आज कालेज के दोस्तों के साथ गोवा जाने की बात छिड़ी तो तुरंत एक हसरत जगी मन में कि गोवा तो देखना ही है यार...मैं कईं बार सोचता हूं कि हम लोगों ने अपने देश को ही कितना देखा है, इसलिए मुझे हमेशा लगता है पहले हिंदोस्तान तो देख लें, फिर दूर देशों को देखने का मन बनाना चाहिए...
मैंने बीस साल पहले बड़ी मशक्कत कर के ...बंबई में रहते थे तब...लंबी कतार में खड़े होकर, बड़े चाव से पासपोर्ट की अर्जी जमा की थी.....शायद दस साल में पहली बार मैं अपनी ड्यूटी पर जाने से एक-दो घंटे लेट हो गया था...लेिकन चाव बड़ा था...फिर पुलिस वाले की पुलिस वेरीफिकेशन भी उसे चाय-नाश्ता करवा कर पूरी करवाई.....चाय नाश्ता की तो क्या बात है, कुछ नहीं, लेिकन ये लोग जब वेरीफिकेशन करने आते हैं ना तो इन का अंदाज़ ऐसा होता है कि जैसे यह किसी दाऊद के अड्डे पर आए हों...और आम बंदे को यह एक तरह से ऐसा अहसास करवा देते हैं कि जैसे तेरा करेक्टर अब हमारे हाथ ही में है!...मुझे ऐसी व्यवस्था से बड़ी चिढ़ है.......खैर, बन गया जी पासपोर्ट १९९३-९४ के आस पास और जाना तो कहीं था नहीं....बस कमबख्त बातों में आकर बनवा लिया.....एक अल्मारी से दूसरी अल्मारी, एक संदूक से दूसरे संदूक में घूमते-घामते कब वह एक्सपायर हो गया पता ही नहीं चला.......अब बीवी कईं बार कह चुकी हैं कि नया ही बनवा लो, या पहले वाले को ही रिन्यू करवा लो......लेकिन मैं आलस्यी और ढीढ प्राणी....मुझे लगता है कि जाना वाना कहीं है नहीं, फिर खाली-पीली काहे ही मगजमारी..........लेिकन अभी यह मामला शांत पड़ा हुआ है .....क्योंकि श्रीमति जी ने अपने मंत्रालय को लिखा था एनओसी के लिए.....ताकि पासपोर्ट बनवाया जा सके....लेिकन कुछ महीनों के बाद भी वह एप्लीकेशन ऑफिस से नदारद है.......चलो, यार, जितना समय बिना पासपोर्ट के निकल जाए, अच्छा ही है। पासपोर्ट बनवाने की कमबख्त १९९० के दशक में ऐसी जल्दी थी जैसे हार्वल्ड वाले बुला रहे हों..कि तेरे बिना हम से यह यूनिवर्सिटी चल नहीं पा रही!!
वहां से बंबई...१० साल ...१९९१ से २०००तक......वहां से सीधा पंजाब के फिरोज़ुपर में २००० से २००५ तक ....और अगले ८ साल याने २०१३ तक यमुनानगर तक रहे ....और वहां से सीधा लखनऊ पहुंच गये...अब देखते हैं यहां का दाना-पानी कब तक लिखा है।
इतना लिखने के बाद लग रहा है कि यह जो हिंदोस्तान को ५-१० प्रतिशत देखने की मैंने बात की है, यह भी एक तरह से गप ही हांक दी है.....असलियत में केवल एक प्रतिशत भारत ही देखा-घूमा होगा......शायद
अब पोस्ट को समाप्त करते हुए पता नहीं अचानक यह गीत कैसे याद आ रहा है....आज फिर जीने की तमन्ना है....आज फिर...
मैंने बीस साल पहले बड़ी मशक्कत कर के ...बंबई में रहते थे तब...लंबी कतार में खड़े होकर, बड़े चाव से पासपोर्ट की अर्जी जमा की थी.....शायद दस साल में पहली बार मैं अपनी ड्यूटी पर जाने से एक-दो घंटे लेट हो गया था...लेिकन चाव बड़ा था...फिर पुलिस वाले की पुलिस वेरीफिकेशन भी उसे चाय-नाश्ता करवा कर पूरी करवाई.....चाय नाश्ता की तो क्या बात है, कुछ नहीं, लेिकन ये लोग जब वेरीफिकेशन करने आते हैं ना तो इन का अंदाज़ ऐसा होता है कि जैसे यह किसी दाऊद के अड्डे पर आए हों...और आम बंदे को यह एक तरह से ऐसा अहसास करवा देते हैं कि जैसे तेरा करेक्टर अब हमारे हाथ ही में है!...मुझे ऐसी व्यवस्था से बड़ी चिढ़ है.......खैर, बन गया जी पासपोर्ट १९९३-९४ के आस पास और जाना तो कहीं था नहीं....बस कमबख्त बातों में आकर बनवा लिया.....एक अल्मारी से दूसरी अल्मारी, एक संदूक से दूसरे संदूक में घूमते-घामते कब वह एक्सपायर हो गया पता ही नहीं चला.......अब बीवी कईं बार कह चुकी हैं कि नया ही बनवा लो, या पहले वाले को ही रिन्यू करवा लो......लेकिन मैं आलस्यी और ढीढ प्राणी....मुझे लगता है कि जाना वाना कहीं है नहीं, फिर खाली-पीली काहे ही मगजमारी..........लेिकन अभी यह मामला शांत पड़ा हुआ है .....क्योंकि श्रीमति जी ने अपने मंत्रालय को लिखा था एनओसी के लिए.....ताकि पासपोर्ट बनवाया जा सके....लेिकन कुछ महीनों के बाद भी वह एप्लीकेशन ऑफिस से नदारद है.......चलो, यार, जितना समय बिना पासपोर्ट के निकल जाए, अच्छा ही है। पासपोर्ट बनवाने की कमबख्त १९९० के दशक में ऐसी जल्दी थी जैसे हार्वल्ड वाले बुला रहे हों..कि तेरे बिना हम से यह यूनिवर्सिटी चल नहीं पा रही!!
