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बुधवार, 16 जून 2010

आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते ?

यह तो शत-प्रतिशत सच ही है कि नमक का ज़्यादा इस्तेमाल करने से ब्लड-प्रेशर होता ही है---वही चोली दामन वाला साथ, कितनी बार हम लोग इस के बारे में बतिया चुके हैं। लेकिन फिर भी जब मैं अपने आस पास देखता हूं तो पाता हूं कि लोग इस के बारे में बिल्कुल भी सीरियस नहीं है। हां, अगर खुदा-ना-खास्ता एक बार झटका लग जाता है तो थोड़ा बहुत बात समझने में आने लगती है।
लेकिन मेरी समस्या यह है कि मैं जब भी नेट पर नमक के बारे में कोई भी गर्मागर्म खबर पढ़ता हूं तो मुझे अपने देशवासियों का ख्याल आ जाता है --- इसलिये बार बार वही घिसा पिटा रिकार्ड चलाने लग जाता हूं।
शायद ही मुझे किसी मरीज़ से यह सुनने को मिला हो कि वह नमक का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। किसी को भी पूछने पर यही जवाब मिलता है कि नहीं, नहीं, हम तो बस नार्मल ही खाते हैं। इस के बारे में हम एक बार बहुत गहराई से चर्चा कर चुके हैं कि आखिर कितना नमक हम लोगों के लिये काफ़ी है? और दूसरी बात यह कि एक बार मैंने यह भी बताने का प्रयास तो किया था कि केवल नमक ही नमकीन नहीं है।
अच्छा तो देश में यह भी बड़ा वहम है कि पाकिस्तानी नमक कम नमकीन है। नमक तो बंधुओ नमक ही है।
अच्छा तो अभी अभी मैं पढ़ रहा था कि इस नमक की वजह से अमेरिका में भी बहुत हो-हल्ला हो रहा है क्योंकि वहां लोग ज़्यादा प्रोसैसड खाध्य पदार्थ ही खाते हैं और यह तो नमक से लैस होता ही है लेकिन हमें इतना खश होने की ज़रूरत नहीं --हम लोग भी जहां हो सके नमक फैंक ही देते हैं ---लस्सी, रायता, आचार, लस्सी, गन्ने का रस, फलों के दूसरे रस (अगली बार जब जूस पीने लगें तो दुकानदार के चम्मच का साइज देखियेगा, आप को उस का हाथ रोकना चाहेंगे) .....बिस्कुट, तरह तरह के भुजिया, नमकीन, ......लिस्ट इतनी लंबी है कि एक पोस्ट भी कम पड़ेगी इसे लिखने में।
हां, तो अमेरिका में भी लोगों को नमक कम खाने की सलाह देते हुये यह कहा गया है कि वे रोज़ाना डेढ़ ग्राम से ज़्यादा नमक न लिया करें -- और जो आजकल सिफारिशें हैं उस के अनुसार सभी लोगों को चाय के एक चम्मच से ज़्यादा (जिस में लगभग दो-अढ़ाई ग्राम नमक आता है) नमक नहीं लेना चाहिये और जिन लोगों को उच्च रक्तचाप है या कोई और रिस्क है उन्हें तो डेढ़ ग्राम से ज्यादा नहीं लेना चाहिये। लेकिन अभी नई पैनल ने सिफारिश की है कि कोई भी हो, डेढ़ ग्राम से ज़्यादा बिलकुल नहीं।
आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो यही सोच रहा हूं कि अगर हम लोग बस इसी बात को ही पकड़ लें तो कितने करोड़ों लोग रोगों से बच जायेंगे, कितनों का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होने लगेगा, दवाईयां कम होने लगेंगी और शायद आप का डाक्टर आप का सामान्य रक्तचाप देखते हुये उन्हें बिल्कुल ही बंद कर दे।
लेकिन एक बात है कि इस डेंढ़ ग्राम नमक का मतलब वह नमक नहीं है जो केवल दाल-सब्जी में ही डलता है, इस में सभी अन्य तरह के नमक के इस्तेमाल सम्मिलित हैं। मेरी सलाह है हमें भी शुरूआत तो करनी ही चाहिये --कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं है, मैं भी कभी भी जूस में नमक नहीं डलवाता, दही में नमक नहीं, लेकिन रायते में बिना नमक के नहीं चलता, मैं सालाद के ऊपर नमक नहीं छिड़कता....लेकिन जब बीकानेरी भुजिया खाने लगता हूं तो यह सारा पाठ भूल जाता हूं ---इसलिये अब ध्यान ऱखूंगा।
किस्मत में क्या लिखा है, क्या जाने ---लेकिन जहां तक हो सके तो विशेषज्ञों की राय मानने में ही समझदारी है, केवल मुंह के स्वाद के लिये हम लोग किसी चक्कर में पड़ जाएं ....यह तो बात ना हुई। अमेरिका में तो होटल वालों ने भी अपने खाद्य़ पदार्थों में नमक कर दिया है।
इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि एक नमक इंस्टीच्यूट का कहना है कि नहीं, नहीं यह डेढ़ ग्राम नमक वाला फंडा ठीक नहीं है, वे कहते हैं कि सारी दुनिया में लोग तीन से पांच ग्राम नमक रोज़ाना खाते हैं क्योंकि यह उन की ज़रूरत है।
लेकिन मैं तो उस डेढ़ ग्राम नमक वाली बात की ही हिमायत करता हूं क्योंकि मैं नमक ज़्यादा खाने से होने वाले रोगों के भयंकर परिणाम देखता भी हूं, रोज़ाना सुनता भी हूं। वैसे आपने क्या फैसला किया है। लेकिन यह क्या, आप कह रहे हैं कि यार, अब शिकंजी, लस्सी भी फीकी ही पिलाओगे क्या ? ----बंधओ, इतने अच्छे बच्चे बनने की भी क्या पड़ी है, कभी कभी तो यह सब चलता ही है। वैसे शिंकजी में कभी कम नमक डाल कर देखिये।
जाते जाते यह बात लिखना चाह रहा हूं कि हम लोग गर्म देश में रहते हैं, गर्मियों में पसीना खूब आता है ---जिस से नमक भी निकलता है, इसलिये हमें गर्मी के दिनों में थोड़ी रिलैक्सेशन मिल सकती है ---लेकिन वह भी ब्लड-प्रैशर से पहले से ही जूझ रहे लोगों को तो बि्लकुल नहीं। मुद्दा केवल इतना है कि दवाईयों से भी कहीं ज़्यादा नमक की मात्रा के बारे में जागरूक रहें...............आप के स्वास्थ्य की कामना के साथ यहीं विराम लेता हूं। .

गुरुवार, 29 मई 2008

दांतों का इलाज करवाते करवाते कहीं लेने के देने ही न पड़ जायें !!


इस लेख की शुरूआत तो यहीं से करना चाहूंगा कि अगर आप अपने और अपनों के दांतों की सलामती चाहते हैं ना तो कृपया आप कभी भी ये नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के ज़ाल में भूल कर भी न पड़ियेगा। नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों का नाम सुन कर आप नाक-भौंह इसलिये तो नहीं सिकोड़ रहे कि अब हमें यह भी किसी से सीखना होगा कि नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के पास नहीं जाना है....इन झोला-छाप दंत-चिकित्सकों का क्या है, इन का तो बहुत दूर से ही पता चल जाता है....क्योंकि ये अकसर बस-अड्डों एवं पुलों आदि पर ज़मीन पर अपनी दुकान लगाये हुये मिल जाते हैं या तो अजीब से खोखे से अपने हुनर की करामात दिखाते रहते हैं।

हमारे देश में समस्या यही है कि इतने सारे कानून होने के बावजूद भी बहुत से जैसे नीम-हकीम डाक्टर फल-फूल रहे हैं। नहीं, नहीं, मुझे कोई ईर्ष्या वगैरह इन से नहीं है.....और इस का कोई कारण भी तो नहीं है। अकसर आप में से कईं लोग ऐसे होंगे जो दंत-चिकित्सक की डिग्री की तरफ़ ज़्यादा गौर नहीं फरमाते.....बस, बोर्ड पर दंत-चिकित्सक लिखा होना ही काफी समझ लेते हैं। और हां, बस अपने परिवार के किसी बड़े-बुजुर्ग द्वारा की गई उस दंत-चिकित्सक की तारीफ़ उन के लिये काफी है- इन डिग्रीयों-विग्रियों की बिल्कुल भी परवाह न करने के लिये।

शायद आप में से भी कईं लोग अभी भी ऐसे होंगे जो ये सोच रहे होंगे कि देखो, डाक्टर, हम ज़्यादा बातें तो जानते नहीं ....हमें तो देख भाई इतना पता है कि अपने वाला खानदानी दंत-चिकित्सक दांत इतना बढ़िया निकालता है कि क्या कहें.....ऊपर से जुबान का इतना मीठा है कि हम तो भई उस को छोड़ कर किसी दूसरे के पास जाने की सोच भी नहीं सकते। और इस के साथ साथ महंगी महंगा दवाईयां बाज़ार से भी खरीदने का कोई झंझट ही नहीं, सब कुछ अपने पास से ही दे देता है......और इतना सब कुछ करने का लेता भी कितना है......डाक्टर चोपड़ा, तुम सुनोगे तो हंसोगे..... केवल तीस रूपये !!

आप की इतनी बात सुन कर भी मेरे को बस इतना ही कहना है कि जो भी हो, आप किसी भी डाक्टर के पास जायें तो यह ज़रूर ध्यान रखा करें कि वह क्वालीफाइड हो....उस की डिग्री-विग्री की तरफ़ ध्यान अवश्य दे दिया करें....और यह भी ज़रा उस के पैड इत्यादि पर देख लिया करें कि क्या वह भारतीय दंत परिषद के साथ अथवा किसी राज्य की दंत-परिषद के साथ रजिस्टर्ड भी है अथवा नहीं।

मेरा इतन लंबी रामायण पढ़ने के पीछे एक ही मकसद है कि मैं रोज़ाना बहुत से मरीज़ देखता हूं जिन के दांतों की दुर्गति के लिये ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक ही जिम्मेदार होते हैं। पता नहीं पिछले दो-तीन से इच्छा हो रही थी कि आप से इस के बारे में थोड़ी चर्चा करूं कि आखिर ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक कैसे आप की सेहत के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं......

साफ़-सफाई को तो भूल ही जायें...........

इन के यहां किसी भी तरह की औज़ारों इत्यादि की सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। मुझे पता नहीं यह सब इतने सालों से कैसे चला आ रहा है। कम से कम आज की तारीख में तो एचआईव्ही एवं हैपेटाइटिस बी जैसी खतरनाक बीमारियों की वजह से तो इन के पास जा कर दांतों का इलाज करवाना अपने पैर पर कुल्हाडी ही नहीं, कईं कईं कुल्हाडे इक्ट्ठे मारने के समान है। पहले लोगों में इतनी अवेयरनैस थी नहीं ....बीमारियों तो तब भी इन के पास जाने से इन के दूषित औज़ारों से फैलती ही होंगी....लेकिन लोग समझते नहीं थे कि इन बीमारियों का स्रोत इन नीम-हकीम डाक्टरों की दुकाने( दुकानें ही करते हैं ये !)….ही हैं।

पता नहीं किस तरह की सूईंयों का, टीकों का , दवाईयों का इस्तेमाल ये भलेमानुष करते हैं ...कोई पता नहीं।

लिखते लिखते मुझे यह बात याद आ रही है कि कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि ये झोला-छाप दंत-चिकित्सकों की समस्या कहीं और की ही होगी.....अपने शहर में तो ऐसी कोई बात नहीं है। यकीन मानिये , यह आप की खुशफहमी हो सकती है......देखिये मुझे भी यह बात हज़म सी नहीं हुई ....खट्टी डकारें आने लगी हैं।

मुझे याद है जब हम लोग अपने ननिहाल जाया करते थे तो अकसर मेरी नानी जी ऐसे ही नीम-हकीम डाक्टर बनारसी की बहुत तारीफ़ किया करती थी.....बनारसी आरएमपी भी था और दांत-वांत भी उखाड़ दिया करता था। नानी सुनाया करती थीं कि पता नहीं दांत पर क्या छिड़कता है कि दांत अपने आप तुरंत बाहर आने को हो जाता है। बाद में जब हम लोग नीम-हकीमों के इन पैंतरों को जान रहे थे तो यह जाना कि यह पावडर आरसैनिक जैसा हुया करता होगा.....जिस के परिणाम-स्वरूप मुंह में कैंसर के भी बहुत केस होते थे।

दांत को गलत तरीके से भरना---

एक करामात ये झोला-छाप डैंटिस्ट यह भी करते हैं कि जिन दांतों को नहीं भी भरना होता, उन को भी ये भर देते हैं.....इन्हें केवल अपने पचास-साठ रूपये से मतलब होता है....भाड़ में जाये मरीज़ और भाड़ में जायें उन के दांत...। वैसे इस के लिये मरीज़ स्वयं जिम्मेदार है...क्योंकि जब कोई क्वालीफाइड दंत-चिकित्सक इन को पूरी ट्रीटमैंट-प्लानिंग समझाता है तो ये कईं कारणों की वजह से दोबारा उस के क्लीनिक का मुंह नहीं करते ( वैसे इन कारणों के बारे में भी कईं पोस्टों लिखी जा सकती हैं। ).....और फंस जाते हैं इन नीम-हकीम के चक्करों में।

और दूसरी बात यह भी देखिये कि ये नीम-हकीम लांग-टर्म इलाज के बारे में तो सोचते नहीं हैं.....वैसे मरीज़ों की भी तो यादाश्त कुछ ज़्यादा बढ़िया होती नहीं....अगर इस तरह के गलत तरीके से भरे हुये दांत दो-तीन महीने भी चल जायें...तो अकसर मैंने लोगों को कहते सुना है कि क्या फर्क पड़ता है...पचास रूपये में तीन महीने निकल गये.....डाक्टर ने तो भई पूरी कोशिश की...इस के आगे वह करे भी तो क्या........। इस तरह की सोच रखने वाले मरीज़ों के लिये मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि दो-तीन महीने तो निकल गये...लेकिन इस गलत फिलिंग ने आस-पास के स्वस्थ दांतों की सेहत पर क्या कहर बरपाया...........यह मरीज़ों को कभी पता लग ही नहीं सकता ।

मेरी मानें तो किसी झोला-छाप दंत-चिकित्सक के पास जाने से तो यही बेहतर होगा कि कोई बंदा अपना इलाज करवाये ही न....यह मैं बहुत सोच समझ कर लिख रहा हूं...क्योंकि देश में बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि इन के पास ना जायें तो करें क्या, क्वालीफाईड डाक्टरों के क्लीनिकों पर चढ़ने की हम लोगों में तो भई हिम्मत है नहीं...कहां से लायें ढेरों पैसे.............बात है तो सोचने वाली ....लेकिन फिर भी अगर क्वालीफाइड के पास जाने में किसी भी तरह से असमर्थ हैं तो कम से कम इन नीम-हकीम दांत के डाक्टरों के चक्कर में तो मत फंसिये।

ये कैसे फिक्स दांत हैं भाई...................

