बुधवार, 26 नवंबर 2014

गाल के अंदरूनी हिस्से के कैंसर की पूर्वावस्था...

मैं बीस वर्ष पूर्व डा राव जो टाटा कैंसर अस्पताल के उस समय निदेशक थे...उन का एक लेक्चर अटैंड कर रहा था...उस दिन उन्होंने इस बात पर भी विशेष ज़ोर दिया कि अगर देश के लोग रात को सोने से पहले अच्छे से कुल्ला कर के सोना शुरू कर दें, तो मुंह के कैंसर के केसों में ५०प्रतिशत की कमी आ जायेगी। उन के कहने का आशय था कि मुंह अच्छे से साफ़ करने के बाद फिर किसी का मन नहीं करेगा कि मुंह में गुटखा, तंबाकू, खैनी, या पान ठूंस कर सोए।

ऐसा नहीं है कि दिन के समय इस तरह के जानलेवा पदार्थों को गाल या होठों के अंदर रखने का कम नुकसान है। खतरनाक तो है ही यह सब भी लेकिन रात के समय भी इन्हें गाल या होंठ के अंदर दबा कर सोने से नुकसान दोगुना हो जाता है।

 इस मरीज़ के बाईं तरफ़ के गाल का अंदरूनी हिस्सा
 आज मेरे पास यह ५० व्यक्ति आया था.. उसे केवल तकलीफ़ यह थी कि उस के ऊपर वाले दो दांत हिल रहे हैं और कुछ भी चबाते वक्त दर्द करते हैं। इन के दांतों की अवस्था से आप अनुमान लगा ही सकते हैं कि ये पान-तंबाकू का भरपूर प्रयोग करते हैं। मेरे पूछने पर यह भी बताया कि कभी कभी बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, पानमसाला भी हो जाता है...मैंने हल्के से मजाक में कह ही दिया कि आप से बात करते हुए मुझे शोले की बसंती की मौसी की बातें याद आ रही हैं जब जय उस के पास वीरू और बसंती के रिश्ते की बात करने जाता है। हंसने लगा मेरी बात सुन कर।

मैंने पूछा िक आपने कभी अपने मुंह में देखा है....कहने लगा कि ऩहीं कभी नहीं। मैंने पहले तो उसे वाश-बेसिन के शीशे के पास ले जाकर टार्च मार कर उसे उस के दाहिने गाल का अंदरूनी हिस्सा िदखाया...फिर उस की फोटी खींच कर दिखाई तो वह अच्छे से समझ गया.......मेरे समझाने पर उसने तौबा कर ली कि आज से वह किसी भी ऐसी वैसी चीज़ को चबाना-चूसना तो दूर, छुऐगा तक नहीं!!

मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था......ओरल ल्यूको-प्लेकिया (दाईं गाल)
यह व्यक्ति भी अकसर पान, तंबाकू, गुटखा दाईं तरफ़ वाली गाल के अंदर ही टिकाए रखता था...आप देख सकते हैं कि दाईं और बाईं तरफ़ वाले गालों के अंदरूनी हिस्सों में कितना फर्क है....बाएं तरफ़ वाले गाल में इतनी ज़्यादा गड़बड़ी नहीं है..। यह जो ऊपर दाईं तरफ़ वाली गाल में सफेद रंग का एक घाव, चटाक या ज़ख्म सा देख रहे हैं ...इसे ओरल-ल्यूकोप्लेकिया कहते हैं और यह मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था है...... it is definitely a oral pre-cancerous lesion.
जितना ज़रूरी था उतनी इस बंदे को भी बताया...सब से पहले तो यह ज़रूरी है कि यह अब इन सब चीज़ों से तौबा कर ले (जो भी संभवतः उस ने कर ली)....अब इस तरह के घाव का इलाज होना चाहिए...अगर यह आज भी ये सब जानलेवा पदार्थ छोड़ दे तो भी कईं महीने लगेंगे इस चमड़ी को ठीक होने में। और बहुत बार तो इसे उतारना ही ज़रूरी होता है.......फिर इस टुकड़े की पैथोलॉजी लैब में जांच होगी..........यह कैंसर नहीं है यह तो लगभग निश्चित ही है...अभी यह पूर्वावस्था ही है।

अगर इस तरह की पूर्वावस्था का कुछ इलाज न किया जाए...और ऊपर से तंबाकू-गुटखा-पान निरंतर चालू रहे तो ऐसी पूर्वावस्था कब और कितने वर्षों में मुंह के कैंसर का रूप धारण कर लेगी, यह कहना बड़ा मुश्किल है। अभी चार िदन पहले ही एक ७५-८० वर्ष की बुज़ुर्ग महिला आई थी--अकेले ही आई थीं दांत दिखाने.....कह रही थीं कि मसूड़े थोड़े कटे कटे से लग रहे हैं.....मैंने देखा तो मुझे बेहद बुरा लगा था.......क्योंकि ऊपरी गाल के अंदरूनी हिस्से में पूरी तरह से विकसित कैंसर फैल चुका था.....मुझे उस दिन बहुत ही ज़्यादा दुःख हुआ था.....मैंने उस दिन तो उन्हें तो कुछ नहीं कहा लेकिन बेटे को साथ लाने को कहा और अपना फोन नंबर िदया.....बात हुई उस के बेटे से ...इलाज तो चल रहा है ........लेकिन....!!...... क्या लिखूं। मैंने कहा कि आपने आज से पान नहीं खाना, तो कहने लगीं कि बस सौंफ ही खाती हूं अब तो ......सामने ही शीशी थी उस के हाथ में......सौंफ में भी डली मिली हुई थी.....(यू पी में सुपारी को डली कहते हैं) .. मैंने समझाया कि सौंफ का मतलब सिर्फ़ सौंफ........डली मिलाने में तो वही बात है कि पानमसाला न खाया और इस तरह की सौंफ-डली खा ली।

मैं अब आज वाले ५० वर्ष की आयु वाले मरीज़ पर वापिस आता हूं..इस बात की तरफ़ आप ध्यान दें कि किस तरह से अपने मुंह में स्वयं झांकने से जब बंदा स्वयं कोई घाव या दाग आदि देखता है या उसे उसके मुंह के अंदर की तस्वीर दिखाई जाती है तो उस की ऐसे पदार्थों का त्याग करने की भावना प्रबल होती है......निःसंदेह यह बात तो पक्की है। 

अपने मुंह में झांकना कितना आसान है.....गाल, होंठ, तालू, जुबान, जुबान के नीचे वाला हिस्सा.......शीशे के आगे खड़े होकर देखते रहना चाहिए.......ज़रूरी है यह मुंह का स्वयं-निरीक्षण करना.......कुछ भी असामान्य दिखने पर दंत चिकित्सक के परामर्श करिए.......और इन सब घातक पदार्थों से हमेशा दूर रहें। 

शुक्र है रब्बा, सांझा चूल्हा बलया....

आज मैंने जब टाटा-स्काई ऑन िकया तो िकसी रोटी मेकर का विज्ञापन चल रहा था, यह विज्ञापन मुझे बेहद सस्ता लगता है ...जो इस विज्ञापन को पेश कर रही थी, वह रसोई में गैस या चूल्हे पर रोटीयां बनाने के काम को इतने बुरा भला कह रही थी कि उसे सुनना ही अजीब सा लग रहा था..इस से महिलाओं के शरीर में यह तकलीफ़ हो जाती है, वह तकलीफ़ हो जाती है, पूरे परिवार के लिए रोटियां बनाना तो बिल्कुल आफ़त है, ऐसा ही कह रही थी।

मैं उस विज्ञापन को देखते सोच रहा था कि अगर यह विज्ञापन हिंदोस्तानी गृहिणियां कुछेक बार देख लें तो कम से कम बगावत पर उतारू तो हो ही जाएं।

लेकिन असलियत इस तरह के रोटी मेकर की कुछ और ही है... हम लोगों ने भी कुछ महीने पहले एक अच्छी कंपनी का रोटी मेकर खऱीदा था.....एक या दो बार उसे इस्तेमाल किया गया, वापिस अब डिब्बे में बंद पड़ा है। हमारा यह अनुभव रहा कि इस में तैयार रोटियां बिल्कुल पतले कड़क पापड़ जैसे ---बिल्कुल गुजराती खाखरे की तरह-- होती हैं जिन्हें खा कर लगता ही नहीं है कि रोटी खाई है।

इस बात को तो यही फुल-स्टाप लगाते हैं....अब रोटी के बारे में अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं......मेरी उम्र के लोग अंगीठी, चूल्हे और स्टोव से लेकर तंदूर तक के दौर के साक्षी हैं। मुझे याद है कि उस दौर में स्टोव में जलने वाला मिट्टी का तेल (केरोसिन तेल) राशन के डिपो से मिलता था..अब राशन की दुकान से मिलने वाली चीज़ की बात है कि वह जब मिले तो मिले, ना भी मिले तो आप राशन की दुकानदार का क्या उखाड़े लेंगे......आज ही कुछ नहीं उखड़ता तो चालीस साल पहले लोग कितने मजबूर होंगे, इस की कल्पना आज की पीढ़ी नहीं कर सकती। वैसे हमारा राशन वाला भी कम हरामी ना था, बहुत चक्कर कटवाता था..।

इस से पहले कि यादों के पिटारे से ढक्कन उठाऊं एक बात साझा करना चाहता हूं कि मेरी बेहद पसंदीदा फिल्मों में से एक फिल्म है रोटी... राजेश खन्ना, मुमताज की.....कोई गिनती नहीं कि मैं इसे कितनी बार देख चुका हूं। इस में एक जगह राजेश खन्ना एक दादा को कहता है......ईज्जत दे रोटी को लाले, बाद में तो मैंने ही खानी है, यह संवाद किस परिप्रेक्ष्य में कहा गया, इस के लिए आप इस वीडियो को ज़रूर देखिए.....



हां, तो बात चल रही थी अंगीठी और स्टोव पर सिकने वाली रोटियों की ... फिर जब तेल नहीं होता था तो कभी कभार लकड़ियों से जलने वाला चूल्हा भी तो जला करता था। उन दिनों तंदूरों में भी रोटियां लगाई जाती थी.....कुछ घरों के घऱ के आंगन में या दीवार के बाहर तंदूर फिट हुआ रहता था..एक तंदूर जलता था तो गली मोहल्ले के कितने ही घरों की गृहणियां वहां पर रोटियों लगाती थीं.....एक तरह से यह एक सांझे चूल्हे का रूप ही ले लिया करता था...