मैं अभी हिसाब लगाना चाहता हूं िक मैंने कौन कौन से शहर देखे हैं....२६ साल शुरूआती अमृतसर में बीते....पढ़ाई में इतने लगे रहे कि भारत पाक वाघा बार्डर भी नहीं देखा...बस, बार बार बंबई, दिल्ली, अंबाला, यमुनानगर, जयपुर और एक दो बार रोहतक जाते रहे...फिर रोहतक के मेडीकल कालेज में चाकरी कर ली।
वहां से बंबई...१० साल ...१९९१ से २०००तक......वहां से सीधा पंजाब के फिरोज़ुपर में २००० से २००५ तक ....और अगले ८ साल याने २०१३ तक यमुनानगर तक रहे ....और वहां से सीधा लखनऊ पहुंच गये...अब देखते हैं यहां का दाना-पानी कब तक लिखा है।
चाहे ट्रांसफर हुए लेिकन फिर भी मैं अपने आप को लक्की मानता हूं कि सेन्ट्रल सर्विस में होने की वजह से मैंने इतने शहर देखे और इन के आस पास की जगहें भी देखीं...फिरोजपुर में रहते हुए पटियाला, मोगा, लुधियाना, जालंधर हो कर आने का मौका मिला...हां, मुक्तसर का माघी मेला भी देखा...फिरोजपुर के हुसैनीवाला हिंद-पाक बार्डर पर पंद्रह बीस बार तो गया ही होऊंगा।
हरिद्वार गया, वैष्णोदेवी, जगन्नाथ पुरी भी हो कर आया.....कन्याकुमारी, त्रिवेन्द्रम, कोची, कटक, भुवनेश्वर, नागपुर, मद्रास, कोलकाता, लोनावला, खंडाला, शिमला, कुल्लू..मनाली, अजमेर, हिमाचल में पालमपुर, बैजनाथ पपरोला, पुणे...असाम में जोरहाट....शायद इतना कुछ ही देखा...
बहुत सी जगहों को देखने की तमन्ना है, गोवा, सिक्कम, नार्थ-इस्ट....मेघालय, नागालैंड, कश्मीर, लेह-लद्दाख, खजुराहो, एजन्ता-एलोरा...
कईं बार ऐसी तमन्ना होती है कि इन सब प्राकृतिक जगहों पर साल में एक एक महीना रहा जाए....बस, कोई काम धंधा करने के लिए न हो....बस, बिना किसी मकसद से घूमता रहूं, प्राकृतिक नज़ारों का आनंद लूं, और फिर इन के बारें में अपने अनुभव लिखूं। इतना कम हिंदोस्तान देख पाया हूं इस के बावजूद िक हर जगह जाने और ठहरने की सुविधा बहुत अच्छी उपलब्ध है....लेिकन फिर भी हम लोग जीवन की आपा-धापी में इतने मसरूफ हो जाते हैं कि शायद जीना ही भूलने लगते हैं। आप को क्या लगता है?
एक बात और भी शेयर करता हूं......अमृतसर शहर मुझे सब से अच्छा लगता है......सैंकड़ों-हज़ारों मीठी यादें मेरी इस
शहर से जुड़ी हुई हैं....मुझे अमृतसर का सब कुछ बहुत पसंद है, वहां के लोग, खान पान, ज़िंदादिली, खुशमिजाज लोग....ध्यान आ रहा मैंने अमृतसर शहर के ऊपर लगभग ३५-३७ साल पहले जब मैं मैट्रिक में पढ़ता था तो एक दो लेख भी लिखे थे.....अभी ढूंढता हूं ......अगर मिलते हैं तो उन्हें यहां पेस्ट करता हूं.......ताकि आप को यह भी पता चल जाए कि यह लिखने का कीड़ा स्कूल के दिनों से ही काट रहा था.......हा हा हा हा ....
अमृतसर के केसर के ढाबे का मेरा फेवरेट खाना |
एक बात और शेयर करूं......मुझे बाहर के खाने से सख्त नफरत है, मेरी तबीयत तुरंत खराब हो जाती है....लेकिन केवल अमृतसर के केसर के ढाबे का खाना है जो मुझे अभी तक सब से श्रेष्ठ लगता है.....I am very fond of Kesar da Dhaba.....उस ढाबे की तारीफ़ करने के लिए भी मेरे पास शब्द नहीं है......so many sweet memories of that place too!
इतना लिखने के बाद लग रहा है कि यह जो हिंदोस्तान को ५-१० प्रतिशत देखने की मैंने बात की है, यह भी एक तरह से गप ही हांक दी है.....असलियत में केवल एक प्रतिशत भारत ही देखा-घूमा होगा......शायद
अब पोस्ट को समाप्त करते हुए पता नहीं अचानक यह गीत कैसे याद आ रहा है....आज फिर जीने की तमन्ना है....आज फिर...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...