बुधवार, 6 अगस्त 2008

डाक्टर के मन में क्या क्या चल रहा होता है ?

मैं सर्विस कर रहा हूं ...रोज़ाना 35-40 मरीज़ दांतों के एवं मुंह की तकलीफ़ों के देखता हूं। हर मरीज को देखते हुये कुछ न कुछ मन में चल रहा होता है जिसे आज पहली बार ओपनली शेयर करने की इच्छा सी हो रही है। एक बार आज विचार आया कि चलो यह सब कुछ पोस्ट में ही डाल देता हूं...शायद आप को भी मुझ जैसे डाक्टरों के मन में झांकने का एक मौका मिल जाये।

चलिये शुरू से ही शुरू करता हूं ....दोस्तो, अभी मुझे दंत-चिकित्सक बने हुये कुछ अरसा ही हुआ था तो मुझे दांतों के ट्रीटमैंट का खोखलापन समझ में आने लगा था ( मेरा कहने का मतलब यही है कि दांतों की बीमारियों से बचाव तो इलाज से कईं गुणा कारगर है। .....इस की डिटेलड चर्चा फिर कभी करूंगा।) पहले तो यह बताना चाहता हूं कि कुछ हालात ऐसे थे, बनते गये कि मैं शुरू से ही सरकारी नौकरी में ही रहा हूं। बहुत बार मित्रों की तरफ़ से प्रैशर था कि क्या यार, तुम भी, अपना बढ़िया सा क्लीनिक खोलो और फिर देखो। लेकिन मैंने भी इस बारे में किसी की न सुनी.....क्योंकि मुझे सामाजिक विसंगतियां अपने फील्ड में भी दिखने लगीं। ज़ाहिर है इस के बारे में मैं क्या कर सकता था, इसलिये बस एक मूक दर्शक की भांति देखता रहा ...सब कुछ सुनता रहा।

यही देखा करता था कि नाना प्रकार के कारणों की वजह से अधिकांश लोगों के लिये तो यार दांत के दर्द से निजात पाने का केवल एक ही उपाय था कि चलो, दांत निकलवा कर छुट्टी करो। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ लोग एक दांत सड़ जाने पर उस पर हज़ारों ( जी हां, हज़ारों !!) रूपये खर्च कर के भी उसे बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन मेरी नज़र में इस तरह के लोगों की गिनती बेहद कम रही...मेरा पूरा विश्वास है कि आज भी इस तरह के लोगों की गिनती आटे में नमक के ही बराबर है.....इस के बहुत से कारण हैं जिस का उल्लेख किसी दूसरी पोस्ट में करूंगा।

बहुत बार देखा कि हम सरकारी हस्पताल में काम करने वाले डैंटिस्टों की तो पीठ शाम को दोहरी हुई होती है और हमें अपने कुछ प्राइवेट प्रैक्टीशनर बंधु शाम को भी बड़े फ्रैश दिखते हें( हां, बहुत से दोस्त ऐसे भी हैं जो हम से कईं गुणा ज़्यादा मेहनत करते हैं )......अकसर सुनते हैं कि बाहर प्राइवेट प्रैक्टिस में तो ढंग के तीन-चार मरीज़ ही आ जायें तो समझो उस दिन का कोटा पूरा हो गया।

जब हम लोग हाउस-जाब कर रहे थे तो हमारे साथ काम करने वाली कुछ लड़कियां अकसर यह कमैंट बहुत मारा करती थीं कि आज तो इतने गंदे-गंदे मरीज़ आये कि बता नहीं सकती । गंदे से उनका मतलब होता था जिन के मुंह की हाइजिन बेहद खस्ता हालत में होती थी और मुंह से बदबू बहुत आया करती थी। मुझे पर्सनली यह सब सुन कर बेहद बुरा लगता था.....लेकिन मैंने खुले तौर पर उन के सामने कभी भी अपनी आपत्ति दर्ज नहीं की। मैं यही सोचा करता था कि यार, सरकारी कालेज में 550रूपये की सालाना फीस लेकर अगर सरकार ने हम लोगों को किसी काबिल किया है और वह भी इन "गंदे-गंदे" मरीज़ों के दिये हुये टैक्स से जमा हुये पैसे को खर्च कर के .....तो क्या हम अब इन का दामन कैसे छोड़ दें........अब जैसे भी हैं, हमें ही तो इन्हें ठीक-ठाक करना है, हमें डाक्टर बनाने में इन का भी पूरा योगदान है और अब जब हम लोगों की तरफ़ ये बहुत उम्मीद से देख रहे हैं तो हम इन्हें कहें कि हम तो भई किसी एनआरआई लड़की से शादी करवा के बाहर जा रहे हैं। मैंने ग्रेजुएशन 25 साल पहले किया था .....तब यह रिवाज बहुत था। मेरे भी बहुत से बैच-मेट्स इसी तरह से उन्हीं दिनों बाहर निकल गये थे। ( ऑफर तो मुझे भी थे और वह भी हाउस-जाब करते ही, लेकिन कभी मन ने हामी नहीं भरी ) ।

बात कहां से कहां निकल गई......हां, तो मैं कहता हूं कि जब भी मैं किसी भी मरीज को देखता हूं तो झट से पता तो लग ही जाता है कि इस की तकलीफ़ का प्रोगनोसिस ( इस का रिजल्ट क्या निकलने वाला है ) क्या है !

आप मेरी दांतों की बीमारियों से संबंधित पोस्टों को कभी फुर्सत में देखेंगे तो पायेंगे कि मैं अपने आप ही मरीज़ों द्वारा दांतों पर ठंडा-गर्म लगने के लिये बाज़ार से खरीद कर इस्तेमाल करने का घोर विरोधी हूं।

लेकिन पता नहीं पच्चीस साल बाद आज मेरे मन में यह विचार आया है कि यार, तुम ने तो कह दिया कि यह गलत है , वह गलत है......लेकिन कभी इन मरीज़ों की भी तो सोच कि अगर ये इस तरह की दवाई-युक्त पेस्टें भी न खरीदें तो ये आखिर करें क्या, ये करें तो क्या करें ??

मैंने अपने मन से कईं प्रश्न पूछ डाले......
क्या तेरे को लगता है कि यह अपने मसूड़ों का पूरा इलाज जिस में हज़ारों रूपये खर्च होंगे, एक मसूड़ों का विशेषज्ञ डाक्टर चाहिये.....कम से कम 10-15 बार उस विशेषज्ञ के चक्कर काटने के लिये क्या यह मरीज़ तैयार है ?
क्या इस मरीज़ की इस तरह की हैसियत है कि यह इस तरह का इलाज करवा सके ?
क्या यह तुम्हारे कहने मात्र से ही तंबाकू, गुटखा, पान-मसाला छोड़ देगा ?
...........
............
ये डाट्स मैंने इस लिये डाल के छुट्टी की है कि यह चर्चा अपने आप में बहुत लंबी चल निकलेगी क्यों कि मुझे इन सभी बातों का जवाब न ही में मिलता है।

और बात सही भी है कि जब तक मरीज़ अकसर ( बहुत ही ज़्यादा बार ) हम तक पहुंचता है उस के दांत एवं मसूड़े बहुत ही बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके होते हैं......और हम चाह कर भी बहुत बार विभिन्न कारणों की वजह से उन्हें बचा पाने के लिये कुछ कर नहीं पाते हैं।

