जी हां, ऐसा ही हुआ अपने साथ इस गुज़रे एतवार के दिन ...२ घंटे चल तो लिया ..लेकिन उस के बाद घुटनों की ऐसी हालत हो गई कि अगले १० घंटे करने के बाद ही वे सामान्य चलने के क़ाबिल हो पाए...और देखा जाए तो यह कोई ऐसा वैसा श्रम भी तो नहीं ...खैर, १० किलोमीटर चलना हो गया...इस के लिए भी मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हूं ...
दरअसल उस दिन सुबह मेरा इतना लंबा टहलने का कोई पहले से कोई मंसूबा था नहीं ...अचानक दो मिनट में लिया गया फैसला था...क्योंकि न तो मैंने कोई वॉकिंग शूज़ ही पहने हुए थे ...मैंने एक रेन-वियर टाइप के जूते पहने हुए थे ...उन को पहने हुए चलना वैसे भी उतना सुविधाजनक होता नहीं जितना ऐसी लंबी वॉक के लिए जूतों को होना चाहिए...खैर, जब बंदे पर कोई खुमारी चढ़ी हो तो फिर उसे उतारने के लिए जूते कहां आड़े आ सकते हैं...
जी हां, उस दिन मौका था ...वलसाड़ के तीथल बीच पर ५, १० और २१ किलोमीटर की मेराथन आयोजित की गई थी ...मैंने कभी किसी मेराथन में हिस्सा नहीं लिया अभी तक ..लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता ..हो भी कैसे, क्योंकि चपटे पैर (फ्लैट-फुट) की वजह से मेरे घुटनों की हालत मुझे इस तरह के शौक पूरा करने की इजाजत ही नहीं देते...हां, प्रभु की कृपा से चलने-फिरने के लिए घुटने चल रहे हैं...यही बड़ी बात है ...चलने के बाद उन्हें आराम भी करवाना बहुत ज़रूरी होता है ...
उस दिन भी ऐसा ही हुआ....सुबह सुबह दो घंटे मैंने चल तो लिया....लेकिन घुटनों की हालत ऐसी हो गई कि एक बार तो लगा कि कहीं ये हमेशा के लिए तो बरबाद नहीं हो गए...घर पहुंच कर वॉश-रूम तक जाना भी दूभर हो गया....एक बार तो लगा कि मैंने यह पंगा लिया ही क्यों...अपनी उम्र का नहीं तो कम से कम घुटनों का ही ख्याल कर लेता...खैर, ये सब ख्याल इवेंट के बाद में ही आ रहे थे ...शुक्र है ...
और जहां तक उम्र की बात है ...उस दिन मै जब बीच में गया तो मेरा मेराथन में भाग लेने का कोई इरादा था ही नहीं ...मुझे तो बस कुदरत का नज़ारा लेना था और तीथल बीच पर स्थित स्वामीनारायण मंदिर में एक-दो घंटे बिताने थे ...मैंने पहले भी किसी पोस्ट में लिखा था कि वलसाड़ का तीथल बीच बहुत ही सुंदर है ...साथ ही बहुत साफ़ भी है ...अच्छा लगता है वहां जाकर ..जैसा इंसान अपने आप को भूलने पर मजबूर हो जाता है ..कभी मौका मिले तो ज़रूर हो कर आइए...ज़्यादा दूर नहीं है ...बंबई और बड़ोदा के लगभग बीच में ही है ...दोनों जगहों से तीन घंटे की दूरी पर है ....और सूरत से एक घंटा लगता है ट्रेन में ...बंबई से अपनी गाड़ी में जाएं तो भी इतना वक्त तो लगता ही है ..
