शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

चिकन का लैग पीस या रैड-वाइन का एक अदद पैग !

चिकन की टांग को लैग पीस ही कहते हैं न, तो जापान में हुई एक रिसर्च का रिजल्ट निकला है कि लैग-पीस से ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होता है – चूहों पर हुई रिसर्च से पता चला है। यह स्टडी किसी मीट-पैकर्स संगठन द्वारा की गई थी।

अमेरिका में हुई एक और स्टडी बता रही है कि जो लोग रैड वाइन पीते हैं उन में फेफड़े के कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि यह फेफड़े कम होने का रिस्क उन लोगों में भी कम होता है जो स्मोकिंग कर रहे हैं और उन में भी जो पहले स्मोकिंग किया करते थे।

तो क्या अब समय आने वाला है कि डाक्टर लोग मरीजों को ब्लड-प्रैशर को काबू करने के लिये लैग-पीस के साथ साथ फेफड़ों के कैंसर के लिये रैड-वाइन पीने की हिदायत देने लगेंगे।

मुझे अफसोस है कि मुझे इस वाइन के बारे में कुछ भी पता वता नहीं है, यह रैड क्या है और व्हाइट वाइन क्या है, मुझे इस का बिल्कुल भी पता नहीं है।

लेकिन इन दोनों न्यूज़ को आप के साथ शेयर करने का केवल एक ही कारण था कि हम लोग इस बात का आभास कर सकें कि मैडीकल-राइटर का काम भी कितना चुनौतीपूर्ण है। अब इस तरह के चिकन के लैग-पीस या रैड-वाइन जैसी रिसर्चेज़ के रिजल्ट रोज़ाना एक मैडीकल-राइटर को दिखते रहते हैं। लेकिन किस तरह की रिसर्च के बारे में लिखा जाये और किस के बारे में चुप्पी साधी जाये, यह किसी मैडीकल-राइटर के सामने कोई बड़ा काम नहीं होता --- पहली बात तो यह है कि स्टडी किस स्टेज पर है , इस का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। अब अगर चिकन के लैग-पीस ने चूहों का ब्लड-प्रैशर कम कर भी दिया है तो क्या हुआ। जब ह्यूमन-ट्रायल्स होंगे तो देखा जायेगा.....वैसे भी ब्लड-प्रैशर जैसी लाइफ-स्टाइल बीमारी के लिये केवल यह लैग-पीस वाली बात गले से नीचे नहीं उतरती ।

अब फेफड़े के कैंसर से बचने के लिये कैसे लोग रैड-वाइन रोजाना पीनी शुरू कर दें......और वह भी बीड़ी-सिगरटे छोड़े बिना -----हमारा मसला तो है कि हम लोग इस देश में कैसे तंबाकू से अपना पीछा छुड़ा सकें।

इन उदाहरणों से यह तो हमने देख ही लिया कि इंटरनैशनल मीडिया में मैडीकल रिसर्च का क्या रूख है ----हमारे अपने देश में हमारे लोगों की स्वास्थ्य समस्यायें अलग हैं, हमारी परिस्थितियां, हमारा परिवेश तो बिल्कुल अलग है.....हमारी ही क्यों, सभी देशों की अपनी समस्यायें हैं, संसाधन सीमित हैं, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बेहद जटिल हैं जिन्हें दो जमा दो चार के साधारण जोड़ के जैसे सुलटाया नहीं जा सकता।

कुछ इस तरह की मैडीकल रिसर्च हमारे सामने आती है जिस से किसी स्पोंसरशिप अथवा किसी घिनौने संकीण स्वार्थ की सड़ी बास आती है। तो मैडीकल राइटर को इस से भी बच कर रहना होता है।

विश्वसनीयता --- credibility – एक बहुत बड़ी बात है, इसलिये मैडीकल राइटर को इस के बारे में बेहद अलर्ट रहना होता है क्योंकि बहुत से लोग आप के लिखे अनुसार चलना भी शुरू कर देते हैं।

देश में हिंदी में मैडीकल-राइटिंग करने के लिये ज्यादा से ज़्यादा डाक्टरों को आगे आना चाहिये ताकि हम लोगों तक उन की ही भाषा में ही बिल्कुल सादे, सटीक ढंग से जानकारी उपलब्ध करवा सकें। और लिखते समय हमें बस इतना ध्यान रखना होगा कि कैसे हम लोग कुछ इस तरह के जमीन से जुड़े विषयों पर लिखें जिसे पढ़ कर लोगों में प्रचलित भ्रांतियों का भांडा फूटे, लोग बस थोड़ा सा अपनी जीवन-शैली के बारे में सोचने लगें, कुछ भी खाने से पहले उस के बारे में सोच लें, व्यसनों से होने वाले खतरनाक परिणामों से लोगों को कुछ इस तरह से रू-ब-रू करवायें कि हमारे लोग तरह तरह के व्यसनों से डरने लगें।

बस और क्या है, इस लिये इस देश में मैडीकल-राइटर्ज़ का अपना एक एजैंडा है जैसा कि बच्चों के बारे में लिखें तो उन की आम तकलीफों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लिखें-----औरतों की आम शारीरिक समस्याओं के बारे में लिखे, कैंसर से रोकथाम की बातें करें.....लेकिन बातें सीधी-सीधी करें......ताकि लोग आसानी से हमारी कही हुई बात को अपने जीवन में उतारने का प्रयास तो कर सकें। लोगों की आम समस्याओं के बारे में लिखने को इतना कुछ है कि लगने लगा है कि यह काम तो पहाड़ जैसा है और हिंदी में मैडीकल-राइटिंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। शायद उस चीनी कहावत का ध्यान कर ही मन को सांत्वना देनी होगी----तीन हज़ार किलोमीटर के सफर के शुरूआत पहले कदम से ही होती है।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

कुछ बातें सेहत की ..

मुझे आज ही पता चला कि अमेरिका में लोग जितना पैसा अपने खाने पर खर्च करते हैं, उस का 95फीसदी हिस्सा वे प्रोसैसड फूड पर खर्च करते हैं। यह जानना मेरे लिये एक शॉक से कम न था। साथ ही में यह लिखा हुआ देख कर यह हैरत न हुई कि इसी की वजह से वहां पर आज की पीढ़ी पिछली पीढ़ी से कम जीती है।

परसों अमेरिका की सरकार की शारीरिक कसरत करने के बारे में सिफारिशें देखने का मौका मिला। उन की सिफारिश है कि हर व्यक्ति को हफ्ते में अढ़ाई घंटे शारीरिक परिश्रम करना चाहिये - रोजाना आधा घंटे, हफ्ते में पांच दिन और बच्चों के लिये कहा गया है कि उन का रोज़ाना एक घंटे अच्छी तरह से खेलना-कूदना निहायत ही ज़रूरी है। इसलिये अब बच्चों को भी टीवी या कंप्यूटर से जबरदस्ती उठा कर बाहर खेलने के लिये कहना होगा।

आपने सुना है न कि कईं बार बिलकुल छोटे बच्चे की सोते सोते ही मौत हो जाती है --इसे Sudden Infant Death Syndrome कहते हैं । वैज्ञानिकों ने इस की स्टडी करने के बाद पाया है कि अगर बच्चा किसी हवादार कमरे में सोया हुया है और जिस में मौसम के अनुसार पंखा चल रहा है तो इन छोटे नन्हे-मुन्नों को काफी हद तक अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया जा सकता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि बिल्कुल छोटे बच्चों को पेट के बल या साइड पोज़ में नहीं सुलाना चाहिये ----उन्हें पीठ के बल सुलाना चाहिये अर्थात् उन का मुंह छत की तऱफ़ होना चाहिये ( supine position) ---और न ही उन के मुंह को ढांप कर रखना चाहिये। होता क्या है कि इस Sudden Infant Death syndrome में बच्चा पेट के बल सोया पड़ा है, कमरे में हवा पूरी है नहीं, वैटीलेशन है नहीं तो ऐसे में उस के मुंह के पास बहुत मात्रा में कार्बन-डाई-आक्साईड गैसे जमा हो जाती है और जिसे बच्चे द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगता है जो ऐसे अनहोनी का सबब बन जाती है जिस से बचा जा सकता था।

बच्चों के अनीमिया के बारे में पिछली पोस्ट मैंने लिखी थी। लेकिन क्या केवल आयरन फोलिक एसिड की गोलियां खा कर ही ठीक हो जायेगा अनीमिया ---- बच्चों में अनीमिया ठीक करने के लिये हमें उस की डि-वर्मिंग ( de-worming) भी करनी होगी ---अर्थात् उसे डाक्टरी सलाह के अनुसार पेट के कीड़े मारने की दवा भी देनी होगी। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने देखा है कि जिन बच्चों में कीड़े नहीं होते उन में वैक्टीनेशन के परिणाम दूसरे बच्चों की बजाए बेहतर होते हैं ।और यह तो हम जानते ही हैं कि पेट में कीड़े बच्चे के अनीमिया को कैसे ठीक होने देंगे !!

