गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

बतरस.....कटहल, गंगा जल, कांग्रेस बूटी और पौधों के नक्षत्रों-गृहों की बातें




आज सुबह एक दुकान पर कुछ लेने के लिए रुका तो बाकी पूजन सामग्री तो समझ में आ रही थी ..ये इंजेक्शन की शीशियां समझ में नहीं आई..मैंने सोचा ...गुलाब जल या केवड़ा जैसा कुछ होगा...


इसे हाथ में उठाया तो पता चला कि यह तो गंगा जल है ...दुकानदार ने पूछने पर बताया कि पांच रूपये की शीशी है ...मैं इसी सोच में पड़ गया कि कुछ साल पहले तक तो ५ लिटर की प्लास्टिक की कैनीयों में बिकता था गंगा जल..अब जब कि पाप इतने बढ़ गये हैं लेकिन गंगा जल की पैकिंग इतनी छोटी हो चली है..एक ध्यान यह भी आया कि पता नहीं पतंजलि इंडस्ट्री इसे कब लांच करेगी...देखते हैं..वैसे टीके की एक शीशी तो इस से भी छोटी आती है !


आज मैं स्टेशन के बाहर खड़ा था..मैंने देखा एक ८० साल के करीब की वृद्ध महिला सीढ़ियां चढ़ रही थी और उस के पीछे ४०-५० के करीब की महिला थी...बहु-बेटी होगी... मुश्किल से वह वृद्धा सीढ़ियां चढ़ रही थीं, मुझे देख कर यही लगा कि उस के पीछे चलने वाली महिला भी धीरे धीरे उस के पीछे उस का साथ देने के लिए चल रही हैं, हाथ में डंडी लिए हुए थे ...शायद उस वृद्धा की ही होगी। 

लेिकन जैसे ही ये दोनों ऊपर पहुंची...मैंने देखा कि वृद्धा से भी ज़्यादा उस अधेड़ उम्र की टांगों की हालत खस्ता थी...उस की टांगे और घुटने तो बिल्कुल मुड़े हुए से ही थे...धीरे धीरे वे दोनों आगे बढ़ गई...

मुझे भी फ्लैट फुट है और घुटनों में लफड़ा तो है ...सुबह सुबह ऐंठन और दर्द--विशेषकर सर्दी के दिनों में आने वाले समय का संकेत दे रहा है...लेकिन टहलने वहलने से अच्छा लगता है, तकलीफ़ बहुत कम है...

उन दो महिलाओं को देख कर यही ध्यान आ रहा था कि हमें हर हालत में ईश्वर का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते रहना चाहिए...हर पल....जिस भी हालत में हम हैं..मैं अपने निराश हुए मरीज़ों को भी यही बात कहता हूं हमेशा...कोई मुंह की हड्‍डी तुड़वा लेता है किसी हादसे में ...बहुत निराश है तो मैं कहता हूं अगर आंखें भी चली जातीं, और दिमाग पर भी चोट आ जाती तो क्या कर लेते!...शायद मेरी बातें उन में शुकराने के भाव पैदा कर देती हैं..

इन्हीं महिलाओं की ही बात करें...कि इन से भी कईं गुणा बदतर हैं कुछ लोग जो अपनी दिनचर्या भी नहीं कर सकते, इस तरह की सीढ़ियां तो चढ़ना तो दूर, नहा तक नहीं पातीं अपने आप ....कुछ तो इतने असहाय हैं कि बेड पर लेटे रहते हैं, उठ ही नहीं पाते....वैसे भी हमारा अस्तित्व बस इतना है कि अंदर गई सांस बाहर आई तो आई...हमारे अस्तित्व की एक एक घड़ी ..पल-छिन कहते हैं ना इसे...यह ईश्वरीय अनुकंपा, रहमत ही  है। 

हर हालात में इस सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान कण कण में मौजूद इस निराकार, परमपिता परमात्मा का शुकराना करने की आदत डाल लें...ज़िंदगी अच्छी लगने लगती है....सत्संग की और बातें मुझे कितनी समझ में आई, कितनी नहीं, लेकिन यह बात पक्के से मन में घर कर गई है...


     आज मैं राजकीय उद्यान की तरफ़ निकल गया...वहां पर योग की कक्षा चल रही थी..

बाग में घूमते घूमते यह भी पता चला कि आपातकालीन प्रसाधन नाम की भी कोई चीज़ होती है ...पहली बार इस तरह का नाम सुना है ..कितनी शालीनता से कह दिया गया है कि आपातकाल में ही इसे इस्तेमाल कीजिए...लखनऊ की यही बातें हैं जो यहां से जाने के बाद याद आएंगी..

अच्छा बातें तो होती रहेंगी...मुझे यह बताएँ कि कटहल जिस की हम लोग सब्जी खाते हैं, वह किस तरह की झाड़ी में लगती है...बता पाएंगे, कभी देखा इस की झाड़ी को? ब्लॉग को आगे पढ़ने से पहले रूक जाइए और इस का जवाब मन में रख लीजिएगा...


मैंने इस बाग में इस तरह के फल देखे तो मुझे एक बार लगा कि यह कटहल है...लेकिन यकीं नहीं हुआ...इस तरह के पेड़ पर ये इतने बड़े बड़े फल...

मैं वही खड़ा था तो सामने से हमारी एक कर्मचारी का पति आ रहा था...मैं इन्हें जानता हूं..मैंने पूछा कि यह कटहल ही है? उन्होंने भी इस की पुष्टि की ...

    इस बाग में कटहल के बहुत से पेड़ दिखे...बिल्कुल छोटे फल कुछ नीचे भी गिरे हुए थे...


मैं तो कटहल देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो बड़े बड़े फल नीचे गिरते होंगे...अगर वे किसी को नीचे लग जाते होंगे तो ..

यह भी कटहल का ही पेड़ है....हम लोग कुछ साल पहले तक कटहल की सब्जी नहीं खाते थे..लेिकन अब लखनऊ में आने के बाद खाने लगे हैं...यहां सब्जी तो वैसे भी अच्छी ही मिलती है ...मुझे लगता है इस के छिलके को काटने-उतारने का खासा झंझट होता है ...लेकिन यहां दुकानदार उसे उतार कर ही देते हैं..

इस पार्क में मैंने यह देखा कि कुछ रास्तों पर कांग्रेसी बूटी लगी हुई थी...नहीं नहीं, राहुल गांधी में इस का कोई कसूर नहीं है, इस का नाम ही कांग्रेस ग्रास है ...और यह कांग्रेस बूटी सेहत के लिए विशेषकर सांस की तकलीफ़ें पैदा करने के लिए बहुत बदनाम है...सरकारी विभागों में तो इसे काटने और नष्ट करने के लिए (किसी दवाई के छिड़काव से) ठेके दिये जाते हैं...



हर तरफ़ कांग्रेस बूटी की भरमार है ...और चुनाव सिर पर हैं...बाकी आप सब सुधि पाठकगण हैं।



आज बाग में टहलते हुए मेरे ज्ञान में एक इज़ाफ़ा यह भी हुआ कि नक्षत्रों और गृहों के मुताबिक भी पौधे होते हैं...इस की फोटो खींच ली, लेकिन पढ़ा नहीं...कभी फ़ुर्सत होगी तो देख लेंगे..

इस तरह के भीमकाय पौधों के पास से गुजरते ही मुझे अपनी तुच्छता का अहसास हो जाता है ..इसलिए मैं हमेशा ऐसे पौधों की फोटू ज़रूर खींच लेता हूं...मुझे ये बड़ा सुकून देते हैं..अकेले मुझे ही क्यों, सब को ही चैन मिलता है इन के सान्निध्य से...


