रविवार, 21 सितंबर 2014

पुरूषों का सेक्स हार्मोन भी बना एक धंधा

 इस न्यूज़-रिपोर्ट का स्क्रीन शॉट
पुरूषों में उम्र बढ़ने के साथ जब टेस्टोस्टीरोन नामक हार्मोन के स्तर में कमी आने लगे तो मांसपेशियां ढिलकने लगती हैं, कुछ लोगों को सेक्स में कुछ इश्यू होने लगते हैं और पुरूष थका थका सा रहने लगे तो अमेरिका में इस के लिए क्या किया जा रहा है, इस के लिए आप को इस न्यूज़-रिपोर्ट पर क्लिक कर के देखना होगा.....
FDA to Probe Testosterone Therapy Claims, Safety

इतना तो पता पहले ही था कि विदेशों में इस तरह के लक्षणों के इलाज के लिए मेल-सैक्स हार्मोन टेस्टोस्टीरोन को पुरूषों को दिया जाता है। यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि यह हार्मोन टेस्टोस्टीरोन वैसे तो प्राकृतिक ढंग से ही पैदा होता है लेकिन बढ़ती उम्र के साथ यह जितनी मात्रा में शरीर में उत्पन्न होता है उस में कमी आने लगती है.....कईं बार तो इसे Male menopause (पुरूषों की रजोनिवृत्ति) की संज्ञा दी जाती है......जैसे कि महिलाओं में रजोनिवृत्ति के समय मासिक धर्म होना बंद हो जाता है।

हां, इस हार्मोन का उम्र के साथ कम होना एक स्वाभाविक सी बात है....लेकिन वियाग्रा के जमाने में कोई इसे आसानी से माने तो कैसे माने। हर बात पर कुदरत से पंगा लेना एक जुनून ही बन चुका है शायद।

हां, तो आप भी इस रिपोर्ट में देख सकते हैं कि किस तरह से दवा इंडस्ट्री को जब यह पता चला कि टेस्टोस्टीरोन का धंधा तो एक अच्छा खासा धंधा है तो बस बाकी फिर देर क्या थी।

ऐसा नहीं है कि टेस्टोस्टीरोन हार्मोन को ऐसे लोग को ही दिया जा रहा है.....कुछ लोग जिन में इस हार्मोन का प्राकृतिक स्तर वैसे ही कम होता है क्योंकि उन में पौरूष ग्रंथियां ठीक से विकसित नहीं हो पाती (hypogonadism) उन में तो यह हार्मोन दिया ही जाता है......एक अनुमान के अनुसार २०१४ में अमेरिका में २३ लाख पुरूष यह हार्मोन ले रहे हैं जिन में से आधों को इस की ज़रूरत ही नहीं है।

किस तरह से पुरूषों को लेबल करने के लिए कि इन में इस हार्मोन का स्तर कम है, क्या क्या धंधे हो रहे हैं, यह आप इन पंक्तियों में स्वयं पढ़ लें ...कि टैस्ट को ठीक ढंग से ठीक समय पर ठीक विशेषज्ञ द्वारा किया ही नहीं जाता।
इसी रिपोर्ट से ......पढ़ने के लिए क्लिक करिए
चिंताजनक बात यह है कि जिन लोगों में इस तरह का हार्मोन बिना वजह बिना ठीक तरह से टेस्ट किये ही दिया जाने लगता है उन में दिल के दौरे या दिमाग में अटैक (स्ट्रोक) का खतरा बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है।

यह हुई बात अमेरिका की.........ज़रा इन देशी हकीमों आदि की भी, नीम हकीमों की भी बात थोड़ी कर लें.......क्या आप को नहीं लगता कि ये लाखों करोड़ों की दौलत में डूबने वाले लालची किस्म के खानदानी नीम हकीम मरीज़ों को यह सब खिला खिला कर उन की अच्छी भली सेहत खराब नहीं कर रहे होंगे........अगर उन्हें दूसरी अनाप शनाप ताकत की दवाईयां खिला खिला कर कुछ बचता होगा तो।

अगर इन के शाही-बादशाही कोर्सों की या इन के इंजैक्शनों की टेस्टिंग होगी तो उन में भी यही सब कुछ तो मिलेगा........लेकिन इन की नकेल कसे तो कसे कौन!! सरकारी सांड की तरह फलते-फूलते जा रहे हैं ......अब तो केबल टीवी पर भी १०-१५ मिनट के स्लॉट खरीद कर लोगों को ताकत बेचने लगे हैं.......ये ताकत के बादशाह !!

चलो यह तो एक बात हुई, लेकिन इस गाने का यहां क्या काम?......पता नहीं यार, अच्छा लगे तो देख  लेना .........गुड नाइट......

नेट पर बिकने वाली सेहत

इतने वर्ष हो गये नेट पर मेडीकल विषयों पर लिखते हुए ... अब यह पक्का लगने लगा है कि नेट पर जो हम लोग सेहत संबंधी विषयों के बारे में पढ़ते हैं, उसे हैंडल करना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है।

आए दिन मैडीकल रिसर्च से नईं नईं बातें सामने आ रही हैं...लेिकन बहुत सी बातें अभी भी रिसर्च की स्टेज तक ही होती हैं कि विभिन्न कारणों की वजह से --(इस में मार्कीट शक्तियों की भी बहुत भूमिका है).. उन्हें आगे कर दिया जाता है।

कोई भी नेट पर मैडीकल सामग्री पढ़ने वाला आसानी से भ्रमित हो जाता है.....जिस टेस्ट की नहीं भी ज़रूरत वह जा कर करवा के आ जाएगा, जिस जांच की ज़रूरत है वह करवाएगा नहीं, नईं नईं दवाईयों के चक्कर में या नेट पर ऑनलाइन दवाईयों के चक्कर में पड़ सकता है.....और तो और, कुछ विषयों के ऊपर पढ़ कर कईं तरह की काल्पनिक बीमारियों के चक्कर में अपने मन का चैन खो बैठता है। इस तरह के पचड़ों में पड़ने की लिस्ट खासी लंबी है, कहां तक गिनवाएं।

मैं जनसंचार (मॉस कम्यूनिकेशन)  पांच वर्ष पढ़ने के बाद से पिछले सात वर्षों से निरंतर नेट पर सेहत संबंधी विषयों पर लिख रहा हूं...इसलिए जेन्यून और फालतू जानकारी के बीच अंतर जानने में दिक्कत नहीं होती..लेिकन फिर भी बहुत बार तो मैं भी कंटाल जाता हूं.......अभी अभी खबर पढ़ी कि ये आर्टिफिशियल स्वीटनर्ज़ हैं, इस से भी मधुमेह के रोगियों में रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। इस का स्क्रीन शाट यहां लगा रहा हूं।

लो, कर लो बात......
यही कारण है कि मैं किसी को भी सलाह नहीं देता कि नेट पर कुछ भी पढ़ कर आप अपनी सेहत के बारे में महत्वपूर्ण फैसले करें....यह आप के हित में है ही नहीं। आप के फैमली डाक्टर का न तो कोई विक्लप बना है, शायद न ही बन सकता है। उस से बात कर के ही आप की कईं चिंताएं हवा हो सकती हैं।

हां, नेट में अगर जानना हो तो ह्लकी फुल्की जानकारी सेहत के बारे में....किसी टेस्ट के बारे में कोई जानकारी चाहिए हो तो वह पढ़ लें, समझ लें, किसी भी आप्रेशन के बारे में कुछ भी ऐसे ऊपरी ऊपरी जानकारी पा सकते हैं, लेकिन कोई भी निर्णय इस आधार पर लेने की कोशिश न करें.......क्या है ना, डाक्टर लोग बीसियों वर्षों तक हज़ारों मरीज़ देखने के बाद इस मुकाम तक पहुंचते हैं कि आप से चंद मिनट बात कर के, आप के कुछ टेस्ट करवा के, आप की सेहत के.. बारे में जान लेते हैं.........आप कैसे ये सब निर्णय ले सकते हैं।

एक और मशविरा .... डाक्टर से आप जितने प्रश्न करें, आप का अधिकार है...लेकिन अगर अपना नेट से पढ़ा मैडीकल ज्ञान दिखाने के लिए अगर आप कुछ कह रहे हैं तो वह भी चिढ़ जाता है, आखिर है तो वह भी इंसान, उसे कुछ भी समझते देर नहीं लगती। बेहतर हो कि डाक्टर के सामने बिल्कुल अनाड़ी (और दरअसल हम हैं भी... डाक्टर की तुलना में) की तरह ही बिहेव करें......कुछ ज़्यादा लिख दिया.......चलिए, इतना तो कर ही सकते हैं कि जो डाक्टर साहब कह रहे हैं, उसे अच्छे से समझने की कोशिश करें।

नेट पर पढ़ा करें कि खुश कैसे रहें, जीवनशैली को कैसे पटड़ी पर लाएं, खाना पीना कैसे ठीक करें, व्यायाम कैसे नियमित करने की आदत डालें, विचार कैसे शुद्ध हों (जी हां, यह भी जाना जा सकता है).....कैसे शांत रहना सीखें.....बस इतना ही काफ़ी है ......लेकिन आप कहेंगे कि इन के बारे में क्या पढ़ें, डाक्टर, यह सब तो क्या हम पहले ही से नहीं जानते क्या?.......तो फिर उन्हें व्यवहार में लाने से आप को कौन रोक रहा है। 

घड़ीसाज़ ने भी जवाब दे दिया...

६५ वर्ष पुरानी हमारे घर की घड़ी 
 उस दिन जब मैंने लखनऊ के आलमबाग में एक घड़ी की दुकान से सैल बदलवाया तो वहां बैठा एक बुज़ुर्ग घड़ीसाज़ मुझे बहुत अनुभवी लगा। उसे देखते ही मुझे मेरे घर में बरसों से बेकार पड़ी एक उस बुज़ुर्ग जितनी ही पुरानी घड़ी की याद आ गई. मैंने सोचा कि उस का मुआयना और इलाज इन्हीं से करवाएंगे।

आज दोपहर में मैं जब उसे लेकर उस कारीगर के पास गया तो उसे देखते ही उसने कहा कि इस का कुछ नहीं हो सकता,  मैंने कहा कि आप देख तो लें....शायद कुछ हो जाए...तब उस ने कहा कि इस के कलपुर्ज़े ही बीसियों साल पहले मिलने बंद हो गये।

मैंने पूछा कि शायद पुर्ज़े बदलने की ज़रूरत ही न हो, उसने कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता....जब कोई मशीन चलती है तो उस के पुर्ज़े तो घिसते ही हैं। बहरहाल, उसने अपने किसी दूसरे साथी को आवाज़ लगा कर पूछा कि प्रेम, इसे देखो, इस का कुछ हो सकता है। एक तरह का सैकेंड ओपिनियन ले रहा था वह बुज़ुर्ग।

उस ने भी उस घड़ी को देखते ही दूर से अपना फैसला सुना दिया.......कुछ नहीं, इस का कुछ नहीं हो सकता।
मुझे बहुत बुरा लगा.......जैसा मरीज़ों को भी लगता होगा जब कोई डाक्टर किसी मरीज़ को ऐसा जवाब देता होगा।
बहरहाल, आप को इस घड़ी के बारे में कुछ विशेष बातें बताने लगा हूं।

जब से मैंने होश संभाला इस क्लॉक को घर में देखा..... सीमेंट की एक शेल्फ पर एक कमरे में बनी हुई थी..... सरकारी घरों में शो-पीस तो हुआ नहीं करते थे।

उस शेल्फ पर मैंने बचपन से ही तीन चीज़े पड़ी देखीं......उस पर मेरी मां द्वारा एक बढ़िया सा कढाई किया हुआ मेजपोश बिछा रहता था....जिस पर तीन चीज़ें--- एक फ्रेम की हुई मेरे दादा जी की फोटो, बीच में यह घड़ी और तीसरी एक फोटो..मेरे पिता जी के इष्टदेव बाबा बालकनाथ जी की तस्वीर जिस पर वह रोज़ाना सुबह धूप-बत्ती किया करते थे।

हां, तो बात घड़ी की हो रही है......इस घड़ी को चाबी रोज़ाना दी जाती थी, और अधिकतर ....अधिकतर क्या, लगभग हर रोज़ मेरे पिता जी ही इसे चाबी दिया करते थे। दूसरा कोई भी चाबी देने लगता तो लफड़ा कर बैठता....थोड़ा सा भी ज़्यादा ज़ोर लगाने पर यह चाबी देने वाला बटन खराब हो जाता था, फिर उसे बनवाना पड़ता था।

रोज़ाना एक ही समय में इसे चाबी भरना भी जैसे घर में एक इवेंट हुआ करता था।

लेकिन इस घड़ी में अलॉर्म लगाना तो एक और भी बड़ा काम.........सारे घर को पता रहता था कि आज घड़ी में कितने बजे का अलॉर्म लगा है और किस काम के लिए लगा है, कोई पेपर वेपर की तैयारी करनी है या कोई गाड़ी वाड़ी पकड़ने का चक्कर है।

आज मैं अपने बेटे को भी यह सारा किस्सा सुना रहा था....किस्सागोई करते करते मैं यही सोच रहा था कि उस ज़माने में भी गजब का सब्र हुआ करता था...घर में किसी ने भी टाइम देखना है तो हर किसी को उस कमरे में आना ही होगा जिस की शेल्फ पर यह सजी रहती थी......नहीं तो, अपना आल इंडिया रेडियो जब टाइम बताये तो तब सुन लिया जाता था.....मुझे याद है, चाय वाय के टाइम तो रेडियो के प्रोग्रामों --खबरों आदि के साथ बंधे हुए थे।

इस घड़ी की कार्य-प्रणाली जिसे मैं आज तक न समझ पाया...
और एक बात, यह जो आप ने इस घड़ी के पिछले हिस्से की तस्वीर देखी..उस के विभिन्न बटनों को समझना मेरे लिए किसी साईंस एक्सपैरीमेंट जैसा था.....वैसे भी मैं अकेले में इस से पंगे लेता रहता था....जब भी इस में कोई भी रूकावट आती तो शक की सूईं सब से पहले मेरे पर ही जैसे रूक जाया करती... कि इसने ही छेड़खानी की होगी।

आज मैं अपनी मां जी से इस घड़ी की बातें शेयर कर रहा था तो उन्होंने मेरे ज्ञान में एक और इज़ाफ़ा कर दिया....उन्होंने बताया कि जब तेरे पिता जी ने यह घड़ी १९५० में ५० रूपये में खरीदी थी तो हमारे घर के आस पास इसे देखने आये थे.... कि अलॉर्म वाली घड़ी आई है जो कि रात के समय टिमटिमाती भी है.....टिमटिमाना तो मुझे भी याद है जब मैं अपने पिता जी के साथ रात में सोने की कोशिश किया करता तो बत्ती बंद होने के बावजूद इस में से हरे टिमटिमाते से सितारे अच्छे लगते.... यह रेडियम के कारण है।

पिता जी की घड़ी जिसे मैंने शायद १९८० से उन की कलाई पर देखा
चालीस वर्ष बाद आज मेरी कलाई पर...

