बुधवार, 28 अप्रैल 2010

बेमौसमी महंगे फल और सब्जियां ----आखिर क्यों?

आज कल बाज़ार में बे-मौसमी महंगी सब्जियों एवं फलों की भरमार है। लेकिन पता नहीं क्यों इन का स्वाद ठीक सा नहीं लगता। अकसर देखता हूं, सुनता भी हूं कि लोगों में यह एक धारणा सी है कि सब्जियां-फल चाहे बेमौसमी हैं, लेकिन अगर मंहगे भाव में मिल भी रही हैं तो वे स्वास्थ्यवर्द्धक ही होंगी।

लेकिन यह सच नहीं है। मैं कहीं पढ़ रहा था कि जिस मौसम में जो सब्जियां एवं फल हमारे शरीर के लिये लाभदायक हैं और जिन की हमारे शूरीर को मौसम के अनुसार ज़रूरत होती है, प्रकृति हमारे लिये उस मौसम में वही सब्जियां एवं फल ही प्राकृतिक तौर पर उपलब्ध करवाती है।

ठीक है, बिना मौसम के भी फुल गोभी, मटर, पालक .....और भी पता नहीं क्या क्या...सब कुछ ....मिल तो रहा है लेकिन इन सब्जियों को तैयार करने में और फसल की पैदावार बढ़ाने के लिये एक तो ज़्यादा उर्वरक (फर्टिलाइज़र्स) इस्तेमाल किये जाते हैं और दूसरा इन को इन के लिये अजनबी कीटों आदि से बचाने के लिये कीटनाशकों का प्रयोग भी ज़्यादा ही करना पड़ता है। सीधी सी बात है कि ये सब हमारी सेहत के लिये ठीक नहीं है।

जब से मैंने यह तथ्य पढ़ा है तब से मैं बेमौसमी फलों एवं सब्जियों से दूर ही भागता हूं। बिना मौसम के फल भी कहां से आ रहे हैं---सब कोल्ड-स्टोरों की कृपा है। ऐसे में बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोरों से महंगे महंगे बेमौसमी फल खरीदने की क्या तुक है? हां, आज वैसे ज़माना कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही हाई-टैक हो गया है---- अकसर इन हाई-फाई जगहों पर हाई-क्लास के फलों पर नज़र पड़ जाती है ---सेब के एक एक नग को बड़े करीने से सजाया हुआ, हरेक पर एक स्टिकर भी लगा हुआ है और दाम ----चौंकिये नहीं ---केवल 190 रूपये किलो। और भी तरह तरह के " विलायती फल" जिन्हें मैं कईं बार पहली बात देखता तो हू लेकिन खरीदता कभी नहीं।

और तरह तरह की अपने यहां बिकने वाली सब्जियों-फलों की बात हो रही थी-- इन के जो भिन्न भिन्न रंग है वे भी हमें नाना प्रकार के तत्व उपलब्ध करवाती हैं--इसलिये हर तरह की सब्जी और फल बदल बदल कर खानी चाहिये क्योंकि जो तत्व एक सब्जी में अथवा फल में मिलते हैं, वे दूसरे में नहीं मिलते।

मैं लगभग सभी तरह की सब्जियां खा लेता हूं --विशेषकर जो यहां उत्तर भारत में मिलती हैं, लेकिन एक बात का मलाल है कि मुझे करेला खाना कभी अच्छा नहीं लगता। इस का कारण यह है कि मैं बचपन में भी करेले को हमेशा नापसंद ही करता था। यह मैंने इसलिये लिखा है कि बचपन में बच्चों को सभी तरह की सब्जियां एवं फल खाने की आदत डालना कितना ज़रूरी है, वरना वे सारी उम्र चाहते हुये भी बड़े होने पर उन सब्जियों को खाने की आदत डाल ही नहीं पाते।

वैसे भी अगर कुछ सब्जियां ही खाईं जाएं तो शरीर में कईं तत्वों की कमी भी हो सकती है क्योंकि संतुलित आहार के लिये तो भिन्न भिन्न दालें, सब्जियां एवं फल खाने होंगे।

आज सुबह मैं बीबीसी न्यूज़ की वेबसाइट पर एक अच्छी रिपोर्ट पढ़ रहा था जिस का निष्कर्ष भी यही निकलता है कि ज़रूरी नहीं कि महंगी या स्टीरियोटाइप्ड् वस्तुओं में ,ही स्वास्थ्यवर्धक तत्व हैं ----इस लेख में बहुत सी उदाहरणें दी गई हैं ---जैसे कि शकरमंदी में गाजर की तुलना में 15 गुणा और कुछ अन्य पपीते में संतरे की तुलना में बहुत ज़्यादा होते हैं।

बीबीसी न्यूज़ की साइट पर छपे इस लेख में भी इसी बात को रेखांकित किया गया है कि संतुलित आहार के लिये सभी तत्व एक तरह का ही खाना खाने से नहीं मिल पाते ----बदल बदल कर खाने की और सोच समझ कर खाने की सलाह हमें हर जगह दी जाती है।

