शनिवार, 4 जून 2016

आज तो तुलसी जी स्वयं आंगन में आ गई...

सफाई अभियान चल रहा है जगह जगह ..बहुत अच्छी बात है..लेकिन कुछ जगहों पर दस लोगों के आठ सूखे पत्तों को हाथों में झाडू थमाए साफ करती हुई तस्वीरों का खूब मजाक उडाया जा रहा है ...क्या है ना, आज कल सब कुछ साफ़ से दिख जाता है ...पहले वाला ज़माना तो रहा नहीं, जो आपने कहा, मान लिया....लोगबाग आज कल बाल की खाल खींच लेते हैं...वैसे ठीक भी है!

फिर एक बात कुछ इस तरह की व्यवस्था भी शुरू हुई कि हां, सफाई अभियान की तस्वीरें तो डालिए लेकिन एक सफाई से पहले की और दूसरी बाद की...लेिकन इस तरह की तस्वीरें कम ही दिखती हैं अकसर.

कल विश्व पर्यावरण दिवस है ...वैसे तो उस के उपलक्ष्य में मैंने पोस्ट कल ही डाल दी थी...पानी की बोतलें बंद होंगी.. An eco-friendly move! 

लेिकन पर्यावरण एक ऐसा विषय है इस के ऊपर जितना लिखा जाए कम है, जब तक हम लोग अच्छे से सुधर नहीं जाएं...

आज सुबह टाइम्स आफ इंडिया पढ़ रहा था तो देखा कि उसमें िलखा है कि आज से नवभारत टाइम्स एक ग्रीन पहल कर रहा है ..उस के साथ तुलसी के बीज आएंगे..

सुन कर अच्छा लगा ..नवभारत टाइम्स की इस पहल के बारे में जानने की इच्छा हुई...ड्यूटी पर जाते समय नवभारत टाइम्स की दो कापियां ले लीं..


अोपीडी में काम कर रहा था तो एक मरीज़ आया...उस का नाम पढ़ा, साथ में लिखा था..माली...मैंने कहा, एक छोटा गमला ला सकते हो?..वह तुरंत ले आया...पेपर को खोला, उस के साथ लगी स्ट्रिप को काटा...लेकिन कोई बीज नहीं निकले....फिर दूसरे पेपर को भी काटा...उसमें से भी बीज नहीं निकले...

मुझे लग रहा था कि उस में से कुछ सरसों के बीज जैसे कुछ निकलेंगे...माली को भी समझ नहीं आ रहा था...मैं फिर पेपर को ध्यान से देखा...उस खबर को पढ़ा ..उस में लिखा था कि उस स्ट्रिप को काट कर खोलने की ज़रूरत नहीं है, उस के छोटे छोटे टुकड़े काट के गमले में बो देने हैं...फिर, माली ने वैसा ही किया....

अब देखिए इन बीजों को बो तो दिया है ...देखते हैं...इस की देखभाल भी करेंगे...जैसा बताया गया है ...

फिर भी मुझे आज दोपहर सोते समय सत्संग में सुनी एक बात याद आ रही थी ...

माली दा कम बूटे लाना, 
भर भर मश्का पावे,
मालिक दा कम फल-फुल लाना, 
भावें लावे या न लावे
(माली का कर्म है कि उसने पौधे रोपने हैं, उन्हें नियमित पानी देना है...मश्कां एक चमड़े का बैग सा हुआ करता था पहले जिसमें पानी भर कर माली पानी दिया करते थे...लेकिन पौधे को फल फूल लगने हैं या नहीं लगने हैं, यह काम परमपिता परमात्मा का है )...

जब माली को बीजों का कुछ पता नहीं चल रहा था तो वह कहने लगा कि मेरे पास तुलसी के बहुत से पौधे हैं...लेकर आता हूं ..मैंने कहा नहीं, अगर अखबार वाले इतनी सुंदर पहल कर रहे हैं तो उन की बात भी तो हमें माननी चाहिए...

मुझे ध्यान आ रहा था कि क्या इस तरह से तुलसी के चंद बीज गमले में रोप देने से ही बस पर्यावरण ठीक हो जायेगा!

लेिकन कोई भी शुभ काम करने के लिए शुरुआत तो होनी ही चाहिए....मैं यही सोच रहा था कि इसी बहाने जनजन में पर्यावरण के लिए थोड़ा बहुत उत्सुकता, जागरूकता बढ़ेगी...कम से कम कुछ तो कोमल संवेदनाएं पैदा होंगी अपने आस पास के वातावरण के प्रति...मुझे लगता है कि अगर यह भी हो जाए तो काफ़ी है, शायद हमारी सुप्त संवेदनाओं को जगाना भी इस तरह के छोटे छोटे प्रयासों का मकसद होता होगा!

कोई भी प्रयास कम नहीं है..छोटे से छोटे प्रयास भी बहुत सुंदर हैं.....बस, अब हम लोग बिना वजह की नौटंकी करनी बंद दें, फोटू खिंचवाने के लिए...उन्हें आस पास शेयर करने से गुरेज करें, अपनी मन की सुना करें, छोटी छोटी बातों के प्रति संवेदनशील होते जाइए....

मैंने भी पिछले दिनों कुछ निर्णय किये हैं....अभी शेयर कर रहा हूं कि कभी भी प्लास्टिक आदि के दोने में मिले प्रसाद को नहीं खाया करूंगा..इस के बारे में अकसर लोगों को जागरुकता तो करता ही रहता हूं...और बाज़ार जाते वक्त हमेशा कपड़े का थैला ले कर चला करूंगा...पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर अपने आप से मैंने ये वायदे किए हैं..


थोड़ी मिलावट की बात भी कर ली जाए... आज ही घर में आई ब्रेड से पता चला कि अब वे घोषणा करने लगे हैं कि हानिकारक तत्व नहीं हैं उनमें.....लेकिन मैं तो ब्रेड वैसे ही नहीं खाता..

तुलसी की बातें हो रही हैं...मुझे यह गीत बार बार ध्यान में आ रहा है ...लीजिए आप भी सुनिए..

आज मुझे बशीर बद्र जी के ये अशआर याद आए...


शुक्रवार, 3 जून 2016

बोतल बंद पानी नहीं दिखेगा...An eco-friendly move!

10-15 वर्ष पहले मैं कोंकण रेलवे पर सफर कर रहा था..विभिन्न स्टेशनों पर पानी के टोटियों के साथ एक नोटिस लगा हुआ था...आप को यहां बोतल बंद पानी खरीदने की ज़रूरत नहीं है, यहां पर नल में जो पानी सप्लाई हो रहा है, इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार जांचा परखा गया है। आप इस की शुद्धता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगा था उस दिन वह नोटिस पढ़ कर।

आप से एक प्रश्न पूछना है...आप किसी मीटिंग में जाते हैं..आप देखते हैं स्टेज पर जितने लोग हैं, हर माननीय के सामने एक बोतल रखी है ...कुछ लोग बोतल खोलते हैं..पानी की एक चुस्की लेते हैं..बस...बाकी बोतल वही...बस, कचड़ा हो गया जमा...और नीचे पंडाल में बैठे लोगों के िलए कोई छबील तो क्या, मई जून के महीने में गर्म पानी के पानी की टोटियां भी नहीं दिखतीं कईं बार...पीना है तो खरीद कर पियो....नहीं तो प्यास को दबाए रखो...आक्रोश की तरह!


हां, तो प्रश्न यह है कि अगर इस तरह के पंडाल या सभागृह में बैठे हों तो आप को कैसा महसूस होता है, चलिए, जवाब किसी को बताने की भी ज़रूरत नहीं...अपने मन में ही रखिए...आप की चुप्पी से मैं आप का जवाब समझ गया।

मैं भी जब कुछ मीटिंगों, वर्कशापों, सैमीनारों में इस तरह की व्यवस्था देखा करता था कि स्टेज पर सब के सामने एक एक बोतल पानी की ...मुझे तो बहुत अजीब या भद्दा दिखता था यह सब कुछ....क्यों भाई..कईं तरह के विचार भी मन में आते थे जिन्हें मैं भी आप की तरह मन में दबा के रखना चाहता हूं..

लेकिन आज सुबह सुबह मुझे वाट्सएप पर एक सरकारी सर्कुलर देख कर बहुत अच्छा लगा..पेयजल मंत्रालय की तरफ़ से था .. सभी सरकारी विभागों को एक रिक्वेस्ट की गई है कि सभी मीटिंगों, वर्कशापों एवं सैमीनारों में बोतलबंद पानी नहीं दिया जायेगा....बहुत बहुत बधाई ..इतना बोल्ड स्टेप लेने के लिए..

दरअसल वाट्सएप ने हमें शक्की भी बहुत बना दिया है ...हम अपने स्कूल के दोस्तों के चुटकुलों एवं उन की बातों के अलावा किसी पर भरोसा ही नहीं करते ... मैं भी किसी सरकारी सूचना को बिना वैरीफाई किए किसी के साथ आगे शेयर नहीं करता...क्योंकि फिर यह हमारी सिरदर्दी बन जाती है ..कुछ महीने पहले एक बार किसी ने  मार्फ्ड दस्तावेज (morphed) अपलोड कर दिया था...बिना वजह का झंझट...

