गुरुवार, 30 जून 2022

2 घंटे का श्रम, 10 घंटे आराम

जी हां, ऐसा ही हुआ अपने साथ इस गुज़रे एतवार के दिन ...२ घंटे चल तो लिया ..लेकिन उस के बाद घुटनों की ऐसी हालत हो गई कि अगले १० घंटे  करने के बाद ही वे सामान्य चलने के क़ाबिल हो पाए...और देखा जाए तो यह कोई ऐसा वैसा श्रम भी तो नहीं ...खैर, १० किलोमीटर चलना हो गया...इस के लिए भी मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हूं ...

दरअसल उस दिन सुबह मेरा इतना लंबा टहलने का कोई पहले से कोई मंसूबा था नहीं ...अचानक दो मिनट में लिया गया फैसला था...क्योंकि न तो मैंने कोई वॉकिंग शूज़ ही पहने हुए थे ...मैंने एक रेन-वियर टाइप के जूते पहने हुए थे ...उन को पहने हुए चलना वैसे भी उतना सुविधाजनक होता नहीं जितना ऐसी लंबी वॉक के लिए जूतों को होना चाहिए...खैर, जब बंदे पर कोई खुमारी चढ़ी हो तो फिर उसे उतारने के लिए जूते कहां आड़े आ सकते हैं...

जी हां, उस दिन मौका था ...वलसाड़ के तीथल बीच पर ५, १० और २१ किलोमीटर की मेराथन आयोजित की गई थी ...मैंने कभी किसी मेराथन में हिस्सा नहीं लिया अभी तक ..लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता ..हो भी कैसे, क्योंकि चपटे पैर (फ्लैट-फुट) की वजह से मेरे घुटनों की हालत मुझे इस तरह के शौक पूरा करने की इजाजत ही नहीं देते...हां, प्रभु की कृपा से चलने-फिरने के लिए घुटने चल रहे हैं...यही बड़ी बात है ...चलने के बाद उन्हें आराम भी करवाना बहुत ज़रूरी होता है ...




उस दिन भी ऐसा ही हुआ....सुबह सुबह दो घंटे मैंने चल तो लिया....लेकिन घुटनों की हालत ऐसी हो गई कि एक बार तो लगा कि कहीं ये हमेशा के लिए तो बरबाद नहीं हो गए...घर पहुंच कर वॉश-रूम तक जाना भी दूभर हो गया....एक बार तो लगा कि मैंने यह पंगा लिया ही क्यों...अपनी उम्र का नहीं तो कम से कम घुटनों का ही ख्याल कर लेता...खैर, ये सब ख्याल इवेंट के बाद में ही आ रहे थे ...शुक्र है ...

और जहां तक उम्र की बात है ...उस दिन मै जब बीच में गया तो मेरा मेराथन में भाग लेने का कोई इरादा था ही नहीं ...मुझे तो बस कुदरत का नज़ारा लेना था और तीथल बीच पर स्थित स्वामीनारायण मंदिर में एक-दो घंटे बिताने थे ...मैंने पहले भी किसी पोस्ट में लिखा था कि वलसाड़ का तीथल बीच बहुत ही सुंदर है ...साथ ही बहुत साफ़ भी है ...अच्छा लगता है वहां जाकर ..जैसा इंसान अपने आप को भूलने पर मजबूर हो जाता है ..कभी मौका मिले तो ज़रूर हो कर आइए...ज़्यादा दूर नहीं है ...बंबई और बड़ोदा के लगभग बीच में ही है ...दोनों जगहों से तीन घंटे की दूरी पर है ....और सूरत से एक घंटा लगता है ट्रेन में ...बंबई से अपनी गाड़ी में जाएं तो भी इतना वक्त तो लगता ही है ..

लेकिन मुझे तो छुक छुक गाड़ी में ही बैठ कर ही मज़ा आता है ...ठीक है ...कोयले से चलने वाले स्टीम इंजन की छुक छुक अब नहीं सुनने को मिलती लेकिन ट्रेनों से जुड़ी बचपन की सभी यादें तो ताज़ा हो जाती हैं ....गाड़ी में सफर करते वक्त ..कैसे हम लोग गाड़ी चलने से एक घंटे पहले ही अमृतसर स्टेशन के प्लटेफार्म नंबर एक पर अपने साथ लेकर जा कर बड़े बड़े लोहे के ट्रंक के ऊपर बैठ कर पूरी-आले का आनंद लेते, चंदामामा भी खरीद लेते और ५ रूपये वाला स्कूटर भी ..और ज़्यादा वक्त ट्रंक पर टिक नहीं पाते तो साथ ही पडे बड़े से बिस्तरबंद पर मस्ती करने लगते ....और हां, साथ में पड़ी पानी से भरी सुराही का ख्याल ज़रूर कर लेते जिसे उसी वक्त स्टेशन के बाहर से खरीदा जाता ..शायद यही कोई चार पांच रूपये में ....सच में बहुत मज़े थे उन दिनों के भी ...अब जिन लोगों ने वे दिन जिए हों उन के लिए हिंदी इंगलिश में निबंध लिखना क्या मुश्किल होगा ...Scene at the Railway Station! 

हां, तो उस दिन सुबह जब सवा छः बजे के करीब १० किलोमीटर की मेराथन शुरू होनी थी ...इस में भाग लेने वाले सभी पूरी तैयारी में थे...उस इवेंट की टी-शर्ट पहनी हुई थी ...साथ में अपनी आई-डी का स्टिकर भी लगाया हुया था...और जहां तक उम्र की बात है ...मेरे से भी बड़ी बड़ी उम्र के और मुझ से भी ज़्यादा खाते-पीते लोग (पंजाबी में भारी भरकम नहीं कहते, खाते पीते लोग कहते हैं...इसलिए मुझे पंजाबी ज़ुबान बहुत अच्छी लगती है ...😎)...बस, जैसे ही उस दिन धोल-धमाके साथ उस मेराथन का आगाज़ हुआ...मुझे भी ख्याल आया कि ठीक है ये लोग इस इवेंट में भाग ले रहे हैं, बीच ही थोड़े न खरीद ले रहे हैं...यह तो सब के लिेए खुला है ....मुझे भी चलना चाहिए....अपनी स्पीड से ही सही ...उसी वक्त मुझे अपने साथी डाक्टर राज कुमार की लिखी किताब का ख्याल आया ...Run at your pace! वह ब्लॉग भी लिखते हैं ..उन के कुछ ब्लॉग्स का लिंक यह रहा ... डा राज कुमार का ब्लाग  और एक यह भी है ...




जैसे ही उस मेराथान का काफिला स्टार्टिंग-प्वाईंट से रवाना हुआ...मैंने भी चलना शुरू कर दिया....एक तो समंदर का वह किनारा इतना साफ सुथरा और रमनीक है कि किसी का भी मन वहां पर ज़्यादा से ज़्यादा वक्त बिताने को मचल जाए...मैंने चलना शुरू किया कि ठीक है चलते हैं, जितना हो सकेगा...ठीक है ...मैंने कौन सा किसी मेडल के लिए आया हूं ...मेरी उम्र तक पहुंचते पहुंचते इन सब मेडलों वेडलों की तृष्णा शांत हो जानी चाहिए...क्योंकि यह वह वक्त है जब बाहरी मेडलों की बजाए...खुद को मेडल देने का वक्त होता है ...और कोई पीठ थपथपाए न सही, अपनी पीठ खुद ही थपथपानी होती है ....है कि नहीं...

तो जनाब ...मैं भी चलता गया...मेरा भी पहला अनुभव था इस तरह से इतना लंबा बीच पर चलने का ...लेकिन मैंने मोबाइल पर अपने पसंद के हिंदी फिल्मी गीत चलाए हुए थे ...इसलिए वक्त आराम से कट रहा था...एक एक किलोमीटर पर मेराथान आर्गेनाइज़ करने वालों की तरफ़ से पानी के, नींबू पानी या अन्य किसी तरह की मदद के लिए स्टॉल लगे हुए थे ....मैं तो वहां नहीं गया...क्योंकि मैं तो अपनी मन की मौज के लिए चल रहा था...



कुछ बातें जो उस दिन इतना चलते चलते महसूस हुई वह यह कि कुदरत के साथ रहना कभी बोर नहीं करता....हमें कुदरत के अलग अलग रंगों का आनंद लूटने का मौका मिलता है ... जैसे ही रोशनी घटती-बढ़ती है, सारा नज़ारा ही बदल जाता है ...रेत पर तरह तरह के डिज़ाईन, किनारे पर पड़े छोटे छोेटे पत्थर जिन्हें उठाने की इच्छा नहीं होती कि इन को भी इन के साथियों का साथ भाता होगा, क्या करेंगे इन्हें उठा कर घर के किसी कोने में रख कर ....और भी कईं मंज़र ऐसे दिखते हैं जो पहले कभी नहीं देखे होते ...

चलिए, मैं लगभग एक घंटे में पांच किलोमीटर चल कर उस यू-प्वाईंट तक पहुंच गया जहां से मेराथन के प्रतिभागियों को अपने टैग को स्कैन करवा के वापिस लौटना था ...मुझे तो ऐसे किसी झंझट में पड़ने की ज़रुरत ही न थी ...मैंने भी वहां से यू-टर्न ले लिया...घुटनों की वजह से थोडा़ महसूस हो रहा था ...बीच बीच में यह भी लगा शुरुआत मेंं कि घुटने जितना शुरूआत में थके-मांदे से लग रहे थे, एक दो किलोमीटर चलने के बाद घुटने के उस थकेलेपन में सुधार ही हुआ था ...




यहां कुछ ड्रिंक्स बिक रहे थे ...

और हां, उस दिन बीच पर दो गाएं भी दिखीं...

यूं ही कट जाएगा सफ़र साथ चलने से ...

कुदरत के पास जाते हैं तो हर बार उस का नया ही रूप देखने को मिलता है, जैसे वह कोई राज़ की बात हम से साझा करने की फ़िराक में हो ...

रेत की अपनी दुनिया है, अपने राज़ हैं....

लेकिन पूरा दस किलोमीटर चलने के बाद घुटनों की जो हालत हुई वह तो मैं पहले ही दर्ज कर चुका हूं ...खैर, वापिस लौटने पर देखा कि वहां जश्न का माहौल है ...कुछ लोग गरबा नृत्य करने में मस्त थे और मैं यह सोचने में व्यस्त था कि क्या इन के शरीर में अभी भी इतनी ताकत बची हुई है कि इन से यह सब हो पा रहा है ......किसी से पूछा तो उसने ज्ञान बांटा कि कुछ हासिल करने की जब खुशी होती है तो इंसान कुछ भी कर सकता है ... बात तो पते की लगी। 

दो घंटे के ऊपर पांच सात मिनट लगे मुझे भी दस किलोमीटर की पैदल यात्रा पूरी करने में 

जो भी हो, उस दिन इतना चल कर अच्छा तो लगा ....वह कहते हैं न अपने लिए ही सही ...एक हिस्ट्री बन जाती है कि फलां फलां दिन मैं इतना चला था ...और इस तरह की हिस्ट्री की शीटें ही हैं जो कभी हमें प्रेरित करती हैं, कभी खुश करती हैं ....कभी फिर कुछ नया करने के लिए उकसाती हैं, जो भी है कुछ न कुछ तो नयापन बना रहना ही चाहिए...वरना ज़िंदगी है ही क्या....कुछ उमंग, कोई उत्साह, कोई छोटा मोटा ही सही लेकिन एडवेंचर ....कुछ तो हो यार जिसे ज़िंदगी कहा जा सके ...

और हां, घुटनों को आराम देने के लिए अगले दिन छुट्टी लेनी पड़ी ....खुद पर हंसी भी आ रही थी ....वैसे भी किसी दूसरे की बजाए अपने ऊपर हंसना कितना आसां है, कितना सुखद है....यह हम सब जानते ज़रूर हैं, दिल में कबूलते भी हैं ......लेकिन बस अपनी बेवकूफियों पर हंसते कम ही हैं...और दूसरों के सामने तो बिल्कुल नहीं और लिख कर कबूलना तो बहुत दूर की बात है ....इत्मीनान रखिए....कुछ नहीं होगा...किसी को हमारी ज़िंदगी से कुछ लेना देना नहीं है, हमें अपने जीने का अंदाज़ खुद तय करना पड़ता है ....जिसे मैं भी थोड़ा सीखने की कोशिश में लगा तो हूं ...