डि-वर्मिंग के साथ-साथ हमें बच्चे को विटामिन-ए सप्लीमैंटेशन देना भी बेहद ज़रूरी है ....बच्चों को विटामिन -ए सप्लीमैंटेशन देने का भी अपना एक शैड्यूल है । ठीक है, अगर आपने नहीं दिया तो आज ही बाल-रोग विशेषज्ञ से बात करें और उसे विटामिन-ए सप्लीमैंट्स दें। यह उस के शरीर में विटामिन ए का रिज़र्व स्टाक तैयार करने के लिये एवं उस के नार्मल विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। देश में तो कुछ बच्चों में रतौंधी रोग ( रात में दिखाई न देना) होने का कारण ही यह विटामिन ए की घोर कमी होती है। वैसे भी बच्चे आज कल जो खा-पी रहे हैं और जो खा भी रहे हैं वह कितना शुद्ध है, कितना मिलावटी -----तो इस हालात में तो बच्चों को ये सप्लीमैंट्स देने बहुत ही ज़रूरी हैं।


अभी मैं जब कीडे़ मारने के दवा का ज़िक्र कर रहा था तो मुझे आज सुबह के पेपर में पढ़ी एक बेहद दुःखद घटना का ध्यान आ गया ....चूहे मारने की दवा तो आप को पता ही है कि कितनी आसानी से मिल जाती है । तो बंबई की एक इमारत में एक परिवार जो कि ग्राउंड फ्लोर पर रहता था वह चूहों से बेहद परेशान था। इसलिये ब्रेड पर अकसर चूहे मारने वाली दवाई लगा कर किचन में रख देते थे। एक दो पहले भी यही हुआ । लेकिन अचानक उन का प्लस दो कक्षा में पढ़ रहा बेटा बाहर से आया जिसे बहुत भूख लगी हुई थी और जिस ने तुरंत वह ब्रेड-पीस खा लिया। उसे तुरंत उल्टियां शुरू हो गईं और हस्पताल पहुंचने तक बेचारे की मौत हो गई। बेहद दुःखद समाचार।

मैंने देखा है कि अकसर लोग ऐसे काम रात को सोने से पहले करते हैं ---और घर में सब को थोड़ा पहले से बता कर रखते हैं। लेकिन लगता है कि वो जो पहले रैट-ट्रैप हुया करते थे ....वे भी ठीक ही थे ....वो बात अलग है कि चूहा अब आप की रसोई में ना रह कर चार बिल्डिंग दूर किसी दूसरे के सिर का दर्द बनेगा। लेकिन मुझे याद है कि जब हम छोटे थे तो किसी रैट-ट्रैप में पकड़े चूहे को साईकिल पर सवार हो कर किसी दूर जगह छोड़ने जाने का काम भी अच्छा खासा रोमांचक हुआ करता था। साथ में कुछ यार-दोस्त मिल कर इस काम को और भी रोमांचक बना दिया करते थे। और उस रैट-ट्रैप की यही खासियत हुआ करती थी कि उस में चूहा मरता नहीं था, केवल उस के अंदर बंद हो जाया करता था जिसे इस मौह्लले वाले उस मौहल्ले में और उस मौह्लले वाले इस मौह्लले की नाली या थोडी़ खाली पड़ी जगह में छोड़ कर बिना वजह निश्चिंत से हो लिया करते थे ....चाहे आज सोचूं तो इस निश्चिंता की कोई खास वजह तो जान पड़ती नहीं ...क्यों कि चूहों की गिनती तो उतनी की उतनी ही रही। वैसे एक बात है कि अगर गल्ती से (?) या जान-बूझ कर चूहा उस रैट-ट्रैप से रिहा कर अपने ही गली-मोह्लले के किसी घर में घुस जाता था तो लड़ने-लड़ाने की नौबत आती भी देखी है।

उस के बाद आये ऐसे रैट-ट्रैप जिस जो देखने में तो छोटे थे ....लेकिन थे बहुत नृशंस ....यानि कि चूहा उन के अंदर कैद तो हो ही जाता था और साथ में एक कील उस के शरीर में घुस जाया करता था जिस की वजह से उस की मौत हो जाया करती थी और लोग किसी तरह का चांस न लेने की मंशा से आटे की गोली के साथ रैट-प्वाईज़न तो लगा ही देते थे । और फिर उस मृत प्राणी को घर के बाहर की नाली में फैंक दिया जाता था। सोच रहा हूं कि समय के साथ साथ हम लोग भी कितने क्रूर हो गये हैं।

लेकिन जो भी हो, जब बंबई जैसा हादसा ,जैसा उस 17 साल के लड़के के साथ हुआ, कभी कभार हो जाता है तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं किया जा सकता। लेकिन ये हादसे ........पंजाब में तीन-चार पहले हुये एक हादसे की याद हरी हो गई। एक मजदूर के पांच-छः छोटे छोटे बच्चे अपनी मां के साथ मस्ती करने में मशगूल थे और वह खाना बना रही थी। इतने में उसे चंद लम्हों के लिये कमरे से बाहर जाना पड़ा ---बच्चों को मस्ती सूझी, बड़ा ट्रंक साथ ही खुला पड़ा हुया था...वे सारे के सारे --एक को छोड़ कर जो इतना छोटा था कि अंदर नहीं जा सकता था ...उस ट्रंक के अंदर घुस गये और तभी अचानक ट्रंक का दरवाजा हो गया बंद और उन के वह खुल नहीं पाया। मां अंदर आई..बच्चों को ढूंढने लगी ...लेकिन जब तक वह कुछ समझ पाई बहुत देर हो चुकी थी और सभी बच्चों का दम घुट चुका था ।

ऐसे दर्दनाक हादसे हमें चीख-चीख कर, छाती पीट पीट कर कुछ सोचने के लिये मजबूर करते हैं ।

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

बच्चों में खून की कमी की तरफ़ ध्यान देना होगा ..


आज सुबह इंडियन कांउसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च द्वारा फरवरी 2008 में बच्चों में खून की कमी ( Workshop on Child Anaemia) के विषय पर रखी एक वर्कशाप की सिफारिशें पढ़ रहा था जो मुझे बेहद महत्त्वपूर्ण लगीं औरजिन का सार प्रस्तुत कर रहा हूं।

2005-06 में जो नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे हुआ है उस से पता चला है कि तीन साल से कम उम्र के चार में से तीनबच्चों में खून की कमी है। और जो एक बच्चा बचा है उस में भी ऑयरन की कमी हो सकती है अलबत्ता यह होसकता है कि वह एनीमिया( खून की कमी) के रूप में प्रकट हुई हो। और जिन बच्चों में एनीमिया की समस्या हैउन तीन बच्चों में से दो बच्चों की एनीमिया की समस्या काफी विकट है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि बच्चों मेंखून की कमी कितनी विकट एवं आम समस्या है और इस कमी की वजह से उन के शारीरिक एवं मानसिकविकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि बच्चों में एनीमिया की रोकथाम एवं उपचार को इतनामहत्त्व दिया जा रहा है।

वर्कशाप के शुरूआत में इस समस्या के लिये आज कल चल रही स्ट्रैट्जी पर टिप्पणी करते हुये बताया गया किआज तक सिस्टम यह है कि हर बच्चे की एनीमिया के लिये क्लीनिक जांच की जाये और जिस में खून की कमीलगे उन को 100 दिनों तक ऑयरन एवं फोलिक एसिड (IFA) की टेबलेट खिलाई जायेंऐसी एक टेबलेट में 20 मि.ग्राम एलीमैंटल ऑयरन और 100 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड होता है। विभिन्न कारणों की वजह से इसस्ट्रैट्जी को फिर से विशेषज्ञों द्वारा जांचने की ज़रूरत महसूस हो रही थी इस वर्कशाप में जिन विशेषज्ञों ने भागलिया उन में से न्यूट्रीशन, चाइल्ड-हैल्थ, मैटरनल हैल्थ एवं पब्लिक हैल्थ की बैक-ग्राऊंड वाले लोग शामिल थे।

तो आइये इस वर्कशाप की बेहद महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर एक नज़र डालते हैं

ऑयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन एहतियात के तौर पर पांच साल से कम उम्र के सभी बच्चों को दी जानी चाहियें – ना कि केवल उन बच्चों को जिनमें क्लीनिक्ली अनिमिया पाया गया हो।

वर्कशाप में इस बात की भी सिफारिश की गई कि पांच साल तक के बच्चों को आयरन एवं फोलिक एसिड को एक सिरिप के रूप में दिया जाना चाहिये – जिसे 100मिलीलिटर की प्लास्टिक की बोतलों में सप्लाई किया जा सकताहै जिस के साथ एक ऐसा डिस्पैंसर हो जिस से एक बार में 1 मिलीलिटर सिरिप ही निकाला जा सके।

यह सिफारिश की गई कि जैसे ही बच्चे के छःमहीने का हो जाने के बाद जब बच्चे की माता का किसी स्वास्थ्य-कार्यकर्त्ता से संपर्क हो उस समय यह आयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन शुरू हो जानी चाहिये। खसरे केइंजैक्शन के समय ( measles) अकसर मातायें स्वास्थ्य कर्मीयों के संपर्क में आती हैं और यही समय इससप्लीमैंटेशन को शुरू करने के लिये बहुत उपयुक्त है। लेकिन एक बात का ध्यान रहे कि जिन बच्चों का जन्म केसमय वजन कम था उन में यह सप्लीमैंटेशन तो उन के दो महीने के होने पर ही शुरू कर देनी चाहियेवर्ल्ड हैल्थआर्गेनाइज़ेशन की भी यही सिफारिश है।

