रविवार, 29 मार्च 2009

नमक के बारे में सोचने का समय यही है

आज कल पब्लिक को नमक के ज़्यादा इस्तेमाल के बारे में बहुत ही ज़्यादा सचेत किया जा रहा है। कहा जाता है कि अमेरिका में भी लोग बहुत ज़्यादा नमक का इस्तेमाल करते हैं और इस का कारण यही बताया जाता है कि वहां पर प्रोसैसेड एवं रेस्टरां का खाना बहुत ज़्यादा प्रचलित है। ठीक है, हमारे यहां पर अभी तो यह प्रोसैसेड फूड्स इतने पापुलर नहीं हैं लेकिन इन का चलन धीरे धीरे बढ़ ही रहा है। रेस्टरां में खाने का भी रिवाज़ बढ़ता ही जा रहा है।

हमारी ज़्यादा समस्या यही है कि हम लोगों के यहां लोगों में नमक से लैस जंक फूड का क्रेज़ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। ये समोसे, कचौरियां, मठड़ीयां, भुजिया, ..........................इतनी लंबी लिस्ट है कि क्या क्या लिखें। इन से बच कर रहने में ही बचाव है।

कुछ समय पहले मद्रास अपोलो में एक डाक्टर से मुलाकात हुई --उसने अपना अनुभव बताया कि उस का वज़न एवं ब्लड-प्रैशर बहुत ज़्यादा बढ़ा हुया था लेकिन उस ने अपने वज़न कम कर के एवं नमक के इस्तेमाल पर कंट्रोल कर के ही अपनी ब्लड-प्रैशर दुरूस्त कर लिया । लेकिन ऐसे अनुभव बहुत ही कम देखने सुनने में मिलते हैं , भला ऐसा क्यों है, क्या आपने कभी ऐसा सोचा है ?

ब्लड-प्रैशर, मोटापे, गुर्दे की बीमारी आदि बहुत ही शारीरिक व्याधियों में सब से ज़्यादा यही देख कर दुःख होता है कि लोग सलाह तो जाकर बड़े से बड़े डाक्टर से लेते हैं ---एक बार परामर्श के लिये पांच पांच सौ फीस भी भरते हैं लेकिन बहुत ही छोटी दिखने वाली लेकिन बहुत ही ज़्यादा महत्वपूर्ण बात कि नमक का इस्तेमाल करने की तरफ़ अकसर देखा जाता है कि लोग इतना ज़्यादा ध्य़ान देते नहीं हैं। यही कारण है कि ब्लड-प्रैशर का हौआ हमेशा बना ही रहता है।

बुधवार, 25 मार्च 2009

अपने रक्त की जांच के समय ज़रा ध्यान रखियेगा

जब कभी बाजू से रक्त का सैंपल लिया जाता है तब तो आप डिस्पोज़ेबल सूईं इत्यादि का पूरा ध्यान कर ही लेते होंगे, लेकिन क्या कभी आपने यह ध्यान किया है कि जब आप की उंगली को प्रिक कर के सैंपल लिया जाता है तो वह किस तरह से लिया जाता है ?
मुझे याद है कि बचपन में हम लोग भी जब अपने रक्तकी जांच करवाने जाते थे तो उस लैब वाले ने एक सूईं रखी होती थी जिसे वह स्प्रिट वाली रूईं से पोंछ पोंछ कर काम चला लिया करता था।
आज इस बात का ध्यान इसलिये आया है क्योंकि कल ही अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने चिकित्सा कर्मीयों को कहा है कि ये जो इंसुलिन पैन एवं इंसुलिन कार्टरिज़ होती हैं, इन्हें केवल एक ही मरीज़ पर इस्तेमाल के लिये अप्रूव किया गया है।
इंसुलिन पैन जैसे कि नाम से ही पता चलता है पैन की शेप में एक इंजैक्शन लगाने जैसा उपकरण होता है जिस के साथ एक डिस्पोज़ेबल सूईं के साथ या तो एक इंसुलिन रैज़रवॉयर और या एक इंसुलिन कार्टरिज़ होती है। इस उपकरण में इतनी मात्रा में इंसुलिन होती है कि मरीज़ रैज़रवॉयर अथवा कार्टरिज़ समाप्त होने तक स्वयं ही अपने ज़रूरत के मुताबिक कईं बार इंजैक्शन लगा सकता है।
आखिर अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को ऐसी चेतावनी देने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई ? --- इस का कारण यह था कि इस संस्था को ऐसे दो अस्पतालों का पता चला जिस में लगभग 2000 व्यक्तियों के ऊपर जब इंसुलिन पैन से इंजैक्शन लगाये गये तो कार्टरिज़ कंपोनैंट की तरफ़ कुछ इतना ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा गया --- हालांकि डिस्पोज़ेबल नीडल को तो हर मरीज़ के लिये बदला ही गया था।
ऐसे उपकरण को जिसे केवल एक ही मरीज़ पर इस्तेमाल करने की अप्रूवल मिली हुई है ---इसे विभिन्न मरीज़ों द्वारा नीडल बदल कर भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि इस से रक्त के आदान-प्रदान से फैलने वाली एच-आई-व्ही एवं हैपेटाइटिस सी जैसी भयंकर बीमारियों के फैलने का खतरा होता है।
हां, तो हम लोग अपने यहां पर उंगली से रक्त का सैंपल देने की बात कर रहे थे ---सही ढंग की बात करें तो उस के लिये एक छोटा सी पत्तीनुमा बारीक सी सूईं आती है जिसे लैंसेट ( Lancet) कहा जाता है और यह डिस्पोज़ेबल होती है अर्थात् इसे दोबारा किसी मरीज़ पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। वह सूईं को स्प्रिट में डुबो डुबो कर काम चला लेने वाला पुराना तरीका गड़बड़ सा ही लगता है । आप अपने डाक्टर से बात तो कर के देखिये।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

क्यों छापते हो यार ऐसी खबरें ? ---आखिर मैडीकल जर्नलिस्ट किस मर्ज़ की दवा हैं ?