समस्या यह भी तो है ना कि हमारे यहां लोगों में बीमारी से बचने का कोई बढ़िया ढंग तो है नहीं....बस दांत दुखा तो दवा ले ली और बार बार दुखा तो उखड़वा दिया । तंबाकू, पान, गुटखा खूब खाया जा रहा है। इतनी विकट समस्या है कि मैं ही जानता हूं कि जब कोई भी मरीज सामने होता है तो हमें उस की हालत पर कितनी करूणा आ रही होती है क्योंकि हमें पता है कि कुछ भी हो, अब इस के दांत कुछ ही समय के मेहमान हैं.........लेकिन मरीज़ समझते हैं कि उन्हें तो कोई तकलीफ़ नहीं है, बस मसूड़ों से खून-पीप निकलती थी...लेकिन जब से ब्रुश करना छोड़ा है, वह भी बंद है.......बहुत से मरीज़ों की सोच यही है।

लेकिन फिर भी इन मरीज़ों में भी हमारी कोशिश यही होती है कि किसी भी तरह से अगर ये हमारी बातें मान लें तो इन के दांतों की आयु बढ़ सकती है , पायरिया रोग को फैलना किसी तरह से बंद हो जाये, मुंह से आने वाली बदबू जिस की यह बार-बार शिकायत करता रहता है, उस का किसी तरह से निवारण हो जाए।

एक बात ध्यान में आ रही है कि मैं Yahoo! Answers पर लोगों के दांतो के रोगों से संबंधित प्रश्नों का जवाब देता हूं और मुझे लगता है कि दांतों की समस्या निश्चित रूप से ही बहुत विकट है। अपने यहां तो लोग अकसर विभिन्न कारणों की वजह से क्वालीफाइड डैंटिस्ट के पास न जाकर, ऐसे ही किसी भी झोला-छाप के हत्थे चढ़ जाते हैं, लेकिन विकसित देशों में लोगों की परेशानियां कुछ अलग ढंग की हैं.....वे अपने डैंटिस्ट से बात करते इस कद्र डरते हैं कि जैसे वह कुछ हौवा हो.....पता नहीं उधर का सिस्टम ही कुछ ऐसा होगा। अगर मेरी बात का यकीन न हो तो मेरे से पूछे गये सवाल और मेरे द्वारा दिये गये जवाब इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजियेगा। यहां पर क्लिक करें।

और हां, बात इतनी लंबी हो गई है कि अब विराम लेता हूं......लेकिन डाक्टर के मन में क्या क्या चल रहा होता है.....इस की अगली कड़ी शीघ्र ही लेकर आप के सामने हाज़िर होता हूं।

तब तक इतना ही कहना चाहूंगा कि दांतों की पूरा देखभाल किया करो, दोस्तो, रात को सोने से पहले भी ब्रुश कर लिया करो और रोज़ाना जुबान को टंग-कलीनर से ज़रूर साफ कर लिया करो. और डैंटिस्ट के पास हर छःमहीने में जाकर अपने दांतों का चैक-अप ज़रूर करवा लिया करो, दोस्तो...........because they say
......a stitch in time saves nine !!
Please take care !!

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

डाक्टर क्या करें?...मरीज अपनी जगह सच्चे हैं, वे क्या करें ?

आज मेरे पास एक अधेड़ महिला आई...दांतों का इलाज करवाने के बाद कहने लगी कि मेरे शरीर में बेहद खारिश रहती है..उस के लिये भी मुझे दो-टीके लिख दो...मैंने कहा कि यह तो मेरा फील्ड नहीं है। आप किसी चमड़ी रोग विशेषज्ञ से मिलें.....कहने लगी कि पिछले 15 वर्षों से जगह जगह धक्के खा चुकी हूं। बस, ऐसे ही चल रहा है। कहने लगी कि कुछ समय देसी दवाई की पुड़ियां भी खूब खाई हैं, लेकिन बाद में पता चला कि वह नीम-हकीम तो स्टीरायड्ज़ ही पीस-पीस कर लोगों को खिलाता रहा...जिस की वजह से शरीर फूल गया है। फिर कहने लगी कि उस के बाद मैंने होम्योपैथिक दवाई भी ली, लेकिन मेरी तकलीफ़ दूर नहीं हुई। पीजीआई तक के चमड़ी-रोग विभाग के डाक्टरों को दिखा के आ चुकी हूं। बेहद निराश सी थी।

मैंने उस को इतना ज़रूर समझाना चाहा कि जितने भी इलाज आप ने मेरे को बताये हैं, उन में से जब तक आप चमड़ी-रोग के माहिर डाक्टर की देख-रेख में इलाज करवाती रहीं...वही श्रेष्ट था। मैंने कहा कि मैं भी अगर आप को खारिश बंद करने का कोई टीका लिख भी दूंगा या कोई ट्यूब का नाम लिख कर दे भी दूंगा तो मैं आप का कोई इलाज-विलाज नहीं कर रहा हूं.....बस, आप को कुछ दिनों के लिये कुछ राहत दे रहा हूं ....लेकिन हो सकता है कि उस ट्यूब से आप का रोग दब तो जाये लेकिन कुछ अरसे बाद वह रोग और भी उग्र रूप में सामने आ जाये।
मैंने उसे यह भी बताया कि यह तो आप जान ही गई होंगी कि कुछ चमड़ी-रोगों का ठीक होना इतना आसान भी नहीं होता, ऐसे में अगर आप किसी विशेषज्ञ से सलाह लेकर दवाई या परहेज करती रहेंगी तो कम से कम बीमारी के अंधाधुध फैलने के चांस तो कम होंगे या बिना-वजह ऐसे ही तरह-तरह की दवाईयां खाने या लगाने से जो बुरे प्रभाव शरीर पर होंगे, उन से तो बचे रहेंगे।

सोच रहा हूं कि उस महिला के मन में तो मैंने दो बातें डालने की कोशिश की, लेकिन पता नहीं कितना असर हुआ होगा। लेकिन आजकल मुझे यह ध्यान आने लगा है कि इस तरह से सारा दिन बोलते रहना ही हम जैसे डाक्टरों का कर्म है.....मरीज के ऊपर होने वाले असर रूपी फल का विचार छोड़ दें, क्या ऐसा संभव है ?

मैं और मेरी डाक्टर पत्नी अकसर यह डिस्कशन कर के बहुत फ्रस्टरेटेड होते हैं कि यार, क्या आज कल क्या हो गया है ......मरीज़ों को क्या हो गया है, हमें क्या हो गया है, दवाईयों को क्या हो गया है, ओवर-ऑल सारा सिस्टम ही ऊपर-नीचे हो गया लगता है।

अस्पताल में आम साधारण बीमारियों के मरीज़ों की लंबी लंबी लाइनें लगी होती हैं.....मैं अनेकों बार कहता हूं कि ये छोटी मोटे खांसी-जुकाम के लिये हम लोग मुलैठी चूसने वाले हैं, गरारे करने वाले हैं, शहद-नींबू लेते हैं और शायद ही कोई डाक्टर होगा जो इन छोटे मोटे रोगों के लिये इतने ऐँटीबॉयोटिक वगैरा लेता होगा.......लेकिन.......अब क्या लिखूं ?