लेकिन मुझे तो छुक छुक गाड़ी में ही बैठ कर ही मज़ा आता है ...ठीक है ...कोयले से चलने वाले स्टीम इंजन की छुक छुक अब नहीं सुनने को मिलती लेकिन ट्रेनों से जुड़ी बचपन की सभी यादें तो ताज़ा हो जाती हैं ....गाड़ी में सफर करते वक्त ..कैसे हम लोग गाड़ी चलने से एक घंटे पहले ही अमृतसर स्टेशन के प्लटेफार्म नंबर एक पर अपने साथ लेकर जा कर बड़े बड़े लोहे के ट्रंक के ऊपर बैठ कर पूरी-आले का आनंद लेते, चंदामामा भी खरीद लेते और ५ रूपये वाला स्कूटर भी ..और ज़्यादा वक्त ट्रंक पर टिक नहीं पाते तो साथ ही पडे बड़े से बिस्तरबंद पर मस्ती करने लगते ....और हां, साथ में पड़ी पानी से भरी सुराही का ख्याल ज़रूर कर लेते जिसे उसी वक्त स्टेशन के बाहर से खरीदा जाता ..शायद यही कोई चार पांच रूपये में ....सच में बहुत मज़े थे उन दिनों के भी ...अब जिन लोगों ने वे दिन जिए हों उन के लिए हिंदी इंगलिश में निबंध लिखना क्या मुश्किल होगा ...Scene at the Railway Station!
हां, तो उस दिन सुबह जब सवा छः बजे के करीब १० किलोमीटर की मेराथन शुरू होनी थी ...इस में भाग लेने वाले सभी पूरी तैयारी में थे...उस इवेंट की टी-शर्ट पहनी हुई थी ...साथ में अपनी आई-डी का स्टिकर भी लगाया हुया था...और जहां तक उम्र की बात है ...मेरे से भी बड़ी बड़ी उम्र के और मुझ से भी ज़्यादा खाते-पीते लोग (पंजाबी में भारी भरकम नहीं कहते, खाते पीते लोग कहते हैं...इसलिए मुझे पंजाबी ज़ुबान बहुत अच्छी लगती है ...😎)...बस, जैसे ही उस दिन धोल-धमाके साथ उस मेराथन का आगाज़ हुआ...मुझे भी ख्याल आया कि ठीक है ये लोग इस इवेंट में भाग ले रहे हैं, बीच ही थोड़े न खरीद ले रहे हैं...यह तो सब के लिेए खुला है ....मुझे भी चलना चाहिए....अपनी स्पीड से ही सही ...उसी वक्त मुझे अपने साथी डाक्टर राज कुमार की लिखी किताब का ख्याल आया ...Run at your pace! वह ब्लॉग भी लिखते हैं ..उन के कुछ ब्लॉग्स का लिंक यह रहा ... डा राज कुमार का ब्लाग और एक यह भी है ...
जैसे ही उस मेराथान का काफिला स्टार्टिंग-प्वाईंट से रवाना हुआ...मैंने भी चलना शुरू कर दिया....एक तो समंदर का वह किनारा इतना साफ सुथरा और रमनीक है कि किसी का भी मन वहां पर ज़्यादा से ज़्यादा वक्त बिताने को मचल जाए...मैंने चलना शुरू किया कि ठीक है चलते हैं, जितना हो सकेगा...ठीक है ...मैंने कौन सा किसी मेडल के लिए आया हूं ...मेरी उम्र तक पहुंचते पहुंचते इन सब मेडलों वेडलों की तृष्णा शांत हो जानी चाहिए...क्योंकि यह वह वक्त है जब बाहरी मेडलों की बजाए...खुद को मेडल देने का वक्त होता है ...और कोई पीठ थपथपाए न सही, अपनी पीठ खुद ही थपथपानी होती है ....है कि नहीं...
तो जनाब ...मैं भी चलता गया...मेरा भी पहला अनुभव था इस तरह से इतना लंबा बीच पर चलने का ...लेकिन मैंने मोबाइल पर अपने पसंद के हिंदी फिल्मी गीत चलाए हुए थे ...इसलिए वक्त आराम से कट रहा था...एक एक किलोमीटर पर मेराथान आर्गेनाइज़ करने वालों की तरफ़ से पानी के, नींबू पानी या अन्य किसी तरह की मदद के लिए स्टॉल लगे हुए थे ....मैं तो वहां नहीं गया...क्योंकि मैं तो अपनी मन की मौज के लिए चल रहा था...