अभी अभी हिंदी का एक प्रतिष्ठित अखबार देख रहा था ---जिस के पिछले पन्ने पर एक बहुत बड़ी न्यूज़-आइटम दिखी ---- डायबिटीज के इलाज में कारगर है तंबाकू !! इसी न्यूज़-आइटम से ही कुछ पंक्तियां ले कर यहां लिख रहा हूं ----
- ----मगर शोधकर्त्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने तंबाकू में तमाम फायदे खोज निकाले हैं।
- ---तंबाकू के पौधे में जैनेटिक बदलाव कर कुछ दवाएं तैयार की हैं।
- ----सक्रियता जांचने के लिए पौधों को प्रतिरोधी क्षमता की कमी से जूझ रहे चूहों को खाने के लिए दिया गया।
- -----महत्वपूर्ण बात यह है कि तंबाकू के ट्रांसजैनिक पौधों की पत्तियों को खाया जा सकता है। इसमें मौजूद तत्व बीमारी वाले हिस्से में स्वतः काम करने लगते हैं। इससे पत्तियों से दवा बनाने के झंझट से मुक्ति मिलती है।
- शोधकर्ता दल ने पाया कि इसकी सीमित मात्रा और कुछ एंटीजन की नियमित खुराक से टाइप वन डायबिटिज़ की रोकथाम में मदद मिलती है।

अच्छी खासी लंबी-चौड़ी खबर थी ---तीन कॉलम की ।

अब सोचने की बात यह है कि अगर एसी खबार छपी भी है कि तो इस में आपत्तिजनक है ही क्या !! इस में सब कुछ आपत्तिजनक ही आपत्तिजनक है ---- कारण ? --- यह सारा शोध अभी चूहों पर हो रहा है। पूरा शोध तो हो लेने दो ---आखिर इतनी भी क्या हफड़ा-धफड़ी यह छापने की ऐसी खबर छापने की कि जिस की एक कतरन भीखू पनवाड़ी अपने इलैक्ट्रिक-लाइटर के साथ ही चिपका कर अपनी बीड़ी-सिगरेट की सेल को चार चांद लगा डाले। ऐसी खबरें बेहद एतराज़ –जनक इसलिये भी हैं क्योंकि जब इस तंबाकू के चक्कर में पड़ा कोई व्यक्ति ऐसी खबर देखता है ना तो उसे अपनी आदत को जारी रखने का एक परमिट सा मिल सकता है। वह भला फिर क्यों सुनेगा अपने डाक्टर की ----अकसर लोग अखबार में छपी बातों को ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं।

अगर उस तंबाकू का सेवन करने वाले व्यक्ति का कोई सहकर्मी उसे सिगरेट बंद करने को कहेगा तो वह उस की बात को यह कह झटक देगा कि लगता है तू अखबार नहीं पड़ता ---रोज़ाना पढ़ा कर। तंबाकू सेवन करने वाले को ट्रांसजैनिक शब्द से इतना सरोकार नहीं है –उसे तो केवल आज छपी इस न्यूज़-आइटम से ही मतलब है कि डायबिटिज़ के इलाज के लिये कारगर है तंबाकू।

ध्यान यह भी आ रहा है कि अगर ऐसी खबर पढ़ कर डायबिटीज़ से जूझ रहे लोग तंबाकू को थोड़ा आजमाना ही शुरू कर दें तो उन के लिये यह आत्महत्या का जुगाड़ करने वाली ही बात हो गई। सब जानते हैं कि हम सब के लिये और विशेषकर शूगर के मरीज़ों के हृदय , मस्तिष्क एवं रक्त की नाड़ियों के लिये तंबाकू कितना खतरनाक ज़हर है। और भगवान न करे , अगर किसी ने इस पंक्ति को पढ़ कर जीवन में उतार लिया कि इस की नियमित खुराक से डायबिटीज़ की रोकथाम में मदद मिलती है।

ऐसे में क्यों छापते हैं अखबार इस तरह कि खबरें -----जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि लोगों को इन प्रयोगों की अवस्था से कुछ ज़्यादा सरोकार होता नहीं ----एक ले-मैन को हैल्थ संबंधी विषयों का इतना गूढ़ ज्ञान कहां होता है ---वह तो शीर्षक पकड़ता है और उस न्यूज़-रिपोर्ट में लिखी दो-चार पंक्तियां जो उस को सुकून देती हैं, वह तो उन्हीं को हाइ-लाइट कर के अपने पर्स में टिका लेता है ----और शायद अपने फैमिली डाक्टर को कोसने लगता है कि लगता है कि अब उसे भी छोड़ कर कोई और डाक्टर देखना पड़ेगा ----देखिये, साईंस ने कितनी तरक्की कर ली है ---डायबिटीज़ में तंबाकू के फायदे की बात अखबार में हो रही है और वह है कि हर दफ़ा डायबिटीज़ के कारण मेरे शरीर में उत्पन्न जटिलतायों के लिये मेरी सिगरेट को ही कोसता रहता है।

तीन दिन पहले इसी हिंदी के अखबार में एक दूसरी खबर छपी थी जिस का शीर्षक था ---- मोटापे को दूर रखेगी एक गोली – वजन बढ़ने की चिंता छोड़ कर डटकर खा सकेंगे लोग ------- चूहों पर हो रहे ऐसे शोध को इतना महत्व कैसे दे दिया गया , मेरी समझ से बाहर की बात है । यह खबर भी अखबार के अंतिम पृष्ठ पर छपी थी।

दो दिन पहले खबर छपी कि ----पहले ही मिलेगा हार्ट अटैक का संकेत –विध्युतीय सिग्नलों में परिवर्तन होते ही सचेत करेगा एंजिलमेड गार्जियन । इस खबर से कुछ पंक्तियां लेकर यहां लिख रहा हूं ----शोधकर्ताओं का मानना है कि छाती में कॉलर बोन के नीचे लगने वाला एंजिलमेड गार्जियन हार्ट अटैक के कुछ पहले ही संकेत दे देगा, इससे मरीज को अस्पताल तक पहुंचने और उपयुक्त इलाज पाने में आसानी होगी। दिल की सामान्य गति में बदलाव होने पर माचिस की डिब्बी के आकार के इस यंत्र में मोबाइल की तरह कंपन शुरू हो जाएगा। हृदय रोगी के पास मौजूद एक विशेष पेजर में सावधानी बरतने संबंधी संदेश भी पहुंचेगा । ----मालूम हो कि प्रारंभिक दौर में एंजिलमेड गार्जियन का परीक्षण अमेरिका में चल रहा है। ................