हम लोग जब छोटे छोटे थे तो हमे यह सब देखना बड़ा रोमांचक लगता था कि कैसे हमारी मां, हमारी नानी...जलती आग में बेली हुई रोटियां पहले अंदर चिपकाती हैं, फिर एक लंबी लोहे की डंडी-नुमा सीख से उसे हिलाती डुलाती हैं और झट से कड़क रोटियां निकलते ही हमें आवाज़ दी जाती कि चलो,गर्मागर्म हैं रोटियां, बाद में ठंड़ी हो जाएंगी, खानी शुरू करो। यह काम करने वाली सभी महिलाओं को मेरा कोटि कोटि दंडवत् प्रणाम्।



लो जी, बात छिड़ी तो रेशमा जी का एक सुपर-डुपर गीत भी याद आ गया... शुक्र है रब्बा, सांझा चूल्हा जलेया...मुझे अच्छे से याद है कि १९८० के दशक में जालंधर दूरदर्शन से एक सीरियल भी आता था...सांझा चूल्हा ..उस की सिग्नेचर ट्यून भी रेशमा जी का यही गीत ही था......आप सुनना चाहेंगे?



शायद आज की पीढ़ी को लगता हो कि इस में क्या बड़ी बात है...बात है दोस्त, और वह बात वही जानता है जिस ने अपने घर की औरतों को जून के महीने शिखर दोपहरी में भी सिर पर कपड़ा रख कर यह काम करते देखा....गर्मी की वजह से लाल सुर्ख चेहरा और ऊपर से टप टप करता पसीना और शरीर के साथ चिपके हुए पसीने से भीगे पूरे कपड़े और ऊपर से धूप में तिड़कने वाली पित। इस सब के बावजूद १००० वॉट की बड़ी सी मुस्कान के साथ उन का रोटियां परोसने का अंदाज़.....और खाने वाले एक एक बशर की फिक्र। अब इस के आगे क्या कहें दोस्त, आगे कुछ कहने को बचता है क्या!!

मुझे याद है कि मेरी नानी जो इतनी जिंदािदल थी कि चालीस-पचास मेहमानों के लिए अकेली ही जूझ पड़ा करती थीं इस काम में....अब क्या क्या लिखें, क्या क्या छोड़े समझ भी तो नहीं आता। पूरी किताब लिखी जा सकती है उस दौर की महिलाओं के संघर्ष पर।

हां, यार, वह दौर भी शायद सत्तर-अस्सी के दशक का ही था कि जब पंजाब में जगह जगह जमीन पर तंदूर गढ़े हुआ करते थे....हम लोग कईं बार गूंथा हुआ आटा लेकर जाते थे और वह देवी जैसे दिखने वाली तंदूर वाली हमें रोटियां तैयार कर के दे दिया करती थीं.....जानते हैं वह एक रोटी तैयार करने का क्या लेती थीं?....मात्र पांच पैसे।

इस के साथ साथ वे भी दिन थे जब ये रोटियां लगाने का काम ढाबे वाली भी किया करते थे...आप आटा ले कर जाओ और वे रोटियां तैयार कर के आप को दे दिया करते थे।

मुझे याद है कि अगर ढाबे आदि में आटे नहीं भी लेकर गये किसी भी एमरजैंसी में आप वहां से रोटियां लेकर आ सकते थे ...साथ में दाल भी वहां से मिल जाया करती थी.... एक मज़े की बात, आप को याद हो न याद हो.....कि रोटियां खरीदने पर दाल मुफ्त में मिलती थीं, और जिसे घर लाकर घी में अपने ढंग से छोंक लगाई जाती थी। मुझे याद है कि जब कभी मेरी माता जी दो एक दिन के लिए बाहर गई होतीं तो मेरे पिता जी उस दाल को ऐसी छोंक लगाते कि आज भी उस जायके, उस अरोमा की याद  मुझे आनंद देती है।

एक चुटकला भी तो बना था उस दौर में.......एक आदमी एक ढाबे में जाता है और दाम पूछता है ... उसे बताया जाता है कि रोटी पचास पैसे की और दाल फ्री। वह तुरंत कहता है कि ऐसा करो कि मुझे दाल ही दे दो।

एक बात और, ढाबे में मिलने वाली रोटियों से कोई शिकायत नहीं हुआ करती थीं, घर जैसा ही आटा इस्तेमाल होता था ...अच्छी कड़क और पतली पतली तंदूरी रोटियां........लेकिन अब पता नहीं पिछले ३०-३५ वर्षों से ढाबे वालों को क्या तकलीफ़ हो गई है कि मुझे ऐसा लगता है कि ये अब आटे की नहीं, मैदे की रोटियां बनाते हैं जिस तरह से वह रबड़ जैसे टूटती हैं और बाहर से कड़क दिखते हुए भी अंदर से बिल्कुल कच्ची ही रह जाती हैं।

ऐसा नहीं है कि अच्छी रोटियां नहीं बिकतीं अब, बिकती हैं दोस्तो अब भी लेकिन वे ३५-४० रूपये की एक रोटी बेचते हैं.....आप की इच्छानुसार कड़क और सिकी हुई। अब तो बाहर खाते हैं कभी कभई तो ऐसी ही जगहों पर ही खाया जाता है..पता नहीं मैदे से तैयार रोटियां देखते ही भूख छूं-मंतर हो जाने जैसा फील होने लगता है।

बीस साल पहले हम लोग एक गैस-तंदूर भी लाए तो थे.....वह भी कुछ दिनों बाद रसोई की छत पर पड़ा हमें झांकने लगा... उस में तैयार रोटियों में वह बात ही न थी.... मिट्टी की खुशबू गायब थी शायद...अब विभिन्न प्रदर्शियों में इलैक्ट्रिक तंदूर देखते तो हैं, पर कभी खरीदने का मन किया नहीं......डर सा लगता है!

अब हम लोग लखनऊ में रहते हैं...कुछ दिन पहले हम लोगों ने अपने गृह-सेवक को पास ही के ढाबे-नुमा हाटेल में भेजा कि रोटियां सिकवा के ले आए... इस ढाबे ने तंदूर दुकान के बाहर ही लगाया हुआ था......गृह-सेवक बैरंग लौट कर आया .. कहने लगा कि तूदूरवाला कहता है कि सन्नाटे में आना?.....सन्नाटे में आना, सुन कर अजीब सा लगा ..शायद अगर हमारी बाई गई होती तो और भी सनसनीखेज लगते ये शब्द...लेकिन उस ने झट से बता दिया कि वह कहता है कि जब ढाबा चल रहा हो उस समय यह काम नहीं हो सकता... दो एक घंटे पहले या बाद में। मैं अपनी पत्नी से मजाक करने लगा कि लगता है कि दोपहर के खाने के लिए रोटियां सुबह ९-१० बजे और रात के खाने के लिए शाम को ही लगवानी पड़ेंगी........हा हा हा हा हा........उल्लू के पट्ठे।

हां, एक बात याद आई......मेरी मां जी की एक कज़िन थीं.....उन की बेटी दुबई में रहती थीं ... जब भी वे आतीं तो मां के हाथ की डेढ़-दो सौ रोटियां बनवा कर ले जातीं.....वहां पहुंच कर इन्हें फ्रिज़ में रख दिया करते और रोज़ाना कुछ निकाल कर गर्म कर के खाया करते। हैरान होने वाली बात तो है, हो लीजै, लेिकन है शतप्रतिशत सच।

लगता है, बस करूं.......बहुत हो गई इन रोटियों की बातें......फिर से वही बलवंत गार्गी जी की वही पंक्तियां चेते आ गईं..........शुक्र है रब्बा, सांझा चुल्हा बलेया....सांझा चुल्हा बलेया। चेते तो दोस्तो यह भी आ गया कि उन दिनों जब दोपहर में हम लोग गर्मागर्म तंदूरी रोटियों का लुत्फ़ उठाया करते थे....तो बाबा आदम के ज़माने के अपने रेडियो पर कभी कभी रोटी फिल्म का मुझे बहुत अच्छा लगने वाला यह गीत भी तो खूब बजा करता था......जो रोटी के स्वाद को चार चांद लगा दिया करता था..........

यादों का पिटारा थोड़े समय के लिए बंद कर रहा हूं... दिमाग पर लोड़ देते देते थोड़ा थक सा गया हूं.....सुप्रभात।



सोमवार, 24 नवंबर 2014

आप रोज़ाना कितने अंडे खा सकते हैं?

अभी मैं न्यू-यार्क टाइम्स देख रहा था तो मेरी नज़र एक रोचक स्टोरी पर पड़ गई ...जिस का शीर्षक था कि मैं रोज़ाना कितने अंडे खा सकता हूं।

देखते ही लगा कि यह इस प्रश्न का उत्तर तो आप सब से शेयर करना ही चाहिए क्योंिक जिस तरह से भारतवर्ष में काश्मीर से कन्याकुमारी तक अंडे के स्टाल हर तरफ़ नज़र आते हैं....आमलेट भी खूब बिकता है और उबले हुए अंडे भी दनादन बिकते दिखते हैं, इस से देशवासियों के अंडों के प्रति प्रेम का पता चलता है। 

लेकिन ध्यान देने योग्य बात बस इतनी है कि पहले तो अमेरिकी हार्ट संगठन अंडों को दिल की सेहत को ध्यान में रखते हुए खाने की सिफारिश नहीं करता था, लेकिन अब उन्होंने कहा कि रोज़ाना एक अंडा खाने से आदमी में कोल्स्ट्रोल की मात्रा में कुछ इज़ाफ़ा नहीं होता। 

चलिए जी, दारा सिंह की बात भी सुन लेते हैं......


मान लेते हैं जी अमेरिकी संगठन की बात ...क्योंिक ये अपनी रिसर्च बड़े वैज्ञानिक ढंग से करते हैं..

लेकिन आप खा कहां रहे हैं इस तरफ़ थोड़ा ध्यान देना होगा,  अगर आप बाहर किसी स्टाल या रेस्टरां आदि में ओमलेट खा रहे हैं तो वे लोग कौन सा घी-तेल इस्तेमाल कर रहे हैं, इस का ध्यान कौन रख सकता है?