मैंने गूगल सर्च से वेरीफाई कर के ही यह पोस्ट लिखनी शुरू की...मुझे बहुत अच्छा लग रहा है...

कुछ सुझाव भी हैं... like a bottled message in a sea! लिख रहा हूं...
  • अब यह न हो कि बोतलों की जगह वे प्लास्टिक के सीलबंद गिलास मिलने शुरू हो जाएं इन मीटिंगों में...वे भी उतने ही भद्दे लगते हैं और पर्यावरण के लिए बेहद खराब तो है ही यह सब कचड़ा...
  • सभागार में बैठे श्रोताओं के लिए भी किसी कोने में जो पानी का डिस्पेन्सर रखा है, उस के पास भी प्लास्टिक के डिस्पोज़ेबल गिलास नहीं रखे जाने चाहिए....क्यों भई, कांच के दो चार गिलास रख दीजिए..जिसे प्यास होगी, थोड़ा धो के पी लेगा..तो कौन सा शान कम हो जायेगी!
  • डेलीगेट्स के लिए छोटी छोटी मिनी बोतलबंद पानी की बोतलों का भी चलन बहुत खराब है ...ऐसी ही सैंकड़ों भरी हुई और खाली बोतलों का अंबार मेरे आधे सिर के दर्द के ट्रिगर करने के लिए काफी होता है, चलिए, मेरे पुराने सिर दर्द से किसी को क्या लेना-देना, लेकिन एन्वार्यनमैंट से तो है...यह सिलसिला भी खत्म होना ही चाहिए..
  • यह जो सर्कुलर है यह एक निवेदन जैसा है...मुझे ऐसा लगता है कि अब सभी मंत्रालयों एवं विभागों को इस तरह के सर्कुलर निकालने होंगे...और आदेश वाली भाषा में ...निवेदन-वेदन क्या, सरकारी नौकर हैं सभी ..ऊपर से नीचे तक...जैसा आदेश होगा, उस की पालना करनी ही होगी..
  • कहीं पर भी सरकारी दफ्तरों में डिस्पोजेबल गिलास भी न खरीदे जाएं...न पानी के लिए न चाय के लिए...बिना वजह हम लोग कचड़े के अंबार लगाते रहते हैं...थर्मोकोल भी तो खराब ही है ..कांच और चीनी के बर्तनों में चाय-वाय पिलाई जाए...जिसे पीनी हो पिए, वरना कोई बात नहीं घर जा के पी लेंगे..
  • और क्या लिखना है, जितना लिखें कम है..टॉपिक ही ऐसा है, हम सब कि ज़िंदगी से जुड़ा हुआ..जितनी जल्दी हम लोग अपनी आदतें सुधार लें, बेहतर होगा हमारे लिए भी और अगली पीढ़ी के लिए भी ...वरना वे भी हंसेंगे हमारे बाद कि ये बुड्ढे लोग भी कचड़े के ढेर पर बिठा कर चले गये..
  • एक सुझाव और भी है ...ये जो राजधानियां और शताब्दीयां चलती हैं..इन में भी रोज़ाना लाखों पानी की बोतलें बांटी जाती हैं...यह सब भी बंद होना चाहिए...हम कोई फिरंगी साहब लोग नहीं हैं...देश की आम जनता है सब लोग..बिना वजह के शोशेबाज़ी, फिज़ूल के नखरे (इस महान प्रजातंत्र में एक चाय बेचने वाला अगर प्रधानमंत्री बन सकता है..इस से बड़ा और मजबूत प्रजातंत्र का और क्या प्रमाण चाहिए), जिसे ज़रूरत होगी पानी खुद खरीद लेगा ...आज से तीस चालीस साल पहले ट्रेन के पहले दर्जे के डिब्बों में एक किनारे पर एक स्टील की टंकी सी पड़ी होती थी पीने वाले पानी की...वरना लोग अपनी अपनी बोतलें, मश्कें और सुराहियां साथ ही ले कर चला करते थे......एक सुझाव है..एक आईडिया देने में, जनमत तैयार करने में अपना क्या जाता है! वैसे भी मन की बात कहने को आज कल अच्छा समझा जाता है। 
जब मैं इस बोतलबंद पानी की बोतलों को मीटिंग से दूर भगाने वाली खबर गूगल कर रहा था तो कुछ और खबरें भी मिल गईं...पढ़ रहा था कि मिक्स रिस्पांस है, वह तो होगा ही ....Change is always traumatic.... लेकिन फिर जो काम करना हो तो करना ही होता है...No ifs and buts! Just orders, that's all! हम लोग ऐसे ही सुधरेंगे...फिरंगियों ने हमें इसी तरह से ही सुधरने की आदतें डाल दी हैं, क्या करें, हमारी भी मजबूरी है!

पानी ही बोतलें ही नहीं, हर जगह ध्यान रखें कि हम किस तरह से नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल कचड़े को कम कर सकते हैं...प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर सकते हैं...थर्मोकोल हटा सकते हैं...To add fuel to fire...हम लोग इन चीज़ों के अंबार लगा देते हैं..फिर उन्हें जला देते हैं...ताकि फेफड़ों तक इन के तत्व आसानी से पहुंच जाएं...जिस सत्संग में जाते हैं, वहां हलवे जैसा प्रसाद भी प्लास्टिक लाईनिंग वाले दोने में मिलता है, क्या करें, कह कह के थक गये हैं...कुछ कहते ही नहीं,अब चुप ही रहते हैं...अगर पत्तल के दोने नहीं भी मिलते तो हाथ में प्रसाद देने में क्या दिक्कत है, मेरी समझ में यह नहीं आता... लंगर के दौरान चाय भी प्लास्टिक या थर्मोकोल के गिलासों में ही होती है ...और तो और लखनऊ में बड़े मंगलवारों(यहां ज्येष्ठ माह में आने वाले मंगलवारों को बड़े मंगलवार कहते हैं..फिर कभी इन के बारे में बात करेंगे)  के दिनों लाखों टन कचड़ा प्लास्टिक और थर्मोकोल इक्ट्ठा हो जाता है.....बहुत बड़ा मुद्दा है शहर में यह कि इसे कौन उठायेगा.......इन्हें चिंता होती है उठवाने की, मुझे चिंता होती है इस कचड़े के हश्र की .....उठवा के कहीं भी जला देंगे..

इसलिए मुझे इस तरह के भंडारे बहुत अच्छे लगते हैं जिस में पत्ते के दोनों में प्रसाद दिया जाता है ...इन का क्या है, यहां से उठाए जाने के बाद दो दिन में मिट्टी में िमट्टी हो जाएंगे....

आज यहां लखनऊ में इतनी उमस है, इतनी चिलकन और गर्मी है कि क्या बताऊं...ऊपर से मैं पोस्टमार्टम के लिए विषय ऐसा शुष्क सा लेकर बैठ गया...जो भी हो, पेय जल मंत्रालय के इस सर्कुलर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है...मुझे सरकार के इस तरह के कदम बहुत भाते हैं....अब कहने वाले कह रहे हैं कि इस से क्या होगा...क्यों नहीं होगा...There is a chinese proverb...Journey of 3000 miles start with a first step!.... हो जायेगा सब कुछ होगा धीरे धीरे, शुरूआत तो हुई...किसी को यह भी लग रहा होगा कि यह भी कोई PR exercise के तहत हो रहा होगा...just a publicity gimmick... चलिए, अगर किसी को यह भी लग रहा है तो भी क्या बुराई है....कुछ भला ही तो हो रहा है हमारे और हमारे बच्चों के लिए...

कुछ ज्यादा brain-storming करने की ज़रूरत नहीं, चुपचाप इस तरह के छोटे छोटे काम पर्यावरण के लिए आप भी करते रहिए...एक एक बूंद से भी घड़ा भर जाता है....

अब इतनी ड्राई पोस्ट के बाद अगर मैं कोई डिप्रेसिंग सा गीत चला दूंगा तो बहुत अन्याय होगा...कुछ ऐसा याद करते हैं जिस में थोड़ी ठंडक हो, कुछ मस्ती हो...आप चंद लम्हों के लिए घमौरियों को भूल जाएं.....ठंडी हवाओं ने गोरी का घूंघट उठा दिया...यह गीत कैसा रहेगा! Again, one of my favorites since childhood!






गुरुवार, 2 जून 2016

गंगाजल की खबर तो यूं ही एक बहाना है..

जी हां, इसी बहाने पिछले दो तीन दिनों से मेरे फिल्मी दिमाग में कुछ गीत बार बार आ रहे हैं...इन में से दो तीन के तो वीडियो भी आज पहली बार देखे...रेडियो पर तो खूब सुना...सोच रहा हूं आप से भी शेयर कर लूं तो मुझे चैन पड़े।


कुछ दिनों से गंगा जी की और गंगाजल की बहुत बातें देखने-सुनने को मिल रही हैं...शायद रविवार के दिन गंगा मामलों की मंत्री उमा भारती की इंटरव्यू आ रही थी... पांच दस मिनट देखने का मौका मिला...मैं उन की धाराप्रवाह हिंदी बोलने की शैली से प्रभावित हुआ..बस!