वर्कशाप में यह भी सिफारिश की गई कि यह जानने के लिये कि किसी बच्चे को एनीमिया है कि नहीं ताकि उस को यह सिरिप दिया जाना शुरू किया जा सके ---इस के लिये उस की स्क्रीनिंग करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर हैल्थ-वर्कर को लगता है कि किसी बच्चे को अनीमिया कुछ ज़्यादा ही है तो उसे आयरन फोलिक एसिड सिरिप देने के साथ साथ मैडीकल एडवाईज़ एवं इलाज के लिये प्राइमरी हैल्थ सैंटर भी भेजा जाये।

आयरन एवं फोलिक एसिड की सप्लीमैंटेशन छः महीने से लेकर 60 महीने के बच्चों तक सभी को दी जानी चीहियेऔर यह सप्लीमैंटेशन हर वर्ष 100 दिनों तक दी जानी चाहिये।


इस के इलावा वर्कशाप की कुछ ऐसी सिफारिशें हैं जो थोड़ी ज़्यादा ही टैक्नीकल होने की वजह से इस लेख में डालनेयोग्य नहीं हैं....ये ज्यादातर पालिसी-मेकर्स के लिये हैं जैसे कि ICDS सप्लीमैंटरी न्यूट्रीशन को ऑयरन एवं अन्यमाइक्रोन्यूट्रीएंटस से फार्टीफाई करने की बात की गई है, हमारे स्टैपल खाने ( staple foods) की भी ऑयरनफार्टीफिकेशन करने की तरफ़ इशारा किया गया है।

जब बच्चे को कोई बुखार वगैरह हो या कोई और बीमारी हो तो उन चंद दिनों के लिये इस सिरिप को उसे दियाजाये और बच्चे के तंदरूस्त होते ही उसे दोबारा शुरू कर दिया जाना चाहिये।

जिन बच्चों के पेट में कीड़े हैं, उन को उपयुक्त दवाई देने की भी बात कही गई है।

अंत में एक प्वाईंट यह भी कहा गया कि चाहे किशोरावस्था में आने वाले बड़े बच्चे चाइल्ड-एनीमिया के अंतर्गतनहीं आते, लेकिन उन का भी अनीमिया से बचाव ज़रूरी है। किशोर युवकों को भी एहतियात के तौर पर ऑयरनसप्लीमैंटेशन दी जानी चाहिये।


शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग दो

हां, तो पिछली कड़ी को मैंने यह सवाल पूछ कर बंद किया था कि आप के घर में कितने मैंबर हैं और महीने में नमक की खपत कितनी है !!

दो जवाब मिले हैं....एक बंधु ने बताया है कि परिवार में छः सदस्य हैं और महीने में लगभग डेढ़ किलो नमक इस्तेमाल हो जाता है। दूसरे मित्र ने लिखा है कि घर में चार लोगों के लिये आधे किलो नमक की थैली तीन महीने चलती है।

मैं जब से भी स्कूल-कालेज में पढ़ने लगा तो मुझे यह सब आंकड़े सुन सुन कर बहुत ही ज़्यादा चिड़ सी हुआ करती थी कि यार, यह फलां विटामिन इतने मिलिग्राम----फलां एलीमैंट इतने माइक्रोग्राम और फलां इतने इंटरनैशनल यूनिट्स। मुझे हमेशा से यही लगता रहा है और अभी भी लगता है कि यार, यह तो एक ले-मैन के साथ एक अच्छा खासा मजाक ही हो गया.....अब कौन बंदा है जो अपने काम-धंधे छोड़ कर अपने संतुलित आहार के चक्कर में तरह तरह के तत्वों की नाप-तौल करता फिरे...........यह बिलकुल भी व्यावहारिक है ही नहीं !! हम लोग डाक्टर हैं ---जब हम लोग खुद कभी इस तरह के माप-तोल के चक्कर में पड़े नहीं तो किसी नान-मैडीकल बंदे से हम यह अपेक्षा भी आखिर कैसे कर सकते हैं।

आप किसी को अगर कहें कि देखो तुम केवल रोज़ाना केवल चार ग्राम नमक का सेवन ही कर सकते हो, तो उस का सिरदर्द होना लाज़मी है कि आखिर अब कैसे हिसाब रखें कि मैं चार ग्राम खा रहा हूं या दस ग्राम।

तो मैं अपनी इस श्रृंखला में गुर्दै के रोगों से बचने की बातें कर रहा हूं। गुर्दे के रोगों से बचने के लिये हमें नमक पर पूरा कंट्रोल करना ही होगा। उसी ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान जब नमक की बात चल रही थी तो एक सुझाव आया कि हमें लोगों को सीधे सरल तरीके से संदेश पहुंचाना चाहिये जैसे कि चार जनों के परिवार में महीने भर की नमक की खपत केवल आधा किलोग्राम( 500ग्राम) होनी चाहिये।

अब इस मापदंड से देखा जाये तो जो दो जवाब मुझे मिले हैं उन में से पहले केस में छः जनों के परिवार में नमक की खपत 750 ग्राम से ज़्यादा होनी ही नहीं चाहिये। और दूसरे केस में नमक की खपत काफी कम है----चलिये, उस के बारे में तो हम लोग ज़्यादा कमैंट नहीं कर सकते।

मद्रास में हुई ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान मैं एक महिला नैफ्रोलाजिस्ट के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गया कि तमिलनाडू में लोग अकसर रिक्मैंडिड अलाऊंस से दस गुणा ज़्यादा तक नमक खपा जाते हैं। वैसे तमिलनाडू ही क्यों, मुझे तो लगता है कि देश के विभिन्न भागों में नमक का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है।

अब नमक के ज़्यादा इस्तेमाल से हमारे उच्च ब्लड-प्रैशर का बिलकुल सीधा संबंध है। और उसी को कम करने के लिये हमें डाक्टरों के चक्कर में पड़ना पड़ता है, तरह तरह के दूसरे “साल्ट” ( दवाईयां) खाने पड़ते हैं और अगर उन से भी यह ब्लड-प्रैशर कंट्रोल में न आये तो अपने गुर्दै, हृदय आदि के स्वास्थय को जोखिम में डालना पड़ता है।

एक बात का ध्यान रखियेगा कि जब यह चार लोगों के लिये आधा किलो नमक की रिक्मैंडेशन दी गई है तो इस में उस नमक को तो कंसिडर ही नहीं किया गया है जो हम घर के बाहर तरह तरह के ऊल-जलूल स्नैक्स, फास्ट-फूड्स के चक्कर में खाते रहते हैं। तो, कहने से अभिप्रायः यही है कि उस आधा किलो वाली बात को मानने में बहुत दम है।

वहां बात आचार की भी हुई कि आचार में तो नमक ठूंसा हुया होता है । लोग चाहे जितना भी कह लें कि हम तो भई इस नमक को कम करने के लिये आचार को खाने से पहले धो लेते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस से कुछ खास फर्क पड़ता नहीं है क्योंकि नमक तो आचार में पूरी तरह से रच-बस गया होता है।

जाते जाते एक बात करनी है......अकसर हम लोग यह तो सुन लेते हैं कि इतने कार्बौ खायें, इतने प्रोटीन खायें ...इतने फलां-2 तत्व लें....लेकिन आखिर इस के बारे में बिल्कुल सही पता कहां से लगे। तो, इस के लिये इंडियन कांउस्लिंग आफ मैडीकल रिसर्च ने एक बहुत ही बढ़िया पुस्तक छापी हुई है .....Nutritive value of Indian foods….इस में सभी तरह के भारतीय खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता के बारे में चर्चा की गई है। मैंने शायद 15 साल पहले इसे ICMR, New Delhi से 30-40रूपये में खरीदा था .....इस में इडली, चपाती, वड़ा, सभी इंडियन फ्रूट्स, सभी इंडियन सब्जियों की पौष्टिकता का पूरा विश्लेषण किया गया है कि किस खाद्य में कितने प्रोटीन, कितने कार्बौहाइड्रेट्स , कितनी वसा है, कितना सोडियम है , कितना पोटाशियम है, कितना कैल्शीयम है.....वगैरह वगैरह ...........सब कुछ बहुत ही विस्तार से लिखा गया है।

वैसे एक इडली में एक सौ कैलरीज़ होती हैं। सोच रहा हूं कि किसी दिन बहुत ही प्रचलित खाद्य पदार्थों का एक टेबल उस ICMR वाली किताब से चुराकर आप तक पहुंचाऊंगा।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

चाय में फ्लोराइड का मुद्दा भी कोई मुद्दा है !!

How much fluoride do U.S. water supplies contain ?
The majority of U.S. municipalities add fluoride ( which is toxic at high levels) to their drinking water, at rates between 0.7 and 1.2 ppm. The U.S. Centres for disease control states that this is a safe level. But what if you drink a lot of tea, which is very high in fluoride ? Do you want a double dose of fluoride ?
Food for thought.
आज का एक इंगलिश न्यूज़-पेपर अपने हैल्थ-कैप्सूल के माध्यम से अपने पाठकों को कुछ सोचने के लिये कह रहा है।
कैप्सूल का प्रश्न है – अमेरिका में सप्लाई किये जाने वाले पानी में फ्लोराइड की कितनी मात्रा रहती है ?
अमेरिका में अधिकांश म्यूनिसिपैलेटीज़ पीने वाले पानी में 0.7 से 1.2 ppm ( पार्ट्स पर मिलियन) की मात्रा में फ्लोराइड मिलाते हैं। अमेरिकी सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार पानी में इतने फ्लोराइड की मात्रा एक सुरक्षित स्तर है। चूंकि फ्लोराइड का स्तर चाय में बहुत ज़्यादा होता है और अगर आप बहुत ज़्यादा चाय पीते हैं तो .......? क्या आप फ्लोराइड की डबल-डोज़ चाहते हैं?