मैंने आज तक अंडा नहीं खाया... बचपन में बताते हैं कि जब भी खिलाने की कोशिश की तो मैं थूक दिया करता था.... फिर जब मैं बड़ा हुआ आठ-दस वर्ष का तो मुझे याद है कि मुझे अंडे की भुर्जी से और उबले अंडे से इतनी बदबू आने लगी कि कभी हिम्मत ही नहीं हुई चखने की। कोई भी धार्मिक कारण नहीं है कि मैं कह सकूं कि मैं बहुत महान हूं क्योंिक मैं अंडा नहीं खाता.....मैं ऐसे व्यक्तव्यों से नफ़रत करता हूं। 

अगर आप अंडा खाते हैं तो चलने दें, लेकिन रोज़ाना एक से ज़्यादा नहीं........इस सिफ़ारिश को मूल रूप से आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं... How many eggs can i eat?

लिखना भी बढ़िया टाइम पास है.....जब लिखने बैठे तो पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं... अंडा तो मैंने कभी नहीं खाया लेकिन ग्याहरवीं कक्षा में जब इंगलिश के टीचर ने आमलेट के स्पैलिंग पूछे तो सारी कक्षा में मेरे ही ठीक थे....omelette....उस दिन बड़ी शाबाशी मिली थी.....पहले हमारे प्रोफैसर लोग यह काम खूब किया करते थे...रोज़ाना आठ दस स्पैलिंग लिखने को कहा करते थे.......अच्छा लगता है ......अब भी बच्चे लिखते तो हैं.....लेकिन व्हॉट्स-अप पर -- स्लैंग मार के ......है कि नहीं!

विविध भारती के पिटारे से निकलता है सेहतनामा

जी हां, विविध भारती रेडियो पर रोज़ाना शाम को चार बजे एक पिटारा कार्यक्रम आता है। सोमवार के दिन इस पिटारे से सेहतनामा प्रोग्राम निकलता है। यह एक घंटे तक चलता है...चार से पांच बजे तक। इस में किसी भी रोग के विशेषज्ञ को बुलाते हैं और उस से उस तकलीफ़ के बारे में प्रश्न उत्तर का दौर चलता है..बीच बीच में डाक्टर साहब की पसंद के फिल्मी गीत भी बजाये जाते हैं।

मैं थोड़ा भुलक्कड़ किस्म का आदमी हूं..लेकिन मुझे जब भी याद रहता है तो मैं सब काम छोड़ के इस प्रोग्राम को देखता हूं। इस प्रोग्राम की जितनी तारीफ़ की जाए कम है क्योंिक आने वाला विशेषज्ञ बड़ी सहजता से जटिल से जटिल प्रश्नों का जवाब देता है।

टीवी रेडियो और अखबारों में तो तरह तरह की हैल्थ जानकारी मिलती ही रहती है ..लेकिन अब हमें अनुभव हो चुका है कि कौन सा प्रोग्राम किस अस्पताल अथवा चिकित्सक के स्वार्थ भाव से प्रेरित है.....यह समझते देर नहीं लगती।

लेकिन यह जो विविध भारती के सेहतनामा की मैं बात कर रहा हूं इस में ऐसा कुछ भी नहीं......सब कुछ सटीक और बिना पब्लिक को उलझाए हुए अपनी बात कहते चिकित्सक जितने मैंने यहां देखे हैं, शायद ही कहीं देखे हों।

मैं अकसर कहता हूं कि अगर बड़े से बड़े अनुभवी डाक्टर को भी अपने अनुभव जनता से साझे करने हों तो उसे एक घंटे से ज़्यादा समझ नहीं चाहिए होता। मैं अपनी ही बात करता हूं......मुझे तो शायद एक घंटा भी न चाहिए हो। लेकिन आप देखिए कि अगर रेडियो पर देश के सुप्रसिद्ध चिकित्सक जब आपके लिए अपने चिकित्सीय ज्ञान का पिटारा एक घंटे तक खुला रखते हैं तो बाकी क्या बचता होगा!! सोचने वाली बात तो है !! मैं भी आल इंडिया रेडियो के काफी कार्यक्रमों में शिरकत कर चुका हूं, इसलिए पूरी प्रामाणिकता से यह बात रख रहा हूं।

इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि जैसे ही भो आप यह प्रोग्राम विविध भारती पर सोमवार शाम चार से पांच बजे तक ज़रूर सुना करिए...बेहद उपयोगी जानकारी जो और कहीं नहीं मिल सकती।

बदलते समय की दस्तक है ......मन की बात......देश के प्रधानमंत्री सारे देश से संवाद करते हैं आकाशवाणी के माध्यम से.......लेिकन एक दस्तक और भी होनी चाहिए...आज की युवा पीढ़ी की व्यस्तता को देखते हुए इस तरह के उपयोगी कार्यक्रमों की रिकार्डिंग विविध भारती की साइट पर भी आर्काइव में पड़ी होनी चाहिए। लेकिन अभी ऐसी कुछ व्यवस्था नहीं है।

जहां तक मुझे याद है....पहले कुछ जगहों पर इस सेहतनामा कार्यक्रम का पुनः प्रसारण अगली सुबह भी होता है ..लेकिन यहां लखनऊ में तो नहीं होता यह पुनः प्रसारित। 

कैसा कैसा पनीर बिक रहा है!


कल हम लोग घर के पास ही एक सब्जी मंडी में थे....मैंने देखा कि किस तरह से वहां बाज़ार में पनीर बिक रहा था....१४० रूपये का एक किलो।
 लखनऊ की सब्जी मंडियों में अब पनीर ऐसे बिकने लगा है
आप के शहर में भी इस तरह से पनीर तो बिकता ही होगा। ऐसा नहीं है कि इस तरह से बिकने वाला पनीर ही खराब है या इस के ही मिलावटी दूध से बने होने की आशंका होती है। 

मेरे को तो एक बात ही हमेशा परेशान करती है कि दूध तो बाज़ार में ढंग का दिखता नहीं....फिर इतना सारा पनीर कहां से तैयार हो कर बिकने लगता है। है ना सोचने वाली बात। मिलावटी पनीर के बारे में हम लोग अकसर मीडिया में पढ़ते, देखते-सुनते रहते हैं। खराब पनीर मिलावटी दूध से तैयार तो होता ही है, इस को तैयार करने के लिए किस किस तरह के हानिकारक कैमीकल इस्तेमाल होते हैं, यह भी अकसर मीडिया में दिखता रहता है। 

दो दिन पहले मेरी पत्नी बता रही थीं कि इधर लखनऊ में एक प्रसिद्ध ब्रॉंड है दूध का ...इस कंपनी का पनीर भी खुले में बिकता है....उन्होंने कंपनी की थैली में तो डाला होता है लेकिन ऊपर से खुला होता है..

यह भी कल की ही तस्वीर है.. 
अब पनीर के बारे में कुछ व्यक्तिगत बातें कर लें......हम लोगों ने लगभग दस वर्ष हो गये कभी बाज़ार से पनीर नहीं खरीदा, हां, कभी लेना ही पड़े तो एक बहुत प्रसिद्ध ब्रॉंड है जिस का ले आते हैं। वरना हमेशा घर में ही पनीर बनाया जाता है। 

बाहर का पनीर खाया ही नहीं जाता....कईं बार तो बिल्कुल रबड़ जैसा लगता था। इसलिए शायद १०-१५ वर्षों से न तो हम बाज़ार का खुला पनीर लाये हैं (चाहे वह बड़ी बड़ी डेयरीयों में बिकता हो) और न ही हम लोगों ने बाहर कभी किसी पार्टी में या कोई रेस्टरां में पनीर की कोई भी आटइम खाई है। इच्छा ही नहीं होती......कौन इन की क्वालिटी चैक करता होगा....जिस देश मेें ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों में चूहे मारने की दवा भरी पड़ी हो, वहां पर मिलावटी पनीर की सुध लेने की किसे फुर्सत है!

मैं तो अकसर अपने संपर्क में आने वाले लोगों को भी यही कहता हूं कि अगर बाज़ार में खुले में बिक रहा पनीर ही खाना है तो इस से बेहतर है कि आप इसे इस्तेमाल ही न करिए, हो सके तो घर ही में तैयार किये हुए पनीर की ही सब्जी खाइए। 

अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जिस तरह का पनीर कल मैंने बिकते देखा ...वह किस स्तर का होगा, देखिए वह दाम तो पूरे ले रहा है, लेकिन मुझे यही भय रहता है कि ऐसे खोमचे वाले कहीं पनीर की जगह बीमारियां ही तो नहीं परोस रहे। 

लिखते लिखते अचानक ध्यान आ गया....पता नहीं मैंने कहां देखा था, शायद हरियाणा में वहां यह रवायत है कि लोग कच्चा पनीर बाज़ार में लेकर उस पर नमक-मसाला लगा कर अकसर खाते दिख जाते हैं..बस, यह ऐसे ही याद आया तो लिख दिया। 

होटल, ब्याह शादी में खाए पनीर से अनुभव बड़े कटु रहे हैं......सुबह होते ही पेट पकड़ कर बार बार बाथरूम भागने का दौर........इसलिए अब लगभग १२-१५ वर्षों से इस झंझट में पड़ते ही नहीं......किसी भी पार्टी में बस दाल चावल बहुत सुख देते हैं। आप का क्या ख्याल है? .... सही है बात ..गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!!

मुंह में रखा गुटखा, तंबाकू कहां गायब हो जाता है?

मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिलता हूं जिन्हें लगता है कि अगर वे धूम्रपान नहीं कर रहे हैं, बीड़ी-सिगरेट को छू नहीं रहे हैं तो एक पुण्य का काम कर रहे हैं...फिर वे उसी वक्त यह कह देते हैं कि बस थोड़ा गुटखा, तंबाकू-चूना मुंह में रख लेते हैं...और उसे भी थूक देते हैं, अंदर नहीं लेते।

यही सब से बड़ी भ्रांति है तंबाकू-गुटखा चबाने वालों में.. लेकिन वास्तविकता यह है कि तंबाकू किसी भी रूप में कहर तो बरपाएगा ही। जो तंबाकू-गुटखा लोग मुंह में होठों या गाल के अंदर दबा कर रख लेते हैं और धीरे धीरे चूसते रहते हैं, इस माध्यम से भी तंबाकू में मौजूद निकोटीन एवं अन्य हानिकारक तत्व मुंह की झिल्ली के रास्ते (through oral mucous membrane)शरीर में निरंतर प्रवेश करते ही रहते हैं। 

और शरीर में जो निकोटीन अंदर जाता है, वह चाहे किसी भी रूट से जाए, वह दिल, दिमाग एवं नाड़ियों की सेहत के लिए बराबर ही खतरनाक है। यह बात समझनी बेहद ज़रूरी है। 

शायद ही शरीर का कोई अंग हो जो इस हत्यारे की मार से बच पाता हो। शरीर में पहुंच कर तो यह उत्पात मचाता ही है, शरीर के िजस रास्ते से यह बाहर निकलता है (एक्सक्रिशन - excretion) उन को भी अपनी चपेट में ले लेता है। 

ज़ाहिर सी बात है कि तंबाकू शरीर के अंदर गया है तो इस के विषैले तत्व बाहर तो निकलेगें ही ही... और पेशाब के रास्ते से भी ये बाहर निकलते हैं। यह तो एक उदाहरण है... तंबाकू का बुरा प्रभाव शरीर के हर अंग पर होता ही है। मेरी नानी के दांतों में दर्द रहता था...किसी ने नसवार लगाने की सलाह दे दी.....नसवार (creamy snuff, पेस्ट जैसे रूप में मिलने वाला तंबाकू)....इस की उन्हें लत लग गई....नियमित इस्तेमाल करने लगीं....अचानक पेशाब में खून आने लगा..जांच होने पर पता चला कि मसाने (पेशाब की थैली - urinary bladder) का कैंसर हो गया है, आप्रेशन भी करवाया, बिजली (radiotherapy) भी लगवाई लेकिन कुछ ही महीनों में चल बसीं। पीजीआई के डाक्टरों ने बताया कि तंबाकू का कोई भी रूप इस तरह की बीमारियों भी पैदा कर देता है। 

बस यह पोस्ट तो बस इसी बात को याद दिलाने के लिए ही थी कि तंबाकू किसी भी रूप में जानलेवा ही है........अब जान किस की जायेगी और किस की बच जाएगी, यह पहले से पता लगा पाना दुर्गम सा काम है.....वही बात है जैसे कोई कहे कि असुरक्षित संभोग करने वाले, बहुत से पार्टनर के साथ सेक्स करने वाले सभी लोगों को थोड़े ना एचआईव्ही संक्रमण हो जाता है, बहुत से बच भी जाते होंगे......ठीक है, शायद बच जाते होंगे कुछ.......लेकिन मुझे दुःख इस बात का होता है कि पता है कि तंबाकू ने अगर एक बार शरीर के किसी अंग में उत्पात मचा दिया तो फिर अकसर बहुत देर हो चुकी होती है....ऐसे में भला क्यों किसी लफड़े का ही इंतज़ार किया जाए। 

यही बातें रोज़ाना पता नहीं कितनी बार ओपीडी में बैठ कर रिपीट की जाती हैं, लेकिन कोई सुनता है क्या?.... शायद, लेकिन तभी जब कोई न कोई लक्षण शरीर में दिखने लगते हैं। 

एक ग्राम कम नमक से हो सकती है अरबों डालर की बचत

अमेरिकी लोग अगर रोज़ाना लगभग साढ़े तीन ग्राम नमक की बजाये लगभग अढ़ाई ग्राम नमक लेना शुरू कर दें तो वहां पर 18 बिलियन डॉलरों की बचत हो सकती है।
केवल बस इतना सा नमक कम कर देने से ही वहां पर हाई-ब्लड-प्रैशर के मामलों में ही एक सौ दस लाख मामलों की कमी आ जायेगी। यह न्यू-यॉर्क टाइम्स की न्यूज़ रिपोर्ट मैंने आज ही देखी।
ऐसा कुछ नहीं है कि वहां अमेरिका में यह सिफारिश की जा रही है और भारत में कुछ और सिफारिशें हैं। हमारे जैसे देश में जहां वैसे ही विशेषकर आम आदमी के लिये स्वास्थ्य संसाधनों की जबरदस्त कमी है —ऐसे में हमें भी अपनी खाने-पीने की आदतों को बदलना होगा।
जबरदस्त समस्या यही है कि हम केवल नमक को ही नमकीन मानते हैं। यह पोस्ट लिखते हुये सोच रहा हूं कि नमक पर तो पहले ही से मैंने कईं लेख ठेल रखे हैं —फिर वापिस बात क्यों दोहरा रहा हूं ?
इस सबक को दोहराने का कारण यह है कि इस तरह की पोस्ट लिखना मेरे खुद के लिये भी एक जबरदस्त रिमांइडर होगा क्योंकि मैं आचार के नमक-कंटैंट को जानते हुये भी रोज़़ इसे खाने लगा हूं और नमक एवं ट्रांस-फैट्स से लैस बाकी जंक फूड तो न के ही बराबर लेता हूं ( शायद साल में एक बार !!) लेकिन यह पैकेट में आने वाला भुजिया फिर से अच्छा लगने लगा है जिस में खूब नमक ठूंसा होता है।
और एक बार और भी तो बार बार सत्संगों में जाकर भी तो हम वही बातें बार बार सुनते हैं लेकिन इस साधारण सी बातों को मानना ही आफ़त मालूम होता है, ज़्यादा नमक खाने की आदत भी कुछ वैसी ही नहीं हैं क्या ?
इसलिये इस पर तो जितना भी जितनी बार भी लिखा जाये कम है —एक छोटी सी आदत अगर छूट जाये तो हमें इस ब्लड-प्रैशर के हौअे से बचा के रख सकती है।

रविवार, 23 नवंबर 2014

ओरल सेक्स (मुख मैथुन) कईं तरह के कैंसर के लिए है रिस्क फैक्टर

इस विषय पर तो पिछले कुछ अरसे में बहुत से अध्ययन प्रकाशित हो चुके हैं कि किस तरह से ओरल सेक्स(मुख मैथुन) का विभिन्न अंगों के कैंसर होने की संभावना से सीधा संबंध है।

कुछ दिन पहले देखा था कि अमेरिका में भी रिसर्च हुई है और वहां पर भी उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है कि पुरूषों में भी ओरल ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस (Oral HPV) की इंफैक्शन (संक्रमण) महिलाओं से आ सकता है।

यह जो अध्ययन हुआ है उस से इस बात की भी पुष्टि हुई है कि यह संक्रमण मुंह से मुंह के रास्ते और मुंह और योनि (genitals) के संपर्क से भी फैलता है।

इस वॉयरस के बारे में मैंने कुछ वर्ष पहले थोड़ा लिखा तो था...महिलाओं को इस तरह के विषयों के बारे में बात करते रहना चाहिए.. आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस संक्रमण विश्व भर में सब से ज़्यादा फैलने वाला सैक्स-जनित रोग (sexually transmitted disease)है और इस के संक्रमण से कईं तरह के कैंसर होने का रिस्क बढ़ जाता है जैसे कि महिलाओं के प्रजनन अंगों का कैंसर (cervix, vagina, vulva), गले का कैंसर (oropharyngeal/tonsils), गुदा द्वार (anal) और शिश्न का कैंसर (penile cancer).

यह जो रिसर्च हुई है उस से यह भी पता चला कि जो पुरूष अपनी सैक्स पार्टनर के साथ ओरल सैक्स करते थे....उन पुरूषों में भी वही वॉयरस से एचपीव्ही वॉयरस संक्रमण पाया गया जो उन के पार्टनर के प्रजनन प्रणाली (genitals) में मौजूद थीं।

ओ माई गॉड....बहुत मुश्किल काम है भाई इस तरह के विषय पर हिंदी में लिखना। बंद कर रहा हूं इस पोस्ट को इस इत्मीनान के साथ कि जो काम की बात थी और जो प्रामाणिक है, वैज्ञानिक रिसर्च पर आधारित है वह तो मैंने लिख ही दी है....वैसे आप इस शोध को इस लिंक पर जा कर स्वयं भी पढ़ सकते हैं ...इस की एक एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है..........Study shows men can get oral HPV infection from women.

सोचता हूं िक इस विषय पर कभी विस्तार से लिखूंगा।

कुछ वर्ष पहले मैंने यह भी लिखा था.......अप्राकृतिक संबंधों का तूफ़ान..

Take care.....बस पोस्ट को बंद करते समय इतना ही कहना चाह रहा हूं कि ये बातें किसी नैतिक पुलिस के जनता हवलदार की नहीं है, सब कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है.......Choice is yours!!



शनिवार, 22 नवंबर 2014

अमृतसर के पापड़ों का जवाब नहीं...

अभी जो पापड़ खाया ... 
मैं अभी मुंह के छालों के इलाज पर एक लेख लिख रहा था कि सूप सामने आ गया ...अभी मैं सूप पी रहा था तो साथ में पापड़ खाने को मिले......मेरी मजबूरी यह है कि मुझे कभी भी पापड़ खाते समय अमृतसर के पापड़ याद आ जाते हैं।

और मुझे कभी भी ये लिज्जत या किसी भी और ब्रांड के या कहीं पर भी बिकने वाले पापड़ पसंद नहीं आते। बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं क्योंकि इन में अमृतसर के पापड़ों जैसी कोई बात होती नहीं......ये बिल्कुल पतले पतले से कमजोर और बहुत कम मसाले के होते हैं..जब कि अमृतसर के पापड़ अच्छे मोटे और मसालेदार होते हैं। 

मुझे बचपन याद आता है तो यही बात याद आती है कि जब भी हम लोग शहर से बाहर जाते थे तो एक बैग तो पापड़-वड़ियों का अलग से हुआ करता था.....कहीं भी जाना हो, तो पांच छः रिश्तेदारों के लिए और कईं बार उन के एक -दो पड़ोसियों के लिए भी पापड़ वड़ियों के आधा आधा किलो और एक एक किलो के पैकेट पैक करवा के चलते थे। और मेरे फूफा जी जो दिल्ली में रहते थे उन्हें अमृतसर की धुली हुई उड़द दाल बेहद पसंद थी......मुझे याद उन के पोस्ट कार्ड की यादें जिस में उन्होंने लिखा होता था कि आती बार पापड़-वड़ियां और धुली उड़द की दाल इतनी इतनी ले कर आईएगा। 



सच में अमृतसर की पापड़-वड़ियों को कोई जवाब नहीं.....मुझे याद है स्वर्ण मंदिर के आस पास बीसियों दुकानें पापड़-वड़ियों की हुआ करती थीं और हर एक अपनी दुकान को खानदानी दुकान प्रमोट किया करता था.....और सब की सब खूब चला करती थीं। उन दुकानदारों ने अपने बाप दादाओं की फोटू भी दुकान में लगा रखी होती थीं। 

अच्छा चलिए, आप को अमृतसर के पापड़ पर एक गीत सुनवाते हैं......मुझे बहुत अच्छा लगता है...बचपन से ही आल इंडिया रेडियो जलंधर से इसे बजता सुनते थे.....आप भी इस के शब्दों की तरफ़ ध्यान दीजिए.....