इस तरह के समाचारों से आपत्ति यही लगती है कि इस तरह के प्रयोग अभी तो हो ही रहे हैं ----जब ये सभी परीक्षण सफलता पूर्वक पास कर लेंगे तो होनी चाहिये इन की इतनी लंबी चौड़ी चर्चा । पत्रकारिता में एक बात कही जाती है कि खबर वही जो रोमांच पैदा करे -----कुत्ते ने आदमी को काट दिया, यह तो भई कोई खबर नहीं हुई ---इस की न्यूज़-वैल्यू ना के समान है -------------खबर तो वही हुई जब कोई आदमी कुत्ते को काट ले। तो ,अगर मैडीकल खबरों में भी हम रोमांच का तड़का लगाना ही चाहते हैं तो उन्हें मैडीकल खबरों जैसे कॉलम के अंतर्गत केवल दो-चार पंक्तियों में ही डाल देना चाहिये---------ऐसी वैसी खबरों को इतना तूल देने की क्या पड़ी है ?

अकसर अखबारों में इस तरह की खबरों के आसपास ही कुछ इस तरह के विज्ञापन भी बिछे पड़े होते हैं -----
---जब से फलां फलां तेल का इस्तेमाल शुरू किया तो बीवी इज्जत करने लगी।
-----महिलाओं एवं पुरूषों दोनों के लिये डबल धमाका डबल मज़ा --- फलां फलां कैप्सूल के साथ तेल फ्री।
----चूकिं फौजी बनने के लिये ऊंचा कद चाहिये होता है जो कि फलां कैप्सूल से बढ़ जाता है।
-----एक अन्य विज्ञापन में एक 10-11 साल का छोरा कह रहा है कि उसे तो हाइट बढ़ाने की जल्दी है ---इसलिये एक कैप्सूल के इश्तिहार पर उस की फोटो चिपकी हुई है।
----एक अन्य विज्ञापन कह रहा है कि शर्मिंदा होने से पहले इस्तेमाल करें यह वाला तेल ---- पूरे फायदे के लिये शीशी पर इस का नाम खुदा हुआ देख कर ही खरीदें । पुरूषों की ताकत के लिए लोकप्रिय व असरकारक ----शौकीन लोग भी इस्तेमाल करके असर देखें।
----- एक अन्य विज्ञापन कह रहा है कि अभद्र भाषा में ऐरे-गैरे बाज़ारू किसी भी तेल-तिल्ले से जिन्हें सतुष्टि मिल जाती हो वे इस विज्ञापन को नज़रअंदाज़ कर दें क्योंकि यह विज्ञापन भारत से यूरोप को निर्यात होने वाले फलां फलां का है जो सर्वगुण सम्पन्न असली तिल्ला है। पुरूष जननांग का पूर्ण पोषण करने तथा उस में रक्त-प्रवाह की वृद्दि करके उसकी कमज़ोर नसों को सुदृढ़ करने के लिए गुणकारी तेल(तिल्ला)

अब विज्ञापनों के बारे में तो क्या इतनी चर्चा करें -----ये पब्लिक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसे आजमाना चाहती है और किसे नहीं। ये बहुत ही पेचीदा मसला है। लेकिन जहां पर मैडीकल न्यूज़ का मसला है उस के बारे में तो ज़रूर जल्द से जल्द कुछ होना चाहिये ---- क्या है ना कि मैडीकल एंड हैल्थ रिपोर्टिंग को एक तो वैसे ही हमारे अखबारों में कम जगह मिलती है ---इसलिये मैडीकल न्यूज़ का चुनाव करते समय कुछ बातों का ध्यान रखा जाना बहुत ही ज़रूरी है ----------ये बातें कौन सी हैं, इस की चर्चा शाम को करेंगे ।

वैसे पोस्ट को बंद करते करते यही ध्यान आ रहा है कि हिंदी के अखबारों में पुरूष जननांग के पोषण के लिये इतने सारे विज्ञापन रोज़ाना दिखने के बाद किसी को यह संदेह भी हो सकता है कि क्या सारा हिंदोस्तान ही इतनी दुर्बलता का शिकार है -------------वैसे ऐसा लगता तो नहीं, क्योंकि हमारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या के आंकड़ों को जिस तरह से चार चांद लग रहे हैं वह तो कोई और ही दास्तां ब्यां कर रही है। ( कहीं इस के पोषण को कम करने की ज़रूरत तो नहीं, दोस्तो। )

बुधवार, 18 मार्च 2009

इसे देखने के बाद कोई है जो सिगरेट-बीड़ी की तरफ़ मुंह भी कर जाये .....

पिछले हफ्ते की बात है मैं पानीपत से एक पैसेंजर गाड़ी में रोहतक की तरफ़ जा रहा था ---हरियाणा ज़्यादा तो मैं घूमा नहीं हूं --- लेकिन जिस रास्ते से मेरा वास्ता पड़ता है वह यही है ---- पानीपत से रोहतक और रोहतक से दिल्ली ---- मैंने नोटिस किया है कि इस रूट पर कुछ बहुत ही अक्खड़ किस्म के जाहिल से लोग भी अकसर गाड़ी में मिल जाते हैं ( कृपया मेरी जाहिल शब्द को अन्यथा न लें, आप को तो पता ही है कि मुझे अनपढ़ लोगों से पता नहीं वैसे तो बहुत ही ज़्यादा सहानुभूति है ही , लेकिन जो अनपढ़ है, ऊपर से अक्खड़ हो और साथ ही बदतमीज़ भी हो , तो ऐसे बंदे को तो सहना शायद सब के बश की बात नहीं होती) ....