भाई यह तो पोस्ट आज कटहल स्पैशल ही हो गई दिक्खे है ...बार बार कटहल की फोटू दिख रही है...


इस बाग में प्रवेश करते ही बोतल पाम के ये पौधे आप का स्वागत करते हैं...मुझे इन पौधों को देखना ही बहुत रोमांचिक करता है ..

मैं इस बाग में दो तीन बार पहले भी जा चुका हूं लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह इतने बडे़ क्षेत्र में फैला हुआ है ... अच्छा लगा...इस का ट्रेक भी रेतीला है, एक दम बढ़िया....बस, कांग्रेस की बूटी का कुछ हो जाए तो बात बने...यह स्वच्छता मिशन में भाग लेने वाले कुछ लोग जो बस शेल्फी लेनी की फिराक में रहते हैं..अगर ये लोग सब मिल कर एक ही दिन कुछ घंटे का सामूहिक श्रमदान करें तो बूटी से निजात पाई जा सकती है ..


परसों से यह बात बार बार याद आ रही है ...कभी एक जगह लिख कर याद करता हूं, कभी दूसरी जगह ..परफेक्ट वेलापंती...

अब पोस्ट को बंद करते समय चित्रहार भी पेश करना होगा...लीजिए सुनिए...पिछले ४० सालों से धूम मचा रखी है इस ने भी ....न धर्म बुरा, न कर्म बुरा...न गंगा बुरी ..न जल बुरा...

अभी पोस्ट लिखने के बाद किचन की तरफ़ गया पानी पीने तो वहां पर भी कटहल जैसी महक आई..मैंने सोचा कि सुबह की सैर का hang-over ही होगा...तभी सामने देखा तो कटहल की सब्जी पड़ी थी..उस समय यही ध्यान आया कि आज के दिन काश मैंने सुबह से अपनी ट्रांसफर का ध्यान किया होता.... 😎 😎
कटहल की सब्जी ..

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

ओए जट्टा आई वैसाखी...

आज सुबह टहल रहा था तो स्कूल के ज़माने से मित्र रमन बब्बर के अमृतसर से वैसाखी के कुछ संदेश आए...यहां पेस्ट कर रहा हूं..बहुत अच्छा लगा...इतने सजीव मैसेज पा कर...रमन बब्बर कज़िन है राज बब्बर साहब के...हर समय मुस्कुराते हैं..और हमें हंसाते रहते हैं...स्कूल के दिनों से ही ...



बाग से लौटने के बाद मैंने सोचा कि हम भी वैसाखी मना लें...जलेबियां-मिठाईयां शाम में खा लेंगे..अभी ऑनलाईन ही इस का जश्न मना लेते हैं...

 मैंने जैसे ही लिखा जट्ट मेले आ गया...तुरंत इस पंजाबी फिल्म का बढ़िया सा ट्रेलर खुल गया...मैंने सोचा चलिए कुछ शुरूआत तो हुई...यह फिल्म २२ अप्रैल को आने वाली है ...इस में जिम्मी शेरगिल ने काम किया है ..शायद कुछ न जानते हों कि जिम्मी शेरगिल हिंदोस्तान की एक महान् हस्ती अमृता शेरगिल के पोते हैं...

जिम्मी को मैंने माचिस फिल्म के प्रीमियर वाले दिन पहली बार १९९५ के आस पास बंबई के मेट्रो थियेटर में देखा था..मुझे अच्छे से याद है ..सब लोग थियेटर से बाहर आ रहे थे ..अचानक मैंने देखा कि यश चोपड़ा साहब किसी युवक से बात करते चल रहे थे...उन्होंने इस के काम की तारीफ़ की ...और अपना कार्ड जिम्मी को दिया...जिम्मी ने बड़े सम्मान-पूर्वक उन के इस अभिवादन को स्वीकार किया...

दो दिन पहले भी हम लोग टाटास्काई के मिनिप्लेक्स पर इन की फिल्म युवा देख रहे थे...आप भी ज़रूर देखिए, अभी तो इस ट्रेलर को देखिए और वैसाखी की खुशियों के रंग में रंग जाइए...
वैसाखी को दिन देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग अलग ढंग से मनाया जाता है ..सभी ढंग मुबारक हैं...सभी जश्न का माहौल ही बनाते हैं...

पंजाब में फसल के पकने के बाद आज से इस की कटाई शुरू होती है ..इस का विशेष महत्व पंजाब के लिए इसलिए भी है क्योंकि इसी दिन गुरू गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया था..

मुझे लग रहा है कि आज बातें कम करूं...वह तो करता ही रहता हूं...आज इस पोस्ट को वैसाखी स्पैशल ही रहने देते हैं..


आज तो लग रहा है आप से पंजाबी गीत शेयर करता रहूं सारा दिन....इस समय जो याद आ रहे हैं...यहां एम्बेड कर रहा हूं...सैंकड़ों पंजाबी गीतों की मेरे पास कलेक्शन भी है...मुझे भी कईं बार लगता है कि लोग ठीक ही कहते हैं मैं अगर मैं इस तरह की कलेक्शनों के चक्कर में ही पड़ा रहा तो पढ़ाई वढ़ाई कब की होगी...बिल्कुल ठीक है...तभी तो कुछ भी ढंग से कर ही नहीं पाया..

जसविंदर बराड़ के खुले अखाड़े मुझे बेहद पसंद हैं.....२००५ से २०१२ तक मैं नियमित इन की सी.डी देखा सुना करता था...खुले अखाड़े का मतलब है जब ये कलाकार किसी खुले मैदान, गांव में अपने फन से लोगों को निहाल करते हैं...कोई टिकट का झंझट नहीं, कोई सिक्यूरिटी नहीं....बस आप होते हैं और ये कलाकार...आप अपनी फरमाईश करते जाइए और ये थकते नहीं....किस किस का नाम लूं...पंजाब के सभी महान गायकों के खुले अखाड़ों बड़े लोकप्रिय होते हैं क्योंकि ये आम आदमी के दिल की बातें करते हैं..सभ्याचार को पल्लित-पुष्पित करते हैं...और बहुत बार कुछ कुछ बढ़िया नसीहत भी दे जाते हैं...पहली वीडियो में बराड़ मिरजा सुना रही हैं और पहले पांच मिनट जो बातें कर रही हैं वे डायरी में तो क्या अपने मन में नोट करने वाली हैं...पंजाबी नहीं आती, तो भी सुनिए... अपने आप समझ आने लगेगी..

दूसरी वीडियो में बराड़ देश की एक आम समस्या की तरफ़ ध्यान दिला रही हैं युवाओं का ...बिल्कुल बागबान फिल्म के थीम जैसी बात कह रही हैं अपने भाईयों को घर का सारा सामान चाहे तो बांट लो, ज़मीनें बांट लो..लेकिन बापू-बेबे को मत बांट लेना, वे एक दूसरे के बिना रह नहीं पाएंगे.... 

मैंने ऊपर लिखा है ना कि प्यार, मोहब्बत, अपनेपन की कोई भाषा नहीं होती, शुक्र है जश्न का कोई कोड-ऑफ-कंडक्ट भी नहीं होता...बरसों पहले मैंने इस मराठी महिला का यह वीडियो देखा था...मेरे मन में बस गया था यह ...सरबजीत के उस सुपर-़डुपर गीत पर इतना बेहतरीन डांस किया इस महिला ने....Have you noticed she is enjoying what she is doing?...Great lady! वैसे भी कहते हैं कि नाचना, गाना अपनी रूह के लिए होना चाहिए...यानि उस समय आप को यह फिक्र न हो कि कोई देख रहा है कि नहीं... इस औरत ने वही किया है..

