गुरुवार, 4 नवंबर 2021

जब टूटी चप्पलें सिलवा लेते थे...

एक बात बताऊं...बहुत बार ऐसा होता है कि जब भी मैं कुछ लिखने लगता हूं तो मुझे यही लगता है कि मैं अपनी मां-बोली (मादरी-ज़बान) पंजाबी में ही लिखूं...फिर मुझे लगता है कि नहीं, पंजाबी आज कल लोग बोलने से परहेज़ करते हैं, पढ़ने वाले कहां मिलते हैं...इसलिए मैं पंजाबी में लिखने की अपने दिल की हसरत को दिल ही में रहने देता हूं और हिंदी में लिखने लगता हूं ...अंग्रेज़ी में भी लिख सकता हूं ..लेकिन अपनी बात को ठीक उस तरह से रख नहीं पाता जिस तरह से वह दिल में चल रही होती है...इसलिए मुझे फिर हिंदी की तरफ़ ही मुड़ना पड़ता है ...दरअसल जिस ज़ुबान में मैं लिखता हूं वह हिंदी की बजाए हिंदोस्तानी ज़्यादा है ...

दोस्त ने ग्रुप में यह तस्वीर साझा की और इसी बहाने हमें अपनी औकात याद आ गई...😎

कल अपने एक दोस्त ने कॉलेज के साथियों वाले वाट्सएप ग्रुप में एक टूटी हुई हवाई चप्पल की तस्वीर पोस्ट की ...जिसको एक सेफ्टी पिन से जोड़ने का जुगाड़ कर रखा था ...और साथ में एक सवाल था कि क्या आपने कभी ऐसा किया है..? मैंने उसी वक्त सोचा कि यार, किया तो है ......लेकिन यही नहीं किया, जूतों, चप्पलों, गुरगाबियों से बहुत कुछ किया है ....इतनी यादें जुड़ी हुई हैं ..दोस्तो, अब पता नहीं मैं थका हुआ हूं या मुझे जम्हाईयां आ रही हैं, इस बार को आगे लिखने की मेरी इच्छा नहीं है...ठीक है, शुभ-रात्रि ..कल सुबह उठ के देखते हैं ...सुबह की ताज़गी किन किन यादों को दिल के कुएं से निकाल बाहर करेगी...😄सो जाइए अब आप भी और मीठे सपने लीजिए। 

प्रवीण ३.११.२१ - रात २३.२० बजे 

लो जी, सुबह हो गई है, जहां पर हम रहते हैं वहां पर बाहर कौवों की आवाज़े आना शुरू हो गई हैं...हां, तो अपनी बात कल शुरू ही की थी कि हमें नींद आ गई। अभी बात को पूरा करने की कोशिश करते हैं...जी हां, बिल्कुल कोशिश ही कर सकते हैं, क्योंकि यादों के पिटारे में से जितना भी निकाल कर यहां सजाने की कोशिश करेंगे, फिर भी बहुत कुछ तो रह ही जाएगा...चलिए, जितना बन पड़े उतना ही सही। 

जी हां, हम तो जो बातें करेंगे ५०-६० पुरानी ही करेंगे क्योंकि हम उस दौर के गवाह रहे हैं...यह वह दौर था जब हम जैसे मिडल-क्लास घरों के लोगों के पास बाहर-अंदर पहनने के लिए एक जोड़ी ढंग का फुटवेयर होता था और अकसर घर के सभी लोगों के पास अपनी अपनी एक हवाई चप्पल भी हुआ करती थी...हवाई चप्पल कह लें, या कैंची चप्पल ...जहां तक मुझे याद है बाटा कंपनी की आती थी या कोरोना कंपनी की ...लोग तरजीह बाटा कंपनी की हवाई चप्पल को ही दिया करते थे...और यकीं मानिए, इतनी मज़बूत कि रोज़ पहनने पर भी कईं साल न भी सही (अच्छे से याद नही) लेकिन कईं कईं महीनों तक चलती थी, आज कल की हवाई चप्पलों की तरह घिसती बहुत कम थी, उस ज़माने में चप्पल की क्वालिटी का यह भी एक मापदंड (इंडीकेटर) होता था...

बहुत बार तो पहनते पहनते हम ऊब जाया करते थे लेकिन उस की सेहत जस-की-तस बनी रहती थी..टनाटन...उन दिनों हम लोग इतने रईस भी न हुए थे कि उन्हें बॉथरूम चप्पल कह कर उन का अपमान करते ...और करते भी कैसे, हम लोग अकसर उसे ही पहन कर बाज़ार भी हो आते, मेहमान के आने पर साईकिल पर चढ़ कर बर्फी, समोसा भी ले आते ...और सुबह टहलने निकलते तो उसे ही पहन कर हो आते ....क्योंकि ये जो आज कल कईं कईं हज़ार में वाकिंग, रनिंग, जॉगिंग शूज़ मिलते हैं, इन सब की तो हम कभी कल्पना करने की ज़ुर्रत ही न करते थे...

अच्छा, हवाई चप्पल भी खरीदना किसी जश्न से कम न होता था...यही कोई ४-५ रूपये की आती होगी...कईं दिन तक प्रोग्राम बनता कि घर के फलां फलां बंदे के लिए नई हवाई चप्पल लेनी है, उस की चप्पल बिल्कुल घिस गई है, या इतनी बार मोची से उस की तुपाई हो चुकी है कि अब न हो पाएगी...अकसर मां के ही साथ जाते बाज़ार --अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में ...मां किसी दुकान से चप्पल हमारे लिए चप्पल खरीद देतीं...और हमें वहीं दुकान पर पहन कर उसी १० बॉय १० फुट की दुकान में माडल की तरह रैंप-वॉक कर के यह भी मुतमईन होना पड़ता था कि कहीं यह छोटी तो नहीं ...या बड़ी तो नहीं....लेकिन यह काम मैं अकसर अपने एक मास्टर की दुकान पर न कर पाता......कारण?- वही कारण कि यहां तो रैंप-वॉक कर लूंगा, स्कूल में जब उस का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा, उस का क्या। हमारे स्कूल के एक मास्टर साब थे, हमें पढ़ाते भी थे, उन की भी जूतों की एक दुकान थी...अगर कभी उन की दुकान पर जाना होता तो मेरी कोशिश रहती कि यार, जो मास्टर जी दे रहे हैं न वही तेरे पैरों के लिए भी और तेरी सलामती के लिए मुबारक है, ज़्यादा दिमाग़ मत लगा...बीजी को कह दे कि हां, बीजी, यही ठीक है। यहां तक कि मास्टर की दुकान से खरीदी चप्पल में अगर कुछ खराबी भी दिखती, जिस का घर आने पर ही पता चलता तो मैं उसे जा कर एक्सचेंज करवाने की भी कभी सोचता तक नहीं था। 

और हां, मैं यह कैसे लिखना भूल गया कि पहले अगर घर में एक कैंची चप्पल भी आती थी तो घर के सभी को बताया जाता था...जैसे जैसे घर के अफ़राद के साईकिल खड़े होने लगते, हम उसी वक्त उन चप्पलों को पहन कर, उन के पानी पीते पीते उन के आगे पीछे हो कर आज की उस खरीद के बारे में इत्ला कर देते ..

जब भी कोई नई चप्पल, नया जूता घर में लेकर आता और पहन कर दिखाता तो न्यू-पिंच के चोंचले बाज़ी मां न करती, जूतों पर तो वैसे भी कोई क्या न्यू-पिंच दे,,,,लेकिन मां इतना ज़रूर कहतीं कि ...बड़े चंगे ने, सुख हंडावने होन...(बहुत अच्छे हैं, इन्हें पहन कर सारे सुख तुम्हारे नसीब में आ जाएं) ....यह आशीष हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी, और मां की दुआएं तो लगती भी ज़रूर हैं...😄

चलिए जी हवाई चप्पल इतनी पहन ली कि उस का स्ट्रैप टूट गया...कोई बात नहीं, मोची के पास इलाज के लिए ले गए...उन की फीस रहती थी पांच पैसे या दस पैसे ....अगर तो सीधा सीधा उन्होंने स्ट्रैप को टांक ही दिया तो पांच पैसे लेकिन यह काम कितना पुख्ता है, उस की कोई गारंटी न होती थी, लेकिन अगर वे छोटे से चमड़े के टुकड़े के साथ उस टूटी हवाई चप्पल को रिपेयर करते थे तो १० पैसे लेते थे और समझिए कि एक गारंटी जैसी सुविधा भी उस के साथ संलग्न रहती थी...लिखते लिखते सोच रहा हूं कि यार, बस पंजे-दस्से में उस मोची की और क्या जान ले लेते!!

अकसर सफेदपोश लोग चमड़े का टुकड़ा लगे टॉकी वाली चप्पल पहनना पसंद न करते थे ...बस, फिर उसे घर ही में, बाथरूम के लिए रख लिया जाता था और बाहर-अंदर जाने के लिए हैसियत मुताबिक एक और हवाई चप्पल आ जाया करती थी...और हां, जब कोई चप्पल के स्ट्रैप बार बार टूटने लगते तो फिर उस के स्ट्रैप बाज़ार से लाकर ख़ुद ही घर में बदल लिए जाते ...पूरी ज़ोर-अजमाईश करने के बाद कईं बार तो यह काम हो जाता और कईं बार मोची के पास चप्पल ले जाकर पुराने की जगह नए स्ट्रैप लगवा लिये जाते। ये नए स्ट्रैप यही कोई डेढ़-दो रूपये में शायद बिकते थे....मुझे यह इतना अच्छे से याद नहीं है, अब जितना याद कर पा रहा हूं, उसी का आनंद लीजिए 😎...फ़ोकट में।

लिखने बैठे तो कहां से पुरानी पुरानी यादें उमड़-घुमड़ कर आने लगती हैं ...जब तक उन को लिख न दो, कमबख़्त पीछा नहीं छोड़तीं, हां, तो पुरानी हवाई चप्पल को डिस्कार्ड करने का एक और भी क्राईटीरिया हुआ करता था...बहुत बार ऐसा भी होता था कि चप्पल लंबे अरसे से पहने जा रहे हैं लेकिन अभी तक वह मोची की वर्कशाप में नहीं गई ....लेकिन नीचे से वह इतना घिस चुकी है कि गुसलखाने में या आंगन में चलते चलते बंदा स्लिप होने लगे तो भी नई चप्पल की सैंक्शन समझिए मिल ही जाती थी...

जब हवाई चप्पल खरीदने जाते तो उस के रंग का भी ख्याल रखा जाता कि नीले रंग की तो बहुत बार पहन कर पक चुके हैं, इस बार भूरी चप्पल लेते हैं..हा हा हा हा ...सच में हम लोगों ने भी ज़िंदगी भरपूर जी है। कईं बार जब बाज़ार से नए स्ट्रैप लेकर आते तो कईं बार उन का साइज़ बड़ा-छोटा होता तो वह अगले दिन जा कर बदल कर आ जाते ...कईं बार नए स्ट्रैप खरीदते वक्त घर के उस सदस्य की चप्पल के कलर का ख़्याल न आता...न कैसे आता...खरीदारी करने गये साथ किसी तीसरे मैंबर को तो ख़्याल आ ही जाता कि पपू दीयां चप्पलां दा तो रंग नीला ए (पपू की चप्पलों का रंग तो नीला है)...तो उसी रंग का स्ट्रैप खऱीदा जाता ...नहीं, तो अगले दिन जा कर बदल लिया जाता ...

एक चप्पल का स्ट्रैप खरीद कर जब घर में आता तो वह भी बड़ी घटना न सही, लेकिन लगभग सारे घर को खबर हो जाती कि आज फलां फलां बंदे की चप्पलों के नए स्ट्रैप आए हैं, उस की तो मौज हो जाएगी...मुझे अब यह याद नहीं आ रहा कि नए स्ट्रैप तो घर पर नहीं तो मोची के पास जा कर लगवा लिेए, लेकिन उस पुराने खस्ताहाल स्ट्रैप का क्या करते थे, कुछ न करते थे भाई....जहां तक याद है उन की हालत के ऊपर यह निर्भर करता था कि उस पुराने स्ट्रैप को भी वापिस घर हमारे साथ चलना है या नहीं...अगर भविष्य में कभी उस के काम आने की कोई गुंजाइश होती, एमरजेंसी में ही सही, तो उसे मोची से लेकर वापिस घर ले कर आया जाता...फिर उसे कभी इस्तेमाल होते देखा तो नहीं, यही कहीं कचरे-वचरे में डाल दी जाती होगी...

हां, कभी कभी ऐसा भी देखा ...एमरजैंसी है, मोची के पास जाने का वक्त नहीं है, तो जैसे उस दोस्त ने कैंची चप्पल की फोटी भेजी है न ...उसे सेफ्टी पिन से चलने लायक करने की कोशिश भी की जाती थी...लेकिन यह काम दो चार मिनट में अकसर फेल हो जाया करता...मैंने कईं बार लोगों को देखता जिन ने अपनी हवाई चप्पल के स्ट्रैप को एक कपड़े की कतरन (लीर) से बांधा होता ...ईश्वर की अपार कृपा रही हम पर कि कभी इतनी ज़्यादा कड़की के बादल भी हमारे घर पर न मंडराए कि हम मोची का मेहनताना भी बचा लेने के चक्कर में उन्हें घर पर ही मुरम्मत करने लगें...

और एक बात यह हवाई चप्पलें गुस्सा आने पर मार-कुटाई करने का काम भी करती थीं....हमारे घर में तो नहीं हुआ कभी ऐसे, लेकिन मैंने कईं बार लड़ाई झगड़ों में इन हवाई चप्पलों के इस्तेमाल का चश्मदीद गवाह रहा हूं...😎

इस से पहले कि मां एक बात भूल जाऊं इन चप्पलों, वप्पलों, ब्रॉंडेड शूज़ से कुछ नहीं होता....असल बात होती है काबलियत ....मेरे फूफा जी का घर मेरी मां की नानी के गांव में था, हमारी नानी अकसर उन के बारे में बताया करती थीं कि बचपन में उन का बाप चल बसा...उन्होंने इतनी तंगी देखी उस दौर में कि हमारे फूफा जी की मां के पास उन्हें चप्पल दिलाने के लिए पैसे न होते थे, स्कूल दूर था, और दिन गर्मी के, पैरों को जलने से तो बचाना ही था, उन की मां उन के पैरों पर बरगद (बौहड़) के पेड़ के खूब सारे पत्ते मोटी सूतली से बांध कर उन्हें स्कूल भेज देतीं......ऐसी मां को, ऐसे बेटे की याद को सादर नमन....पढ़ाई लिखाई में इतने अच्छे ..कि बाद में देश आज़ाद होने पर जब बंंबई आए तो कालेज में पढ़ाने लगे ....इक्नॉमिक्स में उन का नाम था, कालेज के वाईस-प्रिंसीपल रिटायर हुए ..और कईं किताबें उन्होंने लिखीं...

इस का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ़ कीमती शूज़ से कुछ नही ंहोता, कुछ कर गुज़रने के लिए और भी बहुत असला चाहिए होता है ...दिल में आग, जुनून, उमंग और जोश से भरा जज़्बा....

बहुत बहुत शुक्रिया, बेदी साब, आप की भेजी चप्पल ने तो हमें यादों के समंदर में डुबो दिया....और यह जो हम कभी कभी उड़ने लगते हैं न ...हमारी ऐसी लूत-परेड कर दी कि क्या कहें..😄😄...इसलिए कहते हैं कि पुराने दौर के दोस्तों की बातें भी सुनते रहना चाहिए..

चप्पलों के बारे में बाकी बातें कभी अगली पोस्ट में ....अगर आप की भी कुछ यादें हों तो नीेचे कमैंट में क्यों नहीं लिखते आप। कोई नाराज़गी है क्या!

बुधवार, 3 नवंबर 2021

चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे!

