शनिवार, 10 जनवरी 2015

दांत के खड़्डे में क्या भरवाना ठीक रहता है?

आज जब मैं एक महिला के दांतों की सड़न से ग्रस्त खड्डे वाले दांत भर रहा था तो मुझे विचार आया कि शायद मरीज भी सोचते होंगे कि दांत में क्या भरवाना ठीक रहता है..क्योंकि विकल्प तो बहुत से होते हैं..तरह तरह के डैंटल मेटिरियल हैं...लेकिन सच तो यह है कि यह मरीज के सोचने की बात है ही नहीं।

यह निर्णय केवल और केवल एक प्रशिक्षित दंत चिकित्सक ही करे तो बेहतर ही नहीं, बहुत ही बेहतर होता है। यह मैं इस लिए लिख रहा हूं कि कईं बार कुछ मरीज़ ही आ कर यह कहने लगते हैं कि उन्हें तो सफेद कलर की फिलिंग चाहिए, कुछ कहते हैं लेज़र फिलिंग चाहिए...ऐसे बहुत कुछ। 

लेकिन मेरी सलाह यह है कि कभी भी दंत चिकित्सक के पास जा कर फिलिंग की अपनी च्वाईस नहीं बतानी चाहिए... क्योंकि उसे अच्छे से पता है कि आप के किस दांत के लिए कौन सी फिलिंग लंबे समय तक चलने वाली है!

चलिए, थोड़ा देखते हैं कि दंत चिकित्सक यह निर्णय करने के लिए किन किन बातों को ध्यान में रखता होगा... 
  • मरीज की उम्र 
  • दांत दूध के हैं या पक्के हां?
  • आप के हंसने पर वह दांत का हिस्सा कितना दिखता है?
  • क्या फिलिंग वाली जगह चबाने के लिए काम में आने वाली है?
  • जिस खड़डे में फिलिंग होनी है वह कितना गहरा है..
  • क्या उस खड़डे में पहले भी फिलिंग भरी हुई थी लेकिन उस में यह टिकी नहीं, यह खाली हो गया..
  • आप किस प्रोफैशन में हैं, क्या आप शो-बिज़नेस में हैं?
  • और बड़ी मुनासिब सी बात है कि प्राईव्हेट प्रैक्टिस में यह भी एक सवाल की क्या आप उतनी पेमेंट कर सकते हैं?
ऐसा मानिए कि यह तो बस उदाहरण है... आप के दांत का खड्डा देखते ही उस के मन में बहुत से प्रश्न आ जाते हैं....

टॉिपक मैंने आज कुछ ज़्यादा ही टैक्नीकल सा चुन लिया है, इसलिए चलिए इसी औरत की उदाहरण लेकर बात खत्म करते हैं। 


हां तो जिस औरत के दांतों की मैंने तस्वीर यहां लगाई है, यह पचास वर्ष की है और इस के बहुत से दांतों में सड़न हो गई है और यह सड़न दांत के ऊपरी हिस्से (क्रॉउन) और जड़ (जो मसूड़े में होती है) के जंक्शन पर है.....आप जैसा कि देख रहे हैं कि तसवीर के बाईं तरफ़ जो आप को सफेद सी फिलिंग दिख रही हैं, वे तीनों फिलिंग मैंने आज की है.. अभी और भी दांतों में फिलिंग करनी शेष है। 

जिस बात पर मैं विशेष ज़ोर देना चाहता हूं वह यह है कि देखने में यह फिलिंग इतनी बढ़िया नहीं दिख रही (दांत के साथ कलर मैचिंग के नज़रिये से), है कि नहीं, लेकिन इस उम्र में इस महिला के लिए यही मैटिरियल (ग्लास-ऑयोनोमर सीमेंट) सर्वश्रेष्ठ है...क्योंिक जब यह हंसती है तो दांतों का यह हिस्सा नज़र नहीं आता... और यह मेटिरियल बहुत लंबे समय तक बिल्कुल ठीक ठाक लगा रहता है....इस की विशेषता यह है कि यह दांत में लगे रहते फ्लोराइड नामक तत्व भी बहुत कम मात्रा में रिलीज़ करता रहता है जिस से दांतों में फिर से दंत-क्षय भी नहीं होता। कुछ मरीज़ों में मैंने इस तरह की फिलिंग १९८९ (२५ वर्ष पहले की थीं) और उन के दांतों में अभी भी यह बढ़िया टिकी हुई है.......इस में मेरी कोई महानता नहीं है , यह मेटीरियल ही इतना बढ़िया है। 

और अगर हम इस तरह के एरिया में बिल्कुल दांत के कलर से मैचिंग मेटीरियल (डेंटल कंपोज़िट) लगा दें (मरीज की फरमाईश पर या जैसे भी) तो यह कुछ ही वर्षों में थोड़ा सिकुड़ने लगता है, जिसे से ठँडा-गर्म की शिकायत या फिर से दंत-क्षय लगने लगता है, या दांत काला पड़ने लगता है.. ऐसे में इस फिलिंग को बार बार बदलने की नौबत आ जाती है। इसलिए इस तरह की फिलिंग को इस उम्र के मरीज़ में प्रेफर नहीं किया जाता। 

हां, अगर इसी तरह की फिलिंग -दांत के इसी हिस्से में कम उम्र के युवक-युवती में करनी हो तो इस महिला में इस्तेमाल किए गए इस मेटिरियल को इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंिक युवक-युवतियां जब हंसते हैं तो उन के अगले दांतों का काफी हिस्सा नज़र आता है। 

और एक बात.....यह लेज़र-वेज़र फिलिंग कुछ नहीं होती......वही डेंटल कंपोज़िट ही है िजसे एक लाइट से एक दो मिनट में पकाया जाता है, अब कुछ लोगों ने इसे ही लेज़र फिलिंग कह के पुकारना शुरू कर दिया है। 

शायद मेरे जैसे चिकित्सकों के लिए निर्णय कर पाना ज़्यादा आसान होता है लेकिन अगर मैं भी कभी प्राईव्हेट प्रैक्टिस करूंगा या अगर करता तो मुझे भी आखिर मरीज़ की च्वाईस का भी ध्यान करना होता (लेकिन इस के नुकसान मैंने पहले ही गिना दिये हैं) ....वरना कईं बार दंत चिकित्सक को मरीज़ ही खोना पड़ सकता है। अगर आप नहीं भी करेंगे उस की फरमाईश का, तो वह कहीं और से करवा ही लेंगे। बेहतर होगा कि सब कुछ अच्छे से समझा दिया जाए, और अगर फिर भी फरमाईश ही पूरी करनी पड़े तो कर दी जाए।

मुझे लिखते ही लगने लगा है कि ये बातें मेरे लिए तो सामान्य हैं, लेकिन पाठकों के लिए ये बातें बोझिल होती जा रही होंगी, इसलिए इस बात को यही रोक देते हैं, इस उम्मीद के साथ कि जो बात आप तक पहुंचाना चाहता था वह तो पहुंच गई होगी!


शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

सकट पूजा भी संपन्न हुई...

तीन चार दिन पहले मेरे सहायक ने मुझे कहा कि वह आठ तारीख को छुट्टी लेगा.....क्योंकि उस दिन सकट व्रत है ..और उस का सारा सामान उसने स्वयं घर ही में तैयार करना होता है। बाज़ार में मिलावटी सामान बिकता है.. जल्दी जल्दी में उस ने बताया कि यह व्रत माताएं अपने बेटों की लंबी आयु के लिए रखती हैं। और जल्दी जल्दी में उसने तैयार की जाने वाली चीज़ों की लिस्ट भी बता दीं.....लईया के लड्‍डू, तिल के लड्‌डू, शकरकंदी, चने के लड्‍डू, राजदाना (सील)के लड्डू  आदि।

वैसे तो चार पांच दिन पहले हमें भी बाज़ारों में जब यह सब कुछ भारी मात्रा में बिकता दिखा तो यही लगा कि कोई व्रत-त्योहार ही पास होगा..

उसी दिन मैंने अपने सहायक से कहा कि यार, यह व्रत केवल लड़कों के लिए ही क्यों!  कहने लगा कि अब जो पुरातन समय से नियम चले आ रहे हैं वैसा ही चल रहा है, बेटों के लिए ही है केवल। मैं यही सोचता रहा कि सारे व्रत औरतें ही क्यों रखें....पति परमेश्वर के लिए करवा चौथ, बेटे के लिए सकट चौथ, भाई के लिए भैया-दूज ...और भी होंगे ज़रूर कुछ व्रत जो मेरे नॉलेज में नहीं होंगे।

लेिकन मैंने जा कल और आज इस सकट पूजा के बारे में अखबार में पढ़ा उस में मुझे कहीं नहीं लगा कि यह केवल बेटों के लिए ही रखा जाता है.. शायद समय करवट ले रहा है इसलिए खुल कर अखबार में नहीं लिखा गया है।
कल और आज की अखबार की कतरनें यहां चस्पा कर रहा हूं, आप भी देखिए...

हिन्दुस्तान ८ जनवरी २०१५ (पिक्चर पर क्लिक करिए) 

हिन्दुस्तान ९ जनवरी २०१५ (पिक्चर पर क्लिक करिए) 
आज सुबह मेरा सहायक मेरे लिए इस व्रत का प्रसाद ले कर आया जिसमें उसने सब कुछ अपने हाथ से बनाया था...बहुत बढ़िया....

सच में भारत त्योहारों-पर्वों का देश है......

सुन्दर बनने के फेर में बार-बार न लगाएं क्रीम

आज की हिन्दुस्तान अखबार में केजीएमयू के प्लास्टिक सर्जरी विभाग के डा विजय कुमार का एक बहुत बढ़िया लेख प्रकाशित हुआ है...डाक्टर साहब ने बिना वजह से चेहरे पर क्रीमें थोप-थोप कर उसे बिगाड़ने के बारे में बड़े अच्छे से सचेत किया है।
इस को अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए
जब कोई विशेषज्ञ इस तरह की बातें करता है तो बेहतरी है हम चुपचाप मान लें।

हम देखते ही हैं ..आज अधिकतर लोग अपने चेहरे को बिगाड़ने में लगे हैं.....मेरे सहायक परिचर ने भी अस्पताल में एक गोरा होने की क्रीम रख छोड़ी है... यदा कदा देखता हूं चेहरे पर रगड़ रहा होता है। मैं उसे कहता हूं कि तू क्यों इन चक्करों में पड़ता है, इन से कुछ नहीं होता। लेकिन उस का भ्रम है कि उसे तो फर्क महसूस होता है।

अकसर मुझे कुछ युवा मिलते हैं जिन के चेहरों पर मुंहासे आ जाते हैं...१५-१८-२० की उम्र में.....मैं देखता हूं कि जो युवा तो इन के लिए कुछ भी नहीं करते...वे तो बिल्कुल ठीक रहते हैं, कुछ समय बाद ये मुहांसे अपने आप ही सूख जाते हैं...बिना कोई भी निशान छोड़े.....क्या हम लोगों को नहीं होते थे ये मुहंासे, होते थे, लेकिन हम कुछ भी तो नहीं करते थे। लेकिन आज के युवाओं को इन मुहांसों के बिगड़े रूप से बचने के लिए जंक-फूड और अपनी जीवनशैली को दुरूस्त करने की भी बहुत ज़रूरत है...नींद भी पूरी होनी चाहिए ..जो सोशल मीडिया के चक्कर में अधूरी रह जाती है।

और अगर लगे कि इन मुहांसों की वजह से ज़्यादा ही परेशानी हो रही है तो चमडी रोग विशेषज्ञ से मिल कर ही कुछ करिए...अपने आप ही किसी विज्ञापन में देख-पढ़ कर या फिर पड़ोस के कैमिस्ट की सलाह से कुछ भी न लगाएं.....चेहरा बिगड़ जाएगा, फिर तो चमडी रोग विशेषज्ञ के पास जाना ही होगा।

डाक्टर साहब ने बार बार फेशियल के नुकसान भी गिनाए हैं, ध्यान से पढ़िएगा।

मैं भी इन दो तीन महीनों की  सर्दी के दिनों में बस चेहरे पर सुबह नहाने के बाद बिल्कुल थोड़ी सी कोल्ड-क्रीम लगा लेता हूं... चेहरे पर शुष्कपन नहीं रहता, बस इसलिए, और कुछ नहीं करते।

वैसे भी ..... Beauty is not skin deep! ....अगर आप के भीतर सुंदरता है तो वही बात झलकेगी.... रंग ले आएगं, रूप ले आएंगे..कागज के फूल खुशबू कहां से लाएंगे। गांवों-कसबों की महिलाएं अधिकतर पहले कहां इन सब चक्करों में पड़ा करती थीं, और उन के चेहरे की चमक-दमक देखते ही बना करती थी।



मैं कईं बार मजाक में कहता हूं कि जितना पैसा आप लोग अपने आप को ब्यूटीफाई करने के लिए खर्च कर देते हैं, अगर उतने पैसे का फल-फ्रूट या जूस ही पी लिया जाए.....पौष्टिक आहार लिया जाएं, तो स्थायी सुंदरता से ही चेहरे चमकने लगें।

दादी-नानी के घरेलू नुस्खों जैसे मुल्तानी मिट्टी, उबटन आदि तो सब अब नाम ही से आज के युवाओं को कितना आउटडेटेड सा लगता होगा, है कि नहीं, सब कुछ एकदम हिप होना चाहिए!

