यादें टेलीग्राम वाले दिनों की ....
अभी मैं अपने डाक्टर साथियों के ग्रुप में टाइम्स ऑफ इंडिया में आज छपी कुछ ख़बरें शेयर कर रहा था..कुछ काम करते हुए मज़ा सा आता है...बस, ऐसा नहीं है कि वे साथी अख़बार नहीं पढ़ते या उन्हें इस के बारे में पता न होगा..होगा, ज़रूर होगा..लेकिन यह जो मैंने कहा न ऐसी बातें शेयर करना एक ज़िम्मेदारी सी लगती है कभी कभी मुझे ...इस की भी कहानी है...सातवीं क्लास से लेकर शायद नवीं-दसवीं क्लास तक मुझे स्कूल में एक ड्यूटी मिली हुई थी...लाईब्रेरी पीरियड में सुबह सुबह लाइब्रेरी में जाना है ...पांच सात ख़बरों के हैडिंग चुनने हैं जिन्हें स्कूल के प्लेग्राउंड के सामने वाले एक ब्लैकबोर्ड पर लिखना होता था मुझे गीले चाक ...मुझे बडा़ अच्छा लगता था जब रिसेस के दौरान स्कूल के बहुत से साथी उन ब्लैक-बोर्डों के आस पास खड़े उन ख़बरों को पढ़ते थे...मुझे कहीं न कहीं मन में इस बात का कुछ तो फ़ख्र भी होता ही था कि यार, जो मैं चाहूं ...जिन ख़बरों को मैं चुनूं, साथी उन को ही पढ़ते हैं...दसवीं तक पहुंचते पहुंचते तो मुझे स्कूल के मैगज़ीन का स्टूडेंट एडिटर बना दिया गया था...अब वह बॉसी वाली बासी फीलिंग नहीं है, अब तो यह है कि काम की चीज़ें हैं वे हरेक तक पहुंचें ..कोई बात नहीं, पहले अगर पहुंच भी चुकी हैं तो रिमांइडर ही सही...वह भी तो ज़रूरी है...
ऐसी काम की चीज़ों की बात करते हैं तो मुझे मेरे ताऊ जी की चिट्ठीयां याद आ जाती हैं... दो एक बार वे एन्वेल्प में मुझे यही बंबई टाइम्स आफ इंडिया की दांतों से जुड़ी कोई आर्टिकल भेज देते थे ..वे यहीं खार में रहते थे...यह 1982-83 की बातें हैं, जब मैं बीडीएस कर रहा था..लेकिन मैं उन्हें अच्छे से पढ़ कर संभाल कर रखता था...मुझे अच्छा भी लगता था।
ख़तो-किताबत के लिए कबूतरों का इस्तेमाल होता था....हमने सुना ही है ...लेकिन डाक के ज़रिए आने वाली चिट्ठीयों का दौर तो हम ने देखा है....तारें- टेलीग्राम आती देखी हैं...जिन में होता था कोई जश्न का पैगाम या रोने-धोने की ख़बर....हमने यह सब देखा...याद है हमें ....किस तरह से डाकिया जब टेलीग्राम की आवाज़ ही देता था तो जैसे सारे कुनबे की जान ही निकल जाती थी...अच्छा, एक बात और....जो भी जाता, कांपते हाथों से साइन करता करता पूछता डाकिये से कि क्या है इसमें....अब मुमकिन हो सकता है डाकिये को पता भी न होता हो कि खबर अच्छी है या बुरी ...लेकिन अगर कोई पढ़ने को कहता तो वह पढ़ भी देता। हां, मुझे याद है जब तक डाकिये की आवाज़ से लेकर डाकिये से टेलीग्राम हासिल कर के घर के किसी पढ़े-लिखे सदस्य को वह टेलीग्राम थमा न दी जाती और वह उसे खोल कर पढ़ न लेता, घर के सारे लोगों के चेहरों की हवाईयां उड़ी रहतीं...और दिल धक धक ऐसे किया करता हम बच्चों का भी, जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा। कोई बे-फिज़ूल की तारें वारें भी देने भेजने लगे थे ....उन दिनों ...जन्मदिन की, बधाई की ...और भी ...और उन के चार्जेज फिक्स हुआ करते थे ...यही कोई साढ़े तीन रूपये ...लेकिन इस तरह की तार जब मिलती तो घर में खुशी से कहीं ज़्यादा उसे खोल कर राहत ज़रूर मिलती......बीजी तो अकसर कह ही देतीं.....सच्ची, तार सुन के ही जान निकल जांदी ए...(सच में तार का नाम सुन कर जैसे जान ही निकल जाती है...) ...