अगर हमारे दौर के फिल्मी गीतकारों को जिनको स्वर्गवासी हुए भी ज़माना गुज़र गया, यह पता चले कि उन के लिखे अल्फ़ाज़ के लोग इतने बरसों बाद भी इतने दीवाने हैं और अगर वे फ़रियाद करें (वहीं स्वर्ग में अगर कोई पिटिशन डालने की व्यवस्था होती) कि उन्हें फिर से पुराना चोले में हिंदोस्तान रवाना कर दिया जाए ..तो ख़ुदा भी उन की यह फ़रमाईश मान लेता। 

सांसें....कितना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है न , है कि नहीं! सब से पहले तो मुझे इस बात का ख़्याल आ रहा है कि यह जो हिंदी-उर्दू का विवाद खड़ा किए रहते हैं न ....यह सांसें भी उर्दू का ही लफ़्ज़ है, इस का क्या करें, इसे बोलना बंद कर दें या इन लेना ही बंद कर दें, क्या आप और हम इन के बिना रह पाएंगे...बिल्कुल ऐसे ही हिंदोस्तानी ज़बान न तो हिंदी है न ही उर्दू है ...वह मिली-जुली हिंदी-उर्दू की एक गंगा-जमुनी दरिया की तरह हिंदोस्तान के हर कोने में बह रही है ...ज़बान किसी धर्म की, मज़हब की नहीं होती, यह किसी की मिल्कियत भी नहीं होती, ज़बान तो इलाकों की होती है...अगर यह बात किसी की समझ में आ जाए तो ठीक है, यह उसी की ज़िंदगी आसान कर देगा...वरना जो है सो है। मुझे भी इतनी सी बात ५५ साल की उम्र में उर्दू की पहली जमात में पता चली थी...

सांसें....बेहद खूबसूरत लफ़्ज़, जो देखा जाए तो हर पल हमारी ज़िंदगी के साथ रहता है पल..पल...हर पल। जब हम लोग किसी बाबा-वाबा को सत्संग में सुना करते और वह सांसों की अहमियत पर बोलते थे तो हमें कहां समझ में आता था यह सब...हमें तो बस जम्हाईयां आती रहती थीं कि बहुत हो गया यार, अभी भी भोग पड़ने में बीस मिनट लगेंगे, तब कहीं प्रसाद लेकर यहां से निकलेंगे...

कितनी बार सुन चुके हैं, पढ़ चुके हैं कि ज़िंदगी से ज़्यादा गिले-शिकवे करने का कोई मतलब है नहीं, बात बस इतनी सी है कि अगर बाहर गई एक सांस लौट कर वापिस आ रही है न, इस का मतलब सब ठीक है...कुछ साल पहले की बात है, बड़ा बेटा जब बाली गया था तो उसने समंदर के नीचे स्वीमिंग की थी, जिसे स्कूबा-डाईविंग कहते हैं...उसने भी वहां से वापिस लौटना पर यही ज्ञान दिया था कि बाप, जब तक बंदे की सांसें चल रही हैं न, सब ठीक है....इस के आगे कुछ टेंशन करने का मतलब है भी तो नहीं। 

बात है भी कितने पते की है! सांसे ये जो हमारी चल रही हैं, मैं अकसर सोचता हूं कि क्या यह किसी करिश्मे से कम हैं...सारे शरीर में लाखों-करोड़ों रासायनिक प्रक्रियाएं निरंतर चल रही हैं ....चौबीस घंटे, सातों दिन ...एसिड-बेलेंस मेन्टेन हो रहा है, शरीर में इलैक्ट्रोलाइट बेलेंस भी हो रहा है, अनेकों तरह की पदार्थ हमारी ग्रंथियों से निकल रहे हैं जो विभिन्न क्रियाओं को कंट्रोल कर रहे हैं...अब क्या क्या लिखें, ईश्वर की दी गई नेमतों की फेहरिस्त बनाने लगें....है कि नहीं बेवकूफ़ी वाली बात ........बात तो सिर्फ़ इतनी सी है जो जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही अच्छा है ...कि हमें हर सांस के साथ ईश्वर को याद करना है, हर पल, हर श्वास के साथ प्रभु का शुक्रिया अदा करना है ...कि आप की अपार कृपा से सांसें चल रही हैं, वरना शु्क्रिया करने की बजाए, इन सांसों को अपनी अकल से समझने की कोशिश करेंगे तो हाथ कुछ नहीं आएगा....यह सब रेहमत की बातें हैं, जैसे जैसे हमारी लिखाई-पढ़ाई बढ़ने लगती है, हम ख़ुद को कुछ समझने लगते हैं ये रब्बी बातें हमारी समझ में आना कम हो जाती हैं ...हम समझते हैं कि हम धन-दौलत के बलबूते सब कुछ अपने कंट्रोल में रखेंगे .....लेकिन ऐसा होता कहां है! इत्मीनान से पलों के साथ जिएं...ज़्यादा टेंशन से, ज़्यादा सोच-विचार से कुछ मिलने वाला नहीं, जो हाथ में है वह भी सरक जाएगा। 

सांसें ...इतना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ और बातें मैं इस के बारे में इतनी पकाने वाली लिखता जा रहा हूं ...इतने खूबसूरत शब्द के बारे में बातें भी  ख़ुशगवार ही होना चाहिए...वैसे यह काम हमारे फिल्मी गीतकार बख़ूबी कर गये हैंं....मैं जब भी फिल्मी दुनिया के दिलकश गीतों को याद करता हूं तो मुझे सांसें लफ़्ज़ का ख्याल आते ही दो तीन गीत याद आ जाते हैं....एक तो वही है ...मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है ......चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे। यह गीत मेरे मन के बहुत करीब है ...इतने बरसों से इसे देखते सुनते यह मन में पक्का घऱ बना चुका है...

सांसों की जब बात चली तो कल बड़े भाई ने ३१ साल पुराना यह गीत भी याद दिला दिया....सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए ..यह भी बहुत खूबसूरत गीत है। हिंदी फिल्मों के नगमों के साथ अकसर हमारें ढ़ेरों यादें जुड़ी होती हैं...१९९० के जुलाई माह में हम लोग शादी के बाद मसूरी घूमने गए थे ...वहां पर जुलाई में मौसम बड़ा ख़ुशग़वार था ...हल्की हल्की बारिश की फुहार चलती ही रहती थी, बादलों की आंख-मिचौली भी चलती रहती ...मुझे याद है हम लोगों को वहां की सड़कों पर टहलते हुए दुकानदारों के टेपरिकार्डरों पर चलता यह गीत बहुत बार सुनाई पड़ता ....'आशिकी' फिल्म का यह बेहद सुपरहिट गीत है ...यह पिक्चर उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई थी...


सांसों पर लिखे बहुत से गीत और भी याद आ रहे हैं ...

सांसों पर लिखते लिखते अब बोर सा होने लगा हूं ...सोच रहा हूं फिर से थोड़ा सो ही जाऊं..लेकिन यह बात है कि सांसों पर बहुत से नग्मे हैं ...जिन्हें हम नेट पर तलाश कर सकते हैं...सांसों को जिस भी नज़रिए से देखा जाए, शोखी की निगाह से, रूहानियत की निगाह से, ज़िंदगी के फ़लसफ़े की निगाह से .......गीतकार अपनी बात लिख कर हमें दे गए हैं....हम उन्हें सुनें न, उन से सबक न लें तो कसूर किसका है😎

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

दर्पण झूठ न बोले...

सच बात है कि दर्पण झूठ नहीं बोलता....वो बात अलग है जब वह हमारी पसंद मुताबिक हमारी तस्वीर दिखा नहीं पाता, सफेद बाल, झुर्रियां जब दिखाने लगता है तो हम उसे कोसने लगते हैं...है कि नहीं....

आज मेरे बड़े भाई ने मेरे साथ दर्पण फिल्म का एक गीत शेयर किया जिस का लिंक मैं यहां नीचे लगा रहा हूं ...आप इस पर क्लिक कर के उसे सुन सकते हैं...आनंद बख्शी की कलम का जादू है ...वे इस के गीतकार हैं ...

भाई ने मुझे कहा कि वह जो तपस्या फिल्म का भी जो गीत है न ...कभी पेड़ का साया, पेड़ के काम न आया...उस गीत में जब ये लाइनें आती हैं न ...तेरी अपनी कहानी यह दर्पण बोल रहा है, भीगी आँख का पानी हक़ीक़त खोल रहा है ...जब वह इस गीत के सुरों में डूबे हुए थे तो उन्हें दर्पण फिल्म पर और भी कुछ गीत याद आने लगे...

दर्पण चीज़ ही ऐसी है ...भाई को दर्पण से गीत याद आ गए ...हमें तो बचपन ही याद आ गया....जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घर में एक शीशा होता था जो सारे कुनबे के बालों पर कंघी करने के काम में आता था...और एक छोटा सा शीशा था जिसे पापा अपनी दाढ़ी बनाते वक्त रज़ाई पर ही रख लिया करते थे...और हां, मां के पास भी तो एक बिल्कुल छोटा सा था अपना शीशा हुआ करता था..यह शीशा कोई अलग न था, एक गोल पावडर की डिब्बी में ही फिक्स हुआ रहता था, जिसे मां अकसर ट्रेन में यात्रा करते वक्त अपने पर्स में रख तो लेती लेकिन हमने मां को कभी ट्रेन में इसे इस्तेमाल करते नहीं देखा...कभी कभार किसी शादी ब्याह में ज़रूर वह इस पावडर की डिब्बी को इस्तेमाल ज़रूर कर लेती....उन्हें वैसे भी कासमेटिक्स का बिल्कुल भी शौक न था...

लिखते वक्त कैसे पुरानी पुरानी बातें याद आने लगती हैं...अच्छा, एक भ्रांति थी, थी या है, ख़ुदा जाने ...आज कल तो लोग अपने अपने पिंजरों में क़ैद रहते हैं, किसी फ़ुर्सत है छोटी छोटी बातें करने और सोचने की ...हां, तो भ्रांति यह थी कि अगर मैंने किसी आसपास के बच्चे को या अपने ही बेटे को आइना दिखा दिया तो बडे़-बुज़ुर्ग टोरक देते थे....न कर वे, ओहनूं टट्टीयां लग जानीयां ने ...(इसे शीशा मत दिखा, उसे जुलाब लग जाएंगे)...मुझे तो कभी यह लॉजिक समझ में आया नहीं....कि आईने और जुलाब का यह कैसा रिश्ता है ....और यह बात भी याद आ गई कि कैसे जब हम लोग आठवीं-नवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते आइने में अपना चेहरा बार बार देखने लगते हैं ....और पुराने दौर में लोग तब उस तरूण का मज़ाक उड़ाने लगते कि देखो, इसे हवा लग रही है....देखते जाओ। 😎ये जो आदमकद शीशे, ये जो ड्रेसिंग टेबल हैं न, ये भी हर घर में कहां होते थे...लेकिन जब इस तरह की चीज़ें घर के लिए खरीदी जातीं तो बहुत अच्छा फील होता था...कईं महीनों, बरसों तक कंघी करने का मज़ा कईं गुना न भी सही, कम से कम दो गुना तो हो ही जाया करता। 

और कुछ गीत जो भाई ने लिख भेजे ...दर्पण पर ...दो तो यही हैं...इन में से किसी पर भी क्लिक कर के आप इन्हें देख-सुन सकते हैं...

तोरा मन दर्पण कहलाए...तोरा मन दर्पण कहलाए...भले बुरे सारे कर्मो को देखे और दिखाए... (फिल्म- काजल, गीतकार- साहिर लुधियानवी) 

दर्पण झूठ न बोले...जो सच था तेरे सामने आया ( दर्पण फिल्म - गीतकार ...आनंद बख्शी) 

दर्पण पर मुझे जो मेरे पसंदीदा गीत याद आ गए वे ये रहे ....

मैं वही दर्पण वही....सब कुछ लागे नया नया .... (फिल्म- गीत गाता चल... गीतकार ...रविन्द्र जैन) 

आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं...(फिल्म- शालीमार -1978- आनंद बख्शी) 

शीशा हो या दिल हो , आखिर टूट जाता है ...(फिल्म-आशा- 1980- आनंद बख्शी) 

मुखड़ा न देखो दर्पण में ...झांको ज़रा मेरे मन में ...(फिल्म- अपना देश- 1972 के गीत ...कजरा लगा के, गजरा सजा के..) गीतकार ...आनंद बख्शी..

भाई का मशविरा है कि दरअसल ये जो सीटी, एमआरआई और एक्स-रे, वैक्स-रे हैं, इन का नाम भी कुछ दर्पण, आईना, शीशे जैसे होना चाहिए क्योंकि वे कह रहे हैं कि ये सब टेस्ट भी कोई कम नहीं हैं...एक आईना ही तो हैं, दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं....और सच सामने ले कर आ जाते हैं....बंदा चाहे हंसे या रो ले...

बात है भी कितनी सही...सच में, हम लोग दुनिया भर के फ़ैसलों को चेलेंज कर लेते हैं, अपनी धन-दौलत और रुतबे का रूआब दिखा कर...ये हम सब देखते ही हैं ...कोई छिपी बात नहीं है ...लेकिन मैं एक बार हमेशा यही कहता हूं कि डाक्टर लोग ही ऐसे हैं, इन की पारखी निगाहें जब कुछ देख लेती हैं, ताड़ लेती हैं और जब ये इन एक्सरे, सीटीस्कैन, एमआरआई रूपी आइने में मरीज़ की तस्वीर देखते हुए अपनी क़लम से अपना फ़रमान लिखते हैं ....उन को कभी कोई चेलेंज नहीं कर पाया, है कि नहीं...इसलिए मैं कहता हूं कि डाक्टर अगर अल्ला, ईश्वर, गॉड न भी हों तो कम से कम उस के भेजे हुए उस के मैसेंजर ज़रूर हैं, जैसे फिल्मों के गीत भी उस ख़ुदा के भेजे बंदे हैं, जिन का मक़सद है आवाम को अपनी अल्फ़ाज़ के ज़रिए रास्ता दिखाना ...

रविवार, 31 अक्तूबर 2021

फिल्मी दुनिया, फिल्मी कलियां, मायापुरी अब नहीं भी मिलतीं तो क्या !

कुछ याद आया? ...मेरे हम उम्र लोगों को तो ज़रूर कुछ कुछ याद आया होगा कि ये नाम उन फिल्मी मैगज़ीन के हैं जिन के साथ साथ हम बड़े हुए हैं...जैसे आजकल की पीड़ी को नेटफ्लिक्स के किसी शो के अगले सीज़न का इंतज़ार रहता है, हम अकसर इन फिल्मी रसालों के अगले मासिक अंक के आने का इंतज़ार किया करते थे...खरीदते तो शायद मायापुरी ही थे दुकान से (यह 25पैसे की मिल जाती थी, हर सप्ताह नईं आती थी), पर जब तक किताबों की दुकान पर खड़े खड़े दो-तीन दूसरी फिल्मी रसालों के पन्ने न उलट-पलट लेते तो जैसे सुकून न मिलता था। 

और हां, नाई की दुकान पर जब हजामत करवाने जाते तो उसने दुकान की चूने की दीवारों पर हेमा मालिनी से लेकर सायरा बानो ...और धर्मेन्द्र से लेकर राजकुमार तक के पोस्टर पुरानी किसी मायापुरी से फाड़ कर आटे की लेवी के साथ चिपकाए होते ...मुझे हज्जाम की हाथ से चलने वाली मशीन से बडा़ डर लगता था, कमबख्त वह तेज़ नहीं थी, खूंडी थी...बाल ऐसे काटती थी जैसे नोच रही हो, आंसू गिरते गिरते रुक जाते थे जब इन फिल्मी पोस्टरों की तरफ़ नज़र जाती थी...और उस के बाद पापा हलवाई की दुकान पर हमेशा ताज़ी बर्फी का एक छोटा लिफाफा ज़रूर दिला देते थे... 