8-10 साल के बच्चे आते हैं .....इतने कमज़ोर से....आंखें अंदर धंसी हुईं......मां-बाप ने तीन टॉनिकों की शीशीयां पकड़ी होती हैं कि ये खिलाने के बावजूद भी यह बढ़ नहीं रहा.......बार बार कहना पड़ता है कि बंद करो इस का सारा जंक-फूड् और इसी टॉनिक की शीशीयों की बजाये दाल-रोटी-सब्जी खिलाना शुरू करो।

कुछ दिन पहले मैं एक इंजैक्शन को देख रहा था, जो कि एंकाईलोज़िंग-स्पांडीलाइटिस के एक मरीज़ को लगना था, उस की कीमत देख कर मैं दंग रह गया.....उस की कीमत 42000रूपये( ब्यालीस हज़ार रूपये) थी.....और ऐसे कईं इंजैक्शन इस तरह के मरीज़ों को लगाने पड़ते हैं। मैं सोच रहा था कि ठीक है, हमारा विभाग अपने कर्मचारियों एवं उन के परिवारजनों को इस तरह की सुविधा उपलब्ध करवाता है, लेकिन बाहर, प्राइवेट ज़्यादातर लोग इस तरह का इलाज कहां करवा पाते होंगे !!

समस्या बहुत विषम है.....इलाज इतना महंगा है कि ज़्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है। समस्या इस लिये भी विकट है कि बहुत से लोग तो उपर्युक्त डाक्टर तक पहुंच ही नहीं पाते और अगर पहुंच भी जाते हैं तो इलाज करवाना इतना महंगा है कि पूरा करवा ही नहीं पाते !!

लिखते लिखते लगने लगा है कि इस विषय पर तो मेरे पास ऐसे ऐसे अनुभव हैं कि मैं एक अच्छी खासी किताब लिख सकता हूं। वही बात है कि डाक्टर आखिर क्या करें ?...और मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं कि वे क्या करें ?
बाकी अनुभव फिर कभी बांट लेंगे लेकिन अपने इतने लंबे अनुभव का निचोड़ कुछ ही पंक्तियों में रखना चाह रहा हूं.......ज़्यादातर बीमारियों ( 80फीसदी से भी ज़्यादा) का संबंध हमारी जीवन-शैली से है। हमें अपना खान-पीन ठीक ठाक रखना चाहिये, सभी तरह के व्यसनों से दूर रहना चाहिये, शारीरिक कसरत नियमित करनी चाहिये और प्रतिदिन प्राणायाम् करना चाहिये।

पता नहीं ऐसा लिख के मैं ठीक कर रहा हूं कि नहीं, लेकिन आज लिख ही देता हूं कि मेरे लिये तो डाक्टरी पेशा एक बहुत ज़्यादा फ्रस्टरेटिंग एक्सपीरियंस है.....क्या यार, ज़्यादातर बीमारियों क्रॉनिक होती हैं....उस में हमारी दवाईयों ने केवल बीमारी के लक्षणों को दबाना मात्र होता है, मैंने तो यही देखा है कि कोई कुछ भी दावा कर ले जब तक लाइफ-स्टाइल में बदलाव नहीं किया जाता, कुछ भी....बिलकुल कुछ भी ...होना संभव ही नहीं है (इस से संबंधित मेरी एक पोस्ट के लिये यहां क्लिक कीजिये)

अकसर सोचता हूं कि कोई मरीज अगर गुर्दे फेल होने से या लिवर फेल होने से ऑफ हो गया.....तो हम ने उसे उस हालत तक पहुंचने से रोकने के लिये क्या किया ....हम ने उन बीमारियों से बचाव के उपायों को कितनी हद तक इस्तेमाल किया। हां, वो बात दूसरी है कि इन क्रॉनिक रोगों में तो मरीज़ का भी काफी रोल रहता ही है, लेकिन वही बात है कि उस को जागरूक करने का काम क्या सारे समाज का नहीं है ?

पता नहीं, मैंने इस में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है.....लेकिन कुछ तो हल्का महसूस कर रहा हूं। मैं तो अपने अटैंडैंट से मज़ाक कर रहा था कि यार, हम लोग रिटायर हो कर किसी बड़े से हस्पताल के बारे एक तंबू गाड़ कर डेरा जमा लेंगे.....धूनी रमायेंगे, हस्पताल से बाहर आ रहे निराश लोगों को खूब सारे आशीर्वाद दिया करेंगे....... और उन्हें बीमारियों के बारे में जागरूक किया करेंगे.....तंबाकू, दारू उन का छुड़वाया करेंगे।

इतना सब कुछ लिखने के बावजूद यही कहना चाह रहा हूं कि एक्अूट बीमारियों के लिये तो चलो आज की आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ठीक है, डायग्नोस्टिक टैस्ट बहुत उम्दा चल पड़े हैं.......लेकिन पुरानी बीमारियों के समाधान के लिये और अपनी इम्यूनिटी को परफैक्ट रखने के लिये तो बाबा रामदेव की शरण में जाना ही होगा। इसीलिये मैं सोच रहा हूं कि बाबा को तो मैडीकल फील्ड का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिेये जिस ने योग क्रिया एवं प्राणायाम् को इतना लोकप्रिय बना दिया कि बाबा के नाम का डंका पश्चिमी देशों में भी बजने लगा है।

रविवार, 3 अगस्त 2008

वजन कम करने का सुनहरी फार्मूला !!

अकसर हम लोग खूब पढ़ते रहते हैं कि वजन कम ऐसे होगा, वैसे होगा.....लेकिन कईं बार कुछ ऐसा दिख जाता हैकि हम लोग इस बारे में सोचने पर मजबूर हो ही जाते हैं जैसा कि मेरे साथ पिछले सप्ताह हुआ....मैंने इंगलिश के अखबार में एक कैप्सूल पढ़ा.......

वजन कम करने का सुनहरी फार्मूला क्या है ?
उस के आगे लिखा था कि कम खाओ। प्रतिदिन 500 कैलेरी कम का सेवन करें और हर हफ्ते एक पौंड वजन कमहो जायेगा। और अगर इस के साथ साथ खूब शारीरिक परिश्रम भी करेंगे तो वजन कम होने की यह प्रक्रिया और भी तेज़ हो जायेगी।


बात मेरे भी मेरे मन में लग गई। सोचा कि क्या किया जाए। वैसे किसी नॉन-मैडीकल बंदे से इस बात का ज़िक्र किया जाये तो शायद वह यही कहेगा कि कल से नाश्ता बंद या लंच बंद, या कल से फल बिल्कुल बंद...या कल से चावल बंद ....ऐसे कईं ही विचार किसी के भी मन में आने लगेंगे कि किसी तरह से ये 500 कैलेरी रोजाना कम करनी हैं।

लेकिन यह बात बिलकुल गलत है कि बिना सोचे समझे नाश्ता बंद कर दिया ....लंच बंद कर दिया......हमें सभी आहार करने हैं लेकिन फिर भी अपनी कैलेरी को कम करना है। और विशेषकर यह ध्यान रखना तो और भी ज़रूरी है कि कैलेरी कम करनी है, ठीक है लेकिन आहार तो फिर भी संतुलित ही रहना चाहिये....ऐसा नहीं होगा तो शरीर में तरह तरह की तकलीफ़ें होने लगेंगी। और फायदे की बजाए नुकसान होने की ज़्यादा आशंका है।

अब आप सोच रहे होंगे कि नाश्ता भी लेना बंद नहीं करना, लंच भी खाना है, फल भी खाने हैं तो फिर ये 500 कैलेरी कैसे कम होंगी। तो, ठीक है, मैं अपनी उदाहरण दे कर यह बाद स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं आज कल धीरे धीरे प्रतिदिन 500 कैलेरी कम करने की तरफ़ कैसे बढ़ रहा हूं....

