शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

डिप्रेशन ..आओ खुल कर बात करें..

आज विश्व स्वास्थय दिवस है ...जिस का इस बार का थीम भी यही है ..डिप्रेशन...आओ खुल कर बात करें..

लेेकिन आज मेरी तो बिल्कुल भी इच्छा नहीं है कि मैं वही घिसी पिटी बातें लिख कर आप को पका दूं...डिप्रेशन के बारे में जितनी भी काम की बातें हैं आप रेडियो, टीवी अखबार में और नेट पर देख-पढ़ लेते हैं, मुझे पता है आप सब नेट-सेवी हैं ...मैं तो बस आप से ऐसे बतियाना चाहता हूं जैसे हम लोग चौपाल पर बैठ कर हंसी-ठट्ठा कर रहे हों...ठीक है?

मुझे कभी भी निबंध की तरह अपने ब्लॉग पर कुछ भी लिखना अच्छा लगता ही नहीं...कि डिप्रेशन बीमारी है क्या, इस के लक्षण क्या हैं, बचें कैसे और इलाज कैसे और कब करवाएं?....यह मेरा विषय है ही नहीं, क्योंकि मैं कोई विद्वान मनोचिकित्सक हूं ही नहीं....इसलिए बिल्कुल मन की बातें ही कहना चाहूंगा...

पढ़ाई लिखाई पूरी होने के बाद यह शायद १९९४ के आस पास की बात है कि मेरी भी तबीयत कुछ चिंता करने वाली हो चली थी..खामखां बातों की चिंता ..काल्पनिक बातों की चिंता ...बंबई में रहते थे ...मेरे साथ किसी ने ऐसे ही ज़िक्र किया कि एक योग विद्या का प्रोग्राम चलता है ...सिद्ध समाधि योग ... संयोगवश वह उसी दिन शुरू होने वाला था ..कांदिवली में ...मैं शाम को पहुंच गया ...पहले दिन इंट्रो ही होती है ..एक पेंफलेट मिला ...उसे पढ़ा तो तो उसमें एक बात लिखी थी जिस पढ़ कर मैंने उसी समय निश्चय किया कि यह तो अवश्य करूंगा ...उस में लिखा था कि किस तरह से हर कोई तनावग्रस्त है ...और तो और डाक्टर लोग मरीज़ को तो कहते हैं कि आप तनाव मत करिए लेकिन स्वयं वे भी तनाव से ग्रस्त हैं...

मैं अब सोचता हूं कि जो डाक्टर स्वयं सिगरेट पीता हो या पानमसाला चबाता हो, वह कैसे सख्ती से अपने मरीज़ को यह सब छोड़ने के लिए कह सकता है!

बस यह बात तनाव वाली बात मेरे दिल को छू गई ...और मैंने वह कोर्स किया ...उस के बाद मैं नियमित प्राणायाम् करता ...ध्यान भी हो जाता अपने अाप ही ....खाना-पीना भी उस शिक्षा के अनुसार ही चलता रहा ..बहुत समय तक मैं जुड़ा भी रहा ...एक फर्स्ट हैंड अनुभव जो योग का बेहद उम्दा रहा ...

अब मैं आलस की वजह से प्राणायाम् नहीं करता, ध्यान भी नहीं होता ....बस टहलना हो जाता है...वह भी कईं कईं हफ्तों के अंतराल के बाद...साईक्लिंग करने की सोचता रोज़ हूं. लेकिन कभी कभी ही जाता हूं...(धूप हो गई है, साईकिल में हवा नहीं है, ट्रैफिक बहुत है ...इन बहानों के चलते ...) ब्लड-प्रेशर की एक गोली खाता हूं..वह भी महीने में बीस दिन भूल जाता हूं....तो, यह तो हुई मेरी अापबीती ...बस, खाना पीना ठीक ले लेते हैं....कोई मांस-मझली नहीं, दारू-तंबाकू नहीं कभी भी ..

एक बात याद आ गई ...लगभग दस साल पहले की बात है .... एक मनोरोग चिकित्सक ने नया नया क्लीनिक खोला था ...उस का इश्तिहार आया पेपर में ..पढ़ा.....उस ने बड़े सनसनीखेज तरीके से उस लिखवाया था....

हर दस लोगों में से चार मनोरोगी...इन में से कहीं आप भी तो नहीं! .....और उस के आगे उसने दस बीस लक्षण लिख दिए....वे लक्षण ऐसे थे कि दस में से चार तो क्या, दस में से दस लोगों में वे दो चार मिल जाएं...

उस मनोरोग चिकित्सक की विद्वता को मैें सेल्यूट करता हूं ..और मनोरोगियों को बिना विलंब इन से संपर्क भी करना ही चाहिए...और कईं बार दवाईयां लेना ज़रूरी भी होता है....वे इस तरह के रोगों के एक्सपर्ट होते हैं, उन्हें तो अंदर तक की खबर होती है ...

और हम ठहरे बक बक करने से अपने आप को रोक न सकने वाले.....

वैसे मुझे आप बताइए कि आपने अपने आस पास कितने लोगों को डिप्रेशन के लिए किसी मनोरोगचिकित्सक से नियमित परामर्श अथवा दवाई लेते देखा है....

बहुत कम, आप को भी यही लगता है ना!

मैं एक बिल्कुल लेमैन की तरह से लिख रहा हूं ... लेकिन कोई बात नहीं ...ब्लॉग है, यह आज़ादी तो है ही .... मैंने तो जितने लोगों को भी डिप्रेशन की दवाईयां लेते देखा है ...ये बहुत ज़्यादा पढ़े लिखे दिखे ....और एक बात कहते हैं हमेशा कि दवाई लेते हैं तो सारा दिन नींद घेरे रहती है और न लेते तो सारा दिन खाते ही रहते हैं...

हां, तो मेरा यह सब लिखने का आशय यही है कि मनोरोग चिकित्सक से अवश्य मिलें, बात करें, उन की सलाह भी मानें, अगर दवाई के लिए कहें तो वह भी आप को लेनी ही होगी, आप के पास कोई चारा भी तो नहीं ...

लेकिन इतना सब कुछ लिखने के बाद मैं यह भी लिखना चाहता हूं कि डिप्रेशन है, उदासी है ...तो पहले कुछ फ्री में मिलने वाले नुस्खे भी तो आजमा लिए जाएं...समस्या हमारी अब यह हो गई है कि हम होलिस्ट्क मैडिसन प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे ...हर विशेषज्ञ अपने अपने हिस्से की बीमारी ढूंढने में पारंगत होता जा रहा है...trying perhaps up to molecular level! कोई बुराई भी नहीं है ....

लेकिन मुझे लगता है मन की उलझनें मन से ही सुलट सकती हैं....चलिए, मैं भी कुछ ऐसे ही उलट-सुलट विचार यहां लिख लूं...जो मुझे लगता है कि किसी को भी अवसाद से ऊपर उठा सकते हैं, और बचा भी सकते हैं... इन में से मैं बहुत से स्वयं भी नहीं करता हूं... I am in noway holier than you! ...लेकिन इन सब उपायों की सार्थकता को अनुभव अवश्य कर चुका हूं...

 आज सुबह मैं टहलने गया क्योंकि मुझे यह पोस्ट लिखनी थी ... 
सुबह जल्दी उठें, योग-प्राणायाम् करिए,  टहलने निकल पड़िए, शारीरिक परिश्रम करें... साईक्लिंग करें, कुछ खेलें....अपनी क्षमता के अनुसार ...अगर दौड़ नहीं सकते, तो टहलिए, जितना भी चल सकते हैं, चलिए, फिर आराम कीजिए....मेरे कुछ मरीज़ कहते हैं कि हम ज़्यादा चल ही नहीं सकते, मैं उन्हें कहता हूं पड़ोस के किसी पार्क में एक घंटा चले जाइए, सुबह की सूर्य की रोशनी में स्नान कीजिए, कहीं कोई गपशप हो जाए तो ठीक, वरना और भी ठीक, पेड़ पौधों की भव्यता से ऊर्जा मिलेगी आप को निःसंदेह ....चहचहाते पंक्षी आप की ज़िंदगी में भी चहक ले आएंगे ....शर्तिया ...आप तरोताज़ा वापिस लौटेंगे ... आप सुबह मैं भी टहल कर आया हूं... अच्छा लग रहा है, इसीलिए इतना सब कुछ लिख पा रहा हूं..


एक तो बात से बात निकल पड़ती है तो मुझे वह भी लिखनी पड़ती है ...कल एक पर्यावरण से संबंधित समारोह में था, वहां पर एक बहुत बड़े आदमी के घर की तारीफ़ के पुल बांधे जा रहे थे ..होता ही है यह सब कुछ ..करना भी पड़ता है ...हां, इन के घर में सौ तरह के तो पौधे हैं, चंदन का पेड़ भी है और १०० तरह के पंक्षी भी हैं.... उस समय तो मुझे कुछ ज़्यादा समझ में आया नहीं, लेकिन बात में ध्यान आया कि ये सभी पंक्षियों की प्रजातियां उस के यहां पिंजड़ों में कैद होंगी ......यह कोई बड़प्पन की बात नहीं, हमें तो तोते को भी पिंजड़े में रखना बहुत बुरी बात लगती है और १०० तरह की पक्षियों की प्रजातियां पिंजरों में .....पक्षी और फूल टहनियों पर भी मन को लुभाते हैं ...सब को खुशीयां देते हैं , किसी उदास के मन को खिलखिला देते हैं मुफ्त में ...गुलदस्ते और बुके वाले फूल पता नहीं क्यों असली होते हुए भी कितने बनावटी लगते हैं ....


 खाने पीने का ध्यान रखना चाहिए...विशेषकर बढती उम्र के साथ नमक, चीनी और फैट्स और जंक फूड का ध्यान रखें.. तंबाकू, शराब , ड्रग्स से बच कर रहें.... 

जहां तक हो सके खुशमिजाजी कायम रखें...इस से बड़ा कोई स्ट्रैसबस्टर है नहीं असल में ...स्कूल के दोस्तों के वाट्सएप ग्रुप पर इतने बढ़िया बढ़िया जोक्स आते हैं कि कल पता नहीं मैं कितने समय बाद इन चुटकुलों को पढ़ कर अकेला बैठा हुआ भी ठहाके लगा रहा था ....खुलापन बहुत ज़रुरी है ...इस से भी आदमी हल्का बना रहता है ....तने हुए रहने से तनाव ही बढ़ता है ... मैंने ऐसा अनुभव किया है ...मन को तने रहने से तो बढ़ता ही है, मेरे जैसे का तो टाई लगाने से ही बढ़ जाता है .....पता नहीं वह गले में प्रेशर की वजह से या फिर टाई लगा कर मुझे एक अलग तरह से बिहेव करना पड़ता है ..इस की वजह से भी शायद फ़र्क पड़ता होगा...इसलिए मैंने बीस सालों से कभी टाई लगाई ही नहीं, जी हां, किसी भी शादी-ब्याह के समारोह में भी नहीं....क्योंकि हिंदोस्तान में एक रिवाज है कि वैसे चाहे कभी टाई लगाई हो या नहीं, लेकिन किसी की शादी ब्याह में टाई किसी से ही गांठ बंधवानी पड़े, अवश्य टांग लेते हैं.....वह भी चलता है, लेेकिन जब दारू चढ़ने पर ये टाईधारी बेहूदा हरकतें करते हैं ना, उस से सब कचरा हो जाता है ... 

खुलेपन से बात याद आई...एक टीवी के प्रोग्राम में विश्वविख्यात हार्ट रोग विशेषज्ञ ने भी कहा था ..

दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलनगे औज़ारां नाल ...

एक दो बातें और कर के आज की चौपाल खत्म करते हैं....

कल टीवी पर ग्लोबल बाबा फिल्म देखी ...आप भी ज़रुर देखिए...किस तरह से कुछ बाबा लोगों ने भोली भाली जनता को अपने चंगुल में फंसा रखा है, आप सब जानते हैं......यू-ट्यूब पर भी पड़ी हुई है यह फिल्म ... पता नहीं इतने बाबा लोग कहां से उग आते हैं और इन के इतने अनुयायी भी कैसे बन जाते हैं, यह सब और भी अच्छे से समझने के लिए इसे देखिएगा...ट्रेलर मैं यहां दिखाए दे रहा हूं.. 


कल विनोद खन्ना साब की तबीयत के बारे में पढ़ा-देखा....आज सुबह मित्र खुशदीप सहगल की फेसबुक पोस्ट दिखी ...जो को मेरी भावनाएं भी व्यक्त करती दिखी....इसलिए यहां चिपकाए दे रहा हूं उसे ....


विनोद खन्ना साब का ज़िक्र हुआ तो उन के कुछ बेहतरीन गीत जो बचपन से लेकर अब तक सुनते चले आ रहे हैं...यहां आप के लिए बजा रहा हूं....आप भी इन गीतों के बहाने अपने पुराने दिनों की यादें ढूंढिए और इसी बहाने डिप्रेशन से दूर रहिए और इस महान कलाकार के शीघ्र अति शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करिए... 







बुधवार, 5 अप्रैल 2017

98 साल की उम्र में योग सिखाना...

अभी कुछ समय पहले मेरी मां ने मुझे अपने फोन में बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट दिखाई जिस में एक ९८ साल की महिला के बारे में बताया गया है कि वह इस उम्र में योग स्वयं तो करती ही हैं, वे एक योग शिक्षक भी हैं...


हमारा क्या है, सारा दिन अखबारों, पत्रिकाओं और मीडिया में घुसे रहते हैं...इस बीमारी से बचना है, उस बीमारी से बचना है तो यह करें, फलां फलां मेवे नहीं खाएंगे तो ढिमका रोग हो जायेगा...

अच्छी बात है रोगों की जानकारी लेना, उन से बचाव के बारे मेें एक साधारण सी जानकारी रखना ....बस उतनी जितनी ज़रूरत हो, ऐसा न हो कि हम खुद ही डाक्टर बन कर अपना और आसपास के लोगों का इलाज शुरू कर दें....आजकल हो कुछ कुछ यही रहा है ..लोग अपने आप ही पैथोलॉजी में चले जाते हैं, सीटी स्कैन या अल्ट्रासाउंड तक करवाने का निर्णय स्वयं ले लेते हैं...और प्राईवेट संस्थाओं में इन की इच्छा की पूर्ति भी तुरंत हो जाती है...

जितना भी यह मीडिया में ज्ञान सेहत से संबंधी पड़ा हुआ है..उम्दा है यकीनन, बस आप को यह अच्छे से पता होना चाहिए कि इस जानकारी का स्रोत क्या है...किसी का कोई vested interest तो नहीं है... धीरे धीरे आप समझने लगते हैं..सरकारी संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही जानकारी विश्वसनीय होती है बेशक ...लेकिन बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएं भी बहुत बढ़िया जानकारी उपलब्ध करवाती हैं....बस, आप को ही थोड़ा परखना जरूरी है...