बहुत कम ही होता था कि इंगलिश में छपने वाले मैगज़ीन खरीदते थे ...नौकरी लगने पर तो फिर भी खरीद ही लेते थे..लेकिन उस से पहले ये सब सिने-ब्लिट्ज़, स्टॉर-डस्ट, फिल्म-फेयर किसी लाइब्रेरी से लेकर देख लेते थे, और बहुत सालों तक तो किराये पर ले आते थे...पहले यही कुछ 50 पैसे किराया होता था एक मैगज़ीन का ..फिर आगे चल कर एक रूपया और 1980 के दशक के जाते जाते दो-तीन रूपये भी रोज़ के देने पड़ते थे ...इस तरह की लाइब्रेरी का सीधा फंडा था कि जितनी मैगज़ीन की कीमत है उस का दस-फीसदी तो रोज़ का किराया लेते ही थे...वे दिन भी क्या दिन थे, अच्छे से ...पढ़ने की आदत थी, कुछ न कुछ लोग पढ़ते रहते थे, नावल, फिल्मी रसाले, कोई धार्मिक ग्रंथ, कोई और ज्ञान बांटने वाली किताब......कुछ भी ...हम लोगों के घरों में तो एक भी किताब न थी, लेकिन सब किराये-विराए पर ही या फिर लाइब्रेरी से ही लेकर चलता था...

शायद वहीं से मुझे किताबें खरीदने की लत लग गई ...मैं बहुत किताबें खऱीदता हूं, हिंदी, पंजाबी, उर्दू, इंगलिश....कमरा किताबों से भरा हुआ है...हर टॉपिक पर किताब...चलिए, अब इस बात को यहीं खत्म करते हैं....मैं तो लिखते लिखते पकने लगा हूं, कहीं आप भी न मुझे कोसने लग जाएं...वैसे भी मुझे पाठक कहने लगे हैं कि तुम लिखते बड़ा लंबा-लंबा हो, मैं हंस देता हूं...क्योंकि इसमें मेरा कोई कंट्रोल नहीं होता, जो दिल कहता है लिख, लिखने लगता हूं..लेकिन सोशल-मीडिया पर लिखना अब मुझे कुछ कम करना है ..वॉटसएप पर भी (फेसबुक, इंट्राग्राम, ट्विटर पर अपनी बात बहुत कम रखता हूं) चुप्पी साध लेने में ही भलाई है, यह मैं समझ गया हूं...

हां, तो बातें फिल्मी चल रही थीं...चालीस-पचास साल पहले की बातें हैं - हमारी दिल्लगी थी, रेडियो, यही फिल्मी रसाले, थियेटर जहां जाकर अगर एक बार 'रोटी, कपड़ा, मकान' देख आए तो फिल्म अगले सात दिन तक दिमाग में वही घूमती थी, उस के गीतों में खोए रहना, उस के किरदारों को आस पास ढूंढना, जब रेडियो पर वे गीत बजने तो फिर से उस फिल्म का लुत्फ़ आ जाता था...

एक बात बताऊं ये जो पुराने दौर के लोग थे न ...शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, कवि प्रदीप, नरेंद्र शर्मा, आनंद बक्शी, हसरत जयपुरी....ये लोग भी क्या थे, इस दुनिया के तो नहीं थे, मेरा बड़ा भाई मुझे परसों कह रहा था कि बिल्ले, इन लोगों को रब ने भेजा ही इस ख़ास मक़सद से था कि जाओ, जा कर दुनिया के लिए कुछ रच कर आए, उन के मन बहलाने के लिए, उन को राह दिखाने के लिए, उन की सोई हुए आत्मा को झकझोरने के लिए कुछ बातें उन के लिए लिख कर आओ....जो बरसों, बरसों, शायद सदियों तक उस की पीढ़ियों के साथ रहें...

मेरा बड़ा भाई भी मेरी तरह रेडियो को दीवाना है, आज से नहीं, बचपन से ही ...हम लोगों को टीवी-नेटफ्लिक्स से कुछ लेना देना नहीं, बस विविध भारती की बातें और कुछ एफएम चैनल जो हमारे पुराने दौर के फिल्मी गीत बजाते हैं, वे सब हमें अपने से लगते हैं...अगर मैं भी कहीं नौकरी-चाकरी न करता होऊं तो सारा दिन किसी घने से छायादार पेड़ के नीचे एक खटिया डाल कर कोई किताब हाथ में लेकर अपने ट्रांजिस्टर पर दिन भर इन गीतों की दुनिया में ही खोया रहूं ....इच्छाओं का क्या है, हमें अपनी बकट-लिस्ट में कुछ भी डालते रहने की पूरी छूट है...😎

जी हां, बिल्कुल सही बात लगी मुझे भी यह ....एक एक गीतकार को ही जब हम देखने लगते हैं तो दंग रह जाते हैं...आनंद बक्शी साहब के काम के आंकड़े हैं, 650 फिल्में और तीन हज़ार से ज़्यादा गीत लिख दिये...कईं बार तो एक गीत लिखने में बीस मिनट से ज़्यादा न लेते थे....मैं उन के बारे में उन के बेटे ने जो किताब लिखी है, नगमें, किस्से, बातें, यादें...वह पढ़ता हूं तो हैरान हो जाता हूं कि किन किन हालात में इन महान गीतकारों ने यह सब कुछ रच दिया...हसरत जयपुरी की बेटी उन से जुड़ी यादें, तस्वीरें, उन की कापी के पन्ने उन की हैंडराइटिंग में लिखे हुए....ये वो गीत हैं जिन्हें 50 सालों से हम सुनते ही जा रहे हैं...जादूगर थे ये सब लोग, मुझे यह यकीं है...इस दुनिया से तो नहीं थे..

ऐसे ऐसे गीत लिख दिए जो ज़िंदगी भर की भावनाओं को दर्शाते हैं...(ज़िंदगी के तआसुरात से जुड़े हैं...) ...कभी कभी किसी बड़े समझदार बंदे से बात होती है तो अच्छा लगता है, दो दिन पहले मेरे ब्लॉग का एक रीड़र जो मुझ से भी बड़ा है, बातों बातों में कहने लगा कि डाक्टर साहब, आपने वह जो गीत एक पोस्ट में लिखा था- कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया...उस के जब मैंने बोल अच्छे से पढ़े तो मैं बहुत सोचने लगा था...और कल बिग-एफएम पर जब वही गीत बज रहा था तो मैं उस समय अपने बालों को कंघी कर रहा था, कंघी क्या करनी थी भाई, जब उस गीत के ये बोल आए ........तेरी अपनी कहानी ये दर्पण बोल रहा है, भीगी आंख का पानी , हक़ीक़त खोल रहा है...(जिस भले-मानुष ने यह गीत लिखा- रविंद्र जैन साब, वे ख़ुद सूरदास थे)  तो, वे कहने लगे कि दर्पण में देख कर कंघी करते करते उन के हाथों से कंघी छूट गई और सच में आंखें भर आईं...कि यार, मैं क्या किया ज़िंदगी भर.....आज सब कुछ याद आ रहा है ...और वह अपने मन की बात शेयर करने लगे कि काश! इन गीतों को पहले कहीं ध्यान से सुना होता...तो अपनी भी ज़िदगी कुछ और ही होती....मैंने इतना ही कहा कि जब जागो तभी सवेरा....There is never a wrong time to do a right thing! (बच्चों के स्कूल की दीवार पर लगे एक पोस्टर पर लिखी बात उस दिन उन को चिपका दी...)..वह हंसने लगे।

यकीनन 40-50-60 साल पुराने फिल्मी गीत हमें सपनीली दुनिया में तो लेकर जाते ही थे....मज़ा आता है, और आज भी उन्हें बार बार सुन कर दिल खुश हो जाता है ...लेकिन कहीं न कहीं वे हमारे किरदार को भी ढालते गए....मिसाल दे रहा हूं रोटी फिल्म के उस गीत का--यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो, जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो....इस पापिन को आज सज़ा देंगे मिल कर हम सारे, लेकिन जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे....अब मेरे जैसे बंदे ने जिसने पचास सालों में कम से कम सैंकड़ों बार यह गीत सुन लिया और हर बार कुछ न कुछ सोचा इसे सुनते हुए...अब मैं कैसे किसी को अच्छा-बुरा लेबल कर दूं....मेरे से नहीं होता यह सब, इस का ख़मियाज़ा जो भी हो, भुगतते रहे हैं, आगे भी भुगत लेंगे ...मैं अकसर इस बात को बहुत से लोगों के साथ शेयर कर चुका हूं...जीने दो यार हरेक को ज़िंदगी अपने हिसाब से....हम क्यों बाबा बनने लगते हैं, नसीहतें देने लगते हैं...हर इंसान की ज़िंदगी की अपनी स्क्रिप्ट है, अपना कहानी है, अपने संघर्ष हैं, अपने हालात हैं, परेशानियां हैं, खुशियां हैं, ग़म हैं....बस, लोगों को उन के हालात पर छोड़ दें, उन्हें जी लेने दें...ज़्यादा बाबागिरी के चक्कर में पड़ेंगे ...राम रहीम बाबे की तरह पाप-पुण्य की बातें करते रहेंगे तो उन में ही स्वाद आने लगेगा, गॉड-मेसेंजर समझने लगेंगे ख़ुद को, और पता लगे कि कभी उस की तरह आगे चल कर ज़ेल ही में ठूंस दिए गये हैं....वैसे, एक बात बताऊं मुझे उस के जेल जाने पर बड़ा सुकून मिला था...और मैं उस बेटी की, उस के मां-बाप की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता जिन्होंने इतने पावरफुल बाबा के कारनामों के बारे में मुंह खोलने की हिम्मत तो की...

मैं जैसे कहता हूं कि मन के अंदर इतना कुछ ठूंस रखा है कि लिखते लिखते पता ही नहीं चलता, किधर का किधर निकल जाता हूं...अब उस बात का ख़्याल आया कि क्यों मैं आज सुबह सुबह ही इस पोस्ट को लिखने लगा हूं ...आज सुबह सुबह मैं ऋषि कपूर से बातें कर रहा था सपनो में ...हमारे बचपन वाले घर की छत है, वहां पर मैं पतंग उड़ा रहा हूं और अचानक मेरी नज़र ऋषि कपूर पर पड़ती है और मैं उसे कहने लगता हूं कि मुझे आपसे दो मिनट बात करनी है....उसने हंसते हुए कहा कि हां, करिए....मैंने पंजाबी में अपनी बात कहनी शुरू की और उससे पूछा कि क्या आप समझ रहे हैं, कितनी बेवकूफी से भरा सवाल है....बिना उस के जवाब का इंतज़ार करते हुए मैंने अपनी बात 3-4 मिनट में कह दी कि किस तरह से मैं बचपन ही से आप की फिल्मों का बहुत बड़ा फैन हूं...😄 फिर अचानक नींद से जाग उठा..अब आप यह देखिए कि मेरी दिलो-दिमाग में क्या चलता होगा कि सपने भी बालीवुड के ही आ जाते हैं कईं बार ...जब कि हमें अपने मां-बाप ही महीनों ख़्वाबों में नहीं आते ...

यह तो फिल्मी दुनिया का जादू न कहूं तो क्या कहूं ..और वह भी 60-70-80 के दशक की फिल्मों की सपनीली दुनिया का जादू...आज कल की बहुत कम फिल्में गले से नीचे उतरती हैं, दिलो-दिमाग़ पर छाए भी तो आखिर कैसे...पुराने फिल्मो से, पुराने गीतों से हमारी यादें, मीठी, कडवी, खट्टी-मिट्टी सभी तरह की जुड़ी हुई हैं...मुझे एक गीत याद आ रहा है जब मैं दूसरी तीसरी जमात में अपने संगी-साथियों के साथ पैदल स्कूल की तरफ़ कूच कर रहा होता तो रास्ते में बहुत से घरों से, बहुत सी दुकानों पर ये गीत बज रहे होते ..दो तो मुझे बड़े अच्छे से याद हैं......बाकी, जैसे जैसे याद आएंगे, इस डॉयरी में लिखता रहूंगा ...😎सोचने वाली बात यह भी है जो इंसान सात-आठ साल की उम्र से ही यह सब सुनता सुनता, इन के दिलकश संगीत में खोये खोये ही जवान हुआ और अब बीस-तीस साल बरसों से इन के लिरिक्स पर ग़ौर करते करते दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा हो, उसे कोई क्या कहे.......बेहतर यही न होगा कि उसे उस की दुनिया में अलग छोड़ दिया जाए, उस के हाल पे ...😄

और हां, मेरे गीतों की पसंद-नापसंद की बिना कर ज़्यादा जज्मेंटल होने की कोशिश मत करिए....यह भी लिफ़ाफ़ा देख कर उस के अंदर लिखे मज़मून को भांपने की एक नाकामयाब कोशिश होगी...हम सब ने बहुत सारे मुखौटे लगा रखे हैं, कभी हम कोई उतार देते  हैं, कोई नया ओढ़ लेते हैं.......और कुछ नहीं, यह ज़िंदगी है, यही ज़िंदगी का स्टेज है...और क्या 😎


बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

झटका, झटकई, झटका महाप्रसाद ....

लंबे अरसे से अख़बार पढ़ना भी बंद ही था...लेकिन फिर लगता है कि हमारे दौर के लोग अगर अख़बार भी पढ़ना छोड़ देंगे तो फिर करेंगे क्या! तीन अखबारों का मैं फैन रहा हूं...बचपन से लेकर लगभग बीस साल की उम्र तक दा-ट्रिब्यून जो चंडीगढ़ से छपता है, उस के बाद दिल्ली से छपने वाला हिंदुस्तान टाइम्स बहुत अच्छा लगता था, कुछ साल दिल्ली और एनसीआर में रहते हुए ज़्यादातर उसे ही पढ़ता था .....लेेकिन लगभग पिछले 30 साल से जहां भी रहा कोशिश यही रही कि टाइम्स ऑफ इंडिया ज़रूर देख लिया करू...

ये सब वे पेपर हैं जिन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है ...दीन दुनिया का पता चलता है ...और भी बहुत कुछ ...हां, कुछ ख़बरें पढ कर मन खऱाब भी होता है ..लेकिन अख़बार वाले भी क्या करें, उन्होंने वही तो दिखाना था जो समाज में घट रहा है ...वैसे भी टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे पेपर की रिपोर्टिंग बहुत बेलेंस्ड होती है, मैं क्या, सब लोग जानते हैं ....यह किसी की भी तरफ़ कभी झुका हुआ नहीं लगता....मुझे तो यही समझ आया है ...बाकी, बड़े बड़े धुरंधऱ लोग हैं जो 'बिटविन दा लाइन्स' अच्छे से पढ़ना जानते हैं , ज़ाहिर है उन्हें ज़्यादा पता होगा...

अब आप को लग रहा होगा कि तुम बातें इधर उधर की हांक रहे हो और पोस्ट पर यह झटका, झटकई का शीर्षक टिका रखा है...इस का कारण यह है कि मुझे आज अचानक 1970 के दशक के ये अल्फ़ाज़ ज़ेहन में आ रहे हैं....अमृतसर के दिनों की बातें...घर, बाहर हम ये शब्द सुनते ही थे..उन दिनों हम मीट-मुर्गा (ज़्यादातर मीट ही...जहां तक ध्यान है, मुर्गा मीट से कुछ महंगा होता था..) खाते थे,  जब बाज़ार में किसी काम के लिए जाते तो घर के किसी सदस्य की यह बात सुनाई भी दे जाती...

" अच्छा, ऐसा करना ...आती बार पुतलीघर वाले झटकई से आधा किलो मीट, कलेजी या कीमा लेते आना। कीमा उसे हाथ ही से बनाने के लिेए कहना "
" पुतलीघर वाला झटकई ठीक मीट देता है, झटका ही बेचता है ..."