जाते जाते अगर टाइम हो तो गुरदास मान को भी थोड़ा सुन लिया जाए...

आज के वैसाखी के पर्व के लिए कहने को बहुत कुछ है, गीत बहुत से हैं..लेकिन अच्छा होगा इस समय आप के सब्र का इम्तिहान न ही लिया जाए...


मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

डॉयबीटीज़ की दवा अब हफ्ते में एक बार....बस?


आज बाद दोपहर उत्तर रेलवे डिवीजिनल अस्पताल, लखनऊ में एक क्लीनिक मीटिंग के दौरान डॉयबीटीज़ रोग के लिए उपलब्ध नईं दवाईयों के बारे में चर्चा हुई...चीफ़  फ़िज़िशियन डा अमरेन्द्र कुमार द्वारा इस विषय पर एक वार्त्ता  प्रस्तुत की गई...यह प्रोग्राम सभी मैडीकल ऑफीसर्ज़ के लिए रखा गया था..इस तरह की क्लीनिकल मीटिंग यहां नियमित होती रहती हैं।

डा अमरेन्द्र ने इस बीमारी के चौकाने वाले आंकड़े रखते हुए इस के लिए उपलब्ध विभिन्न दवाईयों के बारे में चिकित्सकों की जानकारी को रिफ्रेश किया..

कुछ नईं दवाईयों के इतिहास के बारे में बताते हुए यह बताया गया कि २००५ में किस तरह से अफ्रीकी छिपकली की लार से कुछ एन्ज़ाईम्स अलग कर, बहुत सी जटिल रासायनिक प्रकियाओं के बाद एक तरह की दवाई ब्लड-शूगर के लिए तैयार की जाने लगी... उस के बाद इसी तरह की दवाई को मानव से प्राप्त किया जाने लगा..

लेकिन अब यह ड्यूलाग्यूटाईड (Dulagutide) के रूप में उपलब्ध है ..यूरोपियन मार्कीट में २०१५ से यह उपलब्ध है..अमेरिका में यह दवाई २०१४ से उपलब्ध है और अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से एप्रूवड है।

इस तरह की दवाईयां -इन से थोड़ा मिलती जुलती पहले ही से उपलब्ध तो हैं...लेिकन इन्हें इंजेक्शन के रूप में हर रोज़ लेना पड़ता है...जब कि ड्यूलाग्यूटाईड का एक इंजेक्शन हफ्ते में एक बार ही लेना पड़ता है। 



ड्यूलाग्यूटाईड साल्ट ने किस तरह से शूगर रोगियों के लिए दवा लेना आसान कर दिया है ...इंसुलिन दो बार, तीन या चार बार तक भी लेनी पड़ती है ..लेकिन Dulagutide का एक इंजेक्शन एक सप्ताह तक अपना काम करता रहता है। यह इंजेक्शन ०.७५ मिलीग्राम और १.५ मिलीग्राम के सिंगल-यूज़ इस्तेमाल होने वाले पेन के रूप में आता है...इस इंजेक्शन को लेने का खाने के समय से कोई संबंध नहीं है...यानि के इसी कोई खाने से पहले लगाए या बाद में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

यह जो नईं दवाई है यह शूगर के रोगी का वज़न कम करने के लिए भी बहुत उपयोगी है ...अपने आप में यह वज़न कम करने की कोई दवाई नहीं है ...इस से अभिप्रायः यह है कि अगर कोई चाहे कि इसे वज़न कम करने के लिए लिया जाने लगे, ऐसा नहीं है...इस का वज़न कम करने वाला एक्शन इसलिए है कि यह मस्तिष्क के Satiety Centre पर काम करती है ...अब इसे कैसे समझाया जाए...अच्छा, आप यह जान लें कि जब हम खाते हैं तो कुछ समय बाद मस्तिष्क में एक भूख को कंट्रोल करने वाला केन्द्र एक संकेत भेजता है कि और नहीं चाहिए, बस....इस से Calorie intake कम होती है और यह दवाई लेने वालों का वज़न कम होने लगता है।

 Dulagutide से पहले Liragutide इंजेक्शन का इस्तेमाल हुआ करता था ..लेकिन इसे रोज़ाना लेना पड़ता था.. और इस के साथ साथ नये साल्ट की निम्नलिखित विशेषताएं बताई जा रही हैं..
  • इस से HbA1C के स्तर में बेहतर कमी आती है ...इस टेस्ट को ग्लाईकोसेटेड हीमोग्लोबिन कहते हैं..
  • जैसा कि ऊपर चर्चा की गई कि इस से वज़न भी घटता है..
  • मधुमेह की इस दवाई से ब्लड-प्रेशर भी घटता है..
  • इस दवाई का हृदय की मांसपेशियों पर एक सुरक्षात्मक प्रभाव बताया जा रहा है..
  • हाईपोग्लाईसिमिया नामक तकलीफ़ ड्यूलाग्यूटाईड ले रहे मरीज़ों में ओरल ड्रग्स (OHD--oral hypoglycemic drugs) एवं इंसुलिन ले रहे मरीज़ों के मुकाबले बहुत ही कम होती है ..और मधुमेह के जिन मरीज़ों को जिन दवाईयों के साथ हाईपोग्लाईसिमिया हुआ है ये वे ही जानते हैं कि यह कितनी परेशान करने वाली अवस्था है ...जिसमें अचानक रक्त में शर्करा का स्तर बहुत कम होने से मरीज़ की हातल बहुत पतली हो जाती है। 
इस दवाई को एक इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है ...कहने को ही इंजेक्शन है ..यह एक तरह से पेन ही है..और इस में Painless technology का इस्तेमाल होता है और मरीज़ को बिल्कुल भी तकलीफ़ नहीं होती.. और एक बार इस्तेमाल करने के बाद इसे डिस्पोज़ ऑफ कर दिया जाता है .. इस की वीडियो आप इस लिंक पर देख सकते हैं..

साईड इफेक्ट्स ...

साईड इफेक्ट्स हो सकते हैं किसी किसी को .. लेिकन वे कुछ भयंकर किस्म के नहीं है..बस, यही मितली, उल्टी, पेट में दर्द, अपचन आदि हो सकते हैं इस को लेने के बाद शुरूआती हफ्तों में.. मरीज़ को इस के बारे में आगाह कर दिया जाना ज़रूरी है .. दो तीन हफ्तों के इस्तेमाल के बाद इस तरह के इफेक्ट्स कम होने लगते हैं।

एक बात इस के बारे में ध्यान देने योग्य यह भी है कि कोशिश करें कि भर पेट खाना खाने के तुरंत बाद इसे न ले लें, थोड़ा कम खाना खाएं...३० मिनट तक इंतज़ार कर लें, सेटाईटी सेंटर को थोड़ा काम कर लेने दें, फिर थोड़ा खा लें... वही बात कि एक दम ठूंस कर पेट भरने के तुरंत बाद इसे न लें...ताकि मतली, उल्टी जैसी तकलीफ़ से बचा जा सके।

 शूगर के रोगियों में माईक्रोएल्ब्यूमनयूरिया होने के चांस भी यह दवाई कम करती है...माईक्रोएल्ब्यूमनयूरिया को गुर्दे की तकलीफ़ का शुरूआती संकेत माना जाता है।

जब इस दवा को लेना शुरू किया जाता है ...सप्ताह में एक बार इंजेक्शन के रूप में...तो दो हफ्ते में इस का असर होना शुरू हो जाता है .. रेगुलर ब्लड-शूगर मानीटरिंग तो इस केस में भी ज़रूरी है।

शूगर के कौन से रोगी इसे ले सकते हैं...