बंबई में बरसात हो रही है, ऐसे वक्त में रिमझिम बरसात वाला कोई गीत सुनते हैं ... 

बुधवार, 29 जून 2022

ब्लॉगिंग करते करते जब बीच में रुकावट आ जाती है ...

कुछ नहीं, रुक जाते हैं, तो क्या, कोई बात नहीं...लिखना, पढ़ना भी कोई मशीनी काम तो है नहीं कि आरा मशीन की तरह बस लगातार चलते ही रहना है ...कभी कभी छुट्टी लेने का मन भी तो सब का करता ही है ....

इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ..आज दो महीने बाद कोई पोस्ट लिख रहा हूं ...बस ऐसे ही मन ही नहीं किया...बीच में दो एक बार लिखा भी ...अभी देखा वह ड्रॉफ्ट भी पड़ा हुआ है ..लेकिन उसे मुकम्मल करने की इच्छा ही नहीं हुई...इन दिनों बीच बीच में कभी कुछ दोस्त बराबर पूछते रहते हैं कि क्यों भई, लिखना क्यों बंद है ....लिखते रहा करो, जो काम दिल को अच्छा लगे, करते रहना चाहिए...उन की इस तरह की बातें सही रास्ता दिखाने का काम करती हैं...

दरअसल बात यह है कि लिखने वालों के पास लिखने के लिए इतना कुछ रहता है कि कईं बार उकता से जाते हैं ..क्या लिखें और क्या छोड़ें...सब कुछ तो दर्ज कर देना ज़रूरी है ..हकीकत में देखा जाए तो सब कुछ हम दर्ज ही कहां कर पाते हैं...वह बहुत हिम्मत वालों का काम है ..हम तो बस समंदर के किनारे पर बैठ कर उस की मौजों का आनंद लेने वालों में हैं....उस की लहरों के साथ जा कर खेलना हम कहां कर पाते हैं, उस की गहराई को टोह लेना तो बहुत दूर की बात है ...इसलिए अपना लेखन भी सतही ही रहता है ....

इन दो महीनों में मैंने बहुत सी किताबों के पन्ने पलटे...सच में पटले ...क्योंकि मुझ में इतना सब्र नहीं है कि मैं किसी किताब को पूरा पढ़ सकूं...कुछ न कुछ नया ज़रूर पढ़ता हूं ...जो अच्छा लगता है उसे थोड़ा ज़्यादा पढ़ता हूं ...और जो ठीक ठाक लगता है उसे सोते वक्त नींद की गोली की तरह उठा कर जैसे ही पांच दस मिनट पढ़ता हूं, नींद घेर लेती है .. हा हा हा हा हा..सच में ऐसा ही होता है ..

लेकिन इन किताबों की दुनिया भी है बड़ी अजीबोगरीब...एक से बढ़ कर एक लोग हैं लिखने वाले ...आज सुबह जब मैं उठा तो सुस्ती सी छाई हुई थी...मैंने कल खरीदी कुलदीप नैयर साहब की आत्मकथा बिआउंड लाईन्स (Beyond the Lines- in English) जैसे ही उठाई तो एक आधा घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला...जो लोग दिल से लिखते हैं, सच लिखते हैं...उन्हें कोई दावा नहीं करना पड़ता, एक आधा पन्ना पढ़ते ही पता चल जाता है ...पढ़ने वाला उन का दुःख-सुख भी महसूस कर लेता है ....

दिन भर में हम इतना कुछ देखते हैं, महसूस करते हैं....हमारे अंदर तरह तरह के अहसास पैदा होते हैं ...नए नए नज़ारे दिखते हैं...कितनी तस्वीरें हम खींचते हैं ...नई जगह से गुज़रते हैं तो कुछ नया दिखता है ...असमंजस में पड़ जाते हैं कि यह क्या हम इसे देखने से कैसे चूक गए...दो तीन दिन पहले मुझे यही ख्याल आ रहा था कि देखा जाए तो ज़िंदगी है ही क्या...बस सुबह उठना, खाना, पीना, कमाई करना, लंबी तान कर सो जाना ....लेकिन इस के साथ हर रोज़ कुछ तो ऐसा हो कि ज़िंदगी में ज़िंदादिली बनी रहे ...अपनी पसंद का कोई गीत ही सुनने का मौका मिल जाए...कोई अच्छी किताब मिल जाए, अपनी किसी पुराने शौक को ज़िंदा रखने का बहाना ही मिल जाए....कोई नया फूल, कोई नया पौधा...कोई नदी, झरना, समंदर ...कुछ तो हर दिन नया हो ....शायद तभी ज़िंदगी सार्थक है ...कोई काम छोटा नहीं है, कोई काम बड़ा नहीं है ...जो भी काम कर रहे हैं उस में फ़ख़्र महसूस करें ...

हां, दो दिन पहले मैं एक पुल के ऊपर से गुज़र रहा था, बादल छाए हुए थे ...मैंने वहीं खड़ा हो कर शेल्फी लेने लग गया....बहुत अच्छा लगा ...एक छोटा सा आठ-दस का बच्चा साईकिल चलाता हुआ उधर से गुज़रा ...मैंने उसे हंसते हुए कहा ...शेल्फी शेल्फी....वह भी हंसने लगा ....जब भी आप किसी को देख कर हंसते हैं न तो आप को हंसी वापिस मिलती ही है ..बस, इस के लिए इस बात की परवाह छोड़नी पडेगी कि यार, हम पहले कैसे हंस दें, कोई कहीं यह तो न समझ लेगा कि यह तो सरका हुआ है ...या अगर किसी के साथ हंस कर बात कर लेंगे तो कोई पता नहीं क्या फायदा उठा लेगा मेरा......निश्चिंत रहिए...कुछ नहीं होगा....बस, हंसते-मुस्कुराते ज़िंदगी अच्छी कट जाती है ...जिसे भी मिलें उस के लिए दुआ किया करें कि ईश्वर, अल्ला, गॉड अपने हर बंदे को ऐसे खुशनुमा हालात दे कि उन की ज़िंदगी मुस्कुराहटों से भरी रहे ...

और एक बात यह भी है कि जो लिखने वाले हैं न यह जो ब्लॉग-व्लॉग या कुछ भी उन के लिए लिखते रहना इसलिए भी ज़रूरी है कि अगर वे कुछ दिन हफ्ते, महीने नहीं लिखते तो फिर लिखने का मन ही नहीं करता ...सच बात है बिल्कुल ...अगर ब्लॉग नहीं लिखते तो सारा दिन बिन बुलाए दर्जनों वॉट्सएप ग्रुपों में तांक-झांक करते रहेंगे ....बिन मांगा ज्ञान बांटते रहेंगे ....कोई जवाब दे न दे, पोस्टें दनादन डालते रहेंगे ....अपनी इज़्ज़त का कुछ ख्याल नहीं ...हम लोग बचपन में देखा करते थे कि जिस रिश्तेदार को एक दो बार चिट्ठी लिखी जाती थी और वह किसी भी कारण से जवाब नहीं देता था तो फिर उस से खतोकिताबत बंद ही हो जाती थी ...इसलिए जिस ग्रुप में कोई सुने न और अपनी सुनाई न तो उस से भी किनारा कर लेना ही मुनासिब है ..मुझे तो यही लगता है ...स्कूल-कॉलेज वाले ग्रुपों का भी कुछ कुछ यही हाल है ...



पिछले दिनों एक ख्याल यह भी आ रहा था जब मैं एक बहुत पुराने बरगद के पेड़ के नीचे फोटो खिंचवा रहा था कि अगर हमें अपने कद का सही जायज़ा लेना हो तो इसी तरह के दरख्त के नीचे खडे़ होकर ही यह संभव हो सकता है, अपनी तुच्छता का अहसास करना हो तो किसी पहाड़ के पास जाना चाहिए और अपने अंदर-बाहर के शोर शराबे से निजात हासिल करनी हो तो समंदर की खामोशी से ही कुछ सीख लेना चाहिए...क़ुदरत का हर क़ायदा कुछ सिखा रहा है लेकिन अगर हमें फ़ुर्सत तो हो कुछ सीखने की ...यह जो बातें मैंने पिछली तीन चार पंक्तियों में लिखी हैं, मैं वैसा लिख नहीं पाया हूं जैसा सोच रहा था ...जैसे विचार आ रहे थे ...खैर, कोई बात नहीं ..जितना लिखा गया, उतना ही मुबारक है ...दो महीने बाद 😬......लेकिन फिर भी रूकावट के लिए खेद तो है ही ....

रविवार, 1 मई 2022

और बोरीवली स्टेशन आने का पता ही न चला...

कल शनिवार की दोपहर पौने तीन के करीब मैं दादर स्टेशन पर था...मुझे बोरीवली की फॉस्ट-लोकल पकड़नी थी...लेकिन यह क्या ट्रेन तो आ भी गई और मैं अभी तक स्टॉल वाले को ज़िम-ज़ैम बिस्कुट के पैकेट के दाम देने के लिए जेब से बटुआ निकाल रहा था ..खैर, मिल गई गाड़ी ... वैसे तो हमारा भी एक उसूल है कि गाड़ी एक बार चल पड़े तो चाहे वह कितनी भी धीमी हो, उसे भाग कर नहीं पकड़ना...क्या करें, और कुछ न सही, बूढ़ी हो रही हड्डियों की तो फ़िक्र खुद ही करनी पड़ती है...

लोकल ट्रेन के पहले दर्जे में बैठने की जगह मिल गई ...सब से पहले तो उस बिस्कुट के पैकेट पर हाथ साफ़ करना शुरू किया...अब पिछले डेढ़-दो साल से यह लत सी पड़ गई है कि लोकल ट्रेन में बैठने से पहले हल्दी राम या पार्ले जी या ब्रिटॉनिया का कुछ पैकेट लेकर ही चढ़ना है ...ये बिस्कुट विस्कुट के पैकेट ऐसे खाने तो मुझे अपने शरीर के साथ ज़ुल्म करने जैसा लगता है ...मुझे ख़्याल आता तो है कि मरीज़ों को तुम सारा दिन ये सब जंक खाने के लिए डांटते रहते हो ..और ख़ुद !! शायद इसी लिए अपनी बात कोई नहीं मानता..। मेरी दिक्कत यह है कि मुझे जब भूख लगती है तो मुझे वड़ा-पाव, भेल, पाव-भाजी, समोसा ..कुछ भी खाना अच्छा नहीं लगता...अगर खाता भी हूं कभी या ये लोग मंगवाते भी हैं तो बहुत ही गिनी-चुनी दुकानों से ...खैर, बिस्कुट का खाली लिफ़ाफ़ा अपने बैग में ठूंस कर अखबार निकाल ली ...इतने में सामने वाली सीट पर बैठा एक 10-12 बरस का बालक मेरी तरफ़ देख रहा था ..शायद सोच रहा होगा कि यह भी अजीब बंदा है, पूरे का पूरा पैकेट ही रगड़ गया....सत्संग में सुने प्रवचनों के आधार पर मैं उस बालक को देख कर मुस्कुरा दिया...लेकिन यह क्या, उस बेचारे ने भरपूर कोशिश तो की ..लेकिन वह एक अदद हल्की सी भी मुस्कुराहट का जुगाड़ ही न कर पाया...शायद अपने पास बैठे मां-बाप के डर से उसे लग रहा होगा कि खामखां बाद में डांट पड़ेगी..अनजान लोगों की मुस्कान का जवाब मुस्कान से देने के लिए...खैर, मुझे इस बालक पर बहुत तरस आया ..पता नहीं क्यों। हां, सत्संग में यह बताया गया था कुछ साल पहले जब लखनऊ में रहते थे कि किसी की मुस्कान पाने के लिए पहले ख़ुद मुस्कुरा दिया कीजिेए....खैर, बंबई में बहुत बार सब प्रवचन धरे के धरे रह जाते हैं...अब तो सत्संग जाना ही बंद है...वॉटसएप पर ही एक से एक धुरंधर ज्ञानी-ध्यानी टकर जाते हैं कि सच में रोम-रोम की सफ़ाई कम कर देते हैं ...मन को पुलकित कर देते हैं..बस, बस रूह को ही नहीं छू पाते.