अब आप भी पशोपेश में पड़ गये होंगे कि यह बातें कैसी कर रहा है आज...झटका, झटकई ...लेकिन मुझे भी इन अल्फ़ाज़ के मानी कुछ साल पहले ही पता चले...हमें बचपन और जवानी के उस दौर में यह सब सोचने की कहां फुर्सत कि झटका, झटकई ...और ....(नहीं, नहीं, इतना ही काफ़ी है) ...क्या हैं, हमें तो इतना पता था कि मीट बेचने वाले को हम कसाई नहीं, झटकई कहते हैं और उसने अपनी मीट की दुकान के कांच पर बड़े बड़े अक्षरों में ...."यहां झटका बकरे का मीट मिलता है".., लिखवा रखा होता था। हम उन दिनों अपनी मस्ती में ही इतने मस्त होते हैं कि इन फ़िज़ूल की बातों का हमें कभी ध्यान ही न आया, न ही हम ने कभी बेफ़िज़ूल बातों में ख़ुद को उलझाया करते थे...

लेकिन बहुत बरसों बाद यह पता चल गया कि बकरे का झटका जाने का मतलब होता है उसे एक ही झटके से, एक ही वार से मारा  जाता है....जब यह बात पता चली तो मन बहुत दुःखी भी हुआ था..शायद तब तक हम लोग मीट वीट खाना बंद भी कर चुके थे ...28 साल से मीट-मछली-चिकन कभी खाया नहीं, कभी खाने की इच्छा भी नहीं हुई ...क्योंकि कुछ बातें हमारी समझ में आ गई थीं...

बाद में जब हम लोगों ने घाट घाट का पानी पीना शुरू किया ...पंजाब के अलावा दूसरे सूबों के कुछ शहरों में भी रहने लगे तो वहां पर मीट की बहुत सी दुकानों पर हलाल लिखा रहता था...एक मुस्लिम दोस्त ने बता दिया कि इस का मतलब है कि इस बकरे को एक तयशुया तरीके से काटा गया है...और मैं तो ख़ुद ही यह समझने लगा था कि हलाल और झटका मीट एक ही होता होगा...

लेकिन सारी बातें तो नेट पर धरी पड़ी हैं, हमें वाट्सएप से फ़ुर्सत हो तो हम कहीं और देखें...अभी गूगल पर यही कुछ सर्च कर रहा था, तो इस न्यूज़ स्टोरी पर नज़र पड गई...आप भी देखिए...



हमारे मुल्क में एक तो इस तरह के मुद्दे पर बातें बड़ा सोच समझ कर करनी पड़ती हैं....कौन जाने कब कौन सी बात को मज़हबी रंग दे दिया जाए...नेट से वैसे भी सब कुछ पता चल ही जाता है ...बस, खबरों को छानते वक्त छाननी अच्छी होनी चाहिए हाथ में ... आज मुझे यह पता चल गया कि हलाल और झटका एक ही बात नहीं है....वैसे तो एक ही है यार, जानवर तो बेचारा मर ही गया न ...चाहे विधि कोई भी अपना लो, भाई....वह तो गया बेचारा....बाकी, तो सब लड़ाई-झगड़े के मुद्दे हैं, अगर वैसे ही इस देश में कम हों तो इसे भी उस में शामिल कर लीजिए...

झगड़े की बात पर आज के पेपर में यह बात दिख गई कि केरल में एक महिला दुकानदार ने अपनी मीट की दुकान पर यह बोर्ड लगा दिया कि उस के यहां नॉन-हलाल मीट बिकता है ...बस, टूट पड़े लोग उस पर ...आप देखिए ख़बर को ...

Times of India, Mumbai - Oct.27, 2021

जब तक मैंने वह ऊपर वाला बीबीसी का लिंक नहीं खोला था, मुझे यही लग रहा था कि नॉन-हलाल का मतलब वही पंजाब में बिकने वाला झटका मीट होगा.....नहीं, मैं गलत था...नॉन-हलाल से मतलब कुछ और ही था...


लड़ाई, झगड़े, फ़साद करने का बहाना चाहिए...आप ने इस ख़बर में पढ़ लिया होगा ...इतने धर्म हैं यहां, इतना मुख़्तलिफ़ खाना पीना है, इस में पड़ कर जब चाहे जितना चाहे लड़ लें, लड़ते लड़ते मर जाएं, कोई छुड़ाने न आएगा....मरने वालों की चिताओं पर पॉलिटिकल नॉन लगाने लोग उमड़ पडेंगे ...बेहतर होगा, हम सब शांति से जिएं और दूसरों को भी जीने दें..

वैसे भी हम लोगों का कुछ भी बर्दाश्त करने का मादा बिल्कुल ख़त्म हो चुका है...आज की अख़बार में यह भी ख़बर दिखी कि परसों यहां मुंबई में एक 15-16 साल के छात्र को उसके दो साथियों ने एक बार ऐसे ही मज़ाक में सिर पर थोड़ा हाथ मार दिया....उसे इतना बुरा लगा कि अगले दिन उसने उनमें से एक को चाकू से गोद कर मार डाला ...

काश, हम सब थोड़ा सा सहनशील बन जाएं....यह नहीं वे बन जाएं, वो बन जाएं, ये बन जाएं....हमाम मे ं हम सब नंगे हैं, इसलिए चुपचाप हमें थोड़ा सा सहना सीखना ही होगा, थोड़ा सा किसी की बात को झेलना ही होगा....हर बात पर तुनकमिज़ाजी बहुत नुकसान कर देती अकसर ...इस गीत से ही चलिए कुछ सीख लेते हैं....और नफ़रत की लाठी को तोड़ कर, जला ही डालते हैं ताकि फिर से उस के जुड़ने की गुंजाईश ही न रहे ....


लेकिन पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते यह ख़्याल आ गया - झटका हो गया, ङटकई भी हो गया लेकिन यह झटका महाप्रसाद क्या हुआ...कुछ खास नहीं, इसे आप आज से 50 साल पहले के ज़माने की स्लैंग कह सकते हैं....अकसर घर में जब बात चलती, ख़ास कर किसी मेहमान के आने पर कि खाने में क्या बनाया जाए तो कहीं से यह आवाज़ आ जाती....झटका महाप्रसाद ही बनेगा, और क्या 😄....यानि कि मीट ही बनाया जाए...😎

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

ये कहां आ गए हम ...2

 मैसेज पर पूरा कंट्रोल ....

मैं कईं बार सोचता हूं कि आज के दौर में हम लोगों के पास मैसेज पर पूरे का पूरा कंट्रोल है...सोशल मीडिया पर या यूं कह लें वॉटसएप पर कोई पोस्ट दिखी...हमें लगता है कि उस के ऊपर कुछ तो उसी वक्त टिप्पणी लिखना बनता है ...और हम लोग दस मिनट लगा कर सोच समझ कर कुछ लिख भी लेते हैं, लेकिन पूरा लिखने के बाद ख़्याल आता है कि यार, यह तो एक पंगा लेने वाली बात हो जाएगी...

जिस वाट्सएप ग्रुप के मैंबरों के आगे बंदे को हीरो बनने की तमन्ना होती है, उन में से ज़्यादातर का ऑफलाइन तो क्या ऑनलाइन भी हमारे साथ कोई लिंक नहीं होता...ऐसे में कोई क्या दिल से निकला कोई कमैंट लिखे...हम किसी भी ग्रुप के सदस्यों से अच्छे से वाकिफ़ भी नहीं होते ...उतना ही होते हैं अकसर जितना उन की डी.पी से वे हमें दिखाई पड़ते हैं...ऐसे में किसी भी पोस्ट पर जान मार कर कमेैंट लिखना ही बिलकुल बेवकूफ़ी सी लगती है..क्योंकि किसी ने कोई रिस्पांस नहीं देना होता...जिन लोगों से अपनी कामकाजी रिश्ते हैं उन की तो बात ही क्या करें, सब अपने आप में मस्त होते हैं, बहुत अच्छी बात है...लेकिन स्कूल के एक ग्रुप की मैं मिसाल देता हूं ...हम लोग जो 1973 से 1978 तक पांचवी से दसवीं कक्षा तक ...और जिन में कुछ हैं जो 1980 तक यानि... प्री-मैडीकल तक साथ थे, हमारा 30-35 लड़कों का एक वाट्सएप ग्रुप है, उस ग्रुप से जुड़ना बहुत अच्छा लगता है .....लेकिन उस में भी कुछ रब के बंदे ऐसे हैं जो सब कुछ देखते हैं, पढ़ते हैं ...लेकिन कभी भी कुछ नहीं बोलते...जैसे कसम खा रखी हो कुछ न कहने की..

हां, तो अपनी बात हो रही थी किसी वाट्सएप पोस्ट पर कोई रिमार्क्स लिखने की ...मेरे साथ कितनी बार ऐसा हुआ है कि मैं भावावेश में (पंजाबी में कहें तो गर्मी खा के, तैश च आ के ..) कुछ लिख तो देता हूं ...फिर उसे फट्टी की तरह पोच देता हूं ...बचपन में फट्टी पोचने में या स्लेट साफ करने में कुछ तो मेहनत लगती थी..लेकिन यहां तो उतनी भी नहीं लगती....और हमने मैसेज भिजवाने से पहले ही पोंछ देिया। कईं बार भिजवाने के तुरंत बाद - एक दो मिनट में ही यह महसूस होता है कि नहीं, इस मैसेज या कमैंट को ग्रुप में या वन-टू-वन चैट में भी पोस्ट करना ठीक नहीं....ठीक है जनाब जैसा आप कहें, दिल से आवाज़ आती है ...और अगर ग्रुप में पोस्ट किया है तो उसे सब के लिए डिलीट कर देने से पहले बस यह थोड़ा सा देख लिया जाता है कि कितने लोगों ने और किस किस ने उसे देख लिया है ...चलिए, कोई बात नहीं, देख लिया तो देख लिया...हम ने कौन सा कोई गुनाह कर दिया है। और फिर उसे डिलीट कर दिया..। लेकिन कभी कभी बंदा इसी ऊहापोह में रहता है कि मैसेज डिलीट करूं या रहने दूं ...इसी चक्कर में जब तक वह अपना मन बनाता है डिलीट करने के लिए ..तब तक वाट्सएप की उसे डिलीट करने की टाइम-लिमिट ही ख़त्म हो चुकी होती है ...बस, फिर उसे मन ममोस कर बैठना पड़ता है और दिल को तसल्ली देनी पड़ती है कि कोई बात नहीं, एक कमैटं ही तो है...😎

लिखते लिखते उस एक बहुत मशहूर गीत का भी ख़्याल आ गया है...अभी सुनवाऊंगा भी आप को ...घबराइए नहीं, गा कर नहीं, यू-टयूब की मदद लेकर ...मुझे तो लगता है कि हम लोग जहां ज़रूरत नहीं होती, वहां बोल देते हैं कुछ भी ...कैसे भी ...लेकिन जहां ज़रूरत होती, बहुत ज़रूरत होती है, वहां मौन साध लेते हैं....जैसे मुंह में ज़ुबान ही न हो....क्योंकि हमें लगता है कि यह पंगा लेने वाली बात हो जाएगी...आदमी वैसे ही घिसते घिसते पहले ही कईं तरह पंगे सुलटा कर दुनिया को समझने लगता है कि कोई किसी के साथ नहीं है, सब की अपनी अपनी जंग है ....जो ज़्यादा मुंह खोलता है, वही सिंगल-ऑउट हो जाता है, यही ज़माने का चलन रहा है...वही आस पास के बीस-तीस लोगों की आंखों में किरकरी की तरह चुभने लगता है .......ब्लॉगिंग की बात अलग है, आप अपनी डॉयरी में लिख रहे हैं, जो मन की मौज हो, लिखते रहिए...आप किसी को कुछ नहीं कह रहे, किसी सोए हुए शेर को जगा नहीं रहे ....बस, अपने मन की बातें वेब-लॉग (ब्लॉग) में दर्ज कर रहे हैं....करते रहिए...कहीं टिप्पणी नहीं भी करनी, बहुत बड़े मुद्दे पर तो न करिए...मस्ती से गीत सुनिए..


लो जी, मसखरी तो हो गई....इसी बहाने मैंने हमेशा की तरह सुबह सुबह अपना पसंदीदा गीत भी दो चार बार सुन लिया...मुझे सच में याद है मेरी नानी को भी यह गीत बहुत पसंद था...जब कभी वह हमारे पास आतीं और रेडियो पर यह टीवी गीत बजता तो उस का मंद मंद मुस्कुराना मुझे याद है आज भी....

लेकिन एक बात है जब हम लोग ज़रूरत के वक्त भी नहीं बोलते न - यह सोच कर कि हम क्यों बुरे बनें....यह अपने आप में एक बहुत बुरी बात है ....इसी बात पर मुझे पंजाबी के एक महान क्रांतिकारी लेखक की कविता का ख़्याल आ रहा है..लीजिए, आप भी पढ़िए, अगर चाहें .....

सब से खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना 

पंजाबी लेखक पाश की मशहूर कविता ...


सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

ये कहां आ गये हम...

यादें टेलीग्राम वाले दिनों की ....

अभी मैं अपने डाक्टर साथियों के ग्रुप में टाइम्स ऑफ इंडिया में आज छपी कुछ ख़बरें शेयर कर रहा था..कुछ काम करते हुए मज़ा सा आता है...बस, ऐसा नहीं है कि वे साथी अख़बार नहीं पढ़ते या उन्हें इस के बारे में पता न होगा..होगा, ज़रूर होगा..लेकिन यह जो मैंने कहा न ऐसी बातें शेयर करना एक ज़िम्मेदारी सी लगती है कभी कभी मुझे ...इस की भी कहानी है...सातवीं क्लास से लेकर शायद नवीं-दसवीं क्लास तक मुझे स्कूल में एक ड्यूटी मिली हुई थी...लाईब्रेरी पीरियड में सुबह सुबह लाइब्रेरी में जाना है ...पांच सात ख़बरों के हैडिंग चुनने हैं जिन्हें स्कूल के प्लेग्राउंड के सामने वाले एक ब्लैकबोर्ड पर लिखना होता था मुझे गीले चाक ...मुझे बडा़ अच्छा लगता था जब रिसेस के दौरान स्कूल के बहुत से साथी उन ब्लैक-बोर्डों के आस पास खड़े उन ख़बरों को पढ़ते थे...मुझे कहीं न कहीं मन में इस बात का कुछ तो फ़ख्र भी होता ही था कि यार, जो मैं चाहूं ...जिन ख़बरों को मैं चुनूं, साथी उन को ही पढ़ते हैं...दसवीं तक पहुंचते पहुंचते तो मुझे स्कूल के मैगज़ीन का स्टूडेंट एडिटर बना दिया गया था...अब वह बॉसी वाली बासी फीलिंग नहीं है, अब तो यह है कि काम की चीज़ें हैं वे हरेक तक पहुंचें ..कोई बात नहीं, पहले अगर पहुंच भी चुकी हैं तो रिमांइडर ही सही...वह भी तो ज़रूरी है...