जब मैं इस पोस्ट को लिखने बैठा था तो मेरे मन में कुछ और चल रहा था, लेकिन लिखते हुए इन तारों के तार ऐसे जुड़ने लगे कि लगता है आज इन के बारे में ही बातें कर लूं...बाकी की फिर कभी कर लेंगे ...
तारें ख़ुशी-गमी की तो आती ही थीं, अगर कहीं आप का दाखिला हो गया है तो भी तार ही आती थी....मुझे याद है 1985 में जब मेरा एमडीएस में एडमिशन हुआ...तब मेरिट लिस्ट के आधार पर ही होता था...तो मुझे भी तार ही मिली थी। ऐसे ही जब कहीं नौकरी लगती थी तो उस की भी ख़बर बुहत बार टेलीग्राम से भी आती थी और हां, इंटरव्यू का बुलावा भी तो कईं बार टेलीग्राम से ही आया करता था। और सरकारी मुलाज़िम अगर घर गया है तो उसे किसी कारण अपनी छु्ट्टी बढ़वानी है तो भी तार भी भिजवा देता था ...और वह भी एक्सप्रेस तार। और कईं बार तो ऐसा भी सुना कि कुछ सरकारी मुलाज़िम ( फ़ौजी, पैरामिलिट्री फोर्स ेके लोग भी कभी कभी ...इसे स्टेटमेंट के तौर पर मत लें...लेकिन होता रहा है ऐसा भी ...सही गलत की बात नहीं कर रहा हूं, जो देखा-सुना, उसे दर्ज कर रहा हूं..हरेक की अपनी मजबूरियां भी होती हैं...) अपने घर वालों को कह कर किसी के बीमार होने की टेलीग्राम ख़ुद को भिजवाने की ताक़ीद करते और वह तार मिलने पर अकसर उन को छुट्टी मिल भी जाया करती।
मैं अभी सोच रहा था कि स्कूल की पढ़ाई में एक काम होता था प्रैसी लिखने का ... Precise writing--- किसी एक पैराग्राफ को छोटा कर के लिखना ..और एक तिहाई शब्दों में ...यह अंग्रेज़ी का एक प्रश्न भी होता था...शर्त यही होती थी कि सारी बात कह भी दी जाए लेकिन एक तिहाई जगह में...जब कभी तार देने टैलीग्राम ऑफिस जाते थे तो जैसे वह अपना प्रैसी लिखने का एक छोटा-मोटा परचा ही हुआ करता था...हाथ में होते तो थे, 10-15 रूपये ज़रूर लेकिन मेरी कोशिश यही रहती थी कि यार, यह काम अगर साढ़े तीन रूपये से ज़्यादा होता है तो इस का मतलब हम ने इंगलिश ठीक से पढ़ी ही नहीं...
लीजिए, हम ने टैलीग्राम का फार्म भर कर बाबू को दे दिया...उसने कंटैंट के अल्फ़ाज़ गिने और हमें बता दिया - साढ़े पांच रूपये दीजिए...हमने उसे फार्म लौटाने को कहा और उस में से दो चार लफ़ज़ या तो उस एड्रेस से कांट-छांट दिए या अपना लिखे की ही कुछ छंटनी कर दी....फिर उसने बताया कि हां, चार रूपये दीजिए...हम उस डेढ़ रूपये को बचा कर बहुत खुश होते...और वह रसीद काटने से पहले यह भी ज़रूर पूछता कि आर्डेनरी भिजवानी है या एक्सप्रेस....एक्सप्रेस का रेट डबल होता था...हमने तो हमेशा आर्डनही तारें ही भिजवाईं हैं...हमें यह फ़िज़ूलखर्ची भी लगती थी, पैसे भी चाहे होते थे लेकिन इन कामों के लिए नहीं होते थे...हमें हमेशा यही लगता था कि तार तो तार है, उस में क्या आर्डेनरी और क्या एक्सप्रेस ...एक ही मशीन से भिजवा रहे हैं....लेकिन यह तो थी मज़ाक की बात ...हमने देखा फ़र्क कुछ तो होता था ...वह यह कि तार बाबू अपनी मशीन पर टिकटिक कर जब तार भिजवा रहा होता तो उस के पास तारों के फार्म का पुलिंदा लगा रहता ...और जो तारें एक्सप्रेस बुक होतीं उन्हें वह पहले टिक-टिक कर के आगे भिजवा देता था ...अब यह मुझे नहीं पता, न ही किसी से कभी पता ही चला कि पहुंचने वाली जगह पर क्या एक्सप्रेस तार को किसी के घर पहुंचाने के लिए हर वक्त कोई डाकिया साईकिल की गद्दी पर बैठ कर हर वक्त तैयार रहता था या नहीं...