खैर, मेरे बैग से निकली अखबार अभी मेरे हाथ में बिना खोले ही पकड़ी हुई थी कि मेरे कानों में साथ वाले पैसेंजर की फोन पर किसी से बात होने लगी.

हां, हां, छः पीस चाहिए...तुम्हें बताया न किस के लिए चाहिए... (मैं नाम नहीं लिख रहा हूं...) जो सेंटर में फलां-फलां मिनिस्टर है ...उस के लिए चाहिए और अर्जैंट है...क्या करें, उस के शहर में हमारा कोई डिस्ट्रीब्यूटर नहीं है, आर्डर यहीं से भिजवाना होगा...

इतना सुन कर मेरे तो भई कान खड़े हो गए...अब लिखने वालों का मसाला क्या है, सब से साथ मिल-जुल कर रहना, बोलना-बतियाना...अपने मन की कहना भी, दूसरों की सुनना भी, आते जाते दीन-दुनिया की ख़बर रखना, बिना किसी वजह के भी इधर उधर कहीं भी मटरगश्ती करने निकल पड़ना....(अभी गूगल पर इस का अर्थ देख कर इत्मीनान हुआ..वरना, पता नहीं न चलता किस बात का बतंगढ़ बन जाए...निश्चिंत होकर प्रसन्नतापूर्वक व्यर्थ इधर-उधर घूमने की क्रिया है कुछ और नहीं, गूगल ने भी बता दिया..

उस बडे़ केंद्रीय मंत्री का नाम सुनने के बाद और उस तक कोई माल पहुंचाए जाने की बात सुन कर फिर नीरस अखबार में किस का मन लगे ...लेकिन यहां बंबई मे ंरहते हुए यहां के तौर-तरीके सीखने भी तो ज़रूरी हैं....सीखने पड़ते नहीं, ज़माना ही सिखा देता है ...इसलिए किसी अनजान इंसान से उस की फोन पर हुई गुफ्तगू का ब्यौरा पूछना यह ऐसी बात है जिस का बंबई में तस्सवुर भी कर पाना नमुमकिन है ...खैर, कभी कभी ऐसे लगने लगा है कि ये ब्लॉग-व्लॉग लिखने वाले भी बड़े ढीठ किस्म के प्राणी होते हैं ....मन में चल रहा कौतूहल शांत करने के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं और यही हुआ....

......(उस मंत्री का नाम लेकर मैं पास बैठे बंदे पर एक सवाल दाग ही दिया..) क्या पहुंचा रहे हो जी उसे ?...मुझे अभी याद नहीं कि मैंने उसे पंजाबी में पूछा या हिंदी में ..लेकिन अगर हिंदी में भी पूछा होगा तो भी मेरा लहजा पंजाबी में पूछने जैसा ही रहा होगा..। मैंने झिझकते झिझकते सवाल तो दाग दिया .....लेकिन यह मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था..मुझे शायद कहीं न कहीं यही लगा होगा कि या तो वह जवाब दे देगा ...और मुझे कोई बेवकूफ समझ कर जवाब नहीं भी देगा तो मेरी सेहत पर कुछ खास असर  होगा नहीं...ज़िंदगी में वैसे ही इतनी ज़िल्लत झेल चुके हैं कि यह तो मामूली बात है ...

"थालीयां "........उस बंदे ने जवाब दे दिया...

वह राजसी ठाठ-बाठ...क्या कहने...सब कुछ टनाटन..

लेकिन मेरी जिज्ञासा भी तो ऐसे थोड़ा न शांत हो जाती ...उसने आगे बताया कि वह जिस कंपनी के लिए काम करता है ये उस की थालीयां हैं। मैंने पूछा कि क्या स्पैशल है इन थालियों में ....उसने झट से अपने मोबाइल में मुझे उन थालियों की तस्वीर दिखाई तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गई ...मैंने इस तरह की थालियां पहले नहीं देखी थीं..मैंने पूछा कि क्या वह मंत्री इस थाली में खाना खाता है ...उसने इस की पुष्टि की ..

हां, एक बात जिस तरह से उसने थालीयां कहा....उस से मुझे यह भान सा हुआ कि यह तो पंजाबी लग रहा है ...बस, एक बार यह पता चला तो आगे की सभी बातें हमारी पंजाबी में ही हुईं। हम दोनों ने फोन एक्सचेंज किए ...उसने अपना कार्ड दिया, मेरे पास तो कोई कार्ड-वार्ड है नहीं, सोच रहा हूं रिटायरमैंटी के बाद ज़रूर छपवा लूंगा...अभी तक तो इस की कोई ज़रूरत महसूस हुई नहीं कभी ....

अपनी जो मातृ-भाषा है यह भी एक ऐसी फेविक्विक है ..जो झट से लोगों को जोड़ देती है ...यह मैं नहीं कहता, ज़माना कहता है ..कोई भी कहे या न कहे लेकिन है यह बिल्कुल सच्चाई। हां, तो जब उसने मुझे अपनी कंपनी का नाम बताया...और वे बेहतरीन, आलीशान किस्म की इस तरह की थालीयां बनाते हैं, कटलरी बनाते हैं...

आगे की सारी गुफ्तगू पंजाबी में करते रहे ...यह पता चला कि है तो यह थाली आठ हज़ार की ...लेकिन कोई डिस्काउंट के चलते चार हजार की मिल जाएगी। उसे देखते ही मैंने मन तो बना लिया कि चार की हो या छः हज़ार की ...मैं तो यह ज़रूर खरीद ही लूंगा ...लेकिन फिर ख्याल खाया कि खरीद तो ले लूंगा...लेकिन इन का करूंगा क्या...वैसे ही मुझे एक वक्त में एक दाल या एक सब्जी ही तो अच्छी लगती है ...दाल या सब्जी कोई भी एक ..लेकिन अगर सब्जी सूखी है और साथ में थोडा़ रायता मिल जाए तो बस हो गया उस दिन के शुकराने का जुगाड़ ....ऐसे में मेरे जैसा बंदा इन थालियों को अपने सिर मारेगा ...पडी़ रहेंगी उन बेहतरीन लखनऊ से खरीदी कुछ मैलामाइन टाइप की थालियों की तरह जो खरीदी तो मैंने बड़े शौक से थी ..लेकिन उन में कभी भी रोटी खाने की इच्छा हुई ही नहीं..अभी आप को उन की फोटो दिखाता हूं ...

पता नहीं क्यों मुझे तो इन प्लेटों में रोटी खाते क्यों इतनी घुटन महसूस होती है ...कभी नहीं खाता हूं...

कुछ महीने पहले हम लोग ट्रेन में कहीं जा रहे थे तो एक परिवार को एक एल्यूमीनियम की  परातनुमा-थाली में  दाल-भात , रोटी तरकारी खाते देखा...मैंने उस वक्त कहा कि हमें भी ऐसी ही थालियां ले लेनी चाहिएं...मेरे साथ जो था, वह तो इस परात नुमा थाली पर इतना फिदा हुआ कि कहने लगा कि स्टेशन पर उतर कर पहले इस तरह की थाली ढूंढते हैं ...  जितना भी राशन-पानी चाहिए, एक बार इस में डाल कर बंदा बस पासे हो जाए ....और इत्मीनान से छकता रहे...

यह परात-नुमा थाली बहुत बढ़िया लगी ...

हम लोगों ने बिना वजह इतने तामझाम फैलाए हुए हैं...बात तो भूख की है, वह करोड़ों रूपये पास होते हुए भी कोई खरीद नहीं पाता ....जब किसी की भूख मर जाती है न तो उस के साथ साथ उस से जुड़े लोगों की भूख भी मर जाती है ...इसी तरह से जब अपनी मां की भूख ही मर गई , वह बेचारी सूख कर कांटा हो गई तो तिल तिल उसे अपने हाथों से फिसलने का दुःख देखा तो उस के बाद यही लगा कि दुनिया में सब से अच्छी बात है किसी बंदे को भूख लगना ...और उसे शांत करने के लिए वह हज़ारों की थाली ले या पत्तल या हाथ पर ही रख कर परशादे छक ले, कुछ भी फ़र्क पड़ता भी नहीं, हम ने देखा भी नहीं ...

यह क्या मैं तो बोरीवली जाता जाता कहीं का कहीं निकल गया...हां तो उस पैसेंजर से बातें चलती रहीं...मुझे इन थालियों को देख कर जो जिज्ञासा हुई तो मैंने उससे निवारण कर लिया। उसने बताया कि ये गोल्ड-कोटेड है ...गोल्ड नहीं ..बस कोटेड था, बता रहा था कि गोल्ड कोटेड हो तो आठ हज़ार की नहीं अस्सी हजार की मिलेगी। मैंने पूछा कि इसे कलई करवाने की कभी जरूरत पड सकती है ..उसने बताया नहीं। मैंने उसे इसलिए पूछा कि जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घरों में पीतल के ही बर्तन होते थे, जिन्हें कलई करने के लिए गली गली, मोहल्ले मोहल्ले में कली करने वाले घूमा करते थे ..मां को उड़ीक रहती कलई करवाने की और हमें रहती उस के साथ बैठ कर, उस की छोटी सी भट्ठी को निहारते अपना टाइम-पास करने की ...मुझे याद आ रहा है कि मैंने अपने पंजाबी ब्लॉग में अपनी कलई वाली यादें सहेजी हुई हैं, अगर पंजाबी पढ़ पाते हैं तो आप भी इसे पढ़ सकते हैं, यह रहा इस का लिंक ...वरना मैं इन कलई वालों के ऊपर फिल्माया गया पंजाबी का एक सुपर-हिट गीत यहां पर लगा देता हूं ....


हां तो बातें करते करते उस बंदे को एक फोन आया तो उसने ऐसी फर्राटेदार गुजराती में बात की ...कि मैंने पूछ ही लिया कि गुजराती भी इतनी धमाकेदार ...कहने लगा कि क्या करें, सेल्स से जुड़े हैं तो अलग अलग भाषाएं बोलनी पड़ती हैं..। फिर वह कहने लगा कि हम लोगों ने कभी पंजाबी घर में अपने माता-पिता से भी नहीं बोली...और उसने फिर कहा कि मैं पंजाबी न होते हुए भी कैसे पंजाबी बोल लेता हूं, मुझे पता नहीं ...उसने बताया कि वह मुल्तानी है... लेकिन उसे इस बात की समझ न थी कि मुल्तान जहां से उस के माता-पिता आए बंटवारे के वक्त वह भी तो पंजाब का ही हिस्सा था...खैर, मैंने उसे यही कहा । कहने लगा कि मां-बाप को गुज़रे तो अरसा हो गया...मैंने पूछा कि क्या वे यहीं रहते थे ...तो उसने कहा कि जी हां, हम उन के पास रहते थे, हमारी क्या बिसात कि हम उन्हें अपने आप रखते ...अच्छी लगी उस की बात ...

फिर अचानक पता नहीं उसे क्या ख्याल आया कि कहने लगा कि ये सब रईस लोगों के शौक हैं...जिन के पास भरपूर दौलत है, वरना थाली तो थाली है कोई भी ...रोटी ही खानी है ...उस वक्त मुझे वह बंदा बिल्कुल वैसा लगा जैसा मैं दूसरों को लगता होऊंगा जब मैं उन्हें बेकार में महंगे माउथ-वॉश न खरीदने के लिए कहता हूं ...इस की बजाए अच्छे से दो वक्त ब्रुश और रोज़ाना जीभ-छलनी से जीभ की सफाई करने की नसीहत दे डालता हू...

