आज सुबह ६.३० बजे के करीब इच्छा हुई कि टहलने जाया जाए...
कोहरा बहुत घना था, लेकिन फिर भी लोग घर के पास ही बाग में टहल तो रहे ही थे...
मैं भी टहलने के बाद एक जगह जब शांति से बैठ गया...पास ही बैठे एक सज्जन अपने एक मित्र से बतिया रहे थे कि अच्छा है, कोहरा इस बार अच्छा पड़ रहा है, उन्हें कह रहे थे कि हमें कोहरा बहुत अच्छा लगता है और विशेषकर इस में टहलना...
मित्र को बता रहे थे कि वैसे तो हम कभी आलस कर भी जाते हैं लेकिन इतने कोहरे में ज़रूर घर से निकल पड़ते हैं...और बाग में तो और भी अच्छा लगता है, इतने तरह के पेड़-पौधे देख कर मन खुश हो जाता है ...
मुझे इस सज्जन की बात अच्छी लगी ...जहां पर मैं बैठा था, पास ही में बहुत से आंवले के पेड़ लगे हुए हैं, अकसर आते जाते आंवले गिरते हुए दिख जाते हैं...
चलिए, यह तो हुई कोहरे की, आंवले की बात ...अब करते हैं नोटबंदी की बात....
इस ब्लॉग पर मेरी पिछली पोस्ट की डेट थी ८.११.२०१६ ...और उसी दिन रात में प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का एलान कर दिया था...मुझे अपने आप में लग रहा था कि मेरे जानने वालों को लग रहा होगा कि पुराने नोट ठिकाने लगाने में मैं इतना व्यस्त हो गया कि ब्लॉग पर लौटना ही भूल गया...नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, दो चार नोट ही थे, वे पेट्रोल पंप में लग गये थे, १० नवंबर की शाम १० मिनट बैंक की लाइन में लगा था और सौ-सौ रूपये का दस हज़ार का बंडल मिल गया था...कुछ दिन बाद मैंने एसबीआई की पर्सनल बैंकिंग ब्रांच में खाता खोल लिया...वहां पर किसी भी समय जा कर कम से कम दो हज़ार रूपया तो निकलवा ही लेते हैं...
प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय की मैं दाद इसलिए देता हूं क्योंकि इतने बड़े फैसले के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए ...वरना तो इस व्यवस्था में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को उस की मनपसंद जगह से हिलाने पर हंगामा खड़ा हो जाता है और वह वापिस अपनी पुरानी जगह पर लौट कर ही दम लेता है....मैनेजमंट का यह भी एक उसूल है कि फैसला होना चाहिए...फैसले की गुणवत्ता पर चर्चा बात में हो सकती है ...और प्रधानमंत्री जिसे प्रजातांत्रिक ढंग से हम ने स्वयं चुना है, वह जनहित में कोई भी निर्णय तो ले ही सकता है....पक्ष और विपक्ष की बातों की दौर भी चलना ज़रूरी है ....और चल ही रहा है ३५ दिनों से ....
एक बात और , बहुत लंबे समय तक कम्यूनिकेशन का विद्यार्थी रहा हूं...केवल थ्योरी ही समझ पाया हूं ...व्यवहारिक तौर मेरे संवाद में भी सभी खामियां मौजूद हैं, मैं जानता हूं ...लेकिन इन के बारे में अपने आप को सचेत करता रहता हूं...
एक विचार दो चार दिनों से आ रहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि हम किसी को अपशब्द कह कर ही अपमानित करें, हम अकसर जब झुंड में बैठे हों तो अपने शब्दों के चयन पर ज़्यादा ध्यान देते नहीं हैं....mob mentality मजदूरों के झुंड में ही नहीं होती, पढ़े लिखे इन्टेलेक्चुएल लोगों में यह अलग रूप में पाई जाती है....
आप कभी सोचिए कि जब हम लोगों का किसी से one-to-one ईन्ट्रेक्शन होता है तो हम अलग होते हैं, जब कोई तीसरा उस संवाद में घुस जाता है तो हम थोड़ा नाटकीय होने लगते हैं, और जब हम ग्रुप में होते हैं (ग्रुप या झुंड ...झुंड ही ठीक लगता है) तो हम बेलगाम हो जाते हैं....हर परिस्थिति में होने वाले संवाद की अपनी विशेषताएं हैं...काश, हम इन्हें अच्छे से समझ पाएं...मैं भी मरीज़ों एवं उनके अभिभावकों के साथ इंट्रेक्शन के समय इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं ....no compromise on this!