बहुत सी कमर्शियल साइटों की समस्या यह है कि ये सनसनी पैदा करती हैं...लोगों को भ्रमित तक कर सकती हैं...बहुत से इंजेक्शनों तक के बारे में यह सब चलता है कि नईं ऩईं बीमारियों से बचने के लिए जिस तरह से इंजेक्शन को कितना aggressively promote किया जाता है ..

होलिस्टिक बात तो योगी लोग ही करते हैं ... कुछ योगी भी हाई-टैक हो चले हैं..कहने को तो योग शिक्षा है, लेकिन यह भी प्रोफैशनल कालेज की शिक्षा जितनी महंगी हो चली है ..

उस दिन एक पति-पत्नी आए मेरे पास ... पुरूष का वजन पहले से कम लग रहा था...मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि यह सब योग की माया है ..हम एक आश्रम में रहे हैं ..तीन हज़ार रूपया कमरे का किराया था.. पंद्रह दिन रहे हैं..पचास हज़ार खर्च कर आये हैं...अब फिट महसूस करते हैं ....और उन्होंने बताया कि अब वह तीन हज़ार वाला कमरा पांच हज़ार प्रतिदिन के हिसाब से मिला करेगा ......और हां, अगर सुविधाएं इस से बढ़िया चाहिए ...तो दस हज़ार रूपये एक दिन के खर्च करने होंगे...

मेरा माथा ठनका एक बार तो ...मुझे जिज्ञासा हुई कि योग संस्थान में ऐसी कौन सी "अन्य सुविधाओं"की ज़रूरत पड़ती होगी कि इतने महंगे कमरे लेने के लिए लोग तैयार हो जाते हैं...उसने बताया कि हम लोगों को तो थैला उठा कर उस संस्थान में एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता था लेकिन यह जो १० हज़ार वाली कैटेगरी है, उन का सारा काम ...क्या बताया था उसने ..सोना बॉथ तक का प्रबंध भी उनके कमरे में ही हो जाता है...

मेरी तरह आप भी शायद यही मानते होंगे कि योग विद्या ऐसी कृपा है जो शुल्क की मोहताज नहीं हो सकती .. मैंने ऊपर जिस संस्थान के बारे में लिखा है, मुझे कोई आपत्ति नहीं है...वे जबरदस्ती तो किसी को रोकते नहीं, जिस के पास पैसा है वह कुछ भी खरीद सकता है, सेहत के सिवाय, लोग एग्ज़ीक्यूटिव क्लास में भी सफर करते हैं और बैलगाड़ी पर भी करते हैं ..अपने अपने साधनों की मौज है...

इसलिए जिन संस्थानों में ज़्यादा पैसा लेने की बातें ज़्यादा होने लगती हैं, उन से कमर्शियल संस्थानों की महक आने लगती है....योग शिक्षा को भी मुझे लगता है कि आज कल कुछ अजीब से कमर्शियल ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है ...मुझे हमेशा से ही लगता रहा है कि योग विद्या ऐसी नहीं है कि आप जैसे बाज़ार में जाकर मिठाई खरीद लाए...जितने जेब में पैसे ज़्यादा हैं, उतनी बढ़िया खरीद लाएंगे ..ऐसा असंभव है ..योग विद्या में....यह तो एक गुरू की कृपा से ही एक दान के रूप में ही हासिल की जा सकती है ....फिर चाहे आप गुरु-दक्षिणा के रूप में जो भी समर्पित करना चाहें, वह आप की श्रद्धा है ....योग विद्या तो भई प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा के नियमों पर ही टिकी रहेगी तो ठीक है.......वरना यह भी एक धंधा ही बनता जा रहा है, विज्ञापनों को देखते हुए तो यही लग रहा है ....

चलिए, बस यही बंद करते हैं इस बात को ...यहां पर यह कुछ माला जपने की बात कर रहे हैं, इन्हें सुनते हैं...

जैसे राधा ने माला जपी शाम की .... 

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

आर ओ का पानी भी गड़बड़?

आर ओ के पानी के बारे में यहां वहां कुछ पढ़ते तो रहते हैं ...कि इसे पीने से यह गड़बड़ है ...कुछ ज़रूरी तत्व भी यह निकाल देता है ...लेकिन कभी गहनता से इस का ज़्यादा अध्ययन करने की ज़रूरत समझी नहीं...

क्या करेंगे समझ कर भी?...कोई विकल्प भी तो हो! ....वरना यहां वहां हर जगह बस सनसनी फैलाते जाएं, यह तो कोई बात न हुई...

जन साधारण तो कईं बार मार्कीट शक्तियों का खेल समझ ही नहीं पाता ....ये शक्तियां इतनी प्रबल हैं कि किसी चीज़ को भी बिकवा दें और किसी को भी बिल्कुल कंडम करवा दें...बहुत बड़ा खेल है...

आर ओ के बारे में दो दिन पहले भी वाट्सएप पर पढ़ा कि इस पानी को पीने से मिनरल्ज़ की कमी हो जाती है ...दरअसल वाट्सएप की किसी भी बात पर मुझे यकीं नहीं होता जब तक कि मैं स्वयं उस बात की पुष्टि न कर लूं...

इसीलिए मैंने गूगल सर्च किया ... तो रिज़ल्ट देख कर यही पता चला जिसे आप भी पढ़ सकते हैं...


खासा लंबा चौड़ा लेख है ...मैंने पूरा नहीं पढ़ा, आप चाहें तो पढ़ें लेकिन बातें वही कही गई हैं जो अकसर इस तरह के पानी के बारे में कही जाती हैं...

मैं सोच रहा था कि आज कल तो आर ओ का पानी इतना फैशन में है कि पानी के बताशे वाला भी अपनी दुकान पर बोर्ड टांग कर रखता है कि यहां बताशे के पानी के लिए आर ओ का पानी ही इस्तेमाल होता है ...

मैं कईं बार सोचता हूं कि पब्लिक सच में बड़ी कंफ्यूज़ हो जाती होगी कि किस की बात मानें ..अपने मन की मानें या हेमा मालिनी की बात मानें?

 हमारे यहां भी पानी में कुछ गड़बड़ तो है ही ....पानी के जग, पानी की बोतलों में सफेदी जम जाती है ...स्टील की पानी वाली टंकी में भी सफेद सफेद लेयर जम जाती है जिस में एक्वागार्ड से छना हुआ पानी स्टोर किया जाता है ... इस बार एक्वागार्ड की सर्विस करने वाला आया था तो कह रहा था कि अगर आप चाहें तो कोई यंत्र फिट कर देगा उसी मशीन में जिस से पानी की हार्डनेस कम हो जायेगी ...लेकिन फिर वही बात, इस से कुछ ज़रूरी trace elements भी तो निकल जाते हैं...यह तो तय ही है...

हम लोगों को भी इतने इतने साल हो गये मैडीकल फील़्ड में...हमें ही कोई पूछ ले कि क्या ठीक है, कौन सी मशीन ठीक है...हम भी क्या जवाब दें?... बड़ी कंफ्यूज़न है सच में ....

पानी में तो वैसे इतनी गड़बड़ होने लगी है कि सब को ही अपने पीने वाले पानी के बारे में कुछ ज़रूरी बातों का ध्यान रख लेना चाहिए...लखनऊ के पास एक जगह है ...नाम याद नहीं आ रहा, डेढ़ दो घंटे का रास्ता है ...एक बहुत बुज़ुर्ग इंसान है ..मेरा मरीज़ रहा है...कुछ अरसा पहले सारे दांत उखड़वाये थे मेरे से ...अब जब भी अस्पताल आता है तो ज़रूर मिल कर जाता है ...और पूछता है कि कुछ लाऊं, पेप्सी लेकर आऊं?....मैं हर बार हंस कर टाल देता हूं और हाथ जोड़ देता हूं...कल भी मिलने आया था..उस की बीवी हमारे अस्पताल में दाखिल थी, पेचिश और उल्टियों की वजह से...अब ठीक है ...खुश थे दोनों मियां-बीवी ...मैंने पूछा कि घर में पानी उबाल कर पीना....मेरी तरफ़ बड़ी हैरानी से देखने लगे ...मुझे पता है वे यह सब कभी नहीं करेंगे ....चलिए, मैं तो इन की सेहत की दुआ मांग ही सकता हूं...

हम लोगों की इस देश में समस्याएं बेहद विषम हैं....दो गुणा दो चार नहीं है यार यहां...सेहत से जुड़े भी फैसले लोगों को अपनी ही समझ के अनुसार - ठीक या गलत मैं नहीं कह रहा -- अपने आप ही करने पड़ते हैं...

दरअसल हम ने प्रकृति का इतना ज़्यादा दोहन कर लिया है और जल प्रदूषण का स्तर ऐसा कर दिया है कि मेरी एक तमन्ना है कि कुछ ऐसा हो जाए कि ये सब पालीथीन की थैलियां बंद हो जाएं...प्रतिबंध लगने से क्या फर्क पड़ा है, हम देख ही रहे हैं...कुछ ऐसी मुहिम चले कि कहीं भी ये प्लास्टिक की थैलियां नज़र ही न आएं...वही ४०-५० साल पुराने दिन लौट आएं जब हम लोग कभी बर्फ लेने जाते थे और थैला नहीं लेकर जाते थे तो उसे हाथ में ही उठा कर लाना होता था ...

देखो भई, अपनी सेहत के फैसले स्वयं लेने की आदत डालो, तथ्यों के आधार पर ...कौन सी मशीन ठीक है कौन सी नहीं है, नेट पर पढ़ा करो ...लेकिन कम ही ...ज़्यादा पढ़ने से भी आदमी और कंफ्यूज़ हो जाता है मेरी तरह ... मुझे पूरा यकीन है कि अगर हम आर ओ पानी के फायदे लिख कर सर्च करेंगे तो भी बीसियों रिज़ल्ट आ जायेंगे....

मैंने भी कुछ तो नहीं कहा इस पोस्ट में ...बस अपने मन की दो बातें कर के इसे बंद कर रहा हूं...जाते जाते एक गीत सुन कर अपनी कंफ्यूज़न को थोड़ा भूलने की कोशिश तो करिए...मैं भी उतना ही कंफ्यूज़ हूं जितने आप हैं... चलिए, इसे सुनते हैं...



रविवार, 2 अप्रैल 2017

माय संडे हाइलाईट्स ...बस ऐसे ही ..

अभी अभी श्रीमति ने पूछा है कि संडे मतलब ...नहाने-धोने से छुट्टी....मैंने कहा ..नहीं, अभी होता हूं तैयार ...संडे के दिन वैसे मुझे बहुत बार लगता है कि तैयार हो कर करना क्या! चुपचाप बीतने दिया जाए संडे का, इतनी भी क्या जल्दी है ...

अभी ध्यान आया कि आज संडे की कुछ हाइलाईट्स ही शेयर कर दूं आज ब्लॉग पर ...

हां , तो ओ लो एक्स OLX के विज्ञापन देख कर मुझे भी लगा कि एक बार यह काम भी कर ही लिया जाए...मैंने भी एकाउंट बनाया और सोचा कि स्टडी रूम में काफी कुछ बिखरा रहता है...वहां पर कुछ लिखने-पढ़ने की तो क्या, बैठने की भी जगह नहीं होती ...एक अलमारी खरीदी जाए जिस में सारा सामान बंद कर के छुट्टी कर ली जाए...

हां तो ओ एल एक्स का ध्यान आया...यही लगा कि हम लोग चार साल से यहां लखनऊ में हैं और अभी भी लगता है कि बस कभी भी यहां से कूच कर जाएंगे...ऐसे में क्या क्या नया सामान इक्ट्ठा करते रहें...ओएलएक्स पर देखा तो एक विज्ञापन था घर के पास ही किसी एड्रेस का पांच हज़ार में गोडरेज की अलमारी दे रहे थे...(ओएलएक्स में यह अच्छी सुविधा है कि आप अपने घर से दूरी वाला फिल्टर सैट कर सकते हैं ...ऐसे में घर से पांच किलोमीटर के दायरे में आने वाले लोगों के विज्ञापन नज़र आ जाते हैं...)

फोन वोन लिए और दिए गये...अंग्रेजी में ओएलएक्स पर चैट भी हुई मुख्तसर सी ...और मैं सुबह पहुंच गया उस अलमारी को देखने ...

उस अलमारी को देखते ही मुझे यह आभास हुआ कि पिछले जमाने में जो लोग शादी ब्याह के मामलों में लकड़ी-लड़का दिखा कोई और देते थे ..और ब्याह किसी और से कर दिया करते थे....कमबख्त लोग भी अजीब किस्म के डेयरिंग थे ...होता रहा है पुराने दौर में यह सब गोलमाल ...फिर बाद में लड़ाईयां-झगड़े सब चलते थे

हां, पहले तो अलमारी गोदरेज की थी नहीं ...और उसे देखते ही लगा कि यार, यह कौन से बाबा आदम के ज़माने की अलमारी है ...पेंट इतना खराब ...बहुत ही ज़्यादा खराब ..लेकिन कमबख्त इतनी भारी ...

उस अलमारी का बंदा भी थोडा़ कंफ्यूज़ड ही लगा ...विज्ञापन में बताया था कि यह दस साल पुरानी है ...लेेकिन थी यह और भी बहुत पुरानी....वह बंदा तो जैसे अपना दुःखड़ा रोने लगा ...यह इन्होंने मुझे दहेज में दी थी ...(मैं इधर उधऱ देखने लगा कि बंदा किस को "इन्होंने" कह रहा था ..दो बुजुर्ग बस एक कमरे में गुफ्तगू में तल्लीन थे ...खैर, तभी उसे कुछ याद आया होगा कि कहने लगा कि मेरे लिए इस की बहुत इमोशनल वेल्यू है ...अब हम लोग १५ वीं मंज़िल पर रहने जा रहे हैं, इसलिए इसे डिस्पोज़ आफ करना चाह रहे हैं...

मेरे मन में उस समय अतिथि तुम कब जाओगे....में सतीश कौशिक का अजय देवगण को उस के चाचा के लिए बोला गया डायलाग याद आ गया...कुछ बहस हो गई थी एक सेट पर ...देवगण कहता है कि यह तो मेरे पिता सामान हैं....तो सतीश कौशिक गाली निकाल कर कहता है, सामान है तो इसे घर रखो ...दरअसल कौशिक उस समय भड़का हुआ था क्योंकि उस चाचा (परेश रावल) ने एक बहुत महंगी गलती कर के फिल्म का सेट ही राख करवा दिया था....

देखो यार, मेरी पोस्ट चाहे आगे आप पढ़ो चाहे नहीं, लेकिन इस क्लिप को अवश्य देखिएगा...

बहरहाल, वह मुझे कहने लगा कि इस में दो चाबियां लगती हैं...मेरे को उसने लगा के भी दिखाईं ...बड़ा रोमांचकारी फीचर था ...लेकिन मेरे को दो क्या एक चाभी वाले लाक में भी कोई रुचि नहीं होती ...सभी अलमारीयां वैसे ही खुली रहती हैं...होता क्या है इन में ताले लगाने वाला!!

और मेरे जैसे भुलक्कड़ के लिए तो वैसे ही दो चाभियाों वाला मामला और भी पेचीदा ...कईं बार तो मैं अपनी चाभियां भूल जाता हूं...