1. मैं बहुत मीठी चाय पीने का शौकीन हूं.....मतलब कि पांच-छः चीनी के चम्मचों का ज़्यादा सेवन ....अर्थात् लगभग तीस ग्राम चीनी ज़्यादा.....यानि कि लगभग 125 कैलेरी का ज़्यादा सेवन......तो मैंने पिछले कुछ दिनों से चाय में चीनी का सेवन बिलकुल कम करना शुरू कर दिया है। और कुछ सही, 100 कैलेरी की तो बचत हो गई।दही में भी चीनी बिलकुल डालनी बंद कर दी है और मीठी लस्सी भी बंद कर दी है।

2.वैसे तो आज सुबह ही दो जंबो साइज़ के आलू के परांठे खाये हैं और वैसे भी रोज़ाना दो परांठे नाश्ते में लेता हूं। पता नहीं पिछले कईं वर्षों से ये परांठे छोड़ रखे थे लेकिन फिर से शुरू कर रखे हैं अर्थात् लगभग बीस ग्राम घी का सेवन इन परांठों की वजह से हो ही जाता है.......तो लगभग 200 कैलेरी तो इन्हीं परांठों के द्वारा ही शरीर में पहुंच गईं। तो अबयह फैसला किया है कि आने वाले दो-तीन दिनों में परांठों को भी पूरी तरह बंद कर दूंगा।
अगर मैं यह भी कर पाऊं तो कुल 300 कैलेरी एक्स्ट्रा प्रतिदिन लेने से बच जाऊंगा।

3. आगे आइए....आप के सामने एक और राज़ खोल ही दूं कि किस तरह आदमी अपनी आदतों के हाथों का खिलौना होता है।
पिछले कुछ सालों से मैंने दाल में घी या मक्खन के एक-दो चम्मच उंडेलने बंद किये हुये थे लेकिन पिछले कुछ महीनों से फिर यह काम करने लगा था जो कि पिछले कुछ दिनों से बंद पड़ा है। यानि की लगभग 50-100 कैलेरीकी और बचत।

4. बचपन से ही एक आदत है कि लगभाग रोज़ाना( डाक्टर, तू तो यार खुदकुशी की पूरी तैयारी कर रहा है !!) चावल में दूध-चीनी या घी-चीनी डाल कर खाना( वैसे बचपन में तो चीनीके परांठे भी खूब खाये हैं) .....अब अगर मेरी उम्र में यह सब चलता रहेगा तो कैसे चलेगा......यह तो वही बात हो गई कि आदमी अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी मारता रहे। अब अगर दूध-चीनी-चावल या घी-चीनी-चावल रोजाना खाये जा रहे हैं तो लगभग 100-150 कैलेरी तो शरीर के अंदर जा ही रहे हैं। तो, अब मैंने कईं दिनों से यह वाली आदतभी छोड़ दी है क्योंकि ज़्यादा वज़न के बुरे परिणाम रोज़ाना देख कर, सुन कर, पढ़ कर डरने लगा हूं।

मैंने अपने खाने पीने की बातें यहां इस लिये लिखी हैं कि मैं एक बात को रेखांकित कर सकूं कि हमें कम खाने के लिये अपना खाना कम करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन यूं ही ऊल-जलूल खाने से बचना होगा जैसे कि बच्चे के हाथ में बिस्कुट देखे तो खुद भी दो-तीन खा लिये....आधी कटोरी भुजिया ऐसे ही ज़रूरत होते हुये भी निगल डाली......ये कैलेरीज़ हमें देती तो कुछ भी नहीं, केवल गलत जगहों पर जा कर जम जाती हैं।

वैसे आप भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि यार, डाक्टर तू अपनी पोस्टों में प्रवचन तो अच्छे-खासे करता है लेकिन तेरा खुद का खाना-पीना इस तरह का है या रहा है, यह पढ़ कर बहुत हैरानगी हो रही है। ठीक है, आप का हैरान होना मुनासिब है, लेकिन मेरी मजबूरी यह है कि मैं आपसे झूठ नहीं बोल सकता...जब तक मैं पूरी सच्चाई आप के सामने रखूंगा तो मैं अपनी बात ठीक तरह से कह ही नहीं पाऊंगा।

और हां, यह भी बताना चाह रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से रोज़ाना 30-40 मिनट का भ्रमण करना भी शूरू करदिया है। लेकिन बस एक ही मुश्किल है कि इन आमों के ऊपर कंट्रोल नहीं हो रहा.......रोज़ाना दो-तीन आम तो खा ही लेता हूं......क्या करूं ये आम मेरी कमज़ोरी हैं। लेकिन, एक सुकून है कि चलिये अब तो आम खत्म होने का टाइम आने को है। अगले सीज़न से एहतियात बरतूंगा।

तो, इतनी बातें करने का मतलब तो बिलकुल साफ़ ही है कि हम अपने आहार में छोटे मोटे बदलाव कर के भीअपनी कैलेरी की खपत को अच्छा-खासा कम कर सकते हैं। आप किस सोच में पड़ गये ??....मेरे साथ साथ आप भी तो कुछ बदलाव करिये, साथ रहेगा तो बदलाव निभ जायेंगे, मैं आप के resolutions की इंतज़ार कर रहा हूं।

एटीएम - एनी-टाईम-मगजमारी !!

क्या यार, ये एटीएम हैं या एनी-टाईम-मगजमारी......ये भी हमें अकसर बहुत ही नाज़ुक समय में धोखा दे जाते हैं। इस लिये मुझे तो ये मगजमारी के केन्द्र ज़्यादा लगने लगे हैं।

इन मगजमारी केन्द्रों पर जा कर मुझे तो अकसर निराशा ही हाथ लगती है। शायद 10 फीसदी मौकों पर ही मैं इन के थ्रू पैसा निकालने में सफल होता हूं।

एक बार जब मैं बार एक ऐसे ही एटीएम( मगजमारी केन्द्र) पर चक्कर लगा लगा कर परेशान हो गया तो मैंने मैनेजर से मिल कर इन मशीनों के डाउन-टाईम के किसी लॉग के बारे में जानना चाहा। मैं यह जानना चाह रहा था कि एक महीने के दौरान यह जो आपकी एटीएम मशीन किन्हीं भी कारणों की वजह से खराब रहती है, क्या इस का कोई रिकार्ड मेनटेन किया जाता है क्या ...( लॉग-बुक) , तो उस ने भी मुझे अच्छा खासा टरका दिया कि हां, हां, यह सारा रिकार्ड तो हैड-आफिस में रखा ही होता है। मैं सारा माजरा समझ गया।

अभी लिखते लिखते एक बात ध्यान में और भी आ रही है कि यार, आप सब हिंदी ब्लोगिंग करने वाले ज़्यादा मुश्किल हिंदी मत लिखा करें। सीधी-सादी बोल चाल वाली भाषा लिखा करें.....कईं बार जब किसी मुश्किल शब्द से भिड़ना पड़ता है तो बाकी की पोस्ट पढ़ने में ही कंटाला आता है। मैं समझता हूं कि हम लोगों का काम है हिंदी को बढ़ावा देना.....ज़्यादा संभ्रांत हिंदी लिख कर हम कौन सा हिंदी को पिछले 60 वर्षों में आगे बढ़ा पाये हैं....हमें आम आदमी की, अनपढ़ आदमी वाली हिंदी लिखनी होगी जिसे रिक्शे वाला भी समझे , कुली भी समझे और पनवाड़ी भी समझ ले। मुझे खुद हिंदी के बड़े बड़े शब्द देख कर बहुत डर लगता है। खास कर जिन टैक्नीकल शब्दों के नाम हिंदी में बहुत मुश्किल हैं, उन्हें तो देवनागरी लिपि में ही लिख के छुट्टी करनी चाहिये। शायद मैं कहीं हिंगलिश की बात तो नहीं कर रहा......अगर हमारी भाषा आम आदमी की होगी तो उसे भी लिखने की प्रेरणा मिलेगी।