मैंने बताया कि मैं जहां नौकरी करता हूं ...पूछने लगा कि अभी भी करते हैं....आज कल जब से सवाल मुझ से लोग करने लगे हैं तो मुझे इस बात का डर लगने लगता है कि यार, क्या मैं सच मे ंइतना बूढा़ लगने लगा हूं कि लोगों को लगता होगा कि इसे तो रिटायर हुए बरसों हो गए होंगे...वैसे मैं रिटायर होने की सोच तो रहा हूं ...मुझे घर से, बच्चों की ओर से बड़ा प्रेशर है कि छोड़ो, अब हो गई न  नौकरी...देखता हूं क्या करता हूं...। और जब मैं कहता हूं कि मैं बोर हो जाऊंगा तो सब लोग इतने ठहाके लगाते हैं कि क्या कहूं ..कहते हैं आप और बोरियत....आप के इतने शौक हैं, इतनी हॉबी हैं, नित नईं हॉबी ....आप तो बोरियत से बचने के लिए किताब लिखने की बातें करते हैं...

खैक. अभी बातें और चलनी थीं...लेकिन जब गाड़ी रुकी तो देखा बोरीवली स्टेशन आ गया है ...मुझे यही महसूस हुआ कि किस तरह से अगर आस पास लोगों के साथ एक जुड़ाव महसूस करते हैं तो वक्त तो क्या, ज़िंदगी कैसे कट जाती है पता ही नहीं चलता...और हर वक्त तने तने से रह कर पेड़ के तने की तरह ऐंठे ही रहते हैं ...ख्याल है अपना अपना...लेकिन एक बात तो है आज जितनी जल्दी बोरीवली आ गया, उतनी जल्दी पहले तो कभी नहीं आया...अभी दस मिनट और भी लग जाते तो चलता था, चार बातें हम लोग और साझा कर लेते.. 😂 हम भी ठहरे पक्के नहीं तो छोटे मोटे उभरते हुए किस्सागो!!

दरअसल बात अपने अपने शौक की भी है...टेस्ट की है...कुछ लोगों की एस्थैटिक-सैंस और टेस्ट बहुत नफ़ीस होते हैं ...मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं ..वहां की जो मेडीकल-डायरेक्टर हैं...उन की एस्थैटिक-सैंस का भी जवाब नहीं....एक बात बताता हूं ..सरकारी अस्पतालों में कैलेंडर लगते हैं हर साल ..लेकिन अभी तक 30-32 बरसों से देख रहा था कि लकड़ी के फ्रेम से जब पुराना कैलेंडर निकाल कर नया कैलेंडर लगाना होता तो यह भी एक छोटा मोटा स्यापा ही लगता है ..पहले कोई सरकारी तरखान जी आएंगे ...अपने सहायक के साथ..फिर ठोका-पीटी होगी ...कभी कील निकल जाएगा...कभी गट्टी ढीली पड़ी मिलेगी, कभी कैलेंडर रखते हुए सरक जाएगा ....और दो-चार बाद याद दिलाने के बाद ही बढ़ई साहब पहुंचेंगे ...लेकिन हमारे अस्पताल में जिस तरह के फ्रेम्स में ये कैलेंडर अब लगे हुए हैं वैसे फ्रेम मैंने कभी नहीं देखा...कभी मेरा ध्यान इस तरफ़ गया नहीं था...लेकिन कुछ महीने पहले जब एक चपरासी कैलेंडर बदलने आया तो मुझे हैरानी हुई कि इस के पास ठोका-पीटी का जुगाड़ तो है नहीं ......लेकिन, नहीं, आधे मिनट में ही उसने वह कैलेंडर बदल दिया..बिना फ्रेम को दीवार से उतारे,  बिना उसे खोले ...वह बहुत ही बेहतरीन किस्म का है, बस आप समझ लीजिए कि किसी बच्चे के स्टील के टिफिन में परांठे पैक करते वक्त जितना वक्त लगता है उतने ही वक्त में कैलेंडर बदल दिया जाता है ......सब अपने अपने टेस्ट की बात है!! काश, मेरे पास इस वक्त उस कैलेंडर के फ्रेम की तस्वीर होती तो उसे आपसे साझा ज़रूर करता..और मैंने किसी से पूछा नहीं कि ये कैलेंडर फ्रेम किस की पसंद हैं, क्योंकि मुझे पता है कि उन के अलावा हमारे आसपास कोई इतनी बारीकी से चीज़ों को देख ही नहीं पाता...वह हम सब के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं..🙏

हां, स्टेशन से बाहर आते वक्त मैं उन महान सियासतकारों के बारे में सोच रहा था कि जो चांदी के चम्मचों के बीच पैदा होते हैं (born with silver spoon 😉 types!) घरों में खाना तो इस तरह की सजावटी, महंगी थालीयों में खाते हैं ...और जब वे किसी मजदूर के झोंपड़े मे जाते हैं तो कैसे मिट्टी के बर्तनों में दाल-रोटी का लुत्फ़ लेते हैं ...अब यह पता नहीं, लुत्फ सच में लेते भी हैं, या ........खैर, अकसर वे इन घरों में खाना खाते वक्त ज़मीन पर बैठे तो दिखाई देते हैं ..यही क्या कम है, वे महान हैं.......मेरे जैसे लोग तो पालथी मार कर ज़मीन पर ही नहीं बैठ पाते ....मैं किसी की क्या बात करूं😎...


हां तो बोरीवली जाते हुए सफर का पता नहीं चला जिस का ब्यौरा आपने पढ़ लिया ..लेकिन वापिस लौटते वक्त भी सफ़र का पता नहीं चला क्योंकि नसीब से ए.सी लोकल गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी मिल गई ... 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

ज़िंदगी ज़िंदाबाद....

मुझे कईं बार यह ख्याल आता है कि आदमी का क़द जितना बड़ा हो जाता है, उतना ही वह दुनिया से कटना शुरू हो जाता है...कद़ से मतलब यहां है रुतबा...इतने इतने नामचीन लोग हैं, कभी आप को फुटपाथ पर थोड़े न दिखेंगे ..हां, एक्टिंग करते वक्त आप उन्हें कभी फुटपाथ पर देख लें तो बात और है ...लेकिन एक्टिंग तो ठहरी एक्टिंग ...और असल ज़िंदगी की तो बात ही क्या है...

मेरी ख़्याल में किसी की शहर की ज़िंदगी उस के गली, कूचे, बाज़ारों, फुटपाथों पर देखी जा सकती है ...और बंबई जैसी जगह हो तो आप इस के रास्तों पर, फुटपाथों पर, लोकल स्टेशनों पर पूरे हिंदोस्तान के दीदार कर सकते हैं ..और सच में ऐसा ही है ...सब कुछ रास्तों पर ही दिखता है ...बहुत से सबक वहीं से सीखते हैं, इन्हीं रास्तों पर चलते हुए हमारी सोई हुए संवेदनाएं जब उठने लगती हैं पता ही नहीं चलता... वह ठीक है कि हम इतने बड़े समाज के हाशिया पर जी रहे लोगों के लिए कर कुछ ख़ास नहीं पाते ...लेकिन दुआ तो कर ही सकते हैं कि सब के दिन पलट जाएं...बदल जाएं, खुशनुमा हो जाएं...

मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि वैसे लिखने-विखने को मेरे पास है कुछ खास नहीं ...मुझे तो सच में लगता है कि मैं एक फ्रॉडिया किस्म का ही लेखक हूं, अगर अपने आप को लेखक कहूं भी तो .....क्योंकि मेरे पास बातें कुछ खास है नहीं कहने को, बस वही बातें इधर उधर से पकड़ कर जब लिख देता हूं मन हल्का हो जाता है ...हां, अभी मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं तो मुझे याद आ गया कि इस पर तो मैं शायद एक डेढ़ साल पहले कल्याण में रहते हुए भी कुछ तो लिख चुका था...ब्लॉग में सर्च किया तो मिल गया...लेकिन मुझे बिल्कुल एक हल्का सा अंदाज़ा ही होता है कि मैंने उसमें क्या लिखा होगाा....लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं उसे लिख कर कभी पढ़ूं नहीं....और खास कर के अगर मुझे अपने किसी पुराने आलेख का लिंक नए आलेख में साझा करना हो...उस हालत में तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि मैं लिखते वक्त ज़्यादा सोचता नहीं ...कुछ तो सोचता ही हूं ..क्या करूं बंदे की जात ही ऐसी होती है ..वरना लिखने को तो इतना कुछ है कि ...खैर, मैं पुराने लेख के लिंक शेयर करते वक्त इसलिए भी उन्हें नहीं पढ़ता क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि बरसों पहले मनोस्थिति कैसी रही होगी, किस घड़ी में क्या लिखा गया...बहुत सी व्यक्तिगत बातें भी लिख देता हूं, इसलिए कभी बाद में पढऩे के बाद मुझे थोड़ा असहज भी महसूस हो सकता है, इसलिए फिर से पढ़ने के लटंके में ही नहीं पड़ता......बस, इतना इत्मीनान तो होता है कि जितना लिखा होगा सच ही लिखा होगा...शायद कहीं कुछ कड़वा सच छुपा लिया हो, हो सकता ही नहीं, होता भी है.....क्या करें, कुछ भी परोसते वक्त स्वाद का भी तो ख्याल रखना पड़ता है ...

दरअसल बात यह है कि मैं अकसर फुटपाथों पर बैठे जब छोटे छोटे दुकानदार देखता हूं तो मैं बहुत हैरान होता हूं ....मैं अकसर यही सोचने लगता हूं कि यार, ये कितना कमा लेते होंगे, फिर भी सामान्य ढंग से रह रहे हैं, एक दूसरे के साथ प्यार-मोहब्बत से पेश आते हैं ...इन लोगों के साथ मोल-भाव कोई क्या करेगा, बड़े बड़े स्टोर्ज़ ने, बड़ी बड़ी ऐप्स ने तो सच में इन की पीठ पर ऐसी चोट मारी है कि वे किस के आगे फरियाद करें...

इसे भी ज़रुर पढ़िएगा कभी ...आम, खरबूज़ा, तरबूज फीका है, अंगूर खट्टे हैं..

जब कभी किसी फुटपाथ पर आप किसी बहुत ही बुज़ुर्ग औरत को सब्जी बेचते देखते हो और उस के अच्छे बर्ताव को देखते हो तो अच्छा लगता है...फिर किसी दिन वह अपनी सब्जियों के बीच में थकी-मांदी सी लेटी हुई दिखती है तो चिंता होती है ...दिल से उसकी सलामती की दुआ निकलती है ...अगले दिन वह अपने टिफिन से इत्मीनान से रोटी-दाल, सब्जी खाती दिखती है तो थोड़ा इत्मीनान होता है ..जब हम कुछ फुटपाथों से आए दिन गुज़रते हैं तो हम वहां पर काम कर रहे लोगों को पहचानने लगते हैं ...

मुुझे नहीं पता कि कितने लोग मेरी इस बात से रिलेट कर पाएंगे ...क्योंकि यह एक दिन का काम नहीं है कि हम फुटपाथ पर हो कर आ गए, बाज़ार टहल आए....सोचता हूं कि शायद ये आदतें जवानी से ही नहीं, बचपन से ही पड़ जाती होगी....रोज़ बहुत से लोगों को देखना, उनसे बतियाना, उन को समझना....होता क्या है, यह करते करते एक वक्त ऐसा आ जाता है कि आप को कोई भी बंदा बुरा या गलत लगता ही नहीं ...सब कुछ चंगा ही चंगा लगने लगता है ...किसी की ज़िंदगी में क्या चल रहा है, हम आसानी से उस की कल्पना कर सकते हैं ...

दादर स्टेशन के बाहर सैंकड़ों दुकानदार फुटपाथ पर अपनी दाल-रोटी कमाने का जुगा़ड़ करते हैं...मैं यह ढंके की चोट पर कह सकता हूं कि ये जो लोग दिन में हर चीज़ की शिकायत ही करते हैं ...अगर वे कुछ दिन इन को आते जाते देख लें न तो ये शिकायत करना तो दूर, मुंह खोलने से पहले कईं बार सोचने लगेंगे। इतनी मुफ़लसी, छोटे छोटे बच्चे...औरतें बेचारी कुपोषित ही नहीं, अनपोषित ही समझिए...मां ही नहीं कुछ खा रही तो गोद उठाए शिशु को कहां से कुछ मिलेगा...पसीने से लथपथ कपड़े...किसी का मर्द उस के सामान के पीछे ही लेटा पड़ा है ...ज़रूरी नहीं कि इस तरह से सोया हुआ हर बंदा बेवड़ा ही हो ..वह बीमार भी हो सकता है, काम धंधा न होने की वजह से परेशान भी हो सकता है ..कुछ भी ....पैसे की कमी भी तो सब से बड़ी बीमारी है ...