सारे विश्व में इस बात की चर्चा है कि अगर हमें बहुत सी बीमारियों से अपना बचाव करना है तो हमें दिन में पांच बार तो सब्जियों-फलों की "खुराक" लेनी ही होगी। पांच बार कैसे --- उदाहरण के तौर पर नाश्ते के साथ अगर एक केला लिया, दोपहर में दाल-सब्जी के साथ सलाद (विशेषकर खीरा, ककड़ी, टमाटर, पत्ता गोभी, चकुंदर आदि ), कोई फल ले लिया और शाम को भी खाने के साथ कोई सलाद, फल ले लिया तो बस हो गया लेकिन इतना अवश्य अब हमारे ध्यान में रहना चाहिये कि अकाल मृत्यु के चार कारणों में कम सब्जियों-फलों का सेवन करना भी शामिल है ---अन्य तीन कारण हैं --धूम्रपान, मदिरापान एवं शारिरिक श्रम से कतराना।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मलेरिया की पुष्टि के बिना मलेरिया का उपचार ?

बिना टैस्ट करवाए ही मलेरिया की दवाईयां ले लेना आज अजीब सा लगता है। और टैस्ट करवाने के बाद अगर मलेरिया की रिपोर्ट नैगेटिव है तो भी अकसर ये दवाईयां दे दी जाती हैं, ले ली जाती हैं।

पिछले दशकों में भी ऐसा होता रहा है कि जब भी कंपकंपी से बुखार होता तो उसे मलेरिया ही समझा जाता और तुरंत उपचार शुरू कर दिया जाता।

हाल ही में मेरी एक डाक्टर से बात हो रही थी, वह बता रहा था कि यह जो मलेरिया की जांच करने के लिये टैस्ट होता है उस की पॉज़िटिव रिपोर्ट देखे उसे कईं कईं महीने बीत जाते हैं। इस में टैस्ट करने वाले लैबोरेट्री टैक्नीशियन की कार्यकुशलता की बहुत अहम् भूमिका रहती है--- ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि मलेरिया के केसों में इतनी कमी आ गई है कि ये Peripheral Blood film test for malarial parasite निगेटव दिखने लगे हैं।
लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन का मत यह है कि मलेरिया की पुष्टि होने के बाद ही मलेरिया की दवाईया दी जाएं। ऐसे में कोई करे तो क्या करे ? -- एक तो हो गई बैक्टीरियोलॉजिक्ल टैस्टिंग जिस के बारे में अभी बात हुई। दूसरी विधि है मलेरिया की जांच के लिये --- रैपिड डॉयग्नोस्टिक टैस्ट (Rapid Diagnostic test). इसे प्रावईट लैब में भी लगभग एक सौ रूपये में करवाया जा सकता है।

मलेरिया के रेपिड डॉयग्नोस्टिक टैस्ट की विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जांची, परखी एवं रिक्मैंडेड किटें बाज़ार में उपलब्ध हैं। और बेहतर तो यही होता है कि WHO की सिफारिश के अनुसार यह टैस्ट करवाने के बाद ही मलेरिया का इलाज शुरू किया जाए।

Rapid Diagnostic Test (RDT)- An antigen-based stick, casette or Card test for malaria in which a colored line indicates that plasmodial antigens have been detected.

और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मलेरिया की पुष्टि किये बिना केवल लक्षणों के आधार पर ही मलेरिया का उपचार उन्हीं हालात में किया जा सकता है अगर उस का टैस्ट करने की सुविधा उपलब्ध नहीं है।

यह सोचा जाना कि अगर हर ऐसे केस में जिसमें मलेरिया होने का संदेह हो उस में यह टैस्टिंग करवाना महंगा पड़ेगा ----ऐसा नहीं है, मलेरिया के लिये रेपिड डॉयग्नोस्टिक टैस्ट करवाना भी मलेरिया के उपचार से सस्ता बैठता है। इसलिये अगर बहुत से लोगों का रेपिड डॉयग्नोस्टिक टैस्ट भी करना पड़ता है तो ज़ाहिर है कि उस के बाद उन लोगों में से इलाज उन मरीज़ों का ही किया जाएगा जिन में मलेरिया की पुष्टि हो पाएगी। (ऐसा इसलिये भी कहा जा सकता है कि अधिकांश केसों में मलेरिया की जो स्लाइड तैयार की जाती है उस का परिणाम निगेटिव ही आता है लेकिन फिर भी अधिकांश लोगों के "मलेरिया" का उपचार तो कर ही दिया जाता है).

इस रेपिड डॉयग्नोस्टिक टैस्ट से संसाधनों के बेहतर उपयोग के साथ साथ एक फायदा यह भी होगा कि अगर यह टैस्ट निगेटिव आता है तो चिकित्सक तुरंत बुखार होने के दूसरे कारणों को ढूंढने में लग जाएंगे जिस से बीमार व्यक्ति के उपचार में तेज़ी आयेगी। और यह बात वैसे तो सभी आयुवर्ग के लिये बहुत अहम् है लेकिन पांच वर्ष से कम शिशुओं के लिये तो यह जीवनदाता साबित हो सकती है।

वैसे है यह मच्छर भी एक खूंखार आतंकी --- इस के आतंक की वजह से हर साल लाखों लोग मलेरिया की वजह से बेमौत मारे जाते हैं। इस आतंकी ने लोगों को बाहर आंगन में बैठना, सुस्ताना, लेटना, सोना तक भुला दिया है ----लेकिन अगर अपने आप को टटोलें तो यही पाएंगे कि अपनी हालत के हम स्वयं जिम्मेदार हैं...........है कि नहीं ?