हां, तो उस एनी टाईम मगजमारी मशीनों की बात चल रही थी। मेरा तो भई इन के साथ अनुभव बेहद बेकार रहा है....लोगों के अनुभवों की भी दासतानें सुनता रहता हूं लेकिन अभी तो अपनी ही बात करूंगा।

हां, तो मैंने भी शौक शौक में शायद एक बिलकुल बेहूदा से स्टेट्स-सिंबल के रूप में दो-तीन बैंकों के एटीएम ले रखे हैं जिन में से एक तो पिछले एक महीने से गुम है.....इसी उम्मीद से रिपोर्ट नहीं लिखवाई कि इस कमबख्त को दोबारा बनवाना भी अच्छा खासा मुश्किल काम है....शायद कहीं पड़ा मिल ही जाए।

आज सुबह मुझे कुछ पैसे ज़रूरी चाहिये थे। घर के पास एक एटीएम पर गया.....दो तीन बार ट्राय किया....बार बार यही आया कि transaction declined..... ! कईं बार मेरे जैसे बंदे को यह भी वहम हो जाता है कि कहीं मेरे एटीएम से बाहर निकलने पर ही यह मशीन नोट न उगल दे। खैर, जब मेरे पीछे जैंटलमेन ने भी यह बताया कि पैसे नहीं निकल रहे तो तसल्ली हुई कि ठीक है, इस मशीन में पिछले सैंकड़ों मौकों की तरह इस बार भी धोखा दे दिया।

बरसात में भीगते हुये मैं उसी बैंक के एक दूसरे एटीएम जो कि चार-पांच किलोमीटर दूर था वहां पहुंच गया, लेकिन वहां पर भी निराशा ही हाथ लगी।

मैंने सोचा चलो स्कूटर पर चलते चलते भीग तो चुका ही हूं अब तीसरा एटीएम भी ट्राई कर लिया जाये ..जो कि वहां से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर था। लेकिन वहां पर भी कुछ हाथ नहीं लगा।

ये एटीएम के सालाना हम से कुछ पैसे लिये जाते हैं...तो क्या ये consumer protection act के दायरे में नहीं आते ?....मुझे लगता तो है कि ये ज़रूर आते होंगे....आदमी को पैसों की ज़रूरत है, लेकिन उसे ठीक मौके पर एटीएम से पैसे नहीं मिलते तो क्या यह सर्विसिज़ की कमी नहीं है ? ....मुझे लगता तो है कि यह कमी है लेकिन अब अकेला आदमी कहां कहां मगजमारी करे।

हां, इन मगजमारी सैंटरों के साथ हुये मेरे दर्जनों अनुभवों ने तो मुझे सिखा दिया है कि यार, इन पर कभी भी ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा मत करो......इन्होंने मुझे तो ऐन मौके पर बहुत बार धोखा दिया है। कईं बार तो रेलवे स्टेशन पर भी मेरे साथ यह हो चुका है।

तो इसलिये इस से यही सीख मैंने ली है कि जेब में अच्छे-खासे पैसे हर समय रहने चाहिये....क्योंकि इन मगजमारी केन्द्रों का तो कोई भरोसा ही नहीं है।

मुझे यह समझ में यह नहीं आता कि कंप्यूटर के क्षेत्र में इतनी तरक्की होने के बावजूद भी किसी एटीएम में कैश खत्म होने पर इस के बारे में सूचना स्क्रीन पर क्यों नहीं आ जाती....कैश खत्म होने पर भी सैंकड़ों लोग अगली सुबह तक उस मशीन से मगजमारी करते रहते हैं और यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक अगली सुबह बड़ा-बाबू आकर उस मशीन में नोट नहीं ठूंस देता।

और हां, एक बार और भी है कि हम लोग बहुत तरक्की कर चुके हैं....मुझे कैसे पता चला ?.....बस, सुनी सुनाई बात कर रहा हूं....तो ऐसे में आखिर क्यों कईं बार हम लोग मीडिया में रिपोर्ट पढ़ते हैं कि फलां-फलां एटीएम से कुछ नोट नकली निकले।

इन्हीं कारणों से मुझे तो यही ठीक लगता है कि जब बैंक खुला हुया हो तभी ही atm पैसे निकलवाने चाहिये......वरना बाद में तो बहुत झिक-झिक हो जाती होगी अगर नकली नोट वगैरा निकल आता होगा तो ।

एटीएम के बाहर लिखा भी रहता है कि एक समय में एक ही आदमी अंदर जायेगा लेकिन आम तौर पर एटीएम के अंदर कईं कईं लोग घुस जाते हैं......बिलकुल एसीडी बूथ जैसा माहौल ही बनता जा रहा है।

पिछली बार मैंने दो-बार एक एटीएम से पैसे निकलवाये तो मुझे मेरे साथ खड़ा एक जैंटलमैन कहने लगा कि ....अब बस करो, कैश खत्म हो जायेगा।

आज यमुनानगर में इतनी उमस है कि क्या बताऊं....ऐसे में इस एटीएम की बात और कितनी खींचूं ......इतना ही कह कर विराम लेना चाह रहा हूं कि हमारे एटीएम सिस्टम के साथ कुछ ज़्यादा ही गड़बड़ है........कहीं बैंकों ने इन्हें भी तो एक स्टेटस सिंबल की तरह ही तो नहीं खोल दिया और अब ये माथा-पच्ची एवं मगजमारी के अड्डे बन चुके हैं। बेचारे अनपढ़ लोगों की हालत तो इन जगहों पर और भी दयनीय होती है.....उन्हें तो कईं बार यही लगता है कि उन का पैसा मशीन में ही फंसा रह गया है।

जो भी हो, मेरा तो एक्सपीरियैंस इन के साथ काफी खराब ही रहा। trasaction declined ....भला क्यों भई , कोई खैरात बांट रहे हो क्या ??

शनिवार, 26 जुलाई 2008

बच्चे पैदा करने की इतनी भी क्या जल्दी है !!

शादी के बाद बच्चे पैदा करने की इतनी भी क्या जल्दी कि इस के लिये कुदरत के नियमों से डायरैक्ट पंगा ही लेलिया और एक ऐसा उपाय इस्तेमाल कर डाला कि शायद मेरी तरह आप ने भी इस जल्दबाजी के लिये इस तरह केइस्तेमाल की बात न सुनी होगी।

यह तो आप जानते ही हैं कि आई.वी.एफ अर्थात् in-vitro fertilization तकनीक आज कल खूब चल निकलीहै...इस तकनीक में शरीर से बाहर ही अंडे एवं शुक्राणु का मेल करवा कर उसे महिला के गर्भाशय में डाक्टर द्वारारख दिया जाता है। जिन दंपतियों में शादी के बाद विभिन्न कारणों की वजह से बच्चा होने में दिक्कत होती है उनमें पूरी जांच के बाद इस तरह की तकनीक इस्तेमाल की जाती है।