और हां, भारी भरकम इतनी थी यह अलमारी जिसे वह ओएलएक्स विक्रेता एक USP मानता था कि यह बड़ी मजबूत है ...मैं तो बस लोहे के पैसे ही ले रहा हूं...

बात, दरअसल पैसों की तो बिल्कुल थी ही नहीं, उस के भारीपन पर ही पेच फंस गया ....मैंने कहा कि थोड़ा साइड से देख सकता हूं, उसने कहा कि मेरे को तो रॉड पड़ी हुई है, मैं तो इतनी भारी अलमारी को हाथ नहीं लगा सकता....तब, मुझे लगा कि यार, अगर यह बंदा ही इस अलमारी से इतना परेशान है तो मुझे इस की आफ़त मोल लेने की क्या पड़ी है...

तब भी मैं पूरी तरह से कोई निर्णय ले नहीं पाया ...मैंने कहा टैंपो का पता करके फोन करता हूं..

टैंपो वाला मिला ...७०० रूपये कहने लगा ...तुरंत चलने को तैयार हो गया...मैंने वहीं सोचा कि ५००० की अलमारी, ७०० टैंपो के और ऊपर से डेढ़ दो हज़ार के पेंट करवाने के .... फायदा क्या ऐसी अलमारी का, जो पेंट के बिना सिरदर्दी बनी रहेगी ...वैसे भी वज़न इतना ज़्यादा कि मेरे बाद स्वभाविक है यह फिर किसी की इमोशनल वेल्यू बन जायेगी कि इस में अपना बापू रद्दी रखता था....लेकिन जब भी इसे शिफ्ट करने की बात आया करेगी तो मन ही मन मेरे को गालियां निकाला करेंगे..

मुझे लगा कि इसे खरीदना हर नज़रिये से बेवकूफ़ी है ...कबाड़ इक्ट्ठा करने जैसी बात है ...इसलिए उस को फोन कर दिया कि आप बेच दीजिए अपने इच्छानुसार (क्योंकि उसने कह दिया था कि बहुत से लोग इस में रूचि ले रहे हैं) ...हमारे यहां इतनी भारी अलमारी चल नहीं पायेगी......

अब अपने पुराने सामान का क्या करूंगा ..सोच रहा हूं किसी दिन मोहमाया का त्याग कर के उसे बारी बारी से नेकी की दीवार पर ही टांग आया करूंगा ....

चलिए...अगली बात ....

अगली बात यह कि कल एक फुटपाथ पर पुरानी किताबें बिक रही थीं ....मुझे एक पुरानी किताब दिख गई जिस की फोटो यहां लगा रहा हूं...

लगभग १०० वर्षो के बाद भी इस की जिल्द और बांईंडिंग सही सलामत है

मुझे तो यह किताब लेनी ही थी, १९२० की किताब है ...बस, इसलिए ...क्योंकि मुझे इस की अंग्रेजी से कोई सरोकार नहीं ..कोशिश ज़रूर करूंगा इसे पढ़ने की ...कोई धांसू विषय तो लग ही रहा है ...लेकिन मेरा अपना, हमारे स्कूल का, हमारे टीचर्ज़ का यह दोष तो रहा कि हमें वर्ल्ड आर्ट, वर्ल्ड ड्रामा, विश्व की हिस्ट्री, जियोग्राफी, विश्व सिनेमा का कुछ भी ज्ञान नहीं दे पाए और न ही इसमें हमारी रूचि ही विकसित कर पाए...इन विषयों के बारे में कुछ भी नहीं पता....शून्य बटे सन्नाटा जैसी बात है ....बस जैसे तैसे रट-रटा के हिस्ट्री-ज्योग्राफी पास करते रहे क्योंकि एक तरह से हम लोगों को ब्रेन-वाश कर दिया जाता था उस दौर में बस मैथ, साईंस और ईंगलिश पर ज़ोर दो ...बाकी में कुछ नहीं होता, अपने आप सब पास हो जाते हैं.....लेकिन बाद में पता चलता है कि पास होना ही तो कुछ नहीं होता, हर विषय अच्छे से समझना ज़रूरी तो होता ही है ...
किस मिट्टी के लोग थे तब भी ...किताब पढ़ते थे या चबा जाते थे!!

मैं उस दुकानदार से पूछा कि क्या दूं ?..कहने लगा ..जो आप ठीक समझें.....मैंने बीस रूपये उस तरफ़ बढाए....कहने लगा कि आप इस किताब को देख रहे हैं कितनी पुरानी है ...आप को तो इस के बारे में पता होगा (मैं उस को क्या बताता कि मुझे भी कुछ नहीं पता...सिवा इस के कि यह १९२० में छपी थी और और आज भी इस की बांईंडिंग ठीक ठाक है...)...पचास तो दे दीजिए......मैं उसे तुरंत पचास रूपये दिए और किताब लेकर आगे बढ़ गया.....

एक बात और शेयर करता हूं ....

आज बाद दोपहर ४ से ५ विविध भारती पर सावन कुमार टाक -फिल्म लेखक, निर्माता, निर्देशक के साथ एक इंटरव्यू आ रहा था ...अच्छा लगा, कुछ नईं जानकारियां मिलीं ....एक विशेष बात यह पता कि वे अपनी फिल्मों के गाने भी स्वयं ही लिखते थे ....उन के लिखे दो तीन गाने प्रोग्राम में रेडियो पर बजे ..ये सभी मेरे भी एकदम फेवरेट हैं....




शनिवार, 1 अप्रैल 2017

पंजाबी फिल्मों का अमिताभ बच्चन ....सतीश कौल

पिछले कुछ अरसे से मैं टीवी पर अमिताभ बच्चन के विज्ञापन बार बार देख कर उतना ही ऊब गया जितना आप साउथ की हिंदी में डब की गई फिल्मों को देख कर पक जाते हैं....

मैंने फेसबुक पर एक स्टेट्स टाइप भी कर लिया कि अगर हो सके तो ऐसा नियम ही बना देना चाहिए की सभी विज्ञापनों में अमिताभ बच्चन ही काम करेंगे...एक तरह से व्यंग्यबाण की तरह।

पता नहीं आज कल मेरे फेसबुक में कुछ गड़बड़ सी है ...मुझ से वह स्टेट्स हो नहीं पाया...

आज सुबह कुछ ऐसा हुआ कि मुझे लगा कि ठीक ही हुआ...नहीं तो मुझे उसे डिलीट करना पड़ता ... क्योंकि आज मुझे एक बार फिर आभास हुआ कि जब तक बल्ला चल रहा है तो ठीक ही तो है...अगर बच्चन साहब को काम मिल रहा है इस उम्र में भी और वे एक्टिव हैं अभी भी कुछ शारीरिक परेशानियों के बावजूद भी ...तो अच्छी बात है...


आज सुबह मेरी एक ३५-४० साल पुराने मित्र से पर व्हाट्सएप पर बात हो रही थी...मैं उस का नाम नहीं लिखना चाहता यहां पर और वह किस शहर में रहते हैं, मैं यह लिखना ठीक नहीं लगता..क्योंकि यह एक हस्ती की बात है ...दोस्त ने लिखा कि वह कुछ दिन पहले हमारे ज़माने के एक पंजाबी फिल्मों के एक सुपरहिट हीरो सतीश कौल से एक वृद्ध आश्रम में मिले ...वह मित्र अकसर वृद्ध आश्रम में जाते रहते हैं....दोस्त ने बताया कि जैसे ही उन्होंने सतीश कौल जी को थाली में खाना परोसा और साथ में ५०० रूपये का नोट थमाया तो उन की बेटी ने पूछ लिया कि कौन हैं ये। दोस्त ने जवाब दिया कि यह हमारे दौर के पंजाबी फिल्मों के शाहरूख खान हैं...

उन की इस बात से सतीश कौल की इस तंगहाली के बारे में जान कर हैरत हुई...सुबह से ध्यान बार बार उस तरफ जाता रहा कि हम लोग कैसे स्कूल-कालेज के दिनों में उन की पंजाबी फिल्मों के दीवाने हुआ करते थे...

सुबह से अब तक यू-ट्यूब पर उन के बारे में देखा-उन के मुंह से सुना भी ...उन की कुछ फिल्मों के गीत भी सुने-देखे....एक जगह बता रहे थे कि पहले हम लोग काम के दीवाने थे, २२-२२ घंटे काम किया करते थे...भविष्य की चिंता नहीं करी....१५००० हजा़र रूपये एक पंजाबी फिल्म करने के मिलते थे...कमाई पंजाब में करते थे और खर्च बंबई में करते थे, ऐसे में कहां कुछ बच पाता....बस, ऐसे ही दिवालिया हो गये ...


यह पोस्ट किसी महान् कलाकार की ज़िंदगी को चटापट बना कर पेश करने का कोई प्रयास नहीं है ...लेकिन एक सच्चाई है कि लोगों की यादाश्त बहुत कच्ची है, वे झट से सब कुछ भुला देते हैं....हर बंदे को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है...ऐसे में मुझे लगता है कि अमिताभ या फिर अन्य बुज़ुर्ग कलाकार अपनी आमदनी का कुछ भी बढ़िया जुगाड़ कर रखते हैं तो अच्छी ही बात है ...वरना हम कितने ही वयोवृद्ध बेहतरीन कलाकारों के आखिर दिनों में तंगहाली के किस्से सुनते रहते हैं...मुझे अभी एके हंगल साहब के आखिरी दिन भी याद आ रहे हैं....

सतीश कौल साहब की कुछ फिल्मों के नाम मैं यहां लिख रहा हूं.... लच्छी, रूप शौकीनन दा, मोरनी, रानो, जट पंजाबी, जीजा साली, पटोला, सस्सी पुन्नू, पींगां प्यार दीयां, यार गरीबां दा, धी रानी, यारा औ दिलदारा, वेहड़ा लंबड़ा दा....इन में से अधिकांश फिल्में अब यू-ट्यूब पर पड़ी हुई हैं ...लेेकिन इन के गीत अलग से नहीं दिखे यू-ट्यूब पर ...हों भी कैसे, आज की पीढ़ी को जब यह ही नहीं पता कि सतीश कौल कौन है तो कौन अपलोड़ करेगा उस बेहतरीन युग के पंजाबी गीतों को यू-ट्यूब पर...

मेरे पास पंजाबी गीतों की अच्छी कलेक्शन है ....बड़ी मेहनत से कईँ सालों के प्रयास से यह कलेक्शन की है ...बहुत समय से सोच रहा था कि इन को यू-ट्यूब पर अपलोड़ करूंगा ...लेकिन बस ऐसे ही समय नहीं मिलता, जब समय मिलता है तो थक जाते हैं....बस, ऐसे ही ख्याली पुलाव पका पका के ही टाइम को धक्के दिये जा रहे हैं...

हां, अपनी इंटरव्यू में वे रफी साहब की बड़ी तारीफ करते हैं ...एक फिल्म आई थी सस्सी पुुुन्नू ..जिस का एक गीत था...असीं अल्हड़पुणे विच ऐवें अखियां ला बैठे....दिल बेकदरां नाल ला कर कदर गवा बैठे ....(हम तो ऐसे ही बेवकूफी में ही दिल लगा बैठे और जिसे हमारी कद्र भी नहीं थी, उस के साथ दिल लगा कर अपनी कद्र भी गंवा बैठे...)


लगी वाले कदे वी ना सोंदे, ते तेरी किवें अख लग गई... (जिन को ईश्क का रोग लग जाता है, उन को तो नींद नहीं आती, लेकिन तू कैसे सो गई...) ..इस गीत के बारे में सतीश कौल बताते हैं कि रफी साहब ने यह गीत गाने से पहले पूछा कि यह गीत किस पर फिल्माया जाना है, तो जब उन्हें पता चला कि सतीश कौल ...तो उन्होंने कहा ..ठीक है....क्योंकि इस गीत में तरह तरह के इमोशनल हाव भाव हैं...और कौल ने बताया कि जब रफी साहब ने वह फिल्म देखी तो इतने खुश हुए कि कौल को ५००० रूपये का इनाम दिया कि तुमने मेरे गीत में जान भर दी...



एक बात और यहां लिखना चाहता हूं कि ये सारी पंजाबी गीत वे हैं जो अकसर हमें आए दिन शाम के समय जालंधर रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले पंजाबी प्रोग्राम में तो सुनते ही थे ...७ से ८ बजे तक शाम में और फिर बाद में जब १९७५ के आसपास टीवी आया तो पंजाबी चित्रहार में भी हम ये गीत सुनते-देखते बड़े हुए...


एक बात और भी है कि यू-ट्यूब पर अगर आप पुरानी फिल्में देखेंगे तो बहुत खुश होंगे ...ये उस समय के पंजाब की रूह का आइना हैं...

वैसे हर शै की तरह पंजाब भी बदल रहा है ....नशे-पत्ते की गिरफ्त में है, लोग राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं वहां भी....सब घालमेल है.....सतीश कौल साहब को ढ़ेरों शुभकामनाओं के साथ इस पोस्ट को बंद कर रहा हूं....उस दोस्त का शुक्रिया जिसने आज का दिन सतीश कौल को याद करने का एक बहाना दे दिया....

ढंग से बात करने वाली बात...

अभी मैंने कुछ दिन पहले वाला अखबार ढूंढने की कोशिश की तो थी लेकिन हमारे यहां पर अकसर बीते हुए कल के अखबार को ढूंढ पाना मुश्किल काम होता है, ऐसे में कुछ दिनों पुराना अखबार कहां से ढूंढें।

ऐसी क्या बात छप गई थी उस में....उस के संपादकीय पन्ने पर एक व्यंग्य लेख था....लेखकों के बारे में किसी ने टिप्पणी करी थी...मुझे पूरा तो याद नहीं है ...लेकिन इतना पक्का याद है कि नामचीन लेखक की एक निशानी यह भी होती है कि वे सीधे मुंह किसी से बात नहीं करते..

कड़वा सच है तो है ...हो सकता है कि यह उस व्यंग्यकार का अपना अनुभव रहा है ...मन से हम सब जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफल लोगों के हाव-भाव कैसे बदल जाते हैं..

मैं भी कुछ अपने अनुभव दर्ज कर लूं लगे हाथ...हो सकता है कि ये मेरे व्यक्तिगत अनुभव हों..बिल्कुल व्यक्तिगत ..अगर आप के अनुभव इन से बिल्कुल भिन्न हैं तो भी मैं यह सब लिखने के लिए किसी तरह का क्षमा-प्रार्थी नहीं हूं...

किसी भी क्षेत्र में जब कोई सफल हो जाता है तो अकसर वह सफलता उस के सिर पर चढ़ ही जाती है...अगर नहीं भी चढ़ती तो कुछ चमचे लोग जो उसे घेरे रहते हैं ये गड़बड़ कर देते हैं..

लेकिन एक बात और भी तय है कि सब लोग एक जैसे भी नहीं होते ....कुछ सफल लोगों को ज़मीन पर टिके रहने का आर्ट भी आता है...