ऐसी काम की चीज़ों की बात करते हैं तो मुझे मेरे ताऊ जी की चिट्ठीयां याद आ जाती हैं... दो एक बार वे एन्वेल्प में मुझे यही बंबई टाइम्स आफ इंडिया की दांतों से जुड़ी कोई आर्टिकल भेज देते थे ..वे यहीं खार में रहते थे...यह 1982-83 की बातें हैं, जब मैं बीडीएस कर रहा था..लेकिन मैं उन्हें अच्छे से पढ़ कर संभाल कर रखता था...मुझे अच्छा भी लगता था। 

ख़तो-किताबत के लिए कबूतरों का इस्तेमाल होता था....हमने सुना ही है ...लेकिन डाक के ज़रिए आने वाली चिट्ठीयों का दौर तो हम ने देखा है....तारें- टेलीग्राम आती देखी हैं...जिन में होता था कोई जश्न का पैगाम या रोने-धोने की ख़बर....हमने यह सब देखा...याद है हमें ....किस तरह से डाकिया जब टेलीग्राम की आवाज़ ही देता था तो जैसे सारे कुनबे की जान ही निकल जाती थी...अच्छा, एक बात और....जो भी जाता, कांपते हाथों से साइन करता करता पूछता डाकिये से कि क्या है इसमें....अब मुमकिन हो सकता है डाकिये को पता भी न होता हो कि खबर अच्छी है या बुरी ...लेकिन अगर कोई पढ़ने को कहता तो वह पढ़ भी देता। हां, मुझे याद है जब तक डाकिये की आवाज़ से लेकर डाकिये से टेलीग्राम हासिल कर के घर के किसी पढ़े-लिखे सदस्य को वह टेलीग्राम थमा न दी जाती और वह उसे खोल कर पढ़ न लेता, घर के सारे लोगों के चेहरों की हवाईयां उड़ी रहतीं...और दिल धक धक ऐसे किया करता हम बच्चों का भी, जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा। कोई बे-फिज़ूल की तारें वारें भी देने भेजने लगे थे ....उन दिनों ...जन्मदिन की, बधाई की ...और भी ...और उन के चार्जेज फिक्स हुआ करते थे ...यही कोई साढ़े तीन रूपये ...लेकिन इस तरह की तार जब मिलती तो घर में खुशी से कहीं ज़्यादा उसे खोल कर राहत ज़रूर मिलती......बीजी तो अकसर कह ही देतीं.....सच्ची, तार सुन के ही जान निकल जांदी ए...(सच में तार का नाम सुन कर जैसे जान ही निकल जाती है...) ...

जब मैं इस पोस्ट को लिखने बैठा था तो मेरे मन में कुछ और चल रहा था, लेकिन लिखते हुए इन तारों के तार ऐसे जुड़ने लगे कि लगता है आज इन के बारे में ही बातें कर लूं...बाकी की फिर कभी कर लेंगे ...

तारें ख़ुशी-गमी की तो आती ही थीं, अगर कहीं आप का दाखिला हो गया है तो भी तार ही आती थी....मुझे याद है 1985 में जब मेरा एमडीएस में एडमिशन हुआ...तब मेरिट लिस्ट के आधार पर ही होता था...तो मुझे भी तार ही मिली थी। ऐसे ही जब कहीं नौकरी लगती थी तो उस की भी ख़बर बुहत बार टेलीग्राम से भी आती थी और हां, इंटरव्यू का बुलावा भी तो कईं बार टेलीग्राम से ही आया करता था। और सरकारी मुलाज़िम अगर घर गया है तो उसे किसी कारण अपनी छु्ट्टी बढ़वानी है तो भी तार भी भिजवा देता था ...और वह भी एक्सप्रेस तार। और कईं बार तो ऐसा भी सुना कि कुछ सरकारी मुलाज़िम ( फ़ौजी, पैरामिलिट्री फोर्स ेके लोग भी कभी कभी ...इसे स्टेटमेंट के तौर पर मत लें...लेकिन होता रहा है ऐसा भी ...सही गलत की बात नहीं कर रहा हूं, जो देखा-सुना, उसे दर्ज कर रहा हूं..हरेक की अपनी मजबूरियां भी होती हैं...) अपने घर वालों को कह कर किसी के बीमार होने की टेलीग्राम ख़ुद को भिजवाने की ताक़ीद करते और वह तार मिलने पर अकसर उन को छुट्टी मिल भी जाया करती। 

मैं अभी सोच रहा था कि स्कूल की पढ़ाई में एक काम होता था प्रैसी लिखने का ... Precise writing--- किसी एक पैराग्राफ को छोटा कर के लिखना ..और एक तिहाई शब्दों में ...यह अंग्रेज़ी का एक प्रश्न भी होता था...शर्त यही होती थी कि सारी बात कह भी दी जाए लेकिन एक तिहाई जगह में...जब कभी तार देने टैलीग्राम ऑफिस जाते थे तो जैसे वह अपना प्रैसी लिखने का एक छोटा-मोटा परचा ही हुआ करता था...हाथ में होते तो थे, 10-15 रूपये ज़रूर लेकिन मेरी कोशिश यही रहती थी कि यार, यह काम अगर साढ़े तीन रूपये से ज़्यादा होता है तो इस का मतलब हम ने इंगलिश ठीक से पढ़ी ही नहीं...

लीजिए, हम ने टैलीग्राम का फार्म भर कर बाबू को दे दिया...उसने कंटैंट के अल्फ़ाज़ गिने और हमें बता दिया - साढ़े पांच रूपये दीजिए...हमने उसे फार्म लौटाने को कहा और उस में से दो चार लफ़ज़ या तो उस एड्रेस से कांट-छांट दिए या अपना लिखे की ही कुछ छंटनी कर दी....फिर उसने बताया कि हां, चार रूपये दीजिए...हम उस डेढ़ रूपये को बचा कर बहुत खुश होते...और वह रसीद काटने से पहले यह भी ज़रूर पूछता कि आर्डेनरी भिजवानी है या एक्सप्रेस....एक्सप्रेस का रेट डबल होता था...हमने तो हमेशा आर्डनही तारें ही भिजवाईं हैं...हमें यह फ़िज़ूलखर्ची भी लगती थी, पैसे भी चाहे होते थे लेकिन इन कामों के लिए नहीं होते थे...हमें हमेशा यही लगता था कि तार तो तार है, उस में क्या आर्डेनरी और क्या एक्सप्रेस ...एक ही मशीन से भिजवा रहे हैं....लेकिन यह तो थी मज़ाक की बात ...हमने देखा फ़र्क कुछ तो होता था ...वह यह कि तार बाबू अपनी मशीन पर टिकटिक कर जब तार भिजवा रहा होता तो उस के पास तारों के फार्म का पुलिंदा लगा रहता ...और जो तारें एक्सप्रेस बुक होतीं उन्हें वह पहले टिक-टिक कर के आगे भिजवा देता था ...अब यह मुझे नहीं पता, न ही किसी से कभी पता ही चला कि पहुंचने वाली जगह पर क्या एक्सप्रेस तार को किसी के घर पहुंचाने के लिए हर वक्त कोई डाकिया साईकिल की गद्दी पर बैठ कर हर वक्त तैयार रहता था या नहीं...

लिखते लिखते एक बात यह भी याद आ गई कि पहले लोग किसी को कोई गलत-शलट चिट्ठी तो लिख ही देते थे....कमबख्त इतने भोले थे कि यह भी नहीं समझते थे कि लिखावट से तो पकड़े जाएंगे...जैसे मुझे याद है मैं पांच सात का रहा हूंगा ..हमारे घर में एक पोस्टकार्ड आया जिस पर रंग भी लगा हुआ था ...वह भी कुछ कलर-कोडिंग तो हुआ ही करती थी उस दौर में... किसी की मृत्यु की खबर लिखी थी उसमें...दो चार मिनट की छानबीन हुई , शक हुआ तो उस पर लगी स्टैंप का पोस्टमार्टम हुआ...बड़ी बहन ने लिखावट का विश्लेषण किया तो पड़ोस में रहने वाले मुंशीए के किसी बच्चे की यह कारस्तानी थी...(मुंशी लाल तो उस बंदे का नाम था, लेकिन जैसे तब रिवाज़ था, मुंशीआ, मुंशीए, मुंशीए दी वोटी, मुंशीए दी कुड़ी..)....नहीं, कोई लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ, किसी को जब पता चल जाए कि उस की करतूत सामने आ गई है तो वह भी एक सज़ा ही होती है...मोहल्ले में नाम तो खराब हो ही जाता है..! इसी तरह लोग तारें भी किसी दूसरे के नाम से भिजवा दिया करते थे...

मुझे याद है इन तारों वारों में उलझते, बचते बचाते हम लोग कब 1990 के दशक तक पहुंच गए ...पता ही नहीं चला...लेकिन यह याद है मुझे जब 1992 जनवरी में रेलवे स्टॉफ कालेज से ख़बर मिली कि आप को मैडीकल इंडक्शन में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए  पदक लेने के बडो़दा आना है, मुझे बहुत खुशी हुई....इतनी खुशी हुई कि मैं बाम्बे सेंट्रल से ग्रांट रोड स्टेशन के पास ही स्थित एक टेलीग्राम आफिस चला गया शाम के वक्त अपने घर इस खबर को तार के ज़रिए भिजवाने के लिए....और उस दिन मेैने दिल खोल कर मैटर लिखा था....शब्दों की परवाह किए बिना ...😎और शायद उसी साल जब हम एक शादी में चंडीगढ़ गये हुए थे तो वहां मेरे बेटे ने कुछ ऐसा खा लिया कि उस के गले के अंदर सूजन सी हृो गई..पीजीआई में दाखिल किया गया उसे .. यही एक सवा साल का ही था तब वह ...वहां से छुट्टी बढ़ाने के लिए तार भिजवाई थी...

यही तीस साल से तार भिजवाने का या कहीं से हासिल करने का कोई अनुभव नहीं है ...वैसे तो बीस साल ही कहना चाहिए...क्योंकि 2012 या 2013 की बात है जब मीडिया में यह एक तारीख अनाउँस हो गई कि इस दिन से डाक तार विभाग तार विभाग पर ताला लगाने जा रहा था ...याद है मैं और मेरा छोटा बेटा उसदिन से एक दिन पहले शायद लखनऊ के बडे़ डाकखाने में गए...मैं तो अपनी याद ताज़ा करने के लिए ..और छोटू यह देखने के लिए कि यह तार-वार होते क्या हैं....और हमने बंगलौर में रहते बेटे को एक टेलीग्राम भिजवाई ......उसने वह संभाल कर रखी है ...लेकिन उसमें वह पहले दौर वाला चार्म गायब था, सब कुछ टाइप किया हुआ था..पहले तो लंबी लंबी पट्टियों पर जैसे कुछ प्रिंट हुआ रहता था जिन्हें तार विभाग वाले काट कर कागज़ पर चिपका कर सही पते पर भिजवा दिया करते थे...

 मैंने ऊपर लिखा न कि कुछ स्टैंडर्ड बीस-तीस संदेश हुआ करते थे जिन्हेंभकंशेशनल रेट पर भिजवा दिया जाता था ...जैसे खुशी, गमी, किसी के पास होने की बधाई, शादी का लड्डू खाने की बधाई...कुछ भी ...बस, बाबू को यही बताना पड़ता बड़े ख्याल से कि पंद्रह नंबर मैसेज भिजवाना है ...

और एक बात ...जहां पर आप कोई ख़त अगर भेज रहे हैं तो अगर आप चाह रहे हैं कि आप की लिखी बात पर फ़ौरन काम हो जाए...जिसे चिट्ठी भिजवायी है, वह तुरंत घऱ लौट आए, कुछ पैसे भिजवा दे, कोई और काम कर दे जो उसे करना है तो कुछ लोग ख़त के नीचे यह लाइन ज़रूर लिखवा दिया करते थे कि इस ख़त को तार समझ कर इसे पढ़ते ही घर आ जाओ, पिता जी की तबीयत ठीक नहीं चल रही। उस एक मशहूर गीत में एक लाइन भी तो है ...मेरी मजबूरी समझो...कागज़ को तार....

और एक बात, टेलीग्राम आफिस में कुछ लोग ऐसे भी हमेशा होते थे जो तार तो देने आ गये होते...लेकिन उन्हें फार्म भरना न आता....लेकिन वहां खड़े हम आखिर किस मर्ज़ की बीमारी थे अगर हम इतना सा काम न कर पाते....हम खुशी खुशी उन का काम पूरे दिल के साथ करते ...अपनी प्रैसी लिखने की कला को मांजने का ऐसा मौका हम कैसे जाने देते...😎😎...रिटायरमेंटी के बाद जो लोग डाकखाने और बैंक में जाकर लोगों की तरह तरह से लिखने-पढ़ने के कामों में निष्काम सेवा करते हैं, मुझे वे बहुत भले लगते हैं..

पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे ......होठों पर लगा ले चाहे ताले कोई चुप्प के ..
वाह! गीत लिखने वाले को कोटि कोटि नमन...

शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

डाक्टर के चेंबर की एम्बिऐंस

कभी कभी हमें जब पुराने दौर के लोग यकायक याद आते हैं तो उन के साथ एक ज़माना याद आ जाता है ....

कुछ दिन पहले मुझे किसी ने कहा कि उनके यहां जो डाक्टर है न ..दिल्ली में ... उसने अपने सारे कमरे को अपनी डिग्रीयों, प्रशंसा पत्रों और यहां तक कि जितनी कांफ्रेंसों में वह जा चुका है वहां से मिले सर्टिफिकेटों को सजा रखा है? ....मुझे उस बंदे का बात सुनते ही बड़ी हैरानी सी हुई, मन ही मन मैंने सोचा कि इसे सजा रखा कहते हैं....मेरे नज़र में तो इसे कहेंगे बेचारे ने अपना जीना ही दूभर कर रखा है..

ऐसे ही मुझे याद आया कि कुछ साल पहले - यही कोई चार पांच साल पहले की बात होगी- तब हम लोग टीवी देखा करते थे...एक बार किसी बहुत बड़े आर्मी के डाक्टर की कोई ब्रीफ सी इंटरव्यू दिखी - इंटरव्यू में उसने क्या कहा, उस तरफ़ तो कुछ ध्यान नहीं गया, ट्राफियों, शील्डों से खचाखच भरे उस के कमरे को तकते ही सिर दुखने लगा था...कोई कोना ऐसा न था जिसे बंदे ने छोड़ दिया हो ...हर तरफ़ यही सब फ्रेमों में लटका रखा था...शेल्फों पे सजा रखा था...

1997 की बात है ...छोटे बेटे का जन्म अभी न हुआ था... यही कुछ दो चार दिन ही बाकी थे...महिला रोग विशेषज्ञ को कुछ संदेह हुआ होगा...उन्होंने ग्रांट रोड में एक अल्ट्रासाउंड क्लिनिक में भेजा...ज़ाहिर सी बात है हम बहुत टेंशन में थे...होता ही है...लेकिन आज भी याद है कि जब उस के क्लिनिक के वेटिंग एरिया मे एक पोस्टर को देखा तो जैसे कहते हैं न मन ठहर सा गया...मन की सुकून मिल गया...मैंने तो उसे बार बार पढ़ा...मिसिज़ तो अंदर चली गईं...लेेकिन मैं जितनी बार भी उसे पढ़ रहा था मुझे अच्छा लग रहा था, उस में लिखे अल्फ़ाज़ हमेशा मेरे साथ रह गए....वहां टंगे एक साधारण से पोस्टर पर (जो पहले कागज़ के न आते थे, जिन्हें फ्रेम करवा लिया जाता था...) यह लिखा था...Seek the will of God, nothing more, nothing less, nothing else! 

उस दिन पढ़ी यह बात कहीं न कहीं हमारी मोटी बुद्धि में भी घर कर ही गई 😎

बात है भी तो कितनी बढ़िया, होता तो वही है मंज़ूरेख़ुदा होता है ....बाकी तो हम जितना मर्ज़ी हाथ पांव मार लेते हैं...ये बातें हमने प्रत्यक्ष रूप से देखी हैं अनेकों बार...यह क्या मैंंने एक उर्दू लफ़्ज़ लिख दिया..मंज़ूरेख़ुदा- कोई बवाल न उठ जाए...ये जो नया फितूर हम लोगों के दिलो-दिमाग पर चढ़ गया है न ...उर्दू लिखने से हिंदुत्व कम न हो जाए, इस के बारे में भी बहुत से विचार आ रहे हैं जब से फैबइंडिया ने अपनी फेस्टिवल रेंज को लॉंच करते वक्त लिख दिया जश्ने-रिवाज़ ....एक दम ट्विटर पर तो जैसे बवाल उठ गया कि ये क्या है। इस वक्त इस मज़मून के बारे में लिखना मुनासिब नहीं है, इस पर बाद में बात करेंगे कभी..लेकिन करेंगे ज़रूर...

मैं जब किसी डाक्टर के कमरे मे जाता हूं और अगर वहां पर किसी तरह की न तो फोटो ही होती है...हमारे लाखों-करोड़ों देवी-देवताओं में से भी किसी की नहीं, और न ही कोई शील्डें, ट्राफीयां.....बस, डाक्टर का मुस्कुराता हुआ चेहरा ही दिखता है ...तो मुझे बहुत अच्छा लगता है...सोचने वाली बात है कि जब कोई मरीज़ भी किसी डाक्टर के पास जाता है तो  उसे इस के अलावा चाहिए भी क्या! बिल्कुल कुछ नहीं...