अकसर नीम हकीमों के लगाये हुये फिक्स दांत देखता रहता हूं.....बस, बेचारे मरीज़ों की किस्मत ही अच्छी होती होगी......कि मुंह के कैंसर से बाल-बाल बच जाते हैं । कईं बार तो मैं भी जब इन अजीबो-गरीब फिक्स दांतों को मरीज के हित में निकालता हूं तो मुझे भी नहीं पता होता कि यह आस-पास का मास इतना अजीब सा क्यों बढ़ा हुया है......इसलिये मैं इन मरीजों को एक-दो सप्ताह बाद वापिस चैक अप करवाने के लिये ज़रूर बुलाता हूं।

होता यूं है कि ये नीम-हकीम जब कोई नकली दांत फिक्स करते हैं तो इन नकली दांतों की तारों को असली दांतों से बांध कर कुछ अजीब सा मसाला इस तार के ऊपर इस तरह से लगा देते हैं कि मरीज को लगता है कि इस ने तो 200रूपये में मेरे आगे के तीन दांत फिक्स ही लगा दिये ....कहां वह दूसरा डाक्टर 1500 रूपये का खर्च बता रहा था। लेकिन जो वह क्वालीफाईड डाक्टर फिक्स दांत लगाता है और जो यह नीम-हकीम फिक्स दांत लगाता है.....इन दोनों फिक्स दांतों में कम से कम ज़मीन आसमान का तो फर्क होता ही है, इतना फर्क तो कम से कम है....इस से ज्यादा ही होता होगा। ऐसा इसलिये होता है कि क्वालीफाईड डाक्टर ने पूरे पांच साल जो ट्रेनिंग की तपस्या की होती है..उस के ज्यादातर हिस्से में उसे मरीज़ के टिशूज़ की इज़्जत करनी ही सिखाई जाती है.......उसे सिखाया जाता है कि कैसे अपने पास आये हुये मरीज़ को कोई बीमारी साथ में बिना वजह पार्सल कर के नहीं देनी है, उसे उस की सीमायों से रू-ब-रू करवाया जाता है कि इन सीमायों को लांघने पर कौन सी खतरे की घंटियां बजती हैं........वगैरह..वगैरह...वगैरह।

नीम-हकीमों के द्वारा लगाये गये फिक्स दांतो के बारे में तो इतना ही कहूंगा कि ये तो आस पास के असली स्वच्छ दांतों को भी हिला कर ही दम लेते हैं। और तरह तरह के घाव जो मुंह में उत्पन्न करते हैं , वह अलग।

लिखने को तो इतना कुछ है कि क्या कहूं...।लेकिन अब यहीं पर विराम लेता हूं.........मुंह एवं दांतों की बीमारियों के बारे में कुछ 101प्रतिशत सच सुनना चाहते हों....तो मुझे लिखिये............चाहे टिप्पणी में अथवा ई-मेल करें।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

क्या हाई-ब्लड-प्रैशर, शूगर एवं हार्ट-पेशेन्ट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?--भाग दो.

इस से पहली कड़ी में बातें हुईं थी हाई-ब्लड एवं शूगर के मरीज़ों के दांत उखड़वाने के डर के बारे में। आज देखते हैं कि हार्ट पेशेन्ट्स क्यों डरते हैं दांत उखड़वाने से ---क्या इस में कोई जोखिम इन्वाल्व है ?

सब से पहले तो यह बताना चाह रहा हूं कि हार्ट के पेशेन्ट्स अलग अलग तरह के होते हैं अर्थात् हार्ट की तकलीफ़ों की अलग अलग किस्में होती हैं और इन में डैंटिस्ट अलग अलग तरह की सावधानियां बरतते हैं।

सब से पहले तो हार्ट-पेशेन्ट्स को दिये जाने वाले टीके की बात करते हैं--- दांत उखड़वाने से पहले दिल के मरीज़ों को जो लिग्नोकेन( lignocaine) लोकल-अनसथैटिक का टीका दिया जाता है ---सुन्न करने के लिये—वह प्लेन टीका होता है –जिस में एडरिनेलीन( Adrenaline) नहीं होती। एडरिनेलीन रक्त की नाड़ियों में संकुचन पैदा करती है, और मरीज़ में पैल्पीटेशन( palpitations) पैदा कर सकती है इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स में ऐसे इंजैक्शन को इस्तेमाल किया जाता है जिस में यह नहीं होती।

दूसरी बात यह है कि कुछ हार्ट पेशेन्ट्स रक्त को पतले रखने के लिये एस्पिरिन की टेबलेट लगातार ले रहे होते हैं--- ये सब बातें या तो मरीज़ हमें स्वयं ही बतला देते हैं वरना हमें खुद पूछनी होती हैं। अब ऐसे मरीज़ों को यह बहुत डर लगता है कि खून पतले करने वाली एस्पिरिन की वजह से दांत उखड़वाने के बाद तो उन का रक्त तो जमेगा ही नहीं।

अकसर ये लोग एस्पिरिन की आधी गोली ही ले रहे होते हैं ----तो मरीज़ का ब्लीडिंग टाइम एवं क्लाटिंग टाइम ( bleeding time and clotting time) --- अर्थात् मरीज़ का रक्त एक नीडल से प्रिक करने के बाद कितने समय में बंद होता है और फिर कितने समय में उस जगह पर ब्लड-क्लाट ( blood-clot) बन जाता है ---इस के लिये एक बहुत ही साधारण सा ब्लड-टैस्ट है जिसे करवा लिया जाता है। और मेरा अनुभव यह रहा है कि ऐसे मरीज़ों में लगभग हमेशा( पता नहीं मैंने लगभग क्यों लिखा है, क्योंकि मैंने तो हमेशा ही इसे लिमट्स में ही देखा है) ....ही इसे लिमट्स में ही पाया है।

वैसे कुछ इस तरह की सिफारिशें भी हैं कि सर्जरी से पहले मरीज़ की एस्पिरिन कुछ दो-चार दिनों के लिये बंद कर दी जाये। लेकिन वह मेजर-सर्जरी की बात होगी –मैंने दांत उखाड़ने के लिये कभी भी इस की ज़रूरत नहीं समझी क्योंकि एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों में भी मैंने दांत उखड़वाने के बाद रक्त बंद होने या उस का क्लॉट बनने में कोई विघ्न पड़ता देखा नहीं है। जो मरीज़ मुझे स्वयं ही इस के बारे में पूछता है कि क्या उसे एस्पिरिन दो-तीन दिन के बंद करनी होगी या वह कहता है कि उस के फिजिशियन ने उसे ऐसा करने को कहा है तो मैं उसे ज़रूर इसे कुछ दिनों के लिये बंद करने की सलाह दे देता हूं----ताकि वह संतुष्ट रहे ---लेकिन जहां तक मैंने देखा है ऐसे मरीज़ों में भी कोई तकलीफ़ होती मुझे तो दिखी नहीं।

कुछ क्ल्यूज़ (clues) हम लोग एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों से ऐसे भी ले लेते हैं कि अगर कहीं कोई कट-वट लग जाता है या शेव करते वक्त मुंह पर कट लग जाता है तो क्या रक्त नार्मल तरीके से आसानी से बंद हो जाता है ---इस का जवाब हमेशा ही हां में मिलता है।

लेकिन एक हार्ट प्राब्लम होती है जिस में मरीज़ रक्त पतला रखने के लिये ओरल-एंटीकोएगुलेंट्स (oral anticoagulants) ले रहा होता है जैसे कि टेबलेट एटिट्रोम (Tablet Acitrom) --- जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं उन में बहुत ही एहतियात की ज़रूरत होती है—वैसे तो जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं वे स्वयं ही बता देते हैं कि रक्त पतला करने के लिये वे इसे अपने फिजिशियन की सलाह से ले रहे हैं लेकिन कुछ केसों में मैंने देखा है कि कईं बार कुछ कम पढ़े-लिखे लोगों को इस का पता ही नहीं होता और वे किसी डैंटिस्ट के पास पहुंच जाते हैं। और डैंटिस्ट को इस दवाई का पता केवल तब ही चल सकता है अगर वह मरीज़ की फिजिशियन वाली प्रैसक्रिपशन देखता है। इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स के साथ थोड़ी पेशेन्स की ज़रूरत रहती है---जल्दबाजी की गुंजाइश नहीं होती। और कुछ नहीं तो अगर मरीज़ को हम कह दें कि जो दवाईयां आप अपनी हार्ट-प्राब्लम के लिये ले रहे हैं उन्हें एक बार मुझे दिखा दें। ऐसा करने से भी पता चल जाता है कि मरीज़ का क्या क्या चल रहा है।

हां, तो अगर हार्ट पेशेन्ट टेबलेट एसीट्रोम ले रहा है और दांत उखड़वाने के लिये हमारे पास आया है तो उस का एक विशेष तरह का टैस्ट करवाया जाता है ---प्रोथ्रोंबिन टैस्ट – prothrombin time एवं आईएनआर ( INR – International normalized ratio) – और इस टैस्ट के लिये अथवा टैस्ट के बाद मरीज़ को उस के फिजिशियन अथवा कार्डियोलॉजिस्ट के पास रेफर करना ही होता है ---उस की स्वीकृति के लिये कि क्या इस मरीज़ को डैंटल एक्सट्रेक्शन के लिये लिया जा सकता है---और फिर आगे सारा काम उस की सलाह से ही चलता है।

ओरल –एंटीकोएग्यूलैंट्स ले रहे मरीज़ों का यह टैस्ट तो वैसे भी फिजिशियन समय समय पर करवाते रहते हैं –यह देखने के लिये सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है ---उन्हें यह भी आगाह किया होता है कि अगर आप के पेशाब में आप को रक्त दिखे या मसूड़ों से अपने आप ही रक्त बहने लगे तो तुरंत फिजिशियन से मिलें----वह फिर इन दवाईयों की डोज़ को एडजस्ट करता है। वैसे तो टेबलेट एसीट्रोम जैसी दवाईयां ले रहे मरीज़ों के लिये सलाह यही होती है कि उन्हें अपना दांत किसी बहुत अनुभवी डैंटिस्ट के पास जा कर ही उखड़वाना चाहिये ---- इस से भी बेहतर यह होगा कि किसी टीचिंग हास्पीटल में जाकर ही यह काम करवाया जाये ---वहां पर सारे स्पैशलिस्ट मौजूद होते हैं और सारी बातों का वे बखूबी ध्यान कर लेते हैं।

तो हम ने यह देखा कि डैंटिस्ट के पास जा कर अपनी सारी मैडीकल हिस्ट्री बताने वाली बात कितनी ज़रूरी है। एक और हार्ट की तकलीफ़ होती है ----रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease ---इसे आम तौर पर मैडीकल भाषा में शॉट में RHD) भी कह दिया जाता है ----इस के साथ वैलवुलर हार्ट डिसीज़ होती है ---( valvular heart disease) अर्थात् मरीज़ के हार्ट के वाल्वज़ में कुछ तकलीफ़ होती है ---ऐसे मरीज़ों में भी दांत निकलवाने से पहले एक ऐंटीबायोटिक हमें कुछ समय पहले देना होता है --- ताकि एक खतरनाक सी तकलीफ़ –सब-एक्यूट बैकटीरियल एंडोकार्डाईटिस – Sub-acute bacterial endocarditis—SABE से मरीज़ का बचाव हो सके।