एक प्राईव्हेट चिकित्सक के यहां जाने का मौका मिला...प्रोफैशन में नाम है उसका ...और है भी बहुत काबिल और अनुभवी ...आठ सौ रूपये परामर्श फीस...लेकिन वही बात उस की मेज के आसपास बीस पच्चीस मरीज बेंचों पर बैठे हुए...मुझे उसे देखते ही अमृतसर के पुतलीघर चौक के डाक्टर कपूर की याद आ जाती है...फीस उन की पांच दस रूपये ही थी ..लेकिन मेरे गला खराब होने से लेकर आंख में कुछ चले जाने पर उन के ही पास ले जाया जाता था...और मैं वहां बैठा यही केलकुलेट करता रहता कि बंदे को इतनी कमाई होती होगी!

वह ज़माना ही और था, लोग अलग मिट्टी के बने हुए थे, मरीज़ की प्राईव्हेसी नाम की कोई चीज़ नहीं थी और पांच दस रूपये में शायद आप इस की उम्मीद भी तो नहीं कर सकते ..शायद..लेकिन आज सात-आठ रूपये देकर भी अगर ऐसा ही माहौल देखने के मिले तो समझ में यही आता है कि शायद हम लोग इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील नहीं हैं...मरीज़ इस तरह के माहौल में अपनी बात पूरी तरह से रख नहीं पाते ..वे रुक-रूक कर अपनी बात कहते हैं...डाक्टर की तरफ़ कम और आस पास बैंचों पर बैठे लोगों की तरफ़ देख कर यह पता लगाने की कोशिश करते हुए कि कहीं उन की पहचान का तो वहां कोई नहीं बैठा...

और डाक्टर को भी देखा कि अधिकतर वह मरीज़ की आंख में आंख मिला कर बात करता ही नहीं ... बहुत ही कम आई-कंटेक्ट, और मरीज़ बात करते हुए भी बहुत डरे-सिमटे से ...

एक दिन मेरी मां से यही बात हो रही थी ...उन्होंने भी डाक्टर का ही पक्ष लिया ...कहने लगीं कि ये लोग भी क्या करें, इतने मरीज़ होते हैं...

यह तो महज एक उदाहरण है ..लेकिन मैं बहुत जगहों पर देखता हूं कि हम लोग मरीज़ की प्राईव्हेसी की परवाह करते ही नहीं हैं...और यह मेरा अनुभव है कि कईं मरीज़ का मन एक बिल्कुल पके हुए फोड़े की तरह होता है .. अगर वे अकेले में अपने मन की कुछ बात कह लेते हैं तो जैसे वह एब्सेस से पस निकल गया है ...आप अकसर उस की परिस्थितियों को बदलने के लिए कुछ भी कर सकने में सक्षम होते ही नहीं, लेकिन उसे अपनी मन की बात बाहर निकाल कर एक अजीब सा सुकून मिल जाता है...

अब आते हैं असल मुद्दे पर ....क्या हम लोग किसी से ढंग से बात इसलिए नहीं करते कि हम ज़्यााद बिझी हैं....यह आत्म-चिंतन की बात तो है ही ....लेकिन मेरा विचार ऐसा है कि हम कितने बड़े शहंशाह भी बन जाएं...अपने आप को बहुत कुछ मानने लगें तो भी इतना तो कम से कम है कि हम हर व्यक्ति से ढंग से बात से कर लें....मेरे विचार में यह सब से महत्वपूर्ण है ...उस के लिए कुछ कर पायें या नहीं, वह अलग है .....लेकिन ढंग से बात तो ऐसे करें कि उसे वीआईपी फील आ जाए...हर आदमी विलक्षण है, हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है ...लेकिन हम फिर भी किसी से व्यवहार करते समय एक काल्पनिक तराज़ू अपने हाथ में रखते हैं...

जगह जगह यही ताकीद की जाती है ...फलां से मुंह मत लगो, उस से दूर ही रहो ....डिस्टैंस रखना ज़रूरी है ... मुझे ये सब बातें कभी समझ में नहीं आईं और न ही मैं इन्हें समझना चाहता हूं कभी ....हां, एक बात अकसर कही जाती है कि किसी से फ्री नहीं होना चाहिए....

अरे यार, क्या हो जायेगा अगर आपस में अच्छे से बातचीत कर ली जायेगी....

मुझे कईं बार लगता है  कि किसी भी प्रोफैशन में जो बहुत ऊंचे पहुंच जाते हैं उन्हें शायद यही लगता होगा कि अगर वे सब के साथ खुल जायेंगे तो लोग उन का अनुचित लाभ लेना शुरू कर देंगे ....इस के बारे में भी मेरी यही राय है कि क्या ले लेगा कोई किसी से ...आप वही तो देंगे जो आप के पास है ...

लिखते लिखते मुझे यही लग रहा है कि कम्यूनिकेशन का विषय इतना फैला हुआ है कि हम लोग इस की एबीसी भी नहीं जान पाते ...बस, अपनी धुन में, अपनी तड़ी में ही ज़िंदगी बिता देते हैं...

आप चाहे कितने भी बड़े आदमी बन जाएं, इतना तो यार गुंजाईश रहे कि कोई भी आप से खुल कर अपनी समस्या ब्यां तो कर सके...बहुत बार जब कोई अपनी बात कह लेता है, अपनी भड़ास निकाल लेेता है ...और सामने वाला उसे सहानुभूति पूर्वक उसे सुन लेता है ....यह भी एक राहत-सामग्री ही होती है .....

क्या कहें, क्या न कहें...किस से खुलें, किस से हंसे, किस से दूरी रखें, किस से नज़र मिलाए, किस से छुपाएं.....कमबख्त यह तो एक पेचीदा गणित हो गया, इसी जोड़-तोड़ में लगे रहेंगे तो जिएंगे कब ...बेहतर होगा कोई पार्टी ज्वाईन कर लें, वहां पर ऐसे लोगों की बड़ी डिमांड रहती है...

कुछ हट के बात करें ....आज सुबह मैंने विश्वविख्यात हिंदी लेखक मोहन राकेश की कहानी उस्ताद पढ़ी....बहुत अच्छा लगा ..इस में अपने एक उस्ताद के बारे में लिखते हैं जो इन्हें ट्यूशन पढ़ाने आते थे ...तंगहाली में रहते थे...किस तरह से इंगलिश के पेपर के बाद उन्हें ट्यूशन के लिए मना करना उन के लिए एक बड़ा मुश्किल काम था और वे जाते जाते उन्हें अपना पैन दे गये...बहुत अच्छी कहानी है ...स्कूल की सरकारी किताबों में सहेजी गई सभी कहानियां हमारी संवेदनाओं को झंकृत तो करती ही हैं, सोचने पर मजबूर भी करती हैं और हमारे चरित्र का निर्माण भी अवश्य करती हैं...

हां तो ज़्यादा केलकुलेशन के साथ जिया नहीं जा सकता है ....ऐसा ही कुछ मैसेज शायद इस बालीवुड गीत में भी है ...

शनिवार, 28 जनवरी 2017

एक्स्ट्रा दांत निकलवाने ही ठीक रहते हैं...


यह तस्वीर जो आप यहां देख रहे हैं यह एक आठ-नौ साल की बच्ची की है जो मेरे पास ठीक २ महीने पहले आई थी, इस की मां को इस के ऊपर वाले अजीब से दांत से परेशानी थी ...उसे लगता था कि यह कैसा दांत है, अजीब सा लगता है...

उसे बताया गया कि यह एक एक्स्ट्रा दांत है जो इस जगह पर निकल आता है ..इसे जितनी जल्दी हो सके निकलवा लेना चाहिए, वरना यह साथ वाले दांतों को बेतरतीब कर देते हैं ...देखने में तो बुरा लगता ही है ...

उसी दिन इस बच्ची का यह दांत निकाल दिया गया...इस तरह के दांतों को उखाड़ना बहुत आसान होता है ..

कल यह बच्ची दो महीने बाद अपने दंत परीक्षण के लिए आई थी...आप इस तस्वीर में देख सकते हैं कि कैसे धीरे धीरे दो दांतों के बीच वाली खाली जगह थोड़ी कम हुई है ...और मुझे उम्मीद है कि अगले दो तीन वर्षो ं में यह खाली जगह या तो खत्म ही हो जायेगी नहीं तो बिल्कुल ही कम हो जायेगी...


बच्ची अपने दांत ठीक से ब्रुश नहीं कर रही थी, उसे इस का सही तरीका समझाया गया और उस के दांतों की स्केलिंग भी कर दी थी...

पोस्ट यह छोटी है ...बस यही बताने के लिए कि दांतों का नियमित परीक्षण करवाते रहना चाहिए ...थोड़ी सी भी गड़बड़ी आगे चल कर बहुत दिक्कत पैदा कर सकती है ...

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

आर्ड ऑफ लिविंग कोर्स ...

शायद पिछले २० वर्षों से आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स के बारे में सुन रहा था...बहुत जिज्ञासा तो थी ही....मुझे याद आ रहा है शायद सन् २००० के आसपास की बात होगी... उन दिनों हम लोग फिरोज़पुर में पोस्टेड थे, एक दिन लुधियाना जाने का अवसर मिला...वहां पर ऑर्ट ऑफ लिविंग के गुरू जी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक भव्य प्रोग्राम था...वहां पर भजन-संध्या का कार्यक्रम था...कुछ समय बैठ कर वहां बहुत अच्छा लगा ...उस के बाद एक शानदार प्रीति भोज भी था...वहां पर सब लोगों में एक ठहराव, सुकून देख कर अच्छा लगा...

कभी कभी गुरू जी के प्रोग्राम टीवी पर भी देखने-सुनने को मिलते रहे ...उन की सहजता और बच्चों जैसी सरलता का कायल हुए बिना न रह सका..

कुछ वर्ष पहले हम लोग हरियाणा में थे...वहां पर श्रीमति जी ने आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स किया ...शायद २००८ के आसपास की बात होगी ...और आस पास भी कुछ समर्पित आर्ट ऑफ लिविंग के टीचर्ज़ एवं वालेंटियर्ज़ थे ...जिन से बात कर के अच्छा लगता था...एक बार श्रीमति जी ने यमुनानगर में हमारे यहां की एक ऑफीसर्ज़ क्लब में इसे आयोजित करवाया था और एक बार सत्संग हमारे यहां भी हुआ था...

एक दो बार आर्ट आफ लिविंग की मासिक पत्रिका भी पढ़ने को मिली ...

हरियाणा में ही एक आर्ट का लिविंग के एक साधक थे जिन की फैक्ट्री में गुरू जी का जन्मदिवस हर साल मनाया जाता था...भजन-संध्या और फिर प्रीति-भोज ..दो चार बार हमें वहां भी जाने का मौका मिला...


और श्रीमति जी तो कभी कभी किसी सखी सहेली के साथ आर्ट ऑफ लिविंग सत्संग में कभी कभी चली जाती हैं....

मैं भी दो तीन दिन से इस कार्यक्रम में जा रहा हूं...बहुत अच्छा लग रहा है, हल्कापन लगता है ....

दरअसल इस कोर्स के बारे में मैं केवल आप को यह कह सकता हूं कि आप इसे अवश्य करिए....जैसा कि गुरू जी ने इस का नाम रखा है ..आर्ट ऑफ लिविंग ...सच में देख रहा हूं कि यह जीवन जीने का सलीका मानस को सिखा रहे हैं...

आप किसी भी धर्म-जाति से संबंधित हैं, आप का स्वागत है ....हम जैसे भी हैं, हमें तुरंत गुरू जी की परम अनुकंपा से स्वीकार किया जाता है ...

हां, तो मैं बात कर रहा था कि हमें जीवन जीने की कला यहां सिखाई जाती है ...और इस की शुरूआत इस बात से होती है कि हम पहले ठीक तरह से सांस लेने का सलीका तो सीख लें....अफसोस, जीवन की इस आपा-धापी में हम ढंग से सांस ही नहीं ले पा रहे हैं....इसलिए हर समय बुझे बुझे से रहते हैं और दिखते भी ऐसी ही हैं....यकीन मानिए, यहां पर आप को खिलने का पूरा अवसर मिलता है ...

एक बात जो इस आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स के बारे में बहुत मज़ेदार है वह यह है कि यहां पर सब खुशी की, जश्न की,  उम्मीद की, सुबह की, आशा की, स्नेह-वात्सल्य की, गिरते हुए को थामने की, सभी में इस सर्वव्यापी ईश्वर में दीदार करने की बात करते हैं...मुझे मेरी नोट बुक में लिखी हुईं बशीर बद्र साहब की ये पंक्तियां ध्यान में आ रही हैं.....आप से शेयर कर रहा हूं...

बशीर बद्र साहब की ये पंक्तियां कितनी लाजवाब हैं ....
जीने वाले तुम्हें खुदा की कसम
मौत से ज़िंदगी की बात करो ..

मुझे बस यही लगता है कि कोर्स तो हम लोग बहुत से कर लेते हैं लेकिन हम उस अर्जित ज्ञान को कितना जी पाते हैं, और नियमित अभ्यास से कितना उस को अपने जीवन में उतार पाते हैं...यह सब ईश्वरीय अनुकंपा और गुरू की असीम कृपा से संभव हो पाता है ....मैं भी इस समय यही सोच रहा हूं कि दो तीन दिन में कोर्स तो यह संपन्न हो जायेगा....लेकिन बात तो तब है अगर वहां पर सीखी सुंदर बातों को अपने जीवन में अच्छे से अपना लूं....यह तभी संभव है अगर नियमित साधना हो और सत्संग के द्वारा इस ज्ञान को जीने वाले भाई-बहनों से प्रेरणा और आशीर्वाद मिलता रहे .....गुरूकृपा....रहमत ....जय गुरुदेव..

एक बात आप से शेयर करूं कि ये जो फिल्मी गीत हैं यह हमारे दिलो-दिमाग में इस कद्र छाए हुए हैं कि बहुत बार जब मैं आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में कुछ भी सुनता था तो मुझे अपने बचपन के दिनों का यह गीत ज़रूर याद आ जाया करता था....अभी भी याद आया....उस के अल्फ़ाज़ भी कुछ इस तरह के हैं...आ बता दे तुझे कैसे जिया जाता है! मेरे पसंदीदा गीत को आप भी सुनिए....मुझे इस गीत के लिरिक्स बेहद पसंद हैं...

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

यह है मेरी डॉयरी का आज का पन्ना...

आज सुबह ६.३० बजे के करीब इच्छा हुई कि टहलने जाया जाए...

कोहरा बहुत घना था, लेकिन फिर भी लोग घर के पास ही बाग में टहल तो रहे ही थे...

मैं भी टहलने के बाद एक जगह जब शांति से बैठ गया...पास ही बैठे एक सज्जन अपने एक मित्र से बतिया रहे थे कि अच्छा है, कोहरा इस बार अच्छा पड़ रहा है, उन्हें कह रहे थे कि हमें कोहरा बहुत अच्छा लगता है और विशेषकर इस में टहलना...

मित्र को बता रहे थे कि वैसे तो हम कभी आलस कर भी जाते हैं लेकिन इतने कोहरे में ज़रूर घर से निकल पड़ते हैं...और बाग में तो और भी अच्छा लगता है, इतने तरह के पेड़-पौधे देख कर मन खुश हो जाता है ...