लिखते लिखते एक बात यह भी याद आ गई कि पहले लोग किसी को कोई गलत-शलट चिट्ठी तो लिख ही देते थे....कमबख्त इतने भोले थे कि यह भी नहीं समझते थे कि लिखावट से तो पकड़े जाएंगे...जैसे मुझे याद है मैं पांच सात का रहा हूंगा ..हमारे घर में एक पोस्टकार्ड आया जिस पर रंग भी लगा हुआ था ...वह भी कुछ कलर-कोडिंग तो हुआ ही करती थी उस दौर में... किसी की मृत्यु की खबर लिखी थी उसमें...दो चार मिनट की छानबीन हुई , शक हुआ तो उस पर लगी स्टैंप का पोस्टमार्टम हुआ...बड़ी बहन ने लिखावट का विश्लेषण किया तो पड़ोस में रहने वाले मुंशीए के किसी बच्चे की यह कारस्तानी थी...(मुंशी लाल तो उस बंदे का नाम था, लेकिन जैसे तब रिवाज़ था, मुंशीआ, मुंशीए, मुंशीए दी वोटी, मुंशीए दी कुड़ी..)....नहीं, कोई लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ, किसी को जब पता चल जाए कि उस की करतूत सामने आ गई है तो वह भी एक सज़ा ही होती है...मोहल्ले में नाम तो खराब हो ही जाता है..! इसी तरह लोग तारें भी किसी दूसरे के नाम से भिजवा दिया करते थे...
मुझे याद है इन तारों वारों में उलझते, बचते बचाते हम लोग कब 1990 के दशक तक पहुंच गए ...पता ही नहीं चला...लेकिन यह याद है मुझे जब 1992 जनवरी में रेलवे स्टॉफ कालेज से ख़बर मिली कि आप को मैडीकल इंडक्शन में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पदक लेने के बडो़दा आना है, मुझे बहुत खुशी हुई....इतनी खुशी हुई कि मैं बाम्बे सेंट्रल से ग्रांट रोड स्टेशन के पास ही स्थित एक टेलीग्राम आफिस चला गया शाम के वक्त अपने घर इस खबर को तार के ज़रिए भिजवाने के लिए....और उस दिन मेैने दिल खोल कर मैटर लिखा था....शब्दों की परवाह किए बिना ...😎और शायद उसी साल जब हम एक शादी में चंडीगढ़ गये हुए थे तो वहां मेरे बेटे ने कुछ ऐसा खा लिया कि उस के गले के अंदर सूजन सी हृो गई..पीजीआई में दाखिल किया गया उसे .. यही एक सवा साल का ही था तब वह ...वहां से छुट्टी बढ़ाने के लिए तार भिजवाई थी...
यही तीस साल से तार भिजवाने का या कहीं से हासिल करने का कोई अनुभव नहीं है ...वैसे तो बीस साल ही कहना चाहिए...क्योंकि 2012 या 2013 की बात है जब मीडिया में यह एक तारीख अनाउँस हो गई कि इस दिन से डाक तार विभाग तार विभाग पर ताला लगाने जा रहा था ...याद है मैं और मेरा छोटा बेटा उसदिन से एक दिन पहले शायद लखनऊ के बडे़ डाकखाने में गए...मैं तो अपनी याद ताज़ा करने के लिए ..और छोटू यह देखने के लिए कि यह तार-वार होते क्या हैं....और हमने बंगलौर में रहते बेटे को एक टेलीग्राम भिजवाई ......उसने वह संभाल कर रखी है ...लेकिन उसमें वह पहले दौर वाला चार्म गायब था, सब कुछ टाइप किया हुआ था..पहले तो लंबी लंबी पट्टियों पर जैसे कुछ प्रिंट हुआ रहता था जिन्हें तार विभाग वाले काट कर कागज़ पर चिपका कर सही पते पर भिजवा दिया करते थे...