आगे चलते हैं...डाकिये का नाम लेते ही ध्यान में क्या आता है?....मुझे तो बस वही याद आता है ..डाकिया डाक लाया ..खुशी का पैगाम कहीं दर्दनाक लाया....अपनी मेमोरी में ये गीत फिट हो चुके हैं...

लेकिन कल पता चला है कि अब डाकिये के जरिये लोगों तक गंगा जल भी सप्लाई किया जाएगा....क्या कहें ...तुरंत काजल कुमार जी का एक कार्टून दिख गया...यहां शेयर कर रहा हूं...

मुझे याद है जब डाकखानों में टैलीफोन बिल, बिजली बिल...रेलवे की टिकटें...और भी पता नहीं क्या क्या, ये सब सुविधाएं शुरू होती गईं तो कुछ लोगों को डाक कर्मीयों के साथ एक सहानुभूति सी होने लगी....लेिकन यह डाकियों द्वारा गंगाजल सप्लई किए जाने की बात पर तो वह विज्ञापन याद आ गया....बच्चे की जान लोगे क्या!

अभी अभी आज का अखबार उठाया तो एक खबर देख कर बड़ी हैरानी हुई....जैसे कि कल हुई थी...कल एक खबर दिखी कि यहां लखनऊ में िमलावटी मैदा बरामद किया गया है ...यार, मैदा भी कोई मिलावट करने वाली चीज़ है....और आज पता चला कि सादे जल को गंगा जल कह कर बेचने का गोरखधंधा भी चल रहा है...
(इसे पढ़ने के लिए इस इमेज पर क्लिक करिए)
फूड सेफ्टी वाले भी इन छोटी छोटी मछलियों को पकड़ कर आंकड़ों का पेट भरने में लगे हैं...किसी व्हेल मछली को पकड़ें तो जानें..


बहरहाल, गंगा जल की बात आते ही ..कुछ यादें आ जाती हैं...जितनी बार भी गये ...हरिद्वार के बाज़ार से चार-पांच लिटर की प्लास्टिक की एक बोतल गंगा जल से भर कर लाना नहीं भूले...हर साइज की खाली बोतलें वहां मिलती हैं...बस, आप को गंगा जल भर के ठसाठस भऱी बस-ट्रेन में उसे कहीं रखने भर का जुगाड़ करना होता है...लेकिन एक बात है अब लगता है वहां पर बसे हम लोगों के पुश्तैनी पुरोहितों के दिन भी लदने वाले हैं.....क्यों?..सदियों से बिछड़े रिश्तेनातेदार अब आनलाइन अपने फैमली-ट्री तैयार कर रहे हैं, अपडेट कर रहे हैं...भूलचूक सुधार रहे हैं!! ऐसे में फिर कौन पुरोहितों के बही खातों को देखने के चक्कर में पसीना बहायेगा!

बचपन में सुना करते थे .फलां फलां घर में गंगाजल है...किसी के दिन जब पूरे होने लगते...उसे बिस्तर से नीचे उतार दिया जाता...दिया जला दिया जाता तो उस की मुक्ति के लिए गंगाजल की दो बूंदें भी डालनी ज़रूरी होती थीं...लोगों की दृढ़ आस्थाएं हैं.... No comments!...इत्मीनान से अरूणा ईरानी की ख्वाहिश सुनिए...


हां, मैं रेडियो बहुत सुनता हूं...जब भी मौका मिलता है ...मोबाइल पर नहीं...अच्छे खासे रेडियो पर...वे भी आज कल फिल्मी गीत बजाते समय कुछ थीम चुन लेते हैं....आधे घंटे के लिए.... गंगा जी और गंगा जल के नाम से जो गीत मेरे ज़हन में भी आ रहे हैं बस मैं उन्हें यहां एम्बेड कर के आप से क्षमा चाहूंगा...

शेष बातें फिर कभी करेंगे... फिर मिलते हैं..
शेष सब कुशल मंगल है...
आप का अपना ...
प्रवीण...
लेकिन इस गीत में गंगाजल की नहीं, पानी की ही बात है बस...पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिस में मिला दो लगे उस जैसा....कितनी धूम मचाए रखी इस गीत ने!!


मेरे आज सुबह के मूड के साथ मिलता जुलता एक विचार अभी ध्यान में आ रहा है ...वैसे अभी तो ध्यान गंगाजल फिल्म का भी आ रहा है...लेिकन आप लोग पक जाएंगे...


मंगलवार, 31 मई 2016

फिर से सीवर निगल गया एक युवा ...

(ठीक से पढ़ने के लिए आप इस इमेज पर क्लिक कर सकते हैं, वैसे उस से भी होगा क्या!)
आज सुबह अखबार में यह खबर पढ़ कर बहुत कष्ट हुआ...लखनऊ में एक जगह सीवर की कोई शिकायत थी...सफाई कर्मी की तबीयत ठीक ना थी, २० साल का बेटा चला गया..सीवर में नीचे उतरा...वहां से चीखा कि मेरा दम घुट रहा है...रस्सी के द्वारा उसे बाहर खींचने की कोशिश हुई..अभागे के हाथ से रस्सी छूट गई..खत्म हो गया उसी समय जहरीली गैस की वजह से...बेहद दुःखद, अफसोसजनक ...।

खबर सुन कर बाप भी भागा...नीचे उतरा...उसे भी गैस चढ़ गई..बेहोश हो गया..बाहर निकाल लिया गया जैसे तैसे..बचा लिया गया उसे..

कितनी दुःखद बात है कि एक २० साल का हंसता-खेलता युवक लापरवाही की वजह से मारा गया...किस की लापरवाही?..उस युवक की तो नहीं कहेंगे...अगर उसने बेल्ट पहनी होती तो वह बच जाता, उसे बाहर खींच लिया जाता..

मैं सुबह सोच रहा था कि इन कामों में भी बहुत कुछ गोलमाल होता ही है ..मुझे नहीं पता मैंने कब किसी सीवर साफ़ करने वाले को सेफ्टी-बेल्ट पहने देखा था ..ताकि एमरजेंसी में उसे बाहर खींचा जा सके। सेफ्टी गेयर और उपकरण होते नहीं हैं, हर जगह भ्रष्टाचार के तार जुड़े हुए हैं...जुगाड़बाजी करने वालों का बोलबाला है...लोगों ने सुपरवाईज़र को वहीं पर धर-दबोचा लेकिन उस से वह २० साल का युवक तो वापिस नहीं आयेगा..

क्या यह लखनऊ में ही हुआ...नहीं, देश के हर शहर में हर कस्बे में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं...आए दिन..अखबार की सुर्खियां इस तरह की मौतों की सूचना देती रहती हैं...

लेकिन क्या है ना, हम कहां इस तरह की खबरों की परवाह करते हैं...पढ़ कर बुरा लगता है....बस चंद लम्हों के लिए..अगले पन्ने पर रणबीर और दीपिका का किस्सा देखते ही हम फिर उस में खो जाते हैं..

मुझे ऐसा लगता है कि इन सफाई कर्मियों के भी अच्छे दिन कुछ इस तरह के आएं कि इन्हें सीवर में नीचे उतरना ही ना पड़े ..और अगर कभी किसी हालत में ऐसा करना भी पड़े तो बिना बेल्ट और सभी तरह के सेफ्टी उपकरण के इन्हें नीचे उतरने ही न दिया जाए...

मुझे सुबह खबर पढ़ कर एक बेवकूफ-सा ख्याल यह भी आ रहा था कि अगर कोई सफाई कर्मी सेफ्टी उपकरण नहीं पहनना चाहे तो उसे नीचे जाने से पहले सुपरवाईजर को लिख कर देना चाहिए कि वह यह सब अपनी मर्जी से कर रहा है ....लेकिन तभी ध्यान आया कि ऐसा कैसे हो सकता है, इतनी बेरोजगारी है, घोर शोषण है, सस्ते में मिलने वाली लेबर यह भी लिखने के लिए सहमत हो जायेंगे....लेकिन यह ठीक नहीं है..

मैला ढोने देश में बंद हो गया है विज्ञापन बताते हैं, अब सीवर में भी सफाई कर्मी उतरने बंद हो जाने चाहिए...सब कुछ मैकेनिकल उपकरणों से हो जाना चाहिए...

इस तरह के आंकड़ें अगर इक्ट्ठा किए जाएं तो चौंका देंगे कि कितने सफाई कर्मियों की जानें इन सीवरों ने लील लीं...

कहने को बस इतना ही है कि इस तरह के केसों से पक्की नसीहत लेने की बहुत ज़रूरत है ...वरना ये लोग ऐसे ही मरते रहेंगे...मेरे जैसे पढ़े लिखे तथाकथित बुद्धिजीवी लोग चंद लम्हों के अफसोस से बाद अगले ही पल अभिषेक-ऐश्वर्या की पर्सनल लाइफ में झांकने को आतुर अखबार के अगले पन्ने पर पहुंच कर पिछली बात भूल जाते हैं...