हां, तो उस पानीपत से रोहतक जा रही पैसेंजर गाड़ी में मेरी सामने वाली सीट पर एक 20-22 वर्ष का युवक बैठा था ---बीड़ी पी रहा था ---- मेरी समस्या यह है कि बीड़ी का धुआं मेरे सिर पर चढ़ता है तो मुझे चक्कर आने शुरू हो जाते हैं, ऐसे में उस का मेरा वार्तालाप क्या आप नहीं सुनना चाहेंगे ?
मैंने कहा ----बीड़ी बंद कर दो भई। धुआं मेरे सिर को चढ़ता है।
नवयुवक ---- ( बहुत ही अक्खड़, बेवकूफ़ी वाले अंदाज़ में ) ---- अकेला मैं ही थोड़ा पी रिहा सू---वो देख घने लोग पीन लाग रहे हैं।
मैंने कहा ----लेकिन मुझे तो इस समय तुम्हारी बीड़ी से तकलीफ़ है।
नवयुवक ----तो फिर किसी दूसरी जा कर बैठ जा ।

और साथ ही उस ने अगला कश खींचना शुरू कर दिया। मैंने चुप रहने में ही समझदारी समझी ---- क्योंकि इस के आगे अगर वार्तालाप चलता तो उन का ग्रुप या तो मेरे को जूतों से पीट देता ---और अगर मैं अपनी बात पर अड़ा रहता तो क्या पता --- रास्ते में ही कहीं गाड़ी से नीचे ही धकेल दिया जाता। वैसे मैं इतनी जल्दी हार मानने वाला तो नहीं था लेकिन मेरी बुजुर्ग मां मेरे साथ थी , इसलिये मैं चुपचाप बैठा उस बेवकूफ़ इंसान के धूम्रपान का बेवकूफ़ सा मूक दर्शक बना रहा। लेकिन मैंने भी मन ही मन में उसे इतनी खौफ़नाक गालियां निकालीं कि क्या बताऊं ?

---- जी हां, बिल्कुल एक औसत हिंदोस्तानी की तरह जिस तरह वह अपने मन की आग जगह जगह मन ही में गालियां निकाल कर शांत सी कर लेता है। चलिये, उस किस्से पर मिट्टी डालते हैं। क्या है ना इस रूट पर बस में , ट्रेन में खूब बीड़ीयां पीने-पिलाने का जश्न खूब चलता है,लेकिन मेरे जैसों को इन बीड़ी-धारियों की सुलगती बीड़ी देखते ही फ * ने लगती है---शायद उस से भी पहले जब कोई भला पुरूष बीड़ी के पैकेट को हाथ में ले कर रगड़ता है ना तो बस मेरा तो सिर तब ही दुःखने लगता है कि अब खैर नहीं। इस रूट पर ---बार बार इस रूट की बात इसलिये कर रहा हूं क्योंकि इस रूट का वाकिफ़ हूं ---भुक्तभोगी हूं --- पता नहीं दूसरे रूटों पर क्या हालात होंगे , कह नहीं सकता।

लेकिन मेरे उस जाहिल-गंवार को एक बार कुछ पूछ लेने का असर यह हुआ कि उस ने दूसरी बीडी नहीं सुलगाई ----लेकिन पहली उस ने पूरे मजे से पी। होता यह है कि कानून का इन बीड़ी पीने वालों को भी पता होता है ---इसलिये मन में यह भी डरे डरे से ही होते हैं लेकिन हम हिंदोस्तानियों का रोना यही है कि हम लोग पता नहीं चुप रहने में ही अपनी सलामती समझते हैं ----काहे की यह सलामती जिस की वजह से रोज़ाना ऐसे लोगों की बीड़ीयों के कारण हज़ारों लोगों के फेफड़े बिना कसूर के सिंकते रहते हैं।

रोहतक-दिल्ली रूट पर मैंने 1991 में कुछ हफ़्तों के लिये डेली पैसेंजरी की थी ---- डिब्बे में घुसते ही ऊपर वाली सीट पर अखबार बिछा कर आंखें बंद कर लिया करता था । इसलिये जब मुझे यह वाली सर्विस छोड़ कर दूसरी सर्विस बंबई जा कर ज्वाइन करने का अवसर मिला तो मैं ना नहीं कर पाया। तुरंत इस्तीफा दे कर बंबई भाग गया ---- शायद मन के किसी कौने में यही खुशी थी कि इस साली, कमबख्त बीड़ी से तो छुटकारा मिलेगा।

बीड़ी की बात हो रही है ---आज सुबह एक 42 वर्ष का व्यक्ति आया जो लगभग पच्चीस साल से एक पैकेट बीड़ी पी रहा था लेकिन दो महीने से बीड़ी पीनी छोड़ दी है। परमात्मा इस का भला करे ----मुझे इस के मुंह के अंदर देख कर बहुत ही दुःख हुआ। यह आया तो इस तकलीफ की वजह से था कि मुंह के अंदर कुछ भी खाया पिया बहुत लगता है , दर्द सा होता है। उस के मुंह के अंदर की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं। इस के बाईं तरफ़ के मुंह के कौने का क्या हाल है, यह आप इस तस्वीर में देख रहे अगर आप को याद होगा कि मैंने अपने एक दूसरे मरीज़ के मुंह की तस्वीर अपनी किसी दूसरी पोस्ट में डाली थी ---- लेकिन इस के मुंह की हालत उस से भी बदतर लग रही थी ।

अनुभव के आधार पर यही लग रहा था कि सब कुछ ठीक नहीं है ---- यही लग रहा था कि यह कुछ भी हो सकता है, शायद यह जख्म कैंसर की पूर्वावस्था की स्टेज पार कर चुका था । इसलिये उसे तो यह सब कुछ बहुत ही हल्के-फुलके ढंग से बताया -----पहली बार ही उस को क्या कहें, देखेंगे अब तुरंत ही उस के इस ज़ख्म की बायोप्सी ( जख्म का टुकड़े लेकर जांच की प्रोसैस को बायोप्सी कहते हैं ) ....का प्रबंध किया जायेगा और उस के बाद उचित इलाज का प्रवंध किया जायेगा।