एक बात बिल्कुल इस विषय से जुड़ी नहीं है, दोस्तो, चेहरे की बात हो रही है तो ज़ाहिर है शर्माने की बात भी इस के साथ थोड़ी जुड़ तो सकती है.....दोस्तो, आज सुबह जब मैं विविध भारती पर "मेरा गांव मेरा देश" का यह गीत सुन रहा था तो अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि पिछले चार दशकों से मेलों में फिल्माए गये अनेकों गीत आए......लेकिन ऐसा क्या है, कि यह गीत बचपन के दिनों से लेकर आज तक हम सब के दिलों पे राज करता है..... क्या ख्याल है?


इसे मैंने यहां पर इस लिए भी लगा दिया है क्योंकि मैं चाहता हूं कि आप थोड़ा हंसे-मुस्कुराएं......यहां एक नन्हे फरिश्ते की तस्वीर देख रहे हैं.....यह एक बेहतरीन नुस्खा हम से शेयर कर रहा है.....

"अगर बिना वजह चिंता में डूबे रहोगे तो चेहरे पर मुहांसे फूटेंगे... 
अगर रोनी सूरत बनाए रहोगो तो झुर्रियां ही पड़ेंगी, 
अगर हंसते-मुस्कुराते रहोगे तो गाल मेरे जैसे डिंपट वाले क्यूट हो जाएंगे।।"

पति, पत्नी और वो

टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ हर रोज़ सप्लीमेंट आता है..लखनऊ सप्लीमेंट... जैसे रोटी के साथ आचार लेते हैं, ठीक उसी तरह की चटपटी खबरें लिए हुए.....कौन सा सिनेस्टार किस के साथ देश-विदेश के किस हाटेल में देखा गया, कौन से लोग किस पेज-थ्री पार्टी में किस पोशाक में आए... किस अधेड़ उम्र की स्टार को कौन सा ब्वॉय-फ्रेंड मिल गया..बस यही कुछ होता है इस में.........शायद मॉड लोगों को अल्ट्रा-मॉड बनाए रखने का एक प्रयास। मेरा बेटा कहता है कि ये सब इन सितारों की छवि के लिए इन की पी-आर एजेन्सियां करती रहती हैं।

मैं अकसर इन चार-छः पन्नों को पढ़ता ही नहीं हूं....हां, तस्वीरें ज़रूर कभी कभी देख लिया करता हूं। कल रात भी सोते सयम एक अजीबोगरीब फीचर पर नज़र पड़ गई ..किस तरह से लखनऊ की फैमिली कोर्ट में तलाक के केसों में तलाक की पुख्ता वजह पेश करने के लिए...पति और पत्नी अपनी बीवी या शोहर के मोबाइल फोन में एक खुफिया सॉफ्टवेयर डाउनलोड करने या करवाने की जुगत कर लेते हैं.....फिर उस की हर ऑन-लाइन हरकतों पर नज़र रखी जाती हैं, किस से चैटिंग की, किस को क्या संदेश भेजे, किस को और क्या क्या भेजा, सब कुछ। 

और इस सारी एक्टिविटी को कोर्ट के समक्ष--तालाक के एक पुख्ता कारण के रूप में पेश किया जाता है और एक दूसरे से छुट्टी लेने का काम आसान हो जाता है। 

फिर से अगला शिकार ढूंढने में खुली छूट!!

मैंने दो दिन पहले विविध भारती पर एक मनोरोग चिकित्सक के इंटरव्यू के बारे मंें लिखा था ना कि किस तरह से वह आक्रामक होकर इतना एक्साईटेड हो कर कह रहा था कि शादी के तुरंत बाद ही अगर लड़की को लगे कि सब कुछ ठीक नही है तो एडजस्ट करने की बजाए, अपने मां-बाप को फोन मिलाओ, रिश्ता ही तोड़ लो, और घर की ईज्ज़त बचाने के चक्कर में न पड़ा जाए, उस ने यही कुछ कहा था। 

शायद समय बहुत जल्दी से बदल रहा है.... एक तरफ औरतें पतियों के ऊपर अत्याचार के आरोप लगाती फिरती हैं, दूसरी तरफ़ पत्नी पीड़ित पतियों के दल बनने लगे हैं। कल ऐसी ही एक तसवीर एक मित्र ने व्हाटस-एप पर शेयर की थी। 


वैसे सोचने वाली बात यह है कि आज कल के दंपति कैसे भूल जाते हैं कि घर से निकली बात बाहर केवल तमाशा ही बनती है, जिस किसी रिश्तेदार और मित्र को कोई वास्ता नहीं भी होता, वह भी चटपटा विषय देख कर अपनी राय देने आ जाता है, अपने गिरेबां में झांके बिना कि वह अपनी निजी ज़िंदगी में क्या गुल खिला रहा है। अकसर ऐसे रिश्तेदार जो स्वयं हर तरह के विवाहेतर संबंधों (extra-marital relations) की दलदल में गले तक फंसे पड़े होते हैं, वे इस तरह के मामलों में कंसल्टैंट से बन जाते देखे गये हैं। 

वैसे तो अब नौबत यह भी नहीं आती, क्योंकि शादीशुदा आदमी-औरत अकेले रहते हैं. कईं बार तो एक छत के नीचे रहने के लिए शादी की ज़रूरत भी नहीं समझी जात--- बस एक हिंदी फिल्म को लिव-इन रिलेशनशिप का आइडिया देने भर की जरूरत होती है.....ऐसे में कोई भी support system तो होता नहीं, ज़रा सा भी शक हुआ तो एक दूसरे को तलाक रूपी GPL मारने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। 

अब कमबख्त टीवी के ड्रामे देखने की इच्छा ही नहीं होती.....जितना इन सेटलाइट चैनल वालों ने रिश्तों में दरारे डालने का काम पिछले १२-१५ वर्षों में किया है, कुछ को तो लाइफ-टाइम अचीवमैंट एवार्ड मिलना चाहिए। अब तो कभी गलती से भी कोई ड्रामा जाए तो सिर दुःखता है...इन्होंने कुछ स्टीरियोटाइप तैयार कर दिये हैं......सास और बहू के रिश्ते सदैव नकारात्मक, पति दूसरी औरतें की चक्कर में, घर में बहू पर बुरी नज़र रखने वाली दूसरे लोग, और इन सब पर सास-बहू-पति के शर्मनाक षड़यंत्र पे षड़यंत्र........क्या हमारा आज का समाज सच में ऐसा ही है ?... यह निर्णय आप करें। 

वैसे मुझे एक बात हमेशा सोचने पर मजबूत करती है कि पता नहीं यार कुछ लोगों में ये हार्मोन किस स्तर पर उछलते होंगे िक उन का एस सीधे-सादे वैवाहिक संबंध से मन ही नहीं भरता..........यह बात अधिकतर पुरूषों पर ज़्यादा लागू होती है। औरतें तो अभी ठीक ही हैं, सोप-ओपेरा की बात छोड़िए, उन का तो यह धंधा ही है, टीआरपी के लिए हम कुछ भी करगेा.....राई को पहाड़ बना कर भी पेश किया जाता है। 


मैं सोच रहा था कि पहले लोग जितने भोले भाले होते थे, उन के शक भी उतने ही भोले भाते होते थे........जैसे शौहर की कमीज़ पर एक लंबा बाल (संभवतः किसी दूसरी औरत का) देख कर, किसी कपड़े पर लिप-स्टिक का थोड़ा सा भी निशान या फिर घर में रखी उस कमबख्त ऐश-ट्रे में जले हुए टुकड़े का कोई अंश.......ऐसा अकसर हम फिल्मों में देखा करते थे बस.......शुक्र है ये खुफिया वुफिया कैमरे की बातें तब न होती थीं, वरना "आप की कसम", पति-पत्नी और वो जैसी फिल्में ही हम तक न पहुंच पातीं......क्या ख्याल है?.. जहां तक मुझे ख्याल है आप की कसम फिल्म की कहानी भी वैवाहिक संबंधों में उपजे शक पर ही टिकी हुई थी...आप को भी करवटें बदलने वाली बातें तो याद ही होंगी!!

  हां, यार, एक बात तो मैं शेयर करनी भूल ही गया कि पिछले दिनों एक बार जैसे ही टीवी आन किया तो एक बेहद चर्चित सीरियल की विलेन सी करतूतें करनी वाली बीवी किसी से मिल कर अपने पति के कमरे में खुफिया कैमरे फिट करवा रही थीं.....सोचने वाली बात यह है कि अगर घर ही में इस तरह के शुभचिंतक छुपे बैठे हैं तो बाहर के किसी दुश्मनों की ज़रूरत किसे होगी!!


 और फिर जब ऐसा करने कराने वालों की रात की नींदे उड़ जाती हैं तो डाक्टर क्या कर लेंगे, सिवा नींद की गोलियां लिख कर देने को ....

लिखते लिखते सुनंदा पुष्कर की मौत का ध्यान आ गया...जहाज में नोंकझोंक, एयरपोर्ट पर पति  के मुंह पर तमाचा, फिर हाटेल के कमरे में......मौत......पास में पड़ी नींद और अवसाद के इलाज की गोलियों की खाली स्ट्रिप्ज़। 




गुरुवार, 8 जनवरी 2015

घर जैसा अपना घर..

अभी मुझे खुशी हुई.. बेटा स्कूल से आ कर सुना रहा है कि अभी किसी स्टेशनरी की दुकान पर दुकानदार ने उस से ७० रूपये की बजाए.. ५० रूपये देने को कहा.. बताने लगा कि मैंने उसे कहा कि आपने इस रिफिल के नहीं जोड़े....और मैंने उसे पूरे ७० रूपये दिए...उस की ऐसी बातें सुन कर अच्छा लगता है .. कहता है...पापा, छोटी छोटी इन की दुकानें होती हैं, १०-२० तो इन की कमाई होती है!!

मैंने उसे शाबाशी दी और आशीर्वाद दिया कि ऐसा ही बने रहना। बचपन से ही ऐसी बातें करता है.. आवारा कुत्तों के लिए एक बड़ा सा हाउस बनाऊंगा, पिछले दिन वाली रोटी अगर हमारे लिए ठीक नहीं तो जानवर के लिए कैसे ठीक हो सकती है, घर में अलग अलग कमरे नहीं होने चाहिए.....एक बड़ा सा हाल हो, और सब के पलंग उस में लाइन से बिछे हों....बहुत सी बातें ऐसी ही करता है िक मैं ईश्वर का यही शुक्रिया करता हूं कि नैतिक शिक्षा में तो पास हो गया लगता है। ईश्वर इस की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करे।

हां, घर की बात चली..कमरों की, बिस्तरों की.....दोस्तो, मेरे भी इस बारे में कुछ विचार हैं।

मुझे ऐसे लगता है कि हम लोग अपने घरों को आने वाले मेहमानों के लिए तैयार करते रहते हैं.....और मेहमान जब आते हैं तो दो-तीन दिन में चले जाते हैं और लोकल मित्र आिद तो चाय-नाश्ता या लंच-डिनर कर के नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। है कि नहीं?

लेकिन अधिकतर घरों में ज़्यादा फोकस यही होता है कि ड्राईंग रूम को तो मेहमान के आने पर ही खोला जाए.. मिट्टी आ जायेगी....हम लोग इस मामले में बड़े लक्की हैं, दोस्तो......हम लोग अधिकतर अपने ड्राईंग रूम का ही इस्तेमाल करते हैं, बिल्कुल लाउंज की तरह इस में डेरा लगाए रहते हैं। एक रिश्तेदार के यहां जाते हैं ..इतना महंगा आलीशान घर, और उस से भी आलीशान ड्राईंग-रूम...लेकिन वह खुलता किसी मेहमान के आने पर ही है.....सारे परदे खिंचे रहते हैं, टनाटन.......हवा अंदर आने का कोई जुगाड़ नहीं, बस एसी ज़रूर लगे हुए हैं.......सब कुछ कितना नकली, नीरस और निर्जीव सा जान पड़ता है !! मुझे नहीं लगता उन्होंने कभी खिड़कियां खोली भी हों!!