अपने टेबल का दराज देख रहा था तो मेरे पिता जी की एक घड़ी पर भी नज़र पड़ गई......मैंने उन्हें १९८० के आसपास इसे पहने देखा......लगभग बीस वर्षों से यह ऐसे ही पड़ी है, आज मैंने पहनी तो अच्छा लगा......इसे कोई चाबी वाबी नहीं देनी पड़ती और न ही सेल बदलवाने का झंझट है......इस के डायल पर SEIKO -- Automatic लिखा हुआ है.... अच्छा लगा ...इस तरह की चीज़ों को आस पास रखने से बहुत से अहसास कायम रहते हैं.........आज कल मैं शायर मुन्नवर राणा साहब को पढ़ रहा हूं........शायद इतने सारे अहसास उस की वजह ही से लौट आ रहे हैं।


शनिवार, 20 सितंबर 2014

बोरों में लाश किसकी-- जानवर या इंसान

आज बाद दोपहर मैं लखनऊ के आलगबाग से बंगला बाज़ार की तरफ़ आ रहा था...जिस रोड से मैं आ रहा था उसे व्ही.आई.पी रोड कहते हैं.....शायद इसलिए कि जब माननीय लोग हवाईअड्डे की तरफ़ जाते हैं तो इन की गाड़ियों के काफ़िले इस रोड से ही निकलते हैं, मुझे ऐसा लगता है कि इसीलिए नाम भी यही पड़ गया होगा।





नहरिया के ऊपरी सतह से निकला बोरा...


हां, तो उस व्हीआईपी  रोड के एक तरफ़ तो है बौद्ध विहार नामक एक स्मारक.....बहुत बढ़िया स्मारक है, देखने लायक....सुश्री माया वती के कार्यकाल के दौरान तैयार हुआ था। लेकिन कुछ दिनों से व्ही आई पी रोड के बीच में एक बंद रास्ता खोल दिया गया है। और इस स्मारक की दीवार के आगे एक नहर है.......इसे यहां की भाषा में नहरिया कहते हैं......लेकिन मुझे यह किसी नाले जैसा ही लगता है।

आज मैंने आते हुए देखा कि वहां पर लोगों का तांता लगा हुआ है......मैं भी रूक गया, पूछने पर पता चला कि नीचे नहर में दो बोरे पड़े हैं. कुछ दिनों से पड़े हुए थे, लोगों ने बदबू की शिकायत की तो आज उन्हें पुलिस की देखरेख में और जेसीबी मशीन की मदद से उठाया जा रहा है।

मैंने भी आगे होकर देखा कि एक वर्कर नीचे जा कर उन में से एक बोरे को रस्से से बांध रहा था....और फिर जेसीबी मशीन के द्वारा उसे ऊपर उठा लिया गया। वह वर्कर उस के बाद वापिस ऊपर आ गया।

जे सी बी मशीन में चंद लम्हों में वे बोरे ऊपर उठा कर रख दिए....आप इन तस्वीरों मेें देख रहे हैं...

उस के बाद वही बोरे जेसीबी ने सावधानी से उठाये और चलती बनी......पुलिस भी वहां से हट गई......और जनता भी तितर बितर हो गई।

हर कोई एक दूसरे से पूछ रहा था कि इन बोरों में लाश जानवर की है या इंसान की है?......तभी किसी ने एक बोरे की तरफ़ इशारा किया कि देखो, जानवर के पांव जैसा एक बोरे से बाहर दिख रहा है। लेकिन किसी ने इस बात की पुश्ति नहीं की कि आखिर क्या था उन बोरों में।

वहां खड़ा एक आदमी कहने लगा कि अगर जानवर की ही लाश होती तो उसे इतने टुकड़ों में काट कर बोरे में बंद कर के भला फैंकने की क्या ज़रूरत थी?...बात तो सही लग रही थी।

अब यह रहस्य कल के अखबार में शायद खुल जाए कि क्या था उन बोरों में.......पुलिस तहकीकात में क्या पता चला......मुझे वहां खड़े खड़े सोनी टीवी के सीआईडी सीरियल का ध्यान आ रहा था।

एक बार जर्नलिज़्म के एक प्रोफैसर ने क्लास मे एक शेयर मारा था....पूरा तो अभी याद नहीं, लेकिन कुछ शब्द ऐसे थे कि......
अब कौन देखने जाए कहां से उठ रहा है धुआं....
कल सुबह अखबार में पढ़ लेंगे आग कहां लगी है।। 

आज हमारे समाज का भी कुछ ऐसा ही हाल हो गया है। सनसनी हर तरफ़ दिख रही है लेकिन इस के आगे किसी को कोई सरोकार नहीं.......कुछ मतलब नहीं। दो मिनट में तांता लग जाता है तीसरे मिनट में तितर बितर हो जाता है........आज सुबह किसी फेसबुक मित्र की एक पोस्ट देखी थी ...अब सपेरे ने यह कह कर सांप अपने पिटारों में बंद कर दिये हैं.....कि अब इंसान को काटने के लिए इंसान ही काफ़ी है।

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

इन मिलावटखोरों के कारनामे...

आज फेसबुक पर एक मित्र ने एक वीडियो शेयर की थी....उसे देख कर मेरा तो जैसा दिमाग घूम गया। किसी चैनल ने मिलावटखोरो की पोल खोल कर रखी थी।

शायद आपने भी यह सब देखा-सुना तो होगा.....लेकिन प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ सब कुछ देखना बड़ा विचलित करता है...।

इस गुज़रे सीज़न में हम ने तरबूज खूब खाए....घर के ही सामने मंडी में एक दुकानदार तरबूजों का बड़ा सा ढेर लगा कर बैठा करता था कि कोई भी तरबूज फीका नहीं होगा और हर तरबूज अंदर से लाल ही होगा। एक-दो-तीन-चार.....सभी के सभी तरबूज एक दम लाल और मीठे......यार, यह तो कोई पहुंची हस्ति लगती है........लेकिन मन में कहीं न कहीं विचार तो आता ही था कि कुछ न कुछ तो लफड़ा है ही......इस विषय पर मैंने छःसात वर्ष पहले भी कुछ लिखा था.....मिलावटी खानपान के कुछ केस ये भी हैं.......लेकिन इस वीडियो ने सब कुछ देख कर एक बार फिर से विश्वास पक्का हो गया कि ये हरामी मिलावटखोर किसी के भी सगे नहीं है, ये तो चंद सिक्कों के लिए कुछ भी बेच दें.....।



वीडियो में आप यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से सब्जियों पर रंग चढ़ाया जा रहा है, हम सब को बीमार, बहुत बीमार तैयार करने की तैयारियां....घोर शर्मनाक.

हम सब्जियों की बातें करते हैं तो इतनी महंगी तो पहले ही से हैं......मैं कल बाज़ार से निकल रहा था, मैंने एक जगह फुल गोभी देखी....अच्छी दिखी......एक छोटा सा पीस ..पचास रूपये में.......मैंने वजन करने के लिए कहा .. यह ४०० ग्राम से भी कम था......खरीद लिया क्योंकि फुल गोभी यहां लखनऊ में तोल के हिसाब से नहीं, प्रति पीस के हिसाब से मिलती है........खरीद तो ली मैंने ...लेकिन मैं यही सोच रहा था कि यार, यह फुल गोभी भी अब १२५ रूपये किलो बिकेगी क्या.  चलिए महंगी तो है ही, ऊपर से यह भी नहीं पता कि कितनी शुद्ध है, कितनी मिलावटी......किसी चैनल पर यह भी दिखा था कि ये जो फुल गोभी के बहुत साफ़ साफ़ पीस दिखते हैं...ये सफाई भी एक कैमीकल के घोल में इन्हें डुबो कर ही प्राप्त की जाती है।

जब मैंने इस वीडियो के कंटैंट अपनी मिसिज़ से शेयर किया तो उन्होंने भी यही किया कि हर तरफ़ ही मिलावट तो है ही, लेकिन कोई करे तो क्या करे, कैसे सब्जी को खाना बंद दे जनता....मैं भी यही सोचता हूं। लेकिन फिर भी इस तरह की चैनलों की कवरेज से लोग थोड़ा सचेत तो ज़रूर हो ही जाते हैं।

रही बात, विभिन्न मिलावटी वस्तुओं को घर ही में टैस्ट करने की बात........मुझे यह बात कभी भी प्रैक्टीकल नहीं लगी, और यह है भी नहीं। देखिए ना, वैसे किसी का लोंडा चाहे साईंस पढ़े या न पढ़े.. वह स्कूल में कोई प्रैक्टीकल कर पाए न पाए, लेकिन बापू बेचारा घर में विभिन्न तरह की मिलावटी जांच के लिए एक पूरी की पूरी प्रयोगशाला बना कर बैठ जाए........और किस किस चीज़ में मिलावट ढूंढता फिरेगा.......

जब मैं अपनी मिसिज़ से बात कर रहा था तो उन्होंने बताया कि कुछ अरसा पहले जब उन्होंने अपने किरयाने वाले से कहा कि किशकिश इतनी पीली पीली सी क्यों है, तो उसने जवाब दिया कि बाज़ार में कलर की हुई किशमिश भी मिल जाएगी, यही बात सौंफ के लिए भी है, जो ज़्यादा हरी हरी दिखे, वह भी कलर वाली हो सकती है, जिस तरह से बड़ी चमकती दमकती सब्जियां ......क्योंकि इस से यह तो पता चलता ही है कि इन के ऊपर विभिन्न कलर या कैमीकल तो इस्तेमाल किए ही गये होंगे और साथ में इन की चमक इस बात का भी प्रमाण है कि इन्हें कीट आदि से बचाने के लिए कितने रासायनिक कीटनाशक इस्तेमाल किए गये होंगे।

वैसे इस वीडियो में हो रही मिलावट के भयंकर कारनामे देख कर मन बहुत दुःखी हुआ..... इसलिए भी कि यह हरामी तो सेहतमंद को बीमार कर दें और बेचारे किसी भी लाचार, बीमार को मौत के घाट उतारने में भी रती भर संकोच नहीं करते......हरामी मिलावटखोरों में खौफ़ पैदा करने का एक उपाय है.....इन दल्लों का मुंह काला कर के, इन्हें गधे पर बैठा कर, जूतों का हार इन के गले में पहना कर, जूते मारते हुए सारे शहर में घुमाया जाना चाहिए......पानी में भिगो भिगो कर........शायद इस से इन के मन में कुछ खौफ़ पैदा हो पाए, शायद........... ।।।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

वो हजामत के दिन, वे बरफी की यादें...

शायद आप में से कुछ सोच रहे होंगे कि यह हजामत का बरफी से क्या संबंध.....शायद कुछ को तो हजामत का मतलब ही न पता हो, या जिस हमाजत के बारे में वे सोच रहे हैं यह वह हजामत नहीं है।

सब से पहले तो हजामत का मतलब ही समझ लें.....वैसे मुझे यह भी नहीं पता कि सही शब्द हज़ामत है या हजामत, क्योंकि जब से होश संभाला पंजाब में अमृतसर की धरती पर हमेशा यही सुना कि बाल वध गये ने, जामत नहीं करवानी हल्ले... (बाल बढ़ गये हैं, अभी बाल नहीं कटवाने जाना).... जी हां, आपने ठीक समझा पंजाब में  ठेठ भाषा में बाल कटवाने को जामत करवाना ही कहते रहे हैं....यह १९६० के दशक के आखिरी और १९७० के दशक के पहले वर्षों की बातें आपसे साझी कर रहा हूं...हजामत समझ हमें लंबा लगता है, इसलिए शायद हम उसे आसानी से छोटा कह कर उस की भी जामत कर देते हैं।

फ्लैशबैक...

मैं पांच-सात-आठ वर्ष का बालक......अपने पिता जी की साईकिल के अगले डंडे पर बैठा हूं...पता नहीं उन्होंने उस पर बच्चों वाली काठी कभी क्यों नहीं लगवाई, लेकिन मुझे उस पर बैठने में दिक्कत बहुत हुआ करती थी....सब कुछ दुःखने लगता था.....क्योंकि मैं डंडे के दोनों तरफ़ एक एक टांग कर के बैठता और बार बार हिलता रहता कि नीचे चुभने वाला दर्द कम तो हो.......लेकिन जो भी वे भी बहुत अच्छे दिन थे, अपने पिता जी का साईकिल पर आगे बैठ कर किसे उम्र की उस अवस्था में बादशाह जैसे फील नहीं हुआ होगा.......मजे की बात तब बादशाह का पता ही कहां होता है!!