वैसे तो बातें ये सब बहुत बड़ी बड़ी लगती हैं----शायद थोड़ा खौफ़ भी पैदा करती होंगी ---लेकिन मेरी बात सुनिये की यह सब जितना कंप्लीकेट्ड लिखने में लगता है , उतना वास्तव में है नहीं। बस, बात केवल इतनी सी है कि बिल्कुल मस्ती से अपने डैंटिस्ट के पास जायें----इस से उसे भी अपना काम करने में बहुत आसानी होती है---मैं कईं बार मरीज़ों को कहता हूं कि डरे हुये मरीज़ का काम करते हुये तो हाथ ही नहीं चलता, वो बात अलग है कि यह सब कहां मरीज़ के भी हाथ में होता है। इसलिये हमें अगर कभी कभार लगता है कि मरीज़ बहुत ही टेंशन करने वाली प्रवृत्ति वाला है तो हमें उसे कभी-कभार बहुत रेयरली कोई टैबलेट भी देनी होती है। लेकिन जैसा कि मैं अकसर बार बार कहता रहता हूं कि मरीज़ का अपने डैंटिस्ट पर विश्वास और डैंटिस्ट द्वारा कहे गये चंद प्यार एवं सहानुभूति भरे शब्द किसी जादू से कम काम नहीं करते ----शायद इन्हें(विभिन्न कारणों की वजह से) काफी बार ट्राई ही नहीं किया जाता और टेबलेट पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया जाता है।

चंद शब्द उन मरीज़ों के बारे में जिन को हाल ही में हार्ट-अटैक हुआ हो ---ऐसे मरीज़ों में सामान्यतयः डेढ़-महीने तक दांत उखाड़ा नहीं जाता, लेकिन वह दूसरी तरह का नॉन-इनवेज़िव डैंटल ट्रीटमैंट करवा सकते हैं ---दांतों की तकलीफ़ के लिये दवाईयों से ही काम चला सकते हैं ---वैसे आम तौर पर देखा गया है कि हार्ट-अटैक के डेढ़-दो महीने बीत जाने से पहले वो डैंटिस्ट के पास दांत उखड़वाने आते भी नहीं हैं----- मेरे पास भी अभी तक शायद दो-चार केस ही ऐसे आये होंगे जिन का टाइम-पास हमें खाने वाली दवाईयां या दांतों एवं मसूड़ों पर लगाने वाली दवाईयां देकर ही किया था।

लगता है कि अब बस करूं ---बहुत ही महत्वपूर्ण तो सारी बातें लगता है हो ही गई हैं इस विषय के बारे में , कोई और बाद में याद आई तो फिर कर लेंगे। हां, अगर आप का कोई प्रश्न हो तो आप का प्रश्न पूछने हेतु स्वागत है।
।।शुभकामनायें।।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

बिना डाक्टर की पर्ची के दवाईयां न बेचने पर इतना बवाल!

कुछ दिन पहले मैं एक खबर की चर्चा कर रहा था जिस से पता चला था कि इंदौर में डाक्टर दो पर्चीयां बनाया करेंगे –एक मरीज़ के पास रहेगी और दूसरी कैमिस्ट अपने पास रख लिया करेगा। लेकिन आज सुबह पता चला कि दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है जिस की वजह से वहां कैमिस्टों ने खासा बवाल मचा रखा है।

कैमिस्टों का कहना है कि दिल्ली में यह जो ओटीसी दवाईयों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है, यह उन के लिए बहुत कठिन काम है। ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में उन का कहना है कि उन की जितनी कुल दवाईयां बिकती हैं उन का 60 प्रतिशत तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही तो होती हैं...ऐसे में कैमिस्ट का एक वर्ष तक उन सभी डाक्टरी नुस्खों को संभाल के रखना संभव नहीं है।

न्यूज़ में यह भी लिखा है कि कुछ 16 ऐसी दवाईयां जिन्हें बेहद आपातकालीन परिस्थितियों (life-threatening conditions) में ही इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कैंसर एवं दिल के रोग से संबंधित किसी एमरजैंसी के लिये – इन को भी केवल अस्पताल में स्थित दवाई की दुकानों में ही बेचे जाने का प्रस्ताव है। पढ़ तो मैंने यह लिया लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि अगर ऐसा कुछ सरकार कर रही है तो इस में आखिर बुराई क्या है!

हां, कैमिस्ट एसोशिएशन का यह भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था हो जाएगी तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी।

चलिए खबर में लिखी बातों की बात तो हो गई...अब ज़रा मैं भी आपसे दो बातें कर लूं।

ऐसा है कि जितना स्वास्थ्य दुनिया में लोगों को इन ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों ने खराब किया है, शायद ही किसी अन्य दवाई ने किया है। बस नाम पता होना चाहिए...जिस की जो मर्जी होती है कोई भी सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक कैमिस्ट से खरीद कर लेना शुरू कर देता है ....बीमारी का पता नहीं, आम मौसमी खांसी जुकाम के लिये भी ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेना आम सी बात है। ऐसी दवाईयों का पूरा डाक्टर की सलाह से न करना भी आज विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती है। घटिया, नकली दवाईयां, तरह तरह की हर जगह होने वाली सैटिंग ... खुले ऐंटीबॉयोटिक के नाम पर अजीबो गरीब साल्ट बेचे जाना एक आम सी बात हो गई है... ऊपर से यह जैनरिक और एथिकल दवाईयों का पंगा ... जैनरिक दवाईयां ---जिन के उदाहरणतयः प्रिंट तो रहेगा 60 रूपये की दस कैप्सूल की स्ट्रिप –लेकिन आप के कैमिस्ट से संबंधों के अनुसार वह 30 की मिले, 18 की मिले या आठ रूपये की ही मिल जाए.....................यह एक ऐसा एरिया है जिसे मैंने पिछले 10 वर्षों से जानना चाहिए लेकिन हार कर जब कुछ भी कोई ढंग से बता ही नहीं पाता (या बताना चाहता ही नहीं?) तो मैंने भी घुटने टेक देने में ही समझदारी समझी।

आलम यह है कि मुझे 25 साल इस व्यव्साय में बिताने के बाद आज तक यह पता नहीं है कि जैनरिक दवाई को एथिकल दवाई से कैसे पहचान सकते हैं। एथिकल दवाईयों जैसे ही नाम में आती हैं जैनरिक दवाईयां --- अब पता नहीं इस राज़ को कौन खोलेगा!

अच्छा, यह जो इन कैमिस्ट ऐसोसिएशनों का कहना है कि इस से ऐंटीबॉय़ोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शूरू हो जाएगी ... मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता .. जिन्हें सही में इस तरह की दवाईयां चाहिए होंगी उन को तो कभी भी इन को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आयेगी नहीं और जिन्हें केवल काल्पनिक, रोगों के लिये, अपनी मरजी से ही इस तरह की दवाईयां चाहिए उन के लिये ऐसी कालाबाज़ारी कल की बजाए आज शुरू हो जाए तो बेहतर होगा..... कम से कम इस तरह की दवाईयां कम ही तो खरीद पाएंगे ...इसलिये इन्हें खाया भी कम ही जाएगा जिस से वे सारी दुनिया का भला ही करेंगे।

यह जो मैं बार बार लिख रहा हूं कि बिना कारण इस तरह की ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां न खा कर भला कैसे कोई सारे विश्व का भला कर सकता है? ¬¬¬ ---दरअसल समस्या यह है कि ऐसी महत्वपूर्ण दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से बहुत सी महत्वपूर्ण दवाईयां जीवाणु मारने की क्षमता खोने लगी हैं --- जीवाणुओं पर अब इन का असर ही नहीं होता --- (Drug Resistance) … जिस की वजह से बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु ढीठ होते जा रहे हैं .. यह एक भयंकर समस्या है .... सोचिए जब पैनसिलिन नहीं था तो किस तरह से मौतें हुया करती थीं . किस तरह से टीबी की दवाईयां आने से पहले टीबी होने का मतलब मौत ही समझा जाता था।

जो भी सरकार इस तरह के नियम बना रही है बहुत अच्छी कर रही है.... इस तरह के फैसले बड़ी सोच विचार करने के बाद, विशेषज्ञों की सहमति से लिये जाते हैं... इसलिये इन पर कोई भी प्रश्नचिंह लगा ही नहीं सकता। सरकार का दायित्व है कि उस ने सारी जनता के हितों की रक्षा करनी है ---अब अगर कुछ लोग अनाप शनाप दवाईयां खाकर कुछ इस तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न करने में मदद कर रहे हैं जिन के ऊपर दवाईयां असर ही नहीं करेंगी तो फिर कैसे चलेगा, सरकारों ने तो यह सब कुछ देखना है।

जितना लिख दिया था लिख दिया मैंने ---लेकिन इतना तो तय है कि जितने मरजी नियम आ जाएं ... यह जो लोग अपनी मरजी से दवाई खरीद कर खाने के आदि हो चुके हैं, ये बाज नहीं आने वाले, ये कैसे भी जुगाड़बाजी कर के मनचाही दवाईयां खरीद ही लेते हैं ....इस के अनेकों कारण हैं।

इससे दुःखद बात क्या हो सकती है कि अधिकांश अस्पतालों में कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी ही नहीं है ....और अगर कहीं कहीं है भी तो डाक्टरों को ही उस का नहीं पता .....क्या कहा, पता होगा! --- मुझे तो कभी नहीं लगा ...जिस तरह से सादे खांसी जुकाम के लिये धड़ाधड़ महंगे से महंगे, सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लिखी जा रही हैं, उस के बाद भी कैसे मान लूं कि कहीं पर भी कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी है।

Source : Chemists plan to protest OTC ban

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

पान मसाला छोड़ने के १५ साल बाद भी...

मुझे हमेशा से यह जिज्ञासा रही है कि पानमसाला छोड़ने के कितने अरसे के बाद मुंह के अंदरूनी चमड़ी की लचक लौट आती होगी ... लेकिन कभी किसी मरीज़ का इतने लंबे समय तक फॉलो-अप हो नहीं पाया कि इस का कुछ पुख्ता प्रमाण मिल पाता .. कारण कुछ भी हो सकते हैं...हम लोगों का ट्रांसफर हो जाता है, मरीज़ कब लौट कर आएंगे या नहीं, कोई भरोसा नहीं.. लेकिन मुझे यह जिज्ञासा तो हमेशा ही से रही..

आज से ९-१० साल पहले मैंने इसी ब्लॉग पर पोस्ट लिखी थी .. अब यह मुंह न खुल पाने का क्या लफड़ा है!  जब कभी भी मैं अपने ब्लॉग के स्टैटेस्टिक्स देखता हूं तो पता चलता है कि इसे इतने वर्षों से लोग निरंतर पढ़ रहे हैं ...रोज़ लगभग २०० पाठक इस पोस्ट पर आते है ं....किसी के कहने-कहलवाने से नहीं, बल्कि गूगल सर्च से वे इस पोस्ट तक पहुंचते हैं...सब कुछ पता चल जाता है .. मुझे लगता है कि मैंने वह पोस्ट इतनी अच्छी लिखी भी नहीं, तब मैं ब्लॉगिंग में नया नया था, जो सच लगा, लिख दिया था बस..

उस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे लोग इस के इलाज के लिए ईमेल भेजते हैं... कि इलाज बताओ... मैं उन को सब से बड़ा इलाज तो यही बताता हूं कि आज ही से इस लत से छुटकारा पा लो....इस काम में उन्हें अपनी मदद खुद ही करनी पड़ेगी...कोई किसी की कोई लत नहीं छुड़वा सकता .. और कब मुंह की हालत बिल्कुल दुरुस्त हो जायेगी, इस के बारे में बिल्कुल कुछ नहीं कहा जा सकता...





यह सारी भूमिका लिखनी ज़रूरी इसलिए थी क्योंकि कल मेरे पास एक ६१ साल की महिला आई थीं...अपने दांतों का इलाज करवाने के लिए....कोई परेशानी थी इस महिला को दांतों में...

मैं जब इस महिला के मुंह का परीक्षण कर रहा था तो मुझे मुंह के हालात कुछ ऐसे लगे जैसे कि यह पानमसाला खाती हों....ये लक्षण क्या हैं, इस के बारे में मैं बीसियों लेख इसी ब्लॉग पर लिख चुका हूं, अगर ज़रूरत हो तो सर्च कर लीजिए इसी ब्ल़ॉग को, मैं तो इन दस सालों में गुटखे-पान मसाले की विनाशलीला की ऐसी गाथाएं लिख चुका हूं कि एक ग्रंथ तैयार हो सकता है ...पर अब मैं यह सब लिख लिख कर पक चुका हूं...कोई सुनता है नहीं...और अगर सुनता भी है तो तब जब चिड़िया खेत को चुग कर उड़ चुकी होती है ....तब क्या फायदा!

चलिए, उस ६१ वर्षीय महिला की बात ही करते हैं.....इस महिला ने पानमसाला आज से १५ वर्ष पहले छोड़ दिया था....और जो इन्होंने मुझे बताया वह यह कि इन्होंने खाया भी कुछ महीने ही ... मैंने पूछा कि अचानक ४५ साल की उम्र में पानमसाला खाने की क्या सूझी? ...बताने लगीं कि इन के पति ये सब पानमसाला-गुटखा खूब खाते थे .. इसीलिए इन्होंने उन का छुड़वाने के लिए खुद भी शुरू कर लिया कि शायद पति को इसी बात से ही पानमसाले से नफ़रत हो जाए....लेकिन कुछ ही महीने खाने के बाद इन के मुंह में घाव हो गये...खूब उपचार करवाया ...और पानमसाला का त्याग किया, तब कहीं जाकर इन्हें इस तकलीफ़ से मुक्ति मिली ..

मैंने ये जो तस्वीरें इस पोस्ट में लगाई हैं ये सभी इन के मुहं की है ं....पानमसाला छोड़ने के १५ साल बाद अाज भी इन के मुंह में ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस (मुंह के कैंसर की पूर्वावस्था --oral pre-cancerous condition) के सभी लक्षण दिख रहे हैं....इन के मुंह के अंदर गालों की चमड़ी एकदम सख्त है . और पीछे भी देखिए तालू के पिछले हिस्से में कैसे एक सफेद सा रिंग बना हुआ है ...(Blanched out appearance of oral mucosa) ...

