शनिवार, 20 दिसंबर 2008

डायबिटिज़ के पैर में बिंदी लगाने से इतनी नाराज़गी !!

इस शनिवार की सुस्त सी शाम में निठल्ले बैठे बैठे गूगल सर्च के बारे में एक बात का ज्ञान हो गया है- इसलिये आगे से नेट पर हिंदी लिखने में और हिंदी में गूगल सर्च करते वक्त सावधानी बरता करूंगा। बस, मैंने ऐसे ही डाय़बिटिज के नाम से गूगल सर्च की - नोट करें कि जब मैं गूगल-सर्च के लिये डायबिटिज़ लिख रहा था तो गलती से मेरे से की जगह लिखा गया अर्थात् के पैर में बिंदी लग गई। फिर भी मैंने इस की परवाह की - सोचा कि इस से क्या फर्क़ पड़ेगा --- मैंने सर्च के बटन पर कर्सर ले जाकर सर्च दबा दिया।

मैं सर्च रिज़ल्टस देख कर बहुत हैरान हुआ ---गूगल सर्च ने कहा कि इस शब्द के लिये कोई रिज़ल्टस ही नहीं हैं। मैंने ध्यान से देखा तो यही पाया की के पैर में बिंदी पड़ी हुई है - तो मैं समझ गया कि यहां भी इस बिंदी का ही पंगा है। मैंने तुरंत उसी तरह से दोबारा डायबिटिज़ लिखा जिस तरह से मैं आम तौर पर अपनी पोस्टों में लिखता हूं -- तो रिज़ल्ट्स में मेरी कुछ पोस्टें दिख गईं ( जो कि मैं देखने के लिये गूगल सर्च पर बिना वजह आवारागर्दी कर रहा था)

फिर उस के बाद मैंने एक और एक्पैरीमैंट करना चाहा --- मैं अब गूगल सर्च पर डायबिटीज़ लिखा ---अब भी रिज़ल्ट बदल गये। मेरी किसी पोस्ट में जहां पर मैंने डायबिटीज़ लिखा हुआ था, वह प्रकट हो गई।


मैं कुछ कुछ समझने लगा कि यह हिंदी के स्पैलिंग्ज़ की भी कितनी बड़ी भूमिका है नेट में ----कहीं भी बिंदी लगी या हटी, कहीं सिहारी की बिहारी बनी और कहीं भी आंचलिक पुट आया नहीं कि सर्च रिज़ल्ट्स ही बदल गये
मैं अब बैठा बैठा यही सोच रहा हूं कि आने वाले समय में यह नेट पर हिंदी एक सशक्त माध्यम बस अब बनने ही वाला है --मैं अधिकतर स्वास्थ्य विषयों पर ही लिख कर अपने अल्प-ज्ञान का दिखावा कर लेता हूं ( अधजल गगरी छलकत भारी !!) लेकिन मैं अकसर फीड-जिट में अकसर देख कर हैरान हो जाता हूं कि किस तरह के सीधे साधारण की-वर्ड्स लिख कर सेहत के किसी विषय के लिये गूगल सर्च की जा रही है।

हिंदी हिंदी हम पिछले साठ सालों से कह रहे हैं ----लेकिन अब हिंदी का दौर गया है --- यह हम सब प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। किसी भी शब्द को हिंदी में लिख कर गूगल-सर्च कीजिये और कुछ कुछ तो सर्च करने वाले के हाथ में लग ही जाता है। इस का कारण यही है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग इस हिंदी रूपी यज्ञ में दिन प्रतिदिन अपनी आहूतियां लगातार डालते जा रहे हैं जो भी किसी ज़रूरतमंद की सर्च -रिज़ल्ट के रूप में प्रकट होती हैं।

और मुझे लगने लगा है कि हिंदी नेट पर बढ़ भी रही है और वह भी इतने प्रजातांत्रिक स्टाइल में ---जब कोई भी व्यक्ति विश्व में हिंदी में कोई जानकारी ढूंढ रहा है तो उसे शुरू शुरू में स्पैलिंग्ज़ वगैरह की इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं ----शायद ज़रूरत नहीं , लेकिन ज़रूरत तब लगने लगेगी जब उसे वांछित जानकारी के लिये स्पैंलिंग्ज़ तो ठीक करने ही होंगे --- शायद इस से हम लोगों की हिंदी में भी सुधार होने लगा।

मैंने सोच रहा हूं कि इस देश में कहते हैं इतने कोस पर पानी और इतने कोस पर बोली बदल जाती है - तो फिर हम कुछ भी कर लें किसी भी टापिक को सर्च करते वक्त हमें इस तरह की थोड़ी परेशानियों से तो रू--रू होना ही पड़ेगा ---लेकिन क्या ये वास्तव में ही परेशानियां हैं ? आइये सोचते हैं।

जब हम लोग नेट पर लिख रहे होते हैं तो ----चलिये मैं अपनी ही बात करता हूं ---कईं बार कोई स्पैलिंग गल्त हो भी जाये तो ज़्यादा परवाह किये बिना आगे बढ़ जाते हैं ----लेकिन आज लग रहा है कि यह बात बिल्कुल ठीक नहीं है ---- अगल हम चाहते हैं कि सर्च रिज़ल्ट्स के माध्यम से हम लोगों तक पहुंच सकें तो यह संभव तभी होगा जब हम शुद्द लिख रहे हैं ----शुद्ध से मेरा मतलब वह वाली हिंदी नहीं जिसे देख कर, पढ़ कर, सुन कर एक आम हिंदोस्तानी डर जाता है --- उसे लगने लगता है कि यार, यह अपने बस की बात नहीं है।

इसलिये पढ़े-लिखे इंगलिश वर्ग को अगर हम लोग नेट के माध्यम से हिंदी से जोड़ना चाहते हैं तो हमें बोल चाल वाली हिंदी ही यहां भी लिखनी होगी ---बिल्कुल वही वाली हिंदी है जो हम लोग अपने घर में, अपनी गली-मुहल्ले में यूं ही किसी से बतियाते हुये इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल - 100% आम हिंदी ---- जिससे किसी को डर नहीं लगता --- बस, जो अपनी सी लगती है ऐसा करना इस लिये तो और भी ज़रूरी है क्योंकि यह पढ़ा लिखा वर्ग अपने मतलब की जानकारी ढूंढने के लिये इसी आम भाषा के की-वर्ड्स का ही इस्तेमाल करता है - ऐसा मैं सैंकड़ों बार नोटिस कर चुका हूं।