लिखते लिखते ख़्याल आया है कि कहीं पढ़ने वाले यही न सोच लें कि मैं यह सब इसलिए तो नहीं लिख रहा हूं कि मेरे पास कमरे में टांगने के लिए कुछ न होगा...चलिए, छोटा मुंह और बड़ी बात कर ही लेते हैं थोड़ी सी ..हमें भी 60 बरस तक पहुंचते पहुंचते इतना कुछ तो हासिल हो ही गया है कि पूरा कमरा हम भी आसानी से भर सकते हैं...डिग्रीयां ही इतनी हैं, अवार्ड इतने हैं (जिन के बारे में हमने किसी को बताया भी नहीं कभी)...यह काम हम भी कर सकते हैं...लेकिन हमें इन सब का डिस्पले करने में बहुत लज्जा आती है...(मेरे जैसे इंसान को आनी तो नहीं चाहिए, लेकिन यह बीमारी पता नहीं कहां से लग गई ....) इसलिए सब कुछ एक अल्मारी के किसी कोने में छिपा कर रखते हैं...कईं बार चोरी भी हो जाती है ...1989 में मुझे यहीं बंबई में हाटेल पाम-ग्रोव में फेडरेशन ऑफ आप्रेटिव डेंटिस्ट्री ऑफ इंडिया की काँफ्रेस में बेस्ट-पेपर अवार्ड मिला था...पहली बार ...बहुत बड़ा कप था..लेकिन वह कप ही कोई चुरा कर ले गया....बाद में मुझे हंसी भी आती है जब सोचता हूं कि शायद उसे भी पता होगा कि मुझे इन सब चीज़ों को सजाने का कोई शौक नहीं है, इसलिए वह मेरा भार हल्का कर गया....एक मज़ेदार बात बताऊं...वह कप बहुत बड़ा था, मुझे लगा चांदी का है, होगा कई हज़ारों का...मैं कुछ दिनों बाद उसे एक ज्यूलर-शाप में दिखाने भी गया (बेचने नहीं, बस दिखाने ही 😎)- वहां पता चला कि यह चांदी-वांदी कुछ नहीं है ...लेकिन उन दिनों मेरे लिए इसे हासिल करना ही बहुत बड़ा सम्मान था, अखबारों में ख़बर भी आई थी...

अपना राग अलापना कुछ ज़्यादा ही न हो जाए....लेकिन अपने बारे में इतना ही कहूंगा कि थोथा चना बाजे घना...इस के आगे कुछ नहीं...सोचने वाली बात यह भी है कि अगर हम सच में तीस मार खां हैं, डाक्टरी की बहुत सी किताबें पढ़ी हैं, मरीज़ों को ठीक किया है, तो यह समझ लीजिए कि मरीज़ भी इतने अनाड़ी नहीं हैं, वे यह सब कुछ सुन कर ही आ रहे हैं हमारे पास....अगर हमारे पास हुनर है तो हमें अपने कमरों में, अपने वेटिंग रूम में इतना कुछ डिस्पले करने की कुछ भी ज़रूरत नहीं है, और अगर मेरे जैसे बंदे के पल्ले कुछ भी नहीं है तो मेरी सैंकड़ों, ट्राफियों की पोल मरीज़ के सामने चार दिन में खुल जाएगी...यकीन मानिए, यही होता है ...लेकिन हम समझते नहीं, हमारी दिक्कत यही है कि हम समझते हैं कि हम अपने आप को ही स्मार्ट समझते हैं, मरीज़ को कुछ नहीं पता ऐसा लगता है हमें, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, अनपढ़ मरीज़ भी दुनिया की पढ़ाई अच्छे से किया हुआ है...वह ऐसे ही अपना शरीर डाक्टर के  सुपुर्द नहीं कर रहा ...ज़्यादातर तो वह सोच-विचार कर के ही आप तक पहुंचता है...

हां, कुछ एक्सेपशन्ज़ हैं. जैसे बच्चे के डाक्टरों के यहां कुछ ऐसा रखा हो, कुछ ऐसा टंगा हो...जैसा भी शिशुरोग विशेषज्ञ चाहें, तो बच्चों का मन लगा रहता है, उन को बिंदास और खुश देखकर  साथ उन के मां-बाप भी बच्चे की तकलीफ़ तो भूल ही जाते हैं, कुछ ही समय के लिए ही सही तो भी काफ़ी है ....क्योंकि बाकी तकलीफ़ अंदर बैठा कोई डाक्टर आर के आनंद जैसा शिशु रोग विशेषज्ञ दूर कर देगा। जी हां, हमें 23-24 साल पहले की इस डाक्टर की बड़ी ख़ुशनुमा यादे हैं...मैं किसी से भी बहुत कम इंप्रेस होता हूं..इसे नखरा कहें या कुछ कहें ..लेकिन एक बार होता हूं तो फिर ताउम्र उस का कायल रहता हूं...हम छोटे बेटे को इन के पास लेकर जाते रहे ...नियमित जांच के लिए ...वह कहते हैं न कुछ कुछ महीने बाद बच्चों के डाक्टर के पास शिशु के लेकर जाना चाहिए..इन का क्लिनिक इतना शांत और ये डाक्टर साहब और इन की मैडम डबल शांत....बच्चा तो बच्चा, उस के मां-बाप भी उस की बीमारी भूल जाएं...इतनी चोटी का डाक्टर होते हुए भी इतनी हलीमी, आंखों से झलकता कंसर्न....क्या कहें, कुछ लोग होते ही ऐसे हैं....लेकिन जो बात मैं कहना चाह रहा हूं वह यही कि पूरे क्लिनिक में एक भी पोस्टर नहीं, एक भी बाबा-फाबा की कोई तस्वीर नहीं ....कहीं किसी डिग्री या किसी अवार्ड की कोई नुमाइश नहीं....बस, इन के बारे में फिर कभी डिटेल में बात करूंगा...अभी डा आनंद को इस वक्त थैंक-यू-फॉर एवरीथिंग कह कर इन से रूख्सत होते हैं... 

अब आप को लेकर चलते हैं पंजाब में एक जगह ...शहर नहीं बताऊंगा ...न ही डाक्टर कौन था....वैसे पता मुझे भी नहीं, बिलकुल सुनी सुनाई बाते हैं, कहीं से सुन ही रखा होगा...रिटायरमैंट के बाद कुछ रह गए हिसाब चुकता करने हैं, तब इन बातों को ठीक से पता करूंगा ...तो सुनिए जनाब बीस साल पहले एक डाक्टर के बारे में सुना करते थे जिसने अपने कमरे में दुनिया भर के देवी-देवताओं की तस्वीरें, अपने दोनों हाथों की दसों उंगलियों में दस तरह के नगीने, नग, स्टोन (जो भी आप कहें, मुझे में कभी इन में कोई रूचि रही नहीं) ...हमें तो एक अंगूठी पहनना भी गले की फांस जैसा लगता है...और हां, यही नहीं, हाथों पर तरह तरह के धागे, माथे पर टीका..सुनते हैं कमबख़्त घोर पाखंडी था या है, कमरे में धूप, ज्योति, अगरबत्ती....लेकिन उस का काम करने का तरीका था एकदम शर्मनाक..बिना पैसा लिए किसी का कोई भी काम न करता था...एक तरह से बिकाऊ था, यही कहना मुझे मुनासिब लगता है...सुबह सुबह निगेटिव लोगों से न तो बात करना चाहिए और न ही इन का ख़्याल ही करना चाहिए, सारे दिन की वाट लग जाती है....रिटायरमेंटी के बाद फ़ुर्सत में लिखने के लिए मोमायर्ज़ के लिए भी तो कुछ मसाला और किरदार चाहिए...उस दौरान भी तो टाइम-पास का कोई ज़रिया चाहिए, वरना तो पगला जाने के पूरे चांस हैं, क्योंकि दिमाग में ठूंस ही इतना कुछ रखा है 😎...लेकिन मैं इतना ज़रूर कहता हूं कि मैं लिखूं चाहे कितना भी खराब, व्याकरण के नज़रिए से या लिटरेचर के तयशुदा मापदंडों के नज़रिए से भी , लेकिन लिखता मैं हमेशा सच ही हूं....वरना झूठ बात कहने से जो आत्मग्लानि होती है, वह मेरा सिर दुखा देती है ...जो फिर सारा दिन ठीक नहीं होता, बिना डिस्प्रिन की एक गोली खाए।

एक ज़माना बीत गया ...हरियाणा में एक महिला रोग विशेषज्ञ के अस्पताल में दो-तीन बार जाने का मौका मिला ...लेकिन यह क्या, यह तो यार मेडीकल कालेज के अनॉटमी डिपार्टमैंट का म्यूज़ियम दिखाई पड़ रहा था, हर तरफ़ बड़े बड़े मर्तबानों में बड़ी बडी़ रसौलियों, ट्यूमरों आदि के स्पैसीमेन और साथ में टंगी हुई ऐसी ही ख़तरनाक तस्वीरें....आसपास बैठे बीसियों मरीज़, वे भी ज़्यादातर आस पास के गांव वाले...सोचने वाली बात यह है कि इन सब को देख कर उन सब के मन में क्या ख्याल आते होंगे...अनुमान लगाइए....वैसे तो अनुमान भी क्या लगाना है, बात तय है कि इन्हें देख कर उन के मन में डर, खौफ़ का भाव ही पैदा होता होगा....और क्या...। एक बार मैं अपने आप को रोक नहीं पाया ...वो कहते हैं न मुझे खामखां की तरह दूसरों के झमेलों में पड़ने की पुरानी आदत है ...मैने उस डाक्टर साहिबा को बेहद शालीनता से, विनम्रता से अपने मन की बात कह दी ....मैम ने सुन तो ली, पता नहीं उस का कुछ असर हुआ भी कि नहीं। 

जिस सामाजिक परिवेश में लोग ़डाक्टर के सफेद कोट को देख कर अपना ब्लड-प्रैशर 10-20 प्वाईंट बढ़ा लेते हों, उन्हें क्या इतने बड़े बडे़ मर्तबान  मानसिक तौर पर प्रताडि़त न करते होंगे...ज़रूर करते होंगे...

अधिकतर मरीज़ हमारे पास हमेशा नहीं आते....कुछ तो चंद मिनट के लिए आते हैं, फिर कभी उन का आना हो ही नहीं पाता...विभिन्न कारणों की वजह से ...लेकिन वे अपनी यादें तो छोड़ ही जाते हैं...हमारा बहुत कुछ भी साथ ले कर चले जाते हैं.....हमारे कमरे का माहौल, हमारे स्टॉफ का बर्ताव, हमारी बोलचाल, हमारा दोस्ताना रवैया....और हां, हमारा नुस्खा भी .....(दर्द से बेहाल, परेशान, फटेहाल उसे हमारी उपलब्धियों को निहारने की फ़ुर्सत कहां...) ....मुझे इस पोस्ट के अंत तक पहुंचते पहुंचते यही लगने लगा है कि मैने कुछ ज़्यादा ही आईडियल चीज़ें लिख दी हैं...लेकिन वह भी ठीक है, कम से कम हम उन की तरफ़ ताकते रह सकते हैं जैसे हम एक अरसा पहला उस अल्ट्रा-साउंड के माहिर डाक्टर के वेटिंग रूम में बैठे एक साधारण सी बात को ताकते-पढ़ते रह गए थे और वह बात हमारे अंदर भी कहीं न कहीं घर कर गई...

जाते जाते एक मशविरा और...डाक्टर एक से एक बढ़ कर हैं, कोई किसी से कम नहीं...लेकिन फिर भी इस वाट्सएपिया दौर में मरीज़ों की प्राईव्हेसी और देखने वालों के मानसिक स्तर को देखते हुए तस्वीरें वही शेयर करें जिन्हें देखने वाले झेल पाएं.....बहुत बार सुना है कि डाक्टर अपने मरीज़ों को भी अपने सर्जीकल कारनामों की फोटो फारवर्ड कर देते हैं.....लेकिन क्या यह इमेज बिल्डिंग है, या मरीज़ों की मोरल-बूस्टिंग है......नहीं, यार, कुछ नहीं है यह, सिवाए उसे डराने के। 

अब इतनी सारी भारी-भरकम बोरिंग बातें कर के, इतना फालतू ज्ञान बांटने के बाद मेरे लिए अगला मुद्दा है ...अपने माइंड को फ्रेश करने का ....जिसके लिए मुझे इस वक्त मेरे दौर के इस गीत के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा ....जिसे मैं अब कईं बार सुन कर ही दम लूंगा....आप भी सुन लीजिए, गुज़रे दिनों की यादों के समंदर में गोते लगाने का थोड़ा तो लुत्फ़ लीजिए...


मेरे ख़्याल में डाक्टर का कमरे की दीवारें बिल्कुल खाली होनी चाहिएं...अगर किसी हंसते-खिलखिलाते बच्चे या किसी खूबसूरत कुदरती नज़ारे की तस्वीर हो तो टांग दें...हंसते खिलखिलाते बच्चों की तस्वीरें सब से बढ़िया स्ट्रैस-बस्टर होती हैं...अब वह दौर भी गुज़र गया जब एक नर्स की फोटो वेटिंग एरिया में डाक्टर टांग देते थे जिस में उसने अपने मुंह पर उंगली रखी हुई है और ऩीचे लिखा हुआ है...बातचीत मत करें। मरीज़ों बेचारों की तो वैसे ही बोलती बंद हुई होती है, उन्हें इस तरह के रिमांइडर देना भी मुझे तो मुनासिब नहीं लगता...बाकी देश आज़ाद है, सब का अपना अपना नज़रिया और उसे ज़ाहिर करने का भी सब को पूरा पूरा हक़ है, जिस का मैंने अभी अभी इस्तेमाल किया 😄

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

महालक्ष्मी रेस-कोर्स का वॉकिंग-ट्रैक

मुंबई के महालक्ष्मी लोकल स्टेशन से ऊपर आकर इधर-उधर थोड़ा नज़रें दौडाएं तो फ़ौरन महसूस हो जाता है कि इस के आस पास सारा फ़लक ही कितना बदल चुका है...हर तरफ़ गगनचुंबी इमारतें जो बीस साल पहले न थीं...हर तरफ़ आकाश निर्बाध दिख जाया करता था..लेकिन आकाश ही क्यों, कुछ तो ज़मीन भी बदल गई - स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर पास ही जो महालक्ष्मी प्रिंटिंग प्रैस हुआ करती थी, अब उस की जगह एक खंडहर है ...मैं ेएक साल पहले साईकिल चलाता हुआ एक दिन सुबह उधर निकल गया था...मुझे नहीं पता अब वह ढह गई या वैसे ही पड़ी है...

मुंबई में रहते हुए कुछ साल बीत गये होंगे जब 1995 या उस के एक दो साल बाद यह मालूम हुआ कि रेस-कोर्स में घोड़े ही नहीं दौड़ते, लोग सुबह-शाम टहलते भी हैं...बॉम्बे सेंट्रल में जहां रहते थे वहां से 12 वें माले से रेस-कोर्स की हरियाली नज़र आती
थी...बारिश के दिनों में उधर देखना ही कितना सुखद हुआ करता था...

मुंबई वासियों के कभी न हार मानने के इसी जज़्बे पर मैं फ़िदा हूं....जीवन चलने का नाम...घुटनों की ऐसी की तैसी...चलेंगे कैसे नहीं 😄😎!


