से जुड़े अपने जज़्बात ब्यां कर पाते हैं, कुछ नहीं कर पाते ...इस से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता...कुछ लिख कर न सही, सुना कर अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं ...
आज दो तीन बातें सोच रहा हूं लिख कर दर्ज कर दूं ..इससे पहले कि मैं भूल जाऊं...मेरा ननिहाल अंबाला में था...अमृतसर से जब मैं अपनी मां के साथ स्टीम इंजन वाली गाड़ी में बैठ कर अंबाला पहुंचता तो बहुत मज़ा आता...भौतिक सुख-सुविधाओं से उन दिनों घरों को नहीं आंका जाता था ... प्यार ही प्यार था ... मेरे नाना जी ट्यूशन पढ़ाते थे ...80-82 साल की उम्र तक ट्यूशन पढ़ाते रहे ...रीडर-डाइजेस्ट पढ़ते थे ...रात के वक्त रेडियो पर खबरें सुनने के लिए उस के बटन घुमाते रहते ...लेकिन हमने तो कभी उस रेडियो को कोई भी स्टेशन पकड़ते देखा नहीं ...अब पता नहीं रेडियो में खराबी थी या किस्मत में ...वैसे आज से 50 साल पहले रेडियो पर कोई स्टेशन लग जाना किसी छोटी मोटी लॉटरी लगने से कम न था ...और हां, मैं यह तो बताना भूल ही गया कि मैं रात में 12-1 बजे उठ कर अपनी नानी से चीनी वाले परांठे खाने की ज़िद्द करने लगता ...मां कहती सुबह खा लेना..लेकिन नहीं, नानी उसी वक्त उठ कर स्टोव जला कर बड़े बड़े चीनी के परांठे मुझे खिला कर ही दम लेती ....
हां, बात तो करनी थी हमारी नानी के घर डाइनिंग टेबल के पास क्राकरी वाली अलमारी के साथ ही लगे एक कील की ...और उस पर लोहे की सीख को मरोड़ कर उस में पिरोए ढेरों खतों, बिजली-पानी के बिलों की ....न वहां कोई रेडियो होता था, बाद में टीवी भी था, लेकिन वह भी हमेशा खराब ही नज़र आता था...ऐसे में बहुत बार हम उस तार में संभाल कर रखे हुए ख़तों को ही पढ़ने लग जाते ...हमारे लिए यही साहित्य था ...यही लिटरेचर था ....जितने पढ़े जाते या जितने देखे जाते देख लेते, बाकी के फिर से उस लोहे की तार में पिरो कर टांग देते ...क्योंकि सारे घर में वह तार पर टंगे हुए कागज़ात ही सब से ज़रूरी दस्तावेज हुआ करते थे ..बाकी, किसी को पता भी न था कि कोई प्राईव्हेसी नाम की चीज़ भी होती है ....सब कुछ खुला पड़ा रहता था, सब लोग मिल कर खुली बातें करते थे ...किसी से कुछ भी छुपा हुआ नहीं होता था...
मैं शायद अपने किसी ब्लॉग में लिखा था कि ख़त तो अब एंटीक की तरह हो गये हैं ...आज ही क्यों आज से 25-30 साल पहले ही हम ने जो ख़त वत लिखने थे लिख लिए ....अब कहां लिखते हैं हम लोग ख़त ...पहले सब कुछ फोन पर हो जाता था, अब बहुत कुछ वाट्सएप पर निपट जाता है, जो रह जाता है, वह फोन पर निपटा दिया जाता है ...लेकिन यकीन मानिए आज की गुफ्तगू से रूह गायब है ...सब कुछ सतह पर होता था, गहराई बिल्कुल नहीं है ...बहुत से कारण हैं, हम सब जानते हैं ...मैं तो एंटीक की दुकानों पर जाता रहता हूं ...वहां पर मुझे पचास-साठ साल पुराने ख़त देख कर बडी़ हैरानी हुआ करती थी किसी ज़माने में ...अब नहीं होती ...एक एक पोस्टकार्ड पचास रूपये में बिकते देखा है ...खरीद तो मैंने भी बहुत कुछ रखा है ...लेकिन उस की नुमाइश करने की कभी ज्यादा इच्छा हुई नहीं ... बस, ये सब चीज़ें दिल की तरंगों को झंकृत करती हैं जब भी इन को निहारता हूं ...