एक बहुत ही अहम् बात यह है कि उस की दाईं तरफ़ का कौना लगभग ठीक ठाक लग रहा था ----इसलिये उस की बाईं तरफ़ के ज़ख्म का किसी चिंताजनक स्थिति की तरफ़ इशारा करता लगता है।

और आप इस के तालू की अवस्था देखिये ---आप देखिये कि इस 42 वर्षीय व्यक्ति की बीड़ी की आदत ने तंबाकू का क्या हाल कर दिया है ---- इस की भी बायोप्सी करवानी ही होगी क्योंकि वहां पर भी काफ़ी गड़बड़ हो चुकी लगती है।

उस बंदे को तो मैंने जाते जाते बिलकुल सहज सा ही कर दिया ---लेकिन लोहा गर्म देखते हुये मैंने उस के मन में निष्क्रिय धूम्रपान ( passive smoking) के प्रति नफ़रत का बीज भी अच्छी तरह से बो ही दिया ---चूंकि वह स्वयं इस बीड़ी का शिकार हो चुका था ( उस ने मुझे इतना कहा कि डाक्टर साहब, मुझे भी लग तो रहा था कि छःमहीने से मेरे मुंह में कुछ गड़बड़ तो है ) ....मैंने पहले तो उसे समझाया कि पैसिव धूम्रपान होता क्या है ---- जब कोई आप के घर में , आप के कार्य-स्थल पर आप का साथी सिगरेट-बीड़ी के कश मारता है, बस-गाड़ी में कोई बीडी से अपने शरीर को फूंक रहा होता है तो वह एक धीमे ज़हर की तरह ही दूसरे लोगों के शरीर की भी तबाही कर रहा होता है।

इसलिये मैंने उसे कहा कि जहां भी सार्वजनिक स्थान पर, अपने साथ काम करने वाले लोगों को धुआं छोड़ते देखो , तो चुप मत रहो ----- बोलो, उसे बताओ कि आप के धुएं से मेरे को परेशानी है। आप यह काम यहां नहीं कर सकते -----यहां पर यह सब करना कानूनन ज़ुर्म है । ऐसा सब लोग कहने लगेंगे तो इस का प्रभाव होगा ---मेरा जैसा कोई अकेला कहेगा तो उसे बीड़ी-मंडली के द्वारा की जाने वाली जूतों की बरसात के डर से या गाड़ी से नीचे गिराये जाने के डर से अपना मुंह बंद करना पड़ सकता है ----अब सरकार गाड़ी के एक एक डिब्बे में तो घुसने से रही ----कुछ काम तो पब्लिक भी करे ----इन बीड़ी-सिगरेट पीने वालों को बतायो तो सही कि हमें आप की बीड़ी सिगरेट पीने से एतराज़ है ---इसे बंद करें ----वरना धूआं बाहर न निकालें ---इसे अपने फेफड़े अच्छी तरह से झुलसा लेने तो दो -------जब हर बंदा इस तरह की आपत्ति करने लगा तो फिर देखिये इन का क्या हाल होगा !!

वैसे आज सुबह मैं अपने मरीज़ से यह पैसिव स्मोकिंग वाली बात कर रहा था और वह बेहद तन्मयता से सुन कर मुंडी हिला रहा था तो मुझे बहुत ही सुकून मिल रहा था ---यह एक नया आईडिया था जिस पर शायद मैंने अपने मरीज़ों को इतना ज़ोर देने के लिये कभी प्रेरित नहीं किया था ----- क्योंकि मेरा बहुत सारा समय तो उन की स्वयं की बीड़ी सिगरेट छुड़वाने में निकल जाता है ---- लेकिन आज से यह बातें भी सभी मरीज़ों के साथ ज़रूर हुआ करेंगी । और हां, मुझे लग रहा था कि सार्वजनिक स्थानों पर पैसिव स्मोकिंग के बारे में बहुत कुछ लिख कर इस का मैं इतना प्रचार प्रसार करूंगा कि उस पैसेंजर गाड़ी वाले युवक की ऐसी की तैसी ---- जिस ने मेरे को कहा कि तू जा के किसी दूसरी जगह पर बैठ जा ------ मज़ा तो तब आये जब इन्हीं रूटों पर लोग गाड़ी में बीड़ी सिगरेट सुलगायें तो साथ बैठा दूसरा बंदा उस के मुंह से बीड़ी छीन कर बाहर फैंक दे -----------तो फिर, देर किस बात की है ------ह्ल्ला बोल !!!!!--------------लगे रहो, मुन्ना भाई। मेरे इस सपने को साकार करने के लिये आप में से हरेक का सहयोग चाहिये होगा ----वैसे, अभी तो इस बात की कल्पना कर के कि बस-गाड़ी में सफर कर रहे किसी बंधु की जलती बीड़ी उस के मुंह से छीन कर बाहर फैंके जा रही है ----ऐसा सोचने से ही मन गदगद हो गया है। हम लोगों की खुशीयां भी कितनी छोटी छोटी हैं और कितनी छोटी छोटी बातों से हम खुश हो जाते हैं ----- तो फिर इस सारे समाज को यह छोटी सी खुशी देने से हमें कौन रोक रहा है ?

PS....After writing this post, I just gave it to my son to have a look and I was feeling a bit embarrased about the too much frankness shown in the post. With somewhat I shared with my son that I feel like not posting it. So, I am going to delete it. "Papa, if you are not feeling like opening your heart --- your thoughts in your own blog, then where would you get a better opportunity to do that stuff like that !!" So, after getting his nod and clearance, i am just going ahead and pressing the PUBLISH button.

Good luck !!

मंगलवार, 17 मार्च 2009

दांत उखड़वाने के बाद क्यों लेते हैं इतनी सारी दवाईयां ?