मैंने पूछा कि आपने १५ साल पहले जब पानमसाला छोड़ा तो क्या मुहं खुलना कम हो गया था ...कहने लगी, नहीं,ऐसी तो कोई बात नहीं थी.... लेकिन जब मैंने पूछा कि तब आप पानी के बताशे खा लेती थीं, तब इन्होंने याद आया कि हां, हां, इसी से तो तकलीफ़ का पता चला था कि मैं पानी के बताशे जैसे ही खाने लगती, वे मुंह के अंदर ठीक से जा नहीं पाते थे और टूट जाते थे ....

लेकिन अब यह कहती है ं कि अब मैं पानी के बताशे ठीक से खा लेती हूं....वैसे भी आप देख सकते हैं कि ये दो उंगली से थोड़ा ज्यादा ही मुंह इन का खुलने लगा है ...मुंह के अंदर घाव भी अब नहीं होते ...



लेकिन ये कुछ अपनी जुबान के काले रंग और गालों के अंदरूनी हिस्से के अजीब से रंग के कारण चिंतित थीं....उन्हें बता दिया कि इस के बारे में घबराने की ज़रूरत नहीं ...यह बहुत बार हार्मोन्स की वजह से या शरीर में किसी तत्व की कमी की वजह से या कुछ दवाईयों के अधिक प्रयोग की वजह से भी हो जाता है ...इस के बारे में ज़्यादा न सोचें, जीवनशैली ठीक रहें, संतुलित आहार लें...

यह पोस्ट मैं कल ही से लिखना चाह रहा था, लेकिन इतनी गर्मी है कि इच्छा नहीं हो रही थी....इस बात को लिखना बेहद ज़रूरी था क्योंकि मेेरे मोबाइल में तो सैंकड़ों तस्वीरें पड़ी रहती हैं ...लेकिन दो दिन बाद मैं मरीज़ को भूल जाता हूं...इसलिए लिख नहीं पाता....यह तो ताज़ा ताज़ा वार्तालाप था, इसलिए लिख दिया...

लिखने का मकसद केवल इतना है कि पान-मसाले से होने वाले नुकसान का सब से उत्तम इलाज यही है कि इस लत को लात मार दीजिए आज ही ......और उसी दिन से आप को इस के फायदे महसूस होने लगेंगे ...मुंह के घाव आदि भरने लगेंगे ... लेकिन इस महिला के केस से इतना हमेशा याद रखिएगा कि सब कुछ एकदम से कुछ ही दिनों में अच्छा हो जायेगा, इस की उम्मीद भी मत करिए.....इतना तो है कि आप मुंह के कैंसर से बच जाएंगे.....लेकिन मुंह कितना खुल पायेगा, कितना नहीं, यह तो आप के दंत चिकित्सक ही आप के मुंह का परीक्षण कर के बता सकते हैं...

सीधी सीधी बात कहूं तो यह है गुटखे-पान मसाला खाने वाला कभी न कभी किसी बीमारी की चपेट में आ ही जाता है ... कह रहा हूं तो मान लो और इस खतरनाक खेल से तौबा कर लो ... मोटरसाईकिल में पैट्रोल डलवाते हुए मुंह में पानमसाला उंडेलने वाले लौंडों के लिए एक मरदाना टशन होता होगा ....लेकिन जब हम लोग किसी को मुंह के कैंसर की खबर सुनाते हैं या पहली बार संदेह की ही बात करते हैं  तो उस बंदे की हालत देखी नहीं जाती .. मैं तो आए दिन मुंह के कैंसर के नये मरीज़ देखता हूं और किस तरह से वे उस समय कहते हैं कि हम गाड़ी से नहीं, प्लेन सी आज ही टाटा अस्पताल चले जाएंगे ....लेकिन वे भी कौन सा जादू की छड़ी लेकर बैठे हुए हैं...

आज के लिए इतना ही ....अगर यह पढ़ कर अभी तक आप पानमसाला-गुटखे छोड़ने की योजना ही बना रहे हैं तो God bless you.....Panmasala-Gutkha is a killer...Quit this habit now ....मैं तो इसे भी आत्महत्या ही मानता हूं..
बच के रहिए, बचे रहिए....


रविवार, 18 मई 2008

शीघ्र-पतन......अब इस का फैसला भी होगा घड़ी की टिक-टिक से !!

पोस्ट लिखने से पहले ही यह बता दूं कि मैं कोई सैक्स-रोग विशेषज्ञ नहीं हूं.....लेकिन एक आम पढ़े-लिखे सजग नागरिक होने के नाते मैं अपनी व्यक्तिगत परसैप्शन एवं सैंसिटिविटि के आधार पर यह पोस्ट लिख रहा हूं। मुझे कुछ पता नहीं कि मैं अपने इन विचारों को लिख कर ठीक कर रहा हूं या नहीं , लेकिन आज सुबह से ही मेरे मन की आवाज़ थी कि इस विषय पर लिखना होगा, सो लिख रहा हूं।

एक दूसरी बात यह भी यहां लिखना ज़रूरी है कि हिंदी चिट्ठाकारी का संसार अंग्रेज़ी चिट्ठाकारी से बहुत ज़्यादा अलग है। वहां पर ना किसी का ठीक से नाम पता, ना ही आईडैंटिटि ही पता........इसलिये आदमी कुछ भी लिख कर...कंधे झटका कर...हैल विद एवरीबॉडी कह कर पतली गली से निकल ले.....यह यहां पर संभव नहीं है क्योंकि हिंदी चिट्ठाकारी में सब अपने से ही लगते हैं...दरअसल लगते ही नहीं हैं, हैं भी अपने ही ....हिंदी चिट्ठाकारी तो भई एक परिवार सा ही दिखता है.....यहां पर जितनी भी महिलायें भी लिखती हैं वे भी एक तरह से अपने चिट्ठाकारी परिवार के साथ ही साथ अपने परिवार का एक अहम् हिस्सा ही लगती हैं...इस लिये इन की उपस्थिति में कुछ भी बहुत सोच समझ कर ही लिखना होता है।

मैं यहां पर इस तरह की कहानी सी क्यों डाल रहा हूं ...इस का कारण केवल यही है कि डाक्टर होते हुये मैं पिछले कईं महीनों से दुविधा में हूं कि क्या मुझे व्यक्तिगत अथवा सैक्स संबंधी खबरों पर अपनी टिप्पणी देनी चाहिये क्योंकि कईं बार इतनी महत्वपूर्ण खबरें मैं यहां-वहां खास कर अंग्रेज़ी के अखबारों में देखता हूं कि मेरे लिये तुरंत उन के ऊपर कुछ कहना बेहद ज़रूरी हो जाता है। अब मैं इतने महीने तक तो इस तरह के विषयों पर लिखने से गुरेज सा ही करता रहा हूं ......लेकिन यह सोच रहा हूं कि ऐसा करना हिंदी पाठकों के साथ अन्याय ही होगा। इसलिये अब से निर्णय ले लिया है कि खबर कैसी भी हो.....शरीर के किसी भी सिस्टम से संबंधित...अब मैं उस पर अपनी टिप्पणी देने से, अपना मन खोलने से नहीं हटूंगा।
कल के अंग्रेजी के अखबार में एक न्यूज़-रिपोर्ट दिखी .....
Ejaculating under 60 sec ‘premature’
Experts hope quantification of time will put many out of their misery.
अब मेरा विचार तो यही है कि इस से बहुतों की मिज़री (परेशानी) मुझे तो नहीं लगता कि किसी तरीके से कम होगी।
खबर में कहा गया है कि इस बात की अब आधिकारिक पुष्टि हो गई है कि इंटरकोर्स शुरू होने से 60सैकंड के भीतर ही अगर किसी पुरूष का वीर्य-स्खलन हो जाता है तो इसे शीघ्र-पतन ( premature ejaculation) कहा जायेगा। इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ सैक्सुयल मैडीकल के विशेषज्ञों ने पहली बार इस शीघ्र-पतन की पारिभाषित किया है....रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विश्व भर में 30 फीसदी पुरूष इस यौन-व्याधि (Sexual disorder) से परेशान हैं।

रिपोर्ट में एक अमेरिकन यूरोलॉजिस्ट ने यह भी कहा है कि शीघ्र पतन की इस से पहले वाली परिभाषायें वीर्य-स्खलन (ejaculation) की समय सीमा के बारे में कुछ कहती ही नहीं......इस लिये जो पुरूष भी शीघ्र डिस्चार्ज हो जाते थे वे यही समझते लगने लगते थे कि उन्हें तो शीघ्र-पतन की तकलीफ़ है जिस के परिणाम स्वरूप उन के वैवाहिक संबंध में दिक्कतें आनी शुरू हो जाती हैं, उन पुरूषों को बेहद मानसिक तनाव हो जाता है और यह स्थिति उन्हें अवसाद की खाई में धकेल देती है।

उस विशेषज्ञ ने तो यह भी कहा है कि इस शीघ्र-पतन को पारिभाषित किये जाने का यह प्रभाव होगा कि जो पुरूष एक मिनट में स्खलित हो जाते हैं ....वे अब जान जायेंगे कि ऐसा होना एक मैडीकल अवस्था है तो चुपचाप खामोशी में इसे सहना से बेहतर है चिकित्सक से मिल कर इस का निवारण कर लिया जाये। और एक बार जब प्री-मैच्योर इजैकुलेशन ( शीघ्र-पतन) का डायग्नोसिस हो जाये तो उस की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा एवं दवाईयां शुरू कर दी जाती हैं।

रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि अब चूंकि शीघ्र-पतन को पारिभाषित कर ही दिया गया है...इस से दवा-कंपनियों को भी शीघ्र-पतन के मरीज़ों को भविष्य में किये जाने वाले क्लीनिकल ट्रॉयल्ज़ हेतु चिंहिंत करने में आसानी हो जायेगी.......( क्योंकि मापदंड जो फिक्स हो गया है......60सैकंड से कम वाला शीघ्र-पतनीया और 61सैकंड वाला धुरंधर खिलाड़............आप ने नोट कर लिया न कि मैंने कहा खिलाड़ न कि लिक्खाड़) ...यह कोष्ठक वाली लाइन मीडिया डाक्टर की अपनी है............

अच्छा खबर की बात तो होती रहेगी...पहले उस कार्टून के बारे में तो दो बातें कर लें जिसे इस न्यूज़-रिपोर्ट के साथ दिया गया है। इस कार्टून में यह दर्शाया गया है कि एक दंपति अपने शयन-कक्ष में अलग-अलग पड़े हुये हैं....चद्दर ओड़ के....पुरूष की हालत का ज्ञान इस बात से लगाया जा सकता है कि उस की जीभ बाहर निकली हुई है और चेहरे से पसीना टपक रहा है.....और महिला हैरान-परेशान सी यही सोचे जा रही है कि आज इस ने इतनी तेज़-रफ्तार गाड़ी क्यों चलाई !!....और इस के साथ-साथ उन की चादर पर एक स्टॉप-वॉच भी पड़ी हुई है जिस पर 55 सैकंड की रीडिंग है.....यह स्टॉप-वाच और उस पर यह 55 सैकंड वाली रीडिंग देख कर सोच रहा हूं कि ये अखबार वालों के कार्टून भी बहुत नटखट होते हैं........अब दोस्तो हिंदी और अंग्रेज़ी माध्यम में अंतर ही देख लीजिए......उस इंगलिश के पेपर में तो कार्टून छप भी गया....कार्टून के माध्यम से काफी कुछ कह भी दिया और इधर मुझ बेचारे को कार्टून का सही वर्णन करते हेतु सही शब्दों को ढूंढते ढूंढते ही मेरी डियर नानी मां याद आ गई।....सचमुच याद आ गई दोस्तो क्योंकि दोस्तो जब हम भी हम उस के यहां दो-तीन दिन रहने को जाते थे तो वह देवी हम से बेहद प्यार करती थी, बहुत ही बेहतरीन खाना खिलाती थी, पसीने से लथपथ होते हुये भी हमें रोज़ाना तंदूर की कड़क रोटियां खिलाती थीं और हम सब के लिये हैंड-पंप चला चला कर पानी की गागरें भर कर सुबह सुबह रख लेती थीं ...वरना जिस समय भी घर के बाहर गली में लगे कमेटी के नल से पानी आता था, पीतल की बड़ी बड़ी भारी गागरों में पानी ला कर इन पानी के मटकों को भर कर रखती थीं...........उस की केवल और केवल एक शिकायत थी कि तुम लोग इतने खुराफाती हो कि गागर में पूरा हाथ डाल कर पानी निकालते हो.....इस से पानी खराब हो जाता है, ऐसा वह समझती थी .....इस समय सोच रहा हूं कि क्या वह गलत कहती थी........बिल्कुल नहीं, मैंने भी तो चंद यही बातें ही सीखीं....लेकिन इतने सारे साल कठिन पढ़ाई करने के बाद !!!....अच्छा प्यारी सी स्वर्गीय नानी की बाकी बातें फिर कभी , अभी तो मैंने बस यह प्रूफ मुहैया करवाना था कि कार्टून को ब्यां करते करते मेरी तो असल में ही नानी की प्यारी यादें हरी हो गईं