मुझे इस सज्जन की बात अच्छी लगी ...जहां पर मैं बैठा था, पास ही में बहुत से आंवले के पेड़ लगे हुए हैं, अकसर आते जाते आंवले गिरते हुए दिख जाते हैं...

चलिए, यह तो हुई कोहरे की, आंवले की बात ...अब करते हैं नोटबंदी की बात....

इस ब्लॉग पर मेरी पिछली पोस्ट की डेट थी ८.११.२०१६ ...और उसी दिन रात में प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का एलान कर दिया था...मुझे अपने आप में लग रहा था कि मेरे जानने वालों को लग रहा होगा कि पुराने नोट ठिकाने लगाने में मैं इतना व्यस्त हो गया कि ब्लॉग पर लौटना ही भूल गया...नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, दो चार नोट ही थे, वे पेट्रोल पंप में लग गये थे, १० नवंबर की शाम १० मिनट बैंक की लाइन में लगा था और सौ-सौ रूपये का दस हज़ार का बंडल मिल गया था...कुछ दिन बाद मैंने एसबीआई की पर्सनल बैंकिंग ब्रांच में खाता खोल लिया...वहां पर किसी भी समय जा कर कम से कम दो हज़ार रूपया तो निकलवा ही लेते हैं...

प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय की मैं दाद इसलिए देता हूं क्योंकि इतने बड़े फैसले के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए ...वरना तो इस व्यवस्था में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को उस की मनपसंद जगह से हिलाने पर हंगामा खड़ा हो जाता है और वह वापिस अपनी पुरानी जगह पर लौट कर ही दम लेता है....मैनेजमंट का यह भी एक उसूल है कि फैसला होना चाहिए...फैसले की गुणवत्ता पर चर्चा बात में हो सकती है ...और प्रधानमंत्री जिसे प्रजातांत्रिक ढंग से हम ने स्वयं चुना है, वह जनहित में कोई भी निर्णय तो ले ही सकता है....पक्ष और विपक्ष की बातों की दौर भी चलना ज़रूरी है ....और चल ही रहा है ३५ दिनों से ....

एक बात और , बहुत लंबे समय तक कम्यूनिकेशन का विद्यार्थी रहा हूं...केवल थ्योरी ही समझ पाया हूं ...व्यवहारिक तौर मेरे संवाद में भी सभी खामियां मौजूद हैं, मैं जानता हूं ...लेकिन इन के बारे में अपने आप को सचेत करता रहता हूं...

एक विचार दो चार दिनों से आ रहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि हम किसी को अपशब्द कह कर ही अपमानित करें, हम अकसर जब झुंड में बैठे हों तो अपने शब्दों के चयन पर ज़्यादा ध्यान देते नहीं हैं....mob mentality मजदूरों के झुंड में ही नहीं होती, पढ़े लिखे इन्टेलेक्चुएल लोगों में यह अलग रूप में पाई जाती है....

आप कभी सोचिए कि जब हम लोगों का किसी से one-to-one ईन्ट्रेक्शन होता है तो हम अलग होते हैं, जब कोई तीसरा उस संवाद में घुस जाता है तो हम थोड़ा नाटकीय होने लगते हैं, और जब हम ग्रुप में होते हैं (ग्रुप या झुंड ...झुंड ही ठीक लगता है) तो हम बेलगाम हो जाते हैं....हर परिस्थिति में होने वाले संवाद की अपनी विशेषताएं हैं...काश, हम इन्हें अच्छे से समझ पाएं...मैं भी मरीज़ों एवं उनके अभिभावकों के साथ इंट्रेक्शन के समय इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं ....no compromise on this!

अपशब्द तो बहुत दूर की बात है, आज कौन किस की सुनता है, हम अपनी कही हुई बात की टोन से भी किसी दूसरी को नीचा दिखा सकते हैं.....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर कोई व्यक्ति पलट कर जवाब नहीं देता तो यह उस की महानता है...झुंड में बैठे लोग मन ही मन इस का संज्ञान लेते हैं ...चाहे वे वहां जुबान खोले या ना खोले...

मैं भी सुबह सुबह बेकार का फलसफा झाड़ने लग गया, बात केवल इतनी सी है कि हमारा किसी से मतांतर हो सकता है लेकिन किसी को भी किसी तीसरे के सामने कुछ ऐसा-वैसा कहने का अधिकार किसी को भी नहीं है, और झुंड में तो बिल्कुल भी नहीं है...एक बात और भी कहनी है कि अगर हम सामने वाले को अलग से कहेंगे तो उसे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा ...

यह बात तो ठीक है, लेकिन हम पहाड़ जैसी अपनी ईगो का क्या करें, कमबख्त वह तो किसी सज्जन की पगड़ी सरेआम उछाल कर ही शांत होती है ....

हां तो कोहरे की बात हो रही थी, तो मुझे धुंध फिल्म का ध्यान आ गया, याद आ रहा है कि जब मैं स्कूल में था तो रविवार के दिन रेडियो पर हिंदी फिल्मों की स्टोरी सुनाया करते थे, बड़ा मज़ा आता था, बढ़िया टाइम-पास .......और इस फिल्म की स्टोरी भी मैंने ऐसे ही सुनी थी, इस का भी एक गीत अभी ध्यान में आ गया जिसे अपनी अकल को ठिकाने पर रखने के लिए कभी कभी सुन लेना चाहिए( मैंने भी तीन चार बार सुन लिया है!!)....संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है, इक धुंध में आना है, इक धुंध में जाना है ....

I had read somewhere......When you are good to others, you are best to yourself! Take care! 


मंगलवार, 8 नवंबर 2016

रीडिंग कैंप @ Delhi

सुबह के पांच बज चुके हैं...और मैं २००७ नवंबर से जो काम इस समय नियमित करता आ रहा हूं...लैपटाप लेकर बैठ गया हूं..मन की बातें अपने ब्लॉग पर लिख लेता हूं..किसी के लिए कोई नसीहत नहीं, किसी को सुधारने का कोई एजेंडा नहीं (पहले अपने आप को तो सुधार लिया जाए !) ....ब्लॉगिंग मैंने नवबंर २००७ में शुरू की थी ..

मैं अकसर राजनीतिक या धार्मिक विषयों पर कुछ कहता हूं नहीं...ये मेरे विषय हैं नहीं...क्योंकि इन में बहसबाजी करनी पड़ सकती है बहुत बार...उस काम में मैं शुरू से ही बहुत कमज़ोर हूं...बेहद कमज़ोर ...इतना कमज़ोर कि मैं बहस तो क्या करनी है, मैं ऐसे लोगों से ही दूर भागने लग जाता हूं..


कल मैं सुबह उठा...अखबार उठाया तो देखा कि एचपीवी टीकाकरण का दिल्ली सरकार का विज्ञापन छपा हुआ था उसमें ...उस इश्तिहार में भी लिखा हुआ था और मुझे भी पता है ...यह भारत में पहली बार है और दिल्ली सरकार की अग्रणी पहल है...इस टीकाकरण के बारे में मैंने आठ नौ साल पहले अपने कुछ विचार लिखे थे, अगर आप इस के बारे में डिटेल से पढ़ना चाहें तो इन लिंक्स को देखिए...




हां, तो मैं मन ही मन दिल्ली सरकार की इस बेहतरीन पहल के बारे में सोचता रहा कईं घंटों तक ....

दोपहर में लेटा हुआ था ...तभी दिल्ली सरकार के रीडिंग कैंप के बारे में रेडियो से पता चला...

सरकारों को अभी तक खुद ही अपनी अपनी पीठें थपथपाते हुए यह तो कहते सुना था कि हम ने शिक्षा के क्षेत्र में भी इतनी कीर्तिमान हासिल कर लिए...हम नहीं कह रहे आंकड़े बोल रहे हैं...सरकारी स्कूलों की हालत इतनी सुधर गई है ...लेकिन देश के स्कूल की पोल तो तब खुली जब हम लोगों को यह पता चला कि अधिकांश स्कूलों में तो टॉयलेट हैं ही नहीं...और बच्चियां अधिकतर स्कूल में अपना नाम भी इसी कारण नहीं लिखवातीं ..

लेकिन एक सरकारी विज्ञापन में अगर कोई सरकार यह कहे कि एक सर्वे में यह पाया गया है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में छठी कक्षा में पढ़ने वाले ७४ प्रतिशत बच्चे ठीक से अपनी किताब ही नहीं पढ़ पाते ...इसलिए अब सरकार जगह जगह पर रीडिंग कैंप लगा रही है ...ताकि सभी बच्चे १४ नवंबर तक अपनी किताबें पढ़ सकें...

यह रेडियो विज्ञापन बार बार चल रहा था...कभी शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया का संदेश, कभी किसी स्कूली बच्चे का और कभी किसी अध्यापक का संदेश आ रहा था कि आप भी अगर किसी ऐसे बच्चे को जानते हैं जो अपने पाठ को ठीक से पढ़ नहीं पाता तो उसे इस कैंप में भेजिए और हां, आप भी इस कैंप में बच्चों को पढ़ाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं...

निःसंदेह इस तरह के activist-turned-politicians ही इस तरह की सुंदर पहल कर सकते हैं ..वरना शिक्षा मंत्री जैसे लोग कौन इन झमेले में पड़ते हैं...इन सब मुद्दों से कहां वे अपना सरोकार दिखा पाते हैं, ऐसा मैं सोचता हूं...


आज से चालीस पैंतालीस साल पहले के दिनों की बातें याद आ रही हैं...हमारे घर के पास ही एक सरकारी स्कूल था, जिसे अमृतसर की ठेठ भाषा में खोती-हाता कहा जाता था....वैसे पूरा शब्द होता है खोती-अहाता (जहां पर खोतियों को रखा जाता है...अब खोती किसे कहते हैं...मुझे नहीं पता गधे का स्त्रीलिंग क्या है हिंदी में ..लेकिन पंजाबी में उसे खोती कहते हैं! )....यह मैं १९६८ -७०-७२ के आस पास की बातें सुना रहा हूं... ठीक बारह बजे दूध की कांच की बोतलें उन बच्चों के लिए लेकर एक ट्रक आ जाता था...सब बच्चे उसे पीते थे ...और उस के बाद फिर से अपने पहाड़े रटने में लग जाते थे...पहाडे़ (जो आजकल टेबल  हो गये हैं) रटने का एक अच्छा म्यूजिकल सिस्टम था...बारी बारी से बच्चों को टीचर के पास खड़े होकर एक सुर में कविता जैसी शैली में किसी एक पहाड़े को बोलना होता था, उसके पीछे पीछे फिर सारी कक्षा उस पहाड़े को रिपीट करती थी... मुझे अभी भी वह लिरिक्स याद है ....शायद मुझे भी अधिकतर पहाड़े अपने स्कूल की बजाए इन बच्चों के रटने की आवाज़ों की वजह से ही याद हो गये! 

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें...किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए..

 पाठ्य पुस्तकों को पढ़ने-रटने के लिए भी यह मेहनत तो सब को करनी ही पड़ती थी ... मास्टर जी हमारे स्कूल में भी किसी एक छात्र को खड़ा करके एक पन्ना पढ़ने को कह देते थे...और हमें अपनी अपनी किताब साथ में खोल लेनी पड़ती थी..मुझे अभी तक इस का औचित्य कभी समझ में नहीं आया लेकिन कल मैंने मनीष सिसौदिया को सुना तो मुझे भी यह अहसास हुआ कि अगर बच्चे अपने पाठ पढ़ पायेंगे तो ही उसे समझ पाएंगे ...और तभी उन की बुद्धि का विकास भी हो पायेगा....मुझे यह बात सुनते सुनते तारे ज़मीं पर फिल्म का ध्यान आ रहा था ...मेरे विचार में मनीष स्वयं भी एक अध्यापक ही रहे हैं ...इसलिए वे इन तरह के शिक्षा से जुड़े अहम् मुद्दों की तरफ़ इतना ध्यान दे पा रहे हैं.....जिस के लिए ये सब बधाई के पात्र हैं। 


वरना सरकारी स्कूल के बच्चों की शिक्षा के स्तर के बारे में सोचने की किसे पड़ी है ... अधिकतर टीचर नौकरी सरकारी स्कूल में हथियाना चाहते हैं लेकिन वहां जाते हुए अपने बच्चों को किसी प्राईवेट नामी-गिरामी स्कूल में ड्राप करते हुए जाते हैं...सरकारी मैडीकल कालेज सब मैडीकल शिक्षा पाने वालों की पहली पसंद होते हैं अकसर लेकिन वहां इलाज के लिए अधिकतर वही लोग जाते हैं जो साधन-संपन्न नहीं होते ... चलिए, यह तो अपने आप में एक मुद्दा है ही, इस के बारे में आए दिन पढ़ते रहते हैं!

कल मैं यह विज्ञापन रीडिंग कैंप वाला सुनते हुए यही सोच रहा था कि एक तो सभी बच्चों को लगभग लिखने में रुचि कम हो रही है ..लिखते भी कम हैं और ऊपर से यह जो समस्या कल पता चली कि अधिकांश बच्चे अपनी किताब को ठीक से पढ़ भी नहीं पा रहे ....चिंता का विषय तो है ही यह ..इसलिए अकसर यह भी कहा जाता है कि बच्चे स्कूल के दिनों में जो भी कॉमिक्स आदि पढ़ना चाहते हों, उन्हें पढ़ने से रोका नहीं जााए....इस से उन की रीडिंग कैपेसिटी बढ़ती है, कल्पनाशीलता और बुद्धि का विकास भी होता है!

 बच्चों की ही बातें चल रही हैं ...तो तारे ज़मीं की फिल्म का ज़िक्र मैंने किया और साथ ही मुझे कल शाम एक मलयालम् फिल्म ओट्टल नाम की चल रही थी...टाटास्काई मिनिप्लेक्स चैनल पर आजकल मुंबई फिल्म फैस्टीवल चल रहा है, उस के अंतर्गत ही यह फिल्म दिखाई जा रही थी...फिल्म मलयालम भाषा में थी, सबटाईटल्स इंगलिश में थे, इसलिए आराम से समझ में आ गई...

साउथ इंडियन फिल्मों के बारे में मेरा कुछ ज़्यादा ज्ञान वैसे तो है नहीं, लेकिन आजकल टीवी में बहुत सी दिखने लगी हैं हिंदी डब्बिंग वाली ...वे सब की सब मुझे हिंदी डब्बिंग की वजह से डिब्बा ही लगती हैं...मैं पांच मिनट से ज्यादा उन्हें नहीं देख पाता .. लेकिन कुछ कुछ वहां की फिल्में ..जैसा कि मैं इस मलयालम फिल्म ओट्टल के बारे में बता रहा था, वे अपनी एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं... यह एक दादा और उस के पोते की कहानी है ...उन दोनों का संसार बस इतना ही है...इतनी बेहतरीन एक्टिंग की है दोनों ने कि मैं उस का वर्णन ही नही ंकर सकता, हालात कुछ इस तरह से पलटी मारते हैं कि उस आठ-दस साल का बच्चा पटाखे बनाने वाली एक फैक्टरी के मालिक के चुंगल में फंस जाता है ....very touching story....आप का मनोरंजन भी करेगी, केरल के लोगों के रहन सहन के बारे में बताएगी....और कुछ प्रश्न भी आप के लिए छोड़ जायेगी...Food for thought! मेरे विचार में यह फिल्म हम सब को देखनी चाहिेए...मुझे अभी यू-ट्यूब पर इस का एक ट्रेलर मिल गया ...इसे पूरा कैसे देखना है, यह आप सोचिए...