अपशब्द तो बहुत दूर की बात है, आज कौन किस की सुनता है, हम अपनी कही हुई बात की टोन से भी किसी दूसरी को नीचा दिखा सकते हैं.....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर कोई व्यक्ति पलट कर जवाब नहीं देता तो यह उस की महानता है...झुंड में बैठे लोग मन ही मन इस का संज्ञान लेते हैं ...चाहे वे वहां जुबान खोले या ना खोले...
मैं भी सुबह सुबह बेकार का फलसफा झाड़ने लग गया, बात केवल इतनी सी है कि हमारा किसी से मतांतर हो सकता है लेकिन किसी को भी किसी तीसरे के सामने कुछ ऐसा-वैसा कहने का अधिकार किसी को भी नहीं है, और झुंड में तो बिल्कुल भी नहीं है...एक बात और भी कहनी है कि अगर हम सामने वाले को अलग से कहेंगे तो उसे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा ...
यह बात तो ठीक है, लेकिन हम पहाड़ जैसी अपनी ईगो का क्या करें, कमबख्त वह तो किसी सज्जन की पगड़ी सरेआम उछाल कर ही शांत होती है ....
हां तो कोहरे की बात हो रही थी, तो मुझे धुंध फिल्म का ध्यान आ गया, याद आ रहा है कि जब मैं स्कूल में था तो रविवार के दिन रेडियो पर हिंदी फिल्मों की स्टोरी सुनाया करते थे, बड़ा मज़ा आता था, बढ़िया टाइम-पास .......और इस फिल्म की स्टोरी भी मैंने ऐसे ही सुनी थी, इस का भी एक गीत अभी ध्यान में आ गया जिसे अपनी अकल को ठिकाने पर रखने के लिए कभी कभी सुन लेना चाहिए( मैंने भी तीन चार बार सुन लिया है!!)....संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है, इक धुंध में आना है, इक धुंध में जाना है ....
I had read somewhere......When you are good to others, you are best to yourself! Take care!
कोहरा बहुत घना था, लेकिन फिर भी लोग घर के पास ही बाग में टहल तो रहे ही थे...
मैं भी टहलने के बाद एक जगह जब शांति से बैठ गया...पास ही बैठे एक सज्जन अपने एक मित्र से बतिया रहे थे कि अच्छा है, कोहरा इस बार अच्छा पड़ रहा है, उन्हें कह रहे थे कि हमें कोहरा बहुत अच्छा लगता है और विशेषकर इस में टहलना...
मित्र को बता रहे थे कि वैसे तो हम कभी आलस कर भी जाते हैं लेकिन इतने कोहरे में ज़रूर घर से निकल पड़ते हैं...और बाग में तो और भी अच्छा लगता है, इतने तरह के पेड़-पौधे देख कर मन खुश हो जाता है ...
मुझे इस सज्जन की बात अच्छी लगी ...जहां पर मैं बैठा था, पास ही में बहुत से आंवले के पेड़ लगे हुए हैं, अकसर आते जाते आंवले गिरते हुए दिख जाते हैं...
चलिए, यह तो हुई कोहरे की, आंवले की बात ...अब करते हैं नोटबंदी की बात....
इस ब्लॉग पर मेरी पिछली पोस्ट की डेट थी ८.११.२०१६ ...और उसी दिन रात में प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का एलान कर दिया था...मुझे अपने आप में लग रहा था कि मेरे जानने वालों को लग रहा होगा कि पुराने नोट ठिकाने लगाने में मैं इतना व्यस्त हो गया कि ब्लॉग पर लौटना ही भूल गया...नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, दो चार नोट ही थे, वे पेट्रोल पंप में लग गये थे, १० नवंबर की शाम १० मिनट बैंक की लाइन में लगा था और सौ-सौ रूपये का दस हज़ार का बंडल मिल गया था...कुछ दिन बाद मैंने एसबीआई की पर्सनल बैंकिंग ब्रांच में खाता खोल लिया...वहां पर किसी भी समय जा कर कम से कम दो हज़ार रूपया तो निकलवा ही लेते हैं...