यह तो थी इंगलिश अखबार में छपे हैल्थ-कैप्सूल की। अब हम अपनी सीधी सादी देहाती बात करते हैं। वो, क्या है कि लावारिस फिल्म का वह गाना तो आपने मेरी तरह सैंकड़ों बार सुन ही रखा होगा कि जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो !! तो, इस फ्लोराइड के मामले में भी उस नीली छतड़ी वाले ने लगता है हम पर रहम ही किया है। क्योंकि देश के अधिकांश भागों में हमारे यहां पानी में फ्लोराइड की यह मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही मौजूद है। लेकिन कुछ कुछ इलाकों में यह फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है जिस की वजह से वहां पर डैंटल फ्लोरोसिस एवं हड्डियों से संबंधित कुछ जटिलतायें उत्पन्न हो जाती हैं। रहमो-करम की बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि कुदरत ने अपने आप ही हमारी हैल्प कर दी है क्योंकि पानी में फ्लोराइड को संयंत्रों के माध्यम से डालना एक बहुत ही महंगा काम है। यह तो भई अमीर देशों के वश की बात है........क्या कहा आपने, हम किसी से कम हैं क्या ?- ठीक है , अगर किसी रेलवे-स्टेशन अथवा बस-अड्डे पर जिस तादाद में 10रूपये वाली पानी की बोतलें लोगों को थामते देखते हैं केवल उसी समय ध्यान आने लगता है कि यार, हम तो अमीर देश वाले हैं !!
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले देश में ऐंटी-फ्लोराइड लॉबी बड़ी स्ट्रांग थी। इसलिये टुथपेस्ट में फ्लोराइड के मुद्दे को भी बहुत उछाला जा रहा था। लेकिन अब वह सब बीते समय की बातें लगती हैं। और जहां तक टुथपेस्ट में फ्लोराइड मिलाये जाने की बात है.....यह तो अब सारे विश्व भर में यह सिद्ध हो चुका है कि दांतों की सड़न से बचने का एक बहुत ही कारगर उपाय है ---फ्लोराइडयुक्त टुथपेस्ट । मुझे याद है कि 1989 में मैं पीजीआई चंडीगढ़ में दांतों की बीमारियों की रोकथाम से संबंधित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम अटैंड कर रहा था जिस दौरान हमें पता चला कि देश में उपलब्ध कॉलगेट का ही एक ऐसा ब्रांड है ( शायद उस का नाम था ..कालगेट कैल्सीगार्ड) जिस में फ्लोराइड मिला हुआ है। अब तो हमारे यहां टुथपेस्ट के अधिकांश ब्रांड ही ऐसे हैं जिन में फ्लोराईड मिला हुआ है।
लेकिन हमारी समस्या है कि जिन इलाकों में पानी की फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है, उन क्षेत्रों में भी हम पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम करने के लिये कुछ ज़्यादा कर नहीं पा रहे हैं।
लेकिन एक बात नोट करने वाली है कि देश के सभी इलाकों के लिये फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट तो चाहिये ही- क्योंकि जिन इलाकों में फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होती है, वहां के लोगों के दांतों की संरचना ही कुछ इस तरह की होती है कि उन के दांतों में सड़न पैदा होने की ज़्यादा संभावना रहती है.....इसलिये उन के लिये भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट का नियमित प्रयोग बहुत ज़रूरी है ताकि दांत सड़न से बचे रह सकें।
अब थोड़ी बात करते हैं कि अमेरिका वाले पानी में आखिर फ्लोराइड डालते क्यों हैं....उस का कारण यह है कि फ्लोराइड एक ऐसा trace element है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये ज़रूरी होता है। विशेषकर जब दांत जबड़े के अंदर बन रहे होते हैं तो उन की मजबूत संरचना के लिये पानी में फ्लोराइड की उपर्युक्त मात्रा होनी बहुत आवश्यक होती है। इसी प्रकार हड़्डियों के स्वास्थ्य के लिये भी फ्लोराइड का उचित मात्रा में पीने वाले पानी में मौज़ूद रहना ज़रूरी होता है।
वैसे पानी के इलावा फ्लोराइड अलग अलग लैवल में हमारे खाने में भी मौजूद रहता है...जैसे कि मछली एवं चाय। और जहां तक चाय की बात है कि चाय में फ्लोराइड की मात्रा काफी होती है, मुझे नहीं लगता कि इसे कभी भी हमारे यहां एक इश्यू के रूप में देखा जाता है और वास्तव में यह कोई इतना बड़ा इश्यू है भी नहीं जितना कि इस इंगलिश अखबार के कैप्सूल ने बताया है।
हमारे यहां तो चाय इश्यू है मेनली चीनी के लिये-----क्योंकि हम लोग जितनी मीठी चाय पीते है, उस रास्ते से हम लोग कितनी चीनी अपने शरीर में धकेल देते हैं, असल इश्यू तो यही है ।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग एक

पिछले वीकऐंड पर मैं दो दिन के लिये चैन्नई में था....वहां पर किडनी हैल्प ट्रस्ट नाम की एक संस्था पिछले लगभग 12 वर्षों से आसपास के हज़ारों लोगों पर एक अध्ययन कर रही है, कि क्या बिल्कुल साधारण से उपायों द्वारा लोगों को गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों से बचाया जा सकता है। मुझे वहां एक मैडीकल- राइटर के तौर पर आमंत्रित किया गया था।

इस संस्था के संचालक हैं – डा एम के मणि जो कि देश के सुप्रसिद्ध नैफ्रोलॉजिस्ट ( गुर्दा रोग विशेषज्ञ) हैं ..डा मणि मद्रास के अपोलो हास्पीटल के नैफ्रोलॉजी विभागाध्यक्ष भी हैं.....लगभग बीस लोगों को इस ट्रेनिंग वर्कशाप में बुलाया गया था। इस अध्ययन एवं ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में विस्तार से तो मैं अपनी अगली पोस्टों में लिखता रहूंगा। इस अध्ययन में इन के साथ हैं जानी-मानी ऐपियोडेमियोलॉजिस्ट, डा मंजूला दत्ता एवं श्री रवि दत्ता जो इस ट्रस्ट का प्रबंधन कार्य देखते हैं।

दो-चार बहुत ही महत्त्वपूर्ण सी बातें लिख कर यह पोस्ट तो समाप्त करूंगा।
सब से पहली बात तो यह है कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों की वजह से गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं। और एक बात है कि एक बार गुर्दे किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त हो जायें तो या तो डॉयलैसिस रैगुलर करवाना पड़ता है ....और कुछ वर्षों के बाद तो गुर्दे के प्रत्यारोपण की ज़रूरत तो पड़ती ही है.......और हमारे देश में गुर्दे की तकलीफ़ों से जूझ रहे मरीज़ लाखों की संख्या में हैं और चंद मुट्ठी भर मरीज़ों के इलावा इतना महंगा इलाज करवाना इस देश की जनता के वश की बात है ही नहीं। यह तो एकदम तय है।

इसलिये केवल एक ही उपाय जान पड़ता है कि कैसे भी हो गुर्दे के रोगों से बच कर रहा जाये। क्या ऐसा संभव है ? – जी हां, देश के मशहूर किडनी विशेषज्ञों के अनुसार गुर्दे की क्रानिक बीमारी से बच कर रहना काफी हद तक संभव है।

गुर्दे की क्रानिक बीमारी के लगभग दस हज़ार मरीज़ों की एक स्टडी से पाया गया है कि लगभग इन में से 30 प्रतिशत केसों में डायबीटीज़ इस गुर्दे रोग का कारण होती है, अन्य 10 प्रतिशत केसों में हाई-ब्लड-प्रैशर की वजह से गुर्दे की बीमारी को देखा गया। इसी तरह से किडनी में पत्थरी की वजह से भी गुर्दे की बीमारी देखी गई है........सार के रूप में हमें वहां यही बताया गया कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारी के जितने भी कारण हैं उन में से लगभग 75प्रतिशत कारण ऐसे हैं जिन के बारे में हम कुछ न कुछ अवश्य कर सकते हैं ताकि गुर्दे की इस बीमारी से बचा जा सके।

कहने का भाव यह है कि अगर हम लोग मरीज के हाई-ब्लड-प्रैशर एवं उस की डायबीटीज़ को कंट्रोल में रखें तो हम गुर्दे की सेहत को काफ़ी हद तक बरकरार रख सकते हैं।

और विशेषज्ञों ने उस ट्रेनिंग प्रोग्राम ने एक बार पर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर दिया कि चाहे कैसे भी जिस किसी भी दवा से यह संभव हो पाये- बीपी और डायबीटीज़ तो काबू में रहनी ही चाहिये। ऐसा नियंत्रण गुर्दे की सेहत के लिये बहुत ज़रूरी है।

लाइफ-स्टाईल की बात हो रही थी – बार बार उन्होंने ने यह भी कहा कि वज़न को तो कंट्रोल करना बेहद लाज़मी है ही ....इस के साथ ही साथ नमक एंव शूगर की खपत पर भी कंट्रोल करना होगा।

नमक के बारे में मुझे कुछ बातें जो वहां पर डिस्कस हुईं ध्यान में आ रही हैं। लेकिन तब तक आप एक होम-वर्क तो करिये- आप अपनी श्रीमति जी से या जो भी आप के घर में खाना बनाता है, उस से ज़रा यह पूछिये की आप के घर में एक महीने में नमक की लगभग कितनी खपत होती है। अच्छा आप यह सूचना मेरे को टिप्पणी में या ई-मेल में भेजियेगा., साथ में यह ज़रूर लिखियेगा कि परिवार में कुल सदस्य कितने हैं ....आगे की बात फिर करते हैं। वैसे ध्यान आ रहा है कि किसी ज़माने में मैंने कुछ लिखा था ...केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन!....कभी फुर्सत हो तो उसे थोड़ा देख लीजियेगा- यह रहा उस का लिंक

बुधवार, 24 सितंबर 2008

आज इन दो दवाईयों की दो बातें करते हैं ....