 इस गीत में यह मुटियार अपने गभरू से कह रही है कि मैं तो अमृतसर के पापड़ नहीं खाती, और जो तेरी अकड़ है वह मैं सहती नहीं..इसलिए तेरे सिर की चोटी मेरे हाथ में और मेरे सिर की चोटी तेरे हाथ में है......तूने मुझे घर में रखना है तो रख, लेकिन इस बात का ध्यान रख लेना कि मैं ही हूं जो तेरे साथ निभा रही हूं..........इस गीत में आगे अमृतसर की अन्य प्रसिद्ध खाने की चीज़ों का भी जिक्र है....वड़ियां, अमृतसर छोले, लुच्चियां....


एक बात और है, बहुत से ऐसे शहरों में देखा कि लोग दुकानदार के बाहर बोर्ड तो लगा देते हैं कि अमृतसरी पापड़-वड़ियों की दुकान ......लेकिन इन में वह बात होती नहीं......शायद अमृतसर के नाम को भुनाने की कोशिश......लेकिन एक बार यहां से खरीद कर फिर से कोई दोबारा जाता नहीं वहां......खास कर मेरे जैसे लोग जिन्होंने अमृतसर का असली माल चखा हुआ है।

बहरहाल, देखिए ना हमारा भी हाल.....लिखने क्या लगा था, और कहां से कहां निकल गया जैसे कि यह पापड़-वड़ियों वाला गीत ढूंढते ढूंढते एक गीत अपने आप बजने लग गया.......एक बार फिर से लेडीज़ संगीत वाले दिनों की याद ताज़ा हो आई......जब इस तरह के गीत खूब गाये जाते थे..........थे क्या, आज भी पंजाब तो वैसे ही खिलखिलाता है...अच्छा, तो आप भी सुनिए....वे गुरदित्ते दिआ लाला...



शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

सोवा मेथी के बारे में कल पहली बार सुना

देश के जिन हिस्सों में मैं अभी तक रहा वहां मेथी का मतलब...मेथी आलू की सब्जी या फिर मेथी वाली मक्के की रोटी। दोनों की फोटो मैंने अपने गांव में पिछले महीने ली थीं.......यहां नीचे लगाई हैं..।
आलू मेथी की सब्जी... पकौड़ी का रायता

मेथी वाली मक्की की रोटी 
कल पहली बार इधर लखनऊ में सोवा मेथी के बारे में सुना... सोवा भी एक सब्जी है, और मेथी तो आप जानते ही हैं। कल पता चला कि यहां लखनऊ में यह सब्जी इक्ट्ठी मिलती है। मेथी का स्वाद थोड़ा कसैला होता है और सोवा का स्वाद उस से बेहतर......इसलिए दोनों को मिला कर सब्जी को तैयार किया जाता है।
सोवा और मेथी के पत्ते 
सोवा सब्जी की फोटो भी यहां ऊपर लगाई है। गूगल पर सोवा लिख कर सर्च किया तो पता चला कि यह तो एक बहुत ज़्यादा पौष्टिक साग है। इन्हें इंगलिश में Dill leaves कहते हैं।

मुझे जब इस नईं सब्जी के बारे में पता चला तो मैं यही सोच रहा था कि बाज़ार में इतनी सब्जियां हैं और हम लोग बचपन से सब्जियां खाते आ रहे हैं.....फिर भी अभी नईं नईं सब्जीयां दिखती रहती हैं जिन्हें अभी तक देखा नहीं, जिन के नाम तक नहीं जानते.....खाना तो दूर रहा।

विचार यह भी आ रहा था कि  आज की इंटरनेट पीढ़ी को कितना ज्ञान होगा इन दाल-सब्जियों का......अधिकतर युवा आज कल सब्जियों और दालों से दूर भागते हैं......यही लगा कि सब्जी खरीदते समय युवाओं को भी साथ लाना चाहिए...शायद उन की रूचि इसी बहाने साग-सब्जियों-दालों में बढ़ जाए। काश!!

एक सब्जी देखी जिस का मुझे नाम ही नहीं पता......यह रही उस की फोटो....सब्जीवाले से उस का नाम तो पूछा लेकिन याद नहीं रहा।
क्या आप इस सब्जी का नाम जानते हैं?
आगे देखा अलग तरह के शलगम नज़र आए........वैसे तो अब आम ही दिखने लगे हैं......लाल रंग के.........जैसे कि इन लोबिया की फलियों का रंग भी अलग ही दिखा।

इस रंग की लोबिया फलियां बहुत कम दिखती हैं ना..
सब्जी मार्कीट में जा कर सच में अपने अल्प ज्ञान का अहसास होने लगता है। ऐसा लगने लगा है कि बच्चों को सब्जी मार्कीट में साथ ज़रूर लेकर जाना चाहिए। वो जिन सब्जियों को जानेंगे तो फिर खाएंगे भी .....वरना, जो सब्जियां बच्चे बचपन या युवावस्था में नहीं खाते, वे फिर ताउम्र उन से दूर ही रहते हैं।

मिलखा सिंह जैसे नहीं हैं तो क्या घर बैठ जाएं.....



मिलखा सिंह अगर किसी समाज कल्याण के विज्ञापन में आकर लोगों को सक्रिय रहने के लिए प्रेरित करता तो मुझे बहुत खुशी होती......जब वह एक टॉनिक के विज्ञापन में आकर एक आदमी को कंप्लैक्स देता दिखता है कि क्या आप सीनियर सिटिज़न हैं तो मुझे तो यह ठीक नहीं लगता।

हर आदमी की अपनी शारीरिक क्षमता है...अपनी सीमाएं हैं, अपनी शारीरिक, मानसिक मनोस्थिति है....यह विज्ञापन ज़्यादा ठीक नहीं लगा मुझे कभी, इस से गलत संदेश जाता दिखता है कि जैसे एक चम्मच रोज़ाना खा लेने से ही सब कुछ बदल जाएगा। नहीं, ऐसा नहीं है।

हमें किसी को किसी भी तरह का कंप्लेक्स नहीं देना है.....हर एक को सुबह सवेरे या शाम को घर से निकलने के लिए प्रेरित करना है।

अकसर आपने सुना होगा कि रोज़ाना ३०-४० मिनट रोज़ाना टहलना शरीर के लिए बहुत फायदेमंद है। यह शरीर और मन में नई स्फूर्ति प्रदान करता है, ऐसा हम सब ने अनुभव तो किया ही है, चाहे हम इस का नियमित अभ्यास करें या ना करें।

तो फिर क्या इस का यह मतलब है कि जो इतना ना चल पाए या इतनी तेज़ न चल पाए... तो वह घर ही बैठ जाए। मुझे लगता है कि लोगों में इस बारे में बहुत गलतफहमी है।

मेरे पास दिन में बहुत से मरीज़ बुझे हुए चेहरे लेकर आते हैं......मुझे पता है कि केवल दवाईयां इन का कुछ नहीं कर पाएंगी। बात करने पर पता चलता है कि वे घर से बाहर निकलते नहीं, टहलने जाते नहीं, घुटने दुःखते हैं.....सांस फूल जाती है। ठीक है, ये सब जीवनशैली से संबंधित रोग एक उम्र के बाद घेर ही लेते हैं लेकिन इस का भी यह मतलब नहीं कि आप घर पर ही डटे रहें और सुबह सुबह सतपाल के आश्रम से बरामद होने वाली ऐश्वर्य की चीज़ों की लिस्ट बनानी शुरू कर दें।

कल ही मेरे पास एक बुज़ुर्ग महिला अपने पति की बात करने लगी कि सारा दिन अखबार, सारा दिन टीवी, सारा दिन खबरें.....कह रही थीं कि घर से निकलते ही नहीं, मैं कईं बार कहती हूं....कि कितनी देखोगे खबरें, क्या प्रधानमंत्री बनोगे?  कह रही थीं कि मेरी तो ज़िंदगी की अपनी इतनी लंबी सीडी तैयार हो चुकी है कि मैं तो वही देख देख कर थक जाती हूं।

आज एक बुज़ुर्ग आया....उसे बहुत सी तकलीफ़ें हैं...मैंने जब टहलने की बात की तो कहते हैं कि हां, सुबह घर की छत पर चला जाता हूं......घर के पास ही एक बाग है, मैंने कहा कि आप वहां चले जाया करें......और रोज़ाना एक घंटा वहां बिताएं.....सूर्योदय का आनंद लें, हरियाली देखें, पक्षियों के गीत सुने, पुराने दोस्तों-परिचितों से हंसी-ठ्ठा करिए.....आप दो चार दिन यह कर के देखिए तो आप अपने आप को कितना खुश पाएंगे.......शायद उन्हें मेरी बात अच्छी लगी, हंसने लगे, कहने लगे कि मेरा ध्यान इस तरफ़ तो कभी गया ही नहीं........मैंने कहा कि यह किस ने कहा कि कि आपने अपनी क्षमता से ज़्यादा तेज़ तेज़ चलना है, हांफना है......ऐसा कुछ नहीं है, आप खुशी खुशी जितना मस्ती से अपनी रफतार में टहल सकते हैं, टहलिए.......३०-२०-१० मिनट टहल कर अगर मन करे तो कहीं बैठ जाएं....फिर से टहलना शुरू कर दें.......वह एक घंटा बस अपने लिए रखें।

वैसे यह नुस्खा हम सब के लिए हैं.....काश, हम सब की परिस्थितियां ऐसी बन पाएं कि वे सुबह का एक घंटा हम सब प्रकृति की गोद में बिता पाएं.......

जिस बाग में मैं जाता हूं उस में जो जगह मुझे बहुत पसंद है ये तस्वीरें मैंने आज सुबह उस जगह की खींची थी......इस जगह पर पहुंचते ही मुझे जंगल में पहुंच जाने का अहसास होता है....