 नहीं यार यह मैं नहीं हूं..गूगल से
लो जी हम पहुंच गये...अमृतसर के हरीपुरा एरिया के एक नाई के यहां.......आज हेयर-ड्रैसर कहते हैं, तब तो नाई ही कहते थे.....वह माहौल अभी भी याद है...... उस की दुकान पर एक लकड़ी की कुर्सी हुआ करती थी, अब वह एडजस्ट तो हो नहीं पाती थी, इसलिए मेरे जैसे छोटे बच्चों के लिए एक लड़की का फट्टा रख कर उस पर मुझे बैठा दिया जाता था.. फिर एक कपड़ा बांध कर वह अपना काम शुरू कर दिया करता था।

एक बात का और भी ध्यान आ रहा है कि उस नाई की दुकान पर बहुत सी तस्वीरें ये हीरो-हारोईनों की मायापुरी और लोकल हिंदी के अखबार --पंजाब केसरी से काट कर आटे की लेवी से चिपकाई हुई होती थीं..विशेषकर हीरोईनों के विभिन्न मन-लुभावने पोज़ों को तरजीह दी जाती थी...... दो दिन से एक अभिनेत्री के क्लीवेज को लेकर इतनी चर्चा हो रही है, तब नाई की दुकान पर भी यह सब दीवारों पर चिपका पड़ा मिलता था।

मुझे याद है मुझे उस नाई की मशीन से बड़ा डर लगता था......इतनी आवाज़ करती थी, और बार बार उस का बालों में अटक जाना......कईं जगह से चमड़ी काट दिया करती थी वह मशीन...इसलिए मुझे जामत करवाने जाना कभी अच्छा नहीं लगता था, फिर भी मैं राजी हो जाया करता था, कारण अभी बताऊंगा।

जिस उस्तरे से वह कलमें बनाया करता था, वह भी मल्टी-पर्पज़ ही हुआ करता था.....हर पांच मिनट के बाद वह एक पुरानी चमड़े की बेल्ट पर रगड़ कर उस की धार लगाया करता था......फिर उस से किसी ग्राहक की शेव, किसी की बगलों के बाल, किसी के नाखून और किसी की जामत को फाईनल टच उसी उस्तरे से ही दिया जाता था।

कोई चूं चां नहीं किया करता था......बस, उस समय थोड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि कोई जब जामत करवा रहा होता और एक दूसरा बंदा आकर अपना कुर्ता ऊपर उठा कर उसे बगलें साफ़ करने को कह देता.......नाई बड़ा सहनशील हुआ करता था, वह किसी को नाराज़ न करता।

मेरी जामत के दौरान मेरे पिता जी उस दुकान के बाहर अपने एक डेरी वाले दोस्त से गप्पबाजी किया करते...

जामत करवाने के बाद जब मैं थोड़ा थोड़ा सा परेशान उस कुर्सी से नीचे उतरता से मेरे पिता जी मुझे साथ वाली हलवाई की दुकान पर बरफी दिलवाने ले जाते।

उस दुकान की क्या तारीफ़ करूं.......मैंने इतनी बढ़िया बरफी कभी नहीं खाई..मुझे मेरे पिता जी मुझे पचास पैसे की या एक रूपये की बरफी दिला देते......मैं उस की खुशबू पर ही मुग्ध हो जाता ..और जामत के समय हुए अत्याचार को भूलते देर न लगती.....इतनी नरम और ताज़ी बरफी ...कि उस कागज़ के लिफ़ाफे में वे टुकड़ियां आपस में जुड़ जाया करती थीं....क्या कहूं कि इतना मज़ा तो आज तक किसी मिठाई में नहीं आया........

जैसे थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि वह बुज़ुर्ग मिठाईवाला सुबह से लेकर शाम तक उस कोयले वाली बड़ी सी अंगीठी में दूध को हिलाता रहता था और शाम को जो दो-तीन ट्रे बरफी की तैयार होती थी, वह हाथों हाथ बिक जाया करती थी।  ओ माई गॉड---- इतना सबर।

पहले तो नहीं कहते थे कि बरफी खरीदने के दो दिन के अंदर ही खा लें.....नहीं तो खराब हो जायेगी। अब पता ही नहीं चलता कि ये लोग क्या क्या मिला कर देते हैं.....दूध का कुछ भरोसा नहीं........अब बरफी खाते तो हैं, लेकिन कईं कईं महीने बीत जाने के बाद दो-चार टुकड़े.......और यह जानते हुए कि ये सेहत खराब ही करेंगे.....फिर भी दिल तो बच्चा है जी.......।।

मेरा बेटा मुझे कईं बार कहता है कि बाज़ार जाते वक्त बरफी ले कर आना........लेकिन मैं जानबूझ कर उस की फरमाईश पूरी नहीं करता......और कुछ ले आता हूं लेकिन अकसर बरफी नहीं लाता।

अच्छा, अगर आप के बचपन की भी कुछ यादें हैं इस तरह की ईमानदारी की बीमारी से ग्रस्त हलवाईयों से जुड़ी हैं, तो आप साझा क्यों नहीं करते.......लिखिएगा। अच्छा लगेगा।



बस क्या सेहत विभाग ही संभाल लेगा हमारी सेहत..

सेहत विभाग की टीमों का ध्यान करें तो मुझे अपनी २०-२५ वर्ष की उम्र वाले दिन याद आ जाते हैं.....तब, जून की गर्मी में गन्ने का रस पीने की इच्छा हुआ करती थी तो पता चलता था कि सेहत विभाग की टीमें छापे मार रही हैं, इसलिए गन्ने का रस बेचने वाले कुछ दिनों के लिए छुप कर बैठ गये हैं।

और उस के बाद इतने साल हो गये, त्यौहारों के सीजन में ....दीवाली, दशहरा, बैसाखी....हर दिन इस देश में एक उत्सव है... अखबारों में निकलने लगता है कि सिविल सर्जन की टीम ने फलां मिठाई की दुकान में छापा मारा, इतने बोरे खोए (मावा) के, इतने क्विंटल रसगुल्ले, बर्फी.... वहां से उठवा कर नष्ट करवा दी ....कईं बार वहां से सैंपल उठाने की बात भी हुई.....बस, उस के बाद फिर कभी खबर दिख गई तो ठीक, न दिखी तो ठीक कि उन मिलावटी सामान बेचने वाले दुकानदारों का आखिर हुआ तो हुआ क्या...

सभी सरकारें इतने इतने अभियान भी चलाती हैं ..अखबारों में, टीवी-रेडियो में भी......लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या इस से हम लोगों की खाने पीने की आदतें सुधर गईं, हम ने कभी दूध एवं दूध से बनने वाले खाद्य पदार्थों को लेने से पहले कभी सोचा भी कि यार, इतना सारा दूध आखिर आ कहां से जाता है, हर तरफ़ पनीर की भरमार, हर तरफ़ मावे की हर तरह की मिठाईयां....

चलिए, बात आगे बढ़ाते हैं......मुझे लगता है कि सरकार जितना कर रही है, कर ही रही है, सिविल सर्जन के दस्ते भी कर ही रहे हैं.......लेकिन फिर भी मेरा यह मानना है कि बाहर से कुछ भी खरीद कर खाने के प्रति हमारी अपनी जिम्मेदारी कहीं ज़्यादा है......और इस में जहां तक मैं समझ पाया हूं शिक्षा और आर्थिक अवस्था की बहुत बड़ी भूमिका है।

आखिर हम कैसे सोच भी लें कि सरकारी दस्ते हर जगह हर खाने पीने के खोमचे तक पहुंच जाएंगे .....इस देश में यह एकदम असंभव सा प्रतीत होता है। हर गली, हर नुक्कड़, हर मोहल्ले, हर तिराहे-चौराहे पर दर्जनों खोमचे वाले मिल जाएंगे जो हमें कुछ भी खिला-पिला दें......

दस रूपये में बिक रहा जंबो बन-मक्खन..
दो दिन पहले मैं अपने घर के पास एक सब्जी मंडी में गया....वहां मैं अकसर देखता हूं कि ये समोसे-वोसे वाले तो रेहड़ीयों पर अपना सामान बेच रहे होते हैं.....अच्छा एक बात का ध्यान आया कि ये चीनी की चासनी में भीगे समोसे तो मैंने यहां लखनऊ में ही देखे हैं......कोई बात नहीं, हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं......।

हां, तो आज मैंने देखा कि एक रेहड़ी वाला इस तरह के बन-मक्खन बेच रहा था... दस रूपये का एक पीस दे रहा था.....जो बच्चे अपने मां-बाप के साथ आए हुए थे, वे मचल रहे थे, और इन बन-मक्खनों की खूब बिक्री हो रही थी। ठीक है, उस ने कांच से कवर तो किया हुआ था......लेिकन जिस तरह का रंग आप देख रहे हैं, और जिस तरह का मक्खन मैंने वहां देखा.....जिसे वह एक्स्ट्रा भी लगा कर देख रहा था.....देख कर सिर घूम रहा था। कुछ माताएं अपने दोनों बच्चों को दिखा कर सब से बड़े बन-मक्खन के लिए आग्रह करतीं तो उन्हें वह नाराज़ नहीं करता.......हां, हा, पता है मुझे, कह कर औरों से बड़ा बन थमा देता।

आप देख सकते हैं कि कैसे दस रूपये में इतना बड़ा बन और मक्खन बेचा जा सकता है........कम से कम यह मक्खन तो हो नहीं सकता। दुःख होता है ये सब कुछ बिकता देख कर।

बन-मक्खन का क्लोज़-अप..
पता ही नहीं कि इन तरह के मिलावटी खाद्य पदार्थों में किस किस चीज़ की मिलावट हो रही है, कौन बताएगा। बेचने वाला अपनी जगह ठीक है, वह तो कमीशन पर काम कर रहा है, उसे एक पीस में एक रूपया मिलता है... क्या करे, उसने भी बच्चों का पेट भरना है, अच्छा खरीदने वाले क्या करें, उन्हें भी कम पैसे में यह सब कुछ चाहिए.....इसीलिए मैं बहुत बार कहता हूं कि इस देश का सारी समस्याओं का समाधान इतना आसान भी नहीं है, बेहद जटिल हैं.... अब इसी बात को लें कि अगर लोग समझ जाएं कि कुछ भी हो, हम ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं खरीदेंगे ...तो ये अपने आप ही बिकने बंद हो जाएंगे...अपने पास ही ये खोमचे वाले फल-फ्रूट, चना-कुरमुरा आदि बेचने लगेंगे। ....शायद मैं बहुत सोचता हूं इसलिए ऐसा सोच रहा हूं।

यह पेठे की मिठाई भी आजकल खूब बिकती है..
अभी थोड़ी दूर ही गया तो यह पेठे वाला मिल गया........आप देखिए कि किस तरह से खुले में यह सब बिक रहा है......वैसे तो मैं अकसर इस तरह से बिकते हुए पेठे पर खूब मक्खियां भिनभिनाते देखता हूं लेकिन आज कुछ कम ही दिखीं......लेकिन फिर भी इस तरह के पेठे में क्या है, कहां पे यह तैयार हुआ, इस की हैंडलिंग कैसे हुई......जब जनता यह सब सोचने लगेगी तो नहीं खरीदेगी यह सब।

एक बात अकसर सत्संग आदि में सुनाई जाती है कि सारे संसार पर कालीन या चटाई तो बिछाई नहीं जा सकती, इसलिए समझदारी इसी में है कि हम कांटों से बचने के लिए अपने एक जूता ही पहन लें...... काश, ऐसा हो जाए।


कंटीला परवल... सब्जी है यह भी एक...
लेकिन यार, जैसे राशन की दुकान  या सब्जी मंडी में जा कर मुझे किसी न किसी दाल का नाम जानने को तो मिलता है,  और नईं नईं सब्जियां भी देखने को मिलती हैं ...जिन्हें मैंने अभी तक चखा भी नहीं.... शायद इसलिए कि ये सब पंजाब-हरियाणा में बिकती देखी नहीं....या मुझे कभी इन की तरफ़ देखने की फुर्सत ही न थी.....पता नहीं......दो दिन पहले पता चला कि यह जो सुंदर सी तरकारी (सब्जी) आप इस तस्वीर में देख रहे हैं......यह है कंटीला परवल.....क्या आपने इसे कभी खाया है। दरअसल जो सब्जियां हम लोगों ने बचपन में नहीं खाई होतीं, वे हम लोग अकसर बड़े होकर भी नहीं खा पाते....जैसे कि मैं करेले से दूर भागता हूं........इसलिए मैं बच्चों के अभिभावकों को कहता रहता हूं कि इन्हें हर सब्जी, हर दाल खाने की आदते डालिए.......वरना बड़े होकर भी ये जंक-फूड़ को ही सुपर-फूड समझते रहेंगे। 

शनिवार, 13 सितंबर 2014

उस दिन पेड़ वाले बाबा से मुलाकात हो गई...