कल वाट्सएप पर मुझे कहीं से 45-46 साल पुराना एक ख़त मिला ... लेकिन उस ख़त को पढ़ते मज़ा आ गया ...उस से लिखने वाले के अहसास जैसे उस कागज़ पर खुदे हुए थे ...ख़त लिखने वाले ने लिखा था कि अब उस से और ज़्यादा लिखा नहीं जा रहा, उस के आंसू नहीं थम रहे हैं....मुझे भी वह ख़त ने बड़ा भावुक कर दिया ... लेकिन होता था लोग पहले ख़तों में ऐसी ऐसी दिल की बातें लिख दिया करते थे जो आज वाट्सएप के ज़माने में सोच भी नहीं सकते ...यह जो मैं 45-46 साल पुराने खत की बात कर रहा हूं इस ख़त ने बहुत सी यादें ताज़ा कर दीं ...
ख़तों के बारे में मैं अकसर अपने ख्याल लिखता रहता हूं इस ़डॉयरी नुमा ब्लॉग में और नीचे गीत भी वही बार बार लगाता रहता हूं ....डाकिया डाक लाया ....डाकिया डाक लाया ....लेकिन आज सोच रहा हूं इस रिकार्ड को भी थोडा़ बदल ही दूं ...चलिए, सुनते हैं ..
बक्शी साहब पर लिखी यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध है ...इसे ज़रूर पढ़िए...
जादू भी कोई छोटा मोटा नहीं...3500 के करीब बेहतरीन फिल्मी नगमें - 650 फिल्मों के लिए लिख दिए...और लगभग सभी एक से बढ़ कर एक...आज कल उन पर लिखी एक किताब पढ़ रहा हूं...उन के बेटे राकेश बक्शी ने लिखी है ...बहुत अच्छी किताब है ....जो लोग भी फिल्मी गीतों से मोहब्बत करते हैं, 60-70-80 के दशक के फिल्मी गीतों के दीवाने हैं, उन सब को यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए...ज़िंदगी के हर जज़्बात में भीगे हुए गीत ..बक्शी साहब ने लिख दिए...और जब उन पर लिखी किताब पढ़ रहा हूं तो सोच रहा हूं कि जिस बंदे ने इतनी जद्दोजहद वाली ज़िंदगी जी हो, यह उसी की क़लम का जादू ही हो सकता है ...
फिल्मी गीतों से याद आया कि जब हम लोग बच्चे थे तो फिल्मी गीतों के पेम्फलेट मिलते थे ...यही कोई 15-20-25 पैसे का एक पन्ना मिलता था जिस पर किसी नई आई फिल्म के सारे गाने छपे होते थे ...कुरबानी फिल्म का ऐसा ही पेम्फलेट मुझे पिछले साल कहीं से मिल गया था ...बिल्कुल पहाड़े जैसे कागज़ पर ये गीत छपे होते थे ...पहाड़े समझते हैं न आप, जिसे फिरंगी में हम लोग टेबल कहने लगे थे बाद में ...सच में तब से पहाड़ों को याद करने, और तोते की तरह रटने का असल ज़ायका ही जाता रहा ...पहले स्कूलों की रौनक ही कक्षाओं से आने वाली पहाड़े रटने की ज़ोर-ज़ोर से आने वाली आवाज़ों की वजह से हुआ करती थी...
फिर बहुत साल बाद फिल्मी गीतों की छोटी छोटी किताबें बाज़ार में आने लगीं ...हम भी खरीद लेते कभी कभी ...लेकिन इन किताबों को खरीदने का इतना शौक नहीं था, शायद अपने स्कूल-कालेज की किताबों से ही फ़ुर्सत न मिलती थी ...बहरहाल, ये फिल्मी गीतों की किताबें 2-3 बरस पहले मेरी ज़िंदगी में आईं...कैसे, बताता हूं। मैं उर्दू पढ़ रहा था, रोज़ क्लास में भी जाता था....लेकिन कुछ ख़ास पल्ले पड़ नहीं रहा था...एक तरह से शर्म सी महसूस होने लगी ....एक तो 55 साल की उम्र में यह काम कर रहा था, उस पर कुछ बात आगे बढ़ नहीं रही थी ...यही हिज्जे समझ में न आ रहे थे, हुरूफ का आपस में मिलान कैसे करना है, कुछ भी पता न चल रहा था, उर्दू के उस्ताद जी भी जैसे एक बार खीझ ही गए थे ...जब मैं सवाल ज़्यादा करता लेकिन मुझे आता जाता कुछ था नहीं ....