मैं भाषा का स्टूडैंट तो हूं नहीं --लेकिन फिर भी सोच रहा हूं कि क्या कुछ ऐसा भी होता है कि हिंदी में सब लोग वही शब्द इस्तेमाल करें जो बर्तनी के हिसाब से ठीक है -----बर्तनी शब्द भी मैं ब्लागिंग में कईं बार सुन चुका हूं, लेकिन इस का मुझे कुछ ज्ञान नहीं है। लेकिन अब लगने लगा है कि भाषा के सही शब्दों का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है ---वरना सब लोगों की लिखावट में अपने अपने क्षेत्र का हिंदी पुट होगा तो गूगल सर्च करने पर तो डाय़बिटिज़ से भी पेचीदा खिचड़ी पक जायेगी। अब इस बात पर तो हिंदी के धुरंधर लिक्खाड़ ही प्रकाश डाल सकते हैं।

अच्छा एक बात और भी करनी है ---- मुझे बहुत बार कहा गया कि हिंदी विकि पीडिया पर भी मैं स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर लेख लिखा करूं ---- मैं बहुत बार उस साइट पर भी गया ---- लेकिन दस-पंद्रह मिनट में ही सिर भारी होने की वजह से वापिस लौट आता था ---कारण ? --- अब कारण क्या बताऊं , वहां पर लिखी हुई हिंदी किसी दूसरे लोक की दिखती है ---शायद अपनी सी नहीं लगती --- उस साइट पर घूमने से लगता है कि यह तो बस बुद्धिजीवियों का जमावड़ा है जहां पर वे अपना ज्ञान केवल अपने आप में ही बांटे जा रहे हैं --- अगर मेरा उस साइट पर इतनी बार जाने के बाद यही हाल है तो एक हिंदी का औसत नेट-यूज़र जब हिंदी विकिपीडिया पर जायेगा , वह तो तुरंत ही वहां से भाग खड़ा होगा। इसलिये इस हिंदी वीकिया में लिखने वाले को यही सुझाव है कि हिंदी का स्तर थोड़ा घटाओ ---- सब तरह के लोग वहां पर कुछ ढूंढने रहे हैं , इसलिये सब का ध्यान रखो, भाईयो।

वैसे मुझे एक तरीका दिखा ---मैंने दो तीन दिन पहले पेपर में पढ़ा कि विकिपीडिया ने मद्रास में एक विकि एकेडमी शुरू की है ---तो मैं अंग्रेज़ी की विकिपीडिया पर गया तो वहां पर सारी हिदायतें आराम से समझ में जाती हैं ---तो मेरा सुझाव यह है कि अगर आप में से भी कुछ लोग हिंदी वीकिपीडिया पर अपना योगदान देना चाहते हैं लेकिन वहां पर लिखे निर्देश हिंदी में समझ नहीं पाते हैं तो अंग्रेज़ी वीकिपीडिया में उन्हें देख कर हिंदी में लिखना शुरू कर दीजिये।

बस, अब इतना लिखने के बाद सुस्ती गायब सी हो गई है -- पता नहीं एक ही शब्द को सैकंड़ों हिंदी भाषी अपने अपने अंदाज़ में कितने कितने अलग ढंग से लिखते होंगे -- ऐसी ही एक उदाहरण डायबिटिज़, डाय़बिटिज़, डायबिटीज़ की आप ने देख ली ----वैसे आप भी कुछ शब्द लिख कर गूगल सर्च कर कुछ एक्सपैरीमेंट क्यों नहीं करते ?

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

हर कागज़ बहुत कुछ कह देता है –

इस समय मेरे सामने एक दिल्ली के बहुत ही मशहूर मैडीकल विशेषज्ञ का पर्चा पड़ा हुआ है --- यह एक A-4साइज के पर्चे का फोटोस्टैट है जिसे मैंने अपने एक मरीज़ से मांग लिया था। मैंने भी इस तरह का पर्चा लाइफ़ में पहली बार ही देखा था--- आप भी सोच रहे होंगे कि ऐसी भी क्या मरीज़ को बीमारी थी कि मुझे उस में इतनी दिलचस्पी हुई कि मैंने उस की फोटोस्टैट ही अपने पास रख ली। लेकिन बात दरअसल मरीज़ की बीमारी की नहीं थी – यह तो बात ही कुछ और थी ।

हां तो उस पर्चे की खासियत यह थी कि उस के फ्रंट का लगभग 75 फीसदी हिस्सा ( शायद यह 70 फीसदी हो सकता है, लेकिन इस से कम तो कतई नहीं !!)- तो पद्मश्री एवं पद्मविभूषण डाक्टर साहब ने ही घेर रखा था – इस में डाक्टर साहब के बारे में पूरी सूचना छपी हुई थी --- तीन चार पंक्तियों में डिग्रीयां, और फिर 25-30 लाइनों में उन जगहों के नाम लिखे हुये थे जहां पर उन्होंने पहले काम किया है –अगली सात-आठ लाइनों में अवार्ड्स की चर्चा थी, फिर था Please note का शीर्षक था जिन ने 10-15 लाइनें घेर रखी थीं जिन में कुछ पंक्तियों में यह लिखा था –
Home visits Not undertaken मरीज़ को घर देखने नहीं जाया जायेगा।
Punctuality is not assured समय के अनुपालन का कोई वायदा नहीं है।
Appointments can be cancelled at short notice. अपवायंटमैंट को किसी भी समय रद्द किया जा सकता है।

अगली 10-15 लाइनों में लिखा हुआ है कि डाक्टर साहब के पास किस किस संस्था की फैलोशिप है- और आगे बारी आती है उन संस्थाओं के नाम की जिन के लाइफ-मैंबरशिप डाक्टर साहब ने ले रखी है। यह तो हो गया, उस पेज का पचास प्रतिशत हिस्सा ।

शेष 25 फीसदी हिस्सा उन सभी क्लीनिकों के बारे में बता रहा होता है जहां जहां डाक्टर बाबू जाया करते हैं।
बस, यार मेरा सिर दुखने लग गया है इतनी बारीक जानकारी पढ़ते पढ़ते --- लेकिन चलिये उन के पैड की पिछली साइड को भी देख लें --- उस का लगभग 30 फीसदी हिस्सा भी कुछ हिदायतें देता है और मरीज़ों को यह कह कर भी डराता है कि किसी किस्म की ज़िम्मेदारी नहीं होगी ----बिल्कुल वैसा लग रहा है जैसा हिंदी के अखबार में विज्ञापनों के बीचों बीच एक नोटिस रहता है कि विज्ञापनों के बारे में हमारी कोई जिम्मेदारी है नहीं – और हां, उसी पेज़ पर एक विस्तृत नक्शा भी बना हुआ है कि किस तरह इन डाक्टर महोदय के पास पहुंचा जा सकता है। चलिये, मरीज़ की सहूलियत के लिये यह भी ठीक है लेकिन उसे देख कर किसी शादी के कार्ड पर किसी बारात-घर तक पहुंचने का नक्शा ज़रूर ध्यान में आ गया।