दो चार दिन पहले की ही तो बात है....लखनऊ जंक्शन के पास ही एक बड़ा व्यस्त एरिया है...नाका हिंडोला... मैं उस के आस पास ही एक एफ.एम रेडियो को तलाश रहा था। अचानक मेरी नज़र एक संत जैसे दिखने वाले इंसान पर पड़ी ..जो कि एक हरे रंग के साईकिल पर जा रहा था...जिस पर पेड़ की फोटो भी बनी हुई थी..मुझे ऐसे लगा कि जैसे कोई दरवेश उस रास्ते से गुज़र रहा हो। अच्छा और भी लगा जब उस के साईकिल के कैरियर पर टिके हुए पीपे पर लिखा हुआ था..पेड़ वाला बाबा।



इच्छा हुई कि शायद यह रूक जाएं तो इन से चंद बातें ही कर ली जाएं। लेकिन वह बाबा तो अपनी मस्ती में मस्त ही चला जा रहा था.....मैं भी उसी जगह खड़ा उसे देखता रहा ... मैंने सोचा कि बाज़ार में काफी भीड़ है, शायद यह दरवेश आगे चल कर कहीं रूक जाए, इसी उम्मीद के साथ मैं उन के रूकने की इंतज़ार कर ही रहा था कि मुझे लगा कि वह हरे रंग का साईकिल कुछ दूर जा के रूक गया है।



मैं तेज़ी से चल कर झट उन के पास पहुंच गया। वे एक डिब्बे में पानी भर के गमले में लगे कुछ पौधों को पानी देने की तैयारी कर रहे थे। मुझे यह मंजर देख कर मज़ा आ गया। मैंने उन के पास जा कर कहा कि मुझे आप का काम देख कर बहुत अच्छा लगा....इसलिए मैं दूर से आप का पीछा करते करते यहां तक पहुंच गया। वे बहुत खुश हुए।


अच्छा पहले तो इन का इंट्रो करवा दूं.....जैसे कि इन के साईकिल पर ही लिखा गया है ...ये हैं श्रीमान मनीष तिवारी जी जिन्हें लोग पेड़ बाबा के नाम से जानते हैं....फिर मैं उन के साथ पांच दस मिनट तक बतियाता रहा, वह हंसी हंसी मेरी बच्चों जैसी सभी जिज्ञासाएं शांत किए जा रहे थे।

चलिए, आप से भी यह शेयर करता हूं....वे पिछले बीस वर्षों से यह सेवा कर रहे हैं। उन्हें इस काम को करने में परम आनंद की अनुभूति होती है। जगह जगह पेड़ लगाना और फिर उन की देखभाल करना यह उन्हें भाता है। अपने लगाए हुए पौधों को रोज़ाना पानी देने पहुंच जाते हैं।

रोज़ाना पानी देने की बात से मेरे को ध्यान आया.. नाका हिंडोला एरिया से चंद कदमों की दूरी पर कुछ हाटेल हैं जिन के बाहर मैंने अकसर बीसियों ज़रूरतमंदों (भूखो)  को किसी दानवीर की प्रतीक्षा करते देखा है। उन की आंखें हर राहगीर में एक दानवीर को टटोलती नज़र आती हैं। जैसे ही वह पेड़ बाबा पेड़ों को पानी दे रहा था तो मुझे यही अहसास हुआ कि जैसे सारा दिन इस संसार को तपिश को सहने वाले पेड़ भी इस दरवेश की इंतज़ार ही कर रहे थे कि वह आकर उन की भी प्यास बुझाएगा। फिर ध्यान आया कि मैंने अपने फ्लैट की बालकनी में लगे पौधों को कब पानी दिया था, पानी देना तो दूर मैंने उन्हें पिछली बार देखा था, मुझे तो यह भी याद नहीं....और बातें मैं कितनी बड़ी बड़ी करता हूं कि मैं वनस्पति प्रेमी हूं.....यह हूं, वह हूं।

बहरहाल, अब कुछ समय के लिए अपनी बातें हांकना बंद  करता हूं...उस दरवेश की बातें करते हैं...... सच में वह पेड़ बाबा ही थे, जिस तरह के आस पास से गुज़रने वाले लोग उन के पांव छू कर उन का आशीर्वाद लेकर आगे चल रहे थे, यही लग रहा था कि किसी भी नेक काम में हाथ डालने की देरी होती है, अपने अाप कारवां बनता जाता है।

मनीष तिवारी ने बताया कि यह जो आप जगह देख रहे हैं, क्या आप पहले इस तरफ़ से कभी गुज़रे हैं... मैंने कहा...हां, यहां तो बहुत गंदगी और बदबू हुआ करती थी। कहने लगे कि यहां कूड़े-कर्कट के ढेर और लोगों ने मूत्रालय बना रखा था, वे नहीं देखते थे कि माताएं-बहनें भी उसी राह से गुज़र रही हैं।

कुछ महीने पहले इन्होंने इस एरिया की स्वयं सफाई की.....जो कुछ भी नीचे बह रहे गंदे नाले में डालने लायक था, इन्होंने फावड़े की मदद से नीचे गिरा दिया... फिर गमलों में पौधे लगाए...एरिया एक दम साफ़-सुथरा दिखने लगा है.... और बेकार पड़ी पाइपों पर सुंदर सुंदर कथन भी लिखवा दिए .. जैसा कि आप इन चित्रों में देख सकते हैं।

ऐसे लोग जब निष्काम भाव से अपना काम करते हैं तो आस पास के लोग अपने आप जुडऩे लगते हैं.....मैंने देखा कि उन्हें देखते ही आस पास के युवक उन के लिए डिब्बे में पानी भर भर कर लाने लगे ....पौधों की प्यास बुझाने के लिए।

बात कर रहे थे .. उन्हें सुनना अच्छा लगता था....कहने लगे कि गंदगी के साथ साथ यह जगह जगह पेशाब करने की आदत भी बुरी है... जहां कुछ नहीं लिखा रहता और किसी पेशाब करने वाले को टोक दो तो वह तपाक से कह देता है कि कहां लिखा है यहां पेशाब करना मना है ....और जहां लिखा रहता है और अगर वहां किसी को टोक दो तो वह कह देता है .. कि यह तो सब ऐसे ही लिख देते हैं।

मुझे उन की बातें सुन कर यही लग रहा था कि यार, संत केवल क्या बड़े बड़े मठों में ही होते हैं...या फिर यह  भी चलते फिरते संत ही हैं.....जिन के मन में मानवता के लिए इतना प्रेम भरा हुआ है। किसी चीज़ की कोई इच्छा नहीं, अपेक्षा नहीं, बस अपनी धुन में निरंतर लगे रहने की तमन्ना, जोश, मिशन.......। संसार का आज बीते हुए कल से बेहतर बनाने का जज्बा।

मैंने उन का फोन नंबर लिया... अपना उन्हें दिया.....और जब बताया कि मैं भी पास के एक अस्पताल में चिकित्सक हूं तो बहुत खुश हुए... कहने लगे कि आप की संवेदनशीलता देख कर बहुत अच्छा लगा और वह तब और भी खुश हुए जब मैंने उन्हें बताया कि आज ही दोपहर में मेरी श्रीमति जी ने माली को बुला कर बालकनी में रखे गमले में बढ़ रहे पेड़ों को अपनी बिल्डिंग के नीचे छोटे से पार्क में शिफ्ट करवा दिया।  बहुत खुश हुए कि यह हुई न बात....  ज़मीन के पेड़ को ज़मीन की गोद तक पहुंचा दिया, बहुत अच्छा किया।

फिर उन्होंने बोनसाई के ऊपर अपने विचार रखे....कहने लगे कि यह भी कोई बात हुई कि आज का मानव पेड़ों की नसबंदी कर के, उसे काट काट के इतना छोटा करने की धुन में उन्हें बोनसाई बना कर अपने ड्राईंग रूम में सजाने के चक्कर में पड़ा हुआ है। जो मज़ा, आनंद खुले में हरे भरे पेड़ों को देखने में, उन्हें निहारने में, उन के नीचे खड़े हो कर उन्हें बनाने वाले चित्रकार, शिल्पकार के बारे में सोचने में है, वह घर के अंदर कमरों में मुरझाए हुए पत्तों वाले पेड़ों को देखने से कहां मिल सकता है।

इ्च्छा हो रही थी कि इन से बातें करता जाऊं......लेिकन दुकानें बंद होने का समय हो रहा था, इस लिए इन से इजाजत लेकर मैं वापिस मार्कीट की तरफ़ चल पड़ा।

हां, एक बात तो शेयर करना भूल ही गया.. मेरे यह पूछने पर कि क्या आप की कोई संस्था है तो उन्होंने बताया...नहीं, नहीं, मैं तो बस अकेला ही इस काम में लगा हूं...क्योंकि मुझे अपार खुशी मिलती है। और मैं इस बात को प्रमाणित करता हूं कि जो हज़ारों वॉट की मुस्कान मैंने इन के चेहरे पर देखी वह शायद करोड़पति पूंजीपतियों के यहां कभी नहीं दिखती। मैंने झिझकते हुए कहा कि आप जीविकोपार्जन के लिए क्या करते हैं......बताने लगे कि कुछ नहीं, घर से अनाज, दालें... सब कुछ आ ही जाता है, बाकी वही काफ़ी होता है, बाकी समय इन्हीं पेड़ों को समर्पित है।

शहर की कईं जगहों पर इन्होंने पेड़ लगाए हैं....और कुछ एरिया के नाम तो ले रहे थे लेकिन लखनऊ की जगहों से मैं इतना अच्छा से वाकिफ़ नहीं हूं, इसलिए कुछ याद नहीं रहा।

इस पेड़ बाबा को मिलने के अगले दिन लखनऊ के बंगला बाज़ार एरिया में मैं अपने स्कूटर पर जा रहा था तो मुझे एक मोटरसाईकिल पर कुछ लिखा नज़र आया......अनाथ बच्चों और पेड़ पौधों को लगाने में समर्पित .....एक आदमी मोटरसाईकिल पर जा रहा था......मैंने फोटो तो खींच ली......उस पर उस ने मोबाईल भी लिखा हुआ था... आगे चल कर वह एक फ्रूट की रेहड़ी पर रूक भी गया......लेकिन मैंने उस से बात करने की हिम्मत न की........ शायद ज़रूरत ही न समझी....क्योंकि मैं एक दरवेश से पहले मिल चुका था जिस के आचरण में मुझे त्याग, प्रेम, करूणा, वात्सल्य की कहीं ज़्यादा खुशबू आई थी। देखिए, मैं इस दूसरे समर्पित इंसान से मिला तक नहीं लेकिन उस के बारे में एक ओपिनियन कैसे पहले ही से बना लिया.........मेरे जैसे लोग पता नहीं कब इन हरकतों से बाज़ आएंगे...शायद कभी नहीं, यह कहीं फितरत ही तो नहीं बन चुकी।

पेड़ बाबा को समर्पित यह गीत....


शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

कुछ दवाईयां भी मसूड़ों को फुला देती हैं...

ऐसी कुछ दवाईयां हैं जो मसूड़ों पर बुरा प्रभाव डालती हैं......मुझे आज इस मरीज़ को देख कर इस बात का ध्यान आ गया कि ब्लड-प्रेशर की कुछ दवाईयां भी ऐसा ही प्रभाव डालती हैं।

दो वर्ष पहले की महिला के मसूड़ों की तस्वीर ... 
यह तस्वीर आप जो यहां देख रहे हैं यह ६०-६५ वर्ष की एक महिला की है जो कि मेरे पास ठीक दो वर्ष पहले आई थीं... मैंने तब अपने इंगलिश ब्लॉग पर इस विषय पर एक लेख भी लिखा था..... Blood pressure pill can lead to big gums. 

आप इस लिंक पर जा कर इस पोस्ट को देख सकते हैं। यह महिला इतनी परेशान थी तब ...मसूड़ों पर हाथ लगते ही खून आने लगता था....बहुत ही ज़्यादा परेशानी थी इन्हें।

जब इन की हिस्ट्री ली तो पता चला कि ये निफैडेपीन नामक दवाई लेती हैं, तब मैंने इन्हें फिज़िशियन के पास भेजा... उन्हंोंने दवाई चेंज कर दी......और फिर इन्होंने मसूड़ों का थोड़ा इलाज करवाया.....फिर उस के बाद मेरा तबादला हो गया और उन्हें देख नहीं पाया।

लेकिन आज एक अन्य महिला जिसे मैंने कुछ महीने पहले इसी तकलीफ़ से ग्रस्त पाया था...वह भी   चेकअप के लिए आईं तो अच्छा लगा ... इन के मसूड़े भी काफ़ी फूले हुए थे, काटने-छांटने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई थी और न ही यह उस समय कुछ ज़्यादा करवाने के लिए राज़ी ही हुईं थीं। उच्च रक्तचाप की दवाई बदल दी गई थी। मसूड़े दस-पंद्रह दिनों में ही ठीक होने लगे थे....सूजन घटने लगी थी, रक्त बहना बंद होने लगा था...।

अब इन्हें कोई तकलीफ़ नहीं है, मसूड़ों से रक्त नहीं आता, ब्लड-प्रेशर के लिए जो नईं दवाई लेती हैं..उस से वह भी नियंत्रण में रहता है, किसी बात पर पति को मेरे सामने झिड़क भी दिया कि तुम अपनी सेहत की बहुत टेंशन करते हो.....

इस महिला के मसूड़े भी कुछ महीने पहले ऊपर जैसी महिला जैसे ही थे.
आप इस तस्वीर में भी देख सकते हैं कि मसूड़े लगभग ठीक ही लग रहे हैं.....पूरे के पूरे ठीक तो नहीं है एक डैंटिस्ट की नज़र से.....लेकिन उस में कुछ इन की पुरानी ब्रुश करने की गलत आदतों का भी परिणाम शामिल है... वैसे मैं तो यहां दवाईयों का मसूड़ों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव को ही रेखांकित करने की कोशिश कर रहा था।

अच्छा, यह क्लास तो खत्म हुई........आप किस सोच में पड़ गये.......कि आप भी यही दवाई लेते हैं...कहीं आप को भी यह तकलीफ़ न हो जाए। ऐसा कुछ नहीं है, वैसे तो मैडीकल फील्‍ड में कुछ भी ज़्यादा निश्चित होता नहीं, लेकिन आप यह मान कर चलें कि अगर आप इस तरह की कोई दवा ले भी रहे हैं अपने डाक्टर की सिफारिश पर.....तो लेते रहिए। ऐसा प्रतिकूल प्रभाव यह दवाई लेने वाले हर इंसान में नहीं होता। निश्चिंत रहें, खुश करें, इसलिए मैं अकसर कहता हूं नेट पर ज़्यादा सेहत संबंधी विषयों को नहीं खंगालना चाहिए।

हां , एक बात है कि अगर आप कोई भी दवा ले रहे हैं और मसूड़ों की इस तरह का हालत है... तो भी आप का कोई अनुभवी दंत चिकित्सक ही यह कह पाएगा कि यह तकलीफ़ आप को फलां फलां दवाई की वजह से है.. और फिर वह आप को फ़िजिशियन के पास भेजेंगे ....और फिजिशिय़न भी पूरा लाभ और रिस्क का आंकलन करने के बाद ही आप की कोई भी दवा चेंज करते हैं.......इस का मतलब यही है कि कईं बार उस दवाई से मरीज़ को जो लाभ हो रहे हैं उस का पलड़ा ज़्यादा भारी रहता है इस से मसूड़ों पर होने वाली प्रभाव की तुलना में ......ऐसे में दवाई चेंज नहीं की जाती, यह सब निर्णय केवल फ़िज़िशियन ही लेने में सक्षम होते हैं............ऐसी और भी कईं दवाईयां हैं जिन में मसूडों में सूजन आ सकती है, मिर्गी रोग के लिए ली जाने वाली कुछ दवाईयां, किडनी (गुर्दा) प्रत्यारोपण के बाद ली जाने वाली कुछ दवाईयां.......आदि ........लेकिन हर व्यक्ति में ये प्रभाव नहीं पाये जाते...................इसलिए दिल पे मत ने ले यार............लिखने के लिख दिया, ज़्यादा सोचा मत करें.........