परसों लखनऊ में था – टाइम पास करने के लिये स्टेशन के सामने से एक बुक-शाप से सिम्स की किताब खरीद ली ......सिम्स यानि CIMS- Current Index of Medical Specialities. यह किताब तीन महीने में एक बार छपती है और हम लोग तो अपने कालेज के दिनों से इसे नियमित देखते रहते हैं। CIMS में बाज़ार में उपलब्ध दवाईयों के बारे में जानकारी दी गई होती है। सभी डाक्टरों के लिये यह बहुत उपयोगी प्रकाशन है। इस का दाम 120रूपये है। वैसे पब्लिक को तो इसे खरीदने की कोई ज़रूरत होती नहीं......क्यों कि उन के लिये इस की बहुत लिमिटेड उपयोगिता है ---काफी सारी बातें तो ले-मैन को समझ में आ ही नहीं सकती । और अगर ले-मैन इस के अनुसार स्वयं दवाई लेना शुरू करने की कोशिश भी करेगा तो अच्छा खासा जोखिम से भरा रास्ता है। वैसे अगर आप को किसी दवाई के बारे में कोई विशेष जानकारी चाहिये तो आप उस दवाई का नाम ( प्रैफरेबली उस के साल्ट का नाम) लिख कर गूगल सर्च कीजिये या विकिपीडिया पर सर्च कीजिये, आप को सटीक सी जानकारी मिल जायेगी।
अच्छा चलिये इस पोस्ट के शीर्षक के अनुसार दो दवाईयों के बारे में दो बातें करें। ऐसा है कि यह जो सिम्स मैंने खरीदी उस के पिछले कवर पर दो दवाईयों का विज्ञापन दिखा – एक तो थी stemetil- MD और Omez Insta. ये दोनों दवाईयां लोगों में अच्छी खासी पापुलर हैं, इसलिये इन के बारे में सोचा कि आप से भी दो बातें करते हैं।

Stemetil के नाम से तो आप में से बहुत से लोग परिचित ही होंगे....यहां पर यह बताना चाहूंगा कि यह स्टैमेटिल की टेबलेट ज्यादातर उल्टी के लिये इस्तेमाल की जाती है। इस में Prochloroperazine ( प्रोक्लोरोपेराज़ीन) नाम का साल्ट होता है उस एक टेबलेट में इस की मात्रा 5 मिलीग्राम रहती है। मुझे जिस बात ने यहां पर इस के बारे में लिखने पर मजबूर किया वह यह है कि मुझे यह कल ही पता चला कि अब यह Stemetil –MD के रूप में भी उपलब्ध है.........MD का मतलब कि mouth-dissolving tablet ………यानि कि इसे आप मुंह में रखेंगे और यह कुछ ही क्षणों में अपने आप घुल जायेगी और फिर इसे आप पानी के बिना भी अंदर ले जा सकते हैं। हां, अगर हालत ऐसी हो कि पानी पच रहा हो तो थोड़ा सा पानी पी लें, वरना कोई ज़रूरत नहीं।

इस मुंह में घुलने वाली गोली की ज़रूरत दोस्तो विशेषकर उन मौकों पर पड़ती है जब मरीज़ कुछ भी पचा नहीं रहा----उल्टिय़ों पर उल्टियां किये जा रहा है----दो-घूंट पानी भी पीता है तो उल्टी कर के बाहर निकाल देता है। ऐसे मौकों के लिये यह दवाई बहुत उपयुक्त है। और मेरे विचार में इस की एक स्ट्रिप आप के घरेलू मैडीसन-बॉक्स में होनी ही चाहिये। सीधी सी बात है कि अगर बंदा पानी भी नहीं पचा रहा तो उसे ऐसी टेबलेट मिल गई जिसे लेने के लिये उसे पानी की ज़रूरत ही नहीं रही।

ठीक है, ऐसी स्थिति से निपटने के लिये टीके वगैरा भी लगाये जाते हैं लेकिन घर पर कुछ समय के लिये इस तरह की टेबलेट को आजमाने में क्या हर्ज है ??

दूसरी दवाई है ........Omez Insta ….इस में Omeprazole powder होता है......Omeprazole powder for suspension ….इस पाउच में छः ग्राम के लगभग पावडर होता है जिसे पानी में घोल कर पी लिया जाता है जिस से गैस्ट्राइटिस में तुरंत राहत मिल जाती है। यहां पर यह बताना चाहूंगा कि Omeprazole के कैप्सूल तो डाक्टरों के द्वारा एसिडिटी एवं पैप्टिक-अल्सर डिसीज़ में अकसर प्रैसक्राइब किये जाते हैं.....लेकिन इस तरह एक पावडर के रूप में यह दवाई पहली बार आई है....ऐसा विज्ञापन में दावा किया गया है।

मेरा विचार तो यही है कि इस तरह की दवाई के भ दो-तीन पाउच तो आप को अपने मैडीसन-बाक्स में रखने ही चाहिये। अकसर आप ने देखा है कि हम लोग किसी पार्टी वगैरह में बदपरहेज़ी करने के बाद जब वापिस लौटते हैं तो हालत एक दम खराब हुई होती है.....फ्रिज में रखा ठंडा दूध भी ले लिया , ऐंटासिड की गोली भी ले ली, लेकिन कोई असर पड़ता नहीं दिखता ----ऐसे में आप को याद होगा हम लोग ENO के एक चम्मच को एक गिलास में घोल कर पी लिया करते थे। लेकिन कईं बार गैस्ट्राइटिस के सिंप्टम इतने ज़्यादा होते हैं कि पेट का एसिड बार बार मुंह तक आता है, बहुत ही अजीब सी खट्टी डकारें रूकने का नाम ही नहीं लेती और छाती की जलन परेशान कर देती है ....ऐसे में एक एमरजैंसी तरीके के तौर पर इस OMEZ- Insta को ट्राई किया जा सकता है। लेकिन यह ध्यान रहे कि इस का रैगुलर इस्तेमाल आप केवल अपने चिकित्सक की सलाह से ही कर सकते हैं क्योंकि जिन मरीज़ों को इस दवाई को रैगुलरी लेना होता है उन की अलग से इंडीकेशन्ज़ हैं, उन की अलग से डोज़ है। इसलिये बिना डाक्टरी सलाह के तो इसे आप एक एमरजैंसी हथियार के तौर पर ही इस्तेमाल कर सकते हैं। इतना ध्यान अवश्य रहे।

मुझे जो भी नई बात पता चलती है ...चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, बस यही इच्छा होती है कि झट से नेट पर डाल दूं क्योंकि लगता है अगर दो बातें मेरी लिये ही नईं हैं तो शायद बहुत से और लोगों के लिये भी नईं ही होंगी ....और खासकर अगर वे बातें चिकित्सा के क्षेत्र से हों तो उन्हें सब से साझा करना तो और भी ज़रूरी हो जाता है।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

रेल-गाड़ी के शौचालय के बारे में सोचा तो ......