अगर मेरा यह प्रश्न सुन कर मुझे आप में से कोई पलट कर यही प्रश्न ही पूछ ले कि आप डाक्टर लोग देते हो इसलिये हमें दांत उखड़वाने के बाद इतनी सारी दवाईयां लेनी पड़ती हैं। चलिये, उस की भी बात अभी बाद में करेंगे --- लेकिन मुझे यह बहुत अखरता है कि दांत उखड़वाने के बाद अगर कोई विशेष दो-तीन तरह की दवाईयां किसी को नहीं लिखी जायें तो वह समझता है कि आखिर बिना दवाई के कैसे भरेगा उस के मुंह में मौजूद इतना बड़ा ज़ख्म !!

दोस्तो, ऐसी बात बिल्कुल निराधार है कि आप दवाईयां खायेंगे तो ही वह दांत उखड़वाने की वजह से हुआ जख्म भरेगा। इस समय एक कहावत का ध्यान आ रहा है ---पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय !! इसी बात को यहां हम लोग दांत उखड़वाने के बाद लंबी-चौड़ी दवाईयां खाने की फरमाईश के साथ जोड़ कर देखते हैं। अगर किसी क्वालीफाईड डैंटिस्ट ने यह काम किया है तो किसी तरह के डर की कोई बात नहीं , और अगर किसी चलते-फिरते नीम हकीम ने अपना जौहर दिखाने की कोशिश की है , तब भी दवाईयों का कोई फायदा नहीं ---क्योंकि अकसर ये नीम हकीम कुछ इस तरह का नुकसान कर डालते हैं जिस की भरपाई दवाईयां ले लेने से नहीं हो सकती।

एक बिलकुल सीधी सपाट बात है कि अगर तो मरीज़ के मुंह के मुंह का स्वास्थ्य पहले ही से बिलकुल खराब है , पहले ही से बहुत ही इंफैक्शन मौज़ूद है, मरीज़ अगर गुटखे, पान-मसाले एवं बीड़ी-सिगरेट का शौकीन है और अगर दांत को किसी ऐसी वैसी जगह से निकलवाया गया है जहां पर उस नीम-हकीम जिसे हम दंत-चिकित्सक कहते हुये भी डरते हैं, तो समझिये कि उस ने आफ़त मोल ले ली है। दांत उखड़वाने के बाद होने वाले घाव की तो आप चिंता इतनी करें नहीं, यह सब प्रकृत्ति अच्छे से देख ही लेती है। लेकिन चिंता की बात यहां पर यही होती है कि दूषित सिरिंजों, सूईंयों एवं दूषित उपकरणों की वजह से तरह तरह की भयंकर बीमारियों की चपेट में आने की पूरी संभावना बनी रहती है।

दांत उखड़वाना कोई बड़ी बात थोड़े ही है ---- लेकिन किसी बस स्टैंड पर किसी चलते फिरते डैंटिस्ट से इस तरह का काम करवाना खतरे से खाली नहीं है। लोग अकसर बहुत इंप्रैस होते हैं कि हमारे यहां पर बस स्टैंड वाला बंदा तो बस कुछ छिड़कता है और तुरंत ही दांत बाहर निकल आता है। केवल इतना ध्यान देने की ज़रूरत है कि जो पावडर वह छिड़कता है या जिस के लोशन से उस ने रूमाल गीला किया होता है वह आरसैनिक नामक का विषैला तत्व होता है जो मुंह के कुछ हिस्से को बिल्कुल सुन्न कर देता है। कुछ वर्षों के बाद यह कैंसर का रूप ले सकता है।

हां, तो बात हो रही थी दांत उखड़वाने के बाद बहुत सी दवाईयां खाने की। पहले तो मैं अपना अनुभव बताता हूं ----दोस्तो, मेरा अनुभव तो यही है कि इन की कोई विशेष आवश्यकता होती ही नहीं है। मैं अकसर दांत उखाड़ने के बाद मरीज़ों को दो-चार दर्द निवारक टेबलेट लेकर रखने की सलाह अवश्य देता हूं ----इस टेबलेट में आईबूब्रोफन एवं पैरासिटामोल नाम की दवाई होती है ---- इसे मैं अधिकांश मरीज़ों के लिये बेहद सुरक्षित मानता हूं---- एक या दो टेबलेट की ही किसी को ज़रूरत पड़ती है। यह दवाई मैं अपने मरीज़ों के लिये पिछले 25 वर्षों से इस्तेमाल कर रहा हूं और मेरा अनुभव है कि यह पूरी तरह से सुरक्षित है

इस टेबलेट के बाद बहुत सी नईं नईं टेबलेट आई हैं, नये नये साल्ट आ गये हैं , लेकिन मेरा इस कंबीनेशन पर अटूट विश्वास है क्योंकि यह अनुभव मेरे हज़ारों मरीज़ों ने मुझे दिया है। नईं नईं दवाईयों की समस्या यही है कि यह आज निकलती हैं और कुछ अरसे बाद इन से संबंधित कुछ दुष्परिणाम उजागर होने के बाद इन पर एक दो चार अमीर देश तो लगा देते हैं प्रतिबंध लेकिन हम जैसे लकीर के फकीर ही बने रहने की वजह से अपने लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने से भी गुरेज़ नहीं करते। इसलिये, भाई हम तो पुरानी, प्रामाणिक दवाईयों से ही संतुष्ट हैं---- time-tested salts ----ये केवल दर्द-निवारक टेबलेट्स की ही बात नहीं है, मेरा ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में भी यही विचार है। इतने वर्षों से दांत की विभिन्न इंफैक्शनज़ के लिये अमोक्सीसिलिन कैप्सूल को ही सब से बेहतर पाता हूं और उसी को अधिकांश केसों में मुंह की इंफैक्शन एवं सूजन के लिये लिखता हूं और उसी से हमेशा वांछित रिज़ल्ट भी मिल ही जाता है। हां, कईं केसों में ( बिल्कुल कम केसों में) नईं नईं दवाईयां भी लिखनी पड़ती हैं, लेकिन इतनी कम बार कि मेरे पास वर्षों से कोई मैडीकल –रिप्रैज़ैंटेटिव ही नहीं आया है।