आज मैं बहुत दुःखी हूं इस युवक के बेमौत मारे जाने से...ईश्वर इस की आत्मा को शांित प्रदान करे और मां-बाप को पहाड़ जैसा दुःख सहने की शक्ति प्रदान करे...आप भी इस प्रार्थना में शामिल हो जाइए...


अभी मैं सुरों की इस अद्भुत देवी लता मंगेशकर जी को सुन रहा था तो ध्यान आया कि कुछ सिरफिरे लोग किसी को भी नहीं बख्शते...एक महामूर्ख प्राणी ने कल इस देवी का मज़ाक उड़ा दिया एक यू-ट्यूब वीडियो में.....है कि नहीं पिटाई खाने वाली बात! सब को सद््बुद्धि दे प्रभु!

मैला ढोने से जुड़ी कुछ धुंधली यादें मेरी भी हैं बचपन की ... इस लेख में संजो कर रखी हैं....लिंक यह रहा ..मैला ढोने की सुथरी यादें.

रविवार, 29 मई 2016

मस्ती की पाठशाला ..

सुबह एक पोस्ट डाली थी...बचपन के दिन भुला न देना...उसे लिखते ही लग रहा था कि कुछ तो छूट रहा है..इतना बड़ा टॉपिक एक पोस्ट में समेटना किसी के बस में नहीं।

एक मित्र का वाट्सएप मैसेज आया कि मैंने कंचे का खेल तो छोड़ ही दिया..उसी समय पिछली पोस्ट पर एक कमैंट भी आया कि कंचे कैसे छूट गये...

कंचों का तो मैं चैंपियन था ही 

जी हां, मैं कंचों का चैंपियन था उस दौर का ..और हम लोग एक डिब्बे में कंचे इक्ट्ठे कर के रखते थे...और शाम को आखिरी गेम के बाद उन्हें धोने के बाद चमका लेना....हा हा हा हा हा हा ....

फिर अगले दिन पहले खराब कंचों को जेब में भर के निकलना...

अभी दिमाग पर ज़ोर दे रहा था बैठा बैठा तो याद आया कि कंचों की कईं गेमें हुआ करती थीं...एक थी ताना, जिस में हम लोग दूर से निशाना लगाया करते थे...और एक थी नक्की पूर...इस में हम लोग मुट्ठी में कंचे बंद कर लेते थे ..और दूसरे को कुछ बताना होता था...पता नहीं यार, अब डिटेल नहीं पता...इस गेम में बचपन का एक साथी दया नाम से था ...अगर वह शाम को हार जाता तो कमबख्त सुबह सुबह ही बाहर बुलवा लेता...जेबें हम लोग ऐसे ठूंस के भरे रहते कंचों से ..

बड़ा मज़ा आता था कंचे खेलने में ....बस मेरे पिता जी को पसंद नहीं था कि मैं कंचों में खेल कर अपने कपड़े गंदे कर लूं..इसलिए उन के आने से दस मिनट पहले सब कुछ समेट लिया जाता ..और हाथ पांव धो कर अच्छा बच्चा बन जाता।

सूआ खेलना..

हां, एक गेम जो मुझे सुबह भी याद थी...वह अब आपसे शेयर करनी है ..इसे हम लोग पंजाबी में सूआ खेलना कहते थे... इस के लिए हमें एक मैदान में जाना होता था..और इसे खेलने के लिए हम लोग बरसात का इंतज़ार किया करते थे..बरसात के मौसम में ज़मीन नरम हो जाती है यह खेल तभी खेला जा सकता है..

इस लिए हम लोगों के पास एक लोहे की पतली छड़ी नुकीली सी ..होती थी ..लगभग एक या डेढ़ फुट लंबी..जिसे हम लोग अगर गीली ज़मीन में ज़ोर से मारें तो वह अंदर धंस जाए...

हां, गेम इस तरह से होती थी कि हम मैदान के एक कोने में एक गोलाकार बना लेते ...उस के अंदर खड़े होकर एक खिलाड़ी दूर सूआ फैंकता ...अगर वह धंस जाता तो गेम शुरू हो जाती..फिर जहां वह सूआ धंसता, वहां से उसे उखाड़ के आगे उसे फैंका जाता...यह सिलसिला तब तक चलता रहता जब तक सूआ धंसने की बजाए गिर जाता....

हां, फिर उस जगह से दूसरी टीम के बंदे को हमें अपनी पीठ पर चढ़ा कर उस गोलाकार तक लाना होता...बीच में अगर उस का दम फूल जाता तो उस के टीम के किसी दूसरे मैंबर की पीठ पर हम लोग सवार हो जाते ...it used to be great fun...हम लोग उस समय हंसी से लोटपोट हो रहे होते....आखिर हमें गोलाकार तक पहुंचाने पर ही उन की जान छूटती ..

फिर उन का नंबर ...
यह था सूए का खेल...


हां, मेरे से एक भूल हो गई सुबह...अपने स्कूल के साथी डा रमेश ने सुबह जो तस्वीरें भेजी थीं ..वे सब मैंने अपनी पोस्ट में लगा दी थीं, लेकिन एक कैरम-बोर्ड की छूट गई थी...उसे भी यहां लगा कर छुट्टी करूं...वैसे लिडो ने भी ..सांप सीडी ने भी अपना बड़ा साथ दिया...

हो गई यार खेलों की बहुत सी बातें...अब पढ़ाई लिखाई की बात कर लें, हमें छुट्टियों का काम भी कुछ इस तरह का मिलता था...रोज़ हिंदी, पंजाबी और इंगलिश का एक सुलेख पन्ना लिखना है... जितनी छुट्टियां उतने पन्ने ...और कलम से लिखना होता था ...हां, एक बात याद आ गई...जितने भी स्कूल के साथी फोन पर बात करते हैं, सब मेरी लिखावट को बड़ा याद करते हैं....एक ने पूछा कि क्या अब भी वैसा ही लिखते हो, एक साथी जो वाईस-प्रिंसीपल हैं अभी वह बता रहे थे कि वह स्कूल के बच्चों को मेरी लिखावट के बारे में बताते हैं अकसर.....I felt flattered...हां, दोस्तो, अभी भी कुछ शेयरो-शायरी को नोटबुक पर लिखने के बहाने कभी कभी सुलेख लिख लेता हूं...अभी कोई सेंपल लगाऊंगा...

घर में ही हमारी विजिलेंस टीम भी होती थी जो यह निगरानी रखती थी कि छुट्टियों का काम रोज किया जाए...एक ही दिन में पूरा न किया जाए..एक बार पांचवी कक्षा में गणित की कुंजी का जुगाड़ हो गया... मैंने एक ही दिन में सारा काम खत्म कर लिया...बड़ी बहन को पता चला..वह मेरे से दस साल बड़ी हैं...अभी यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हैं. उन्होंने कहा कि लाओ ..कापियां लाओ..सारे होमवर्क की कापियां फाड़ने को कहा ..और चुपचाप रोज़ अपना दिमाग लगा कर थोड़ा थोड़ा काम करने को कहा .... मैंने चुपचाप कापियां फाड़ दीं...नईं कापियां ला कर रोज़ाना समझ लगा कर होमवर्क करना शुरू कर दिया....बहन मेरी पढ़ाई का बड़ा ध्यान किया करतीं..

फिर हम लोग रिश्तेदारों के यहां चले जाते ...कभी रिश्तेदार आ जाते ...बस ऐसे ही छुट्टियां बढ़िया बीत जातीं..

पिछले रविवार मैं एक अखबार में लेख पढ़ रहा था कि आज कर बच्चों की छुट्टियों का फार्मेट ही बदल गया है .. छुट्टियों के दिनों में भी सुबह से शाम तक उन का प्रोग्राम फिक्स है ...इतने बजे यह एक्टिविटी, इतने बजे स्वीमिंग, इतने बड़े फलां कैंप, इतने बजे ढिमका.....सब कुछ परफैक्टली पहले से तय होता है ....उस लेख में बताया गया था कि ऐसा ठीक नहीं है...ठीक है बच्चे कुछ एक्टिविटी करें, लेकिन ऐसा भी नहीं कि सब कुछ इतना वाटर-टाइट शैड्यूल में बंधा हुआ हो .. उस लेखक ने बड़ा सुंदर लिखा था कि बच्चों को छुट्टियां हैं तो उन्हें देर से उठने का हक है, उन्हें टीवी भी, कार्टून भी देखने चाहिए, उन्हें बाहर दूसरे बच्चों के साथ खेलना भी चाहिए...और नानी-दादी के पास भी जाना चाहिए कुछ दिन बिताने के लिए ताकि वे उम्र भर के लिए यादें संजो लें.....मैं भी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं...

हां, मैंने लिखावट का सैंपल दिखाने की बात कही थी...पेशेखिदमत है ..


अब एक ऐसे ही मस्ती वाले गीत की बारी है .. रेखा जी भी कुछ मशविरा दे रही हैं... आप भी सुनिए...😊😊😊😊😊😊😊😊😊 😊😊😊





चूहों का शिकार तो आपने भी कभी किया ही होगा!