हर शूगर के मरीज़ के लिए इस तरह की दवाईयां नहीं है..मधुमेह दो तरह का होता है ..एक तो जो बचपन या युवावस्था में ही हो जाता है और दूसरा है जो बड़ी उम्र में तीस-चालीस साल की उम्र में या इस के बाद होता है ..पहले वाली को टाईप वन और दूसरे वाली को टाइप टू कहते हैं... इस दवाई को टाइप टू के मरीज़ ही ले सकते हैं ..वे भी निम्नलिखित क्राईटीरिया पूरा होने पर ...
  • ऐसे मरीज़ जो दो, तीन या चार ओरल ड्रग्स एवं इंसुलिन भी शूगर के कंट्रोल के लिए इस्तेमाल करते हैं लेिकन फिर भी इन का ब्लड-शूगर स्तर कंट्रोल नहीं हो रहा, इन में इस तरह की दवाई फिजिशियन शुरू कर सकते हैं...या तो अकेले या फिर किसी अन्य दवाई के साथ मिला कर ..जैसा भी वे मरीज़ की भलाई के लिए उचित समझते हैं। 
  • जो मरीज़ स्थूल काया वाले हैं और विभिन्न दवाईयों के बावजूद जिन का ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन 8-9 से ऊपर ही रहता है ..

एक बार विशेष यह भी है कि इस दवाई को ज़रूरत पड़ने पर अन्य दवाईयों के साथ भी दिया जा सकता है।

इस की कीमत क्या है..

हफ्ते में इस्तेमाल होने वाले एक पेन की कीमत लगभग दो से अढ़ाई हज़ार है ...इस का मतलब इस को इस्तेमाल करने का खर्च महीने भर के लिए दस हज़ार के पास बैठता है ... यह पेन-टेक्नोलाजी वाला इंजेक्शन बहुत ही कम पीड़ादायक है, वह तो है ही, इस के साथ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि चूंकि यह दवा नई नई लांच हुई है इसलिए थोड़ा महंगी तो है लेकिन जिस तरह से मधुमेह की वजह से उत्पन्न होने वाले अन्य रोगों से यह दवा बचा कर रखती है, दिल की सुरक्षा, ब्लड-प्रेशर का बेहतर कंट्रोल, गुर्दे का बचाव करती है ...उस हिसाब से उन तकलीफ़ों पर होने वाले खर्च से भी एक तरह से बचा लेती है..

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है इसे टाइप १ डायबीटीज़ में नहीं दिया जा सकता .. और न ही इसे डायबीटिक किटोएसीडोसिस में ही दिया जा सकता है।

इस के बारे में एक बार और याद आ गई कि अगर आप इसे आप एक हफ्ते के बाद दो तीन दिन तक लेना भूल भी जाते हैं तो भी कोई बात नहीं....कोई बात नहीं का मतलब यह नहीं कि ऐसा करने के लिए हमेशा के लिए क्लीन चिट मिल गई है ..ऐसा नहीं है, बहुत बार इस की वजह से इसे फिर से रि-शेड्यूल भी करना पड़ सकता है ..

Disclaimer.. . It is just a medical communication, please consult your physician for taking any health-related decision.

1970 के दशक में पहली बार सुना था कि डॉयबीटीज़ नाम का भी कोई रोग होता है..यह फिल्म यही है ज़िंदगी देखने के बाद...इस फिल्म में संजीव कुमार को डॉयबीटीज़ हो जाती है..

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

कुंवर बेचैन जी से मिल कर रुह खुश हो गई..

कुंअर नारायण जी राज्यपाल महोदय से अवार्ड ग्रहण करते हुए 
दो दिन पहले भारतीय नववर्ष के दिन तीन चार जगहों से निमंत्रण था...लेकिन एक प्रोग्राम में कुंवर बेचैन साहब, मुनव्वर राणा साहब ने आना था, राज्यपाल राम नाईक द्वारा कुछ हिंदी उर्दू के लेखकों को अवार्ड िदया जाना था...

यह आयोजन हिंदी उर्दू अवार्ड कमेटी की तरफ़ से था...

बाकी तो शायरों को अकसर देखते-सुनते ही रहते हैं लखनऊ में ..उस दिन मुझे कुंवर बेचैन साहब को देख कर, उन्हें सुन कर और उन से बातचीत करने के बाद आटोग्राफ लेकर बहुत अच्छा लगा...


उन का कविता पाठ उस दिन सब के बाद में रखा गया था...शायद रात १०.३० बज चुके थे...लेकिन लोग डटे रहे अपनी जगहों पर उन्हें सुनने के लिए...

इन के बारे में और इन के शेयरों, गज़लों को आप इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं...मैंने इन्हें खूब पढ़ा...उसमें से बहुत कुछ अपनी डायरी में लिख कर रखा है ...कभी कभी देख लेता हूं, मन खुश हो जाता है...मैंने प्रोग्राम के बाद उन्हें यह बात बताई तो हंसने लगे...

ऐसी हस्तियों से मैं बहुत मुतासिर होता हूं ...इन का उत्साह बिल्कुल बच्चों जैसा होता है .तीन साढ़े तीन घंटे बिल्कुल शांति से बिना किसी तरह के उतावलेपन के इत्मीनान से बैठे रहे ....और निरंतर कुछ न कुछ अपनी डायरी में लिखते रहे..इन्हें देखना, सुनना और इन से बात करना एक सुखद अहसास था..

मेरी डॉयरी के पन्नों से ...(इन्हीं का चुराया माल) 
मैंने प्रोग्राम के दौरान इन की रिकार्डिंग की और फिर यू-ट्यूब के अपने चैनल पर इसे अपलोड किया है ...शायद आवाज़ की क्वालिटी मेरे सेट की कमी की वजह से उतनी बढ़िया नहीं आई है ..लेकिन अगर आप इस हस्ती को लाइव सुन रहे हैं इस अपलोड में तो यही काफ़ी है...क्या ख्याल है?


इस गुस्से का क्या करें!

बहुत अरसे बाद मुझे कल रविवार के दिन पांच छः हिंदी इंगलिश के अखबार पढ़ने को मिले..हर रविवार के दिन इतने मिलते तो हैं लेकिन अकसर पढ़ने का समय नहीं होता...

इन सभी अखबारों में एक खबर ने बहुत उद्वेलित किया..एक 92 साल के बुज़ुर्ग ने केरल में अपनी ७५ साल की पत्नी और ५५ साल के बेटे को गुस्से में आकर मार दिया...ब्लॉग में सब कुछ सच लिख देना चाहिए...पहला रिएक्शन तो मेरा शीर्षक पढ़ने के बाद यही था कि न चाहते हुए भी हंसी आ गई...यह कोई हंसने वाली बात नहीं थी जानता हूं..लेकिन यह बेवकूफी हुई...यह भी ब्लॉग पर दर्ज हो ही जाए तो ठीक है।

उस खबर को आगे पढ़ते हुए मन दुःखी हुआ..यह बुज़ुर्ग पेन्शन से अपने घर का गुज़ारा किया करता था..२० हज़ार पेन्शन थी..लेकिन इन की बिजली का बिल चार हज़ार के करीब आने लगा था...बुज़ुर्ग परेशान थे इसी चक्कर में और अखबार में िलखा है कि यह अपनी पत्नी और बेटे को कहा करते थे कि वे जिस रूम में सोते हैं वहां का ए.सी कम चलाया करें...उस दिन सुबह भी जब यह उन के कमरे में गये तो वे सो रहे थे..ए सी चल रहा था, इन्होंने एक लोहे की रॉड उठाई और एक ही झटके में अपनी बीवी और बेटे का काम तमाम कर दिया..फिर इन्होंने शोर मचाया और अपने पड़ोसियों को बुलाया .. लेिकन तब तक देर हो चुकी थी..