यार, ड्राईंग रूम में फर्नीचर, कलीन, परदे ऐसे कि जो आने वाले को अच्छे लगें... बड़ी अजीब सी बात लगती है.....यही नहीं, हम लोग घर में विशेषकर ड्राईंग-रूम में सामान भी इस ढंग से रखने की कोशिश करते हैं कि आने वाला बस वाह वाह कह उठे।

मैं इसे ठीक नहीं मानता। अतिथि का पूरा सम्मान होना चाहिए.....उस के खाने-पीने और आराम करने का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए....और हमारे देश में तो वैसे भी अतिथि देवो भवः। अतिथि हर तरह से खुश रहना चाहिए, यह हमारे देश के संस्कार हैं......बहुत अच्छी बात है, लेकिन घर की व्यवस्था ऐसी हो कि उसे इंप्रेस किया जा सके, यह बेवकूफी है....कब आयेगा अतिथि, यार, कभी आयेगा भी कि नहीं, कितना समय ठहरेगा.......ठहरेगा भी कि नहीं...लेिकन हम लोग अपने ३६० दिनों को उन पांच दिनों के चक्कर में गंवा बैठते हैं।

इंकलाब की पुरवाई कल हमारे ड्राईंग-रूम में चली..
दोस्तो, यह तो आप अच्छे से जानते हैं कि अतिथि केवल सम्मान चाहता है....अगर हम उस का दिल से सम्मान कर रहे हैं, तो साधारण आतिथ्य से भी वह बहुत खुश होता है। इस पर आगे कुछ लिखना बंद करता हूं......आप सुधि पाठक हैं।

हां, तो दोस्तो कल हमने ड्राईंग रूम में कुछ चेंज किये...हम लोगों ने ड्राईग रूम में रखा एलसीडी एक दो महीने से सब की सहमति से बंद कर रखा है... तीन चार महीनों के लिए......इसलिए इसे देख देख कर चिढ़ होती थी, उसे एक ठिकाने लगा दिया और डाइनिंग टेबल को ड्राईंग रूम में घसीट लिया ताकि इत्मीनान से कोई भी पढ़ लिख भी तो सके। यहां पर रोशनी आदि का भी बढ़िया इंतजाम है, इसलिए अच्छा लगता है यहां बैठना।

वह बात दूसरी है कि मेहमान आए उसे यह व्यवस्था उतनी बढ़िया न लगे तो इस में इतनी कौन सी बड़ी बात है.......मुझे लगता है कि मेहमान को इन सब बातों में उलझने की फुर्सत ही कहां होती है, ये सब हमारे ही ख्याली-पुलाव होते हैं।


परदों की बात आए तो देखा जाता है कि हम भारी भरकम महंगे महंगे परदे टांग तो देते हैं और ये फिर अगली आठ-दस साल तक सारे कुनबे का सिर दुःखाए रहते हैं.....है कि नहीं? बिल्कुल साधारण से सूती कपड़े के परदे कितना सुकून देते हैं यह मुझे ही पता है क्योंिक मैं स्टडी में हमेशा इसी तरह के कूल से परदे ही टंगवाने पसंद करता हूं।

ये विचार मेरे पर्सनल हैं....घर की साज सज्जा में कोई नियम नहीं होने चाहिए......सब कुछ सहमति से सब के मन की खुशी से तय होना चाहिए.......मुझे तो यह भी बड़ा अजीब लगता है कि घरों में सजाने के लिए हज़ारों रूपये की पेन्टिंग्ज़ और शो-पीस रखे जाते हैं........कईं बार स्थानीय शिल्पकारों द्वारा बिल्कुल सस्ते से बिकने वाले लकड़ी और मिट्टी से तैयार शो-पीस ज़्यादा खुशी देते हैं, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह खालिस २२ कैरेट सोने के गहनों से लदी किसी महिला के सामने एक साधारण सी दिखने वाली पत्थर और नकली मोतियों की माला पहन कर ही बाजी मार जाती है।

पोस्ट के माध्यम से एक यूनिवर्सल सच्चाई को किसी और को नहीं, अपने आप को एक बार याद दिलाने का एक उपाय किया है.....वैसे कुछ वर्ष पहले भी यह काम किया था....यह लिख कर.......अब इस कंबल के बारे में भी सोचना होगा। 

बिना सिर पैर वाली बातें लिखते लिखते मुझे वह गीत याद आ गया जिसे आपने बरसों से भुला दिया होगा......अब ऊपर वाली सभी बातों को एक तरफ़ हटा कर, पूरी तन्मयता से इसे सुनिए......दो पंछी दो तिनके ..कहो ले के चले हैं कहां.........ये बनाएंगे इक आशियां......मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है।। काश, हम सब के मकान सही मायनों में घर बने रहें.....यह आज के समय की मांग के साथ साथ चुनौती भी है!!

ज्ञान बांटने की होड़ लगी हो जैसे..

अभी मैं अखबार पढ़ रहा था.. रेडियो सिटी चल रहा था।

तभी रेडियो सिटी की आर जे बोलीं कि जिसे देखो आज ब्लड-प्रेशर हो रहा है, जिसे देखो कहता है..मैं चल नहीं सकता... ऐसे में आप को करना क्या है, आप को अपनी दवाई रात में सोने से पहले खानी होगी... इससे इस बीमारी के ऊपर कंट्रोल ज़्यादा बढ़िया होता है और हार्ट-अटैक आदि का खतरा कम हो जाता  है।

रेडियो जॉकी तर्क यह दे रही थीं कि रात में में कोई काम तो करना नहीं होता, बस आराम ही करना होता है, इसलिए एक बार अगर रात में दवाई ले ली तो उच्च रक्त चाप का बेहतर कंट्रोल हो पाएगा।
Photo credits/nlm.nih.gov
यह तर्क बिल्कुल बेबुनियाद सा लगा... वैज्ञानिक तथ्यों से रहित.....मुझे अपना समय याद आ गया...१९९४ के आसपास की बात है, मुझे थोड़ा रक्तचाप रहने लगा था...बंबई में रहते थे तब...उन्हीं दिनों मैंने प्राणायाम् और मेडीटेशन (ध्यान) सीखा....मेरी कोशिश रहती थी कि प्राणायाम् के तुरंत बाद तो कभी कभी रक्त चाप की जांच करवा ही लूं।

उसी दौरान दो चार बार तो मुझे अपनी मिसिज़ के अस्पताल भी बाद दोपहर जाने का अवसर मिला.....कईं बार जब लंच-ब्रेक होता.. तो मैं पहले वहां पर १५-२० मिनट के लिए मेडीटेशन करता और फिर ब्लड-प्रेशर को नपवा लेता....सामान्य आने पर राहत महसूस होती।

फिर मुझे समझ आने लगी कि यह बात अजीब सी है...बी.पी का स्तर तो सारे दिन ही सामान्य रहना चाहिए...ठीक है सुबह और शाम की रीडिंग में थोड़ा अंतर हो सकता है, लेकिन इस तरह से प्राणायाम् अथवा ध्यान के तुरंत बाद बी पी जांच करवा के आश्वस्त हो लेना पूरी तरह से ठीक नहीं है।

फिर जब धीरे धीरे यह बी पी का लफड़ा समझ में आने लगा तो अपना ज्ञान इस तरह से झाड़ दिया...

हाई-ब्लडप्रेशर का हौआ.. भाग १

दोस्तो, माफ़ करना....सच में मुझे पता नहीं कि कुछ साल पहले क्या लिखा था इन पोस्टों में.....लेकिन इतना इत्मीनान है सच के अलावा कुछ न लिखा होगा। हलवाई को अपनी मिठाई का पता रहता है, इसलिए वह नहीं खाता उसे.....बरसों बाद मेरा भी अपने लेखों के साथ व्यवहार कुछ कुछ इसी तरह का ही होता है।

हां, तो उस रेडियोसिटी की आर जे की बातों पर वापिस लौटते हैं...उसने भी आज यही कहा कि आप ज़िंदगी का आखिर उखाड़ क्या लेंगे, क्या कोई अभी तक कुछ उखाड़ पाया है!

हाई-ब्लडप्रेशर का हौआ.. भाग२

व्हाट्सएप पर एक जोक आया था.....कि सतसंग में तो इस मौसम वही जाने की इच्छा होती है जहां ब्रेड-पकोड़े का प्रसाद मिले....वरना ज्ञान तो फ्री में व्हाट्सएप में कुछ बंट रहा है। यहीं नहीं, सारे सोशल मीडिया पर और मॉस-मीडिया (जन संचार) पर भी जैसे होड़ सी लगी हुई है..

इन माध्यमों की पहुंच बहुत ज्यादा है.... लेिकन इस तरह के ज्ञान का इस्तेमाल ज़रा सोच समझ कर के ही करिएगा.....जैसे अगर कोई विशेषज्ञ आप को दवाई लेने के समय के बारे में इस तरह की बात कहे तो उस की बात बिना किसी किंतु-परंतु के मान लीजिए... वरना इस तरह की हल्की-फुल्की बातें को गंभीरता से लेते हुए कहीं मान ने लें!

जहां तक दवाईयों लेने के समय की बात है...यह केवल और केवल आप का डाक्टर जानता है... खाली पेट, खाने के तुरंत बाद, खाने के दो घंटे बाद, रात को सोने से पहल, दिन में कितनी बार लेनी है ... पानी के साथ, दूध के साथ... बहुत तरह की बातें होती हैं, इस के पीछे वैज्ञानिक कारण होते हैं...इन्हें नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। एक बात पल्ले बांध लें कि हर दवाई का अलग मिजाज है....हां, बिल्कुल लोगों की तरह.......और इस मिजाज को रेडियो जाकी नहीं, अनुभवी चिकित्सक ही जानते हैं।

लेकिन एक बात ज़रूर है....ये रेडियो जॉकी आप को खुश रखने की कला में निपुण होते हैं......यार, ऐसे में वे भी तो हम सब के हाई ब्लड-प्रेशर को कंट्रोल करने में मदद तो कर ही रहे हैं जिस के लिए ये सब साधुवाद के पात्र हैं। सुबह सुबह अपनी चटपटी बातों से लोगों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरने आ जाते हैं.

बस, यही बात करने की आज सुबह सुबह इच्छा हो गई...वैसे आज कल ब्लड-प्रेशर की जांच करने के लिए नये नये डिवाईस आ रहे हैं...कभी फिर इन के बारे में चर्चा करेंगे......बस, आप ज़रूरत से ज़्यादा न सोचा करें..यह एकदम सुपरहिट फार्मूला है।

आज सुबह यह गाना सुन लें?...बर्फी फिल्म का बहुत सुंदर गीत है... इत्ती सी हंसी, इत्ती सी खुशी....प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर को इन की बेहतरीन एक्टिंग के लिए १०० में से १०० अंक......याद है फिल्म देखते कितनी बार आंखें नम हो गई थीं (सच कहूं तो बस नम ही नहीं...) ...इतने संवेदनशील विषय को इतनी परपेक्शन के साथ परदे पर उतारने के लिए....



बुधवार, 7 जनवरी 2015

दिमाग के डाक्टर के दिल से निकली बातें...

लखनऊ में बुज़ुर्ग पेड़ों की कमी नहीं है...
परसों दोपहर में विविध भारती प्रोग्राम लगाया तो सेहतनामा लग गया...इस में मुंबई के एक प्रसिद्ध मनोरोग विशेषज्ञ से बातचीत का दूसरा हिस्सा सुना रहे थे....पहला हिस्सा पिछले सप्ताह सुना चुके थे, मैंने उसे तो नहीं सुना, लेकिन परसों वाले कार्यक्रम को ध्यान से सुना ताकि जो भी काम की बातें डाक्टर के दिल से निकलेंगी आप के साथ शेयर करूंगा।

सब से पहले तो उन्होंने आधुनिक वैवाहिक जीवन को सफल बनाए रखने के लिए कुछ गुरू-मंत्र बताए... . उन का ध्यान नहीं आ रहा। लेकिन उस में इतनी कौन सी बड़ी बात है, जिसने यह लड्डू खाया है, वह तो अपने आप ही सीख िलया होगा, और जिस ने अभी नहीं खाया, अपने आप ही देर-सवेर सीख जाएगा या जायेगी।

जो जो बातें मुझे याद आती जाएंगी, मैं यहां लिख रहा हूं.

एक बात पर उन्होंने जोर दिया कि अपने ऑफिस में तनाव-मुक्त वातावरण रखने के लिए चेहरे पर मुस्कान बनाए रखिए.. कह रहे थे अगर सामने वाला नहीं भी हंसा तो उस के हाइपोथेलेमस (दिमाग का एक भाग जो इस क्रिया को कंट्रोल करता है) में शायद कोई समस्या हो, लेकिन आप का तो सब कुछ ठीक है, तो सदैव हंसते-मुस्कुराते रहिए...अच्छी लगी उन की यह बात।



ऑफिस में स्ट्रेस कम करने के लिए उन्होंने कहा कि काम करते करते बीच में माइक्रो-ब्रेक लेने भी बहुत ज़रूरी हैं.. जिस दौरान थोड़ा प्राणायाम् ही कर लिया, गहरे सांस ही ले लिए, थोड़ा इधर उधर टहल लिया। और एक बात पर उन्होंने विशेष बल दिया कि घर आते ही टीवी ऑन कर के उस के सामने मत टिक जाया करिए।

एक बात पर उन्होंने जोर दिया कि शादी के बाद अगर लडकी पर इमोशनल अत्याचार या शारीरिक हिंसा हो रही है तो उसे उसी वक्त मां-बाप को बताना ज़रूरी है..डाक्टर ने कहा कि पहले कहते थे एडजस्ट करो, अब कहते हैं फोन करो... आगे उन्होंने कहा कि शादी तोड़ना कोई शर्म की बात नहीं, जुल्म सहना खतरनाक है। उन्होंने यह भी कहा कि खानदान की इज्जत बचाए रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। उन का तर्क यह था कि जैसे पानी में कूदते ही पता चल जाता है कि तापमान कैसा है, उसी तरह शादी के पहले महीने में ही काफी कुछ पता चल जाता है।

मुझे यह बात थोड़ी अजीब सी लगी....जिस एग्रेसिव ढंग से उन्होंने यह बात की.....कि बस जैसे कुछ भी हो और रिश्ता तोड़ दिया जाए। हो सकता है कुछ वर्गों के लिए यह काम कर जाए फार्मूला ..लेकिन मैं समझता हूं कि यह हर जगह काम नहीं कर सकता.....कोई बेलेंस करने की कोशिश करनी चाहिए....वह तो मैं मानता हूं कि जुल्म सहना खतरनाक है...लेकिन डाक्टर की यह बात थोडी अजीब सी प्रतीत हुई... पहले कहते थे एडजस्ट करो, अब कहते हैं फोन करो।
ऐसा नहीं होगा कि डाक्टर ने यह घुट्टी पिला दी और ऐसा ही होने लगेगा.......ऐसा नहीं होता, इस तरह का कदम उठाने से पहले लड़की को भी अपने पैरों पर खड़ा होने की ज़रूरत है।