All said and done, the treating physician is the best judge to decide when to start anti-malarial therapy right way though empirically and when to wait for confirmation by testing.

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

बीमारी एक ----बीसियों इलाज, बीसियों सुझाव

वैसे जब किसी को कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाती है तो बीमारी से हालत पतली होने के साथ साथ उस की एवं उस के परिवार की यह सोच कर हालत और भी दयानीय हो जाती है कि अब इस का इलाज किस पद्धति से करवाएं, या थोड़ा इंतज़ार ही कर लें।

चलिये, एक उदाहरण लेते हैं कि किसी बंदे को पेट में दर्द हुई और दर्द कुछ ज़्यादा ही थी, इसलिये अल्ट्रासाउंड निरीक्षण के बाद यह पता चला कि उस के गुर्दे में पत्थरी है। अब पेट की दर्द तो अपनी जगह कायम है और शुरू हो जाते हैं तरह तरह के सुझाव --

- तू छोड़ किसी भी दवाई को, पानी ज़्यादा पी अपने आप घुल जायेगी
-फलां फलां को भी ऐसी ही तकलीफ़ थी उस की तो देसी दवाई खाने से पत्थरी अपने आप घुल गई थी
- तुम्हें लित्थोट्रिप्सी (lithotripsy) के द्वारा इस निकलवा लेना चाहिये जिस में किरणों के प्रभाव से पत्थरी को बिल्कुल छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर खत्म कर देते हैं
-- तुम दूरबीन से अपना आप्रेशन करवाना
---तुम तो प्राइवेट ही किसी को दिखाना, सरकारी अस्पतालों के चककर में न पड़ना, चक्कर काट काट के परेशान हो जायेगा, लेकिन आप्रेशन तेरे को फिर भी बाहर ही से करवाना पड़ेगा
---एक हितैषी कहता है कि तू इधर जा, दूसरा कहता है कि नहीं, नहीं, उस से वो वाला ठीक है
--- तू सुन, किसी चक्कर में मत पड़ कर, न देसी न अंग्रेज़ी, चुपचाप तू होम्योपैथी की दवाई शुरू कर दे ---मेरे पड़ोस में जो रिटायर्ड बाबू रहता है उसे होम्योपैथी का अच्छा ज्ञान है, उस के पास एक बड़ी किताब भी है ---वह तेरी तकलीफ़ देख कर दवाई दे देगा, आगे तू देख ले, जैसा तेरे को ठीक लगे।
यह तो बस एक उदाहरण है, बात वही है कि इतने ज़्यादा सुझाव आ जाते हैं कि मरीज़ का एवं उस के सगे-संबंधियों का परेशान हो जाना स्वाभाविक है। जाएं तो कहां जाएं।
लेकिन यह स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं है, सारे विश्व में यह समस्या है कि शारीरिक रूप से अस्वस्थ होने पर असमंजस की स्थिति तो हो ही जाती है।

यह सब बात करने का एक उद्देश्य है कि एक बात आप तक पहुंचाई जा सके ---- Evidence-based medicine. इस से अभिप्रायः है कि किसी बीमारी का ऐसा उपचार जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, प्रामाणिक हो, जिस के परिणामों का वैज्ञानिक ढंगों से आंकलन हो चुका हो, जिस में किसी भी तरह के व्यक्तिगत बॉयस (personal bias) की कोई जगह न हो----सब कुछ वैज्ञानिक एवं तथ्यों पर आधारित ---अर्थात् अगर Evidence based medicine के द्वारा किसी बीमारी के लिये किसी तरह की चिकित्सा को उचित बताया गया है तो वह एक तरह से उस समय तक के प्रमाणों पर आधारित होते हुये पूर्ण रूप से प्रामाणिक होती है।
मैंने एक ऐसी ही साइट को जानता हूं --- www.cochrane.org जिस में विभिन्न तरह की शारीरिक व्याधियों के उपचार हेतु cochrane reviews तैयार हैं, बस किसी मरीज़ को सर्च करने की ज़रूरत है। आप भी इस साइट को देखिये और इस के बारे में सोचिये।

वैसे मेरे विचार में इस तरह की संस्थायें बहुत बड़ी सेवा कर रही हैं। मैं आज ही इन का एक रिव्यू देख रहा था जिसमें इन्होंने एक परिणाम यह निकाला है कि इलैक्ट्रोनिक-मॉसक्यूटो रिपैलेंट (electronic mosquito repellent) मशीनों का उपयोग बिल्कुल बेकार है --इन को तो बनाना और बेचना ही बंद हो जाना चाहिये क्योंकि ये ना तो मच्छर को भगाने में ही कारगर है और न ही ये किसी को मच्छर के द्वारा काटने से ही बचा पाती हैं । अब ऐसे ऐसे रिव्यू जो कि अनेकों समर्पित वैज्ञानिकों की कईं कईं साल की तपस्या का परिणाम होते हैं --इन्हें देखने के बाद भी कोई अगर अपनी बुद्धि को तरज़ीह दे तो उसे क्या कोई क्या कहे ?