जिस मरीज़ का यह पर्चा था ( वह खुदा को प्यारा हो चुका है – मुझे उसे देख कर बहुत खुशी होती थी – अस्सी के आस पास था लेकिन एकदम फिट एंड फाइन दिखता था – मैं उस को अकसर कहा करता था कि आप तो बिल्कुल रिटायर्ड जज दिखते हो- वह बहुत हंसता था। एक बार मैंने उसे कहा कि अब की बार दिल्ली जब अपने डाक्टर को मिलने जाओगे तो उस से यह भी पूछ कर आना कि क्या उन्होंने हार्ट की बीमारी से बचाव के कोई पैंफलैट छपवाये हुये हैं तो उस ने मुझे कहा कि डाक्टर साहब, मैं कोशिश करूंगा ---क्योंकि सभी मरीज़ उस से बहुत डरते हैं ----उस के साथ केवल मतलब की एक-दो बात ही करनी होती है, वरना वह बहुत भड़क जाता है । उस के बाद मैंने उस डाक्टर के बारे में उस से कोई बात ही कभी नहीं की, बस यह उस का यह नुस्खा मेरे पास धड़ा-पड़ा है, और शायद मैं किसी डाक्टर का इतना रोचक पैड फिर कभी देख न पाऊं।

यह तो हो गई उस दिल्ली वाले डाक्टर की और मेरे मरीज़ की राम-कहानी – लेकिन इस के माध्यम से मैं बात केवल इतनी ही रेखांकित करना चाह रहा हूं कि हर कागज़ बहुत कुछ कहता है ----इतना कुछ कि मैं शायद ब्यां करने में असमर्थ हूं – ऊपर उदाहरण तो आपने देख ही ली – लेकिन चलिये लिखावट की भी बात कर लेते हैं ----हम किसी को कोई चिट्ठी भेजते हैं तो हमारी लिखावट ही बहुत कुछ हमारे व्यक्तित्व के बारे में बता देती है।
यहां तक कि कागज़ किस किस्म है यह भी बहुत कुछ बता देता है कि लिखने वाला जिसे लिख रहा है उस की नज़रों में उस की क्या हैसियत है । याद आ गया ना कि प्रेमी-प्रेमिका किस तरह से खत लिखने के लिये नये नये राइटिंग पैड मार्कीट में ढूंढा करते हैं।

पेपर की क्वालिटी भी बहुत कुछ कहती है --- जहां पर हम लोग बिल्कुल लापरवाही से लिखते हैं हम कोई भी कागज़ इस्तेमाल कर लेते हैं, वरना हम लोग कागज़ के बारे में बहुत सचेत होते हैं ।

किसी शादी के कार्ड की प्रिंटिंग, उस का पेपर भी बहुत कुछ बोलता है और हां, तरह तरह के विजिटिंग कार्ड भी अपने मालिक के बारे में कितना कुछ कह जाते है।

बात केवल इतनी सी है कि हमारा लैटर पैड, हमारे हाथ का लिखा खत, हमारा विज़िटिंग कार्ड, हमारे द्वारा भेजा किसी को आमंत्रण, आदि कुछ ऐसे दस्तावेज़ हैं जो कि हमारे ब्रांड- अम्बैसेडर हैं ----लेकिन अकसर लोग इन को इतनी गंभीरता से लेते नहीं – और कुछ भी चला लेते हैं ----लेकिन हमेशा याद रखिये कि हर कागज़ हमारे बारे में बहुत कुछ बोलता है ---- ठीक उस गाने की तरह जिस के बोल हैं -----लाख छिपाओ छुप न सकेगा , राज़ यह दिल का गहरा, दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा।

वैसा पता नहीं ऐसा करना चाहिये कि नहीं, लेकिन मैं इन छोटे छोटे कागज़ी कलपुर्ज़ों के आधार पर ही किसी भी आदमी का थोड़ा बहुत चरित्र-चित्रण कर लेता हूं --- वैसे मुझे खुद पता नहीं कि मैंने आज इतनी बड़ी ढींग कैसे हांक दी है !!

रविवार, 14 दिसंबर 2008

स्कूल में मूंगफली खाने पर प्रतिबंध कितना उचित ?

सोचने की बात है कि ब्रिटेन में अगर स्कूल में मूंगफली खाने पर भी बैन लग जायेगा तो देर-सवेर उस का प्रभाव कहीं हमारे स्कूलों में भी तो नहीं देखने को मिलेगा ---क्योंकि हम लोग अकसर उन देशों की नकल करने में कभी भी पीछे रहते नहीं हैं।

हम लोग तो अकसर मूंगफली को गरीब के बादाम के नाम से जानते हैं – और यह प्रोटीन प्राप्त करने का एक बहुत उम्दा स्रोत है और लगभग 25-30 प्रतिशत प्रोटीन होता है मूंगफली में। और हमारे देश में तो धूप में बैठ कर इस का सेवन करने से तो मज़ा ही बहुत आता है। स्कूल क्या , यहां तो सर्दी की रुत में बस जहां देखो मूंगफली खाते लोग मिलते हैं --- पार्क में, गाड़ी में, सिनेमा में .....।

ब्रिटिश मैडीकल जर्नल के 12 दिसंबर के संस्करण में स्कूलों द्वारा अपने स्कूलों को मूंगफली रहित घोषित किये जाने के निर्णय की चर्चा की है। हुआ यह है कि मूंगफली एवं अन्य खाद्य पदार्थों से होने वाले एलर्जी के केस बढ़ रहे हैं , इसलिये स्कलों ने मूंगफली को बैन करने का ही निर्णय कर डाला है।

लेकिन विशेषज्ञों ने इस मुद्दे को उठाया है कि इस तरह से नट्स पर बैन लगाने से तो एक हिस्टीरिया सा ही पैदा हो जायेगा और जो बच्चे नान-एलर्जिक हैं उन का तो नट्स से एक्पोज़र ही नहीं हो पायेगा- हारवर्ड मैडीकल स्कूल के प्रोफैसर क्रिसटैकिस ने कहा है कि जो बच्चे छोटी उम्र में मूंगफली खाना शुरू कर देते हैं उन में पी-नट्स ( मूंगफली) से होने वाली एलर्जी के केस कम होते हैं।