इस के बाद उन्होंने मिजिल एज क्राईसिस की बात की ...महिलाओं में जब मीनोपॉज होता है और पुरूषों में एन्ड्रोपॉज़... शरीर में कुछ बदलाव आते हैं....उन के लिए तैयार रहना चाहिए। बता रहे थे कि cynical होने से काम नहीं चलता, हर वक्त यही कहना कि प्रतिभा की कद्र नहीं हो रही ... रिस्क लेना आना चाहिए... आप अपने विज़िटिंग कार्ड पर मत जिएं.....ऐसा भी ज़रूर करें जिसे करना आप को अच्छा लगता है।

बुढ़ापे में मानसिक स्वास्थ्य

डाक्टर ने बड़े शायराना अंदाज़ में यह फरमाया..
एक बूढ़ा जी रहा है इस शहर में
एक अकेली कोठड़ी में जैसे रोशनदान है।।

बुज़ुर्ग लोगों के लिए भी मनोरोग विशेषज्ञ ने बड़े काम की बाते कीं। इस बात विशेष जोर दे कर कहा कि अपनी रिटायरमैंट प्लॉनिंग ज़रूर करनी समय रहते कर लेनी चाहिए। डा ने कहा कि रिटायर होने के बाद चपरासी भी सलाम नहीं ठोकेगा और बीवी भी नहीं पूछेगी......मैं इस बात से सहमत नहीं हूं, इस देश की नारियां ऐसी नहीं हैं।

बुजुर्ग लोगों को डाक्टर ने सलाह दी कि अपने जीवन को एक्टिव रखना चाहिए... अखबार पढ़े, किताबें पढ़ें, चर्चा में शामिल हों, puzzles को हल करें... अपने जैसे लोगों को तैयार कर के एक स्पोर्ट ग्रुप (support group) बनाएं... टहलने की आदत डालें... लेकिन मजाक में उन्होंने कहा कि अगर चिकित्सक ने चार गोली लेने को कहा है तो चार ही लेना, दो नहीं लेना......और जो लोग घूमते-फिरते-टहलते रहते हैं...पढ़ने लिखने में बिजी रहते हैं, वे स्वस्थ रहते हैं.. मुन्ने की चिंता न करने की सलाह दी, मुन्ना अपनी जिंदगी स्वयं जी सकते हैं।

अगर बुज़ुर्ग लोग हंसना, पढ़ना, लिखना, टहलना छोड़ देते हैं, घर से बाहर ही नहीं निकलते, कोई support system तैयार नहीं कर पाते तो ये अवसाद (्डिप्रेशन) का शिकार हो जाते हैं...... वे चुप से हो जाते हैं.....अगर वे इस तरह की बातें करने लगें कि मेरा तो सारा काम हो गया है, इस का यह मतलब कि वे डिप्रेस हो गये हैं.... उदासीनता ने उन्हें घेर लिया है...उन की बैटरी डिस्चार्ज हो गई है जिसे तुरंत रिचार्ज किए जाने की ज़रूरत है।

दोस्तों,मैंने भी कुछ रिसर्च देखी थीं कि जो बुजुर्ग किसी आध्यात्मिक संगठन के साथ जुड़े रहते हैं नियमितता से... अपने हमउम्र लोगों के साथ बैठते हैं, हंसी मजाक करते हैं, ताश खेलते हैं, गपशप करते हैं... वे बहुत सी बीमारियों से बचे रहते हैं........मैंने भी अनुभव किया है कि सतसंग में जिन बुज़ुर्गों को देखता हूं वे सब एकदम हंसते-मुस्कुराते मिलते हैं......feeling on the top of the world! एक कहावत भी है ....
Prayer may not change things for you!
It changes you for the things!!

 वैसे ऐसा होना तो नहीं चाहिए, यह क्या, मैं ही यह सब लिखते लिखते बोर सा होने लगा हूं......यहीं पर विराम लेता हूं.. मनोरोग विशेषज्ञ की दो चार अन्य बातें फिर कभी शेयर करूंगा।

बात सोचने वाली केवल यह है कि क्या इन सब बातों का आप सब को पहले नहीं पता था, बिल्कुल पता था, मेरे से भी ज़्यादा अच्छे ढंग से पता था, लेकिन काश! हम ये सब छोटी छोटी महत्वपूर्ण बातों को अपने जीवन में भी उतार पाएं। 

एक पान पुराण यह भी....

अभी मैं पेपर पढ़ रहा हूं...पास ही रेडियो बज रहा है....विविध भारती पर किसी ठुमरी बंदिश की बातें चल रही थीं....मेरी समझ में नहीं आतीं ये बातें. लेकिन अचानक पान की बात चली।

प्रोग्राम पेश करने वाला पुरूष ने उस महिला कलाकार से पूछा कि आप तो बनारस से हैं, और बनारस का पान तो सारे जहां में प्रसिद्ध है.. आप का पान के बारे में क्या ख्याल है?

उस फनकार ने बताया कि आप ठीक कह रहे हैं, पान तो बड़े काम की चीज़ है ही, वैसे हम लोग बनारस में जो पान इस्तेमाल करते हैं वह गया से आता है।

आगे उन्होंने बताया कि पान हम गाने वालों के लिए बड़े काम की चीज़ है, इस से गला तर रहता है, हमें ठंडक महसूस होती है..गला सूखता नहीं है।

पान की तारीफ़ करते करते मोहतरमा ने यह भी कहा कि पान तो वैसे भी हर मौके पर शुभ ही माना जाता है....फिर पुराने राजे-महाराजों नवाबों की पान से जुड़ी यादें ताज़ा की गईं।

मोहतरमा ने आगे बताया कि आज कल वैसे बाज़ार में जिस तरह की अनेकों चीज़ें पान में मिला देते हैं, वह देख कर डर लगता है। इसलिए वे कह रही थीं िक हम लोग तो देश-विदेश कहीं भी बाहर जब जाते हैं तो अपना पान स्वयं ही बनाते हैं।

बहुत अफसोस हुआ विविध भारती जैसे रेडियो कार्यक्रम पर पान के बारे में इस तरह की बातें सुन कर। अगर कोई कलाकार पान वान खाता है तो कहीं न कहीं यह उसका पर्सनल निर्णय है......जी हां, पी के के आमिर खान जैसे..(मैंने उसे एक खत भी लिखा था) ..लेिकन इस तरह से पान जैसी घातक चीज को ग्लोरीफाई करने से तो जनता का बहुत नुकसान हो सकता है।

लोग वैसे ही हमारी नहीं सुनते.......हम लोग सुबह से शाम तक पान आदि को छुड़वाने के लिए लोगों को प्रेरित करते रहते हैं......लेख लिखते हैं जिन्हें शायद ५०-६० हज़ार लोग पढ़ते होंगे लेकिन विविध भारती के प्रोग्रामों की अथाह पहुंच के बारे में तो आप सब जानते ही हैं.....करोड़ों लोगों तक ये कार्यक्रम पहुंचते हैं।

हां, एक बात और भी है कि प्रोग्राम पेश करने वालों को भी इन सब बातों के बारे में संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है ताकि लोगों तक ऐसी जानकारी ही पहुंचे जिससे उन्हें लाभ हो।

जितना मैं पान के बारे में जानता हूं कि पान में सुपारी, तंबाकू... ये दोनों या इस में से एक चीज़ तो होती ही है......और दोनों ही आप की सेहत के लिए घातक है।

 यह महिला भी केवल पान ही चबाती थीं...
पिछले दिनों एक बुज़ुर्ग महिला आई थीं......ऐसे ही चेक अप के लिए....यह भी कुछ महीने पहले तक बस पान ही खाती थीं और घर पर ही बना कर.....अब इस घाव पर लगने लगा तो पान चबाना बंद कर रखा है....अब इन्हें क्या तकलीफ़ है, शायद यह मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है!!

इस कार्यक्रम के ठीक बाद प्रधानमंत्री मोदी के दिल की बात का विज्ञापन था.....सोच रहा हूं कि प्रधानमंत्री के दिल की बात में यह बात भी दर्ज करवा ही दूं। 

हंसी को तो मत बांधिए..

इस पोस्ट की शुरूआत बहुत ही खूबसूरत गीत से करते हैं.......मैंने कहा फूलों से.......दोस्तो, अपनी तो सुबह सुबह की इबादत का यही ढंग है कि हम इसी तरह के गीत सुन कर मन को खुश कर लिया करते हैं.......आप भी ट्राई करिएगा, मशवरा इतना खराब भी नहीं है..



मैं जब भी पार्क में बहुत से लोगों को इक्ट्ठा हो कर लाफ्टर-थेरेपी करते देखता हूं तो मुझे बड़ा अजीब सा लगता है...यार, यह कैसे हो सकता है..जबरदस्ती हंसना। हंसी तो वह है जो हमारी आत्मा की हंसी होती है, जब हमारा दिल हंसता है.. मुझे याद है कभी एक बार मैंने भी एक ग्रुप में यह काम करना चाहा था, लेकिन पता नहीं दो चार मिनट में बिल्कुल अजीब सा लग रहा था.....हल्कापन महसूस होने की जगह, तनाव महसूस होने लगा था....शायद मैं उस समय जबरदस्ती वाली हंसी लाने की कोशिश कर रहा था......वैसे मुझे लाफ्टर-थेरेपी का कोई अनुभव नहीं है, एक अनाड़ी जैसे विचार रख दिए हैं, कृपया इसे अन्यथा न लें। क्या पता जो बुज़ुर्ग वहां उस समय चंद मिनट हंस-खेल जाते हैं, वे इन्हीं चंद मिनटों की मधुर यादों की वजह से दिन भर की कड़वाहट भी मुस्कुराते हुए निगल पाते हों।

मैं जिस सत्संग में जाता हूं वहां हर बार यह अवश्य याद दिलाते हैं कि भाईयो, बहनो, यह चेहरे पर क्यों बारह बजे हुए हैं, मुस्कुराते आईए और मुस्कुराते जाइए। सुन कर सब के चेहरों पर रौनक आ जाती है। अच्छी बात!!

परसों सोमवार शाम की बात है....मैं अपनी वाइफ के साथ एक मॉल में गया हुआ था....घूमते घूमते वहां पर व्हाट्स-एप पर एक मैसेज आया.....मुझे लगा कि इस के बारे में अपने कॉलेज के दिनों के दोस्त से बात करने के लिए फोन करना ही होगा.....लुधियाना फोन मिलाया.....वह बड़ा बिज़ी बंदा है.......लेकिन उस दिन उस ने तुरंत फोन उठा लिया.....आधा मिनट दबी आवाज़ में बात करने पर कहने लगा..हां, हां, बोल, मैं क्लीनिक से बाहर आ गया हूं।

दोस्तो, बोलना क्या था, शायद १०-१५ मिनट बात हम लोगों ने की होगी........बातें तो बहुत कम, हम दोनों ठहाके ज़्यादा लगाते रहे.....मैं बात करूं तो उस के ठहाके की वजहों से बात पूरी न कर पाऊं और जब वह बात शुरू करता तो उस की बात मेरे ठहाकों में गुम हो जाती......वैसे तो जब दो पंजाबी नार्मल बात भी करते हैं तो कहने वाले कह देते हैं जैसे ये लड़ रहे हों, चलिए, यह पंजाबियों का अपना स्टाईल है...मेरी पत्नी शोरूम से बाहर आईं ...मुझे याद दिलाने की आप की आवाज़ बहुत गूंज रही है.......जब मैंने अपने दोस्त को यह बात बताई तो उस के हंसी के फुव्वारे और ज़ोर से फूट पड़े।

दोस्तो, सच सच बताईए, आज के दौर में कितने लोग ऐसे होते होंगे जिन से आप इतना दिल खोल कर खुल कर इतना हंसी मजाक में बात कर सकते हैं, आप अपनी गिनती करिए, मैंने तो कर ली.......मैं भी केवल तीन-चार दोस्तों से ही इस तरह से बात कर पाता हूं, वरना मैं फोन पर बिल्कुल ही ब्रीफ़ सी बात करने के लिए जाना जाता हूं.....लेिकन इन जब तीन चार लोगों में से कोई फोन पर होता है तो यही समझ नहीं आता कि बातें कहां से शुरू करें और कहां इन्हें विराम दें, आप इन चंद दोस्तों पर अपने से भी ज़्यादा भरोसा करते हैं।

हां, तो परसों ही रात में जब फिर व्हाट्सएप ग्रुप पर हमारे मेसेज आने-जाने लगे तो मैंने पूरी इमानदारी से बिल्कुल स्पॉनटेनिटी से यह बात शेयर की .........बेदी, तेरे से बात कर के मुझे बहुत ही अच्छा लगा, मुझे तो दोस्त ऐसा लगा कि मैंने जैसे आधा घंटा प्राणायाम् कर लिया हो या मैं पंद्रह बीस मिनट जॉगिंग कर ले लौटा हूं......सारे शरीर में इतनी शक्ति-स्फूर्ति का संचार हो गया।

मैं इस बात को बिल्कुल बढ़ा चढा कर नहीं लिख रहा। और ना ही मुझे ऐसा करने का कोई कारण ही दिखता है।

मुझे एक बात और बहुत कचोटती है, छोटी छोटी बच्चियों को यह कह कर कंडीशन किया जाना कि लड़कियां इतना खुल कर नहीं हंसती......मैं समझता हूं कि किसी पर भी इस तरह की बंदिशें लगाना भी सरासर हिमाकत है....जीवन में और है क्या, इस में भी अगर कोई कोड़-ऑफ-कंडक्ट लागू हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा।

मुझे एक फिल्मी गीत इसलिए पसंद है.......क्योंकि कुछ लाइने इस तरह से हैं......कुछ लोगों के हंसने और गाने पर टिप्पणी करते हुए ..महान् गीतकार आनंद बक्शी कहते हैं.....