सोमवार, 7 नवंबर 2016

मौन का महत्व

हिंदुस्तान अखबार के संपादकीय पन्ने पर हर रोज़ बहुत सी काम की बातें होती हैं...किसी विषय पर संपादकीय लेख तो होता ही है (आज का विषय था...बिना दवा के राहत), साथ में एक व्यंग्य-कटाक्ष (यह भी बहुत ज़रूरी है लोगों में प्राण फूंकने के लिए), किसी सामाजिक मुद्दे पर किसी विशेषज्ञ की राय, कोई अध्यात्मिक बात ..बहुत कुछ होता है...लेकिन अपने ही बनाए कारणों की वजह से मैं हमेशा इस पन्ने का भी कुछ अंश ही पढ़ पाता हूं...सोचता हूं शाम में या रात में देखूंगा..लेकिन वो शाम कभी नहीं आती!

एक कॉलम है इस संपादकीय पन्ने पर मनसा वाचा कर्मणा...जिस में अमृत साधना नाम से किसी का एक लेख हफ्ते में एक बार ज़रूर छपता है ...इसे मैं ज़रूर पढ़ता हूं...मुझे विश्वास है कि अमृत साधना जी ओशो जी की अनुयायी हैं...याद है बहुत बार ओशोटाइम्स में इन के संपादकीय पढ़ते रहते थे...जीवन की सच्चाई होती है इन की लेखनी में ...

ओशो साहित्य तो वैसे ही अनुपम है ...मुझे याद है कुछ बरस पहले मैंने ओशो जी का एक लेख पढ़ा था ...जिस का शीर्षक ही था ...Comparison is a disease! यानि तुलना करना एक बीमारी जैसा है ...वह लेख मेरे मन में घर कर गया था...लेकिन फिर भी हम कब सुधरते हैं..लेख अच्छा लगा तो लगा, लेकिन हम तुलना करने से कभी बाज आए ही नहीं शायद.....नहीं, कोई शायद नहीं, यकीनन लिख कर अपना मन हल्का किए लेता हूं...जो है सो है।

हां तो मैं अमृत साधना जी के साप्ताहिक लेख की बात कर रहा था ...जो लेख आज उन का छपा है उस का शीर्षक है ...मौन का महत्व...सुबह सुबह मुझे और भी बहुत से काम तो थे ही, लेकिन मुझे लगा कि बजाए इस लेख की एक फोटो खींच के वाटसएप ग्रुपों पर देखे-अनदेखे, जाने-अनजाने, अपने-बेगाने लोगों के साथ शेयर करने के इसे अपने ब्लॉग पर संभाल के रख लेता हूं...

बहुत से मन को छू लेने वाले पाठ हम लोग स्कूल के दिनों में किताब से नकल कर कलम से अपनी नोटबुक में भी तो लिख लिया करते थे, यही काम अभी कर रहा हूं...

"हाल ही में विख्यात गायक पंडित राजन मिश्र ओशो रिजॉर्ट आए हुए थे। बातचीत में उन्होंने कहा, आजकल गायक बड़ी तैयारी के साथ गाते हैं, संगीत के नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन उनके संगीत में मौन नहीं होता। यह दिल में नहीं उतरता, क्योंकि वह उनके दिमाग से निकलता है। यह बात गौर करने लायक है।  
वाकई आज की जिंदगी में हर तरफ़ मौन का महत्व खो गया है। कोई भी मिलता है , तो हम फौरन मौसम की चर्चा शुरू कर देते हैं, कुछ भी बात शुरू कर देते हैं। वह सिर्फ बहाना होता है। असल में, चुप रहना इतना कठिन है कि हम किसी भी बहाने से बोलना शुरू कर देते हैं। दो लोग मिलें और चुप बैठे हों, यह अजीब लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोग एक-दूसरे से मिलें, हाथ मिलाएं, मुस्कराएं और सिर्फ साथ बैठें? क्या हम दूसरों के साथ सिर्फ शब्दों से जु़ड़े हैं? आज कल लोग चुप रहने की कला भूल गए हैं। फ्रायड ने अपने जीवन भर के अनुभवों के बाद लिखा है कि पहले तो मैं सोचता था कि हम बात करते हैं कुछ कहने के लिए, लेकिन मेरा अनुभव यह है कि हम बात करते हैं कुछ छिपाने के लिए।  
ओशो का सुझाव है , एक आदमी के पास कुछ देर मौन होकर बैठ जाएं, तो इस आदमी को जितना आप जान पाएंगे, उतना वर्ष भर उससे बात करने से भी न जान सकेंगे। बातचीत में आप उसकी आंखों को नहीं देख पाएंगे, उसके शब्दों में ही अटक जाएंगे। उसकी भाव-भंगिमा, उसके हृदय की वास्तविकता को महसूस न कर पाएंगे। आदमी शब्दों के परे बहुत कुछ होता है। शब्दों का लेन-देन तो व्यक्तित्व का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा होता है, बाकी पूरा वार्तालाप तो निःशब्द तरंगों से, भावों से होता है। यही वास्तविक मिलना है। आजकल समाज में जो मिलना है, वह मिलने की औपचारिकता है। इसीलिए भीड़ में भी आदमी अकेला महसूस करता है।" 

अमृत साधना 
(साभार..हिन्दुस्तान.. ०७ नवंबर, २०१६) 



 हां, तो अमृत साधना जी की बात तो हम सब ने पढ़ ली, लेकिन हम उस पर गौर कब करते हैं..बस सुनी, अच्छी लगी , बात आई गई हो गई ...लेकिन कुछ बातें हमेशा अपने ध्यान में रखने लायक होती हैं...और एक बात यह भी कि अकसर जब बोलने की ज़रूरत न होने पर भी हम बोलते हैं तो बकवास ही करते हैं, निंदा करते हैं, केजरीवाल, रागा, नमो ...किसी को भी विषय बना लेते हैं, बस अपनी फूहड़ता जगजाहिर करते रहते हैं....और वैसे भी एक सुंदर सी बात मैंने कही पढ़ी थी ....किसी व्यक्ति की मूर्खता पर तब तक ही संदेह किया जा सकता है जब तक वह मुंह नहीं खोलता....पता नहीं औरों के लिए यह बात कितनी सच है, लेकिन मुझे लगता है कि यह मेरे लिए ही लिखी गई है..

मैं सोच रहा था कि हम लोग मिलने पर ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी तो बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं आजकल, बिना वजह भी हर समय बक-बक करते रहते हैं...मैं भी यही सब करता हूं लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा हूं...एक स्टेट्स आप बीसवीं बार पढ़ रहे हैं लेकिन क्योंकि किसी ऐसे बंदे ने उसे इक्कीसवीं बार शेयर किया है...जिसे आपने खुश करना है...मन से उसे कोस रहे हैं (कम से कम!!) लेकिन प्रशंसा करते हुए खिलखिला कर हंसने वाली स्माईली लगाने का ढोंग रच रहे हैं....यकीनन, सोशल मीडिया पर हम से बहुत से लोग ईर्ष्या करते हैं और हमारी छाती की जलन का भी यही कारण है ...जितनी सोशल-इंजीनियरिंग आप सोशल मीडिया से सीख सकते हैं, उतनी तो आप किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं पढ़ सकते ...बिल्कुल सच कह रहा हूं....इस के बारे में लिखेंगे तो बात लंबी हो जायेगी...फिर कभी ....

अभी तो बस मेरी पसंद का लगे रहो मुन्नाभाई का एक सुपर-डुपर डॉयलॉग सुन कर आज दिन सोमवार की सुस्ताई हुई सुबह में जोश भर लीजिए... मेरे तो आज सुबह करने वाले बहुत से काम इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में एक बार फिर से टल गये..लगे रहो मुन्नाभाई का यह डॉयलाग मेरे दिल के बहुत करीब है ....मैं भी ऐसी ही नौकरी करना चाहता था जिस में मैं सुबह सुबह लोगों से मज़ेदार बातें करूं....चलिए, मैं न सही ....ईश्वरीय अनुकंपा से अब बेटा यह सब काम करता है, खुशी होती है कि वह वही काम करता है जिस में उसे खुशी मिलती है ...आज के दौर का नया कंटैंट है, नईं बातें हैं....कहता है कि वह किसी थके-मांदे उदास चेहरे पर खुशी लाने का कारण बनना पसंद करता है.... God bless him always!

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

रियल लाइफ वाले उस्तादों के उस्ताद

पिछले आठ दस दिन से कुछ लिखने का मन नहीं हुआ...पहले तो चार पांच दिन के लिए मैं बाहर गया हुआ था..लैपटाप लेकर नहीं गया था...अब यह एक अच्छी आदत डालने की कोशिश कर रहा हूं कि जितने भी दिनों के लिए बाहर जाना हो, लैपटाप नहीं उठाता...इसी बहाने थोड़ा सा ही सही सिरदर्दी से राहत तो मिलती है !

मोबाइल पर मैं थोड़ा बहुत दो चार लाइनें तो लिख लेता हूं लेकिन इस से ज्यादा मैं कभी भी नहीं पाता ..मुझे बहुत ही भारी लगता है ..अब तो मोबाइल पर पढ़ना भी बहुत कम कर दिया है ...अभी तक इतने वर्षों में मैंने एक पोस्ट भी अपने ब्लॉग पर मोबाइल पर लिखकर नहीं डाली...होता ही नहीं है!


मैंने पिछले शनिवार के दिन २९ अक्टूबर की टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार देखी तो मुझे एक खबर देख कर बड़ी ही हैरानी हुई...सब से पहले तो मुझे ए वैडनेसडे हिंदी फिल्म के उस १८-२० साल के हैकर युवक की याद आ गई ...लेकिन वह तो फिल्मी बात थी ...फिल्में में तो बहुत से फॉड दिखाते ही रहते हैं...लेकिन यह जो खबर थी एक सच्ची घटना थी ..एक युवक ने अपने काल सेंटर खोल कर तरह तरह के स्टाफ को नौकरी पर रख कर अमेरिका में लोगों को करोड़ों रूपयों का चूना लगा दिया...

कई ंतरह का तो उसने स्टॉफ रखा हुआ था...पूरी सुनियोजित ढंग से सब काम चलाता रहा ...खूब पैसा कमाया...यहां तक की विरोट कोहली की ऑडी कार को अढ़ाई करोड़ में खरीद कर अपनी गर्ल-फ्रेन्ड को देने ही वाला था...खरीद तो ली थी लेकिन अभी दे नहीं पाया था कि सारी जालसाजी़ पकड़ में आ गई...

मैं कईं बार सोचता हूं कि इन युवाओं की बुद्धि भी कितनी कुशाग्र होती होगी....

पिछले दिनों किसी अखबार में पढ़ रहा था कि ऑनलाइन फ्राड करने के लिए बाकायदा ट्रेनिंग सेंटर खुले हुए हैं देश के कुछ हिस्सों में ... कभी डैटा चोरी, कभी एटीएम कार्ड के पिन चोरी ..कभी क्लोनिंग कभी कुछ ...कभी कुछ ..अब हैरानगी नहीं होती ..
बस इन युवाओं के साथ सहानुभूति होती है ...सहानुभूति?..जी हां, मुझे इन लोगों के साथ एक तरह से सिंपेथी ही होती है ..इतने ज़हीन युवा, इतनेे जटिल काम कर लेते हैं ...हैकिंग के माहिर, और यह जो कालसेंटर चलाने वाले युवक की बात है इसने तो कोई जालसाजी छोड़ी ही नहीं ...बस, रास्ता गलत पकड़ लिया...देर-सवेर जालसाज़ पकड़े तो जाते ही हैं ...मेरी सहानुभूति इन युवाओं के प्रति मेरे तक ही सीमित है ..कानून तो अपना काम करेगा ही ...दूध का दूध पानी का पानी ......यह भी अच्छा है मैंने वकालत नहीं पढ़ ली ...वरना वहां भी अनर्थ हो जाता ..मुझे हर आरोपी पर तरस ही आने लगता ...जज साहिब, इसे इस बार क्षमा कर दीजिए, अगली बार से ऐसा नहीं करेगा......लेकिन कानून व्यवस्था ऐसे भी तो नहीं चल सकते...

हम सब जानते हैं कि देश में कितनी बेरोज़गारी है, और इस के कारण भी हम सब जानते हैं ..और इतने ज़हीन युवा शायद कुछ हद तक इसलिए भी इन चक्करों में पड़ जाते होंगे ...इतने अकलमंद की जुर्म की यूनिवर्सिटीयों के वरिष्ठ प्रोफैसर बन के काबिल .. जेबकतरों की ट्रेनिंग होती है हम जानते हैं, उचक्कों की, टप्पामारों की ....सब की ट्रेनिंग होती है ...लेकिन आज क ल तो इतने इतने आधुनिक फ्रॉड सामने आ रहे हैं कि इन की कंप्लेक्सिटी सोच कर ही सिर घूम जाता है ..

इस खबर को आप यहां भी पढ़ सकते हैं ..  Call centre scam 'kingpin' bought Audi for Rs. 2.5 Cr


हां, आज शाम बिजली पासी ग्राउंड में घूमते हुए पता चला है कि लखनऊ महोत्सव की तैयारियां शुरू हो गई हैं...वहां पर स्टाल आदि तैयार करने का सामान आना शुरू हो गया है ...२५ नवंबर से शुरू होगा और १० दिसंबर तक चलता है ...

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

नकली खोया ऐसे ही खपता रहेगा..

जब तक लोग खुद जागरूक नहीं होंगे ..नकली खोया ऐसे ही खपता रहेगा, तंबाकू वाले मंजन धडा़धड बिकते रहेंगे, लोग बाज नहीं आते, किसी की नहीं सुनते, चीनी पटाखे-फुटझड़ियां भी बिकेंगी, चीना मांझा चाहे जितने गले काट दे चलता रहेगा...हम नहीं सुधरेंगे।

जैसे जैसे हम उम्र में बड़े हो रहे थे हमें कभी कभी पता चलता था कि फलां फलां बंदा या कोई महिला घर के बाहर जाकर कुछ भी नहीं खाते..इधर यू.पी में तो कुछ ज़्यादा ही देखा इस तरह का परहेज एक विशेष तबके के लोगों में ....बाहर से कुछ नहीं खाएंगे ..सफर में भी नहीं, लईया-चना, सत्तू, फल-फ्रूट या कुछ भी घर से लेकर चलेंगे, लेकिन बाहर से कुछ भी लेकर खाना इन्हें गवारा नहीं है....मैं जानता हूं कि यह सब केवल सेहत की सुरक्षा के लिए ही नहीं होता रहा है ....इस के पीछे कुछ और कारण भी हैं जैसे कि कुछ लोग आज के जमाने में भी इस बार का ध्यान रखते हैं कि बाहर का खाना किस ने बताया होगा ...कुछ पता नहीं!