अधिकतर बीमारियों के लिेय cochrane reviews उपलब्ध हैं ----और कुछ न सही, आप इन्हें सैकेंड ओपिनियन के रूप में देख सकते हैं। इतना तो मान ही लें कि उपचार के विभिन्न विकल्पों की इफैक्टिवनैस के बारे में इस से ज़्यादा प्रामाणिक एवं विश्वसनीय जानकारी शायद ही कहीं मिलती हो।

वैसे याहू-आंसर्ज़ नामक फोरम भी एक अच्छा प्लेटफार्म है जहां पर आप अपनी सेहत संबंधी प्रश्न बेबाक तरीके से लिख सकते हैं और फिर आप को विश्व के प्रसिद्ध विशेषज्ञ सलाह देंगे। सैकेंड ओपिनियन लेने में भी हर्ज़ क्या है ?

रविवार, 25 अप्रैल 2010

यौन-रोग हरपीज़ के बारे में जानिए -- भाग 1.

मैं आज सुबह एक न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ रहा था कि 14 से 49 वर्ष के आयुवर्ग अमेरिकी लोगों का लगभग 16 प्रतिशत भाग जैनिटल हरपीज़ (genital herpes) से ग्रस्त हैं।

 यौन संबंध के द्वारा फैलने वाला एक ऐसा रोग है जो हरपीज़ सिम्पलैक्स वॉयरस (herpes simplex virus) टाइप1 (HSV-1) अथवा टाइप2 (HSV-2). अधिकतर जैनिटल हरपीज़ के केस टाइप2 हरपीज़ सिम्पलैक्स वॉयरस के द्वारा होते हैं। HSV-1 द्वारा भी जैनिटल हरपीज़ हो तो सकता है लेकिन ज़्यादातर यह मुंह, होठों की ही इंफैक्शन करती है जिन्हें ("फीवर ब्लिस्टर्ज़) कह दिया जाता है---अकसर लोगों में बुखार आदि होने पर या किसी भी तरह की शारीरिक अस्वस्थता के दौरान होठों आदि पर एक-दो छाले से निकल आते हैं जिन्हें अकसर लोग कहते हैं ---"यह तो बुखार फूटा है!"

ध्यान देने योग्य बात यह है कि अधिकांश लोगों में हरपीज़ इंफैक्शन से कोई लक्षण पैदा ही नहीं होते। लेकिन जब कभी इस के  लक्षण पैदा होते हैं, तो शुरू में यौन-अंगों के ऊपर अथवा आसपास या गुदा मार्ग में (they usually appear as 1 or more blisters on or around the genitals or rectum) एक अथवा ज़्यादा छाले से हो जाते हैं। इन छालों के फूटने से दर्दनाक घाव हो जाते हैं जिन्हें ठीक होने में चार हफ्ते तक का समय लग सकता है। एक बार ठीक होने के बाद कुछ हफ्तों अथवा महीनों के बाद ये छाले फिर से हो सकते हैं, लेकिन ये पहले वाले छालों/ ज़ख्मों से कम उग्र रूप में होते हैं और कम समय में ही ठीक हो जाते हैं।

एक बार संक्रमण (इंफैक्शन) होने के बाद ज़िंदगी भर के लिये यह शरीर में रहती तो है लेकिन समय बीतने के साथ साथ इस से होने वाले छालों/घावों की उग्रता में कमी आ जाती है। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जिस समय किसी व्यक्ति को स्वयं तो इस के कोई भी लक्षण नहीं हैं, उस हालात में भी उस के द्वारा यह इंफैक्शन आगे फैलाई जा सकती है।

क्या जैनीटल हरपीज़ एक आम समस्या है ? ---  जी हां, यह समस्या आम है। हमारे देश के तो आंकड़े मुझे पता नहीं ---वैसे भी हम लोग कहां ये सब बातें किसी से शेयर करते हैं, स्वयं ही सरसों का तेल लगा कर समझ लेते हैं कि किसी कीड़े ने काट लिया होगा, अपने आप ठीक हो जायेगी।

अमेरिकी आंकड़े हैं --- अमेरिका के 12 साल एवं उस के ऊपर के साढ़े चार करोड़ लोग जैनीटल हरपीज़ से ग्रस्त हैं। जैनीटल HSV2 पुरूषों की तुलना में महिलाओं में अधिक पाई जाती है---चार में से एक महिला को और आठ में से एक पुरूष को यह तकलीफ़ है। इस के पीछे कारण यह भी है कि महिलाओं को जैनीटल हरपीज़ एवं अन्य यौन-संबंधों से होने वाले इंफैक्शन (sexually transmitted infections -- STIs) आसानी से अपनी पकड़ में ले लेते हैं।