भारत में किये गये सर्वे बतलाते हैं कि इस देश में सभी व्यस्क पुरुषों में से 10 फीसदी पुरूष ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह के सैक्सुयल-डिस्फंक्शन से जूझ रहे हैं .....जिन में से 7 फीसदी पुरूष ऐसे हैं जो इस शीघ्र-पतन की वजह से परेशान हैं। मैक्स हास्पीटल के एक यूरोल़ाजिस्ट के अनुसार....... “Premature ejaculation most commonly affects Indian men aged 19-26years and decreases by nearly 50% after they reach 30.”
यानि कि 19-26 वर्ष के भारतीय युवक आम तौर पर इस शीघ्र-पतन से परेशान रहते हैं जो तकलीफ़ इन के तीस वर्ष के होते होते आधी हो जाती है। अब आप देखिये कि कितनी महत्वपूर्ण स्टेटमैंट हैं....इस पर चर्चा अभी थोड़ी ही देर में करते हैं।
…..इसी यूरोलॉजिस्ट ने आगे इस न्यूज़-रिपोर्ट में कहा है....... “Till now, whenever patients complained of Premature ejaculation or reaching climax before five minutes of intercourse, we first put them on counseling sessions. However, now we know that in patients who ejaculate within a minute, it is a pathological disorder that would need immediate medical intervention. In absence of any standardization earlier, doctors failed to diagnose serious premature ejaculation cases thereby prolonging mental and physical trauma for the patient”. .......यानि रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक तो जब भी मरीज़ शीघ्र-पतन की शिकायत करते थे या यह कहते थे कि इंटर-कोर्स के पांच मिनट के अंदर ही उन का वीर्य-स्खलन हो गया ( यानि काम हो गया या छूट गया !)…..तो हम लोग सब से पहले उन की काउंस्लिंग शुरू कर दिया करते थे। यह डाक्टर आगे कहते हैं कि अब हमें पता चल गया है कि जो पुरूष एक मिनट के अंदर ही स्खलित हो जाते हैं.....ऐसा होना एक पैथॉलाजिक डिस्आर्डर है.....यानि की बीमारी है यह....जिस के लिये तुंरत मैडीकल मदद ली जानी चाहिये। यह डाक्टर आगे यह फरमाते हैं कि इस से पूर्व चूंकि कोई मानक तय नहीं थे .......डाक्टर गंभीर तरह के शीघ्र-पतन रोगियों के डॉयग्नोज़िज़ में असमर्थ रहते थे जिस के कारण मरीज बेचारा लंबे समय तक फिजीकल एवं मानसिक यातना सहता चला जाता था।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ................
रिपोर्ट आपने भी पढ़ ही ली....और उस में दिये गये कार्टून के बारे में भी आपने जान ही लिया, अब आप का इस के बारे में वैसे ख्याल है क्या ?........ठीक है, चलिये , मैं अपना ख्याल ही पहले आप के समक्ष रखता हूं।
सब से पहले तो मैं यह मानता हूं कि जिन लोगों ने भी यह परिभाषा दी है...वे मेरे से बहुत ज़्यादा समझदार हैं, अपने फील्ड के धुरंधर एक्सपर्ट हैं....इसलिये यह सब कुछ बहुत गहन रिसर्च का ही नतीजा होगा, लेकिन एक ले-मैन की तरह तो मुझे टिप्पणी देने से कोई रोक तो नहीं सकता, है कि नहीं ?...

तो मेरी सुनिये......मुझे तो यह खबर पढ़ कर हंसी सी ही आई.........नहीं, नहीं, मैं किसी तरह से किसी रोगी का मज़ाक नहीं उड़ा रहा हूं.....लेकिन जो दशा एवं दिशा आज रिसर्च की है उस के बारे में सोच कर बेहद अजीब सा लगता है। यही सोचता रहा कि अब कोई मरीज जब अपने डाक्टर के पास इस तरह की तकलीफ के साथ जायेगा तो पहले तो डाक्टर उसे कहेगा कि पास वाली दुकान से एक स्टॉप-वाच लेकर घर जा और कल आ कर बतला कि तुम 60 सैकंड की समय सीमा के अंदर ही थे कि उसे एक-दो सैकंड के लिये पार कर पाये थे.....तुम्हारी तो भई आगे की मैनेजमैंट इस टाइम पर ही निर्भर करेगी।

फिर ध्यान आया कि एक बार यह 60 सैकंड वाली बात पूरी तरह पब्लिक हो जाये.....मुझे पूरा विश्वास है कि विकसित देशों की कंपनियां ऐसे ऐसे गैजेट्स कर लेंगी जिन का नारा ही यही होगा कि इन क्रूशीयल क्षणों का मज़ा आप इस स्टॉप-वाच को शुरू और बंद करने में क्यों बर्बाद किये जा रहे ...हम ने बना दिया है यह गेजेट जिसे बस आपने मैदाने-जंग में उतरने से पहले पहनना है, इस पर सारी रीडिंग्ज़ अपने आप आ जायेंगी......आप को तो बस इस के सिवा कुछ करना ही है ही नहीं ( really ?)…।

मेरा विचार यह है कि अब इस रिसर्च का, शीघ्र-पतन की इस नईं परिभाषा का इतना प्रचार-प्रसार कर दिया जायेगा कि जिन लोगों के वैवाहिक संबंध जीवन रूपी सीधी सादी पटड़ी पर सरपट दौड़े जा रहे हैं ...उन को ख्वाहख्मां से एक तरह की हीन भावना का शिकार बना कर , उन के दांपत्य जीवन में भी इस तरह की परिभाषायें जहर ही घोलेंगी, उन के दांपत्य जीवन की रेल को ये मानक पटड़ी से नीचे गिरा कर ही दम लेंगी।

यही सोच रहा हूं कि जिस देश में काम-सूत्र की रचना हुई ...क्या अब इस तरह के टुच्चे-टुच्चे सर्वे यह तय करेंगे कि कौन शीघ्र-पतनी है और कौन तीसमारखां.....। मुझे तो पता नहीं क्यों ये सब सर्वे-वर्वे बिलकुल बेकार से ही लगते हैं......जैसा कि आप ने ऊपर रिपोर्ट में पढ़ा कि पहले जो मरीज पांच मिनट तक नहीं चल (!!) पाते थे ….उन्हें ही काउंसिल किया जाता था ,लेकिन अब ऐसा कौन सा कर्फ्यू लग गया कि आप विशेषज्ञ लोग सीधे ही पांच मिनट से एक मिनट पर उतर आये।

मेरे विचार में इस तरह की रिसर्च-वर्च सब दवा कंपनियां ही करवाती होंगी.....अब वे ढेरों दवाईयां बना रही हैं....वे अपने गोदाम भरने के लिये ही तो बना नहीं रही हैं.....अब उन्हें हर कीमत पर ग्राहक चाहिये......शीघ्र-छुट्टिये( प्री-मेच्योर इजैक्युलेटरस) नहीं मिल रहे तो मीडिया में इस तरह कि रिपोर्टें बारम्बार छाप कर इस सीधी-सादी जनता का दिमाग इतनी हद तक खराब कर दो, इन में इतनी ज़्यादा हीन भावना पैदा कर दो कि दिहाड़ीदार मज़दूर भी शाम को दिहाड़ी कर के लौटते समय तेल, हल्दी, घी के साथ साथ पास वाली दुकान से इस के लिये भी एक टेबलेट लेना न भूले........बच्चे के लिये कोई छोटा मोटा फल खरीदना तो पीछे कहीं रह गया ....उस मजदूर की ऐसी की तैसी...कैसे न खरीदे वो इस गोली को जो उसे इस हीन-भावना से उठा तो पाये।

विचार मेरा यह भी है कि इस तरह की न्यूज़-रिपोर्टों में सैक्स को एक मकैनिकल-प्रक्रिया का ही दर्जा दे दिया जाता है.......यानि कि 2 जमा 2 चार.....लेकिन सैक्स एक बिल्कुल ही व्यक्तिगत सी , बेहद व्यक्तिगत सी बात है..जो कोई भी दिमागी तौर पर तंदरूस्त बंदा हर किसी के साथ डिस्कस नहीं करता फिरता.........और फिर इस देश में.....तौबा..तौबा....इस देश में तो सैक्स के विभिन्न पहलू हैं.........इतने कहने पर भी मजबूर हूं कि यहां पर तो सैक्स के पूजा है......एक आराधना है, अर्चना है......केवल किसी अबला का शोषण नहीं है, बाहर के मुल्कों की तरह स्लीपिंग पिल नहीं है, वासना नहीं है.......................ऐसा क्यों लिख रहा हूं.......क्योंकि ज़िंदगी की किताब के जो पन्ने रोज़ाना पढ़ता हूं उन के आधार पर ही सब कुछ कह रहा हूं ...कोई अपनी तरफ से मिर्च-मसाला नहीं लगा रहा......कईं ऐसे ऐसे मरीज़ देखता हूं जिन की हालत कईं कईं बरसों से कुछ इस तरह की है कि वे तो अपनी दिन-चर्या भी नहीं कर पाते..........और मेरे महान देश की ये पूजनीय महान देवियां इन की सेवा-सुश्रुषा में बिल्कुल मां की तरह से सारा जीवन एक बिता डालती हैं.........अब इन दंपतियों को यह एक मिनट का पाठ कोई भी पढायेगा तो क्या बच पायेगा, अगर ज़ुर्रत भी करेगा तो तमाचा ही खायेगा !! मैंने यह भी सुन रखा है कि अमीर मुल्कों की औरतें तो अच्छे भले मर्दों को अपनी नाइट-गाउन की तरह बदल कर , उन के GPL लगा कर किसी दूसरे की हो जाती हैं......( क्या ......अब आप यह पूछ रहे हैं कि यह GPL तो बता कि क्या होता है.....आप सब सुधि पाठक हो, आप को यह ज्ञान तो होना ही चाहिये....नहीं है तो आपस में पूछ कर काम चला लो,भाई। फिर भी कहीं पता ना लग पाये तो इस नाचीज़ को ई-मेल कर के पूछ लीजियेगा......कोई बात नहीं....अभी तो बस इतना समझ लीजिये कि यह है कोई सीरियस सी बात !!) …..हां, इन के लिये तो बहुत ज़रूरी है इस तरह की शीघ्र-पतन की डैफीनीशन्ज़.....क्योंकि 55 सैकंड तक ही चल पाने वाले निकम्मे पति से कानूनी तौर पर छुटकारा लेने से लिये उसे कोई तो ग्राउंड चाहिये कि नहीं !!

एक बात आपने भी नोटिस की होगी इस रिपोर्ट में कि विशेषज्ञ कह रहे हं कि भारत में शीघ्र पतन के बहुत से केस 19-26 वर्ष के दरमियान पाये जाते हैं ....और 30वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते इन केसों की संख्या आधी रह जाती है। इस के बारे में थोड़ी चर्चा करते हैं......इस का कारण जो मैं समझ पाया हूं कि इस उम्र के दौरान इन नीम-हकीमों ने इन छोरों का दिमाग इतना ज़्यादा खराब कर दिया होता है कि वे अपने आप को असक्षम सा समझने लगते हैं। तरह तरह के पैम्फलेट ये सो-काल्ड सैक्स –स्पैशलिस्ट छपवा कर सार्वजनिक स्थानों पर बांटते फिरते हैं जिन में सब कुछ इतने ज्यादा नैगेटिव एवं डरावने से ढंग से कहा गया है कि इस उम्र के नौजवान अपने इतने ज़्यादा प्रोडक्टिव वर्षों में तरह तरह की हीन भावनाओं से ग्रस्त हो जाते हैं। इन में अकसर कुछ इस तरह से बातें की गई होती हैं कि बचपन की गलतियों से बरबाद हुये जीवन को ठीक कर लो, हस्त-मैथुन से , स्वप्न-दोष से जो लिंग टेढ़ा हो चुका है, बिल्कुल क्षीण हो चुका है, उस को ठीक कर भई , खानदानी हकीम जी आप लोगों के शुभचिंतक हैं जो बादशाही इलाज से सब कुछ ठीक ठाक कर देंगे........................अरे, बेवकूफों, ठीक तो उसे करोगे जो ठीक नहीं होगा......इन युवकों को बस यही तकलीफ है कि इन का दिमाग आप नीम-हकीमों ने ही तो खराब कर रखा है..they have literally mentally tortured some of our youth in believing that they are capable of doing nothing…..that they are impotent. Unfortunately once such a feeling takes roots in tender minds, then these .....इन्हें ना तो कुछ है , ना ही होगा......अगर कोई व्याधि थोड़ी बहुत है भी , तो क्वालीफाईड चिकित्सक किस लिये मैडीकल कालेजों से हर साल इतनी संख्या में निकल रहे हैं………….वे आखिर किस मर्ज की दवा हैं।

बात सोचने की यह भी तो है कि अगर इन युवकों में शीघ्र-पतन की समस्या इतनी ही ज़्यादा गहरी है तो फिर तीस साल के बाद इस शीघ्र-पतन के लोग आधे क्यों रह जाते हैं .....क्या ये सारे डाक्टर के पास जा कर इलाज करवा लेते हैं.......नहीं, नहीं, मुझे तो नहीं लगता कि चंद लोगों ( आटे में नमक के बराबर!)…के इलावा लोग इस तकलीफ़ के कारण किसी डाक्टर के पास कभी जाते भी हैं !!.....सीधी सी बात है कि इतने धक्के खा के इधर उधर वे इस उम्र में थोड़े मैच्योर होने लगते हैं और इस तरह की काल्पनिक (ज्यादातर काल्पनिक ही !!!!!!!!!!!!!......कोरी काल्पनिक.......!!!!!!) व्याधियों से वे ऊपर उठने लगते हैं। अरे भई इस देश के युवक अच्छी तरह से जानते हैं कि उन के वंशज क्या थे.....वे सैक्स को किस स्तर पर रखते थे.........उन्हें कुछ समय तक तो ये पैंफलेट गुमराह ( सैक्स शिक्षा के दुर्भाग्यपूर्ण अभाव के कारण ) कर सकते हैं लेकिन उन के पुरातन संस्कारों की जड़े इतनी पुख्ता हैं कि ये उन्हें डगमगाने नहीं देतीं।