मुझे कुछ साल पहले तक तो शायद यह एक सनक ही लगती थी कि बाहर से कुछ भी नहीं खाएंगे ..ऐसा कैसे हो सकता है! लेकिन जैसे जैसे अपने ऊपर बीतती गई यह बात पते की है यह पता चलता रहा। जब भी बाहर खाया, अपनी तबीयत खराब की.......यह सिलसिला अभी भी जारी है ..शायद पांच सितारा होटलों को छोड़ कर ...लेकिन वहां हम लोग खाते ही कितना है!
बहरहाल, अब मेरा यह मानना है कि जो भी लोग घर से बाहर खाने में जितना हो सके बच के रह सकते हैं वे बहुत बुद्धिमान हैं...उन के ऐसा न करने के कारण कुछ भी हो सकते हैं...शायद पुरानी रूढियों और भ्रांतियों से प्रेरित......लेेकिन मैं तो बस यहां सेहत की सुरक्षा के नजरिये से बात कर रहा हूं..

आज अभी सुबह की अखबार उठाई तो पता चला कि यहां यूपी के काकोरी में (लखऩऊ के पास ही है यह जगह ..काकोरी कांड को तो आप जानते ही होंगे) ..कुछ लोगों को घटिया मिल्क पाउडर से खोया बनाते गिरफ्तार किया गया...मौके से १८ कुंतल नकली खोया जब्त कर दिया गया।

मुखबिर से सूचना मिली थी कि घटिया स्किम्ड मिल्क पाउडर में स्टार्च मिलाया जाता था, इसके बाद पामोलीन ऑयल, चीनी मिलाई जाती थी, शुद्ध खोये की रंगत देने के लिए आरोपी पीला रंग मिला देते थे। यह सब कुछ मौके से बरामद भी किया गया...


छोटी दुकानें, गांव-कसबों के खोमचों में ही यह सब नहीं खपेगा...लखनऊ जैसे महानगरों की बड़ी हाई-जैंट्री दुकानें भी कहां अछूती हैं इन सब से ...इन की करतूतों के कच्चे चिट्ठे भी मीडिया दुनिया के सामने खोलता ही रहता है ...

आप भी ज़रा सोचिए कि आप जिस भी राज्य या शहर में रहते हों, आप ने नकली खोये की बातें ज़रूर सुनी होंगी....पहले जब हम लोग पंजाब हरियाणा में थे तो सुनते थे कि मुजफ्फरनगर नकली खोये का हब है ...यकीन कर लेते थे  ..पकड़ा भी जाता है बहुत बार ..लेकिन इस के कुछ नहीं होता ...इस तरह के कारोबारीयों के तार ऊपर तक जुड़े होते हैं ...व्हिसल ब्लोउर को ही एक इशारे पर खत्म करवा दें अगर चाहें तो ...और वह हर जगह अकेला!

कानून बड़े सख्त हो गये हैं मिलावटी सामान से संबंधित .....लेकिन आप ने कब सुना कि फलां फलां बंदा नकली खोया बेचने या सिंथेटिक दूध बेचने के इल्जाम में जेल में सड़ रहा है ....मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सुना हो !

वैसे एक बात है  कि इन मिलावटखोरो को सजा बड़ी दर्दनाक मिलनी चाहिए...लोगो ं की सेहत से इतना बड़ा खिलवाड़...अब अगर कुछ भी ऐसा वैसा शरीर में जा रहा है तो लिवर-किडनी जैसे अंगों को खराब होने से आप कैसे रोक सकते हैं....सस्ते मिल्क पावडर की बात से याद आया शायद आज से पंद्रह साल पहले की बात जब सस्ते किस्म के मिल्क-पावडर से दर्जनों बच्चे चल बसे थे...उन के गुर्दे खराब हो गये थे ..बाद में जांच हुई तो पता चला कि मिल्क पावडर में यूरिया और पता नहीं ऐसी कुछ और चीज़ों की मिलावट हुई मिली थी...

ठीक कहती है विद्या बालन जो लोगों को तो कह कह के थक चुकी है ..अब मख्यियों से कह लेती है कि लोगों की सेहत का ध्यान करियो.....काश, सभी लोग सचेत हो जाएं .....वरना फिर खोये से ही बात करनी होगी !

मत खाइए मिठाईयां, न इस दीवाली पर न ही इस ईद पर  ....कभी नहीं.....एक बात और, आप भी न खाईए, औरों के लिए भी न लेकर जाइए....पता है एक बात है , हम चाहे कितने भी संयम से रह रहे हों तो भी कहीं से मिठाई आने पर तो खा ही लेते हैं ....सब मिलावट, घटिया खोये, मैदे, घटिया किस्म के रंग और फ्लेवर्ज़ का कमाल है, और कुछ नहीं है......सेहत खराब, बहुत खराब करने के लिए बनी हैं ये सब चीज़ें ....मैं वैसे तो मिठाई बहुत कम ही खाता हूं ...मुझे पसंद तो बहुत है ...लेकिन पिछले २५ सालों में कुछ हालात ही ऐसे बने कि लगभग छूट ही गई ये मिठाईयां ...मिलावट के डर ने ऐसा खौफ़ज़दा किया कि आम तौर पर चाह कर भी खोये या बाहर के पनीर से तैयार हुई कोई भी चीज़ खाने की इच्छा ही नहीं होती !

आप भी ध्यान रखिएगा और बच के रहिए...दीवाली आ रही है!


सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

हम सब मुसद्दी ही हैं ..कोई थोड़ा कम,कोई ज़्यादा

वोटर कार्ड (चाहे आप उस शहर में ३० साल पहले रहे हों) 
आधार कार्ड
पासपोर्ट फोटो (जितनी ज्यादा अपने झोले में रख सकें..)
राशन-कार्ड (चाहे पच्चीस तीस साल पुराना हो, परेशान मत होइए, कोई कुछ नहीं पूछेगा)
अपना वर्तमान पहचान पत्र तो साथ में रखना ही है हमेशा
ड्राईविंग लाइसेंस 
पैन कार्ड 
यैलो कार्ड 
अपना डेबिट कार्ड 
क्रेडिट कार्ड 
चैकबुक, पासबुक, पुरानी नईं जो भी हैं बस थैले में रख तो लीजिए...
बिजली के बिल या टेलीफोन के बिल की कापी भी पहले मांगी जाती थी(रख लीजिए थैले में अगर आप के पास है तो) 
अगर आप के बच्चों से संबंधित कुछ लेन देन है तो उस का जन्म-प्रमाण पत्र..
अगर पिता जी स्वर्गवासी हैं और आप मां के साथ जा रहे हैं तो पिता जी के स्वर्गलोक प्रस्थान के प्रमाण की भी कुछ कापियां रख लीजिए...
अपना वह फोन जिस पर आप को बैंक के मैसेज आते हैं..
(इस के अलावा भी आप शांत मन से दस मिनिट के लिए सोचिए कि अगर आप उस बाबू की जगह हों तो आप किसी से किस किस दस्तावेज़ की मांग कर सकते हैं, वे सब कुछ थैले में साथ लेकर चलिए) 

अभी तो मुझे इन डाक्यूमेंट्स का ध्यान आ रहा है ...उस जिल्लत के आधार पर जो इतने वर्षों में डाकखानों और बैंकों में झेलनी पड़ी ..और जो इस जिल्लत से सीखा....मैं अकसर लोगों से कहता हूं कि जिल्लत से घबराया मत करिए...हर अनुभव हमें बहुत कुछ सिखा भी जाता है ..

हां, तो जो मैंने ऊपर लिस्ट तैयार की है, वह इसलिए है कि बैंक और डाकखाने में पता नहीं कब कौन सा दस्तावेज मांग लें, इस का अंदाज़ आप नहीं लगा सकते..मैं भी नही ंलगा पाया पचास की उम्र पार करने के बाद भी ...

दरअसल जो काउंटर पर कर्मचारी बैठा है, वह आप को भगवान होता है उस समय ..उस ने जो कह दिया वह कानून है .....और बहुत बार सब कुछ उस के मूड पर ही निर्भर करता है और आप के बातचीत करने के अंदाज़ पर भी ...इसलिए बेहतर यही होगा कि अपनी सभी डिग्रीयां पीएचडी-डीएचडी भी घर पर ही रख कर जाइए..वहां जाकर उस बाबू से कोई तर्क-वितर्क के चक्कर में पड़ गये तो अपना ही नुकसान है .....किसी सीधे-सादे काम में भी ऐसा अडंगा लगा देगा कि बार बार हांफने लगेंगे आप ...वहां तो बस चुपचाप रहने में और जो कहा जाए उतना ही करने में भलाई है ....


एक तो यह केवाईसी की बड़ी सिरदर्दी हो गई है .....कुछ कुछ अंतराल के बाद अब मैसेज आने लगे हैं कि आप का खाता के वाई सी कंप्लायंट नहीं है ...अपनी शाखा से संपर्क कीजिए...वहां जाने पर अगर तो आप ऊपर दी गई मेरी चैक-लिस्ट के हिसाब से जाते हैं... तो ज्यााद सिरदर्दी नहीं होगी...बाबू जो जो मांगता जाए, उसे उसी समय उस की कापी थमाते जाइए....बिना कुछ कहे ..जैसे आप को दीन-दुनिया का कुछ पता नहीं....तीन चार दस्तावेज मांगने पर वह थोड़ा सा थक जायेगा कि इस के पास तो सब कुछ है..इसलिए आप को काम होने की पूरी संभावना है ...

उस दिन ऐसा ही हुआ ...बैंक में कुछ काम था ...मैंने बेटे से कहा कि उस के पास जितने भी दस्तावेज हैं उन सब को और उन की फोटोकापियों को साथ लेकर चलेंगे ..मैंने भी अपने यही सारे हथियार साथ ले लिए...पहले तो जो डेस्क पर जो मैडम थी उन्होंने ने तीन चार तरह के दस्तावेज मांग लिए...उन का हर बार कहने का यही अंदाज़ था, यह लाना पड़ेगा...वही दस्तावेज उसे तुरंत थैले में से निकाल कर दे दिया जाता ....और यह प्रक्रिया इतनी तेज़ी से की जाती कि उसे वह दस्तावेज देखने-निहारने का समय ही न मिलता...बहरहाल, केस पहुंचा अधिकारी के पास....उन्होंने भी दो दूसरे दस्तावेज़ों की मांग कर दी...वे भी तुरंत उन्हें थमा दिये गये... .नतीजा यही कि काम हो गया.....वरना कुछ भी कम होता तो काम लटक जाता...

मैं बहुत बार सोचता हूं कि हमारे देश में यह सब सिक्योरिटी इतनी टाइट है तो फिर कैसे माल्या जैसे लोग रफू-चक्कर हो जाते हैं...चार दिन खबरों में रहते हैं .....फिर लंबी चलने वाली कानूनी प्रक्रिया ...

हां, जाते जाते एक बात....चुपचाप भोंदू की तरह सब कुछ दिए जाने के बाद भी अगर अंत में आप को यह कह  दिया जाए कि क्या आप किसी गवाह को ला सकते हैं जो आप को जानता-पहचानता हो.....तो अगर उस समय आप का सब्र का बांध टूट पड़े तो अचानक आप के मुहं से फिरंगी भाषा के कुछ शब्द फूट पड़ेंगे......बड़े शालीन ढंग से .....तब बाबू को अचानक झटका लगता है कि यार, यह तो पढ़ा लिखा है .......शायद आप को काम हो जाए......अगर नहीं होता तो फिर आप को आखिर में उस बाबू को कहना होगा कि आप इस पर Regret लिख कर मुझे लौटा दीजिए.......पूरी संभावना है कि इतनी स्टेज तक पहुंचते पहुंचते आप का काम हो जायेगा.....वरना मैनेजर के पास जा कर थोड़ी फर्राटेदार इंगलिश का रूआब ज़रूर काम आ जायेगा.... Guaranteed!

वैसे मैं एक बात आप से शेयर करूं.....मुझे बैंकों और डाकखाने में जाने से बहुत नफ़रत है ...बडी़ फार्मेलिटीज़ हैं....यह लाओ, वो लाओ....आप की फोटो हमारे रिकार्ड में नहीं है, आप के दस्तखत अभी सिस्टम में नहीं हैं....ये सब बातें भुग्ती हुई हैं इसीलिए इतनी सुगमता से दिल से निकल पड़ीं.....

और  हां, उस मैट्रिक - हाई स्कूल के सर्टिफिकेट की फोटोकापी मैं कैसे भूल गया...उस की भी कुछ कापियां झोले में फैंके रखिए, क्या पता किस बाबू की जिज्ञासा या उस का शक उसी प्रमाण-पत्र से ही शांत हो पाए..

इस पोस्ट रूपी लिफाफे को थूक से चिपकाते हुए (हम बचपन में यही तो करते थे...) यही ध्यान आ रहा है कि इस में तो आफिस आफिस वाले मुसद्दी बाबू की बेबसी ब्यां हो गई कुछ कुछ ....सिर भारी हो गया मेरा तो लिखते लिखते ..चलिए, इस भारीपन को बेलेंस करने के लिए एक हल्का फुल्का गीत सुन लेते हैं...






सेब- सीधे हिमाचल के बागानों से ..

परसों मैं रोहतक से दिल्ली आ रहा था..नांगलोई से दो युवक डिब्बे में चढ़े...जबरदस्त हड़बड़ाहट...जैसे तैसे उन के सेबों की चार पेटियां सीटों के नीचे फिट हो जाएं...उन पेटियों के साथ धक्का-मुक्की करने के बाद दस मिनट में उन्होंने यहां वहां सारा माल फिट कर ही दिया...टीटीई आया...हां भई, कहां से आरक्षण है?...ऩई दिल्ली से है।

टीटीई ने कहा कि ऐसे कैसे, नांगलोई से कैसे आप चढ़ गये इस आरक्षित डिब्बे में....उन युवकों ने अपना परिचय दिया..थोड़ी उस से रिक्वेस्ट करी और टीटीई साहब आगे से ऐसी हरकत न करने के लिए आगाह करते हुए लौट गये..

मैं भी कहां कुछ कहने से रह पाता हूं...मैंने इतना ही कहा ...An apple a day keeps the doctor away! और आप लोगों ने तो लगता है पूरे साल का ही जुगाड़ कर लिया है...वे भी हंसने लगे ...वे किस विभाग में काम करते थे, वह लिखना यहां ज़रूरी नहीं है ..ठीक भी नहीं लगेगा।

उन्होंने बताया कि वाराणसी जाना है ...और मुझे जब उन के विभाग का पता चला तो मैंने उन के अधिकारी का पदनाम लेकर कहा कि यह उन के लिए दीवाली के तोहफ़े का जुगाड़ किए दे रहे हैं आप...वे फिर हंस पड़े......बताने लगे कि आप बिल्कुल सही कह रहे हैं..मैंने कहा कि ठीक है, अब लोग कहां रंग बिरंगी ईमरतियां, बर्फीयां खाते हैं....इस तरह की फ्रूट ही ठीक है..