दांत उखड़वाने के बाद खाई जाने वाली बात तो फिर कहीं पीछे छूट गई --- ऐसा है कि इस के लिये आप को अपने प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक की ही बात माननी होती है। मेरा अनुभव तो यही है कि मरीज़ को दो-चार टेबलेट रख लेनी चाहियें ---ज़रूरत पड़ने पर एक दो टेबलेट ले लेनी चाहिये --- अकसर बहुत से केसों में तो एक भी नहीं और किसी किसी केस में दांत उखड़वाने वाले दिन दो एक टेबलेट की ज़रूरत पड़ सकती है। सामान्यतयः दांत उखड़वाने के बाद मैंने तो अनुभव से यही सीखा है कि महंगे महंगे ऐंटिबॉयोटिक्स का कोई रोल ही नहीं है---बिना वजह अपनी सेहत एवं पेट खराब करने वाली बात है। लेकिन एक बात वही दोहरा देता हूं कि इस के बारे में भी अपने डैंटिस्ट की बात तो माननी ही होगी, बस कहीं पर आप को किसी किस्म की दुविधा हो तो मेरे अनुभवों का भी थोड़ा ध्यान कर लिया करें।

कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे कि यार, मुंह में घाव कैसे भरेगा बिना दवाईयों के -----ऐसा है कि दांत उखड़वाने के बाद मुंह में हुये घाव का अच्छी तरह से भर जाना एक बिलकुल ही प्राकृतिक नियम है। तो यह प्रक्रिया दवाईयां खाने से तेज़ होने वाली है और ही ना खाने से मंद पड़ने वाली है। केवल हमारा कर्त्तव्य इतना सा होता है कि हम ने उस घाव को भरने के लिये एक उत्तम वातावरण देना होता है ----सिगरेट बीड़ी से घाव में भरने में देरी होती है, इसलिये इन से दूर रहें। जिस दिन दांत निकलवाया है उस के अगले दिन से गुनगुने पानी में थोड़ा नमक या फिटकड़ी डाल कर कुल्ला करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जख्म में इक्ट्ठी हुई सारी गंदगी इस से निकलती रहती है। और देखते ही देखते दो-चार दिन में जख्म पूरी तरह से अपने आप भर जाता है।

कुछ लोग हमें यह भी पूछते हैं कि ठीक है खाने की तो कोई दवाई नहीं दे रहे हैं, लेकिन जख्म पर कोई लगाने वाली या कोई कुल्ला करने वाली दवाई तो होगी जो कि दांत निकलवाने से हुये ज़ख्म को भरने में मदद करती होगी। इन मरीज़ों के लिये भी अपना यही जवाब होता है कि इस के लिये इस तरह की किसी भी जख्म पर लगाने वाली दवाई की अथवा कुल्ला करने वाले माउथवाश की बिल्कलु ज़रूरत ही नहीं होती।

मेरे ख्याल में मैंने अपनी बात ठीक से आप प्रबुद्ध लोगों के समक्ष रख दी है ----- पोस्ट लंबी होती दिख रही है इसलिये अपनी उंगलियों को यहीं पर विराम देता हूं ---केवल एक यही बात कह कर कि ब्लड-प्रैशर, हार्ट एवं शूगर के मरीज़ भी दांत उखड़वाने के नाम से इतने भयभीत मत हुआ करें ----इन मरीज़ों से संबंधित इस नाचीज़ के अनुभव कुछ यहां पड़े हैं और कुछ यहां भी पड़े हैं।

शुभकामनायें ------ढ़ेरों शुभकामनायें ----इतना आशीर्वाद कि आप के दांत इतने फिट रहें कि आप को कभी इस उखड़वाने के चक्कर में पड़ना ही न पड़े और अगर कभी दांत-उखड़वाने की ज़रूरत पड़ भी जाये तो डैंटिस्ट का क्लीनिक छोड़ने से पहले कभी उस से यह मत पूछें कि क्या आप कोई ऐंटीबॉयोटिक दवाई नहीं दे रहे हैं, मुझे लगता है ऐसा कोई प्रश्न ना पूछने में ही आप की भलाई छुपी है।

बातें ये सब परदे में ही रखने वाली हैं, लीजिये इसी बात पर मुझे अपने बचपन का मेरा बेहद पसंदीदा गाना ध्यान में आ गया ----शायद तब मैं पहली कक्षा में पढ़ता है ---मुझे उस उम्र के जो दो-तीन फिल्मी गाने याद हैं, यह उन में से एक है। तब यह रेडियो पर खूब बजा करता था। मुझे आज भी यह बहुत अच्छा लगता है। मेरी पोस्ट की सीरियस बातों को भूल जाने के लिये आप भी इसे एक बार तो सुन ही लीजिये।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बच्चों में पहली पक्की जाड़ क्यों इतनी जल्दी खराब हो जाती है ?

हम लोगों को अपने कालेज के दिनों से ही इस बारे में बहुत सचेत किया जाता था कि बच्चों की पहली पक्की जाड़ ( First permanent molar) को टूटने से कैसे भी बचा लिया करें। अकसर अपनी ओपीडी में बहुत से बच्चे दांतों की तरह तरह की बीमारी से ग्रस्त देखता हूं। लेकिन मुझे सब से ज़्यादा दुःख तब होता है जब मैं किसी ऐसे बच्चे को देखता हूं जिस की पहली पक्की जाड़े इतनी खराब हो चुकी होती हैं कि उन का उखाड़ने के इलावा कुछ नहीं हो सकता।

इस तस्वीर में भी आप देख रहे हैं कि इस 15 साल के बच्चे के बाकी सारे दांत तो लगभग दुरूस्त ही हैं लेकिन इस की नीचे वाली पहली पक्की जाड़ पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी है जिस का निकलवाने के इलावा कुछ भी नहीं हो सकता। आप इस फोटो में यह भी देख रहे हैं कि इस की बाईं जाड़ में भी दंत-क्षय (dental caries) की शुरूआत हो चुकी है।