हां, युवक की बात तो हो गई. लेकिन इतना तो हम मानते ही हैं कि कुछ दवाईयों के प्रयोग से इस तरह की समस्या टैंपरेरी तौर पर आ सकती है जिसे डाक्टर के परामर्श से दवा चेंज करने पर बिलकुल ठीक किया जा सकता है। और हां, कुछ शारीरिक तकलीफें भी हैं जिन में इस तरह की समस्यायें कभी कभी किसी को हो सकती हैं........जिन का समाधान चिकित्सक मरीज को बताते ही रहते है

हां, अगर किसी को कोई रियल बीमारी की वजह से ही यह सब हो रहा है तो फैमली फिजीशियन उसे किसी सर्जन अथवा यूरोलॉजिस्ट के पास चैक-अप क लिये रैफर कर ही देता है जिधर उस का आसानी से इलाज हो जाता है । लेकिन जाते जाते एक बात कहनी बहुत जरूरी समझता हूं कि इस तरह की तकलीफ़ें का केंद्र-बिंदु हम मन ही होता है.....और इन का समाधान भी हमारी पुरातन योगिक क्रियायों में धरा-पड़ा है....प्राणायाम्, ध्यान........और सब से ज़रूरी कि सभी व्यस्नों से कोसों दूर रहा जाये........।सादा, पौष्टिक भोजन लें। और क्या , बाकी सब राम भरोसे छोड़ दें.........सैकस कोई मैराथान रेस नहीं है...........किसी को दिखावा थोडे ही करना है..............इस देश में सैक्स को बहुत ऊंचा स्थान हासिल है.......पूजा के समान है यह......क्या आप यह नहीं मानते ??.......वैसे भी मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी ...........क्या पता कोई 30सैकंड वाले दंपति इतने खुश हों और बीस मिनट सरपट दौड़ने वाला धुरंदर धावक अंदर से बीवी की गालियों का ही पात्र बनता हो।

यह सब इतना पर्सनल है.....इतना पर्सनल है कि मेरी मीडिया से यही गुजारिश है कि कम से कम इस देश के बंदों को चैन से सोने तो दो यारो, पैसा कमाने के , सैंसेशन क्रियेट करने के और मौके कम हैं कि आपने उस की पलंग की चादर पर एक स्टॉप-वाच रख कर उस की नींद ही हराम कर दी। कुछ तो सोचो, यारो, कुछ तो सोचो.............बस, और क्या कहूं !!
जाते जाते बस इतना आप सब ब्लागर-बंधुओं से पूछ रहा हूं कि अगर आप इजाजत दें तो इस न्यूज़-रिपोर्ट के साथ जो कार्टून पेपर में छपा है उसे भी स्कैन कर के इस पोस्ट में डाल दूं.........लेकिन आप की आज्ञा के बिना नहीं......उसे देख कर आप बहुत हंसेंगे !!
ps……अगर किसी को यह पोस्ट पढ़ कर थोडा बहुत अटपटा लगा हो कि अब हिंदी चिट्ठों में भी लोग दिल खोलने लगे हैं तो उन से मैं कर-बद्ध क्षमा-याचक हूं.......लेकिन इतना तो आप को अब तक का मेरा ट्रैक-रिकार्ड देख कर यकीन हो ही गया होगा कि I am not interested in getting cheap thrills by writing such pieces……और इस का छोटा सा प्रूफ यह ही है कि मुझे पता है कि मेरा टीन-एज बेटा मेरी सारी पोस्टें पढ़ता है, और फिर भी मैंने इस तरह के सेंसेटिव से विषय पर लिखने का फैसला लिया क्योंकि I feel strongly about this sensitive issue because it involves millions of simple, naive, innocent people worldwide !!

बस, अब तो लिखना बंद करूं ....कहीं ऐसा न हो कि आप सब लोग अपनी टिप्पणीयों के माध्यम से मेरी धुनाई ही कर दो।

बुधवार, 7 जनवरी 2009

कईं बार ऐसा भी होता है – आगे कुआं पीछे खाई !!

पी.एस.ए टैस्ट – इस का पूरा नाम है प्रोस्टेट स्पैसिफिक ऐंटीजन टैस्ट। दोस्तो, यह तो हम सब जानते ही हैं कि बढ़ती उम्र के साथ कईं बार पुरूषों को पेशाब में थोड़ी दिक्तत सी होने लगती है ---बार बार पेशाब आना, बिल्कुल थोड़ा थोड़ा पेशाब आना, पेशाब करने में दिक्तत होना अर्थात् ज़ोर लगना। इन सब के बारे में आपने अकसर सुना होगा और यह भी सुना होगा कि ये सब प्रोस्टेट के बढ़ने के हो सकते हैं--- भारत के इस हिस्से में तो आम तौर पर यही कहा जाता है कि उस की गदूद बढ़ गई है।

गदूद बढ़ने को कहते हैं --- प्रोस्टेट एनलार्जमैंट । इस के लिये सर्जन से संपर्क करना आवश्यक होता है जो कि अल्ट्रासाउंड करवाने के बाद और चैक-अप करने के बाद यह निर्णय लेते हैं कि इस का आप्रेशन करना अभी बनता है कि नहीं, क्या अभी दवाईयों से चलेगा या नहीं। इस में ऐसे भी कईं मरीज़ देखे जाते हैं जिन्हें थोड़ी बहुत तकलीफ़ तो होती है लेकिन वे इस तरफ़ ध्यान नहीं देते लेकिन एक दिन अचानक पेशाब रूक जाने की वजह से इन्हें एमरजैंसी में पेशाब के लिये नली ( catheter) भी डलवानी पड़ सकती है --- यह नली स्थायी तौर पर ही नहीं लग जाती --- इस से मरीज़ के रूके हुये पेशाब को निकाल दिया जाता है और उस के बाद इस बढ़े हुये प्रोस्ट्रेट के इलाज के बारे में सोचा जाता है।

अब देखते हैं एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात --- पुरूष की प्रोस्टेट ग्रंथि एक प्रोटीन बनाती है जिसे कहते हैं प्रोटीन स्पैसिफिक ऐंटीजन जिस के स्तर को रक्त की जांच द्वारा मापा जा सकता है। कुछ बीमारियों में जिन में प्रोस्टेट का कैंसर शामिल है प्रोस्ट्रेट इस को ज्यादा मात्रा में बनाने लगता है इसलिये किसी पुरूष के रक्त की जांच कर के डाक्टरों को प्रोस्टेट कैंसर का बिल्कुल प्रारंभिक अवस्था में पता चल सकता है।

डाक्टर लोग अभी तक इस के बारे में एक राय नहीं बना पाये हैं कि क्या 50 वर्ष की उम्र पार कर लेने पर सभी पुरूषों का यह टैस्ट करवाना उचित है । इस का कारण यह है कि इस प्रोस्टेट टैस्ट के द्वारा जिन प्रोस्टेट कैंसर का पता चलता है उन में से बहुत से केस ऐसे भी होते हैं जिन में से यह कैंसर प्रोस्टेट के एक बिल्कुल ही छोटे से क्षेत्र तक ही महदूद रहता है और ये कभी भी आगे फैलता नहीं है जिस की वजह से कोई मैडीकल व्याधियां उत्पन्न ही नहीं होती।

अब ऐसा है न कि इस तरह के बिल्कुल छोटे से कैंसर का भी जब किसी को पता चलता है और वह उस का कोई उपचार नहीं करवाता तो भी उस की तो रातों की नींद उड़ी रहती है। और अगर वह इस तरह के बिल्कुल छोटे कैंसर का ( जिस ने भविष्य में कभी फैलना ही नहीं था) --- उपचार करवा लेता है तो उस को इस के इलाज के संभावित साइड-इफैक्ट्स जैसे कि यौन-सक्षमता का खो जाना और पेशाब की लीकेज की शिकायत हो जाना ( possible side effects such as loss of sexual function, or leakage of urine). वैसे देखा जाए तो बिल्कुल उस कहावत जैसी बात ही यहां भी लग रही है न --- आगे कुआं पीछे खाई --- बंदा जाए तो कहां जाए !!

दूसरी तरफ़ बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर प्रोस्ट्रेट के ऐसे किसी कैंसर को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ लिया जाए और समुचित उपचार कर दिया जाए तो समझ लीजिये बंदे को जीवनदान मिल गया। इसीलिये डाक्टर आज कर इस बात को खोज निकालने में पूरे तन-मन से लगे हुये हैं कि आखिर किस तकनीक से उन्हें यह पता लगे कि कौन सा प्रोस्टेट कैंसर फैलेगा और किस केस में यह शेर सारी उम्र सोया रहेगा ------- ताकि सोये हुये शेर को बिना वजह क्यों जगाया जाए !!

इस टैस्ट के लिये कोई विशेष तैयारी की आवश्यकता होती नहीं है लेकिन इस की रिपोर्ट कृत्तिम तौर पर बहुत बढ़ी हुई न आए ( artificially high test level) इस के लिये अमुक व्यक्ति को टैस्ट से पूर्व एक दिन संभोग नहीं करना चाहिये। और अगर आप कोई दवाईयां ले रहे हैं तो इस की जानकारी अपने डाक्टर को दे दें – इस से आप के डाक्टर को आप के टैस्ट का परिणाम समझने में आसानी होगी।

अब यह पोस्ट पढ़ने के बाद किसी के भी मन में यह प्रश्न पैदा होना स्वाभाविक है कि अब तक अगर डाक्टर लोग ही बिल्कुल छोटे प्रोस्टेट कैंसर के उपचार के लिये अपनी एक राय नहीं बना पाये हैं तो हम लोग कैसे निर्णय लें कि इलाज करवायें या नहीं ---- सर्जरी करवाये या नहीं ---- इस का जवाब तो दोस्तो यही है कि ये जो ये जो मंजे हुये सर्जन होते हैं इन को मरीज़ की जांच करने के बाद, अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट से , पीएसए टैस्ट से काफ़ी हद तक अनुमान हो ही जाता है कि इस केस की सर्जरी की आवश्यकता है कि नहीं !! और ध्यान रहे कि इन धुरंधर विशेषज्ञों की राय के आगे नतमस्तक होने के इलावा कोई चारा भी तो नहीं है क्योंकि इन्हें अंदर की भी सारी खबर है।

आज कल तो प्रोस्टेट के इलाज के लिये बहुत ही बढ़िया तकनीकों का पसार हो चुका है । दूरबीन से भी बढ़े हुये प्रोस्टेट को निकाल दिया जाता है --- इसलिये कोई इतना घबराने की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन बात इस बात का ज़रा ध्यान रहे कि अगर आप की नज़र में आप का कोई मित्र या संबंधी बढ़े हुये प्रोस्टेट के लिये दवाईयां खाये चला जा रहा है तो उसे कहें कि अगली बार किसी सर्जन से जब परामर्श हेतु जाएं तो इस टैस्ट के बारे में थोड़ी चर्चा ज़रूर करें।

क्या मैं भी कभी कभी सुबह सुबह इतने गंभीर विषयों पर लिखना शुरू कर देता हूं ---- तो, ठीक है , दोस्तो, खुश रहिये और परमात्मा आप सब को सेहत की नेमत से नवाज़ता रहे ---- मुझे अभी ध्यान आ रहा है कि मैं भी आप सब हिंदी के प्रकांड विद्वानों में घुस कर हिंदी के शब्दों की धज्जियां उड़ाने में लगा रहता हूं --- और आप सब लोग इतने विशाल हृदय हो कि फिर भी मुझे स्वीकार कर लेते हो--- दरअसल मैं जिन शब्दों को जैसा सुनता हूं वैसा ही लिख देता हूं --- कल ही एक सज्जन की पोस्ट से पता चला ( कथाकार डॉट काम) कि सही शब्द है खतो-किताबत न कि खतो-खिताबत जैसा कि मैं सोचा करता था --- और दोस्तो मुझे यह तो ज़रूर ही बताने की कृपा करें कि सही शब्द सांझा है या साझा ---किसे से विचार सांझे किये जाते हैं या साझे ----मुझे इस में बहुत बार दुविधा होती है !!

अच्छा तो आज का दिन आप सब के लिये बहुत सी खुशियां ले कर आए ---- दो दिन पहले कनॉट-प्लेस की एक दीवार पर लिखी इस बात का ध्यान आ रहा है ------ When you look for the good in others, you discover the best in yourself !!----- जब आप किसी दूसरे की अच्छाईयां ढूंढने में लग जाते हो और आप को खुद की श्रेष्टताएं , विलक्षणता स्वयं ही दिखनी शुरू हो जाती हैं ---कहने वाले ने भी कितना बढ़िया बात कर दी है, दोस्तो !!