एक बार जब पता चला कि रेस-कोर्स में सुबह टहलने भी जाया जा सकता है...तो मैं कईं बार सुबह सुबह या कभी शाम के वक्त उधर निकल जाया करता। ज़्यादातर तो स्कूटर पर ही चला जाता, कभी कभी ट्रेन तक महालक्ष्मी और वहां से पैदल चल कर रेस-कोर्स तक जाने में 10 मिनट लगते थे..वहां जाकर कर दो चक्कर लगाता ...शायद पौने दो किलोमीटर का वॉकिंग ट्रैक है ...अच्छा तो लगता ही है जब हम सुबह -सवेरे इन हरी भरी जगहों पर जा पहुंचते हैं...एक तो क़ुदरत की अनुपम छटा, ठंड़ी ठंडी हवा के झोंके ...और उस वक्त मेरा नया नया खरीदा हुआ सोनी का वॉकमैन ...

उन्हीं दिनों हाजी हली के सामने हीरा-पन्ना कम्पलेक्स से 1500 सौ रूपये में सोनी का एक वॉकमैन खरीदा था....जब भी मैं इधर टहलने आता -सुबह या शाम कभी भी ...तो यह मेरा बढ़िया साथी हुआ करता था...उसे मैं वेस्ट-पाउच पर दो कैसटों के साथ टांग लेता और टहलते हुए दिल तो पागल है (गाना सुनने के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए),  दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, और एक फिल्म थी अब ध्य़ान में नहीं.....लेकिन यह जो दिल तो पागल है वाली कैसेट थी न, इस की तो ए और बी साइड को बदल बदल कर सैंकड़ों बार उस के गाने सुन कर भी दिल न भरता था...






सैंकड़ों बच्चों को एक साथ फुटबाल खेलते देख कर अच्छा लगा....



इन बाज़ों के दिल में क्या चल रहा है, मैं यह समझ नहीं पाया....

सोचा मैं एक सेल्फी ही ले लूं...


अभी कुछ दिन पहले भी एक दिन रविवार की सुबह उसी रेस-कोर्स में लगभग बीस बरसों बाद जाने का मौका मिला ... वहां तो ऐसे लग रहा था जैसे मेला लगा हुआ हो कोई...बहुत से लोग आए हुए थे...हां, मुझे याद आया जब मैं 1990 के दशक की बात करता हूं तो तब मोबाइल फोन भी न थे, शायद किसी किसी के पास पेजर वेजर दिखने लगे थे। मुझे याद है उन दिनों एक्ट्रेस नादिरा, बिंदु और सतीश शाह अकसर वहां पर सुबह या सवेरे टहलते दिखते थे...नादिरा और बिंदु तो साथ में आती थीं और हमेशा गुफ़्तगू में मशगूल दिखतीं ...हंसती-मुस्कुराती हुई। कुछ दिन पहले जब हम वहां थे तो एम्एच्ओर राइडर्स क्लब में कंगना रानौत घुड़सवारी करती दिख गई ..देख कर अच्छा लगा कि कुछ लोगों पर अपने शौक पूरे कर लेने की धुन अच्छी सवार होती है ....अभी सीख रही है घुड़सवारी...उसी वक्त मेरा ख़्याल उस वॉयरल वीडियो की तरफ़ गया जिसमें वह एक डम्मी-घोड़े पर सरपट भागी जा रही है....लेकिन उसने लगता है कि ठान लिया कि अब तो मैं झांसी की रानी की तरह घोड़े पर सरपट भाग कर ही दम लूंगी....बहुत अच्छे, ऐसा ही जज़्बा दरकार है कुछ भी करने के लिए।

रेस-कोर्स में एक वाकिंग टैक है जो सुबह चार घंटे और शाम को शायद तीन घंटे तक खुला रहता है ...शाम को शायद चार से सात बजे तक और सुबह पांच से नौ बजे तक ....इसे ऑनलाइन चैक कर लीजिए ..वहां पर भी बोर्ड लगा हुआ है। मुझे अभी लिखते हुए ख़्याल आ रहा है कि अभी तो लंबे समय से रेसिंग बंद है ...लेकिन बीस साल पहले जिन दिनों में मैं वहां जाता था, कईं दिनों वाकिंग ट्रैक के साथ वाले ट्रैक में जॉकी घोड़ों पर रेस की तैयारी करते भी दिखते थे...एक दम दुबले-पतले से लड़के घोड़ों पर चढ़े हुए और हवा से बातें करते हुए....पंजाबीयों में तो सेहत की निशानियां यह तो रही ही हैं...गालों और पेट का बाहर निकला हुआ होना...मैंने एक बार ऐसे ही जॉकीयों का ज़िक़ करते हुए यही दुबले-पतले लफ़्ज़ का इस्तेमाल कर दिया ...जिस के सामने कहा था, उसने मुझे इतना ही कहा कि तुम्हें उन के फिटनेस लेवल का कुछ इल्म है कि वे अपनी फिटनैस के लिए और अपने वज़न को एक किलो भी इधर-उधर न होने दोने के लिए क्या क्या करते हैं...ये जॉकी करोड़पति भी हैं जिन की फिटनेस के ऊपर रेस के घोड़ों की जीत हार मुन्हसिर होती है...

लिखते लिखते कल वाट्सएप पर हासिल हुई इस वीडियो का ख्याल आ गया...

मैं तो अब महालक्ष्मी रेस-कोर्स से काफ़ी दूर रहता हूं और टहलने के लिए वहां जाना मेरे लिए संभव नहीं है, लेकिन जो दोस्त पास ही में रहते हैं ...उन्हें वहां जाने का मशविरा ज़रूर दे सकता हूं...शायद जाते भी हों, लेकिन यहां वाट्सएप के आंकड़ों के आगे बात ही कहां हो पाती है किसी से। सुबह शाम टहलने के लिए अच्छी जगह तो है ही ....जिस दिन मैं वहां गया मुझे वहां टहलते हुए बड़ी बड़ी गगनचुंबी इमारतें देख कर यही लग रहा था जैसे मैं न्यू-यार्क के किसी नेबरहुड में हूं ...सूरज देवता उदय हो रहे थे तो जब हमें उस उदय हो रहे सूरज की सतरंगी, अनुपनम छटा के अच्छे से दीदार न हो पा रहे थे तो एक बार तो लगा कि ये स्काईस्क्रेपर जैसे यहां टहलने आए लोगों के हिस्से का सूरज भी हड़प लेने की फ़िराक में हों...लेकिन वो अपनी बॉलकनी में चाय की चुस्कीयां लेते सोचते होंगे कि हमें हमारे हिस्से की हरी-भरी जमीन, समंदर तो मयस्सर हुआ ...

वहां टहलते हुए भी वाट्सएप ने पीछा न छोड़ा ... एक इश्तिहार दिख गया...उस का मतलब क्या है, बेटे ने बता तो दिया लेकिन मुझे उस फीचर में कुछ ज़्यादा दिलचस्पी लगी नहीं...क्या एक बार और क्या अनेक बार ....जब कहीं पर कोई फोटो शेयर कर ही दी तो वह आप के हाथ से तो गई ...कोई उसी वक्त स्क्रीन-शॉट ले ले या दूसरे कैमरे से फोटो खींच ले और आप बिला वजह ख़ुशफ़हमी में रहिए कि हमारा तो यह फीचर एक्टिव है....

खैर चलते चलते निगाह चली गई ...उन स्पैक्टेटर गैलरियों की तरफ़ जो  रेस के दौरान खूचाखच भरी होती हैं...जिन बोर्डों पर रेस के नतीज़ें दिखा करते थे उन के भी चीथड़े उड़ चुके हैं...हां, उन गैललियों के पास ही लंबी लंबी लाइनों में बाज़ बैठे दिख रहे थे ...रेस कोर्स की तरह शायद वे भी रेसिंग शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हों....लेकिन नहीं, रेस कोर्स तो अपने मालदार शौकीनों का इंतज़ार करे तो बात पल्ले पड़ती है लेकिन ये बाज़ किस फ़िराक में हैं, यह समझ में नहीं आया....चलो, यार, समझ में नहीं आया तो दफ़ा करो,  दुनिया भर की चीज़ें सोचने समझने का ठेका हम ने ही थोड़े न ले रखा है, कुछ तो दूसरों के लिए भी छोड़ दिया जाए....

एक शायर कह रहे हैं....कुछ अल्फ़ाज़ में मैने गड़बड़ कर दी है शायद, लेकिन खूबसूरत बात जो उस शायर ने कह दी है कि थोड़ी सी नादानी भी रह जाए तो अच्छा ही होता है ....दूसरों के लिए भी, अपनी सेहत के लिए भी...😄

दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है...

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला...

वहां से लौटते हुए नज़र पड़ गई कुछ घास काटने वालों पर ....गोरखपुर से हैं, यहां पास ही में रहते हैं...ठेकेदार के बंदे हैं....शाम तक घास के जितने गट्ठे काटेंगे, उस के मुताबिक ही पेमेंट होगी, एक गट्ठे में 2-3 किलो घास रहती होगी...जिस के दो रूपये साठ पैसे मिलते हैं...कोई सौ काटे,दो सौ काटे ...उसी के हिसाब से पेमेंट...ठेकेदार के अपने ट्रक-ट्रालियां हैं जिन पर लाद कर यह घास गाय-भैंसों के लिए तबेलों तक पहुंच जाती है ...उन्हें यह अच्छा नहीं लग रहा था कि इस चारे को बिना काटे ही डाल देते हैं सेठ लोग अपने पशुओं को ..कह रहे थे कि वे भी क्या करें, 100-150 पशु पाले होते हैं उन लोगों ने भी ....मैने पूछा कि दोपहर के खाने का क्या करते हैं, बताने लगे सब कुछ साथ ही लाए हैं...पांच किलो की एक प्लास्टिक की बोतल भी सब ने अलग अलग पास ही रखी हुई थी...और खाना भी ...देर शाम तक काम करते रहेंगे...नवंबर के आखिर तक रेसें शुरु हो जाएंगी शायद ..

मुझे किसी ने बताया था कि इतने बड़े घास में सांप भी होते हैं ..उन्होंने कहा कि होते तो हैं हमें कुछ नहीं कहते, हम उन्हें कुछ नहीं कहते ...वे हमें दिखाई देते हैं, लेकिन तुरंत दूर कहीं निकल जाते हैं...उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें कुदरत सांप के पास होने का अलार्म दे देती है ...वह कैसे....आकाश में उड़ रहे पंछियों की तरफ़ इशारा कर के बताने लगे कि ये पंछी आते जाते रहते हैं, मस्त-मलंग उड़ते हैं लेकिन अगर ये कभी कहीं ठहर जाएं और ऊंची ऊंची आवाज़ें निकालने लगें तो इस का मतलब इन्होंने किसी ऐसे प्राणी को देख लिया है .....बस, हम उस वक्त सचेत हो जाते हैं...





उन से बातें करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि कुदरत के भी कैसे कानून-कायदे हैं......ज़रूरत है तो बस क़ुदरत के कायदों को थोड़ा बहुत पढ़ने की ....इन कायदों के साथ मिल-जुल कर रहने की ....वाट्सएप पर बहुत से मैसेज आते रहते हैं....मुझे भी एक ऐसा ही मैसेज याद आ गया और मैंने उन्हें हंसते हंसते कह दिया कि यार, यहां तो पब्लिक अपना खाना हज़्म करने के लिए परेशान है सो आई है...और आप लोग इतनी खुली फ़िज़ाओं में सारा दिन रहते हो, अपना काम करते हो, ख़ुश रहते हो...वे सब मेरी इस बात पर ख़ूब हंसे और मैं उन के इन ठहाकों की मीठी खनखनाहट को अपने साथ लेकर बाहर आ गया, क्योंकि अब धूप भी हो चुकी थी... !

एक बेहद सुरमयी गीत ....जिसे बार बार सुनना अच्छा लगता है...राखी जी का भी जवाब नहीं!


मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

कुंजीओं, गाईडों, गेस पेपरों, टेन-एयर पेपरों के सच्चे किस्से ....

कल मैं मराठी में लिखा कुछ पढ़ रहा था, मैंने गेस कर के उस में कही बात को समझने की कोशिश की ...और मुझे पता है मैंने गुज़ारे लायक समझ ही लिया था...लेकिन उसी वक्त मुझे ख्याल आ गया कि यह गेस-लगाने का काम तो हम लोग बचपन से करते आए हैं अपने स्कूल के ज़माने से ...इस बात का ख़्याल लंबे अरसे के बाद आया ...

गेस-पेपर्स (Guess Papers) का जब मैं नाम लेता हूं तो मुझे हमारे दौर की (यही कोई 40-45 साल पहले का दौर) कुंजीयां और टेन-एयर पेपर्ज़ भी याद आते हैं...आज इन की यादों को सहेज कर इस ब्लॉग रूपी संदूकची में सहेजने की कोशिश करता हूं...

1970 का दशक - 1975-76 के आस पास मैं सातवीं आठवीं कक्षा में जब पढ़ता था तो हमारे स्कूल में भी कुंजीयों का अच्छा खासा चलन था। लेकिन इन कुंजीयों का इस्तेमाल बड़ी खराब बात समझी जाती थी...अच्छा, कुंजीयों का चिट्ठा खोलने से पहले एक याद आप से साझा कर लूं...मैं पांचवी-छठी कक्षा में था, गर्मी की छुट्टियां 45-50 दिनों की होती थीं...खूब सारा होम-वर्क मिलता था...एक तो होता था, हर रोज़ हिंदी, पंजाबी और इंगलिश की कापी में सुलेख लिखना है ...और गणित के खूब सारे सवाल भी हल करने होते थे। 

तो पहले सरकारी पाठ्य पुस्तकों में होता यह था कि किसी भी विषय, चेप्टर के सवाल की एक दो उदाहरणें हल कर के हमें उस में इस्तेमाल किए गए फार्मूले के बारे में समझा दिया जाता था, क्लास में भी ऐसा ही होता था, और फिर हमारे मास्टर हमें कह देते कि अब तुम लोगों ने उस चेप्टर के पीछे दिए गए सवाल हल करने हैं...अब उन में दिमाग लगता था...क्योंकि सोच, समझ के यह काम करना पड़ता था..कईं बार कोई सवाल का हल नहीं भी निकलता था, जिसे हम लोग अगले अपने मास्साब को बताते और वह उसे ब्लैक-बोर्ड पर सॉल्व कर देते और हमें फिर वह फार्मूला अच्छे से याद भी हो जाता...

और ग्रीष्म अवकाश का होम-वर्क भी ऐसी तादाद में हमें थमाया जाता कि हर रोज़ आठ-दस सवाल सॉल्व करते तो ही काम पूरा हो पाता....और हां, यह काम करना इसलिए भी ज़रूरी था कि जो छुट्टियों का काम पूरा कर के नहीं जाते थे, उन की ठुकाई होनी या नहीं होनी, यह मास्साब के मूड पर मुनस्सर था...कईं बार वे स्कूल खुलने के बाद भी दो-तीन का वक्त दे दिया करते थे ..कि अपना अपना काम कर लो पूरा...लेकिन होम-वर्क पूरा न कर के ले जाना...बड़ा बेइज़्ज़त होने वाला काम था, बड़ी किट किट थी ...इतने सारे सब्जेक्ट्स के टीचर्ज़ का मुंह देख कर उन के मूड का जायज़ा ही लगाते रहो ...