इस तरह का जो हिस्टीरिया पैदा किया जा रहा है उस का एक उदाहरण देते हुये प्रोफैसर ने कहा है कि इस का आलम यह है कि 10 साल के बच्चों से भरी एक बस में जब मूंगफली का एक दाना नज़र आ गया तो सारी बस ही खाली कर दी गई।

अमेरिका में 33 लाख लोगों को नट्स से एलर्जी है – लेकिन फिर भी इन की वजह से किसी सीरियस रिएक्शन होने का अंदेशा बहुत कम है।

आप इन आंकड़ों से ज़्यादा परेशान न होइये, क्योंकि हमारे यहां यह समस्या लगती नहीं है और अगर है भी तो हम इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं देते, हमारे पहले ही से इतने ज़्यादा सेहत से संबंधित मुद्दे हैं कि इस मूंगफली वगैरह के बारे में कौन ज़्यादा सोच कर अपना समय खाली-पीली बर्बाद करे। वैसे भी हम लोगों ने कभी इस तरह की मूंगफली की एलर्जी से होने वाले केसों में बारे में सुना नहीं है ----या यूं कहें कि हमारे यहां पर न तो इस के बारे में अवेयरनैस ही है और न ही इस तरह की डॉयग्नोसिस के कोई साधन ही ज़्यादा प्रचलित हैं।

वैसे भी मुझे नहीं लगता है कि हम लोग किसी को मूंगफली खाने से मना करें और वे इसे खाना बंद कर दें ---- और सोचने की बात है कि आखिर हम लोग ऐसा करने को किसी को कहें ही क्यों, इस देश में बच्चों और बड़ों के लिये प्रोटीन पाने का एक बहुत ही बढ़िया स्रोत है यह मूंगफली ।

स्कूलों द्वारा मूंगफली बैन किये जाने की बात तो हो गई। कईं स्कूलों में तो जंक-फूड को भी बैन किया जा चुका है। अगर हमें किसी तरह की नकल ही करनी है तो यही करनी होगी कि देश के सारे स्कूलों में जंक-फूड पर पूरी तरह से बैन कर दिया जाये।

स्कूलों में उपलब्ध जंक-फूड( बर्गर, हाट-डाग, पेटीज़, समोसे, ब्रैड-पकोड़े, चिप्स, भुजिया, बिस्कुट, चामीन......ये सब जंक-फूड ही तो हैं ) .... बिस्कुट भी अगर एक-दो दूध चाय के साथ खा लिये जायें तो अलग बात है लेकिन अगर खाने की जगह पर पूरे पूरे पैकेट ही खाने का चलन है तो यह बेहद खतरनाक आदत है ---सेहत खराब करने का श्यूर-शॉट फार्मूला।

हर देश की अपनी राष्ट्रीय समस्यायें होती हैं ---मेरे विचार में इस देश की एक बहुत बड़ी विकट समस्या है कि यहां पर स्कूल-कालेज के बच्चे स्कूल में टिफिन ले जाना अपना अपमान समझने लगे हैं और कुछ हद तक जाने-अनजाने में इस को मां-बाप की स्वीकृति भी प्राप्त हो चली है। किसी पेरेन्ट को यह पूछो कि क्या बच्चा स्कूल या कालेज में खाना लेकर जाता है तो यही जवाब मिलता है कि आजकल बच्चे कहां खाना वाना लेकर जाते हैं ,वहां पर कैंटीन में ही कुछ खा लेते हैं , सब कुछ मिलता है।

ठीक है, सब कुछ मिलता तो है, लेकिन सब जंक ही मिलता है, फूड-हाइजीन का कोई ध्यान रखा नहीं जाता और नतीजा यह निकलता है कि इन बच्चों को भविष्य में होने वाली बीमारियों की नींव पड़नी शुरू हो जाती है। सुबह बच्चे जल्द बाजी में नाश्ता करते नहीं है, और स्कूल में लंच ले कर जाने से उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती है, और शाम तक भूखे-प्यासे क्लास में बैठे रहते हैं ----इस हालत में इन की क्या कंसैंट्रेशन बनती होगी !!
और जंक-फूड थोड़ा खा भी लिया तो उस से किसी तरह की एनर्जी मिलने के स्थान पर एनर्जी का ह्रास ही होता है और इस परिस्थिति में ढंग से पढ़ाई में मन लगाना बेहद मुश्किल काम होता है। मैं उस से बड़ा मूर्ख किसी को नहीं समझता जो स्कूल-कालेज में टिफिन नहीं ले कर जाता --- और जो मां-बाप भी इस में बच्चों का साथ देते हैं मुझे उन से भी बेहद शिकायत है ---क्योंकि आप भी अपने बच्चों की सेहत बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं ----वैसे तो मैं भी इस में शामिल हूं ---- क्योंकि मेरा कालिजेएट बेटा भी टिफिन लेकर जाना अपनी सब से बड़ी बेइज्जती समझता है ----और मैं इस के बारे में कुछ कर नहीं पा रहा हूं ---बस, इतना इत्मीनान है कि डाक्टर मां-बाप होने की वजह से जंक-फूड के बारे में उस की इतनी ज़्यादा ब्रेन-वाशिंग हो चुकी है कि कालेज में जंक-फूड खाता नहीं है। लेकिन सोचता हूं कि यह भी कैसा इत्मीनान है --- सुबह नाश्ते करने के बाद शाम के पांच बजे तक भूखा रह कर वह अपनी सेहत ही बिगाड़ रहा है, लेकिन क्या करें ---- सब कुछ अपने हाथ में कहां होता है ? –जो देश के अन्य करोड़ों युवाओं का होगा, वह उस का भी हो जायेगा, और क्या !!

स्कूल ही क्यों, किसी भी कार्यालय में चले जायें -----किसी भी समय पर चाय के साथ जो जो खाद्य़ पदार्थ वहां पर उपलब्ध रहते हैं --- उन की लिस्ट सुनिये ----बर्फी, बेसन की बर्फी, समोसे, ब्रेड-पकोड़े, चामीन, पकौड़े( भजिया), रसगुल्ले, गुलाब-जामुन – ऐसा नहीं लगता कि वे किसी कार्य-स्थल पर नहीं वरना किसी बारात में आये हुये हैं -----वहां पर मिलने वाला सब कुछ शरीर को बीमार करने वाला ही है, लेकिन सुनता कौन है , इस का यह मतलब भी तो नहीं कि मैं चिल्लाना बंद कर दूं ----मुझे अपना काम तो करना ही है !!