लेकिन मुझे तो दोस्तो आज पता चला कि इस तकनीक का इस्तेमाल अमेरिका की एक बेहद सुप्रसिद्ध विवाहितहस्ती ने इसलिये किया कि वह नार्मल तरीके से गर्भधारण की इंतज़ार के झंझट में नहीं पड़ना चाहती थी। इस केबारे में आज के इंगलिश न्यूज़-पेपर में एक ब्रीफ सी खबर छपी है।

उस खबर में बताया गया है कि उस हस्ती ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि उस महिला को इस बात की बहुत हीजल्दी है कि जल्दी जल्दी ही उस के बहुत सारे बच्चे हो जाएं। और इस के लिये एक तो उस ने नैचुरल कंसैप्शन कीबजाए आई.व्ही.एफ का रास्ता चुना और यह रास्ता चुनने का दूसरा कारण यह भी है कि इस आई.व्ही.तकनीकद्वारा जुड़वा बच्चे होने का चांस नार्मल गर्भ-धारण की तुलना में 25 गुणा बढ़ जाता है। तो, फिर गुड-न्यूज़ यही हैकि उसे जुड़वा बच्चे पैदा हुये हैं।
वैसे तो हर किसी की अपनी लाइफ़ है, क्या परिस्थितियां हैं, हम लोग कैसे कोई टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन वोब्लागर ही क्या जो बिना-वजह टिप्पणी देने से बाज आ जाए। तो, मुझे तो भई यही लगता है कि यह तो कुदरत केनियमों के साथ बिलकुल डायरैक्ट पंगा है कि अब लोगों की बेताबी इतनी बढ़ गई है कि नार्मल कंसैप्शन का भीइंतज़ार इन्हें गवारा नहीं है।

एक बात और भी है ना ....उस छोटी सी खबर में यह भी बताया गया है कि उस हस्ती ने इस तकनीक के लिये 12 हज़ार डालर खर्च किये हैं.......सोच रहा हूं कि जब कोई बड़ी हस्ती इस तरह की तकनीक का सहारा ( केवलजल्दबाजी के लिये ही !!....... well, that is what is written in that snippet and let’s believe it ! ) लेती हैतो कईं बार दुनिया को इस का गलत मैसेज मिलता है.....कहीं यह भी कोई फैशन-फैड ही ना बन जाए कि कौननार्मल-कंसैप्शन के चक्कर में पड़े, पता नहीं कितने साईकल्ज़ व्यर्थ ही निकल जाएं.......अब अगर लोगों की सोचइस तरफ हो जायेगी कि नहीं, भई , हमें तो तुरंत रिज़ल्ट चाहिये.....तो फिर वही बात हो गई कि फास्ट-फूड ज्वाईंटसे कुछ भी लेकर खाने वाला कैसे चूल्हे-चौके में चक्कर में पड़े।

वैसे सोच रहा हूं कि अगर किसी हस्ती ने इस तरह की तकनीक का सहारा लिया भी है तो उसे मीडिया द्वारा इतनातूल क्यों दिया जाता है..........पता है क्यों ?..... ताकि हम हिंदी ब्लागरों को भी पता चलता रहे कि दुनिया में क्याक्या चल रहा है, दुनिया कितनी आगे निकल चुकी है और किस कदर हम लोग मदर-नेचर से जबरदस्त पंगे लियेजा रहे हैं और फिर उसे ही कोसने लगते हैं।

यह मैंने भी क्या लिख दिया !!

मेरे साथ कईं बार ऐसा होता है कि जब मैं अपनी किसी पुरानी पोस्ट को पढ़ता हूं तो लगता है कि यार, यह मैंने भीक्या लिख दिया। शायद कभी कभी थोड़ी एम्बैरेसमैंट भी होती है और लगता है कि चलो, यार, कौन देख रहा है, डिलीट कर देता हूं। लेकिन मैंने आज तक अपनी किसी भी पोस्ट को इस कारण की वजह से डिलीट नहीं किया कियार, उस दिन पता नहीं क्या मूड था, क्या परिस्थितियां थीं कि ऐसा कुछ लिखा गया।

मैं सोचता हूं कि जिस घड़ी में हम जो लिख रहे हैं...अगर मैं पूरी इमानदारी से लिख रहा हूं तो वह उस समय की मेरीअंतररात्मा की आवाज़ है। और जो भी उस समय मन लिखने को कह रहा है, मैं लिख रहा हूं...तो फिर इस मेंएम्बैरेसमैंट आखिर कहां से गई। खुल कर आने दो अपने विचार दुनिया के सामने.....काले हैं, गोरे हैं, रंग-बिरंगेहैं या मटमैले हैं...विचार तो मेरे ही हैं, तो फिर इस से क्या घबराना।

मुझे लगता है कि अपनी किसी भी पुरानी पोस्ट को इस तरह के छोटे मोटे कारणों की वजह से डिलीट कर के हमलोग अपना ही नुकसान कर रहे हैं.......मैं समझता हूं कि यह सच्चाई से भागने वाली बात है। जो भी है, जो भीलिखा है , हमें उस पर स्टैंड करना चाहिये।

एक विचार और भी रहा है कि अगर हम लोग अपनी किसी पोस्ट को एडिट भी करें तो हमें पोस्ट की बॉडी में हीडेट डाल कर यह बता देना चाहिये कि मैं इस तारीख को इस पोस्ट को इन कारणों से एडिट कर रहा हूं। मैं समझताहूं कि इस से हमारी बात की विश्वसनीयता बढ़ती है। वैसे पोस्ट के नीचे तो ही जाता है जब हम लोग अपनीकिसी पोस्ट का संपादन करते हैं , लेकिन अगर पोस्ट की बॉडी में ही इस तरह की बात हो जाये तो अच्छा रहेगा।

अपनी किसी पुरानी पोस्ट को डिलीट करने की बात से ध्यान रहा है कि जब ब्लाग का नाम ही है.....वेबलॉग.....अर्थात् हम लोग जब अपनी एक डायरी ही लिख रहे हैं तो उस में इतना हो-हल्ला क्यों !!..छूटने दें जो भीकलम रंग छोड़ना चाहती है। रह रह कर वही खुशवंत सिहं जी की बात याद आती रहती है कि ऊपर वाले का शुक्र हैकि किसी ने पेन के लिये कंडोम नहीं बनाया। क्या हम लोग अपनी किसी डायरी से पुराने पन्ने निकाल कर फाड़तेहैं....क्या उन्हें इरेज़ करने की कोशिश करते हैं तो फिर पुरानी किसी भी पोस्ट को डिलीट करने का विचार भी क्योंआता है ?

लेकिन यह मेरी सोच है......आप की सोच अनेकों कारणों की वजह से मेरे से भिन्न हो सकती है। यही तो अपनीडायरी लिखने का मज़ा है, यही तो स्लेट पर घसीटे मारने का मज़ा है, जो चाहो लिखो......जितनी चाहे मस्तीकरो.....और फिर मिटा दो...............नहीं, नहीं, इस नेट वाली स्लेट से कुछ भी मिटाओ....अगर ज़रूरत हो तोपोस्ट को एडिट कर लिया जाये............क्या फर्क पड़ता है।

मुझे याद है जिस दिन मैंने यह ब्लाग मेरी स्लेट शुरू की थी ....उस दिन शायद पहली पोस्ट मैंने यही लिखा था किमेरे मन में जो भी आयेगा , लिखूंगा, उस को फिर पोंछ डालूंगा, फिर कुछ नया लिखूंगा ......लेकिन आज मैं कुछअलग ही सोच रहा हूं। और एक राज़ की बात आप से शेयर करना चाह रहा हूं कि मैं अकसर अपनी पुराने पोस्टेंपढ़ता ही नहीं हूं.......अब कौन हलवाई अपनी मिठाई खाये और वह भी बासी !!