एक बुज़ुर्ग 70-75 साल की औरत को अकसर देखता हूं ...उस के पास ताड़गोला रहता है, मुझे यहां मुंबई में रहते हुए अच्छा लगने लगा है...जब भी उस के पास ताड़गोला दिखता है, ज़रूर लेता हूं ...उस के पास ही उस का 10-12 साल का पोता भी बैठा होता है जो या तो मोबाइल पर लगा रहता है ..और या फिर दादी को कुछ दिलाने के लिए तंग करता दिखता है ...यह कोई बड़ी बात नहीं है, वह फुटपाथ पर बैठा है तो मैं उस के बारे में लिखने की गुस्ताखी कर रहा हूं ...लेकिन घरों में आज कल कुछ अलग नहीं हो रहा...खैर, उस बुज़ुर्ग औरत की भी दरियादिली मैं देखता हूं ...कभी उस को पाव-भाजी, कभी पिज़्जा, कभी मैक्केन जैसे पैकेट दिलाती है ...कभी उसे मोबाइल न देखने के लिए कहती है तो वह चिल्लाने लगता है ...सुबह से शाम तक ऐसे ही बैठे रहना, कितना सब्र रखना पड़ता होगा..

अच्छे ऐसे ही बिना किसी मक़सद के कभी कभी अनजान राहों पर, अनजान बाज़ारों में थोड़ा टहल लेने के फायदे तो अनेकों हैं ही ..कोई भी किताब ही लिख दे इस मौज़ू पर ... लेकिन मुझे यह फायदा हुआ कि मैंने इसी आदत की वजह से कम से कम तीन फल चख लिए और अब मुझे जहां भी दिख जाते हैं, ले लेता हूं ...फनस, ताड़गोला, और अंजीर....इससे पहले मैंने कभी ये सब नहीं खाया था ...अगर आप फनस के बारे में मेरी बात पढ़ना चाहते हैं तो मेरा यह एक पुराना लेख पढ़िए...

फनस...  लाजवाब स्वाद!! 




ताड़गोले बेचने वाला...

ताड़गोला तो मैं तीस साल पहले भी मुंबई के बड़े बड़े स्टेशनों पर बिकते देखता तो था..लेकिन पता नहीं था कि यह कमबख्त है ..लेकिन एक दो साल पहले जब किसी ताड़गोले वाले के पास खड़े हो कर उस का कमाल देखा तो बात समझ में आई तो तब से उसे खाना भी भाता है ... 

ताज़ी अंजीर भी खा ली ....😂...अब बचा क्या!!

अंजीर तो मैंने कुछ शायद पहली बार दो चार दिन पहली ही खाई ...हमें तो यही लगता था कि अंजीर सूखी ही होती है ...जो कभी कभी सुबह स्मूदी में पड़ी हमें नसीब हो जाती थी ...लेकिन कभी नहीं सोचा था कि यह ताज़ी भी मिलती है ....बस, वह भी ऐसे बाज़ार में आते जाते ही देखा ....अब खरीद तो ली, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि इसे छिलके के साथ खाना है या छिलका उतार कर ..परसों अपने एक डाक्टर साथी से पूछा कि इस का छिलका भी खा लेते हैं तो उन्होंने कहा कि हां, खाते हैं ...

हर इंसान के कुछ सपने होते हैं ...मेरे भी हैं.........एक तो यह .......लेकिन फिर कभी तबीयत से शेयर करेंगे आपसे वह सपना...क्योंकि दिल से सदा आ रही है कि बस कर, अब चुप भी कर ..हो गया आज के लिए तेरा मन हल्का ..और कितना हल्का करेगा...इसलिए अब जाते जाते एक बहुत अच्छा गीत याद आ रहा है ...जो मेरे लिए दुनिया में सब से बड़ा भजन है ...अरदास है ..क्या नहीं है ...इस में कही एक एक बात से मैं इत्तेफ़ाक रखता हूं ...
 
अच्छा, अब इस पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते माहौल बड़ा अजीब सा हो गया है ...इस का इलाज यही है कि किशोर कुमार का एक गीत सुन लिया जाए ...जिसे मुझे हमारे एक साथी ने दो चार दिन पहले याद दिलाया...वाह...क्या बात है!! ज़िंदगी ज़िंदाबाद...ज़िंदगी ज़िंदाबाद......सहज बने रहिए....😎

और हां, जो बातें मैंने कल्याण में रहते हुए लिखी थीं इस लेख में ..वह भी लगे हाथ पढ़ कर छुट्टी कीजिए..

आज यह सब लिखने में ही अपने तो तीन-चार घंटे ..... 😂लग गए .. जी हां, इतना वक्त लग गया, नेटफ्लिक्स की भाषा में फिल-इन-दा-ब्लैंक्स भरने की कोशिश मत कीजिएगा... ऐसे ही जगह खाली जगह छूट गई थी....

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

दो रंग दुनिया के ...और जीने के दो रास्ते

श्री लाल शुक्ल का एक मशहूर नावल राग दरबारी पढ़ रहा था ..कुछ कुछ रचनाएं जब पढ़ते हैं तो कुछ बातें जैसे दिल में बस जाती हैं...उस नावल में एक वाक्या है पुलिस अधिकारी और उन के चपरासी किसी सड़क पर नाके बंदी किए हुए हैं...ट्रक रोक रहे हैं..और ड्राईवरों के साथ पूछताछ के सिलसिले में श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं ...अफसरनुमा चपरासी, और चपरासी नुमा अफसर....बड़ा मज़ा आया उसे पढ़ कर ...मैं उस को इतने अच्छे से लिख कर ब्यां नही ंकर पाया...देखता हूं अगर यह नावल कहीं सामने ही रखा होगा तो उस पेज की एक फोटो शेयर करूंगा...चपरासी जिस रूआब से बात कर रहे थे, अफसरान उतनी ही दबी आवाज़ में पूछताछ कर रहे थे ...खैर, यह बात मैंने इसलिए कही कि हम कुछ हैं, कोई भी तीसमार खां हैं या नहीं हैं, यह सब पता भी तो लगना चाहिए...लेकिन बहुत बार पता लग ही नहीं पाता...

जिस तरह से पढ़े-लिखे और अनपढ़ में भी कईं बार फ़र्क करना भारी गिरता है.....आप को किस ने कहा कि जाहिल लगने के लिए अनपढ़ होना भी ज़रुरी है ..हम बिना किसी मेहनत-मशक्कत के पढ़े लिखे होते हुए भी अपने जाहिल होने का प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं ...बस, कुछ खास करना नहीं है, बस खांसते और छींकते वक्त पास खड़े और बैठे किसी बंदे का ख्याल नहीं करना है, जितनी ज़ोर से छींक या खांस सकते हैं उस से भी ज़्यादा ज़ोर लगाइए ताकि फेफड़ों की गहराई तक बिल्कुल अंदर तक कुछ बचा न रह जाए....बस, इतना भर कर लेने से ही हमारे आसपास के लोग हमारे बारे में बिना कुछ कहे ही जान लेते हैं....और अगर कहीं नाक में अंगुली घुसा तो फिर तो कहने ही क्या....जाहिलता का पक्का ठोस प्रमाण, आधार कार्ड से भी ज़्यादा पुख्ता, आस पास खड़े-बैठे लोगों में बंट गया...


दुविधा अब यह है मेरे लिए कि सार्वजनिक जगहों पर मैं मॉस्क पहनूं या न पहनूं....क्योंकि मेरे साथ लगभग हर बार ऐसा होता ही है कि जब भी मैंने मॉस्क नहीं पहना होता तो सामने से कोई न कोई मेरे मुंह के ऊपर छींक देता है या खांस देता है ...सच बताऊं, इस कोरोना वरोना ने इतना डरा दिया है कि उस की छींक या खांसी की बौछार किसी ए.के-47 से निकली बौछार से कम नहीं लगती। एक बात और भी तो है कि हर खांसी या छींक की बौछार जो हमारे मुंह तक पहुंच रही है वह हरेक तो कोरोना या टीबी के कीटाणुओं से लैस नहीं है, लेकिन फिर भी डर तो लगता ही है ...मैडीकल साईंटिस्ट कहां सब कुछ जान गए हैं ...कितने रहस्य तो अभी तो प्रकृति ने अभी भी छिपा कर ही रखे हुए हैं ...नहीं तो क्या आप को लगता है हम चुप बैठे रहते, हम कुदरत से और पंग करने लगते ....रब से छेड़खानी करने लगते ...सिर्फ छेड़खानी ही होती तो भी रब सब्र कर लेता लेकिन हम तो रब के साथ वह करने लगते जैसे पंजाबी में लोग एक बात कहते हैं जो लिखने लायक है नहीं ..अगर तो आप ख़ालिस पंजाबी हैं तो समझ जाएंगे, वरना आप को इसे समझने की ज़रूरत ही क्या है, क्यों बेकार के पचड़े में पढ़ रहे है...

हां, आज कल इतनी उमस है कि अगर मॉस्क पहने रहते हैं तो दम घुटने लगता है ..सच में, पसीना, घुटन और पता नहीं क्या क्या। और बिना मॉस्क पहन कर निकलने का हाल तो मैंने ऊपर लिख ही दिया है ... जब पास ही कोई छींक-खांस देता है तो मेरा तो सिर फटने लगता है ...यह तो है अपने सब्र का थैशहोल्ड 😎....इसलिए अभी तक यही असमंजस में हूं कि बाहर निकलते वक्त मॉस्क पहन लिया करूं या अब इसे दूर कहीं फैंक के छुट्टी करूं...

वैसे भी मैं सोच रहा था कि हमारी ज़िंदगी दुविधाओ से भरी होती है ..हर दिन हम कितनी बार दुविधा में होते है, हमें एक रास्ता चुनना होता है ...दुविधा लफ़्ज़ से अच्छा शब्द है दो रास्ते ...हमें दिन में कईं बार एक रास्ता चुनना ही होता है ...अब वह रास्ता हमने सही चुना या गलत...घटिया या बढ़िया...ये सब अपनी अपनी राय है ...लेकिन यह हकीकत तो है कि दिन भर के ये छोटे छोटे फैसले ही हमारी तकदीर बनाते हैं या बिगाड़ते हैं....वैसे यह बात इतनी सीरियस्ली भी लेने वाली है नहीं ..कभी ऐसा नहीं देखा कि अच्छे, बडे़ तर्कसंगत फैसले लेने वाला 150 साल तक जी लिया और घटिया फ़ैसले लेने वाले जवानी ही में लुढक गया...बस, इसे आप तक़दीर कहिए या तदबीर ...लेकिन दिन में हमें रास्ते तो दो दिखते ही हैं हर मोड़ पर ...यही है ज़िंदगी। 

कल मैं हजामत करवाने निकला...रात का वक्त था...जिस भी शहर में रहते हैं वहां एक नाई चुन लेते हैं और उस का भी कोई एक कारीगर ...हजामत करवानी है तो उसी से ..अगर वह नहीं होता तो वापिस लौट आते हैं ...कल भी ऐसा ही हुआ, नाई की दुकान बंद ...ये जो मैं लिख रहा हूं न हजामत, नाई, नाई की दुकान ...इन सब अल्फ़ाज़ में बाल कटवाने की पूरी रस्म है ....इन्हें पढ़ने ही से लग रहा है कि हां, हजामत करवाना भी कुछ अच्छी बात है ...बचपन में हम हजामत ही कहते थे, फिर थोड़ा पढ़ गए और अंग्रेज़ी सीख गए तो कटिंग कहने लगे ..फिर हेयर-ड्रेसर के पास जा रहे हैं, यह कह कर निकलने लगे ....