एक बात और लिखी थी पेपर में कि इन्होंने भी फंदा लगा कर अपनी जान लेने की कोशिश की लेकिन यह ऐसा इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि इतनी बड़ी उम्र की वजह से यह स्टूल पर चढ़ ही नहीं पाए।

मैं दंत चिकित्सक हूं ..फिर भी कुछ महीनों के बाद मेरे पास कोई ना कोई मरीज़ आ जाता है जो पूछता है कि गुस्से को कम करने की कोई दवाई है।

उस दिन भी एक २० साल के करीब कोई लड़की अपने दांत का इलाज करवाने के बाद जाते समय कहने लगी कि डाक्टर साहब, मेरी मां को नींद की गोलियां चाहिएं...आपने पिछली बार भी नहीं दी थीं...मुझे अजीब सा लगा, मैं उस की मां को नहीं जानता था, न ही ऐसा कुछ याद आ रहा था...मैंने कहा कि मैं नींद की गोलियां नहीं लिखता और ये गोलियां अपने आप लेनी भी नहीं चाहिए..

फिर यह लड़की कहने लगी कि मुझे अपने लिए भी ये गोलियां चाहिएं क्योंकि मुझे नींद ही नहीं आती ...मुझे हैरानगी हुई ...वैसे भी यह बच्ची डिप्रेस सी लग रही थी...कहने लगी कि चलिए कोई ऐसी दवाई ही लिख दीजिए जिस से गुस्सा कम हो जाए...मुझे गुस्सा बहुत आता है ...मैंने उसे कहा .. इसमें दवा कुछ नहीं करेगी, शांत रहने की सलाह देकर मैंने उसे साथ के कमरे में सामान्य चिकित्सक के पास भेज दिया..हां, एक बात उसने यह भी कही कि गुस्सा इतना भी तो नहीं आए कि मैं घर की चीज़ें ही तोड़ने लगूं...

यह इस बच्ची की बात नहीं है ..हम अकसर देखते हैं कि लोगों में गुस्सा बहुत ज़्यादा बढ़ गया है ..रोज़ाना अखबार गुस्से के कारनामों से भरा पड़ा होता है ...हमें गुस्सा किसी और से होता है निकलता किसी और पर है...एक तरह से फ्रस्ट्रेशन निकालने वाली बात...बात बात पर तुनकमजाजी बहुत बुरी बात है ...सामने वाले के लिए तो है ही अपनी जान के लिए भी खऱाब ही है ..एक मिनट में हम हांफने लगते हैं...सोचा जाए तो ऐसी कौन सी आग लगी जा रही है...

जितना मैं मैडीकल विज्ञान को जान पाया हूं ..वह यही है कि गुस्से-वुस्से का इलाज करना किसी भी चिकित्सा पद्धति के वश की बात है ही नहीं और कभी होगी भी नहीं...यह बात मैं पक्के यकीन से कह सकता हूं और इस पर चर्चा करने के लिए तैयार हूं...वैसे तो बहस करता नहीं, चुप हो जाता हूं बहुत ही जगहों पर, हंस कर बात टालने की कोशिश करता हूं ....क्योंकि मैं यही सोचता हूं कि बहस जीत कर भी मैं क्या हासिल कर लूंगा!

५०और ३ त्रेपन साल की उम्र भी कम नहीं होती...यहां पहुंचने तक कोई भी बंदा दुनिया देख लेता है ..न चाहते हुए भी कुछ कुछ सीख ले ही लेता है ..मैंने जो सीखा इस गुस्से को काबू करने के लिए ..इतने सालों में यह है आज शेयर करना चाहता हूं...

युवा लोगों की बात कर लें पहले...

युवा लोगों में तरह तरह के स्ट्रेस हैं...Relationships, सर्विस से जुड़ा तनाव, खाने-पीने का तनाव, ड्रग्स, देर रात चलने वाली पार्टियां, हर वक्त कनेक्टेड रहने की फिराक, अपने आप को बेहतर दिखाने की होड़, और बैंकों के बड़े बड़े कर्ज...इतने सब के बावजूद भी अगर कोई गुस्सा को दूर रख पाए तो वह सच में बहादुर इंसान है। इन सब के बारे में क्या लिखें, सब कुछ लोग जानते हैं...बस, युवाओं की दुनिया अलग ही है आज कल...पिछले दिनों प्रत्यूषा बैनर्जी ने अपनी जान ले ली, इतना प्रतिभाशाली जीवन एक ही झटके में यह गया, वो गया...हर रोज़ इस तरह की हस्तियों के नाम आते रहते हैं और पता नहीं कितने तो गुमनाम ही चल बसते हैं...कोई नाम भी नहीं लेता!

जीवन में अध्यात्म का स्थान....

मैं नहीं कहता कि हम लोग सत्संगों में जा कर संत बन जाते हैं....मैं अपने अनुभव से कहता हूं...लेिकन फिर भी अच्छी बातें बार बार सुनते हैं तो कुछ तो असर होने ही लगता है ..जिस भी सत्संग में जाना आप को अच्छा लगे, वहां जाइए, नियमित जाइए, छोटे छोटे बच्चों को भी लेकर जाइए..क्योंकि सत्संग वाला सिलेबस किसी स्कूल में कवर नहीं होता...न ही कभी होगा...

हर सत्संग प्यार, मोहब्बत, आपसी मिलवर्तन की बातें करता है...जहां भी मन लगे प्लीज़ जाइए...घर से बाहर निकलिए तो सही ....

अच्छा साहित्य पढ़िए...प्रेरणात्मक साहित्य ...एक बात और भी है कि अगर बच्चे और युवा नियमित सत्संग में जाएंगे तो वे स्वतः ही अश्लील साहित्य, अश्लील साईट्स से दूर रहेंगे...यह भी बिल्कुल पक्की बात है ...वरना आज कल छोटे छोटे बच्चों के पास नेट और मोबाइल की सुविधा इतनी बेरोकटोक है कि वे आग का खेल खेलने से बाज़ नहीं आते...
अध्यात्म हमारी बहुत बड़ी उम्मीद है ...और हमेशा से है और युगों युगों तक रहेगी....सत्संग में जाकर बच्चों में आत्मविश्वास पैदा होता है, किसी से बात करने का सलीके जान लेते हैं, सेवाभाव, समर्पण जैसे गुण स्वतः प्रवेश करने लगते हैं..
मैं जिस भी मरीज़ को देखता हूं कि उस को बहुत सी तकलीफ़ें हैं और कुछ कुछ काल्पनिक भी हैं ..या जो मुझे जीवन से निराश हताश हुआ दिखता है तो मैं उसे किसी सत्संग से साथ जुड़ने की सलाह ज़रूर दे देता हूं ...मुझे इस नुस्खे पर अपने आप से भी ज़्यादा भरोसा है ...अटूट विश्वास है...प्रार्थना में, अरदास में...

एक सुंदर बात याद आ गई...
PRAYER NECESSARILY DOESN'T CHANGES life situations FOR YOU, IT DEFINITELY CHANGES YOU FOR those situations!
कितना लिखूं सत्संग की महिमा पर ...जितना लिखूं कम है...बस, बच्चों को, युवाओं को आध्यात्म से साथ जोड दीजिए...