मैंने ऊपर लिखा न कि कुछ स्टैंडर्ड बीस-तीस संदेश हुआ करते थे जिन्हेंभकंशेशनल रेट पर भिजवा दिया जाता था ...जैसे खुशी, गमी, किसी के पास होने की बधाई, शादी का लड्डू खाने की बधाई...कुछ भी ...बस, बाबू को यही बताना पड़ता बड़े ख्याल से कि पंद्रह नंबर मैसेज भिजवाना है ...
और एक बात ...जहां पर आप कोई ख़त अगर भेज रहे हैं तो अगर आप चाह रहे हैं कि आप की लिखी बात पर फ़ौरन काम हो जाए...जिसे चिट्ठी भिजवायी है, वह तुरंत घऱ लौट आए, कुछ पैसे भिजवा दे, कोई और काम कर दे जो उसे करना है तो कुछ लोग ख़त के नीचे यह लाइन ज़रूर लिखवा दिया करते थे कि इस ख़त को तार समझ कर इसे पढ़ते ही घर आ जाओ, पिता जी की तबीयत ठीक नहीं चल रही। उस एक मशहूर गीत में एक लाइन भी तो है ...मेरी मजबूरी समझो...कागज़ को तार....
और एक बात, टेलीग्राम आफिस में कुछ लोग ऐसे भी हमेशा होते थे जो तार तो देने आ गये होते...लेकिन उन्हें फार्म भरना न आता....लेकिन वहां खड़े हम आखिर किस मर्ज़ की बीमारी थे अगर हम इतना सा काम न कर पाते....हम खुशी खुशी उन का काम पूरे दिल के साथ करते ...अपनी प्रैसी लिखने की कला को मांजने का ऐसा मौका हम कैसे जाने देते...😎😎...रिटायरमेंटी के बाद जो लोग डाकखाने और बैंक में जाकर लोगों की तरह तरह से लिखने-पढ़ने के कामों में निष्काम सेवा करते हैं, मुझे वे बहुत भले लगते हैं..
पत्राचार का वो जमाना हमने देखा और तार का महत्वपूर्ण आदान प्रदान भी। हम भाग्यशाली हैं। मैने अपने विवाह से पूर्व गली मोहल्ले की कई बुआ बहनों को उनके आत्मीय जनों की ओर से खूब पत्र लिखे। अब हूक सी उठती है वो सब याद करके। सुन्दरलेख और इतना प्यारा गीत। शुक्रिया डॉक्टर प्रवीन 🙏🙏
जवाब देंहटाएंवाह सर बहुत सुंदर। मुझे एक वाकया याद आ गया। मैं जी एम ऑफिस मुंबई वीटी में तैनात था। उस समय हिंदी ग्राउंड फ्लोर पर था और लोकल प्लैटफॉर्म से अंदर आते जाते थे। एक बार सेक्शन से निकल कर बरामदे आया तो मशहूर फिल्म अभिनेता नाजिर हुसैन साहब लोकल प्लैटफॉर्म की ओर जा रहे थे। मैं उनके पीछे पीछे चला। मुझे पीछे आता देख कर उन्होंने चाल बढ़ा दी तो मैंने भी बढ़ा दी। वे प्लैटफॉर्म नं १२-१३ के सामने की बिल्डिंग में बने तार काउंटर पर खड़े हो गए। मैंने उनके पास पहुँच कर उनसे नमस्ते की। उन्होंने तार फार्म मेरी ओर बढ़ा दिया और बोले इस फार्म को भर दीजिए, मुझे अंग्रेजी नहीं आती। मैंने बड़े मनोयोग से फार्म भर दिया। मन में खुशी थी कि मैं उनके कुछ काम आ सका। उस समय यानी 1982-83 में सेल्फी लेने की सुविधा नहीं थी न।
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