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

मुंह के ये घाव/छाले.....II……..कुछ केस रिपोर्ट्स

कल मैंने इन मुंह के छालों पर पहली पोस्ट लिखी थी और आज मैं हाजिर हूं कुछ केस रिपोर्ट्स के साथ।

- एक महिला ने जब होली मिलन के दौरान मिठाईयां खाईं तो उन के मुंह में छाले से हो गये जिस पर वे हल्दी लगा कर काम चला रही हैं।

अब यह एक बहुत ही आम सी समस्या है...इतने ज़्यादा मुंह के मरीज़ जो आते हैं उन से जब बिल्कुल ही कैज़ुयली पूछा जाता है कि कैसे हो गया यह, तो बहुत से लोगों का यही कहना होता है कि बस, एक-दो दिन पहले एक पार्टी में खाना खाया था। तो,इस से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं................हमें यही सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इन विवाह-शादियों के खाने में तरह तरह के मसालों वगैरह की भरमार तो होती है जो कि हमारे मुंह के अंदर की कोमल चमड़ी सहन नहीं कर पाती.......अब पेट ने तो गैस बना कर, बदहज़मी कर के अपना रोष प्रकट कर लिया, लेकिन मुंह की चमड़ी को अपना दुःखड़ा कैसे बताये ! सो, एक तरह से मुंह में इस तरह के घाव अथवा छाले वह दुःखड़ा ही है। और अकसर ये छाले वगैरह बिना कुछ खास किये हुये भी दो-तीन दिन में ठीक हो ही जाते हैं। आम घर में इस्तेमाल की जाने वाली कोई प्राकृतिक वस्तु (हल्दी आदि) से अगर किसी को आराम मिलता है तो ठीक है , आप उसे लगा सकते हैं। लेकिन कभी भी इतनी सी चीज़ के लिये न तो ऐंटीबायोटिक दवाईयों के ही चक्कर में पड़े और न ही मल्टीविटामिनों की टेबलेट्स ही लेनी शुरू कर दें। इन को कोई खास रोल नहीं है......यह लाइन भी बहुत बेमनी से लिख रहा हूं कि कोई खास रोल नहीं है। मेरे विचार में तो कोई रोल है ही नहीं.....जैसे जैसे इस सीरीज़ में आगे बढ़ेंगे, इन छालों के लिये बिना वजह ही इस्तेमाल की जाने वाली काफी दवाईयों को पोल खोलूंगा।

लेकिन किसी का मिठाई खा लेने से ही मुंह कैसे पक सकता है ?........जी हां, यह संभव है। क्योंकि पता नहीं इन मिठाईयों में भी आज कल कौन कौन से कैमीकल्स इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन क्या करें, हम लोगों की भी मजबूरी है...अब कहीं भी गये हैं तो थोड़ा थोड़ा चखते चखते यह सब कुछ शिष्टाचार वश अच्छा खासा खाया ही जाता है। लेकिन हमारे किसी तरह के अनाप-शनाप खाने को पकड़ने के लिये यह हमारे मुंह के अंदर की नरम चमड़ी एक बैरोमीटर का ही काम करती है....झट से इन छालों के रूप में अपने हाथ खड़े कर के हमें चेता देती है। अभी मैं कैमिकल्स की बात कर रहा हूं तो एक और केस रिपोर्ट की तरफ ध्यान जा रहा है।

एक व्यक्ति जब भी सिगरेट पीता था तो उस के मुंह में छाले हो जाते थे.......

सिगरेट पीने पर भी मुंह में इस तरह के छाले होने वाला चक्कर भी बेसिकली कैमिकल्स वाला ही चक्कर है। यह तो हम जानते ही हैं कि सिगरेट के धुयें में निकोटीन के अतिरिक्त बीसियों तरह के कैमीकल्स होते हैं जिन्हें हमारे मुंह की कोमल त्वचा सहन नहीं कर पाती है और इन छालों के रूप में अपना आक्रोश प्रगट करती है। अगर हम इस नरम चमड़ी के इस तरह के विरोध को समय रहते समझ जायें तो ठीक है ....नहीं तो, यूं ही तो नहीं कहा जाता कि तंबाकू का उपयोग किसी भी रूप में विनाशकारी है।

एक अन्य केस रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति ने ध्यान दिया है कि जब भी वे बिना धुली कच्ची सब्जी, फल इत्यादि खाते हैं तो उन्हें मुंह में एक फुंशी सी हो जाती है।

कौन लगायेगा इस का अनुमान !...जी हां, यह भी कैमीकल्स का ही चक्कर है। आज कल सब्जियों - फलों पर इतने कैमीकल्स-फर्टीलाइज़र इस्तेमाल हो रहे हैं कि बिना धोये इन को खाने से तो तौबा ही कर लेनी ठीक है। फलों को भी तरह तरह के कैमीकल्स लगा कर तैयार किया जाता है.....आपने देखा है ना जो अंगूर हमें मिलते हैं उन के बाहर किस तरह का सफेद सा पावडर सा लगा होता है....ये सब कैमीकल्स नहीं तो और क्या हैं !....आम के सीज़न में आमों का भी यही हाल है......कईं बार जब हम आम को चूसते हैं तो क्यों हमारे मुंह पक सा जाता है....सब कुछ कैमीकल्स का ही चक्कर है। ऐसे में यही सलाह है कि सभी फ्रूट्स को अच्छी तरह धो कर ही खाया जाये। और आम को काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है...नहीं तो पता नहीं इसे चूसते समय हम इस के छिलके के ऊपर लगे कितने कैमीकल्स अपने अँदर निगल जाते होंगे। वैसे बातें तो ये बहुत छोटी-छोटी लगती हैं लेकिन हमारी सेहत के लिये तो शायद यही बातें ही बड़ी बड़ी हैं।

एक 20-22 वर्ष का नौजवान है...उस को हर दूसरे माह मुंह में छाले हो जाते हैं । वह घर से बाहर रहता है। अकसर इन छालों के लिये सारा दोष कब्ज के ऊपर मढ़ दिया जाता है। उस युवक ने दांतों की सफाई भी करवा ली है, लेकिन अभी वह इन छालों से निजात पाने के लिये कोई स्थायी इलाज चाहता है।

इस युवक की उम्र देखिये....20-22 साल.....ठीक है , उस के मुंह में टारटर होगा, या कोई और दंत-रोग होगा जिस के लिये उस ने दांतों एवं मसूड़ों की सफाई करवा ली है। ठीक किया । लेकिन अगर इस से यह समझा जाये कि अब मुंह में छाले नहीं होंगे, तो मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। इस का कारण मैं विस्तार में बताना चाहूंगा।

यह जो कब्ज वाली बात भी अकसर लोग कहने लग गये हैं ना इस में कोई दम नहीं है......कि कब्ज रहती है,इसलिये मुंह में छाले तो होंगे ही। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब 1982 में हमारे प्रोफैसर साहब इन मुंह के छालों के बारे में पढ़ा रहे थे तो उन्होंने भी इस कब्ज से मुंह के छालों के लिंकेज को एक थ्यूरी मात्र ही बताया था। और सब से ऊपर हाथ कंगन को आरसी क्या .....अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में मैंने तो यही देखा है कि जब हम लोगों को कहीं कुछ समझ में नहीं आता तो हम झट से कोई स्केप-गोट ढूंढते हैं ...विशेषकर ऐसी कोई जो कि लोगों की साइकी में अच्छी तरह से घर कर चुकी होती है। और यह कब्ज और मुंह के छालों का लिंकेज भी कुछ ऐसा ही है।

वैसे चलिये ज़रा इस के ऊपर विस्तार से चर्चा करें......सीधी सी बात है कि वैसे तो किसी भी उम्र में जब किसी को कब्ज हो तो कुछ न कुछ गड़बड़ तो कहीं न कहीं है ही......लेकिन 20-22 के युवक में आखिर क्यूं होगी कब्ज। और यकीन मानिये ये जो हम कब्ज के विभिन्न प्रकार के डरावने से कारणों के बारे में अकसर यहां वहां पढ़ते रहते हैं ना, शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों कब्ज से परेशान मरीज़ों में से किसी एक को ही ऐसी कोई अंदरूनी तकलीफ़ होती होगी। ऐसा मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि अधिकांश कब्ज के केस हमारी जीवन शैली से ही संबंधित हैं.....हमारी बोवेल हैबिट्स रैगुलर नहीं है। 20-22 के युवक में कब्ज होना इस बात को इंगित कर रही है कि या तो उस युवक का खान-पीन ठीक नहीं है या उस में शारीरिक परिश्रम की कमी है। खान-पान से मेरा मतलब है कि उस युवक का खाना-पीना संतुलित नहीं होगा, उस के भोजन में सलाद, रेशेदार फ्रूट्स की कमी होगी....क्योंकि अगर कोई इन वस्तुओं का अच्छी मात्रा में सेवन करता है तो कब्ज का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। और अगर फिर भी है तो अपने चिकित्सक को ज़रूर मिलें...........लेकिन पहले अपना खान-पान तो टटोलिये......सारी कमी यहीं पर नज़र आयेगी। और हां, कब्ज के लिये विभिन्न प्रकार के अंकुरित दालें एवं अनाज बेहद लाभदायक हैं। और मुझे जब कुछ साल पहले ऐसी समस्या हुई थी तो मैं एक-दो आँवले रोटी के साथ अचार के रूप में खा लिया करता था और जब बाज़ार में आंवले मिलने बंद हो जाया करते थे तो आंवले के पावडर का आधा चम्मच ले लिया करता था, जिस से कब्ज से निजात मिल जाया करती थी। मैं अपने आप ही किसी भी तरह की कब्ज से निजात पाने वाली दवाईयां लेना का घोर-विरोधी हूं.....इस तरह से अपनी मरजी से ली गई दवाईयां तो बस कब्ज को बद से बदतर ही करती हैं ... और कुछ नहीं, इस के पीछे जो वैज्ञानिक औचित्य है उस को किसी दूसरी पोस्ट में कवर करूंगा।

और हां, बात हो रही थी, किसी 20-22 साल के युवक की जिसे कब्ज भी रहती है और यह समझा जाता है कि मुंह के छाले इसी कब्ज की ही देन हैं। तो यहां पर एक बात बहुत ही ध्यान से समझिये कि किसी बंदे को कब्ज है ....इस का अधिकांश केसों में जैसा कि मैंने बताया कि निष्कर्ष यही तो निकलता है कि उस के खाने-पीने में गड़बड़ है....वह रेशेदार फल-फ्रूट-सब्जियां एवं दालें ठीक मात्रा में ले नहीं रहा और/अथवा जंक फूड़ पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा किया जा रहा है। क्योंकि कब्ज का रोग मोल लेने का एक आसान सा तरीका तो है ही कि इस मैदे से बने तरह तरह के आधुनिक व्यंजनों( बर्गर, नूडल्स, पिज़ा, हाट-डाग आदि आदि आदि) को हम अपने खाने में शामिल करना शुरू कर दें।
......मुझे तो ज़्यादा नाम भी नहीं आते क्योंकि मैं तो बस एक ही तरह के जंक फूड का बिगड़ा हुया शौकीन हूं....आलू वाले अमृतसरी नान व छोले......जंक इस लिये कह रहा हूं कि ये अकसर मैदे से ही बनते हैं ...लेकिन फिर मैं दो-तीन महीनों में एक बार इन्हें खाकर पंगा मोल ले ही लेता हूं और फिर सारा दिन खाट पकड़ कर पड़ा रहता हूं जैसा कि इस पिछले रविवार को हुया था...।

बस जाते जाते बात इतनी ही करनी है कि इस 20-22 साल के युवक के खान-पान में कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है ही, अब अगर वह इन बातों की तरफ़ ध्यान देगा तो क्यों होगा वह बार बार इन मुंह के छालों से परेशान....क्योंकि जब शरीर को संतुलित आहार मिलता है तो शरीर में सब कुछ संतुलित ही रहता है और मुंह की कोमल त्वचा भी स्वच्छ ही रहती है क्योंकि जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि यह मुंह के अंदर की कोमल त्वचा तो वैसे भी हमारे सारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है।

बाकी, बातें अगली पोस्ट में ...इसी विषय पर करेंगे। अगर इस का कोई अजैंडा सैट करना चाहें तो प्लीज़ बतलाईयेगा....टिप्पणी में या ई-मेल में।

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती

शूगर रोग के बारे में मेरे कुछ विचार ये हैं कि इस शारीरिक अवस्था का जो बुरा प्रबंधन हो रहा है उस के लिए स्वयं मरीज और साथ में चिकित्सा व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है। मरीज़ की गैर-ज़िम्मेदारी की बात करें तो बड़ी सीधी सी बातें हैं कि नियमित दवाई न ले पाना, विभिन्न भ्रांतियों के चलते दवाई बीच ही में छोड़ देना, किसी बाबा-वाबा के चक्कर में पड़ कर देशी किस्म की दवाईयां लेनी शुरू कर देना, परहेज़ न करना, शारीरिक परिश्रम न कर पाना और ब्लड-शूगर की नियमित जांच न करा पाना।

शूगर की अवस्था में -जो दवाईयों से नियंत्रण में हो और चाहे जीवन-शैली में बदलाव से ही काबू में हो -- नियमित शूगर जांच करवानी या करनी बहुत आवश्यक होती है ..और यह कितनी नियमितता से होनी चाहिए, इस के बारे में आप के चिकित्सक आप को सलाह देते हैं।

चलिए इस समय हम लोग एक ही बात पर केंद्रित रहेंगे कि लोग शूगर की जांच नियमित नहीं करवा पाते। सरकारी चिकित्सा संस्थानों की बात करें तो पहले दिन तो मरीज़ शायद ब्लड-शूगर की जांच का पर्चा किसी डाक्टर से बनवा पाता है, फिर वह दूसरे दिन अपने साथ नाश्ता बांध कर लाता है ...सुबह से भूखा रह कर वह अस्पताल पहुंचता है... और उस दिन ११-१२ बजे वह फ़ारिग होता है ..खाली पेट वाली (फास्टिंग) और खाने के बाद वाली (पी पी .. पोस्ट परैंडियल ब्लड-शूगर) ..फिर तीसरे दिन वह पहुंचता से अपनी रिपोर्ट लेने को। अच्छा खासा भारी भरकम सा काम लगता है ना......और ऊपर से अगर किसी की शारीरिक अवस्था ठीक नहीं है तो यह बोझ और भी बोझिल करने वाला लगता है......घर से अस्पताल आना बार बार भी आज के दौर में कहां इतना आसान रह पाया है।

मैं इस के कारणों का उल्लेख यहां करना नहीं चाहूंगा लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि कुछ मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों की रिपोर्टों पर भरोसा नहीं होता.......मरीज़ ही क्यों, बहुत बार निजी क्लीनिक या अस्पताल चलाने वाले डाक्टर भी इन्हें नहीं मानते और बाहर से ये सब जांच करवाने को कह देते हैं......अकसर मरीज़ों को भी कहते देखा है कि सरकारी अस्पताल में करवाई तो शूगर इतनी आई और बाहर से इतनी ... लोगों से बातचीत के दौरान बहुत बार सुनने को मिलता है। जब वह दोनों रिपोर्टें आप के सामने रख दे तो आप क्या जवाब दें, यह एक धर्म-संकट होता है, लेकिन जो है सो है!