उर्दू में लिखा है मेहदी हसन की गज़लें....😄
उर्दू में लिखा है किशोर के गीत ...इसने मुझे उर्दू सिखाने में बहुत मदद की ..😂
वह कहते हैं न इरादे पक्के हों तो ख़ुदा भी बंदे की मदद करने पर मजबूर हो जाता है ...मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ....एक दिन लखनऊ की सड़कों की खाक छानते हुए एक फुटपाथ पर मुझे फिल्मी गीतों की छोटी छोटी किताबें दिख गईं ....अब इतना तो मैं उर्दू जानता ही था कि यह पता लगा पाया कि ये फिल्मी गीतों की किताबें हैं ...लेकिन लिखी हुई वे उर्दू में थीं। कुछ गज़लों की किताबें मिल गईं ...मैंने दो चार खरीद लीं ...और मैं उन को धीरे धीरे पढ़ने लग गया ...मुझे थोड़ा बहुत समझ में आने लगा ..फिर एक आइडिया आया कि यार, अगर किसी तरह से हर गीत का मुखड़ा मैं पढ़ पाऊं ...थोड़ा बहुत जितना भी हो जाए...तो मैं उस को यू-टयूब पर मोबाइल पर सुनने लगता और सामने किताब रख लेता ....कुछ ही दिनों में बहुत से गीत सुनते सुनते मैं उर्दू पढ़ने लगा ...क्योंकि गीतों की ज़ुबान बिल्कुल आम बोल चाल की ज़ुबान हुआ करती थी उस दौर में ....और यही उन की इतनी लोकप्रियता का राज़ था...
मेरे वेहले कम ....टाइम नूं धक्के मारन लई!!😉
अभी मैं शाम को बिल्कुल निठल्ला बैठा हुआ था...यू-ट्यूब पर अपने आप ही एक गीत दिखा ...देख सकता हूं मैं कुछ भी होते हुए ...यह गीत बेहद लोकप्रिय है ..सुनने लगा ....सुनते सुनते एक फिल्मी गीतों की एक छोटी सी किताब उठा कर इस गीत को वहां से देख कर अपनी नोटबुक में लिखना शुरू कर दिया ..सोचा कि इस तरह से फाउंटेन पेन से लिखने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी...यह काम भी मैं अकसर कर लेता हूं ...वरना, कैलीग्रॉफी में भी दिक्कत होने लगती है ...
काश...ये नोट्स तैयार करने की मेहनत सही वक्त पर की होती...!!
मुझे हैरानी इस बात की हुई कि जो किताब में लिखा था वह मैंने लिख लिया ...लेकिन फिर उस गीत को सुनते हुए पाया कि उसमें जो एक लाइन है ....बाग़ में सैर को मैं गया एक दिन ...वह तो इस किताब में लिखी ही नहीं हुई ....एक आधा और छोटा मोटा लफ़्ज़ था जो किताब में लिखा हुआ था जब कि गीत में नहीं था...अभी इस बात पर हैरान हो ही रहा था कि अचानक पता चला कि यू-ट्यूब पर जो गीत सुन रहा हूं उस गीत से आखिरी पैरा ही गायब है ...
यह बात मैंने बहुत जगह नोटिस की है ...महान गीतकारों के गीत तो हमें नेट पर मिल जाते हैं, किताबों में भी मिल जाते हैं ...लेकिन बहुत सी त्रुटियों के साथ मिलते हैं ...ये गीत हमारी धरोहर हैं ...इन को यूं का यूं सहेज कर रखना हमारी जिम्मेदारी है ....कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं....जहां भी त्रुटि दिखे, उसे लिखने वाले के नोटिस में लाया जाए....यह सब इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि आनंद बक्शी साहब अपने सभी गीत हिंदोस्तानी भाषा में उर्दू स्क्रिप्ट में लिखते थे ... इसलिए उन को उन के मूल रूप में संभाल कर अगली पीढ़ीयों तक पहुंचाना भी तो हमारा काम ही है ....ये सब फिल्मी गीत कालजयी हैं, हमारी संवेदनाओं को झकझोड़ते हैं, हमें अलग दुनिया में ले जाते हैं ....इसलिए लिखने वालों ने इन में जो प्राण फूंके हैं, उन्हें हमें उसी हालत में ज़िंदा रखना है ... 😎...