ये हंसते हैं लेकिन दिल में..
ये गाते हैं लेकिन महफिल में।।
हम में इन में है फर्क बड़ा, 
हम जीते हैं, ये पलते हैं।।

लीजिए, आप भी इस का लुत्फ़ उठाईए..



मैंने कहीं पढ़ा था और आपने तो देखा भी होगा कि हंसता-मुस्कुराता चेहरा कोई भी ऐसा नहीं होता जो बदसूरत हो।
मैं आज कर अपनी व्यस्तता के कारण टीवी बहुत कम देख पाता हूं.. न के बराबर ... यह जो लॉफ्टर चैनल पर कुछ प्रोग्राम आते हैं......क्या नाम है उस अमृतसर के लड़के का..कपिल शर्मा, और वह हर समय खिलखिलाने वाली भारती.......आज का सभ्य समाज कईं बार कहता दिखता है.....यह सब फूहड़पन है। अरे भाई, है तो हुआ करे, कम से कम इस तरह के प्रोग्रामों की वजह से परिवार के लोग बैठ कर कुछ ठहाके तो एक साथ लगा लेते हैं, वरना आज के दौर में एक साथ बैठने की फुर्सत ही किसे है!!

लेकिन कपिल को मेरा एक मशवरा है.......यह मशवरा मेरा वह मित्र डा बेदी भी अकसर हमारे ग्रुप में देता रहता है िक हमें किसी पे हंसने की बजाए,  सब के साथ मिल कर हंसना चाहिए......मैं तो कहूंगा कि बेस्ट है हम अपने आप पर ही हंसना सीख जाएं, बीसियों कारण तो कम से कम मिल ही जाएंगे। कभी कभी जब कपिल जब अपनी हद लांघता दिखता है.......किसी का मज़ाक उड़ाते दिखता है, तो बुरा लगता है....शायद इसी वजह से मेरी रूचि उस के कार्यक्रम से उठ गई। अपनी अपनी संवेदनाओं की बात है, और कुछ खास नहीं!!

कल मेरे पास एक मां अपने १०-१२ साल के बेटे को लेकर आई.....उस का एक दांत अपनी नार्मल सी जगह से थोड़ा ऊपर नीचे आ गया, जाहिर सी बात है मां ज़्यादा परेशान थी, बेटा बिल्कुल मस्त था. मैंने जब उस की हंसी में इस दांत की भूमिका देखने के लिए उसे हंसने के लिए कहा ......तो झट से उस की मां बोली....इस की यह भी एक समस्या है, यह हंसता बहुत खुल कर है। और इसी वजह से यह दांत भी फिर दिखाई देने लगता है.......मैंने उस बच्चे की तरफ देखा, वह मेरी तरफ ऐसे देख रहा था जैसे कि वह खुल कर हंस कर भी कोई अपराध कर लेता हो, जाहिर है वह हंसी के सही ढंग के बारे में मेरे किसी तुगलकी नुस्खे का इंतज़ार करता दिखा।

मैंने उसे और उस की मां को सब से पहले तो यही बताया कि हंसी को मत बाँध के रखो, जितना खुल के हंसना चाहते हो हंस लिया करें.....ऐसी उन्मुक्त हंसी बहुत कम दिखने लगी है आज कल........रही बात दांत का थोड़ा टेढ़ा वेढ़ा अपनी जगह से इधर उधर होने की बात, वह ठीक कर देंगे लेकिन तब तक अपनी खुली हंसी को दबाने की गलती मत कर देना।

जैसा मैंने उस बच्चे को भी आशीर्वाद दिया......चलिए हम सब के लिए सुबह सुबह यही प्रार्थना करें कि ईश्वर, अल्ला, वाहेगुरू, गॉड ...अपने सभी बच्चों को ऐसे हालात मुहैया कराएं कि सब के चेहरों पर मुस्कान बिखरी रहे......आमीन।

सच में दोस्तो, हंसना-मुस्कुराने भी एक कुदरत का करिश्मा ही है, कितने सारी मांसपेशियों को इस के िलए काम करना पड़ता है, आप सेहतमंद हैं, शरीर से भी और मन से भी, आप की रूह राजी है.......तब कहीं जाकर हंसी फूटती है। आप का क्या ख्याल है?......वैसे यह मेरा ही ख्याल नहीं है, अमिताभ बच्चन भी कुछ इसी तरह का फलसफा ब्यां कर रहे हैं......ज़िंदगी हंसने गाने के लिए हैं पल दो पल.......इस को इतनी बार सुन चुका हूं कि यह याद ही हो चुका है, काश! यह पूरी तरह से लाइफ में भी उतर जाए!!





सोमवार, 5 जनवरी 2015

गुर्दे के बाद अब लगा आंखों की चोरी का नंबर


कल खबर पढ़ी पेपर में कि एक श्रद्धालु की किसी ने दोनों आंखें अयोध्या में निकाल लीं....बड़ा अजीब सा लगा यह सुन कर कि आंखें कैसे कोई निकाल सकता है, लिखा तो था कि किसी ने पहले आंखें सुन्न कर दीं...

लेकिन आज के पेपर में इस बात की पुष्टि हो ही गई।

झारखण्ड में गिरिडीह जिले के निवासी कृष्णदेव वर्मा के साथ अयोध्या में की गई दरिंदगी में नया खुलासा हुआ है। झारखण्ड के चिकित्सकों ने जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में बताया है कि कृष्णदेव का आपरेशन करके दोनों आंखें निकाली गई हैं।

विशेषज्ञों ने कहा है कि श्रद्धालु की दोनों ' आई बॉल' किसी एक्सपर्ट हैंड की ओर से ही निकाले जाने की पुष्टि की है।

डॉक्टरों की रिपोर्ट 

झारखण्ड और फैजाबाद के चिकित्सकों की ताजा रिपोर्ट से अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि झारखण्ड के गिरिडीह से अयोध्या में रामलला का दर्शन करने आए वर्मा को अयोध्या रेलवे स्टेशन पर बेहोश करने के बाद किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया, जहां किसी प्रशिक्षित नेत्र सर्जन ने उसकी आंखें निकाल लीं। इस निष्कर्ष पर इसलिए पहुंचा जा सकता है क्योंकि आई बॉल गायब होने के बावजूद आंखों के आसपास का हिस्सा क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है।

ऐसी खबर पढ़-सुन कर आदमी कांप जाता है, है कि नहीं?...अभी गुर्दों की चोरी के मामलों की आग ठंड़ी नहीं पड़ी है कि अब आंखों की चोरी का नंबर लग गया।

पहले लोग कहा करते थे कि ज़्यादा धन लेकर नहीं बाहर जाना चाहिए, लूटपाट का डर था, सोने के गहने लूटे जाने लगे, महंगे मोबाइल छीने जाने लगे, एटीएम कार्ड छीन कर उस का सीक्रेट पिन पता करना.....सब कुछ चल रहा है, लेकिन किसी की आंखें ही निकाल लेना--- इतनी ज़्यादा क्रूरता और निर्दयता।

जो भी हो, आर्थिक मदद और मुआवजा ....एक लाख दस हज़ार का .....एक तरह का मजाक ही तो है। बिल्कुल जंगल राज जैसी ही स्थिति हो गई, किसी को भी पकड़ कर शरीर का कोई अंग ही निकाल लो।

इस तरह के अपराधियों को तुरंत पकड़ कर कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए..........ऐसा लिखते हुए भी यही ध्यान आ रहा है कि अब कुछ भी हो जाए, उस बंदे की आंखें तो वापिस आने से रही ......  आखिर उस मजलूम का कसूर क्या!!




गीतकार नीरज का जन्मदिन - एक रिपोर्ट



हेल्प यू ट्रस्ट के निमंत्रण पर कल शाम एक अद्भुत गीतकार गोपाल दास नीरज के जन्मदिवस समारोह में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पिछले वर्ष भी इन के जन्मदिवस पर एक समारोह में शिरकत करने का मौका मिला था.....मुझे याद है पिछले साल समारोह में मौजूद उत्तराखंड के उस समय के गवर्नर कुरैशी साहब किस तरह से इन के गीतों पर झूम रहे थे और उन की फरमाईश पर कलाकारों ने वह गीत भी पेश किया था......शोखियों में घोला जाए... फूलों का शबाब।



इस तरह के महान् गीतकार के दर्शन ही कर लेना अपने आप में एक बहुत बड़ा सौभाग्य है। कल समारोह में शायर अनवर जलालपुरी साहब ने कितना सही कहा ...इस फनकार के लिए.....

विरले होते हैं जिन का यश विश्व गाता है, 
नीरज जी जैसा गीतकार तो बस सदियों में आता है। 

उन्होंने नीरज जी की शान में यह भी फरमाया......
नीरज को पढ़ के आदमी बनता अदीब है...
नीरज को जिसने देखा बड़ा खुशनसीब है।।


इस कार्यक्रम में नीरज जी द्वारा लिखे फिल्मी गीत प्रस्तुत करने के लिए बंबई से कलाकार आए हुए थे। एक से बढ़ कर एक गीत प्रस्तुत किये गये। 

प्रोग्राम के दौरान मैं व्हाट्सएप पर अपने कालेज के दिनों के पुराने मित्रों के साथ संदेशों का आदान-प्रदान कर रहा था....एक ने कहा कि यार, वह मेरा नाम जोकर का वह गीत ... ऐ भाई ज़रा देख के चलो....आगे ही नहीं पीछे भी ...लेकिन ऐन वक्त पर मेरा मोबाइल मुझे धोखा दे गया......उस में हर तरह कबाड़ भरा होने की वजह से मैं रिकार्डिंग न कर सका......काफी कुछ डिलीट तो किया, लेकिन फिर भी रिकार्डिंग संभव न हो पाई।


बहरहाल, मैंने सोचा कि जो भी गीत सुन रहा हूं इन की एक प्लेलिस्ट बना कर आप तक ज़रूर पहुंचाऊंगा......वही काम किया आज सुबह उठ कर.......समय तो काफी लगा, लेकिन अच्छा लगा.......आशा है आप इस प्लेलिस्ट का ज़रूर आनंद लेंगे..


दोस्तो, यह गीतकार वह है जिस के गीत मेरे जैसे लोग प्राइमरी कक्षा से सुन रहे हैं......जी हां, दूसरी-तीसरी कक्षा से जब भी रेडियो पर या फिर किसी शादी-ब्याह के मौके पर इस तरह के गीत बजा करते थे तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर इस की धुन में ही रमने का मन किया करता था.....वैसे तो छःसात आठ  साल की उम्र ही थी उस समय......लेकिन कुछ सुनना अच्छा लगता था, आपको साफ़ साफ़ बता दिया है....यह भी उसी दौर का गीत है जो बेहद पसंदीदा था...शर्माली ओ मेरी शर्मीली...


ईश्वर नीरज जी को उम्रदराज करे......९१ वर्ष के हैं, अभी भी इन की वाणी में युवाओं जैसा ही जोश है.....पिछले वर्ष भी वे व्हील-चीयर पर ही आए थे...इस वर्ष भी ....सहारे के िबना वे चल नहीं पाते...उम्र का तकाजा है, लेकिन जब बोलते हैं तो सब मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। 

सोच रहा हूं जब हम लोग बचपन में ऐसे गीतों को सुनते हैं तो क्या जानते हैं कि किस ने लिखा, किस ने कंपोज़ किया, किस पर फिल्माया गया ...वगैरह वगैरह....लेकिन इतने वर्षों बाद जब इन महान् शख्शियतों को देखने का अवसर मिलता है तो बहुत खुशी होता है। 

आप को हिंदी विकिपीडिया पर नीरज जी का यह पन्ना भी बहुत पसंद आएगा....
पिछले वर्ष भी वे अपने जन्मदिवस पर वे कुछ इस तरह से बोले थे...



जाते जाते लड्डू से मुंह तो मीठा करते जाइए....


प्रोग्राम के अंत में जब नीरज जी का वह गीत पेश किया गया......ताकत वतन की हम से है.....तो सभागार में मौजूद सभी संगीत-प्रेमियों ने खड़े हो कर इस का आनंद लिया.....

ताकत वतन की हम से है........


शनिवार, 3 जनवरी 2015

मौत का सर्वोत्तम ढंग-- कैंसर?