कुछ बातें जो उस दिन इतना चलते चलते महसूस हुई वह यह कि कुदरत के साथ रहना कभी बोर नहीं करता....हमें कुदरत के अलग अलग रंगों का आनंद लूटने का मौका मिलता है ... जैसे ही रोशनी घटती-बढ़ती है, सारा नज़ारा ही बदल जाता है ...रेत पर तरह तरह के डिज़ाईन, किनारे पर पड़े छोटे छोेटे पत्थर जिन्हें उठाने की इच्छा नहीं होती कि इन को भी इन के साथियों का साथ भाता होगा, क्या करेंगे इन्हें उठा कर घर के किसी कोने में रख कर ....और भी कईं मंज़र ऐसे दिखते हैं जो पहले कभी नहीं देखे होते ...
चलिए, मैं लगभग एक घंटे में पांच किलोमीटर चल कर उस यू-प्वाईंट तक पहुंच गया जहां से मेराथन के प्रतिभागियों को अपने टैग को स्कैन करवा के वापिस लौटना था ...मुझे तो ऐसे किसी झंझट में पड़ने की ज़रुरत ही न थी ...मैंने भी वहां से यू-टर्न ले लिया...घुटनों की वजह से थोडा़ महसूस हो रहा था ...बीच बीच में यह भी लगा शुरुआत मेंं कि घुटने जितना शुरूआत में थके-मांदे से लग रहे थे, एक दो किलोमीटर चलने के बाद घुटने के उस थकेलेपन में सुधार ही हुआ था ...
यहां कुछ ड्रिंक्स बिक रहे थे ... |
और हां, उस दिन बीच पर दो गाएं भी दिखीं... |
यूं ही कट जाएगा सफ़र साथ चलने से ... |
कुदरत के पास जाते हैं तो हर बार उस का नया ही रूप देखने को मिलता है, जैसे वह कोई राज़ की बात हम से साझा करने की फ़िराक में हो ... |
रेत की अपनी दुनिया है, अपने राज़ हैं.... |
लेकिन पूरा दस किलोमीटर चलने के बाद घुटनों की जो हालत हुई वह तो मैं पहले ही दर्ज कर चुका हूं ...खैर, वापिस लौटने पर देखा कि वहां जश्न का माहौल है ...कुछ लोग गरबा नृत्य करने में मस्त थे और मैं यह सोचने में व्यस्त था कि क्या इन के शरीर में अभी भी इतनी ताकत बची हुई है कि इन से यह सब हो पा रहा है ......किसी से पूछा तो उसने ज्ञान बांटा कि कुछ हासिल करने की जब खुशी होती है तो इंसान कुछ भी कर सकता है ... बात तो पते की लगी।
दो घंटे के ऊपर पांच सात मिनट लगे मुझे भी दस किलोमीटर की पैदल यात्रा पूरी करने में |
जो भी हो, उस दिन इतना चल कर अच्छा तो लगा ....वह कहते हैं न अपने लिए ही सही ...एक हिस्ट्री बन जाती है कि फलां फलां दिन मैं इतना चला था ...और इस तरह की हिस्ट्री की शीटें ही हैं जो कभी हमें प्रेरित करती हैं, कभी खुश करती हैं ....कभी फिर कुछ नया करने के लिए उकसाती हैं, जो भी है कुछ न कुछ तो नयापन बना रहना ही चाहिए...वरना ज़िंदगी है ही क्या....कुछ उमंग, कोई उत्साह, कोई छोटा मोटा ही सही लेकिन एडवेंचर ....कुछ तो हो यार जिसे ज़िंदगी कहा जा सके ...
और हां, घुटनों को आराम देने के लिए अगले दिन छुट्टी लेनी पड़ी ....खुद पर हंसी भी आ रही थी ....वैसे भी किसी दूसरे की बजाए अपने ऊपर हंसना कितना आसां है, कितना सुखद है....यह हम सब जानते ज़रूर हैं, दिल में कबूलते भी हैं ......लेकिन बस अपनी बेवकूफियों पर हंसते कम ही हैं...और दूसरों के सामने तो बिल्कुल नहीं और लिख कर कबूलना तो बहुत दूर की बात है ....इत्मीनान रखिए....कुछ नहीं होगा...किसी को हमारी ज़िंदगी से कुछ लेना देना नहीं है, हमें अपने जीने का अंदाज़ खुद तय करना पड़ता है ....जिसे मैं भी थोड़ा सीखने की कोशिश में लगा तो हूं ...
बंबई में बरसात हो रही है, ऐसे वक्त में रिमझिम बरसात वाला कोई गीत सुनते हैं ...