िजस बाग में मैं टहलने जाता हूं वहां का एक कोना
एक बात और है कि बागों में बहुत से बैंच लगे होने चाहिए ताकि कोई भी जब चाहे जहां चाहे बैठ कर सुस्ता लें, ध्यान हो जाए, प्राणायाम कर लें........

तो फिर आपने क्या सोचा.....बस हवन ही करेंगे या मस्ती से थोड़ा बहुत टहलेंगे भी !!

ऐसा ताज़ा बकरा, मुर्गा, और मछली किस काम के !!

थोड़े से पानी में छटपटाती ये मछलियां.. मार्केटिंग टूल 
आज बाद दोपहर जब मैं एक दुकान पर खड़ा था तो सामने वाली दुकान मीट-मछली की थी.....मेरा ध्यान एक बर्तन की तरफ़ गया जिस में बहुत कम पानी में कुछ मछलियां छटपटा रही थीं....बहुत बुरा लगा ये देख कर। यह जो तस्वीर आप यहां देख रहे हैं, वहीं की तस्वीर है।

ज़ाहिर सी बात है कि वह दुकानदार अपनी बिक्री चमकाने के लिए यह सब ड्रामेबाजी कर रहा था....उसी समय आप छटपटाती हुई कोई भी मछली पसंद करिए...उसे समय उसे काट कर आप को थमा िदया जायेगा। 

बात इस दुकानदार की ही नहीं है, मैंने बहुत जगहों पर इधर लखनऊ में नोटिस किया है कि मछली बेचने वालों ने एक बर्तन में थोड़ा पानी डाल कर कुछ मछलियां छटपटाने के लिए छोड़ रखी होती हैं। मुझे यह मंजर बहुत ही बुरा लगता है....अमानवीय तो है बेशक। 

इस तरह से ताज़ा-तरीन मछलियों के दाम भी दूसरी पहले से मृत मछलियों से ज़्यादा होती होगी शायद......क्योंकि मैं शाकाहारी हूं पिछले २५ वर्षों से .....कोई भी धार्मिक कारण नहीं ..बस यह सब खाना अच्छा नहीं लगता, इसलिए बिल्कुल भी नहीं.......घर में कोई भी नहीं खाता। 

कभी आपने साईकिल के पीछे मुर्गे-मुर्गियों को ठूंस कर एक जाल में ले जाते देखा है......मैंने बहुत बार देखा है.....कितना असहाय महसूस कर रहे होते हैं वे जानवर उस समय.....और तौ और, एक बात और नोटिस की कि लोग अपने सामने ज़िंदा मुर्गे को कटवाते, साफ़ करवाते हैं......सोचने वाली बात यह है कि उस जानवर के शरीर में डर खौफ़ की वजह से क्या क्या हार्मोन्ज़ रिलीज़ न होते होंगे.........लेकिन हमें क्या, हमें तो ताज़े मुर्गे से मतलब है!

मुझे जांघ चाहिए, मुझे गुर्दा, मुझे कलेजा...मुझे सिरी (दिमाग)...मुझे चांप
जब मैं स्कूल कालेज में था तो खूब मीट खाया करते थे.....मेरे पिता जी को बहुत शौक था....अलग अलग चीज़ें उस में डाल कर लज़ीज़ मीट तैयार होता था...हमें भी कहां इतना समझ थी कि हम खा क्या रहे हैं.....बस, इतना पता था कि शायद मीट की दो तरह की दुकानें हुया करती थीं...अमृतसर शहर की बात कर रहा हूं.....लेिकन मीट खरीदते जाते वक्त यह हिदायत दी जाती थी कि फलां फलां झटकई से ही लाना है......झटकई पंजाबी का शब्द है जिस का मतलब है जो झटका मीट बेचता है अर्थात् जिस कसाई के यहां बकरे की गर्दन को एक झटके ही में अलग कर दिया जाता है। 

हां, वह बात तो बताना भूल ही गया कि मीट खाना कब से बंद किया....यह १९९० के दशक के शुरूआत की बात है.....मैं और मेरी बीवी हम लोग पूना गये थे.....एक हॉटेल में गये.....वहां जो मीट हमें दिया गया......वह चबाया ही नहीं जा रहा था......हम सारी बात समझ गये.....बस उस दिन के बाद फिर मीट-मछली-मुर्गा खाने का मन ही नहीं किया। 

वैसे भी आज कल मुर्गे वुर्गे बड़े करने के चक्कर में क्या क्या गोरखधंधे हो रहे हैं, किस तरह से कैमीकल्स और हारमोन्ज़ इन में टीके की शक्ल में पहुंचाए जाते हैं, यह तो हम सब मीडिया में देखते सुनते रहते हैं...है कि नहीं?

 मुझे पता है मेरे यहां चार पंक्तियां लिखने से यह सब बंद नहीं होने वाला, लेकिन फिर भी हम लोग इस क्रूरता के बारे में तो सोच ही सकते हैं.........क्या आप को लगता है कि पानी में छटपटाती उस मछली को काट कर खा लेने से हम लोग ज़्यादा मर्द बन जाएंगे?...

नोट........इस पोस्ट को लिखने का कोई भी धार्मिक उद्देश्य नहीं है... वैसे भी मैं बस एक ही धर्म को जानता हूं जिसे मानवता कहते हैं। मछलियों की पीड़ा आज देखी तो दिल को बात लग गई, आप से साझा कर ली। 

इस फिल्मी गीत में भी शूटिंग के िलए एक मछली को छटपटाया तो गया......

बच्चों को तो हम शुरू से पढ़ाते ही हैं.....शायद उन की पहली कविता......मछली जल की रानी है, जीवन उस का पानी है, बाहर निकालो मर जायेगी.............जितनी हवा हमारे लिए ज़रूरी है, उतना ही पानी भी मछली की श्वास प्रक्रिया के लिए ज़रूरी है....कल्पना करिये किस तरह से खिड़कियां बंद होने पर हवा थोड़ी सी कम होने पर ही जब हमारा दम घुटने लगता है और हमारी फटने लगती है........है कि नहीं??

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

ग्लुकोज़ की बोतल भी देती है ताकत

पहले कुछ लेखों में हम लोग कुछ ताकत प्रदान करने वाली चीज़ों की चर्चा कर रहे थे —कुछ दवाईयां तो छूट ही गईं। ग्लूकोज़ की बोतल, ग्लूकोज़ पावडर,कैल्शीयम की गोलियां, और खाने में मछली, चिकन-सूप, चिकन एवं मांसाहारी आहार.

ग्लूकोज़ की बोतल वाली ताकत

—बहुत से लोगों से अकसर नीम-हकीम इस ग्लूकोज़ की बोतल के द्वारा ताकत दिलाने का झूठा विश्वास दिला कर तीन-चार सौ रूपये ऐंठ लेते हैं, लेकिन ताकत कहां से आयेगी !
दरअसल अभी भी देश में यही सोच है कि अगर किसी भी कारण से कमज़ोरी सी लग रही है तो एक-दो शीशी ग्लूकोज़ की चड़वाने से यह छू-मंतर हो जायेगी।
लेकिन ग्लूकोज़ चढ़ाने के लिये क्वालीफाईड चिकित्सकों के अपने कारण होते हैं— administration of intravenous fluids has got its own indications. लेकिन मरीज़ की फरमाईश पूरी करने के चक्कर में कईं बार बहुत पंगा हो जाता है।
ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने के लिये बहुत से कारण है—कईं बार उल्टी-द्स्त किसी को इतने लग जायें कि शरीर में पानी की कमी सी होने लगे (डि-हाईड्रेशन) तो भी इस के द्वारा शरीर में शक्ति पहुंचाई जाती है।

ग्लूकोज़ का पैकेट

— अकसर ग्लूकोज़ के पैकेट का भी कुछ लोगों में बहुत क्रेज़ है । बिना किसी विशेष कारण के ही यह पैकेट खरीद कर पिलाना शूरू कर दिया जाता है।
बात यह है कि यह भी डाक्टर की सलाह के अनुसार ही खरीदा जाना चाहिये। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि कभी भी डाक्टर से अपनी तरफ़ से अलग अलग चीज़ों के नाम जैसे कि ग्लूकोज़ का पावडर आदि मरीज़ को पिलाने की बात स्वयं न करें। अगर ज़रूरत होगी तो वह स्वयं ही बता देगा।
अगर अपनी मरजी से पिला रहे हैं तो फिर चीनी पीस कर ही पानी में निंबू-नमक के मिश्रण के साथ पिला दें।

कैल्शीयम की गोलियां

— एक तो इन कैल्शीयम की गोलियों का बहुत बड़ा क्रेज़ है लेकिन इस में भी यह देखा गया है कि जिस वर्ग  को ये मिलनी ज़रूरी होती हैं वे ही नहीं खा पाते। और जिन को ज़रूरत नहीं होती वे फिज़ूल में छकते रहते हैं और अपने आप को शरीर में ज़्यादा कैल्शीयम जमा होने के दुष्परिणामों से कईं बार बचा नहीं पाते।
सब से पहली तो यह बात है कि आहार संतुलित होना बहुत ही ज़रूरी है—-लेकिन पता नहीं क्यों मुझे मंहंगाई की वजह से और समाज में व्याप्त खाने से संबंधित भ्रांतियों की वजह से यह सलाह देनी कईं बार बहुत घिसी-पिटी सी लगती है, लेकिन फिर भी देनी तो पड़ती ही है।
दरअसल यहां लैपटाप पर कोई सेहत के विषय पर पोस्ट लिखनी बहुत आसान सी बात है लेकिन वास्तविकता उतनी ही भयानक है। आज जिस तरह का मिलावटी, कैमीकल दूध जगह जगह पकड़ा जा रहा है , ऐसे में कैसे मान लें कि दूध में कैल्शीयम होगा ही ——-इस का क्या कहें, लेकिन बस यूरिया, डिटरजैंट, और तरह तरह के कैमीकल न हों तो गनीमत समझिये।
दूसरा मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि ये अगर किसी को ये कैल्शीयम आदि लेने के लिये कहा भी जाये तो बढ़िया कंपनी का खरीदना चाहिये —चालू किस्म की कंपनियां क्या करती होंगी, इस का अनुमान भली-भांति लगाया जा सकता है।