मुझे भी आप की ही तरह यह हैडिंग बहुत ही अटपटा लगा था ... लेकिन जब मैंने कल टाइम्स ऑफ इंडिया में एक छोटी सी रिपोर्ट को देखा तो पता चला कि एक विश्व विख्यात मेडीकल जर्नल का संपादक कहना क्या चाह रहा है।

विश्व के सर्वश्रेष्ठ मैडीकल जर्नल के भूतपूर्व संपादक रिचर्ड स्मिथ ने यह कह कर मैडीकल जगत में तहलका मचा दिया है कि मरने का सब से बढ़िया तरीका कैंसर रोग है। 

रिचर्ड स्मिथ का कहना है कि कैंसर के मरीज़ों को अत्यंत-महत्वाकांक्षी कैंसर रोग विशेषज्ञों के महंगे इलाज से दूर रहना चाहिए.. अरबों रूपये कैंसर के इलाज पर बहाने से बचना चाहिए .. फिर भी कैंसर से मौत तो भयानक रूप से हो ही जाती है। 
संपादक रिचर्ड स्मिथ का कहना है कि कैंसर से होने वाली मौत बेस्ट है। मरने वाला अलविदा कह सकता है, अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हों को याद कर सकता है, आखिरी संदेश छोड़ सकता है, शायद विशेष जगहों पर आखिर बार जा भी सकता है, मनपसंदीदा संगीत का लुत्फ़ उठा सकता है, पसंद की कविताएं पढ़ सकता है, और अपनी आस्था के अनुसार अपने ईश्वर, अल्ला, गॉड से मिलने की तैयारी भी कर सकता है। वह आगे कहता है कि उस के विचार में यह प्यार, मोर्फीन और विस्की के संग संभव है, लेकिन वे फिर से सावधान करते हैं कि अति-महत्वाकांक्षी कैंसर रोग विशेषज्ञों से दूर रहना चाहिए। रिचर्ड ने यह भी लिखा है कि अधिकतर लोग अचानक मौत की इच्छा रखते हैं लेकिन इस तरह की मौत सगे-संबंधियों पर भारी सािबत होती है। 

 यह तो हो गई जी मैडीकल संपादक की बात। 

अब थोड़ी मैं भी बात कर लूं इस विषय पर .....जब मैं आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ रहा था और एक हमारा विषय होता था .. हेल्थ इकोनोमिक्स.... उस में हेल्थ-बेनिफिट रेशो और क्वालिटी ऑफ लाइफ ईर्ज़ एडेड ... Cost-benefit ratio and Quality of life years added (QLYA) जैसी परिभाषाएं पढ़ कर लगता है कि हम ने तो बहुत कुछ सीख लिया। 

लेकिन दोस्तो लाइफ में ऐसा होता नहीं......संपादक ने तो ऊपर इतनी आसानी से कह दिया.....लेकिन हर समाज में अनेकों सामाजिक एवं भावनात्मक पहलू भी तो कैंसर जैसी बीमारी के साथ जुड़े हुए हैं......हर आदमी चाहता है कि वह बढ़िया से बढिया इलाज करवाए......और वह करता भी है, कर्जा लेता है, जमीन बेचता है, गिरवी रखता है .....कुछ भी। 

मेरे विचार में संपादक द्वारा लिखी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैसे की घोर बरबादी हो जाती है कईं बार.......मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूं कि कॉरपोरेट कल्चर वाले अस्पतालों में मरीज़ या उस के तीमारदार के साथ खुल कर बात तो करते नहीं, डाक्टर और मरीज के बीच इतनी गहरी खाई होती है कि उसे लांघा ही नहीं जा सकता....इस के बारे में ये बड़े बड़े महंगे अस्पताल जो भी कहें, सच्चाई तो सच्चाई है ही। 

एक बार मेरे पास मुंह के एडवांस कैंसर से ग्रस्त एक ८० साल के ऊपर की बुज़ुर्ग महिला आई थीं....उन्होंने मेरे से अकेले में कुछ बातें की.....जिन्हें मैंने किसी से शेयर नहीं किया... ये उन्होंने मुझ पर भरोसा कर के कहीं.....लेकिन मैं  बीमारी के पारिवारिक, सामाजिक पहलु समझने की कोशिश कर रहा था.....अपने बेटे के साथ आईं....मैंने उन्हें रेफर कर दिया ... हमारा अस्पताल मरीज़ों द्वारा खर्च किए जाने वाली रकम की प्रतिपूर्ति (रिएम्बर्समैंट) करता है.....मुझे याद है कि जाते समय वे जब मेरे से ये प्रश्न कर रही थीं कि डाक्टर साहब, यह ज़्यादा फैला तो नहीं अभी?...प्रश्न कर के वे मेरे जवाब से कहीं ज़्यादा मेरी आंखों में आंखें डाल कर मेरा झूठ पकड़ने की कोशिश करती दिखीं...... मुझे याद है मैंने उन के कंधे पर हाथ रख कर इतना ही कहा था.....आप इतनी हिम्मत वाली हैं, ईश्वर सब ठीक करेगा, आप को विशेषज्ञ को दिखाना तो होगा ही .........वैसे बड़ी एक्टिव बुज़ुर्ग महिला थीं, लेकिन उस के बाद वापिस लौट कर नहीं आईं........पता नहीं वह उस विशेषज्ञ के पास गईं भी कि नहीं। 

कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इस रिपोर्ट का हैडिंग लगा तो मुझे भी काफी अटपटा ही था......लेकिन पढ़ने पर पता चला कि कुछ कुछ बातें तो ठीक ही कह गया.....फिर भी, दोस्तो, कोई भी मरीज तीमारदार कहां इस तरह की फिजूल बातों में पड़ता है, हर कोई जानता है ...........जब तक सांस, तब तक आस............आप का क्या ख्याल है?



कौन सी पेस्ट बढ़िया रहेगी?

ज़ाहिर है जो आदमी जिस चीज़ का व्यापारी होगा, उस से उसी के बारे में पूछा जाएगा।

अभी मैं कुछ और लिखने लगा था कि सोचा कि पहले ई-मेल ही देख लूं....एक मित्र ने पूछा था कि क्या फ्लोराइड युक्त पेस्ट ही इस्तेमाल करना चाहिए...और वह फलां फलां पेस्ट इस्तेमाल करता है, क्या वह ठीक है।

बाद में थोड़ी चर्चा भी करूंगा लेकिन इस के लिए ये लिंक यहां लगा रहा हूं....
टुथपेस्ट का कोरा सच 
टुथपेस्ट का कोरा सच- भाग २

जी हां, फ्लारोइड युक्त पेस्ट ही करनी चाहिए....चाहे आप जिस एरिया में रहते हैं वहां पर पानी में फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा है, तो भी फ्लोराइड वाली पेस्ट का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए, इस के कारणों का खुलासा ऊपर दिए गये लिंक्स पर किया गया है।

दूसरी बार, मैं अपने मरीज़ों को बड़ा साफ़ साफ़ कहता हूं कि अच्छे ब्रांड की पेस्ट ही यूज़ किया करें.....क्योंकि ये कंपनियां इतनी बड़ी होती हैं कि गुणवत्ता के साथ कोई समझौता नहीं करतीं।

यहां-वहां-इधर-उधर तैयार होने वाली पेस्टों एवं मंजनों से क्या मेरी कोई नाराज़गी है?..... बिल्कुल है, क्योंकि जब मेरे पास मरीज़ आ के बैठता ही है तो मैं दो-तीन पेस्टों एवं मंजनों का नाम लेकर पूछता हूं कि क्या आप फलां फलां मंजन-पेस्ट  कर रहे हैं तो ज़्यादातर केसों में जवाब हां ही में मिलता है, कुछ होते हैं जो कहते हैं कि दांत घिसने के बाद इसे छोड़ दिया था।

यह जो जगह जगह देशी मंजन-पेस्ट आदि बिकते हैं, ये हिंदोस्तानियों के बहुत चहेते हैं.....इन में बाबा-वाबा, नीम-हकीमों के स्पेशल पेस्ट -मंजन भी शामिल हैं....वैसे कुछ बाबा लोगों के अन्य उत्पाद अच्छे हैं, बहुत ही अच्छे हैं, लेिकन मैं इन के तैयार किये गये पेस्टों एवं मंजनों का मैं विरोध करता हूं।

घोर विरोधी इस तरह के पेस्ट मंजनों का इसलिए हूं क्योंिक मैं रोज़ाना ऐसे मरीज़ देखता हूं जो इस तरह के देसी पेस्टों-मंजनों से दांस साफ़ कर के अपने दांत पूरी तरह से खराब करवा चुके होते हैं।

अपने मरीज़ों के सामने तो मैं ऐसे तीन चार पेस्टों मंजनों के नाम गिनवा कर पूछता हूं ...और मुझे जवाब हां ही में मिलता है.......लेकिन मेरी मजबूरी है कि मैं यहां इन का नाम नहीं लिख सकता, फिजूल की कंट्रोवर्सी जन्म ले सकती है, ब्लॉग पर लिखने से टके की कमाई तो होती नहीं, ऊपर से इन पचड़ों में क्यों पड़ें !!........समझने वाले को इशारा ही काफ़ी होता है।

आखिर ऐसा भी क्या है, इस तरह की देसी पेस्टों-मंजनों में कि ये इतनी बड़ी खलनायक हैं........सब से बड़ी बात यह है कि ये बेहद खुरदरे होते हैं, कुछेक में तो लाल-मिट्टी (गेरू-मिट्टी) पड़ी होती है जिस से आप का माली गमले की पुताई करता है.... और शोध ने तो यह भी बता दिया कि माशा-अल्ला कुछ तो इस में तंबाकू भी घुसा देते हैं......अब इस सब के चक्कर में दांत तबाह हो जाते हैं।

लोग समझते हैं कि वे मंजन-पेस्ट का ही इस्तेमाल नहीं कर रहे, इस से तो उन का पायरिया ठीक हो गया, दांत का दर्द गायब हो गया, मुंह की बदबू गायब हो गई........नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते ये देशी मंजन-वंजन......केवल और केवल ये आप के लक्षणों को दबाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। डंके की चोट पर मैं यह कहता हूं, दांतों और मसूड़ों की तकलीफ़ के लिए तो दंत-चिकित्सक के पास जाना ही होगा।

हां, मुझे अभी ध्यान आया कि इन खुरदरे देसी मंजनों एवं पेस्टों की विनाश-लीला का भी वर्णन तो मैंने अपने लेखों में खूब किया है......प्रूफ के साथ.....इस ब्लाग के दाईं तरफ़ जो सर्च आप्शन है, वहां पर मैंने बस इतना ही लिखा ....खुरदरे मंजन ......इसी ब्लॉग के जो पन्ने सर्च रिज़ल्टस में आए, उस में से एक का लिंक यह रहा....खुरदरे मंजनों की बरबादी ..आप अवश्य देखिएगा.....केवल आश्वस्त होने के लिए कि पेस्ट तो किसी टाप ब्रांड की ही इस्तेमाल करनी चाहिए।

पता है रफी साहब इस गीत में क्या कह रहे हैं, बता रहे हैं कि सफेद चमकीले दांत हंसे बिना रह नहीं सकते, लोग बिना वजह शक करने लगते हैं......हमारे समय का यह सुपर-डुपर गीत......आगे फरमाते हैं .........इन मोतीयों को पर्दे में रखा करो क्योंकि तुम्हारी हंसी पर लोगों ने नज़रें रखी हुई हैं ..........हा हा हा हा .....रोमांस की इन्तहा....





शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

डाक्टरों को तो भांग पर काम कर लेने दो...




मेरी मां बताती हैं कि उन के जमाने में जब छोटे छोटे शिशु रोते थे और गृहिणियों को घर के काम काज निपटाने होते थे तो बच्चों को सुलाने के लिए उन्हें थोड़ी सी अफीम चटा दी जाती थी, और बच्चा बहुत लंबे समय तक सोता रहता था...लेिकन कईं बार जब इस की खुराक थोड़ी सी भी ज़्यादा हो जाती थी तो बेचारे बच्चे सदा के लिए ही सोये रह जाते थे। वैसे भी इस तरह के बच्चे आगे चल कर मंदबुद्धि तो हो ही जाते थे।

इसे क्या कहेंगे ... अज्ञानता, अनपढ़ता या कुछ और..... जो भी हो, लेकिन इस का मतलब यही है कि अफीम तब भी कितनी आसानी से मिल जाती होगी, अब भी इसे इस्तेमाल करने वाले इस का जुगाड़ कैसे भी कर ही लेते हैं।

कौन सा नशा है जिस का जुगाड़ नशा करने वाले नहीं कर पाते..... भांग पीने वाले सरेआम पीते हैं, भांग के पकोड़े कुछ त्योहारों के दौरान बिकते हैं, भांग पी और पिलाई जाती है। वैसे भी हम बचपन से देखते आ रहे हैं कि भांग के पौधे से भांग के पत्ते तोड़ कर नशा करने वाले इन्हें दोनों हाथों में रगड़ कर अपना कुछ जुगाड़ तो कर ही लेते हैं।

कहने का मतलब कि गलत काम करने के लिए भांग जैसी प्रतिबंधित चीज़ भी मिल जाती है लेकिन चिंता की बात यह है कि डाक्टर लोगों को कैंसर के मरीज़ों पर इस्तेमाल करने के लिए तो दूर, मैडीकल रिसर्च के लिए भी भांग नहीं मिल पाती।

बंगलोर के कुछ कैंसर रोग विशेषज्ञों ने अब इस मुद्दे को उठाया है कि चिकित्सकों को भांग के पौधे के चिकित्सीय गुणों की पड़ताल तो कर लेने दो।

कैंसर रोग विशेषज्ञों की मांग बिल्कुल मुनासिब है.....जब अमेरिका में वहां के डाक्टर कैंसर के रोगियों के इलाज के लिए भांग के पौधे से मिलने वाले दवाईयां मरीज़ों को लिख रहे हैं, तो भारत में इस तरह के मरीज़ क्यों इस इलाज से वंचित रहें!!