रेल-गाड़ी की विभिन्न श्रेणीयों के शौचालय के बारे में जब हम सोचते हैं तो हमें वैल्यू-एडड सर्विस ( value added service) का फंडा एकदम क्लियर हो जाता है। चलिये, शुरू करते हैं....ए.सी फर्स्ट क्लास के डिब्बे से .....कुछ ऐसे कोच हैं जिन में डिब्बे के यात्री को अपने ए.सी कैबिन में बैठे बैठे एक हरी या लाल बत्ती से यह पता चल जाता है कि कौन सा शौचालय( कौन सी साइड का –इंडियन अथवा वैस्टर्न ) खाली है अथवा आक्यूपाईड़ है। शायद यह इसलिये कि सुबह सुबह पानी वानी पी कर अगर आदमी किसी भी शौचालय का रूख करे तो उसे किसी किस्म की निराशा न हो.....निराशा तो उस स्केल पर सब से नीचे टिकी पड़ी है, जिस के सब से ऊपर है......आप समझ ही गये हैं, अब हर बात लिखनी थोड़े ही ठीक लगती है।

यहां तक कि अगर आप ने अपने कैबिन में नोटिस नहीं भी किया तो शौचालय के दरवाजे के बाहर चिटकनी पर भी इस तरह का इंडीकेटर सा आ जाता है कि बाथ-रूम खाली है या यूज़ में है। अंदर गये हुये बंदे को भी कितना सुकून है कि वह इतमीनान से अपना टाइम ले सकता है---नहीं तो कईं बार हम लोग बिना वजह उस चिटकनी को यूं ही इधर उधर कर के अपनी एमरजैंसी का संदेश अंदर बैठे महांपुरूष तक पहुंचाना चाहते हैं......कि शायद इस से उस की आंतड़ियों की सफाई की चाल में कुछ फर्क पड़ जाये।

तो ठीक है, बंदा एसी फर्स्ट क्लास के शौचालय में पहुंच गया है ....लेकिन पहली बार अंदर जाने वाला अंदर का वातावरण ऐसा फील करता है कि यार, यह बाथरूम ही तो है ना.....उस में तरह तरह के स्विच, तरह तरह के नलके, डिब्बे पड़े होते हैं और इतनी तरह की हिदायतें दी गई होती हैं कि आदमी सोचता है कि इन्हें समझने के चक्कर में क्या पड़ना। बस अपने काम से फारिग हो कर बाहर निकलें। एसी फर्स्ट के बाथरूम की जो मैं बातें कर रहा हूं,ये सब खासकर राजधानी गाड़ियों पर ज़्यादा लागू होती हैं।

यात्रियों की सुविधा का इतना ख्याल कि बाथरूम के ऊपर एक छोटी सी खिड़की भी होती है ताकि ताज़ी हवा का आनंद लूटने की ख्वाहिशमंद आत्मायें इस का भी भरपूर आनंद ले सकें।

हां, हां,साबुन-पानी की तो कोई दिक्कत ही नहीं.......टिश्यू पेपर भी पड़ा है, लिक्विड-सोप भी है और एक सोप की टिकिया जो यात्रा शुरू करने से पहले अकसर आप को दी जाती है, वह भी है----यानि पूरा इंतजाम।

चलिये, बहुत हो गया.....चाहे एसी फर्स्ट का ही बाथ-रूम है, लेकिन टाइम कुछ ज़्यादा ही लगा दिया है। अब आते हैं, सैकेंड एसी के बाथरूम की ओर। बस उस कोच में मैंने बहुत अरसा पहले एक इंडीकेटर देखा था गेट के पास कि शौचालय खाली है या कोई उस में गया हुया है। वैसे सैकेंड एसी में भी पानी वानी की तो कोई खास दिक्कत होती नहीं.....हां, साबुन का जुगाड़ आप को पहले से कर के रखना होगा। लेकिन राजधानी गाड़ीयों में सैकेंड एसी में भी साबुन वगैरह की व्यवस्था रहती ही है।

अच्छा, अब आगे समझने वाली बातें शुरू हो रही हैं.....वैल्यू-एडड सर्विस की बातें समझनी शुरू करें ?---हां, तो कुछ सैकेंड एसी के शौचालयों में लिक्विड सोप का कंटेनर लगा होता है , कुछ में नहीं और कुछ में खाली या .......!! यानि कि सैकंड एसी में सफर करने वाले अपनी साबुनदानी घर पर न ही भूलें तो बेहतर है वरना उस कागज़ी-साबुन (पेपर-सोप) से ही हाथ धोने की रस्म निभानी होगी।

अब आते हैं थर्ड-एसी के डिब्बे के शौचालय में....सीटें काफी बढ़ गई हैं ...इसलिये सुबह सुबह शौचालय के बाहर वेटिंग-लिस्ट में खड़े लोग दिख जाते हैं। कुछ कोशिश करते हैं कि बगल वाले सैकंड एसी के शौचालय में जाकर ही फारिग हो आया जाये। हां, हां, पानी की कोई दिक्कत नहीं.....बस साबुन का जुगाड़ पहले से रखो, भाई।

अब चलते हैं उस स्लीपर कोच की तरफ़ जिस में सब लोग रिजर्वेशन करवा कर ही चलते हैं.....उस में भी अधिकतर कोई प्राबलम होती नहीं। पानी वानी अकसर मिल ही जाता है.......हां, थोड़ा खिड़की-विड़की के कांच को जरूर चैक कर लेना होता है कि यह कहीं टूटा वूटा तो नहीं है या कहीं पारदर्शी कांच ही तो नहीं लगा हुया है। चिटकनी की तरफ़ भी पहले से थोड़ा ध्यान दे ही लें तो बेहतर होगा। और अंदर घुसने से पहले दोनों कानों में थोड़ी रूईं ठूंसनी होगी ताकि बाहर खड़ी जनता की किच-किच आप की दैनिक दिनचर्या को किसी तरह से बाधित न कर पाये। इस स्लीपर में दिक्कत आती है तब जब लोग बिना रिजर्वेशन वाले भी इस में जबरदस्ती घुस जाते हैं और फिर सुबह तो हर तरफ़ सामान भरा होता है और ट्रंकों के ऊपर ट्रंक पड़े रहते हैं जिस से दूसरे यात्रियों को काफ़ी परेशानी होती है.....लेकिन मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ रेलों में सफर कर रहे एक आम भारतवाशी के इत्मीनान को याद करते हुये एक सलाम ठोंके। उस बाथरूम के बाहर खड़े सब की एमरजैंसी एक सी है, लेकिन फिर भी वे एक-दूसरे की बात सुन लेते हैं और जो केस बिल्कुल होप-लैस लगते हैं उसे परायरटी बेस पर तुरंत अंदर भिजवा दिया जाता है।

इन स्पीलर क्लासेस के पश्चिमी शौचालयों का तो और भी बुरा हाल लोगों नें उस के ऊपर चप्पलों समेत बैठ बैठ कर किया होता है। इसलिये वही लोग उस तरफ का मुंह करते हैं जो नीचे नहीं बैठ सकते।

रेल गाड़ी से संबंधित तो नहीं , लेकिन अपने ज्ञानदत्त् जी पांडे की ब्लाग मानसिक हलचल पर मैंने लगभग एक साल पहले एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढ़ी थी जिस में उन्होंने हिंदोस्तानी बाथ-रूम के बारे में बहुत बढ़िया कुछ लिखा था।

अच्छा तो अब हम चलते हैं बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे की तरफ़ जिस में लोग बोरों की तरह से ठसे हुये हैं और उस में मेरी नानी/दादी, मेरी मां, मेरी बीवी , मेरी बहन और हमारी बेटियां की उम्र की औरतें भी ठसाठस भरी होती हैं..........मैं जब इन डिब्बों को इतना ठसाठस भरे हुये देखता हूं तो सोचता हूं कि यार, जब इन में से किसी को बाथ-रूम जाना होना होता होगा तो क्या हाल होता होगा...........इन लोगों को विशेषकर हर उम्र की महिलाओं को क्या तकलीफ़ें पेश आती होंगी, शायद इस की तो हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर पायें..........आप स्वयं सोचिये ठसा ठस भरे डिब्बे में से चल कर किसी महिला के लिये बाथरूम जाना कैसा अनुभव होता होगा। और यह भी हो सकता है कि उस डिब्बे में दो-चार लोग ऐसे हों जो डायबिटीज़ से परेशान हों। अकसर इन डिब्बों के शौचालयों की हालत भी कुछ इस तरह की हालत होती है कि चिटकनी का पूरा ध्यान रखना होगा और पानी तो पहले से ही देख लिया जाये कि चल रहा है कि नहीं ...................वरना बाद में तो ...अब पछताये होत क्या.....!!!

ये जो थोड़ी दूरी की पैसेंजर गाड़ियां होती हैं इन के शौचालयों को तो लोगों ने इतना मिसयूज़ कर रखा होता है कि क्या कहें---कईं बार इन के बल्ब तक उतरे होते हैं....अंदर सब तरफ गंदगी बिखरी पड़ी होता है, ऐसे में इस बात की तो बिल्कुल हैरानगी करें नहीं कि गोलू की अम्मा गई तो गोलू को गोद में उठा कर उसे साफ करने लेकिन यह क्या उसे तो वहां गंदगी की हवाड़ से शुरू हो गई मतली और गोलू बेचारा रह गया वैसा का वैसा ही .....लेकिन वह फिर भी मस्त है और दूसरे यात्रियों को देख कर किलकारियां मारता जा रहा है । और सामने वाले बाथरूम में से शहर जा कर आधा-दूध आधा-पानी बेचने वाले अपनी कैनीयों में बाथरूम से पानी भर भर उंडेलने में व्यस्त हैं क्योंकि शीघ्र ही उन का स्टेशन आने वाला है।

दो-चार महीने पहले एक बार रात को मैं और मेरा बेटा अंबाला स्टेशन पर बैठे हुये थे तो हमारे बैंच के सामने एक सैकेंड क्लास का ऐसा डिब्बा रुका जिस के शौचालय की खिड़की न थी ....लेकिन उस में भीड़ इतनी थी कि लोग इस बात की परवाह किये बिना उस का इस्तेमाल किये जा रहे थे। मेरे बेटे ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में मुझे कुछ कहा, तो मैंने उसे प्यार से समझा दिया कि यार, तू एक बार अपने आप को इन लोगों की जगह पर रख कर के देख......बात केवल इतनी ही कही कि यार, इन लोगों की इस अवस्था के बारे में एक फीकी सी मुस्कान भी चेहरे पर लाना घोर जुल्म है। और हम लोग वहां से उठ खड़े हुये।