अगली पोस्ट में देखेंगे कि कौन कौन से खाद्य पदार्थ ताकत के वास्तविक भंडार हैं।

ताकत की दवाईयों की लिस्ट

इस तरह की दवाईयों की लिस्ट यहां देने से पहले यह कहना उचित होगा कि ऐसी कोई भी so-called ताकत की दवा है ही नहीं जो कि एक संतुलित आहार से हम प्राप्त न कर सकते हों, वो बात अलग है कि आज संतुलित आहार लेना भी विभिन्न कारणों की वजह से बहुत से लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है।
जो लोग संतुलित आहार ले सकते हैं, वे महंगे कचरे ( जंक-फूड – पिज़ा, बर्गर,  ट्रांसफैट्स से लैस सभी तरह का डीप-फ्राईड़ खाना आदि) के दीवाने हो रहे हैं, फूल कर कुप्पा हुये जा रहे हैं  और फिर तरह तरह की मल्टी-विटामिन की गोलियों में शक्ति ढूंढ रहे हैं। दूसरी तरफ़  जो लोग सीधे, सादे हिंदोस्तानी संतुलित एवं पौष्टिक आहार को खरीद नहीं पाते हैं , वे डाक्टरों से सूखे हुये बच्चे के लिये टॉनिक की कोई शीशी लिखने का गुज़ारिश करते देखे जाते हैं।
मैं जब कभी किसी कमज़ोर बच्चे को, महिला को देखता हूं और उसे अपना खान-पान लाइन पर लाने की मशवरा देता हूं तो मुझे बहुत अकसर इस तरह के जवाब मिलते हैं —-
क्या करें किसी चीज़ की कमी नहीं है, लेकिन इसे दाल-सब्जी से नफ़रत है, आप कुछ टॉनिक लिख दें, तो ठीक रहेगा।
( कुछ भी ठीक नहीं रहेगा, जो काम रोटी-सब्जी-दाल ने करना है वे दुनिया के सभी महंगे से महंगे टॉनिक मिल कर नहीं कर सकते)
–इसे अनार का जूस भी पिलाना शूरू किय है, लेकिन खून ही नहीं बनता ..
(कैसे बनेगा खून जब तक दाल-सब्जी-रोटी ही नहीं खाई जायेगी, यह कमबख्त अनार का जूस भर-पेट खाना खाने के बिना कुछ भी तो नहीं कर पायेगा)
विटामिन-बी कंपैल्कस विटामिन
— जितना इस ने लोगों को चक्कर में डाला हुआ है शायद ही किसी ताकत की दवाई ने डाला हो। किसी दूसरी पो्स्ट में देखेंगे कि आखिर इस का ज़रूरत किन किन हालात में पड़ती है। इस में मौजूद शायद ही कोई ऐसा विटामिन हो जो कि संतुलित आहार से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने आप ही कैमिस्ट से बढ़िया सी पैकिंग में उपलब्ध ये विटामिन आदि लेना बिल्कुल बेकार की बात है।
किसी दूसरे लेख में यह देखेंगे कि आखिर इस विटामिन की गोलियां किसे चाहिये होती हैं ?
डाक्टर, बस पांच लाल टीके लगवा दो !!
एक तो डाक्टर लोग इन लाल रंग के टीकों से बहुत परेशान हैं। क्या हैं ये टीके—-इन टीकों में विटामिन बी-1, बी –6 एवं बी –12 होता है और कुछ परिस्थितियां हैं जिन में डाक्टर इन्हें लेने की सलाह देते हैं। लेकिन पता नहीं कहां से यह टीके ताकत के भंडार माने जाने लगे हैं, यह बिल्कुल गलता धारणा है।
अकसर मरीज़ यह कहते पाये जाते हैं कि मैं तो हर साल बस ये पांच टीके लगवा के छुट्टी करता हूं। बस फिर मैं फिट ——- आखिर क्यों मरीज़ों को ऐसा लगता है, यह भी चर्चा का विषय है।
मैं खूब घूम चुका हूं और अकसर बहुत कुछ आब्ज़र्व करता रहता हूं —-इस तरह की ताकत की दवाईयों की लोकप्रियता के पीछे मरीज़ कसूरवर इस लिये हैं कि जब उन्होंने कसम ही खा रखी है कि डाक्टर की नहीं सुननी तो नहीं सुननी। अगर डाक्टर मना भी करेगा तो क्या, वे कैमिस्ट से खरीद कर खुद लगवा लेंगे। और दूसरी बात यह भी है कि शायद कुछ चिकित्सकों में भी इतनी पेशेंस नहीं है, टाइम नहीं है कि वे सभी ताकत के सभी खरीददारों से खुल कर इतनी सारी बातें कर पाये। इमानदारी से लिखूं तो यह कर पाना लगभग असंभव सा काम है —–वैसे भी लोग आजकल नसीहत की घुट्टी पीने में कम रूचि रखते हैं, उन्हें भी बस कोई ऐसा चाहिये जो बस तली पर तिल उगा दे—–वो भी तुरंत, फटाफट !!
जिम में मिलने वाले पावडर
—- कुछ युवक जिम में जाते हैं और वहां से उन्हें कुछ पावडर मिलते हैं ( जिन में कईं बार स्टीरायड् मिले रहते हैं) जिन्हें खा कर वे मेरे को और आप को डराने के लिये बॉडी-वॉडी तो बना लेते हैं लेकिन इस के क्या भयानक परिणाम हो सकते हैं और होते हैं ,इन्हें वे सुनना ही नहीं चाहते। अगर इन के बारे में जानना हो तो कृपया आप Harmful effects of anabolic steroids लिख कर गूगल-सर्च करिये।
अगर कोई किसी तरह के सप्लीमैंट्स लेने की सलाह देता भी है तो पहले किसी क्वालीफाईड एवं अनुभवी डाक्टर से ज़रूर सलाह कर लेनी चाहिये।
संबंधित पो्स्टें

तंबाकू --एक दो किस्से ये भी हैं..

मुझे इस बात से बड़ी खीझ होती है कि हिंदी फिल्म का कोई आइटम सांग तो पब्लिक को दो दिन में याद हो जाता है लेकिन हम लोगों की बात ही भूल जाते हैं।
दो दिन पहले मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था –एक महिला अपने शिशु को स्तन-पान करवा रही थी और बिल्कुल साथ ही बैठा उस का पति बीड़ीयां फूंके जा रहा था। ऐसा लगा कि बच्चे को अमृतपान के साथ साथ विषपान भी करवाया जा रहा हो।

कुछ महीने पहले अंबाला छावनी स्टेशन पर बैठे बैठे किसी ने मुझ से किसी गाड़ी के बारे में पूछा। दो-तीन बातें हुईं तो पता चला कि वे दोनों आदमी बिहार में अपने गांव जा रहे थे क्योंकि उन में से एक के लगभग 20-22 वर्ष के भाई की सेहत बहुत खराब है। पूछने पर पता चला कि उसे पिछले लगभग 10 साल से तंबाकू खाने की लत लग गई थी– इसलिये उसे मुंह का कैंसर हो गया है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है —घर में पैसा खत्म हो गया है, इसलिये यह बंदा अपना काम-धंधा छो़ड़ कर गांव जा रहा है।

उस दिन जो बात मैंने उस बंदे के मुंह से सुनी शायद मैंने पहले इस की कल्पना भी नहीं की थी। वह आदमी बहुत गुस्से में था —कह रहा था कि हम घर वाले इसे रोक रोक कर हार गये कि तंबाकू न खाया कर, लेकिन इसने भी हमारी एक न सुनी। बता रहा था कि वह तंबाकू का इस कद्र आदि हो चुका था कि तीन तीन चीज़े एक समय में इस्तेमाल किया करता था —- मैं उस की बात सुन कर हैरान हो गया कि नीचे वाले होंठ के अंदर उस का भाई गुटखा दबा लिया करता था, गाल के अंदर की तरफ़ तंबाकू -चूने का मिश्रण और साथ में बीड़ी —-अब भला ऐसे में कौन बचाता उसे मुंह के कैंसर से। उस की बात सुन कर मन बहुत दुःखी हुया ।

वैसे तो हम लोग तंबाकू और शराब के सेवन को ही एक किल्लर कंबीनेशन मानते हैं लेकिन यहां तो तंबाकू के तीन तीन उत्पाद एक साथ खाये, पीये और थूके जाते रहे —– आप के आसपास भी तो नहीं कोई यह सब कर रहा —देखते रहिये —- सचेत करते रहिये । और क्या कर सकते हैं!!

बुधवार, 19 नवंबर 2014

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

निदा फ़ाजली ने कहा है...
बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..
 तितलियों को ना फूलों से उड़ाया जाए..

बेरी पर लगे हुए बेर... 


सुबह सवेरे किसी बाग में टहलते हुए यही स्थिति होती है। आज सुबह टहलते हुए पता नहीं कितने बरसों बाद मैंने बेरी के पेढ़ पर बेर लगे हुए देखे.....बचपन में तो खूब देखते थे और पत्थर फैंक फैंक पर तोड़ते भी थे.....लेकिन पत्थरों से बेरों को नीचे गिराने वाला काम कितना मुश्किल होता है, यह तो वही जानते हैं जो ये काम बचपन में कर चुके हैं...चाहे, बेर का पेढ़ जितना भी बड़ा हो जाए इतना आर्कषित नहीं करता, लेकिन एक बात तो यह जो कि सूफ़ी गायक बार बार अपने गीतों में दोहराते हैं ... कि बेरी के पेढ़ का स्वभाव देखो, बच्चे उसे पत्थर मारते हैं और वह उन्हें मीठे मीठे बेर देता है।

हमारे बचपन के दिनों की विद्या की देवी...


रोज़ाना नईं नईं चीज़ें देखने को मिलती हैं बाग में....बहुत बार तो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं जैसा कि मैंने जब इस पेढ़ को देखा तो मुझे ध्यान आ गया कि हम लोग बचपन में इस छोटे से पौधे को विद्या-पढ़ाई का पौधा कहते थे....उस की एक छोटी सी टहनी अपनी किताब में रखना इस आस के साथ कि इस से हम अच्छे अंक ले पाएंगे, आज हास्यास्पद लगता है लेकिन हम लोगों ने अपने समय में ये सब काम खूब किए।

विद्या के पेढ़ के फूलों का एक अलग रूप..