एसी टू के उस कैबिन में एक अधेड़ उम्र की महिला भी थीं...वह भी उन की बातों में पूरी दिलचस्पी दिखा रही थी ...उन लड़कों ने बताया कि ये पेटियां वे आज़ादपुर मंडी से लेकर आये हैं...मुझे लगा कि वहां पर बहुत बड़ी सब्जी-फल मंडी है, इसलिए वहां से खरीद लाये होेंगे ..

नहीं, वे यह खरीद कर नहीं लाये थे, जैसा उन्होंने बताया कि उन के एक अंकल फौजी अफसर रिटायर हैं और अब शिमला के भी ऊपर उन्होंने सेब के बाग खरीद लिये हैं...यह उन्हीं के खेत से हैं...बता रहे थे कि ये सेब वहां पर तो १५-२० रूपये किलो के हिसाब से ही बिकते हैं...लेकिन इन सेबों की सब से खास बात यह है कि इन पर वैक्स (मोम) नही ंलगी है....

उन से एक विश्वसनीय बात यह पता चली कि बिना वैक्स के सेब इतने दिन रह ही नहीं सकता और मंडी में लाने के बाद सभी सेबों पर वेक्स की कोटिंग की जाती है ...लेेकिन ये सेब जो वे अपने साहिब लोगो ं के लिए ले जा रहे हैं इन पर वेक्स बिल्कुल भी नहीं है...

उस डिब्बे का माहौल इतना सेबमय हुआ देख मैं मन ही मन सोच रहा था कि ये सेब भी कितने खुशकिस्मत हैं...इन सेब की पेटियों की जरिये ये युवक अपने साहिब लोगों को शीशे में उतारेंगे और फिर पता नहीं उन से ट्रांसफर, प्रमोशन, कोई अनड्यू फायदे लेंगे ....सुना है ऐसा ही होता है...और अब लोग भी सभी हथकंड़ों से वाकिफ़ हो ही चुके हैं...किस को कैसे खुश करना है, कुछ लोग इस में महारत हासिल किए रहते हैंं...

एक बार मैं फिर किसी महकमे का नाम नहीं लूंगा लेकिन सुना है कि कुछ महानगरों में रहने वाले अधिकारियों के लिए फल-सब्जियां तीन चास सौ किलोमीटर की दूरी से आती हैं और इस सेवा के लिए बंदे तैनात होते हैं...जम्मू से चावल, राजमा, अमृतसर के पापड़-वडियां, लुधियाना के शर्बत, मुरब्बे, आचार,  लखनऊ के टूंडे कबाब, कढ़ाई वाले सूट-कुर्ते...क्या क्या नाम गिनाऊं...बेकार में!

हां, तो सामने बैठी औरत को तो इस बात की चिंता थी कि उसे इस तरह के सेब कैसे मिलेंगे दिल्ली में रहते हुए..उन से फोन नंबर मांगने लगी..उन्होंने कहा कि नहीं, यह संभव नहीं है...इस तरह के सेब बिकाऊ नहीं है, और वे विक्रेता भी नहीं हैं...उन युवकों ने एक सेब निकाल कर मुझे खाने के लिेए कहा ...मैंने कहा...बढ़िया है, लौटा दिया...फिर उन्होंने एक गोल्डन सेब निकाल कर कहा कि आप इसे तो खा कर देख ही लीजिेए...मैंने उस सेब को सूंघा तो उन से कहा कि यह खाने के लिए नहीं, सहेजने के लिए है ...दिव्य सुगंध है इसकी...


पानी से धो कर खाने पर उस का स्वाद बहुत ही बढ़िया लगा .. अब पता नहीं यह साईकोलॉजिकल था ...या फिर असल में ...
लेकिन कल मैंने  उन युवकों की बात से यह सीख ज़रूर ले ली है कि यह जो मैं कभी कभी बिना काटे सेब खा लेता हूं....यह अब बंद करना पड़ेगा....शायद आप लोगों ने भी नोटिस किया होगा कि अब सेब को छिलके के साथ खाने में बड़ा अजीब सा लगता है ..बकबका सा लगता है .....शायद यह उस के ऊपर चढ़ी मोम की वजह से ही होता हो...

सेबों की बात होने पर उन दोनों युवकों और उस महिला को जब मेरे बारे में पता चला कि मैं डैंटल-सर्जन हूं ..तो फिर वहां पर मुझे उन की दांतों से जुड़ी समस्याओं का निवारण भी करना ही था... लेकिन मुझे इस में कोई आपत्ति नहीं होती कभी भी, जिस बात की जानकारी जिस के पास है, उसे ही लोग उस के बारे में पूछेंगे...मैं कभी किसी को टालने वाले बात नहीं करता...

मैं नई दिल्ली पर उतरने वाला था ..वे थोड़ा सा परेशान सा दिखे कि अब जिन लोगों की सीटें हैं अगर उन लोगों ने अपना सामान अपनी सीटों के नीचे ही रखने को कहा तो ......मैंने कहा..तो क्या, आप लोगों को उस की क्या चिंता है...मैंने अपने हाथ वाले सेब की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ...आप के पास ये सब हैं न इतने सारे, एक एक उन्हें भी थमा कर उन की भी बोलती बंद कर दीजिएगा.....एक बार फिर से डिब्बे में ठहाके लगने लगे!

चलिए, अपनी बात को यहीं विराम देता हूं ...वैसे भी दीवाली की खरीदारी का मौसम है, आपने भी जाना होगा....लेकिन तोहफ़े खऱीदते समय हमेशा उन अनजान लोगों को विशेष कर ध्यान में रखिए जिन को शायद ही कभी कोई याद रखता है या यही सोचता है कि क्या यार...

तोह़फे दीजिए....अपने स्कूल के पुराने मास्टरों को ढूंढिए, अगर वे अभी तक सितारों में नहीं मिल गये हैं तो उन के पास जाकर उन को तोहफ़े दीजिए...पुराने दिनों को याद कीजिए...अगर आप के गुरुजन अभी नहीं है, तो बच्चों के पुराने या मौजूदा टीचरों को इसी बहाने याद कीजिए...जिन बसों में आप के बच्चे रोज़ स्कूल से आते हैं...उसे के ड्राईवर और कंडक्टर को याद करने की हमें फुर्सत ही कहां है..मुझे याद है कि कुछ साल पहले जब मैंने उस स्कूल बस के कंडक्टर को एक भेंट दी थी दीवाली से एक दिन पहले तो उसे कितना अच्छा लगा था... अपनी हाउसिंग सोसायटी के सभी सिक्योरिटी गार्ड्स को ज़रूर याद रखिए.....जिस सैलून में आप के हर महीने बाल कटवाने पहुंच जाते हैं उस गणेश को आप कैसे भूल सकते हैं....कभी यह सब कर के देखिएगा...बहुत अच्छा लगेगा...बात तो मन की खुशी की है ...अच्छा, एक बात और ...आते जाते किसी भी ज़रूरतमंद दिखाई देने वाले अंजान बंदे को तोहफ़े देने से हमें कौन रोक रहा है....इस बात यह भी काम करेंगे!

और एक बात...बहुत बार लोग ऐसे ही एक रिचूएल के तौर पर ही तोहफों के आदान-प्रदान कर लेते हैं....इधर से आया उधऱ भिजवा दिया...क्या फायदा इस सब सिरदर्दी का ...इस ते बेहतर होगा चुपचाप घर में बैठ कर रेडियो विविध भारती सुनिए। तोहफ़ों को तोहफे ही रहने दीजिए....उन पर चाटुकारिता, फ्लैटरी का रैपर मत लपेटिए.....इन छोटी छोटी बातों से कुछ नहीं होता ..जो लोग हाशिये पर खड़े नज़र आएं, उन्हें ढूंढ ढूंढ कर खुश करिए......यही दीवाली का असली जश्न है, आप का भी और उन का भी !!

सेब की बागानों की बात चली तो देखिए मुझे कितना सुंदर यह गीत ध्यान में आ गया...one of my favourites since school days..





बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

दलाली, तलाशी और चुप्पी ...

दरअसल इस पोस्ट का हैडिंग मुझे भी अजीब सा लग रहा है ...लेकिन बिना हैडिंग के पोस्ट पब्लिश नहीं हो पाती..इसलिए ऐसे ही जो मन में आया लिख दिया...
कल से तीन बातें मन में घूम रही हैं...सोच रहा हूं लिख के छुट्टी करूं....वरना बेकार में परेशान किए रहेंगी...

दलाली...

कुछ साल पहले मेैं शताब्दी में सफ़र कर रहा था...पिछली सीट पर दो ऑफीसर जैसी बातें करने वाले दोस्त दिखने वाले बंदे बैठे हुए थे...अपने बॉस का तवा उन्होंने लगा रखा था... बीच बीच में तो मुझे झपकी आती रही ...लेकिन अपने बॉस की बातें सुना रहे थे कि किस तरह से उस ने किसी भी शहर में कार्यरत कनिष्ठ अधिकारियों को नहीं बख्शा...कहीं से आचार, कहीं से मुरब्बे और कहीं से शर्बत और कहीं से देसी घी की गज्जक और रेवड़ीयां मंगवाता रहता था .. और भी बहुत कुछ...और आपस में बात कर रहे थे कि पाखंडी इतना तगड़ा कि सभी अंगुलियों में हर तरह के नग और मोती धारण किये रहता था...कैसे कोई ग्रह उस की खिलाफ़त कर पाए।

उन में से एक ने किस्सा सुनाया कि कैसे एक मशीन उन के दफ्तर में आई तो उस के पीछे पड़ गया कि कंपनी से पांच हज़ार रूपये दिलवाओ...यह बंदा अपने दोस्त से कह रहा था कि अब उसने वैसे तो किसे से कुछ लिया नहीं था, एक बार तो उसे कहने की इच्छा हुई कि सर, आप अपने आप ही ले लीजिए...लेकिन इतनी हिम्मत जुटा नहीं पाया...लेकिन जब तक पांच हज़ार रूपये उस के घर उस के माथे पर नहीं मार आया उस बॉस को चैन नहीं पड़ा....

दूसरा उस के ट्रांसफर के किस्सों को याद कर रहा था कि कैसे उसने छठे पे कमीशन के कुछ आफीसर्ज़ के सारे के सारे एरियर्ज़ हड़प लिए... कमबख्त पता नहीं क्यों इतना भिखमंगा सा लगने लगा था अपनी नौकरी के पिछले दो तीन सालों में...जी हां, उन्होंंने उस के लिए ऐसे ही शब्द इस्तेमाल किये थे...

और दूसरा कहने लगा कि ऐसा लगता था कि यार वह बॉस नहीं है, ट्रांसफर करने करवाने वाला कोई उच्चकोटि का दलाल है ....ट्रांसफर करवाने, धमकाने और निरस्त करने के बल पर ही उसने फगवाड़े में एक आलीशान बंगला खड़ा कर लिया था ...

दूसरे ने उस की हां में हां मिलाते हुए कहा कि यार, तुम ने बिल्कुल सही पकड़ा ...बिल्कुल दलाल ही तो लगता था...उस की शक्ल भी वैसी ही हो गई थी..(आगे उसने जो कहा, वह मैं यहां नहीं लिख सकता, आप समझ सकते हैं) ...विधि का विधान देखिए रिटायरमैंट के दिन जब रात में पार्टी में धुत हो कर अपने ड्राईवर के साथ फगवाडा़ बंगले में जा रहा था तो रास्ते में ही सीबीआई टीम ने कार से तीन करोड़ की रकम के साथ धर दबोच लिया... अभी केस चल ही रहा था कि डेढ़ साल में वह चल बसा...

किसी ने सही ही कहा है ...कोयलों की दलाली में मुंह काला...

चुप्पी ...

कुछ  दिन पहले एक साहित्यिक कार्यक्रम में था....एक ९७-९८ वर्ष की महान् साहित्यकार का सम्मान होना था...साहित्यकार तो संवेदनशील होते ही हैं...सब ने उन के शतायु ही नहीं, दीर्घायु होने की प्रार्थना की...किसी ने कहा कि बख्शी दीदी आज ९८ साल की हैं, ईश्वर उन्हें मेरे ९८ साल  के होने तक स्वस्थ रखे... सब का उदबोधन सुन कर अच्छा लग रहा था...इतने में शहर के एक नामी गिरामी सेठ की बारी आई...उसने अपने भाषण मेे ंकहा कि दीदी, ९८ साल की हैं, इन्हें देख कर अच्छा लग रहा है, मित्रो, अब उम्र ही ऐसी है ...एक तरह से अब यह मेहमान ही हैं..दो तीन या चार साल की और....ज़्यादा से ज़्यादा किसी आदमी की इतनी ज़िंदगी ही तो होती है ...उस रईस के ये शब्द सुन कर पंडाल में बैठे सभी लेखक-विचारक एक दूसरे का मुंह देख कर हंसने लगे कि  यह कह क्या रहा है! उस समय मुझे यही बात याद आ रही थी...

उस समय मैं भी यही सोच रहा था कि वह बात ठीक ही है कि कईं बार चुप रहने में ही अकलमंदी होती है ...और इस चुप्पी से भले ही लोगों को हमारे मूर्ख होने का शक होने लगे....वरना एक बार मुंह खुलने पर तो फिर शक की कोई गुंजाईश ही नहीं रहती!



तलाशी...

तलाशी एयरपोर्ट पर, सिनेमा घरों में, शापिंग माल में, मेट्रो स्टेशनो ं पर सब जगह होती है, बुरा नहीं लगता ...कुछ वीवीआईपी के रिश्तेदारों को लगता होगा बुरा... जिन को अभी एग्ज़ेम्ट लिस्ट में शामिल नहीं किया गया है ...लेकिन यह भी गलत है ...कुछ लोगों पर आप कैसे दूसरों से अधिक भरोसा कर सकते हैं...चलिए, इस दिशा में भी मौजूदा सरकार ने कुछ काम तो किया था शुरु शुरु में ही ...उस के बाद कुछ खबर नहीं आई। लेकिन मुझे एक तलाशी थोड़ी परेशान कर गई...तीन चार दिन पहले मैं एक सर्विस स्टेशन के बाहर खड़ा था... वर्करो ंकी छुट्टी का टाइम था, जिस तरीके से उन की तालाशी ली जा रही थी बाहर आते वक्त, यह मुझे कचोट गया ... गेट पर खडे़ उस सिक्योरिटी वाले गोरखे का तरीका ही कुछ ऐसा था....वर्करों के शोल्डर बैग्ज़ के सभी हिस्सों को ऐसे टटोल रहा था कि ..........क्या कहूं, मन खराब हुआ यह देख कर .....यह सोच कर कि छोटे बच्चे भी यह नहीं चाहते आज कल कि कोई उन के बैग से छेड़छाड़ करे ...और यहां तो .!!

तीन बातें कह कर मन को कुछ सुकून सा मिला तो है ...बाकी का काम यह गीत कर देगा...