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

विवाह से पूर्व चैक अप वाला विज्ञापन

मैं इस विषय के बारे में बहुत सोचता हूं.....और यह भी सोचता हूं कि हम लोग किसी फुटपाथ से बैंगन खरीदते हुये उसे इतनी गंभीरता से चैक करते हैं.....उस के खराब होने का अंदेशा होते ही अगली रेहड़ी की तरफ़ चल पड़ते हैं। लेकिन जब अपने बेटी-बेटों की शादी की बात आती है और उन के भावी पति अथवा पत्नी की सेहत की बात कभी छिड़ी देखी ही नहीं गई।

लगभग तीन हफ्ते पहले मैंने एक सुप्रसिद्ध लैब का एक विज्ञापन एक अंग्रेज़ी के अखबार में देखा था। ऐसा विज्ञापन मैंने तो पहले बार ही देखा था.....शायद इस से पहले भी आया हो, लेकिन मेरी नज़र न उस पर पड़ी हो। आप भी जानने को उत्सुक हो रहे होंगे कि आखिर क्या था उस विज्ञापन में।

तो सुनिये, उस विज्ञापन में उस कंपनी द्वारा उपलब्ध करवाए जा रहे विभिन्न टैस्टों की जानकारी दी गई थी। उस में अलग अलग आयु वर्ग के लोगों के लिये विभिन्न स्कीमें थीं। एक स्कीम जिसे पहली बार किसी विज्ञापन में देख कर मुझे बेइंतहा खुशी हुई वह थी .......विवाह से पूर्व युवक-युवती की जांच ( Pre-marital health check-up for individuals and couples) ……Detects presence of chronic infectious diseases. Identifies and helps prevent transmission of abnormal Hb related disorders to progeny.

मुझे यह पढ़ कर बहुत ही खुशी हुई क्योंकि मैं इस बात की बहुत हिमायत करता हूं कि शादी से पहले लड़के और लड़की का चैक-अप होना चाहिये। मुझे पता है कि हिंदोस्तानी समाज में यह बात विभिन्न कारणों की वजह से अभी लोगों के गले नहीं उतरेगी। इस के कारण भी तो बहुत से हैं।

इस देश में किसी लड़के-लड़की की शादी की जब बात चल रही होगी तो अगर कोई लड़के या लड़की की चैक-अप की बात छेड़ कर तो देखे, अगले दिन ही बिचोलिये का फोन आ जायेगा कि अभी लड़के वाले सोच रहे हैं.....चैक-अप की तो बात छोड़िये, लोग इन मौकों पर सेहत की बात करना ही महांपाप समझते हैं......मुझे कभी समझ नहीं आई कि ये लोग इतना डरे, सहमे से क्यों होते हैं !!

लेकिन कुछ भी हो लोगों की भई अपनी मजबूरियां हैं....अब अगर किसी लड़की का ब्याह किसी अमेरिका में रह रहे लड़के से तय हो रहा है और वर-पक्ष की कोई मांग भी नहीं है तो भला कौन लड़के के चैक-अप की बात घुसा कर अच्छी भली बनती बात को बिगाड़ने का साहस कर पायेगा। तो, इस तरह की विवाह से पूर्व चैक-अप की बात न छिड़ने का एक कारण जो हमारे सामने आ रहा है वह यही है कि हमारे देश में जो रिश्ते अपनी हैसियत वालों की बजाए अपने से so-called (!!!) ऊंचे या नीचे तबके ( मैं अपनी रियल लाइफ में इस तरह शब्द इस्तेमाल करने का घोर-विरोधी हूं, लेकिन यहां लिखना पड़ रहा है ) ......के साथ होते हैं, इन रिश्तों में लड़के के बापू का बड़ा सा बंगला या लड़की के डैड की फैक्टरी का रोब दूसरे पक्ष के मुंह पर पट्टी बांध देता है। और जितनी ही यह हैसियत की खाई गहरी होगी, यह पट्टी उतनी ही टाईट होती जायेगी।

एक कारण यह भी तो है कि अकसर हिंदोस्तान में रिश्तों में ही रिश्ते हो जाते हैं और लड़की या लड़के का शादी से पूर्व चैक-अप की बात कहने की भला कौन हिम्मत करे.......पता चले कि यह रिश्ता तो हुया नहीं और पहले वाले रिश्तों पर भी इस बात का असर पड़ गया।

कहने का भाव यही है कि हमारे लोगों के लिये दो जमा दो हमेशा चार नहीं हैं.....इन की समस्यायों के बहुत आयाम हैं। ये बेचारे तरह तरह के रिश्तों के बोझ तले, सामाजिक धारणाओं, रूढ़िवादी विचारों तले बुरी तरह से दबे हुये हैं .....इसलिये मैं कभी भी इन्हें किसी भी बात का दोष नहीं देता हूं......इस भोली भाली जनता का क्या दोष है..............और एक बात तो और भी बहुत दुःखद यह है कि इन मां-बाप को ही इस तरह की अवेयरनैस नहीं है तो ये क्या किसी से कुछ कहेंगे ।।

तो, फिर इस बात का समाधान कहां है....समाधान धरा पड़ा है ....इस तरह के विज्ञापनों में जिन्होंने सीधी बात ही पढ़े-लिखे लड़के-लड़की तक ही पहुंचा दी। लैब भी बहुत प्रसिद्ध है......इस लिये इस की रिपोर्ट भी पूरी विश्वसनीय होगी...यह नहीं कि नुक्कड़ पर कल ही खुली किसी लैब से रिपोर्ट ला कर लड़की या लड़के वालों को दी जा रही है जिससे उन का बस मुंह ही बंद हो जायेगा।

तो, मेरे विचार में इस बात में पहले पड़े-लिखे लड़के लड़कियों को ही करनी होगी.....और यह पैकेज भी कितना बढ़िया है कि दोनों इक्ट्ठे ही जा कर अपने टैस्ट करवा सकते हैं। क्या आप को लगता है कि यह बात किसी तरह से भी यह कुंडली –वुंडली के मिलान से कम अहमियत वाली है। नहीं ना.....बल्कि उस से भी शायद कईं गुणा ज़्यादा ज़रूरी है।
चूंकि लड़का-लड़की साथ साथ जा रहे हैं इस लिये किसी को बुरा लगने का सवाल ही नहीं पैदा होता। मुझे ऐसा लगता है कि अभी से अगर ये पढ़े-लिखे लोग इस तरफ पहला कदम उठाना शुरू करेंगे तो धीरे धीरे लोगों की झिझक दूर हो जायेगी।

मेरा यह लिखने का कारण केवल इतना है कि आप सब को भी पता है कि लोग सदियों से इन रिश्तों के समय तरह तरह के झूठ बोलते आये हैं , बीमारियां छुपाते आये हैं.........लेकिन अब तो भई जीने-मरने की बात हो गई है, दोस्तो।

कितनी बार अखबारों में पढ़ चुके हैं कि किसी विवाहित युवक को जब एच-आई-व्ही संक्रमण का पता चला तो सारा दोष उस की बीवी पर मढ़ा गया और उस के चाल-चलन पर शक किया गया। वैसे यह तो एक लंबी डिबेट है....हां, बिलकुल उस जैसी कि मुर्गी पहले आई या अंडा........लेकिन इतनी लंबी-चौड़ी डिबेट में पड़ने की बजाए सीधी तरह से लड़के-लड़की अपने मां-बाप को बीच में डाले बिना ही अपने ही लैवल पर विवाह-पूर्व अपना टैस्ट ही करवा लें तो कितने झंझटों से बचा जा सकता है।