यह हरपीज़ फैलती कैसे है ? ---किसी जैनीटल हरपीज़ से संक्रमित व्यक्ति के यौन-अंगों एवं गैर-संक्रमित व्यक्ति के यौन-अंगों के संपर्क में आने से, अथवा संक्रमित व्यक्ति के यौन-अंगों के साथ किसी का मुंह संपर्क में आए ....(one can get genital herpes through genital-genital contact or genital-oral contact with someone who has herpes infection). लेकिन अगर चमड़ी में किसी तरह का घाव नहीं है तो भी यह इंफैक्शन हो सकती है और यह भी ज़रूरी नहीं कि संक्रमित व्यक्ति से केवल संभोग द्वारा ही यह फैलती है।

हरपीज़ के लक्षण --- ये लक्षण विभिन्न लोगों में अलग अलग हो सकते हैं। जैनीटल हरपीज़ से ग्रस्त बहुत से लोगों को तो इस बात का आभास भी नहीं होता कि वे इस रोग से ग्रस्त हैं।

किसी संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन-संबंध बनाने के  लगभग दो सप्ताह के भीतर इस के लक्षण आने लगते हैं जो कि अगले दो-तीन हफ्तों तक परेशान कर सकते हैं। शुरूआती दौर में इसके ये लक्षण होते हैं ...

----यौन-अंगों पर अथवा गुदा द्वार पर खुजली एवं जलन का होना।
----फ्लू जैसे लक्षण ( बुखार सहित)
----- ग्रंथियों का सूज जाना ( swollen glands)
-----टांगों, नितंबों एवं यौन-अंगों के एरिया में दर्द होना
---- योनि से डिस्चार्ज होना (vaginal discharge)
---- पेट के नीचे वाली जगह पर दवाब जैसा बने रहना

कुछ ही दिनों में उन जगहों पर छाले दिखने लगते हैं जिन स्थानों से वॉयरस ने शरीर में प्रवेश किया था ---जैसे कि मुंह, लिंग (शिश्न,penis) अथवा योनि(vagina). और ये छाले तो महिलाओं की बच्चेदानी (cervix) एवं पुरूषों के मू्त्र-मार्ग (urinary passage) को भी अपनी चपेट में ले सकते हैं। ये लाल रंग के छाले शुरू में तो बि्ल्कुल छोटे छोटे होते हैं जो कि फूट कर घाव का रूप ले लेते हैं। कुछ ही दिनों में इन घावों पर एक क्रस्ट सी बन जाती है और यह बिना किसी तरह का निशान छोडे़ ठीक हो जाते हैं। कुछ केसों में, जल्द ही फ्लू जैसे लक्षण और ये घाव फिर से होने लगते हैं।

होता यह है कि कुछ लोगों में कोई लक्षण नहीं होते। और वैसे भी छोटे मोटे घाव को वे किसी कीड़े का काटा समझ कर या फिर यूं ही समझ कर अनदेखा सा कर देते हैं। लेकिन सब से अहम् बात यह भी है कि बिना किसी तरह के लक्षण के भी संक्रमित व्यक्ति द्वारा दूसरों तक फैलाया जा सकता है। इसलिये, अगर किसी व्यक्ति में हरपीज़ के लक्षण हैं तो उसे अपने चिकित्स्क से मिल कर यह पता करना चाहिये कि क्या वह इंफैक्टेड है ?

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कैंसर के केसों के ओव्हर-डॉयग्नोसिस का हुआ खुलासा

अकसर हम लोग यही जानते हैं कि कैंसर को जितनी शुरूआती अवस्था में पकड़ लिया जाए उतना ही बेहतर है। लेकिन मंजे हुये चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कैंसर का ओव्हर-डॉयग्नोसिस हो रहा है---इस का मतलब यह है कि ऐसे केसों की भी कैंसर से लेबलिंग कर दी जाती है जो आगे चल कर न तो मरीज़ में कोई तकलीफ़ ही पैदा करते और न ही मरीज़ की इन से मौत ही होती।

वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि मैमोग्रॉफी से पच्चीस प्रतिशत तक स्तन-कैंसर के केसों का, और प्रोस्टेट स्पैसीफिक ऐंटीजन(protein specific antigen -- PSA test) द्वारा प्रोस्टेट कैंसर के साठ प्रतिशत केसों को ओव्हर-डॉयग्नोसिस हो रहा है। और छाती के एक्स-रे एवं थूक के परीक्षण से फेफड़ों के कैंसर का डायग्नोसिस करने के मामलों में भी लगभग पचास फीसदी ओव्हर-डायग्नोसिस हो ही जाता है।

चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अन्य तरह के कैंसरों के बारे में भी यह पता लगाया है कि पिछले तीस वर्षों में उन कैंसरों के नये केसों में तो वृद्धि हुई है लेकिन उन कैंसरों से मरने वालों की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। इस का सीधा मतलब है कि कैंसर के मामलों में ओव्हर-ड़ॉयग्नोसिस हो रही है और ज़ाहिर सी बात है कि एक बार डायग्नोसिस हो गया ---फिर वह चाहे जैनुयिन हो या ओव्हर-डायग्नोसिस----तो फिर उस का उपचार तो शूरू हो जायेगा।
To address the problem, patients must be adequately informed of the nature and the magnitude of the trade-off involved with early cancer detection. Equally important, researchers need to work to develop better estimates of the magnitude of overdiagnosis and develop clinical strategies to help minimize it.
---Journal of National Cancer Institute
आवाज़ उठने लगी है कि हमें कैंसर के डायग्नोसिस एवं उपचार में मॉलीकुलर एवं इम्यूनोलॉजी (molecular & immunological techniques) लाकर और भी सुधार करने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

फिलिंग पुरानी होने पर क्यों लगता है ठंडा-गर्म ?

अकसर हमारे पास ऐसे मरीज़ आते रहते हैं जो किसी ऐसे दांत में ठंडा-गर्म लगने की शिकायत करते हैं जिस में पहले ही से फिलिंग की जा चुकी होती है और यह फिलिंग अकसर बहुत वर्ष पहले करवाई गई होती है।
वैसे तो किसी दांत में फिलिंग होने के बाद उस में ठंडा-गर्म लगने के बहुत से कारण हैं। और यह कारण फिलिंग करवाने के अगले दिन भी हो सकती है, कुछ दिनों के बाद भी और कुछ वर्षों के बाद भी। इस तरह से ठंडा गर्म लगने के अलग अलग कारण हैं।


                                                                     Credit ...flickr/brillenschlange

आज थोड़ी चर्चा करते हैं किसी फिलिंग किये हुये ऐसे दांत की जिस की फिलिंग कईं वर्षों पहले हो चुकी हो और अब उस दांत में फिर से ठंडा-गर्म लगना शुरू हो गया हो।

कुछ दिन पहले मेरे पास एक महिला आई थी जिस ने एक दाड़ में सिल्वर फिलिंग बहुत साल पहले करवा रखी थी लेकिन अभी उसे बहुत ही ज़्यादा ठंडा-गर्म लगने लगा था। मैंने जब उस के मुंह का निरीक्षण किया तो पता चला कि उस के फिलिंग वाले दांत में फिलिंग और दांत के बीच दो-तीन जगह छोटे छोटे गैप से हो गये हैं।
इस तरह के दांतों में ठंडा-गर्म लगने का यही कारण है ---ये फिलिंग और दांत के बीच में गैप के मुख्यतः दो कारण है --एक तो यह कि कईं बार फिलिंग के मार्जिन पर फिर से थोड़ा दंत-क्षय़( दांतों की सड़न, Dental caries) हो जाता है और दूसरा कारण होता है कि फिलिंग मैटीरियल ( सिल्वर हो या फिर कंपोज़िट हो) में समय के साथ कुछ बदलाव आते हैं जैसे कि सिल्वर में तो टारनिश एवं कोरोज़न (tarnish& corrosion) कुछ वर्षों बाद हो जाती है जिस की वजह से फिलिंग के मार्जिन पर लीकेज (leakage)  हो ही जाती है और कंपोज़िट फिलिंग (वही दांत के कलर के साथ मेल खाती फिलिंग) में कुछ समय के बाद शरिंकेज (shrinkage) हो जाती है जिस के कारण दांत और फिलिंग में गैप आ जाने से ठंडा गर्म लगने लगता है।

हां, तो मैं उस महिला मरीज की बात कर रहा था--- इस केस में बस उस गैप को डैंटल-ड्रिल से थोड़ा सा बड़ा कर उस में वापिस थोड़ी सी फिलिंग कर दी जाती है और मरीज़ को तुरंत आराम आ जाता है जैसे मेरे उस मरीज़ को आया। सामान्यतयः किसी भी केस में फिलिंग निकालने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

यह कैसा कचरा प्रबंधन है ?

आज जब मैं प्रातःकाल भ्रमण के लिये निकला तो रास्ते में मेरा मूड बहुत ज़्यादा खराब हुआ....अकसर सड़कों पर बिल्कुल छोटे छोटे पिल्ले मस्ती करते दिख जाते हैं--आज भी तीन-चार ऐसे ही मदमस्त पिल्लों की टोली की तरफ मेरा ध्यान गया जो अपनी मस्ती में मस्त थे और मुझे लगा कि एक पिल्ला कोई प्लास्टिक जैसी चीज़ खा रहा था---मैंने ध्यान से देखा तो वह एक कांडोम को चबा रहा था।

मैंने दो-चार बार प्रयत्न किया कि किसी तरह से यह उस कॉंडोम को नीचे गिरा दे लेकिन मैं सफल न हो पाया। मुझे उन की मां से डर भी लग रहा था। जिस घर के आगे यह कचरा पड़ा हुया था वह अपने दरवाजे पर खड़ा दिखाई दिया तो मैंने उसे भी कहा कि देखो, भई, यह कुछ खराब सी चीज़ खा रहा है। उस ने बस इतना ही कहा ----ये तो बस ऐसे ही !!