और हां, मूंगफली वाली बात को एक कान से अगर अंदर डाल भी लिया है तो दूसरे से तुरंत निकाल बाहर करें -----धूप निकल आई है और मूंगफली लेकर कर बाहर बैठ जायें -----सारी बातें औरों की मान लेनी कहां की अकलमंदी है !! अगर बैन ही करना है तो स्कूलों से जंक फूड का खात्मा करें ----ताकि सब विद्यार्थी घर का खाना लाने के लिये मजबूर हो जायें ---फिर किसी को किसी तरह की बेइज़्जती महसूस भी न होगी।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

क्या आप भी नईं दवाईयों से ज़्यादा इंप्रैस होते हैं ? -----लेकिन थोड़ा संभल कर !!

जिस तरह से नईं दवाईयों को अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा थोड़ी जल्दबाजी में मान्यता ( अपरूवल) रूपी हरी झंडी कभी कभार दिखा दी जाती है और उस के तुरंत बाद संबंधित कंपनियों के द्वारा जितने अत्यंत आधुनिक तरीकों के द्वारा इन दवाईयों की मार्केटिंग की तूफ़ानी मुहिम चलाई जाती है उसे देखते हुये यह आवाज़ भी उठनी शुरू हो गई है कि इस से काफ़ी मरीज़ों को उनके खतरनाक दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। बेहतर होगा कि इन्हीं अत्य-आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल मरीजों को इन दुष्परिणामों से बचाने के लिये भी किया जाए।
यूनिवर्सिटी ऑफ कॉलोरेडो- हैल्थ साईंसिस सेंटर के डा डेविड काओ के अनुसार अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के नये तौर-तरीकों ( procedures) की वजह से कुछ दवाईयों को हरी झंडी दिखाने में जल्दबाजी दिखाई गई है।

एक उदाहरण के तौर पर बताया गया कि किस तरह से सूजन के इलाज के लिये इस्तेमाल की जाने वाली एक कंपनी की दवाई रोफीकाक्सिब ( anti-inflammatory drug Rofecoxib) को दी गई मंज़ूरी को 2004 में दो करोड़ मरीज़ों पर टैस्ट करने के उपरांत वापिस इस लिये लेना पड़ा क्योंकि उस दवाई के हार्ट पर बुरे असर देखने को मिलने लगे।

ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में डा काओ ने लिखा है कि जब से 1992 प्रेसक्रिपशन ड्रग यूजर फीस एक्ट के अंतर्गत कंपनियों द्वारा फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को अपरूवल में जल्दी करने को कहा जाता है ---तब से ही किसी नई दवाई का रिव्यू करने हेतु ( time needed to review a new drug) एफडीआई द्वारा जो समय लिया जाता था उस में अच्छी खासी कमी आई है --- 1979-86 तक यह अवधि 33.6महीने हुआ करती थी लेकिन 1992-2002 के दौरान यह घट कर 16 महीने रह गई है।

सोचने की बात यही है कि अगर ऐसा हो रहा है तो आखिर यह किस के हित में है ?

एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि दवा कंपनियों से जो इस तरह की फीस वसूली जाती है इस से जितनी रकम जमा होती है यह एफडीआई के ड्रग टैस्टिंग बजट का लगभग आधा हिस्सा ( 43%) इसी रकम से ही जमा हो पाता है। और ब्रिटेन में तो इस तरह का काम कर रही सरकारी एजेंसी के 75%फंड इसी तरह की फीस से जमा होते हैं।

क्या आप को लगता है कि यह दवाईयों की सेफ्टी के हक में है ?

होता अकसर यह है कि नईं दवाईयों को कुछ हज़ार लोगों पर टैस्ट किया जाता है ओर इन्हें अप्रूवल की हरी झंडी मिल जाती है, लेकिन इन दवाईयों के ऐसे साइड-इफैक्ट्स जो इतने आम तौर पर दिखते नहीं हैं, इसलिये इन के बारे में पता तभी चलता है जब इन्हें बहुत से मरीज़ों पर इस्तेमाल किया जाता है – इसे पोस्ट-अप्रूवल सरवेलेंस( post-approval surveillance) कहा जाता है --- कहने का मतलब यही कि किसी दवा को हरी झंडी तो मिल गई लेकिन जब उसे हज़ारों-लाखों लोग इस्तेमाल कर रहे हैं तो उन का उस के साथ कैसा अनुभव रहता है इन सब की निगरानी को ही post-approval surveillance कहा जाता है। अब देखने में यह आता है कि यही सरवेलेंस बडी कमज़ोर पड़ी हुई है।

डायबिटिज़ में इस्तेमाल होने वाली एक दवा सिटैगलिप्टिन को उस की खोज होने के बाद एफडीआई का अप्रूवल लेने में लगभग चार वर्ष( 3.8 वर्ष) लगे , उसी प्रकार सूजन के लिये नईं दवा राफीकोक्सिब ढूंढने के बाद उसे फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का अप्रूवल लेने में पांच साल लगे जब कि 1990-99 के दौरान इस तरह की अप्रूवल लेने के लिये औसतन चौदह साल ( 14.2 वर्ष) से भी ज़्यादा का समय लग जाया करता था।

रिपोर्ट के अनुसार जैसे ही दवा सिटैगलिप्टिन को अप्रूवल मिला उस की जबरदस्त मार्केटिंग तुरंत ही शुरू हो गई – अप्रूवल मिलने के 90 मिनट के अंदर इस दवा की वेबसाइट शुरू हो गई और अगले आठ दिनों में जितने डाक्टरों को इस से अवगत करवाया जाना था उन में से 70 प्रतिशत डाक्टरों को कवर भी कर लिया गया और फार्मेसियों को इस की पहली डिलीवरी भी कर दी गई। डा. काओ का कहना है कि इस का यह मतलब नहीं है कि इस दवाई से मरीज़ों को खतरा है ---लेकिन यह तो एक जबरदस्त तूफ़ानी मार्केटिंग की एक उदाहरण है और विशेष बात यही है कि पोस्ट-अप्रूवल सरवेलेंस के लिये भी इन आधुनिक मार्केटिंग तकनीकों को इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
शिक्षा ----- तो इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है , देखते हैं !!