प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय की मैं दाद इसलिए देता हूं क्योंकि इतने बड़े फैसले के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए ...वरना तो इस व्यवस्था में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को उस की मनपसंद जगह से हिलाने पर हंगामा खड़ा हो जाता है और वह वापिस अपनी पुरानी जगह पर लौट कर ही दम लेता है....मैनेजमंट का यह भी एक उसूल है कि फैसला होना चाहिए...फैसले की गुणवत्ता पर चर्चा बात में हो सकती है ...और प्रधानमंत्री जिसे प्रजातांत्रिक ढंग से हम ने स्वयं चुना है, वह जनहित में कोई भी निर्णय तो ले ही सकता है....पक्ष और विपक्ष की बातों की दौर भी चलना ज़रूरी है ....और चल ही रहा है ३५ दिनों से ....
एक बात और , बहुत लंबे समय तक कम्यूनिकेशन का विद्यार्थी रहा हूं...केवल थ्योरी ही समझ पाया हूं ...व्यवहारिक तौर मेरे संवाद में भी सभी खामियां मौजूद हैं, मैं जानता हूं ...लेकिन इन के बारे में अपने आप को सचेत करता रहता हूं...
एक विचार दो चार दिनों से आ रहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि हम किसी को अपशब्द कह कर ही अपमानित करें, हम अकसर जब झुंड में बैठे हों तो अपने शब्दों के चयन पर ज़्यादा ध्यान देते नहीं हैं....mob mentality मजदूरों के झुंड में ही नहीं होती, पढ़े लिखे इन्टेलेक्चुएल लोगों में यह अलग रूप में पाई जाती है....
आप कभी सोचिए कि जब हम लोगों का किसी से one-to-one ईन्ट्रेक्शन होता है तो हम अलग होते हैं, जब कोई तीसरा उस संवाद में घुस जाता है तो हम थोड़ा नाटकीय होने लगते हैं, और जब हम ग्रुप में होते हैं (ग्रुप या झुंड ...झुंड ही ठीक लगता है) तो हम बेलगाम हो जाते हैं....हर परिस्थिति में होने वाले संवाद की अपनी विशेषताएं हैं...काश, हम इन्हें अच्छे से समझ पाएं...मैं भी मरीज़ों एवं उनके अभिभावकों के साथ इंट्रेक्शन के समय इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं ....no compromise on this!
अपशब्द तो बहुत दूर की बात है, आज कौन किस की सुनता है, हम अपनी कही हुई बात की टोन से भी किसी दूसरी को नीचा दिखा सकते हैं.....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर कोई व्यक्ति पलट कर जवाब नहीं देता तो यह उस की महानता है...झुंड में बैठे लोग मन ही मन इस का संज्ञान लेते हैं ...चाहे वे वहां जुबान खोले या ना खोले...
मैं भी सुबह सुबह बेकार का फलसफा झाड़ने लग गया, बात केवल इतनी सी है कि हमारा किसी से मतांतर हो सकता है लेकिन किसी को भी किसी तीसरे के सामने कुछ ऐसा-वैसा कहने का अधिकार किसी को भी नहीं है, और झुंड में तो बिल्कुल भी नहीं है...एक बात और भी कहनी है कि अगर हम सामने वाले को अलग से कहेंगे तो उसे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा ...
यह बात तो ठीक है, लेकिन हम पहाड़ जैसी अपनी ईगो का क्या करें, कमबख्त वह तो किसी सज्जन की पगड़ी सरेआम उछाल कर ही शांत होती है ....
हां तो कोहरे की बात हो रही थी, तो मुझे धुंध फिल्म का ध्यान आ गया, याद आ रहा है कि जब मैं स्कूल में था तो रविवार के दिन रेडियो पर हिंदी फिल्मों की स्टोरी सुनाया करते थे, बड़ा मज़ा आता था, बढ़िया टाइम-पास .......और इस फिल्म की स्टोरी भी मैंने ऐसे ही सुनी थी, इस का भी एक गीत अभी ध्यान में आ गया जिसे अपनी अकल को ठिकाने पर रखने के लिए कभी कभी सुन लेना चाहिए( मैंने भी तीन चार बार सुन लिया है!!)....संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है, इक धुंध में आना है, इक धुंध में जाना है ....
I had read somewhere......When you are good to others, you are best to yourself! Take care!