कुछ उच्च-मध्यम वर्गीय लोगों ने --जो एफोर्ड कर सकते हैं--घर में ही शूगर की जांच करने का जुगाड़ कर रखा है। ठीक है। एक बार मैंने मद्रास की मैरीना बीच पर देखा कि वहां सुबह सुबह लोग भ्रमण कर रहे थे और वहीं किनारे पर बैठा एक शख्स ब्लड-शूगर की जांच की सुविधा प्रदान कर रहा था। पचास रूपये में यह सुविधा दी जा रही था। इस के बारे में मेरी पोस्ट आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

अभी दो चार दिन पहले ही की बात है कि मैंने यहां लखनऊ के एक कैमिस्ट के यहां बोर्ड लगा हुआ देखा कि यहां शूगर की जांच ३० रूपये में होती है।

घर में जो लोग इस शूगर जांच की व्यवस्था कर लेते हैं या मैरीना बीच पर बैठा जो शख्स यह सुविधा दे रहा था या फिर अब कुछ कैमिस्ट लोगों ने भी यह सब करना शुरू कर दिया है, इसे ग्लूकोमीटर की मदद से स्ट्रिप के द्वारा किया जाता है।

अब आता हूं अपनी बात पर......खुशखबरी यह है कि आज कल ये ग्लूकोमीटर विदेशों से आते हैं और इन की कीमत १०००-२५०० रूपये के बीच होती है लेकिन अब शीघ्र ही भारत ही में तैयार हुए ये ग्लूकोमीटर ५०० से ८०० रूपये में मिलने लगेंगे।

और जो स्ट्रिप इन के साथ इस्तेमाल होती है उस के दाम वर्तमान में १८ से ३५ रूपये प्रति स्ट्रिप हैं, लेकिन अब शीघ्र ही ये स्ट्रिप भी दो और चार रूपये के बीच मिलने लगेगी।

यह एक खुशखबरी है कि शूगर की जांच अब लोगों की जेब पर भारी न पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दो दिन पहले ही इस तरह की किट्स को लंॉच किया है। प्रशंसनीय बात यह है कि इन किट्स को इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी मुंबई ने सूचक (Suchek) के नाम से और बिरला इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी, हैदराबाद ने क्विकचैक (QuickcheQ) के नाम से डिवेल्प किया है।

जेब पर भारी न पड़ने वाली इन किटों के बारे में आप यह समाचार इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं..... Purse-friendly diabetic testing kits launched. 

उम्मीद है इन के बाज़ार में आने से यह जांच बहुत से लोगों की पहुंच में हो जायेगी और कम से कम कुछ लोगों की  यह बात कि महंगे टैस्ट की वजह से इस की नियमित जांच न करवा पाना रूल-आउट सा हो जायेगा लेकिन फिर भी नियमित दवाई, परहेज़ और शारीरिक व्यायाम का महत्व तो अपनी जगह पर कायम ही है........इस किट से बहुत से लोगों के हैल्थ-चैक अप करने में भी सुविधा हो जायेगी......होती है पहले भी यह जांच (कैंपों आदि में) इसी किट से ही हैं लेकिन अब यह काम बहुत सस्ता हो जायेगा, अच्छी बात है। 

सोमवार, 6 मार्च 2023

एंटीबॉयोटिक्स से कहीं ज़्यादा भरोसा है मुलैठी पर..

अगर मैं दंत चिकित्सक न होता तो पंजाबी लोकगीत गायक तो बन ही जाता ..नहीं तो किसी म्यूज़ियम का क्यूरेटर हो जाता...कुछ भी कर लेता...बहुत काम हैं जिस तरफ़ भी बंदा अपने मन को लगा ले....मुझे पुरानी एंटीक, विंटेज चीज़ों में खास रूचि है ....सौ साल पुरानी कोई किताब हो, अस्सी साल पुराने मैगज़ीन हों....मैं एंटीक शाप्स में और ऑनलाइन इन को ढूंढता रहता हूं ...ये मेरे लिए सिर्फ़ आइट्म ही नहीं होती, दरअसल ये अपने वक्त के किस्से ब्यां करती हैं और मुझे लिखने के लिए मजबूर करती हैं ...मेरे लिए ये चीज़ें नहीं है, मेरे लिए ये सब लिखने के प्राप्स हैं....जैसे नाचने वालों को प्राप्स लगते हैं, मुझे ये सब प्राप्स लगते हैं लिखने के लिए ....

खैर, बात यूं है कि कुछ दिन पहले यहां मुंबई की एक एंटीक शाप में मुझे एक डिब्बी दिखी ...क्या है न, अब ऐसी चीज़ों को देखने से ही एक अंदाज़ा सा हो जाता है कि ये ५० साल पुरानी होगी, यह सौ साल पुरानी वगैरह वगैरह ....खैर, इन दुकानदारों को भी पता रहता है कि जो कलैक्टर इस तरह की दो कौड़ी की चीज़ को ढूंढ़ते हैं, और खरीदते हैं ...उन से कैसे पैसे निकलवाने हैं....चलिए, वे अपनी जगह ठीक हैं....मेरे लिए वह चीज़ अनमोल है जिसे मैंने आज तक कभी नहीं देखा, और आने वाले समय में भी देखने की कोई गुंजाइश नहीं है ... 

चलिए, मैंने वह डिब्बी खरीद ली ...दाम बताऊंगा तो बेवकूफ़ी लगेगी ...खैर, मुझे लेनी थी सो ले ली....देखिए आप भी इसे ....



इस लिंक पर जा कर यह भी देखिए यह अस्सी साल पुरानी डिब्बी इ-बे पर ३४ यू एस डॉलर में बिक रही है ...यह रहा लिंक ....

आपने भी पढ़ लिया होगा कि इस में मैंथोल और मुलैठी का रस (एक्सेट्रेक्ट) आता था ...और यह गले में खिच खिच के काम आती थीं ..इंगलैंड की किसी कंपनी से बन कर आती थीं हिंदोस्तान में ....मुझे याद आ रहा है प्राइमरी क्लास के एक मास्टर ने एक बार हमें बताया था कि अंग्रेज़ों के राज में सूईं भी इंगलैंड से आती थीं और यहां बिकती थीं....यह भी देखिए कि मुलैठी जैसी चीज़ को भी किस तरह से पैक-वैक कर के इंगलैंड से लाकर यहां बेचा जाता था ....ऐसे और भी कुछ प्रोड्क्ट्स - कुछ आम दवाईयों के बारे में भी किसी और दिन बताऊंगा ....

मुझे यह डिब्बी देख कर बहुत ज़्यादा हैरानी हुई थी ....क्योंकि मेरी उम्र ६० साल है और जहां तक याद है बचपन से ही हमें मुलैठी पर ही भरोसा रहा ...गले में खिच खिच होती, दर्द वर्द होता, खांसी जुकाम होता ...तो हमें मुलैठी ही चबाने के लिेये दी जाती ....उन दिनों दांतों में भी अच्छी ताकत थी ...न नुकुर करते करते उसे चबा ही लेते और झटपट आराम भी मिल जाता ....कभी एंटीबॉयोटिक इस्तेमाल करने का कुछ झंझट ही न था...नमक वाले पानी से गरारे करो, मुलैठी चबाओ, बेसन का पतला सीरा, गुड़ वाली सौंठ खाओ....और मस्त रहो .....यही थी अपनी खांसी-जुकाम, गले में खिच खिच की दवाईयां ....वैसे तो अभी तक भी यही हैं...लेकिन अब कभी कभी एंटीबॉयोटिक लेने की नौबत भी आ जाती है ...लेकिन फिर भी भरोसा अभी भी मुलैठी पर पूरा है ...

कुछ दिन पहले मैं अपनी बड़ी बहन से मुलैठी के बारे में बात कर रहा था ...उन का गला खराब था ..मैंने कहा कि मुलैठी चबाओ...तो कहने लगी कि मिलती ही नहीं कहीं....मैंने बताया कि बाबा रामदेव की दुकानों पर मुलैठी क्वाथ मिलता है ...मुलैठी को लगभग चूरा कर के ....(shredded licorice) ....मुझे भी यह दिक्कत कईं बार आई है...लेकिन बहन बता रही थीं कि उन के पास मुलैठी का चूरण है वह उसे चाय या पता नहीं गर्म पानी में डाल कर पी लेती हैं....उन को भी राहत मिल जाती है ... अच्छी बात है, हमारे अपने अपने ज़िंदगी के तजुर्बे हैं, जिसे जिस चीज़ से राहत मिले, मां भी ८०-८५ की उम्र तक ये सब चीज़ें ही इस्तेमाल करती थीं ....और पुरानी चीज़ों की भी अच्छी अहमियत तो थी ही, ऐसे ही थोड़े न फिरंगी मुलैठी के रस को इस पैकिंग में इंगलैंड से लाकर बेचते रहे .....८० साल पहले ....यह डिब्बी तो ८० साल पुरानी है ....क्या पता यह धंधा कितना पुराना होगा...

मुलैठी को खरीदना अब मुश्किल हो गया है ....किसी पुरानी दुकान के पुराने बनिये से मिल भी जाती है कभी तो उस में अकसर घुन सा लगा होता है ...उसे चूसने की इच्छा नहीं होती....खैर, बाबा रामदेव की दुकानों पर जो मुलैठी क्वाथ मिलता है वह भी बढ़िया है ..दस पंद्रह बरस पहले १५ रूपये में मिलता था....अब भी ४० रूपये में मिल जाता है ...लेकिन है यह चीज़ बहुत बढ़िया ....

मुलैठी क्वॉथ ..

मुलैठी क्वाथ ऐसा दिखता है ....एक चम्मच मुंह में डाल कर चबाते रहिए...कुछ मिनट ..तुंरत राहत महसूस होती है ...


अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक लिट-फेस्ट में उषा उत्थुप के प्रोग्राम में जाने का मौका मिला ....उन्हें सुन कर बहुत अच्छा लगा ..इतनी लाइवली हैं...अपनी यादें सुना रही थीं कि किस तरह से उन्हें एड्वटाईज़िंग में पहला मौका मिला ...उन्हें विक्स की गोली के लिए कोई जिंगल लिखना था...कुछ समझ में नहीं आ रहा था ....लास्ट मिनट पर उन की कही लाइन ने जैसे हिंदोस्तान की खिच खिच दूर भगा दी ..........गले में खिच खिच, गले में खिच खिच .....क्या करो....विक्स की गोली लो, खिच खिच दूर करो....मैं इस के बारे में अपने किसी पुराने ब्लॉग में लिख भी चुका हूं ....लेकिन इस वक्त मुझे लिखते लिखते फिर लगा कि खिच खिच पर कोई फिल्मी गीत कैसे नहीं है .....बस, ऐसे ही सोच रहा था तो पता नहीं कहां से खिच खिच से तो नहीं हिचकी वाले फिल्मी गीत की याद आ गई ...यह लिखना बंद कर के पहले तो उसे सुना.....यह मेरे कालेज के दौर का गाना है, बहुत पंसद है ....इस की मेरे पास कैसेट भी थी, बहुत सुना करता था ....लेटे लेटे, आंखें मूंद कर 😂😎😉....हा हा हा हा हा हा हा.....वे दिन भी क्या दिन थे...!! आज सुबह जब मैं जगा, तेरी कसम ऐसा लगा ....कि तूने मुझे याद किया है .....हिच हिच हिचकी लगी ...हिचकी...


कुछ आज की भी बात कर ली जाए.....कल दोपहर मेरे गले में अचानक बहुत ज़्यादा इरिटेशन शुरू हो गई ....खांसी भी ...खिच खिच भी ...मैंने मुलैठी ढूंढी और जैसे ही उसे चबाया, आराम आने लगा .....और कल से वही कर रहा हूं....इस से तुरंत राहत मिलती है ...लेकिन मैं यह सब लिख किस के लिए रहा हूं ....कौन सुनता है किसी की आज ....लेकिन जिन पर लिखने की जिम्मेवारी है, उन का फ़र्ज़ होता है सब कुछ सच सच दर्ज करते जाना ......इस से ज़्यादा कुछ नहीं .....वैसे भी लेखकों का काम है मुनादी करना ....

बात वही है पिछले कुछ दिनों से मुझे कुछ खास विषयों पर लिखना था ..बस, वह ऐसे ही टलता रहा, आज ऐसे ही मुलैठी की यादों ने इन को पहले समेटने के लिए मजबूर कर दिया....मैं अपने किसी मरीज़ को मुलैठी के बारे में बताता हूं तो उसे समझ नहीं आती कि मैं क्या कह रहा हूं......अगर मीठी लकड़ी कहता हूं तो कुछ को समझ में आ जाता है ....