अच्छा, नाई की दुकान बंद थी...तो मैंने सोचा इतनी दूर आया हं यहां पर एक सर्कुलेटिंग लाईब्रेरी है ...बहुत पुरानी दुकान है, चलिए वहां ही जाया जाए। पूछता, ढूंढता मैं पहुंच गया जी उस दुकान पर...बहुत ही अच्छा लगा...जो बंदा वहां बैठा हुआ था, यह उन के पिता जी के वक्त की दुकान है ...65 साल पुरानी ...बता रहे थे कि दुकान अपनी है, इसलिए बैठे हुए हैं ...वरना तो घर का खर्च निकालना ही मुश्किल हो जाए...हज़ारों किताबें ठूंसी पड़ी हैं, और हज़ारों ही सीडी, डीवीडी ...किताबों से इतनी ठसाठस भरी दुकान देख कर मेरा तो सिर भारी हो गया...लेकिन मेरा वहां से बाहर आने का मन ही नहीं कर रहा था ..दस-पंद्रह मिनट वहां बिताए...और आते वक्त बिना किसी ज़रूरत के भी 200 रूपये की किताबें खरीद लीं...वह बंदा बता रहा था कि उन की मैंबरशिप है ..300 रूपये महीना ...जितनी मर्ज़ी किताबें कोई ले जाए रोज़ और महीने में जितनी चाहे किताबें पढ़ ले...हिंदी की किताबें तो सौ-पचास ही थीं, मराठी और गुजराती की किताबें तो फिर भी थीं ....और अधिकतर 90 फीसदी किताबें इंगलिश की थीं...मैं उस से 50-60साल पुुराना इल्सट्रेटेड वीकली, धर्मयुग और फिल्मफेयर मांग रहा था, उसने नंबर ले लिया है, फोन करेगा...वैसे इन की एक एक कापी तो मैंने खरीदी हुई है ...


हां, इस बंदे के सामने भी दो रास्ते हैं...कह रहा था कि सोच रहे हैं कि उसे थोड़ी मॉड लुक दे कर ..अब सी.डी निकाल दें, और यहां पर स्नेक्स के साथ किताबें पढ़ने के लिए जगह बना दें...जैसा कि आज कल ट्रेंड चल रहा है ..फिर कहने लगा कि वहां पर भी खाने-पीने पर ज़्यादा फोकस रहता है ...उस के मन में भी दुविधा ही चल रही है, ऐसा मुझे लगा ..इस काम को कैसे आगे ले जाएं....वैसे बंदा कुछ इमोशनल सा ही था जिसे पिता जी धरोहर से भी मोहब्बत तो बहुत थी लेकिन आगे ज़माने के साथ चलने की मजबूरी थी ...बता रहा था कि दूसरे शहरों से भी लोग, बडे़ बड़े अधिकारी उन के बच्चे, दूसरे देशों के भी लोग आते हैं ..उन के लिए लाइब्रेरी के नियम अलग हैं, वे एक महीने तक भी किताबें रख सकते हैं....

वहां खड़े खड़े मुझे अच्छा तो लग रहा था ...लेकिन किताबों की इतनी भीड़ में मेरा सिर दुख गया...जो घर पहुंचने के बाद भी...सोने तक दुखता ही रहा ...हर इंसान के सामने दो रास्ते हैं ...उसे अपनी समझ, अपनी तजुर्बे, अपनी ज़रूरत, अपनी तकदीर के मुताबिक एक रास्ता तो सुनना ही होता है...


आज सुबह मैं सैर करने निकला तो मुझे दो रास्ते फिल्म याद आ गई...स्टोरी तो पुरी याद नहीं लेकिन फि्लम बहुत अच्छी थी...अभी मैं मोबाईल पर इस फिल्म का गीत सुन ही रहा था कि सामने वह जगह दिख गई जहां इस फिल्म के हीरो राजेन खन्ना का बंगला आर्शीवाद हुआ करता था ...अब तो वहां पर आलीशान बिल्डींग बन चुकी है ...



यह दिल है मेरा या है इक यादों की अल्मारी ....😎


रविवार, 24 अप्रैल 2022

पिंजरे होने ही नहीं चाहिए....

सच में पिंजरे होने ही नहीं चाहिए...जिस का काम ही किसी की उड़ान में खलल डालने का हो, उस का वजूद भी किस काम का। मुझे पिंजरों से सख्त नफ़रत है...आप मन ही मन सोच रहे होंगे कि फिर क्या करें, चिड़िया घर के पिंजरों में कैद खतरनाक जानवरों का क्या करें, खुल्ला छोड़ दें, यह तू सुबह सुबह क्या बात कर रहा है....यही सोच रहे हैं न ...एक बात तो है कि अगर चिडि़या घर के अंदर बंद पिंजरों में कैद जानवरों की बात करें तो मुद्दे बहुत से हैं...इन जानवरों को भी बंद कर के रखना कितना मुनासिब है या नहीं, वह एक बड़ा मुद्दा है ...लेकिन इस वक्त तो मैं इन छोटे पक्षियों को छोटे पिंजरों में बद करने की बात करना चाह रहा हूं...

पिंजरों में बंद तोते बचपन से ही किसी न किसी के घर में देखते रहे हैं...उन के बोल सुन कर हैरानी होती थी, कभी यह सोचने की फुर्सत ही हमें कहां थी कि इस तोते को कैसे लगता होगा...बिना उड़ान के उस का भी तो दम घुटता होगा। बंद कमरों में कैसे हमारी जान पर भी बन आती है ...अभी ख्याल आ रहा है पंजाबी कॉमेडी की कुछ वीडियो का, पंजाबी के कुछ चुटकुलों का जिस में तोता को कुछ पंजाबी की गालियां सिखा दी जाती हैं...और फिर वह जब वह गालियां देता है तो सुनने वालों का पेट हंस हंस कर दुखने लगता है ...यह भी क्या बात हुई, इस वक्त मुझे एक भी ऐसा चुटकुला याद नही ंआ रहा, लेकिन मुझे ऐसे चुटकुलों ने बहुत हंसाया है..

लखनऊ में रहते थे तो वहां एक एरिया है नक्खास ...वहां पर कुछ दुकाने हैं, जहां पर सैंकड़ों रंग बिरंगे पिंजरे और सैंकड़ों रंग-बिरंगे छोेटे, छोटे प्यारे प्यारे परिंदे बिकते देखा करते थे ...मन खराब ही होता था जब लोग ये सब खरीद कर अपनी साईकिल या स्कूटर पर ले कर जाते थे...लखनऊ ही क्यों, अब तो जगह जगह ये सब कुछ बिकता ही है क्योंकि रंग बिरंगे परिंदे लोगों को खुश करते हैं ..

लेकिन यह तो कोई बात न हुई कि अपनी खुशी के लिए हम परिंदों को कैद कर दें...दाना-पानी कितना भी उम्दा हो, क्या फ़र्क पड़ता है, उड़ान भरने से तो उन्हें हमने वंचित कर दिया...कल किसी के ड्राईंग रूम में दो पिंजरे पड़े देखे..छोटे छोटे प्यारे प्यारे परिंदे उन में दिख रहे थे ..चुपचाप उदास से ही दिखे मुझे तो लेकिन उस के घर के बच्चे खुश थे...

रहम करो यार इन नन्हे परिंदों पर ...आज़ाद करो इन्हें 🙏

एक नौटंकी का ख्याल आ रहा है ...पहले तो खूब होती थी , आजकल भी होती होगी पता नहीं..क्योंकि मैं इस तरह की चोंचलेबाज़ी से कोसों दूर रहना पसंद करता हूं ...हम क्या देखते थे कि किसी त्योहार पर, किसी बड़े आयोजन के दौरान या उस से ठीक पहले कोई मुख्य अतिथि विथि टाइप का बंदा सैंकड़ों परिंदों को हवा में रिहा करता दिखता....मुझे यह सब बकवास बात लगती है...पहले इतने पक्षियों को तुम ने कहीं न कहीं से तो पकड़ कर कैद किया ही होगा कि यह बड़ा आदमी उन्हें आयोजन के वक्त रिहा करेगा...हां, बड़े बड़े राष्ट्रीय पर्वों के दौरान जब कैदियों के रिहा होने की बात सुनते हैें तो दिल खुश हो जाता है ...लेकिन ये सैंकड़ों परिंदों को आज़ाद करने वाली हरकत एक दम घटिया सी हरकत लगती है ..उन्हें वैसे ही चुपके से छोड़ दो, जिस जीव की फ़ितरत ही है उड़ान भरना, उसे भला क्या तुम आज़ाद करोगे, पहले तुम अपने पिंजरों से तो बाहर निकलो...

लेकिन हां, जब किसी परिंदे की जान पर बन आती है तो कोई नेक बंदा इन की सहायता कर के उ्न्हें उड़ान भरने में मदद करता है तो मन को जो सुख मिलता है वह ब्यां करना भी मुश्किल है, इन को उस वक्त उड़ान भरते देख कर मन खुशी से झूम उठता है ...पिछले रविवार अपने एक साथी ने गाज़ियाबाद से वॉटसएप पर एक वीडियो भेजी ...आप भी देखिए किस तरह से उसने एक परिंदे को आज़ाद किया जो किसी स्टेडियम में पड़े हुए किसी नेट में फंसा हुआ था...बहुत खुशी हुई उस की परवाज़ देख कर ....आप भी देखिए वह वीडियो ....



और हां, आज लिखते लिखते मुझे मेरे ब्लॉग की एक पांच साल पुरानी पोस्ट का ख्याल आ गया....यह लखनऊ की बात है...मेरी ओपीडी के बाहर लटक रही किसी तार में एक परिंदा उलझ गया...मेरे अटैंडेंट सुरेश ने कैसे उस की मदद की, यह आप ज़रूर पढ़िए...मैं अकसर सुरेश को यह याद दिलाया करता था ...अभी अपनी पोस्टों की लिस्ट में उस पोस्ट को ढूंढने लगा तो मुश्किल हो रही थी, फिर लिखा परिंदा परवाज़ और झट से वह पोस्ट दिख गई ...लेकिन पता नहीं ुकछ तस्वीरें, कुछ वीडियो उस में से गायब हैं...चलिए कोई बात नहीं, आप को तो उसे पढ़ने से मतलब है ...और मुझे तो वह भी नहीं क्योंकि मैं अपना लिखा कुछ भी दूसरी बार पढ़ने से बहुत गुरेज़ ही करता हूं ...क्योंकि हलवाई भी अपनी मिठाई नहीं खाता क्योंकि उसे ही पता रहता है उस की मिठाई में कितनी ख़ामियां हैं ....आप इसे पढ़िए ज़रूर ....

परवाज़ सलामत रहे तेरी ए दोस्त 

काश, जब परिंदों के रिहा होने की बात आती है तो मुझे ट्रकों में ठूंसे हुए मुर्गे-मुर्गियों का भी बहुत ख्याल आता है ..काश, इन ट्रकों के दरवाज़े अपने आप खुल जाया करें बीच बाज़ार में ...और ये परिंदे रिहा हो जाया करें.......लेकिन रिहा होने के बाद भी क्या, ये तो किसी का भी निवाला ही बनेंगे...आज कर वाट्सएप पर एक स्टेटस दिख रहा है कि दुनिया में सब से ज़्यादा मारा जाने वाला प्राणि मुर्गा ही है ..साथ में लिखा है जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की है, उसे मौत के घाट पर उतारा ही गया...। स्टेटस विचारोत्तेजक है बेशक। 

अभी मैं इस पोस्ट के लिए परिंदों से जुड़ा कोई गीत ढूंढ रहा था तो एक बहुत ही खूबसूरत गज़ल दिख गई ....मैं हवा हूं कहां वतन मेरा ...दश्त मेरा न यह चमन मेरा ... (इसे भी सुनिए)...दश्त का मतलब का जंगल....

सच में परिंदों का कहां कोई मुल्क है, कहां कोई मज़हब ...वह गीत भी तो है ..पंछी नदिया पवन के झोंके...कोई सरहद इन्हें न रोके ...गीत तो हमें इसी तरह से सुनने भाते हैं लेकिन परिंदे उड़ान भरें भी तो कैसे, उन्हें तो हम ने कैद कर दिया....और शेरो-शायरी भी ऐसी सुनते हैं कि ..इन परिंदो को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं.......लेकिन उन के पंख बंद कफ़स में खुलें तो कैसे खुलें...(क़फ़स - पिंजरा) ...परिंदों के मज़हब से जुड़ी एक दो बातें लखनऊ रहने के दौरान एक सत्संग में सुनी थी ...जो थोड़ी थोडी़ याद आ रही है, पूरी तो नहीं ...