जब हम लोग मैडीकल कॉलेज में पढ़ा करते थे तो अपने बहुत सीनियर डाक्टरों के पर्चे देख कर बहुत हैरान हुआ करते थे ---अधिकांश तौर पर बस हम लोग यही सोचा करते थे कि जितना पुराना डाक्टर उतना ही पुराना उस का नुस्खा। कईं बार शायद हम लोगों के मन में यह भी विचार आ जाया करता था कि फलां फलां सीनियर डाक्टर को तो बस पुरानी दवाईयों के ही नाम याद हैं। और हमारा ज़माना जब आया हाउस-जाब का तो अकसर जिस कंपनी का मैडीकल –रैप कुछ पैड-पैन या कोई कैलेंडर या कोई बढ़िया सा छल्ला दे जाता था, दो चार नईं नईं दवा के सैंपल टेबल पर रख जाया करता था , हम अकसर उन दिनों उन नईं दवाईयों से बहुत इंप्रैस हो जाया करते थे। और शायद अगले दो-चार दिनों तक उस की दवाई की कुछ पर्चियां भी लिख देते थे। कईं बार तो अगर कोई मरीज़ थोड़ा बहुत नखरा करता था ( यह नखरा शब्द भी बीस साल पहले ही हम लोग इस्तेमाल कभी कभी कर लिया करते थे -----अभी हम लोग भी कच्चे डाक्टर हुआ करते थे ) तो हम लोग उसे 18-20 रूपये वाली टेबलेट लिख दिया करते थे।

लेकिन फिर धीरे धीरे जब हम पकना शुरू होते हैं तो हमें हमारा अनुभव ही सब कुछ सिखाने लगता है ---जैसे कि मैं पिछले 25 सालों से दांत के एबसैस के लिये केवल और केवल शायद 99 प्रतिशत केसों में कैप्सूल अमोक्सीसिलिन और साथ में सूजन और दर्द के लिये आइबूब्रूफन और पैरासिटामोल ही लिखता हूं और मेरे 95 प्रतिशत मरीज़ों की पस इसी से सूखती है और मैं आगे उन का इलाज कर पाता हूं ----अब इन पच्चीस सालों में इतने हायर ऐंटीबायोटिक्स आये, इतने नये नये दर्द निवारक टेबलेट और सूजन को कम करने वाले साल्ट आये लेकिन मैंने कभी इन को आज़माने का ज़रूरत इसलिये नहीं समझी क्योंकि मैं अपनी दोनों दवाईयों से बेहद संतुष्ट हूं ---मरीज ठीक होते हैं और साइड-इफैक्ट्स भी बेहद कम !!

हां, तो इस लेख से मिलने वाली शिक्षा की बात हो रही थी ----वह यही है कि कभी भी यह मत सोचा करें कि नईं दवाईयां हैं तो वे पुरानी तकलीफ़ों के लिये वरदान हैं-----हो सकता है कि ऐसा न हो, कंपनियों ने तो अपना राग अलापना ही है लेकिन जैसा कि हमने ऊपर लेख में देखा कि कुछ नईं दवाईयां अभी केवल हज़ारों या लाखों लोगों ने ही इस्तेमाल की होती हैं , इसलिये इन की सेफ्टी प्रोफाइल इतनी क्लियर नहीं हो पाती। इसलिये ज़रा बच कर चलने में ही बचाव है।

अगर आप का ब्लड-प्रैशर किसी ऐसी टेबलेट से कंट्रोल में है जो कि आप बीस साल से ले रहे हैं या आप की शूगर किसी बहुत पुरानी दवा से कंट्रोल में है तो ठीक है , तो नईं नईं दवाईयों के चक्कर में क्या पडना। हां, कईं बार कुछ मैडीकल कारण हो सकते हैं आप की पुरानी दवा को चेंज करके या उस के साथ साथ कोई नया साल्ट शुरू करने के---लेकिन अच्छे मरीज़ की तरह कृपया आप कभी भी अपने चिकित्सक को किसी नईं दवा का नाम लेकर यह मत कहें कि क्या वह मेरे लिये ठीक रहेगी -----इस से डाक्टरों को बड़ी चिड़ मचती है ---- तो, जब अपने आप को चिकित्सक को सौंप ही दिया तो वह वही करेगा जो हमारे हित में होगा।

रविवार, 7 दिसंबर 2008

धूप सेंकते हो तो बचे रहोगे हार्ट-अटैक से !!

मुझे यह जान कर बेहद हैरत हुई कि अमेरिका जैसे देश की भी लगभग आधी व्यस्क जनसंख्या और लगभग 30 प्रतिशत बच्चे एवं किशोर विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त है। बहुत अरसे से देख रहा हूं कि विटामिन-डी के स्वास्थ्य पर होने वाले अच्छे प्रभावों के बारे में बहुत काम हो रहा है।

लेकिन यूं भी लगने लगा है कि हम ने अपनी सेहत की शायद ज़रूरत से ज़्यादा ही कंपार्टमैंटलाइज़ेशन कर डाली है। आज दोपहर बाज़ार से आ रहा था तो एक गाजर जूस वाले ने बड़ा सा बोर्ड लगा रखा था --- आंखों के लिये लाभदायक !!--- समझने की यह बात है कि यह गाजर का जूस केवल आंखों के लिये ही लाभदायक है --- इस तरह के मैसेज जब लोगों को मिलते हैं तो वे तरह तरह की बेबुनियाद अपेक्षायें करने लग जाते हैं ---जैसे कि इसे पीने से मेरी बेटी का चश्मा उतर जायेगा, शायद मेरा मोतिया बिंद अपने आप ही बिना आप्रेशन के ही ठीक हो जायेगा, .....और भी तरह तरह की अपेक्षायें।

तो क्या यह मान लें कि यह सब कुछ गाजर का जूस पीने से नहीं होगा ---- मेरे ख्याल में तो नहीं ----हां , अगर विटामिन ए की कमी की वजह से आंखों में कुछ तकलीफ़ है तो उस में ज़रूर राहत मिल सकती है लेकिन उस के लिये भी केवल जूस कुछ नहीं करेगा --- साथ में दवाईयां तो लेनी ही होंगी। बिल्कुल ठीक उसी तरह जिस तरह खून की कमी (अनीमिया) में केवल महंगा अनार का जूस पी लेने से कुछ नहीं होगा ---इलाज के लिये ऑयरन की गोलियां तो लेनी ही होंगी।