हां, तो मैं याद कर रहा था ऐसी ही एक गर्मी की छुट्टियों के शुरूआती दिनों को ...पांचवी-छठी के दिन थे...मुझे हमारे पड़ोस में रहने वाली एक लड़की ने आइडिया दिया कि गणित की कुंजी ले ले मेरे से ...और दो तीन दिन में काम खत्म कर , फिर खेला करेंगे। कुंजी में सभी सवाल सॉल्व किए हुए दिए होते थे...मैंने उस की बात मान ली ...और अगले दो तीन दिन में गणित के काम वाला कांटा निकाल कर लगा हुडदंग मचाने ...लेकिन मेरी बड़ी बहन की मेरी पढ़ाई पर पूरी नज़र रहती थीं...एक दिन उन्होंने पूछा और मैंने बता दिया कि मैंने तो आसान रास्ता निकाल लिया है ..और पड़ोस से मिली कुंजी के बारे में बता दिया...उन्होंने मुझे कहा तुम इसी वक्त कापी ले कर आओ...मैंने कापी हाज़िर कर दी ....उन्होंने उसी वक्त उस को पूरी तरह से फाड़ दिया ....और कहा कि चुपचाप कल से क़ायदे से होमवर्क करो....दिमाग लगा कर गणित के सवाल हल करो...कुंजी जहां से आई थी, उन्हें भी प्यार से समझा दिया कि यह सब मत किया करो ....आज सोचता हूं कि उस दिन बहन ने उस कापी को फाड़ कर बहुत अच्छा काम किया ...बड़ी बहनें होती ही ऐसी हैं....अब मां नहीं हैं, तो मुझे वह छोटी मां ही लगती हैं.....तीन चार साल पहले मां बहुत बीमार थीं तो मैं मां के पास ही बैठा रहता, बिल्कुल मुझे लगने लगता उन दिनों जैसे वह मेरी बेटी हैं ... 

और एक बात कुंजीयों की करनी है कि गणित के अलावा भी दूसरे विषयों के लिए भी ये आती थीं...उसमें क्या होता था, वही पंगा होता था कि अगर कोई छात्र उन्हें पढ़ कर पेपर दे आयेगा..नंबर तो शायद ले भी लेगा, नंबर अगर न भी आए तो शायद पास हो ही जाएगा,  ..लेकिन बात उस की समझ में आयेगी नहीं। और हां, इन कुंजियों एवं गाईड्स का भरपूर इस्तेमाल एग्ज़ाम-सेंटर के बाहर खड़े पेपर दिलाने आए या नकल करवाने आए कुछ प्रोफैशनल किस्म के करिंदों द्वारा खूब किया जाता था...अकसर हम देखते थे कि जो सब्जेट का किसी दिन पेपर होता उस की कुंजी या गाइड को इन नकल करवाने वाले अपने पास रखते। और फिर स्टॉफ के अंदर वाले स्टॉफ, पेपर देनेे वालों को पानी पिलाने वालों की सांठ-गांठ से उस किताब में से पर्चियां फाड़ फाड़ कर भिजवा रहते थे...

मुझे कभी इस तरह की नकल के लिए पर्चियां हासिल हुईं? नहीं, नहीं ....इन चक्करों से मुझे बहुत ज़्यादा डर लगता था ...और वैसे भी हमेशा से ही यह लगता रहा कि हम लोग तेज़ तेज़ लिख कर भी पेपर पूरा नहीं लिख पाते...ऐसे में पर्चियों से लिख कर पेपर पूरा करना तो नामुमकिन ही होता होगा...और जिस हम अकसर देखते कि जिस अफरा-तफरी में बाहर खड़े शुभचिंतक अंदर पर्चियां पहुंचाते और जिस खौफ़ के साये में अंदर बैठा बंदा उन को हु-ब-हू अपनी उत्तर-पुस्तिका पर छाप रहा होता...उस से तो बस शायद पास ही हुआ जा सकता था। 

अच्छा, तो यह गाईड्स क्या होती हैं.....ये भी कुंजीयों जैसी ही होती हैं...शायद कुछ इज़्ज़तदार नाम रखने के लिए इन्हें गाइड कहा जाने लगा था...लिखते लिखते कुछ बातें कैसे याद आने लगती हैं...मुझे याद आ रहा है कि हमारी आठवीं-नवीं-दसवीं कक्षा के दिनों में एमबीडी और कोहेनूर नाम से गाइडें बिका करती थीं...एमबीडी की गाइडें बहुत पापुलर हुआ करती थीं...मल्होत्रा बुक डिपो याने एमबीडी ...मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी के लिए ये गाइडें खरीदना पड़ती थीं...बाकी तो मैं शुरू ही से क्लास में अच्छे से पढ़ता था, रोज़ाना पढ़ता भी था और नोट्स भी बनाता था...लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी की किताबों की तरफ़ देखने से भी मुझे चिढ़ थी...ये नक्शे वक्शे मेरे लिए बिल्कुल काला अक्षर भैंस बराबर हुआ करते थे...कभी भी इन्हें पढ़ना रूचिकर न लगा...दिक्कत यह थी कि हिस्ट्री-ज्योग्राफी की गाइड़ों को भी पढ़ने की इच्छा न होती थी...न ही मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी पढ़ कर मुझे कुछ याद ही रहता था...हमारा मास्टर को भी हमें मुक्के, थप्पड़ मारने में ज़्यादा दिलचस्पी हुआ करती थी....इसलिए हम सब सहमे रहते उस के पीरियड में ...थप्पड़ भी ऐसा जड़ता था कि सिर घूम जाता था...पर मैं कुछ सालों बाद सोचता था उस के बारे में कि उस की अपनी परेशानियां थीं....उस के बारे में कुछ भी न लिखना चाहूंगा...पर था बड़ा विलेन टाइप....

अब चलते हैं टेन-एयर पेपर्ज़ की ओर....हमें एग्ज़ाम से तीन चार महीने पहले हमारे मास्साब भी कह दिया करते थे कि पिछले दस सालों के पेपर भी देखा करो...हर साल के दो पेपर होते थे ..वार्षिक एवं सप्लीमेंटरी ...अच्छा, जहां तक मुझे इस वक्त ख्याल आ रहा है कि ये टेन-एयर पेपर्ज़ अलग अलग विषयों के भी मिलते थे ..लेकिन एक बड़ी सी किताब भी मिलती थीं जिन में सभी विषयों के पिछले दस सालों के बोर्ड के पेपरों के परचे मिल जाया करते थे...उन्हें हम ज़रूर खरीद लिया करते थे..लेकिन ना जाने क्यूं उन्हें बार बार पढ़ना भी बोरिंग सा काम लगता था मुझे तो...फिर भी, देख तो लेते ही थे। 

और हां, एक बात और याद आ गई कि एग्ज़ाम के कुछ हफ्तों या कुछ दिनों पहले बोर्ड के पेपरों के गेस-पेपर्ज़ भी बाज़ार में मिलने शुरू हो जाते थे...एक दम रद्दी गेस हुआ करता था...मुझे तो नहीं याद कि कभी बोर्ड के किसी पेपर को देख कर लगा हो कि यह फलां फलां गेस-पेपर में भी दिया गया था। जहां तक मुझे याद है कि मैं कभी इन गेस-पेपरों वेपरों के चक्कर पड़ा नहीं, ज़रूरत ही न महसूस हुई. कभी क्योंकि हिस्ट्री-ज्योग्राफी को छोड़ कर सब कुछ अच्छे से पढ़ा ही होता था...

अभी एक बात गाइडों के बारे में लिखनी यह भी ज़रूरी है कि जैसे जैसे विभिन्न विषयों की गाइड़ों छात्रों की ज़िंदगी में आना शुरू हुईं...उत्तर लिखने के लिए मौलिकता (ओरिजिनेलेटी) ख़त्म होती चली गई...वही रटी-रटाई बात पेपर में लिखो और अपना रस्ता नापो। 

हां, गेस पेपरों की बात करते करते यह ख़्याल भी आ गया कि बोर्ड के एग्ज़ाम से पहले हमें लगभग एक महीने की लिए पेपर की तैयारी के लिए छुट्टियां मिलती थीं....उसे कहते थे प्रेपरेटरी होलीडेज़- उन दिनों हिंदी और इंगलिश के पेपरों में बोर्ड ेके पेपरों के गेस-पेपर्ज़ छपा करते थे ...मुझे याद है हम उन्हें ऐसे ही कभी कभी देख लिया करते थे ...कभी उन्हें भी इतनी गंभीरता से नहीं लिया...

एक बात और कहीं लिखना भूल न जाऊं....एग्ज़ाम के दो तीन पहले एक छोटी सी गाइड कह लें, कुंजी कह लें या कुछ कह लें, अलग अलग विषयों की आ जाया करती थी, जो छात्र 360 दिन अच्छे से नहीं पढ़ पाए ...उन्हें पढ़ने का आखिरी चांस देने के लिए...इन्हें तैयार तो बड़े क्रिएटिव तरीके से जाता था. लेकिन अकसर परचे के दिन (हमारे दौर में एग्ज़ाम को परचा भी कह देते थे...जैसे पापा पूछते थे-- कल किस का परचा है, मतलब किस विषय का एग्ज़ाम है) ....ही इन की किस्मत खुलती थी, क्योंकि पेपर करवाने (या नकल करवाने) आए बाहर खड़े लड़कों के हाथ में यही मिनी-गाइडें ही हुआ करती थीं...जिसमें से कागज़ फाड़ फाड़ कर वे अंदर अपने दोस्त तक पहुंचाया करते थे। 

नकल का काम बड़ी स्टिंकिग था तब भी ....कभी कभी परीक्षा-हाल की खिड़कियों के रास्ते से माल पहुंचाया दिया जाता, कभी किसी पत्थऱ के ऊपर लपेट कर (यह मैंने बहुत कम ही देखा) , कभी किसी पेपर देने वाले उस वक्त उस की सर्वाइवल किट पहुंचा दी जाती जब वह वॉश-रूम का बहाना बना कर दो मिनट के लिए बाहर हो कर आता...और कईं बार तो अपने इर्द-गिर्द जब हम देखते कि किसी छात्र ने बीस-तीस पेज़ का पर्चियों का पुलिंदा पकड़ा हुआ है जो उसे पानी पिलाने ने अभी अभी थमा दिया है...और वह उसमें से अपने काम की चीज़ बड़ी झुंझलाहट के साथ ढूंढ रहा है.. क्योंकि उसे सवाल ही समझ में नहीं आ रहा, तो जवाब वह कहां से ढूंढे....फिर वह पानी पिलाने वाले को गुस्से से कहता ...कभी कभी बाहर खड़े दोस्त के लिए अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल करता कि उसे कहो यह क्या भेज दिया है, वह अच्छे से पढ़ कर भेजे....बहुत बार इस तरह की पर्चियों को वापिस बाहर एक्सपोर्ट करने की जिम्मेदारी भी इन पानी पिलाने वाले चपरासियों की ही होती..जिस के लिए इन्हें कुछ मेहनताना दिया जाता था...और कईं बार जब स्कूल का कोई बड़ा खिलाड़ी परचा लिख रहा होता तो यह काम स्कूल के पी.टी मास्टर को भी करते हम ने देखा...लेकिन वे पूरे आत्मविश्वास से यह काम कर जाया करते.......और दूसरे छात्रों की तरफ़ देखते तक नहीं थे...

पर्चियां मैं भी बनाया करता था, कभी कभी छोटी छोटी ...दो चार बार याद है..लेकिन डरपोक इतना कि अगर किसी ने पकड़ लिया तो बड़ी बदनामी हो जाएगी कि स्कूल के एग्ज़ाम में तो टॉप करता है, लेकिन यहां बोर्ड में परची चलाता है, वहां भी परची ही चलाता होगा, और दूसरा यह कि अगर स्कूल ने निकाल दिया या बोर्ड ने दो चार साल के लिए बाहर कर दिया तो क्या होगा...बस, यही सोच कर उन पर्चियों को इस्तेमाल नहीं किया....कईं बार तो पेपर से पहले मैं वॉश-रूम की टंकी के पास छिपा कर आता कि बीच में आकर थोड़ा देख लूंगा लेकिन एग्ज़ाम में बैठे वक्त यह सोच कर ही दिल धड़कने लगता कि अब उन को जा कर निकाल कर देखूंगा...नहीं, नहीं यह न होगा...एक बार यह काम किया भी ..लेकिन एक मिनट में उन को पढ़ कर कोई क्या पहाड़ खोद लेगा...पहले से ही पढ़ा हुआ ही काम आता है हमेशा। मेरे मामा का बेटा मेरी नानी के पास रहता था अंबाला में....पेपर से पहले वाली रात को ऐसी ही एक गाइड लाता, पर्चियां तैयार करता और हमें बताता कि वह अच्छे से यूज़ भी कर लेता है ...एक तरह से सारी गाइड ही साथ लेकर चलता ...और वह जब छोटा भी था तो अपनी निक्कर के अंदर अपनी जांघों पर लिख कर ले जाता...नानी उसे बहुत कहा करती ....वे पप्पूआ, न करया कर एह कम्म, पढ़ लिया कर... (पपू, यह काम मत किया करो, इस से अच्छा तो पढ़ ही लिया करो)....और नानी को डर इस लिए भी लगता होगा कि नाना जी अम्बाला के जाने माने गणित और इंगलिश के टीचर और पोता यह सब काम करने में मशगूल ...पपू ने जैसे तैसे बीए तो कर ली ....लेकिन वह उस के काम न आई..

बात बहुत लंबी हो गई है, मैं भी लिखते लिखते बोर होने लगा हूं.....सौ बात की एक बात ......अच्छे से पढ़ने-लिखने का कोई विकल्प न ही था, न ही है और न ही होगा...अगर नहीं पढ़ेंगे तो उस विषय में ता-उम्र कमज़ोर ही रहेंगे....जैसे मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी बिल्कुल नहीं पता ...इसलिए जहां भी देश-दुनिया की बातें चलती है तो मैं उन लोगों के बीच में बैठा बिल्कुल अपने आप को अनपढ़ महसूस करता हूं ..और यह बात मैं बढ़ा-चढ़ा कर नहीं लिख रहा हूं...ऐसा ही होता है आजकल मेरे साथ...जो कुछ अच्छे से पढ़ा है, वही काम आ रहा है...बाकी, जिस बात में फिसड्डी रह गया, अब भी वैसा ही हूं...लेकिन मुझे इस का कोई गम भी नहीं है, बहुत कुछ देखा है, महसूस किया है, जिया है, हंडाया है...किसी चीज़ की अब तमन्ना रह नहीं गई...

लेकिन एक बात है कि ये बातें तो मैंने लिख डालीं एग्ज़ाम की ...पेपरों की, परचों की .....हम सब कहीं न कहीं एग्ज़ाम से डरते तो थे...लेकिन यह भी ध्यान आ रहा है कि आजकल तो बच्चों के लिए काउंसलर होते हैं, साइकोलॉजिस्ट होते हैं...अपने लिए सब कुछ अपने पेरेन्ट्स ही हुआ करते थे...बीजी और पापा ने कभी भी किसी तरह का एग्ज़ाम का प्रेशर फील नहीं होने दिया...कभी भी नहीं...हर एग्ज़ाम से पहले मेरी टेंशन देख कर दोनों यही कहते ....कोई बात नहीं, जो आता है, वही लिख कर आ जाओ। यही बात जो हमें विरसे में मिली हम ने अपने बच्चों को दी ...हमेशा उन्हें यही कहा कि ज़िंदगी में तो हर दिन एग्ज़ाम है ....इसलिए मस्त रहो और जो काम कर रहे हो, उसे अच्छे से करते रहो...

आनंद बक्शी के बेटे को यह भेजा था कुछ दिन पहले....मैं बक्खी साब के सभी लिरिक्स का बहुत बड़ा फैन जो हूं...

PS... आज सुबह सुबह इतना लंबा लिखने बैठ गया, क्योंकि बाहर कहीं जाना नहीं है, दायां घुटना फिर से कह रहा है, चुपचाप टिके रहो खटिया पर ही, अपनी उम्र का ख़्याल रख करो..इसलिए दो तीन दिन से बाहर निकलना बिल्कुल बंद है, चलने में बहुत दर्द है, कुछ दिन आराम करने से, दवाई लेने से, एक्सरसाईज़ करने से राहत मिल जाएगी...कुछ महीने पहले भी हुआ था...अब उम्र के साथ यह तो लगा ही रहेगा....65 की उम्र तक पहुंचते पहुंचते तो घुटनों की तो बिल्कुल ही ऐसी की तैसी हो जाएगी....मुझे ऐसा लगता है सच में और डर भी लगता है। लेकिन जो है, सो है। जब अपनी उम्र के किसी बंदे के घुटनों की परेशानी के बारे में सुना करता था तो कभी न सोचता था कि हमारा भी यही हश्र होने वाला है ...