अभी उस ने इतना ही कहा था कि मैंने वापिस पलट कर उस पिल्ले की तरफ़ देखा---और यह देख कर मुझे इतना ज़्यादा दुःख हुआ कि वह उस कांडोम को निगल चुका था। मुझे उस प्यारे से पिल्ले पर जितना तरस आया उतना ही गुस्सा उस अनजान "ही-मैन" पर आ रहा था जिस ने काम पूरा होने पर उस कांडोम को बिना कुछ सोचे समझे घर के आगे फैंक कर अपनी मर्दानगी का परिचय तो दे दिया लेकिन उसे कागज़ में लपेट कर पास के ही डस्टबिन में डालने की भी ज़हमत नहीं उठाई। और उस पिल्ले का उस कांडोम को चबा जाना उस के शरीर में क्या कोहराम मचाएगा, यह सोच कर मेरा मन रो पड़ा। कुछ साल पहले अखबारों में देखा करते थे किस तरह से गायों के पेट से कईं कईं किलों पालीथीन की थैलियां निकाली गईं। इस पिल्ले की मदद करने वाला भी तो कोई नहीं हैं।



अस्पतालों में कचरा प्रबंधन जिस तरह से हो रहा है इस के बारे में तो आप सब मीडिया में देखते सुनते ही रहते हैं। और जिस तरह से प्लास्टिक की थैलियों ने कहर बरपा रखा है उस के बारे में कितना कहें ----- कहें क्या, अब तो करने की बारी है। लेकिन पता नहीं हम में ही कहीं न कहीं कमी है। अगर हम सब यह निश्चय कर लें कि पोलीथीन की थैलियों को छोड़ कर हम जूट या कपड़े के थैले ही खरीददारी के लिये लेकर चलेंगे तो भी हालात कितने बदल सकते हैं।

और यह जो आज कर दिल्ली में रेडियोएक्टिव कोबाल्ट-60 जिस ने कबाड़ियों के यहां ऊधम मचा रखा है, यह तो एक बेहद संगीन मसला है। ठीक है अब यह बात सामने आ गई, एक हादसे के रूप में यह मामला सामने आया तो हडकंप मच गया। लेकिन मैं तो पिछले कईं दिनों से यही सोच रहा हूं कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता यह हादसा पहली बार हुआ हो-----रेडियोएक्टिव कोबाल्ट-60 को लेकर इस तरह के हादसे कबाड़ियों के यहां, उन के वर्करों के साथ पहले भी ज़रूर होते ही होंगे लेकिन जागरूकता के अभाव में कुछ पता ही नहीं चल पाता होगा कि कब इस तरह के प्रभाव शरीर में उत्पन्न होते होंगे और कब सब कुछ "ठीक ठाक" सा लगने लग जाता होगा और लंबे अरसे जब इस तरह की किरणों के दुष्परिणामों की वजह से इन निर्धन, बेजुबान वर्करों को कैंसर जैसे जानलेवा रोग दबोच लेते होंगे तो शायद किसे ने इस तरह की मौतों के पीछे कारण जानने की कोशिश ही नहीं की होगी......बस, शायद किसी ने हल्का सा यह कह कर छुट्टी कर ली होगी कि चलो, बस यह तो इतनी ही लिखवा के आया था !!

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

युवतियों के यौन-अंगों को विकृत करने का घोर निंदनीय रिवाज

मैं जब जिह्वा की, होठों की एवं नेवल-पियरसिंग के बारे में पढ़ता सुनता था तो अजीब सा लगता था क्योंकि इस तरह की बॉडी-पार्ट्स की पियरसिंग के अकसर कंप्लीकेशन्स होते ही हैं। मैंने बहुत अरसा पहले कुछ पढ़ा तो यह भी था कि कुछ आदिवासी क्षेत्रों में किस तरह से महिलायों के यौन-अंगों की वे लोग "तथाकथित सुरक्षा" करते हैं।

कल मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर यौन-रोगों की एक फैक्ट-फाइल देख रहा था तो मुझे इस तरह की सामग्री के बारे में पढ़ कर बेहद दुःख हुआ कि दुनिया में कहीं कहीं इस तरह का घिनौना एवं अमानवीय रिवाज भी है जिस के अंतर्गत छोटी छोटी बच्चियों के यौन-अंगों को ही विकृत/बिगाड़ दिया जाता है।

Female genital Mutilation (महिलाओं के यौन-अंगों को विकृत करने से अभिप्रायः है कि महिलाओं के यौन अंगों को किसी भी मैडीकल कारण के बिना विकृत कर देना या उसे चोट पंहुचाना।



इस से बच्चियों में एवं महिलायों में तरह तरह की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं जैसे कि भारी रक्त स्राव, पेशाब करते समय तकलीफ़ और बाद में शिशु के जन्म के समय में होने वाले रिस्की हालात और यहां तक कि नवजात शिशुओं की मौत। इस से तो बांझपन भी हो सकता है।