तो क्या गाजर जूस पीयें ही नहीं ? --- नहीं, नहीं , आप अवश्य पीयें और जितना चाहें पियें ----क्यों कि तरह तरह के जूस तो हमारे शरीर के लिये अमृत का काम करते हैं ---- सब से हैरतअंगेज़ बात यह है कि इन जूसों में कुछ इस तरह के विचित्र तत्व भी मौजूद होते हैं जिन का तो अभी तक वैज्ञानिक भी विश्लेषण नहीं कर पाये हैं।

बस, बात केवल इतनी सी है कि जहां तक हो सके होलिस्टिक ( holistic) अप्रोच अपनायें ----सारा दिन यह हिसाब रखना कि यह आँख के लिये बढ़िया है ,यह गुर्दे के लिये, यह हार्ट के लिये -----अच्छा खासा मुश्किल काम है ---- केवल और केवल इतना ध्यान रखना होगा कि हमारा खाना संतुलित हो और सादा हो ---इस संतुलित खाने के द्वारा हमें सब कुछ ही प्राप्त हो जाता है ।

वापिस अमेरिकी लोगों में विटामिन-डी की कमी की तरफ़ लौटते हैं --- मेरा विचार यह है कि वहां पर लोग विभिन्न कारणों की वजह से सूर्य की रोशनी से वंचित रह जाते हैं -----मैंने सुना है कि कईं कईं जगह तो कितने कितने दिन धूप ही नहीं निकलती – और जहां धूप होती भी है कि सफेद स्किन वाले अमेरिकी तरह तरह के सन-स्क्रीन लोशन लगा कर के बाहर निकलते हैं ---- शायद वहां तो धूप का इस्तेमाल टैनिंग ( सफेद स्किन को धूप में लेट कर थोड़ा ब्राउन सा करना) के लिये ही इस्तेमाल होता है। और यह भी कारण होगा कि गगनचुंबी इमारतों में सारा दिन बिताने वाले लोगों तक कहां सूर्य की इतनी रोशनी पहुंच पाती होगी।

नईं रिसर्च से पता चला है कि विटामिन-डी की कमी से हार्ट अटैक एवं स्ट्रोक ( दिमाग की नस फटना) का खतरा बढ़ जाता है। वैसे तो पहले भी बहुत से अध्ययनों से इस बात का पता चल चुका है कि विटामिन-डी की कमी का हार्ट अटैक, ब्लड-प्रैशर, डायबिटीज़ और रक्त की नाड़ियों के सख्त होने से संबंध है।

जिस रिपोर्ट को मैंने आज पढ़ा है उस में लिखा गया है कि जिस व्यक्ति में विटामिन – डी का स्तर रक्त के एक मिलीलिटर में 15 नैनोग्राम से कम है उन लोगों में अगले दो वर्षों में हार्ट अटैक, स्ट्रोक और दिल की किसी बीमारी से जूझने का रिस्क उन लोगों की तुलना में दोगुना है जिन में यह स्तर 20 नैनोग्राम है।

लेकिन मेरी एक बात ज़रूर मानिये ----कृपया इस लेख को पढ़ कर अपने आप ही विटामिन-डी का स्तर चैक करवाने का मूड मत बना लीजिये ---कहीं ऐसा न हो कि मैं ही इस सेहत की कंपार्टमैंटाइज़ेशन को प्रमोट करता दिखूं। बस, विटामिन डी की उचित खुराक लेने के लिये क्या करना है , यह ध्यान रखिये ---इस के बारे में हम अभी चर्चा करते हैं।

विटामिन डी को सनशाइन विटामिन भी कहा जाता है अर्थात् सूर्य की रोशनी वाला विटामिन ----- क्योंकि हमारी चमड़ी सूर्य की रोशनी के प्रभाव में ही इस विटामिन डी को तैयार करती है। विशेषज्ञों का कहना है कि सुबह 10 से तीन बजे बजे के बीच केवल 10 मिनट की सूर्य की रोशनी सफेद चमड़ी वाले लोगों के लिये काफी है जब कि डार्क कलर की चमड़ी वाले लोगों को इस सूर्य की रोशनी की कुछ ज़्यादा मात्रा चाहिये होती है। सन-स्क्रीन लोशन से भी विटामिन डी पैदा करने में रूकावट पैदा होती है।

रिपोर्ट के अनुसार लोगों को सूर्य की रोशनी के लाभ एवं हानियों को बैलेंस कर लेना चाहिये--- इस में आगे कहा गया है कि बस थोड़ी बहुत सूर्य की रोशनी अच्छी है लेकिन अगर आप को 15 से तीस मिनट तक रोज़ाना सूर्य की रोशनी में रहना होता है तो चमड़ी के कैंसर से बचाव के लिये सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना महत्वपूर्ण है ।

कुछ खाद्य पदार्थ जैसे कि सालमान( salmon) और गहरे पानी वाली मछली ---( मैंने भी बस इस salmon का नाम ही सुन रखा है – डिक्शनरी में देख लेना कि यह है क्या ---मुझे लगता है कि कोई नॉन-वैज चीज़ ही होगी ----और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहरी !!!) और दूध जिस को विटामिन डी से सप्लीमैंट किया गया हो ।

यह स्टडी बाहर देश की है ना इसलिये हमारी जटिल परेशानियों से शायद ये लोग वाकिफ़ नहीं हैं ----- यहां तो भई दूध की विटामिन डी सप्लीमैंटेशन की क्या बात करें ----हमें तो यह ही नहीं पता कि हम लोग पी क्या रहे हैं ----क्या वह सही में दूध ही है या सिंथैटिक दूध है ? और साथ में रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हमें रोज़ाना जितना विटामिन डी चाहिये होता है अगर हम उसे केवल दूध से ही प्राप्त करना चाहें तो हमें दस से बीस गिलास दूध के पीने होंगे । और दोस्तो, ध्यान रहे ये 10-20 गिलास तो शुद्ध दूध की बात बाहर के देशों वालों ने कर दी और अगर हम सब कुछ मिलावटी खाने के लिये मजबूर हैं तो शायद हमें 40-50 गिलास तो दूध के पीने ही होंगे ----- क्या यह प्रैक्टीकल है ? लगता है कि दूध पीने के अलावा सब काम काज ही छोड़ देना होगा।

वैसे हमारी विटामिन डी की दैनिक आवश्यकता है ---पचास वर्ष की उम्र तक 200 इंटरनैशनल यूनिट्स, पचास से सत्तर वर्ष तक 400यूनिट्स तथा 70 वर्ष के ऊपर 600यूनिट्स । और रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्तर तक पहुंचने का एक रास्ता है कि विटामिन-डी का सप्लीमैंट ही ले लिया जाये। और इस के बेहद पुख्ता प्रमाण हैं कि विटामिन डी से हमारा स्वास्थ्य उत्तम होता है।