रही बात कि हर मां-बाप का यह सोचना कि मेरे बच्चों का तो मुझे पता है ...मैं उन की गारंटी लेता हूं....उन्हें टैस्ट/वैस्ट करवाने की कोई ज़रूरत नहीं है........इस तरह की सोच में ही गड़बड़ी है, आज कल कौन किस की गारंटी ले सकता है .....इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग शादी के वक्त इस तरह की गारंटी देना या स्वीकार करना बंद करें। बच्चों की पूरी लाइफ का मामला तो है ही......लाइफ एंड डैथ का मसला है भई।

अभी अभी लिखते लिखते मुझे लगभग 10-12साल पुरानी बात याद आ रही है....उन दिनों मैं बंबई सर्विस करता था ...एक आफीसर का बेटा था जो स्वयं भी नौकरी कर रहा था। उस 23-24 साल के लड़के को एक्सीडैंट की वजह से काफी चोटें आईं थीं और मैंने उसे आप्रेट करना था.......उस के बहुत से टैस्ट हुये थे जिन में से एक एचआईव्ही टैस्ट भी था जो उस का पॉजिटिव आया था। दो टैस्टों से इस टैस्ट को कंफर्म भी कर लिया गया था। मेरी उस के पिता से बात हो रही थो तो उस ने दो बातें कीं.....जो मुझे आज भी एकदम स्पष्ट याद हैं.....and only such casual remarks by some people have over a period of time and my education cum training at Tata Institute of Social Sciences, Bombay has revolutionized my thinking on such sensitive issues !!………………उस ने कहा कि डाक्टर साहब, आप को बताता हूं कि यह जब नया नया नौकरी लगा तो बाहर रह रहा था तो उस के पड़ोस रहने वाली एक लड़की ने इसे खराब कर दिया। और दूसरी बात उस ने कही कि मैं तो बस अपने शहर जा कर तुरंत इस की शादी कर दूंगा ......क्योंकि यह शादी के बाद बिलकुल ठीक हो जायेगा। इन दो बातों ने मुझे बहुत लंबे अरसे तक हिला कर रखा।

इसलिये आज जब यह विवाह-पूर्व युवक-युवती के चैक-अप वाले विज्ञापन वाली अखबार को ढूंढा तो दो बातें लिखने की तमन्ना जाग उठी।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

हिंदी लेखकों के लिये कमाई के साधन !!

बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं .....लिखता हूं तो मैं अपनी मस्ती से ही लिखता हूं ....किसी बात की भी ज़्यादा परवाह लिखते समय मैं करता नहीं हूं। मैं कभी कभी सोचता हूं कि कुछ भी लिखने के लिये किसी मानदेय की अपेक्षा करना ठीक नहीं है.....लेकिन जब मैं इमानदारी से अपने मन को टटोलता हूं तो यह भी मुझे मेरी कईं अन्य बातों की तरह केवल एक ढकोंसलेबाजी ही ज़्यादा दिखती है। वैसे देखा जाये तो लेखक अपने लेख को क्यों किसी के लिये लिखे बिना पैसे के !!

मैं पिछले कईं सालों में शायद सैंकड़ों लेख लिख डाले....अपना खूब खर्च किया, फैक्स पर , फोन पर , कलर्ड प्रिंटर पर, डाक पर, स्पीड पोस्ट पर .........बहुत ही खर्च किया लेकिन कभी हिसाब नहीं रखा। शायद तब कुछ उम्र का दौर ही कुछ ऐसा था कि लगता था कि बस, यार अखबार में फोटो के साथ लेख छप गया है ना, तो बस ठीक है। लेकिन मुझे कभी भी अखबार वालों की तरफ़ से कुछ नहीं मिला।

मुझे कृपया इस पोस्ट की टिप्पणी में यह मत लिखियेगा कि लेखक का काम तो समाज सेवा ही होता है उसे पैसे वैसे से क्या लेना देना। मैं भी बहुत बार ऐसा ही सोचता हूं .....लेकिन दिल की गहराईयों में मैं बहुत कुछ और भी सोचता हूं .....वह यह कि आखिर लेखक की मेहनत की ही इस देश में कद्र क्यों नहीं है।

मैं तो अच्छी खासी नौकरी करता हूं .....ऊपर वाले की मेहरबानी है ....लेकिन फिर भी मुझे यह इच्छा तो हमेशा रही है कि यार लिखने के एवज़ में कुछ तो मिलना ही चाहिये । इसलिये जब मैं अपने उन लेखक भाईयों की तरफ़ देखता हूं कि जो अखबार में कम तनख्वाह वाली नौकरीयां कर रहे होते हैं या केवल अपने लेखन के भरोसे ही जीते हैं तो मुझे यकीन मानिये बेइंतहा दुख होता है और इसलिये ये जब धड़ाधड़ नौकरियां बदलते हैं तो मुझे लगता है कि क्या करें वे भी .....ठीक कर रहे हैं।

इमानदारी से बताऊं तो मेरा यह व्यक्तिगत विचार है कि चाहे ब्लागिंग ही हो, लेकिन जहां पर कुछ कमाई वाई नहीं दिखती तो दिल ऊब ही जाता है। मुझे तो लगता है कि यह ह्यूमन सायकालोजी है........ब्लागिंग में भी मेरे साथ यही हो रहा है।

बलागिंग में भी क्या है.......बस कमाई विज्ञापनों से ही संभव है और वह भी केवल इतनी कि किसी के ब्राड-बैंड का खर्च निकल जाता है....ऐसा मैंने पढ़ा था किसी ब्लाग पर ही । हां, हां ठीक है ब्लागिंग से मन को संतुष्टि मिलती है ......

यह बात भी बहुत अखरती है कि इंजीनियरिंग करने के तुरंत बाद ये लड़के 35-40 हजार रूपये महीना कमाना शुरू कर देते हैं ......कैंपस प्लेसमेंट हो जाती है और जर्नलिज़म करने के बाद इतने इतने तेजस्वी पत्रकार केवल तीन-चार हज़ार पर ही नौकरी हासिल कर पाते हैं.....लेकिन मैं भी पता नहीं काम की बातें पता नहीं अकसर क्यों भूल जाता हूं........ये पत्रकार-वत्रकार ( मैं भी एक क्वालीफाइड पत्रकार हूं) तो बस समाज सेवा के लिये हैं ......इन्हें क्या ज़रूरत है कि ये अपने जीवन में थोड़ी सुख-सुविधायें भोग लें.......अच्छा है अगर इन्हें घर पर एसी की आदत नहीं पड़ेगी, अच्छा घर खरीद कर भी क्या करेंगे.....इन की जाब में तो इतनी मोबिलिटी है, क्या करेंगे कोई अच्छी कार मेनटेन कर के .....विकास पत्रकारिता पर इस का बुरा प्रभाव पड़ेगा, ..........कितनी बातें और गिनाऊं ??......

बस , ब्लागिंग का यह फायदा तो उठा ही लिया....अपने मन की बात दुनिया के सामने रख कर अपने मन का बोझ हलका कर लिया । लेकिन एक उलाहना तो कुछ लेखकों के साथ रहेगा कि हम लोग दिल खोल कर अपनी ट्रेड सीक्रेट्स अपने दूसरे लेखक बंधुओं के साथ शेयर नहीं करते ।