परिंदे कभी मस्जिद पर जा बैठते हैं, कभी मंदिर पर ...कभी गुरूद्वारे पर ...उन के लिए सब एक ही है...

हम से तो अच्छी है परिंदों की ज़ात....कभी इधर जा बैठे, कभी उधर जा बैठे....

और एक बात ...

मस्जिद की मीनारें बोलीं, मंदिर के कंगूरों से ... 

हो सके तो देश बचा लो इन मज़हब के लंगूरों से ...

बचपन में मेरे जो साथी हाथों में गुलेल लेकर कबूतर या घुग्गी पर निशाना लगा कर पत्थर से वार करते थे, मुझे बहुत बुरे लगते थे ....मुझे यही लगता कि अभी तो ये पेढ़ों पर खुशी खुशी चहक रहे होते हैं और अगले ही पल ये कमबख्त दोस्त इन्हें मार कर नीचे गिरा देते हैं और सुना है कि कुछ तो बाद में घुग्गियों को पका कर खाते भी थे ...एक बात याद आई, हमें मां बताया करती थीं कि जब वह बहुत छोटी सी थीं तो नाना जी को यरकान (टायफाड) हो गया..तब कोई इलाज वाज तो था नहीं, कईं दिन तक रोज़ एक बटेर की ज़ख़्नी पीते रहे और ठीक हो गए....(ज़ख़्नी का मतलब सूप).....अब पता नहीं उन को क्या था, क्या न था, क्या बटेर किसी बीमारी का इलाज हो सकता है, लेकिन मां-नानी सुनाती थीं तो बड़े होने पर भी चुपचाप सुन लेते थे ...हमें तो नाना जी हमेशा ज़माने से आगे चलने वाले ही दिखे ....आज से पचास साल पहले रीडर-जाइजेस्ट पढ़ना, उर्दू में दूसरों के लिए कहानियां लिखना...जिन्हें हिंदी में अनुवाद कर के लोग कहां के कहां पहुंच गए...और नाना जी 82 साल की उम्र में भी मैथ और इंगलिश की ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे-पानी का जुगाड़ करते दिखे, अंबाला के नामचीन मास्टर जी ...उन की पुण्य याद को सादर नमन...कोई कोई बात जैसे दिल में बैठ जाती है...जब भी बचपन में ननिहाल गए...रात में सोते वक्त उन को एक रेडियो के बटनो ं के साथ जद्दोजहद ही करते देखा...कमबख्त वह रेडियो कभी चलते नहीं देखा....पता नहीं दिक्कत सिग्नल में थी या अपने नाना की जेब में ...उस वक्त यह पता नहीं था, आज पता है......लेकिन कहीं न कहीं मन तो दुःखी होता ही था... 

कट टू टॉपिक .... 👇

हां तो जिस पिंजरे वाले घर में हम गए थे ...उस बिल्डिंग से बाहर आने पर मैंने ऐसे ही एक शेयर दाग दिया...कुछ क़फ़स पर ही था कि सोने का हो या लोहे का ..क़फ़स तो आखिर क़फ़स ही है ....इतना सुन कर बेटे ने हमें भी कुछ याद दिला दिया - डैड, यह जो सुबह बस्ता डाल कर काम पर निकल जाते हो और शाम को थके-मांदे घर लौट आते हो ...यह भी तो एक क़फ़स ही है ...कोई ज़रूरत नहीं है न अब इस क़फ़स में बंद रहने की ....और सब हंसने लगे.......उसे लगा कि शायद मुझे कुछ अजीब सा लगा होगा, फिर कहने लगा कि मैं भी जो काम कर रहा हूं ..एक क़फ़स ही में रहने के मानिंद है ...फिर कहने लगा कि हर कोई ख़ुद के क़फ़स में कैद है डैड....लेकिन पहली बात उस की जो उसने मेरे बस्ते और थके-मांदे घर लौटने पर कही थी, वह बिल्कुल सही ठिकाने पर जा लगी थी ...इसलिए सोच रहा हूं ......क्या, .........सोच कर बताऊंगा ...

तोते पर गीत ढूंढने लगा तो कुछ बहुत आम गीत दिखे ...तोता राम कुंवारा रह गया जैसे गीत...फिर अपने बचपन के दिनों का एक बहुत खूबसूरत गीत याद आ गया...बोल रे मेरे तोते .......लेकिन मैं वहां गल्ती कर गया...बोल तो हैं...बोल रे मेरे गुड्डे ...चलिए, उसे ही सुनिए आज....मुझे यह गीत भी बहुत पसंद है ...अपने स्कूल में देखे हुए कठपुतलियों के खेल याद आ जाते हैं ...और ऊपर से इस का संगीत इतना मधुर - कानों में शहद घोलता हुआ...

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

बाग-बगीचों की सब से ज़्यादा ज़रूरत किसे?

सुबह सुबह निदा फ़ाज़ली साहब की बहुत सी अच्छी बातों में से एक इस वक्त याद आ रही है ...लगता है आज का दिन अच्छा बीतने वाला है ...

"बाग़ में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..

किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए..."

बचपन में जहां रहते थे पास ही एक अस्पताल था...जिस के बगीचे में हम लोग अकसर शाम के वक्त कुछ न कुछ खेलने या यूं ही मस्ती करने जा पहुंचते, कुछ और नहीं करने को होता तो तितलियों के ही पीछे भागते रहते, अंधेरा होने पर जुगनूओं का इंतजा़र रहता  ...मज़ा आता होगा तभी तो वहां जाते थे, वरना कौन कहीं जाता है। बस, वहां एक नियम था जो लिखा भी रहता था कि फूल तोड़ना मना है। शायद तब से ही पहले तो डर की वजह से फिर धीरे धीरे जब फूलों-पेड़-पत्तों से मोहब्बत सी हो गई फिर तो तोड़ने का सवाल ही न था...मंदिर जाने से पहले कहींं से फूल तोड़ कर ले जाना या घर में पूजा करते वक्त फूल तोड़ कर प्रभु के सामने रखना, यह कभी हम से हुआ ही नहीं...बस यही अहसास रहा कि प्रभु की नेमत को पेड़ से तोड़ कर उसी के सामने रख देने से क्या हासिल... 



हम 31 मार्च के दिन ही फूल तोड़ते थे ...हमारे घर में फूलों के बहुत से पेड़ थे ...सैंकड़ों फूल लगते थे...किसी फूल को तोड़ने वक्त हमारी जान निकलती थी ...हां, ्र31 मार्च वाले दिन हमारी बड़ी बहन पचास या उस से ज़्यादा फूल तोड़ कर एक चारपाई पर सूई धागा ले कर बैठ जाती हमें साथ बिठा लेती...और हमें गुलाब के फूलों का एक हार गूंथ देती ...और किसी कागज़ में लपेट कर हमें थमा देती कि जब हेडमास्टर साहब तुम्हारा रिज़ल्ट सुनाएं तो उन के पास जा कर उन के गले में इसे डाल देना...और हम चौथी जमात तक यह करते रहे ...उसके बाद तो फूल तोड़ कर या खरीद कर हार बनाना तो बहुत दूर, हम ने तो अभी तक की ज़िंदगी में कभी किसी के लिए एक बुके तक भी नहीं खरीदा और न ही कभी खरीदने की तमन्ना ही है ...

बस, मैं जब लिखने बैठता हूं तो पता नहीं कहीं का कहीं निकल जाता हूं....ये सब बातें भई फिर कभी लिख लेना ...पहले जिस बात को लिखने की इतने अर्से से सोच रहे हो उसे लिख कर बात खत्म करो....बस, यूं ही घुमा फिरा कर बात क्याें करते हो, मेरे दिल से आवाज़ आ रही है...

हां, तो हुआ यूं कि मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं वहां का गार्डन बहुत सुंदर है लेकिन वह खुलता साल में दो दिन ही है ...झंडे को जब फहराना होता है। मुझे इस बात का इल्म न था...जब मैं नया नया उस अस्पताल में आया तो एक दिन मैं उस का खुला गेट देख कर अंदर चला गया...लेकिन यह क्या, अभी तो मैंने सुंदर घास से नज़र ही न उठाई थी कि पीछे पीछे कोई सिक्योरिटी वाला आ गया ...आप अंदर नहीं जा सकते, बाहर आ जाइए। ठीक है, उस वक्त मैंने डाक्टरी सफेद चोला नहीं पहना था ...लेकिन इतनी बेरुखी सहने के बाद उस बदतमीज़ से सिक्योरिटी वाले से यह भी कहने की इच्छा नहीं हुई कि मैं वहीं पर काम करता हूं ..वैसे भी मुझे लगता है कि उस से भी वह टस से मस न होता ...और मुझे बाहर आना ही पड़ता...। उस बगीचे पर ताला ही लगा देखा है हमेशा। 

और जब अस्पताल के अंदर घुसते हैं तो मरीज़ और उन के तीमारदारों को यहां वहां बैंचों पर बैठे हुए या किसी कॉरीडोर में लगे बैंच पर लेट कर पीठ सीधी करते वक्त देखते हैं...इतने उदास चेहरे, इतने मायूस बच्चे, इतनी बुझी बुझी सी उम्मीद से बोझिल आंखें एक साथ देख कर कईं बार दिल हिल जाता है ...एक एक उदास चेहरे के लिए दुआएं ही निकलती हैं ...और यही लगता है कि बगीचे की उन को ही सब से ज़्यादा ज़रूरत है ..वे वहां पर लेटें, बैठें, आस का दामन पकड़े रहें ...जो भी दिल करें, वहीं बाग में करें ..क्योंकि रंग-बिरंगे फूल-पत्ते देख कर तनाव तो कम होता ही है बेशक, किसी भी शख्स का अक़ीदा भी पक्का होता है कि कुदरत साथ है तो कुछ भी मुमकिन है, यह अगर इतने अनेकों रंग-बिरंगे फूल पत्ते पैदा कर सकती है तो मरीज़ को टना-टन भी कर सकती है...और अगर मरीज़ भी कुछ वक्त वहां बिताए तो यह यकीनन उस के इलाज के लिए सोने पर सुहागे का काम करती है ...मेडीकल की किताबों में चाहे यह लिखा है या नहीं, मुझे नहीं पता ..लेकिन मैं तो आंखों-देखी और आप बीती ही लिख रहा हूं ...

जितने भी अस्पताल हैं उन के बाग मरीज़ों और तीमारदारों के लिए हर वक्त खुले होने चाहिए....मैं ऐसा सपना देखता हूं ...जब वहां कुदरत की गोद में बैठे बैठे थक जाएं तो उठ कर अपने बिस्तर पर जा कर लेट जाएं...यह भी अच्छा है ख़्वाब देखने में अभी कोई रोक-टोक नहीं है, नहीं तो मेरे जैसे बंदे को तो बहुत दिक्कत हो जाती ...

हम लोगों की उम्र इतनी हो गई है लेकिन जब भी बाग में जाते हैं कुछ न कुछ नया दिखता है, कोई नया फूल या नई बेल देखते ही मन झूम सा उठता है ...बिल्कुल सच बात रहा हूं ....उस दिन हम बाग में टहल रहे थे तो सुंदर सी बोगनविलिया की हैज देख कर बहुत खुसी हुई क्योंकि अकसर हम ने इस के पेड़ ही देखे हैं ...

इस के साथ एक फोटो लेने के लिए इसे राज़ी कर रहा हूं ...

जॉगर्स पार्क का एक नज़ारा 

पेड़-पौधे, पत्ते हरियाली ....यह टॉपिक मेरे लिए ऐसा है कि मैं इस पर हमेशा लिखता रह सकता हूं जैसे वे हमें खुशियां देते नहीं थकते, मैं इन के बारे में लिखते नहीं थकता....साफ साफ कहूं तो यह डैंटिस्ट्री विस्ट्री मुझे कभी करनी ही न थी, मुझे बॉटनी ही पढ़नी थी और अच्छे से पढ़नी थी क्योंकि मुझे फूल-पेड़ शुरू ही से अच्छे लगते थे ..लेकिन वही थ्री -इडिएट्स वाली कहानी की स्क्रिप्ट 40-42 बरस पहले हमारे घर में भी तैयार हो रही थी ..पिता जी को दफ्तर में खन्ना साहब ने बता दिया कि उन का बेटा बीडीएस कर रहा है, और यह कोर्स करने पर नौकरी मिल जाती है ....बस, फिर क्या था, हम भी चुपचाप भर्ती हो गए...