लेकिन इतना लिखते लिखते लगता है कि वैल्यू-एडड सर्विस का कंसैप्ट मैं समझा पाया हूं........key words are …..इंडीकेटर्स, लिक्विड सोप, चिटकनियां, टूटी खिड़कियां, टूटे बल्ब ।

मैं इन सब श्रेणियों में सफर करने का फर्स्ट-हैंड तजुर्बा रखता हूं।

और जितना अब तक सीखा है वह यही है कि हमारी रेलें हमें बहुत कुछ सिखाती हैं....आपस में एक दूसरे की ज़रूरत का ध्यान रखना और सब से बड़ी बात जो मैंने बहुत शिद्दत से ऑब्जर्व की है और जिस बात में मेरा विश्वास पत्थर पर खुदे नाम जैसा है ....वह यह है कि जैसे जैसे ट्रेन की श्रेणी बढ़ती है........सुविधा तो बेशक बढ़ती ही है ....लेकिन हमारी टोलरैंस, हमारी सब्र, हमारा ठहराव, हमारी इत्मीनान......यह सब कुछ पता नहीं क्यों कम होता जाता है। ये सब विशेषतायें मैंने दूसरे दर्जे के बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे के यात्रियों के चेहरे पर बहुत अच्छी तरह से पढ़ी हैं........किसी के पैर में घिसी चप्पल है, किसी का कुर्ता छः जगह से टांका हुया है, कोई शायद समझता है कि उसे बात करने का ढंग नहीं है, कोई अपनी बढ़ी दाढ़ी या दूसरे किसी बाबूनुमा व्यक्ति की बढ़िया कमीज़ की वजह से बिना वजह अपने आप को छोटा समझ रहा है बिना यह जाने की यह उस ने आज ही स्टेशन के बाहर फुटपाथ से सैकेंड-हैंड खरीदी है, कोई अपनी मां के हाथ की रोटियां और आचार खाने में बिना वजह झिझक महसूस कर रहा है...........लेकिन कोई परवाह नहीं,दोस्तो, इन सब छोटी छोटी बातों का कोई मतलब है ही नहीं....असली हीरो इस देश के यही लोग हैं जिन में इतनी टॉलरैंस है, इतना सब्र है कि मैं तो भई इन की आंख में आंख डाल कर बात ही नहीं कर सकता। इस के इतने सब्र के पीछे कारण यही है कि इन सब के सपने एक से हैं.....ये एक दूसरे की तकलीफ़ समझते हैं और उस की मदद करने के लिये आगे आते हैं।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

ब्लड-प्रैशर का यह कैसा हौआ है ?....2

मैंने कुछ महीने पहले भी ब्लड-प्रैशर के इस हौवे के बारे में कुछ लिखा था जो यहां पड़ा हुया है, आज सुबह जब अपना रूटीन ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो अचानक उस के आगे फिर से कुछ लिखने की इच्छा हो गई। तो उस के आगे शुरू करता हूं।

आज मैंने जब ऑटोमैटिक मशीन से अपना ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो एक बाजू में 142/92 तथा दूसरी बाजू में 142/94 आया। यह ऑटोमैटिक मशीन वही वाली जिस के कफ को बाजू पर बांधने के बाद एक बटन दबा देने से कफ में अपने आप ही हवा भरनी शुरू हो जाती है और कुछ समय बाद ब्लड-प्रैशर की रीडिंग आ जाती है।

चूंकि पास में ही ब्लड-प्रैशर चैक करने की वह कन्वैंशनल मशीन ( स्फिगमोमैनोमीटर) पड़ी थी....तो विचार आया कि इस से भी बी.पी चैक करवा ही लिया जाये। उसी समय उस मशीन से चैक करवाया तो एक बाजू में 110/80 और दूसरी में 110/88 की रीडिंग थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दोनों मशीनों की रीडिंग्ज़ में दो-चार मिनट का ही अंतर था।

जब मैंने अपने फिजिशियन से पूछा कि आप रीडिंग पर विश्वास करेंगे तो उन्होंने कहा कि वह तो बरसों से चल रही कन्वैंशनल स्फिगमोमैनोमीटर की रीडिंग्ज़ पर ज़्यादा भरोसा करेंगे।

यह आज सुबह वाला किस्सा मैंने केवल इसलिये सुनाना ज़रूरी समझा ताकि मैं इस बार को रेखांकित कर सकूं कि आज के दौर में अगर हम डाक्टर लोग अपने आप को किसी मरीज़ के शूज़ में खड़े होकर देखते हैं तो हमें इस बात का आभास होता है कि आज के दौर में जब इस तरह की मशीनें घर-घर में आ चुकी हैं तो मरीजों का कंफ्यूज़ होना कितना स्वाभाविक सा है। रीडिंग्ज़ में अंतर तो आपने देख ही लिया है।

मैं इस समय किसी ना तो किसी मशीन की पैरवी कर रहा हूं और ना ही किसी के खिलाफ़ ही कुछ कह रहा हूं – केवल अपना अनुभव आप के सामने रख रहा हूं ताकि इस मुद्दे पर हम लोग कुछ चर्चा कर सकें।

सचमुच बी.पी का तो एक हौआ ही बना हुआ है- मैंने अपने उस पहली पोस्ट में शायद बहुत कुछ इस के बारे में लिखा था।

आज भी ब्लड-प्रैशर चैक करवाना हम में से कुछ लोगों के लिये एक हौआ ही है। खैर आप तो जानते ही होंगे कि मैडीकल साईंस में एक ऐँटिटि होती है ....वाईट-कोट हाइपर-टैंशन ..अर्थात् कुछ मरीज़ों में ऐसा देखा गया है कि जैसे ही वे किसी सफेद-कोट पहने डाक्टर को अपना बी.पी चैक करते देखते हैं तो उन का बी.पी अचानक शूट कर जाता है।

यह तो हम मानते ही हैं कि विभिन्न मशीनों में थोड़ी बहुत वेरिएशन तो होती ही है......इसलिये बार बार यही सलाह दी जाती है कि बी.पी के बारे में इतना ज़्यादा मत सोचा करें। यह जीवन-शैली से संबंधित है और जीवन-शैली में छोटे छोटे परिवर्तन लाने निहायत ही ज़रूरी हैं।

यह पोस्ट लिखने का एक मकसद यह भी है कि अगर आप अपने घर ही में हमेशा ऐसी ही किसी ऑटोमैटिक मशीन से अपना बी.पी चैक करते रहते हैं तो यह भी ज़रूरी है कि कभी कभी किसी फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से भी अपना बी.पी अवश्य दिखवा लिया करें।

फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से ध्यान आया कि यह भी देखा गया है कि अकसर कुछ केसों में जब किसी मरीज़ का बी.पी किसी फ्रैंडली नर्सिंग स्टाफ द्वारा लिया जाता है तो रीडिंग कम आती है।

एक बात और भी यहां कहना चाहूंगा कि ये जो कन्वैनश्नल बी.पी अपरेट्स ( स्फिगमोमैनोमीटर) भी होते हैं, किसी भी हास्पीटल में अगर कुछ अपरेट्स हैं तो थोड़ा बहुत फर्क तो इन की रीडिंग्ज़ में ही होता है लेकिन मुझे याद है कि बंबई में जिस हास्पीटल में काम करते थे वहां पर दो मशीनें ऐसी थीं जिन में यह वेरीएशन काफी ज़्यादा हुआ करती थी।

इतना लिखने के बाद मेरा यह प्रश्न बना हुया है....
क्या हर मरीज़ के बीपी की जांच इस तरह से कर पाना संभव है कि पहले एक मशीन से की जाए और फिर दूसरी से। ऐसे में कईं बार मरीज़ कहीं बिना-वजह दवाईयों के चक्कर में पड़ कर परेशान तो ना होते होंगे या फिर दवाई की ज़रूरत होने पर भी बिना दवाई के ही तो ना चलते रहते होंगे। यह सवाल मेरे मन में बरसों से है और पता नहीं कितने सालों तक चलता रहेगा।

इसीलिये जब डाक्टर मरीज के पास जाता है और उस की बी पी बड़ा हुआ होता है तो तुरंत ही उस की दवा शुरू नहीं कर दी जाती......उस का बीपी बार कुछ समय के बाद, कुछ दिनों के अंतराल के बाद चैक करने के बाद ही कोई दवा शुरू करने या ना करने का फैसला किया जाता है। जिस समय मरीज डाक्टर के पास आया है उस समय उस की क्या मनोस्थिति है इस बात का भी आप सब को पता है कि उस की बीपी की रीडिंग पर असर पड़ता है।

तो, सीधी सी बात है कि मामला शायद कुछ ज़्यादा ही पेचीदा है.....बिलकुल एक हौए जैसा लेकिन पूरी कोशिश करें कि इसे हौआ कभी बनने न दें। मस्त रहने की पूरी कोशिश करें........क्योंकि जहां मस्ती है, खुशी है, ज़िंदादिली है, हंसी-मज़ाक है वहां यह हौआ टिक नहीं पाता है। पिछले 25 सालों से ज़िंदगी की किताब से जो सीखा है, जो अनुभव किया है, आप के सामने रख दिया है।

आप के बी.पी के सदैव नियंत्रण में रहने के लिये ढ़ेरों शुभकामनायें।

दौलत जमा करने के लिये गिरने की भी हद है !!