दरअसल भांग में कुछ इस तरह के अंश रहते हैं (derivatives) जो कैंसर के ट्यूमर तक रक्त की सप्लाई पहुंचाने में रुकावट पैदा करते हैं।

कैंसर कोशिकाएं एक तरह से भूखी कोशिकाएं होती हैं, जब उन तक रक्त की सप्लाई नहीं पहुंच पाती , तो ये कोशिकाएं ग्लूकोज़ की कमी की वजह से सूखने लगती हैं।  कैंसर के रोगियों के इलाज में दी जाने वाली कीमोथेरिपी की वजह से मतली और उल्टी आती है... भांग में मौजूद कुछ तत्व इस को भी कंट्रोल करने में अहम् भूमिका निभाते हैं।

कैंसर विशेषज्ञ बिल्कुल सही फरमा रहे हैं कि उन्हें भांग के पौधे के मेडीकल इस्तेमाल के लिए रिसर्च करने के लिए भांग के पौधे तो उपलब्ध करवाए जाएं......बिल्कुल सही कह रहे हैं... पहले भी कितनी बार यह आवाज़ उठ चुकी है कि भांग के मेडीकल इस्तेमाल को मंजूरी मिल जानी चाहिए।

अमेरिका में तो भांग से कुछ दवाईयां तैयार कर के उन्हें एलज़िमर्ज़, ग्लोकोमा (काला मोतिया) और मल्टीपल स्क्लिरोसिस के रोगियों को दिया जाता है।

और डाक्टर लोग तो वैसे ही कह रहे हैं कि वे गांजे के मौज-मस्ती वाले इस्तेमाल के तो बिल्कुल विरूद्ध हैं, लेकिन उन्हें कम से कम इस के मैडीकल इस्तेमाल को तो परख लेने दो।

सीधी बात है, दोस्तो, हम कुछ भी क्लेम कर लें, भांग का इस्तेमाल तो नशा करने वाले कर ही रहे हैं......अगर डाक्टर उसी पौधे को बीमार लोगों के इलाज करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इस में ऐसी भी क्या रूकावट है......मेरे विचार में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को इस तरफ़ तुंरत ध्यान देना चाहिए और अगर कुछ मतभेद है भी तो चिकित्सकों के साथ बैठ कर उन को सुलटा लेना चाहिए.......कम से कम मरीज़ों को तो राहत मिले!!

इस तरह का पॉज़िटिव निर्णय करने में सरकार को बिल्कुल देरी नहीं करनी चाहिए........यह क्या यार, कैंसर रोग विशेषज्ञों को रिसर्च करने के लिए भांग के पौधे उपलब्ध नहीं हो रहे और जहां मैं रहता हूं ...पास के बाज़ार में दो दुकाने हैं.....जिन के बाहर बोर्ड लगा है ........भांग की सरकारी दुकान.......उन दुकानों के सामने से गुजरता हूं तो मेरे मन में बहुत से प्रश्न उछलने लगते हैं ... दो मिनट बाद शांत हो जाते हैं.........आज सोचा था कि इन में से किसी दुकान पर जा कर पता करूंगा कि आखिर यह सीन है क्या!!.........लेकिन आज शाम से ही लखनऊ में बस बारिश ही हुए जा रही है, फिर किसी दिन जाऊंगा और आप से डिटेल शेयर करूंगा........अगर आप में से किसी को इन सरकारी भांग की दुकानों का रहस्य पता हो तो नीचे कमैंट में लिखिएगा।

एक तो हिंदोस्तान को इन हिंदी फिल्मी गीतों ने सच में बिगाड़ रखा है.....मौका कोई भी हो, हर सिचुएशन के लिए एक सुपरहिट गीत तैयार है जैसा कि इस पोस्ट के लिए यह वाला गीत........भांग पीते मौज मनाते लोग.....

Idea  .... Lift cannabis ban for med research, say oncologists (Times of India, Jan. 2' 2015)



ईश्वर प्राप्ति की खोज में बन बैठे नपुंसक!

अमृतबेला है.....ईश्वर प्राप्ति के बारे में अपना ज्ञान झाड़ने से पहले इन्हें देख लें कि संयासी-संयासिन के बीच क्या चल रहा है.....सुबह की यह डोज़ भी तो ज़रूरी है..........Please bear with me!



लेकिन यह क्या पागलपंथी है, भाई...ईश्वर प्राप्ति के लिए अंडकोष ही उखड़वा दिए। सुना तो था कि ईश्वर को पाने के लिए लोग घोर-तपस्या किया करते थे..लेकिन यह मामला किसी के अंडकोष के निकलवाने तक ही पहुंच जाएगा...इस की तो कल्पना मात्र से ही शरीर कांप उठता है।

पिछले हफ्ते मैंने अखबार में पढ़ा कि हरियाणा के एक डेरे में अनुयायियों को नपुंसक बनाने के मामले की जांच सीबीआई करेगी. यही नहीं, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट जांच की मॉनिटरिंग भी करेगा।

फतेहाबाद निवासी हंसराज चौहान ने २०१२ में याचिका दायर की थी जिस में कहा गया था कि डेरे में ४०० से ज्यादा अनुयायियों को नपुंसक बना दिया गया।

इससे पहले प्रदेश सरकार ने अनुयायियों के अपनी मर्जी से नपुंसक बनने संबंधी रिपोर्ट सौंपी थी। कोर्ट ने कड़ा रूख दिखाते हुए कहा था कि यदि कोई सिर कटवाने के लिे डेरे में आएगा तो क्या डेरे वाले सिर काटकर भी उसे सही बताएंगे। यदि कोई अपनी इच्छा से नपुंसक बना है तो भी इसे मानवीय नहीं माना जा सकता।

हंसराज चौहान ने याचिका में कहा कि उसे और अन्य अनुयायियों को ईश्वर से मिलाने के नाम पर नपुंसक बना दिया गया। हंसराज ने अन्य लोगों के नाम भी दिए।

ऐसी खबर देख कर आदमी कांप जाता है कि नहीं?....वैसे यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि नपुंसक बनाने का मतलब यह कि इन पुरूषों के अंडकोष निकाल दिया जाना।

दोस्तो, ये अंडकोष केवल प्रजनन में ही सहायता नहीं करते, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भी इन अंडकोषों से निकलने वाला टेस्टोस्टि्रोन नामक हॉरमोन चाहिए होता है। खबर ही इतनी दहला देने वाली है...

जस्टिस कन्नन ने कहा -- ना तो कोई डाक्टर और ना ही कोई आध्यात्मिक गुरू किसी आदमी से उस के अंडकोष निकालने की रजामंदी ले सकते हैं। एक चिकित्सक भी ऐसे किसी व्यक्ति के ऐसी दलील का साथ नहीं दे सकता जो यह कहे कि वह ईश्वर तक पहुंचना चाहता था या ईश्वर को देखना चाहता था। 

ऐसी खबरें मन को कचोटती हैं ...जांच रिपोर्ट तो आ ही जाएगी........लेिकन यह तो ध्यान में है कि जहां धुआं होगा वहां कुछ तो होगा दोस्तो।

CBI to register FIR

हर बंदे का सुबह सुबह का रूटीन अलग होता है....कुछ योग, कुछ प्राणायाम्, कुछ भ्रमण कर के अपने को चार्ज करते हैं.... मुझे भी तब चुस्ती-फुर्ती नहीं आती जब तक ६०-७० के दशक के चार-पांच सुपरहिट गाने यू-ट्यूब पर न देख लूं।

आज का संदेश यही है कि बाबाओं से बच कर रहिए........पता नहीं ये लोग सिर पर हाथ फेरते फेरते कहां तक जा पहुंचें!!
ईश्वर प्राप्ति का बाबा बुल्ले शाह का एक अचूक फार्मूला तो है ही......
बुल्लेया रब दा की पाना...
ओधरों पुटना ते एधर लाना.. 
अगर यह भी मुश्किल लगे तो संत कबीर जी की ही मान लें.....
पोथी पढ़ कर जग मुआ पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए। 

फकीरा, तू तो बस चला चल.......

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

रक्त रोग विशेषज्ञ ने लिखी एनीमिया पर किताब

परसों यहां लखनऊ में यूपी हिंदी संस्थान का ३८वां स्थापना दिवस समारोह था। इस अवसर पर एक हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन था। मुझे भी उस कार्यक्रम में शिरकत करने का अवसर मिला। हास्य-व्यंग्य की महान् हस्तियां वहां मौजूद थीं।

डा त्रिपाठी की किताब ..एनीमिया- कुछ रोचक जानकारियां का विमोचन 
हास्य-कवि सम्मेलन शुरू होने से पहले उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक का विमोचन भी हुआ... इस किताब का नाम है.. एनीमिया- कुछ रोचक जानकारियां।

इस किताब के लेखक हैं डा ए के त्रिपाठी जो किंग जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी लखनऊ में क्लीनिकल हिमैटोलॉजी विभाग में प्रोफैसर एवं विभागाध्यक्ष हैं। इन्हें चिकित्सा व विशेषकर रक्त रोग विज्ञान के क्षेत्र में ३० वर्ष से अधिक का अनुभव है।

मुझे डाक्टरों द्वारा लिखी किताबों में विशेष रूचि रहती है....मैं इस तरह की किताबों को यहां वहां हर जगह ढूंढता रहता हूं। यह तलाश पिछले २५ वर्षों से जारी है...जानकारी हासिल करने के साथ साथ मुझे यह भी उत्सुकता होती है कि देखें तो सही कि अनुभवी चिकित्सकों का अंदाज़े-ब्या कैसा है, क्या आमजन इस लेखन से लाभ उठा पाएगा!

पुस्तक का आवरण 
मैं जब हिंदी की बात करूं तो मुझे बहुत बार निराशा ही हुई......कुछ किताबें मैडीकल विज्ञान से जुड़ी हाथ लगीं तो ऐसे लगा कि कोई पुरातन ग्रंथ पढ़ रहे हों, इतनी भारी भरकम भाषा, कौन समझे इन ग्रंथों को........मान िलया साहब आप को बहुत ज्ञान है लेकिन पढ़ने वाले तक अपनी बात बिल्कुल सरल भाषा में ही पहुंचनी चाहिए, वरना वह दो पन्ने पलट कर तकिये के नीचे किताब को सरका कर सो जाता है। आखिर करे भी तो क्या करे! स्वयं मेरे साथ ऐसा बहुत बार हुआ है.

दूसरी तकलीफ अकसर यह होती है कि कुछ प्रकाशक मैडीकल विज्ञान की किताबें ऐसे लोगों से लिखवा लेते हैं जिन का चिकित्सा विज्ञान को कोई अनुभव होता ही नहीं, इस तरह की किताबों को समझना तो दूर पढ़ना ही मुश्किल लगता है। पहले पन्ने से ही पता चल जाता है कि आगे क्या गुल खिलने वाले हैं।

इसलिए अगर कोई इस तरह की िकताब जिस का कल विमोचन हुआ.... हाथ में लगती है तो बहुत अच्छा लगता है।
दोस्तो, मैं तो एक बात समझता हूं एक मैडीकल कालेज के प्रोफैसर साहब और उन का ३० वर्ष का अनुभव और अगर उन्होंने ५० पन्नों की कोई किताब लिखी है तो मैं यह मानता हूं कि इस तरह के महान् डाक्टर अपने जीवन भर कर अनुभव उन ५० पन्नों में भर देते हैं ... और वह भी इतने बढ़िया ढंग से कि आप उसे बिल्कुल आसानी से पचा लेते हैं।

अगर आप को याद होगा ..अगर आपने मेरी एक पोस्ट देखी होगी......डा आनंद की बच्चों की देखभाल संबंधी गाइड--- मैं इस किताब से और इस के लेखक से बहुत ही ज़्यादा प्रभावित रहा हूं....उन की किताब का भी हम लोगों ने भरपूर प्रयोग किया....ऐसा लगता ही ना था कि किसी किताब को पढ़ रहे हैं, लगता था कि डाक्टर साहब दिल खोल बातचीत के जरिये अपने अनुभव बांट रहे हैं। उस किताब के बारे में मैंने लिखा था कि अब उस का हिंदी संस्करण भी आ गया है।

परसों जब डा त्रिपाठी की एनीमिया पर लिखी इस किताब के बारे में पता चला तो बाहर आते ही वहां लगे स्टाल से मैंने यह पुस्तक खरीदी और अगले ही दिन इसे पढ़ लिया। इस पुस्तक के विमोचन के बाद डा त्रिपाठी ने अपनी लेखिकीय यात्रा के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि देश में ५०-७० प्रतिशत लोग एनीमिया से ग्रस्त हैं...और अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं कि वे इस बीमारी से ग्रस्त हैं... क्योंिक किसी को इस के बारे में मालूम है कि नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह कितना गंभीर है। यह कहानीनुमा अंदाज़ में लिखा गया है, और सारी जानकारियां अाधुनिक वैज्ञानिक शोध के परिणामों के आधार पर दर्ज की गई हैं।


हां, तो दोस्तो मैं इस किताब से इतना प्रभावित हुआ कि शुरू शुरू में मैंने सोचा कि इस में मौजूद उपलब्ध महत्वपूर्ण जानकारियां एक दो लेखों के जरिये आप तक पहुंचाऊंगा.......लेकिन यह मेरे लिए संभव नहीं था......कारण?...क्योंकि इस प्रोफैसर ने इतनी अच्छी तरह से यह किताब लिखी है कि मैं समझता हूं कि इस का एक एक शब्द हर किसी के लिए केवल पढ़ने लायक ही नहीं, हमेशा याद रखने के िलए भी है--- हर आयुवर्ग में एनीमिया पाया जाता है, उस के क्या कारण हैं, क्या रोकथाम है, उपचार का सही तरीका क्या हाल है, इस किताब में सब कुछ परफैक्ट तरीके से कवर किया है।

मैंने एक तरीका ढूंढा है, अगर आप के मन में किसी तरह के भी एनीमिया के बारे में प्रश्न हैं तो इस लेख के नीचे कमैंट के रूप में लिखिएगा, मैं इसी किताब में दी गई जानकारियों के आधार पर आप तक उस का जवाब पहुंचाने की कोशिश करूंगा। वैसे भी जो अंश मुझे बेहद महत्वपूर्ण लगेंगे (वैसे तो सभी ५० पन्ने ही एक से बढ़ कर एक हैं)... आप तक किसी लेख के माध्यम से पहुंचाने की चेष्टा करूंगा।