यार , आप तो सीरियस हो गए....चलिए उस का भी कुछ जुगाड़ करते हैं.......यह सुनिए.... वीडियो को न भी देखें या उस पर ध्यान न भी करें तो भी लिरिक्स तो ठीक ठाक ही हैं......हम सब के लिए एक हेल्दी संदेश लिए हुए...

दांत की क्विकफिक्स रिपेयर

जी हां, दांत की क्विकफिक्स रिपेयर भी होती है.....लेकिन इस में क्विकफिक्स या फेवीक्विक का कोई कमाल नहीं है, यह कमाल तो है आज की तारीख में उपलब्ध बेहतरीन मैटीरियलज़ (materials) का जो एक तो दांतों के साथ बिल्कुल मैच करते हुए विभिन्न शेड में आते हैं और दूसरा इस तरह के मैटिरियल आने लगे हैं जो दांतों के साथ बिल्कुल एकदम एक ही हो जाते हैं......दांतों के साथ इस तरह से बांडिंग कर लेते हैं कि आप कुछ भी खाएं-पिएं यह बंधन नहीं टूटता।

अच्छा, एक उदाहरण के ज़रिये अपनी बात कहता हूं.........यह तस्वीर एक १८-१९ साल के युवक की है, चार पांच रोज़ मेरे पास आया था.....आप उस के अगले दांत की हालत देख रहे हैं ना.....यह दांत दंत-क्षय की वजह से पूरी तरह से सड़ चुका है लेकिन इसे इस में दर्द कभी भी नहीं हुई.....शायद कुछ कह तो रहा था कि पांच छः वर्ष पहले एक बार थोड़ी दर्द हुई थी।

चाहे उसे दर्द हुई या नहीं, लेकिन दांत की अवस्था देखने पर ही पता चलता है कि उस की आरसीटी..रूट कैनाल ट्रीटमैंट---होना ज़रूरी है और उस के बाद उस पर कैप आदि का लगवाना ज़रूरी लगता है। दांत को उखड़वाने की कोई ज़रूरत नहीं। मैंने उसे समझाया तो कहने लगा कि वह तो उसे पता है, वह तो बाद में वह करवा ही लेगा लेकिन इस समय उसे किसी विशेष इंटरव्यू और एक विशेष कार्यक्रम में जाना है, इसलिए वह इस तरह के दांत के साथ जा नहीं सकता, इसलिए इस भद्दे से दांत का कुछ कर दें।

मैं हमेशा हर मरीज़ को पूरा और सही इलाज करवाने के लिए ही प्रेरित करता हूं लेकिन इस लड़के की आवाज़ में इतनी बेबसी सी लगी कि मैंने सोचा चलो इस का कुछ जुगाड़ करते हैं।

आधुनिक डैंटिस्ट्री.... इस दांत को ठीक करने में मेरा कोई विशेष योगदान नहीं है......आज कल डैंटल मैटिरियल ही इतने इतने अच्छे उपलब्ध होने लगे हैं.....हमारे अस्पताल में हम बढ़िया विदेशी किस्म के ही मैटिरियल इस्तेमाल करते हैं.....अब मुझे पता नहीं कि हिंदोस्तान में इस तरह के मैटिरियल क्यों नहीं तैयार हो सकते.....बस, जो भी है, मुझे विदेशी और अच्छी कंपनियों के मैटिरियल पर ही भरोसा है क्योंकि बरसों बरसों तक इन मैटिरियल ने लोगों के मुंह में रहना होता है, हर तरह के तापमान और हर तरह के ऐसिडिक, तीखी, नमकीन ...कुछ भी चीज़ को सहना होता है ...इसलिए मैं हमेशा ही से पिछले ३० वर्षों से सब से बढ़िया मैटिरियल ही इस्तेमाल करता हूं..

प्रमाण इस का तब मिलता है जब मुझे मेरे नेटिव प्लेस में कोई कहता है कि डा साहब, यह फिलिंग जो आपने की थी, पच्चीस साल पहले वह तो वैसी की वैसी है, या जब मैं अपने बड़े भाई के दांतों पर २५ वर्ष पहले की हुई फिलिंग देखता हूं तो अच्छा लगता है...अभी दो दिन पहले जब मुझे एक सहपाठिन ने व्हाटस-एप पर बताया कि उस के पति मुझे १६-१७ वर्ष तक याद करते रहे ...जब तक उन के मुंह में मेरे द्वारा की हुई फिलिंग टिकी रही......यह एक मुश्किल तरह की फिलिंग थी, जो अगर ध्यान से ....या मन लगा के न करो तो कुछ ही महीनों में या तो गिर जाती है या फिर आसपास के मसूड़े में सूजन पैदा कर देती है। लेकिन मैं यहां यह क्यों लिख रहा हूं.......अपनी तारीफ़ करने से बाज़ नहीं आता मैं भी...  Self praise has no recommendation! ... अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाली बात ही तो है यह भी।

एक बात और भी है ना कि आखिर क्यों न करें अपना काम मन लगा के, अच्छे से काम करना चाहिए ...अपना पूरी क्षमता लगा कर। किसी को भी देखें हर वह आदमी जो अपने धंधे को ईमानदारी से करता है, उस के काम में ईश्वर कृपा से निखार आने लगता है।

हां तो बात उस ऊपर वाले युवक की हो रही थी......सरकारी अस्पताल में काम करते हुए मेरे लिए कोई मुश्किल काम नहीं था उसे कहना कि नहीं, नहीं, काम तो तुम्हें पूरा ढंग से ही करवाना होगा।

जुगाड़बाजी........लेकिन फिर जब मैंने उस की जगह पर अपने को खड़ा कर के देखा तो मुझे लगा कि इस का जुगाड़ तो कर ही देना चाहिए....ये कुछ दिन के लिए बाहर तो जा ही रहा है, और अगर कुछ करवाए बिना भी गया तो वहां से लौटने के बाद इस के दांत का यह हिस्सा भी नहीं बचेगा......अवश्य टूट जायेगा। वैसे तो यह देश ही सारा जुगाड़बाजी पर चल रहा है ....।

जुगाड़ ठीक ठाक ही तो लग रहा है... 
यही सोच कर मैंने उस के दांत का इस तरह का जुगाड़ कर दिया  ...आईने में देख कर उस की तो बांछें खिल गईं.....मुझे भी खुशी हुई..लेकिन मैंने उसे समझा दिया कि यह केवल जुगाड़ है, तुम्हें लौट कर पूरा इलाज करवाना होगा.....वह समझ गया।

बहरहाल, यह जुगाड़ कितना समय चलेगा, चलेगा तो खूब लेकिन पूरी आरसीटी तो करवानी ही होगी.. वरना कभी भी दर्द तो हो ही सकता है। यह तो केवल उस युवक की फरमाईश पर कर दिया था। अब आप सोच रहे होंगे कि मैंने तो रिपेयर का अच्छा जुगाड़ कर दिया और अगर यह वापिस ही न आया तो........ नहीं आए तो नहीं आए, सरकारी अस्पताल है, लेकिन ऐसा नहीं, मैं चाहता हूं कि वापिस आए और उस का काम मैं ढंग से पूरा करूं.......इसीलिए शायद आप नोटिस करेंगे कि मैंने इस जुगाड़ को भी इतना परफैक्ट भी नहीं बनाया कि वह सही इलाज करवाने के लिए लौटे ही ना........आप इस जुगाड़ को साथ वाले स्वस्थ दांत से कम्पेयर कर के देखेंगे कि इस की बनावट में बिल्कुल थोड़ी सी कमी इसीलिए रख छोड़ी है।

मैटिरियल कौन से इस्तेमाल किए हैं..........एक तो लाइट-क्यूर कंपोज़िट और दूसरा ग्लॉस-ऑयोनोमर सीमेंट.....मुश्किल नाम हैं ना, मुझे भी पच्चीस साल पहले बहुत मुश्किल जान पड़ते थे, लेकिन इस से आप को क्या, बस मैंने तो ऐसे ही अपने ट्रेड-सीक्रेट आप के सामने खोल दिए.....

क्या आपने अपने दांतों को समय रहते रिपेयर करवा लिया है, अगर नहीं, तो अपने दंत चिकित्सक से शीघ्र ही संपर्क करिएगा।

दांतों और मैटिरियल का इतना बढ़िया जोड़--बंधन देख कर यह गीत याद आ गया....

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

ह्यूमन वेस्ट टपकाने वाला पुल...

आप को याद होगा मैंने लखनऊ के एक रेलवे पुल के बारे में लिखा था ....अगर आपने उस पोस्ट को देखा होगा....रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त क्या आपने कभी यह सोचा?

कल शाम को फिर वही नज़ारा......मुझे इसी पुल के नीचे से गुज़रना था.....लेकिन अचानक लोगों को काफ़ी संख्या में खड़े होते देख कर एक बार तो अचानक लगा कि ज़रूर कोई न कोई ट्रैफिक पुलिस का अभियान चल रहा होगा, ट्रैफिक वाले दो-तीन दिन से बड़े मुस्तैद से दिख रहे थे। 


लेकिन फिर अचानक उस स्कूल के लौंडे की बात याद आ गई जो मैंने पिछली पोस्ट में आपसे शेयर की थी कि चलती गाड़ी से पुल के नीचे चल रहे लोगों पर ह्यूमन वेस्ट (शौच, मल, थूक और गुटखा-पानमसाला की पीक).. गिरने का अंदेशा रहता है। 

पिछली बार जैसा कि मैंने बताया था कि रूकने वाले सभी स्कूटर-मोटरसाईकिल चलाने वाले ही होते हैं... मैं भी स्कूटर पर था..

जैसा कि आप इस कल की तस्वीर में देख सकते हैं कि गाड़ी पुल के ऊपर से गुज़र रही थी ...एक बार तो मुझे लगा कि कुछ नहीं होता, ऐसे ही बेकार में रूके रहो, आगे बढ़ने की इच्छा हुई तो......लेकिन तुरंत अकल ने कमीज़ पहन कर यह समझाया कि तू यह सोच, अगर उस स्कूली लौंडे की बात का तुझे आज ही प्रमाण मिल गया तो क्या करेगा, तू जा पायेगा बाज़ार जहां भी तू जा रहा है...... बाज़ार तो क्या, मल, शौच कमीज़ पर ढो कर बच्चे तेरा घर तक भी पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। 

इसलिए बाकी लोगों की तरह मैंने भी स्कूटर को रोकने में ही समझदारी समझी और अपने मोबाईल के कैमरे से यह तस्वीर खींच ली जिस में गाड़ी पुल के ऊपर से गुज़र रही है और नीचे लोग अपने कपड़े बचाने के लिए खड़े हैं......गाड़ी के गुज़र जाने की प्रतीक्षा में। 

आज अभी हिंदुस्तान अखबार देखी है तो पता चला कि लखनऊ में दो ओव्हर-ब्रिज बनने वाले हैं.........ध्यान यही आया कि वह तो ठीक है, लेकिन क्या इस तरह के पुल का कुछ हो सकता है......सोचने वाली बात यह है कि यह नीचे सड़क पर चलने वालों की कितनी सिरदर्दी है। हर बार रूको....जब भी गाड़ी गुज़र रही हो, वरना मैला, शोच और थूक पीप से अपना दिन खराब करने का रिस्क मोल लो। 

हां, यार, एक बात और........लखनऊ में यही पुल एक ऐसा पुल नहीं है.......वैसे तो मैं लखनऊ को ज्‍यादा जानता नहीं हूं, लेकिन इस तरह के पुल मैंने लखनऊ के आलमबाग एरिया में भी देखे.....शायद मवैया एरिया के आसपास।

इस से पहले मेरा कभी इस और ध्यान ही नहीं गया है..........कभी आप भी लखनऊ आईए तो इन से सावधान रहिएगा, फिर न कहिएगा कि किसी ने सचेत नहीं किया था........वैसे तो यह झंझट केवल दो पहिया वाहनों पर और पैदल चलने वाले के लिए ही है। 

पता नहीं इस समय सड़क की बातें करते करते यह आशा फिल्म का यह गीत कहां से ध्यान में आ गया.....शायद १९८० में देखी थी यह फिल्म......गीत भी बड़ा पापुलर हुआ था....लीजिए सुनिए ......यह भी सड़क की ही बात कर रहा है...... लेकिन बातें यह सारी की सारी सही कह रहा है.....ये हंसते हैं लेकिन दिल में....यह गाते हैं लेकिन महफिल मे...........हम जीते हैं ये पलते हैं........


मां तुझे सलाम....