गुस्से के लिए खान-पान भी दोषी...
अकसर हम लोग पढ़ते ही रहते हैं कि बच्चे जिस तरह से जंक-फूड-फास्ट फूड और प्रोसेसेड फूड के आदि हो चुके हैं ..इन में तरह तरह के कैमीकल्स होने की वजह से भी और वैसे भी पौष्टिकता न के बराबर होने की वजह से ये लोगों में गुस्सा भर देते हैं...ऐसा बहुत से रिसर्चज़ ने भी देखा है...लौट आइए अपने पुराने खान पान पर...

मांस-मछली छोड़ने पर विचार करिए... 
बहुत सी चीज़ें हैं जिन के बारे में इस देश में कहना लिखना ठीक नहीं लगता..फिर भी ...अपनी बात तो कर ही सकते हैं...मांस मछली हम ने १९९४  में आखिरी बार खाई थी, २२ साल हो गये हैं...इसे न खाने से बहुत अच्छा लगता है...लेिकन यह कोई हिदायत नहीं दी जा सकती...यह हमारी पर्सनल च्वाईस है ...हरेक की है .. लेकिन इसे छोड़ कर कभी ऐसा नहीं लगा कि शरीर का पोषण कम हो गया है ...बिल्कुल भी नहीं..वैसे भी मांस मछली हम किस क्वालिटी की खाते हैं ....हम सब जानते हैं....फैसला आप का अपना है।

मांस मछली और जंक फूड के बारे में कहते हैं कि यह सुपाच्य नहीं है ..विभिन्न कारणों की वजह से इन की वजह से भी हम बात बात पर उत्तेजित हो जाते हैं....हमारे पुरातन ग्रंथ भी तामसिक सात्विक खाने की बातें तो करते ही हैं...हम उन की भी कहां सुनते हैं!

 शारीरिक श्रम..
िकसी भी तरह का शारीरिक श्रम--कोई खेल कूद, साईकिल चलाना, टहलना...कुछ भी जो अच्छा लगे किया करिए रोज़ाना.... और एक बात, कोई न कोई हॉबी ज़रूर रखिए...कुछ भी बागबानी, पेंटिंग, लिखना-पढ़ना, समाज सेवा, नेचर-वॉक,.....कुछ भी जिसे कर के आप को अच्छा लगने लगे...उसे ज़रूर करिए...

ध्यान (मेडीटेशन) ज़रूर करिए...
मैंने शारीरिक श्रम की बात की, मेडीटेशन (ध्यान) की भी ट्रेनिंग लीजिए और इसे नियमित करिए...मैं बहुत सालों तक करता था...पिछले कईं सालों से सब कुछ छोड़ दिया...यह पोस्ट के माध्यम से मुझे अपने आप से भी यह कहने का मौका मिला कि मैं भी अपनी लाइफ को पटड़ी पर ले कर आऊं....सोच रहा हूं आज या कल से ..आज से ही फिर से मेडीटेशन शुरू करता हूं...I really used to feel elated after every Meditation session!...Just 15-20 minutes twice or thrice a day!

बातें शेयर करने की आदत डालिए...

जितनी बातें मन में कम से कम रखेंगे उतना ही बोझ हल्का होता जाएगा..मैं भी ब्लॉगिंग के माध्यम से यही तो करता हूं लेकिन बड़ी धूर्तता से बहुत कुछ छिपाए रखता हूं ...लेकिन इतना इत्मीनान है कि पाठकों के लिए जो काम की बात है, उसे पूरे खुलेपन से दर्ज कर देता हूं...

हां, बातें शेयर करने की बात से मैंने ब्लॉगिंग की बात तो कर दी , लेकिन जिन के ब्लॉग नहीं हैं वे क्या करें, वे अपने घर परिवार में, भाई बहन से अपने मन की बातें शेयर ज़रूर किया करें...कुछ बातें अपने टीचर्ज़ से भी शेयर की जा सकती हैं...यह बड़ा जरूरी है ... हमें कदम कदम पर मार्गदर्शन चाहिए, हम सब के सब अपने आप में अधूरे हैं....कड़ी से कड़ी मिल के ही कुछ बात बन सकती है ....

एक दिल का डाक्टर किसी को हिदायत दे रहा था...
दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलन गे औज़ारा नाल...

ओह माई गॉड...आज तो पोस्ट कुछ ज्यादा ही प्रवचन स्टाईल में और हट के हो गई...लेकिन असल बात कहूं तो मेरा यही सिलेबस है ...मैंने चिकित्सा विज्ञान से कहीं ज्यादा अध्यात्म को पास से अनुभव किया है ...

इतनी भारी भरकम पोस्ट.....अब इसे बेलेंस कैसे करूं...  अभी करता हूं कोई हल्का-फुल्का जुगाड़ ...


घर से ज़्यादा सेफ़ है सड़क...

कईं बार लिखना बड़ा बोरिंग सा लगता है ...लगता है कि आखिर इतनी मगजमारी किस लिए...बिल्कुल कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती...उस समय मुझे मूड बनाने के लिए अपने दौर के किसी मनपसंद गीत को सुनना पड़ता है ...एक बार नहीं, दो तीन बार...

यह जो ऊपर मैंने लिखा है ..सड़क घर से ज़्यादा सेफ़...ये शब्द हैं लखनऊ के एक बड़े बुज़ुर्ग के ...परसों एक बाज़ार में यह कोई अखबार पढ़ रहे थे.. अचानक एक खून-खराबे की खबर पर मेरी नज़र गई..मैं उसे देखने के लिए रूक गया..सुबह का समय था...इन्होंने पेपर मेरी तरफ़ सरका दिया....मैंने कहा कि लखनऊ जैसी नगरी में भी यह सब कुछ...!...गुब्बार निकालने लगे कि अब तो घर आ के मार जाते हैं...आए दिन खबरें आती हैं...अब तो सड़क घर से ज़्यादा सेफ़ हैं, कहने लगे। मैं भी सोच में पड़ गया। उस ने यह भी कहां कि फलां फलां के राज में इतनी गुंडागर्दी नहीं थी..सभी लोगों को कानून को डर था...

सच में मैं लखनऊ के लोगों की नफ़ाज़त और नज़ाकत से बहुत प्रभावित हूं..यहां के लोग जब बात करते हैं ऐसा लगता है जैसे कानों में मिशरी घोल रहे हों...बेशक यह तो खूबी है यहां लोगों में...और यह इन की जीवनशैली ही है...इस के लिए इन्हें १०० में से ९९ नहीं, १०० नंबर ही मिलने चाहिए...

 मैं भी यहां पिछले तीन सालों में कुछ कुछ सीख गया...और इस के लिए मेरा असिस्टेंट का बड़ा रोल है...उस का सभी से बातचीत करने का ढंग इतना आदरपूर्ण एवं शालीन है ...मुझे तीन सालों में एक बार किसी मरीज़ ने कहा कि आप के असिस्टेंट को बात करने की तहजीब नहीं है...मैंने उसे कहा कि कोई और बात होती तो मैं मान भी लेता, उस के पास रहने से मैं कुछ कुछ सीखने लगा हूं...


बात चीत की बात हो गई ...कर्मकांड की बात भी ज़रूरी है, कर्मकांड में भी एकदम फिट हैं लखनऊ के लोग, पूजा-अर्चना, दान दक्षिणा...सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं...घरों के बाहर पशु-पक्षियों के लिए और जगह जगह प्याऊ दिख जाते हैं...इस पोस्ट में सभी तस्वीरें आज की ही हैं...





यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के खूब चर्चे हैं ही ..लेकिन एक बात उस के बारे में यह है कि एक बार मैंने एक साहित्यिक गोष्ठी में शहर की एक नामचीन वयोवृद्ध महिला को यह कहते सुना कि आपसी मिलवर्तन का बस यही मतलब नहीं कि आपने किसी के यहां जा के उन के त्योहारों पर सेवईयां खा लीं और उन्होंने आप के होली पे गुझिया खाईं...उन्होंने कहा कि ये भी ज़रूरी हैं, बेशक, लेकिन इन प्रतीकों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है ..मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. 


अब आता हूं अपने मन के एक प्रश्न पर...जो अकसर मुझे परेशान करता है कि इतने बढ़िया संस्कृति के शहर में इतना खून-खराबा...हर दिन अखबार में यहां पर मारधाड़ की खबरें आती रहती हैं...घर में बैठे निहत्थे, बड़े-बुज़ुर्गों तक को मौत के घाट उतार दिया जाता है....शायद आप के मन में आ रहा हो कि यह किस शहर में नहीं हो सकता...बिल्कुल आप सही कह रहे हैं...लेकिन लखनऊ की नफ़ाज़त, नज़ाकत के टगमें के साथ यह मेल नहीं खाता, इसलिए हैरानगी होती है....


अभी मैं साईकिल भ्रमण से लौटा हूं ....लखनऊ के साईकिल ट्रैकों के बारे में बहुत बार लिख चुका हूं...बहुत अच्छी बात है ..ये अधिकतर खाली पड़े रहते हैं....आज बड़े लंबे अरसे के बाद मैंने एक स्कूली बच्चे को इस पर साईकिल चलाते देखा..खुशी हुई.. मजे की बात यह कि उस समय मैं भी सड़क पर ही साईकिल चला रहा था...





लखनऊ के एलडीए एरिया में भी बहुत बढ़िया ट्रैक हैं... मैंने भी इन ट्रैकों पर साईकिल चला रहा हूं... एक बुज़र्ग मिल गये योग टीचर ..डाक्टर साहब हैं....कहने लगे कि अच्छा करते हैं साईकिल चलाते हैं..वैसे भी अगर ये ट्रैक इस्तेमाल होेंगे तो ही कायम रह पाएंगे...उन्होंने बिल्कुल सही बात कही थी... आगे चल के देखा तो एक ट्रक कुछ इस तरह से खड़ा दिखा... अब सरकार ने ये रास्ते बनाए हैं तो इन का इस्तेमाल भी होना चाहिए....इन को अतिक्रमण से बचाने का मात्र यही उपाय है...


एक बात और ...चाहे इन ट्रैक्स पर साईकिल सवार तो एक ही दिखा ..वह स्कूली बच्चा, लेकिन इन पर पैदल चलने वाले, सुबह भ्रमण पर निकले बहुत से लोग दिख गये.. यही ध्यान आया कि इसी बहाने चलिए देश में पैदल चलने वालों की भी सुनी गईं...वरना इन के तो कोई अधिकार हैं ही नहीं ..

बस करता हूं सुबह सुबह...मैं भी क्या टर्र-टर्र सुबह सुबह...सोमवार की वैसे ही अल्साई सी सुबह है...चलिए एक बढ़िया सा भजन सुनते हैं और इस हफ्ते की शुभ शुरूआत करते हैं......बहुत सुना बचपन में यह भजन...अभी भी सुनता हूं लेकिन मन नहीं भरता... 

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

साहिब नज़र रखना..मौला नज़र रखना

तीन साल पहले हम लोग जब किराये का कोई घर देख रहे थे तो लखनऊ के बंगला बाज़ार को अच्छे से जान गये थे..हम लोग अपने रेस्ट-हाउस से निकलते कार में...और लखनऊ की बड़ी बड़ी सडकों पर नित्यप्रतिदिन गुम हो जाते..दो तीन दिन में हमें यह पता चल गया कि वापिस कैसे लौटना है...हमें यह पता चल गया कि बंगला बाज़ार से हमारा रेस्ट-हाउस नज़दीक ही है ..और इस बाज़ार से वहां जाने का रास्ता मालूम हो चुका था...

इसलिए हम कभी भी किसी से वापिसी का रास्ता पूछते और वह पूछता कि कहां जाना है, हम उससे बंगला बाज़ार का नाम ले लेते... यह सिलसिला १५ दिन तक चलता रहा...

बंगला बाज़ार लखनऊ का एक मशहूर बाज़ार है...कितना बड़ा होगा?...एक किलोमीटर की लंबाई में फैला हुआ होगा...सड़की भी कोई खास चौड़ी नहीं है, लेकिन encroachment तो अब एक आम ही बात हो ही गई है... इतने से बाज़ार में एक पुरानी मस्जिद है, कईं पुराने मंदिर भी हैं..सभी लोग मिल जुल कर सभी त्योहार मनाते हैं.. लेकिन बाज़ार में भीड़ अब बहुत होने लगी है ...सब कुछ मिल जाता है वहां....टमाटर से टैप तक...समोसे से वाहिद बिरयानी तक...


इस तरह के एक बाज़ार के एक किनारे पर अचानक एक दिन अगर कोई ट्रक इस हालत में दिखे पूरी तरह से पलटा हुआ तो देख कर कोई भी सकपका जाए....आज सुबह मुझे यह ट्रक इस हालत में दिखा...मैं भी एक मिनट के लिए रूक गया...फोटो खींचने की गुस्ताखी कर ली.. उस ट्रक के पास जाकर किसी से बात करनी की इच्छा नहीं हुई...इस तरह के हालात में हम किसी की कुछ भी मदद करने की स्थिति में नहीं होती, बिना वजह बार बार परेशान लोगों के ज़ख्म कुरेदना बहुत बुरी बात है .. उस समय तो बस उन के हालात सुधरने की प्रार्थना-याचना करते ही बनती है ..


इस तरह के मंजर अकसर हमें बड़ी सड़कों पर शहर के बाहर हाई-वे आदि पर कभी कभी दिख जाते हैं..ईश्वर कृपा करें, सभी सुरक्षित अपने घर पहुंचा करें...लेकिन एक बाज़ार के बीचों बीच इस तरह का हादसा आज शायद पहली बार ही दिखा था.. मैं अपने आप से पूछता हूं कि उस समय मैं कहीं जाने में लेट हो रहा था, कहीं मैं इसलिए तो वहां नहीं रूका...कुछ न भी किसी के लिए कर सके किसी हालत में दो शब्द सहानुभूति के कहने में से कुछ नहीं लगता!..यह मैं अपने आप से कह रहा हूं। 


कोई कह रहा था कि ओव्हरलोडेड था... कोई कुछ...एक तरफ़ से आवाज़ आई कि ड्राईवर क्लीनर तो खत्म हो गये होंगे... तभी दूसरे ने कहा...नहीं, नहीं, दोनों सलामत हैं....इत्मीनान हुआ यह सुन कर कि चलिए जानी नुकसान तो नहीं हुआ...हर चीज़ की भरपाई हो जाती है .....लेिकन इंसानी जान की बहुत कीमत है ...हर इंसान की कीमत उस से परिवार से पूछनी चाहिए...एक बंदे के ठीक ठाक वापिस लौटने का इंतज़ार कईं कईं ज़िंदगीयां कर रही होती हैं ...और एक जान से कईं लोगों की जान अटकी होती है ...रोटी के लिए ही नहीं, अपनेपन का रिश्ते..

मुझे हमेशा से इन ट्रक ड्राईवरों की लाइफ से बड़ी सहानुभूति और सम्मान है ...कितना कठिन जीवन है .. घर से दूर, बीवी ,बच्चों, मां-बाप सारे कुनबे से दूर .. तरह तरह के अनुभव ..किसी चीज़ का कोई ठिकाना नहीं....