क्यों हो जाते हैं बच्चे के स्थायी दांत इतनी जल्दी खराब इस का कारण यह है कि बच्चों में ये स्थायी पहली पक्की जाड़ें ( First permament molar –total four in number, one in each oral quadrant) जिन की संख्या कुल चार ---ऊपर एवं नीचे के जबड़े के दोनों तरफ़ एक एक जाड़ होती है—यह जाड़ बच्चों में मुंह में लगभग छः साल की उम्र में आ जाती हैं।

क्योंकि इस छः साल की अवस्था तक बच्चे के मुंह में ज़्यादातर दांत एवं जाड़ें दूध (अस्थायी) की होती हैं --- इसलिये अकसर बच्चों की तो छोड़िये अभिभावक भी इस जाड़ को इतनी गंभीरता से लेते नहीं हैं ----वास्तव में उन्हें यह पता ही नहीं होता कि बच्चे के मुंह में पहली पक्की जाड़ आ चुकी है।

तो ऐसे में अकसर बच्चे के मुंह में यह जाड़ दूसरे अन्य दंत-क्षय़ दांतों के साथ पड़ी रहती है --- और जिन कारणों से दूध के दांत बच्चे के खराब हुये वही कारण अभी भी बच्चे के लिये मौजूद तो हैं ही –इसलिये अकसर बहुत बार इस पक्की जाड़ को भी दंत-क्षय लग जाता है जिसे आम भाषा में कह देते हैं कि दांत में कीड़ा लग गया है। वैसे तो मां-बाप को इस पक्की जाड़ के मुंह में आने के बारे में पता ही नहीं होता इसलिये जब बच्चे के मुंह में काले दाग-धब्बे से देखते हैं या बच्चा इस जाड़ में कैविटी ( सुराख) होने के कारण खाना फंसने की बात करता है तो इस तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया ----और यही सोच लिया जाता है कि अभी तो तेरे दूध के दांत हैं, ये तो गिरने ही हैं, और इस के बाद पक्के दांत जब आयेंगे तो दांतों का पूरा ध्यान रखा करो, वरना आने वाले पक्के दांत भी ऐसे ही हो जायेंगे। बस, ऐसा कह कर छुट्टी कर ली जाती है।

एक बहुत ही विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि दंत-क्षय एक बार जिस दांत या जाड़ में हो जाता है वह तब तक उस दांत में आगे बढ़ता ही जाता है जब तक या तो किसी दंत-चिकित्सक के पास जा कर उचित इलाज नहीं करवा लिया जाता ---वरना इस दंत-क्षय की विनाश लीला उस दांत या जाड़ की नस तक पहुंच कर उस को पूरी तरह से नष्ट कर देती है। अब इस अवस्था में या तो उस पक्की जाड़ का लंबा-चौड़ा रूट कनाल ट्रीटमैंट का इलाज किया जाये जो कि अधिकांश अभिभावक विभिन्न कारणों की वजह से करवा ही नहीं पाते ------और कुछ ही समय में इस दंत-क्षय की वजह से उस पहली पक्की जाड़ का हाल कुछ ऐसा हो जाता है जैसा कि आप इस बच्चे की मुंह की फोटो में देख रहे हैं ---यह बच्चा मेरे पास कल आया था ----इसे निकालने के इलावा कोई रास्ता रह ही नहीं जाता।
अगर आप ध्यान से इस तस्वीर की दूसरी तरफ़ भी देखें तो आप नोटिस करेंगे कि दूसरी तरफ़ की पहली जाड़ में भी दंत-क्षय जैसा कुछ लग चुका है ---इसलिये उस का भी उचित होना चाहिये ताकि वह पहली जाड़ भी दूसरी तरफ़ वाली पहली जाड़ की तरह अज्ञानता की बलि न चढ़ जाये।

वैसे , बच्चों को दांत दंत-क्षय से मुक्त रखने के लिये इतना करना होगा कि किसी भी अच्छी कंपनी की फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट से रोज़ाना दो बार –सुबह एवं रात को सोने से पहले – दांत तो साफ़ करने ही होते हैं और जुबान साफ़ करने वाली पत्ती से ( tongue-cleaner)नित-प्रतिदिन जिव्हा को साफ़ किया जाना बहुत ही , अत्यंत ज़रूरी है । और एक बार और भी बहुत ही अहम् यह है कि हर छः महीने के बाद सभी बच्चों का किसी प्रशिक्षित दंत-चिकिस्तक द्वारा निरीक्षण किया जाना नितांत आवश्यक है।

दंत चिकिस्तक को नियमित दांत चैक करवाने से ही पता चल सकता है कि कौन से दांतों में थोड़ी बहुत खराब शुरू हो रही है ----और फिर तुरंत उस का जब इलाज कर दिया जाता है तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता है -----वरना अगर आठ-दस की उम्र में ही पक्के दांत एवं जाड़े ( permanent teeth) उखड़नी शुरू हो जायेंगी तो बच्चा तो थोड़ा बहुत सारी उम्र के लिये दांतों के हिसाब से अपंग ही हो गया ना ----- ध्यान रहे कि हमारे मुंह में मौजूद एक एक मोती अनमोल है लेकिन यह पक्की पक्की जाड़ तो कोहेनूर से भी ज़्यादा कीमती है क्योंकि हमारे मुंह की बनावट में, मुंह में इस के द्वारा किये जाने वाले काम हैं ही इतने ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कि अन्य दांतों के साथ साथ इस की भी पूरी संभाल की जानी चाहिये।

एक बात का ध्यान और आ रहा है कि बच्चों के दांत एवं जाड़ें आप जब देखें तो इस तरह का अनुमान स्वयं न ही लगायें कि यह तो दूध की लगती है या यह पक्की लगती है ----अभिभावकों द्वारा लगाये ये अनुमान अकसर गलत ही होते हैं ----इसे केवल एक प्रशिक्षित दंत-चिकिस्तक ही बता सकता है कि कौन से दांत गिरने हैं और कौन से पक्के वाले हैं----इसलिये उस की शरण में चले जाने में ही बेहतरी है, आप के बच्चे की भलाई है।