मेरी मां पिछले तीन चार दिनों से अपनी बुक-शेल्फ को ठीक करने में व्यस्त दिख रही थीं।

उन्होंने कल सभी किताबों की एक सूची तैयार की होगी।

अभी अभी बताने लगीं कि वह दो लिस्टें बनाना चाहती थीं और इसलिए दो कागज़ के पन्नों के बीच एक कार्बन भी रखा था लेकिन नीचे वाले पन्ने पर कुछ भी लिखा नहीं आया।

जैसा कि मेरे जैसे लोग ओव्हर-कॉन्फिडैंट और ओव्हर क्लेवर भी समझते हैं अपने आप को.......मुझे यही लगा कि उन्होंने दो पन्नों के बीच कार्बन को गलत तरीके से रख दिया होगा, और मैंने उन से भी यही कहा।

वैसे यह गलती मैं भी कईं बार करता हूं और लिखने से पहले पेन को ऐसे ही घिसा कर चेक भी कर लिया करता हूं कि नीचे वाले कागज़ पर भी छप रहा है कि नहीं। बॉय-चांस उन के हाथ में वे दो पन्ने और कागज़ थे, मैंने उन से लिए और अपने नाखून से ऊपर वाले पन्ने पर कुछ लिखना चाहा......नीचे वाले पन्ने पर नहीं आया तो मुझे लगा कि हां, यह कार्बन ही उल्टा पड़ा था।

मैंने फुर्ती से कार्बन पल्टा, नाखून से ऊपरी पन्ने पर कुरेदना चाहा तो भी नीचे वाले पन्ने पर कुछ नहीं आया।
इतने में मेरी मां कहती हैं कि कार्बन तो जैसे मैंने रखा था वैसे ही रखेंगे तो ही ठीक आएगा.........मैं भी यही समझा। लेकिन मां ने आगे बताया कि हां, मुझे लगता है कि लिखना ज़ोर से जाना चाहिए था। मैं भी उन की बात से सहमत हो गया... लेकिन मुझे एक बात और भी लगी कि जिस कागज़ के पन्ने पर वे लिस्ट तैयार कर रही थीं वह कुछ था भी मोटे किस्म का, इसलिए भी नीचे वाले कागज पर प्रिंट नहीं आया होगा।

बहरहाल, यह अभी अभी का किस्सा सिर्फ़ हम सब को याद दिलाने के लिए कि सारी माताएं कितनी सीधी होती हैं, बिल्कुल बच्चों जैसे होती हैं।

मेरी मां के बारे में चंद बातें....... मैं पचास की उम्र पार कर गया हूं लेकिन आज तक उन्होंने कभी भी मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया, यार, हाथ उठाना तो दूर कभी मुझे झिड़का तक नहीं... शायद यही कारण है कि मैं भी अपने बच्चों के साथ कुछ वैसा ही हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता हूं कि मैंने अपने बच्चों पर हाथ नहीं उठाया-- दो एक बार तो मैंने कभी उन की चंपी की ही थी.......लेकिन वे शायद भूल चुके हैं या भूलने का नाटक करते हैं जब कहते हैं कि पापा ने हमें कभी नहीं मारा।

वैसे मेरे पिता जी ने मुझे एक बार थप्पड़ मारा था.....बस केवल एक बार, मैं बार बार उन के सिगरेट के पैकेट को कुर्सी से नीचे गिरा रहा था ...मुझे अच्छे से याद है, पांच-छः वर्ष का रहा होऊंगा।

अच्छा, मां की एक और तारीफ़........मुझे नहीं याद कि स्कूल, कॉलेज और बेरोज़गारी के चंद महीनों के दौरान मैंने अपनी मां से कुछ रूपयों की फरमाईश की हो और उस ने अपनी अलमारी के किसी कोने में पड़े वे पैसे मुझे खुशी खुशी न दिए हों। मेरे पिता जी ने भी मेरी किसी भी फरमाईश को नहीं टाला, कभी भी नहीं। कभी यह भी याद नहीं कि मैं मां के साथ बाज़ार गया होऊं और किसी भी चीज़ के मेरा मन मचल गया हो और मां ने वह तुरंत न दिलाई हो......चाहे वह गन्ने का रस, आईसक्रीम या कोई खिलौना, कुछ भी।

एक बात और, कभी भी कुछ भी कहा वह बात हमेशा मान ली......कभी भी कोई किंतु-परंतु नहीं। अगर कहीं जाने के लिए कह दो, तो ठीक.......कहीं न जाने का बहाना मैं बना दूं तो भी वे बिल्कुल राज़ी। हर बात में हां में हां मिलाने वाली मां...........शायद इस देश की सारी माताएं मेरी मां जैसी ही होती होंगी।

और एक बार, कभी नहीं याद कि कुछ खाने की इच्छा ज़ाहिर की हो, और इस मां ने रात में उठ कर भी वह न बनाया हो। स्कूल जाने से पहले दही-परांठे का नाश्ता उन अंगीठी के दिनों में भी, स्कूल के लिए लंच में परांठे और सब्जी, चार-पांच बजे घर आ कर गर्मागर्म खाना.. ये सब काम हर दिन करना उन की दिनचर्या में शामिल रहा और सब से बड़ी बात हंस हंस कर........अब क्या क्या लिखूं यार।

हर एक की बात में आ जाना........उस दिन मेरा छोटा बेटा अपनी दादी से बात कर रहा था......बीजी, हुन केले दर्जन विच दस ही मिलदे ने। और मुझे यह जान कर इतनी हैरानी हुई कि वे इस बात से हैरान तो हुई लेकिन उन्होंने उस की बात मान ली.........बाद में उसने बता दिया कि वह मजाक कर रहा था। मुझे खोसला का घोंसला फिल्म का वह संवाद बहुत अच्छा लगता है कि बच्चों की बातों में आने की कोई उम्र नहीं होती।

यार, ऐसे तो लिखता ही जाऊंगा....... फिर कभी...........लेकिन एक बात का विचार आ रहा है कि हम अपने मां-बाप से जिस तरह का बर्ताव पाते हैं.......वही शायद हम फिर अपनी ज़िंदगी में अपने संपर्क में आने वाले लोगों में बांटते चले जाते हैं... क्या मैं ठीक कह रहा हूं?

वैसे मेरी मां अपना एक ब्लॉग भी लिखती हैं.......आप यहां इसे देख सकते हैं.....क्या कहूं, क्या न कहूं?

पेशे-खिदमत है सभी मांओं की महानता को समर्पित पंजाब का यह सुपर-टुपर गीत..........उस गायकी की बादशाह कुलदीप मानक की आवाज़ में.........मां हुंदी ए मां ओ करमा वालेयो..........


शनिवार, 6 सितंबर 2014

काश! टेढ़े मेढ़े दांत सही करवाना सब के बस में होता..

आज सुबह मूड बड़ा खराब हुआ जब एक १२ वर्ष का लड़का अपनी मां के साथ आया..उस के टेढ़े मेढ़े दांत थे ..बाहर की तरफ़ निकले हुए.. वे लोग उसे सीधा करवाने आये थे।


चूंकि मैं वैसे भी इस तरह के इलाज का विशेषज्ञ नहीं हूं और न ही जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वह इस तरह की इलाज उपलब्ध ही करवाता है।

मैंने उसे एक सरकारी डैंटल कालेज में जाने को तो कह दिया.....लेकिन मुझे यह कहते हुए बिल्कुल एक फार्मेलिटी सी ही लगती है। बहुत ही कम बार मैं देखता हूं कि लोग वहां इस काम के लिए जा पाते हैं......और शायद कईं सालों में कोई एक मरीज दिख जाता है जिसे सरकारी डैंटल कालेज में भेजा हो और जिस के बेतरतीब दांतों का इलाज वहां से पूरा हो गया है। ऐसा नहीं है कि वे लोग ये सब करते नहीं हैं, लेकिन जिन मरीज़ों को इस तरह का इलाज चाहिए होता है उन की संख्या ही इतनी बड़ी है कि उन की भी अपनी सीमाएं हैं।

यह बातें सब मैं अपने अनुभव के आधार पर लिख रहा हूं। टेढ़े मेढ़े दांतों वाले बच्चे देख कर मन बेहद दुःखी होता है....इसलिए कि मैं जानता हूं कि इन में से अधिकतर इस का कुछ भी इलाज नहीं करवा पाएंगे। मूड बड़ा खराब होता है। अच्छे भले ज़हीन बच्चे होते हैं लेकिन इन बेतरतीब दांतों की वजह से बस हर जगह पीछे पीछे रहने लगते हैं, बेचारे खुल कर हंसना तो दूर, किसी से बात भी करने में झिझकने लगते हैं।

हां, तो मैं उस १२ वर्ष की उम्र वाले लड़के की बात कर रहा था। मैंने ऐसे ही पूछा कि इन दांतों की वजह से कोई समस्या, तो उस की मां ने कहा कि इसे स्कूल में बच्चे चिढ़ाने लगे हैं।

उस की मां का इतना कहना ही था कि उस बच्चे की आंखों में आंसू भर आए... और एक दम लाल सुर्ख हो गईं। मुझे यह देख कर बहुत ही बुरा लगा कि यार, इस बच्चे को दूसरे बच्चों ने कितना परेशान किया होगा कि मेरे सामने अपनी तकलीफ़ बताने से पहले ही इस के सब्र का बांध टूट गया। मैंने उसे धाधस बंधाया कि यार, देखो, ये जो स्कूल में परेशान करने वाले लड़के होते हैं ना, इन की बातों पर ध्यान नहीं देते, यह तुम्हारी पढ़ाई खराब करने के लिए यह सब करते हैं, यह सुन कर उस ने तुरंत रोना बंद कर दिया।

इस देश में हर तरफ़ व्यापक विषमता है......कोई मां-बाप तो बच्चे के एक एक दांत के ऊपर हज़ारों खर्च कर देते हैं लेकिन अधिकांश लोगों की इतनी पहुंच नहीं होती, पैसा सीमित रहता है, जिस की वजह से इस तरह का बेहद ज़रूरी इलाज चाहते हुए भी वे करवा नहीं पाते।

सरकारी अस्पतालों में कहीं भी...... सरकारी डैंटल कालेजों में भी इस तरह का इलाज........टेढ़े मेढ़े दांतों पर तार लगाने का या ब्रेसेज़ लगाने का काम पूरी तरह से या फिर ढंग से होते मैंने देखा नहीं है......इतनी चक्कर पे चक्कर कि मरीज़ में या उस के मजबूर मां-बाप में एक्स्ट्रा-आर्डिनरी सब्र ही हो तो ही मैंने इस इलाज को पूरा होते देखा है। इस तरह की इलाज ही नहीं, ये दांतों के इंप्लांट, ये फिक्स दांत आदि भी कहां सरकारी अस्पतालों में लग पाते हैं.........

किरण बेदी की एक किताब का यकायक ध्यान आ गया.....कसूरवान कौन?.......मुझे भी नहीं पता कि कसूरवार कौन......मरीज़ों की इतनी बड़ी संख्या.. सरकारी अस्पतालों के दंत विभाग ...यहां तक कि सरकारी डैंटल कालेज भी ...आखिर क्या करें, उन की भी अपनी सीमाएं हैं--- स्टॉफ की, बजट की...समय की..........वे भी कितने मरीज़ों को इस तरह का इलाज मुहैया करवा सकते हैं।

मैंने बहुत बार अब्ज़र्व किया है कि इस तरह के टेढ़े-मेढ़े दांतों से परेशान लड़के-लड़कियां डिप्रेस से दिखते हैं.....बुझे बुझे से......प्राईव्हेट में इस का खर्च १५-२० हज़ार तो बैठ ही जाता है। अब मैंने इन मां-बाप को इस बात के लिए मोटीवेट करना शुरू कर दिया है कि आप लोग बच्चों की कोचिंग, ट्यूशन आदि पर भी हज़ारों रूपये बहा देते हो, इसलिए आप किसी क्वालीफाइड आरथोडोंटिस्ट (जो दंत चिकित्सक टेढ़े मेढ़े दांत को सही करने का विशेषज्ञ होता है).... से मिल कर ही इस का करवा लें, अगर ऐसा करवा पाना आप के सामर्थ्य में है।

तो मैं फिर किस मर्ज की दवा हूं........मैं अपने पास आने वाले हर बच्चे का इलाज इस तरह से करता हूं कि मेरी कोशिश यही रहती है कि वह किसी तरह से इस तरह के महंगे इलाज से बच जाए......पैसे के साथ साथ समय की भी बचत.... और अगर कभी बाद में उसे इस तरह के इलाज की ज़रूरत भी पड़े तो वह साधारण से इलाज से ही ठीक हो जाए। मेरी शुरू से ही यह मानसिकता रही है.......... पूरी कोशिश करता हूं.......जो मेरे कंट्रोल में है पूरा करता हूं......इसे Preventive Orthodontics कहते हैं।

वापिस उसी बच्चे पर आता हूं........मैं उस की मां को यह सब समझा ही रहा था कि उस बच्चे की आंखे फिर से भर आईं....मुझे फिर बुरा लगा..... फिर मुझे कहना ही पड़ा...यार, तुम इन बच्चों की बातों पर ध्यान ही न दिया करो....सब से ज़्यादा ज़रूरी तो पढ़ना ही है.... मै पूछा .. तुम ने कल प्रधानमंत्री मोदी का भाषण सुना.....झट से चुप गया और कहने लगा, हां......मैंने कहा ...अच्छा लगा?.. उसने कहा ... हां....मैंने कहा कि तुम देखो कि अगर एक चाय बेचने वाला इंसान इतनी कठिनाईयों को झेल कर देश के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गया तो तुम क्या नहीं कर सकते, जिन लोगों ने आगे बढ़ना होता है, वे किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते...........मुझे सख्ती से यह भी कहना पड़ा.......कुत्ते तो भौंकते ही रहते हैं, शेर चुपचाप मस्ती से आगे निकल जाता है........यार, मुझे पता नहीं यह कहावत ठीक भी थी कि नहीं, लेकिन अगर उस बालक का मूड उस बात से सही हो गया तो ठीक ही होगी।

मैंने उसे एक सरकारी डैंटल कालेज में भेज तो दिया है........कि एक बार चैक तो करवाओ, फिर देखते हैं कि इस के लिए क्या बेस्ट किया जा सकता है। 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

जब मैंने अपने टीचर का जेब-खर्च शुरू किया...