इस समय मौका तो बिल्कुल भी नही है कि यहां पर कोई गाना लगाया जाए ..लेिकन पंजाब का एक बेहद प्रसिद्ध गीत याद आ गया जो इन ट्रक ड्राईवरों की ज़िंदगी की एक छोटी सी झांकी पेश करती है ...मुटियार (ट्रक ड्राईवर की पत्नी) को उस की सहेलियां चिढ़ा रही हैं कि इतना फिक्र करते करते तू तो पगला सी गयी है ...मुटियार आगे से अपने पति को याद करते हुए सोचती है कि उस की तो जैसे लंबे लंबे रूटों से याराना हो गया है ..बेहद पापुलर गीत, बेहद सुंदर ढंग से शूट किया हुआ ...और पम्मी बाई की तो बात ही क्या करें, वह तो पंजाब के दिलों पे राज़ करता ही है.....पम्मी बाई जी वह हैं जो इस वीडियो में ड्राईवर का रोल अदा कर रहे हैं...पंजाब में साफ़ सुथरे सभ्याचारक सामाजिक गीत बनाने के लिए इन का नाम बडे़ सम्मान के साथ लिया जाता है ...

१९८६ से १९८८ तक मैं होस्टल में था ..और मुझे सभी कहते थे कि मुझे ट्रक ड्राईवरों वाले गाने बडे़ पसंद हैं...इसी तरह के गाने बजते रहते थे मेरे टेपरिकार्डर से .. कैसेटें थीं दस बीस... अच्छे यही लगते थे, कारण यही था कि यह जीवन की बात करते हैं, उत्सव की बात करते हैं, किसी का हाथ थाम कर उसे उठाने की बात करते हैं....फिर भी कुछ लोगों का रवैया इन ड्राईवरों के प्रति उतना बढ़िया होता नहीं जितना होना चाहिए...

पता नहीं महलों वाले कुछ लोग सड़क के लोगों से जलते क्यों हैं....आईए इसे समझने की कोशिश करते  हैं ३५ साल पुराने आशा फिल्म के इस गीत से...इस फिल्म का नायक जितेन्दर भी एक ट्रक ड्राईवर ही था...

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

91 वर्षीय शख्स की सीख...

कल विश्व स्वास्थ्य दिवस था..मुझे अभी इन ९१ वर्षीय शख्स का ध्यान आ गया ..पिछले दिनों इन को तीन चार बार मिलने का मौका मिला...हर बार ऐसे लोगों से कुछ सीखने का मौका मिलता है..

इन्हें रिटायर होते हुए ३०-३५ साल हो चुके हैं..९१-९२ वर्ष के हैं...अपने ६५ साल के करीब के बेटे के साथ आते हैं..

इन का स्वास्थ्य, इन की गर्मजोशी, सूझ-बूझ, आवाज़ की बुलंदी और मस्त, बेपरवाह अंदाज़ देख कर इन से कुछ सीख लेने की इच्छा हुई ...

पिछले दिनों जब ये कुछ दांत उखड़वा रहे थे...एक दिन फुर्सत थी तो मैंने इन से इन की दिनचर्या पूछ ली...
९१ वर्षीय शर्मा जी अच्छी नसीहत दे गये उस दिन..
शायद इन्हें इस तरह के प्रश्न बहुत से मौकों पर पूछे जाते होंगे.. इन्होंने दो तीन मिनट में अपनी बात पूरी कर ली..

यह सुबह जल्दी उठते हैं..पानी पीने के बाद घर में ही थोड़ी एक्सरसाईज कर लेते हैं, टहलने नहीं जाते क्योंकि टांग में पुरानी चोट लगने की वजह से कुछ दिक्कत हैं, लेकिन इन्हें इस से कोई शिकायत नहीं ...इस से क्या किसी से भी इन्हें कोई शिकायत नहीं..
नाश्ते में अधिकतर दलिया या कार्न-फ्लेक्स लेते हैं...बस...१०-११ बजे कुछ फल-फ्रूट या फलों का रस....दोपहर में सामान्य खाना दाल रोटी सब्जी..शाम में चाय बिस्कुट और रात में एक चपाती...यह है इन की खुराक दिन भर की .. एक दम फिट है वैसे तो लेकिन अब उम्र के हिसाब से बीपी थोड़ा ऊपर रहने लगा तो उस की दवाई ले लेते हैं..
एक बहुत ज़रूरी बात यह है कि इन्होंने कभी भी तंबाकू, गुटखा, पान, सिगरेट, बीड़ी, शराब को नहीं छुआ...कभी नहीं, और शर्मा जी पक्के शाकाहारी हैं.. कभी मांस-मछली नहीं खाई। 
खुश मिजाज ऐसे कि मैंने इन्हें कहा कि आप के साथ फोटो खिंचवाने की इच्छा हो रही है...तुरंत राजी हो गये..

टाईम पास करने की कोई दिक्कत नहीं है.. अपनी कालोनी की जो प्रबंधन समिति है उस का काम काज भी देखते हैं... 
पूरी तरह से सचेत हैं...कानों से सुनाई पूरी अच्छी तरह से देता है...टीवी पर न्यूज़ देखना बहुत पसंद है..

मिसिज़ के दो साल पहले चले जाने का गम है ... उन की बात करते हुए इन की आंखें नम हो गईं। 

मेरा सहायक भी मेरी जैसी बातें करने लगा है ...और शायद मैं उस जैसी ...सोहबत का असर है ...मेरा सहायक मैट्रिक पास नहीं है, लेकिन ज़िंदगी के इम्तिहान में मेरिट-लिस्ट पर है...इतना आत्मविश्वास..बैंकों के काम दूसरों के भी तुरंत करवा देता है, एक तरह का Dr Fixit ..अपने साथियों की हेल्प करने का जज्बा भी बहुत है उसमें...अंग्रेजी के बहुत से भारी-भरकम शब्द भी जानता है ...मैं अकसर उससे मजाक में कहता हूं कि सुरेश, ईश्वर जो करता है, अच्छा करता है..अगर तुम तीन या चार कक्षाएं और पास कर जाते तो खड़े खड़े आते जाते फतेहअली चौराहे का सौदा कर आते... हंसने लगता है ...उस दिन भी यह बुज़ुर्ग जाने लगे तो इन्हें बड़े प्रेम से पूछने लगा ..बाबू जी, जीवन से जो सीखा हम से भी बांट दीजिए। 

मैं इन की तरफ़ देखने लगा... कहने लगे, सीखा यही है कि खुश रहो, मस्त रहो, ईमानदारी में बड़ी ताकत है, झूठ मत बोलो..और एक बात कि किसी भी बात को बढ़ाओ मत, उसे जहां तक संभव हो प्रेम से (he used the word 'amicably') सुलटा लो....और एक बात पर विशेष ज़ोर दिया इन्होंने कि नेकी कर कुएं में डाल। 

अच्छी  खुराक मिल गई थी बहुत दिनों तक सोच विचार करने के लिए...

अभी पब्लिक का बटन दबाने लगा तो ध्यान आया कि हम लोगों की ज़िंदगी ..हर इंसान की ...एक नावल सरीखे है...हम लोग अपने आस पास के नावलों को पढ़ते हैं..हरेक से सीख मिलती है...लेकिन यह नावल तभी पढ़े जा सकते हैं अगर हम इतने खुलेपन में विश्वास रखते हों कि हम अपनी ज़िंदगी की किताब से भी कुछ पन्ने शेयर करने से न घबराएं...it's always a two-way communication!