एक बड़ी जबरदस्त हिंदी फिल्म आई थी.. प्यार तो होना ही था...बहुत बार देखी...क्लाईमेक्स में हीरो ने फ्लाईट को रूकवाना होता है..काजोल के पास जाने के लिए...टेक-ऑफ होने ही वाला था..एयरपोर्ट आफीसर नहीं मानता..देवगन ईमोशनल पत्ता फैंकता है ...सर, प्यार तो आपने भी कभी न कभी किसी से किया ही होगा!....बस, फिर क्या था, निशाना लग गया टिकाने पर...फ्लाईट को रोक दिया गया...

मेरी इस पोस्ट का शीर्षक भी इसे संवाद से प्रेरित है कहीं न कहीं...विषय थोड़ा पकाने वाला ही है, ऐसा करते हैं...पहले इसी फिल्म से मेरा पसंदीदा गीत सुन लेते हैं....अजनबी मुझ को इतना बता, दिल मेरा क्यों परेशान है!


अब बात शुरू करते हैं...चूहों की...परसों मैं अपनी कॉलोनी के बाहर निकला तो देखा एक बंदा एक पिंजड़े में बंद कुछ जानवरों की कुछ खिला रहा है...



एक तो मेरी यह उत्सुकता हर जगह मुझे रूकवा देती है ...हां जी, क्या कर रहे हैं?... चूहों को अंडा रोल खिला रहे हैं...चूहे और सफेद रंग के... पता नहीं यह भी कोई हाईब्रिड ब्रीड है या क्या है, लेिकन ये चूहे हैं बहुत सुंदर ..उस पिंजडे में उन के खाने-पीने की अलग व्यवस्था कर रखी थी...एक दो कटोरे फिक्स करवा रखे थे...

और जितने चाव से जितने उत्साह से वह बंदा इन की सेवा-सुश्रुषा में लगा हुआ था वह भी देखते बन रहा था...साथ साथ मेरे को बताने लगा कि इस एक चूहे को अगर आप कमरे में छोड़ दें तो दूसरे चूहे कभी उस कमरे में नहीं आते...
अच्छा, तो यह बात है!




मैं यही सोच रहा था कि ये नेक किस्म के चूहे अगरे चालीस पचास साल पहले आ जाते तो हम लोगों की बचपन की सिरदर्दी भी थोडी कम हो जाती..

हम लोगों के घर में एक चूहों के पकड़ने के लिए लोहे की तारों का बना पिंजड़ा था...कभी कभी उस में रोटी टांगने की ड्यूटी मेरी लगती थी...यही दूसरी तीसरी कक्षा की बातें हैं...उस ज़माने में मुझे घर में सब से ज़्यादा जटिल मशीन ही वह लगती थी....मैं देख कर हैरान हो जाया करता कि किस तरह के हमें उस में एक चूहा कैद हुआ मिलता...फिर मैं देखता कि कैसे वह अंदर फंसा होगा...उस के लिए बुरा भी लगता ..फिर यही तसल्ली होती कि अभी चंद मिनटों की बात है, इसे बाहर तो छोड़ ही आना है..

हम लोग उसे घर के बाहर छोड़ आते....फिर वह किस पड़ोसी के घर घुस जाता ...इस से हमें कोई लेना देना नहीं होता..मुझे लगता है कि कमबख्त यह भी एक खेल ही था...आज उस के घर से, परसों उस के घर से, फिर से वापिस हमारे घर से... बस, ऐसे ही सिलसिला चल रहा था...शायद १९७०-७२ के आस पास तक...

फिर धीरे धीरे पता चलने लगा कि अब सभी लोग एतराज करने लगे थे कि चूहे अगर पकड़ें हैं तो उन्हें घर के बाहर ही क्यों छोड़ देते हैं...हमारे घर में घुस जाते हैं...इसलिए लोगों ने घर से सौ पचास मीटर दूर ऩाली या किसी नाले के पास जाकर कैद चूहों को विदा करना शुरू कर दिया...

एक याद मुझे बहुत अच्छे से है ...हमारी कॉलोनी में ही कुछ घर छोड़ के ...श्याम लाल जी रहते थे...पता नहीं यार उन के घर में कितने चूहे थे ..या क्या चक्कर था, क्या नहीं, जब भी मैं घर के बाहर होता उन का बड़ा बेटा हमेशा मुझे साईकिल के कैरियर पर चूहेदानी टिकाए हुए ही दिखता ...यह उस का पढाई से बचने का बहाना था, या सिर्फ टाइम-पास... अकसर उसे देख कर हंसी आ जाती थी मुझे ...हम लोग भी इस काम के लिए जाते थे..लेकिन इतने ताम-झाम के साथ नहीं, चुपचाप गये ...उस लोहे वाले पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया ...और उसे आज़ाद कर दिया...हां, एक बात और ध्यान में आ रही है, गली मोहल्लों में इस काम के लिए सुबह तड़के के समय को सब से अच्छा माना जाता था..न कोई देखेगा..अगर चूहे मस्ती मस्ती में विद्या की मां, कश्मीरन, कपूरनी, सोडन ...किसी के भी घर घुस गया तो कोई पंगा नही...वरना थोड़ी बहुत चिक चिक तो...चाहे मामूली ही सही ... होने के चांस तो थे ही!

लोग स्मार्ट होने लगे १९७० के दशक में ...हमारे सामने रहने वाला अशोक एक पिंजड़ा ले आया जिस में चूहे की हत्या ही हो जाती थी...मुझे वह बहुत बुरा लगा ...हम ने यह सब काम कभी नहीं किया....मारने वारने का क्या काम, बंद किया ..छोड़ दिया...हो गई बात ....कुदरत के कानून को अपने हाथ में लेने से क्या हासिल!

तब तक लकड़ी के चूहेदान आ चुके थे....हैंडल के साथ...वह भी हम लोगों के यहां था... और हां, ये चूहेदान एक दूसरे के यहां से मांग कर भी काम चला लिया जाता था...बेवजह की इतनी अकड़  भी तो नहीं थी ना तब!

लेकिन फिर कुछ ऐसा पंगा हो गया कि चूहेमार दवाई बाज़ार में मिलने लगी ...  हम लोगों को यह सब बहुत बुरा लगता था..और आज भी लगता है ...जीव हत्या बहुत गलत है..बाकी सब बातें अपनी जगह ठीक हैं...हम लोगों ने इसे कभी इस्तेमाल नहीं किया...अब जब घर में कभी कोई चूहा दिख जाता है तो काम वाली बाई उस के पीछे भाग भाग के उसे बाहर का रास्ता दिखा देती है...

यह तो थी फ्लैशबेक....

आज मैं सुबह बेटे के साथ बाज़ार में घूमने निकला तो एक मोटर साईकिल पर यह पिंज़ड़ा देखा..इस में दो चूहे थे...क्योंकि मुझे परसों चल गया था कि चूहे सफेद रंग के भी होते हैं...मैंने इस बंदे से पूछा कि कितने में खरीद लाए ?....मैं भी न पंगे लेने से बाज नहीं आता...बताने लगा कि १५० के आये हैं...मैंने पूछा...पिंजड़ा भी साथ में?...नहीं, नहीं, पिंजड़ा अलग लिया है २५० में ... अच्छा मजबूत लिया है, वरना ये तार को काट देते हैं.....बंदा बड़ा खुश था...

बताने लगा कि इन चूहों की वजह से घर में दूसरे चूहे नहीं आते....मैंने पूछा कि इन को खुला तो छोड़ना पड़ता होगा घर में, उसने बताया कि नहीं, पिंजड़ें में ही इन की महक से दूसरे चूहे घर में नहीं फटकते......मैं हैरान था कि यह कैसा चक्कर है! लेकिन उसे इन को पालने का पूरा अनुभव था...जैसा कि उस की इस बात से पता चला कि जोड़ा लिया है, और आने वाले दो महीने में यह पिंज़ड़ा पूरा इन के बच्चों से भर जाएगा....वाह यार ...यह तो बहुत अच्छी बात है!

 पोस्ट को खत्म करने से पहले यहां यह भी दर्ज कर दूं कि मुझे हर तरह के पिंजड़ों से सख्त नफ़रत है..कितनी घुटन होती होगी ....काश, पिंजड़े बनने ही बन हो जाएं...हम लोगों में कुछ ऐसे बदलाव आ जाएं कि हम जीवों को पिंजड़ों में कैद करना ही छोड़ दें....घुटन से याद आया ...अभी हमारे सत्संग वाले ग्रुप पर एक मैसेज आया ..आप से शेयर करने की इच्छा हो गई....

और इस पोस्ट रूपी लिफाफे को बंद करते करते बेटे ने यह मैसेज भेजा है ...अभी पढ़ता हूं...

अचानक मुझे भी यह गीत ध्यान में आ गया ....

बचपन के दिन भुला न देना..

मुझे अभी याद आया कि इस नाम से एक पोस्ट मैंने आठ दस साल पहले भी लिखी थी जब एक दिन मैंने बेटे के हाथ में गुलेल देखी थी..