आज है अध्यापक दिवस, गुरू उत्सव, टीचर दिवस ..कुछ भी कह लें।

मैंने आज देखा कि सोशल मीडिया पर लोगों ने अपने अपने टीचरों के बारे में लिखा।

मैं भी अपने सभी टीचरों के बारे में लिखना चाहता हूं लेकिन यही डर लगता है कि कहीं किसी का नाम छूट न जाए। अगर एक भी नाम छूट गया तो बहुत नाइंसाफी हो जाएगी।

उस्ताद की लिस्ट ही इतनी लंबी होती है..सब से पहले शुरूआत अपनी मां सब से पहली गुरू...पिता जी अपने गुरू....फिर हर ऐसा आदमी या औरत जो अभी तक ज़िंदगी में मिले और जिन से कुछ न कुछ सीखा।

मैं ऐसा मानता हूं कि हर आदमी या औरत जिस से भी मैं मिलता हूं .....इन में से कोई भी ऐसा नहीं है जिससे मैंने कुछ न कुछ सीखा न हो। हर व्यक्ति विलक्षण है... हर व्यक्ति के पास कुछ ऐसे अनुभव हैं जिस से हम लाभान्वित हो सकते हैं।

फिर भी अपने प्राइमरी टीचर -- पांचवी कक्षा के टीचर का नाम लेने की भी बहुत इच्छा हो रही है... लेकिन लिखूंगा नहीं....कारण आप दो मिनट में समझ जाएंगे, वे मुझे १९७३-७४ में पांचवी एवं छठी कक्षा में पढ़ाते थे। अच्छे से अपने विषयों को पढ़ने में रूचि उन की वजह से ही हुई।
This photograph is from the 1973 Magazine of DAV Multipurpose Higher Secondary School, Amritsar.
पांचवी कक्षा में जब मेरी छात्रवृत्ति आई तो बहुत अच्छा लगा. 10रूपये महीना तीन साल के लिए .....यह तस्वीर तब की है......यह सब उन मास्टर साहब की मेहनत का परिणाम था। रविवार के दिन भी वे हमें बुलाते मुझे अच्छे से याद है......सरकंडे की कलम तैयार करते हमारे लिए..... फिर हिंदी में सुंदर लिखने के गुर सिखाते....गणित-बीज गणित सब कुछ अच्छे से समझ आ जाता था।

मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में था तो मुझे बीजगणित में थोड़ी मुश्किल आने लगी....कुछ िदन मैंने देखा....एक दिन घर आकर रोने लगा.....मेरे पिता जी ने मेरे मास्टर जी को एक चिट्ठी लिखी थी उर्दू में......और उस दिन से मैं उन मास्टर साहब के पास कुछ महीने के लिए गणित की ट्यूशन रखी....महीने के अंत में मेरे पिता जी उन की ट्यूशन फीस एक लिफाफे में बंद कर के मेरे हाथ भेज दिया करते थे....पच्चीस रूपये महीना।

यह किसी टीचर को उस की फीस भेजने का सलाका भी मैंने उस १२ वर्ष की आयु में अपने पिता जी से ही सीखा....इस मायने में भी वे मेरे गुरू हुए.....अपने बच्चों के टीचरों को फीस खुले में कभी नहीं भेजे.....हमेशा बच्चे लिफाफा ही लेकर जाते रहे।

मैं अपने उस मास्टर जी से उन के अंत तक टच में रहा.....लगभग १५ वर्ष की बात है...... एक बार मैं उन्हें मिला उन के घर जाकर....किसी लेखक शिविर में गया हुआ था.....ढूंढते ढांढते पहुंच गया था उन के घर.. एक बहुत पुराना कंबल लपेटे हुए थे.... और यादाश्त खो चुके थे.....

एक बात लिखनी बड़ी घटिया लग रही है..... बहुत ही घटिया और ओछी सी लग रही है.....लेकिन केवल इसलिए लिख रहा हूं कि अपने टीचरों का हमें हमेशा सम्मान करते रहना चाहिए। वह बात यह है कि वे एक संयुक्त परिवार में रहते थे और मुझे उस दिन उन की स्थिति ऐसी लगी कि उन को भी जेबखर्च मिलना चाहिए।

मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक उन्हें हर महीने ५०० रूपये मनीआर्डर करने शुरू कर दिए...... वे उस फार्म पर दस्तखत करने के भी लायक नहीं थे शायद, हमारे मास्टर साहब की श्रीमति जी के उस पर हस्ताक्षर हुआ करते थे। ओ ..हो...मुझे कितना अफसोस हुआ था पता है ...कुछ ही महीने बीतने पर फोन आया था कि मास्टर साहब नहीं रहे।

फिर एक घटिया और ओछी बात अपने बारे में कहता हूं. माफ़ करिएगा......लेकिन फिर भी इसलिए लिख रहा हूं कि पता नहीं कोई इस से प्रेरणा ले ले ........उन के स्वर्गवास के बाद मैंने उन की धर्मपत्नी को भी हर माह ५०० रूपये का मनीआर्डर करना जारी रखा..........लेकिन बेहद अफसोस जनक बात यही कि यह भी सिलसिला कुछ ही महीने चल पाया क्योंकि वे भी कुछ ही महीनों में चल बसीं। मुझे बहुत दुःख हुआ था उस दिन।

मास्टर साहब, से जुड़ी यादें........रौबीला व्यक्तित्व, मजाल कि क्लसा में कोई चूं भी कर जाए...... दोपहर के खाने के वक्त एक छात्र की ड्यूटी लगती कि जाओ बाहर दुकान से २५ पैसे का दही लेकर आओ (१९७३ के दिन) .....अपने खाने के डिब्बे में एक डिब्बा वह घर से दही के लिए खाली ही लाते थे...अच्छा लगता था उन के साथ स्कूल में दिन बिताना।

सब कुछ कल की ही बातें लगती हैं......... फिर स्कूल छोड़ने के बाद भी उन से मेल जोल बरकरार रहा... वह कभी कभी मेरे पिता जी से मिलने आ जाया करते थे.........और मैं बरसों तक उन से वैसे ही डरता था...एक तरह का सम्मान जिस का हम मान-सम्मान करते हैं.. उस से थोड़ा डर कर ही रहते हैं.........बस भाग कर बाज़ार से बिस्कुट, बरफी या समोसा लाना जब वे हमारे यहां आते थे तो अच्छा लगता था, बहुत अच्छा।

थैंक यू.........मास्टर जी।


और हां, एक उस्ताद को कैसे भूल गया.......यह है मेरा बड़ा बेटा......जिस ने मुझे इस लायक बनाया कि मैं यह सब आज नेट पर हिंदी में लिखने लायक हो पाया.......उस को उस की पढ़ाई के दिनों में मैंने बड़ा बोर किया...विशाल, यह कैसे करते हैं, वह कैसे करते हैं, यह बता यार, वह कैसे होगा........खीझ जाता था कईं बार....ईश्वर उसे दीर्घायु दे, स्वस्थ एवं खुश रखे और वह डिजिटल व्लर्ड में आप का मनोरंजन करता रहे। आमीन।

उस के इस योगदान के बारे में मैंने छः वर्ष पहले उस का धन्यवाद किया तो था.......मुझे नेट पर हिंदी में लिखना किस ने सिखाया......
थैंक विशाल, once again, मेरा उस्ताद बनने के िलए.....अपनी पढ़ाई की कीमत चुका कर भी मेरे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते रहने के लिए.... तुम हमेशा मेरे उस्ताद ही रहोगे.......थैंक गॉड, उस दिन मैं तुम्हारी बात मान कर अपनी मूंछों पर कालिख पोतने से बचा लिया... when you told me 2-3 years ago......"dad, why all this? It doesn't suit you, must learn to age gracefully." Quite right!!


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

पोर्नोग्राफी -- हां या ना?

दो दिन पहले सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस तरह के प्रश्न डालने शुरू किए.. संदर्भ यही था कि केंद्र सरकार विचार कर रही है कि सभी पोर्नोग्राफी (अश्लील साइटों) को बंद कर दिया जाए। आप का क्या ख्याल है, हां या ना.....मेरे विचार में हां, बिल्कुल सही निर्णय है, अगर यह हो जाए तो शायद बहुत कुछ बच जाए।

मैं यह ऐसा किसी नैतिक पुलिस के हवलदार की तरह नहीं कह रहा हूं....मुझे पता है लोग हर तरह की आज़ादी चाहते हैं......वे पोर्नोग्राफी देखें या नहीं, यह उन का शायद व्यक्तिगत मामला है....पता नहीं कितनी सच्चाई है इस बात में...लेकिन अगर इन पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स की वजह से समाज में तरह तरह के सैक्स अपराध होने लगें और सरकार इस तरह का कोई कदम उठाती भी है तो मेरे विचार में बिल्कुल सही है।

केवल हमारा मन ही जानता है कि हम ने क्या कभी कुछ अश्लील देखा कि नहीं, यह देखने से हमें कैसा अनुभव हुआ... केवल यह हमारा मन ही जानता है। किस उम्र में हम ने पहली बार कुछ इस तरह का अश्लील देखा, यह भी हमारे मन ही में कैद रहता है.....लेकिन वह सब कुछ देखने का विपरीत असर ही हुआ।

मैं कुछ अनुभव बांटने लगा हूं......केवल यह बताने के लिए कि पोर्नोग्राफी हम लोगों के ज़माने में भी थी, केवल स्वरूप बदला है ...शायद इस चक्कर में पड़ने की उम्र और भी कम हो गई है.....मोबाईल से कुछ भी देख सकते हैं आज बच्चे, नेट है....सब कुछ बस एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध है।

मुझे अच्छे से याद है कि मैं आठवीं या नवीं कक्षा में रहा होऊंगा...1975-76 के दिन.....मुझे कहीं से एक नावल पड़ा हुआ मिल गया.. शायद मेरे से ८ साल बड़े भाई का ... हिंदी का नावल था... उस में एक दो पेज़ मुझे बड़े उत्तेजक लगते थे....मैं उन्हीं पन्नों को अपनी किताब में रख कर बार बार पढ़ता था. अच्छा लगता था, यह सिलसिला कुछ दिन तक चला। फिर पता नहीं कब यह सिलसिला अपने आप बंद हो गया।

हां, उन दिनों स्कूलों में कुछ बच्चे मस्तराम के छोटे छोटे नावल लाते थे....... ऐसा नहीं कि यह एक आम सी बात थी.....बस, कभी पता चल जाता था कि आज फलां फलां छात्र मस्त राम लाया है......अजीब सा लगता था यह सब। शायद एक आध बार कोई एक कहानी पढ़ भी ली हो... शायद नहीं यार, पढ़ी ही थी....उस उल्लू के पट्ठे की भाषा पढ़ कर उत्तेजना कम और हंसी कहीं ज़्यादा आती थी।

लेकिन सब से अहम् बात जो मैं आप से शेयर करना चाहता हूं कि नवीं कक्षा में एक लड़का अश्लील तस्वीरों वाली किताब भी कभी कभी लाया करता था और आधी छुट्टी के समय और दो पीरियड के बीच टीचर के आने से पहले वह छुप छुप के दूसरे छात्रों को भी वे तस्वीरें दिखाया करता था। शायद यह काम उस ने सारे वर्ष में दो-चार बार किया होगा।

बड़ा अजीब लगता था वह सब देखना........... अजीब कहूं या यह कहूं कि अच्छा लगता था.......लेकिन जो भी हो उस से पढ़ाई में खलल तो पड़ता ही था......उन तस्वीरों को देखने के बाद फिर उस दिन पढ़ाई में मन नहीं लगता था... सच बता रहा हूं।

बस, मैं रेखांकित इसी बात को करना चाहता हूं कि पोर्नोग्राफी तो पहले भी थी, हां, अब यह सब बहुत आसान हो गया लेकिन १९७५-७६ के आस पास यह सब कुछ चल रहा था .. उस के पहले का ब्यौरा किसी और को देना होगा।

देखो यार, जो भी हो, मैं तो पोर्नोग्राफी के बारे में इतना जानता हूं कि जैसी इनपुट होगी वैसी ही आउटपुट होगी.....जैसे विचार अंदर डाले जाएंगे वैसी ही प्रतिक्रिया बाहर आयेगी..........यह तो एक स्वाभाविक सी ही बात है, है कि नहीं? ...  

मेरे विचार में पोर्नोग्राफी देखने वाले की ज़िंदगी में भूचाल सा आ जाता है......वह जो देखता है, उसे वैसे ही करना चाहता है....अब यह अमेरिका तो है नहीं...इसलिए उसे हर समय शिकार की तलाश रहती है। वरना, आपने कभी ये शब्द सुने थे.....गैंग-रेप, सामूहिक बलात्कार, अप्राकृतिक यौनाचार.......बच्चों का शोषण...आए दिन इन्हीं खबरों से अखबारें भरी पड़ी होती हैं। अगर पोर्नोग्राफी खत्म हो जाएगी, दिमाग में इस तरह के फितूर का कीड़ा घुसेगा ही नहीं तो शायद समाज में शांति बनी रहे। आमीन।

यह भी देखिए......
अप्राकृतिक यौन संबंधों का तूफ़ान...

इतना कुछ पढ़ने के बाद, चलिए अब यह सुंदर गीत सुनते हैं....हम को मन की शक्ति देना.....दूसरों की जय से पहले खुद की जय कहें.......

बरसों बाद किया प्राणायाम्...