डाक्टर साहब की किताब के बारे में एक मेहमान ने यह भी कहा.....
जिन हाथों में नश्तर की उम्मीद थी,
वो कलम भी बखूबी चला लेते हैं।।

एक बात, इस किताब की केवल ५०० कापियां छपी हैं, ज़ाहिर है ये तो यूं ही खप जाएंगी........लेिकन मेरा सुझाव है कि इस तरह की किताब की तो हज़ारों कापियां छपनी चाहिए और इस का दाम १०-२० रूपये रखा जाना चाहिए....वैसे तो हिंदी संस्थान इस तरह की जनोपयोगी किताबों का पुनःमुद्रण करता ही रहता है, फिर भी.......यह देखना होगा कि यह किताब किस तरह से घर घर तक पहुंचे। इस तरह की किताबें कोई आम किताबें नहीं होतीं... ये दिल से लिखी कालजयी कृतियां हैं...जिन को लिखने के लिए लेखक के मन में समुची मानवता के प्रति अगाध प्रेम की भावना का होना लाजमी है......वरना कौन इतना बड़ा चिकित्सक अपने चिकित्सा फील्ड को इतने सुलभ संप्रेषणीय ढंग से डिमिस्टीफाई करना चाहेगा!! इस किताब के लेखक डा ए के त्रिपाठी को बहुत बहुत साधुवाद।

और एक सुझाव यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की किताबों की तरह इस तरह की किताबों पर कापीराइट ही नहीं होना चाहिए, ये तो सारी मानवता के लिए तोहफ़े के समान है। ऐसा होना चाहिए कि इस के कंटेंट का कोई किसी भी रूप में प्रचार प्रसार तो करे लेकिन मूल लेखक को पूरा क्रेडिट देते हुए... ऐसी किताबें विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवादित की जानी चाहिएं।

डा साहब अपने भाषण में बता रहे थे कि भविष्य में भी उन की बहुत कुछ लिखने की योजनाएं हैं......इस के लिए डा त्रिपाठी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

हां, अभी मैंने इस किताब को पढ़ना शुरू ही किया था कि शकुंतला की तरह मुझे भी एक नईं बात पता चली......आप भी सुनिए... इसी किताब से........
शकुन्तला बोली-- डाक्टर साहब, माफ कीजिएगा, मैं आपका कीमती समय ले रही हूं... लेकिन ऐसा भी क्या है जिससे गुड़ में अधिक आयरन पाया जाता है। डाक्टर साहब बोले... गन्ने के रस को लोहे की बड़ी-बड़ी कड़ाहियों में धीमी आंच में घंटों उबाला जाता है। इस प्रक्रिया से लोहे के बर्तन की दीवारों से लौह तत्व रस में मिल जाता है। अतः गुड़ और भी आयरन युक्त हो जाता है। गुड़ के सेवन बढ़ावा देना चाहिए। आज के बच्चे गुड़ को शायद जानते ही नहीं हैं।                                        (इसी किताब से)  
एक बात तो है कि डाक्टर साहब की किताब के विमोचन से तो पता चला कि इसे पढ़ कर रक्त रोगों के रोकथाम एवं सही उपचार का सही जुगाड़ तो ही जाएगा, लेिकन एक बात माननी पड़ेगी कि उस कार्यक्रम में मौजूद सैंकड़ों श्रोताओं का सौ-दो सौ ग्राम खून तो बिना हींग-फिटकड़ी लगाए सभी हास्य कविओं ने ठहाकों से लोट पोट कर के बढ़ा दिया....समाज में हर आदमी के फन की बहुत ज़रूरत है....हर इंसान के फन को सलाम!!

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ओह माई गॉड---खून के बारे में इतनी सीरियस सी बातें करने के बाद अभी अभी खून के रिश्ते का यह गीत ध्यान में आ गया... सुनिएगा? अभी क्या देखा है, अब देखोगे......वैसे मन पसंद गीत-संगीत सुनने से भी खून बढ़ता है, यह तो आप अच्छे से जानते ही हैं......हा हा हा हा ...यह मेरा नुस्खा है!







गीत गाओ...खुशी मनाओ.. खुशामदीद 2015

आज नये साल की शुरूआत है.....हंसने, गाने, भंगड़े डालने की बातें करते हैं दोस्तो।

दोस्तो, मुझे आज सुबह १०-१२ साल पहले का हंसराज हंस का एक गीत याद आ रहा था, सीडी का जमाना था, बार बार अपने डेस्कटॉप कंप्यूटर में डाल डाल कर यह गीत सुनना अच्छा लगता था क्योंकि इस के लिरिक्स और ट्यून बहुत अच्छी लगती थी......असीं दोवें रूठ बैठे तां मनाऊ कौन वे....



उन्हीं दिनों की बात है मैं एक बार एक बार फिरोजपुर से दिल्ली जनता एक्सप्रेस में यात्रा कर रहा था...दोस्तो,  एक आठ-दस का लड़का भटिंडा से चढ़ा और उस ने यही गीत गाना शुरू किया....साज़ के नाम पर उस के हाथ में दो छोटी छोटी ठीकरीयां (टूटे हुए मटके के टुकड़े) थीं लेकिन दोस्तो, जैसा उस लड़के ने समय बांध कर रख दिया....आज भी याद है।

लगभग दो वर्ष पहले मेरे बेटे ने एक वीडियो का लिंक भेजा था....सुदेश कुमारी पंजाबी सिंगर का....जितनी सहजता से वह गीत गा रही थी, काबिले तारीफ़ है.....देखने से ही लगता है कि वह अपने काम को खूब एंज्वाय कर रही है... वाह जी वाह....



कल शाम को एक मित्र ने एक बुज़ुर्ग का गीत जब एन ईवनिंग इन पैरिस का गीत भेजा तो सुन कर तबीयत हरी हो गई।


और सन्नी सन्नी फनी की तो क्या तारीफ़ करें, आप स्वयं देख लें........खुश हो कर इस नानी का तो माथा चूम लेने की इच्छा होती है!!



और जाते जाते इन बुज़ुर्गों का उत्साह भी देखना मत भूलियेगा, वरना बुरा मान जाएंगे.....



दोस्तो, आप ने इतना कुछ देखा.......आपने नोटिस किया कि ये लोग कितनी मौज में अपना काम कर रहे हैं।

मुझे याद है एक बार एक सत्संग में मैंने सुना था कि जब डांस करो, जब गीत गाओ तो यह सब ऐसे करो जैसे अपनी रूह के लिए कर रहे हो, ऐसे सोचो कि तुम्हें कोई भी देख नहीं रहा और तुम तो अपनी रूह को खुश करने के लिए ही बस यह कर रहे हो........फिर देखिए कितना मज़ा आता है.......

दोस्तो, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा..........आप को कौन रोक रहा है?.....यह कौन परवाह करता है कि नाचना आता है कि नहीं, गीत के सुर लग रहे हैं कि नहीं, ये अनाड़ी लोगों की बातें हैं........बस, जब झूमने को, गाने को दिल करे तो खुल कर जी लिया करें............इसी शुभकामनाएं के साथ कि ईश्वर आप के हालात इस नये वर्ष में ऐसे बना दे कि आप सदैव मुस्कुराते रहें, स्वस्थ रहें और अपने आसपास भी खुशीयों का इत्र छिड़कते रहें............

दोस्तो, उल्लास, मौज मस्ती को ब्यां करने वाले सैंकड़ों लम्हें हमारी सब की यादों में कैद हैं, है कि नहीं?.....तो यार आप को अपना दिल खोल कर कुछ करने के लिए कौन मना कर रहा है!!........Please don't hold back! Open up!!

दिल खोल कर अपनी खुशी का इज़हार कर पाना भी ईश्वर का एक वरदान है.....आप सेहतमंद हैं, आप की रूह राजी है, आप के मन में विश्व-बंधुत्व की सुंदर भावनाएं हैं....तब कहीं जाकर दोस्तो यह खुशी फूटती है...वैसे फार्मूला इतना सीरियस भी नहीं है जितना मैंने लिख दिया है,  बस आप शुरू हो जाओ।

जाते जाते मेरी पसंद का भी एक गीत सुन लें...मुझे यह बहुत पसंद है......मैंने कुछ दिन पहले इसे बरसों बाद सुना था अपने रेडियो पर........कैसे जीते हैं भला... आ बता दें यह तुझे कैसे जिया जाता है......

बंदर को मिली किस ऑफ लाइफ (जीवनदायी चुंबन)

दैनिक भास्कर के २७ दिसंबर २०१४ के अंक में मैनेजमेंट फंडा कॉलम में एन.रघुरामन का एक लेख दिखा...
रघुरामन लिखते हैं.....
"24दिसंबर की रात में अपने एक दोस्त के साथ आधी रात को होने वाली क्रिसमस प्रार्थना में जाने वाला था। तभी लैपटॉप पर सर्फिंग करते मेरी नज़र न्यूज़ एजेंसी के एक वीडियो पर पड़ी, जिसे देखकर मुझे बेहद खुशी हुई। यह वीडियो रविवार को शूट हुआ था। क्रिसमस के कुछ दिन पहले। 
क्रिसमस यानी बांटने और गिफ्ट देनेवाला त्योहार। इसमें दिखाया गया था कि कानपुर रेलवे स्टेशन पर कुछ लोग एक बंदर को देख रहे हैं। यह बंदर एक दूसरे बंदर को बचाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है। दूसरे बंदर को हाइटेंशन लाइन छूने से करंट लगा है और वह रेलवे ट्रैक पर बेहोश पड़ा है। 
आखिल में बंदर उसे ट्रैक पर से उठाकर दो ट्रैकों के बीच में ले आता है। फिर उसकी छाती को जोर से दबाता है, मुंह से मुंह में हवा देने की कोशिश करता है, पास ही लगे नल से पानी लाता है और उसे पिलाता है। कोई नहीं जानता था कि करंट लगने पर फर्स्ट एड देने का यही सही तरीका है। 
यात्रियों को भीड़ प्लेटफॉर्म प कौतूहल से बंदर की फर्स्ट एड देते देखती रही। उसका वीडियो बनाती रही, फोटो खींचती रही। यही नहीं बंदर को बताती भी रही कि क्या करना है, जैसे बंदर उनकी भाषा समझ रहा हो।  
कुछ ही मिनटों में वह बंदर, पूरी तरह से धूल-मिट्टी में सना हुआ, अपनी आंखें खोलता है और उठ खड़ा होता है। दूसरा बंदर और वहां जमा बाकी बंदर उसे थोड़ी दूर ले जाते हैं। आखिर स्लाइड में दिखाया गया है कि वे दोनों बंदर खुश हैं।  
यह वीडियो देखने के बाद मैं अपनी क्रिसमस प्रार्थना के लिए निकल गया। मेरा दोस्त गरीबों को कंबल बांटना चाहता था जो उसने शाम को ही मार्केट से खरीद रखे थे। उस रात कंबल बांटने में सबसे बड़ी समस्या कंबल देना नहीं बल्कि सही व्यक्ति की पहचान करना था। जब हम जरूरतमंदों को ढूंढ रहे थे और कंबल बांट रहे थे, तभी हमसे कंबल ले कर एक व्यक्ति न उस पर लगा प्लास्टिक कवर हटाया और कंबल को धूल में पटकने लगा।  
उसके इस व्यवहार से हैरान होकर मैंने उसे ऐसी बेवकूफ़ी करने से मना किया। मैं उसके हाथ से कंबल लेने के लिए बढ़ा भी। लेकिन उसने हाथ जोड़कर मुझसे कहा -- सर, ये कंबल मुझसे मत लीजिए क्योंकि बहुत ठंड है। और अगर मैं इसे गंदा नहीं करूंगा तो यहां बहुत गुंडे हैं जो हमसे ये कंबल ले जाएंगे। और उसी दुकान पर बेच देंगे जहां से आप ये खरीदकर लाए हैं। हमन जो सुना उस पर विश्वास ही नहीं हुआ। 
हम भौचक्के थे और कुछ भी कहने की स्थिति नहीं थी। समझ नहीं आ रहा था क्या करें। अचानक वो बंदर वाला वीडियो याद आया। मुझे लगा जैसे हम मानव जानवरों से भी बदतर हैं। हम पूरी रात सड़क किनारे खड़े चायवाले से चाय लेकर पीते रहे, ये सुनिश्चित करने के लिए कि कोई कंबल छीनकर न ले जाए। कम से कम उस रात तो नहीं। अगली सुबह मैंने उन लोगों के चेहरे पर बड़ी सी मुस्कुराहट देखी, जो कड़कड़ाती ठंड में आराम से सो पाए थे।"
वापिस उस सुपर-डाक्टर बंदर के महान् कारनामे पर लौटते हैं जिस ने किस ऑफ लाइफ दे कर अपने साथी की जान बचा कर ही दम लिया.....जी हां, किसी बेहोश की जान बचाते वक्त उसे जो मुंह से मुंह में हवा देने की कोशिश की जाती है, उसे किस ऑफ लाइफ ही कहा जाता है. लेकिन उस ने तो किस ऑफ लाइफ के अलावा भी बहुत कुछ किया...मैंने अभी अभी यू-ट्यूब पर सर्च कर के इस वीडियो को देखा ....यकीन हो गया कि बंदर ही मानव का बाप है।