अभी इस का ध्यान सुबह सुबह इसलिए आ गया कि आज हमारे स्कूल वाले ग्रुप पर डा रमेश ने सुबह खूब सारी फोटो भेजीं यह लिख कर कि जब टीवी और इंटरनेट नहीं थे तो हम लोगों की छुट्टियां कुछ इस तरह से बीता करती थी...मजा आ गया इन तस्वीरों को देख कर ...सब कुछ फ्लैशबैक की तरह मन में घूम गया..इन सभी तस्वीरों को तड़का लगाने की इच्छा हुई और इन्हें  ब्लॉग में सहेजने की भी इच्छा हुई ताकि आज कल के बच्चे-युवा कभी अगर इन्हें ढूंढते हुए भूले-भटके यहां तक पहुंच जाएं तो उन्हें कुछ मिल जाए!

हमारी बालकनी से आज की सुबह ऐसी दिख रही है...
मेरे विचार में पहले तस्वीरें टिका दूं....यह टापिक बहुत लंबा है..क्योंकि लगभग हर गेम के साथ हमारी इतनी यादें तो बावस्ता हैं जिन के लिए कम के कम अलग से एक एक पोस्ट तो चाहिए ही चाहिए... अभी तो मैं इन के साथ केवल इन के नाम लिख कर छुट्टी करूंगा...क्योंकि बाहर मौसम बड़ा खुशगवार हो गया है ..बरसात की वजह से ..ऐसे में यहां लैपटाप के आगे टिकना भी एक गुनाह जैसा ही है ...बेटा भी कह रहा है...चल बापू, कहीं चलते हैं!

अच्छा, मैं फोटो तो यहां लगा रहा हूं..साथ में इन के नाम जो पंजाबी में हम लोगों को याद हैं, वही लिख रहा हूं...अगर आप चाहें तो मुझे कमैंट्स में इन के अन्य भाषाओं के नाम भी िलख भेजिए....मैं उन्हें भी तस्वीरों के साथ लिख दूंगा...
 
यह है जी पिट्ठू सेका...जो इस ढेरी को गिरायेगा. फिर भागेगा ..पीठ की सिकाई से बचने के लिए .. .हा हा हा 

पतंगबाजी...मुझे यह कभी नहीं उड़ानी आई...क्योंकि मेरे में पेशेंस नहीं है
हमेशा इन से ईर्ष्या ही करता रहा कि कैसे करते हैं ये इतना बढ़िया बैलेंस और ऊपर से रेस ...हा हा हा 

वाह भई वाह...लाटू का खेल...हमारे समय में हम लोगों को ये मिट्टी के बने हुए भी मिलते थे..पांच पैसे के पांच ...घऱ आकर फिर पायजामे से नाड़ा निकाल कर यह खेल शुरू हो जाता था...लाटू पर लपेटने के लिए!😊 

लड़कियों का खेल...जो मुझे याद रहा ..कोकलाशी पाकी जुम्मे रात आई जे...जेहडा अग्गे पिच्छे वेखे ओहदी शामत आई जे...

वाह ही वाह...यह स्टापू वाला खेल तो हम भी खेला करते थे..
गीटे ....वाह जी वाह...यह हम भी बहन के साथ और पड़ोस की लड़कियों के साथ खेला करते थे...जब लकड़ी के बने गीटे नहीं होते थे तो इमली के बीजों को तोड़ कर गीटों का जुगाड़ हो जाता था..
गुल्ली डंडा...बड़ा एक्सपर्ट था मैं इस में...हर कोई ही था उस दौर में! 
विकेट तो भाई ऐसी ही होती थी..लेकिन बैट की जगह हाथ में कपड़े धोने वाली थापी या जिसे सोटा कहते थे, वही हुआ करता था...कुछ बच्चों की घर में इसी थापी से पिटाई भी हुआ करती थी, हम लोगों की तो कभी भी एक बार भी पिटाई नहीं हुई...मैं अकसर मां से यह गिला करता हूं! 

खो खो  का खेल...दसवीं कक्षा में मेरी यह गेम थी..हमारा एक साथ गुलशन आज कल अमृतसर के एक स्कूल का वाईस-प्रिंसीपल है, वह इस गेम का बादशाह हुआ करता था, दो दिन पहले याद करवा रहा था... 
कुछ कुछ बच्चे इतने एक्सपर्ट होते थे जमान पर घूमते लाटू को यूं अपनी हथेली पर उठा लिया करते .....और हम..दांतों तले अंगुली दबा लिया करते!!
चल भाग, तू चोर मैं सिपाही ....छू-छिपाई का खेल... कुछ याद आया?
लिड्डो का खेल...अकसर बच्चे ट्रेन में भी यह लेकर चला करते थे..
यह गुल्ली डंडा फिर से दिख गया....इसे तैयार करने का भी एक आर्ट था...क्योंकि नोकीली गुल्ली से ही खेल का मजा आता था..
इस का नाम नहीं याद आ रहा ..

ऐसा तो मुझे कुछ याद नहीं है... 

यह जो कैंची साईकिल वाली फोटो है ना यह मुझे सब से प्यारी लगी...क्योंकि इस तरह के लफड़े हम लोगों ने बहुत किये...घर में पड़ी कोई भी साईकिल लेकर निकल पड़ना ग्राउंड में ...कैंची साईकिल चलाते चलाते गिर भी जाना ..लेकिन हिम्मत नहीं हारनी...बहुत मजा आता था... एक िदन हमारी बड़ी बहन जैसी कंचन को मेरी इस हालत पर तरस आ गया...कहने लगी ...चल काठी ते बैठ, मैं पिच्छों कैरियर फड़दी हां....सच में, उस दिन उस की चंद मिनटों की हल्ला-शेरी से हम सीट पर बैठ कर साईकिल चलाने लगे......I can't forget that thrill...जब पहली बार सीट पर बैठ कर साईकिल चलाया था...शायद हवाई जहाज़ का आविष्कार करने वालों को भी उतना ही मज़ा आया होगा.... फिर तो बस यही तमन्ना था कि कब हमें भी साईकिल पर स्कूल जाने की इजाजत मिल जाए...

अच्छा दोस्तो ऐसा है कि मुझे इस पोस्ट में और भी बहुत कुछ लिखना है, लेकिन सोच रहा हूं कि अगली पोस्ट में वे सब बातें लिख दूंगा...अभी मैं बस उस पोस्ट को लगा रहा हूं जिसे मैंने आठ दस साल पहले लिखा था...जब मैंने अपने बेटे के हाथ में गुलेल देखी थी...आप उसे भी ज़रूर देखिएगा....मैंने अभी गूगल किया ...बचपन के दिन भुला न देना मीडिया डाक्टर ...तो झट से यह लेख दिख गया....आप के लिए इस का लिंक यहां लगा रहा हूं...बचपन के दिन भुला न देना..



शनिवार, 28 मई 2016

हमारी डबलरोटी....चल बैठ जा, बैठ गई..

वैसे तो मेरी पोस्ट के आखिर में ही हिंदी फिल्मी गीत बजते हैं..लेकिन जैसे निर्मल बाबा जी को कभी कभी कुछ बातों का ध्यान आने लगता है अचानक..मुझे भी इस गीत का ध्यान बार बार आये जा रहा है..क्यों आ रहा है, बताऊंगा बाद में..पहले आप सुन लीजिएगा...रेडवे पे खूब बजा करता था हमारे बचपन के जमाने में...

कैसा लगा ...देवानंद हेमा मालिनी को हिप्नोटाइज़ करने के चक्कर में है ...चल बैठ जा, बैठ गई....भूल जा ..भूल गई...मुझे तो पहले भी अच्छा लगता था यह बालीवुड गीत और अब तो और भी लगता है ...


अब क्यों  अच्छा लगता है?...क्योंकि अब मुझे लगता है कि हम लोग इस गाने से अपने आप को आईडैंटीफाई करने लगे हैं...

एक दिन अचानक अखबार के पहले पन्ने पर आता है ...एक नामचीन गैर सरकारी संस्था CSE ने जांच करी कि देश में विभिन्न ब्रेड के सैंपलों में कुछ कैंसर पैदा करने वाले कैमीकल पाये गये हैं...

इस संस्था की विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न उठाया नहीं जा सकता...

उस रिपोर्ट में यह भी प्रश्न उठा कि हमारी डबलरोटी में इस तरह के कैमीकल आखिर इस्तेमाल करने की इजाजत ही क्यों है, कंपनियों वाले permissible limits से कईं गुणा ज़्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, वह अलग बात है, लेकिन अभी तक ये कैमीकल इस देश में बैन ही क्यों नहीं कर दिये गये ...जब कि बहुत से देशों में ऐसा हो चुका है।

इस का सीधा सादा जवाब यही है कि हमें इन सब चीज़ों की कोई जल्दी नहीं होती.. हो जायेगा...टाइम तो लगता ही है ना हर काम में!

हां, तो जिस दिन अखबार में इन कैमीकल्स के बारे में आया ..शायद उस के एक दो दिन बाद ही केन्द्र सरकार ने इन दोनों कैमीकल्स को बैन कर दिया....उस के बाद अगले दिन FSSAI  Food safety and standards authority of India..ने ब्रेड कंपनियों को चेता दिया कि अब इन कैमीकल्स को ब्रेडों में इस्तेमाल मत करियो....