एक अनुमान के अनुसार विश्व भर में लगभग 10 करोड़ से 14 करोड़ लड़कियां एवं महिलायें बिना किसी दोष के अपने यौन अंगों के विकृत किये जाने के बुरे परिणाम भुगत रही हैं। और यह विकृत करने का घिनौना काम छोटी छोटी बच्चियों से लेकर 15 साल की उम्र तक किया जाता है। इस अमानवीय प्रथा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़कियों एवं महिलायों के मानव अधिकारों को उल्लंघन माना गया है।

इस काम को अंजाम कौन देता है ? -- इसे पारंपरिक सुन्नत करने वालों (traditional circumcisers) द्वारा संपन्न किया जाता है। और अब तो इसे अधिकतर हैल्थ-केयर प्रोवाइडरों (यह तो नहीं लिखा हुआ कि ये कैसी सेहत देने वाले हैं!!) द्वारा ही किया जाता है।

The practice is most common in the western, eastern and north-eastern region of africa, in some countries in Asia and the Middle East, and among certain immigrant communities in North america and Europe.

इस तरह से यौन अंगों को विकृत करने के लिये आखिर किया क्या जाता है -- इस अमानवीय रिवाज के लिये बच्चियों के य़ौन-अंगों से क्लाईटोरिस (clitoris) को आंशिक तौर पर या पूरे तौर पर निकाल ही दिया जाता है। क्लाईटोरिस फीमेल यौन-अंगों का एक बिल्कुल छोटा सा एवं अत्यंत संवेदनशील भाग होता है। कुछ केसों में योनि (vagina) के आसपास की मांस की परतें ही काट कर निकाल दी जाती हैं --- removal of the labia minora with or without the removal of the labial majora ---the labia are "the lips" that surround the vagina.

और यह घिनौनापन कुछ केसों में योनि के मुख (vaginal opening) को काट-फाड़ के और टांके वांके लगा कर छोटा करने तक पहुंच जाता है और साथ में क्लाईटोरिस को निकाल दिया जाता है या कायम रखा जाता है।
यह सब करने के क्या क्या कारण हैं -----इस सिरफिरेपन के सिरफिरे कारण तो मुझ से लिखते ही नहीं बन रहे ----अगर आप पढ़ना चाहें तो ऊपर जो मैंने लिंक दिया है वहां जाकर देख लें। यह भी कैसा रिवाज है कि किसी के स्वस्थ अंगों को बिगाड़ दिया जाये ताकि उन में काम-इच्छा की कमी रहे और वे "नाजायज़" संबंधों से बची रह सकें और अपने कौमार्य को सहेज कर रख सकें । अमानवीय !!!!

और सुनिये, यह जो योनि-द्वार को संकरा करने की बात हुई उसे संभोग से पहले एवं शिशु के जन्म के समय काट कर खुला कर दिया जाता है और बाद में फिर टांक दिया जाता है जैसे कि औरत न हो गई --- कोई मशीन हो गई। और यह काटना और टांकना कईं कईं बार होने से महिलायों में कईं तरह के और भी रिस्क बढ़ जाते हैं।

केवल अफ्रीका में ही 10 साल एवं उस से ऊपर की उम्र की लगभग 9.2 करोड़ बच्चियों में यह विकृत करने वाला काम किया जा चुका है।

निःसंदेह महिलायों से भेदभाव (कितना छोटा शब्द लगता है इस घिनौने काम के लिए) की यह कितनी बड़ी उदाहरण है।

इस के बारे में लिखते मुझे ध्यान आ रहा था कुछ महीने पहले अंग्रेज़ी के एक अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट का जिस में बताया गया था कि किस तरह धनाढ्य़ वर्ग की कुछ महिलायों द्वारा vaginoplasty करवाई जा रही है, और बहुत सा पैसा खर्च कर के अपने वक्ष-स्थल को उन्नत (breast augmentation) करवाया जाता है। योनि पर उम्र के प्रभाव को खत्म करने के लिये या फिर शिशु के जन्म के बाद उसे पहले जैसी स्थिति में लाने के लिये vaginoplasty का सहारा लिया जाने लगा है।

कितना कंटरास्ट है ---एक तरफ़ पकी उम्र में vaginoplasty एवं breast augmentation की स्कीमें और दूसरी तरफ़ छोटी छोटी अबोध बच्चियों के अबोध अंगों को बिना किसी कसूर के कांट-फांट कर के बिगाड़ा जा रहा है। मुझे लग रहा है कि यह शब्द लिखना कांट-खांट कितना आसान है लेकिन जिन बच्चियों पर यह कहर ढहता होगा हम उन की मनोस्थिति की तो कल्पना भी कहां कर पाएंगे ?

मैं लगभग तीन दशकों से मैडीकल प्रोफैशन के साथ जुड़ा हूं लेकिन इस तरह की बात आज पहली बार सुनी है-----शायद आप भी पहली बार सुन रहे होंगे। क्या आप इस के बारे में ऐसा कुछ कर सकते हैं जिस से इस स्थिति में कुछ सुधार हो सके ----छोटी छोटी बच्चियां, युवतियां इस घिनौने रिवाज की शिकार होने से बच सकें। आमीन................क्यों बहुत बार दुआ भी बहुत काम करती है!!