एक बात और देखी......इस पौधे के साथ छोटे छोटे कुछ फल जैसे (पता नहीं क्या हैं, फल या कुछ और) तो पहले भी कईं बार दिख ही जाते थे लेकिन आज एक पेढ़ पर इन का अलग ही रूप देखा....पता नहीं ये हरे रंग के फल-फूल बाद में ये रूप धारण कर लेते हैं या यह इन का पहले का रूप है.....बाद में हरे हो जाते हैं.....देखेंगे..




क्या इन्हें बस जंगली फूल कह के हम फारिग हो जाएं...
बाग में थोड़ा सा ही अंदर गया तो एक कमज़ोर पेढ़ पर नज़र पढ़ गई और बहुत से बिना वजह खिले छोटे छोटे मनमोहक रंगों में खिले फूल भी दिख गये... दरअसल ऐसा नहीं कहना चाहिए कि बिना वजह खिले हुए या जंगली फूल.... ज़रूरी नहीं कि हर बात का कोई कारण है, वैसे भी हमारी अल्पज्ञ बुद्धि कहां प्रकृति के राज़ समझ पाती है। बस जो भी दिखा ...बाग में प्रकृति की सारी संरचना ध्यान की मुद्रा में ही दिखी....at ease with themselves and with surroundings.......Peaceful co-existence.....a food for thought for the early morning walkers!


ये काम बंद होने चाहिएं...
अब यह झुलस गया, इस का क्या कसूर था !










मैं बहुत बार सोचता हूं कि बागों में ऐसे नियम भी लागू होने चाहिए कि वहां पर सूखे पत्तों ओर टहनियों को आग न लगाई जाए...इस से वातावरण तो प्रदूषित होता ही है, आस पास हरे-भरे पेड़ों को भी नुकसान पहुंचता है....यह काम तुरंत बंद होना चाहिए... इस के बारे में हमें ही कुछ तो करना होगा। आप इन तस्वीरें में देख सकते हैं कि किस तरह से पेड़ ही बुरी तरह से झुलस जाते हैं इस तरह से पत्तों-टहनियों को आग लगाने से।

 अच्छा लगा इस बेल को देख कर..
चलिए, जो भी हो.....सुबह सुबह बाग में जाना बहुत आनंदित करता है......आशा है आप भी जाते होंगे, नहीं भी जाते तो अब से शुरू कर सकते हैं... अगर पास में कोई बाग नहीं भी है, तो कम से कम सुबह सवेरे घर से तो निकलए, बाहर आईए, घूमिए, टहलिए, दूध लेने के बहाने, बच्चे को स्कूल छोड़ने के बहाने, कहीं प्रवचन सुनने के लिए चल कर जाईए तो.....अच्छा लगता है।

आज जब मैं सुबह बाग में टहल रहा था तो मुझे जय भादुड़ी पर फिल्माया वह बहुत सुंदर गीत याद आ गया.... मैंनें कहा फूलों से.... अगर मैं कभी शिक्षा मंत्री बन गया ना (अब तो हर तरफ़ संभावनाएं ही संभावनाएं हैं) तो स्कूल में इस तरह के गीत सुबह सुबह एसैंबली से पहले लाउड-स्पीकर पर बजवाया करूंगा.........आप को कैसा लगा यह गीत ?



मंगलवार, 18 नवंबर 2014

ऐसा नहीं है कि कैंसर छेड़छाड़ से फैल जाए...

जब भी किसी  ऐसे मरीज़ को जिसमें मुंह का कैंसर होने का संदेह लग रहा हो...किसी मैडीकल कालेज आदि जैसी जगहों पर भेजता हूं..तो अधिकतर उस मरीज़ का या उस के साथ आये हुये व्यक्ति का यही रिएक्शन रहता है कि वहां तो इस का टुकड़ा लेकर टेस्ट करेंगे तो इस तरह की छेड़छाड़ से तो यह बहुत फैल जाता है, ऐसा बताते हैं।

यह एक बहुत ही बड़ी भ्रांति है अपने लोगों में......अब यह कहां से चल पड़ी नहीं जानता.....लेकिन इतना तो तय है कि जो कैंसर रोग विशेषज्ञ होते हैं वे अपने काम में बहुत एक्सपर्ट होते हैं कि टुकड़ा कितना लेना है, कहां से लेना है.....और कहां पर जांच के लिए भेजना है, इस के बारे में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि किसी जगह से मांस का कोई टुकड़ा आदि लेने से स्थिति बद से बदतर हो जाएगी।

मुंह के कैंसर के बारे में मैंने यह देखा कि कुछ दंत चिकित्सक या कोई अन्य सर्जन जिन्होंने मुंह के कैंसर का इलाज नहीं भी करना होता, वे भी टुकड़ा ले लेते हैं.. (इसे मैडीकल भाषा में बॉयोप्सी करना कहते हैं) और जांच के लिए उस टुकड़े को किसी लैब में भेजते हैं और अगर वहां से कैंसर की पुष्टि हो जाए तो मरीज़ को किसी कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास रेफऱ करते हैं। ऐसा दंत चिकित्सक ही नहीं करते, मैंने बहुत बार देखा है कि ईएनटी (कान, नाक, गला रोग विशेषज्ञ) डाक्टर भी बॉयोप्सी कर देते हैं मुंह के संभावित कैंसर की........फिर बाद में किसी कैंसर सर्जन के पास रेफर करते हैं।

मुझे यह ठीक नहीं लगता क्योंिक मुंह के कैंसर के बारे में बात करें तो अधिकतर केसों को तो देखने मात्र से पता चल जाता है कि यह कैंसर ही है.....बस बॉयोप्सी से केवल पुष्टि करने भर की ज़रूरत रहती है। और मैं ऐसा मानता हूं कि दंत चिकित्सकों एवं अन्य सामान्य चिकित्सकों एवं सर्जनों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे मुंह के कैंसर के बारे में देखते ही काफी कुछ जान लें..कम से कम एक अनुमान तो हो ही जाना चाहिए....यह बड़ा ज़रूरी है।

एक बात और याद आ गई.......आपने बहुत बार सुना होगा कि किसी ने अपना कोई दांत निकलवाया और उस जगह पर मुंह में कैंसर बन गया.......नहीं, ऐसा नहीं होता, दरअसल होता क्या है कि कैंसर अगर जबाड़े में हड्डी में धीरे धीरे बढ़ रहा होता है तो इस वजह से बहुत बार  उस के आस पास वाले दांत भी थोड़े हिलने लगते हैं.....कईं बार तो इतना हिलने लगते हैं कि वे अपने आप लगभग झड़ से जाते हैं......जैसा दूध के दांत अपने आप निकल जाते हैं!!

अब आप कल्पना कीजिए कि ऐसे ही किसी एक बंदे ने दांत उखड़वाया (जिस के जबड़े में कैंसर पहले से है) और दांत उखड़वाने के बाद अगर उस का ज़ख्म नहीं भर रहा और दो महीने बाद जब वही जबड़े का कैंसर उखड़े हुए दांत से बाहर आने लगता है तो ऐसा कह दिया जाता है कि दांत उखड़वाने से कैंसर हो गया.......इस में कोई सच्चाई नहीं है।

मुझे याद है दस वर्ष पहले का एक मरीज ...वह तंबाकू का खूब इस्तेमाल किया करता था.....और उस के ऊपरी आखिरी अकल की जाड़ के पास एक ज़ख्म सा था... अकसर इस तरह के ज़ख्म (जो जाड़ की रगड़ से ही होते हैं) खराब जाड़ निकालने पर दो चार दिन में ठीक हो जाते हैं....क्योंकि दांत तो उस का खूब हिल ही रहा था, उसे तो निकालना ही था, मैंने निकाल दिया...लेकिन लगभग एक महीने बाद जब वह मुझे चैकअप करवाने आया तो उसी जगह पर कैंसर जैसी ग्रोथ बन चुकी थी.......और मेरे पास आने से पहले वह बाहर दो चिकित्सकों को भी चैक करवा के आ चुका था कि कहीं दांत उखड़वाने से तो यह नहीं हो गया......उन्होंने भी उसे यही समझाया कि नहीं, यह तो पहले ही से था, अब दिखने लग गया और फिर उसे कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया।

कैंसर रोग विशेषज्ञ जो बॉयोप्सी लेगा उस से उसे बीमारी के स्तर का पता तो चलता ही है, इसी से ही वह निर्णय लेते हैं कि किस तरह का इलाज इस मरीज़ के लिए उपर्युक्त है।

बात तो मैंने इस पोस्ट के माध्यम से इतनी रखनी थी कि मांस का टुकड़ा लेने से ऐसा नहीं होता कि कैंसर फैल जाए......लेकिन यह टुकड़ा कौन लेगा...ज़ाहिर सी बात है कि इस देश के मरीज़ यह निर्णय नहीं ले पाते कि यह काम किस से करवाएं......इसलिए विभिन्न चिकित्सकों को ही इसमें आत्म-अनुशासन की ज़रूरत है कि विशेषकर मुंह के कैंसर के केसों में जहां बहुत कुछ बिना कुछ टैस्ट किए ही दिख रहा है...साफ़-साफ़- और अगर उस टुकड़े की जांच करवाने पर कैंसर की पुष्टि भी हो गई तो भी सामान्य चिकित्सक अथवा सामान्य दंत चिकित्सक ने कुछ भी तो नहीं करना होता, मरीज़ को रेफर ही करना होता है.......ऐसे में जहां मरीज़ को रेफर किया जाता है, अगर वह कैंसर-रोग विशेषज्ञ फिर से बॉयोप्सी लेने को कहता है तो मरीज़ को बहुत बुरा लगता है.......इस सब के चक्कर में समय और पैसा तो बर्बाद होता ही है.........(क्योंकि पहली वाली बॉयोप्सी से बचा जा सकता था)... मरीज की परेशानी भी बढ़ जाती है....उस के लिए तो वैसे ही इस तरह की बीमारी का मात्र संदेह होने पर ही बिना सटीक इलाज के एक एक दिन बिताना भारी होता है।

जाते जाते मेरी हाथ जोड़ कर आप सब से एक ही प्रार्थना है कि अगर आप तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन कर रहे हैं, पानमसाला खा रहे हैं......गुटखा खा रहे हैं, डली चबा रहे हैं तो अभी से इस आदत को थूक दें.........बाद में कुछ भी कर लीजिए... दरअसल बहुत ही देर हो चुकी होती है। Stay healthy!!