बस, हो गई हमारी डबलरोटी की समस्या का समाधान!...But is it really as easy as it sounds?...उसने यह किया, उसने यह कहा...प्राबल्म खत्म हमेशा के लिए।

लिखते लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि वैसे ऐसा क्या है कि कोल्ड-ड्रिंक्स में ही गड़बड़ का हमें कोई गैर सरकारी संस्था बताती है, नूडल में भी यही हुआ...और मिनरल वाटर में भी यही कुछ हुआ..... What is FSSAI doing, I wonder!

मुझे जो प्रश्न सता रहा है वह यह है कि क्या किसी चीज़ पर प्रतिबंध लगाने से उस वस्तु का इस्तेमाल बंद हो जाता है...मुझे तो नहीं लगता... कितनी चीज़ें, कितने फ्लेवर, सैंकड़ों हज़ारों फूड-एडिटिव्ज़ हैं, कितने घटिया किस्म के कलर्ज़ - नान फूड ग्रेड तक के ... सब कुछ धड़ल्ले से िबक रहे हैं, इस्तेमाल हो रहे हैं...हम यह सब अच्छे से जानते हैं...कुछ साल पहले अजिनोमोटो के बारे में बहुत कुछ कहा जा रहा था...हर नूडल की रेहडी पर वह खोमचे वाला उसी चीनी मसाले को धड़ाधड़ इस्तेमाल कर रहा होता है....

खाने पीने के मामलों में इस तरह की बात सामने आना एक बेहद संजीदा मुद्दा है ..पता ही नहीं यार सारा भारत कितने अरसे से इस तरह की कैंसर कैमीकल्स से युक्त ब्रेड को खाता रहा...बेहद दुर्भाग्यपूर्ण....बस कंपनी वाले क्या सच में अगले दिन से अच्छे बच्चे बन जाएंगे?....इस का निर्णय आप करिए और अपने खाने पीने के फैसले इन निर्णयों के आधार पर किया करिए...वरना तो ऊपर देवानंद और हेमा मालिनी के गाने वाली बात लगती है ...एक ने कह दिया कि हमारी ब्रेड में लफड़ा है, दूसरे दिन आदेश आ गया कि नहीं, ठीक है, सब कुछ ठीक है ...

दरअसल हमारी समस्याएं तब तक यूं की यूं बनी रहेंगी जब तक शिक्षा का स्तर नहीं बदलेगा...लोग आज वैसे तो सचेत हो रहे हैं..पिछले दो तीन दिनों में मैंने आठ दस लोगों को ऐसे ही टेस्ट किया ..कुछ बात चली थी...कि ब्रेड का क्या चल रहा है, पता है ना!.... मुझे बहुत खुशी हुई कि सभी मरीज़ों को इस खबर के बारे में सब कुछ पता था...एक महिला तो इतनी सचेत थी कि उसने बताया कि डाक्टर साहब, हम लोग तो १५-२० दिन में एक बार लाते थे, अब वह भी बंद कर देंगे।

सब से बढ़िया सिचुएशन वही होती है कि अपनी सेहत के निर्णय लोगों को अपने आप लेने दिए जाएं.... we really need to empower them!

मेरे विचार में ऐसा तो कभी होता नहीं किल  बैठ जा, बैठ गई ...भूल जा ..भूल गई...हिंदी फिल्मों में होता होगा..कंपनियां कैसे इन कैमीकल्स को अचानक इस्तेमाल करना छोड़ देंगी......कितनी टैस्टिंग कर लोगो, कितनी पुलिसिंग कर लोगो....हर गली के मोड़ पर तो CSE जैसी संस्था के कार्यकर्ता तैनात नहीं किये जा सकते..ध्यान में आ रहा है कि किसी कंपनी ने तो इस NGO की कार्यक्षमता पर ही प्रश्न लगा दिया है ...

Market forces are extremely powerful....मार्कीट शक्तियां बहुत ही ताकतवर हैं, कुछ भी किसी भी कीमत पर करवाने में सक्षम हैं, करवा सकती हैं, करवा भी लेती हैं....absolutely no doubt... पहले कह दिया नूडल नहीं खाओ..फिर फरमान आ गया, कोई बात नहीं, खा लो...

लेिकन मैं CSE जैसे संस्थान की बातें मानने के पक्ष में हूं......they dont have any obvious conflict of interest... इस तरह की संस्थाओं से हमारे खाद्य पदार्थों के अच्छे-बुरे के बारे में जो भी इशारे मिलें  उसे बिना किसी किंतु-परंतु के मानने में ही हमारी भलाई है ..वैसे भी डबल रोटी कौन सा पौष्टिक आहार है जो हम इसे छोड़ नहीं पा रहे हैं...Well, that's personal choice! After all, Your Health is in your hands! व्यक्तिगत तौर पर मेरी ब्रेड के प्रति नफ़रत और भी गहरा गई है... जी हां, personally speaking!!

बैठ जा, बैठ गई ...से मुझे इस बात का भी ध्यान आ रहा है कि पहले ब्रेड को फुलाने या नर्म रखने के लिए जो कैमीकल इस्तेमाल होते थे... अब क्या इसे कह दिया जायेगा कि फूलो नहीं, बैठ जायो, पिचकी रहो, सिमट जाओ....बात गले से नीचे नहीं उतर नहीं.....बहरहाल, जो भी निर्णय अपने खानपान के बारे में आपने लेना है, सोच समझ कर के लीजिएगा...

शब्बा खैर....रब राखा...  Good night.. take care! 😉

आखिर डाक्टर कितनों का तंबाकू छुड़वा लेंगे!

कल सुबह मैं वैशाली मैट्रो स्टेशन के बाहर अखबार खरीदने लगा ..दस रूपये दिए..उसने ये तंबाकू के पाउच भी रखे हुए थे..अब ये पेपर पैकिंग में आने लगे हैं..मैंने कहा कि बाकी के ये पाउच दे दो ..उसने मेरी तरफ़ गौर से देखा...

मैंने इन्हें खरीदा क्योंकि मुझे इतनी बड़ी बड़ी चेतावनी फोटो सहित देख कर अचानक याद आया कि सरकार की कुछ नीति में बदलाव हुआ है कि शायद पैकेट के ८५प्रतिशत हिस्से में अब इस तरह की भयानक तस्वीरें छपा करेंगी..



ठीक है ...बिल्कुल ठीक है ..मैं इन पैकेटों को देख कर यही सोच रहा था कि सरकार इस से ज़्यादा और क्या करे...फिर ध्यान आता है कि क्यों न करे....क्यों न इस का उत्पादन ही खत्म करवा दे...रही बात प्रतिबंध की, वह हमने देख लिया है, जगह जगह प्रतिबंधित है गुटखे आदि लेकिन धड़ल्ले से बिकते हैं.. धूम्रपान सरेआम लोग प्रतिबंधित स्थानों पर भी करते हैं...कितनी पर्चियां कटेंगीं ज़ुर्माने की, पहले पर्ची काटने वाला गुटखे थूकेगा तो ही सामने वाले को बीड़ी मारने के लिए ज़ुर्माना देने को कहेगा! ...लोग इतने दबंग पहले नहीं थे कि चिकित्सक के पास और वह भी दंत चिकित्सक के पास मुंह में मसाला-गुटखा दबाए पहुंच जाते हैं...


मैं भी गुटखे-मसाले-तंबाकू की जंग पिछले तीस सालों से लड़ रहा हूं...रेडियो, टीवी, मैगजीन, न्यूज़-पेपर...ऑनलाईन राईटिंग ...कुछ भी नहीं छोड़ा लेकिन फिर भी फ्रस्ट्रेशन ही होती है ...इतना व्यापक इस्तेमाल और हम लोग इतने कम...
मेरे पास एक कटिंग है ..यह १९९० की एक अखबार की है ...इसे देख कर मुझे लगा था कि इस पर काम किया जाना चाहिए..और किया भी ...अपने क्षमता से बढ़ कर किया शायद...सैंकड़ों लेख लिख डाले...किसी में भी किसी बात को बढ़ा चढ़ा कर नहीं लिखा...जो देखा वही लिखा...जो लिखने वाले दिन मुझे सच नज़र आया वही दर्ज किया...और फिल लिखने के बाद उस के साथ कुछ भी कांट-छांट नहीं की...

बस इतना इत्मीनान है कि जो भी लिखा है सच लिखा है, मैं पाठक के साथ झूठ बोलने को बहुत बड़ा द्रोह मानता हूं...जो मन में है, वही लिखा ...कुछ वर्षों बाद कुछ लेखों को पढ़ते समय एम्बेरेसमैंट भी हुई लेकिन उसे बदला नहीं...जैसा था, वैसा ही रखा पड़ा है। 

हां, तो मैंने जब ये तंबाकू वाले पाउच इतनी भयंकर चेतावनियों वाले देखे तो मैं यही सोचता रहा कि यार, जो लोग इन्हें देख कर नहीं डरते, उन्हें डाक्टर कैसे डरा पाएंगे! 