अब ज़रा हम लोग अपने यहां पर नज़र दौड़ायें ----मैं सोचता हूं कि जो लोग बड़े शहरों एवं महानगरों में रहते हैं और सूर्य की रोशनी का उन की लाइफ में कोई स्थान नहीं है, या यूं कह लें कि सनसाइन को वे अपनी लाइफ में फटकने तक नहीं देते ----तो कुछ तो उन्हें भी इस के बारे में सोचना होगा। अगर बिल्कुल ही यह सूर्य की रोशनी लाइफ में आ ही नहीं रही तो प्लीज़ अपने फ़िजिशियन से विटामिन-डी सप्लीमैंटेशन के बारे में बात करें ----बेहतर होगा।

सूर्य की रोशनी हमारे लिये कितनी लाभदायक है ---इस का एक उदाहरण देखिये। शायद आपने नोटिस किया हो कि कुछ लोग अपनी फुल बाजू की शर्ट हमेशा नीचे कर के रखते हैं ----मैंने कईं बार नोटिस किया है कि जब किसी कारण वश उन्हें अपनी शर्ट ऊपर करने को कहा जाता है तो उन की बाजू में सेहत नहीं झलकती ---बाजू बिलकुल पीली सी दिखती है लेकिन जिस व्यक्ति की बाजू नियमित धूप के प्रभाव में आती है उस की बाजू का थोडा भूरा रंग, उस की चमक ही अलग होगी । अन्य चीज़ों के साथ साथ यह सब विटामिन डी का ही कमाल है।

ठीक है अमीर मुल्कों ने इतने वैज्ञानिक टैस्ट करने के बाद यह अब बताना शुरू किया है कि विटामिन डी हमारी सेहत के लिये नितांत आवश्यक है लेकिन अपने यहां तो हज़ारों सालों से ही सूर्य नमस्कार करने की अद्भुत परंपरा रही है। और उस समय सूर्योदय के समय वाली सूर्य की किरणें हमारे शरीर के लिये बहुत उपयोगी होती हैं।

वैसे भी इस देश में लोग बहुत धूप सेंक लेते हैं ----- छोटे बच्चों के बिना कपड़े के धूप में लिटा कर उस की मालिश करने की बहुत अच्छी प्रथा है, मुझे ध्यान आ रहा है कि कभी कभी ज़्यादा ठंडी में हमारी क्लासें स्कूल की छत पर लगा करती थीं----बहुत अच्छा लगता है लेकिन पता नहीं हमारे मास्टर जी क्यों इतना डरे हुये हुआ करते थे, मज़ूदर और किसान धूप में ही काम करते रहते हैं -- - इन के लिये गर्मी क्या और सर्दी क्या--- इसलिये कुछ लोगों को तो अधिक धूप से बचने की ज़रूरत है क्योंकि वैसे भी प्रदूषण की वजह से जो ओज़ोन लेयर का सुरक्षा कवच पहले मौज़ूद था अब वह क्षीण हो चुका है और प्रतिदिन बदतर होता जा रहा है।

ध्यान कीजिये --- सुबह की रोशनी गर्मी के मौसम में हमारे लिये काफी है –सुबह से मतलब है सूर्य उदय होने के बाद जो ठंडी ठंड़ी रोशनी होती है ----और उस रोशनी को जहां तक संभव हो सके शरीर के ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सों पर सीधा पड़ने दें ----देखिये आप को कितना अच्छा महसूस होगा ----- कुछ समय पहले मैं गर्मी के दिनों में प्राणायाम् सूर्योदय के समय उसी दिशा की तरफ़ आसन लगा कर किया करता था ---आज सोच रहा हूं कि गर्मी के अगले मौसम में इसे फिर से शुरू करूंगा। गर्मी के मौसम में बाकी दिन तो हमें सूर्य की रोशनी से अपना बचाव करनी ही है ----टोपी से, छतड़ी से , गीले रूमाल से ...कैसे भी !!

मैं सोच रहा हूं कि जो आज कल की ठंडी में धूप का मज़ा लेते हैं उन्हें कुछ भी सलाह देने की क्या कोई ज़रूरत है -----है तो , और वह यही है कि ठीक है, आप लोग खूब कपड़े पहन कर धूप में लेटे तो रहते हो लेकिन थोड़ा यह भी ध्यान रखिये कि सूर्य की रोशनी में विटामिन डी को पैदा करने के लिये सूर्य की रोशनी हमारी चमड़ी पर 10-15 मिनट रोज़ाना पड़नी ही चाहिये ----सर्दी है तो भी आप मौसम के अनुसार अपनी दोनों कमीज की दोनों बाजू ऊपर चढ़ा लें, अगर संभव हो सके तो टांगों पर भी 10-15 मिनट तक सीधी धूप पड़ने दें। वैसे तो पहले लोग हर सप्ताह सर्दीयों में तेल मालिश करने के बाद धूप में 15-20 मिनट थोड़े कपड़े में बैठ जाया करते थे -----यह विटामिन डी वाली स्टडी पढ़ने के बाद आप का उन सब पुरानी बातों को शुरू करने के बारे में क्या ख्याल है, सोचियेगा।

सूर्य की रोशनी का हमारी लाइफ में इतना रोल है कि दो-चार दिन ही जब सूर्य देवता दर्शन नहीं देते हम कैसे डिप्रैस से फील करना शुरू कर देते हैं ---और जैसे ही सूर्य दिखता है हम सब के चेहरे खिल उठते हैं ---- यही कारण है कि विटामिन डी को सनशाइन विटामिन भी कह दिया जाता है।

प्लीज़ इस लेख में लिखी बातों की तरफ़ ध्यान दीजिये---विटामिन डी हमारे लिये बेहद लाज़मी है और ऐसा अकसर होता नहीं है कि हम केवल अपने खाने से ही इसे प्राप्त कर लें ----इसलिये सूर्य की रोशनी की तो अनमोल भूमिका है ही ---लेकिन अगर किसी कारण वश सूर्य की रोशनी आप के नसीब में है ही नहीं तो प्लीज़ अपने फिजिशियन से इस के रैगुलर सप्लीमैंटेशन के बारे में बात ज़रूर कर लें। वैसे मैं भी कल अपने फिज़िशियन से इस के बारे में बात करने वाला हूं।