राजेश खन्ना गार्डन, खार (वेस्ट) 

बहुत से बाग बगीचों में प्रवेश शुल्क है ... यह नहीं होना चाहिए, सरकार को कहीं और से टैक्स वगैरा बढ़ा कर यह काम कर लेना चाहिए..बाग बगीचों के अंदर दाखिला तो खुल्लम-खुल्ला होना चाहिए...जब किसी का दिल करे, कोई बोझ महसूस हो...तो इन कुदरती सेहत केन्द्रों पर पहुंच कर उलझे हुए दिल के तार सुलझा ले, ताज़गी महसूस करे, फूल-पत्तियों को देख कर कुदरत की कभी न समझ आने वाली संभावनाओं पर हैरान हो ले, जीने की तमन्ना अच्छे से जगा ले ...और परेशान रूहें वहां जाकर सुकून पा सकें....ये सब किताबी बातें नहीं हैं....ऐसा होता है ..हमें बस लगता ही है कि बड़े बड़े अस्पताल, वहां पर रखे करोड़ों के औज़ार और बड़ी बड़ी डिग्रीयों वाले डाक्टर ही हमें सेहतमंद रख सकते हैं.....कुछ हद तक ही यह ठीक है...वे हमें रास्ता दिखा सकते हैं....उस पर चलना या न चलना तो अपने हाथ ही में है ...


इस लेख के साथ मिलता जुलता एक लेख यह भी रहा ... 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

महीनों बाद हुई आज साईकिल की सवारी

सुबह 5 बजे के करीब उठ तो गया...चाय भी पी ली..लेकिन वही भारी सिर ...क्या करे कोई ऐसे सिर का ...वैसे भी ड्यूटी से आने के बाद ऐसे लगता है जैसे बस लेटे ही रहें...पीठ अकड़ी हुई, घुटने टस टस करते ...एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते ऐसे लगता है जैसे 90 बरस तक जी चुके हैं...बिल्कुल ऐसा ही है, और यह हाल तब है जब कि कोई मेहनत का काम नहीं है, खुद को ए.सी कमरों में ठूंसे रखना है ...हां, तो आज सुबह सोचा कि साईकिल पर ही गेड़ी लगाई जाए...लिखे भी कोई कितना लिखे, वैसे भी कौन सा लिख लिख कर पद्म-विभूषण मिल जाना है, अगर मिल भी जाए तो भी क्या!!😎

मैंने किसी राहगीर को कहा कि एक तस्वीर ही खींच दे...पीछे बोर्ड में दिख भी रहा है जुहू तारा रोड़ 

मैंने शायद अपनी किसी पोस्ट में लिखा था कि मैं एक डेढ़ बरस पहले साईकिल रोज़ाना चलाने लगा था ...फिर एक दिन कॉलोनी के और फिर एक दिन वार्डन रोड के कुत्ते पीछे पड़ गए...बस, उस दिन के बाद सुबह सुबह साईकिल पर निकलना बंद सा ही हो गया...और बंबई जगह ऐसी है कि यहां पर इस तरह के शौक साईकिल पर टहलना वहलना अगर मुंह अंधेरे हो जाए तो ठीक, वरना दिन चढ़ते ही जैसे ही बंबई नगरी जाग जाती है तो फिर ये सब काम बेहद जोखिम के लगते हैं...उस के बाद तो सड़कों से डर लगने लगता है ...इसलिए मैं उस के बाद फुटपाथों का रुख कर लेता हूं ..😁

कुत्तों के डर से अपने साथ एक छोटी सी स्टिक रख ली आज...और कोई भी काम इतने दिनों बाद करो तो उसे शुरू करने से पहले ही बोरियत सी तो होती है ...इसलिए जेब में मोबाइल पर रविंद्र जैन के गीत लगा लिए ...उन के गीत सुनना बहुत अच्छा लगता है ...लेकिन एक बात तो है, जैसे वो कहते हैं न कि घर से बाहर निकलने की ही देरी होती है ..तबीयत एक दम हरी होने लगती है ...

इसीलिए मैं हरेक को कहता हूं कि घर से बाहर निकलना बहुत ज़रुरी है ..पैदल, साईकिल पर ...कैसे भी ...बस, बहाना ढूंढिए घर से बाहर जा कर दुनिया का मेला देखिए...मुझे कोई कहता है कि इतना चल नही ंपाते, मैं उन्हें कहता हूं कि जितना चल पाते हैं, उतना चलिए...कोई रेस थोड़े न लगा रहे हैं, बस थोड़ी सी खुशी बटोरने निकले हैं...हंसते-मुस्कुराते चेहरे, रंग बिरंगे फूल, कुछ नेक रूहें जो सुबह सुबह राह पर इंतज़ार करते छोटे जानवरों के खाने के लिए कुछ ले कर आते हैं उन्हें देख कर तो दिल में जो अहसास उमड़ते हैं उन्हें कोई कैसे ब्यां करे...सच में ये जानवर उन का ऐसे इंतज़ार कर रहे होते हैं जैसे बच्चे अपनी मां की रसोई में पक रहे खाने का करते हैं...अभी याद आया कुछ दिन पहले एक ऐसे ही लम्हे को अपने मोबाइल में कैद किया था ...

जो लोग चल ही नहीं पाते, मै उन को लाठी से ही नहीं, वाकर से भी चलते देखा है ...लेकिन वे लोग निकलते ज़रूर हैं घर से ..अगर बिल्कुल ही कुछ नहीं हो सकता, तो दो पहिया चार पहिया पर सवार हो कर जाइए और किसी पार्क में ही जा कर बैठिए...आते जाते दुनिया का तमाशा देखिए...ताज़गी मिल जाएगी...हां, एक बात याद आई कि घूमने से ख्याल आया कि ये जो रेलवे स्टेशन हैं न ये भी एक ऐसी जगह हैं जहां पर सारे हिंदोस्तान के दर्शन आप कर सकते हैं....हर प्र्रांत का बंदा, हर मिज़ाज का शख्स, शरीफ़ से शरीफ़, खुराफाती से खुराफाती,  जेबकतरे, फांदेबाज़, चेन-स्नेचर, फेरी वाले, रईस, फकीर, गायक ......शायद ही कोई तबक हो जो यहां पर हमें नहीं दिखता। मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि रेेलवे प्लेटफार्म आना, ट्रेन में सफर करना भी एक फिल्म देखने जैसा ही है, ज़िंदगी की एक किताब पढ़ने जैसा ही है ... 

किशोर कुमार का घर दिख गया, गौरी कुंज ....बस, अपना दिन बन गया...😀😀
सुबह के वक्त की छटा ही निराली होती है ...साईकिल पर चलते चलते मुझे बीस पच्चीस मिनट हो गए तो मैने देखा कि बंबई की सड़कें जाग गई हैं...बस, वहीं से लौटने का मन बना लिया...सामने देखा तो के.के.गांगुली मार्ग लिखा था ....और उस के ठीक सामने किशोर कुमार का बंगला था ..हां, एक बात का ख्याल आ रहा था कि लोग सुबह सुबह धार्मिक जगहों पर जाते हैं, बड़े बड़े ग्रंथ पढ़ते हैं...जो भी कोई करता है मुबारक है ...लेकिन मुझे तो कुछ पुराने गीत ही भजनों जैसे लगते हैं, और अगर मन लगा कर सुनते हैं तो धर्म जो हमें सीख देते हैं ...वही सीख ही इन में भरी होती है बहुत बार ..इसीलिए भई मुझे तो इन महान फ़नकारों के घरों के सामने से जब गुज़रने का मौका भी मिल जाता है ...मैं अकसर कहता हूं कि मुझे यह किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं लगता ..

लगता है यह बोर्ड ताज़ा ताज़ा ही लगा है ...साधु वासवानी को सादर नमन🙏

ये लोग कोई आम लोग नहीं थे, सब के सब रब्बी लोग थे ...ये जो कर गए, ये उन्हीं के बस का काम था...जहां रहता हूं, और जहां ड्यूटी के लिए जाता हूं, उन दोनों जगहों में काफी दूरी है ...लगभग दो -ढाई घंटे तो आने जाने में लगते हैं ...लेकिन आते जाते जब कभी नौशाद साहब का घर, गुलजार साहब का घऱ, आनंद बख्रशी के घर की तरफ़ जाती सड़क, रविंद्र जैन चौक, मोहम्मद रफी चौक, आरडीबर्मन चौक, महेन्द्र कपूर चौक जैसी हस्तियों के नाम ही दिख जाते हैं तो आने जाने की परेशानी कितनी तुच्छ लगती है ...ऐसे लगता है कि वे लोग अभी यहीं कहीं है ..किसी दरवाज़े से बाहर निकलते हुए दिख जाएंगे...

निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं ...

सब की पूजा एक सी...अलग अलग हर रीत...

मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत ..


मैं आज कल यह किताब पढ़ रहा हूं ..इस के कुछ पन्ने पढ़ कर ही मुझे साईकिल चलाने के लिए बाहर निकलना पड़ा....देखता हूं कितनी दिन इस किताब में लिखी बातों को मान पाता हूं ...एक दम का आलसी बंदा हूं मैं भी ...लेकिन हां, आप यह देख रहे होंगे मैंने इस किताब को उस स्टैंड पर रखा है जिस पर धार्मिक पोथी रखते हैं क्योंकि इस के बारे में मेरा स्टैंड यह है कि जो भी किताब हमें जीने की राह दिखाए, अच्छी ज़िंदगी की तरफ़ इशारा करे ...वे सभी किताबें हमारे लिए धार्मिक ही हैं...जो लोग भी रचनाकार है, सृजन कर रहे हैं ...वे खुद नहीं ये सब कर सकते, ईश्वर ही इन के घट में बैठ कर यह सब लिखवाता है, पेंट करवाता है, सुरों में ढलवाता है ...

मुझे आज सुबह एक ख्याल आया, कैसे आया , यह फिर कभी लिखूंगा ...ख्याल यही आया कि दुनिया में सब से भयंकर क्या चीज़ हैं...तो मुझे लगा कि इस सारी कायनात में सब से डरावनी चीज़ है किसी लाचार, बेसहारा की आंखें....बिना उस के मुंह से कुछ बोले वे सब कुछ ब्यां कर देती हैं..और अगर हमें इन बेबस आंखों से भी डर नहीं लगता तो इस का मतलब साफ है। और ये वही बेसहारा आंखें होती हैं जो किसी तिनके के सहारे की तलाश में होती हैं...बात तो मैं बहुत बड़ी कह गया, लेकिन है यह बिल्कुल प्रामाणिक। कभी फुर्सत में इस के बारे में चर्चा करेंगे। बस, यही इल्तिजा है कि और किसी चीज़ से डरिए या न डरिए, इस तरह की सहमी हुई बेबस आंखों से ज़रूर डरिए...

प्रामाणिक तो और भी बहुत कुछ है...यह होर्डिंग ही देख लीजिए, हमारे घर के पास ही एक बिल्डींग बन रही है, और बिल्डर इतनी ठोस प्रामाणिकता से कह रहा है कि इतने महीने, इतने घंटे और इतने मिनट तक उसे आक्यूपेशन सर्टिफिकेट (ओ.सी) मिल जाएगा...

अब मेैने कंकरीट के जंगल की बातें शुरू कर दीं ..इस का मतलब है अब इस पोस्ट को यहीं पर समेट देने का वक्त है...आइए, जाते जाते रविंद्र जैन के ज्यूक-बॉक्स से एक गीत सुनते हैं .. हिट्स आफ रविंद्र जैन ...ज्यूक-बॉक्स .... हां, मेरा सिर का भारी पन पता ही नहीं कहां चला गया है...ईश्वर की अपार कृपा है, शुक्र है...सब ख़ैरियत से, प्यार-मोहब्बत से रहें....🙏