कल और परसों मैंने बरसों बाद प्राणायाम् किया। इसे मैंने सिद्ध समाधि योग के कार्यक्रमों एवं रिट्रिज़ (retreats) के दौरान अच्छे से सीखा था...लगभग २० वर्ष पहले...मुंबई में रहता था तब.. कईं वर्ष तक उसे नियमित करता रहा...और बार बार सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम भी अटैंड किया करता था। अच्छा लगता था, बहुत हल्का लगता था।

ध्यान (meditation) भी वहीं से सीखा... सब दीक्षा वहीं से हासिल हुई.....कृपा हुई गुरू ऋषि प्रभाकर जी की.. वे इस के संस्थापक थे।

इस पोस्ट के ज़रिये मैं कोई भाषण देने की इच्छा नहीं रखता। बस केवल अपने अनुभव आपसे शेयर करना चाहता हूं .. जो सीखा .. उसे आप के समक्ष रखना चाहता हूं।

प्राणायाम् आप कृपया कभी भी किताब पढ़ कर या टीवी में देख कर न करें......आप इसे सिखाने वाले किसी गुरू का पता करें.....हर काम सीखने के लिए उस्ताद चाहिए होता है, उसी प्रकार इस सूक्ष्म ज्ञाण के लिए भी एक विशेषज्ञ चाहिए होता है..... गलत मुद्राएं विपरीत असर भी कर सकती हैं। यह एक बेहद वैज्ञानिक प्रक्रिया है दोस्तो।

मेरा अपना अनुभव प्राणायाम् का बेहद सुखद रहा। पता नहीं मैंने बीच में क्यों इसे करना छोड़ दिया....बस आलस की पुरानी बीमारी....लेकिन अभी भी जब भी इस का अभ्यास करता हूं तो बहुत ही हल्का महसूस होने लगता है....।

जैसा कि आपने भी सुना ही होगा कि प्राणायाम् में आखिर ऐसा भी क्या है कि आधे घंटे के प्राणायाम् अभ्यास के बाद इतनी स्फूर्ति और नवशक्ति का आभास होने लगता है....तुरंत ..बिल्कुल उसी समय....।

इस का कारण है कि सामान्य हालात में हम लोगों की सांस लेने की प्रक्रिया हमारे बाकी कामों की तरह बड़ी शैलो (सतही) होती है...हम ज़्यादा अंदर तक सांस नहीं भर पाते....जिस की वजह से ऑक्सीजन की सप्लाई भी पूरी मात्रा में हमारे फेफड़ों तक नहीं पहुंचती.... और ज़ाहिर सी बात है कि अगर वहां नहीं पहुंचती तो फिर शरीर के विभिन्न अंगों तक भी यह पर्याप्त मात्रा में पहुंच नहीं पाती......नतीजा हम सब के सामने... थके मांदे रहना, उमंग का ह्रास, बुझा बुझा सा दिन........लेकिन प्राणायाम् करते ही नवस्फूर्ति का संचार होने लगता है।

एक ज़माना था .. कईं वर्ष तक मैं सुबह और शाम दोनों समय प्राणायाम् अभ्यास किया करता था और दोनों समय ध्यान करना भी मेरे दैनिक जीवन का हिस्सा हुआ करता था.......लेकिन सब कुछ जानते हुए भी ..इन सब के महत्व को जानते हुए भी पता नहीं क्यों यह सब कईं वर्ष तक छूटा सा रहा.........अब फिर से करने लगा हूं तो अच्छा लगता है.....मन भी इस से एकदम शांत रहता है।

तनाव को दूर भगाने का इस से बढ़िया कारगर उपाय हो ही नहीं सकता, मैं इस की गारंटी ले सकता हूं.

स्वस्थ लोग तो करें ही, जो भी किसी पुरानी जीवनशैली से संबंधित बीमारी जैसे की मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसे रोग हैं, माईग्रेन हैं......जो लोग अवसाद या डिप्रेशन आदि के शिकार हैं, वे भी इस जीवनशैली को एक बार अपना कर तो देखें। जीवन में बहार आ जाएगी।

हां, एक बात अकसर मैं सब के साथ साझा करता रहता हूं कि जब हम लोग नियमित प्राणायाम्-ध्यान करते हैं तो हम अपने खाने के बारे में भी ज़्यादा सजग रहने लगते हैं......अपने विचारों को भी देखने लगते हैं......इस के बहुत ही फायदे हैं.....क्या क्या गिनाऊं........हमारे सारे तन और मन को एक दम फिट करने का अचूक फार्मूला है......कोई पढ़ी पढ़ाई बात नहीं है, अापबीती ब्यां कर रहा हूं।

तीस पैंतीस मिनट प्राणायाम् में लगते हैं....बस.........और इतने फायदे। आप भी आजमा कर देखिए।

फ्रिज में पानी किन बोतलों में रखें?

अपने अनुभव के आधार पर अपने पुराने लिखे को बदलते भी रहना चाहिए। इतनी इतनी बड़ी किताबों के संशोधित संस्करण निकलते रहते हैं. इसलिए ब्लॉगिंग में भी किसी बात पर टस से मस हुए बिना अड़े रहना ठीक नहीं लगता।

इसलिए दो साल पुरानी बात को थोड़ा बदल रहा हूं, अपने दो वर्ष के अनुभव के आधार पर।

मुझे किचन में रखी प्लास्टिक की बोतलें देख कर बहुत अजीब सा लगता है... देख कर ही सिर भारी होने लगता है.... वैसे तो जो प्लास्टिक की बोतलें बाज़ार में पानी डाल कर फ्रिज़ में रखने के लिए बिकती हैं, वे तो दो एक ही हैं, उन का भी कोई भरोसा नहीं है.....क्या प्लास्टिक इस्तेमाल करते होंगे, किस ग्रेड का इस्तेमाल होता होगा इन्हें बनाने में.......कहां कहां कोई मगजमारी कर सकता है?

वैसे किचन में कईं बार पुरानी मिनरल वाटर की बोतलें, पुरानी कोल्ड-ड्रिंक्स की प्लास्टिक की बोतलें दिख जाती हैं जिन के बारे में बस इतना कहना चाहता हूं कि ये बोतलें केवल और केवल सिंगल इस्तेमाल के लिए होती हैं...... और यह भी विकसित देशों में तैयार इन बोतलें के बारे में कहा जाता है। इसलिए आप भली भांति सोच विचार कर सकते हैं कि क्या हम लोग इस तरह की बोतलों में पानी स्टोर कर के ठीक करते हैं ?

इसी प्लास्टिक की समस्या की वजह से ही मैंने दो वर्ष पहले एक पोस्ट लिखी थी......अभी ढूंढी तो मिल गई......प्लास्टिक की वॉटर बोतल फ्रिज में रखते समय सोचें ज़रूर.... इस में मैंने एक तरह से फ्रिज में कांच की बोतलों में पानी भर कर रखने की सिफारिश की थी। यह दो वर्ष पुरानी बात थी जब मैंने प्लास्टिक की बोतलों के बारे में कुछ भयानक बातें पढ़ी थीं।

लेिकन अनुभव के आधार पर इन दो वर्षों में जो सीखा वह आप से शेयर करना चाहता हूं......कांच की इन भारी भरकम बोतलों में पानी भर कर रखना बड़ा मुश्किल सा काम है......इन्हें बार बार उठाना --इधर उधर करना ही भारी भरकम सा काम है।

एक बात और भी तो है कि इन भारी भरकम कांच की बोतलों में पानी भरना भी थोड़ा सा मुश्किल काम है......थोड़ा बहुत वेस्ट हो जाता है इन्हें भरने के चक्कर में........इन्हीं दो कारणों की वजह से हम ने भी अब इन में पानी स्टोर करना बंद कर दिया है।


इसलिए यह विचार आते ही कल रात मैंने जब फ्रिज से पानी उठाने के लिए इसे खोला तो ये स्टील और तांबे की बोतलें एक लाइन में लगी देख कर अच्छा लगा, सोचा आप से भी यह तस्वीर शेयर करता हूं......वैसे भी तांबे में पानी स्टोर करने के कुछ लाभ भी तो बताते ही हैं आयुर्वेदिक विशेषज्ञ.....इस तरह की स्टील और तांबे की बोतलों को साफ़ करना भी आसान है........लेकिन मेरी श्रीमति कहती हैं कि तांबे की बोतलों की यदा कदा चमकाने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है।

बहरहाल, हम लोगों की पुरानी आदतें कहां इतनी आसानी से जाती हैं....... कांच की बोतलों में पानी रखने की जगह पर यह कांच का जग ज़रूर फ्रिज में पड़ा रहता है।

पानी की बातें करते करते गंगा मैया का ध्यान आ गया....... कल सुप्रीम कोर्ट ने भी गंगा की सफाई करने हेतु तैयार एक्शन-प्लॉन को देखने के बाद सरकार से पूछा है कि क्या गंगा इस सदी में साफ़ हो पाएगी?

Are plastic bottles a health hazard?

गंगा मैया को समर्पित यह सुंदर गीत........या भजन...कितने वर्षों से इसे बड़े बड़े लाउड स्पीकरों पर सुनते आ रहे हैं...



मंगलवार, 2 सितंबर 2014

मेरे पसंदीदा और नापसंदीदा विषय़...

अतीत के झरोखों से आज इस विषय पर कुछ कहने की इच्छा हो रही है....

स्कूल से शुरू करता हूं.. स्कूल के दिनों में जो विषय मुझे सब से बेकार और उबाऊ लगता था ..वह हिस्ट्री-ज्योग्राफी था। मुझे याद है कि मैंने किताबें तो उस की कईं इक्ट्ठी कर रखी थीं लेकिन कभी भी इंटरस्ट आया ही नहीं। मास्टर लोगों के ऊपर भी बड़ा निर्भर करता है ना। स्कूल की छुट्टी होने से पहले वाला पीरियड उसी का था लेकिन वर्दी की वजह से पीटता रहता था वह हम लोगों को --बारी बारी से।

इस विषय में इतना कमज़ोर रहा था कि अभी तक भी हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान बस यहां तक सीमित है कि हिंदोस्तान से आगे समुद्र हैं ..एक अमेरिका है, एक इंगलैंड ...यूरोप का भी नाम सुना है। बिल्कुल ज़ीरो हूं हिस्ट्री-ज्योग्राफी में। हिस्ट्री पढ़ने की कभी इच्छा नहीं हुई..सिवाए उस पेटू बादशाह के जो बहुत सा खाना खाया करता था....शायद मुहम्मद तुगलक .. और एक महमूद गजनवी के बारे में पढ़ने में रूचि थी जिसने हमारे देश में बड़ी लूटपाट मचाई। बाकी कोई तारीखें याद नहीं हुईं .. नफ़रत थी..... पलासी, पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाई.....यार लड़ लो न एक ही बार में, क्यों बार बार लफड़े कर के छात्रों को परेशान करते हो।

दसवीं की परीक्षा के बाद मुझे रिज़ल्ट आने तक इसी बात की चिंता थी कि वैसे तो बाकी विषयों में मेरे ८०-९०प्रतिशत तो आएंगे ही .. लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी में फेल हो जाऊंगा.....बड़ी बदनामी हो जायेगी, यही बात परेशान करती रहती थी। लेकिन शुक्र हो उस अनजान टीचर का जिस ने पता नहीं किस शुभ घड़ी में पेपर जांचे होंगे और पता नहीं उस में उसे कौन सी गप्प पसंद आ गई होगी कि १५० में से ९६ अंक आ गए.......पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की मेरिट में आने की इतनी खुशी न थी जितनी हिस्ट्री-ज्योग्राफी में पास होने की थी।

हां, कालेज चलते हैं........मेरा कालेज में सब से पसंदीदा सब्जैक्ट था .......बॉटनी.....वनस्पति विज्ञान। बहुत अच्छा लगता था दसवीं के बाद अगले दो साल उस विषय को पढ़ना....पेढ़-पोधों, पत्तियों को जानना अच्छा लगता था.....बहुत ही अच्छा.....इतनी अच्छे से अमृतसर के डीएवी कालेज के कंवल सर पढ़ाया करते थे कि कब पीरियड खल्लास हो जाता था पता ही नहीं चलता था। मैं सोचता था अगर डाक्टरी वाक्टरी में नहीं भी गया तो चुपचाप बीएससी और फिर बॉटनी में एमएससी और उस के बाद पीएचडी करूंगा। आज भी मुझे पेढ़-पौधों- पत्तियों से बेहद लगाव है.. जुड़ाव है........इस कद्र यह जुड़ाव है कि मेरे विचार में सारी कायनात में दो तरह के लोग हैं.......वनस्पति प्रेमी और वनस्पति को प्रेम न करने वाले।

हां, यार, एक बात याद आ गई.....मैंने ३५-३६ साल पुरानी अपनी बॉटनी की एक कापी भी संभाल कर रखी हुई है.... अभी इस ढूंढ कर एक चित्र यहां टिकाता हूं।

अब चलिए मैडीकल कालेज के अनॉटमी विभाग की तरफ़.........मुझे ज़रा भी समझ नहीं आता था. लगता था कि कहां फंस गये। सब कुछ सिर के ऊपर से निकल  जाता था। न तो कुछ थ्यूरी और न ही प्रैक्टीकल में पल्ले पड़ता था..... पता नहीं उस विभाग में ही कुछ तो था......सब कुछ डरावना डरावना सा.....सारी बूथियां खौफ़नाक....जैसे शोक मनाने आई हों।

कुछ न समझ पाने के चक्कर में मैं उस में पहली बार फेल हो गया....मैं पहली बार फेल हुआ था.......फिर क्या था, कुछ रट्टे वट्टे लगाये, दो तीन महीने, कुछ भी समझ नहीं आया फिर से.......बस जैसे तैसे पास हो गया सप्लीमैंटरी परीक्षा में......बस उस के बाद सब विषयों में रूचि बनती चली गई........और तीसरे वर्ष में आते आते टेम्पो इतना बन गया कि यूनिवर्सिटी में टॉप घोषित कर दिया गया....बस फिर तो ...उस रास्ते पर चल निकला।

इस पोस्ट की प्रेरणा मुझे मेरे एक मित्र डा कुलदीप बेदी की एक फेसबुक पोस्ट देख कर मिली जिस में उन्होंने एक खोपड़ी की तस्वीर टिकाई थी.....उस पर मैंने जो टिप्पणी दी वह भी आप के साथ शेयर कर रहा हूं.......

"मैं तो देखते ही डर गया.....अनॉटमी की वह खौफ़नाक सप्ली याद आ गई।।।
थैंक गॉड, जैसे तैसे पास हो गये.....
मेरे जैसा बंदा और लेटरल टैरीगॉयड की डाईसैक्शन.....मैं भी एग्जामीनर को इस तरह से ओरिजन और इन्सर्शन दिखाने लगा जैसे वह पहली बार देख रहा है किसी नईं डिस्
कवरी को.....उस दिन बड़ा बुरा लगा था.....डियर बेदी।
प्रैक्टीकल का ही तो बस थोड़ा अासरा था, थियूरी तो पहले ही गोल थी। और ऊपर से मैं ग्रेज़ एनाटमी की पोथी ऐसे रोज़ खोल के बैठ जाता था......... और दो मिनट में नींद आ जाया करती थी।"