सरकारों से तो इस से आगे उम्मीद की नहीं जा सकती... और अब लगने लगा कि डाक्टरों के पास भी कहां इतना टाइम है कि हर बीड़ी-तंबाकू-गुटखे वाले के साथ बीस बीस मिनट तक मगजमारी करते फिरें... सच्चाई तो यह है कि बहुत बार यह संभव हो ही नहीं पाता ..बस इतना ही कह दिया जाता है कि ...छोड़ दो भई बीड़ी पीना, फेफड़ें खराब हो रहे हैं, दिल का रोग पनप रहा है.....लेकिन जो मैं समझा हूं लोग सुनते कम ही हैं, तब ही सुनते हैं जब कोई झटका लगता है..

मुझे तो इन पाउचों को देख कर कल से यही लग रहा है कि अब मुझे तंबाकू के बारे में ज़्यादा बातें करना बंद कर देना चाहिए...इन तस्वीरों के बावजूद भी जो यह सब लफड़ा कर रहा है वह अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मार रहा है, उसे कौन रोक पाएगा! ..हां, कुछ कुछ केसों में िवशेषकर छोटी उम्र के बच्चों एवं युवाओं की तरफ़ ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत होती है ताकि वे इन सब घातक पदार्थों से दूर रह पाएं। 

आज फिर इस विषय पर इसलिए लिखने का मन इसलिए हो आया कि दो दिन के बाद हम लोग विश्व तंबाकू निषेध दिवस मनाएंगे...मैंने सोचा दो दिन पहले ही कुछ शुरूआत तो करूं...

समझ में नहीं आता कि इस टॉपिक पर कितना लिखना होगा ताकि लोगों को इन चीज़ों से डर लगने लगा...अभी तक तो मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ हुआ है... सब कुछ धड़ल्ले से खाया पिया जा रहा है...मेरे विभिन्न ब्लॉगों में सैंकड़ों लेख हैं ...हिंदी और इंगलिश में...इन की पैकिंग से लेकर ...इन की विनाशलीला को दिखाते। 

लोग पीछे पड़े हुए हैं...किताबें छपवा....ईनाम के लिए भेज...मेरी ऐसी कोई तमन्ना नहीं है, ईनाम-वाम के जुगाड़ न ही पसंद हैं, न ही शौक है, न ही कभी इन के बारे में सोचा है...चुपचाप काम करने में आनंद है...सब जगह राजनीति घुसी हुई है...हम लोगों की ऐसी कोई प्रवृत्ति है नहीं...

सिनेरियो इतना निराशाजनक भी नहीं है, कभी कभी जब मेरी बातें सुन कर कोई बंदा अपनी जेब से बीड़ी का बंडल या तंबाकू का पाउच मेरी टेबल पर टिका देता है कि आज के बाद नहीं इस्तेमाल करूंगा ...तो बहुत खुशी होती है ..मेरी मेज़ की दराज़ में हर समय दो तीन बीड़ी के बंडल पड़े होते हैं...इन में से बहुत से लोग सच में छोड़ देते हैं...इन्हें मैं पंद्रह -पंद्रह दिन बाद पाठ को दोहराने के लिए बुला लिया करता हूं...और क्या करें यार! 

कभी कभी कहीं से जब कोई फीडबैक आती है तो भी अच्छा लगता है ..बहुत से ऐसे संदेश आते हैं...एक इस समय याद आ रहा है...ओर्डिनेंस फैक्टरी के एक बहुत बड़े अफसर लिखते हैं कि हमारी फैक्टरी में यह पान, मसाले, गुटखे की बड़ी समस्या थी, हम लोगों ने तुम्हारे लेखों के प्रिंट आउट फोटो सहित प्रिंट करवा कर के फ्रेम करवा दिये हैं....बहुत फर्क पड़ा है ...वे अकसर इस बात को बहुत जगहों पर शेयर कर चुके हैं। अच्छा लगता है सुन कर। 

बंद करता हूं ...it is never-ending discussion!
और हां, आप के मन में यह प्रश्न तो नहीं आ रहा कि यार, तूने इतने सारे तंबाकू के पाउच by the way खरीदे क्यों?.. मैंने इन की फोटो खींचने के लिये ही खरीदा था..और फोटो खींचते ही डस्टबिन में फैंक दिया है। 

बीड़ी की बात याद आई...हर फिल्म में कोई भी किरदार सिगरेट जब भी सुलगाता है तो तुरंत चेतावनी आ जाती है कि धूम्रपान सेहत के लिए हानिकारक है ....लेकिन गुलजार साहब ने बीड़ी को आग लगे जिगर से जला कर दिखा दिया.... लेकिन कभी आपने इस गीत के दौरान कभी कोई चेतावनी देखी?





नीरज जी, आप सौ नहीं, डेढ़ सौ साल जिएं!!


महान कवि गोपाल दास नीरज जी को यहां लखनऊ में तीन चार बार मिलने का मौका मिला...एक बार तो किसी एनजीओ ने आमंत्रण भेजा था..वहां पर दो राज्यों के राज्यपाल, राज्य के कईं मंत्री, मुख्यमंत्री भी आए हुए थे..इन के ९०वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में वह समारोह था...मुझे उस दिन पता चला था कि इस शख्स ने हमें कितने कितने महान् गीत दिए हैं जो हम लोग आज भी उतनी ही शिद्दत के साथ सुनते हैं..और उन के जादू में खो जाते हैं...

उस दिन उन के लिखे गीतों को कुछ कलाकार गा भी रहे थे...मुझे याद है मैं भी दूसरी या तीसरी कतार में था...कुछ बात हुई ...उत्तराखंड के राज्यपाल जनाब अज़ीज़ कुरैशी साहब ने एक कलाकार को आवाज़ दे कर कहा कि वह सुनाओ...शोखियों में घोला जाए, फूलों का शबाब...यह गीत भी इस महान कवि का ही लिखा हुआ है... a wonderful song indeed! 


मुझे अच्छे से याद है ..किस तरह से वह राज्यपाल महोदय इस गीत को सुनते हुए झूम रहे थे...वैसे तो वह ही नहीं, सारा ऑडीटोरियम ही मंत्रमुग्ध सा बैठा हुआ था..

ये गीत भी इन्हीं के ही हैं...सुनिएगा..ऐ भाई ज़रा देख के चलो...और खिलते हैं गुल यहां...



मैं उस दिन पहली बार इस महान हस्ती से मिला था...ये बहुत लिटरेट हैं..पहले कहीं प्रोफैसर रह चुके हैं...बहुत सहज स्वभाव के हैं...मैंने उस दिन इन से बात की और इन से ऑटोग्राफ भी लिए...जब यह एक कविता कह रहे थे तो यह वीडियो क्लिप भी बनाई ...आप भी सुनिएगा..कितना बेहतरीन अंदाज़े-ब्यां है इन का...

उस के बाद भी इन को दो-तीन प्रोग्रामों में देखने का मौका मिला... हर बार बहुत ही बढ़िया अनुभव रहा..
इन के बारे में मैंने लिखने की सोच तो ली, लेकिन सूर्य को दिया तो क्या एक चिंगारी दिखाने जैसी बात भी नहीं है...इस हस्ती ने हमें सैंकड़ों बेहतरीन हिंदी फिल्म गीत दिए हैं...एक से बढ़ कर एक...जीवन की सभी संवेदनाओं से जुड़े हुए लगभग ... 

अच्छा एक काम करिए...इंटरनेट पर इन के बहुत से इंटरव्यू तो हैं ही, इन के ऐसे वीडियो भी सैंकड़ों होंगे जिन में ये कवि सम्मेलनों में शिरकत करते नज़र आते हैं...मेरे लिए इतना सब कुछ समेटना इस छोटी सी पोस्ट में नामुमकिन है ... मैंने एक कार्यक्रम में इन की लिखी कुछ किताबें भी खरीदी थीं, कभी कभी ज़रूर पढ़ता हूं ... लाजवाब लेखन.

हां, यह पोस्ट अचानक कैसे?...दरअसल पिछले दिनों इन की तबीयत नासाज़ थी...ये अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के भी बहुत करीबी हैं, वे इन का भरपूर सम्मान करते हैं..मुलायम सिंह इन का पता लेने यहां अस्पताल में गये हुए थे...अब सेहतमंद हैं. अस्पताल से छुट्टी हो गई है..९२ साल के हैं और आज की अखबार में इन की एक खबर दिखी ...कहते हैं मैं १०० साल पूरे करूंगा.....जनाब, नीरज जी, आप जैसी विभूतियां करोड़ों दिलों पर राज करती हैं, इन सब की दुआओं में आप शामिल हैं, ईश्वर करे आप कम से कम १५० साल जी कर लोगों को अपने शब्दों के जादू से मंत्रमुग्ध करते रहें.....आमीन!!
                                   इन की कुछ पंक्तियां ये भी हैं....
 यह वहशी ज़माना है..
हर हाथ में पत्थर है..
कि बच जाए 'गर शीशा.
यह उस का मुकद्दर है...

अब सोच रहा हूं कहां लिखने बैठूं...अपनी डायरी से फोटो खींच कर ही यहां चस्पा किए दे रहा हूं....अगर ठीक से न पढ़ा जाए, तो इस पर क्लिक कर के आप अच्छे से पढ़ सकते हैं....मुझे भी लिखने में आलस आने लगा है ...बुढ़ापा घेरने लगा है ऐसा लगता है....