आज सुबह ही खबर आई है कि चीन में मिल्क-पावडर बनाने वाली एक कंपनी पकड़ में आई है जो कि इस मिल्क-पावडर में मैलामाइन ( melamine) की मिलावट किया करती थी। आप भी सोच रहे होंगे कि कहां मिल्क-पावडर और कहां मैलामाइन।

आप का सोचना जायज़ है- मैलामाइन एक इंडस्ट्रीयल कैमीकल है जिसे कपड़ा उद्योग, पलास्टिक बनाने में एवं गौंद( gum) बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन आप शायद सोच रहे होंगे कि यह मैलामाइन नाम का कैमीकल मिल्क-पावडर में क्या कर रहा है ?

ध्यान देने योग्य बात यही है कि मैलामाइन देखने में बिल्कुल मिल्क-पावडर जैसा ही सफेद एवं पावडर जैसा ही दिखता है- इसलिये इसे खाद्य पदार्थों की मिलावट के लिये धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि इस से नकली तौर पर उन खाद्य पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।

मैलामाइन की मिलावट से किसी खाद्य पदार्थ का प्रोटीन कंटैंट कैसे बढ़ सकता है ?.....जी हां, बढ़ता वढ़ता कुछ नहीं है, लेकिन जब उस मिलावटी पावडर में पानी डाल कर उस के प्रोटीन कंटैंट को टैस्ट किया जाता है तो उस की रीडिंग बढ़ जाती है । इस का कारण यह है कि मैलामाइन में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और किसी भी खाद्य पदार्थ में प्रोटीन की मात्रा का आकलन करने के लिये उस में नाइट्रोजन की मात्रा का ही आकलन कर लिया जाता है।
चीन में तो इस तरह के मिल्क-पावडर का इस्तेमाल करने वाले दो शिशुओं की तो मौत ही हो गई और 1253 बच्चे बुरी तरह से बीमार हो गये .....जिन में से बहुत से बच्चों के गुर्दों में पत्थरी बन गई।

पिछले साल मार्च 2007 में भी चीन में तैयार कुछ पालतू जानवरों के लिये खाद्य पदार्थों की वजह से अमेरिका में कुछ कुत्तों एवं बिल्लीयों की जब मौत हो गई थी तो बहुत हंगामा हुआ था।

कुछ महीने पहले मुझे ध्यान है अमेरिकी एजेंसी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने चीन में तैयार कुछ टुथपेस्टों के बारे में भी चेतावनी इश्यू की थी....इन में भी कुछ लफड़ा था।

वैसे आप ने भी नोटिस किया होगा कि आज कल बहुत से स्टोरज़ में कुछ इस तरह के विदेशी खाद्य पदार्थ अथवा पेय पदार्थ बिकते हैं जिन की भाषा हमें बिल्कुल समझ नहीं आती....लेकिन अकसर हम देखते हैं कि लोग ऐसी वस्तुओं को खरीदते समय भी ज़रा भी संकोच नहीं करते। बस सेल्स-मैन विभिन्न कारणों की वजह से इन की थोड़ी बहुत तारीफ़ कर देते हैं। इन प्रोडक्ट्स का कुछ पता नहीं कि ये कब तैयार हुये हैं, कब इन की एक्सपॉयरी है, क्या इनग्रिडिऐंट्स हैं......कुछ पता नहीं .....क्योंकि सब कुछ या तो उर्दू में या फिर ऐसी किसी दूसरी भाषा में लिखा होता है कि हमें इस के का कुछ पता ही नहीं चल पाता।

अकसर आप देखेंगे कि तरह तरह की चाकलेट्स में, तरह के आकर्षक वेफर्स में, जूसों में यह सब गोरख-धंधा खूब चलता है। मैं सोचता हूं कि हम लोग जब तक इन की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त ना हो जायें, हमें इन से तो बच कर ही रहना चाहिये, वरना चीन में मिलने वाले मिल्क-पावडर के बारे में तो आप ने सुन ही लिया।

किसी भी वस्तु पर किसी विदेश का ठप्पा का क्या श्रेष्ट हो गया कि हम लोग उस आइट्म के बारे में बेसिक से प्रश्न पूछने ही भूल गये। और तो और, अकसर आपस में भी लोग इस तरह की चाकलेट्स गिफ्ट वगैरा में देने लगे हैं.......पैकिंग बड़ी कैची होती है, देखने में इन की शेप-वेप बड़ी हाई-फाई होती है, इसलिये अकसर बच्चों को इन से दूर रख पाना अच्छा खासा दिक्कत वाला काम हो जाता है।

चीन के मिल्क-पावडर से ध्यान आ रहा है कि वहां तो ये मामले पकड़ में आ गये लेकिन हम लोगों का यहां क्या पता है कि हम लोग क्या क्या खाये जा रहे हैं, पिये जा रहे हैं.........आप सब यह तो जानते ही हैं ना कि हमारे यहां भी सिंथैटिक मिल्क बनाने के लिये मिल्क-पावडर का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। लेकिन मैं तो इतने लोगों से पूछ चुका हूं कि दूध में कैमिकल्स की मिलावट है या नहीं ( नहीं, नहीं, पानी की नहीं.....वह तो अब हम लोग स्वीकार कर ही चुके हैं !!)….. उस को जानने का कोई घरेलू जुगाड़ तो होगा..............लेकिन मुझे कोई संतोषजनक जवाब अभी तक मिला नहीं।

रविवार, 14 सितंबर 2008

यह कैसी हिंदी है......कोरी सिरदर्दी है, दोस्तो।


कुछ दिन पहले जब मैं बाहर गया हुआ था तो मुझे मेरे बेटे की ई-मेल मिली ....खासी लंबी थी....इतनी लंबी कि मुझे उसे पढ़ते पढ़ते उस पर खीझ आ रही थी। लिखी तो उस बेचारे ने बहुत आत्मीयता से थी, लेकिन पता है उस खीझ का कारण क्या था.....वह रोमन स्क्रिप्ट में लिखी गई थी। अर्थात् ......Papa, aur aap kaise hain…….and so on……

ई-मेल तो पहले भी वह रोमन स्क्रिप्ट में कईं बार भेजता है, लेकिन कभी ये इतनी अखरती नहीं थीं। शायद इसलिये क्यों कि ये बिल्कुल छोटी छोटी हुआ करती थीं। लेकिन उस लंबी सी मेल को रोमन में पढ़ना ......मैं इतना बोर हुआ कि क्या बताऊं.......बिल्कुल सिरदर्दी सी लगी।

और जब मैं बेटे को मिला तो मैंने उसे कहा है कि यार, देख , तुम तो मुझे मेल इंगलिश में ही किया करो....और अगर तुम्हें हिंदी लिखनी ही हो तो देवनागरी में क्विल-पैड की मदद से लिखा करो।

चूंकि क्विल-पैड में लिखना भी थोड़ा जटिल तो है ही, इसलिये बेहतर यही  होगा कि रोमन में हिंदी लिखने वाले अपनी मेल को जितनी छोटी रखे उतना ही बढ़िया है, वरना तो भई रोमन में हिंदी पढ़ने वाले के सब्र का इम्तिहान हो जाता है। मैं तो यह सोचता हूं कि हिंदी-ब्लागरी में टिपियाते समय भी हमें इस बार का ध्यान रख लेना चाहिये। 
कितनी बार मैं अंग्रेज़ी अखबारों में या कईं बार हिंदी के अखबारों में भी पूरे पन्ने वाले या आधे-पन्ने वाले ऐसे विज्ञापन देखता हूं जो कहने को तो हिंदी में होते हैं लेकिन लिखे होते हैं...रोमन में। इन्हें देख कर भी बहुत अजीब सा लगता है।
सीधी सी बात है कि किसी भी जुबान का फ्लेवर उस की उचित लिपि के साथ ही कायम रह सकता है। वरना वही बात लगती है जिस तरह से थ्री-पीस सूट के साथ बाटा की हवाई चप्पल पहन ली  जाये .....इन दोनों का जैसे कोई मेल नहीं है, उसी तरह से सीधी-सादी हिंदी भाषा को भी अंग्रेज़ी एल्फाबेट का सूट-बूट न ही पहनायें तो बेहतर होगा.....कम से कम पढ़ने वाले का सिर तो नहीं दुःखेगा।

रही बात नेट पर हिंदी लिखने की.......इतने सारे साफ्टवेयर मौजूद हैं...जैसे www.quillpad.com या फिर सब से बढ़िया है कि inscript हिंदी टाइपिंग ही सीख ली जाये.......इसे सीखना बहुत आसान है .....आप अपने कंप्यूटर पर ही इसे सीख सकते हैं.......5-7 दिन में ही की-बोर्ड पर अंगुलियां चलनी शुरू हो जाती हैं....बाकी तो प्रैक्टिस की बात है।
अच्छी तो भई हिंदी टाइपिंग तो आप अपनी फुर्सत में देख लीजियेगा........लेकिन अगर हिंदी को रोमन में लिखना हो तो प्लीज़ लंबी लंबी बातें लिखने से ज़रा गुरेज करें तो बेहतर होगा।